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________________ मो.मा. - - प्रकाश प्रतिज्ञा हस करतें जाका निर्वाह होता न जाने, तिस प्रतिज्ञाकों तो करें नाहीं। प्रतिज्ञा लेते ही यह अभिप्राय रहे, प्रयोजन पड़े छोड़ि द्योंगा वह प्रतिज्ञा-कौन कार्यकारी भई। अर प्रतिज्ञा ग्रहण करते तो यह परिणाम है, मरणांत भए भी न छोड़ोंगा ऐसी प्रतिज्ञाकरनी || ! युक्त ही है। बिना प्रतिज्ञा किए अविरत सम्बन्धी बंध मिटे नाहीं । बहुरि आगामी उदयकरि ।। प्रतिज्ञा न लीजिए सो उदयकों विचारें सर्व ही कर्त्तव्यका नाश होय । जैसें आपको पचता। जाने, तितना भोजन करे । कदाचित् काहूकै भोजनतें अजीर्ण भया होय, तिस भयतें भोजन ! छांडे तो मरण ही होय । तेसैं आपके निर्वाह होता जाने, तितनी प्रतिज्ञा करे। कदाचित् |, काहूके प्रतिज्ञातें भ्रष्टपना भया होय, तो तिस भयते प्रतिज्ञा करनी छांई तो असंयम ही होय। । तातै वनै सो प्रतिज्ञा लेनी युक्त है। बहुरि प्रारब्ध अनुसार तो कार्य बने ही है, तू उद्यमी || । होय भोजनादि काहेकों करे है । जो तहां उद्यम करें है, तो त्याग करनेका भी उद्यम करना | युक्त ही है । जब प्रतिमावत् तेरी दशा होय जायगी, तब हम प्रारब्ध ही मानेगे-तेरा कर्त्त व्य न मानेंगे। तात काहेकों खच्छन्द होनेकी युक्ति बनावै है। बने सो प्रतिज्ञाकरि व्रत धारना योग्य है । बहुरि वह पूजनादि कार्यनिकौं शुभास्त्रव जान हेय माने है । सो यह सत्य है। परंतु जो इन कार्यनिकों छोड़ि शुद्धोपयोगरूप होय तो भले ही है ।अर विषय कषायरूप, अशुभरूप प्रवत्ते, तो अपना बुरा ही किया। शुभोपयोगते स्वर्गादि होय वा भली वासनाते||३११ मार
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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