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मो.मा.
सो पापकै ठिकानें ऐसा पाठ काहेकों पढ़या । वहुरि एक विचार यहां यह आया, जो प्रकाश
णमोत्थुणं' के पाठविषै तो अरहंतकी भक्ति है । सो प्रतिमाजीकै आगें जाय यह पाठ पढ़या ताते प्रतिमाजीके आगे जो अरहंत भक्तिकी क्रिया है, सो करनी युक्त भई । बहुरि जो वह, | ऐसा कहै—देवनिकै ऐसा कार्य है मनुष्यनिकैनाहीं;जाते मनुष्यनिकै प्रतिमाआदि बनावनेविर्षे हिंसा होहै। तो उनहीके शास्त्रविषेऐसा कथन है, द्रोपदी राणीप्रतिमाजीका पूजनादिक जैसे सूर्याभदेव | किया, तैसे करते भई । तातें मनुष्यनिकै भी ऐसा कार्य कर्त्तव्य है। यहां एक यह विचार प्राया-चैत्यालय प्रतिमा बनावनेकी प्रवृत्ति न थी, तो द्रोपदी कैसे प्रतिमाका पूजन किया। बहुरि प्रवृत्ति थी,तो बनावनेवाले धर्मात्माथे कि पापी थे।जो धर्मात्मा थे तो गृहस्थनिकों ऐसा कार्य कराना
योग्य भया।अर पापी थे, तौ तहां भोगादिकका प्रयोजन तो था नाही, काहेकों बनाया। बहुरि द्रोपदी || तहां णमोत्युर्ण'का पाठ किया वा पूजनादि किया, सो कुतूहल किया कि धर्म किया। जो कुतू| हल किया, तौ महापापिनी भई । धर्मविणे कुतुहल कहा । अर धर्म किया, तो औरनिकों
भी प्रतिमाजीकी स्तुति पूजा करनी युक्त है । बहुरि वे ऐसी मिथ्यायुक्ति बनावै हैं जैसे इंद्रकी स्थापनाते इंद्रकी कार्यसिद्धि नाही,तैसें अरहंतप्रतिमाकरि कार्यसिद्धि नाहीं। सो अ
रहंत काहूकौं भक्त मानि भला करते होंय, तो ऐसे भी माने । सो तो वे भी वीतराग हैं। | यह जीव भक्तिरूप अपने भावनितें शुभफल पावै है । जैसें स्त्रीका आकाररूप काष्ठ पाषा
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