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श्रावकाचार
वारणतरण समान कोई जाल नहीं है। जगत में यह बात प्रगट है कि क्रोधादि कषाय दुर्गुण हैं। जिस धर्मके सा आचरण करनेसे कषाय कम होनेकी अपेक्षा बढ़ जावें, राग द्वेषकी वृद्धि हो, संसारमें अधिक
आसक्त होजावे, वीतराग विज्ञानमय धर्मसे बाहर रहे, हिंसामें मग्न रहें, खेल कूद लीलामें मग्न रहें, हास्य कौतुहल में लीन रहें, जिह्वाकी लंपटता पोखे, नेत्र इंद्रियका व घाण इंद्रियका विषय पोखे,
मनको मोहमालमें भ्रमावे या इंद्रिय भोगोंकी तृष्णा करके तप भी करे, शरीर भी सुखावे, कदाॐ चित् जैन शास्त्रानुसार धर्म भी पाले, परन्तु शुभोपयोगको मोक्षमार्ग जानकर वर्ते। शुद्धोपयोगरूप
सत्य मार्गको न जाने तो वह सब विचारे मिथ्यात्वकी कीचमें फंसकर संसार-सागरमें गोते ही खाते रहेंगे, पुनः पुनः जन्म मरण करेंगे, संसार तारक मार्गका मिलना दुर्लभ होजायगा। अतएव अधर्मसे बचना उचित है तथा अधर्मका उपदेश देना शिकारीसे भी कोटिगुणा पापका संचय करना है। इस पारधीपनसे बचना योग्य है।
श्लोक-मुक्ति पंथं तत्वसार्द्ध च, मूढलोके न लोकितं ।
पंथभृष्ठं अचेतस्य, विश्वासं जन्म जन्मयं ॥ १२४ ॥ अन्वयार्थ-(मूढलोकैः) अज्ञानी लोगोंके द्वारा (तस्वसाई च) तत्व सहित (मुक्तिपंथ) मोक्षका मार्ग (न लोकितं) नहीं देखा जाता है। वे (पंथभृष्टं ) मार्गसे विपरीत (अचेतस्य ) अज्ञानमई धर्मका (विश्वास) विश्वास (जन्म जन्मय) जन्म जन्म में करते रहते हैं
. विशेषार्थ-मोक्षका मार्ग तो आत्मतत्वकी यथार्थ प्रतीति सहित, ज्ञान सहित व चारित्र सहित है। वह तो अभेद रत्नत्रय स्वरूप आत्माकी एक शुद्ध परिणति विशेष है। संकल्प विकल्पसे रहित मात्र अनुभव गोचर है। इस परमानंदमय सच्चे मोक्षमार्गका जिनको ज्ञान व अडान नहीं होने पाता है, वे अज्ञानमई मिथ्या मार्गका विश्वास करके ठगे जाते हैं। मिथ्यात्वके विषको पीते हुए उससे ऐसे मूर्षित होजाते हैं कि अज्ञानमय पर्यायाँको-निगोद कीसी अवस्थाओंको, एकेन्द्रियादिमें जन्मको पुनः पुनः धारण करते हैं। उनको पंचन्द्रिय सैनीकी पर्याय मिलना अतिशय कठिन होजाता है। कदाचित पाते भी हैं तो उत्तम क्षेत्रमें धर्मका संयोग मिलना कठिन होजाता है। वे जन्म जन्ममें अज्ञान मिथ्यात्वके वशीभूत होते हुए वचनातीत कष्टको पाते हैं, पर्यायबुद्धि रहकर विषयसुखकी
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