________________
R९॥
विशेषायं-यहांपर अन्यकर्ता रात्रि भोजन त्यागीके भावोंकी तसबीर बताते हैं कि उसमें श्रावकार बहाही सन्तोष व दयाभाव होता है। वह निस्पृही सम्यग्दृष्टी जीव अपने अंतरंगसे राग व देष ॐ बढानेवाली चर्चा या चिंता नहीं करता है, निरन्तर शुद्ध निश्चय नयका आश्रय लेता हुआ शुद्ध
आत्माका विचार किया करता है। यद्यपि अपनी स्थितिके अनुसार सम्यग्दृष्टी लौकिक क्रिया करता है तथापि उसकी भावना आत्मीक तत्वकी ही रहती है। रागद्वेष करना भाव हिंसा है। इससे वह अपनेको बचाता है। कोई ऐसा मानते हैं कि दिन में भोजन न करके रात्रिको करे तो क्या दोष है। सम्यक्ती ऐसा तर्क नहीं करता है क्योंकि दिनकी अपेक्षा रात्रिको घोर हिंसा होती है।
श्रावकाचारमें अमितगति महाराज कहते हैंये ब्रति दिनरात्रिभोगयोस्तुल्यता रचितपुण्यपापयोः । ते प्रकाशतमसोः समानतां दर्शयति सुखदुःखकारिणोः ॥५३-५॥
भावार्थ-जो ऐसा कहते हैं कि दिन रात दोनों में भोजन समान है, वे पुण्य व पापको समान ॐ कहते हैं, वे प्रकाश व अन्धकारको समान बताते हैं व सुख व दुःखके कारणको समान कहते हैं।
यह ठीक नहीं है, क्योंकि दिनमें भोजन दयाका अंग है, धर्मरूप है, पुण्यरूप है, जब कि रात्रिको भोजन पापरूप है, अधर्म है।
श्लोक-शुद्ध तत्वं न जानते, न सम्यक्तं शुद्ध भावना ।
श्रावकं तत्र न उत्पाद्य, अनस्तमितं न शुद्धए ॥ ३०४ ॥ अन्वयार्थ (शुद्ध तत्वं न जानते) जो कोई गृहस्थ शुद्ध आत्मीक तत्वको नहीं समझते हैं (न सम्यक्त शुद्ध भावना ) न उनके सम्यग्दर्शन है न शुद्ध आत्मीक तत्वकी भावना है (तत्र श्रावकं न उत्पाचं ) वहां श्रावकपना नहीं उत्पन्न होसक्ता (अनस्तमितं न शुद्धए) उनको रात्रिका आहार त्याग कर देना उनकी आत्माकी शुद्धिके लिये कारणभूत नहीं है। . विशेषार्थ—यहां यह दिखलाया है कि सम्यक्त सहित ही वह रात्रिभोजन त्याग ब्रत उपकारी* है व मोक्षका साधक है। यदि कोई सम्यक्ती नहीं है और वह शुद्ध तत्वकी भावना नहीं करता है तो उसका त्याग व नियम व व्रत सर्व पुण्य पन्धकारक नहीं होगा। विना सम्यक्तके श्रावकपना नहीं होसक्ता है। इसलिये श्रावकको मात्र हिंसाके बचावके लिये ही रात्रि भोजन नहीं करना Real