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भूमिका
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(१) रत्नकरण्ड श्रावकाचार - समंतभद्राचार्य कृ । (२) श्रावकाचार — अमितगति कृत । (३) पद्मनंदी पंचविंशतिका पद्मनंदि कृत ।
(8) अर्थप्रकाशिका - पं० सदासुखजी कृत । (५) सर्वार्थसिद्धि — पूज्यपाद आचार्य कृत ।
(६) गोमटसार जीवकांड कर्मकांड - नेमिचन्द्र सि• चक्रवर्तीकृत (७) परमात्माप्रकाश —– योगेन्द्राचार्य कृत ।
(८) ज्ञानार्णव - शुभचन्द्राचार्य कृत ।
(९) पंचास्तिकाय - कुंदकुंदाचार्य कृत ।
(१०) प्रवचनसार - कुन्दकुन्दाचार्य कृत ।
(११) समयसार (१२) नियमसार
सागर आश्विन सुदी १०
वीर सं० २४५८ ता. ९-१०-१९३२
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(१३) मूळाचार —ट्टकेर स्वामी कृत ।
(१४) स्वामी कार्तिकेयानुपेक्षा — मुनि कार्तिकेय कृ | (११) राजवार्तिक— कलंकदेव याचार्य कृत ।
(१६) समाधिशतक — पूज्यपाद नाचार्य कृत । (१७) इष्टोपदेश
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धर्मका वास्तविक स्वरूप रत्नत्रय धर्म है । निश्वय रत्नत्रय अपने ही शुद्धात्माका सम्यक् श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान व सम्यकू माचरण या आत्मानुभव है। इसीका साधक परम्परा निमित्त व्यवहार रत्नत्रय है। जिसमें जीवादि सात तत्वोंका ज्ञान प्रदान जरूरी है । व्यवहार चारित्र मुनि व श्रावकका उभय रूप है, पांच महाव्रत मुनिका चारित्र है, पांच मणुव्रत श्रावकका धर्म है। श्रावकों को देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, दान इन छः कर्मोका साधन श्रद्धापूर्वक करना चाहिये व मिथ्यात्व से बचना चाहिये । सम्यक्तके १९ दोष बचाने चाहिये, सात व्यसन द्यूत रमनादिसे बचना चाहिये, शुद्ध भोजन करना चाहिये, पानी छानकर पीना चाहिये, रात्रिको भोजन यथाशक्ति बचाना चाहिये, मुख्यता से मात्मध्यानका अभ्यास करना चाहिये । श्रावककी ग्यारह प्रतिमा हैं उनके द्वारा बाह्य अभ्यंतर चारित्रको उन्नति करनी चाहिये । इस श्रावकाचार में इन ही बातोंका विशेष वर्णन है। इस ग्रंथका प्रचार हर जगह होना चाहिये । पाठकों को विशेष लाभ होगा ।
- ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद ।
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भूमिस्त
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