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________________ वारणतरण ॥३९॥ चला जावे (मोक्षगामी न संशयः) ऐसा प्रावक मोक्षगामी है, इसमें संशय नहीं करना चाहिये। श्रावकाचार विशेषार्थ-जिसने दर्शन प्रतिमाके नियम पालने प्रारंभ किये हों उसको मुरुपतासे सम्यग्दर्शनकी भले प्रकार दृढता रखनी योग्य है। २५ दोष रहित सम्यक्त पालना योग्य है। अंतरंग शुखात्माका चिंतवन व ध्यान करना योग्य है। इसीके प्रतापसे उसका शास्त्रज्ञान व चारित्र बढना चला जायगा व शुद्ध होता जायगा । जितनी २ कषाय मंद होगी उतना उतना ही ज्ञान व चारित्र उज्वल होगा। दर्शन प्रतिमावालेके अनन्तानुबन्धी व अप्रत्याख्यान कषायोंका उदय तो नहीं है। प्रत्याख्यान संज्वलन कषायोंका उदय है मो इसके आत्माभ्याससे मंद मंद होता जाता है। इमी प्रयोगसे इसका चारित्र बढते २ ग्यारह प्रतिमा तक पहुंच जायगा फिर यह साधुके अ रिणको, उत्कृष्ट महाव्रतोंको पालने लग जायगा। अवश्य कभी न कभी मोक्ष प्राप्त कर लेगा।सम्यक्त्त अहितके मोक्षलाभमें कोई शंका नहीं। श्लोक-दर्शनं सार्द्ध यस्य, व्रतं तस्य यदुच्यते । व्रत तप नियम संयुक्तं, सार्द्ध स्वात्मदर्शनं ॥ ४०५॥ अन्वयार्थ-(यस्य दर्शनं सार्द्ध) जिसके साथ सम्यग्दर्शन है (तस्य यत् व्रतं उच्यते) उसीके व्रतोंका होना है या ब्रत प्रतिमा कही जाती है। वह दूसरी प्रतिमा धारी व्रती (व्रत तप नियम संयुक्त) अपर्न श्रेणीके योग्य बन तप व नियम सहित होता है तथा (स्वात्मदर्शनं साई) अपने आत्माके अनुभवको करनेवाला होता है। विशेषार्थ-इस श्लोकमें बहुत संक्षेपमें व्रत प्रतिमाका स्वरूप कहा है। उसका स्वरूप रत्नकरंड श्रावकाचारमें इस भांति है निरतिक्रमणमणुव्रतपंचकमपि शीलसप्तकं चापि । धारयते निःशल्यो योऽसौ वतिनां मतो व्रतिकः ॥ १३८ । भावार्थ-जो पांच अणुव्रतोंको अतीचार रहित पाले तथा सात शीलोंको भी पाले, जो शल्प ४ रहित होकर उनको पालता है वह श्रावक व्रत धारियों में व्रत प्रतिमावाला है। पांच अणुव्रतका स्वरूप पहले कह चुके हैं। सात शील जो अणुवतके उपकारी हैं उनका स्वरूप यह है
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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