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________________ मो.मा. प्रकाश न करें हैं, मन वचन कायकों रोकें है; तो भी बाके मिथ्यासादि च्यारों आसूव पाईए हैं । बहुरि कपटकर भी ए कार्य न करें हैं। कपटकरि करें तो चैवेयकपयत कैसे पहुं वै । तातें जो अंतरंग अभिप्रायविषै मिथ्यात्वादिरूप रागादिभाव हैं, सोई आसूव हैं । ताक न पहिचा, तातें या सूक्तत्वका भी सत्य श्रद्धान नाहीं । बहुरि बंधतत्वविषै जे अशुभ भावनिकरि नरकादिरूप पापका बंध होय, तार्कों तौ बुरा जानै अर शुभभावनिरूप पुण्यका बंध होय, ताको भला जाने । सो सर्व ही जीवनिकें दुखसामग्रीविषै द्वेष सुखसामग्रीविषै राग पाईये, सोही याकै राग द्वेष करनेका श्रद्धान भया । जैसा इस पर्यायसम्बन्धी सुखदुखसामग्रीविष राग द्वेष करना, तैसा ही आगामी पर्यायसम्बन्धी सुखदुख सामग्रीविषै राग द्वेष करना । बहुरि शुभ अशुभ भावनिकरि पुण्यपापका विशेष तो अधाति कर्मनिविषै हो है । सो श्रघातिकर्म श्रा त्माके के घातक नाहीं । बहुरि शुभ अशुभ भावनिविषै घातिकर्मनिका तौ निरन्तरबन्ध | होय । ते सर्व पापरूप ही हैं । ऋर तेई आत्मगुणके घातक हैं । तातै अशुद्ध भावनिकरि कर्म्मबंध होय, तिसविषै भला बुरा जानना सोई. मिथ्या श्रद्धान है । सो ऐसे श्रद्धानतै बंधका भी याकै सत्यश्नधान नाहीं । बहुरि संवरतत्वविषै अहिंसादिरूप शुभासून भाव तिनकों संवर जाने है । सो एक कारण पुण्यबन्ध भी मार्ने र संबर भी माने, सो बने नाहीं । यहां प्रश्न - जो मुनिनिकै एकै काल ए भाव हो हैं । तहां उनके बन्ध भी हो है अर संवर ३४५
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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