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वारणतरण
॥ ४३ ॥
अन्वयार्थ – ( सम्यकूटष्टिनो जीवः ) सम्यग्दर्शनका धारी जीव (शुद्धतत्वप्रकाशकः ) शुद्ध आत्मतत्वका प्रकाश करनेवाला होजाता है । ( सम्यक्तं ) सम्यग्दर्शन ( शुद्ध परिणामं ) आत्माका शुद्ध स्वभाव है या शुद्ध परिणाम है ( मिथ्यादृष्टि परान्मुखं ) जो मिथ्यादर्शन से विपरीत है ।
विशेषार्थ — उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक कोई भी सम्यक्त हो । जो महात्मा सम्यग्दर्शन को प्रगट कर देता है वह शुद्ध आत्माका सच्चा श्रद्धान-ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त कर लेता है । आत्मदर्शन करनेका जो नेत्र मुदित था सो खुल जाता है। यह सम्यग्दर्शन आस्माका एक मुख्य गुण है । मिथ्यादर्शन के उदय से अन्यथा परिणमन कर रहा था सो उसके न उदय होनेसे यथार्थ चमक जाता है । अंधकार और प्रकाशका जैसा विरोध है वैसा मिथ्यात्व और सम्यक्तका विशेष है । मिध्यादृष्टि संसारासक है तब सम्यक्वष्टि स्वाधीनता प्रेमी होजाता है। आत्मानंदका स्वादी हो जाता है ।
श्लोक - सम्यकदेव गुरुं भक्तः, सम्यकधर्म समाचरः ।
सम्यक्तं तु वेदंते, मिथ्या त्रिविध मुक्तयं ॥ ३५ ॥
अन्वयार्थ - ( सम्यक् देवं गुरुं भक्तः ) सबै देव व सचे गुरुका भक्त व ( सम्यकूधर्म समाचरः ) स धर्मका आचरण करनेवाला सम्यकूदृष्टी जीव ( मिथ्या त्रिविध) तीन प्रकार मिथ्यात्व (मुक्त) छूटा हुआ (सम्यकं तु ) सम्यक दर्शनका ही (वेदते ) अनुभव करता है ।
विशेषार्थ — सम्यकदृष्टि जीव सम्यक्त पाकर मात्र संतोषी व आलसी नहीं होजाता है । वह निरंतर श्री अरहंत व सिद्ध परमात्मा की भक्ति करता रहता है। निर्बंथ दिगम्बर गुरुकी सेवा करके उनसे सच्चा उपदेश सुनता रहता है। सच्ची आत्मबोध कारक धर्म क्रियाओंका आचरण करता रहता है । स्वाध्याय सामायिकका अभ्यास करता रहता है। जिन २ निमित्त व आलम्बनोंसे परिणाम अशुभसे बचकर शुभमें वर्ते जिससे शुद्ध आत्माके चितवनका अवसर मिले ऐसा उद्यम सदा करता रहता है । वह सम्यक्ती अंतरङ्गसे आत्मीक शुद्ध भावका ही अनुभव चाहता है । संसार सुखका प्रेमी नहीं रहा है।
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| श्रावकाचार
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