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वारणतरण
श्रावकार
रखना चाहिये कि जबतक मोक्ष न हो मैं हरएक जन्ममें इन सात बातोंका अभ्यास करता रहूँ- (१) नित्य प्रति सम्यक्त वईक शास्त्रोंको पढता रहूँ। (२) जिनेन्द्र भगवानके चरणोंकी भक्ति करता रहूँ। (१) सदा ही साधु पुरुषोंकी संगति करता रहूँ। (४) उत्तम चारित्रवान स्त्री पुरुषोंकी कथा करता रहूँ। (५) परके दोषोंको कहने में मौन रहूँ। (६) सर्वसे प्यारे हितकारी वचन बोलूं। (७) तथा आत्माके स्वरूपकी भावना करता रहूँ। इन सात बातोंका अभ्यास सम्यक्तकी दृढता करनेवाला है। यदि इनके विरुड वर्ता जायगा तौ सम्यक्तके छूटनेका अवसर आसक्ता है या सम्यक्त मलीन रहेगा। मेरा श्रद्धान पत्थरके खंभके समान अटल बना रहे ऐसी सम्हाल श्रावकको रखनी योग्य है।
श्लोक-दर्शनं यस्य हृदये शुद्धं, दोषं तस्य न पश्यते।
विनाशं सकलं जानते, स्वप्नं तस्य न दिष्टते ॥ ३९२ ॥ अन्वयार्थ (यस्य हृदये दर्शनं शुद्ध) जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन शुद्ध है (तस्य दोषं न पश्यते) उसके भीतर कोई दोष नहीं दिखलाई पडता है ( सकलं विनाशं जानते ) वह सर्व जगतकी धन वखादि परिग्रहको विनाशीक जानता है (स्वप्नं तस्य न दिष्टते) उसको स्वप्न में भी नाशवंत वस्तुका राग पैदा नहीं होता है।
विशेषार्थ-जहां शुद्धता होगी वहां मैल नहीं व जहां मैल होगा वहां शुद्धता नहीं। दोनोंका विरोध है। इसलिये जो कोई सम्यम्दर्शनको रखते हुए २५मलों में से एक भी मलको नहीं लगाता है, सदा ही मूढतासे बचता है, किसी तरहका आभमान नहीं करता है, परम दृढतासे आत्माकी भावना भाता है, धर्मात्माओंसे प्रेम रखता है, धर्मकी वृद्धिका यथाशक्ति उपाय करता है, उसके भीतर कोई दोष प्रवेश नहीं करसक्के हैं। सम्यग्दृष्टी जीव, जितनी संसारकी परसंयोगजनित अवस्थाएं हैं उनको नाशवंत जानता रहता है इसीलिये उनमें राग द्वेष मोह नहीं करता है। वह जानता है कि शरीर, धन, यौवन, बल, पुस्तकोंके आश्रय विद्या, कुटुम्ब, सेवकोंका समागम तथा यह जीवन सर्व जलके बुदबुदवत् चंचल हैं। देखते २ नष्ट होजाते हैं इसकारण इन क्षणिक पदार्थोसे सदा ही उदासीन रहता है। सम्यग्दृष्टी चक्रवर्ती भी हो तौभी बाहरसे छः खण्डका राज्य करता दिखलाई पडता है, अंतरंगमें मात्र अपने आत्मीक राज्यको ही सम्हालता है। मेरा परमाणु मात्र भी
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