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मोमा शकाप्र
रामोवाच --
" नाहं रामो नमे वांछा भावेषु च न मे मनः ।
शांतिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ १ ॥”
या विषै रामजी जिन समान होनेकी इच्छा करी, तातें रामजीतें जिनदेवका उत्तमपना प्रगट भया, अर समीचीनपना प्रगट भया । बहुरि 'दक्षिणामूर्ति - सहस्रनाम' विषै कया है, - शिवोवाच
" जैनमार्गरतो जैनो जितिक्रोधो जितामयः; ॥”
यहां भगवतका नाम जैनमार्गविषै रत अर जैन कह्या, सो यामैं जैनमार्गकी प्रधानता वा प्राचीनता प्रगट भई । बहुरि 'वैशंपायन सहस्रनाम' विषै कया है, -
“कालनेमिनिहा वीरःशूरः शौरिर्जिनेश्वरः ।”
यहां भगवानका नाम जिनेश्वर कह्या तातें जिनेश्वर भगवान् हैं । बहुरि दुर्वासा ऋषिकृत 'महिम्नस्तोत्र' विषै ऐसा कहा है, -
"तत्तदर्शनमुख्यशक्तिरिति च त्वं ब्रह्मकर्मेश्वरी ।
कर्त्तान् पुरुषो हरिश्च सविता बुद्ध: शिवस्त्वं गुरुः” ॥ १ ॥
१ अर्थात्-- मैं राम नहीं हूं, मेरी कुछ इच्छा नहीं है और भावो वा पदार्थोंमें मेरा मन नहीं है। मैं तो अपनी जिनदेव के समान आत्मामें ही शान्ति स्थापन करना चाहता हूं।
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