Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पूर्वार्द पहली जिल्द Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञान-गुण पुष्पमाला पुष्प नम्बर ३५ www श्री भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पूर्वार्द्ध [ पहली जिल्द ] बीर सं० २४६६ प्रथमावृति ५०० श्रीमद् रत्नप्रभसूरीश्वर पादकमलेभ्यो नमः लेखक शीघ्रबोधादि तात्विक, ककाबतीसी अध्यात्म, पंचप्रतिक्रमणादि विधि विधान, व्याख्या विलासादि उपदेशीक, समाज सुधार विषय कागद हन्डी पैठ परपैठ और दान छत्तीसी मेरनामा, स्तवनादि भक्ति विषय, प्रतिमा छ दयाबहुतरी, चर्चा, ऐतिहासिक विमूर्तिपूजाका -पाचीन इतिहास, लौंकाशाह, जैनजाति होदय या समसिंहादि विविध विषय के २३५ ग्रन्थों के लेखक व सम्पादक इतिहास प्रेमी मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज प्रकाशक श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला सु० फलौदी ( मारवाड़ ) ओसवाल संवत् २४०० [वि० सं० २००० ] (55555] ई० स० १६४३ सम्पूर्ण ग्रंथ का मूल्य ३१) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n waruna.00000000000. प्रकाशक लिछमीलाल मिश्रीलाल वैद्य महता __ मन्त्री श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला फलोदी (मारवाड़) Godaesaas.4.Mess.०............cccessow..- ..-000000ses इस ग्रन्थ के शुरू के १६५ फार्म, इनर टाईटल तथा उसके बाद के फार्म आदर्श प्रिन्टिंग प्रेस, केसरगंज अजमेर में छपे हैं। avistone सर्व हक्क स्वाधीन - इस ग्रन्थ के अन्त के ३५ फार्म, १६६ से २०० तक श्री नथमलजी लूणिया द्वारा सस्ता साहित्य प्रेस ब्रह्मपुरी अजमेर में छपे हैं। संचालक-जीतमल लूणिया मुद्रकपाबू चिम्मनलाल जैन आदर्श प्रिंटिंग प्रेस, कैसरगंज, अजमेर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भगवान् पार्श्वनाथ कमठे धरणेन्द्रच, स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुतुल्य मनोवृतिः, पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तुवः ।। २५ ।। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ c oop.0.0.000.000.000,00 Deca...O0D....3000.000. . 00m 000(OROL00000000000000000.. .OOOOOOOOOO....0.. 0.00 Shree Gyan-Gun Pushpa Mala. Pushpa No. 35 ...... Shreemad Ratpaprabh Sooriswar Padkamlebhyo Namah ........ .. gesetzlike sike siste BB.C. . . . OO.G.I Shree Bhagwan Larshwaunth li Larampara ka Ytikas POORWARDH [ VOL. 1] .O . ... ...... ...... . .*** *.* e .. ... ... Was di 1.1. Author * Sheeghra-bodhaditatvik, Kakabateesi Adhyatma, Panch pratikramanadi vidhi vidhan, Vyakhya vilasadi updesheek, Samajsudhar vishaya Kagad Hundi Peth Per-peth or Mejharnama stavnadi bhakti vishaya, Pratima chattisee, Dan chattisee, Dayabahutari, Charcha Eitihasik vishaya, Murti Puja ka Pracheen Itihas, Lonkashah, Jain Jati Mahodaya ya Samsinghadi vividh vishaya ke 235 Granthson ke Lekhak va Sampadak Itihas Premi Muni Shree Gyan Sunderji Maharaj Prakashak Shree Ratnaprabhakar Gyan Pushpa Mala PHALODI ( Marwar ) 1.100O .. ... .. ... OSWAL SAMVAT 2400 0 elkezikamike Dolina 004 Veer Sainvat 2469. [V. Samvat 2000 1 Iswi Samvat 1943, . . First Edition 500 { $450 451 busi of compleix sct Rs. 31 .. ecc 09049. . . .. O U .. .. . ... .. .... . .. . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher Lichmi Lal, Misri Lal Vaidya Mehta Secretary Shree Ratnaprabhakar Gyan Pushpa Mala PHALODI (Marwar) The first one hundred and sixty five forms, inner title & subsequent forms printed by Babu Chimman Lal Jain at Adarsh Printing Press, Kaisargunj, AJMER, W ALL RIGHTS RESERVED. The last 35 forms, from 166 to 200, have been printed by Nathmul Loonia at the Sasta Sahitya Press, Brahmpuri, AJMER. Sanchalak-Jeet Mal Loonia Printer: Babu Chimman Lal Jain At ADARSH PRINTING PRESS, For Erivate & Personal Use Only *G Kaisargunj, AJMER. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S ओसवंश के आद्यस्थापक जैनाचार्य श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर पादपद्मभ्योः १ - जन्म वीर निर्वाण संवत् १ प्रारम्भ | २- -दीक्षा वीर निर्वाण संवत् ४० । ३- आचार्यपद वीर निर्वाण संवत् ५२ । ४ - उपकेशपुर के राजा प्रजा को जैनधर्म की दीक्षा वी० नि० सं० ७० वर्ष । ५ – आपश्रीजी ने अपनी मौजूदगी में चौदहलक्ष घर वालों को जैन बनाये । ६ - सर्व आयुष्य ८४ वर्ष का अन्त में वी० नि० ८४ वर्ष पुनीत तीर्थ श्री शत्रुंजय पर समाधि पूर्व स्वर्ग पधारे। श्री संघ ने वहाँ विशाल स्तूम्भ बनाया था 'ज्ञान' & Personal Use Or --- 0000000000000000 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास.9 8000000 00000000 शास्त्रविशारद जैनाचार्य विजयधर्मसूरीश्वरजी HTMWinterror T EHuttesek Fadidaan Follow File Nrause Sten Kotaw WAYADNOM SUR i wsyon Neyelin GOS: PW. Themes. Syban Leri. o Bartold. आपश्री ने काशी में जाकर जैनों के लिये विद्या का केन्द्र स्थापन किया आपके मौलिक गुणों से मुग्ध हो काशी नरेश एवं जैनेत्तर पण्डितों ने आपको शास्त्रविशारद जैनाचार्य पद से विभूषित किये आपने बहुत मांस आहारियों को मांस खाना छोड़ाया तथा अनेक पाश्चात्य विद्वानों एवं अंग्रेजों को जैनधर्म के अनुरागी बनाये । जो कई चित्र में है। @@D. or .. NO W T .. .. Jain -.. ............ . .............. par0nevaas.per Goat Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 2,9 :09@G :- @@@ 280@@@ @@@ इस ग्रन्थ के लेखक के गुरुवर्य परमयोगीराज मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज 00-00809) :::08@@GEE: @@@@@:: :: 00- : @@@ @DEO :: @@@: @@ श्राप ओशवंशिय रत्नशी नाम के होनहार थे अपने पिता कर्मचन्दजी के साथ किशोरावस्था में स्था० समुदाय में दीक्षा ली १८ वर्षों के पश्चात् आपने संशोधन कर शास्त्र विशारद जैनाचाय विजयधमसूरीश्वरजी महाराज के पास सवेग दीक्षा ली थी। १८ वर्षों तक दीक्षा पा ली अन्त में वि० सं० १९७७ वापि ग्राम में समाधि के साथ स्वर्ग पधारे । 2 @@@ जन्म S:00 स्थान दीक्षा | संवेगपक्षी दीक्षा| स्वर्गवास १६४१ । १६५६ | १९७७ १६३१ 90000000 @@ @@@@23:2@@)©®:00:0@@@@: Jain .. . International www.jainelae-resorg Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राइये सज्जनों! दो शब्द मेरे भी पढ़ लीजिये १-जैन समाज हमेशा से गुणानुरागी रहा है यदि १०० अवगुणों के अन्दर एक भी गुण है तो अवगुणों की उपेक्षा कर एक गुण को ही ग्रहन करेगा। कारण अवगुण तो पहले से ही आत्मा में भरे पड़े है पर गुणों के लिये स्थान खाली है उसकी पूर्ति के लिये गुण ही ग्रहन करते हैं इस पर भ० श्रीकृष्ण और मृत श्वांन का उदाहरण खूब ही विख्यात है । २-दूसरा अवगुण ग्राही-यदि १०० गुणों के अन्दर एक भी अवगुण मिल जाता हो तो वह गुणों की उपेक्षा कर अवगुण को ही ग्रहन करेगा क्योंकि उसके हृदय में गुणों के लिये स्थान ही नहीं है जिसके लिये एक सेठानी और बन्दरी का दृष्टांत प्रसिद्ध है। इन दोनों की परीक्षा के लिये आज हम मुनिश्री का लिखा हुआ यह ग्रन्थ रख देते हैं कि जिसके अन्दर से दोनों महाशय अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार गुण अवगुण ग्रहन कर सकेगा। ... (१) गुणग्राही कहता है कि मुनिजी अच्छे उद्योगी साधु हैं। जैन-मुनियों की दैनिक क्रियाकाण्ड के अलावा विहार, व्याख्यान, जिज्ञासुओं के साथ वार्तालाप, प्रश्नो के उत्तर देना एवं लिखना धर्म चर्चा करना, जैनधर्म पर अन्य लोगों द्वारा किये हुए आक्षेपों का प्रतिकार करना जहाँ धर्म की शिथिलता देखी वहाँ धार्मिक महोत्सवों द्वारा जागृत करना, मन्दिरों की प्रतिष्ठा, यात्रार्थ तीर्थों का संघ निकलाना ज्ञान प्रचारार्थ विद्यालयों की स्थापना करवाना, कुरूढ़ियां निवारणार्थ उपदेश एवं ट्रेक्टों द्वारा प्रचार करना इत्यादि कार्यों से आपको समय बहुत कम मिलना एक स्वभाविक बात है । दूसरा इस समय आपकी आयुः भी ६३ वर्ष की हो चुकी है शरीर में वायु का प्रकोप होने से स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता है और नेत्रों की रोशनी भी कम हो गई है तथापि ऐसा वर्ष शायद ही व्यतीत होता हो कि आपके लिखे हुए छोटे बड़े ८-१० ग्रन्थ मुद्रित नहीं होता हो आपने २८ वर्षों में छोटे बड़े २३५ ग्रन्थ लिख कर प्रकाशित करवा दिये हैं। फिर भी न तो आपके पास कोई सहायक साधु है और न आपके पास हमने ऐसा पण्डित ही देखा है कि आपके कार्य में कुछ मदद पहुंचा सके अर्थात जितना कार्य आप करते हैं वह प्रायः सब अपने हाथोंसे ही करते हैं। हाँ एक कारण आपके पास इतना जबर्दस्त है कि जिसके जरिये आप इतना कार्य कर पाये हैं वह कारण है आपके पास आडम्बर का अभाव इतना ही क्यों पर आपको अपने भक्तोंके द्वारा कभी प्रोपोगेंडा करवाते भी हमने महीं देखा हैं यही कारण है कि न तो आप समाज में लेखक के नाम से प्रसिद्ध हैं और न समाज ने भी आपको इतने अपनाये है और न कभी श्राप हतोत्साही भी होते हैं इतना ही क्यों पर आपके कार्य में कई सज्जनों ने विघ्न भी उपस्थित किये पर आप किसी की परवाह किये बिना अपना कार्य करते ही रहे हैं। मापके ऐसा कोई भक्त श्रावक भी नहीं हैं कि उसकी ओर से ज्ञान प्रचार के लिये द्रव्य की छूट है तब भी आपका कार्य सदैव चलता ही रहता है अतः आपके एकेक कार्यसे गुण ग्रहण करे तो हमारे रिक्त स्थानों की पूर्वि हो सकती है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... (२) दुसरा अवगुणग्राही-वे भी निराश नहीं होते हैं पर अपनी प्रकृति के अनुसार कैसा ही कार्य क्यों न हो पर उनको भी कुछ न कुछ मिल ही जाता है। वे कहते हैं कि इस प्रन्थ को लिखकर मुमिजी ने क्या अधिकाइ की है जो बातें आपने अपने ग्रन्थ में लिखी है वह तो सब पहले से ही लिखी हुई थी दूसरा आपने वंशावलियों एवं पट्टावलियों के आधार पर बहुत-सी बातें लिखी हैं जिन पर विद्वानों का विश्वास ही कम है तीसरा आपके लिखे ग्रन्थों में अशुद्धियाँ भी बहुत हैं चतुर्थ बात यह है कि इस ग्रन्थ लिखने में आपने जो अयोजन पहले से किया वह व्यवस्था भी ठीक नहीं कर पाये फिर आपके प्रन्थ से हम क्या गण ले सके हमें तो जहाँ देखे वहाँ अवगुण ही दृष्टि गौचर होते हैं। हमने तो भूतकाल में कहीं गुण देखा नहीं और भविष्य में उम्मेद भी नहीं रख सकते हैं एक मुनिजी के ग्रन्थ में ही क्यों पर संसार भर में जहाँ देखू वह मुझे तो अवगुण ही अवगुण दीख पड़ते हैं। (३) तीसरा मध्यस्थ दृष्टि वाला पुरुष कहता है कि नहीं करने की अपेक्षा तो कुछ करना हजार दर्जे अच्छा है जो मनुष्य कार्य करने में गलती करता है फिर भी वह कार्य करता रहता है वह अपनी भूल को अवश्य सुधार सकता है। पृथक् २ ग्रन्थ में पृथक् बातें लिखी हैं उसको एक स्थान संग्रह करना कोई साधारण काम नहीं हैं और पाठकों के लिये भी कम सुविधा नहीं है कि सौ-ग्रन्थों की अपेक्षा एक ग्रन्थ से ही सौ बातें पढ़ने को मिल जाय । दूसरा वंशावलियों और पट्टावलियों पर अविश्वास रखने से ही समाज अपना गौरवशाली इतिहास से हाथ धो बैठा है। स्थानाभाव से हम अधिक नहीं लिख सकते हैं पर यह बात तो प्रसिद्ध है कि जैन समाजके दांनी मानी वीर उदार पुरुषोंने समाज वधर्म की नहीं पर देशके सर्वसाधारण की बड़ी बड़ी सेवाएं की हैं असंख्य द्रव्य ही नहीं पर अपने प्राणों का भी बलीदान देश हित कर दिये थे यही कारण है कि उन राजा महाराजा एवं बादशाह और नागरिकों की ओर से जगतसेठ नगरसेठ चोवरिया टीकायत चौधरी, पंच और शाह जैसी पद्वियों केवल इसी समाज के वीरों को मिली थी पर आज उनका इतिहास के प्रभाव उनकी संतान का न कहीं नाम है न कहीं स्थान है वे पग पग पर ठुकराए जाते हैं आज स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों में साधारण व्यक्तियों का इतिहास मिलता है पर उन वीरों का कहीं नाम निशान तक भी नहीं हैं। वंशा० पट्टावलियों हमारे पंचमहाब्रतधारी सत्यवक्ता भवभीरू आचार्यों की लिखी हुई है वे एक अक्षर भी जानबूझकर न्यूनाधिक लिखना संसार भ्रमन समझते थे उन वंशा० पट्टावलियों पर अविश्वास करने का नतीजा यह हुआ कि हमारे पूर्वजों का गौरवशाली इतिहास होने पर भी आज हमारी यह दशा हो रही है। मुनिजी ने अपने ग्रन्थ में वंशा० पट्टावलियों को स्थान दिया है यह बहुत दीघे दृष्टि का ही काम किया है। तीसरा प्रेस के कार्य में अशुद्धियाँ रह जाना एक साधारण बात है और एक मनुष्य पर अनेक कामों की जुम्मावारी होने से अव्यवस्था हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है अतः अवगुणप्राही अवगुण न ले तो वे अवगुण निकल ही नहीं सके इसलिये अवगुणग्राही लोगों का भी उपकार ही मानना चाहिये कि उनके चुने हुए अवगुण फिर दूसरी बार नहीं रह सके। और गुणग्राही सज्जनों का तो कर्तव्य ही है कि वह गुणग्रहन कर लेखक के उत्साह को बढ़ावे कि वे ऐसे ऐसे अनेक प्रन्थ लिखकर समाज के सामने रखे। __म-सज्जन 'चान्द' Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणों के गच्छ-शालए निम्रन्थगच्छ विद्याधरगच्छ (प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि से) उपकेशगच्छ (श्रा० रत्नप्रभसूरि से) कोरंटगच्छ (प्राचार्य कनकप्रभसूरि से) मूलगच्छ माथुरी शाखा मूलगच्छ कुकुंदी शाखा ___ (कुकुंदाचार्य से) मूलगच्छ द्विवन्दनीक शाखा मूल शाखा (वृद्ध) लघु कुकुंदी शाखा (कुकुंदाचार्य-ककसूरि) मुल भीनमाल शाखा चन्द्रावती शाखा मूलगच्छ मेड़ता की शाखा मूल शाखा खटकूप शाखा (सिद्धसूरि से) मृल खटकूप शाखा लघु खटकूप शाखा बीकानेर शाखा खजवाना शाखा * ऊपर बतलाई उपकेशगच्छ की सब शाखाओं में प्राचार्यों की नामावली क्रमशः कक्कसूरि देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि नाम से ही चली आई हैं अतः निर्णय करने में बड़ी सावधानी रखनी चाहिये । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० पार्श्वनाथ की ३३, ककसूरि " ५ परम्परा १ श्री शुभदत्तगण घर " २ हरिदत्ताचार्य (३६, कक्कसूरि -७ 37 ३, समुद्राचार्य ३७ देवगुप्त० " " केशी श्रमणाचार्य ३८, सिद्धसूरि 19 स्वयंप्रभसूरी श्रीमाल पोखाड " " २२ ) ११,, रत्नप्रभसूरि- १ १२,, यक्ष देवसूरि १३, कक्कसूरि १४ ” देवगुप्त सूरि १५, सिद्धसूरि १६,, रत्नप्रभसूरि-- ३ "" १७, पक्षदेवसूरि ६, रत्नप्रभसूरि ( महाजन संघ यक्ष देवसूरि ४३, देवगुप्त० (सिंध में जैनधर्म) ४४, सिद्धसूरि ” यक्षदेवसूर 99 " 99 १८, कक्कसूरि ,, देवगुप्तसूर ” सिद्धसूरि १९ २० " २१ , रत्नप्रभसूरि - ४ 12 99 A 99 " २६, कक्कसूरि २४, देवगुप्तसूर २५, सिद्धसूरि २६,, रत्नप्रभसूरि-५ २७ यक्षदेव० 39 २८, कक्क सूरि २९ देवगुप्त " १० सिद्धसूरि H " ३१ रत्नप्रभसूरि-- ६ 10 ८,, कक्कसूरि " ( कच्छ में जैनधर्म) ४६, देवगुप्त ९, देवगुप्तसूरि ४७, सिद्धसूरि ( पंजाब में जैन ) ४८, कक्कसूरि १०, सिद्धसूरि ४९ देवगुप्त 99 (सौराष्ट्र) ५०, सिद्धसूरि "" भ० महावीर परम्परा १ सौधर्म गणधर " 99 99 ३४, देवगुप्त १५, सिद्धसूरि " 33 ३९ "1 " ककसूरि ६ " 39 -८ ४०, देवगुप्त ० ४१, सिद्धसूरि ४२, कक्कसूरि -९ १२ जम्बुस्वामि ३ प्रभवस्वामि * शय्यंभव० 99 23 " " ४५, कक्कसूरि – १० "" " "9 "3 -99 وا ५ यशोभद्रसूरि ५ संभूतिविजय भद्रबाहु स्वामी ७ स्थुलिभद्र ८ महागिरी सुहस्ती ९ सुस्थी सुप्रतिबुद्ध १० इन्द्र दिन्नाचार्य ११ आर्य दिन्नाचार्य १२ सिंहगिरी सामान्य विषय सूची GR } १३ बज्रस्वामी ० १४ बज्रसेन १५ चन्द्रसूरि १६ सामन्तभद्र सूरि १७ वृद्धदेव १० प्रयोम्न सूरि १९ मानदेव " २१ वीर सूरि २२ जयानन्द २३ देवानन्द,, २४ विक्रम २५ नरसिंह २६ समुद्र २७ मानदेव " भ० महावीर की परम्परा के प्रभाविकाचार्य १ उमास्वाति 19 " او 19 २ श्यामाचार्य ३ विमलसूरि ४ कालकाचार्य ५ पादलिप्ताचार्य ६ रुद्रदेव ७ श्रमणसिंह ८ खपटाचार्य ९ महेन्द्रोपाध्या० १० नागार्जुन ११ वृद्धवादी १२ सिद्धसेन दिवाकर १३ जीवदेवसूरि रक १७ स्किन्दलाचार्यं १५ समिताचार्य १६ आर्यरक्षित (चार अनुयोग क० ) १७ आ० नन्दिल १८ मल्लवादी १९ वीरसूरि (१) २० वीरसूरि (२) २१ बप्पभट्टिसूरि २२ हरिभद्रसूरि २३ सिद्धर्षि २४ महेन्द्रसूरि राज प्रकरण अश्वसेनराजा शिशुनागराजा प्रसनजित श्रेणिक-बिंवसार कूणिक - अजातशत्रु उदाइ राजा अनरूद्ध मुदा 32 नन्दवंशी ९ राजा मौर्य-चन्द्रगुप्त बिन्दुसार अशोक कुनाल 39 19 सम्राट सम्प्रति वृहद्रथादि पुष्पमित्रादि चेटकवंश शोभनराण खारबेल राजा गर्दभल्ला बलमित्र भानुमित्र शक राजा विक्रम राजा क्षत्रिय वंश राजा कुशानवंश के राजा गुप्तवंश के हूवंश के विशाला के राजा २५ सूराचार्य २६ अभयदेवसूरि २७ वादीदेवसूरि २८ हेमचन्द्राचार्य वच्छ देश के सिन्धु सौवीर अंग देश के कलिंग देश के कौशल देश के 31 वल्लभी वंश के आंध्र देश के पकेशपुर के د. वीरपुर के ور 13 39 " " 39 39 91 99 शंखपुर के राजा चन्द्रावती के नागपुर के भिन्नमाल के जातियों ओसवाल जाति पोरवाद जाति श्रीमाल जाति पल्लीवाल 39 27 " " अग्रवाल खंडेलवाल नरसिहपुर वरवाल परमार 39 गौरार शत्रुजय विच्छेद 19 39 " " उदार अष्टापद की यात्रा नन्दीश्वर की यात्रा शासन के सात तिन्हव व्यापार प्रकरण महाजनों की पंचायत ७४ ॥ शाहों की ख्यात प्र० भा० की सभ्यता कुल वंश वर्ण गौश्रजातियां भोसवालों का रास प्र०कवितों का सं● जातियों की उत्पत्ति प्राचीन सिक्के स्तम्भ गुफाएँ 13 शिलालेख मुमुक्षुओं की दीक्षाएँ मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएँ तीर्थों के संघ दुभिक्षों में देशकारक्षण तला कुंए वापियां वीरांगनाएं और भी विविध विषयों Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् कानमलजी साहब वैद्य मेहता पीपलिया ( मारवाड़ ) आप श्रीमान् ने इस ग्रन्थ के लिये २३०१) के कागज मंगवाय दिये जिससे हम इस ग्रन्थ को प्रकाशित करने में सफल हुए हैं । तदार्थ आपको सादर धन्यवाद दिया जाता है । मंत्री - श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला - फलोदी ( मारवाड़ ) me Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्रीमान कानमलजी मुत्ता के सुपुत्र माणकचन्दजी मुत्ता पीपलिया श्रीमान् गणेशमलजी मुत्ता पीपलिया श्रीमान् रत्नचन्दजी कोचर महताJan Education International जयपुर For Private sp श्रीमान् गणेसमलजी मुत्ता के सुपुत्र लालचन्दजी मत्ता- पीपलिया , Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्रीमान् देवकरणजी महता अजमेर 10 सेठ वंशीलालजी प्यारालालजी बोहरा पीपाड़ सीटी मारवाड Jain Education Inf श्रीमान् रूपकरणजी महता अजमेर श्रीमान जवहरीलालजी दफतरी पीपाड़ सीटी ( मारवाड़ ) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ के लिये द्रव्य सहायकों की शुभ नामावली २३०१) श्रीमान् कानमलजी गणेशमलजी वैद्य महता पीपलिया (मारवाड़) ४००) , लीछमीलालजी मिसरीलालजी वैद्य महता फलोदी (मारवाड़) , दुर्गाचन्दजी विनायकिया फार्म-प्रतापमलजी अमोलखचन्दणी वेजवाड़ा १२५) , माणकलालजी धनराजजी वैद्य महता फलोदी (मारवाड़) , घीसुलालजी शंकरलालजी मुनोयत ५१) ३१) २५) ब्यावर ,, रूपचन्दजी हस्तीमलजी सेठिया गुंदोच , लाभचन्दजी मंगलचन्दजी वैद्य महता फलोदी , लालचन्दजी बाफना चंडावलवाले ५०) ५०) वेजवाड़ा , हमीरमलजी धनरूपमलजी शाहा जौहरी अजमेर , जीतमलजी लढ़ा की धर्म पत्नी श्रीमती प्रभावती बाई अजमेर ,, सेठ बन्शीलालजी प्यारालालजी बोहरा पीपाड़ सीटी मोतीलालजी मंगलचंदजी भंडारी अजमेर सोजत , गंभीरभाई ओघड़भाई ब्यावर में । भावनगर , रायबहादुर सेठ वरधमलजी लोढा की धर्म पनी अजमेर , कस्तुरमलजी बोत्थरा निबाहड़ा (मेवाड़) , लालचन्दजी अमाममलजी बोत्थरा गोगेलाव (मारवाड़) , छोगमलजी केसरीमलजी सेठिया बीलाड़ा (मारवाड़) , ताराचंदजी बोत्थरा के हस्तु राजम (सी. पी.) , उदयराजजी वैद्य महता फलोदी (मारवाड़) , जालमचन्दजी गदइया जगतसेठ उदयचन्दजी की पत्नी-हाल अजमेर , भूरामलजी गदझ्या ब्यावर १०) , एक सुपुत्र की माता गुप्तपने ब्यावर , भंवरलालजी जालौरी ब्यावर , एक मात ने गुप्त नाम से दिये ब्यावर , एक जैनेतर बाईने उत्कृष्ट भावना से अजमेर ___ "उपरोक्त सहायकों का,हम सहर्ष उपकार के साथ धन्यवाद देते हैं" -प्रकाशक" इस ग्रन्थ के पहले से ग्राहकों की शुभनामावली ६२५) श्रीसंघ पंजाब-पुस्तकें २५ पंजाब २५) श्रीमान जतनमलजी सुजाणमलजी भंडारी २५) , गणेशमलजो कोठारी ब्यावर २५) , केसरीमलजी लिखमीचंदजी मुत्ता ब्यावर २५० , तेजमलजी अमरचंदजी तातेड़ व्यावर २५), गणेशमलजी चांदमलजी मुत्ता जैतारण वाले ब्याबर २५) , कुनणमलजी अनराजजी कोठारी ब्यावर २५) , लिखमीचन्वजी नेमीचन्दजी साँढ ब्यावर reOEEEEEEE888888888 चंडावत ब्यावर Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपाल अगमीतुर अजमेर अजमेर जोधपुर जोधपुर [ २ ] ,, अमीचन्दजी कॉसटिया , इन्द्रचन्द्रजी धोखा , हीराचन्दजी रतनचंदजी संचेती देवकरणजी रूपकरणजी महता गणेशमलजी वसतिमलजी मिसरीमलजी मुत्ता चंदनचंदजी अचलचंदजी विवेकचंदजी उपयोगचंदजी भंडारी वदनमलजी जोरावरमलजी वैद्य महता कस्तुरमलजी वरडिया अगरचंदजी फकिरचंदजी वैद्य मेहता जुगराजजी सुरांणा भूरचन्दजी भुरंट पन्नालालजी बांठिया गाडमलजी प्रेमराजजी बांठिया अमीचन्दजी हिन्दुजी नेमीचन्दजी आसकरणजी वैद्य महता गजराजजी अनराजजी संपतराजजी नेमीचंदजी संधी मुलतानमलजी सेठिया बीलाड़ा वाले मुनीम घेवरचन्दजी सुकनचन्दजी जांघड़ा शिवराजजी किसनलालजी सेठिया मिसरीमलजी अनराजजी भणवट फूसालालजी पारसमलजी मोहनलाल सोनराज डागा रूपचन्दजी पारसमल-सेठिया मगनमलजी कस्तुरमलजी बाठिया गजराजजी मेहता लाश्रियावाले , मूलचन्दजी गजराजजी, चोरड़िया वंशीलालजी प्यारालालजी बोहरा , जवहरीलालजी दफ्तरी , लाभचन्दजी लोढ़ा , अनराजजी सुकनचन्दजी सामडा , राजमलजी मानमलजी समदड़िया . . राजमलजी लखेचन्दजी ललवाणी सागरमलजी नथमलजी लुकड रायचन्दजी गुलाबचन्दजी चोपड़ा गुलाबचन्दजी निलालजी नाहर ,, नवलमलजी धनराजजी वाफणा माणकचन्दजी कीसनचन्दजी संधी श्री महावीर जैन लायब्रेरो २५) , अमोलख-सुन्दरजी Jain EduDurinternativariनचन्दजी पल्लीवाल (सलावदिया) Personal use Only फलोदी फलोदी फलोदी चएडावल चएडावल चण्डावल चण्डावल कालेद्री (सिरोही स्टेट) फलोदी सोजत कापरड़ाजी तीर्थ कापरड़ाजी तीर्थ बीलाड़ा बीलाड़ा बीलाड़ा सोजत अजमेर जोधपुर बाला पीपाड़ पीपाड़ बनारस पीपलिया मंचर (पुनाः) जामनेर जलगाव अच्छेरा सावटा डहणुबंदर उभाणा कालेद्री (सिरोही) काठियावार-चूड़ा कैसरगंज अजमेर र Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५),, थानमलजी सुकनमलजी लुखिया २५), नेासुखजी कस्तुरचंद पारख २५), जवहरीलालजी नाहटा २५), प्रेमचन्दजी गोमाजी वाली वाले २५),, रंगरूपमलजी लक्षीमलजी चौधरी २५), मीसरीमलजी अगरचन्दजी ओस्तवाल मनोहरमलजी पुनमचन्दजी सुरांगा २५) ११ २५),, श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान लायब्रेरी मुताजी घीसुलालजी की मारफत२५), भीमराजजी घेवरचन्दजी २५),, रतिलाल जीवणलाल वडवाण २५),, भगवान्जी लुबाजी सियाणा २५), जेठमबजी वालजी २५),, रिषभदासजी जुहारमलजी राठौर २५), रिखबदासजी जुहारमलजी राठौर २५) सरदारमलजी केरंगजी धोका १०), सागरमलजी हस्तीमलजी सोदागरान २५), सोधाराज चूड़ी २५),, यतिवर्य रत्नविजयजी कनैयालालजी नौरतनमलजी रामपुरा वाले - " [ ३ ] २५), लखमीचन्दजी मानमलजी सोनीगरा २५),, लीखमीचन्दजी मानमलजी सोनीगरा २५) श्री० रत्नचन्दजी अमरचन्दजी खीवसरा २५), नेमिचन्दजी खालिया १५) ए. न. दीपाजी मेरावाला १७४ गुलालाबाड़ी नं० ४ ," २५), पुरुषोतमदास सूरचन्द १५), अनराजजी नार २५), रतनचन्दजी कोचर महता २५), दीपचन्दजी पाँचूलालजी वैद्य महता धमतरी २५), राजमलजी केसरीचन्दजी वैद्य महता धमतरी २५),, लाभचन्दजी अमरचन्दजी वैद्य महता धमत्तरी २५) चम्पालालजी भँवरलालजी वैद्य महता धमतरी " २५), अमोलखचन्दजी भंडारी २५), बाबारामजी. छोटमलजी बंब 39 २५), जैन ओसवाल साधारण खाते २५), मेघराजजी मिखमचन्दजी मुनौयत खेरागढ़ २५), अगरचन्दजी वैद्य महता २५) पन्नालालजी गजराजी सराफ हैद्राबाद वणी शेकंद्राबाद बंबई नागोर नागोर नागोर पीसांगण उदयपुर अजमेर अजमेर सियांग फिरोजाबदा वीजावा सांढेराव फिरोजाबाद फिरोजाबाद अजमेर पोस्ट - चाणोद - वालराई बालराइ बंबई ब वेगलूर जयपुर सीटी फलोदी फलोदी फलोदी फलोदी धमतरी फलोदी फलोदी बीलाड़ा बलाड़ा पुनाः अमलनेर कोल्हापुर २५), रिषभवास हाभीभाई २५), चेलाजी बनाजी ५०), रोशनलालजी मोहनलालजी चतुर उदयपुर उपरोक्त प्रथम ग्राहकों ने हमारा उत्साह में वृद्धि की है इसलिये हम आप ज्ञान प्रेमियों को सहर्ष धन्यवाद देते हैं। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समर्पण - पूज्यपाद प्रातः स्मरणीय म्यायोम्भोनिधि पंजाब केसरी, बीसवी शताब्दी के युगप्रवृक जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्री श्री विजयानन्दसूरीश्वरजी ( श्रात्मारामजी ) महाराज की आदर्श सेवा में— पूज्यगुरुदेव ! आप श्री जी ने अपने श्रमृतमय उपदेश से एवं प्रोड प्रज्ञा द्वारा लिखे हुए ग्रन्थों से अनेक भ्रमित आत्माओं का उद्धार कर सद् पथ के पथिक बनाये जिसमें मैं भी एक हूँ । अतः मेरे पर श्रापका असीम उपकार हुआ है उस उपकार से उऋण होने के लिये यह मेरी तुच्छ कृति श्रापकी श्रादर्श सेवा में श्रद्धा भक्ति एवं सादर समर्पण करता हूँ श्राप श्रीजी स्वर्ग में विराजमान हुए भी स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करावें । - ज्ञानसुन्दर Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल ग्रन्थ के प्रारम्भ के पूर्व प्रस्तावनादि की विषय सूची १९२० आइये सज्जनो! दो शब्द मेराभी । श्रेष्टिगौत्र व वैद्यमहता शाखा | इडियन रिव्यु के अक्टोम्बर" प्रस्तावना प्रारम्भ वीसलपुर में नवलमलजी मुत्ता पतन दशा का मूल कारण अज्ञान | जन्म और जन्म कुण्डली भारत मत दर्पण राजेन्द्रनाथ” एक पाश्चात्य विद्वान का कहना J विवाह-वेराग्य का कारण श्रीयुक्त सी. बी राजवाड़े इतिहास का महत्व २ | अनाथी मुनि की स्वद्याय S/O FOTTOSCHRDE हमारे पूर्वज और इतिहास ३ भावना की विदागीरी R. P. H. D. प्राचीन इतिहास काअभाव क्यों ? पुनः दीक्षा की भावना जागृत राजा शिव प्रसाद सतारे हिन्द भारत के इतिहास का सर्जन वर्तमान साधुओं की मनोवृति पा-वि० स्टीवेन्स का मत भारत का साहित्य पाणी के मूल्य | स्वयंमेव दीक्षा की प्रवृति पा० वि० मि० स० विलियम पाश्चात्यदेशों में भारतकासाहित्य विहार और चतुर्मास-वर्णन ७ डा० टामस का मत चीनी यात्री का भारत भ्रमन मुद्रित पुस्तकों की नामावली १६ | इम्परियल प्रेजी टियर ताड़ पत्रों पर लिखा साहित्य श्री भगवती सूत्र की वाचन मिस्टर टो. डब्लू० रइश का मत भारत पर धर्मान्ध विदेशियों का वृहद् शान्ति स्नात्र पूजा स. सं० स्व० स्वामि राममिश्र (२) आक्रमण और साहित्य भस्म । | समाजसेवा-ज्ञान प्रचार भारत रत्न म०तिलक का (२) मन्दिर मूर्तियों को तोड़ फोडे नष्ट | जैनधर्म की प्राचीनना २३ डा० वारदा क्रान्त० (२) जैन पट्टावलियों वंशावलियों वर्तमान ऐतिहासिक युग डा० जोन्स हटल जर्मन वंशावलियों लिखने की शुरूआत | खास विचारणीय वात पर मुहम्मद हाफिज शैयद मन्दिरों के गोष्टि बनाना ८ | प्रभास पाटण का ताम्रपत्र श्रीयुक्त तुकाराम कृष्ण शर्मा इतिहास की अव्यवस्था जैनधर्म की प्राचीनता के विषय डा० रवीन्द्र टगौर पट्टा० वंशा के लिये विद्वानों डाक्टर हरमन जाकोवी मि० महावीरप्रसाद द्विदी के मत श्री तुकाराम शर्मा ए. एम- भगवान ऋषभदेव ३८ शोध खोज में मिली हुई सामग्री है | भा० प्र० मा० इतिहास की भूमिका | काल दो प्रकार उत्स० अव० वर्तमान समय जैन इतिहास | लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक एकेक के छः छः श्रारा की दशा १० म० मणिलाल नाथुभाई सि० स० | भोग भूमि मनुष्यों का समय भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा | बोद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय का मत कुलकरों की दंड नीति का इतिहास ? | वारदाक्रान्त महोपाध्याय " भगवान् ऋषभदेव का जन्म लेखक की पढ़ाई का परिचय १२, भारतेन्दु बाबु हरिश्चन्द्र " भ० ऋषभदेव का विवाह , इतिहास की ओर रुची डाक्टर फूहरर का मत " | भ० ऋषभदेव का राजाभिषेक जैन जाति महोदय का आयोजन | मि-कन्नुलालजी का मत " नीति धर्म पु० ७२ स्त्रियों ६४ प्रथम भाग से कार्य बन्ध मि० जे.ए. डबल्यू मिशनेरी" उग्रादि चार कुल स्थापन पुनः कार्य प्रारम्भ नाम परिवर्तन | सत्य सं० सा० राममिश्र का” ऋषमदेव के १०० पुत्र २ पुत्रियों सहायकों की शुभ नामावली १७ | जैनधर्म की महता० पुस्तक " ४००० के साथ प्रभु की दीक्षा प्रन्थ का संक्षिप्त परिचय २० रायबहादुर पूर्णेन्दु का " एक वर्ष की अन्तराय सहायक प्रन्थों की नामावली २२ | महोपाध्याय गंगानाथ का " श्रीयंश कु० के घर पारणा 'लेखक का संक्षिप्त परिचय २३ | श्री नेपाल चन्द्र रोय- " भगवान् को केवल ज्ञान महाजन संघ और उपकेशवंश- एम. डी. पांड्य. थियोसेफिकल | माता मरूदेवी की मोक्ष Jain Education Interational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना गणधर - द्वादशांग की रचना मरीची का मद - अहंकार अठार भाइयों की दीक्षा भारत बहुबल का युद्ध बाहुबल की दीक्षा और ध्यान [ 1 ४४ राम कृष्ण किस धर्म को मानते थे | पुष्करार्द्ध के तीर्थङ्कर कृष्ण बलभद्र की पूजा कब से ? पूर्व मनुष्यों का लम्ब शरीर ५२ दीर्घायुः विषय शंका का समाधान हरिवंश की उत्पति कब क्यों ? नारद का सम्राट् रावण के पास आना रावण द्वारा 59 " "" "" 39 ५४ ५८ भारत का प्रभु पास जाना ६ भाइयों के लिये भोजन वृद्ध श्रावकों को भोजन कर० प्रभुके उपदेश का सारांश भारत द्वारा चार आर्य वेद ४६ वृद्ध श्रावकों द्वारा प्रचार वृद्ध श्रावकों के हृदय पर कांगणी येरत्न से जनोउ का चिन्ह म हो उपदेश से माहण कहलाये भरतने अष्टापद पर २४ मन्दिर सिंहनिषेधा प्रसाद ६८ भाइयोंका भरत के छ खण्ड का राज होने पर श्री प्रभु ने कहा तु मोक्ष जायगा एक पुरुष को शंका तेल का कटोरा रिसा के भुवन में केवल ज्ञान भ० अजितनाथ तीर्थङ्कर चक्रवर्ति सागर के पुत्रों द्वारा तीर्थ श्री अष्टापद के चारों और खाई बनाना । यज्ञ का विध्वंश पर्वत वसु और नारद दो नरकगामी एक स्वर्ग गामी पीट के कुर्केट को मारना वसुराज असत्य बोलने से नरक पर्वत महाकाल की सहायता यज्ञ एवं पशुहिंसा का मत चलाया पीपलाद ने मातृपितृमेधयज्ञ यमदग्नि तापस की परीक्षा ५६ | का रेणुका के साथ लग्न पुत्र के लिये चारू साधना परशुराम का जन्म ४७ । संभूमि चक्रवर्ति की विस्तृत कथा नमूचीबल प्रधान की करतूते विष्णुकुमार मुनि द्वारा सजा ५८ धर्म की रक्षार्थं लब्धि प्रयोग भ० महावीर के तीर्थङ्करावस्था के ३० चतुर्मास कहा कहा हुए महाविदह में उ० १६० तीर्थङ्कर जम्बुद्वीप में तीर्थङ्कर जन्म समय ५६ दिक्कुमारी भेरूपर स्नात्र ६४ इन्द्र अभिषेक की संख्या २५० ती० रूप और बल की तुलना ती० वर्षी दान की संख्या ती० तपश्चर्य और परणा के दिन तो० शासन में उत्कष्टतप ती० अष्टादश दोष वर्जित ती० चौतीस अतिशय ती० पैतीस वाणी के गुण वी० अष्ट महाप्रतिहार्य वीसविहरमानों के जन्मादि तिथियाँ विजयादि कई बोल तीर्थकरों के अलावा ३६ सिला का पुरुषकाकोष्टक में १० - बोल ८० ग्यारा रूद्र के कोष्टक ४-४ बोल १ भारत में तीन चौवीसी एरवत में धारतकी खण्ड में तीर्थङ्क 39 रक्षार्थ गंगा की एक नहेर लाये ऋषभदेव से सुबुद्धि० का शासन जैनधर्म विच्छेद व ब्राह्मणों की सत्ता वेदों के नाम-भाव बदल देना दशावतार की कल्पना इसमें ४६ ऋषभ अवतार नहीं माना है बाद २४ अवतारों की कल्पना ऋषभदेव आठवा अवतार भगवत पुराण में ऋषभ की कथा भगवान पुराण कब किसने बनाया "" 31 पूर्व भरत की तीन चौवीसी पश्चिम "" "" "" पूर्व एरवय तीन चोवीसी पश्चिम 39 99 59 पूर्व भरत ती तीन चौबी पश्चिम " · पूर्व एरवय पश्चिम," 32 प्रत्येक तीर्थङ्कर के ६६-६६ बोल विहारमान के ६-६ बोल 35 ," 99 35 "" भ० ऋषभदेव १३ भव नाम चन्द्रप्रभ के शान्तिनाथ के १२ मुनिसुव्रत के नेमिनाथे के पार्श्वनाथ के १० महावीर के २७ तीर्थङ्कर नाम के २० कारण 99 39 99 "" " "" "" 99 " नारद के कोष्टक ६-६ मूल ग्रन्थ की विषया नु द्रव्य सहायकों की शुभ नामा० पहले ग्राहकों की शुभ नामा० " " "" 39 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ************* ....... lain Educ.. २३१ ग्रन्थों के लेखक इतिहासप्रेमी - मुनीश्रीज्ञानसुन्दरजी महाराज *******............... आपश्रीने माता भाई और स्त्री आदि कुटम्ब को त्याग कर २५ वर्ष की युवकावस्था में स्था० सा० दीक्षा ली बाद ६ वर्ष के संवेगपक्षी दीक्षा लेकर जैनशासन की बहुत २ सेवा की साहित्य प्रचार का तो आपको बड़ा ही शोक है । जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण आपने अपने जीवन में छोटे बड़े २३१ ग्रन्थ लिख कर प्रकाशित करवाये । जन्म १६३७ स्था० दीक्षा १६६३ C...........Privat संवेगपक्षी १६७२ ..hona......... *********** .org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pre लेखक महोदय का संक्षिप्त परिचय mona स अपार संसार के अन्दर अनेकानेक जीव जन्म लेकर अपनी अवधि के पूर्ण होने से मुसा. 