________________ 84] [प्रज्ञापनासूत्र . यह खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों की प्ररूपणा हुई। इसकी समाप्ति के साथ ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों की प्ररूपणा भी समाप्त हुई और इसके साथ ही समस्त तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की प्ररूपणा भी पूर्ण हुई। विवेचन-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीवों की प्रज्ञापना--प्रस्तुत इकतीस सूत्रों (सू. 61 से 61 तक) में शास्त्रकार ने पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के जलचर प्रादि तीनों प्रकारों के भेद-प्रभेदों तथा उनकी विभिन्न जातियों एवं जातिकुलकोटियों की संख्या का विशद निरूपण किया है। गर्भज और सम्मूच्छिम की व्याख्या - जो जीव गर्भ में उत्पन्न होते हैं, वे माता-पिता के संयोग से उत्पन्न होने वाले गर्भव्युत्क्रान्तिक या गर्भज कहलाते हैं। जो जीव माता-पिता के संयोग के बिना ही, गर्भ या उपपात के बिना, इधर-उधर के अनुकूल पुद्गलों के इक? हो जाने से उत्पन्न होते हैं, वे सम्मूच्छिम कहलाते हैं / सम्मूच्छिम सब नपुंसक ही होते हैं; किन्तु गर्भजों में स्त्री, पुरुष और नपुसक, ये तीनों प्रकार होते हैं।' तिर्यञ्चयोनिक शब्द का निर्वचन-जो 'तिर' अर्थात् कुटिल-टेढ़े-मेढ़े या वक्र, 'अञ्चन' अर्थात् गमन करते हैं, उन्हें तिर्यञ्च कहते हैं / उनको योनि अर्थात्-उत्पत्तिस्थान को 'तिर्यग्योनि' कहते हैं / तिर्यग्योनि में जन्मने-उत्पन्न होने वाले तैर्यम्योनिक हैं / 'उरःपरिसर्प' और 'भुजपरिसर्प' का अर्थ-जो अपनी छाती (उर) से रेंग (परिसर्पण) करके चलते हैं, वे सर्प आदि स्थलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय 'उरःपरिसर्प' कहलाते हैं और जो अपनी भुजाओं के सहारे चलते हैं, ऐसे नेवले, गोह आदि स्थलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय प्राणी 'भुजपरिसर्प' कहलाते हैं / . 'प्रासालिक' (उरःपरिसर्प) की व्याख्या—'आसालिया' शब्द के संस्कृत में दो रूपान्तर होते हैं--प्रासालिका और प्रासालिगा। प्रासालिका या प्रासालिक किसे कहते हैं, वे किस-किस प्रकार के होते हैं और कहाँ उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में प्रज्ञापना सूत्रकार श्री श्यामार्य वाचक ने अन्य ग्रन्थ में भगवान् द्वारा गौतम के प्रति प्ररूपित कथन को यहाँ उद्धृत किया है / ___'प्रासालिया कहि संमुच्छइ ?' इस वाक्य में प्रयुक्त 'संमुच्छइ' क्रियापद से स्पष्ट सूचित होता है कि 'आसालिका' या 'प्रासालिक' गर्भज नहीं, किन्तु सम्मूच्छिम हैं / प्रासालिका की उत्पत्ति मनुष्यक्षेत्र के अन्दर अढाई द्वीपों में होती है। वस्तुतः मनुष्यक्षेत्र, अढाई द्वीप को ही कहते हैं, किन्तु यहाँ जो अढाई द्वीप में इनकी उत्पत्ति बताई है, वह यह सूचित करने के लिए है कि प्रासालिका की उत्पत्ति अढाई द्वीपों में ही होती है, लवणसमुद्र में या कालोदधिसमुद्र में नहीं। किसी प्रकार के व्याघात के अभाव में वह 15 कर्मभूमियों में उत्पन्न होता है, इसका रहस्य यह है कि अगर 5 भरत एवं 5 ऐरवत क्षेत्रों में व्याघातहेतुक सुषम-सुषम आदि रूप या दुःषमदुःषम आदिरूप काल व्याघातकारक न हों, तो 15 कर्मभूमियों में प्रासालिका की उत्पत्ति होती है / यदि 5 भरत और 5 ऐरवत क्षेत्र में पूर्वोक्त रूप का कोई व्याघात हो तो फिर वहाँ वह उत्पन्न नहीं होता। ऐसी (व्याघातकारक) स्थिति में वह पांच महाविदेहक्षेत्रों में उत्पन्न होता है। इससे यह भी 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. बृत्ति, पत्रांक 44 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 43 3. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 46 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org