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मो.मा.
प्रकाश
| पुद्गल तिनका बंधान होना मानिए है तैसें इंद्रियगम्य होने योग्य नाहीं ऐसा अमूर्तीक |
आत्मा अर इंद्रियगम्य होने योग्य मूर्तीककर्म इनिका भी बंधान होना मानना। बहुरि इस बंधानविषै कोऊ किसीकों करै तौ है नाहीं । यावत् बंधान रहै तावत् साथि रहै बिछुरै नाहीं अर कारणकार्यपना तिनिकै बन्या रहै इतना ही यहां बंधान जानना । सो मूर्तीक अमूर्तीककै ऐसें बंधान होनेविर्षे किछू विरोध है नाहीं। या प्रकार जैसें एक जीवकै अनादिकर्मसम्बन्ध कह्या तैसें ही जुदा-जुदा अनन्त जीवनिकै जानना । बहुरि सो कर्म ज्ञानावरणादि भेदनिकरि आठ प्रकार है तहां च्यारि घातियाकर्मनिके निमित्ततें तो जीवके स्वभावका घात हो है। तहां ज्ञानावरण दर्शनावरणकरि तौ जीवके स्वभाव दर्शन ज्ञान तिनिकी व्यक्तता नाहीं हो है। तिनि कर्मनिका क्षयोपशमके अनुसारि किंचित् ज्ञान दर्शनकी व्यक्तता रहै है। बहुरि मोहनीयकरि जीवके स्वभाव नाहीं ऐसे मिथ्याश्रद्धान वा क्रोध मान माया लोभादिक कषाय || तिनिकी व्यक्तता हो हैं । बहुरि अंतरायकरि जीवका खभाव दीक्षा लेनेकी समर्थतारूप वीर्य || साकी व्यक्तता न हो है ताका क्षयोपशमकै अनुसार किंचित् शक्ति रहै है ऐसा घातिकर्मनिके निमित्ततै जीवके स्वभावका घात ‘अनादिहीतै भया है ऐसें नाहीं जो पहले तो स्वभावरूप शुद्ध आत्मा था पीछे कर्मनिमित्तते खभाव घातकरि अशुद्ध भया । इहां तर्क,—जो घात नाम तौ अभावका है सो जाका पहलै सद्भाव होय ताका अभाव कहना बनैं इहां खभावका