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मो.मा.
प्रकाश
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हैं। जो केवल व्यवहारहीकों जाने है, ताकौं उपदेश ही देना योग्य नाहीं है। बहुरि जैसे जो |सांचा सिंहकों न जाने, ताकै बिलाव ही सिंह है, तैसें जो निश्चयकौं न जाने, ताकै व्यवहार
ही निश्चयपणाकों प्राप्त हो है। यहां कोई निर्विचार पुरुष ऐसें कहै—तुम ब्यवहारको अ| सत्यार्थ हेय कहो हो, तो हम व्रत शील संयमादिका व्यवहार कार्य काहेकौं करें-सर्व |
छोड़ि देवेंगे। ताकौं कहिए है-किछु व्रतशील संयमादिकका नाम ब्यवहार नाहीं है ।। | इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है, सो छोड़ि दे। बहुरि ऐसा श्रद्धानकरि जो इनकौं तो | बाह्य सहकारी जानि उपचारतै मोक्षमार्ग कह्या है । ए तो परद्रब्याश्रित हैं । बहुरि सांचा | मोक्षमार्ग वीतरागभाव है, सो स्वद्रब्याश्रित है । ऐसे ब्यवहारकौं असत्यार्थ हेय जानना । ब्रतादिकको छोड़नेते तो व्यवहारका हेयपना होता है नाहीं । बहुरि हम पूछे हैं-व्रतादिक| कौं छोड़ि कहा करेगा । जो हिंसादिरूप प्रवत्तेगा, तौ तहां तो मोक्षमार्गका उपचार भी | संभवै नाहीं । तहां प्रवननेते कहा भला होयगा, नरकादिक पावैगा । तातें ऐसे करना
तौ निर्विचारपना है। वहुरि व्रतादिकरूप परणति मेटि केवल वीतराग उदासीन भावरूप होना बने, तौ भले ही है । सो नीचली दशाविषै होय सके नाहीं । तातै प्रतादिसाधन छोड़ि स्वच्छंद होना योग्य नाहीं । या प्रकार श्रद्धानवियु निश्चयकों, प्रवृत्तिविषै व्यवहारको उपादेय मानना, सो भी मिथ्याभाव ही है।
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