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________________ वारणसरण (३) संशय मिथ्यात्व-पदार्थ कैसा है उसका निर्णय न करके शंकाशील रहना कि आत्मा श्रावकाचर है या नहीं, परलोक है या नहीं, पुण्य पाप है या नहीं। (४) विनय मिथ्यात्व-सत्य असत्यकी परीक्षा न करके सर्व ही देवोंकी, सर्व ही गुरुओंकी, सर्व ही धोकी भक्ति भाव रखना । मूढतासे यह समझना कि हम सबको मानेंगे इससे हमारा हित होगा। मूढ़ भक्तिको ही हित मानना। (५) अज्ञान मिथ्यात्व-धर्मको जाननेका उत्साह न रखके मूर्ख रहना व देखादेखी विना ॐ समझे हुए किसी भी क्रियाको करते हुए धर्म मान लेना। इन पांच तरह के मिथ्यात्वोंका पोषक वचन सर्व आत्माका घातक है। इनहीके कारण असत्य मार्गमें शिष्योंका उत्साह बढ़ जाता है। वे बिचारे मिथ्यात्व सहित होकर सम्यग्ज्ञानकी न पाते हुए अज्ञानी रहते हैं उनको कभी यह चिंतषन नहीं होता कि मैं तो वास्तवमें शुभ बुद्ध स्वभाव है, मैं ज्ञाता दृष्टा वीतराग हूं। तथा कर्ममैलसे मैं अशुद्ध होरहा हू। परमात्मा कर्म मैल रहित शुद्ध बुद्ध परम आनंदमई हैं। मुझे भी अपने आत्माको ऐसा ही विश्वासमें लाकर अंतरात्मा होना चाहिये और परमात्माका आराधन करके परमात्मा होजाना चाहिये । यह बुद्धि विपरीत कारणोंके होनेसे नहीं जगती है। ____ श्लोक-मिथ्यादर्शनं ज्ञानं, चरनं मिथ्या उच्यते । अनृतं रागसंपूर्ण, संसारे दुःखबीजकं ॥ २१॥ अन्वयार्थ-(रागसंपूर्ण) संसारके रागसे भरा हुआ (अनृतं ) मिथ्या भाव (मिथ्यादर्शनं ज्ञानं ) मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान तथा (मिथ्याचरनं) मिथ्या चारित्र (उच्यते ) कहा जाता है। ये ही (संसारे) संसारमें (दुःखबीजकं ) दुःखोंके उत्पन्न करनेवाले बीज हैं। विशेषार्थ-संसार असार है, शरीर अपवित्र है, इन्द्रियोंके भोग अतृप्तिकारीव नाशवंत हैं। इनमें 5 वैराग्यभाषकोन लाकर असर इनही राग होनासोराग संपूर्ण मिथ्याभाव है। विषयभोगोंके लालचसे आत्माके आनन्द देनेवाले धर्मकी श्रद्धा न करके उससे उल्टे धर्मकी श्रद्धा करना मिथ्यादर्शन है। ए॥२१॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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