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________________ मो.मा. निगोदपर्यायकों पावै सो वाका नाम इतरनिगोद है। बहुरि तहां कितेक काल रहै तहांतें प्रकाश निकसि अन्य पर्यायनिविषै भ्रमण करै है। तहां परिभ्रमण करनेका उत्कृष्ट काल पृथ्वी आदि | स्थावरनिविर्षे असंख्यात कल्पमात्र है। बहुरि द्वींद्रियादि पंचेंद्रियपर्यंत त्रसनिविषै साधिक W दोयहजार सागर है । अर इतरनिगोदविषै अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तनमात्र है सो यह अनंतकाल है । बहुरि इतरनिगोदतें निकसि कोई स्थावरपर्याय पाय बहुरि निगोद जाय ऐसे एकेंद्रियपर्यायनिविषे उत्कृष्ट परिभ्रमण काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। बहुरि जघन्य | सर्वत्र एक अंतर्मुहूर्तकाल है । ऐसें घना तो एकेंद्रियपर्यायनिका ही धरना है। अन्य पर्याय पावना काकतालीय न्यायवत् जानना । याप्रकार इस जीवकै अनादिही ते कर्मबंधनरूप रोग | भया है। इति कर्मबंधननिदान वर्णनम् । अब इस कर्मबंधनरूप रोगके निमित्ततें जीवकी कैसी अवस्था होय रही है सो क|हिए है। प्रथम इस जीवका खभाव चैतन्य है सो सबनिका सामान्यविशेषस्वरूपका प्रकारान| हारा है। जो उनका स्वरूप होय सो आपकों प्रतिभासै है । तिसहीका नाम चैतन्य है। तहां सामान्यस्वरूप प्रतिभासनेका नाम दर्शन है । विशेष स्वरूप प्रतिभासनेका नाम ज्ञान है। सो
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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