8 फिर की भांति चले जाते हैं, पर संसार में अमर नाम उन्हीं महानुभावों का रह जाता है PPO कि जो हजारों कठिनाइयों को सहन करते हुए भी जनता की भलाई करते रहते हैं मारवाड़ में एक प्रामीण कहावत है कि दो कारणों से दुनियां में नाम रह सकता है "एक गीतड़े, दूसरे भीत" गीतड़ा का अर्थ है मौलिक प्रन्थ का निर्माण करना, और भीतका का मतलब है मन्दिर मकान आदि बनवा जाना। इसमें प्रन्थों के निर्माण करने में हम यदि मरूपरकेसरी इतिहासप्रेमी मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज को भी एक समझलें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। आप अपने जीवन में छोटी पड़ी सब मिला कर अभी तक २३१ पुस्तकें लिख कर प्रकाशित करवा चुके हैं। जैन मुनियों के क्रियाकांड, व्याख्यान, आए हुए जिज्ञासुओं के साथ वार्तालाप करना, प्रश्नों का उत्तर देना, या पत्र द्वारा पाए हुए प्रश्नों का उत्तर लिखना, प्रमु प्रतिष्ठा, शांति स्नात्र, आदि महोत्सव करवाना, तीर्थ यात्रार्थ संघ निकालना, वादि प्रतिवादियों से शास्त्रार्थ करने में कटिबद्ध रहना, अन्य लोगों द्वारा जैनधर्म पर किये हुये आक्षेपों का लेख एवं ट्रेक्ट द्वारा प्रतिकार करना इत्यादि कार्य करते रहने से आपको कितना कम समय मिलता होगा यह बात पाठक स्वयं सोच सकते हैं पर आप इतने पुरुषार्थी एवं श्रमजीवी हैं कि अपने प्रायः एक मिनट के समय को भी व्यर्थ नहीं खोते हैं । पहिले तो जवानी थी पर अब वो आपकी साठ वर्ष से भी अधिक आयु है तथा शरीर भी आपका हमेशा नरम रहता है तथापि आपके पास बैठ कर नवजवान भी इतना काम नहीं कर सकता है। दूसरा जहाँ समय और साधनों की अनुकूलता हो वहाँ कार्य करना आसानी है पर मरुधर जैसे विद्या में पिछड़े हुए प्रदेश में कि जहां न तो पण्डितादि का साधन है और न द्रव्य की ही छूट है। हम देखते हैं कि अन्य साधुओं के पास में दो दो चार चार पंडित काम करते हैं केवल नाम ही साधुओं का रह जाता है पर यहां तो पुस्तक की सामग्री एकत्र करना सिलसिला जमाना प्रेस कापी करना एफ संशोधन करना आदि आदि सब काम प्रायः हाथों से ही करना पड़ता है । भाप श्री ने गद्य एवं पद्य दोनों प्रकार की पुस्तक लिखी हैं। शुरू से आपने श्राधे फार्म की पुस्तक से कार्य भारम्भ किया था क्रमशः बढ़ते २ करीब ४०० फार्म का एक प्रन्थ आपके हाथों से लिखा जा रहा है हम पर लिख आये हैं कि आपश्री की लिखी हुई पुस्तकों के बाज तक छोटे बड़े २३१ नं० श्रागये हैं इसमें यदि बिलकुल छोटी और एक दूसरे के अनुकरण रूप ३१ पुस्तकों को छोड़ भी दी जायं तो भी २०० पुस्तक एक मनुष्य अपने अल्प समय में लिख दे तो यह कोई साधारण बात नहीं कही जा सकती है। यदि यह कहा जाय वो भी अत्युक्ति न होगी कि वर्तमान जैन धर्म में पांच हजार साधु साध्वीओं में ऐसा शायद ही कोई होगा जो अपने शरीर से पुरुषार्थ कर इस प्रकार प्रन्थों का निर्माण किया हो। इसमें भी विशिष्टवा यह है कि वर्तमानकालिक आडम्बर का तो आपके पास नाम निशान भी नहीं है। आपकी प्रकवि ही ऐसी है कि बिना किसी आडम्बर किये अपना काम किया करते हैं । यही कारण है कि दूसरे गेल्या पर खास जैनधर्म के कितने ही लोग भापका नाम तक भी नहीं जानते होंगे फिर भी जैनों में ऐसी मापोरी या पुस्तकालय शायद ही होगा कि जिसमें आपकी लिखी पुस्तक न मिलती हो। आज मैं अपना अहोभाग्य समझता हूँ कि एक सेवाभावी महापुरुष का जीवनचरित्र मेरे हाथ से Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] लिखा जा रहा है। यदि मुझे आपनी का जीवनचरित्र विस्तृत रूप से लिखने की इजाजत मिल गई होती वो मैं बड़े ही उत्साह से आपश्री का जीवन सर्वांग सुन्दर बना कर जन साधारण की सेवा में रखता पर स्थानाभाव आपश्री के जीवन का संक्षिप्त से दिग्दर्शन करवाने के उद्देश्य से ही मैंने यह प्रयत्न किया है तथापि हजार मन माल के कोठे से मूठी भर का नमूना देख कर विद्वान कोठे के माल का अनुमान लगा सकते हैं इसी प्रकार हमारी लिखी संक्षिप्त जीवनी से ही पाठकों को आपश्री का ठीक परिचय हो ही मायगा। . ... . ...... १-"महाजन संघ" वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने मरुधर के उपकेशपुर में पदार्पण कर यहां के सूर्यवंशी राव उत्पलदेव मन्त्रीऊहड आदि लाखों वीर क्षत्रियों को एवं हजारों भैंसा बकराओं की वलि लेने वाली देवी चामुण्डा को प्रतिबोध कर "महाजन संघ" की स्थापना की थी इसके लिये अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं समझी जाती क्योंकि इसी प्रन्थ में इस विषय को बहुत कुछ लिखा गया है अतः पिष्ट पेषण करना उचित नहीं समझा जाता। २-"उपकेशवंश" इस नाम की उत्पत्ति उपकेशपुर नगर की अपेक्षा से हुई है जब वीरा सं० ३७३ वर्षे उपकेशपुर में महावीरमूर्ति के प्रन्थिच्छेद का उपद्रव हुआ सब कितने ही लोग उपकेशपुर को छोड़ कर अन्यत्र जाकर वहां अपना निवास स्थान बना लिया तब से वे लोग उपकेशपुर से आने के कारण उपकेशी कहलाये। और समयान्तर में वे ही लोग उपकेशवंशी एवं उपकेशजाति कहलाये गये । वंश एवं जाति नामकरण का समय विक्रम की तीसरी चौथी शताब्दी के आस पास का होना अनुमान किया जा सकता है। ३-श्रेष्टिगोत्र-उपकेशपुर का शासनकर्ता सूर्यवंशी राव उत्पलदेव 'जब से जैन हुए तब से ही वे जैनधर्म का प्रचार करने में संलग्न हो गये और आपकी सन्तान परम्परा में भी जैनधर्म की उन्नति के लिये ऐसे ऐसे चोखे और अनोखे काम अर्थात् अनेक श्रेष्ठ कार्य हुये जिससे जनता उनको श्रेष्ठी कहने लग गयीं । कालान्तर आपका गोत्र ही श्रेष्ठिगोत्र बन गया। राव उत्पलदेव की सन्तान ने कई पुश्तों तक वो राज किया बाद उनके परिवार वाले कई ने सजा के मन्त्री महामन्त्री आदि राज्य का काम भी किया और राज्य का काम करने वाले को मरुधर में मेहताजी कहा करते हैं। अतः आपके सन्तानवाले मेहताजी के नाम से भी सम्मानित हुए। -"वैचमेहता" वि० सं० १२०१ में गढ़शिवान के मेहताजी लालचन्दजी साहब अपने ससुराल वीसरीबार चित्तोर पधारे थे वहीं के राणाजी की माता के खिों में असह्य वेदना हो रही थी। लालचन्दजी को जैसे परमात्मा की पूजा करने का अटल नियम था वैसे ही कुलदेवी सत्यका का भी इष्ट था अतः राज्य कर्मचारियों ने मेहताजी से आंखों के लिये पूछा तो आपने अपने इष्ट के बल पर दवाई बतलाई जिससे तत्काल ही वेदना चोरों की तरह रफूचक्कर हो गई। इस हालत में वहां के राणाजी ने मेहताजी को बड़े ही सम्मान पूर्वक आठ प्रामों के साथ वैद्य पदवी इनायत की उसी दिन से वे श्रेष्ठिगोंत्र वाले वैद्य महता के नाम से मशहूर हुये, जिसके खानदान में हमारे चरित्रनायकजी का जन्म हुआ । ५-"वीसलपर" ऊपर लिखा गया है कि गढ़शिवान में श्रेष्ठि गोत्रीय लोग बसते थे। पट्टावलियों में लिखा है कि विक्रम की पन्द्रहवी शताब्दी में ३५०० घर एक श्रेष्ठि गोत्र वैद्यमेहता शाखा के एक ही गढ़ शिवान में थे पर म्लेच्छों के उत्पाद से कई लोग गढ़शिवान को त्याग कर के अन्यत्र चले गये जिसमें मेहताजी जोरावरसिंहजी भी शामिल थे उन्होंने खेरवे जाकर वास किया बाद कई असों से वहीं के ठाकुरों के आपस में अनबन होने से मेहताजी खेरवा को मेड़ कर बनार में जाकर बस गये। उस समय, Jain Educaton internationa or Private & Personal use only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] Date शहरों की गिनती का नगर था कहा है कि "नव नादड़ा बारह जाजीवालों जिस वीच वडा बनाड” इत्यादि पर वि० सं० १५१५ में राव जोधाजी ने जोधपुर श्राबाद किया तब से वनाड की आबादी टूटती गई फिर भी वि० सं० १९४० तक बनाड़ में ५० घर महाजनों के, एक मन्दिर, एक उपाश्रय विद्यमान था । वनार में वैद्य मेहता स्वनामधन्य श्रीमान् जीतमलजी साहब वहां रहते थे । आपके ३ पुत्र थे १ भूरमलजी, २ जोधराजजी, ३ मुलतानमलजी जिसमें भूरामलजी राज्य का काम करते थे जोधराजजी ठाकुरों की लेन देन या मारवाड़ में व्यापार किया करते थे और मुलतानमलजी दिशावर में नासिक जिले के गिरनार ताल्लुका में कोचर प्राम में दूकानदारी करते थे इन तीनों भ्राताओं के पृथक् २ काम होने पर भी वे सब शामिल थे और उन सब के आपस में भ्रातृस्नेह प्रेम भी प्रशंसनीय था। आगे भूरमलजी के पुत्र नवलमलजी, जोधराजजी के जीवणचंदजी और मूलतनमलजी के उदयचन्दजी थे । बि० सं० १९४० में मेहताजी नवलमलजी ब्यापार की सुविधा के लिये वनाड से चल कर वीसलपुर आ गये और वही पर अपना निवास स्थान बना लिया उस समय बीसलपुर में दो सौ घर महाजनों के एक अजितनाथ प्रभु का मन्दिर और कई धर्मस्थान थे । एक यतीजी भी उपाश्रय में रहते थे वे बड़े ही चमत्कारी थे । यद्यपि प्राचीन स्तुति में बीसलपुर में चार मन्दिर और ४७ जिन प्रतिमा का होना लिखा है। शायद जोधपुर बसने के पूर्व लपुर बड़ा नगर हो और वह चार जिन मन्दिरों में ४७ मूर्तियों का होना भी असंभव जैसी बात नहीं है क्योंकि उस समय वहाँ ५०० घर महाजनों के और बनजारों की बालदों द्वारा लाखों रुपयों का बाणिज्य होता था । ६'' जन्म” ऊपर लिखा जा चुका है कि मुताजी नवलमलजी बनाड़ का त्याग कर वीसलपुर में में रहने लगे और आपका सब व्यापार वगैरह भी अच्छी तरह से चलता था । मेहताजी का विवाह भी बीसलपुर में श्रामान् प्रयागदासजी चोरड़िया की सुशील कन्या रूपादेवी के साथ हुआ था अतः आपकी दम्पति जीवन बड़े ही सुख शांति में व्यतीत होता चला जा रहा था । श्रीमती रूपादेवी ने 'गयवर' महान् गज का स्वप्न सूचित वि० सं० १९३७ में विजयदशमी की रात्रि में एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। मुताजी के यह प्रथम पुत्र होने से आपके हर्ष का पार नहीं था अतः आपने अच्छा महोत्सव किया और पुत्र का नाम स्वप्नानुसार 'गयवरचंद' रख दिया । ज्योतिषविज्ञ विप्रदेव ने आपकी जन्मपत्रिका भी बनाई । गयवर की जन्मकुण्डली चन्द्रकुण्डली ११ चं० १० 'श० वृ० 2 २ *TO ३ के० सू० मं० बु० शु० ७ 'जन्म' वि० सं० १६३७ आश्विन शुक्ला १० वार बुध १६-५५ नक्षत्र धनिष्ठा ५३-४२ शूल५ योग ३२-४० गरकर्ण १६ - ५५ । श० १२ २ ११. १ चं० ३ के ४ ६ रा मं० शु० बु० ७ L सू० ५ 9 बालक्रीड़ा और तोतली भाषा सबको कर्णप्रिय लगती थीं । आपकी अनोखी चेष्टायें भविष्य में होनहार की श्रागाही दे रही थी । जब आप विद्याध्ययन के लिये पाठशाला में प्रविष्ट हुए तो अपने २ सहपाठियों से हमेशा नम्बर बढ़ता ही रहता था । यद्यपि श्रापके जमाने में न तो सरकारी बड़े २ स्कूल ही थे और न हिन्दी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] की पढ़ाई ही थी उस समय के लोग अपने बाल बच्चों को महाजनी की पढ़ाई करवाने में ही अपने कर्तव्य की इति श्री समझते थे और उस साधारण पढ़ाई से ही वे लोग लाखों के व्यापार किया करते थे अतः मेहताजी ने पूरा एक रुपया पुत्र की पढ़ाई में व्यय किया जिसमें गयवर ने उस समय की पढ़ाई में धुरंधर होकर व्यापार में मुताजी के कन्धे का भार हलका कर दिया। ७-"विवाह" जब आपकी सतरह वर्ष की आयु हुई तो श्रीमान् भानुमलजी वागरेचा सेलावस वालों की सुशील कन्या राजकुंवारी के साथ सं० १९५४ मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी को गयवरचंद का बढ़े ही समारोह के साथ विवाह कर दिया। मुताजी के वि० सं० १९४० में एक पुत्र का पुनः लाभ हुआ जिसका नाम गणेशमल रखा बाद सं० १९४६ में रूपादेवी का स्वर्गवास हो गया। जिससे मुताजी पर बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी। दोनों बच्चे छोटे थे अतः मुताजी ने दूसरा विवाह किया। जिससे क्रमशः हस्तीमल, बस्तीमल, मिश्रीमल और गजराज तथा एक यत्नवाई एवं पांच सन्तान हुई। जिसमें गनराज और यत्नवाई का तो स्वल्पायु में ही देहान्त हो गया शेष गयवरचंद, गणेशमल, हस्तीमल बसंतीमल और मिश्रीमल मुताजी के अन्त समय तक आपकी सेवा में विद्यमान थे। ८-'वैराग्य का कारण-ऊपर लिख पाये हैं कि गयवरचंद का विवाह १९५४ में हो गया था। आप जैसे द्रव्योपार्जन करने में हिम्मत रखते थे वैसे ही जवानी के नशे में ऐश आराम में खर्च भी किया करते थे पर मुताजी पुराने जमाने के होने से वरदास्त नहीं कर सकते थे.अतः गयवरचन्द को अलग कर दिया फिर भी उसकी अकल ठिकाने लाने के लिये मुत्ताजी ने अपने घर से थोड़ा भी सामान नहीं दिया इतना ही क्यों पर मुताजी ने सोचा कि कहीं जेवर पर हाथ न पड़ जाय अतः उन दम्पति के पास जो जेवर था वह भी सब उतार लिया मुवाजी का ध्येय तो यह था कि कुछ भी करने से इसकी व्यर्थ खर्च करने की आदत मिट जाय । खैर इतना करने पर भी गयवरचंद ने अपने पिताजी से यह सवाल नहीं किया कि आप मुझे घर से कुछ हिस्सा क्यों नहीं देते हो ? पुरुषार्थी के लिये दुनिया में क्या कमी है । वह सब कुछ कर सकता है। गयवरचंद को अलग रहते चार वर्ष हो गया। आपके खर्च वगैरह का वही ठाठ रहा जो पहिले था। वचित रकम से कुछ जेवर भी करवा लिया । श्राप दम्पति में इतना प्रेम था कि अधिक समय पृथक् रहना नहीं चाहते थे । आपके दो सन्तान भी हुई पर अल्पायु के कारण वे जीवित नहीं रह सकी । एक समय राजकुंवारी को लेने के लिये सेलावस से उनके भाई श्राये पर गयवरचंदजी भेजने को राजी नहीं हुये तथापि अत्याग्रह होने से भेज दिया। बाद आप अकेले ही रहे जब राजकुवारी को अपने पीहर गये पूरा एक महीना भी नहीं हुआ कि गयबरचंदजी के शरीर में एकदम बीमारी हो आई । इस हालत में सेलावस से लाने के लिये गाड़ी भेजी पर राजकुमारी ने सोचा कि बीमारी के बहाने से मुझे बुला रहे हैं मैं दो वर्ष से पितागृह आयी हूँ और अभी पूरा एक महीना भी नहीं हुआ है । अतः वे श्राने से इन्कार कर गई। इधर बीमारी दिनबदिन जोर पकड़ती गई। माता पिता भाई और मोसाल भी प्राम में ही था पर न जाने कैसा अशुभ कर्मों का उदय था कि किसी ने आकर थोड़ा भी आश्वासन नहीं दिया । रात बड़ी मुश्किल से व्यतीत होती थी एक दिन जब रात्रि में आप दर्द की भयंकरता को सहन न करते हुये ठुसक २ कर रुदन कर रहे थे तो पड़ोस में रहनेवाले प्रतापमलजी मुत्ता ने पाकर धीरज दिया और अनाथी मुनि की स्वाध्याय सुनायी। बस वह स्वाध्याय सुनते ही श्रापको संसार को असारता दिखने लगी और मुनि अनाथी की xश्री अनाथी मुनि की स्वाधाय । श्रेणिक रेवाडी चड्योरे पेखिया मुनि एकान्त । वर रूप क्रान्ते मोहियोरे रायपच्छे कहो Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] भाँति आपने भी प्रतिज्ञा करछी कि यदि मेरी वेदना चली जावे तो मैं अवश्य दीक्षा ग्रहण करूंगा । कारण संसार में सर्व स्वार्थ के सम्बन्धी हैं मेरे इतना परिवार होने पर भी यह वेदना मुझे अकेले ही को भोगनी पड़ती है जब इस भव में सब उत्तम सामग्री के सद्भाव भी श्रात्मकल्याण न किया जाय और उल्टा कर्मबंधन किया जाता है तो यह भी भवान्तर में मुझे अकेले ही को भोगने पड़ेंगे अतः निश्चय कर लिया कि वेदना शान्त होते ही दीक्षा अवश्य लूंगा। रात्रि किसी प्रकार व्यतीत की। सुबह होते ही एक ब्राह्मण भिक्षा के लिये आया और गयवरचंद को चौपाई पर पड़ा देख कर पूछा क्यों गयवरचंद क्या तकलीफ है ? ने जहां दर्द था अपना शरीर बतलाया । विप्र ने कहा कि मेरा कहा हुआ इलाज करो जल्दी चंगे हो जाओगे | पर आपके पास इलाज करने वाला कोई नहीं था इसलिये आपने कहा विप्रदेव ! आज आप भिक्षा के लिये प्राम में नहीं जाय मैं ही आपको सन्तुष्ट कर दूंगा आप ही मेरा इलाज कीजिये बस ब्राह्मण ने एक पट्टी तैयार कर के दर्द पर बांध दी लगभग चार बजे दर्द फूट कर अन्दर से कोई सेर भर बिगड़ा हुआ रक्त निकल गया । दूसरी पट्टी बांधी तो बिलकुल शांत रात्रि में निद्रा भी आ गई। पांच साव दिनों में तो हलने चलने भी लग गये । ब्राह्मणदेव को सर्वथा सन्तुष्ट कर के घर भेज दिया। श्रापको विश्वास हो गया कि मेरी दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा ने ही मुझे श्रारोग्य बनाया है बस आप दीक्षा लेने की तैयारी करने लग गये । आप, अपने मकान में जहां भोगविलास की सामग्री से खूब सजा हुआ था उसको हटा कर उसके स्थान योग सामग्री का संग्रह करने में तत्पर हो गये और ग्राम में भी इस बात की थोड़ी बहुत चर्चा भी फैलने लग गई। इतना ही क्यों पर वि० सं० १९५८ चैत्रवदी आठम को घर छोड़ने का मुहूर्त्त भी निश्चय कर लिया और ओधा पात्रा भी मंगवा लिया । जब इस बात की खबर सेलावस में पहुंची तो राजकु वारी अपने काकाजी के साथ वीसलपुर में श्रई । वहाँ श्राकर अपना घर देखा तो साधुओं का स्थान ही दीख पड़ा । मोह के बस बहुत कुछ कहा सुना किया एवं बहुत कुछ समझाया पर आपने एक भी नहीं सुनी उल्टे उपदेश करने लग गये कि आप भी दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करो। इधर मुताजी को भी खबर पड़ी उन्होंने भी बहुत कुछ समझाया पर आप अपने विचार पर अटल ही रहे । राजकुवारी ने कहा कि आप दीक्षा लेंगे तो मैं घर में किसके पास रहूँगी अतः मैं भी दीक्षा लेने के लिये तैयार हूँ । पर मेरे उदर में गर्भ है इसका क्या इन्तजाम होगा यह सुन कर गयवरचन्द को कुछ विचार तो अवश्य हुआ पर आखिर में सोचा कि के वर्तत १ श्रेणिक राय हू छुरे अनाथी निर्ग्रन्थ । तीणे मैं लीघो लीघो साधुजी नो पन्थ श्रेणिक ० टेर । इा कसुबी नगरी में वसेरे मुझ पिता परिगल धन । परिवारे पुरो परिवर्योरे हु छु तेनो पुत्र रत्न | श्रेणिक || २ || एक दिवस मुझे वेदनारे, उपनी मो न खमाय ! मात पिता झूरी रहायारे । पण किण भी ते न लेवय । श्रेणिक || ३ || गोरडी गुण मणि ओरड़ीरे । मोरडी अबलानार । कोरडी पिडा में सहीरे कोणन किधीरे मोरडी सार ॥ श्र० ४ ॥ बहुराजवैद्य बोलावियारे, किधा कोडी उपाय, बावना चन्दन चरचियारे पण तो ही रे समाधि न थाय ॥ श्र० ५ || जगमें को कहने नही रे ते भणी हू रे अनाथ, वीतरागना धर्म सरीखो । नहीं कोड़ बीजोरे मुक्ति नो साथ ॥ श्र० ६ ॥ जो मुझे वेदना उपशमेरे, तो लेउ संजमभार, इस चिन्तवतां वेदनागहरे, व्रत लीघा मै हर्ष अपार ॥ श्र० ७ ॥ करजोडी राजागुण स्तवेरे, धन्य धन्य यह अणगार, श्रेणिक समकित पामियोरे, बान्दी पहुतोनीज नगर प्रकार ॥ श्र० ० ८ || मुनि अनाथी गावतारे, टुटेकर्म नी कोड़ गणि समयसुन्दर तेहनारे, पायवन्दे कर जोड़ रे ॥ श्र० ९ ॥ I Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब जीव कर्माधीन हैं । यदि मैं मर जाऊँ तो फिर क्या होगा पीछे काम तो सब चलेगा ही अतः आपने अपना निश्चय नहीं बदला। ९-दीक्षा की भावना की विदागीरी' चैत बद ७ की बात है कि स्था० पूज्य रुघनाथजी की समुदाय के साधु रतनचन्दजी सुबह ९ बजे वीसलपुर में आये उनको यह मालूम नहीं था कि चैत बद ८ को गयवरचन्द दीक्षा लेने का निश्चय कर चुका है इधर उसी दिन सुबह ७ बजे राजकुवारी के गर्भ का पतन हो गया जिसकी करीब १० बजे प्राम में सर्वत्र बात फल गई कि ढूंढिया साधु गयवरचंद को दीक्षा देने को आये हैं इसके दुःख से राजकुवारी के गर्भ का पतन हो गया है कई जनेतर औरतों ने तो स्था, साधुजी के पास जाकर भले बुरे ऐसे शब्द कहे कि साधुजी ने वहां पर भिक्षा भी नहीं की और बिहार कर दिया। बस प्राम में हाहाकार मच गया और दीक्षा तथा साधुओं की सर्वत्र निन्दा होने लगी। इस प्रकार अपवाद को देख कर गयवरचंद का दिल बदल गया और यह निश्चय कर लिया कि इस समय दीक्षा लेना अच्छा नहीं है। उसी दिन रात्रि में अपने पिताजी के पास जाकर कह दिया कि अब मेरा विचार दीक्षा लेने का नहीं है पर मैं कल दिशावर चला जाऊंगा। मेरे व्यापार सम्बन्धी लेन देन या माल वगैरह है इसकी व्यवस्था श्राप ही करावे यदि मैं दीक्षा लेता तो भी श्राप ही को करनी पड़ती मुताजी ने स्वीकार कर लिया। तथा राजकुवारी को भी मुताजी ने अपने घर पर बुलवाली और गयवरचन्दजी चैतबद ८ सुबह तड़के ही दिशावर के लिये रवाने हो गये जो आपको चैत बद ८ को घर छोड़ना ही था। . गयवरचन्दजी छ मास विशावर में रहे बाद व्यापार सम्बन्धी कहीं जाना था आप पांच साव दिनों के लिये वीसलपुर आये पर उस समय मुताजी बीमार हो गये थे अतः पन्द्रह दिन बीमार रह कर मुताजी का स्वर्गवास हो गया गयवरचन्द इतने भाग्यशाली थे कि पिताजी की अन्तिम सेवा कर धर्म का अच्छा सहाज दिया। माताजी एवं अन्य सम्बन्धी लोगों ने गयबरचन्द को कहा कि अब दिशावर जाना बन्द रखो और आपके पिताजी का लेन देन एवं दूकान का काम संभालो गणेशमल दिशावर में है हस्तीमलादि सब छोटे बच्चे हैं इत्यादि सब के कहने पर आपको स्वीकार करना पड़ा अब तो श्राप पर सब घर का काम प्रा पड़ा जो दीक्षा की भावना थी वह कुटम्ब भावना में परिवर्तित हो गई इतना ही क्यों पर वैराग्य की धुन में आपने चार खन्ध अर्थात् १ रात्रि भोजन, २ कच्चा पानी आदि सचित ३ वनस्पति और ४ मैथुन के त्याग यावत् जीवन के लिये किये थे वह भी पालन नहीं हो सके किन्तु सब के सब खण्डित हो गये । इस दशा में पांच वर्ष व्यतीत हो गये और आपके दो सन्तान हुई पर अल्पायु में ही शान्त हो गई तथापि आप गृहस्थावास में ऐसे फंस गये कि दीक्षा का नाम भी भूल गये । हां कभी याद भी प्राति पर यह हम्मेद नहीं रही कि मैं कभी दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करूंगा। १०-'दीक्षा की पुनर्भावना'-आप दम्पति दिशावर जा रहे थे रास्ता में रतलाम शहर में पूज्य श्री लालजी महाराज का चातुर्मास था अन्य लोगों के साथ आप भी दर्शनार्थ रतलाम उतर गये। पूज्य श्री के दर्शन कर व्याख्यान सुना तो पूज्य जी के व्याख्यान का विषय था कि व्रत कर के भंग करने से अनंतकाल संसार में भ्रमण करना पड़ता है। बस इसको सुन कर पुनः दीक्षा की भावना हो गई । कारण आपने ४ बड़े व्रत लेकर खंडित कर दिये थे अब गृहस्थावास में रह कर वे व्रत पालन कर नहीं सके जिससे अनंत संसारी होना पड़े। इत्यादि आप अपनी पत्नी के साथ दो मास रतलाम में ठहर कर ज्ञान ध्यान करने लग Jain गये । वहां आपके छोटे भाई गणेशमलजी आए और आपको बहुत प्रार्थना की कि कम से कम मेरा विवाह SonalU Lainelibrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७] आपके हाथों से होना चाहिये । सं० १९६३ के माघ मास में गणेशमलजी का विवाह करने का निश्चय आप ही ने किया था। आप श्री ने स्वीकार कर लिया। इस पर गणेशमलजी अपनी भौजाई को लेकर बीसलपुर चले आये और गयवरचन्दजी पूज्यश्री के पास रहे। ११-"वतमान काल के साधुओं की मनोवृत्ति" जैनसाधु "तीनाणंतारियाण" कहलाते हैं पर शिज्यपिपासु लोग इस सूत्र को भूल जाते है । साधुओं ने सोचा कि यदि गयवरचन्दजी अपने भाई के विवाह करने के लिये चले जायेंगे तो उस राग रंग में यह वैराग्य रहेगा या नहीं अतः एक सुयोग्य आया ना शिष्य हाथ से चला जायगा अतः उन्होंने ऐसा जाल रचा कि मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी के दिन मेवाड़ प्रान्त के निंबहेड़ा ग्राम में लेजा कर गयवरचन्दजी के गृहस्य कपड़े उतार कर श्रोषा मुहपती पात्रा मोली वगैरह देकर नकली साधु बना कर मिक्षाचारी करवानी शुरू करदी। जब इस बात का पता गणेशमलजी आदि आपके कुटुम्ब वालों को मिला तो उन्होंने सोचा कि जब आपने अपनी जवान का भी खयाल नहीं किया तो भविष्य में आप क्या करेंगे उन्होंने गुस्सा में आकर श्राज्ञा देने का साफ इन्कार कर दिया। १२-'स्वयमेव दीक्षा' साधुत्रों के पास मायावी उपाय एक ही नहीं पर अनेक हुआ करते हैं साधुओं में कहा कि गयबरचन्दजी अब आपकी सहज ही में आज्ञा होना तो मुश्किल है तुम स्वयं दीक्षा लेलो बस नीमच के पास एक जामुणिया नाम का छोटासा प्राम है वहां मोतीलालजी महाराज चारठाणे से विराजते वहां भेज कर गयवरचन्दजी को स्वयं दीक्षा लेने का आग्रह किया आप भी ने स्वयं दीक्षा लेली कारण पशवकालिक उत्तराध्ययनादि कई सूत्र तो आपने पहिले से ही कण्ठस्थ कर लिये थे बस सं० १९६३ चैत्र वद को गयबरचन्दजी स्वयं दीक्षा लेकर वहां से बिहार कर आप कोटा पूज्य श्री लालजी म. के पास पहुँच गये और चैत्र वद १३ को बड़ी दीक्षा भी स्वयं ही लेली । यहाँ तक तो सब राजी खुशी थे स्वयं दीक्षा तीर्थकर प्रतिबुद्ध ही ले सकते हैं पर अवोधात्मा क्या नहीं कर सकते हैं खैर पश्चात् कई एक दिनों में ही रंग बदल गया जिसके लिये आपको करीब १४ मास तक जो कष्ट और दुःख का अनुभव करना पड़ा है वह आपकी पारमा या परमात्मा ही जानते हैं । यदि कोई कच्चा वैराग्य वाला होता तो वस्त्र फेंक कर भाग ही जाता पर आप तो व्यों ज्यों सुवर्ण को ताप देने से उसका मूल्य बढ़ता है इस प्रकार परीक्षा की कसौटी पर पास ही करते गये पर आपको साधुओं की मायावृत्ति और प्रपंच का ठोक अनुभव हो गया। फिर भी आपने तो उन मुनियों एवं पूज्य श्री का उपकार ही माना कि कितना ही कष्ट सहन करना पड़ा हो पर दीक्षा मिल गई इस बात का उपकार ही समझा अस्तु आपके भ्रमण का संक्षिप्त से हाल लिख दिया जाता है। 1-सं० १९६४ का चातुर्मास आपने सोजत में मुनिश्रीफूलचन्द महाराज के साथ किया वहां पर बखतावरमलजी सीयाटिया के कारण ज्ञान भ्यान योकड़ा कण्ठस्थ करने का बड़ा भारी लाभ मिला तथा रिषभदामजी रातडिया और वखतावरमलजी सुराणा ने आज्ञा की कोशिश की जब राजकुंवरबाई सोजत रोनार्थ आई वो उक्त दोनों सरदारों ने अपने हाथों से एक आज्ञा पत्र लिख कर उस पर अपठित राजकु रवाई का अंगुष्टा चेपा दिया पर पूज्यजी ने उसको स्वीकार नहीं किया अतः पुनः माता की आज्ञा के जाये कोशिश करनी पड़ी जब वह काम हुआ तो गुरु करने के लिये साधुओं ने आपको बहुत कष्ट पहुँचाया उसका मैं यहां पर लिखना उचित नहीं समझता हूँ कारण ऐसा लिखने से लोगों की साधुत्रों से श्रद्धा ही जाती है। फिर भी यह प्रथा इतनी कलेश करने वाली है कि साधु पदकों शोभा नहीं दे । 2-सं० १९६५ का चातुर्मास बीकानेर में पूज्य महाराज श्री की सेवा में हुआ । पूज्य महाराज EFITर में बीमारी होने पर चिरकाल के दीक्षित ज्यादा साधुओं के होने पर भी कोई ब्याख्यान बापने ary.org Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला नहीं था। नवदीक्षित होने पर भी बीकानेर की विशाल परिषद में आपने करीब १५ दिन व्याख्यान देकर सुयश पैदा किया। वहां से बिहार कर पूज्य श्री के साथ में नागोर पाये वहां सेठजी अमरचन्दजी आये सिद्धाचल का महात्म्य और मूर्ति के विषय मध्यस्थापूर्वक बातें हुई बाद वहां से कुचेरे पधारे। मुनि श्री में वैयावच्च का भी अच्छा गुण था अतः पूज्यश्री ने आपको 'वानावली' का पद षक्सीस किया । इस समय आप एकान्तर तपस्या भी करते थे । नेत्रों के बीमारी में भी आपको फूलचन्दजी की सेवा में जोधपुर भेज दिया आपने स्वामी जी की सेवा के साथ २ सूत्रों की बाचना भी ली। 3-सं० १९६६ का चातुर्मास आपने जोधपुर में फलचन्दजी महाराज की सेवा में किया वहां आपने एक साधु के बदले में धोवण पानी पीकर मासक्षमण की तपस्या की थी वाद चातुर्मास के विहार कर सष पाली गये। वहां से पूज्यश्री का हुक्म आने पर मेवाड़ में जाने को साधु छगनमलजी के साथ विहार किया पर सीयाट में आपके नेत्रों में बीमारी हो गई इस पर भी छगनलालजी ने मुनिजी को बीमार अवस्था में छोड़ कर पुनः पाली चले गये यह तो मुनियों की दया है। खैर आपने तीन उपवास बिना पानी के किया जिससे आंखों की बीमारी स्वयं चली गई । वहां से आप कालू पधारे वहां पर स्वामी केवलचन्दजी जो पूज्य धर्मदासजी के समुदाय में थे उनसे मिले और उनके अत्याग्रह से वहां ठहर कर उनके साधु सावियों को भागमों की वाचनादी तथा कई एकों को थोकड़े भी सिखलाए । 4- वि० सं० १९६७ का चातुर्मास काल में आपने अकेले ही कर दिया वहां देशी साधु केसरीमलजी तथा उदयचन्दनी का भी चातुर्मास था। वहीं के संघ ने यह ठहराव किया कि सुबह का व्याख्यान केसरीमलजी आर दोपहर का व्याख्यान गयवरचन्दजी यांचे पर केसरीमलजी ने कुछ दिनों के बाद उस ठहराव का भंग कर दोनों बार ( सुबहशाम ) व्याख्यान वाचना शुरू कर दिया तब आपने नवयुवकों के अत्याग्रह से तीन वार व्याख्यान शुरू कर दिया। वहां आपके नेत्रों में तकलीफ हो गई बस आप श्री ने अष्टमतप कर दिया और भी तपस्या चलती ही रहती थी । वहां दिगम्बर भट्टारक और तेरापन्थियों का भी चातुर्मास था। इसलिये परस्पर कुछ चर्चा भी चली जिसमें आपने विजय प्राप्त किया। उस समय पूष्यजी का चातुर्मास ब्यावर में ही था वहीं के वर्तमान श्राप सुनते ही थे । चातुर्मास उतरते ही आपको पूज्य महाराज ने अपने पास बुलवा लिया और बीकानेर चातुर्मास करने की अनुमति प्रदान की। 5-सं० १९६८ का चातुर्मास मुनि शोभालालजी के साथ बीकानेर में हुआ वहां पर श्री भगवती: सूत्र आदि ७ सूत्र की बाचनाली १२५ थोकड़ा कंठस्थ किया दो मास तक व्याख्यान भी वांचा अनेक श्रावकों को भी बहुत थोकड़ा कंठस्थ करवाये । बाद चातुर्मास के ब्यावर आये वहां आने पर एक भावक ने प्रश्न किया कि आप सूत्रों का अर्थ किस आधार पर करते हैं १ मुनिजी ने उत्तर दिया कि हम सूत्रों का अर्थ गुर्जर भाषा के टब्बा से करते हैं। श्रावक-टबा किस आधार से बना है ? मुनि-टीका के आधार पर बना होगा । श्रावक-आप टीका मानते हो? मुनि-नहीं हम संवेगी थोड़े ही हैं कि टीका माने । श्रावक-इस बात को पाप जरा दीर्घ दृष्टि से विचारना। इतना कहकर वह भावक तो चला गया मिली ने अपने दिल से विचार किया कि जैसे समुद्र से एक घड़ा पानी का भर के लाया। तो यह कसे Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] बटब्बा सत्य और टीका सस्य कहना तो बिलकुल ही विपरीत है। अतः इस विषय में आप श्री ने बहुत कुछ निर्णय किया तो यह पता मिना कि टीका में स्थान २ मूर्तिपूजा का विस्तृत वर्णन है और अपनी मान्यता पूजा मानने की नहीं है इसलिये टीका नहीं मानी जाती है । फिरभी पार्श्वचन्द्रसूरि ने जो टीका के आधार से टबा बनाया है उसमें तो टीका के अनुसार ही मूर्वि का उल्लेख किया है पर बाद में उस पावचन्द्रसूरि के टब्बा पर से धर्मशीजी ने टबा बनाया है उसमें मूर्तिके स्थान कहीं साधु कहीं ज्ञान कहीं छरमस्थ तीर्थक्कर अर्थ कर दिया है। अतः भद्रिकों के शुरु से ऐसे संस्कार जमा देते हैं कि टीका हम नहीं मानते हैं। जब मुनिजी ने सोचा कि एक अक्षर मात्र न्यूनाधिक करने में अनंत संसार की वृद्धि होना कहा जाता है फिर इस प्रकार उत्सूत्र प्ररूपना करनी यह तो बडा से बडा अन्याय है बस उस समय से आपके हृदय में मूर्ति पूजा ने स्थान बना लिया पर आपने सोचा कि अभी जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं है पर इस विषयका अच्छी तरह से जान पना करना चाहिये कि क्या बात है कि जैन शाखों में उल्लेख होने पर भी मूर्ति नहीं मानी जाय दूसरा मन्दिर आज कल के नहीं पर बहुत प्राचीन मन्दिर विद्यमान हैं इत्यादि विचार करते ही रहे । 6-सं० १९६९ का-चातुर्मास अजमेर में स्वामी लालचन्दजी के साथ हुआ वहीं आपने श्रीभगवती सूत्र वांचा था ब्याख्यान में सेठजी चान्दमलजी लोढ़ानी उमेदमलजी संघवीजी मोखमसिंहजी वगैरह सब आया करते थे । स्थानक में देशीसाधु लक्ष्मीचंदजी का भी चातुर्मास था धर्मवाद में पंचरंगी-नौरंगी और पन्द्रहरंगी भी करवाई जाती। जिसमें कई मजूरलोग भी आये करते थे और बिना समझ से लाभ लिया करते थे। उसमें यह नियम रखा गया था कि जो एक सामायिक करे उसको एक पैसा मिले ऐसे ही एक दया का चाराना एक पौषध का एक रुपया । कह दिगम्वर और आर्यसमाजी भी आया करते थे । कई बार आपके पास चर्चा भी होती आपनी के अपूर्व प्रज्ञा के सामने सबों को सिर मुकाना ही पड़ता था। एक समय एक मन्दिर मार्गी आये उस समय सेठ चान्दमलजी भी बैठे थे। द्रोपदी की पूजा का प्रसङ्ग पर आपने कहा कि उसने विवाह के समय मूर्ति पूजा की अतः वह मूर्ति तीर्थकरों की नहीं और पूजा भी वर एवं भोग के लिये की थी पर सेठ चान्दमलजी ने कहा महाराज क्या आपने कहा वह सूत्रों में लिखा है ? नहीं । इस विषय की चर्चा में टीकाका भी खुलाशा हो गया कि केवल मूर्तिपूजा न मानने के कारण ही टीका मानी नहीं जाती इत्यादि इस चर्चा से मर्तिपूजा की श्रद्धा और भी सुदृढ़ होती गई । वाद चतुर्मास के ध्यावर होकर पाली पधारे वहीं पूज्यजी महाराज दो वर्ष फिर कर गुजरात से आये थे अतः ३७ साधू शामिल हुए। पाली में स्वामी कर्मचन्दजी शोभालालजी कनकमलजी और गयवरचन्द जी इन चारों की श्रद्धा मूर्विं मानने की थी जो चारों ही समुदाय के स्तम्भ थे। श्रावकों के कहने से मूर्ति के विषय में पूज्यजी ने व्याख्यान में बहुत कुछ समझाया पर भवभीरूपना यह था कि पूज्यजी ने मूर्ति का थोड़ा भी खण्डन नहीं किया। बाद वहां से जोधपूर गये रास्ता में रॉयट प्राम में पूज्यजी और गयवरचंदजी के मुहपत्ती में डोरा के विषय में चर्चा हुई तो पूज्यजी ने कहाकि डोरा तो सूत्रों में नहीं लिखा पर विना उपयोग खुले मुंह बोला माय इसलिये ही डोरा डाला है । मूर्ति के विषय में भी कहाकि मूर्ति पूजकों ने धमाधम बहुत बढ़ा दी आप अपने वालों ने विलकुल उठादी इत्यादि । '?-सं० १९७० का चातुर्मास गंगापुर, (मेवाड़) में स्वामी मगनमलजी के साथ हुआ वहीं पर प्रापश्री ने व्याख्यान में श्रीभगवतीजी सूत्र बांचने के साथ २ एक पण्डित रख व्याकरण पढ़ना भी शुरू बिना पर पूज्यनी को खबर होने से मनाई करदी। वहां पर एक यति के पास प्राचीन ज्ञानभण्डार था। Jain Eddation International Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] इसके अन्दर कई प्राचीन शास्त्र थे, उनको देखा तो प्राचाराङ्ग सूत्र की नियुक्ति में तीर्थ यात्रा करने से दर्शन शुद्धि तथा और भी उपासकदशाङ्ग व उवाइजी में आनन्दअम्बड़ के अधिकार में मूर्तिपूजा के पाठ मिल गये । वहां पर तेरहपन्थियों से चर्चा हुई जिसमें आपको विजय प्राप्त हुई । वाद चातुर्मास के उदयपुर पधारे । रास्ता में बहुत से मांसाहारियों को उपदेश देकर मांस को छुड़वाया जब उदयपुर गये वो वहाँ के श्रीसंघ के आग्रह से व्याख्यान में श्री जीवाभिगमसूत्र बांचना प्रारम्भ किया । आपश्री आँखों का इलाज के कारण करीब २॥ महिना तक उदयपुर में रहे वहाँ गुरुवर्य मोड़ीरामजी महाराज भी पधारे थे। पर थोड़े दिन रहकर विहार कर दिया । उदयपुर में आपके व्याख्यान कि इतनी ख्याति हुई कि वहां के संघ की इच्छा हुई कि आपको युगराजपद दिलाया जाय इत्यादि आपके व्याख्यान में बड़े २ राजकर्मचारी आया करते थे । जब विजयदेव के उत्पन्न होने के अधिकार में मूर्तिपूजा का फल के विषय में हित सुख कल्याण मोक्ष और अनुगमी पाठ आये तो जैसे सूत्र में लिखा था अापने वैसे ही परिषद् में सुनादिया बस फिरतो था ही क्या एकदम हा हो हुआ और कहने लगे कि महाराजकी श्रद्धाभ्रष्ट होगइ है पर जब सूत्र के पन्ने नगरसेठ नन्दलालजी व दीवान कोठारीजी साहब के हाथ में दिये तथा आपने एक लिखा पढ़ा विद्वान को खड़ाकर व्याख्यान में उस सूत्र के पन्ने को दुबारा बचवाया तो वही शब्द जो आपश्री ने फरमाये थे निकले इस से लोगों को शंका होने लगी। अतः ६० प्रादमी मुनिश्री से खिलाफ हो भीलाड़े पूज्यश्री के पास गये और णादि से अन्त तक सब हाल कह सुनाया पूज्यजी सब जानते थे इतना ही क्यों पर वह सूत्र ही मुनिजी को पूज्यजी ने दिया था तथापि चतुर बुद्धि वाले पूज्यजी ने कहा जब तक मैं गयवरचंद से न मिलूं वहां तक इस विषय में कुछ नहीं कह सकता हूँ इत्यादि । पूज्यजी ने खानगी कहला दिया कि गयवरचंदजी रतलाम चले जाय । बस गयवरचंदजी विहार कर गये रास्ता में छोटी सादड़ी आई वहां के श्रावकों ने चतुर्मास की आग्रह प्रार्थना की इस पर मुनिजी वहां चन्दनमलजी नगोरी से मिले और पूछा कि यदि मेरा यहाँ ठहरना होजाय तो आप मुझे शास्त्र पढ़ने के लिये देंगे कारण मुझे शाखों द्वारा मूर्ति पूजा का निर्णय करना है। नागौरीजी ने विश्वास दिला दिया। खैर चतुर्मास के लिये पूज्यजी पर छोड़ कर आप वहां से विहार कर रतलाम चले गये वहाँ पहले से शोभालालजी थे सेठजी अमरचंदनी के साथ मूर्ति के विषय में उनकी चर्चा चलती थीं । शोभालालजी वहाँ का सब हाल पापको कहकर विहार कर गये बाद में आपकी भी सेठजी से हमेशा मूर्ति के विषय में षादी प्रतिवादी के रूप में चची चलती रही एक दिन श्राप सेठजी के यहां गोचरी के लिये गये तो एक ताक में श्री केसरियावाथजी का बड़ा फोद पास में धूपदानी और फोटो के ऊपर केसर के छोटे पड़े देखे । देख. कर सेठजी को बुलाया और पूछा कि यह क्या है। तब सेठजी ने कहा कि हमतो गृहस्थ हैं मैंने तो तीनवार केसरियाजी दो बार शत्रुब्जय गिरिनार की यात्रा की है इत्यादि । मुनिश्री ने कहा सेठजी जब आपकी श्रद्धा तो तीर्थों की यात्रा या मूर्ति की पूजा करने से भी दोषित नहीं होती है तब हमको मूर्ति का नाम लेने का भी अधि. कार नहीं पर अब इस प्रकार लिख्ने पढ़े साधुओं को आप कहां तक धमका २ कर रख सकोगे इत्यादि । बाद जावरा में पूज्यमहाराज से मिलाप हुश्रा उदयपुर के विषय में पूज्यमहाराज ने उपालम्भ जरूर दिया पर आपने मतिका खण्डन या विरोध नहीं किया फेवल यही कहा कि जैसा वायु चले ऐसा नोट लेना इत्यादि । बाद नगरी जाकर श्री शोभालालजी से मिले और उनके साथ विचारकर पका निर्णय करलिया कि प्राण जाय तो परवाह नहीं पर उत्सूत्र भाषण नहीं करेंगे। dain Education inte8-सं० १९७१ का वातीस झोटी सादडी में बहाँ पर व्याख्यान में राजप्रश्नीसत्र बांचा । - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] एक फूलचन्द नामका नवयुवक था उसने मर्ति के विषय ७ प्रश्न लिख कर रखलाम पूज्यजी के पास भेजे उत्तर में सेठजी अमरचन्दजी ने अपने हाथ से ऐसा उत्तर लिखा कि जिसमें मूर्तिपूजा के विषय में ठीक मध्यस्थ पना से स्वीकार किया अस्तु । सादड़ी में पुस्तक पढ़ने की बहुत सुविधा थी श्रीमान् चन्दनमलजी नागोरी हरएक पुस्तक पढ़ने को दे देते थे इस पर यहां के श्रावक ने विरोध किया तथा पूज्यजी के पास जाकर मनाई का हुकुम लिखवाय लाये जिसको मुनिजी ने शिर पर चढ़ा लिया फिर भी आप पुस्तकें तो पढ़ते ही रहे। बादमें आपके शरीर में बादी की तकलीफ होने से ३॥ मास पथारी से उठा तक भी नहीं यद्यपि अशुभ कर्म के उदय होने से ही ऐसा हुआ था पर आपने तो उसको भी पुण्योदय ही समझा कारण इस बिमारी के समय में आपने एक लक्ष श्लोक पढ़लिया आपकी बीमारी के कारण गुरुवर्य श्री मोड़ीरामजी महाराज जावद से चातुर्मास में भी पधारे कुछ दिन ठहर कर वापिस पधार गये खैर इस चातुर्मास के समय बहुत वाद विवाद छिड़ गया था और आपकी इच्छा थी कि अब बेधड़क हो सत्योपदेश करें अत: चतुरमास के बाद आप चलकर स्वामि कमचंदजी के पास गंगापुर आये जब पूज्यजी को मालुम हुआ तो मोड़ीरामजी तथा शोभालालजी को जल्दी से गंगापुर भेजे कि-गयवरचंद को समझाकर मेरे पास ले आओ । गंगापुर में मिले हुए सव साधुओं की श्रद्धामूर्ति पूजा की थी परलोकापवाद के कारणवेष छोड़ने की हिम्मत नही हुई सबका यह निश्चय हुआ कि साधुओं को अपने पक्ष में करो फिर साथ ही निकलेंगे। खैर मोड़ीरामजी महाराज के साथ गयवरचंद ब्यावर होते हुए जोधपुर पहुँचे । श्राप व्याख्यान बांच रहे थे एक श्रावक ने प्रश्न किया कि श्रावक मूर्ति को नमस्कार करे जिससे क्या फल मिलता है उत्तर में मुनिश्री ने कहा कि मूर्ति को ईश्वर का स्थापना निक्षेप समझ कर नमस्कार करने से दर्शन शुद्धि होती हैं और पत्थर समझ कर नमस्कार करने से मिथ्यात्व लगता है बस वहाँ भी हा हो मच गया। पूज्यजी को तार देकर समाचार मंगवाया तो उत्तर मिला कि मैं साधुनों को भेज रहा हूँ गयवरचंद को वहीं ठहरायो । बस वहां ठहरने पर चार साधु पूज्यजी के भेजे हुए वहां आये । वे एक लिखित लिखाकर भी लाये जिसमें लिखा हुआ था कि १ मूर्ति की.प्ररूपना नहीं करनी। २ टीका के शास्त्र नहीं पढ़ाना । ३ मूर्तिपूजक श्रावक से वार्तालाप नहीं करना । ४ धोवण पीना पर जीवोत्पन्न की शंका नहीं रखना । ५ बासी रोटी खाने में इन्कार नहीं करना । ६ विद्वल नहीं टालना । ७ पेशाब परठ कर हाथ नहीं धोना । इत्यादि १२ कलमें लिखित में थी कि गयवरचंदजी सिद्धों की साक्षी से हस्ताक्षर करके पालन करे तो शामिल रखना वरना अलग कर देना। मुनिश्री ने कहा कि दीक्षा आत्मकल्याणार्थ ली है और आत्मा परमात्मा की साक्षी से पाली जाती है हस्ताक्षर करना कराना चोरो का काम है इत्यादि सं १९७२ चैत्र शुक्ल १३ जोधपुर से आप अलग होगये । और वहां से चलकर महामन्दिर आये-वहां जोधपुर के दो मूर्तिपूजक श्रावक आकर आपको अपना लिये । तत्पश्चात् आपने सुना कि एक संवेगी साधु पोसियों में है अतः आपश्री श्रोसिया पधारे और श्री महावीर की यात्रा कर परमयोगिराज श्रीरत्नविजयजी महाराज से मिले दो मास वहीं पर ठहरकर प्रत्येक गच्छों की समाचारियों वगैरह देखी तथा श्रोसिया में पाय, व्यय, का कोई हिसाब नहीं था अतः एक शान्ति स्नात्र भणाकर मंगलशी रत्नशी नाम की पेढ़ी की स्थापना करवाई । वहां पर एक वोर्डिङ्ग स्थापना करने की योजना भी तैयार की। 