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________________ वारणतरण ॥४३१७ कि यह श्री सर्वज्ञ वीतराग अईन भगवानकी परम्परासे कहा हुआ यथार्थ है उसी हीका वे उपदेश देते हैं । परम साम्यभावसे व मायाचार न करके जो जिनेन्द्रकी आज्ञा है उसीके अनुसार कथन करते हैं वे ही जैन के साधु हैं। श्लोक – मिथ्यात्वं त्रय शव्यं च, कुज्ञानं त्रिति उच्यते । रागदोषादि येतानि, व्यक्तंते शुद्ध साधवः ॥ ४५१ ॥ अन्वयार्थ – ( मिथ्यात्वं ) मिथ्यादर्शनको (त्रय शल्यं च ) तीन शल्य, माया मिथ्या निदानको ( कुज्ञानं त्रिति उच्यते) तीन कुज्ञान कहे जाते हैं उनको ( रागदोषादि) रागद्वेषादि विभावोंको (येतानि ) इन सबको (शुद्ध साधवः) शुद्ध साधु महाराज (त्यचंते ) छोड देते हैं । विशेषार्थ – निर्दोष साधुका चारित्र पालने वाले के भीतर न तो बहिरंग न अंतरंग मिथ्यात्व है न वहां कोई मायाचार व निदानका भाव होता है। वह कपट रहित व भोगोंकी इच्छा रहित होकर साधु धर्म पालता है । कुमति, कुश्रुत, कुअवधि तीन कुज्ञान नहीं होते हैं । सम्यक्त के प्रभाव से उसका सब ज्ञान सुज्ञान रूप होता हैं, रागद्वेषादि भावोंको जीतता हुआ साधु जिनधर्मको पालकर आत्माकी उन्नति करता है। श्लोक - अप्पं च तारणं शुद्धं, भव्यलोकै कतारणं । शुद्धं च लोक लोकांतं, ध्यानारूढं च साधवः ॥ ४५२ ॥ अन्वयार्थ—( अप्पं च तारणं शुद्धं ) अपने आपको शुद्धतासे जो तारनेवाले हैं ( भव्यलोकै कतारणं ) तथा भव्य जीवोंके भी वे तारनेवाले हैं (लोकांतं शुद्धं च लोकं ) लोक पर्यंत शुद्ध द्रव्यको ही देखनेवाले हैं (ध्यानारूढं च साघवः ) ऐसे साधु ध्यान में आरूढ रहते हैं । विशेषार्थ – निर्बंध साधु तारणतरण होते हैं। जैसे जहाज आप तैरता है व बैठने वालेको तार लेजाता है वैसे ही साधु स्वयं अपने आत्माका साधन करते हैं और अपने उपदेश व शिक्षासे अनेक भव्योंको मार्गमें लगा देते हैं, जो परम समताभावके धारी हैं, सर्व हो लोकमें भरो आत्माको शुद्ध रूपसे एकाकार देखनेवाले हैं तथा जो ध्यानका अभ्यास उत्तम प्रकारसे कहते रहते हैं । श्रावकाचार LETETE ॥ ४३१
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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