________________
मो.मा. प्रकाश
दोहा। बहुविधि मिथ्यागहनकरि, मलिन भए निज भाव । ... ताकौ हेतु अभाव है, सहजरूप दरसाव ॥१॥
अथ' यह जीब पूर्वोक्त प्रकारकरि अनादित मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणम है || ताकरि संसारविषै दुख सहतो संतो कदाचित् मनुष्यादिपर्यायनिविष विशेष श्रद्धानादि करनेकी शक्तिको पावै। तहां विशेष मिथ्याश्रद्धानादिकके कारणनिकरि तिनि मिथ्याश्रद्धानादिकको पोर्षे तो तिस जीवका दुख मुक्त होना अति दुर्लभ हो है। जैसे कोई पुरुष रोगी है किछ । सावधानीकौं पाय कुपथ्य सेवे तो उस रोगीका सुलजना कठिन ही होय । तैसें यह जीव मिथ्यात्वादि सहित है सो किछु ज्ञानादि शक्तिकों पाय विशेष विपरीत श्रद्धानादिककै कारणनिका सेवन करे तो इस जीक्का मुक्त होना कठिन ही होय । तातें जैसे वैद्य कुपथ्यनिका | विशेष दिखाय तिनिके सेवनकों निषेधे, तैसें ही इहां विशेष मिथ्याश्रद्धानादिकके कारणनिका विशेष दिखाय तिनिका निषेध करिए है। इहां अनादि जे मिथ्यात्वादि भाव पाइए है ते | तौ अगृहीतमिथ्यात्वादि जानने । जाते ते नवीन ग्रहे नाहीं। बहुरि इनके पुष्ट करनेके कारणनिकरि विशेष मिथ्यात्वादि भाव होय ते गृहीतमिथ्यात्वादि जानने । तहां अगृहीतमिथ्यात्वादि कका वर्णन तो पूर्व किया है सो हो जानना अर गृहीतमिथ्यात्वादिकका अब निरूपण करिए
१४२