9-सं० १९७२ का चातुर्मास तिवरी प्राम में किया यहां तक आपके मुख पर मुहपती डोरा सहित बन्धी हुई थी आपका विचार दीर्घकाल मुहपर मुहपती बन्धी रख कुछ ठोस कार्य करने का था परन्तु मा श्राप भोसिया पधारे थे तब प्रत्येक दिन एक एक नया स्तवन बनाकर वीर प्रभु के दर्शन स्तुति करते Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२ ] थे। एक दिन मुनिश्री ने प्रतिमा छतीसी और योगीराजजी ने विनती शतक बनाकर वीर प्रभु का स्तवन दर्शन किया उस प्रतिमा छतीसी को एक सादड़ी के श्रावक ने २००० नकल बंबई में छपवाकर वितीणे करवादी । जिससे समाज में चर्चा छिड़ गई अर्थात् खूब जोरों से खण्डन मण्डन शुरु होगया । उधरतो स्थानक वासी अखिल समाज था इधर मुनि महाराज अकेले उस समय में आपके पक्ष में कोई नहीं था फिर भी आपका पक्ष सत्य का था इस लिये विजय प्राप्त आपको ही हुई। चातुर्मास के बाद पुनः श्रोसिया आये तब बहुत से लोग आपके उपदेश से डोरा तोड़ मूर्तिपूजक बन गये। वहां पर बोडिङ्ग स्कूल की भी स्थापना होगई बाद ओसिया में ही मार्गशीर्ष शुद्ध ११ के दिन आपको छोटी दीक्षा और पौषवद ३ के दिन बड़ी दीक्षा देकर आपका नाम ज्ञानसुन्दरजी रखा तथा आपको उपकेशगच्छ का पुनः उद्धार करने का गुरुवर्य ने आदेश दे दिया और योगीराजश्री भण्डारी चन्दनचंदजी के साथ उसी दिन कौसाना की यात्रा के लिये विहार कर दिया तथा मुनीश्वर को बोर्डिङ्ग के बृद्धि के लिये श्रोसियों में ही छोड़ दिये । तथा मुनिश्री ने फाल्गुन शुद्ध ३ तक वहां ही ठहर कर बोर्डिंग को अच्छा जमा दिया। यद्यपि इसमें बहुतसा कष्ट उठाना पड़ा कारण एक तो पोसवालवर्ग अपने लड़कों को ओसिया में रात्रि में रखना नही चाहते थे दूसरा द्रव्य की भी छुट नहीं थी तथापि आपश्री ने अथाह परिश्रम कर बीडिंग की नीव मजबूत बनवादी। बाद लोहावट फलोदी वाले संघ के अत्याग्रह से विहार कर रास्ता में लोहावट ठहरकर फलौदी पधारे वहां के श्रीसंघने श्रापका बड़ा भारी समारोह के साथ सत्कार किया। 10-सं० १९७३ का चातुर्मास फलोदी में ही हुआ आपके चातुर्मास से वहाँ की जनता पर बड़ा भारी उपकार हुआ । व्याख्यान में हजारों आदमी लाभ लेते थे । आपका व्याख्यान मधुर रोचक पाचक और प्रभावोत्पादक था अतः श्राप के उपदेश से १ श्रीरत्नप्रभा कर ज्ञान पुष्पमाला नामक संस्थाके लिये १५०१) का चन्दा होकर संस्था स्थापन की २ जैन पाठशाला जो कि-श्रीमाणकलालजी कोचर की तरफ से स्थापित हुई । ३ जैनलायत्रैरी-नवयुवकों की ओर से स्थापित की गई। ४ जैन मित्र मण्डल यह भी नवयुधकों की ओर से । ५ श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान भण्डार । इस प्रकार पांच संस्थाओं की स्थापना तथा स्थानकवासी साधूरूपचंदजी को दीक्षा दी तथा एक स्थानकवासी साधु धूलचन्दजी को दीक्षा देकर रूपसुन्दरजी के शिष्य बनाया । इत्यादि बहुत उपकार हुआ बाद वहाँ से जैसलमेर की यात्रा की तत्पश्चात् विहार कर लोहावट फिर श्रोसियाँ आये । वहाँ पर श्री विजयनेमि सूरीजी पादड़ी से संघलेकर पधारे आपका बहुत ही अच्छा स्वागत किया गया था पर वे जाते समय रूपसुन्दरजी को संघ के साथ लेते गये। अतः आपश्री अकेले ही रह गये खैर श्रोसियों में भी श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला की ब्रांचशाखा खोली गई। 11-सं० १९७४ का चातुर्मास जोधपुर में किया वहाँ भी व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र वाँचा । स्वामी फूलचन्दजीसे शास्त्रार्थ होने का निश्चय हुआ पर समय पर स्वामीजी सभा में नहीं पधारे अतः जनता में स्वामीजी की कमजोरी पाइ गई विजय मुनि श्री की ही हुई। तथा गुरां के तालाब के ! स्वामी वात्सल्य के लिये भी कुछ बँचातानी हो गई थी जिसका समाधान भी आप ही ने करवाया बाद में विहार कर पाली पधारे । वहाँ प्लेग की बीमारी चली थी सब नगर वालों के अत्याग्रह होने से यति माणिक सुन्दर जी प्रेमसुन्दरजी को बुलवाकर शान्ति स्नात्र पढ़ाई जिसका जबर प्रभाव पड़ा की सर्वत्र उपद्रव शान्ति हो गई। वहाँ से गौड़वाड़ की पश्चतीर्थी कर सादड़ी गये वहाँ पग्लिक व्याख्यान हुए जिसका प्रभाव जनता पर अच्छा पड़ा । गोडवाड़ के मूर्ति पूजक और लौंकों में प्रतिमा नकल निरूपण के विषय में विरोधी वातावरण चल रहा था जिसके लिये भी आपने बहुत कुछ प्रयत्न किया था। वहाँ भण्डारीजी चन्दनचन्दजी जोधपुर stePersonal use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १३ । पाले आगये श्रीराणकपुर की यात्राकर कुछ भाई बहनों साध्वीयों के साथ केसरियाजी की यात्रार्थ उदयपुर होते हुए श्री केसरीयाजी की यात्रा की चार पांच दिन ठहरे । पर वहाँ भी प्लेग का उपद्रव था श्रादमी भी नही मिलता था । भण्डारीजी के साथ ईडर के लिये विहार किया मार्ग में एक दिन तो मरणान्त कष्ट हुआ पर क्रमशः अहम्दाबाद पहुँचगये वहाँ भी अच्छा स्वागत संमेलन हुआ। १ मास ठहरकर पन्यास श्री हर्ष मुनिजी म० के साथ खेड़ामातर वड़ोदरा होकर झगड़िया पहुँच गये। उधर से योगिराज श्री भी विहार कर झगड़िये पधार गये-सबका समागम मगड़िया में हुआ । वही सुरत के सेठलोग यात्रार्थ आये थे उन लोगो का आग्रह पूर्वक विनती होने से पन्यासजी गुरुवर्य आदि सब साधुमण्डल सूरत के लिये विहार कर गये । सूरत के श्रीसंघ ने ऐसा संम्मेलन किया कि वह अपूर्व ही था साथमें दुःख इस बात का हुआ कि उसीदिन पन्यासजी का अकस्मात स्वर्गवास हो गया इसके लिये का अफवाएं भी उठती रही। ___12-सं० १९७५ का चातुर्मास सुरत गुरुवर्य के सेवा में हुआ वहाँ भी व्याख्यान में आपनी ने श्री भगवती सूत्र बाँचा वही कई ईर्षालु साधुओंने यह सवाल उठाया कि दुढ़िया साधु को बड़ी दीक्षा किसने दी आपको योगोद्वहन किसने करवाया इत्यादि परन्तु गुरुवर्य ने ऐसा समाधान कियाकि इसको मैंने बड़ी दीक्षा दी तथा मैंने ही योगोद्वहन करवाया मैं वड़ा का योगो को नहीं मानता हूँ इत्यादि । चातुर्मास के वाद आपने श्री शत्रुब्जय तीर्थ की यात्रा की । गुजरात के साधुओं का प्राधार व्यवहार देख परमात्मा सीमंधर के नाम पर कागद हुन्डी पैठ पर पैठ और मेजरनामा लिखना शुरु किया वह शत्रुब्जय में जाकर पूरा किया । गुजरात के विहार में प्रायः सब साधुओं से मिलाप हुआ यात्राकर चलता हुआ फिर सूरत आये वहाँ पर आचार्य विजय धर्मसूरिजी म० तथा प्राचार्या सागरानन्दसूरी जी पधारे उनके दर्शन मिलाप हुआ। श्री सागरानन्द्रसूरि जी से एक अभव्य के विषय में प्रश्न पूछा पर यथार्थ उत्तर नहीं मिला। 13-सं० १९७६ का चौमासा झगड़िया तीर्थ में हुआ वह निवृत्ति का स्थान था इसलिये संस्कृत का अभ्यास करने का मौका मिला। पर आसपास के बहुत से लोग पर्युषणपर्व आराधने के लिये आये । गुरुवर्य का चातुर्मास ३ साधुओं के साथ सीनोर में हुआ । झगड़िया में सुरत के तथा वम्बई के श्रावक विनंती करने के लिये आये पर ओसियों से पत्र आया कि वोडिंग में केवल ४ लड़के रहगये हैं ज्ञानसुन्द्रजीम० को जल्द भेजें, यद्यपि आपकी इच्छा गुरुमहाराज के साथ रहने की थी पर गुरुमहाराज की आज्ञा से मारवाड़ आनापड़ा ओसियाँ आकर वोडिंग की स्थति सुधारी तथा वड़ाहोलका उपदेश दिया कितने ही समय वहाँ ठहर कर अपने पास की सब पुस्तकों का एक ज्ञान भंडार स्थापन कर उसका नाम श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञानभंडार श्रोसियाँ रख दिया था। 14/15/16-सं० १९७७ सं० १९७८ सं० १९७९ यह तीन चतुर्मास फलोदी ही में हुए इन तीन चतुर्मास में धर्म का अच्छा उद्योत हुआ समवसरणकी रचना जैसलमेर का संघ और ७५००० पुस्तकों का प्रकाशन और भी अनेक भव्यों को ३७ आगम १४ प्रकरणादि सुनने का लाभ हुआ। पर कलिकाल के राज में ऐसा धर्मोद्योत क्यों होगया एक ऐसा विप्लव खड़ा हुआ कि जिससे आपको तीन चतुर्मास लगातार करना पड़ा। इस विषय में कई पुस्तकें भी बन चुकी हैं अतः अधिक नहीं लिखा । 17-सं० १९८० का चतुर्मास लोहावट में हुआ वहाँ भी धर्म का काफी प्रभाव पड़ा । भगवती सूत्र वांचा । १०००) ज्ञान पूजामें आये जैननवयुवक मित्रमण्डल की स्थापना तथा श्री सुखसागर ज्ञान प्रचार सभा की स्थापना हुई ३००००पुस्तकें छपी इत्यादि । "18-सं० १९८१ का चतुर्मास नागोर में हुश्रा यहां भी श्रीभगवतीसूत्र षांचा ५००० पुस्तकें थी .org Jain Education Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] श्री वीरमण्डल संस्था और समवरसण की रचना का अपूर्व महोत्सव मनाया गया। बाद चातुर्मास के कुचेरे पधारे वहां जैन पाठशाला तथा मित्रमण्डल की स्थापना करवाई वहां से खजवाने पधारे एक जैन पाठशाला और मित्रमण्डल की स्थापना हुई । एवं महावीरजयंति बड़े समारोह के साथ मनाई गई। वहां से रुण पधारे वहीं भी ज्ञान प्रकाश मित्रमण्डल की स्थापना हुई। वहीं से फलौदी गये तथा मारवाड़ तीर्थ प्रबन्ध कारिणी सभा की स्थापना करवा कर मारवाड़ के तमाम मन्दिरों की सार संभार की। 19-सं० १९८२ में मेडतारोड़ फलोदी में चातुर्मास किया वहाँ जैन जाति निर्णय एवं जैन जाति महोदय नाम की पुस्तकें लिखीं। वहाँ के मन्दिरों में दिगम्बरों का प्रवेश था वह साफ करवाया इत्यादि। वहाँ अजमेर जाकर वीगत् ८४ वर्ष का शिलालेख देखना था वह देखा वहाँ से विहार कर पीसागण जेठाणे गये । वापिस वे पीसांगण आये वहां कई जाति सुधार हुए बाद कालु बलुदा जैतारण में व्याख्यान देते हुए वीलाड़े गये । वहां स्था० साधु शिरेमलजी के साथ शास्त्रार्थ कर श्रीनथमलजी संघी को प्रबोध कर वासक्षेप देकर पुनः जैन बनाया वहां से कापरडा तीर्थ की यात्रा कर पीपाड़ पधारे। 20-सं१९८३ का चातुर्मास पीपाड़ में किया वहां भी व्याख्यान में श्रीभगवती सूत्र ब्राचा । धर्म की बहुत अच्छी जागृत हुई। जैन मित्रमण्डल जैन लायब्रेरी जैन श्वेताम्बर सभा इत्यादि संस्थाए स्थापित करवाई । वहां से विहार कर कापरड़ा की यात्रा की वहां से वीलाड़ा आये । वहां स्थानकवासी साधु गंभीरमलजी को सं० १९८३ का चैत्रवद ३ को बड़े ही समारोह के साथ दीक्षा देकर उनका नाम गुणसुन्दरजी रखा बाद पुनः पीपाड़ पाये और वगड़ी की प्रतिष्ठा समारोह के साथ करवाकर वहाँ से सोजत पाये । 21-सं० १९८४ कर चतुर्मास वीलाड़ा में हुआ यहां भी धर्म का अच्छी जागृति हुई । व्याख्यान में श्रीभगवतीसूत्रका वाचन हुआ। जैनपाठशाला मित्र मण्डलनाम की संस्था कायम करवाई। बाद विहार कर पाली आये गोडवाड़ की पन्चतीर्थ कर मेवाड़ (उदयपुर) गये। वहां माह शुद्ध पूनम को प्राचार्य रत्न प्रभसूरिश्वरजी की जयंति मनाकर केसरियाजी की यात्रा की वहां से गोडवाड वापिस आये । वहाँ से लूवाना शिबगंज वाली होकर सादड़ी आगये । 22-सं० १९८५ का चतुर्मास सादड़ी में ही हुआ । वहाँ भी व्याख्यान में श्रीभगवती सूत्र का वाचन हुआ वहाँ खू डालावाला हजारीमलजी के कारण बड़ा भारी तनाजा पड़ा उसका समाधान करवाया । जैन जाति महोदय के लिये चार हजार रुपया का चन्दा करवाया। चातुर्मास के बाद वहीं से वाली प्राये वहाँ समवसरण की रचना से गोड़वाड़ में जागृति पैदा की हुई । वहाँ भी संघ में कलेश था जिसका समाधान करवाया बाद वहाँ से वरकाणा आये वहीं वगीचा में रह कर समरसिंह का इतिहास लिखा । 23-सं० १९८६ का चातुर्मास लूनावा में हुआ वहां भी धर्म की खूब जाहोजलाली हुई। पुस्तक प्रकाशन के लिये अच्छा चन्दा हुआ । धर्म की अच्छी जागृति हुई एक कन्याशाला की स्थापना करवाई वहीं से पाली आये वहां भी एक कन्याशाला की स्थापना हुई बाद कापरड़ा आये । वहाँ से नागोर पधारे वहाँ के मन्दिरों के शिखरों की प्रतिष्ठा करवाकर बाद में पाली आये । 24-सं० १९८७ का चातुर्मास पाली में हुआ। यहां भी धर्म की अच्छी जागृति हुई । विशेष श्रामह कर समवसरण की रचना बड़ी ही मनोरम बनवाई। हाथी आदि समारोह के साथ प्रभु सवारी निकाली आदि बहुत ही अच्छी उन्नति हुई । वहाँ से विहार कर कापरड़ाजी आये वहाँ से जोधपुर पधारे । जोधपुर में कई मन्दिर थे परन्तु ध्वजदण्ड किसी पर नहीं था अतः श्रीगौड़ीपार्श्वनाथ और शान्तिनाथ के मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवा कर सब मन्दिरों पर ध्वजदण्ड चढवाया जिसमें श्रीसंघ के पन्द्रह हजार रुपये Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास Jain E साहित्य रसिक— मुनीश्रीगुणसुन्दरजी महाराज आपका जन्म भी ओशवंश में हुआ आप १६ वर्ष की किशोर व्यय में स्थ० सं० में दीक्षित हुए बाद २२ वर्षों से संवेगपक्षीदीक्षाली आप में व्ययवच्च का बढ़िया गुण है । स्मरण शक्ति अच्छी होने से प्रत्येक ज्ञान शीघ्र कण्ठस्थ कर लेते हैं आपको कविता करने का भी शौक है आप की ही सहायता से गुरुवर्य ने इतने काम कर पाये हैं । फ जन्म १६४६ स्था० दीक्षा १६६१ संवेगपक्षी दीक्षा १६८३ ------------- Use Only फ्र ........................................ ******* .org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ J हुए। मैरोवाग की देवभूमि के लिये आन्दोलन किया चाखिर श्रोसवाक उस देव भूमि एवं देव द्रव्य को हजम कर ही गये जिसके फल आज प्रत्यक्ष में मिल ही रहा है। तथा भरुवाग में मन्दिर बनवाने के लिये उपदेश दिया । पहिले बाला के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई । 25 - सं० १९८८ का चतुर्मास जोधपुर में हुआ वहां भी व्याख्यान में श्री भगवतीसूत्र बांचा । और भी धर्म की अच्छी प्रभावना हुई । वहाँ से कापरड़ा तीर्थ की यात्रा करने के लिये गये वहाँ भी बोर्डिंग की स्थापना करवाई । वहाँ से पीपाड़ आकर मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़े समारोह के साथ करवाई और समवसरण की रचना हुई । 26- सं० १९८९ का चातुर्मास कापरड़ा तीर्थ पर ही हुआ जिससे वोर्डिंग को अच्छी मदद मिली । पर्युषण पर्व में पीपाड़ बीलाड़ा जैतारण बालाफढ़ासला खारिया जोधपुर विशलपुर आदि प्रामो से बहुत भावुक जन आये पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य आदि धर्मोद्योत हुआ । अर्थात् जंगल में भी मंगल होगया वहां पर श्री पांचूलालजी वगैरह तीनो भाई आये और जैसलमेर संघ के लिये श्रामन्त्रण किया तथा पांचलालजी की तरफ से वहां बड़ा होल बनवाया बाद विहार कर फलौदी गये और पांचूलालजी ने जैसलमेर का बड़ा भारी संघ निकाला जिसमें ५००० गृहस्थ १०० साधुसाध्वी ने भाग लिया जिसका एक बड़ा प्रन्थ बना हुआ है । 27 १९९० का चतुर्मास फलौदी में हुआ । व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र बांचा । विशेष कार्यवहाँ पह हुआ कि श्रीसूरजमलजी कौचर की धर्मशाला में बड़ा होल बनवाया जिसमें नन्दीश्वर द्वीप की रचना हुई हजारों जैन तथा जैनेतर भाई ने लाभ लिया और जैनधर्म का गुणगाया इत्यादि । वहाँ से विहारकर जोधपुर तथा पाली होते हुए सादड़ी आये चैत्र मास की शाश्वतीश्रोली बड़ा ही उत्साह के साथ ही करवाई | बाद लुनावा होकर शिवगंज तथा वहाँ से जावाल प्रतिष्ठा के लिये गये । वहाँ श्राचार्य विजय मिसूरीश्वर का दर्शन हुआ सूरिजी की बड़ी भारी मेहरबानी रही थी । 28 सं० १९९१ चतुर्मास शिवगब्ज में हुआ व्याख्यान में श्री भगवतीसूत्र बांचा । वहाँ पर नाद - मांडवा कर तीन सौ नरनारियों को विधिविधान के साथ समकित दी इत्यादि । धर्मका खूब ही उद्योत हुना व्याख्यान का ठाट बहुत ही अच्छा रहता था । 29 सं० १९९२ का चातुर्मास जोधपुर में हुआ। मुनिश्री का शरीर नरम था व्याख्यान श्रीगुणसुन्दरजी बांचते थे । तथापि पर्युषण पर्व का बड़ाही ठाठ रहा था बाद चतुर्मास के वहां से विहारकर कापरड़ा की यात्रा की गयी । 30 सं० १९९३ का चतुर्मास पाली में हुआ वहाँ भी अच्छा ठाट रहा मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिइस श्रीमान् लोकाशाह नाम की पुस्तक पाली में लिख कर वहां से सोजत तथा ब्यावर पधारे। वहीँ स्थानक बासी साधु अम्बालालजी तथा अर्जुनलालजी से भेंट हुई । उन दोनों साधुओं को मूर्ति के विषय में अच्छा प्रबोधित किया वहाँ से अजमेर तथा नागौर जाकर समदड़ियों के बनाये हुए स्टेशन पर चंदप्रभू के मन्दिर प्रतिष्ठा एवं नंदीश्वर द्वीप की रचना समदड़ियों के तरफ से करवाई और श्राचार्य रत्नप्रभसूरिजी के बाके की स्थापना भी करवाई । सुरांणों की बगेची में आचार्य धर्मघोषसूरि के पादुकों की स्थापना की । 31 १९९४ का चतुर्मास सोजत में हुआ वहां भी व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र का बांचना हुआ और समवसरण की रचना बहुत समारोह के साथ हुई । सवारी में हाथी वगैरह जाने से धर्म की बहुत प्रभावना हुई । वहाँ से कापरड़ा होकर ब्यावर तथा अजमेर पधारे । Jain Education Internatio Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 सं०१९९५ का चतुर्मास ब्यावर में हुआ वहाँ भी व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र रखा गया । पर्युषण की आराधना आम पब्लिक रायली कंपान में हुई । जैनधर्म का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। 33 सं० १९९६ का चातुर्मास अजमेर में हुआ । वहाँ भी व्याख्यान में श्रीभगवती सूत्र बांचा गया । और अनेक पुस्तकें छपवाई । तथा भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास का कार्य प्रारम्भ हुआ। 34 १९९७ का चतुर्मास ब्यावर में हुआ पहले ब्यावर गाँव की मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई बाद चतुर्मास में धर्म की अच्छी प्रभावना हुई । वहाँ से कापरेड़ा पधारे आपके शरीर नरम थे अतः कुछ अर्शा कापरेडा में ही बिताना पड़ा बाद फलोदीका संघ आकर आग्रह किया कि मन्दिर के प्रतिष्ठा के लिये आप फलोदी पधारें। 35 सं० १९९८ का चतुर्मास फलोदी में हुआ वहाँ भी व्याख्यान में श्री भगवतीसूत्र को बांचा । आपके विराजने से धर्म का अच्छा उद्योत हुआ । 36 सं० १९९९ का चतुर्मास पीपलिया में हुमा वहाँ भी व्याख्यान में भगवतीसूत्र बाँचा यहाँ १०० वर्षों के अन्दर आपका ही चातुर्मास हुआ था । जैन तथा जैनोतर भाईयों ने बहुत अच्छा लाभ लिया था। जीर्णोद्धार के लिये करीब ५००० हजार की चन्दा एकत्रित हुई । 37 सं० २००० में आपका चातुर्मास अजमेर में हुआ जो खास भगवान् पार्श्वनाथ के परम्परा के इतिहास रचने के ही उद्देश्य से हुआ है। आपश्री के आजतक कुल ३७ चतुर्मास हुए जिसमें ९ स्थानकवासी समुदाय में २८ संवेगी समुदाय में जिस में २ चौमासा गुजरात में २ गोड़वाड़ में शेष २४ चतुर्मास मारवाड़ में ही हुआ है इसका कारण यह है कि आपके पास योग्य साधुओं का अभाव था जिससे कि दूर प्रान्त के विहार नहीं कर सके, दसरा आपने जननी जन्मभूमि की सेवा करने की पहले से ही प्रतिज्ञा करली थी आपने जननी जन्मभूमि की सेवा करने में जैसा बहुत परिश्रम किया वैसा लाभ भी बहुत हासिल किया। यदि आप श्री इस प्रकार मरूधर में विहार न करते तो न जाने इस भूमिपर कितने भाई मूर्तिपूजक जैन रह जाते । जैसे पंजाब में पून्याचार्य श्री मात्मारामजी महाराज ने पंजाब का उद्धार किया इसी प्रकार आपश्री ने भी मारवाड़ का उद्धार करने में सफल मनोरथ हुये । किन्तु स्वामी आत्मारामजी के पास जितने साधन थे उसका एक अंश भी यदि आपके पास होता तो आप कुछ और ही काम करके बतलाते पर साधनों के अभाव में भी जो भागीरथ प्रयत्न कर इतना काम कर दिखलाया है यह आपकी एक विशेषता है। ऊपर लेखमें आपके चतुर्मास सिलसिलेवार संक्षेप से कहे गये हैं। अब थोडासा आपका किए हुए कार्य का दिग्दर्शन कराना आवश्यक है । मुनिश्री के उपदेश एवं प्रयत्न से भीरत्नमम कर ज्ञान पुष्य मालादि संस्था द्वारा पुस्तकें मुद्रित हुई पुस्तक का नाम आवृत्ति संख्या भावृत्ति संख्या १ | प्रतिमा छत्तीसी ५ २५००० | ६ पैंतीस बोल | गयवर विलास २००० संग्रह भाग १ ला | दान छत्तीसी ८ , , ,२ रा अनुकम्पा छत्तीसी ६००० ५ | प्रभमाला स्तवन ३०००। १० , , , ४ था नं. पुस्तक का नाम संप्रह ४००० विपन ४ arr0 ३०० Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १० ] पुस्तक का नाम ११ , , , ५ वाँ १२ दादा साहिब की पूजा १३/ चर्चा का पग्लिक नोटिस १४ देव गुरु वन्दन माला १५/ लिंग निर्णय बहत्तरी १६ सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली १७ बचीस सूत्र दर्पण १८ जैन नियमावली १९ जैन मन्दिरों की आशातना २०/डका पर चोट २१ भागम निर्णय २२ चैत्यवन्दनादि २३ जिन स्तुति २४ सुबोध नियमावली २५/ जैन दीक्षा २६ प्रभुपूजा विधि २७ व्याख्या विलास भाग १ २८ , , भाग २ २४ वो २००० २००० आवृत्ति संख्या पुस्तक का नाम आवृत्ति संख्या १४ वाँ ११००० २००० १५ वा १ | १००० १ १००० १६ वाँ १००० १७ वाँ ३००० १००० १००० ५०० ४००० १००० २००० २२॥ १००० - ५०० २३ वाँ १ १००० १००० " , २५वाँ १००० २००० ५६ सुखविपाक सूत्र मूल पाठ १ १००० ५७ दशवैकालिक सूत्र , , १ १००० ५८ नंदीसूत्र "" १००० २००. ५९ कागद हुंडी पेठ परमेठ । गु० २ १००० ६०और मेमरनामो हि० २ २००० १००० ६१ तीन निर्नामा लेखों का उत्तर १ २००० १००० ६२ श्रोसियाँ ज्ञान भंडार की लिस्ट १ ६३ तीर्थमाला स्तवन २००० ६४ अमे साधु शा माटे थया ? १००० ६५ विनती शतक १००० ६६ द्रव्यानुयोग प्रथम प्रवेशिका २००० द्रव्यानुयोग द्वितीय प्रवेशिका ६८ श्रानंदधन चौवीसी ६९ कक्का बत्तीसी सार्थ १००० ७० स्वाचाय गहूली सं० ७१) राईदेवसि प्रतिक्रमण १००० ७२/ उपकेशगच्छ लघु पट्टा० १००० ७३ वर्णमाला २००० ७४ वीन चतुर्मास का दिग्दर्शन ७५/ हितशिक्षा प्रश्नोतर १००० । ७६ विवाह चूलिका की समालोचना "२ ३००० or on on १००० " " भाग ३ भाग ४ n . . . . भाग o o o ६७ ००० o o ० ० ० ० ००० 55555元左左左右右 o o o o or १००० ० on " , १००० Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] - पुस्तक का नाम भावृत्ति संख्या १००० २००० १००० १०.. C पुस्तक का नाम श्रावृत्ति संख्या. ७७ पुस्तकों का सूचीपत्र ७३५००० ७८ महासती सुरसुन्दरी ७९ विधि-सहित पंच प्रतिक्रमण १ | ५००० ८० मुनिनाममाला. ८१ कर्मप्रन्थ हिन्दी अनु० ८२ दानवीर जगडू १००० ८३ शुभमुहूर्त शुकनावली जैनजाति निर्णय प्रथमाङ्क १००० ८५ जैनजाति निर्णय द्वितीयाङ्क ८६ पंच प्रतिक्रमण मूलसूत्र ८७ प्राचीन छन्द गु० भाग १ ला १ भाग २ जा १ भाग३ जा भाग ४ था भाग ५ वाँ माग ६ ठा। १ ९३ धर्मवीर जिनदत्त ९४ जनजातियों का इतिहास १००० ९५ ओसवाल समय नि० ९६ मुखवत्रिका नि०नि० ९७ निराकरण निरीक्षण १००० ९८ दो विद्यार्थियों का संवाद । १ २००० ९९ धूर्त पंचों की क्रान्तिकारी पूजा १०० उपकेशवंश कविता १००० १०१ नयचक्रसार मूल के साथ हिन्दी १००० १०२ जैनसमाज की वर्तमान दशा १००० १०३ समवसरण प्रकरण ९००० सादड़ी के तपा-लुंका बाली के फैसले १०६ जनजाति महोदय प्र० १ ला " " , २ जा १००० १०८ " " "३ जा । १००० १००० १००० ११० , , , ५ वाँ १ | १००० ___ , , , ६ ठा| १ | १००० ११२ जिनगुणभक्ति बहार भाग १ १ १००० " , भाग २ १ १००० ११४ कायापुर पट्टन का पत्र ११०००० ११५/ जड़ चैतन संवाद . २ २००० ११६, बाला के मन्दिर की प्रतिष्ठा १००० ११७ तत्वार्थ सूत्र सार्थ २००० ११८ शान्तिधारापाठ १५०० ११९ आनन्दघन पद मुक्तावली २००० १२० कापरड़ा तीर्थ स्तवनावली १२१ नंदीश्वर द्वीप की रचना १२२ दशवैकालिक के ४ श्रा० १२३ वीर पार्व निशानी १२४ व्यवहार समकित के ६७ बोल १ १५०० १९५/ तत्वार्थ सूत्र मूल १००० १२६ जैनतत्त्व सार सं० भा० १ । १ १५०० १००० १२८ नित्यस्मरण पाठमाला २००० १२९ कर्मवीर समरसिंह १००० १३० लधुपाठमाला १००० १३१ उगता राष्ट्र १३२ कापरड़ा तीर्थ का इतिहास । २ २००० १३३ भाषण सं० भाग १ १००० १३४ , , , २ १३५/ नौ पदानुपूर्वी २००० १३६ मुनि ज्ञानसुन्दर १००० १३७ समीक्षा की परीक्षा १००० १३८ अर्द्ध भारत की समीक्षा १००० १३९ पाली में धर्म का प्रभाव ५०० १४० गुणानुराग कुलक १००० १४१ शुभगीत भाग १ ला १४२ , , २जा २००० ० १०४ ० orror or or or P. ० १००० م سه 94 و Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० १४३ ३ जा "" 59 १४४ | विधि सहित राई देवासि प्र० १४५ | जैसलमेर का संघ १४६ श्रादर्श शिक्षा १४७ संघ का सिलोका १४८ स्नात्र पूजा (आत्मा० ) १४९ | जैन मन्दिरों के पुजारी पुस्तक का नाम १५० | वीर स्तवना १५१ ० रन० जयन्ति महोत्सव १५२ शंकाओं का समाधान १५३ हाँ मूर्तिपूजा शास्त्रोक्त है १५४ | जिनेन्द्र पूजा संप्रह १५५ | लेख संग्रह भाग १ ला १५६ २ जा १५७ ३ जा १५८ ४ था १५९ ५ वाँ " 99 १६० मूर्तिपूजा का प्रा० इति० १६१ मू० पू० प्रश्नोत्तर १६२ | क्या तीर्थंकरों भी मुहपती • १६३ | श्रीमान् लोकशाह १६४ | ऐतिहासिक नोंध कि० ऐ० १६५ कडुमत की पट्टावली " " 99 55 39 "" १६६ | वंगचूलिका सूत्र १६७ नाभा नरेश का फैसला १६८ | महादेव पार्वती संवाद १६९ | सुगुरु बन्दन विधि १७० | तस्कर वृति का नमूना १७१ | गुरुगुण माला १७२ संस्था की रिपोर्ट १-२ आवृति संख्या १ १००० १००० १ २ १ १ १ १ १ १ १ [१] १ १ १ १ ५०० १००० १५०० १००० १५०० १००० १००० १००० १००० १२५० १००० १००० १००० १००० १००० १५०० १००० १ १ १५०० १ १००० १ १००० १ १००० २ २००० १ १५०० १ ५०० २००० | २ १ १००० १००० २ । १००० उपरोक्त संस्था द्वारा २०१ पुष्प प्रकाशित हो जाने से यह कार्य यहाँ ही समाप्त हो गया - श्रम जो पुष्प प्रकाशित होते हैं उसपर श्रीज्ञान-गुण पुष्पमाला नं० १७३ प्रमाणवाद १७४ पंचों की बड़ी पूजा १७५ महादेव स्तोत्र १७६०१० जे० इ० सं० भाग १ ला भाग २ जा भाग ३ जा १७७ १७८ १७९ १८० १८१ १८२ १८३ १८४ १८५ १८६ १८७ १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९३ १९४ १९५ १९६ "3 १९७ १९८ १९९ 13 39 59 31 भाग ४ था भाग ५ वाँ भाग ६ ठा भाग ७ वाँ भाग ८ व 39 "" भाग ९ वाँ "" 19 " " " " भाग १० व भाग ११ व 9 39 99 99 " " " " भाग १२ वॉ भाग १३ वॉ 99 39 "" " " " " " भाग १४ वाँ भाग १५ व " " " भाग १६ व 39 99 99 पुस्तक को नाम " "" 99 29 99 99 " " " " " 33 99 99 " " " " 35 33 " 33 33 ," " " 19 " 19 "" "" 19 "" " 35 "1 22 " " " भाग १७ वॉ " भाग १८ वॉ भाग १९ वाँ " " भाग २० व " भाग २१ वाँ " भाग २२ वाँ भाग २३ वाँ भाग २४ व २०० "" 22 "9 "" भाग २५ व २०१ उपकेश गच्छाचायों की पूजा 33 आवृत्ति संख्या १ १००० १ २००० " १ १ १ १ १ १ १ १००० १००० १ १००० १ १००० १ १००० के नंबर एक से लगाये जाते हैं जिसके आज तक ३१ नंबर आगये हैं तथा भविष्य में भी क्रमशः पुष्प नंबर लगाया जायगा । १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ५०० १००० १००० १००० १ १ १००० १००० १००० ६०.० १००० १००० ५०० ५०० १००० १००० १००० १००० १००० ५०० ५०० १००० १००० १००० Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० संवत् नगर १ १९७२ तिवरी २ १९७३ फलोदी ३ १९७४ | जोधपुर ४ १९७५ |सरत ५ १९७७ फलोदी ६ १९७९ फलोदी ७ १९८० लोहावट ८ १९८१ नागोर ९ १९८३ | पीपाड़ १० १९८४ बीलाड़ा ११ १९८५ सादड़ी १२ १९८६ लुनावाँ १३ १९८७ पाली १४ १९८८ जोधपुर १५ १९९० फलोदी १६ १९९१ शिवगंज १७ १९९४ सोजत १८ १९९५ व्यावर १९ १९९६ अजमेर श्री भगवतीजीसूत्र व्याख्यान में वाचा महोत्सव करने वाले श्री० लंबकरणी लोढ़ा श्रीसंघ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ १९७४ | सूरत १९७४ सूरत १९७४ सूरत " १९७४ सूरत ९ १९७५ | 33 घड़िया 99 "" " अगर चन्दजी लोढ़ा छोगमलजी कोचर 99 " गुजराती पोलवाले "" मी प्रतापजीता छोगमल जी कटारिया नथमलजी विदामिया ,,गुलाबचन्दजी पोरवाल ,, शोभागमलजीज नांगी S २० १९९७ व्यावर २१ १९९८ फलोदी २२ १९९९ | पीपलिया ,, सहसमलजी मुता "" 33 39 वृहद् शान्ति स्नात्र पूजा १ १९७२ ओसियों महावीर मन्दिर में १९७३ फलोदी १९७३ पाली १९७४ भानपुरा 99 दीपचन्दजी पारख छोटूभाई वे वैद्यों का बास 39 [२०] , जालमचन्दजी वकील ,, घेवरचन्दजी लक १. फोजमलजी पोरवाड़ " सम्पतराजजी वकील ,, गणेसमलजी कोठारी ,, हरिचंदजी घाड़ीवाल ,, पूर्व से चलता गौडी पार्श्वनाथ नौलखा पार्श्वनाथ पब्लिक में चिन्तामणि पार्श्व सीमंधर स्वामी महावीर मन्दिर पार्श्वनाथ मन्दिर आदीश्वर मन्दिर १०. १९७६ | फलोदी ११ १९८० नागोरी सराय समवसरण चोस्टाजी के म० १२ १९७५ वीसलपुर | पार्श्व मन्दिर १३ १९८५ वाली समवसरण में १४ १९८७ पाली १५ १९८७ बाला १६ १९८८ | जोधपुर १७ १८ 39 "" १९ १९८७ | नागौर २० १९८८ बीसलपुर " २१ १९८८ | पीपाड़ २२ १९९४ नागौर २३ १९९६ अजमेर २४ "" "" २५ १९९७ ब्यावर 93 ८ ४ ५ ६ | १९८९ | खजवाना ૬ १९८३ बलाड़ा १९८१ नागौर ९ २ ३ ४ १ १९७२ | सतीर्थ वर्द्धमान जैनबोर्डिंग २ १९८७ पार्थ स्वयं भूपार्श्वनाथ १९९६ | सादड़ी आत्मानंद जैन जैन पाठशाला १९ . ३ फलोदी १९८१ कुचेरा १९८६ | सादड़ी १० १९८७ पाली ११ | १९८६ | लुनाव दूसरी वार समव० पार्श्व-प्रतिष्ठा जैन बोर्डिंग पाठशालाएं ताजी के मन्दिर गौड़ी पार्श्वनाथ शान्तिनाथ बड़ा मन्दिर शिखर ० अजितनाथ मन्दिर शान्ति० प्रतिष्ठा चन्द्रप्रभ० स्टेशन पर महताजी देवकरणजी संभवनाथ मन्दिर शान्तिनाथ मन्दिर लोहावट ५ फलोदी or Private & Personal Use Only श्री ज्ञानभण्डार लायब्रेरी 55 जैनज्ञानोदय पाठशाला ज्ञानवृद्धि जैनपाठशाला जैनपाठशाला जैन पाठशाला को मदद जैन कन्याशाला जैन कन्याशाला जैन कन्याशाला 91 फलोदी श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला श्रोसियाँ ओसियाँ रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला ब्रांच श्री कक क्रान्ति जैनलायब्रेरी श्री श्री जैनलाय मेरो सुखसागर ज्ञानप्रचार सभा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ و पीपाड़ कापरड़ा पाली वीसलपुर ८ ९ १० लुनावा ११ सायरा १ १९७३ | फलोदी २ १९७९ लोहावट ३ | १९८० | नागोर ४ १९८१ कुरा ५ १९८१ खजवाना ६ १९८१ रू श्री ज्ञानोदय जैन लायब्रेरी श्री पार्श्वनाथ जैनज्ञानभंडार श्री जैन श्वे० लायब्रेरी श्री जैनलायब्रेरी श्री जैन ज्ञानलायब्रेरी श्री जन वे० ज्ञानलायब्रेरी सेवा मंडल २ १९८२ | खारिया ७ ८ | १९८३ ९ | १९८३ बलाड़ा पीपाड़ १० १९८३ | कापरड़े ११ १९८४ पीपाड़ १२ १९८५ | लुनावा १३ १९८४ पीपाड़ १४ | १९०२ | फलोदी मं० १९७२ | ओसिया ! १९८२ | फलोदी १९८९ | नागोर जैन मित्र मण्डल जैन नवयुवक मंडल वीर मंडल महावीर मित्रमण्डल जैन मित्र मण्डल जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा एवं मदद २१ 1 ३ ज्ञानप्रकाश मण्डल जैन श्वे० मित्रमण्डल ज्ञान प्रकाश मित्र मण्डल जैन मित्र मण्डल जैन सेवा मण्डल 'जैन बालमित्र मण्डल जैन बाल मण्डल जैन श्वे० संघ सभा मारवाड़ तीर्थ प्रबंधकारणी जीर्णोद्धार में मदद लिये उपदेश तीर्थ का सुधार के लिये चतुर्मास किया मन्दिरों पर शिखर के लिये उपदेश ४ ५ ६ ७ ८ १९८८ | जोधपुर | मन्दिरों पर ध्वज दंड १९८८ | जोधपुर व प्रतिष्ठाएं भैरूबाग की देव भूमि मन्दिर के लिये श्रन्दोलन जीर्णोद्धार के लिए पदेश गोड़ीपार्श्व शान्तिनाथ प्रतिष्ठा का उप० पार्श्वमाथ के मन्दिर का जीर्णो० प्रति० का उ. जीर्णोद्वार मन्दिर की प्रतिष्ठा का उप १९८३ |कापरडा १९८८ | जोधपुर १९८७ | बाला १९८८ | चोपड़ा १९८८ पालासणी मन्दिर का सुधारध्वजा दंड १० | १९८८ वीसलपुर मन्दिर की आशातना मिटाने का उप० ११ १९८७ षीससपुर गोडवाड़ के मन्दिर के लिये उप० मन्दिर की प्रति १२ १९८४ बगड़ी १३ १९९० फलोदी वासन दिया धर्मशाला के नये होल का उपदेश १४ १९९४ सोजत १५ | १९८८ पीपाड १६ १९९७ १७ | १९९९ | चंडावल पाश्रय में प्रभु मूर्ति की प्रतिष्टा शान्तिनाथ के मन्दिर की पुनः प्रतिष्ठा रिषभवाढी में पादुकाएं ब्यावर प्राम मन्दिर की प्रतिष्ठा | शान्तिनाथ की मूर्ति वास० १८ | १९९९ |ब्यावर तीर्थयात्रा इसके अलावा आपका बहुत समय तीर्थयात्रा में भी व्यतीत हुआ था १ सं० १९७३ में श्री जैसलमेर लोद्रावजी की यात्राकी वहां का प्राचीन ज्ञानभंडार का अवलोकन किया २ सं० १९७४ गोडवाड़ के पांचों तीर्थों की यात्रा की । ३ सं० १९७४ श्री केसरियानाथजी की यात्रा भी उत्साह से की। ४ सं० १९७४ श्री ईडर के किल्ला के जिनालय की यात्रा की । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] ५ सं० १९७४ नरवाद मागहमदाबादे की यात्रा की । ६ सं० १९७५ श्री जपडियातीर्थ की यात्रा की। ७ सं० १९७५ स्तम्भनतीर्थ की यात्रा की। ८ सं० १९७५ तीर्थाधिराज श्री शत्रुरूजयादि की यात्रा की। ९ सं० १९७६ तीर्थ श्री कुबारियाजी की विकट यात्रा की । १० सं० १९७६ श्राबुदाचल देलवाड़ा अचलगढ़ की यात्रा की। ११ सं० १९७६ सिरोही आदि तीर्थों की यात्रा बड़े ही श्रानन्द से की। १२ सं० १९७६ कोरंटा तथा श्रोसियों तीर्थ की यात्रा की। १३ सं० १९७८ श्री जैसलमेर लोद्रवानी की संघ के साथ यात्रा की। १४ सं० १९८१ श्री फलोदी पाश्वनाथ की यात्रा की। १५ सं० १९८३ श्री कापरखाजी तीर्थ की यात्रा की । १६ सं० १९८९ श्री जैसलमेर लोद्रवानी की तीसरी वार श्री पांचूलालजी वैदमहता के निकाले हुए विराट् संघ के साथ यात्रा की और भी मुंडावा सोमेश्वर वगैरह तीर्थों की यात्रायें की। स्थानकवासियों से पाये हुये साधुओं के दीक्षा १ सं० १९७३ स्थानकवासी साधु रूपचन्दजी को फलोदी में दीक्षा दे रूपसुन्दर नाम रखा । २ सं० १९७३ स्था० साधु धूलचन्द को फलोदी में दीक्षा दे धर्मसुन्दर नाम रखा। ३ सं० १९८२ स्था० साधु मोतीलाल की फलोदी तीर्थ पर मुहपत्ती का डोरा तुड़ाया। ४ सं० १९८३ स्था० गंभीरमलजी को बोलाड़ा में दीक्षा दे गुणसुन्दर नाम रखा। ५ सं० १९८५ स्था० जीवणमल को बीसलपुर में दीक्षा दे जिनसुन्दर नाम रखा। ६ सं० १९८८ तेरहपन्थी मोतीलाल को दीक्षा दे क्षमासुन्दर नाम रखा। ७.