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________________ मो.मा प्रकाश विषे बहुत लगना नाहीं । जो बहुत बुद्धि” इनका सहज मानना होय, अर इनकौं जाने। आपके रागादिक विकार वधते न जाने, तो इनका भी जानना होहु । अनुयोग शास्त्रवत् ए शास्त्र बहुत कार्यकारी नाहीं। तातें इनका अभ्यासका विशेष उद्यम करना युक्त || नाहीं। यहां प्रश्न-जो ऐसे है, तो गणधरादिक इनकी रचना काहेकों करी । ताका అనంచిన ఉంగరం ప్రారంభం కానుందాం అనురాగం - पूर्वोक्त किंचित्प्रयोजन जानिइनकी रचना करी । जैसे बहुत धनवान् कदाचित्स्तोककार्यकारी वस्तुका भी संचय करै । बहुरि थोरा धनवान् उन वस्तुनिका संचय करें, तों धन तो तहां लगि जाय, बहुतकार्यकारी वस्तुका संग्रह काहत करै । तैसें बहुत बुद्धिमान् गणधरादिक कथंचित् स्तोककार्यकारी वैद्यकादि शास्त्रनिका भी संचय करें । थोरा बुद्धिमान् उनका || अभ्यासविर्षे लागै, तो बुद्धि ती तहां लगि जाय, भर उत्कत्कृष्ट कार्यकारी शास्त्रनिका । अभ्यास कैसे करै । बहुरि जैसे मंदरागी तौ पुराणादिविषे श्रृंगारादि निरूपण करे, तो भी । विकारी न होय । तीबरागी तैसें श्रृंगारादिनिरूपे, तो पाप ही बांधे । तैसें मंदरागी गणधरादिक हैं, ते वैद्यकादि शास्त्र निरूपैं, तो भी विकारी न होय, अर तीनरागी तिनका अभ्यास| विषै लगि जाय, तो रागादिक वधाय पापकर्मकों बांधे। ऐसें जानना । या प्रकार जैनमतके | उपदेशका स्वरूप जानना । - అందులోని సింపులు
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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