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________________ मो.मा. प्रकाश बहुरि यह जीव दोऊ नयनिका अंगीकार करने के प्रथिं कदाचित् आपको शुद्ध सिद्ध| समान रागादिरहित केवलज्ञानादिसहित श्रात्मा अनुभव है, ध्यानमुद्रा धारि ऐसे विचारविषै लागे है । सो ऐसा आप नाहीं, परंतु भ्रमकरि मैं ऐसा ही हों, ऐसा मानि संतुष्ट हो है । कदाचित् वचनद्वारि निरूपण ऐसा ही करे है । सो निश्चय तौ यथावत् वस्तुकों प्ररूपै, प्रत्यक्ष जैसा आप नाहीं तैसा आपको मानना, सो निश्वय नाम कैसे पाये । जैसें केवल निश्चयाभासवाला जीव के पूर्व अयथार्थपना कया था, तैसें ही याके जानना । अथवा यह ऐसें मानै | हैं, जो इस नयकरि आत्मा ऐसा है, इस नयकरि ऐसा है, सो आत्मा तो जैसा है तैसा है ही, तिविषै नयकरि निरूपण करनेका जो अभिप्राय है, ताकौं न पहिचान है । जैसें आत्मा निश्चयकरि तौ सिद्धसमान केवलज्ञाना देसहित द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्मरहित है, व्यवहारनयकरि संसारी मतिज्ञानादिसहित वा द्रव्य कर्म- नोकर्म-भावकर्मसहित है, ऐसा माने है । सो एक आत्माके ऐसे दोय स्वरूप तौ होंय नाहीं । जिस भावहीका सहितपना तिस भावहीका रहितपना एकवस्तुविषै कैसे संभवे । तातैं ऐसा मानना भ्रम है । तौ कैसे है - जैसे राजा रंक मनुष्य की अपेक्षा समान हैं, तैसें सिद्ध संसारी जीवत्वपनेकी अपेक्षा समान कहे हैं । | केवलज्ञानादि अपेक्षा समानता मानिए, सो है नाहीं । संसारीकै निश्चयकरि मतिज्ञानादिक ही हैं। सिद्धकै केवलज्ञान है । इतना विशेष है— संसारीकै मतिज्ञानादिक कर्मका निमित्ततै ३८७
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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