८-९ इनके अलावा खंचन्द, जोधपुर और नागौर इन तीनों स्थानों में तोन गृहस्थ महिलाओं को दीक्षा दी तथा अनेक गृहस्थों को मिथ्या श्रद्धा से मुक्त कर मूर्तिपूजक श्रद्धा सम्पन्न श्रावक बनाये और विशेष में आपने २८ वर्ष तक भ्रमण कर अनेक चल चित वालों को धर्म में स्थिर किये यद्यपि योग्य साधुओं के अभाव आपका दूर २ प्रान्तों में विहार नहीं हो सका तथापि आपके कर कमलों से लिखी हुई पुस्तक का प्रचार प्रायः भारत के कोने कोने में होने से धर्म की जागृति हुई इतना ही क्यों पर जहां २ धार्मिक विषय का शास्त्रार्थ हुआ वहां वहां आपने जैनधर्म को विजय विजयंति फहरा दी थी उदाहरण के तौर पर देखिये। १-देवगढ़ में तेरहपंथियों के साथ ६-फलोदी में स्था० साधुओं के साथ २-काल में दिगम्बरों के साथ ७-लोहावट में स्था० साधु हीरालालजी के साथ ३-काल में तेरहपन्थियों के साथ ८-जोधपुर में स्था० फूलचन्दजी के साथ ४-गंगापुर में , , ९-बीलाड़ा में स्था० सिरेमलजी के साथ ५-ओसियों में स्था० श्रावकों के साथ १०-सादड़ी में स्था० बख्तावरमलजी के साथ अन्त में हम शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आप चिरकाल तक गजहस्ती की भांति विहार कर हमारे जैसे भूले भटके जीवों को सत्य पंथ के पथिक बनावे । श्राप श्री के चरणोपासक केसरीचन्द चोरडिया Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की माचीनता जैनधर्म एक अति प्राचीन म्वतन्त्र विश्वव्यापि आत्मकल्याण करने में मुख्य कारण और अनादिकाल से अविच्छन्न रूप से चला आया उच्चकोटि का पवित्र सर्वश्रेष्ठ धर्म है इसकी आदि का पता लगाना बुद्धि के बाहर की बात है । फिर भी काल ए क्षेत्र की अपेक्षा जैनधर्म सादि भी है जैनधर्म की नींव स्याद्वाद एवं विज्ञान के आधार पर रखी गई है इसका आत्मवाद अध्यात्मवाद परमाणुवाद सृष्टिवाद और कर्म फिलासोफी के कहने वाले साधारण व्यक्ति नहीं पर सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतरागदेव थे जैनधर्म जितना विशाल है उतना ही गंभीर भी है । जैनधर्म एक समुद्र है इसके थोड़े थोड़े छोटे उड़े हैं जिससे इतर लोगों ने अपनी अपनी दूकानें लगा रखी हैं अर्थात् अन्य धर्म वालों ने जो कुछ शिक्षा पाई है तो जैनधर्म से हो पाई है। वर्तमान समय ऐतिहासिक युग कहलाता है अाधुनिक धुरंधर विद्वानों में इतिहास का आसन सर्वोपरि माना गया है इतिहाप्त ही अधिक विश्वास का पात्र एवं उच्च आदर्श है जिसमें भी जैनधर्म के विषय तो इतिहास ने और भी विशेष प्रकाश डाला है कारण गत एक शताब्दी पूर्व जैनधर्म के विषय में जनता में अनेक प्रकार भ्रान्तियें फैली हुई थीं जैसे कई कहते थे कि जैनधर्म वैदिकधर्म की एक शाखा है कई ने इसे बोद्धधर्म की शाखा मानली थी कई एकों ने जैनधर्म महावीर ने चलाया तो कई ने पार्श्वनाथ ने ही जैनधर्म प्रचलित किया तब पुराणों की बिना सिर पैर की गाथायें तो और भी अजब ढंग की ही थीं इतना ही क्यों पर कई एक ने तो यहाँ तक कल्पना करली थी कि गोरखनाथ के शिष्यों ने ही जैनधर्म चलाया था इत्यादि जिसके दिल में पाया जैनधर्म के विषय घसीट मारा । पर जब सहस्र किरण युक्त सूर्यरूपी इतिहास का सर्वत्र प्रकाश हुआ तब न भ्रमित मन वालों का अज्ञान अन्धकार दूर हुआ और वे लोग जैनधर्म को अति प्राचीन एवं स्वतन्त्र धर्म मानने लगे फिर भी भारतवर्ष में ऐसे मनुष्यों का सर्वत्र प्रभाव नही हुआ ही जो पुराणी लकोर के फकीर बने हुए आज बीसवीं शताब्दी में भी पन्द्रहवीं शताब्दी के स्वप्न देख रहे हैं। पाठकों को एक बात पर अवश्य लक्ष देना चाहिये और वह यह है कि किसी भी धर्म पर कुछ लिखना चाहे तो पहिले उस धर्म के साहित्य का अवश्य अध्ययन करना चाहिये । बिना साहित्य के देखे किसी धर्म के विषय कुछ लिख देना केवळ हांसी का ही पात्र बनना पड़ता है जैसे स्वामि शंकराचार्य एवं स्वामि दयानन्द सरस्वती ने जैनधर्म के विषय में लिखा है पर आज उन्हीं के अनुयायी कहते हैं कि स्वामीजी जैनधर्म के सिद्धान्तों को ठीक समझ ही नहीं पाये थे । जब उक्त विद्वानों का भी यह हाल है तब साधापण व्यक्तियों के लिये तो कहना ही क्या है वर्तमान में भी हम ऐसे लेखकों को देख रहे हैं कि दूसरे धर्म के साहित्य को स्पर्श करने मात्र से महापाप मानने वाले उन धर्मों के लिये लिखने के लिये उत्साही बन पाते हैं आखिरकार नतीजा वही होता है जो ऐसे कामों में होना चाहिये । अतः मेरी यही प्रार्थना है कि कोई भी व्यति किसी भी धर्म के लिये लेखनी हाथ में ले उसके पूर्व उस धर्म के मौलिक सिद्धान्तों का भक अध्ययन करले । जैनधर्म के शास्त्रों के आधार पर जैनधर्म अति प्राचीन है। इतना ही क्यों पर हिन्दू धर्म के माणों से भी जैनधर्म इतना ही प्राचीन प्रमाणित होता है कारण हिन्दू धर्म में सब से प्राचीन ग्रन्थ वेदों माना है यहां तक कि वेद ईश्वर कथित भी माने जाते हैं उन्हीं वेदों के अन्दर जैनधर्म का उल्लेख किया मिलता है इससे सिद्ध हो जाता है कि वेदों के पूर्व जैनधर्म विद्यमान था उन वेदों और पुराणों के ल माण मैंने इसी प्रन्थ के पृ पर उद्धत किया है अतः यह पीष्टपेषण करने की आवश्यकता ही समझी जाती है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] स्व-परमत के शास्त्रों से जैनधर्म की प्राचीनता प्रमाणित हो गई पर वर्तमान इतिहास जैनधर्म के लिये क्या कहता है ? पाठकों की जानकारी के लिये ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर जैनधर्म की प्राचीनता कहां तक सिद्ध होती है इस पर विचार किया जाता है । वर्तमान युग में इतिहास की शोध खोज से विद्वानों ने इ० सं० पूर्व नौसौ से एक हजार वर्ष से भारत का इतिहास प्रारम्भ होना सिद्ध किया है तब जैनधर्म के अन्तिम तीर्थङ्कर भ० महावीर और आपके पुरागामी भ० पार्श्वनाथ को इतिहास पुरुष होना स्वीकार किया है जिनका समय इ० सं० पू० नौसौ वर्ष के आस पास का है। इनके अलावा हाल में प्रभासपट्टन में भूमि खुदाई का काम करते एक ताम्रपत्र भूगर्भ से मिला है। जिसमें लिखा है कि " रेवा नगर के राज्य का स्वामि सु००० जाति के देव 'नेबुशदनेकर' हुए वे यदुराज (श्री कृष्ण ) के स्थान द्वारका आया उसने एक मन्दिर सर्व देव नेमि जो स्वर्ग सदृश रेवत ( गिरनार ) पर्वत के देव हैं उसने मन्दिर बनाकर सदैव के लिये अर्पण किया । " जैनपत्र वर्ष ३५ अं ६ ९ ताः ३-१-३७ से" यद्यपि इस ताम्रपत्र का 'नेबुशदनेकर' राजा का समय इ. सं. पू. छटी शताब्दी का बतलाया जाता है इस विषय का एक विस्तृत लेख महावीर विद्यालय का रूपमहोत्सव अंक में प्रकाशित हुआ है, जिससे पाया जाता है कि इ० सं० पू० छटी शताब्दी में गिरनार पर्वत पर भ० नेमिनाथ का मन्दिर विद्यमान था और वे नेमिनाथ जैनों के बावीसवें तीर्थङ्कर थे जो श्रीकृष्ण और अर्जुन के समकालीन हुए थे। हाँ किसी जमाना में भ० महावीर और पार्श्वनाथ को विद्वान लोगों ने कल्पनिक व्यक्ति कह कर इतिहास में स्थान नहीं दिया था पर जब शोध खोज ने उक्त दोनों महापुरुषों को ऐतिहासिक पुरुष होना प्रमाणित कर दिया इसी प्रकार आज भ० नेमिनाथ को ऐतिहासिक पुरुष नहीं भी माना जाय पर भविष्य में ठीक खोज होने पर वे ऐतिहासिक पुरुषों में आसन प्राप्त कर ही लेगा । और इसके कई कारण भी हैं जैसे पंजाब और सिन्ध की सरहद भूमि के अन्दर से 'हरप्पा तथा मोहनजाडरो' नामके दो विशाल नगर निकले हैं, उन प्राचीन नगरों से ऐसे २ पदार्थ उपलब्ध हुए हैं कि विद्वान उनको पांच से दश हजार वर्ष जितने प्राचीन बतलाते हैं । जब जैनप्रन्थों में सिन्ध प्रान्त की राजधानी वीतभय पट्टन का उल्लेख मिलता है वहाँ पर राजा उदाइ राज करता था राजा उदाइ दीक्षित होने के बाद देव का कोप होने से धूल की वृष्टि होकर पट्टन दट्टन होगई थी शायद वही नगर भूमि से निकला हो खैर ज्यों ज्यों पुरास्व की शोध खोज होती जायगी त्यों २ इतिहास पर अपूर्व प्रकाश पड़ता जायगा । जैनधर्म की प्राचीनता के विषय में जिन जिन पुरात्व विशारदों को अपनी शोध खोज में जैनधर्म की प्राचीनता के प्रमाण मिले हैं उन्होंने बिना किसी पक्षपात के जनता के सामने रख दिये हैं जिनके अन्दर से कतिपय प्रमाण यहाँ पर उद्धृत कर दिये जाते हैं । (१) “पार्श्व ए ऐतिहासिक पुरुष हता ते ज्ञात तो बधी रीते संभवित लागे छे. केशी के जे महावीरना समयमां पार्श्वना संप्रदायनो एक नेता होय तेम देखाय छे. ( हरमन जेकोबी ). (२) सबसे पहिले इस भारतवर्ष में ऋषभदेव नाम के महर्षि उत्पन्न हुए, वे दयावान् भद्रपरिणामी, पहिले तीर्थकर हुए, जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था को देखकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चारित्र रुपी मोक्षशास्त्र का उपदेश किया, बस यह ही जिनदर्शन इस कल्प में हुआ, इसके पश्चात् श्रजितनाथ से Jain E माहीत तेईस तीर्थकर अपने अपने समय में मानी जीवों का मोह अंधकार नाश करते रहे, 23 ibrary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २५ । (आयुत तुकाराम शमा लटु बी. ए. पी. एच. डी. एम. आर. ए. एस. एम. ए. एस. बी. एम. जी. श्री. एस. प्रोफेसर क्विन्स कॉलेज बनारस.) (३) जैसे उन्हें श्रादिकाल में खाने, पीने, न्याय, नीति और कानून का ज्ञान मिला, वैसे ही अध्यात्म शास्त्र का ज्ञान भी जीवों ने पाया । और वे अध्यात्म शाब में सब है, जैसे सांख्य योगादि दर्शन और जैनादि दर्शन । तब तो सजनो! आप अवश्य जान गये होंगे कि-जैनमत तब से प्रचलित हुआ है जब से संसार में सृष्टि का आरम्भ हुआ।" (सर्वतन्त्रस्वतन्त्र सत्संप्रदायाचार्य स्वामि राममिश्र शास्त्री ). (४) वेदों में संन्यास धर्म का नाम-निशान भी नहीं है, उस वक्त में संसार छोड़ कर वन जा कर तपस्या करने की रीति वैदिक ऋषि नहीं जानते थे, वैदिक धर्म में संन्यास आश्रम की प्रवृत्ति ब्राह्मण काल में हुई है कि जो समय करीब ३००० तीन हजार वर्ष जितना पुराणा है, यही राय श्रीयुत रमेशचन्द्रदत्त अपने 'भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता के इतिहास' में लिखते हैं जो नीचे मुजब है-"तब तक दूसरे प्रकार के प्रन्थों की रचना हुई जो 'ब्राह्मण' नाम से पुकारे जाते हैं। इन ग्रंथों में यज्ञों की विधि लिखी है। यह निस्सार और विस्तीर्ण रचना सर्व साधारण के क्षीण शक्ति होने और ब्राह्मणों के स्वमवाभिमान का परिचय देती है। संसार छोड कर बनों में जाने की प्रथा जो पहिले नाम को भी नहीं थी, चल पड़ी, और ब्राह्मणों के अंतिम भाग अर्थात् आरण्यक में बन की विधिक्रियाओं का ही वर्णन है ।" (भा० ५० प्रा० स. इ. भूमिका ) ( तात्पर्य यह कि यह शिक्षा जैनों से ही पाई थी) (५) "यज्ञ यागादिको में पशुत्रों का वध होकर 'यज्ञार्थ पशुहिंसा' पाजे कल नहीं होती है जैनधर्म ने यही एक बड़ी भारी छाप ब्राह्मण धर्म पर मारी है, पूर्व काल में यह के लिये असंख्य पशुओं की हिंसा होती थी इसके प्रमाण मेघदूत काव्य तथा और भी अनेक प्रन्यों से मिलते हैं, रतिदेव (रंतिदेव ) नामक राजाने यज्ञ किया था उसमें इतना प्रचुर पशुवध हुआ था कि नदी का जल खून से रक्तवर्ण हो गया था उसी समय से इस नदी का नाम रक्तावती 'चर्मवती' प्रसिद्ध हुश्रा, पशुवध से स्वर्ग मिलता है इस विषय में उक्त कथा सांक्षी है, परंतु इस घोर हिंसा का ब्राह्मण धर्म से विदाई ले जाने का श्रेयः जैन के हिस्से में है।" (ता. ३०-९-१९०४ के दिन जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स के तीसरे अधिवेशन में बडौदे में दिये हुए लोकमान्य पालगंगाधर तिलक के भाषण में से) (६) " बुद्धना धर्मे वेदमार्गनो न इन्कार कार्यों हतो, तेने अहिंसानो आग्रह न हतो, ए महादयारूप, एवं प्रेमरूप धर्म तो जैनोनो ज थयो, आखा हिन्दुस्थानमाथी पशुयज्ञ निकली गयो छ,x+x" (सिद्धान्त सार में प्रो० मणिलाल नेमुमाई ) (७) हिन्दु, ईसाई, मुसल्मान वगैरह ईश्वर, गौड, खुदा वगैरह नामों से एक असाधारण और सर्वविल. भण शक्तिशाली तत्व की कल्पना करते हैं और उसे सर्व सृष्टि का कर्ता हर्ता और नियन्ता मानते हैं । (८) हिन्दुस्थान में यह ईश्वरविषयक मान्यता वैदिक युग के अन्त में (वि० पू० १४५६ के लगभग) चलित हुई तब यूरोप में दार्शनिक तत्ववेत्ता विद्वान् एनेक्सागोरसने (वि० पू० ४४४-३५४ ) पहले पहिले ईश्वर को स्थापन किया । इससे यह बात तो निश्चित है कि भगवान महावीर और पार्श्वनाथ के समय भारतवर्ष में ईश्वरविषयक उपर्युक्त मान्यता चिर प्रचलित हो चुकी थी तब भी जैन दर्शन में इसका बल्कुल स्वीकार नहीं हुआ है, इससे यह बात पाई जाती है कि जैनदर्शन के तत्व ईश्वरीय मान्यता के Kina होने के पहिले ही निश्चित हो चुके थे। Jain Edu Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] ( ९ ) " महाराज ! श्रहिंयां एक निर्गठ चारे दिशाना नियमथी सुरक्षित छे. ( चातुयामसंवर संवुतो ) हे महाराज, केवी रीते निगंठ चारे दिशाना संवरथी रक्षित छे ? महाराज श्री निर्गठ सघलुं (थंडु ) पाणी थी. सर्व दुष्ट कर्म करता नथी. ने सबला दुष्कर्मोना विरमन बडे ते सर्व पापोथी मुक्त छे. अने सर्व प्रकारना दुष्कर्मोथी सघलां पापकर्मोथी निवृत्ति अनुभवे छे. आ प्रमाणे हे महाराज ! निगंठ चारे दिशान संवरथी संवृत छे, अने महाराज ! आ प्रमाणे संवृत होवाथी ते निगंठ नातपुत्तनो आत्मा मोटी योग्यतावालो छे. संयत अने सुस्थित छे.” ( दीर्घनिकाय - सामजफलसुत्तकी सुमंगलविलाखीनी टीकाका अनुवाद, हरमन जेकोबीकी जैनसूत्रों की प्रस्तावना ) । 66 (१०) “ पार्श्वनाथजी जैनधर्मके आदि प्रचारक नहीं थे. पंरतु इसका प्रथम प्रचार ऋषभदेवजीने किया था, इसकी पुष्टि के प्रमाणोंका प्रभाव नहीं है । बौद्धलोग महावीरजीको निमन्थोंका ( जैनियों का ) नायक मात्र कहते है स्थापक नहीं कहते हैं." । ( श्रीयुत वरदाकांत मुखोपाध्याय एम्. ए. के बंगला लेखका अनुवादित अंश. ) । (११) भारतेंदु बाबु हरिश्चंद्रने इतिहास समुच्चयांतर्गत काश्मीरकी राजवंशावली में लिखा है कि "काश्मीर के राजवंश में ४७वां अशोक राजा हुआ, इसने ६२ वर्ष तक राज्य किया, श्रीनगर इसीने बसाया और जैनमतका प्रचार किया, यह राजा शचीनरका भतीजा था मुसलमानोंने इसको शुकराज वा शकुनिका बेटा लिखा है, इसके वक्त में श्रीनगर में छ लाख मनुष्य थे इसका सत्तासमय १३९४ ईसवी सन् पूर्वका " ( देखो इतिहाससमुच्चय पू. १८ ) । ऊपरकी हकीकत से यह बात सिद्ध होती है कि आज से ३३१९ वर्ष पहले काश्मीर तक जैनधर्म प्रचार पा चुका था और बड़े बड़े राजालोग इस धर्म के माननेवाले थे, इसी इतिहास समुच्चय में रामायण का समय वर्णन करते (पृष्ठ ६) बाबू हरिश्चंद्र लिखते हैं "अयोधया के वर्णन में उसकी गलियों में जैन फकीरों का फिरना लिखा है, इससे प्रगट है कि रामायण के बननेके पहले जैनियों का मत था ।" (१२) डक्टर फुहररने एपीप्राफिका इंडिका वॉल्युम २ पृष्ठ २०६ २०७ में लिखते हैं कि- “जैनियों के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ऐतिहासिक पुरुष माने गये हैं, भगवद्गीता के परिशिष्ट में श्रीयुत बरवे स्वीकार करते हैं कि नेमिनाथ श्रीकृष्ण के भाई (Cousin ) थे, जब कि जैनियोंके बाईसवें तीर्थंकर कृष्ण के समकालीन थे तो शेष इक्कीस तीर्थंकर श्रीकृष्ण से कितने वर्ष पहिले होने चाहिये, यह पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं।" (१३) "जैनधर्म एक ऐसा प्राचीन धर्म है कि जिसकी उत्पत्ति तथा इतिहास का पता लगाना एक बहुत ही दुर्लभ बात है ।" (मि० कन्नुलालजी ) (१४) " निस्संदेह जैनधर्म हो पृथ्वी पर एक सच्चा धर्म है, और यही मनुष्यमात्र का आदि धर्म है । और श्रदेश्वर को जैनियोंमें बहुत प्राचीन और प्रसिद्ध पुरुष जैनियों के २४ तीर्थकरों में सबसे पहिले हुए हैं ऐसा कहा है ।" (मि० आवे जे० ए० डवाई मिशनरी ) (१५) " जिनकी सभ्यता श्राधुनिक है वे जो चाहे सो कहे परंतु मुझे तो इसमें किसी प्रकार का उपा नहीं है कि जैनदर्शन वेदान्तादि दर्शनों से भी पूर्वका है। तब ही तो भगवान् वेदव्यास महर्षि ब्रह्मसूत्रोंमें कहते हैं नैकस्मिन्संभवात् । सज्जनो ! जब वेदव्यास के ब्रह्मसूत्र - प्रणयन के समय पर जैन मत था तब तो उसके खण्डनार्थ उद्योग किया गया । यदि वह पूर्व में नहीं होता तो वह खंडन सज्जनो ! अनेकान्त कैसा और किसका १, बात यह है कि वेदो में समय श्रल्प है और कहना बहुत है इससे थोड़ा कहा जाता है नहीं तो For & Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] बाद का मूल मिलता है। + + + सृष्टिकी आदिसे जैनमत प्रचलित है।" (सर्वतन्त्रस्वतंत्र सत्संप्रदायाचार्य स्वाभिराममिश्र शास्त्री.) (१६) वर्तमान मुस्लीम धर्मकी उत्पत्ति हजरत मुहम्मद साहब पैगंबरसे हुई मानी जाती है. मुसलमानों का अरबी, फारसी, उर्दू वगैरह भाषा का साहित्य मुहम्मद साहेब के वक्तका अथवा इनके पिछले वक्त का है, मुहम्मद साहबको हुए पूरे १४०० वर्ष अभी तक नही हुए हैं, इससे यह बात साफ तौरसे सिद्ध है कि मुसल्मानी किताबों में सृष्टि के आदि पुरुष की (आदमबाबाकी ) जो कथा लिखी गई है वह जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवके चरित्र के साथ संबंध रखती है, क्योंकि जैनशास्त्रों में उनको प्रथमतीर्थकर, आदिनाथ आदिप्रभु, श्रादिमपुरुष. युगादिम वगैरह अनेक नामों से उल्लिखित किग है, 'श्रादम' शब्द 'आदिम' शब्दका हूबहू रूपान्तर है, जैनों में 'आदिम' शब्द आदि तीर्थकरके अर्थ में दो हजार वर्ष पहिले से प्रयुक्त हुआ दृष्टिमें आता है तब मुसलमानों की धार्मिक किताबों में उसका प्रयोग बहुत पीछे हुआ है. (जैनधर्म की महत्ता) (१७) रायबहादुर पूर्णेन्दु नारायणसिंह एम० ए० बांकीपुर लिखते हैं-जैनधर्म पढ़ने की मेरी हार्दिक इच्छा है क्योंकि मैं ख्याल करता हूँ कि व्यवहारिक योग्याभ्यास के लिये यह साहित्य सबसे प्राचीन ( Oldest ) है यह वेद की रीति रिवाजों से पृथक् है इसमें हिन्दू धर्म से पूर्व की आत्मिक स्वतन्त्रता विद्यमान है, जिसको परम पुरुषों ने अनुभव व प्रकाश किया है यह समय है कि हम इसके विषय में अधिक जानें। (१८) महामहोपाध्याय पं० गंगानाथमा एम० ए० डी० एल. एल. इलाहाबाद-'जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त पर खंडन को पढ़ा है, तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है जिसको वेदान्त के प्राचार्य ने नहीं समझा, और जो कुछ अब तक मैं जैन धर्म को जान सका हूँ उससे मेरा यह विश्वास दृढ़ हुआ है कि यदि वह जैन धर्म को उसके असली प्रन्थों से देखने का कष्ट उठाता तो उनको जैन धर्म से विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती। (१९) श्रीयुत् नैपालचन्द राय अधिष्ठाता ब्रह्मचर्याश्रम शांतिनिकेतन बोलपुर-मुझको जैन तीर्थंकरों को शिक्षा पर अतिशय भक्ति है। (२०) श्रीयुत् एम० डी० पाण्डे थियोसोफिकल सोसाइटी बनारस मुझे जैन सिद्धान्त का बहुत शौक है, क्योंकि कर्म सिद्धान्त का इसमें सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है। ___(२१) इन्डियन रिव्यू के अक्टोबर सन् १९२० ई० के अंक में मद्रास प्रेसीडेन्सी कालेज के फिलोसोफिना प्रोफेसर मि० ए० चक्रवर्ती एम. ए. एल. टी ए. लिखित “जैन फिलोसिफी" नामके आर्टि कल का गुजराती अनुवाद महावीर पत्र के पौष शुक्ला १ संवत २४४८ वीर संवत्के अंकमें छपा है उसमें से कुछ वाक्य उद्धृत । (२२) रिषभंदेवजी 'आदिजिन' 'आदीश्वर' भगवानना नामे पण श्रोलखाय छे ऋग्वेदना सूकतीमां तेमनो बहत तरीके उल्लेख थएलो. छे जैनों तेमने प्रथम तीर्थकर माने छे. बीजा तीर्थंकरो बधा क्षत्रियोज हता. (२३) भारत मत दर्पण नाम की पुस्तक गजेन्द्रनाथ पंडित उर्फ रायप्रपन्नाचार्यने सामाजी प्रेस बड़ोदा में छपा कर प्रकाशित की है। उसके पृष्ट १० की पंक्ति ९ से १४ में लिखा है कि पूज्यपाद बाबू कुष्णनाथ बेनरजी अपने 'जिन जम्म' ( जेनिजम) में लिखा है कि भारत में पहिले १०००००००० जैन थे सी मत से निकल कर बहुत लोग दूसरे धर्ममें जानेसे इनकी संख्या घट गई, यह धर्म वहुत प्राचीन है इस मत के नियम बहुत उत्तम है इस मत से देशको भारी लाभ पहुँचा है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] (२४) श्रीयुत् सी. बी. राजवाडे एम. ए. बी. एस. सी. प्रोफेसर ऑफ पाली बरोडा कालेजका एक लेख "जैन धर्मनुं अध्ययन" जैन साहित्य संशोधक पुना भाग १ अंक १में छपा है उसमें से कुछ वाक्य उद्धृत । प्रोफेसर बेबर बुल्हर जेकोबी हॉरनळ भांडारकर ल्युयन राइस गॅरीनोट वगैरा विद्वानोए जैन धर्मना संबंधमां अंतःकरण पूर्वक अथाग परिश्रम लेई अनेक महत्त्वनी शोधो प्रगट करेली छे। जैन धर्म पूर्वना धर्मोमा पोतानो स्वतंत्र स्थान प्राप्त करतो जाय छे. जैन धर्म ते मात्र जैनोनेज नहीं परंतु तेमना सिवाय पाश्चात्य संशोधनना प्रत्येक विद्यार्थी अने खास करीने जो पौर्वात्य देशोना तुलनात्मक अभ्यासमा रस लेता होय तेमने तल्लीन करी नाखे एवो रसिक विषय छे. (२५) डाक्टर F. OTTO SCHRADER, P. H. D. का एक लेख बुद्धिष्ट रिव्युना पुस्तक अंक १ मा प्रकट थयेला अहिंसा अने वनस्पति आहार शीर्षक लेख का गुजराती अनुवाद जैन साहित्य संशोधक अंक ४ में छपा है उसमें से कुछ वाक्य उद्धृत । अत्यारे अस्तीत्व धरावता धर्नामा जैन धर्म एक एवो धर्म के के जेमा अहिंसानो क्रम संपूर्ण छे ब्राह्मण धर्ममां पण घणां लांबा समय पच्छी सन्यासीनो माटे आ सुक्ष्मतर अहिंसा विदित थई अने श्राखरे वनस्पति अाहारना रुपमा ब्राह्मण जातिमा पण ते दाखील थई हती. कारण प छ के जैनोना धर्म तत्वोए जे लोक मत जीत्यो हतो तेनी असर सब्जड रीते वधवी जवी हती. (२६) राजा शिवप्रसाद सतारेहिन्द ने अपने निर्माण किये हुये "भूगोल स्तामलक" में लिखा है कि दो-ढाई हजार वर्ष पहिले दुनियाका अधिक भाग जैन धर्मका उपासक था । (२७) पाश्चात्य विद्वान् रेवरेण्ड जे स्टीवेन्स साहेब लिखते हैं कि: साफ प्रगट है कि भारतवर्षका अधःपतन जैनधर्म के अहिंसा सिद्धान्त के कारण नहीं हुआ था, बल्कि जब तक भारतवर्ष में जैनधर्म की प्रधानता रही थी, तब तक उसका इतिहास सुवर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है । और भारतवर्ष के हास का मुख्य कारमा आपसी प्रतिस्पर्धामयी अनैक्यताहै । जिसकी नींव शङ्कराचार्य के जमाने से जमा दी गई थी। जैनमित्र वर्ण २४ अङ्क ४० से (२८) पाश्चात्य विद्वान् मि० 'सर विलियम और हैमिल्टन ने मध्यस्थ विचारों के मंदिर का प्राधार जैनों के इस अपेक्षावाद को ही माना है। जैनमत में अपेक्षावाद का ही दूसरा नाम नयवाद है । (२९) डाक्टर टामसने जे. एच. नेलसन्स "साइन्टिफिक स्टडी ऑफ हिन्दु लो." नामक ग्रन्थ में लिखा है कि यह कहना काफी होगा कि जब कभी जैन धर्मका इतिहास बनकर तय्यार होगा तो हिन्दू कानूनके विद्यार्थी के लिये उसकी रचना बढ़ी महत्त्व की होगी, क्योंकि वह निःसंशय यह सिद्ध कर देगा कि जैनी हिन्दु नहीं हैं। ___ (३०) इम्पीरियल प्रेजीटियर ऑफ इंडिया व्हाल्यूम दो पृष्ट ५४ पर लिखा है कि कोई २ इतिहास. कार तो यह भी मानते हैं कि गोतम बुद्ध को महावीर स्वामी से ही ज्ञान प्राप्त हुआ था जो कुछ भी हो यह तो निर्विवाद स्वीकार ही है कि गोतम बुद्धने महावीर स्वामी के बाद शरीर त्याग किया, यह भी निर्विवाद सिद्ध ही है कि बौद्ध धर्म के संस्थापक गोतम बुद्ध के पहिले जैनियों के तेवीस तीर्थकर और होचुके थे । ___ (३१) मिस्टर टी डब्लू गईस डेविड साहिब इनसाइक्लोपीडिया रिटेनिका व्हा. २९ नाम की पुस्तक में लिखा है, यह बात अब निश्चित है कि जैनमत बौद्धमत से निःसंदेह बहुत पुराना है और बुद्ध के समकालीन महावीर द्वारा पुनः संजीवित हुआ है.और यह बात भी भले प्रकार निश्चय है कि जैनमत के Jain Education Internationa rivate & Personal use on Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] मान्य बहुत ही जरूरी और बौद्धमत के मंतव्यों से बिलकुल विरुद्ध है, यह दोनों मत न केवल थम ही से स्वाधीन हैं बल्कि एक दूसरे से बिलकुल निराले हैं। (३२ श्रीयुत महामहोपाध्याय, सत्यसम्प्रदायाचार्या सर्वातंत्र स्वतंत्र पं० स्वामी राममिश्रजी शास्त्री भूतप्रोफेसर संस्कृत कालेज बनारस यह शास्त्रीजी महोदय अपने मि० पौष शु० १ सं० १९६२ को काशी नगर में दिये हुये व्याख्यान (१) वैदिकमत और जैनमत सृष्टि की आदि से बरावर अविछिन्न चले आये हैं और इन दोनों मतों के सिद्धान्त विशेष घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं जैसा कि मैं पूर्व में कह चुका हूँ अर्थात सत्कार्यवाद, सत्कारणवाद, परलोकास्तित्व आत्मा का निर्विकारत्व, मोक्ष का होना और उसका नित्यत्व, जन्मान्तर के पुण्य पाप से जन्मान्तर में फलभोग, व्रतोपवासादि व्यवस्था, प्रायश्चित व्यवस्था, महाजनपूजन, शब्दप्रामाण्य इत्यादि समान हैं। (२) जिन जैनों ने सब कुछ माना उनसे नफरत करने वाले कुछ जानते ही नहीं और मिथ्या द्वेषमात्र करते हैं। (३) सज्जनो! जैनमत में और बौद्धमत में जमीन आसमान का अन्तर है उसे एक जान कर द्वेष करना अज्ञ जनों का कार्य है। (४) सब से अधिक वह अज्ञ है जो जैन सम्प्रदाय सिद्ध मेलों में विघ्न डालकर पाप के भागी होते हैं। (.) सज्ज नो ! ज्ञान, वैराग्य, शान्ति, क्षाति, अदम्भ, अनीळ, अक्रोध, अमात्सर्य, अलोलुपता, शाम, दम, अहिंसा, समदृष्टिता इत्याद गुणों में एक एक गुण ऐसा है कि जहां वह पाया जाय वहां पर बुद्धिमान् पूजा करने लगते हैं। तब तो जहां ये (अर्थात जैनों में ) पूर्वोक्त सब गुण निरतिशय सीम होकर विराजमान हैं उनकी पूजा न करना अथवा ऐसे गुणपूजकों की पूजा में बाधा डालना क्या इन्सानियत का कार्य है ? (६) पूरा विश्वास है कि अब आप जान गए होंगे कि वैदिक सिद्धान्तियों के साथ जैनों के विरोध का मूल केवल अज्ञों की अज्ञता है.................. (७) मैं आपको कहां तक कहूँ, बड़े बड़े नामी श्राचार्यों ने अपने प्रन्थों में जो जैनमतखंडन किया है वह ऐसा किया है जिसे सुन कर हंसी आती है। (८) मैं आपके सन्मुख आगे चलकर स्याद्वाद का रहस्य कहूँगा तब आप अवश्य जान जायंगे कि वह अभेद्य किला है उसके अन्दर वादी प्रतिवादियों के मायामय गोले नहीं प्रवेश कर सकते परन्तु साथ ही खेद के साथ कहा जाता है कि अब जैनमत का बुढ़ापा आगया है। अब इसमें इने गिने साधु गृहस्थ विद्वान् रह गए हैं..... (९) सज्जनो ! एक दिन वह था कि जैनसम्प्रदाय के प्राचार्यों की कार से दशों दिशायें गूंज विठती थीं। (१०) सज्जनो ! जैसे कालचक्र ने जैनमत के महत्व को ढॉक दिया है वैसे ही उसके महत्व को ब्राननेवाले लोग भी अब नहीं रहे । (११) "रज्जव सांचे सूर को वैरी करे बखान" यह किसी भाषाकवि ने बहुत ही ठीक कहा है। PMC&Personariseom Gibrary.org Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] सजनो ! आप जानते हैं मैं उस वैष्णव सम्प्रदाय का आचार्य हूँ यही नहीं मैं उस सन्प्रदाय का सर्वतोभाव से रक्षक हूँ और साथ ही उसको तरफ कड़ी नजर से देखने वाले का दीक्षक भी हूँ तो भी भरी मजलिस में मुझे तह कहना सत्य के कारण आवश्यक हुआ है कि जैनों का प्रन्थसमुदाय सारस्वत महासागर है उसकी ग्रंथसंख्या इतनी अधिक है कि उन प्रन्थों का सूचीपत्र भी एक निबन्ध हो जायगा......"उस पुस्तक समुदाय का लेख और लेख्य कैसा गंभीर, युक्तिपूर्ण, भावपूरित, विशद और अगाध है। इसके विषय में इतना ही कह देना उचित है कि जिन्होंने इस सारस्वत समुद्र में अपने मतिमन्थान को डालकर चिर आन्दोलन किया है वे ही जानते हैं............ (१२) तब तो सज्जनो! आप अवश्य जान गए होंगे कि जैनमत तब से चलित हुआ है जब से संसार सृष्टि का प्रारम्भ हुआ। (१३) मुझे तो इसमें किसी प्रकार का उन नहीं है कि जैन दर्शन वेदान्तादिदर्शनों से भी पूर्व का है इत्यादि.........। ३३ भारतगौरव के तिलक, पुरुषशिरोमणि, इतिहासज्ञ, माननीय पं० बालगंगाधर तिलक, भूतसम्पादक, "केसरी" इनके ३० नवम्बर सन् १९०४ को बड़ौदानगर में दिये हुए व्याख्यान से(१) जैनधर्म विशेषकर ब्राह्मणधर्म के साथ अत्यन्त निकट सम्बन्ध रखता है। दोनों धर्म प्राचीन हैं। (२) प्रन्थों तथा सामाजिक व्याख्यानों से जाना जावा है कि जैनधर्म अनादि है। यह विषय अब निर्विवाद तथा मतभेदरहित है और इस विषय में इतिहास के दृढ़ प्रमाण हैं। (३) इसी प्रकार जैनधर्म में "महावीर स्वामी" का शक ( सम्वत् ) चला है जिसे चलते हुए २४०० वर्ष हो चुके हैं । शक चलाने की कल्पना जैनी भाइयोंने ही उठाई थी। (४) गौतमबुद्ध महावीर स्वामी ( जैन तीर्थकर ) का शिष्य था जिससे स्पष्ट जाना जाता है कि बौद्ध धर्मकी स्थापना के प्रथम जैनधर्म का प्रकाश फैल रहा था। चौबीस तीर्थंकरों में महावीर स्वामी अन्तिम तीर्थकर थे । इससे भी जैनधर्मकी प्राचीनता जानी जाती है । बौद्धधर्म पीछे से हुआ यह बात निश्चित है। बौद्धधर्मके तत्त्व जैनधर्मके तत्वों के अनुकरण हैं। (५) श्रीमान महाराज गायकवाड ( बड़ोदा नरेश ) ने पहिले दिन कान्फ्रेंस में जिस प्रकार कहा था उसी प्रकार 'अहिंसा परमोधर्मः' इस उदार सिद्धान्तने ब्राह्मण धर्म पर चिरस्मरणीय छापमारी है। पूर्वकाल में यज्ञ के लिये असंख्य पशुहिंसा होती थी इसके प्रमाणमेघदूतकाव्य आदि अनेक प्रन्थों से मिलते हैं...... परन्तु इस घोर हिंसा का ब्राह्मणधर्मसे विदाई ले जानेका श्रेय (पुण्य ) जैनधर्म ही के हिस्से में हैं। (६) ब्राह्मणधर्म और जैनधर्म दोनोंमें झगड़े की जड हिंसा थी जो अब नष्ट होगई है । और इस रीवि से ब्राह्मण धर्म को जैनधर्म ही ने अहिंसाधर्म सिखाया । (७) ब्रह्मणधर्म पर जो जैनधर्मने अक्षुण्ण छाप मारी है उसका यश जैनधर्म के ही योग्य है। अहिंसा का सिद्धान्त जैनधर्म में प्रारम्भ से है और इस तत्व को समझने की त्रुटि के कारण बौद्धधर्म अपने अनुयायी चीनीयों के रूप में सर्वभक्षी होगया है। (८) ब्राह्मण और हिन्दुधर्म में मांस भक्षण और मदिरा पान बन्द होगया, यह भी जैनधर्म का ही Jain E प्रताप है। . . For Private &Personal use Only ____ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ । (९) महावीर धामी का उपदेश किया हुआ धर्मतत्व सर्वमान्य होगया। (१०) पूर्वकाल में अनेक ब्राह्मण जैनपण्डित जैनधर्म के धुरन्धर विद्वान् होगए है। (११) ब्राह्मण धर्म जैनधर्म से मिलता हुआ है इस कारण टीक रहा है। बौद्धधर्म का जैनधर्मसे विशेष अमिल होने के कारण हिन्दुस्थान से नाम शेष होगया है। (१२) जैनधर्म तथा ब्राह्मणधर्म का पीछेसे कितना निकट सम्बन्ध हुआ है सो ज्योतिषशास्त्री भास्कराचार्य के प्रन्थ से विशेष उपलब्ध होता है । उक्त आचार्य्यने ज्ञान दर्शन और चारित्र ( जैनशास्त्र विहित रत्नत्रय धर्म) को धर्म तत्त्व बतलाए हैं । ३४ श्रीयुत वरदाकान्त मुख्योपाध्याय एम० ए० के बंगला लेख के श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी द्वारा अनुवादित हिन्दी लेख से उद्धृत कुछ वाक्य (१) हमारे देश में जैनधर्म की आदि उत्पत्ति, शिक्षा नीति और उद्देश्य सम्बन्धी कितने ही भ्रान्तमत प्रचलित हैं इसलिये हम लोग जैनियों से घृणा करते रहते हैं............ । इसलिए मैं इस लेख में भ्रम समूह दूर करने की चेष्टा करूंगा। (२) जैन निगमिषमोजी ( मांसत्यागी ) क्षत्रियों का धर्म है। "अहिंसा परमोधर्मः" इसकी सार शिक्षा और जड़ है । इस मत में "जीव हिंसा नहीं करना, किसी जीव को कष्ट नहीं देना" यही श्रेष्ठ धर्म है। (३) शंकराचार्य महाराज स्वयं स्वीकार करते हैं कि जैनधर्म अति प्राचीनकाल से. है। वे वादगयण व्यास के वेदान्त सूत्र के भाष्य में कहते हैं कि दूसरे अध्याय के द्वितीय पाद के सूत्र ३३-३६ जैनधर्म ही के सम्बन्ध में हैं । शारीरिक मीमांसा के भाष्यकार रामानुजजी का भी यही मत है। (४) योगवासिष्ट रामायण वैराग्य प्रकरण, अध्याय १५ श्लोक ८ में श्री रामचन्द्रजी जिनेन्द्र के सहश शान्त प्रकृति होने की इच्छा प्रकाश करते हैं, यथाः नाहं रामो नमे वांछा भावेषु च न मे मनः । शान्तिमासितु मेच्छामि स्वात्मनीव जिनो यथा ॥ (५) रामायण, बालकांड, सर्ग १४, श्लोक २२ में राजा दशरथ ने श्रमणगणों (अर्थात् जैन मुनियों) का अतिथिसत्कार किया, ऐसा लिखा है: वापसामुजते चापि श्रमणा भुखते तया । भूषण टीका में श्रमण शब्द का अर्थ दिगम्बर (अर्थात् सर्व वखादि रहित जैनमुनि ) किया है। यथाः श्रमणा दिगम्बराः श्रमणा बातवसना इति निघण्टुः । (६) शाकटायन के उणादि सूत्र में 'जिन' शब्द व्यवहृत हुआ है: इणजस जिनीडुष्यविभ्योनक सूत्र २५९ पाद ३, सिद्धान्तकौमुदी के कर्ता ने इस सूत्र की व्याख्या निनोऽहन् ,' कहा है। भेदनीकोष में भी 'जिन' शब्द का अर्थ 'अहत्' 'जैनधर्म के आदि प्रचारक है। वृत्तिकारगण भी 'जिन' के अर्थ में 'अहत्' कहते हैं यथा उणादि सूत्र सिद्धान्तकौमुदी । शाकटायन ने किस समय उणादि सूत्र की रचना की थी १ वास्क की निरुक्त में शाकटायन के का उल्लेख है। और पाणिनि के बहुत समय पहिले निरुक्त बना है इसे सभी स्वीकार करते हैं। और Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ३२ ] महाभाष्य प्रणेता पतंजलि के कई सौ वर्ष पहिले पाणिनि ने जन्म ग्रहण किया था । अतएव श्रव निश्चय है कि शाकटायन का उणादि सूत्र अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है । (७) बौद्धशास्त्र में नैनधर्म निर्मयों का धर्म बतलाया है और यही निर्मन्थ धर्म बौद्धधर्म के बहुत पहिले प्रचलित था । (८) डा० राजेन्द्रलाल मित्र योगसूत्र की प्रस्तावना में कहते हैं कि सामवेद में एक बलिदान विरोधी यति (जैन मुनि) का उल्लेख है । उसका समस्त ऐश्वर्य भृगु को दान कर दिया गया था, क्योंकि ऐतरेय ब्राह्मण के मत में बलिदान विरोधी यति को शृगाल के सन्मुख प्रक्षिप्त करना चाहिये । मगध वा कीकट में यज्ञदानादि का विरोधी एक सम्प्रदाय था, (देखो ऋग्वेद अष्टक ३, श्रध्याय ३, वर्ग २१ ऋचा १४, तथा ऋग्वेद, मं० ८, श्र० १०, सूक्त ८९, ऋचा ३, ४ तथा ऋग्वेद मं० २, ०२, सू० १२, ऋचा ५; ऋग्वेद अष्टक ६ अध्याय ४, वर्ग ३२, ऋचा १०, इत्यादि ) | (९) सांख्य दर्शन सूत्र ६ - " श्रविशेषश्चोभयोः " अर्थात् दुःख और यंत्रणा दूर करने वाले दृश्यमान और वैदिक उपायों में कोई भेद नहीं है। क्योंकि वैदिक बलिदान एक निष्ठुर प्रथामात्र है। यज्ञ में पशु हनन करने से कर्मबन्ध होता है, पुरुष को तज्जन्य लाभ कुछ नहीं होता । "मा हिंस्यात्सर्वभूतानि ।" "अग्निषामीयं पशुमालभेत्” "दृष्टिवदानु श्रविका सह्यविशुद्धि क्षयातिशययुक्तः” सांख्यकारिका ॥ गौडपाद - सांख्यकारिका के भाष्य में निम्न लिखित श्लोक उद्धृत कर के कपिल ऋषि के मत का समर्थन करते हैं: ताते तद्बहुशोभ्यस्तं जन्मजन्मांतरेष्वपि । श्रयी धर्ममधर्माढ्य न सम्यक्प्रतिभाति मे ॥ अर्थात् - हे पिता ! वर्तमान और गव जन्म में मैंने वैदिकधर्म का अभ्यास किया है; परन्तु मैं इस धर्मका पक्षपाती नहीं हूँ क्योंकि यह अधर्मपूर्ण है । (१०) कपिलसूत्र का भाष्यकार विज्ञान भिक्षु "मार्कण्डेय पुराण से" निम्न लिखित श्लोक उद्धृत करके कपिलमत का समर्थन करता है: - तस्माद्यास्याम्यहं तात दृष्ट्वेमं दुःखसन्निधिम् | त्रयी धर्ममधर्माढ्यं किंपाकफलसन्निभम् || श्रर्थात् — हे तात ! वैदिकधर्म को सब प्रकार अधर्म और निष्ठुरतापूर्ण देख कर मैं किस प्रकार इसका अनुसरण करूँ ? वैदिकधर्म किंपाकफल के समान बाह्य में सौन्दर्य किन्तु भीतर हलाहल (विष) पूर्ण है । (११) "महाभारत" का मत इस विषय में जानने के लिये अश्वमेध पर्व, अनुगीत ४६, अध्याय २, श्लोक ११ की नीलकंठ कृत टीका पढ़िये । (१२) प्राचीनकाल में महात्मा ऋषभदेव "अहिंसा परमोधर्मः " यह शिक्षा देते थे । उनकी शिक्षा ने देव मनुष्य और इतर प्राणियों के अनेक उपकार साधन किये हैं। उस समय ३६३ पुरुष पाखंड धर्म प्रचारक भी थे । चार्वाक के नेता "बृहस्पति" उन्हीं में से एक थे। मेक्समूलर आदि यूरोपीय पण्डितों की भी यही धारणा है जो उनके सन् १८९९ के लेखसे प्रकट है जिसे ७६ वर्ष की उमर में उन्होंने लिखा है । (१३) अतएव प्राचीन भारत में नाना धर्म और नाना दर्शन प्रचलित थे इसमें कोई संदेह नहीं है । (१४) जैनधर्म हिन्दूधर्म से सर्वथा स्वतंत्र है। उसकी शाखा वा रूपान्तर नहीं है। विशेषतः प्राचीन भारत में किसी धर्मान्तर से कुछ ग्रहण करके एक नूतन धर्म प्रचार करनेकी प्रथा ही नहीं थी। मेक्समूलर Jain Edl का भी यही मत है । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] (१५) लोगों का यह भ्रमपूर्ण विश्वास है कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के स्थापक थे। किन्तु इसका प्रथम प्रचार ऋषभदेवने किया था, इसकी पुष्टिके प्रमाणों का अभाव नहीं है । यथाः (१) बौद्ध लोग महावीर को निर्मन्थ अर्थात् जैनियों का नायक मात्र कहते हैं स्थापक नहीं कहते । (२) जर्मन डाक्टर जैकोवी भी इसी मतके समर्थक हैं । (३) हिन्दूशास्त्रों और जैनशास्त्रों का भी इस विषय में एक मत है। भागवत के पांचवें स्कन्ध के अभ्याय २-६ में ऋषभदेव का कथन है जिसका भावार्थ यह है: - चौदह मनुष्यों में से पहले मनु स्वयंभू के प्रपोत्र नाभिका पुत्र ऋषभदेव हुआ जो इस काल की अपेक्षा जैन सम्प्रदाय का आदि प्रचारक था । इनके जन्मकाल में जगत की बाल्यावस्था थी, इत्यादि । भागवत के अध्याय ६ श्लोक ९-११ में लिखा है कि “कों कर्बेक और कुटक का राजा अत् ऋषभ के चरित्र श्रवण करके कलियुग में ब्राह्मण विरोधी एक नवीन धर्म के प्रचार का मानस करेगा किन्तु हमने अन्य किसी भी प्रन्थ में ऐसे किसी राजा का नाम नहीं पाया । अर्हत् को अन्य कोई भी प्रन्थकार कोंकबैंक और कुटक का राजा नहीं कहता । अर्हत् का अर्थ (अर्ह धातु से) प्रशंसाई तथा पूज्य है । शिव है किन्तु अर्हत नाम से कोई राजा का नाम नहीं है, ऋषभ ही को जैनधर्म का प्रचारक होता तो वाचस्पत्य ( कोषकार) ने ऋषभ को श्रादि जिनदेव कभी नहीं कहा होता। किसी किसी उपनिषद में भी ऋषभ को श्रत् कहा है । पुराण में अर्हत् शब्दका व्यवहार हुआ श्रत् कहते हैं । श्रर्हत राजा कलियुग में जिनदेव वा शब्दार्थ चिंतामणिने उन्हें भागवत् के रचयिताने क्यों यह बात कही सो कहा नहीं जा सकता । (४) महाभारत के सुविख्यात टीकाकार शांतिपर्व, मोक्षधर्म श्रध्याय २६३, श्लोक २० की टीका में कहते हैं: त् श्रर्थात् जैन ऋषभ के चरित्र में मुग्ध हो गये थे । यथा: " "ॠषभादीनां महायोगिनामाचारे दृष्टाव श्रतादयो मोहिताः " इस प्रकार जाना जाता है कि हिन्दू शास्त्रों के मत से भी भगवान् ऋषभ ही जैनधर्म के प्रथम प्रचारक थे। (५) डॉ० फुहरर ने जो मथुरा के शिलालेखों से समस्त इतिवृत्तिका खोज किया है उसके पढ़ने से जाना जाता है कि पूर्व काल में जैनी ऋषभदेव की मूर्तियां बनाते थे । इस विषय का एपिप्रेफिया इंडिका नामका प्रन्थ अनुवाद सहित मुद्रित हुआ है । यह शिलालेख दो हजार वर्ष पूर्व कनिष्क, हुवष्क बासुदेवादि राजाओं के राजत्व काल में खोदे गये हैं । (देखो उपरोक्त प्रन्थ का भाग १, पृष्ट ३८९, नं० ८ व १४ और भाग २, पृष्ठ २०६, २०७, नं० १८ इत्यादि) । अतएव देखा जाता है कि दो हजार वर्ष पूर्व ऋषभदेव प्रथम जैन तीर्थंकर कह कर स्वीकार किये गये । महावीर का मोक्षकाल ईसवी सन् से ५२६ वर्ष पहिले और पार्श्वनाथ का ७७६ वर्ष पहिले निश्चित है । यदि ये जैनधर्म के प्रथम प्रचारक होते तो दो हजार वर्ष पहिले के लोग ऋषभदेव की मूर्ति की पूजा नहीं । * इनके निर्माण को आजसे २७०५ वर्ष होचुके । यह जैनियों के तेईसवें तीर्थंकर थे जो चोवीसर्वे भन्तिम तीर्थङ्कर हावीर स्वामी से २५० वर्ष पूर्व हुए। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] (१६) जैन धर्म की सार शिक्षा यह है : १ - इस जगत का सुख, शान्ति और ऐश्वर्य मनुष्य के चरम उद्देश्य नहीं हैं। संसार से जितना बन सके निर्लिप्त रहना चाहिये । २ - आत्मा की मंगल कामना करो । ३ -- तुम जब कभी किसी सत्कार्य के करने में तत्पर हो तब तुम कौन हो और क्या हो यह बात स्मरण रक्खो । ४ - यह धर्म परलोक, (मोक्ष) विश्वासकारी योगियों का है । ५- सांसारिक भोग विलास की इच्छायें जैनधर्म की विरोधनी हैं । ६ - अभिमान त्याग, स्वार्थ त्याग और विषय सुख त्याग इस धर्म की भित्तियां हैं । (१७) जैनधर्म मलिन आचरण की समष्टी है, यह बात सत्य नहीं है दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों श्रेणियों के जैन शुद्धाचरणी हैं। (१८) जैनधर्म ज्ञान और भाव का लिए हुए है और मोक्ष भी इसी पर निर्भर है। (९९) जैन मुनियों की अवस्था और जिन मूर्तिपूजा उनका प्राचीनत्व सप्रमाण सिद्ध करता है । ३५ रा० रा० वासुदेव गोविन्द आपटे बी. ए., इन्दौर ने बम्बई हिन्दूयूनियन कलब में दिसम्बर १९०३ में दिये व्याख्यान के कुछ वाक्य (१) हिन्दुस्तान के सम्पूर्ण व्यापार का एक तिहाई भाग जैनियों के हाथ में है । (२) बड़े बड़े जैन कार्यालय, भव्य जैन मन्दिर अनेक लोकोपयोगी संस्थाएं हिन्दुस्तान के बहुत से बड़े २ नगरों में हैं। (३) प्राचीन काल से जैनियों का नाम इतिहास प्रसिद्ध है और जैनधर्म के अनेक राजा होगए हैं। (४) स्वत: अशोक ही बौद्धधर्म स्वीकार करने से पहले जैन धर्मानुयायी था । (५) कर्नल टॉड साहेब के राजस्थानीय इतिहास में उदयपुर के घराने के विषय में ऐसा लिखा है। कि कोई भी जैन यति उक्त स्थानमें जब शुभागमन करता है तो राणाजी साहिब उसे श्रादर पूर्वक लाकर योग्य सत्कार का प्रबन्ध करते हैं। इस विनय प्रबन्ध की प्रथा वहां अब तक जारी है (६) प्राचीन काल में जैनियों ने उत्कट पराक्रम वा राज्य कार्य भार का + परिचालन किया है। श्राज कल के समय में इनकी राजकीय अवनति मात्र दृष्टिगोचर होती है । (७) दक्षिण में तामिल व कनड़ी इन दोनों भाषाओं के जो व्याकरण प्रथम प्रस्तुत हुए हैं वे जैनियों ही ने किये थे । (८) प्राचीन काल के भारतवर्षीय इतिहास में जैनियों ने अपना नाम अजर अमर रखा है । (९) वर्तमान शान्ति के समय व्यापारवृद्धि के कार्यों में अप्रेसर होकर इन्होंने (जैनियों ने) अपना प्रताप पूर्ण रीति से स्थापित किया है । (१०) हमारे जैन बान्धवों के पूर्वज प्राचीन काल में ऐसे २ स्मरणीय कृत्य कर चुके हैं तो भी, जैनी कौन हैं, उनके धर्म के मुख्य तत्व कौन कोनसे हैं, इसका परिचय बहुत ही कम लोगों को होना बड़े श्राचर्य की बात है। (११) " न गच्छेजैन मंदिरम्” निषेध उस समय कठोरता के साथ पाले अर्थात् जैनमंदिर में प्रवेश करने मात्र में भी महा पाप है, ऐसा जाने से जैन मन्दिर की भीत की आड में क्या है, इसकी खोज + प्राचीन काल में चक्रवर्ती, अद्ध' चक्री, महा मंडलीक, मंडळीक आदि बढे २ पदाधिकारी जैनधर्मी हए । