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गे.मा
काश
रित्र जिसविषै निरूपण किए होय, सो प्रथमानुयोग है । बहुरि गुणस्थान मार्गणादिकरूप जीवका वा कर्मनिका वा त्रिलोकादिका जाविषै निरूपण होय, सो करणानुयोग है। बहुरि गृहस्थ मुनिके धर्म आचरण करनेका जाविर्षे निरूपण होय, सो चरणानुयोग है । बहुरि षट् द्रव्य सप्त तत्वादिकका वा स्वपरभेद विज्ञानादिकका जाविषै निरूपण होय, सो द्रव्यानुयोग है। अब | इनका प्रयोजन कहिये है
प्रथमानुयोगविणे तो संसारकी विचित्रता, पुण्य पापका फल, महंतपुरुषनिकी प्रवृत्ति इ. त्यादि निरूपणकरि जीवनिकों धर्मविषे लगाए हैं । जे जीव तुच्छबुद्धि होंय, ते भी तिसकरि धर्मसन्मुख हो हैं । जाते वै जीव सूक्ष्मनिरूपणको पहिचानें नाहीं। लौकिक वार्तानिकों जाने।। । तहां तिनका उपयोग लागे । बहुरि प्रथमानुयोगविषै लौकिक प्रवृत्तिरूप निरूपण होय, ताकों
ते नीकें समझि जांय । बहुरि लोकविषै तौ राजादिककी कथानिविषै पापका वा पुण्यका पोAषण है, तहां महंत पुरुष राजादिक तिनकी कथा सुनै हैं । परन्तु प्रयोजन जहां तहां पापकों
छांडि धर्मविषै लगावनेका प्रगट कहै हैं । ताते ते जीव कथानिके लालचकरि तौ तिनकों बांचे | सुनें, पीछे पापकों बुरा धर्मकों भला जानि धर्मविषै रुचिवन्त हो हैं । ऐसें तुच्छ बुद्धीनिके स| मझावनेकों यह अनुयोगते 'प्रथम' कहिए 'अव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टी' तिनके अर्थ जो अनुयोग सो प्रथमानुयोग है । ऐसा अर्थ गोमसारको टीकाविषे किया है। बहुरि जिन जीवनिकेत