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पारणवरण
॥२३७॥
तीनरूप है-सम्यक ज्ञान चारित्र, परन्तु द्रव्य दृष्ठिसे एक ही ज्ञाता दृष्टा अनुपम आत्मा ही सदा मोक्षमार्ग है।
श्लोक-दर्शनं तत्वार्थश्रद्धानं, तीर्थ शुद्धं दृष्टितं ।
ज्ञानमूर्तिः संपूर्ण, स्वात्म दर्शन चिंतनं ॥ २३६ ॥ अन्वयार्थ-(तत्वार्थश्रद्धानं दर्शन) तत्वार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। (तीर्थ) यह भवसाग४ रसे तारनेका तीर्थ या जहाज है ( शुद्ध दृष्टितं ) यही शुद्ध दृष्टिमई है जहां (ज्ञानमूर्तिः ) ज्ञानमूर्ति (संपूर्ण) अपने सर्व गुणोंसे पूर्ण (स्वात्म दर्शन चिंतनं ) अपने ही आत्माका दर्शन है और चिन्तवन है।
विशेषार्थ—सात तत्वोंका व्यवहार और निश्चय नयसे यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यही वास्तवमें भवसागरसे पार करनेवाला तीर्थ या जहाज है। जहां सम्यग्दर्शन होजाता है वहां
अशुद्ध, मलीन, मिथ्यादृष्टि नहीं रहती है। किंतु शुद्ध, निर्मल, सम्यग्दृष्टि पैदा होजाती है। वास्त४ वमें अपने ही आत्माका श्रद्धान व मनन ही सम्यग्दर्शन है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे अपने ही ४
आत्माको सर्व कर्मकलंकसे रहित, ज्ञानाकार, अमूर्तीक, अपने दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, आनन्द, आदि गुणोंसे पूर्ण एकाकार श्रद्धानमें लाकर अनुभव करना चाहिये यही सम्यग्दर्शन है।
पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें कहा है:
जीवाभीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताऽभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ॥ २२॥
भावार्थ-जीव अजीवादि तत्वोंका सदा ही श्रद्धान करना चाहिये । उसमें कोई विपरीत अभिप्राय न हो। केवल आत्मशुद्धिके प्रयोजनसे ही भलेप्रकार जीव अजीवादि तत्वोंका दृढ विश्वास करना व्यवहार सम्यक्त है। निश्चयसे यह सम्यग्दर्शन सर्व आत्मासे भिन्न शुद्ध आत्माका एक स्वभाव है। सम्यग्दर्शन एक रत्न है जो अपने ही पास है, मिथ्यात्वकी कीचमें फंसा हुआ है। मिथ्यात्वके अंधकारके दूर होजाने पर यह स्वयं प्रकाशमान होजाता है। . श्लोक-दर्शनं सप्ततत्वानां, द्रव्य काय पदार्थकं । जीवद्रव्यं च शुद्धं च, सार्थ शुद्धं दर्शनं ॥ २३७ ॥
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