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________________ ॥१९॥ ५ अक्षर-अ सि आ उ सा । ४ अक्षर-अरहंत । २ अक्षर-सिख अथवा ॐ हीं। १ अक्षर-ॐ। जप करने में बहुधा १०८ दफे जपना चाहिये । मालामें १०८ दाने तो मंत्रके जापके लिये होते ॐ हैं व तीन दाने ऊपरके सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्परज्ञानाय नमः, सम्यक्चारित्राय नमः, इस रत्नत्र-2 यधर्मके वाचक होते हैं। इनको जप लेना चाहिये । इस तरह पदस्थ ध्यानका कुछ स्वरूप कहा है। श्लोक-पिंडस्थं ज्ञान पिंडस्य, स्वात्मचिन्ता सदा बुधैः । निरोधं असत्यभावस्य, उत्पायं शाश्वतं पदं ॥ १८३ ॥ आत्मा सदभाव आरक्तं, परद्रव्यं न चिंतये । ज्ञानमयो ज्ञानपिंडस्य, चिंतयंति सदा बुधैः ॥१८४ ॥ अन्वयार्थ-(पिंडस्थं ) पिंडस्थ ध्यान (ज्ञान पिंडस्य ) ज्ञान समूहरूप आत्माका ध्यान है (बुधैः) बुद्धिमानोंके द्वारा (सदा) निरंतर (स्वात्मचिंता) अपने आत्माका ध्यान करना योग्य है ( असत्यभावस्य ४ निरोध) असत्य भावोंको रोकना योग्य है (शाश्वतं पदं उत्पाद्यं) अविनाशी मोक्षपद पाना योग्य है। (आत्मा) यह आत्मा (सदभाव आरक्तं) अपने ही सत्स्व भावमें लवलीन होजावे (परद्रव्यं न चिंतये) पर द्रव्यकी चिंता न की जावे । (बुधैः) पंडितोंके द्वारा (ज्ञानमयो ज्ञानपिंडस्य चिंतयंति) ज्ञानमई ज्ञान धन आत्माका ही चितवन है। विशेषार्थ-पिंडस्थ ध्यान अपने पिंड अर्थात् शरीरमें विराजित आत्माका ध्यान कहा जाता है, जहां अपने आत्माका द्रव्य दृष्टिसे सतरूप शुद्ध स्वभावका ध्यान किया जाय, क्षणभंगुर कर्मजनित सर्व पर्यायोंसे ध्यान हटा लिया जावे न परद्रव्यकी चिंता की जावे। अपने ही आत्माको छोडकर अन्य आत्माओंकी व पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालकी चिंता न की जावे। ज्ञान धन अपने आत्मामें तन्मय हुआ जावे । यह पिंडस्थ ध्यान अविनाशी मोक्षपदका कारण है। ४॥१९॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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