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मो.मा प्रकाश
है, तातै स्वभावअपेक्षा संसारीकै केवलज्ञानको शक्ति कहिए, तो दोष नाहीं । जैसे किमनुयके राजा होनेकी शक्ति पाईथे, तैसें यह शक्ति जाममी । बहुरि द्रब्यकर्म नोकर्म पुद्गलकरि निपजे हैं, तातै निश्चयकरि संसारीकै भी इनका भिन्नपना है। परंतु सिद्धवत् इनका कारण H! कार्यसंबंध भी न माने, तौ भ्रम ही है । बहुरि भावकर्म आत्माका भाव है, सो निश्चयकरि।।
आत्माहीका है। कर्मके निमित्तत हो है, तातै व्यवहारकरि कर्मका कहिए है । बहुरि सिद्धबत् संसारीके भी रागादिक न मानना, कर्महीका मानना यह भी भ्रम ही है। याही प्रकारकरि नयकरि एक ही वस्तुकों एकभावअपेक्षा वैसा भी मानना, वैसा भी मानना, सो तौ मिथ्याबुद्धि है । बहुरि जुदे भावनिकी अपेक्षा नयनिकी प्ररूपणा है, ऐसे मानि यथासंभव वस्तु। को मानना सो सांचा श्रद्धान है । तातै मिथ्यादृष्टी अनेकांतरूप वस्तुकों माने, परंतु यथार्थ भावकों पहिचानि मानि सके नाहीं, ऐसा जानना ।
बहुरि इस जीवकै ब्रत शील संयमादिकका अंगीकार पाईए है, सो ब्यवहारकरि 'ए भी मोक्षके कारण हैं, ऐसा मानि तिनको उपादेय माने है। सो जैसें केवल व्यवहारावलम्बी | जीवकै पूर्व अयथार्थपना कह्या था, तैसें ही याकै भी अयथार्थपना जानना। बहुरि यह ऐसे। भी मानें है---जो यथायोग्य व्रतादि क्रिया तो करनी योग्य है, परंतु इनविणे ममत्व न करना। सो जाका. आप कर्ता ह्येय तिसविर्षे ममत्व केसें न करिए । भर आप कर्ता न है, तो मुझको ||३८८
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