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मो मा बहुरि जहां आत्मश्रद्धान लक्षण कह्या है, तहां अपापरका भिन्नश्रद्धानका प्रयोजन इतना प्रकाश ही है-आपको आप जानना । आपकों आप जाने परका भी विकल्प कार्यकारी नाहीं ।
ऐसा मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानि आत्मश्रद्धानको मुख्य लक्षण कह्या है । बहुरि जहां
देवगुरुधर्मका श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहां बाह्य साधनकी प्रधानता करी है । जाते अरहंत। देवादिकका श्रद्धान सांचा तत्वार्थप्रधानको कारण है । अर कुदेवादिकका श्रद्धान कल्पित
अतत्वश्रद्धानका कारण है । सो बाह्य कारणकी प्रधानताकरि कुदेवादिकका श्रद्धान न ! करावनेके अर्थि देवगुरुधर्मका श्रद्धानकों मुख्य लक्षण कह्या है । ऐसें जुदे जुदे प्रयोजननिक|रि मुख्यता करि जुदे जुदे लक्षण कहे हैं। इहां प्रश्न—जो ए चार लक्षण कहे, तिनविणे । । यह जीव किस लक्षणकों अंगीकार करै । ताका समाधान,--
मिथ्यात्वकर्मका उपशमादि होते विपरीताभिनिवेशका अभाव हो है। तहां च्या ।। लक्षण युगपत् पाइए है। बहुरि विचार अपेक्षा मुख्यपने तत्वार्थनिको विचार है । के आपा
परका भेद विज्ञान करै है। के आत्मस्वरूपहीको संभारे है। के देवादिकका खरूप विचारै । ॥ है । ऐसें ज्ञानविषै तो नाना प्रकार विचार होय, परंतु श्रद्धानविणे सर्वत्र परस्पर सापेक्षपनो | पाइए है । तत्त्वविचार करे है, तो भेदविज्ञानादिकका अभिप्राय लिए करें है । ऐसें ही अन्य-IN त्र भी परस्पर सापेक्षपणौ है । तातें सम्यग्दृष्टीकै श्रद्धानविषै च्या” ही लक्षणनिका अंगी-५०५