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३५ ] करे कौन ? ऐसी स्थिति होने से ही जैन धर्म के विषय में झूठे गपोड़े उड़ने लगे। कोई कहता है जैनधर्म नास्तिक है, कोई कहता है बौद्धधर्म का अनुकरण है, कोई कहता है जब शंकराचार्य ने बौद्धों का पराभव किया तब बहुत से बौद्ध पुनः ब्राह्मण धर्म में आगये । परन्तु उस समय जो थोड़े बहुत बौद्ध धर्म को ही पकड़े रहे उन्हीं के वंशज यह जैन हैं, कोई कहता है कि जैनधर्म बौद्धधर्म का शेष भाग तो नहीं किन्तु हिन्दू धर्म का ही एक पंथ है। और कोई कहते हैं कि नग्न देव को पूजने वाले जैनी लोग ये मूल में आर्य ही नहीं हैं किन्तु अनार्यों में से कोई हैं । अपने हिन्दुस्तान में ही श्राज चौबीस सौ वर्ष पूर्व से पडौस में रहने वाले धर्म के विषय में अब इतनी अज्ञानता है तब हजारों कोस से परिचय पानेवाले व उससे मनोऽनुकूल अनुमान गढ़नेवाले पाश्चिमात्यों की अज्ञानता पर तो हँसना ही क्या है ! (१२) ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे यह सिद्धान्त अपनो भागवत से भी सिद्ध होता है। पार्श्वनाथ जैनधर्म के संस्थापक थे ऐसी कथा जो प्रसिद्ध है वह सर्वथा भूल है। ऐसे ही वर्द्धमान अर्थात् महावीर भी जैनधर्म के संस्थापक नहीं हैं । वे २४ तीर्थंकरों में से एक प्रचारक थे। (१३) जैनधर्म में अहिंसा तत्व अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है। बौद्ध धर्म व अपने ब्राह्मण धर्म में भी यह तत्व है तथापि जैनियों ने इसे जिस सीमा तक पहुँचा दिया है वहां तक अद्यापि कोई नहीं गया है। (१४) जैन शास्त्रों में जो यति धर्म कहा गया है वह अत्यन्त उत्कृष्ट है इस में कुछ भी शंका नहीं। (१५) जैनियों में स्त्रियों को भी यति दीक्षा लेकर परोपकारी कृत्यों में जन्म व्यतीत करने की आज्ञा है । यह सर्वोत्कृष्ट है । हिन्दु समाज को इस विषय में जैनियों का अनुकरण अवश्य करना चाहिये ।। (१६) ईश्वर सर्वज्ञ, नित्य और मंगल स्वरूप है, यह जैनियों को मान्य है परन्तु वह हमारी पूजन व स्तुति से प्रसन्न होकर हम पर विशेष कृपा करेगा-इत्यादि, ऐसा नहीं है । ईश्वर सृष्टि का निर्माता, शास्ता या संहार का न होकर अत्यन्त पूर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ आत्मा ही है ऐसा जैनी मानते हैं। अतएव वह ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानते ऐसा नहीं है। किन्तु ईश्वर की कृति सम्बन्धि विषय में उनकी और हमारी समझ में कुछ भेद है। इस कारण जैनी नास्तिक हैं ऐसा निर्बल व्यर्थ अपवाद उन विचारों पर लगाया गया है। अतः यदि उन्हें नास्तिक कहोगे तो. न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्म फल संयोगं स्वाभावस्तु प्रवर्तते ॥ नादत्ते कस्य चित्पापनं कस्य सुकृत्यं विमुः। अज्ञानो नावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।। ऐसा कहनेवाले श्री कृष्णजी की भी नास्तिकों में गणना करनी पड़ेगी। आस्तिक व नास्तिक यह शब्द ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्ध में व कर्तृत्व सम्बन्ध में न जोड़ कर पाणीनीय ऋषि के सूत्रानुसारः परलोकोऽस्तीति मतिर्यस्यास्तीति आस्तिकः । परलोको नास्तीति मतिर्यस्यास्तीति नास्तिकः ।। श्रद्धा करें तो जैनियों पर नास्तिकत्व का आरोप नहीं आ सकता। कारण जैनी परलोक का अस्तित्त्व माननेवाले हैं। (१७) मूर्ति का पूजन श्रावक अर्थात् गृहस्थाश्रमी करते हैं, मुनि नहीं करते । श्रावकों की पूजन विधि प्रायः हम ही लोगों सरीखी है। (१८) हमारे हाथ से जीव हिंसा न होने पावे इसके लिये जैनी जितने डरते हैं उतने बौद्ध नहीं रहे। बौद्धधर्मी विदेशों में मांसाहार अधिकता के साथ जारी है । "आप स्वतः हिंसा न करके दूसरे के ..org Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] द्वारा मारे हुए बकरे आदि का मांस खाने में कुछ हर्ज नहीं" ऐसे सुभीते का श्रहिंसा तत्व जो बोद्धोंने निकाला था वह जैनियों को सर्वथा स्वीकार नहीं । ( १९, बौद्धधर्म के सम्बन्ध में अनेक प्रन्थ उपलब्ध हुए हैं। इस धर्म का परिचय सब को हो गया है । परन्तु जैनधर्म के विषय में वैसा अभी तक कुछ भी नहीं हुआ है । बौद्धधर्म चीन, टि, जापानादि देशों में प्रचलित होने और विशेष कर उन देशों में उसे राज्याश्रय मिलने से उस धर्म के शास्त्रों का प्रचार अति शीघ्र हुआ, परन्तु जैनधर्म जिन लोगों में है ये प्रायः व्यापार व्यवहार में लगे रहने से धर्म ग्रन्थ प्रकाशन सरीखे कृत्य की तरफ लक्ष देने के लिए श्रवकाश नहीं पाते इस कारण अगणित जैन प्रन्थ अप्रकाशित पड़े हुए हैं । (२०) यूरोपियन ग्रन्थकारों का लक्ष भी देता । यह भी इस धर्म के विषय में उन लोगों के (२१) जैनधर्म के काल निर्णय सम्बन्ध में दूसरी ओर के प्रमाण भी आने लगें हैं कोलब्रुक साहिब सरीखे पण्डितों ने भी जैनधर्म का प्राचीनत्व स्वीकार किया है। इतना ही नहीं किन्तु 'बौद्धधर्म जैनधर्म से निकला हुआ होना चाहिए' ऐसा विधान किया है । मिस्टर एडवर्ड थाम्स का भी ऐसा ही मत है । उपरोक्त पंडित ने 'जैनधर्म' या "अशोक की पूर्व श्रद्धा" नामक प्रन्थ में इस विषय के जितने प्रमाण दिए हैं वे सब यदि यहाँ पर दिए जाय तो बहुत विस्तार हो जायगा । (२२) चन्द्रगुप्त ( अशोक जिस का पोता था ) स्वतः जैन था इस बात को वंशावली का दृढ़ धार है । राजा चन्द्रगुप्त श्रमण श्रर्थात् जैनगुरु से उपदेश लेता था ऐसी मेगस्थिीनीज प्रीक इतिहासकार की भी साक्षी है। श्रद्यापि इस धर्म की ओर इतना खिंचा हुबा नहीं दिखाई ज्ञान का एक कारण है । अबुल फजल नामक फारसी प्रन्थकार ने " अशोक ने काश्मीर में जैनधर्म का प्रचार किया " ऐसा है। राजतरंगिणी नामक काश्मीर के संस्कृत इतिहास का भी इस विज्ञान का आधार है । कहा (२३) उपरोक्त विवेचन से ऐसा मालुम पड़ता है कि इस धर्म में सुझों को आदरणीय जचने योग्य अनेक बातें हैं । सामान्य लोगों को भी जैनियों से अधिक शिक्षा लेने योग्य है । जैन लोगों का भाविकपन, श्रद्धा व औदार्य प्रशंसनीय है । 1 (२४) जैनियों की एक समय हिन्दुस्तान में बहुत उन्नातावस्था थी। धर्म, नीति, राजकार्य घुरन्धरता, वाङ्मय ( शास्त्र ज्ञान व शास्त्र भंडार ) समाजोन्नति आदि बातों में उनका समाज इतर जनों से बहुत आगे था । संसार में अब क्या हो रहा है इस और हमारे जैन बन्धु लक्ष दे कर चलेंगे तो वह महत्वद पुनः प्राम्र कर लेने में उन्हें अधिक श्रम नहीं पड़ेगा । (२५) जैन व श्रमेरीकन लोगों से संगठन कर श्राने के लिए बम्बई के प्रसिद्ध जैन गृहस्थ परलोक वासी मि० वीरचन्द गांधी अमेरीका को गये थे। वहां उन्होंने जैनधर्म विषयक परिचय कराने का क्रम भी स्थित किया था । अमेरीका में गांधी फिलॉसोफिकल सोसायटी, अर्थात् जैन तत्वज्ञान का अध्ययन व प्रचार करने के लिए जो समाज स्थापित हुई वह उन्हीं के परिश्रम का फल है। दुदैव से मि० वीरचन्द गांधी का अकाल मृत्यु होने से उक्त आरंभ किया हुआ कार्य पूर्ण रह गया है, इत्यादि । (२६) पेरीस ( फ्रान्स की राजधानी ) के डॉक्टर ए. गिरनारने अपने पत्र ता. ३-१३-११ में Jain Educ] लिखा है कि मनुष्यों की तरक्षी के लिए जैनधर्म का चरित्र बहुत लाभकारी है यह धर्म बहुत ही असलो, • Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७] सादा, बहुत मूल्यवान तथा ब्राह्मणों के मतों से भिन्न है तथा यह बौद्ध के समान नास्तिक नहीं है । (३७) जर्मनी के डाक्टर जोन्सहर्टल ता. १७-६-१९०८ के पत्र में कहते हैं कि मैं अपने देश सियों को दिखाउंगा कि कैसे उत्तम नियम और उंचे विचार जैनधर्म और जैन श्राचार्यो में हैं। जैनों का साहित्य बौद्धों से बहुत बढ़कर है और व्यों २ मैं जैनधर्म और उसके साहित्य को समझता हूँ त्यों २ मैं को अधिक पसंद करता हूँ । (३८) मुहम्मद हाफिज सैयद बी. ए. एल. टी. थियॉसॉफिकल हाई स्कूल कानपूर लिखते हैं: "मैं न सिद्धांत के सूक्ष्मतत्वों से गहरा प्रेम करता हूँ ।" I (३९) श्रीयुत् तुकाराम कृष्ण शर्मा लट्टु बी. ए. पी. एच. डी. एम. आर. ए. एस. एम. ए. एस. बी. एम. जी. ओ. एस. प्रोफेसर संस्कृत शिलालेखादि के विषयकें अध्यापक क्रीन्स कॉलेज बनारस । स्याद्वाद् महाविद्यालय काशी के दशम वार्षिकोत्सव पर दिये हुए व्याख्यान में से कुछ वाक्य उधृत " सबसे पहले इस भारतवर्ण में "रिषभदेवजी" नाम के महर्षि उत्पन्न हुए। वे दयावान् भद्र परिणामी, सबसे पहिले तीर्थंकर, हुए जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था को देखकर " सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप मोक्षशास्त्र का उपदेश दिया। बस यह ही जिनदर्शन इस करूपमें हुआ । इसके पश्चात् श्रजित नाथसे लेकर महावीर तक तेइस तीर्थकर अपने अपने समयमें अज्ञानी जीवों का मोह अंधकार नाश करते थे । (४०) साहित्यरत्न डाक्टर रवीन्द्रनाथ टागोर कहते हैं कि महावीरने डीडींग नादसे हिन्दमें ऐसा संदेश फैलाया कि: - धर्म यह मात्र सामाजिक रूढि नहि हैं परन्तु वास्तविक सत्य हैं, मोक्ष यह बाहरी क्रियाकांड से नहिं मिलता, परन्तु सत्य-धर्म स्वरूपमें आश्रय लेने से ही मिलता है । और धर्म और मनुष्यों में कोई स्थायी भेद नहीं रह सकता । कहते आश्चर्य पैदा होता है कि इस शिक्षाने समाज के हृदयमें जड़ करके बैठी हुई भावनारूपी विघ्नोंको त्वरासे भेद दिये और देशको वशीभूत कर लिया, इसके पश्चात् बहुत समय तक इन क्षत्रिय उपदेशकोंके प्रभाव बलसे ब्राह्मणों की सत्ता अभिभूत हो गई थी । (४१) हिन्दी भाषा सर्वश्रेष्ठ लेखक धुरंधर बिद्धान् पंडीत् श्रीमहावीरप्रसादजी द्विवेदीने प्राचीन जैन लेख - संग्रहकी समालोचना "सरस्वती" में की है । उसमें से कुछ वाक्य ये हैं: ( १ ) प्राचीन ढके हिन्दू धर्मावलम्बी बड़े बड़े शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि जैनियों का स्वाद्वाद किस चिडियाका नाम है । धन्यवाद है जर्मनी, फ्रान्स और इंग्लेंड के कुछ विद्यानुरागी विशषज्ञोकों जिनकी कृपा से इस धर्म के अनुयायिओंको कीर्तिकलापकी खोज और भारत वर्ष के साक्षर जैनों का ध्यान कष्ट हुआ यदि ये विदेशी विद्वान् जैनों के धर्म प्रन्थों आदि की आलोचना न करते । यदि ये उनके कुछ प्रन्थों का प्रकाश न करते और यदि ये जैनों के प्राचीन लेखों की महता प्रकट न करते तो हम लोंग शायद वही ज्ञान के अंधकार में ही डूबे रहते । ( २ ) भारतवर्ष में जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसके अनुयायी साधुओं ( मुनियों) और आचायों में से अनेक जनोंने धर्मोपदेशके साथ ही साथ अपना समस्त जीवन प्रन्थरचना और प्रन्थ संग्रह में कर दिया है. ( ३ ) बीकानेर, जैसलमेर और पाटण आदि स्थानों में हस्तलिखित पुस्तकों के गाडीयों बस्ते अब भी रक्षीत पाये जाते है । ( ४ ) अकबर इत्यादि मुगल बादशाहों से जैन धर्मकी कितनी सहायता पहुँची, इसका भी उल्लेख अन्यों में हैं। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३८] जैन शास्त्रों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव का संक्षिप्त इतिहास लिख देता हूँ जिससे पाठक जैन __ धर्म का प्राचीन इतिहास से अवगत होजायंगे । भगवान् ऋषभदेव का समय जैसे काल का श्रादि अन्त नहीं है वैसे सृष्टि का भी आदि अन्त नहीं है अर्थात् सृष्टि का कर्ता-हर्ता कोई नहीं है । अनादि काल से प्रवाह रूप चली आती है और भविष्य में अनन्तकाल तक ऐसे ही संसार चलता रहेगा। इसका अन्त न तो कभी हुआ और न कभी होगा। सृष्टि में चैतन्य और जड़ एवं मुख्य दो पदार्थ है आज जो चराचर संसार दिखाई देता है वह सब चैतन्य और जड़ वस्तु का पर्यायरूप है । काल का परिवर्तन से कभी उन्नती कभी अवनति हुआ करती है उस कालका मुख्य दो भेद है ( १ ) उत्सर्पिणी (२) अवसर्पिणी । इन दोनों को मिलाने से कालचक्र होता है ऐसा अनन्त कालचक्र भूतकाल में हो गये और अनंते ही भविष्यकाल में होगा वास्ते काल का आदि अन्त नहीं है । जब काल का आदि अन्त नहीं है तब काल की गणना करने वाला संसार सृष्टि का भी आदि अन्त नहीं होना स्वयं सिद्ध है। (१) उत्सर्पिणी काल के अन्दर वर्ण गन्ध रस स्पर्श संहनन संस्थान जीवों का आयुष्य और शरीर ( देहमान ) आदि सब पदार्थों की क्रमशः उन्नति होती है । (२) अवसणी काल में पूर्वोक्त सब बातों की क्रमशः अवनति होती है पर उन्नति और अवन्नति है वह समूहापेक्षा है न कि व्यक्ति अपेक्षा। जब समय की अपेक्षा काल अनंता हो चुका है तब इतिहास भी इतना ही कालका होना एक स्वभावी बात है परंतु वह केवली गम्य है न कि एक साधारण मनुष्य उसे कह सके व लिख सके । जैसे हिन्दू धर्ममें कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग से कालका परिवर्तन माना है, वैसे ही जैनधर्म में प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के छे छे हिस्से (आरा) द्वारा कालका परिवर्तन माना गया है । (१) उत्सर्पिणी के छे हिस्से ( १ दुःखमादुःखम (२) दुःखम (३) दुःखमासुखम (४) सुखमादुःखम (५) सुखम (६ ) सुखमासुखम, इस का स्वभाव है कि वह दुःखकी चरमसीमा से प्रवेश हो क्रमशः उन्नति करता हुआ सुख की चरमसीमा तक पहुँच के खतम होजाता है । बाद अवसर्पिणी का प्रारंभ होता है। (२) अवसर्पिणी के छे हिस्से (१) सुखमासुखम (२) सुखम (३ ) सुखमादुःखम (४) दुःखमासुखम (५) दुःखम (६) दुःखमादुःखम. इस काल का स्वभाव है कि वह सुख की चरमसीमा से प्रवेश हो क्रमशः अवनति करता हुवा दुःख की चरम सीमा तक पहुँच के खतम होजाता है। बाद फिर उत्सर्पिणी कालका प्रारंभ होता है । एवं एक के अन्त में दूसरी घटमाल की माफीक काल घूमता रहता है। वर्तमान समय जो वरत रहा है वह अवसर्पिणी काल है। आज मैं जो कुछ लिख रहा हूँ वह इसी अवसर्पिणी काल के छ हिस्सों के लिये है। अवसर्पिणी काल के छे हिस्से में पहले हिस्से का नाम सुखमासुखमारा है, वह चार कोडाकोड सागरोपम का है उस समय भूमिकी सुन्दरता सरसाइ व कल्पवृक्ष बड़े ही मनोहर-अलौकिक थे उस समय के मनुष्य अच्छे रूपवान, विनयवान्, सरलस्वभावी, भद्रिक परिणामी, शान्तचित्त, कषायरहित, ममत्वरहित, पदचारी, तीन गाउका शरीर, तीन पल्योपमका आयुष्य, दोसो छपन्न पास अस्थि, असी मसी कसी, कर्म रहित दश प्रकार के कल्पवृक्ष मनइच्छित भोगोपभोग पदार्थ से जिनको संतुष्ट करते थे उन युगलमनुष्यों Jain Ed. ( दम्पति ) से एक युगल पैदा होता था। वह ४९ दिन उसका प्रतिपालन कर एक को छींक दूसरे को.. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] प्रवासी आते ही स्वर्ग पहुँच जाते थे पीछे रहा हुआ युगल अपनी शेष अवस्था में दम्पति सा बरताव स्वयं ही कर लेते थे उस जमाने के सिंह व्याघ्रादि पशु भी भद्रिक, बैरभावरहित, शान्तचित्तवाले ही थे जैसे जैसे काल निर्गमन होता रहा वैसे वैसे वर्ण गन्ध रस स्पर्श संहनन संस्थान देहमान आयुष्यादि सब में न्यूनता होती गई । यह सब अवसर्पिणी काल का ही प्रभाव था। (२) दुसरे हिस्से का नाम सुखमबाग वह तीन क्रोडाक्रोड सागरोपमका था इस समय भी युगलमनुष्य पूर्ववत् ही थे पर इनका देहमान दो गाउ और आयुष्य दो पल्योपमका था प्रतिपालन ६४ दिन पास अस्थि १२८ और भी काल के प्रभाव से सब बातों में क्रमशः हानि होती आइ थी। (३) तीसरे हिस्से का नाम सुखमदुःखमारा यह दो कोडाकोड सागरोपम का था एक पस्योपम का आयुः एक गाउ का शरीर ७९ दिन प्रतिपालन ६४ पासास्थि आदि क्रमशः हानि होती रही इसके तीन हिस्से से दो हिस्सा तक तो युगलधर्म बराबर चलता रहा पर पिछले हिस्से में कालके प्रभाव से कल्पवृक्ष फल देने में संकोच करने लगे इस कारण से युगल मनुष्यों में ममत्वभावका संचार हुश्रा जहां ममत्वभाव होता है वहां क्लेश होना स्वभाविक ही है जहां लेश होता है वहां इन्साफ की भी परमावश्यकता हुआ करती है। युगल मनुष्य एक ऐसे न्यायाधीश की तलासी में थे ठीक उससमय एक युगल मनुष्य उज्जवल वर्ण के हस्तीपर सवारी कर इधर-उधर घूमता था युगलमनुष्यों ने सोचा कि यह सब में बड़ा मनुष्य है "कारण कि इस के पहले किसी युगलमनुष्य ने सवारी नहीं करी थी" सब युगलमनुष्यों ने एकत्र हो उस सवारी वाले युगल को अपना न्यायाधीश बनाके उसका नाम “विमलवाहन" रखदिया कारण उसका बाहन सुफेद (विमल) था जब कोई भी युगलमनुष्य अपनी मर्यादा का उल्लंघन करे तब वही 'विमलबाहन' उसको दंड देने को 'हकार दंड नीति मुकर्रर करी तदानुसार कह देता कि हे ! तुमने यह कार्य किया ? इतने पर वह युगल लज्जित विलज्जित हो जाता और तमाम उमर तक फिर से ऐसा अनुचित कार्य नहीं करता था। कितने काल तो इसमें निर्गमन हो गया । बाद विमलबाहन कुलकर की चंद्रयशा भार्या से चक्षुष्मान नामका पुत्र हुआ वह भी अपने पिता के माफिक न्यायाधीश ( कुलकर) हुआ, उसने भी 'हकार' नीति का ही दंड रखा चक्षुष्मान की चंद्राकान्ता भार्या से यशस्वी नाम का पुत्र हुआ वह भी अपने पिता के स्थान कुनकर हुआ पर इसके समय कल्पवृक्ष बहुत कम हो गये जिसमें भी फल देने में बहुत संकीर्णता होने से युगलमनुष्यों में और भी क्लेश बढ़ गया 'हकार' नीतिका उल्लंघन होने लगा तब यशस्वी ने हकार को बढ़ा के 'मकार' नीति बनाई अगर कोई युगलमनुष्य अपनी मर्यादा का उल्लंघन करे उसे 'मकार दंड अर्थात् 'मकरो' इससे युगलमनुष्य बड़े ही लज्जितविलज्जित होकर वह काम फिर कदापि नहीं करते थे । यशस्वी की रूपास्त्रि से अभिचंद्र नामका पुत्र हुआ वह भी अपने पिता की माफिक कुलकर हुआ उसके समय हकार मकार नीति दंड रहा अभिचंद्र के प्रतिरूपा नाम की भार्या से प्रसेनजीत नामका पुत्र पैदा हुआ वह भी अपने पिता के स्थान कुलकर हुआ इसके समय काल का और भी प्रभाव बढ़ गया कि इसको 'हकार' 'मकार से बढ़ के 'धिकार' नीति बनानी बड़ी अर्थात् मर्यादा उल्लंघने वाले युगलों को, 'धिकार' कहने से वह लज्जितविलज्जित हो फिर दूसरीवार ऐसा कार्य नहीं करते थे प्रसेनजीत की चक्षुष्कान्ताखिसे मरुदेव नामका पुत्र हुआ, वह भी अपने पिता के स्थान कुलकर हो तीनों दंड नीति से युगलमनुष्यों को इन्साफ देता रहा मरुदेव की भार्या श्रीकान्ता की कुक्षी से नामी नामका पुत्र हुश्रा वह भी अपने पिता के पद पर कुलकर हुआ .इसके समय भी तीनों प्रकार की वीति प्रचलित थी पर कालका भयंकर प्रभाव युगलमनुष्यों पर इस कदर का हुआ कि वह हकार मकार विकार ऐसी तीनों प्रकार की दंड नीति को उल्लंघन करने में अमर्यादित हो गये थे उस समय कल्पवृक्ष भी Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] बहुत कम हो गये जो कुछ रहे थे वह भी फल देने में इतनी संकीर्णता करते थे कि युगल मनुष्यों में भोगोपभोग के लिये प्रचुर कषाय का प्रादुर्भाव होने लग गया कुलकर भार्या पिता माता आयुष्य देहमान दंडनीति मकार १ | विमलवाहन | चंद्रयशा | अज्ञात अज्ञात | पल्योपम के | ९०० धनुष्य हकार दशमे अंश २ चक्षुष्मान | चंद्रकान्ता विमलवाहन चंद्रयशा | कुच्छ न्यून ३ यशस्वी | स्वरूपा चक्षुष्मान | चंद्रकान्ता सं० , ४ अभिचन्द्र प्रतिरूपा यशस्वी | स्वरूपा स्वरूपा , , ५ प्रसेनजीत चक्षुकान्ता | अभिचंद्र | प्रतिरूपा | , , ६०० , धीकार ६ मरुदेव श्रीकान्ता | प्रसेनजीत | चक्षुकान्ता सं० २० ७ | नाभिराजा |मरुदेवा मरुदेव । श्रीकान्ता ___ यद्यपि जैनशास्त्रकारों ने युगलमनुष्योंका व कुलकरों का विषय सविस्तर वर्णन किया है पर मैंने मेरे उद्देशानुसार यहां संक्षिप्तसे ही लिखा है अगर विस्तार से देखने की अभिलाषा हो उन ज्ञानप्रेमियों को श्री जम्बुदिपप्रज्ञप्ति सूत्र जीवाभिगमसूत्र आवश्यकसूत्र और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्रादि ग्रन्थों से देखना चाहिये। इति भोगभूमि मनुष्यों का संबन्ध ।। सर्वार्थसिद्ध वैमानमें राजा बगंध का जीव जो देवता था वह तेतीस सागरोपम की स्थिति को पूर्ण कर इक्ष्वाकु भूमिपर नाभीकुलकरकी मरूदेवा भार्या की पवित्र कुक्षी में असाढ वद ४ को तीन ज्ञान संयुक्त अवतीर्ण हुये माताने वृषभादि १४ स्वप्ने देखे नाभीकुलकर व इन्द्रने स्वप्नों का फल कहा-शुभ दोहला पूर्ण करते हुए चैत वद ८ को भगवान का जन्म हुआ ५६ दिग्कुमारिकाओं ने सूतिकाकर्म किया और ६४ इन्द्रोंने सुमेरु गिरिपर भगवान का स्नात्रमहोत्सव बड़े ही समारोह के साथ किया । वृषभका स्वप्नसूचित भगवानका नाम वृषभ यानि ऋषभदेव रखा । इन्द्र जब भगवान के दर्शनको आया तब हाथमें इक्षु (सेलडी का सांठा) लाया था और भगवान्को आमन्त्रण करनेपर प्रभुने ग्रहण किया वास्ते इन्द्रने आपका इक्ष्वाकुवंश स्थापन किया। सुमंगला-भगवान के साथ युगजपने जन्म लिया था। . सुनंदा-एक नूतन युगल ताड वृक्ष के नीचे बैठा था उस ताड का फल लड़का के कोमल स्थान पर पड़ने से लड़का मर गया बाद लड़की को नाभीराजा के पास पहुँचा दी । इन दोनों (सुमंगला और सुनंदा ) के साथ भगवानका पाणिग्रहण हुश्रा यह पाणिग्रहण पहलापहल ही हुआ था जिसके सब व्यवहार विधि विधान पुरुषोंका कर्त्तव्य इन्द्रने और औरतों का कार्य इन्द्राणि ने किया था जबसे युगल धर्मबन्ध हो सब युगलमनुष्य इस रीति से पाणिग्रहण करने लगे। . इधर कल्पवृक्ष प्रायः सर्व नष्ट हो जानेसे युगल मनुष्यों में अधिकाधिक लेश पढ़ने लगा नाभीकुलकर के हकार मकार धिकार दंड देनेपर भी क्षुधातुर युगल मर्यादाका बराबर भंग करने लगे युगलमनुष्यों ने नाभीराजासे एक राजा बनानेकी याचना करी उत्तर में यह कहा कि “जामो तुम्हारे राजा ऋषभ होगा" इस dain Educa cथवसर पर पन्त ने श्राकर भगवानका राजभिषेक करने का सर्वरीतरिवाज यगलमनुष्यों को बतलाया और स्वच्छ Vaheitolaryong Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल लानेका आदेश दिया तष युगल पाथिलानेका गया बाद इन्द्रने राजसमा राजसिंहासन राजाके योग्य बाभूषणों से भगवान को अलंकृत कर राजसिहासनपर विराजमान कर दिये । युगलमनुष्य जलपात्र लाये अगवान् को सालंकृत देख पैरोंपर जलाभिषेक कर दिये तब इन्द्रने युगलोंको विनीत कह कर स्वर्गपुरी सदृश १२ योजन लंबी ९ योजन चौडी विनीता नामकी नगरी बसाई उसके देखादेख अन्य नगर प्राम वसना प्रारंभ हुआ. भगवान् का इक्ष्वाकुवंश था। जिसको कोटवाल पदपर नियुक्त किया उनका उप्रकुल जिनको बडा माना उनका भोगकुल जिनको मंत्रिपदपर मुकर्रर किया उनका राजनकुल शेष जनताका क्षत्रियकुल स्थापन किया जबसे कुल व वंशोंकी स्थापना हुई शेष कुल वंश इनोके अन्दरसे कारण पा पाके प्रगट हुवे हैं। भगवान् ने युगल मनुष्यों का प्रतिपालन करने में व नीतिधर्म का प्रचार करने में कितनाही काल निर्गमन किया उसके दरम्यान भगवान के भरत बाहुबलादि १०० पुत्र और ब्राझी सुन्दरी दो पुत्रियाँ हुई थी भरत बाहुबलादि को पुरुषों के ७२ कला और ब्राह्मी सुन्दरी को स्त्रियों की ६४ कला व अठारह प्रकार की लिपि षतलाई जिनसे संसार व्यवहार का सब कार्य प्रचलित हुआ अर्थात् आज संसार भरमें जो कलायें व लिपियाँ चल रही हैं वह सब भगवान ऋषभदेव की चलाई हुई कलाओं के अन्तर्गत हैं न कि कोई नवीन कला हैं । हाँ कभी किसी कला लिपिका लोप होना और फिर कभी सामग्री पाके प्रगट होना तो काल के प्रभाव से होता ही आया है । ___भगवान का चलाया हुआ नीति धर्म-संसारका भाचार व्यवहार कला कौशल्यादि संपूर्ण श्रार्यव्रत में फैल गया मनुष्य असी मसी कसी आदि कर्म से सुखपूर्वक जीवन चलाने लगे पर प्रात्मकल्याण के लिये लौकिकधर्म के साथ लोकोत्तर धर्म की भी परमावश्यक्ता होने लगी। भगवान् के श्रायुष्य के ८३ लक्षपूर्व इसी संसार सुधारने में निकल चुके तब लौकान्तिकदेवने आके अर्ज करी कि हे दीनोद्धारक ! आपने जैसे नीतिधर्म प्रचलित कर क्लेश पाते हुये युगल मनुष्यों का उद्धार ___ *पुरुषों की ७२ कला-लिखनेकीकला, पढ़नेकीकला, गणितकला, गीतकला, नृत्यकला, तालवजामा, पटहबजाना, मृदंगबजाना, वीणाबजाना, वंशपरीक्षा, भेरीपरीक्षा, गजशिक्षा, तुरंगशिक्षा, धातुर्वाद, दृष्टिवाद, मंत्रवाद, बलिपलितविनाका, रत्नपरीक्षा, नारीपरिक्षा, नरपरीक्षा, छंदबंधन, तर्कजल्पन, नीतिविचार, तत्वविचार, कवितशक्ति, जोतिषशास्त्रज्ञान, वैद्यक, पडभाषा, योगाभ्यास, रसायणविधि, अंजनविधि, अठारहप्रकारकीलिपि, स्वमलक्षण, इंद्रजालदर्शन, खेतीकरनी, बाणिज्यकरया, राजाकीसेवा, शकुनविचार वायुस्तंभन, अग्निस्तंभन, मेघवृष्टि, विलेपनविधि, मर्दनविधि, ऊर्ध्वगमन, घटबंधन, घटभ्रमन, पनच्छेदन,मर्मभेदन, फलाकर्षण, जलाकर्षण, कोकाचार, लोकरंजन, अफल वृक्षों को सफल करना, खगबंधन, छुरीबंधन, मुद्रा. विधि,लोहज्ञान, दांतसमारण, काजलक्षण, चित्रकरण, बाहुयुद्ध, मुष्टियुद्ध, दंडयुद्ध, दृष्टियुद्ध. खड्गयुद्ध, वागयुद्ध, गारुडविद्या; सर्पदमन, भूतमईन, योग-द्रव्यानुयोग, अक्षरानुयोग, व्याकरण, औषधानुयोग, वर्षज्ञान । भिब स्त्रियोंकी चौसठ कला -नृत्यकला, औचिस्यकला, चित्रकला, वादित्रकला, मंत्र, तंत्र, ज्ञान, विज्ञान, दंभ, कस्तंभ, गीतज्ञान, तालज्ञान, मेघवृष्टि, फलवृष्टि, आरामारोपण, भाकारगोपन, धर्मविचार, शकुन विचार, क्रियाकल्पन, संस्कृतजल्पन, प्रसादनीति, धर्मनीति, वर्णिकाबुधि, स्वर्णसिद्धि, तैलसुरभीकरण, लीलासंचरण, गजतुरंगपरीक्षा, स्त्रीपुरुषके बक्षण, कामक्रिया, अष्टादश लिपिपरिच्छेद, तत्कालवुद्धि, वस्तुशुद्धि, वैद्यकक्रिया, सुवर्णरत्नभेद, घटभ्रम, सारपरिश्चम, अंजनयोग, चूर्णयोग, हस्तलाधव, क्वनपाटव, भोज्यविधि, वाणिज्यविधि, काव्यशक्ति, व्याकरण, शालिखंडन, मुखमंडन, कथाकथन, समग्रंथम,वरवेष, सकलभाषा, विशेषज्ञ, अभिधानपरिज्ञान, आमरण पहनने, भृत्योपचार, गृह्याचार, शाड्यकरण, परनिरा. ग, धान्यरंधन, केशवंधन वीणावादीनाद, वितंडावाद, अंकविचार, लोकन्यवहार. अंत्याक्षरिका, इसके सिवाय मौनारू नौकारू मकार सुतार नाह दरजी छोपा आदि की कलाभों अर्थात् यों कहें तो दुनियों का सब व्यवहार ही भगवान् भादिनाथ ती चलाया था। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] किया है वैसे श्र श्रात्मिक धर्म प्रकाश कर संसार समुद्र में परिभ्रमन करते हुये जीवों का उद्धार कीजिये आपकी दीक्षा का समय श्रा पहुँचा है अर्थात् कुछ न्यून श्रठारा क्रोडाक्रोड सागरोपम से मोक्षमार्ग बन्ध हो रहा है उसको आप फिर से चालू करावें । भगवान् दीक्षाका अवसर जान एक वर्ष तक ( वर्षिदान ) श्रति उदार भावनासे दान दिया, भरत को विनीता का राज बहुबलीको तक्षशीला का राज और अंग वंग कुरु पुंड्र चेदि सुदन मागध अंध्र कलिंकभद्र पंचाल दशार्ण कौशल्यादि पुत्रों को प्रत्येक देशका राज देदिया. पुत्रोंका नाम था वह ही नाम देश का पड गया. भगवान् की दीक्षा के समय चौसठ इन्द्रोंने सपरिवार आकर के बड़ा भारी दीक्षा महोत्सव किया भगवान्ने ४००० पुरुषों के साथ चैत वद ८ के दिन सिद्धों को नमस्कार पूर्वक स्वयं दीक्षा धारण कर ली । पूर्वजन्ममें भगवान्ने अन्तराय * कर्मोपार्जन किया था वास्ते भगवान् को भिक्षा के लिये पर्यटन करने पर भी एक वर्ष तक भिक्षा न मिली कारण भगवान् के पहला कोई इस रीती से भिक्षा लेनेवाला था ही नहीं और उस समय के मनुष्य इस बात जानते भी नहीं थे कि भिक्षा क्या चीज है ? हाँ हस्ति श्रश्व रत्न माणक मोती और सालंकृत सुन्दर बालाओं की भेटें वह मनुष्य करते थे पर भगवान् को इनसे कोइ भी प्रयोजन नहीं था । उस एक वर्षके अंदर जो ४००० शिष्य थे वह क्षुधा पिडित हो जंगल में जाके फलफूल कन्द मूलादिका भोजन कर वही रहने लगे. कारण उच्च कुलीन मनुष्य संसार त्यागन कर फिर उसको स्वीकार नहीं करते हैं वह सब जंगलों में रह कर भगवान् ऋषभदेवका ध्यान करते थे । एक वर्ष के बाद भगवान् हस्तनापुर नगर में पधारे वहां बहुबली का पौत्र श्रेयांस कुमार के हाथ से वैशाख शुद ३ को इक्षुरसका पारणा किया देवताओंने रत्नादि पंच पदार्थ की वर्षा करी तबसे वह मनुष्य मुनियों को दान देने की रीति जानने लगे. यह हाल सुनके ४००० जंगलवासि मुनि फक्त कच्छ महाकच्छ वर्जके क्रमशः सव भगवान् के पास आके अपने संयम तप से श्रात्मकल्याण करने लग गये । भगवान् छद्मस्थपने बाहुबली कि तक्षशीला के बाहर पधारे बाहुबली को खबर होने पर विचार किया कि प्रभात को मैं बड़े डम्बर से भगवान् को बन्दन करने को जाएंगा पर भगवान् सुबह अन्यत्र विहार कर गये उस स्थान बाहुबली ने भगवान् के चरण पादुकाओं की स्थापना करी वह तीर्थ राजाविक्रम के समय तक मोजुद था बाद किसी समय म्लेच्छोंने नष्ट कर दिया. क्रमशः भगवान् १००० वर्ष छद्मस्थ रहे अनेक प्रकारके तपश्चर्यादि करते हुवे पूर्वोपार्जित कमोंका क्षय कर फागण वद ११ को पुरिमताल के उद्यानमें दिव्य कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शन प्राप्त कर लिया आप सर्वज्ञ हो सकल लोकालोक के भावों को हस्तामलककी माफिक देखने लग गये. भगवान् को कैवल्यज्ञान हुआ उस समय सर्व इन्द्र मय देवीदेवताओं के कैवल्य महोत्सव करने को आये महोत्सव कर समवसरण की रचना करी यानि एक योजन भूमिमें रत्न, सुवर्ण, चांदी के तीन गढ बनाये उपर के मध्यभागमें स्फटिक रत्नमय सिंहासन बनाया. पूर्व दिशामें भगवान् विराजमान हुवे शेष तीन दिशाओं में इन्द्रके आदेश से व्यन्तर देवोने भगवान् के सदृश तीन प्रतिबिंब ( मूर्तियां) विराजमान कर दी चोतरफ के दरवाजे से आनेवाले सबको भगवान् का दर्शन होता था और सब लोक जानते थे कि भगवान् हमारे ही सन्मुख हैं योजन प्रमाण समवसरण में स्वच्छ जल सुगन्ध पुष्प और दशांगी धूप वगैरह सब देवों ने तीर्थकरों की भक्ति के लिये किया था । भगवान् के चार अतिशय जन्म से, एकादश ज्ञानोत्पन्नसे और १९ देवकृत एवं चौंतीस अतिश्य व अनंत ज्ञान अनंत दर्शन अनंत चरित्र अनंत लब्धि अशोकवृक्ष भामंडल रिफटक सिंहासन श्राकाशमें देववाणि Jain Education Intern किसी काल में ५०० बलदोंके मुंहपर छीड़ीयों बन्धा के अन्तराय कर्म बान्धा था । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( घोषणा ) पांच वर्णके घुटने प्रमाणे पुष्प तीनछत्र चौसठ इन्द्र दोनों तर्फ चमर कर रहे इत्यादि असंख्य देव देवी नर विद्याधरोसे पूजित जिनके गुण ही अगम्य है ? इधर माता मरूदेवा चिरकालसे ऋषभदेवकी राह देख रहीथी कभी कभी भरतको कहा करती थी कि भरत ! तु तो राज में मन हो रहा है कभी मेरे पुत्र ऋषभ की भी खबर मंगवाई है? उसका क्या हाल होता होगा ? इत्यादि। ___ भरत महाराज के पास एक तरफ से पिताजीको कैवलयज्ञानोत्पन्न की बधाई प्राइ, दूसरी तरफ आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न होने की खुशखबरी मिली, तीसरी तरफ पुत्र प्राप्ति की बधाई मिली. अब पहला महोत्सव किसका करना चाहिये ? विचार करने पर यह निश्चय हुआ कि पुत्र और चक्ररत्न तो पुन्याधीन है इस भवमें पौद्गलिक सुख देने वाला है पर भगवान् सच्चे आत्मिक सुख अर्थात् मोक्ष मार्ग के दातार हैं वास्ते पहिले कैवल्यज्ञानका महोत्सव करना जरूरी है इधर माता मरूदेवा को भी खबर दे दी कि आपका प्यारा पुत्र बड़ा ही ऐश्वर्य संयुक्त पुस्मितालोधानमें पधार गये हैं यह सुन माता स्नान मजन कर भरत को साथ लेकर हस्ती के उपर होदेमें बैठ के पुत्र दर्शन करनेको समवसरण में आई भरतने ऊंचा हाथ कर दादीजीको बतलाया कि वह रत्नसिंहासन पर आपके पुत्र ऋषभदेव विराजमान हैं माताने प्रथम तो स्नेह युक्त बहुत उपालंभ दिया. बाद वीतराग की मुद्रा देख आत्मभावना व क्षपकणि और शुक्ल ध्यान ध्याती हुई माता को कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शात्पन्न हुआ, असंख्यात काल से भरतक्षेत्र के लिये जो मुक्ति के दाजे बन्ध थे उसको खोलने को अर्थात् नाशमान शरीर को हस्ती पर छोड सबसे प्रथम आप ही मोक्ष में जा विराजमान हुइ मानो ऋषभदेव भगवान् अपनी माता को मोक्ष भेजने के लिये ही यहां पधारे थे. तत्पश्चात् चौसठ इन्द्रों और सुरासुर नर विद्यधरोंसे पूजित-भगवान् ऋषभदेवने चार प्रकार के देव व चार प्रकार की देवियों व मनुष्य मनुव्यणि और तीर्यच तीर्यचनि आदि विशाल परिषदा में अपना दिव्य ज्ञानद्वारा उच्चस्तर से भवतारणि अतीव गांभीर्य मधुर और सर्व भाव प्रकाश करने वाली जो नर अमर पशु पक्षी आदि सबकी समझ में आजावे वैसी धर्मदेशना दी जिसमें स्याद्वाद, नय निक्षेप द्रव्य-गुगापर्याय कारणकार्य निश्चय व्यवहार जीवादि नौतत्व षट्द्रव्य लोकालोक स्वर्ग मृत्यु पाताल का स्वरूप, व सुकृताकमका सुकृतफल दुःकृतकर्मका दुः-कृतफल दान शील तप भाव गृहस्थधर्म षट्कर्म बारहबत यतिधर्म पंचमहाव्रतादि विस्तार से फरमाया उस देशनाका असर श्रोताजनपर इस कदर हुवा कि वृषभसेन (पुंडरिक) आदि अनेक पुरुष और ब्रह्मीआदि अनेक स्त्रियाँ वे भगवान् के पास मुनि धर्मको स्वीकार किया और जो मुनिधर्म पालनमें असमर्थ थे उन्होने श्रावक (गृहस्थ) धर्म अंगीकार किया उस समय इन्द्रमहाराज बत्ररत्नों के स्थाल में वासक्षेप लाकर हाजर किया तब भगवान् नेमुनि अर्थिक श्रावक और श्राविका पर वासक्षेप डाल चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना करी जिसमें वृषभसेन को गणघरपद पर नियुक्त किया जिस गणधर ने भगवान् की देशना का सार रूप द्वादशाङ्ग सिद्धान्तों की रचना करी यथा-प्राचारांगसूत्र सूत्रकृतांगसूत्र स्थानायांगसूत्र समवायांगसूत्र विवाहपन्नतिसूत्र ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र उपा. सकदशांगसूत्र अन्तगढ़दशांगसूत्र अनुत्तरोववाइदशांगसूत्र प्रश्नव्याकरण दशांगसूत्र विपाकदशांगसूत्र और दृष्टिवादपूर्वागसूत्र एवं तत्पश्चात् इन्द्रमहाराज ने भगवान् की स्तुति वन्दन नमस्कार कर स्वर्ग को प्रस्थान किया भरवादि भी प्रभु की गुणगान स्तुति आदि कर विसर्जन हुवे-अन्यदा एक समय सम्राट भरतने सवाल किया कि हे विभो ! जैसे आप सर्वज्ञ तीर्थकर हैं वैसा भविष्य में कोई तीर्थकर होगा उत्तर में भगवान ने भविष्य में होने वाले तेवीस तीर्थंकरों के नाम वर्ण आयुष्य शरीरमानादि सब हाल अपने दिव्य कैवल्यज्ञान हारा फरमाया ( वह आगे बताया गया है ) इसकी स्मृति के लिये भरत ने अष्टापद पर्वत पर २४ तीर्थंकरों Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४ ] के रन सुवर्णमय २४ मन्दिर बनाके उसमें तीर्थंकरों के नाम वर्ण और देहमान प्रमाणे मूर्तियाँ बनवा के स्थापन करवा दी वह मन्दिर भगवान महावीर के समय तक मौजूद थे जिनकी यात्रा भगवान् गौतम स्वामी ने की थी। इतना ही क्यों पर विक्रम की दशवीं शताब्दी में वीराचार्य ने भी यात्रा की थी। भगवान्के साथ ४००० राजकुमारों ने दीक्षा ली थी जिनमें भरतका पुत्र मरिचीकुमार भी शामिल था पर मुनिमार्ग पालनमें असमर्थ हो उसने अपने मनसे एक निराले वेषकी कल्पना कर ली जैसे परिव्राजक सन्यासियोंका वेष है। पर वह तत्वज्ञान व धर्म सब भगवान् का ही मानता था अगर कोई उसके पास दीक्षा लेनेको श्राता था तब उपदेश दे उसे भगवान के पास भेज देता था एक समय भरतने प्रश्न किया कि हे प्रभु ! इस समवसरणके अन्दर कोइ ऐसा जीव है कि वह भविष्यमें तीर्थकर हो ? भगवान्ने उत्तर दिया कि समवसरणके बाहर जो मरिची बैठा है वह इसी अवसर्पिणीके अन्दर त्रिपृष्ट नामक प्रथम वासुदेव व विदेहक्षेत्र की मूका राजधानीमें प्रियमित्र नामका चक्रवर्ति और भरत में कर चौबीसवां महावीर नामका तीर्थकर होगा यह सुन भरत, भगवान को बन्दन कर मरिचीके पास आकर वन्दना करता हुवा कहने लगा कि हे मरिची ! मैं तेरे इस वेषको वन्दना नहीं करता हूँ परंतु वासुदेव चक्रवर्ति और चरम तीर्थकर होगा वास्ते भावि तीर्थकर को मैं वन्दना करता हूं यह सुन मरिचीने मद (अहंकार) किया कि अहो मेरा कुल कैसा उत्तम है ? मेरा दादा तीर्थ कर मेरा बाप चक्रवर्ति और मैं प्रथम वासुदेव हूँगा इस मदके मारे मरिचीने नीच गोत्रोपार्जन किया । एक समय मरिची भगवान् के साथ विहार करता था कि उसके शरीरमे बीमारी हो गइ पर उसे असंयति समम किसी साधुने उसकी वैयावृत्य नहीं करी तब मरिचीने सोचा कि एक शिष्य तो अपनेको भी बनाना चाहिये कि वह ऐसी हालतमें टहल चाकरी कर सके ? बाद एक कपिल नामका राजपुत्र मरिचीके पास दीक्षा लेनेको या मरिचीने उसे भगवान के पास जानेको कहा पर वह बहुलकर्मि कपिल बोला की तुमारेमत से भी धर्म है या नहीं इस पर मरिची ने सोचा कि यह शिष्य मेरे लायक है तब कहा कि मेरे मत में भी धर्म है और भगवान् के मतमे भी धर्म है इस पर कपिलने-मरिचीके पास योग ले सन्यासी का बेष धारण कर लिया मरिचीने इस उत्सूत्र भाषण करने से एक कोड़ाकोड़ सागरोपम संसार की वृद्धि करी । मरिची का देहान्त होने के बाद कपिल मरिची की बतलाई हुई ज्ञानशुन्य क्रिया करने लगा इस कपिल के एक आसूरि नामका शिष्य हुवा उसने भी ज्ञानशून्य मार्गका पोषण किया क्रमशः इस मतमें एक सांख्य नामका आचार्य हुआ था उसी के नाम पर सांख्य मत प्रसिद्ध हुआ। भगवान् ने दीक्षा समय पर सब पुत्रों को अलग २ देशों का राज दिया था उस समय नमि विनमि वहां हाजर नहीं थे बाद में वह आये और