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________________ मो.मा. प्रकाश स्पर्श करावें। इत्यादि वेदना उपजावें। तीसरी पृथिवी पर्यंत असुरकुमार देव जाएं ते आप पीड़ा दें वा परस्पर लरावें। ऐसी वेदना होते शरीर छूट नाहीं पारावत् खंड खंड होइ जाइ तो भी मिलि जाय। ऐसी महा पीड़ा है। बहुरि साताका निमित्त तो किछ है नाहीं । कोई अंश कदाचित् कोईकै अपनी मानितें कोई कारण अपेक्षा साताका उदय है सो बलवान् नाहीं। बहुरि आयु तहां बहुत, जघन्य दशहजार वर्ष उत्कृष्ट तेतीस सागर । इतने काल ऐसे दुख तहां सहनै होय। बहुरि नामकर्मकी सर्वपापप्रकृतिनिहीका उदय है एक भी पुन्यप्रकृतिका | उदय नाहीं तिनिकरि महादुखी हैं । बहुरि गोत्रविष नीच गोत्रहीका उदय है ताकरि महंतता न होइ तातै दुखी ही हैं । ऐसें नरकगतिविषे महादुख जाननै। बहुरि तियंचगतिविषै बहुत लब्ध अपर्याप्त जीव हैं, तिनिका तौ उश्वासकै अठारवें भाग मात्र आयु है। बहुरि केई पर्याप्त भी छोटे जीव हैं। सो इनिकी शक्ति प्रगट भासै नाहीं । तिनिकै दुख एकेंद्रियवत् जानना । ज्ञानादिकका विशेष है सो विशेष जानना । बहुरि बड़े पर्यात जीव केई सम्मूर्छन हैं । केई गर्भज तिनिविषै ज्ञानादिक प्रगट हो है सो विषयनिकी | इच्छाकरि आकुलित हैं। बहुतकों तौ इष्टविषयकी प्राप्ति नाहीं है। काहूकों कदाचित् किंचित् हो है। बहुरि मिथ्यात्वभावकरि अतत्त्वश्रद्धानी होय रहे हैं। बहुरि कषाय मुख्यपनै तीव्र ही पाइए | है। क्रोध मानकरि परस्पर लरै हैं भक्षण करै हैं दुख दे हैं माया लोभकरि छल करै हैं वस्तुकों
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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