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________________ मो.मा. कार्य करनेका जाके हर्ष बहुत है, तातें अंतरंग प्रतीते ताका समाधान करें । या प्रकार सा-1 प्रकाश धनकरते यावत् सांचा तत्वश्रद्धान न होय, 'यह ऐसे ही है, ऐसी प्रतीति लिए जीवादि त स्वनिका स्वरूप आपकों न भासै, जैसे पर्यायविर्षे अहंबुद्धि है, तैसें केवल आत्मविषे अहंबुद्धि IM न आवै, हित अहितरूप अपने भाव न पहिचान, तावत् सम्यक्त के सन्मुख मिथ्यादृष्टी है। यह जीव थोरे ही कालमें सम्यक्तकौं प्राप्त होगा। इस ही भवमें वा अन्य पर्यायविषै सम्यक्त । को पावैगा । इस भवमें अभ्यासकरि परलोकविषै तिर्यचादिगतिविष भी जाय-तौ तहां संस्कारके बलते देव गुरु शास्त्रका निमित्तबिना भी सम्यक्त होय जाय । जाते ऐसे अभ्यासके। बलते मिथ्यात्वकर्मका अनुभाग हीन हो है । जहां वाका उदय न होय, तहां ही सम्यक्त होय || जाय । मूलकारण यह ही है । देवादिकका तौ बाह्य निमित्त है, सो मुख्यताकरि तो इनके निमित्तहीतै सम्यक्त हो है । तारतम्यते पूर्व अभ्यास संस्कारते वर्तमान इनका निमित्त न होय, तो भी सम्यक्त होय सके है । सिद्धांतविणे ऐसा सूत्र कहा है-... - "तन्निसर्गादधिगमाद्वा" - यह सो सम्यग्दर्शन निसर्ग वा अधिगमत हो है। तहां देवादिक बाह्य निमित्त विना होय, सो निसर्ग ते भया कहिये । देवादिकका निमित्त होय, सो अधिगम भया कहिए । देखो तत्वविचारकी महिमा, तत्वविचाररहित देवादिककी प्रतीति करें, बहुत. शास्त्र अभ्यासे, प्रता-1||३९७ grosc000/8062ropcros@005cfoo10Gook86000000000oodookactuotect-000-80000@+0000 - NewAAEEarnmenाम
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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