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कुधर्मका स्वरूप। श्लोक-कुगुरुं ग्रंथसंयुक्तं, कुधर्म प्रोक्तं सदा ।
असत्यं सहितं हि सः, उत्साहं तस्य क्रीयते ॥९१॥ तत् धर्म कुमति मिथ्यात्वं, अज्ञानं रागबंधनं । ।
आराध्यं येन केनापि, संसारे दुक्खकारणं ॥९२|| अन्वयार्थ (ग्रंथसंयुक्तं) परिग्रहधारी (कुगुरुं) कुगुरुने (सदा) सदा (कुधर्म) कुधर्मको (पोक) कहा है (सः हि) वह कुधर्म निश्चय करके ( असत्यं सहित ) असत्यसे मिला हुआ है (तस्य ) इसमें असत्यका (उत्साह ) उत्साह या प्रेरकपना (क्रीयते) किया गया है। (तत् धर्म ) ऐसा धर्म (कुमति) मिथ्यामति ज्ञान (अज्ञान ) मिया श्रुतज्ञान रूप (मिथ्यात्वं ) मिथ्यादर्शन है (रागबंधनं ) रागके बंधन स्वरूप है (येन केनापि) जिस किसीने भी (भाराध्यम् ) ऐसे कुधर्मका आराधन किपा (संसारे) वह संसारमें (दुःखकारणं ) दुःखोंका भाजन होगया।
विशेषार्थ-अब कुधर्मका स्वरूप कहते हैं-संसारवर्द्धक धर्मके स्वरूपके उपदेशदाता कुगुरुही होते हैं जो अंतरंग, बहिरंग, परिग्रहके धारी हैं। मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति,
अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद, नपुंसकवेद ये १४ प्रकार अंतरंग परिग्रह व क्षेत्र, मकान, ७ चांदी, सोना, धन, धान्य, दासी, दास, कपड़े वर्तन ये १० प्रकार बहिरंग परिग्रह । इन २४ प्रकार ४ परिग्रहके धारी तथा इनकी ममताके फंदेमें फंसे हुए कुगुरुओं का उपदेश किया हुआ धर्म कभी
सत्य नहीं होसक्ता । वह बाहरसे सत्यसा दीखनेपर भी असत्यसे मिला हुआ होता है। जबतक धर्मका उपदेष्टा पैराग्यवान निस्पती व यथार्थ ज्ञाता तथा सर्वज्ञ वीतरागकी परम्परासे कहे हुए तत्वोंका मनन करनेवाला न होगा तबतक वह वीतराग विज्ञानमई शुद्ध आत्मतत्व बोधक-कषाय विध्वंसक उपदेश दे नहीं सकता। ऐसे उपदेशे हुए धर्ममें असत्यकी ही तरफ प्राणियोंको उत्साहित किया जाता है। सत्य एक शुद्धात्मा स्वरूप मोक्ष है। वह कुधर्म मोक्षसे विपरीत संसारकी तरफ