खबर हुई कि भगवान् ने सब को राज दे दिया अपुन भाग्यहीन कोरे रह गये ऐसा विचार कर वह भगवान् के पास आये कितने ही दिन प्रमुके पास रहे परन्तु भगवान् ने तो मौन ही साधन किया उस समय धरणेन्द्र भगवानको पन्दन करने को आया था उसने नमि विनमी को सममा के ४८००० विद्याओं के साथ वैतात्यगिरिका राज्य दिया फिर नमीने उत्तर श्रेणिमें ६० नगर और विनमिने दक्षिण श्रेणिपर ५० नगर वसाके राज करने लगे और वे विद्याधर कहलाते हैं क्रमशः उनके वंश में रावण कुंभकरण सुप्रीव पवन हनुमानादि हुये हैं वह सब इन दोनोंकी संतान है। ___सम्राट भरतने जब के खण्ड में दिगविजय करके श्राया तब भी चक्ररत्नने पायधशालामें प्रवेश नहीं किया इसका विचार करने से ज्ञात हुवा कि बाहुबलमे अभी तक हमारी (भरतकी, आज्ञा स्वीकार नहीं करी तब दूत को तक्षशिला भेमके बाहुबली को कहलाया कि तुम हमारी बाबा मानो, इस पर बाहुबलीने भस्वीकार कीया तब दोनों भाइयों में पुट की सध्यारी हुई अन्य लोगों का नारा न करते हुवे दोनों भाइयों में Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] प्रकार का युद्ध हुए पर बाहुबली पराजय नहीं हुआ अन्तमें मुष्टियुद्ध हुआ बाहुबली ने भरत पर मुष्टि हार करने को हाथ उँचा कर तो लिया पर फिर विचार हुआ कि हो संसार असार है एक राज के लिये वृद्ध बन्धु को मारने को तैयार हुवा हूँ बस उंचा किया हुआ हाथ से अपने बालों का लोच कर आप दीक्षा धारण कर ली पर भगवान् के पास जानेमें यह रूकावट हुई कि - भरत बाहुबली के पहिले ९८ भाईयों के पास दूत भेजा था तब ९८ भाइयोंने भगवान् के पासमें जाकर अर्ज करी कि हे दयाल ! आपका दिया हुवा राज हमसे भरतराजा छीन रहा है वास्ते श्राप भरत को बुला के समझा दो इस पर भगवान ने उपदेश किया कि हे भद्र ! यह तो कृत्रिमराज है पर श्री मेरे पास में तुम को अक्षयराज देता हूँ कि जिसका कभी नाश ही नहीं हो सकेगा इस पर ९८ भाईयोंने भगवान् के पास दोक्षा ले ली - बस बहुबलीने सोचा कि में उन छोटे भाईयों को वन्दना कैसे करू अर्थात् उन लघु बन्धुओं को नमस्कार करना नहीं चाहता हुश्रा जंगल में जा कर ध्यान लगा दिया जिसको एक वर्ष हो गया । उनके शरीर पर लताओं वेल्लियो और घास इतना तो छा गया कि पशुपक्षीयोंने वहां अपना घोसले बना लिया। इधर भगवान् ने बाहुबल ऋषिको समझाने के लिये ब्राह्मी तथा सुन्दरी साध्वियों को भेजी वह आकर भाईयों को कहने लगी "वीरा म्हारा गजथ की उतरो, गज चढियो केवल नहीं हो सीरे" यह सुनके बाहुबली ने सोचा कि क्या साध्वियां भी असत्य बोलती है ! कारण की मैं तो गज तुरंग सत्र छोड़के योग लिया है परजब ज्ञान दृष्टि से विचारने लगा तब साध्वियों का कहना सत्य प्रतीत हुआ सच्च ही मैं मानरूपी गजपर चढा हूँ ऐसा विचार ९८ भाईयोंको वन्दन करने की उज्वल भावना ज्यों कदम उठाया कि उसी समय बाहुबलीजी को कैवल्यज्ञान उत्पन्न हो गया वहाँ से चलके भगवान् के पास जाके भगवान्‌को प्रदक्षिना कर केवली परिषदामे सामिल हो गये । इधर भरत सम्राट् ने सुना कि मेरे राज लोभ के कारण ९८ भाईयों ने भी भगवान् के पास दीक्षा ले ली है हो मेरी कैसी लोभदशा कि भगवान् के दीये हुवे राज भी मैंने ले लीया भगवान् क्या जानेगा इत्यादि पश्चात्ताप करता हुआ विचार किया कि मैं ९८ भाईयोंके लिये भोजन करवा कर वहाँ जा मेरे भाइयों को भोजन जीमा के क्षमा की याचना करू वैसे ही बहुत से गाडा भोजन से भरकर भगवान् के समवसरण में श्राया भगवान् को वंदन कर अर्ज करी कि प्रभो ! हमारे भाईयों को श्राज्ञा दो कि मैं भोजन लाया हूँ वह भोजन करके मुझे कृतार्थ करें भगवान् ने फरमाया कि हे राजन् ! मुनियों के लिये बनवाया हुआ भोजन मुनियों को करना नहीं कल्पता है इस पर भरत बडा उदास हो गया कि अब इस भोजन का क्या करना चाहिये ? उस समय इन्द्र ने फरमाया कि हे भरतेश ! यह भोजन श्रापसे गुणी हो उसको करवा दीजिये तब भरत ने सोचा कि मैं तो प्रति सम्यष्टि हूँ मेरे से अधिक गुणवाले देशव्रती हैं तब मरत ने देशव्रती उत्तम श्रावकों को बुलवा कर वह जन उनको करवा दिया और कह दिया की आप सब लोग यहां ही भोजन किया करो बस फिर क्या था ? सिधा प्रोजन जीमने में कौन पीछा हटता है फिर तो दिन व दिन जीमनेवालों कि संख्या इतनी बढ़ने लगी कि रसोया बरा उठा जिससे भरत महाराज को सबहाल अर्ज किया तब भरत ने उन उत्तम श्रावकों के हृदय पर कांगनी रत्नले न तीन लीक खांच के चिन्ह कर दीया मानों वह "यज्ञोपवित" ही पहना दी थी भोजन करने के बाद उन को भरत ने कह दिया की तुम हमारे महेल के दरवाजा पर खडे रह कर, हरसमय “जितोभगवान् ते भयं तस्मान्माहन माहने" एसा शब्दोच्चारन किया करो श्रावकों ने इसको स्वीकार कर लिया इसका तलब यह था कि भरतमहाराज सदव राज का प्रपंच व सांसारिक भोगबिलास में मग्न रहता था जव कभी के शब्द सुनता तब सोचता था कि मुझे क्रोध मान माया लोभने जीता है और इनसे ही मुझे भय है इससे को बड़ा भारी बैराग्य हुआ करता था जब वृद्ध श्रावक वारवार माहन माहन शब्दोच्चार करते थे इससे janelbrary.org Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ ] लोक उनको महाण ब्राह्मण अर्थात् जैनसिद्धान्तोंमें ब्राह्मणोको माहण शब्द से ही पुकारा है अनुयोगद्वारसूत्र में ब्राह्मणों का नाम “वुदसावया" वृद्धश्रावक भी लिखा है। जब ब्राह्मणों की संख्या बढ़ गई तब भरत ने सोचा कि वह सिधा भोजन करते हुए प्रमादी पुरुषार्थ हीन न बन जावे वास्ते उनके स्वाध्याय के लिये भगवान् श्रादीश्वर के उपदेशानुसार चार आर्य वेदों * की रचना करी उनके नाम (१) संसारदर्शनवेद (२) संस्थापनपरामर्शनवेद (३) तत्वबोधवेद (४) विद्याप्रबोध वेद इन चारों वेदों का सदैव पठन पाठन ब्राह्मणलोक किया करते थे और जनता को उपदेश भी दिया करते थे तथा छे छे मास से उनकी परीक्षा भी हुआ करती थी। आगे नौवां सुत्रिधिनाथ भगवान के शासन में हम बदलावेंगे कि ब्राह्मणों ने उन आर्य वेदों में कैसा परिवर्तन कर स्वार्थवृत्ति और हिंसामय वेद बना दिया । भगवान् ऋषभदेव का सुवर्णकान्तिवाला ५०० धनुष्य व वृषभ का चिन्हवाला शरीर या ८४ लक्ष पूर्व का आयुष्य था जिसमें ८३ लक्ष पूर्व संसार में १००० वर्ष छग्रस्थपने और एक हजार वर्ष कम एकलक्ष पूर्व सर्वज्ञपणे भूमिपर विहार कर असंख्य भव्यात्मानों का कल्याण किया अर्थात् जैनधर्म अखिल भारत व्याप्त बना दिया था । श्राप आदि राजा, श्रादि मुनि, आदि तीर्थकर, श्रादि ब्रह्मा, आदि ईश्वर हुए पुंडरिक गणधर तो पांचक्रोडी मुनियों के परिवार से पवित्र तीर्थ श्रीशजय पर मोक्ष गये जिस शāजय पर भगवान् ऋषभदेव ननाणु पूर्ववार समवसरे थे अन्त में भगवान् ! अष्टापद पर्वत पर दशहजार मुनियों के साथ माघ वदी १३ को निर्वाण पधार गये इस अवसर पर शेक युक्त इन्द्रों ने भगवान का निर्वाण कल्याणक किया भगवान् के शरीर का जहां पर अग्निसंस्कार किया था। वहां पर इन्द्र ने एक रत्नों का विशाल स्तूप बनवा दिया और एक एक गणधर व मुनियों के स्थान भी स्तूप बंधवाया था भगवान् के दाडों व अस्थि इन्द्र व देवता ले गये थे और उनका पूजन प्रक्षालन वन्दन भक्ति जिनप्रतिमा के तुल्य किया करते हैं। जैसे एक सर्पिणी काल में २४ तीर्थकर होने का नियम है वैसे ही १२ चक्रवर्ति राजा होने का भी नियम है । इस काल में बारह चक्रवर्ति राजाओं में यह भरत नामा चक्रवर्ति पहला राजा हुआ है इन की ऋद्धि अपरम्पार है जैसे चौदह रत्न के नौनिधान + पच्चीस हजार देवता वत्तीस हजार मुकटबंध राजा सेवा में चौरासी हजार २ हस्ती रथ अश्व-छन्नक्रोड पैदल और चौसठहजार अन्तरादि । छे खंड साधन करते हुए को ६० हजार वर्ष लगा था ऋषभकूट पर्वत पर आप के दिग्विजय की प्रशस्तिएं भी अंकित की गई थीं उस समय के आर्य अनार्य सब ही देशों के राजा आप की आज्ञासादर शिरोधार्य करते थे और आर्य-अनार्य राजाओं ने अपनी पुत्रियों का पाणिप्रहन भी सम्राट के साथ किया था इत्यादि जो आज पर्यन्त इस आर्यव्रत का नाम भारतवर्ष है वह इसी भरत सम्राट् कि स्मृति रूप है । __भरत सम्राद् ( चक्रवर्ति ) ने छे खंड में एक छत्र न्याययुक्त राज कर दुनिया की बड़ी भारी आबादी (उन्नति ) करी आपने अपने जीवन में धर्म कार्य भी बहुत सुन्दर किया अष्टापद पर चौबीस तीर्थकरों के चौबीस मन्दिर और अपने ९८ भाइयों का "सिंहनिषद्या" नामका प्रासाद, श्री शत्रुजयतीर्थ का संघ और भी अनेक अनेक सुकृत कार्य कर अन्त में पारिसा का भुवन में आप विराजमान थे उस समय एक अंगुली से * सिरि भरत चक्वटी आरिय वेयाणवि स्सु उत्पत्ती, माहण पडणास्थमिण, कहियं सुहझोण ववहारं ॥ १ ॥ जिण तित्थे बुच्छिन्ने, मिच्छते माहणेहिं ते उविया ॥ भस्संजयाणं पूआ, अप्पणं काहिया तेहिं ॥ २ ॥ ॐ नौनिधान नैसर्ग, पांडक, पिंगळ सर्वरत्न, पद्म महापद्म, माणव, संक्ख ! काल + चौदह रत्न-सैनापति, गाथापति, घडाई पुरोहित, स्त्रि, हस्ती, अश्व, चक्र, छत्र, चामर, मणि, कांगणि, असी, बरखा एवं १४ रन थे। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . ४७ ] का गिरजाने से दर्पण में अंगुली अनिष्ट दीखने लगी तब स्वयं दूसरे भूषण उतारते गये वैसे ही शरीर स्वरूप भयंकर दिखाई देने लगा बस ! वहां ही अनित्य भावना और शुक्लध्यान क्षपकश्रेणि आरूढ़ हो विल्यज्ञान प्राप्त कर लिया बाद देवतों ने मुनिवेष दे दिया दश हजार राजपुत्रों को दीक्षा दे आपने कई वर्ष कि जनता का उद्धार कर आखिर मोक्ष में अक्षयसुख में जा विराजे ।। भरत महाराज चक्रवर्ती राजा था इनो के बहुत सी ऋद्धि थी पर इनका अन्तरआत्मा सदेव पवित्र हता था एक समय भरत ने आदेश्वर भगवान से पूछा कि हे प्रभो ! मेरा भी कभी मोक्ष होगा १ भगवान् कहा कि भरत ! तुम इसी भव से मोक्ष जावोगे । इतने में किसी ने कहा कि वहा बाप तो मोक्ष देने वाला पौर पुत्र मोक्ष जाने वाला जिस भरत के इतना बड़ा भारी आरंभ परिग्रह लग रहा है फिर मी इसी भव में मोक्ष हो जावेगा क्या अाश्चर्य है इस पर भरतने चौरासी बजारों के अन्दर सुन्दर न्दिर नाटक मंडा दिये और आश्चर्य करने वाले के हाथ में एक तेल से पूर्ण भरा हुआ कटोरा दिया और चार मनुष्य नंगी तलवार वालों को साथ कर दिया कि इस कटोरा से एक वूद भी तेलगिर जावे तो इसका शिर बाट लेना, ( यह धमकी थी ) बस ! जीवका भय से उस मनुष्य ने अपना चित्त उसी कटोरे में रखा न तो उसको मालुम हुआ कि यह नाटक हो रहा है ? न कोई दूसरी बात पर ध्यान दिया, सब जगह फिर के गापिस आने पर भरत ने पूछा कि बजारों में क्या नाटक हो रहा है ? उसने कहा भगवान् मेरा जीव तो इस तेल के कटोरे में था मैंने तो दुसरा कुछ भी ध्यान नहीं रखा भरत ने कहा कि इसी माफिक मेरे प्रारंभ परिग्रह बहुत है पर दर असल उसमें मेरा ध्यान नहीं है मेरा ध्यान है भगवान् के फरमाया हुआ तत्त्वज्ञान में यह दृष्टान्त हरेक मनुष्य के लिये बड़ा फायदामंद है इति । पहले का उदाहरण । भरत के मोक्ष होने के बाद भरत के पाट आदित्ययश राजा हुआ और बाहुबल के पाट चंद्रयश राना हुआ इन दोनों राजाओं की संतान से सूर्यवंश और चन्द्र वंश चला है और कुरु राजा की संतान से कुरुवंश चला है जिसमें कौरव पांडव हुए थे। भरत के पास कांगणी रत्न था जिससे ब्राह्मणों के तीन रेखा लगा के चिन्ह कर देता था पर श्रादित्यबस के पास कांगणी न होने से वह सुवर्ण कि जनेउ दे दिया करता था बाद सोना से रूपा हुश्रा रूपा से शद्ध पंचवर्ण का रेशम रहा बाद कपास के सूत की दी जाति थी वह आज पर्यन्त चली आती है। भरत राजा के आठ पाट तक तो सर्व राजा बरावर भारीसाके भुवन में केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गले और भी भरत के पाट असंख्य राजा मोक्ष गये अर्थात् भगवान् ऋषभदेव का चलाया हुवा धर्म: सन पचास लक्ष कोड़ सागरोपम तक चलता रहा जिस में असंख्यात जीवों ने अपना आत्मकल्याण कि मा इति प्रथम तीर्थक्कर, (२) श्री अजितनाथ तीर्थंकर-विजय वैमान से तीन ज्ञान संयुक्त वैशाख शुद १३ को अयोध्या के जयशत्रु राजा की विजयाराणी की रत्नकुक्षी में अवतीर्ण हुवे । माता ने चौदह स्वप्ने देखे जिसका ल राजा व स्वप्नपाठकों ने कहा माता को अच्छे अच्छे दोहले उत्पन्न हुवे उन सबको राजा ने सहर्ष कये बाद माघ शुद ८ को भगवान का जन्म हुवा छप्पन्न दिग्कुमारि देवियों ने सूतिका कर्म किया और इन्द्रमय देवी देवताओं के भगवान् को सुमेरु गिरिपर लेजा कर जन्माभिषेक स्नात्रमहोत्सव किया तद राजा ने भी बड़ा भारी आनंद मनाया युवकवय में उच्च कुलीन राजकन्याओं के साथ भगवान् का महण करवाया भगवान् का शरीर सुवर्ण कान्तिवाला ४५० धनुष्य प्रमाण गजलंच्छन कर सुशोभित व सांसारिक यानि पौद्गलिक सुखों से विरक्त हुवे उस समय लोकान्तिक देवों ने भगवान से अर्ज करी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 85 ) कि हे प्रभो ! समय श्रा पहुँचा है आप दीक्षा धारण कर भगवान ऋषभदेव के चलाये हुवे धर्म का उद्धार करो तब माघ वदी ९ को एक हजार पुरुष के साथ भगवान् ने दीक्षा धारण करी उम्र तपश्चर्या करते हुये पौष व १९ को भगवान् ने कैवलज्ञान प्राप्त किया भगवान् ऋषभदेव के प्रचलित किए हुए धर्म को वृद्धि करते हुवे सिंहसेनादि एकलक्ष मुनि फाल्गुनी आदि तीन लक्ष तीसहजार श्रार्यकाए दो लक्ष अठानवे हजार श्रावक, पंचलक्ष पैंतालीस हजार श्राविकाओं का सम्प्रदाय हुआ क्रमशः बहत्तरलक्ष पूर्व का सर्व प्रायुष्य पूर्ण कर सम्मेतशिखर पर्वतपर चैतशुद ५ को भगवान् मोक्ष पधारे आपका शासन तीसलक्ष कोड सागरोपम तक प्रवृतमान रहा । उस समय प्रायः राजा प्रजा का एक धर्म जैन ही था । आपके शासन में सागर नाम का दूसरा चक्रवर्ती हुआ वह अयोध्या नगरी के सुमित्रराजा के यशोमतिराणीकी कुक्षीसे चौदह स्वप्न सूचीत पुत्र हुआ जिसका नाम "सागर" था वह ४५० धनुष्य का शरीर ७२ लक्ष पूर्वका आयुष्य शेष छे खण्डादिका एक छत्रराज वगैरह भरत चक्रवर्ती की माफिक जानना विशेष सागर के साठ हजार पुत्रों से जन्हुकुमार ने अपने भाईयों के साथ एक समय अष्टापद तीर्थपर भरतके बनाये हुये जिनालयों की यात्रा करी विशेष में उनका संरक्षण करने के लिये चौतरफ खाई खोद गंगानदी की एक नहर लाके उस खाई में पाणी भर दिया और जन्हुकुमार का पुत्र भागीरथ ने उस अधिक पाणी को फिर से समुद्र में पहुँचा दिया जब से गंगा का नाम जन्ही व भागीरथी चला पर उस पाणी से नागकुमार के देवों को तकलीफ होने से उन सब कुमारों को वहां ही भस्म कर दिया अस्तु ! सागर चक्रवर्ती अन्त में दीक्षा पहन कर कैवल्यज्ञान प्राप्तकर नाशमान शरीर छोड़के आप अक्षय सुखरूपी मोक्ष मन्दिर में पधार गये । भगवान् ऋषभदेव के पश्चात् दूसरे तीर्थङ्कर भ० अजितनाथ इनके बाद तीसरे संभवनाथ चतुर्थ अभिनन्दन पांचवे सुमतिनाथ छटे पद्मप्रभ सातवें सुपार्श्वनाथ आठवें चन्द्रप्रभ नोर्वे सुबुद्धिनाथ यहां तक तो समाज एवं धर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि होती आई पर भ० सुबुद्धिनाथ से पन्द्रहवें धर्मनाथ का शासन तक श्ररूपकाल चल कर बीच बीच में शासन विच्छेद होता गया जिससे माहाणों (ब्राह्मणों) की जुल्मी सत्ता बढ़ती गई उन्होंने मूल चार वेदों में भी काफी परिवर्तन करके अपने स्वार्थ के ऐसे विधि विधान रच डाले कि जिस से संसार अध: पतन होकर रसातल में पहुँचने लगा । जब सोलहवें भ० शान्तिनाथ का शासन प्रवृतमान हुआ तब से संसार में शान्ति का प्रचार हुआ आगे सतरहवें कुन्थुनाथ अठारहवें अरेनाथ उन्निसर्वे मल्लिनाथ और बीस मुनिसुव्रत के शासन में पर्वतने महाकाल देव की सहायता से मांस भक्षण का एवं यज्ञादिका जोरों से प्रचार किया बाद एक बीसवें नमिनाथ और बाईसवें नेमिनाथ के शासन में मांस का प्रचार ग्राम तौर से राजा महाराजाओं के यहां लग्नसादियों में भी प्रयोग होने लगा पर भ० नेमिनाथ ने अपने शासन में मांस का प्रचार पर अंकुश लगा कर अहिंसा के प्रचार को बढ़ाया इसी प्रकार भ० पार्श्वनाथ और भ० महावीर ने तो अहिंसा का सर्वत्र प्रचार बढ़ा दिया इन चौवीस तीर्थकरों का विस्तृत हाल आगे चलकर हम कोष्ट द्वारा लिखेंगे । हाँ चौवीस तीर्थङ्करों में विशेष वर्णन तो भ० ऋषभदेव का ही था वह हम लिख आये हैं। शेष तीर्थकरों के शासन में जो विशेष घटना घटी है जिसको ही हम यह संक्षिप्त से लिख देते हैं जब कि हमारा खास उद्देश्य तो म० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लिखने का ही था पर कई सज्जनों का यह भी मह रहा कि इतना बड़ा प्रन्थ में कम से कम चौवीस तीर्थङ्करों का संक्षिप्त से जाना चाहिये कि पाठकों को उनके लिये अन्योन्य पुस्तकों को ढूंढना नहीं पड़े । श्रवः उन आह को मान देकर शेष तीर्थङ्करों के शासन की विशेष घटना यहां लिखदी जाती हैं । १ - भ० ऋषभदेव तथा चक्रवर्ति भरत का अधिकार तो विस्तार से कर दिया है । भी वर्णन सज्जनों के Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४ ] २-भ० अजितनाथ के शासन में दूसरा सागर नामका चक्रवर्ति हुआ उनके ६०००० पुत्र थे जिसमें मन्हूकुमार ने अष्टापदतीर्थ रक्षार्थ पर्वत के चारों ओर खाई खोदी जिसमें नीचे रहने वाले नागकुमार जाति के देवों को तकलीफ होने लगी उन्होंने रोका भी पर कुँवरों ने गंगा नदी से एक नहर लाकर उन खाई में डालदी इस हालत में देवताओं ने उन ६०००० पुत्रों को एक ही साथ में बालकर भस्म कर दिये जिसके वैराग्य से चक्रवर्ति सागर ने दीक्षा स्वीकार करली। ३-भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर । जैनधर्म के जम्बुद्वीपपन्नति सूत्र में भ० ऋषभदेव का चरित्र विस्तार से लिखा है और प्राचीन काल से ही जैन ऋषभदेव को प्रथम तीर्थकर मानते आये हैं इतना ही क्यों पर हजारों वर्षों से जैनों में भ० ऋषभदेव की मूर्तियाँ पूजी जाती हैं। ब्राह्मणों के प्राचीन शास्त्र वेद हैं उन वेदों में अवतार होने का कहीं पर उल्लेख नहीं है पर अर्वाचीन लोगों ने दश अवतारों की! कल्पना की तथा कहीं कहीं दश अवतारों के मन्दिर भी बनाये गये तथा पुराणों में कहीं कहीं दश अवतारों का उल्लेख भी किया है जैसे: “मत्स्य१ कूर्मो२ बराहश्च३ नरसिंहोऽय४ वामनः५ । रामो६ रामश्च७ कृष्णश्च८ बुद्ध९ कल्की१० चेत दशः ॥१॥ अर्थात् मच्छावतार, कच्छा०, सूअर०, नरसिंह, वामन, राम, परशुराम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की इस प्रकार दशावतारों की कल्पना की इसमें भी विशेषता यह है कि महात्मा बुद्ध ब्राह्मण धर्म का कट्टर विरोधी होने पर भी उनको अवतारों में स्थान दिया । अस्तु । जब पुराणकारों को दशावतार से संतोष नहीं हुआ और जैनों में प्राचीन काल से २४ तीर्थङ्करों की मान्यता को देख उन्होंने भी चौबीस अवतारों की कल्पना कर डाली जिसमें भ० ऋषभदेव को आठवाँ अव. वार मान लिया और जैनशाखों में भ० ऋषभदेव का चरित्र वर्णित था ज्यों का त्यों भागवत पुराण में लिख दिया। भागवत के लिये कई विद्वानों का मत है कि विक्रम की पन्द्रहवी सोलहवीं शताब्दी में किसी वामदेव बंगाली ने भागवत की रचना की है अतः भ० ऋषभदेव के लिये ब्राह्मणों के प्राचीन प्रन्थों में उल्लेख नहीं है। दूसरा जब हिन्दू भाई ऋषभदेव को सृष्टि का आदि करता भी मानते हैं फिर वे पाठवा अवतार पन ही कैसे सकते ? कारण ऋषभ को आठवां अवतार माना जाय तो उनके पूर्व सात अवतार और भी हुए होंगे और सात अवतारों के समय सृष्टि का अस्तित्व अवश्य ही था फिर ऋषभ को सृष्टि का आदि मानना परस्पर विरुद्ध ही है इत्यादि प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि भ० ऋषभदेव के विषय में पुराणकारों ने जैन मान्यता का ही अनकरण किया है अर्थात् जैनशास्त्रों के अन्दर से ऋषभदेव की कथा को लेकर भागवत पुराण में ऋषभावतार की कथा गड़ डाली है। जैसे पुराणकारों ने भ० ऋषभदेव के लिये कल्पित कथा लिख कर उनको अवतार माना है वैसे ही भ० रामचन्द्र और श्रीकृष्ण के लिये उनको भी अपने अवतारों में स्थान दे दिया है । वास्तव में भ० रामचन्द्र और श्रीकृष्ण जैन नरेश थे परन्तु पुराणकारों ने ऋषभदेव को श्राठवां अवतार की कल्पना की है इससे राम ... भागवत एक उत्कर्ष रसपूर्ण ग्रंथ छे ए सहकई ने मान्य छे परन्तु आपणे धारिये छेए एटलो ते प्राचीन नथी छगभग ५०० वर्ष पहिले बंगालमा मुसलमानांना राज्य ना वखत में थई थयेला बोपदेव नामना विद्वान ए ग्रंथ बनान्यो छे कृष्णभक्ति नो प्रचार आ ग्रंथ थी वध्यो छे भा खरू । परन्तु ए इतिहास नथी भा बात ध्यान में राखवी गोइये" Jain Education Namational e & "बहुगदेवी कुल पार्योना तेहवार नो इतिहास ५० १५०" Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५० ] चन्द्र और श्री कृष्ण की कल्पना प्राचीनकाल की अवश्थ है । पर जब भ० रामचन्द्र और श्रीकृष्ण के समय की तुलना कर के देखा जाय तो पाठकों को विदित हो जायगा कि उक्त दोनों नरेश जैनधर्म के परमोपासक ही थे जैनों के प्राचीन एवं मूल श्रागमों में इन दोनों का उल्लेख मिलता है जिसमें भी श्रीकृष्ण तो खास जैनों के बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के भाई थे वे जैनधर्म के उपासक एवं प्रचारक हों इसमें आश्चर्य की बात ही क्या हो सकती है अस्तु पुराणकारों की मान्यता है कि म० रामचन्द्र द्वापर के अन्त में हुए जिसको करीब ५०००० वर्ष हुए हैं। तथा श्रीकृष्ण त्रेतायुग के अन्त में हुए जिसको करीब साधिक ५००० वर्ष हुए । साथ में यह भी लिखा है कि भ० रामचन्द्र के पिता राजा दशरथ की आयु ६०००० वर्ष की थी और भ० रामचन्द्रजी ने ११००० वर्ष अयोध्या में राज किया था। पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि ५०००० वर्ष पूर्व ६०००० वर्ष का आयु होना कैसे संभव हो सकता है जब कि दाई हजार वर्ष पूर्व भ० महावीर और महात्मा बुद्ध हुये जिनका श्रायु ७२-८० वर्ष का था तथापि हम उस समय औसत आयु १०० वर्ष की समझ ले तो उसके पूर्व २५०० वर्ष में मनुष्य का कितना आयु होना चाहिये १ डेढ़सी या दोसौ से अधिक नहीं हो सकता है तब ५०.०० वर्षों पूर्व मनुष्यों का ५०.०० या ६०००० वर्षों का आयुष्य होना सर्वथा असंभव ही है जब जैन शास्त्रकारों ने भरामचन्द्र को तीर्थकर मुनिसुव्रत के शासन में होना बतलाया हैं जिसका समय करीब ११८७००० वर्ष पूर्व का है इस हालत में भ. रामचन्द्र ने अयोध्या में ११००० वर्ष राज किया हो तो असंभव नैसी कोई बात नहीं है। इसी प्रकार श्रीकृष्ण का समय भी करीब ८७००० वर्षों का जैनों ने माना है और ८७००० वर्षों पूर्व श्रीकृष्ण का १००० वर्ष का आयुष्य होना ठीक संभव हो सकता है उपरोक्त प्रमाणों से भ० ऋषभदेव रामचन्द्र और श्रीकृष्ण जैनधर्म के ही महापुरुष हुए हैं जब इन्हों की ख्याति बहुत प्रसरित हो गई तब पुराणकारों ने जैनों की कथायें लेकर पुराणों में दाखिल कर उन महापुरुषों को वैदिकधर्म मानने वाले लिख दिये खैर पूण्य पुरुष तो सब के लिये पूजनीय ही होते हैं पर मैंने यहां पर वास्तव सत्य क्या है इसके लिये संक्षिप्त उल्लेख कर दिया है।। ४-बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के शासन में भ० रामचन्द्र लक्ष्मण और रावण हुए जिनका विस्तृत वर्णन पद्मचरित्र एवं त्रिषष्टसिलाग पुरुष चरित्र में है उसमें रावण के विषय में लोग रावण के दशमुख होना कहते हैं पर वास्तव में बात ऐसी नहीं है जैनशास्त्रकार लिखते हैं कि रावण के पूर्वजों से उनके वहाँ नौमाणक का एक हार था वह इतना बड़ा और वजनदार था कि साधारण मनुष्य उसको उठाकर गला में पहन ही नहीं सकता था पर रावण इतना शक्तिशाली था कि उस हार को अपने गला में पहन लेता था जिससे उन नौमाणकों में रावण के मुँह का प्रतिबिम्ब पड़ने से नौमुख तथा एक रावण का असली मुख एवं देखने वालों को दशमुख दीखता था जिससे लोग कहते थे कि रावण के दशमुख थे । पर वास्तव में रावण के मुख तो एक ही था पर नौमाणक के हार के प्रभाव से दशमुख दिखते थे। ५-बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के शासन में कृष्ण बलभद्र हुए इन वीरों का चरित्र भी जैनशास्त्रों में विस्तार से लिखा गया है । जैनशास्त्रों के अनुसार श्रीकृष्ण भविष्य में अर्थात् श्रावती चौबीसी में अमाम नाम का बारहवां तीर्थकर होगा अतः जैनधर्म में श्रीकृष्ण के जीव का उतना ही उच्चासन है कि जितना (१) चतुरंग समायुक्तं मया सह च तं नया । षष्टि वर्ष सहस्राणि, जातस्य मम कौशिक ।। (बा० स० का० १ सर्ग २०) (२) दश वर्ष सहस्राणि, दश वर्ष शतानि च । रामो राज्य मुपासित्वा ब्रह्मलोक प्रयास्यति ॥ (बा. रा.बालकाण्ड सर्ग: श्लोक ९०) For Private & Personal use on w.jarrelibrary.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१ ] तीर्थकरों के लिये है श्रीकृष्ण भविष्य में तीर्थकर होने से जैनसंघ वर्तमान में भी प्रतिदिन सातवार नमस्कार करते हैं। इस बात को जैनधर्म अच्छी तरह से मानता है कि चाहे समान जीव हो चाहे विशेष जीव हो अपने किये हुये कर्म अवश्य भुगतने पड़ते हैं जैसे भ० महावीर तीर्थङ्कर होने पर भी महावीर के भव में भी उनको अपने संचित कर्म भुगतने ही पड़े थे इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने भी कोपार्जन किये थे कि कौसंबी के बन में आपको अकेले जगॉवर के बान से शरीर छोड़ तीसरी पृथ्वी बालुकप्रभा में उत्पन्न होना पड़ा। इसी प्रकार हमारे कृष्णभक्त भी कृष्ण को बल राजा के द्वार तप करना मानते हैं यह भी एक प्रकार के कर्मों का ही फल है। ६-श्रीकृष्ण को ईश्वर अवतार परमेश्वर या कर्ताहर्ता की मान्यता कब से ? त्रिषष्ठीसिलाग पुरुष चरित्र में उल्लेख मिलता है कि जब श्रीकृष्ण कोसंबी बन में जराकुँवर के बान से शरीर छोड़ बालुका प्रभा में गये बाद बलभद्र ने दीक्षा ली और वे भी शरीर छोड़ पांचवें स्वर्ग में देव पने उत्पन्न हुए उन्होंने अपने झान से कृष्ण को बालुकाप्रभा में देखकर पूर्व भव के भ्रातृस्नेह के कारण आप भी कृष्ण के पास गये और कृष्ण को पीछला भव सुनाने से कृष्ण को भी भान हुआ और पूर्व संचित कर्मों का पश्चाताप हुआ बलभद्र का जीव देव ने कहा कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकू ? इस पर कृष्णने.कहा मेरा कर्म तो मुझे भोगना ही पड़ेगा पर मैंने पूर्व भव में यदुवंश को बदनाम किया है अतः आप भरतखण्ड में जाकर देवशक्ति से मेरी और आपकी पूजा हो ऐसा प्रयत्न करो अतः बलभद्र का जीव देवता वैक्रय लब्धि से विमान बना कर एक में चक्र गदा शंख सहित पीत वस्त्र वाला कृष्ण का रूप दूसरा में हल मुसल एवं नील वसा वाला बलभद्र का रूप बनाकर भरतक्षेत्रमें आये और लोगों को कहने लगे कि हम कृष्णबलभद्र ईश्वर परमात्मा पूर्णब्रह्म हैं वैकुंठ में हमारा वास है हम स्वतंत्र घूमते हैं हमारी मान्यता करने वाले भक्तों को हम मनोवांछित सुख देते हैं हे लोगों यदि तुम तुम्हारा कल्याण चाहते हो या सुख शांति की अभिलाषा रखते हो तो श्रीकृष्ण बलभद्र की सुन्दर मूर्तियां बना कर खूब सेवा पूजा भक्ति करो जिससे वे दोनों ईश्वर तुम्हारे पर खूब प्रसन्न होंगे इत्यादि । कहा भी है कि "दुनियां मुकती है मुकाने वाला होना चाहिये" सुख शान्ति के इच्छुक लोग श्रीकृष्ण और बलदेव की स्थान २ पर मूर्तियां स्थापन कर उनको ईश्वर परमात्मा पूर्णब्रह्म कह कर सेवा भक्ति पूजा करने लगे उधर बलभद्रदेव उन भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने लगे बस फिर तो कहना ही क्या थोड़े ही समय में श्रीकृष्ण ओर वलभद्र की मतियां सवत्र फैल गई इस घटना को शायद पांच हजार वर्ष हुए हों । यही कारण है कि कृष्ण भक्त कृष्ण को होने में पांच हजार वर्ष बताते हैं। वास्तव में श्रीकृष्ण जीवित थे उस समय उनके लिये ईश्वर एवं अवतार की कल्पना किसी ने भी नहीं की थी पर उनके मरने के बाद हजारों वर्षों के पीछे वलदेव के जीव देवता ने ऊपर लिखानुसार कृष्णबलभद्र की मूर्तियों की स्थापना करवा के उनको ईश्वर परमात्मा के नाम से पुजाये थे तब से ही यह कथा चल पड़ी तत्पश्चात् तो कृष्णभक्तों ने उनके नाम पर ऐसे २ प्रन्थ भी रच डाले कि वे गोपियों के साथ नाच कूद एवं जलमज्जन करते थे महियरों का मक्खन चुग कर खाते थे इत्यादि यदि श्रीकृष्ण के मौजूदगी में उनके लिये ऐसी अश्लील बातें उठाई होती तो वे उनकी अवश्य ही खबर लेते खैर यहां तो केवल उन श्रीकृष्ण के सम्बन्ध की लोक प्रचलित बात का निर्णय करने के लिये संक्षिप्त से उल्लेख कर दिया है। श्रीकृष्ण एक नीति निपुण आधे भारत का राजा था उन्होंने पहली अवस्था में भारत विजय करने में कई स्थानों पर युद्ध भी किये थे पर जब श्रीकृष्ण के बाबा समुद्रविजय के पुत्र नेमिनाथ तीर्थकर हुए उनके Jain Education Interations For Private & Personase Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२ | उपदेश से श्राप ने जैनधर्म स्वीकार कर जैनधर्म का खूब प्रचार किया यहां तक कि उन्होंने यह उद्घोषना करवादी कि कोई भी व्यक्ति भ० नेमिनाथ के पास दीक्षा ले उनके लिये मैं जो चाहे सहायता करने को तैयार हूँ । इतना ही क्यों पर खास मेरे पुत्र एवं राणियां वगैरह कोई भी दीक्षा ले तो मैं बड़ी खुशी से आज्ञा देदेता हूँ । इस आज्ञा से श्रीकृष्ण की राणियों पुत्र और नागरिकों ने प्रभु नेमिनाथ के पास दीक्षा ली थी इस धर्म दलाली से ही श्रीकृष्ण श्रावती चौवीसी में अमामनाम के बारहवें तीर्थंकर होंगे। इस कारण जैन संघ श्रीकृष्ण को दिन प्रतिदिन ७ सातवार नमस्कार करते हैं । ७ शंका का समाधान — कई लोग यह शंका किया करते हैं कि जैनों ने मनुष्यों के कोसों तक शरीर और असंख्यत वर्षों का आयुष्य माना है यह कैसे संभव हो सकता है ? इस शंका के साथ हमारे भाई जैनों के माने हुए काल का भी ज्ञान कर लेते तो शंका को स्थान ही नहीं मिलता । मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि जिस किसी धर्म के शास्त्र के विषय में शंका करे तो पहले उन धर्म के सिद्धान्त का ज्ञान हासिल करले खैर । देखिये जैन सिद्धान्तों में तीन प्रकार का अंगुल माना है १ - प्रमाणां गुल २ आत्मगुल ३ उत्सेदांगुल । जिसमें प्रमाणांगुल तो भ० ऋषभदेव के हाथ की अंगुल । आत्मांगुल जिस समय जैसा मनुष्य हो उसके हाथ की अंगुल और उत्सेदांगुल श्राधे पांचवा श्रारे के लघु मनुष्यों की अंगुल । जिन मनुष्यों को जैनशास्त्र ने बड़े शरीर वाला माना है वे मनुष्य श्रात्मगुल से तो चार हाथ के ही होते हैं उनको बड़ा शरीर वाले कहते हैं वह उत्सेदांगुल की अपेक्षा से कहा जाता है जैसे एक दो वर्ष का बचा है वह अपने हाथ से चार हाथ का ही है पर उस दो वर्ष के बच्चा के हाथ से जवान मनुष्यों का नाप किया जाय तो करीब १५-१६ हाथ का हो सकता है यदि अपेक्षा के अज्ञात मनुष्य को कह दिया जाय कि श्राज के जवान, मनुष्य १५-१६ हाथ के होते है तो वह नहीं मानेगा पर जब उसको यह समझाया जाय कि हम जिस जवान मनुष्य को १६ हाथ के कहते हैं वह हाथ दो वर्ष के बच्चा का है तब उसकी समझ श्री जायगा इसी प्रकार असंख्याता काल पूर्व जो मनुष्य वे दीर्घ काय वाले तो थे ही फिर उनके शरीर का माप उन आधा पांचवा श्रारा के मनुष्यों की अंगुल से किया जाय तो उनके बड़े शरीर में शंका रही नहीं सकती है जैनो ने जिन मनुष्यों के शरीर को बड़ा माना है वह काल की अपेक्षा से माना है । देखिये भ० महावीर का शरीर उन आधा पांचवा श्रारे के मनुष्यों के हाथ के नाम से सात हाथ का माना है भ० महावीर के २५० वर्ष पूर्व पार्श्वनाथ हुए उनका शरीर ९ हाथ का था उनके ८३७५० वर्ष पूर्व बावीस नेमिनाथ हुए उनका शरीर १० धनुष्य का माना है उनके पूर्व पांच लक्ष वर्ष नमिनाथ हुए उनका शरीर १५ धनुष्य का था उनके पू' छ लक्ष वर्ष मुनिसुव्रत हुए उनका शरीर २० धनुष्य का था इस प्रकार ज्यों ज्यों काल बढ़ता जाता है त्यों त्यों शरीरमान भी बढ़ता जाता है और जैसे काल की अधिकता से शरीर का मान बढ़ता गया वैसे ही मनुष्यों का श्रायुष्य भी बढ़ता गया जब प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव को इतना काल होगया कि गिनती के भी परे है अर्थात् मनुष्य उस काल की गिनती नहीं लगा सकता है उनका शरीर ५०० धनुष्य को और आयुष्य ८४ लक्ष पूर्व की थी यदि मनुष्य के योग्य बुद्धि और अनुभव है वह तो इस बात को कदापि इन्कार नहीं कर सकता है । वर्तमान में पुरातत्व की शोध खोजसे कइ प्राचीन ऐसे भी पदार्थ मिले हैं कि जिनको बिना देखे कोह मुह से कह दे तो मानने में शंका ही रहती है जैसे एक मनुष्य की खोपडीमें एक सौ पौन्ड से भी अधिक गाहु भरा जा सकता है एक मनुष्य के दोनो आखों के बीच अठारहइंच का अन्तर, एक मनुष्य के पौने दो तोले का एक Jain एक दान्त है समुद्र में एक मच्छी चौरासी फटकी लम्बी जिसके तदरसे दो गाठे रूह की निकली हैं यदि ry.org Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ 1 पडों उदाहरण हमारी आखों के सामने उपालब्ध हैं जिसके कालकी हम गिनती लगासकते हैं जब गिनती के है जिनका काल उसकाल के पदार्थ कितने लम्बे चौड़े होंगे जिसका अनुमान लगाना बुद्धि के बहार की ही -है अत: जैनों के मृत भविष्य वर्तमान काल के ज्ञाताओं ने अपने तीक्षण ज्ञानसे जिस बातको अपने व द्वारा देखकर लिखी है उसमें शंका हो ही नहीं सकती है इत्यादि । ८-नौवों सुबुद्धिनाथ का शासन विच्छेद और ब्राह्मणभासों की उत्पतिः-इस समय हुन्डावसर्पिणी बल का महाभयंकर असर भ० सुबुद्धिनाथ के शासन पर इस कदर का हुआ कि स्वल्पकाल से ही आपके शासन का उच्छेद हो गया अर्थात सुविधिनाथ भगवान मोक्ष पधारने के बाद थोडे ही काल में मुनि, आर्याए श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ व सत्यागम और उनकी उद्घोषना करनेवाले लोप हो गये ।। भ० ऋषभदेव के अधिकार में लिख आये हैं कि राजा भरत ने चार आर्य वेद बनाकर जैन ब्राह्मणों ने दिये थे और वे उन वेदों द्वारा संसार का उपकार करते थे जिससे उन जैन ब्राह्मणों की मान्यता जैसे राजा महाराजा करते थे वैसे ही प्रजा भी करती थी, उस समय उनमें पूजा सत्कार के योग्य गुण थे । इस समय शासन उच्छेद होने से उन ब्राह्मणों में स्वार्थ वृत्ति से जो भगवान् आदीश्वर के उपदेश से भरतचक्रवर्ती ने चार आर्यवेद जनता के कल्याण के लिये बनाये थे उनमें इतना तो परिवर्तन कर दिया कि जहाँ निःस्वार्थपने जनता का कल्यान का रास्ता था वह स्वार्थवृति से दुनिया को लुटने का एवं अपनी आजीविका का साधन बना लिया और नये नये प्रन्यादि की रचना भी कर डाली। कारण उस जमाने की जनता ब्राह्मणों के ही आधीन हो चुकी थी, सब धर्म का ठेका ब्राह्मणभासों ने ही ले रखा था ; तब तो उन्होंने गौदान, कन्या हान भूमिदान आदि का विधि-विधान बना के स्वर्ग की सड़क को साफ कर दी। इतना ही नहीं किन्तु ऐसे भी प्रन्थ बना दिये कि जो कुच्छ ब्राह्मणों को दिया जाता है वह स्वर्ग में उनके पूर्वजों को मिल जाता हैं तथा ब्राह्मण है सो ही ब्रह्मा है इत्यादि । क्रमशः धर्मनाथ भगवान के शासन तक जैनधर्म स्वल्पकाल उदय और विशेषकाल अस्त होता रहा इस सात जिनान्तर में उन ब्राह्मणभासों का इतना तो जोर बढ़ गया कि इनके आगे किसी की चल ही नहीं सकती थी ब्राह्मणों को इतने से ही संतोष नहीं हुआ था पर उन आर्यवेदों का नाम तक बदल के उनके स्थान पर ऋग्वेद, युजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नाम रख दिया. इन वेदों में भी समय समय परिवर्तन होता गया था, जिस किसी की मान्यता हुई वह भी इनमे श्रुतियाँ मिलाते गये. अन्त में यह छाप ठोक दी कि वेद ईश्वरकृत है और इन देशों को न माने वह नास्तिक हैं । वेदों में विशेष श्रुतियाँ हिंसामय यज्ञों के लिये ही रचि दी गई थी। जिसमें भी याज्ञवल्क्य सुलसा और पिप्पलादने तो नरमेघ, मातृमेघ, पितृमेघ, गजमेघ, अश्वमेघ तक का मी विधिविधान ठोक मारा और ऐसा यज्ञ किया भी था। वेदों में "याज्ञवल्केतिहोवाच" यानि याज्ञवल्क्य ऐसा कहता है और उपनिषदों में कहीं कहीं पिप्पलाद का भी नाम आता है । इत्यादि 8-भ० शीतलनाथ के शासन में हरिवंश की उत्पति कौसंवी नगरी में एक वीर नाम का सालवी रहता था उसकी स्त्री वनमाल बहुत रूपवंती थी जिसको राजा ने बलात्कार अपनी रानी बना ली जिससे वीर पागल होकर नगर में वनमाला २ करता फिरता था एक दिन राजा और वनमाला ने झरोखा में बैठे हुए वीर को पागलसा फिरता हुआ देखा तब उन दोनों के दिल में आया कि अपुनलोगों ने अन्याय किया इत्यादि भद्रिक परिणाम आते ही उन दोनों पर विद्युत्पात होने * इस विषय में मुनिवरयं श्रीदर्शनविजयजोम की लिखी विश्वरचना नाम की पुस्तक का अवलोकन करना चाहिये । For Private os Personal Use Only www.janelibrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] से वे दोनों मर कर हरिवास युगल क्षेत्र में युगल योनि में उत्पन्न हुए। इधर राजा और वनमाल की अकस्मात् मृत्यु हुआ देख वीर का चित्त स्थिर हो गया कि इन्होंने किया जैसा ही पाया । वीर ने संसार का स्वरूप देख तापसी दीक्षा ले ली और तप करता हुआ वह मर कर देव योनि में उत्पन्न हुआ फिर उसने ज्ञान लगाकर देखा तो राजा और वनमाला युगल मनुष्य पने पैदा हुए और वहाँ से मर कर देव होंगे । इस हालत में देव ने अपना बदला लेने को अर्थात् उनको भविष्य में कष्ट पहुँचाने को उन दोनों के आयुः दह का संक्रमण कर चम्पानगरी में लाया वहाँ का राजा चण्डकीर्ति अपुत्रिया मर गया था वहाँ के लोग इस बात का विचार कर रहे थे कि अपने नगरका राजा कौन होगा ? उस समय देवता ने उन लोगों को कहा कि यह हरि राजा औरहरिणी राणी तुमको दिये जाते हैं यही तुम्हारा राजा होगा पर एक बात याद रखना कि तुम लोग इन राजा-राणी को फलाहर के साथ मांस मदिरा भी खिलाना और भोग विलास में खूब सहायता करते रहना तब ही तुम लोग सुखी रहोगे । इत्यादि जैसे देवताने कहा वैसे ही नगर के लोगों ने किया जिससे वह राजा एवं राणी मर कर नरक में जाकर घोर दुखों का अनुभव करने लगे इति उस हरि राजा की सन्तान हरिवंश के नाम से प्रसिद्ध हुई । इस हरि वंश में बीसवें मुनिसुव्रत तीर्थकर हुए और आगे चलकर राज यादुसे हरिवंश का नाम यादुवंश प्रचलित हुआ जिसका थोड़ा सा परिचय राजा वसु के अधिकार में करवाया जायगा । - पर्वत और महाकाल देव के द्वारा पशुबध रूपी यज्ञ का प्रचार जिस समय सम्राट रावण दिग्विजय कर वापिस आ रहा था मार्ग में भय भ्रांत हुए नारदजी ये रावण ने पूछा कि आप ऐसे क्यों १ नारद ने कहा कि राजपुर का राजा मरुत मांस पीपासु ब्राह्मणों की बहकावट में आकर पशुवध रूप यज्ञ करवाता था उस समय मैं वहां चला गया राजा को उपदेश दिया इतने में ब्राह्मण लोग लाठी पत्थर से मारने के लिये मेरे पिच्छे हो गये मैं वहां से भागकर आपके पास आया हूँ आप उन पशुओं को अभयदान दिला कर अहिंसा का प्रचार करें इत्यादि । इस पर रावण नारदजी को साथ लेकर राजपुर गये और मरुत राजा को मधुर बचनों से समझा कर एवं यज्ञ बंद करवा कर राजा को हिंसा का उपासक बनाया । कारण रावण की आज्ञा सर्वत्र मान्य थी यही कारण है कि जैन राजाओं को ब्राह्मणोंने राक्षस के नाम से लिख मारा है कि हमारे यज्ञों को राक्षस विध्वंस कर डालते थे वे राक्षस थे अहिंसा धर्म के उपासक जैन राजा । एक समय सम्राट् रावण ने नारद से पूछा कि इस प्रकार हिंसामय यज्ञ किसने चलाये ? उत्तर में नारद ने कहा कि सुक्तमुता नगरी में अभिचन्द नामक राजा राज्य करता था जिसके एक वसु नाम का पुत्र था वह न्यायी सत्यवक्ता बड़ा ही धर्ममात्मा था उस नगरी में खीरकदम्ब उपाध्याय भी रहता था जिसके पर्वत नाम का पुत्र था मैं वसुकुवर और पर्वत ये तीनों उपाध्यायजी के पास पढ़ते थे एक दिन हम तीनों छत पर सो रहे थे निद्रा भी आ गई पर उपाध्यायजी जागृत थे उस समय आकाश से दो चारण मुनि जा रहे थे जो ज्ञानी थे उन्होंने कहा कि इन तीनों विद्यार्थियों में दो नरक गामी है और एक स्वर्ग गामी है। उपाध्याय जी ने उनकी परीक्षार्थ लोट (आटा ) के तीन कुर्कट बना कर तीनों को दिया कि कोई न देखे वहां मार आना । बस ! पर्वत और वसु तो जंगल में जाकर कोई नहीं देखा वहां पीठ के कुर्कट मार आये पर मैंने सोचा कि दूसरा नहीं तो मैं एवं कुर्कट तो देखते हैं शायद मैं आखें बन्द क लूँ तो भी ईश्वर ज्ञानी तो सर्वत्र देखते हैं अतः कुर्कट को लेकर वापिस श्राया उपाध्यायजी ने उन तीनों की परीक्षा करली कि ठीक दो नरक और एक नारद स्वर्ग जाने वाले हैं। 