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________________ - मो.मा. प्रकाश ____ "दसणभूमिह बाहिरा, जिय वयरुक्ख ण होति ।” याका अर्थ यह सम्यग्दर्शनभूमिका विना हे जीव ! तरूपी वृक्ष न होय । भावार्थजिन जीवनिकै तत्वज्ञान नाही ते यथार्थ आचरण न आचरै हैं। सोई विशेष दिखा - LateokaitoofOCTOK3C00403200-00018Coopezoopcom-06:00- 9OOKacrookCORICROBICTORRECTO0%E0food DET केई जीव पहले तो बड़ी प्रतिज्ञा धरि बैठे अर अंतरंगविषै कषायवासना मिटी नाहीं।। तब जैसे तैसे प्रतिज्ञा पूरी किया चाहैं, तहां तिस प्रतिज्ञाकरि परिणाम दुखी होय हैं। जैसे बहुत उपवासकरि बैठे, पीछे पीड़ाते दुखी हुवा रोगीवत् काल गमावै, धर्मसाधन न करै । सो पहले ही सधती जानिए तितनी ही प्रतिज्ञा क्यों न लीजिए । दुखी होनेमें आर्तध्यान होय, ताका फल भला कैसे लागेगा । अथवा उस प्रतिज्ञाका दुख सह्या न जाय, तब ताकी एवज विषयपोषनेकौं अन्य उपाय करै । जैसें तृषा लागै, तब पानी तो न पीवै अर अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करै । वा घृत तौ छोड़े, अर अन्य स्निग्धवस्तुकौं उपायकरि भखै । ऐसे ही अन्य जानना । लो परीषह न सह्या जाय था, विषयवासना न छूटै थी, तो ऐसी प्रतिज्ञा काहेकौं करी । सुगमविषय छोड़ि विषमविषयनिका उपाय करना पड़े, ऐसा कार्य काहेको । कीजिए । यहां तो उलटा रागभाव तीन हो है । अथवा प्रतिज्ञाविषै दुख होय, तब परिणाम | ३६२ लगाक्नेकौं कोई आलम्बन विचारै । जैसे उपवासकरि पीछे कीड़ा करें । केई पापी जुषा overest001033000000000000000156/00NOM-0800a0ook88003000-36000000000000000000000
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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