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मो.मा. प्रकाश
| भया हूं । बहुरि तू कहेगा यह तो पवन हैं तातें हम तौ में हों' इत्यादि चेतनाभाव जाके
आश्रय पाईए ताहीकों आत्मा कहै हैं, सो तू वाका नाम पवन कहि परंतु पवन तो भीति | आदिकरि अटकै है प्रात्मा मूंद्या बन्द किया हुवा भी अटकै नाही, तातें पवन कैसैं मानिए ।
बहुरि जितना इंद्रियगोचर है तितना ही लोक कहै है । सो तेरी इंद्रियगोचर तो थोरेसे भी | योजनका दूरिवर्ती क्षेत्र अर थोरासा अतीत अनागत काल ऐसा क्षेत्रकालवर्ती भी पदार्थ | | नाही होय सकै । अर दूरि देशकी वा बहुतकालकी बातें परंपरातें सुनिए ही है, तातै सबका
जानना तेरै नाहीं तू इतना ही लोक कैसैं कहै है । बहुरि चार्वाकमतविषै कहै हैं । पृथ्वी | अप, तेज, वायु, आकाशमिले चेतना होय आवै है । सो मरतें पृथ्वी आदि यहां रही चेतनावान् | पदार्थ गया सो व्यंतरादि भया प्रत्यक्ष जुदे जुदे देखिए है। बहुरि एक शरीरविर्षे पृथ्वी | आदि तौ भिन्न भिन्न भासे हैं चेतना एक भासै है। जो पृथ्वी आदिकै आधार चेतना होय तो लोही उस्खासादिककै जुदी जुदी ही चेतना होय अर हस्तादिक काटे जैसें वर्णादि रहै है। तैसें चेतना भी रहै है । बहुरि अहंकार बुद्धि तौ चेतनाकै है सो पृथ्विी आदि रूप शरीर तो यहां की रह्या व्यंतरादि पयायविषे पूर्वपर्याय का अहंपना मानना देखिये हैं सो कैसे हो है। बहुरि पूर्वपर्यायका गुह्य समाचार प्रगट करै सो यह जानना किसकी साथि गया, जाकी साथि जानना मया सो ही आत्मा है । बहुरि चार्वाकमतविष खान पान भोग विलास इत्यादि
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