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श्रावकाचार
॥१३॥
शेष ८०१०८१७५ अक्षरों में १४ प्रकीर्णक हैं, उनको अंग बाय कहते हैं। १-सामायिक-सामायिकके भेद । २-चतुविंशतिस्तव-२४ तीर्थकरकी स्तुति । ३-वंदना-एक तीर्थकरकी वंदना मुख्यतासे । ५-प्रतिक्रमण-गत दोष निवारण ७ प्रकार । ५-वैनयिक-पांच प्रकार विनय । ६-कृति कर्म-नित्य क्रिया कथन । ७-दशवकालिक-काल विकाल कथन । ८-उत्तराध्ययन-मुनिका उपसर्ग परीषद सहन कथन । ९-कल्प व्यवहार-मुनि योग्य आचरण कथन । १०-कल्पाकल्प-मुनिके योग्य व अयोग्य द्रव्य क्षेत्रादि कथन । ११-महाकल्प-जिनकल्पी स्थविरकल्पी मुनि कथन । १२-पुण्डरीक-चार प्रकार देवोंमें उपजनेके कारण दान पूजादि । १३-महापुण्डरीक-इन्द्र अहमिन्द्रमें उपजनेके कारण । १४-निषि डका-प्रायश्चित्त कथन ।
ये सब अंग प्रकीर्णक अब मिलते नहीं हैं। श्वेताम्बरोंने इन्हीं नामके धारक ग्रन्थ वीर भगपानके मोक्षके मौसो वर्ष बाद संकलन किये हैं। उनमें कुछ२ अंशिक कथन है। उपाध्याय शास्त्र के विशेष ज्ञाता होते हैं । इन साधुओंका कर्तव्य पढना पढाना है। श्लोक-सांधश्च सर्वसाध्यं च, लोकालोकं च साधये ।
रत्नत्रयमयं शुद्धं, ति अर्थ साधु जोइतं ॥ ३३१॥ अन्वयार्थ—(साधुश्च ) साधु महाराज भी (सर्वसाध्यं च) सर्व प्रकार साधन करनेवाले हैं (ोकालोकं ४ च साधये ) जो लोकालोकके दिखानेवाले केवलज्ञानको साधते हैं (रत्नत्रयमय शुद्ध) रत्नत्रयमई शुद्ध
भात्माको साधते हैं (तिमर्थ साधु मोइतं) जिन्होंने तीनों पदार्थों को भलेप्रकार जाना है।
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