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मो.मा.।। इनका ज्ञानविना बड़े शास्त्रनिका अर्थ भासे नाहीं । बहुरि वस्तुका भी स्वरूप इनकी पद्धति प्रकाश || जाने जैसा भासे, तैसा भाषादिककरि भासे नाहीं । ताते परंपरा कार्यकारी जानि इनका
भी अभ्यास करना । परंतु इनहीविषै फसि न जाना । किछु इनका अभ्यासकरि प्रयोजनभृत शास्त्रनिका अभ्यासविषै प्रवर्तना । बहुरि वैद्यकादि शास्त्र हैं, तिनतें मोक्षमार्गविणे किछु । प्रयोजन ही नाहीं । तातें कोई ब्यवहार धर्मका अभिप्रायतें बिनाखेद इनका अभ्यास होय। M] जाय, तो उपकारादि करना, पापरूप न प्रवर्त्तना । अर इनका अभ्यास न होय।।
तो मति होहु, विगार किछू नाहीं। ऐसें जिनमतके शास्त्र निर्दोष जानि तिनका उपदेश मानना । । अब शास्त्रनिविणे अपेक्षादिककों न जाने परस्पर विरोध भासे, नाका निराकरण की-10 जिए है । प्रथमादि अनुयोगनिकी आम्नायकै अनुसारि जहां जैसे कथन किया होय, तहाँ।
से जानि लेना अर अनुयोगका कथनतें अन्यथा आनि संदेह न करना। वैसे कहीं तौ निर्मल । सम्यग्दृष्टीहीके शंका कांक्षा विचिकित्साका प्रभाव कह्या, कहीं भयका आठवां गुणस्थान पर्यंत,
लोभका दशमा पर्यंत, जुगुप्साका आठवां पर्यंत उदय कह्या । तहां विरुद्ध न जानना । श्रद्धा-11 नपूर्वक तीब शंकादिकका सम्यग्दृष्टीके अभाव भया, अथवा मुख्यपर्ने सम्यग्दृष्टी शंकादि न करै, तिस अपेक्षा चरणानुयोगविषे शंकादिकका सम्यग्दृष्टीके अभाव कसा । बहुरि सूक्ष्मशक्ति ।
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