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कारणवरण
श्रावकार
॥४४॥
आदि मालको न लिया जावे। कभी भी चोरीका भाव दिलमें न लाया जाये न चोरी करने
करन कराने सम्बन्धी वचन बोलना चाहिये न चोरीकी अनुमोदना करनी चाहिये। नीतिसे धर्मानुकूल धनादि ग्रहण किया जावे व आरम्भ त्यागीको शुद्धताके साथ अन्तराय व दोष टालकर शुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिये । जो धर्म साधनकी वस्तु है उसमें अपनापना कभी न मानना चाहिये। जिनेंद्रकी आज्ञा प्रमाण वस्तुका स्वरूप विचारना चाहिये । वैसा ही कहना चाहिये व वैसा ही पालना चाहिये । जो जिनकी आज्ञाके विरुद्ध सोचते कहते व करते वे जिनाज्ञालोपी चोरीके दोषके भागी होते हैं। शुद्ध मन, वचन, काय रखके कपट त्यागके वर्तन करना ही अचौर्यव्रत है।
श्लोक-ब्रह्मचर्य च शुद्धं च, अबंभ भाव त्यक्तयं ।।
विकहा राग मिथ्यात्वं. त्यक्तं बंभ व्रतं ध्रुवं ॥४४१॥ अन्वयार्थ-( ब्रह्मचर्य च शुद्ध च) शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत पालना चाहिये ( अब भाव त्यक्त) अब्रह्म या कुशीलके भावको त्याग देना चाहिये। (विकहा राग मिथ्यात्वं त्यक्त) विकथाका राग व मिथ्यात्वको छोडना चाहिये । तब (बम व्रत ध्रुवं ) ब्रह्मचर्य व्रत निश्चल होता है।
विशेषार्थ-चौथा व्रत ब्रह्मचर्य है। छठी प्रतिमातक श्रावक एकदेश पालता है,सातमी प्रतिमासे फिर पूर्ण पालता है। कुशीलके भावकोत्यागना ब्रह्मचर्यव्रत है, स्पर्श इंद्रियके विषयकी चाहको रोकना, मनको ब्रह्म-स्वरूप आत्माके मननमें लगाना ब्रह्मचर्य व्रत है। स्त्री, भोजन, देश व राजाकी खोटी रागवडक कथाओंको त्यागना व संसारासक्ति रूप अग्रहीत मिथ्यात्वका भाव त्यागना व सदा वैराग्यकी भावना भाना । विषयोंको विषके समान समझना, ये सब साधन ब्रह्मचर्यकी रक्षाके हैं। बाहरमें सर्व स्त्री मात्रको माता, वहिन, पुत्रीके समान देखना । अंतरंगमें शुद्ध स्वरूपका मनन करना ब्रह्मचर्यव्रत है। यह ब्रह्मचर्यवत वीर्यका परम रक्षक है। मन, वचन, कायकी सर्व शकियोंका रक्षा करनेवाला है। आत्मध्यानका परम सहायक है। ध्यानका परम मित्र है। मोक्षमार्गमें बडा उपकारी है। श्रावकोंको उचित है कि इसके पालन में दृढतासे वर्तन करें।
श्लोक-मनवचन कार्य शुद्धं, शुद्धसमयं जिनागमं ।
विकहा काम सद्भावं, त्यक्तते ब्रह्मचारिना ॥ ४४२॥