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________________ मो.मा. प्रकाश इच्छा पाइए है। ताते तिनिके भोगवनेविषै आसक्त होइ रहे हैं । परन्तु इच्छा अधिक ही रहै है तातें सुखी होते नाहीं । ऊंचे देवनिकै उत्कृष्ट पुण्यका उदय है कषाय बहुतमन्द है तथापि तिनिकै भी इच्छाका अभाव होता नाहीं तातै परमार्थते दुखी ही हैं। ऐसे सर्वत्र संसारविर्षे ।। | दुख ही दुख पाइए है । ऐसें पर्यायअपेक्षा दुख वर्नन किया, अब इस सर्व दुखका सामान्य रूप कहिए है-दुखका लक्षण आकुलता है सो आकुलता इच्छा होते हो है । सोई संसारीके | इच्छा अनेक प्रकार पाइए है । एक तो इच्छा विषयग्रहणकी है सो देख्या जान्या चाहै । जैसे वर्ण देखनेकी राग सुननेकी अव्यक्तकों जानने इत्यादिकी इच्छा हो है सो तहां अन्य किछु । | पीड़ा नाहीं । परन्तु यावत् देखै जाने नाहीं तावत् महाव्याकुल होइ। इस इच्छाका नाम विषय है । बहुरि एक इच्छा कषायभावनिके अनुसार कार्य करनेकी है सो कार्य किया चाहै । जैसे | बुरा करनेकी हीन करनेकी इत्यादि इच्छा हो है। सो इहां भी अन्य कोई पीड़ा नाहीं । परन्तु | यावत् वह कार्य न होइ तावत् महा व्याकुल होय। इस इच्छाका नाम कषाय है । बहुरि एक इच्छा पापके उदयतै शरीरविणे वा बाह्य अनिष्ट कारण मिलें तब उनके दूरि करनेकी हो है। | जैसे रोग पीड़ा क्षुधा आदिका संयोग भए उनके दूर करनेकी इच्छा हो है सो इहां यह ही। | पीड़ा माने है । यावत् वह दूरि न होइ तावत् महाव्याकुलता रहै । इस इच्छाका नाम पापका | उदय है । ऐसें इनि तीनप्रकारको इच्छा होते सर्व हो दुख मानें हैं सो दुख ही है। बहुरि एक pm १०४
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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