1-08 नारद कहता है कि मैं एक समय सुक्तमुता नगरी में गया तो पर्वत अपने शिष्यों को पढ़ा रहा था Jain E ऋग्वेद में एक अति श्रई कि " अजर्यव्यमिति" इसका पर्वत ने अर्थ किया कि अज यानि लाग चकरा.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५ ] का बलिदान करना तब मैंने कहा पर्वत तू ऐसा अनर्थ क्यों करता है गुरूजी ने तो अजा शब्द का अर्थ तीन की शाल अर्थात बोया हुआ न ऊगे वैसा धान किया था पर्वत ने हट पकड़ लिया नारद ने कहा कि सुराज अपने साथ पढ़े हैं उनसे निर्णय करलें पर इस शर्त पर कि जो झूठा हो वह अपनी जुवान निकाल कर के दे दे । पर्वत ने इसको स्वीकार कर लिाय बाद पर्वत अपनी माता के पास आया और सब हाल माता को कहा इस पर माता ने कहा बेटा तेरा बाप अजा शब्द का अर्थ पुराणा धान ही करता था पर्वत ने कहा मैंने तो शर्त करली है इस पर माता रात्रि में चल कर राजा बसुके पास आई। राजाने गुरुजी की पत्नी समझ सत्कार कर गत्रिमें आने का कारण पुच्छा इस पर मावाने सब हाल कहकर पुत्र रूपी भिक्षा की याचना की - लोगों में यह बात प्रचलित थी कि राजा वसु सत्यवादी है और सत्य से ही इसका सिंहासन पृथ्वी से अधर रहता है इस हालत में राजा असत्य कैसे बोल सकता । राजा ने कहा माता मैं ही क्यों पर श्राप भी जानती हो कि गुरुजी ने अजा शब्द का अर्थ पुराणी शाल ही किया था अतः में मिथ्या अर्थ करना नहीं चाहता हूँ । माता ने कहा गजन् । मैं जानती हूँ और मैंने पर्वत से कहा भी था कि तेरा पिता अजा शब्द का अर्थ पुराणा धान जो बोने पर न ऊगे किया करते थे । पर पर्वत मेरे एक ही पुत्र है अत: कुछ भी हो पर मेरे पुत्र को जीवन दाना देने की मेरी प्रार्थना स्वीकार करावें । मेरी जिन्दगी में यह पहली ही प्रार्थना है यदि आप अपने गुरुजी का थोड़ा भी उपकार समझते हैं, तब तो मेरा यह कार्य आपको करना ही होगा ? राजा वसुने गुराणी की लिहाज में श्राकर कह दिया कि आप निश्चित हो घर पर पधारे मैं किसी प्रकार से आपके पुत्र को वचादूगा। दूसरे दिन राज सभा के समय में (नारद ) और पर्वत राजसभा में आये और सब हाल कहा इस समय एक व्यक्ति राजासे कहने लगा कि राजन् ! आप सत्य, सत्य ही कहना क्योंकि सत्यसे पृथ्वी स्थिर है श्राकाश स्थिर है इत्यादि । पर राजा ने इस पर कुछ भी विचार नहीं किया और ग्राम सभा में कह दिया कि हाँ गुरुजी अजा शब्द का अर्थ कभी पुराणी शाल और कभी छगा-बकरा भी किया करते थे ( कहीं पर केवल बकरा ही कहा लिखा है ) वस । इस मिश्र एवं झूट बोलने के कारण देवता वसुराजा को पथ्वी पर पिछाट करके सिंहासन के साथ भूमिमें घुसा दिया जिससे वसु राजा मरकर सातवीं नरकमें जाकर घोर दुःखों का अनुभव करने लगा इससे पर्वत की बहुत निंदाहुई इतना ही क्यों पर नगरीके लोगोंने पर्वत को मारपीट कर नगरी से निकाल दिया पर भवितव्यता बलवान होती है पर्वतने जंगल में जाकर एक महाकाल देव की आराधना की । देवने अधर्म पर्वत को सहायता देकर पशुवध यज्ञ का प्रचार करवाया । देवता विक्रय से यज्ञ में बलिदान होने वाले करों को स्वर्गमें जाते हुए दिखाये तथा पुनः जीवित करके दिखाये इससे मांस लोलुपी लोगोंने यज्ञ का काफी प्रचार कर दिया पर्वत ने भी लोगों को कहा कि यज्ञ से देव संतुष्ट होते हैं लोगो में सुख शान्ति रहती है और बलिदान में पशु होंमे जाते हैं वे स्वर्ग में जाते हैं इत्यादि नारदजी ने रावण को पर्वत की कथा सुनाई । र सम्राट् रावणने हिंसामय यज्ञ करने का निषेध किया जहाँ यज्ञ होता देखा तो अपनी सत्ता से ध्वंस भी पर कलिकाल की कुटलगति से यज्ञ कर्म सर्वथा बन्ध न हो सका। । बसुराजके क्रमशः आठ पुश्त राजा होते गये और मरते गये तब नवमें सुवसु वहाँ से भाग कर नागचला गया और दशवां वृहद्ध्वज नाम का पुत्र भाग कर मथुरा चलागया उसकी संतान से एक यादुनाम पना हुआ वह महान् प्रतापी हुआ जिससे हरिवंश के स्थान यादुवंश नाम प्रसिद्ध हो गया-जिस यादु. Jain Educapr.वंश वृक्ष Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] यादुराजा शौरी (नागपुर में राज किया सुवीर (मथुरामें) अधिक विष्णु भोजक विष्णु । । । । । । । समुद्रविजय प्रक्षोभ स्तिमत सागर हेमवात अचल धरण पूर्ण अभि० वसुदेव उग्र सेन नेमिनाथ श्रीकृष्ण ११-पीपलाद द्वारा यज्ञादि की उत्पतिःकाशीपुरी में दो संन्यासिनियां रहती थीं जिसमें एक का नाम सुलसा दूसरी का नाम सुभद्रा था वे दोनों अच्छी लिखी पढ़ी धर्म शास्त्रों की भी जानकार थीं बहुतसे पण्डितों को वादमें परास्त भी किये उस समय याज्ञवल्क्य नामक परिव्राजक यह हाल सुन कर उन दोनों संन्यासिनियों के साथ वाद करने को प्राया और ऐसी शर्त रखी कि हारजाने वाला जीतजाने वाले की जन्म भर सेवा करे । जब वाद हुआ तो याज्ञवल्यक्य ने सुलसा को पराजय कर अपनी सेवा करने वाली बनाली । पर दोनों के युवक वय में वे कामदेव के गुलाम बन आपस में भोग-विलास करने लग गये। जिससे सुलसा के गर्भ रह गया जब पुत्र का जन्म हुआ तो लोकापवाद के कारण नवजात पुत्र को एक पीपल के वृक्ष का कोटर में छोड़कर वे दोनों वहाँ से रफ्फूचक्कर होगये । सुभद्रा को मालूम हुआ तो उसने पीपल के माड़ के पास जाकर देखा तो नवजात बच्चा के मुंह में स्वयं पीपल का फल पड़ा जिसको चाब रहा था सुभद्रा अपनी बहिन सुलसा का बच्चा जानकर अपने आश्रम में लेगई उसका पालन पोषण किया और बड़ा होने पर उसको वेद वेदांग पढ़ा कर धूरंधर बना दिया और वाद विवाद में कई पण्डितों को परास्त कर बहुत विख्यात होगया । एक समय याज्ञवल्क्य और सुलसा पुनः काशी में आये और पीपलाद से बाद किया जिसमें वे दोनों हार गये एवं पीपलाद की विजय हुई जब सुभद्रा द्वारा पीपलाद को ज्ञान हुआ कि सुलसा याज्ञवल्क्य मेरे माता पिता हैं और जन्म के साथ ही निर्दयता से मुझे पीपल के झाड की कोटर में डालकर पलायन होगये थे अतः पीपलाद ने कुपित हो अपना बदला लेने के लिए मातृमेघ पितृमेघ नामके यज्ञ करने की स्थापना की और मातृमेघ में सुलसा तथा पितृमेघमें याज्ञवल्क्य को होम दिया अर्थात् पीपलादने अपने माता पिता का बलिदान कर अपना बदला लिया और उपनिषधादि प्रन्थों में इसका विधिविधान भी रचहाला कि भविष्य में यह प्रथा अमर बन जाय इत्यादि इन मांस प्रचारकों की लीला कहां तक लिखी जाय । १२-वसंतपुर नगर में एक नाबालक लड़का था वह किसी सथवाड़ा के साथ देशान्तर जाता हुआ रास्ते में एक तापस के आश्रम में ठेर गया । वह बड़ा भारी तप करा वास्ते लोकोने यमदग्नि नाम रखा दीया उस समय एक विश्वानर नामका जैनदेव दूसरा धनंतरी तापसभक्त देव इन दोनों के आपस में धर्म संबंधि विवाद हुआ अपना २ धर्म को अच्छा बताते हुए परीक्षा करने को मृत्यु लोक में आये उस समय मिथिला नगरी का पद्मरथ राजा भाव यति बन चम्पा नगरी में विराजमान जैन मुनि के पास दीक्षा लेने को जा Jain Educ रहा था दोनों देवों ने उसे अनुकुल प्रतिकुल बहुत उपसर्ग किया पर वह तनक भी नहीं चला बात दोलो.org Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ 1 हसवा यमदग्नितापस जो ज्यान लगा के तपस्या करता था उसकी दाढी म चाड़ा चाडाका रूप बना कर बठ र चीड़ा कहने लगा कि मैं हेमाचल पर जाऊंगा-चीडी बोली तुम वहां जाके किसी दूसरी चीडी से यारि कर लोगे ? चीडा ने कहा नहीं करूगा भगर में ऐसा करूं तो मुझे गौ हत्या का पाप लगे। चीड़ी ने कहा ऐसे मैं नहीं मानूं ऐसे कहो कि मैं किसी दूसरी चीडी से यारि करूं तो इस यमदग्नि का पाप मुझे लगे यह सुनते ही तापस को खूब गुस्सा आया और पुच्छा कि क्या मेरा पाप गौहत्या से भी ज्यादा है चीड़ी ने कहा कि तुमको मालूम नहीं है कि शास्त्र कहता है "अपुत्रस्य गति स्ति" यह सुनके तापस को पुत्र की पिपासा लगी तब एक नजिक नगरी में गया वहां का जयशत्रु राजा ने आदर दिया बाबाजी ने राजा के १०० पुत्रियों में एक पुत्री की याचना करी । राजा ने कहा जो श्रापको चाहे उसको आप ले लीजिये । तापस ने सबसे आमन्त्रण किया पर ऐसी भाग्यहीन कौन कि उस तापस को वर करे । एक छाटी लड़की रेतमें खेलती थी उसे ललचा के तापस अपने आश्रम में ले आया बाद युवा होने पर उसके साथ लग्न किया । रेणुका ऋतु धर्म हुई सब तापस बरु (पुत्रविद्या) साधन करने लगा रेणुका ने कहा कि मेरी बहिन हस्तनापुरका राजा अनंतवीर्य को परणाई है उसके लिये भी एक चरू साधन करना । तापस ने एक ब्राह्मण दूसरा क्षत्रिय होने की विद्या साधन करी रेणुकाने क्षत्रिवाला और उसकी बहिन को ब्राह्मणवाला चरू खिलाने से दोनों के दो पुत्र हुये रेणुका के पुत्र का नाम राम, बहिन के पुत्र का नाम कृतवीर्य-राम ने एक वैमार विद्याधर की सेवा करी जिससे संतुष्ट हो उसने परशुविधा प्रदान करी । तब से राम का नाम परशुराम हुआ । एकदा अनंतवीर्य राजा अपनी साली रेणुका को अपने वहां लाया परिचय विशेष होने से रेणुका से भोगविलास करते हुए को एक पुत्र भी हो गया बाद यमदाग्नि स्त्री मोह में अन्ध हो सपुत्र रेणुका को अपने आश्रम में लाये परन्तु परशुराम ने उसका व्यभि. चार जान माता और भाई का सिर काट दिया बाद अनंतवीर्य ने यह बात सुनी तत्काल फौज ले आया वापस का पाश्रम भस्म कर दिया यह परशुराम को ज्ञात हुआ तब परशू लेके हस्तनापुर जाकर राजा को मारडाला कुतवीर्य क्रोधित हो यमदग्नि को मारा तब परशुगम कृतवीर्य को मारडाला तब कृतवीर्य की तारा राणी सगर्मा वहां से भाग के किन्हीं तापसों के सरणे गई परशुराम हस्तनापुरका राजा बन गया-ताराराणी भूमिग्रह में छिपके रही थी वहां चौदह स्वप्नसूचक पुत्र जन्मा जिसका नाम सुभूम रखा गया। परशूगम ने सातवार निःक्षत्रियपृथ्वी कर दी उन क्षत्रियों की दाड़ों से एक स्थल भरा। परशूगम किसी निमितिये को पुच्छा कि मेरा मरणा किसके हाथ से होगा तब उसने कहा कि जिसके देखते ही दाढ़ों का थाल खीर बन जावेगा उस खोरको खाने वाला निश्चय तुमको मारेगा। परशुरामने एक दानशाला खोली और दाढ़ोंवाला थाल वहां सिंहासन पर रख दिया इधर एक मेघ नामका विद्याधर निमित्तिया के कहने से अपनी पद्मश्री नामकी पुत्री सुभम को परणा दी थी बाद माता के कहने से सुभम पिछली बात और परशुराम का अत्याचार जान कर वहाँ से हस्तनापुर में गया दाढ़ी को देखते ही खीर बन गई उसको सुभूम खा गया उसी थाल का चक्र बना परशराम का सिर काट आप एक नगर का ही नहीं पर सार्वभौम्य राज करने वाला, चक्रवर्ती हुआ। पुरांण वालों ने लिखा है कि परशुराम परशु ले क्षत्रियों को काटता हुआ रामचंद्रजी के पास पाया जब रामचन्द्रजी ने परशुराम की पग चंपी कर उसका तेज हर लिया सब परश नीचा पड गया फिर उठा नहीं सके । कैसी असंभव बात है कि एक अवतार दूसरा अववार को मारने को आवे फिर भी तुर्रा यह कि एक अवतार दूसरा का तेज को भी हरण कर लिया क्या बात हैं ? सत्य तो यह है कि वह रामचन्द्रजी नहीं पर सुभम चक्रवर्ती ही था, इति अष्टमा चक्री____ आपके शासन में महापद्म नाम का नौवा चक्रवर्ती हुआ जिसका संबन्ध-हस्वनापुर नगर में पद्मोत्तर Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा की ज्वाला देवी राणि के विष्णुकुमार और महापद्म नाम के दो पुत्र हुए इस समय अवंती नगरी का श्रीधर्म नामक, राजा के राज्य में नमूची जिसका दूसरा नाम बलमंत्री था जाति का वह ब्राह्मण था उस समय मुनिसुव्रत भगवान के शिष्य सुव्रताचार्य वहां पधारे नमुचिबल उनके साथ शास्त्रार्थ कर पराजय हुआ तब रात्रि में तलवार ले प्राचार्य को मारने को चला प्राचार्य के अतिशय से वह रास्ता में स्थंभित हो गया सुबह उसको बहुत निंदा हुई तब वहां से मुक्त हो हस्तनापुर में जाकर युगराजा महापद्म की सेवा करने लगा एक समय महापद्म किसी कार्य से संतुष्ट हो 'यथेच्छा" वर दे दिया था कालान्तर पद्मोतर राजा और विष्णुकुमार ने तो सुव्रताचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली और महापद्म राजा हो क्रमशः छे खण्डाधिपति चक्रवर्ती राजा हो गया बाद सुव्रताचार्य फिर से हस्तनापुर आये नमुचि-बलने सोचा कि इस समय इस आचार्य से वैर लेना चाहिये तब महापा से अर्ज करी कि वेदों में कहा माफिक मेरे एक महायज्ञ करना है वास्ते मुझे पूर्व दिया हुश्रा वर-वचन मिलना चाहिये राजा ने कहा मांगो तब नमुचिने यज्ञ हो वहां तक सर्व राज मांगा वचन के बंधा राजा ने नमुचि को राज दे आप अन्तेवर घर में चला गया बाद नमुचि ने नगर कर बाहर एक मंडप तैयार करवाय के श्राप गजा बन गया एक जैन साधुओं के सिवा सब लोक भेट ले के नमुचि के पास आये नमस्कारादि किया नमुचि ने पुछा कि सब लोगों की भेट आगई व कोई रहा भी है ब्राह्मणों ने कहा एक जैनाचार्य नहीं आये है। इस पर नमुचिने गुस्से हो कहला भेजा कि जैनाचार्य तुमको यहां आना चाहिये आचार्य ने कहलाया कि संसार से विरक्त को ऐसे कार्यों से प्रयोजन नहीं है इस पर नमूचि क्रोधित हो हुक्म दिया हमारे राज से सात दिनों में शीघ्र चले जावो नहीं तो कतल करवा दिया जावेगा यह सुन आचार्य को बड़ी चिंता हुई कि चक्रवर्ती का राज छः खण्ड में है तो इनके बाहर केसे जा सके प्राचार्य श्री सब साधुओं को पूछा कि तुम्हारे अन्दर कोई शक्तिशाली है कि इस धर्म निंदक को योग सजा दे इसपर मुनियों ने अर्ज करी ऐसा मुनि विष्णुकुमार है पर वह सुमेरूगिरि पर तप कर रहा है प्राचार्यश्री ने कहा कि जावो कोई मुनि उसको यह समाचार कहो । एक मुनिने कहा वहां जाने कि शक्ति तो मेरे में है पर पीछे आने को नहीं सूरिजी ने कहा तुम जावो विष्णुकुमार को सब हाल कहके यहां ले आवो वह तुमको भी ले आवेगा इस माफिक बिष्णु मुनि गुरु के पास आया बाद विष्णुमुनि राजसभा में गया नमूचि के सिवाय सबने उठके वन्दन करी बाद धर्मदेसना दी और नमूचि से कहा हे विप्र । क्षणिक राज के लिये तू अनिति क्यों करता है चक्रवर्ती का राज छे खण्ड में है तो तब साधु सात दिन में कहां जा सके इत्यादि नमूचिने कहा कि तुम राजा के बड़े भाई हो वास्ते तुमको तीन कदम जगह देता हूँ बाकी कोई मुनि मेरे राज्य में रहेगा उसे मैं तत्काल ही मरवादूंगा : इस पर विष्णु मुनिने सोचा कि यह मधुर वचनों से मानने वाला नहीं है तब वैक्रयलब्धि से लक्ष योजन का शरीर बनाके एक पग भरतक्षेत्र दूसरा समुद्र और तीसरा पग नमूचि-बल के सिर पर रखा कि उसको पागल में घुसा दिया वह मरके नरक में गया और विष्णुमुनि अपने गुरु के पास जा आलोचना कर क्रमशः कर्म क्षयकर मोक्ष गया। भ० ऋषभदेव से भगवान महावीर तक २४ तीर्थंकरों का विस्तृत हाल कोष्टक में दिया गया है पर बीच बीच में जो विशेष घटना घटित हुई वे कोष्टक में तो पा नहीं सके और जाननी भी जरूर थी अतः मैंने उन विशेष घटनाएँ को संक्षित रूप से यहाँ लिखदी है। विशेष भ० महावीर का छद्मस्थ जीवन तो कल्पसूत्रादि कई स्थान पर मिलता है और हम प्रति वर्ष पढ़ते भी है पर तीर्थकर जीवन सिल सिलेवार कहीं पर दृष्टि गोचर नहीं हुआ था अतः यह बिल्कुल _dain E लुगा साहित्य है पाठकों के अवलोकनार्थ यहाँ दे दिया जाता है Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] भगवान् महावीर का विहार क्षेत्र भगवान् महावीर के श्रमण जीवन में छद्मस्थावस्था के १२ वर्ष का हाल तो कल्पसूत्रादि अनेक थानों पर दृष्टि गोचर होता है। पर केवलावस्था में भगवान् ने ३० वर्षों में कहाँ कहाँ विहार किया श्रीर विहार के अन्दर किस किस स्थान पर क्या क्या धर्म कार्य हुआ इत्यादि सिलसिलेवार वर्णन आज पन्त कहीं पर भी देखने में नहीं आया था परन्तु हाल ही में पूज्य पन्यासजी श्री कल्याणविजयजी महाराज ने कई वर्षों तक बड़ा भारी परिश्रम कर " श्रमण भगवान् महावीर” नाम का प्रन्थ लिखा तथा वह मुद्रित भी हो चुका है इस प्रन्थ को लिखकर पन्यासजी महाराज ने जैन समाज पर महान उपकार किया है। उसी प्रन्थ के आधार पर मैं भगवान् महावीर के तीर्थङ्कर जीवन के विषय में यहाँ पर संक्षिप्त से हाल लिख देता हूँ । भगवान् महावीर ३० वर्ष गृहस्थावास में रहे बाद श्रमण दीक्षा स्वीकार कर बारह चतुर्मास छद्मस्था वस्था में बिताये। जैसे १ - श्रस्थिप्राम २ - राजगृहनगर ३ - चम्पापुरी ४ - पृष्ठचम्पा ५ -- महिला नगरी ६ - महिलानगरी ७ - श्रालंमियानगरी ८- राजगृहनगर ९ - अनार्यदेश में १० - श्रादस्ति नगरी ११ - विशालानगरी ११ - चम्पानगरी उपरोक्त स्थानों में भगवान् ने बारह चतुर्मास किये । तीर्थङ्कर अवस्था में भगवान के ३० चतुर्मासों का वर्णन : जब भगवान को केवल ज्ञानोत्पन्न हुआ पहली देशना में किसी ने व्रत नहीं लिया तब रात्रि में ४८ कोस चलकर मध्यमा नगरी के महासनोधन में पधारे देवो ने समवसरण की रचना की । वहाँ पर सोमल ब्राह्मण के वहाँ एक वृहद् यज्ञ का आयोजन हो रहा था और बहुत दूर दूर से पण्डित भी आये थे उनमें इन्द्रभूति आदि ११ पण्डित तथा ४४०० उनके शिष्य भी थे जब उन्होंने भगवान का समवसरणादि की महिमा सुनी तो इर्षा के मारे एक एक भगवान के पास गये भगवान उनके दिल की शंका का समाधान कर क्रमशः ११ आचार्य और उनके ४४०० शिष्यों को श्रमण दीक्षा दे उन ११ को गणधर पद दिया जिसके लिये जैन शास्त्रों में गणधर बाद के नाम से बहुत विस्तार से वर्णन है भगवान ने वहीं पर चतुर्विध श्री संघ की स्थापना की बाद वहाँ से विहार कर क्रमशः राजगृह नगर में पधारे वहाँ भी आपका धर्मोपदेश हुआ। जिसके फल स्वरूप - १ - राजा श्रेणिक का पुत्र मेघकुमार तथा नन्दोषेण ने श्रमण दीक्षा ली । २ - राजकुमार अभय तथा सुलसाने श्रावक धर्म स्वीकार किया । भावुक ३ - राजा श्रेणिक ने प्रवचन पर श्रद्धा यानि सम्यक्त्व धारण की इनके अलावा भी बहुत से भगवान के भक्त बन गये । १ - पहला चतुर्मास राजगृहनगर में हुआ वहाँ प्रवचन का प्रचार हुआ बाद वहाँ से विहार कर क्षत्रीकुण्ड महाकुण्ड नगर की ओर पधारे वहाँ भी आपका प्रवचन हुआ जिससे -- १ - जमाली क्षत्रियकुमार ५०० के साथ तथा उनकी पत्नी १००० के साथ प्रभु पास दीक्षाली । २ - ब्राह्मण ऋषभदता तथा देवानन्द ने भी दीक्षा ली इनके अलावा भी बहुत लोग भगवान के उपासक बन गये । २ - दूसरा चतुर्मास बैशालानगर में व्यतीत किया बाद वहाँ से विहार कर कौशाम्बीनगर में पधारे वहाँ पर राजा दाई की माता मृगावती तथा भुश्रा जयंति भगवान को वन्दन किया भगवान ने देशनादी ज 'ति ने Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६०] प्रभु से प्रश्न किये और अन्त में श्रमण दीक्षा स्वीकार की वहाँ से श्रावस्ति में पधार वहाँ सुमनोभद्र सुप्रतिष्ठित ने दीक्षा ली वहाँ से वाणिज्यग्राम में पधारे और गाथापति आनन्द तथा उसकी स्त्री सेवानन्दा को हस्थ धर्म की दीक्षा दी इनके अलावा आपके बिहार के अन्दर बहुत से लोग आपके परमोपासक बन गये । ३- तीसरा चतुर्मास वाणिज्य प्राम नगर में बिताया प्रचार कार्य बढ़ा बाद वहाँ से विहार कर भगवान् पुनः राजगृह में पधारे वहाँ गोतम ने काल विषय के प्रश्न किये तथा धना शालिभद्र को दीक्षादी और भी बहुत लोगों ने भगवान् के उपदेश को स्वीकार किया । ४ - चतुर्थ चतुर्मास भगवान् ने राजगृह नगर में किया बाद विहार कर चम्पानगर में पधारे वहाँ के राजदत्त का पुत्र महचन्द्र कुवार को दीक्षा दी बाद सिन्धु सौवीर के वीतभय पहन जाकर राजा उदाई को दीक्षा दी। ५ - पांचवा चतुर्मास भगवान् ने वाणियाप्राम नगर में बिताया वहाँ से विहार कर बनारसी नगरी आये वहाँ के राजा ने प्रभु का सत्कार किया आपका धर्मोपदेश से वहाँ के गाथापति चूलनीपिता तथा उसकी स्त्री श्यामा और सुरादेव तथा उनकी भार्या धना ने गृहस्थ धर्म ( श्रावक ) स्वीकार किया तत्पश्चात् श्रालम्बिया नगर में आये वहाँ पोगल सन्यासी को समझा कर श्रमण दीक्षा दी वहाँ चूलशतक गाथापति तथा उसकी पत्नि बहुलाने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया बाद भगवान् राजगृह पधारे वहाँ भी मंकाती किंकम अर्जुन और काश्यपादि ने श्रमण दीक्षा ली । ६- छटा चतुर्मास राजगृह में किया श्रापका प्रवचन होता रहा बाद प्रभु राजगृह में ही ठहरे वहीँ राजा श्रेणिक ने दीक्षा के लिये उद्घोषणा करदी कोई भी दीक्षा ले मेरी श्राज्ञा है तथा मैं सब तरह की सहायता करुगा जिससे श्रेणिक के पुत्र जाली मयाली वाली श्रादि २३ पुत्र और नंदा सुनंदादि तेरह राणियो दीक्षा ली और भी नागरिकों ने भी दीक्षा ली । श्रार्द्रकुमार और गौसालों श्रादिकों के साथ संबाद बाद श्रार्द्र कुमार की दीक्षा । ७ - सातवां चतुर्मास राजगृह नगर में व्यतीत किया, बाद आलंभिया नगर में पधारे वहाँ ऋषिभद्र पुत्र श्रावक तथा अन्य श्रावकों का संबाद का समाधन भगवान ने किया रांणी मृगावती तथा उज्जैन के राजा प्रद्योतन की रांगी ने प्रभु पासे दीक्षाली बाद पुनः विदेह में पधारे । ८ - श्रात्रचतुर्मास वैशाली में ही किया वहाँ से विहार कर काकन्दी में पधारे वहां धन्ना सुनक्षादि को दीक्षा दी वाद काम्पिलपुर पधारे वहीँ कुण्डकोलिक को श्रावक के व्रत दिये फिर पोलासपुर पधारे वहाँ गौसाल का भक्त सकडालपुत्र कुम्हकार रहता था उसको श्रावक बनाया उसकी स्त्री अग्निमित्र ने भी भावक के व्रत लिये। ९ - नोवा चतुर्मास वाणिज्य ग्रामनगर में बिताया वहाँ से विहारकर राजगृह नगर में पधारे वहाँ पर महाशतक को श्रावक व्रत दिये वही पार्श्वनाथ के संतानियों ने प्रश्न किया प्रभु ने समाधान कर उनको चार के पांच महाव्रत दिये रोहा मुनि के प्रश्न भगवान् के उत्तर । १० - दुरावा चतुर्मास भगवान् ने राजमह नगर में किया वहां से कंयगला नगर में पधारे रंकद सन्यासी की दीक्षा श्रागे विहार कर श्रावस्ति नगरी में धर्मोपदेश दिया वहां नन्दनीपिता सालनीपिता तथा इन दोनों की स्त्रियों ने श्रावक के व्रत धारण किया । ११ – ग्यारवा चतुर्मास वाणिज्य ग्राम नगर में किया जमाली ५०० साधुओं को विहार किया कोसुंबी में सूर्य चन्द्र मूल रूप से आये प्रभु राजगृह में बेहास अभय का अनसन लेकर अलग त स्वर्ग । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ ] १२-बारहवा चतुर्मास राजगृह में व्यतीत किया बाद विहार कर चम्पानगर में पधारे उस समय कणिक की राजधानी चम्पा में थी भगवान् का प्रवचन श्रेणिक के पौत्रे पद्म महापद्मादि १० ने दीक्षा ली और जिनपालितादिने भी दीक्षा ली शेष ने श्रावक व्रत लिया वहां से काकन्दी में क्षमेक घृतहरादिने दीक्षाली । . १३-तेरहवा चतुर्मास प्रभुने मिथिला नगरी में किया बाद विहारः-इस समय वैशाला रणभूमि बनी हुई थी कुणिक चेटक का संग्राम हुआ पुत्र की मृत्यु सुनकर काली श्रादि श्रेणिक की दश राणियों ने दीक्षा ली। १४-चौदहवा चतुर्मास भगवान् का मिथिला में हुआ बाद विहार-वैशालो के निकट होकर श्रावस्ति की तरफ विहार मार्ग में हल विहल्ल की दीक्षा तथा भगवान और गोसाला का मिलाप जमाली का मतभेद भी उसी वर्ष हुआ। १५-पन्द्रहवा चतुर्मास पुनः मिथिला में किया बाद विहार किया। कैशी-गौतमका श्रावस्ति में शास्त्रार्थ शिवराजाष सातद्वीप सातसमुद्र कहने वालाकों दीक्षा दी अग्निभूति वायुभूति के वैकुघणा के प्रश्न । __ १६- सोलवा चतुर्मास वाणिज्य प्राम नगर में किया बाद बिहार आजीविका के प्रश्न तथा श्रावक के ४९ भंगों के प्रत्याख्यान और गोसाल के १२ श्रावक मुख्य । १७-सत्तरहवां चतुर्मास राजगृह नगर में किया। विहार कर चम्पा पृष्टचम्पा में पधारे वहाँ शाल महाशाला की दीक्षा पुनः चम्पा कामदेव का उपसर्ग और उनकी प्रशंसा की वाणिज्य प्राम का सोमल ब्राह्मण ने प्रभु से यात्रादि के प्रश्न किये ।। १८-अठारहवा चतुर्मास वाणिज्य प्राम में किया बाद विहार कर काम्पिलपुर गये अंबड सन्यासी को प्रतिबोध एवं भावक के व्रत दिये । ___ १९-उन्निसवां चतुर्मास वैशाली नगरी में किया बाद विहार कर वाणिज्य नगर में पधारे वहां पार्श्वसंतानिय गंगइयाजी आपको प्रश्न पुच्छे समाधान होने पर चार के पांच महाव्रत धारण किये । २०-बीसवां चतुर्मास वैसाली में किया श्रुत-शिल की चौभंगी अन्यतिथियों के प्रश्न केवली के भाषा के विषय का प्रश्न मंडूक श्रावक और अन्यतिर्थियों के प्रश्न मंडूक की प्रशंसा। २१-इक्कीसवां चतुर्मास राजगृह में वहाँ कालोदाइ के प्रश्न तथा उदकपेडाल के प्रश्न जाली मायली आदि निप्रन्थों ने विपुल पर अनसन किया। २२-बाईसवां चतुर्मास राजगृह में ही किया । विहार वाणिज्य नगर में सुदर्शन सेठ ने काल के विषय के प्रश्न ( महाबल का भव ) दीक्षा तथा आनंद का अनसन और गौतम का आनन्द के पास जाना अवधि ज्ञान के विषय प्रश्न । २३-तेईसवां चतुर्मास प्रभु ने वैशाला नगरी में व्यतीत किया बाद प्राम नगरों में प्रवचन का प्रचार करते हुए साकेत नगर में पधारे-वहाँ जिनदेव के द्वारा राजा किरात भगवान् के पास आया उसको दोक्षा दी । वहां से विहार कर मथुरा शौरीपुरादि प्रदेश में धर्म प्रचार करते हुए। ___ २४-- चौवीसवां चतुर्मास प्रभु मिथिला में व्यतीत किया बाद विहारकर राजगृह पधारे अन्यतिर्थियों के प्रश्नों का समाधान । तथा कालोदाई के शुभाशुभ कमों के विषय के प्रश्नों के उत्तर । अचित पुद्गलों के प्रश्नों के उत्तर इत्यादि। २५-पच्चीसवां चतुर्मास प्रभु ने गजगृह में किया-बाद वहां से जिनपद में विहार किया गौतम Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२] तथा अन्य लोगों के विविध प्रश्नों के समाधान पूर्व उत्तर । . २६-छब्बीसवां चतुर्मास भगवान ने नालंदा ( राजगृह ) में व्यतीत किया षाद विहार किया गोतम ने सूर्य के विषय प्रश्न किये प्रभु ने समाधान किया। - २७–सतावीसवां चतुर्मास प्रभु ने मिथिला नगरी में बिताया-बाद वहां से विहार करके अनेक मुमुक्षुओं को प्रवचन के श्रद्धासम्पन्न बनाये कईएकों को श्रमण दीक्षा कई पकों को गृहस्थ धर्म की दीक्षा दी । २८-अठाईसवां चतुर्मास प्रभु ने पुनः मिथिला नगरी में किया बाद चतुर्मास के मगध की ओर विहार-राजगह में पधारे वहां महाशतक अन्तिम अाराधना में लगा हुआ था उसकी स्त्री रेवंती ने उत्पात मचाया महाशतक को अवधि ज्ञान हो पाया रेवंती का भविष्य कहां पर वह कठोर होने से प्रभु गौतम को महाशतक के पास भेज आलोचना करवाई इत्यादि । उष्णजल का होद के प्रश्न आयुष्यकर्म के विषय प्रश्न । अन्य भी बहुत से प्रश्नोत्तर । २९--उन्तीसवां चतुर्मास प्रभु ने राजगह नगरमें व्यतीत किया बादभी प्रभु वहां ठहरे । कई गण घरो की मोक्ष । गोतम ने छटा पारा के लिये पुच्छा बाद पांचवां पारा के विषय पुच्छा प्रभु ने उत्तर दिये इत्यादि । ३०-तीसवा चतुर्मास पावापुरी में हुआ। यह भगवान् के जीवन का अन्तिम चतुर्मास था वहाँ के राजा हस्तपाल की रज्जुग सभा में आपने चतुर्मास किया था चतुर्मास के तीन मास तो व्यतीत होगये थे कार्तिक मास में भगवान् की सेवा में काशी कौशल के अठारह गणशतक राजा उपस्थित थे जब प्रभु का अन्त समय निकट अर्थात् कार्तिक कृष्ण अमावश्य का सूर्योदय हो चुका था भगवान ने अपुट्ठ (विनापुच्छे) गरणा-देशना देना प्रारम्भ किया जिसमें ५५ पाप फल विपाक रूप और ५५ पुन्यफल विपाकरूप अध्ययन कह कर ३६ अध्ययन कहे जो श्राज उत्तराध्ययन सूत्र के नाम से कहालाते है तथा सेतीसवा प्रधान नाम तथा मरुदेवी नाम का अध्ययन प्रारम्भ करते ही श्रायुष्य कर्म की क्षीणता से भगवान् स्थुल शरीर तथा तेजस और कारमण शरीर अनादि काल से जीव के साथ थे उनको भी छोड़कर एक समय का गमन मार्ग अर्थात् उर्व गमन लोकाप्रभाग में अक्षय सुखों का धाम-मोक्ष नगर में पधार गये उस समय के पूर्व ही भगवान ने गौतम को एक देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध के लिये भेज दिये थे जब प्रभु के निर्वाण हुए और देवता कह कह करते हुए जाने आने वाले कह रहे थे कि अन्तिम तीर्थंकर का निर्वाण होने से लोक में अन्धकार हो गया है इन बातों को गोतम ने सुनी तो वे चल कर प्रभु के स्थान पाया और पहले तो धर्म रागानुकूल विलापत किया और स्नेहवस उपालम्ब भी दिया पर बाद में सोचा कि प्रभु निरागी थे इत्यादि शुभ भावना से गोतम को भी कैवल्य ज्ञान उत्पन्न होगया अतः इन्द्रादि देवों ने प्रभु का निर्वाण महोत्सव के अनन्तर गोतम का केवल महोत्सव किया। इस प्रकार भगवान महावीर के तीर्थङ्कर अवस्था के ३० चतुर्मास का सिल सिलेवार संक्षिप्त में हाल लिखा दिया है । विस्तार देखो पन्यासजी म० का प्रन्थ में । इति शुभम् ।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास' प्राचीन तीर्थ श्री कापरड़ाजी ( मारवाड़) Jain Education love 1. a 1 स त मं ঐ ल चौ " ) 5 मु ख जी का म न्दि र te Personal Use Only श्री मोतीलालजी भन्डारी - सोजत हाल - अजमेर ল ৮F65 प चा ६५ फी ट चा cole संघपति पाँचूलालजी वैद्यमहता फलोधी (धमतरी) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् श्री पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास फूसालालजी मिसरीमलजी Prigate & Personal use only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बु० महाविदह १ १ जयदेव २ कर्णभद्र ३ लक्ष्मीपति ४ अनन्तहर्ष ५ गंगाधर विशालचन्द्र ७ प्रियंकर ८ अमरादित्य कृष्णनाथ गुणगुप्त पद्मनाभ 19 १२ १३ ३४ वरदत्त १५ चन्द्रकेतु १६ 6७ १८ १९ हरिहर रामेन्द्र शांति देव जलधर युगादित्य महाकाय अमर केतु अरएववास २० २१ १२ २३ गजेन्द्र १४ सागरचन्द्र १५ लक्ष्मीचन्द्र २६ महेश्वर अनन्तकृत २७ ऋषभदेव २८ सौम्यकान्त २९ नेमिप्रभु ३० अजितभद्र ३१ महीधर ३२ रजिश्वर १ भगवान् अजितनाथ के समय महाविदह में उत्कृष्ट १६० तीर्थङ्कर धा० पूर्व० विदह धा० पश्चिम वि० पुष्करा० पूर्व विदह वीरचन्द्र वटस सेन नीलक्रांति मुंजकेशी रुकिमक क्षेमंकर २ मृगांकनाथ मुनिमूर्ति विमलनाथ आगमिक निष्पापनाथ वसुंधराधिप मल्लिनाथ बनदेव वलभृत अमृत वाहन पूर्णभद्र रेवांकित कल्पशाखा नलनिदत्त विद्यापति सुपार भानुनाथ प्रभंजन विशिष्टनाथ जलप्रभ मुनिचन्द्र ऋषिपाल कुड़गदत्त भूतानन्द महावीर तार्थेश्वर ३ धर्मदत भूमिपति मेरुदत सुमित्र श्रीषेणनाव प्रमानन्द पद्माकर महाघोष चन्द्रप्रभ भूमिशल सुषेण अच्युत तीर्थपति किताँग अमरचन्द्र समाधिनाथ मुनिचन्द्र महेन्द्रनाथ शशांक जगदीश्वर देवेन्द्रनाथ गुणनाथ उद्योतनाथ नारायण कपिलनाथ प्रभाकर जिनदीक्षित सकलनाथ शीकारनाथ बज्रध ( सहस्रार अशोकाख्या 8 मघवाहन जीवरक्षक महापुरुष पापहर मृगांकनाथ सुरसिंह जगतपुज्य सुमतिनाथ महामहेन्द्र अमरभूति कुमारचन्द वारिषेण रमणनाथ स्वयंभू अचलनाथ मकरकेतु सिद्धार्थनाथ सकलनाथ विजयदेव नरसिंह शतानन्द वृंदारक चन्द्रातप चित्रगुप्त (चन्द्रगुप्त ) दरथ महायशा 35At प्रद्यु महातेज मननाथ पुष्पकेतु कामदेव समर : पांच भरत, पांच एरवत एवं दश को मिलाने से १७० तीर्थकर हुए । पु० पाश्चि० विषह प्रसन्नचन्द्र महासेन वृजनाथ सुवर्ण बाहू कुरुचन्द बज्रबीर्य विमलचन्द्र यशोधर महाबल बज्रसेन विमलबोध भीमनाथ मेरुप्रभ भद्रगुप्त सुदसिंह सुब्रत हरिचन्द्र प्रतिमाधर अतिश्रेय कनक केतु अजितवीर्य फाल्गु मित्र ब्रह्मभूत हितकर वारुणदत्त यशकीर्ति नागेन्द्र महीकीर्ति ५ कृतब्रह्मा महेन्द्र वर्धमान सुरेन्द्रदत्त Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re - - - जम्बुद्वीप का भरत क्षेत्र जम्बुद्वीप का ऐवत क्षेत्र भूतकाल वर्तमान भविष्य भूतकाल वर्तमान भविष्य १ ऋषभ सिद्धार्थ पद्मनाथ सूर देव पूर्णघोष केवलनाणी x २ निर्वाणी सागर महाजस सुपारच अजित संभव अभिनंदन सुमति पद्मप्रभ विमल बालचन्ह श्रीशिवय अग्निसेन नर्दिषेण रिषिदत्त व्रतधर सोमचन्द्र दीर्घसेन शतायुष सुपावं स्वयंप्रभ सर्वानुभूति देवश्रुति उदय पेढाल पोटिल पातकीर्ति सुव्रत भमम किष्कषाय निष्पुलाक सर्वानुभुति श्रीधर श्रीदत्त दामोदर सुतेज स्वामी शिवसुत श्रेयांस मुनिसुव्रत पंचरुप নিনঃ संपुटिक अज्यंतिक अविष्टायक अमिनन्दन रत्नेश रामेश्वर अगुष्टम विनाशक भाशेष सविधान श्रीप्रदत्त श्रीकमार सर्वशैल प्रभजिन सौभाग्य दिनकर व्रताधि सिद्धिकर शारीरिक कल्पद्रुम तीर्थादि फजेश सुमति चन्दप्रभ सुविधि शीतल श्रेयांस वासुपुज्य विमलनाथ अनंत धर्मनाथ शान्तिनाथ कुंथुनाथ अरनाथ मल्लिनाथ मुनिसुव्रत नमिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ महावीर निर्मम यशघोष नर्दिषण सुमंगक ब्रजधर निर्वाण धर्मध्वज सिद्धसेन महासेन वीरमित्र सत्यसेन श्रीचन्द्र महेन्द्र स्वयंजन देवसेन सुवर्त जिनेन्द्र सपार्श्व सुकोशल अनंत विमल भजितसेन अग्निदत्त सिवगति अस्तागं नमीश्वर अनील यशोधर कृतार्थ जिनेश्वर शुद्धमति शिवकरं चित्रगुप्त समाधि स्वयंजल सिंहसेन उपशातं गुप्तसेन महावीय पार्श्व अभिधान मरुदेव श्रीधर स्वामी कोष्ट अग्निप्रभ मग्निदत्त वीरसेन सवर यशोधर विजय मल्लजिन देवजिन अनंतवीर्य भद्रकृत्य वंदन संवति x प्रस्तुत नामावलि श्रागमसार संग्रह नामक पुस्तक से लिखा गया है । १-भी तीर्थकरों को समकित प्राप्त होने के वाद एवं तीर्थकर पद का निर्णय होने के पश्चात् कितने भव किये जैसे भगवान् ऋषभदेव के १३ भव १-धनासार्थवाह २- उत्तरकुरु युगलिक ३-सौधर्मदेव ४ महाबलराजा ५-ईशानदेव ६-वाजघराना ७-उत्तरकुरुयुगलिक ८-सौधर्मदेव ९-जीवानन्द वैद्य -१०- अच्यूजदेव ११-यजनाभचकी १२- सर्वार्थसिद्धदेव १३-ऋषभदेव तीर्थक्कर एवं १३ भव । For Private & Feste Use Only • Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातकी खण्ड का पूर्व भरत क्षेत्र धातकी खण्ड का पश्चिम भरत क्षेत्र वर्तमान भविष्य भूतकाल वर्तमान भविष्य ११ १० , युगादिनाथ सिद्धांत सिद्धनाथ सम्यगनाथ रत्नप्रम अमित असंभव अकंलक चन्द्रस्वामी रस्नकेश चक्रहस्त साकृत परमेश्वर महेश जिनेद्रं शुभकर मुहृत्तिर्क सत्यनाथ सुन्दरनाथ संप्रति सर्वस्वामी मुनिनाथ विशिष्टनाथ अपरनाथ ब्रह्मशान्ति पर्वतनाथ पुरदर . कामुक स्वामी देवदत्त वासवदत श्रीश्रेयांस विश्वरुप पिस्तेज प्रतिबोध सिद्धार्थ सयम भमल देवेद्नाय प्रवरनाथ विश्वसेन मेघनदं सर्वज्ञजिन परमार्थ समुन्दर भूघर उद्योत आथर्व अभय अप्रकयं पद्मनाथ पद्मानंद प्रियंकर सुकृतनाथ भद्रेश्वर मुनिचन्द्र पचमुष्टि त्रिमुष्टि गागिक प्रणव वागं ब्रहमेंद ध्यानवर श्रीकल्प स्वरमाथ स्वस्थनाथ भानंद रविचन्द्र प्रभवनाथ सानिध वृषभनाथ प्रियमित्र शान्तनु सुमृदूं अतीतजो अब्यात कलाशत सर्वजिन प्रबुद्धजिन प्रवृजिन सौधर्म तपोदीप वज्रसेन बुद्धिनाथ प्रबंधजिन भजिम प्रमुख पल्योपम अर्कोपम तिष्टित मृगनाम देवेद्रंजिन प्रायच्छित शिवनाथ विस्वेजिन करणनाथ वृषभनाथ प्रियतेज विमर्शजिन प्रशमजिस चारित्रजिन प्रमादित्य मंजुकेशी पीतवास सुररिपू दयानाथ सहस्रभुज जिनसिंह रैपकजिन बहूजिन पल्लिनाथ अयोगीजिन योगनाथ कामरिपू अरएयसाहू नेमिकनाथ गर्मज्ञान अजित निकेश प्रशस्तिक निराहार भमुर्ति द्विजनाथ श्वेतांगेश चारुनाथ देवनाथ व्याधिक पुष्पनाथ नरनाथ प्रतिकृत मृगेन्द्रनाथ तपोनिधिक सुवर्ण सुकर्मा अमम पाश्र्वनाथ शाश्वतनाथ भरएयक दशानन शातिक जिनपति २-भी चन्द्रप्रभ के ७ भव १-चर्मभूप २-सौधर्म देव ३-अजितसेन ४---अच्यूतदेव ५–पद्मराजा ६-विजयन्तदेव ७-चन्द्रप्रभजिन । ___३-शान्तिनाथ के १२ भव-जैसे १-~-श्रीषेणराजा २-उत्तरकुरुयुगलिक ३-सौधर्मदेव ४ अस्तिगति विद्याधर ५--प्रणतदेव ६-बलभद्र गमा -अच्युतदेव ८-बायुद्धचक्री ९-- प्रैवेगदेव dain १०-मेषस्य राजा ११-सर्वार्थसिद्धदेव १२-श्री शान्तिनाथतीर्थेश । