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________________ मो.मा. प्रकाश मूर्तीक है सो ही भासै । अर आत्मा काहूकों आप जानि अहंबुद्धि धारै हो धारै सो जुदा न भास्या तब तिनिका समुदायरूप पर्यायविषै ही अहंबुद्धि धारै है । वहुरि आपके अ शरीरकै निमित्त नैमित्तिक संबंध घना ताकरि भिन्नता भासे नाहीं । बहुरि जिस विचारकरि भिन्नता भासै सो मिथ्यादर्शनके जोरतैं होइ सकै नाहीं । तातै पर्यायही विषै हंबुद्धि पाइए | है | बहुरि मिथ्यादर्शनकरि यह जीव कदाचित् बाह्यसामग्री का संयोग होते तिनिकों भी अपनी माने है । पुत्र स्त्री धन धान्य हाथी घोरे मन्दिर किंकरादि प्रत्यक्ष आप भिन्न अर सदाकाल अपने आधीन नाहीं ऐसे आपकों भासें तौ भी तिनविषै ममकार करे है । पुत्रादिकविषै | ए हैं, सो मैं ही हौं ऐसी भी कदाचित् भ्रमबुद्धि हो है । बहुरि मिथ्यादर्शन शरीरादिकका स्वरूप अन्यथा ही भासै है । अनित्यकौं नित्य माने है भिन्नक अभिन्न मानै दुखके कारनकों सुखके कारन माने दुखकों सुख माने इत्यादि विपरीत भासे है । ऐसें जीव जीवतत्त्वनिका यथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान हो है । तिनिकों अपना स्वभाव माने है । कर्म उपाधितै भए न जा है। दर्शन ज्ञान उपयोग अर ए आस्त्रव मात्र तिनकों एक माने है । जातैं इनका आधारभूत तौ एक आत्मा र इनिका परिणमन एकै काल होइ तातैं याकौं भिन्नपनौ न भासै अर भिन्नपनौ भासनेका कारन जो विचार है सो मिथ्यादर्शनके बलतें होइ सकै नाहीं । बहुरि एमिध्यात्व कषायभाव आकुलतालिए हैं, तातें वर्त्तमान दुखमय हैं । र कर्मबंध के कारन हैं, ता १२२
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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