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातकी खण्ड का पूर्व ऐरवत क्षेत्र धातकी खण्ड का पश्चिम ऐरवत क्षेत्र भूतकाल वर्तमान भविष्य. भूतकाल वर्तमान भविष्य १८ . . विजयप्रभ नारायण cm. सुमेरुक जिनकृत ऋषिकेली अशस्तद श्रोरवीन्द्र स्फुमाल पृथ्वीवंत सत्यप्रभ कुलपरोधा निर्धर्म 6 प्रज्रस्वामी इन्द्रयत्न सुर्य स्वामी पुरुषोत्तम स्वामीनाथ अवबोध विक्रमसेन निर्धटीक हरीद्र प्रतेरीक निर्वाण धर्महेतू चर्तुमुख जनकृतेहूँ स्वयक | बिमलादिस्य देवप्रभा धरणेद्रं तीर्थनाथ उदयानंद स्वार्थ धार्मिक क्षेत्रस्वामी अपश्चिम पुष्पंदतं अहंत सुचरित्र सिद्धानदं नंदकजिन प्रकृपजिन उदयनाथ रुकमेन्द्र कृपालु पेढाल सिद्ध श्वर अमृततेज जितेन्द्र भागली स्वार्थेश मघानन्द नंदिकेश हरनाथ अधिष्ठापक सार्तिक नदिकजिन कंडपार्च विरोजन्वन महामृगेन्द्र चिन्तामणि असोगिन द्विमुन्द्र उपवासित पदमचन्द्र बोधकेन्द्र चिताहिक उतराहिम अपाशित देवजल तारकजिन अमोध नागेन्द्र निलोत्पल भप्रक पुरोहित उभयेन्द्र पार्श्वनाथ निर्वचस वियोषित कुटलिक व मान अमृतेन्द्र शखांनंद कल्याणवत हरिनाथ बाहुस्वामी भार्गव सुमदजिन पतिप्राप्त वियोषित ब्रह्मचारी असख्यांगति चारित्रेश पारिणामिक कबोज बिधीनाथ कौशिक उपादिक जिनस्वाम स्वमित ईन्द्रजिन पुष्पकजिन मंडिकजिन प्रहतजिन मदनसिंह हस्तनिधी चन्द्रपार्व अश्वबोध जनकादि विभूतिक कुमरीपिंड सुवपि हरिवास प्रियमित्र धर्मनाथ प्रियसीम वारुण अभिनन्दन सर्वभानु सद्रष्टजिन मौष्टिक सुवर्णकेतु सोमचद्रं क्षेत्राधिप सौढ़ातिक कुमेषुक 6 धर्मदव धर्मचन्द्र प्रवाहित नंदिनाथ अश्वाविक तमोरिपु देवतामित्र कृतपार्व बहुनंद अघोरित निकंबु द्रष्टिस्वामी बक्षेशजिन पुर्वनाथ धर्मेश चित्रक ४-मुनिसुव्रतदेव के ९ भव १-शिवकेतुराजा २-सौधर्मदेव ३ -- कुबेरदत्त ४-सनत्कुमारदेव ५-ज्रकुडलराजा ६-ब्रह्मदेवलोक ७-श्रीवर्मराजा ८-अपराजितदेव ९-श्रीमुनिसुव्रतदेव । ५-नेमिनाथ के ९ भव १-धनराजा २-सौधर्मदेव ३-चित्रगेंद विद्याधर ४-महेन्द्रदेव ५अपराजित राजा ६-अरणदेव ७-शंखरराजा ८-अपराजितदेव ९-श्री नेमिनाथ तीर्थकर । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ६ भूतकाल पुष्करार्द्ध पूर्व भरत क्षेत्र २४ १ श्रीमदगन २ मूर्तिस्वामी ३ निरागजिन ४ प्रलबिंत पृथ्वीपति चारित्रनिधी अपराजित ८ ९ बुधेश १० वैतालिक ११ त्रिमुष्टिक १२ मुनिबोध १३ १४ तीर्थस्वामी १५ चमेश १६ समाधि १७ प्रभुनाथ १८ अनादि १९ सर्वतीर्थ २० निरुपम २१ कुमारिक २२ विहार प्र २३ धणेसर २४ विकास वर्तमान ० २५ जगन्नाथ प्रभास सरस्वामी भरतेश धर्मानन विध्यात अवसानक प्रबोधक तपोनाथ पाठक त्रिकर शोगत श्रीवशा प्रसाद विपरीत भविष्य ० मृगांक कफाहिक गजेन्द्र ध्यानज्ञ २६ धर्माधिक श्रीस्वामी कर्मे कमोंतिकं अमलेद दर्दुरिंक ध्यजाशिक प्रबोध अभयाकं प्रमोद दफारिक व्रतस्वामी निधाम त्रिर्कमर्क बसंतध्वंज त्रिमातुल अघटित त्रिखमंम अचल प्रनादिक भूमानद त्रिनयन सिद्धांत पृथग भद्रेग गोस्वामी प्रवासिक मंडलोक महावसु उदियतु भूतकाल २७ पद्मचन्द्र रक्तविक अयोगिक सर्वार्थ ऋषिनाथ हरिभद्र गणाधिय पारत्रिक ब्रह्मनाथ मुनि दीपक राजर्षि विशाख अचिंतित रविस्वामी सोमदत जय स्वामी मोक्षनाथ अग्निभानू धनुष्का गं रोमान्चित मुक्तिनाथ प्रसिद्ध जिनेश पुष्करार्द्ध पश्चिम भरत क्षेत्र वर्तमान० २.८ पद्मपद प्रभावक योगेश्वर बलनाथ सुषभाग बलातीत मृगांक कलत्रक ब्रह्मनाथ निषेधक पापहर सुस्वामी मुक्तिचन्द्र अप्रासिक नदीतक मलधारी सुसम मलय सिंह અક્ષોમ देवधर प्रयच्छ आगमीक विनीत रतानंद भविष्य ० २९ प्रभावक विनयेन्द्र सुभाव दिनकर अगस्तेय धनद पोरव जिनदत्त पार्श्वनाथ मुनसिंह आस्तिक भवानंद नृपनाथ नारायण प्राथकाकं भूपति ट भवभीरुक नंदननाथ भार्गव -- ६ -- पार्श्वनाथ के १० भब १ - मरुभूति २- - हस्ती ३ – सहस्रर ४ - करणवेग विद्याधर ५प्रच्युतदेव ६ - वज्रनाथ ७ - मैवेगदेव ८ - सुवर्णवेग राजा ९ - प्रणितदेव १० श्री पार्श्वनाथ जिन । प्ररानस्यु किल्विषा नवनाशिक भरतेश ७ - श्रीमहावीर के २७भव १ - नयसार २ -- सौधर्मदेव ३ - मरीची ४ - ब्रह्मदेव ५ कौशीकतापस ३ - सौधर्मदेव ७ - पुष्पमित्र तापस ८ - सौधर्मदेव ९- अग्निद्योततापस १० - ईशान देव ११ - श्रग्निभूति Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्कारार्द्ध द्वीप पूर्व ऐरवत क्षेत्र भूतकाल ३० 9 कृतांत २ भोखरिक ३ देवादित्य ४ अष्टनिधी ५ प्रचंड ६ वेणुक 99 ८ ९ त्रिभानू ब्रह्मादि बगं विरोहत १० ११ १२ १३ १४ १५ सुरु १६ सुभाषित अपायक लोकोत्तर श्रीजलधि विद्योतन १७ वत्सल १८ जिनाल १९ तुषारिक २० भुवन २१ शुकालिक २२ | देवाधिदेव २३ आकाशिक २४ अबिक वर्तमान० ३१ निशामती अक्षपास अचितकर नयादि पर्णप स्वर्णनाथ तपोनाथ पुष्यकेतु कर्मिक चन्द्रकेतु प्रहारिक वितराग उद्योत तपोधिक अतित मरुदेव दामिक शिक्षा दिव्य स्वस्तिक विश्वनाथ शतक सहस्तादि तमोंकित ब्रह्माकं भविष्य ० ३२ यशोधर सुव्रत अभयघोष निर्वाणिक व्रतवसु अतिराज अश्वनाथ अर्जुन तपचन्द्र शारीरिक महसेन सुश्राव दढ़ प्रहार अबरिक वृतातित तुर सर्वशील प्रतिराज जितेंद्रिय तपादि रत्नाकर देवेश लांछन प्रवेश ६ भूतकाल ३३ सुसंभव पच्छाभ पुर्वास सौंदर्य गेरिक त्रिविक्रम नारसिंह मृगवस्तु सोमेश्वर सुभानुं अपापमल्का विवोध संजमिक माधीन भववतेजा विद्याधर सुलोचन मौननिधी रिंक चित्रगण पुष्करार्द्ध पश्चिम ऐरवत क्षेत्र हिन्दु कल भुरिवी पुणयागं वर्तमान० ३४ श्री गाय नलचचा भजिन ध्वजाधिक सुभद्र स्वामीनाथ हितक नर्दिघोष रूपविर्य बज्रनाम सतोषं सुधर्मा श्रीफलादि वीरचन्द्र मोधानिक स्वेच्छ कोपक्षय अकाम सतषित शत्रु सेन क्षेमवात दयानाथ कीर्ति शुभनाम भविष्य ० ३५ अदोषित वृषभ विनयानंद मुनिनाथ ईन्द्रक चन्द्रकेतु ध्वजादिस्य बसुबोध वसुकीर्ति धर्म बोध देवाग मरिचिक सुजीव यशोधर गौतम मुनिशुद्ध प्रबोध शतानिक चारित्र शतानदे वेदार्थनाथ वापस १२ -- सनत्कुमारदेव १३ - भारद्वाज तापस १ १७ - विश्वभूति १८ - शुकदेव १९ – त्रिपुष्टवासुदेव २० २३ --- प्रिय मित्रचकी २४ - शुक्रदेव २५ - नन्दनराजा ( इस भव से १९८०६४५ मासखामण तप किये महिन्द्रदेव १५ - स्थावरतापस १६ - ब्रह्मदेष साखवीनरक २१ – सिंह २२ - चतुर्थनर क २६- प्रणितदेव २७---तीर्थंकर महावीर - सुधामाथ ज्योति मुख सूर्याकनाथ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर नाम भव च्यवन तिथी च्यवन स्थान गर्भ स्थिति मास--दिन जन्व तिथी ة ४० ا س س वनिता ८-२५ | अयोध्या ९-१ | सावथ्वी अयोध्या س س س س ९-६ i-१९ س س 6-२६ س س श्री ऋषभदेव श्री अजिननाथ श्री सम्भववाथ श्री अभिनंदन श्री सुमतिनाय भी पद्मप्रभ श्री सुपार्श्वनाथ श्री चद्रप्रभ श्री सुविधिनाथ श्री शीतलनाथ श्री श्रेयासनाथ श्री वासुपुज्य श्री विमलनाथ श्री अनंतनाथ श्री धर्मनाथ श्री शातिनाय | श्री कुंथुनाथ श्री अरिनाथ श्री मलिनाथ श्री मुनिसुव्रत श्री नमिनाथ श्री नेमिनाथ श्री पार्श्वनाथ श्री महावीर चैत्र बद. महा शुद महा शुद " मह। शुद २ वैशाख शुद ८ कार्तिक वद.. जेठ शुद १२ पोष वद १२ महा वद ५ महा वद १२ फागण धद १२ कार्ति वद .. महा शुद ३ वैशाख बद १३ महा शुद ३ जेठ बद १३ वैशाख वद. माह शुद. असाहबद सर्वार्थ सिद वैशाख शुद १३ विजय वि. फागण शुद सातवां वे | वैशाख शुद ४ जयंत वि. श्रावन शुद २ महा वदी ६ नौवां प्रैवे भादवा वद. छटा त्रैवे चैत्र वद ५ विजयत वि० फागण वद. आनंत देव वैशाख वद६ प्राणत देव. जेठ वद६ अच्युत देव. जेठ शुद ९ प्राणात देव. ३ वैशाख शुद सहस्र देव. श्रावन वद. प्राणत देव. वैशाख शुद विजय वि० भादवा वद. सर्वार्थ सिद्ध श्रावन वद ९ फागन शुद १२ फागन शुद. जयन्त वि. श्रावन शुद १५ अपराजित आसोज शुद १५ प्राणत देव. ९ कातिक वद १२ | अपराजित वि. चैत्र वद ४ प्रागत देव. आसार शुद६ कौसंबी बनारसी चंद्रपुरी काकंदी भद्धिकपुर सिंहपूरी चपापूरी कपिलपूर भयोध्या रत्नपुरी गजपूर س س 6-२० ८-२१ ९-६ س س س । س س س م س मथुरा | राजगृही मथुरा सौरिपूर वणारसी क्षत्रिय कु जेठ बद श्रावन वद ८ श्रावन शुद ५ पोष वद. चेत्र शुद ३ ة و ८-शेष तीर्थंकरों के तीन तीन भव १-मनुष्य २-देव ३ --तीर्थङ्कर । २- तीर्थर नाम कर्मोपार्जन करने के बीस कारण हैं यथा-अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन ( चसमिति, वीन गुप्ती ) गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वो, ज्ञानी, दर्शन विनय, श्रावश्यक ( प्रतिक्रमण ), व्रत, तप, ध्यान, दान, ब्यावच्च, समाधि, अपूर्वज्ञानपढ़न, भुतकीभक्ति और शासन की प्रभावना इन बोस बोलों की श्राराधना करने से जीव तीर्थक्कर नाम कर्मोपार्जन करता है। (" श्री ज्ञात सूत्र अ. ८ वॉ)" ३-श्री तीर्थकरदेव के जन्म समय छप्पन दिशा कुमारी देवियां के श्रासन चलायमान होते हैं तब अवधि शान लगा कर जानती है कि देवाधिदेव के जन्म हुआ अतः हमारा कर्तव्य है कि हम जाकर Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म नक्षत्र ४४ उत्तराषाढ़ा रोहिणी मृगशिर पुनर्वसु मघा चिा विशाखा अनुराधा मूल पूर्वाभाषाढ़ा श्रवण शतभिषा उत्तरा भा० रेवती पुष्य भरणी कृतिका रेवती भश्विनी श्रवण अश्विनो चित्रा विशाखा उत्तराषाढ़ा जन्म राशि ལྦབྷྲ ཝཿ སྠཽབྷྲཨྠ』 བྷཱཞཱ སྠཽ ४५ मिथुन वृश्चिक कुम्भ मीन मेष སྠཽ སྤྲ ཤྲཱ སྤྲ སྠཽ སྒྲ སྠཽ སྠཽ སྠཽ मीन मेष मेष गण ४६ मानव देव देव देव राक्षस ༧ ༔ ཎྜཱ ·༄ ལ སྒྲ སྠཽ ༄ ཎྜཱ སྠཱ ལིཾ देव देव देव "2 " 33 राक्षस 99 मानव योनि ४७ སྠཽ ཀཱ རྞྞ ༣, ༣ ཞཱ सर्प वर्ग ལླཾ བྷྲ ལཱ re गरुड़ सर्प मेष बीलाड़ी | गरुड़ मूषा मेष བླློ ཝཱ ཝཱ ཝཱ ཝཱ ཝཱ ཝཱ ཎྞཱ मूषक सिंह – ॰ སྠཽ སྠཽ ླ སྠཽ སྠཽ, སྠཽ བཿ, སྥ སྠཽ ཟ སྠཽ ལུཿ སྠཽ ལཿ སྠཽ སྠཽ ཙྪཱ སྠཽ གྒཱ, སྨཱ སྠཽ མྦཱ बीलाड गरुड़ मूषक ८ सः मृग लच्छन ४९ वृषभ हस्ति अश्व चन्द कीच पक्षी पद्मकमल साथियों चन्द्रमा मगरमच श्रीवत्स गेंडो पाड़ो वराह सिचोणो बज हिरण बकरो नदीवर्त कलश कच्छ कमल शंष सर्प सिंह पिता का नाम संव मेध ५० नाभि राज मरुदेवी जितशत्रु विजया जितारी सेना सिद्धार्था श्रीधर प्रतिष्ट महासेन सुग्रीव दृढरथ बिष्णु वसुपुज्य कृतवर्मा सिंहसेन भानुं विश्वसेन शूर सुदर्शन कुम्भ राजा सुभित्र विजय " 59 53 33 " "2 " " 32 रामा नंदा बिष्णा जया श्यामा "" सुयशा सुव्रता अचिरा 99 "" 3 :2 29 " 39 99 93 माता नाम ५१ 99 " मगला सुसीमा पृथ्वी लक्ष्मणा समुन्द्रविजय, शिवादेवी अश्वसेन वामादेश सिद्धार्थं शिला श्रीराणी देवी प्रभावती प्रभावती विप्रा वंश ५२ इक्ष्वाक " 99 35 99 99 "2 29 35 99 " ور " 23 ور " " ". 23 हरीवश इक्ष्वाक हरिवंश इक्ष्वाक " त्रिलोक्यनाथ का सूतिक कर्म करे । छप्पन दिशाकुमारी जैसे - मेरु पर्वत के गजदंतादि के पास रहने वाली अधोलोकवासी श्रठ, मेरु के नन्दन बन के कूटों पर रहने वाली उर्ध्वलोकवासी आठ, रूवकद्वीप के पूर्व दिशा में रहने वाली ८, पश्चिम की ८, उत्तर को ८, दक्षिण की ८, मध्य में रहने वाली ४, और विदिशा में रहने वाली ४ एवं सर्व मिलकर ५६ दिक्कुमारी अपरिग्रहित देवियां समझनी । - कंदलीगृह २ – भूमिशोधन संवर्त्तकवायु ३ – सुरभि नल वृष्टि ४ -- जलपूर्ण अभिषेक कलस - ऐनक ६ - बींजना ७ - चामर ८ दीपक ९ - नाल च्छेदन एवं नृत्य करती है इनमें प्रत्येक देवी के ५ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर भायुष्य कुमारावस्था दीक्षापरिवार १ पू० सुवर्ण राजा लग्न हुआ २. अक्ष पूर्व १८, " लालवर्ण सुवर्ण श्वेत :: :: :: :: :: : : ५० हजार पूर्व सुव ..८४ लाख वर्ष २१ लक्ष वर्ष लालवर्ण कुमार सुवर्ण राजा २५.०० खी ॥कोड़ १॥ कोड़ १कोद कुमारी | नहीं हुआ। राजा हुआ निल श्याम ३०००० १०.०० सुवर्ण कुमार गौसमगौत्र काश्यप तमगौत्र কব ९ हाथ ७, श्याम निल सुवर्ण . 13. ७२ वर्ष १ पुत्री चार चार महत्तर देवियों, चार चार हजार सामानिकदेव, सोलह सोलह हजार भात्मरक्षक देव और साव सात अनिकादि देवी देवता का परिवार होता हैं। ४-इन्द्र भुवन पतियों के २० बांणमित्रों के ३२ ज्योतिषियों के २ और विमानीकों के १० सर्व ६४ इन्द्र हैं प्रभु के जन्म समय शक्रेन्द्र प्रभु के जन्म स्थान और ६३ इन्द्र मेरु पर पाते हैं। इन्द्रों का कर्तव्य कि वे प्रभुका प्रतिबिम्ब बनाना २-पांच रूपकर एक रूप प्रभुको हस्तांजलि में लेवे ३-आठहजार चौसट लसों से प्रभु का अभिषेक करावे ५-प्रभु के शरीर के गौसीस चन्देन चर्चना ५-अंग अप्र पूजा करे -वस्त्र भषण धारण करावे ७-प्रभु को माता के पास रख प्रतिविष को अपहरण करना ८-प्रमु. Jain Education Internatione Private & Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा नगरी ६२ विनीता अयोध्या सावधी अयोध्या " कौशी बणारसी चन्द्रपुरी काकदी भद्धिलपूर सिंहपुरी चम्पापुरी कम्पलिपुर अयोध्या रत्नपुरी गजपूर " " मिथिला राजग्रही मथुरा द्वारामति बनारसी क्षत्री पकुन्ड दीक्षा तिथी ६३ चैतबदी ८ महा बद ९ मगशर शुद १५ महा शुद्ध १२ वैशाख शुद ९ कार्तिक वदी १३ जेठ शुद्ध १३ पो० ब० १३ मगशर बद ६ महा बद १२ फाग बद १३ फाग वद १५ महा शुद ४ वैशा० बद १४ महा शुद्ध १३ जेठ बद १४ वैशा० बद ५ मगर शुद ११) "3 फाग० शुद्ध १२ आसाढ़ बद ९ सावन शुद्ध ६ पोष बद ११ मगशर बद १ दीक्षा तप ६४ छठतप " "" 93 नित्य भक्त छठतप 19 " "" 19 "" चोथ भक्त छठतप 39 99 33 " 99 अठमतप छठतप 39 39 अठमतप दीक्षा वृक्ष ६५ वड वृक्ष शाळ प्रियाल प्रियगु शाल छत्र शिरीष नाग शाली पिथगु १० नन्दि भीलक " भाम्र अशोक चम्पक 99 3 19 19 27 सन्दुक " पाडल "9 99 जम्बु अशोक दधिपूर्ण, " 99 "" " 99 23 " 39 बकुल " वेडस घातकी छठतप शाल 37 " ار " प्रथम पारणो पारणा किसके तपस्या के दिन छद्मस्थ काळ इक्षु रस परम न खीर 19 "1 " ६६ " "1 "" 99 "1 19 " " " " " "9 " " 19 39 33 ६७ श्रेयांस के घर ब्रह्मदत्त सुरेन्द्रदत इन्द्रदत्त पद्म सोमदेव महेन्द्र सोमदत्त पुष्प पुनर्वसु नन्द सुनन्द जयधर विजय धर्मसिंह सुमित्र व्याघ्रासिंह अपराजित विश्वसेन "" "3 " "3 99 " 39 33 29 99 19 99 19 99 39 99 ब्रह्मदत्त दिनकुमार वर दिन्न धन्यनाम बहुल ब्राह्म" 19 99 12 " १ वर्ष दो दिन . " "1 ૧૮ 95 " "" " " $3 " د " " 13 .. 35 33 13 "" "" 95 ६९ १००० वर्ष १२ „ १४ " १८ " २०,, ६ मास ९ ३ 19 ३," ४ " 39 २ " १ .. २ ३ वर्ष دو "3 9 १६ ३ १ अहोरात्र " ११ मास ९ मास ५४ दिवस ८४ दिवस १२ वर्ष ६ ॥ के हस्तांगुष्ट में अमृत का संचार करना ९ - वत्तीस करोड़ सोनाइयों की बर्षाद करना १० - आशीर्वाद देना ११ नन्दीश्वर द्वीप जाकर - अष्टान्हिका महोत्सव कर बाद स्वस्थान जाते हैं । ५- प्रभु के २५० ढाई सौ श्रभिषेक-सूर्य, चन्द्र, वर्जकर ६२ इन्द्रों के ६२, सूर्य के ६६ चन्द्र के ६६ सामानिक देवों का १ गुरु स्थानिक देवों का १ परिषद देवों का १ अंग रक्षक देवों का १ शकेन्द्र की म महिषीदेवियों के ८ ईशानेन्द्र की अग्रमहिषी के ८ सुरकुमार के दो इन्द्रों की श्रममहिषियों के १० नागकुमार के दो इन्द्रों की बारह इन्द्रणियों के १२ ज्योतिषियों की श्रममहिषियों के ४ व्यन्तर देवों की देवियों के ८ अनिका के देवों का १ और शेष सब देवों का १ एवं सर्व मिलकर २५० अभिषेक करते हैं । Jain Education ne Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान नगरा पुश्मिताल अयोध्या सावन्धी अयोध्या कौशांबी बणारसी चन्द्रपुरी काकंदी मदिकपुर सिहपुरी चम्पापुरी पिकपुर पोष्या पुरो गजपुर मथुरा राजगृही मथुरा गिरनार बनारसी ज्ञान तिथी ७१ फागण बद ११ अट्टम तप पौष शु" छहम तप काती वद पौष शु चैत्र शुद्ध ११ चैत्र शुद्ध १५ फाग बद ६ 59 ار 93 33 " 39 कार्ति शुद्ध ३ पौष वद १४ महा बद ३० " शुद्ध २ पौष ६ १४ "9 39 वैशाख वद १४ पोष शुद्ध १५ ९ 39 मेस ३ कार्ति १२ मगसर 19 ११ फाग बद १२ ज्ञान तप 03 55 ७२ " 99 39 13 31 39 99 चौथ भ छटतप " " 15 $. मगसर शुद ११ आ० बद ३० चैत्र वदी १४ बालिकनदी वैशाख शुद्ध १० छह सप " अठम छट्ठतप 39 अहम गणधर ७३ ८४ ९५ १०२ ११६ १०० १०७ 重 प्रथम गणधर ७४ पुंडरिक सिंह सेन चारु बज्रनाभ चरम पद्मोतर ९५ विदर्भ ९३ दिन .. वरहाक ८१ नंद ०६ कौस्तु ६६ सुभूम ५७ मदर ५० ४३ 14 ३५ यस अरिष्ट चक्र युद्ध शब ३३ कुंभ २८ अभिलक १८ मही १७ +11 × १० शुम्म वरदत्त आर्य शुभदन्त ११ ईन्द्रभूति प्रथम आर्य ७५ ब्राह्मी फाल्गु श्यामा भजिता कास्यपि रति सोमा सुमना वारुणी सुयसा धारणी धरणी धरा पद्मा आर्य शिवा शुचि दामिनी रक्षिता मधुमति पुष्पमति अगिला पक्ष दिया पुष्पकुला चन्दनबाला बैक्रिय मुनीबादी सुनि ७६ २०६०० २०४०० १९८०० १९००० ૧૮૪૦ १६१०८ १५३०० १४००० १३००० १२००० ११००० १०००० ९००० ८००० ७००० 8000 ५१०० 0200 २९०० २००० ५००० १५०० ११०० ७०० ०७ १२६५० १२४०० १२००० 11000 १०४०० ९६०० ८४०० ७६०० ६००० ५८०० ५००० ४७०० ३६०० ३२०० २८.० २००० 9800 १४०० १२०० १००० ... ६०० ४०० + कल्पसूत्र में १८ कहा है X कल्पसूत्र में ८ कहा है, शायद दो अल्प समय में मोक्ष गये हो। ६ - तीर्थंकरदेव का रूप मंडलीक राजा, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती, व्यान्तरदेव, भुवनपतिदेष, - क्योतिषीदेव, वैमानिकदेव, नौमीबैग के देव, चारानुतरवैमान के देव, सर्वार्थसिद्ध वैमान के देव, आहारीक शरीर और गणधरों के रूप की एक रासी की जाय तो उस रूप से भी तीर्थंकरों का रूप अनन्त गुणा है ७ - तीर्थंकरदेव का बल - संसार में मनुष्य देव और तिपच इन सबका बल एक ओर एकत्र करले यो भी तीर्थंकरों का बळ अनन्त गुणा है। सीर्थंकरदेव के वीर्य अन्तराय का सर्वनाश होने से वे अनन्त बली कहलाते हैं । 1 ८-१र्थकरों का वर्षी दान जैसे प्रातः समय से भोजन के समय तक तीर्थंकर भगवान् प्रतिदिन Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधि केवली. मनः पर्यव | चौदह पूर्वधर साधु सं. साध्वी भावक श्राविक . .... ८४००० ५५४००० २७२० ५४५००० ३१६००० ९८०० १५०० १४... १३०.. १२००० १२६५० १२५५० १२.५० ११६५० १०४५० ०३०० ९१५० ८००० २४०० १३१००० ५२०००. ५१६०० ५.५००० १९३००० २३०० २००० ७२०० ७५.. ६५०. ३.००२० ५५०००० ३०.०३० | ४२०००० ४१०००० २५०००० २८०००० २००००० १२०००० १००००० १००००६ ८४००० १०३०.. ७२००० १००... ६८००० १००००० १६००० १२००० ६२४०० ६२००० ६१६०० ६०... ६०६०. १०५.०० २९८००० २९३००० २८८०.. २८१००० २७६००० २५७००० २५०००० २२९०.. २८९.०० २७९००० २१५००० २००००० २०६००० २०४००० १९०००० १७९००० १८४०.. १८३००० १७२००० १००००० ५४०० १२.. ६५.. ५५.. ४७१... १५८००० १४८००० १३६... ४२४... ४०१४०० १५... ५५०० १६०० ५००० १०.. २५०० २६०० १२.. २८.. २२०० १३४. २५५१ १७५० ३८१.०० ३७२००० २२.. १८०० १५०० ३००० १२५० १५० ११.०० १५.. १५०० ३३६... १८.०० १६००० ७५० ३८.०० १६४००. १५९००० ५०० ३.० १०८००००० एक करोड़ पाठ लाख सोनइयों का दान करते हैं। एक वर्ष तक निरन्तर दान करने से ३८८८०००००० सोनइयों का दान करते हैं । ९-तीर्थंकरों के तपस्या का पारणा के समय प्रथम दान देने वाला महा पुन्यवान होता है। प्रथम के आठ तीर्थकरों को दान देने वाले उसी भव में मोक्ष गये शेष दातार तीन भव करके मोक्ष जायंगे। १०-तीर्थकरदेव जहां पारणा करते हैं वहां जघन्य सादा बारह लक्ष और उत्कृष्ट सादा बारह करोड़ सोनइयों की बरसात होती है और सुगन्ध जन पुष्पादि की भी बरसात होती है। ११-भगवान ऋषभदेव के शासन में उत्कृष्ट बारह मास का सप मध्यम २२तीर्थकरों के शासन में पाठ "गास और चरम तीर्थकर महावीर के शासन में साधू छः मास का उत्कृष्ट तप करते थे। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि राजाओं ना नाम, यक्ष यक्षणि मोक्ष मोक्ष तिथि मोक्ष तप मोक्षासम ८" गोमुख पनामन कायोत्सर्ग तुबंर त्रिपृष्ठ मरत चक्रवर्ति सागर , महायक्ष मृगसेन राजा त्रिमुख मित्र वीर्य यक्षेश सत्य वीर्य भजितसेन , कुसुम दानवीर्य मातंग मघवा चक्रवर्ति , विजय युद्धवीर्य राजा ,, | अजित सीमन्धर , ब्रह्मा त्रिपृष्ठ वासुदेव | ईश्वर कुमार संभु षट् मुख पुरुषोमत्तम , पाताल पुरुषसिंह , किन्नर कोणालक राजा गरुंड कुबेर नृपति गर्व सुभूम चक्री यक्षेन्द्र भजितराजा कुवर विजयमहनृप वरुण हरिपेण चक्री भुकूटी श्रीकृष्ण वासुदेव गोमेघ प्रसेनजित राजा | पार्श्व श्रेणिक राजा मातंग , चकेश्वरी अष्टापद महावद १३ छ उपवास अजित बाला | समेतशिखर चैत्र शुद ५ | एक मास दुरितारी कालिका वैशा, शुद महाकाली चैत्र , ९ अच्युता मागसर वद ११ शांता फाग बद. ज्वाला भाद बद . सुतारिका अशोका वैशा, वद २ मानवी श्रावण , प्रचडा चंपा पूरी असा शुद १४ विदिता समेत सि , वद. अंकुशा चैत्र शुद ५ कंदर्पा जेठ शु०५ निर्वाणी ,, वदी १३ वैशा वद. धरणी मागसर शुद धरण प्रिया फाग , २ नरदत्ता जेठ वदी ९ गंधारी वैशा,.. अबिंका गिरनार असा शुद पद्मावती समेत शि. श्राव शुद सिद्धायिका पावापुरी काती वद १५ | छठ तप बला पद्मासन कायोत्सर्ग पमासम - १२-तीर्थक्करदेव १८ दोष रहित होते हैं जैसे-दान्तन्तराय, लाभ०,भ ग०, उपभोग०, वीर्य०, मिध्यात्व, अज्ञान, अव्रत, काम, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगप्सा, राग, द्वेष, पौर निद्रा एवं अठाहरा दोष । अथवा हिंसा, झूठ, चोरी, क्रीडा, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, मत्सर, अज्ञान, निद्रा, और प्रेम एवं अठारह दोषों से रहित हो वेही सच्चे देव कहलाते है। १३-तीर्थङ्करदेव के अतिशय-विशेष गुण, जन्म समय ४ धनधाती कर्मों का क्षय होने से ११ देवकत १९ एवं सब ३४ अतिशय होते हैं। जन्म समय १-शरीर अनंत गुण, रूप, संयुक्त सुगन्धी, रोग, मक परसेवा (पशीना) रहित २-रुद्रर मांस गाय के दूध जैसा उज्वल और दुर्गन्ध रहित है । ३-आहार www.jaihelibrary.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर मान मोक्ष परिवार | माता गति | पिता गति | दीक्षा शेविका युगान्त भूमि | पर्यायभू ९० ५० लाख क्रो. सा. य असंख्याता पाट] दो घड़ी सख्याता पाट एक दो दिवस १०हजार, क्रो. सा. १. ८ ९०. क्रो० सा. ९० " " १ कु० कम ५४ सागरोपम १. नागकुमार सुदर्शना ईशान सुप्रभा सिद्धार्थी अर्थसिद्धा अभयंकरा मनोहरा मनोरंभिका सुप्रभा सनत्कुमार सनस्कमार पाक्रप्रभा विमलप्रभा पृथ्वी देवदिशा सागरदत्ता सागरदत्ता नागदत्ता सार्वथा माहेन्द्र विजया विजयंति नयन्ति अपराजिता देवकुरा रामती विशाला अकला । अच्यूत अच्यूत चन्द्रप्रभा ३अ.क. •॥ पल्योपम 01 अक० १... क्रोड वर्ष ५४ लाख वर्ष माहेन्द्र - ८३७५० वर्ष २५० , भाठ पाट दो वर्ष चार पाट | तीन वर्ष तीन चार वर्ष चरम जिन निहार अदृश्य-चरम चक्षु वाला नहीं देख सकता४-श्वासोश्वास पदमकमल जैसा सुगन्धवाला होता है एवं अतिशय जन्म से तथा १-योजन प्रमाण समवसरण में देव मनुष्य तियच जितने हो सुखपूर्वक समावेश हो सकते हैं २-चारों दिशा में पचबीस २ योजन पूर्वोत्पन्न रोगों की शांति और नया रोग हो नहीं सके ३आपसी वैरभाव उपशान्त हो नया वैर पैदा न हो ४-क्षुद्र जीवों की उत्पत्ति का अभाव । ५ मर की वगैरह बड़े रोग नहीं हो पहले के रोग उपशान्त हो जाते हैं ६-अति वर्षा न हो-अना वृष्टि भी न हो ८-दुष्काल न पड़े ९-स्वचक्री परचक्री का भय न हो १०-प्रभु की योजन गामनी वाणी देव मनुष्य तिर्यच अपनी २ भाषा में समझ सके ११-प्रभु के पीछे सूर्य से भी अधिक तेज वाला भामण्डल प्रकाशमान रहे एवं ११ अतिशय केवल ज्ञान होने से होते हैं। १-प्रमु विहार करे तब पचवीस योजन तक प्रकाश पड़ता धर्मचक्र _Jain Ed.आगे जाले । २-देवकृत चमर तथा स्वयं बीज एवं ढलते रहे। vate Personal use only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन नाम नगरी माता पिता १०० १०२ १०४ पुंडरिगिणी सुसीमा वितशोका विजया पुंडरिगिणी वृषभ गज हरिण वन्दर सूर्य सुसीमा चन्द्र सिंह हस्ती श्री सीमंधर श्री युगमंधर श्री बादु श्री सुबाहु श्री सुजात श्री स्वयंप्रभ श्री ऋषभानन श्री अनन्तवीर्य श्वी सूरप्रभ श्री विशाल श्रो वनधर श्री चन्द्रानन श्री चन्द्रवाहु श्री भुजंग श्री ईश्वर श्री नेमिप्रभ श्री वीरसेन श्री महामद | श्री देवजला | श्री अजितवीर्य सत्य की देवी श्रीयंश राजा सुतारा " विजया " सुग्रीव " सुनन्दा " निसद देवसेना देवसेन सुमंगला " मित्रभुवन वीरसेना " कीर्तिराजा मंगलावती" मेघराजा विजयावती" | विजयसेन भद्रावती - श्रीनाग सरस्वती " पभरथ पद्मावती" वाल्मीक रक्षिका " देवानन्द महिमा महाबल जशोजला " गजसेन सेनादेवी" वीरराज भानुमती " | भूमिपाल ऊमादेवी "देवराज | गंगादेवी " सर्वभूति कानिकादेवी" | राजपाल रूकमणी प्रियमंगला मोहनी किंपुरिषा जयसेना प्रियसेना जयावती विजया नंदलेना विमला विजयावती लीलावती सुगन्धा गंधसेना भद्रावती मोहनी राजसेना सुरिकांता पद्मावती रत्नावती वितशोका विजया पुंडरिगिणी सुसीमा वितशोका विजया पुंडरिगिणी सुसीमा वितशोका विजया पुंडरिगिणी सुसीमा वितशोका विजया वृषभ पकमल सूर्य हस्ती वृषभ चन्द्र स्वास्तिक ३-पादपीठ सहित स्फटिक रत्न मंडित सिंहासन हो ४ चारों दिशा में ऊपर तीन तीन छत्र हो ५-~-रत्नमय इन्द्रध्वज प्रभु के आगे चले ६-सुवर्णामय नौ कमन जिस पर प्रभु पैर रखकर चले और कमल भी स्वयं बलते रहें ७ मणि सुवर्ण रजित मय तीन गढ़ वाला समवसरण हो ८-प्रभु चौमुख देशना दें जिसमें तीन दिशा देवता प्रतिबिंब रखे ९ --प्रभु से बारह गुणा आशोक वृक्ष जो छत्र घंटा पताक संयुक्त हो १०-मार्ग के कांटा अधोमुख हो ११-प्रभु गमन करे तब सर्व वृक्ष नमन भाव से प्रभु को प्रणाम करे १२-आकश में देव दूधवी बाजती रहे १३-पवन-वायु अनुकूल चले १४-पाक्षी जीव प्रभु को प्रदिक्षण करते जाय १५-सुगन्धी नल वृष्टि हो १६-ढींचण प्रमाणे सुगंधी पुष्प की वृष्टि हो १७-दीक्षा लेने के साद ढाढ़ी मूछ के बाल नहीं बढ़े १८-कम से कम चारों निकाय के एक करोड़ देव प्रभु की सेवा में रहे १९-छोऋतु अनुकूल और अपने २ समय फलवती हो इत्यादि एवं उन्निश अतिशय देवकृत होते हैं १.११-१९ सर्व मिला कर ३४ अतिशय सर्व त थैकर देवों के होते हैं। १३-तीर्थहरदेव के पुनः चार अतिशय १-आपायापगम अतिशय-विहार क्षेत्र में चारों ओर १२५ Jain Education Intellona rivare & Personal use only wwmainehorary.org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोजन तक रोगादि भय न हो २-ज्ञानातिशय केवल ज्ञान द्वारा लोकालोक के भावों को जाने ३-पूजातिशय प्रमु, प्राणी मात्र के पूजनीक हैं ४--वचनातिशय प्रभु की देशना देव मनुष्य तियेच सर्व अपनी-अपनी भाषा में समझ कर बोध को प्राप्ती हो ।इत्यादि तीर्थङ्करों के अनन्त अतिशय होते हैं। १४-तीर्थकरदेव की वाणि के ३५ गुण होते हैं जैसे १-संस्कृतादि लक्षण युक्त हो २-मेघ जैसी गंभीर हो २-प्रामणि तुच्छ भाषा मुक्त हो ४-उच्च स्वभाव युक्त हो ५-प्रत्येक शब्द स्पष्ट सुन सके ६विक्रता दोष रहित सरल हो ७-माल कोषादि गग सहित हो ८-महान अर्थ वाली हो ९-पूर्वापर विरोध वाली हो १०-संदेह रहित ११-शिष्ट पुरुषों की सूचना करवाने वाली हो १२-देश कालानुसारणी हो १३-पर दोषों को प्रकट न करने वाली हो १४-श्रोताओं के हृदय को आनन्द देने वाली. हो १५-परस्पर पद एवं वाक्यानुसारणी हो १५-प्रति पाद्य विषय पर उलंघन न करे १५-अमृत से भी अधिक मधुर हो १८-स्वप्रशंसा और परनिंदा मुक्त हो १९--अच्छा सम्बन्ध और अक्षर पद वाक्य स्पष्ट जानने वाली हो २०-सत्व प्रधान और साहस युक्त हो २१-कारक, काल, पचन और लिंग वाली हो २२-अखंडनिय विषय वाली हो २३-प्रतिपाद्य अर्थ विशेष की साधने वाली हो २४-अनेक वस्तु समुदाय का विचित्र वर्णन करने वाली हो २५-दूसरों का मर्म प्रकाश करने वाली न हो १६-विभ्रमादि दोष रहित हो २७-विलम्ब रहित हो २८-वक्ता की अनुपम शक्ति प्रगट करने वाली हो २९-सुनने वाले को खेद न हो ३०-उत्सुकता मुक्त हो ३१-धर्मार्थरूप पुरुषार्थ को पुष्टि करने वाली हो ३२-सब लोग प्रशंसा करने योग्य हों ३३-अद्भूत अर्थ रचना वाली हो ३४--सापेक्षा वाली हो ३५-अद्भुत आश्चर्य पैदा करने वाली हो इत्यादि । १४-तीर्थक्कर देव के अष्ट महाप्रतिहार्य होते हैं जैसे कि १-तीर्थङ्करों के शरीर से बारह गुना ऊंचा अलंकृत अशोक वृक्ष २-पांच प्रकार के सुगन्धी पुष्पों की वर्षा ३-आकाशमें दिव्य ध्वनि ४-श्वेत चामर ५---सुवर्ण रत्नजित मय सिंहासन ६-भामण्डल प्रकाशवाला ७---देव दुन्दुभि ८-तीनछत्र एवं आठ महा प्रतिहार्य सर्व तीर्थङ्करों के होते हैं। १५-महाविदह क्षेत्र में वर्तमान समय २० तीर्थङ्कर विद्यमान है जिन्हों का वर्णन ऊपर कोष्ठक में दिया है इनके सिवाय, कई सबके लिये समान बातें हैं, वह यहाँ लिख दी जाती है । वीस तीर्थङ्करों के स्थान क्रमशः ४ जम्बुद्वीप का सुदर्शन मेरू,चार पूर्व धातकी खण्ड का विजयमेरू,चार पश्चिमी घातकीखण्ड ! का अचलमेरू, चार पूर्व पुष्करार्द्ध का पुष्कर मन्दिर मेरू,चार पश्चिम पुष्करार्द्धका विद्यन्माली मेरू। प्रत्येक मेरुकी ३२ विजयों से ८-९-२४-२५ वीं विजय में तीर्थङ्कर होते हैं जिन्हों के नाम-पुष्कलावती, पच्छा, निलीनावती और विप्रा है। नगरियों के नाम कोष्टक में दिये हैं। सब तीर्थकरों का जन्मादि समकालीन ही होते हैं । श्रावणवद १ को च्यवन, वैशाख बद १० को जन्म, फाल्गुण शुद्ध ३ को दीक्षा, चैत्र शुद्धि १३ को केवल ज्ञान-चौतीस अतिशय, पैतीस गिरा गुण, अष्ट महाप्रतिहार्य, समबसरण की रचना करोड़ीदेव सेवा में रहना, पांच पांच कल्याण क इन्द्रादि देवों द्वारा किया जाना, देहमान ५०० धनुष्य कांचन वर्णी काया ८४ लक्ष पूर्वायुष्य, ८३ लक्ष पूर्व गृहवास, एक लक्ष पूर्व दीक्षा, १००० वर्ष छमस्थ, ८४ गणधर, दसलक्ष केवली,सौ करोड़ साधु साध्वी। जिस विजय में तीर्थकर जन्म लेते है, रसी विजय में मोक्ष पधारते है, दूसरी विजय में भी साधु सान्वी एवं केवली होते हैं । धन्य है महाविदह के मनुष्यों को कि वे सदैव चतुर्थ श्रारा सरश काल में रहते हुए तीर्थङ्कर देव का व्याख्यान सुन सेवा भक्ति करते हैं । महाविदह क्षेत्रके तीर्थकर वहाँ के लोगों को घहते हैं कि धन्य है भरत क्षेत्र के धर्मी मनुष्यों को क्योंकि वहाँ तीर्थङ्कर, केवली,मनः पर्यव, अवधि, पूर्वधर न होने पर भी वे बिना धणी झुंज रहे हैं तथा महाविदहक्षेत्र में यह गाली दी जाती है कि जाओ भरत क्षेत्र में बह धनी और बहु परिवार वाला होना । जय बोलो श्री तीर्थकर देव की ॥ ३ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७९ ] नं० १ २ ३ ४ ५ अशग्रीव ६ नाम १९ भरत सागर अचल त्रिप्रष्ट ८ ९ 10 99 १२ सुप्रभ १३ पुरुषोतम १४ * * २० २१ २२ २३ विजय द्विपृष्ट तारक मधु १५ सुदर्शन १६ पुरुपसिंह १७ निशुभ १८ माघवा सुभद्र स्वयंभू मेरक सनत्कुमार शान्तिनाथ कुथुनाथ अरेनाथ पदवी चक्रवति चक्रवर्ति बलदेव वासुदेव प्रतिय सु बलदेव वासुदेव प्रतिवासु० बलदेव वासुदेव प्रतिवः सु० बलदेव वासुदेव प्रतिवासु. बलदेव वासुदेव प्रतिवानु चक्रवर्ति " " " 19 आनन्द बलदेव २४ | ० पुण्डरीक वसुदेव २५ बली २६ सुभूम प्रतिवासु चक्रवर्ति माता नाम सुमंगला यशोमति भद्रा मृगावती नीलांजना सुभद्रा ऊमादेवी श्रीमती सुप्रभा पृथ्वी सुन्दरी स्निग्धा सुदर्शना गुणवंती विजया अम्बिका भद्रा सहदेवी अचरा श्रीमाता श्रीदेवी विजयंति क्ष्मीदवी तारादवी तारा पिता नाभ ऋषभदव सुमित्र प्रजापति 39 मयूरप्रीव ब्रह्म " श्रीधर रूव و समर केसरी सोम " विकास शिव "" 0 समुद्रवि० अश्वसेन विश्वसेन शूर सुदर्शन महाशिर 39 मेघनाद कृतवीर्यं नगरी अयोध्या "" पोतनपुर 33 रत्नपुर द्वारका 39 विजयपुर द्वारका 97 नन्दनपुर द्वारका 35 पृथ्वीपुर अश्वपुर " हरिपुर श्रावस्ती इस्तनापुर 99 9: 33 चक्रपुर " अरिजय इस्तनापुर शरीरमान ५०० धतु ४५० धनु ८० 19 39 ७० धनु 99 ६० धनु " 22 "3 ५० धनु " RRC 29 "" " ४५ धनु 99 99 ५० धनु ४५ " ૪૦ २९ ३५ ” 93 २८ ३० " "" 22: " आयुष्य ८४ ल.पु. ७२ " ८५० वर्ष ८४ " " 39 ७५"" ؟ ७२” 39 39 " ६५,,, ६० 19 99 १७ १० १० " ५५ " " ३० " " 29 "" 39 23 "" १००००० ९५००० ८४००० ८५००० ६५००० 99 ६०००० गति मोक्ष ار 33 ७ बीन. मोक्ष ६ डी.न. 99 मोक्ष ६ ठी.न. ". मोक्ष ६ ठी.न. " मोक्ष ६. डी. न. 39 सीना दे. 39 मोक्ष "9 33 ६ ठी.न. " वीन. दिग वि. समय ६०००० वर्ष | ३२००० ” १००० वर्ष १०० वर्ष ९० वर्ष ८० वर्ष ७० वर्ष १००० वर्ष 39 ८०० वर्ष ६००," ४०० 99 ५० वर्ष ५०० वर्ष सीरवारा ऋषभदेव अजितनाथ श्रीयंसजिन "" === 19 बासपूज्य " विमलनाथ 99 S " अनंतनाथ == धर्मनाथ = = = शान्तिनाथ कुन्थुनाथ भरनाथ CARR 39 " Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निसिंह बनारसी जयंती शेषवती ६५०००। मोक्ष ५६... ५वी न. | ५० वर्ष | " बलदेव वासुदेव प्रतिवासु. चक्रवर्ति rimm www.jainelibrary. सिंहपुर . मोक्ष ३०० वर्ष मुनिसुव्रत बलदेव प्रोत्तर दसरथ हस्तनापुर अयोध्या ३०००० १५००० १२००० थी. न. १० वर्ष " नन्दन दत प्रल्हर महापद्य राम (पद्य) लक्ष्मण रावण हरिषण जय चक्र. बलमद कृष्ण जरासिंध ब्रह्मदत वासुदेव प्रतिवासु. चक्रवर्ति ज्वाला अपराजित सुमित्रा कैकसी मे। वप्रा रोहणी देवकी नमिनाथ ३५ रत्नाश्रवा महाहरी विजय वसुदेव लंका कपिलपुर राजगृह शौरीपुर नेमिनाथ बलदेव वासुदेव प्रतिवासु. चक्रवति मोक्ष १५. वर्ष १०. वर्ष ब्रह्मदे० ३ जी.न । वर्ष ४धी न. ७वी न. । १६ वर्ष " जयद्रथ ब्रह्म राजगृह शौरीपुर ! चूलनी ७. . &Persal Use Only नव-नारद रुद्र नाम ती. वाराम शरीर भायु नारद ती० बारे वा. वारे Ava शरीर आयु - ८४ त्रिपुष्ट द्विपुष्ट - स्वयंभू ८४००००० १ भीमावली । ऋषभ. जितशत्रु अजित ३ रूद्रदत्त सुबुद्धि ४ विश्वानलु शीतल सुप्रतिष्ठ श्रीयंस ६ अचल वासपूज्य पुडरिक विमल अजितधर अनंत ९ बजितनाभी धर्म. । पेढालु शान्ति " सत्यकी महावीर . भीम श्रयंस ३ महाभीम वासपूज विमल ४ महारूद्र अनंत ५ काल धर्म महाकाल अर-मिल्ल दुर्मुख नरमुख मुनिसु० ९ अधोमुख । नेमि० पुरुषोतम पुरुषसिंह पुरुष पुर. लक्षमण कृष्ण cation International Jain E Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह बात प्राकृतिक सत्य है कि सूर्य्य उदय होकर अपनी अवधि के पश्चात् अस्त भी हो जाता है, ठीक इसी प्रकार संसार चंद्र में भी कई जातियों, समाजों, एवं राष्ट्रों का उदय और अस्त ( उत्थान एवं पतन ) हुआ करता है। यह उत्थान और पतन की घटमाला ( क्रिया ) अनादि काल से चली आई है और भविष्य में भी चलती रहेगी। यही नियम जैन धर्म के प्रति भी समझना चाहिये । एक समय वह था कि जैन धर्म एवं जैन समाज उन्नति के उच्च शिखर पर विराज मान था, पूर्व से पश्चिम एवं उत्तर से दक्षिण तक जैन धर्म का झंडा फहरा रहा था। इतना ही नहीं, कई पाश्चात्य देशों में जैन धर्म का काफी प्रचार था, जिसको वहां कि भूमि खोद ( अम्वेषण विभाग ) के काम से उपलब्ध मन्दिर, मूर्तियों के खण्डहर पूर्णतः प्रमाणित कर रहे हैंः इत्यादि । किन्तु उपरोक्त कोल चक्र ( परिवर्तन-चक्र ) के नियमानुसार जैन धर्म की वह स्थिति न रह सकी और वह उन्नति के उच्च शिखर से शनैः २ अवनत दशा को प्राप्त करता गया । वर्तमान जैन समाज की पतन अवस्था को देख कर किस समझदार व्यक्ति के हृदय में गहरा दुःख म होगा । इस पतनावस्था का भी कोई न कोई कारण तो अवश्य ही ( होगा ) होना चाहिये ! यों तो पतन के अनेक कारण हो सकते हैं किन्तु यदि हम दीर्घ-दृष्टि से अन्वेषण करें तो यही मालूम होगा कि मुख्य कारण, जैन समाज का अपने पूर्वजों के गौरवमय इतिहास को भूल जाना है। यही कारण है कि जैन समाज की नसों में अपने पूर्वजों के गौरवशाली रक्त के प्रवाह की शिथिलता, ओज की होनता और इतिहास की अनभिज्ञता व्यापक है । इन्हीं कारण से आज वह मुर्दा-समाज की उपाधि धारण कर अपना नाम उसीपंक्ति में लिखाने को तत्पर हो गया है। जिस प्रकार मृतक को हेमगर्व व कस्तूरी अथवा चन्द्रो एवं तत्समान ही अमूल्य औषधियों देने पर भी उसमें चैतन्यता नहीं आती, ठीक इसी प्रकार आज जैन समाज का हाक हो रहा है। 1 जैन समाज में अभी ऐसे मनुष्यों का भी अभाव नहीं है कि जो इस जाग्रति के युग अर्थात् वीसवी सदीं में जन्म लेकर भी यह नहीं जानते कि इतिहास किस चिड़िया का नाम है ? अगर उनको समझाया भी जाय की अपने पूर्वओं के भूतकालीन सद्- चरित्र, उनकी वीरता- गम्भीरता, धैर्य्यता एवं उदारता, देश-समाज धर्म एवं राष्ट्र सेवा तथा उस समय की सामाजिक-धार्मिक एवं राजनीतिक परिस्थिति क्या थी ? उस को जानना, उनके समय का हुनर, उद्योग, शिल्प कला एवं रीति-रिवाज क्या क्या था ? इन सब बातों अन्दर से उपादेय कारणों को स्वी कार करना इत्यादि । इन सब का ही नाम इतिहास है। इस पर हमारे वे भोले भाई चट से बोल उठते हैं कि-'वाह ! जी वाह !! आपने ठीक इतिहास बतलाया। ऐसी व्यर्थ की गई गुजरी बातों के लिये घर का काम छोड़ कर रात-दिन सिरपची (मगज़ खोरी ) करना तथा बड़े कंष्ठ एवं परिश्रम से कमाया हुआ द्रव्य पानी की तरह बहा देना कौन सी समझदारी है और क्या फायदा है ? हमारे तो पूर्वज सदा से कहते आये हैं और वही हम भी हमारे बाल बच्चों को कहते हैं कि "गई तिथि तो ब्राह्मण भी नहीं बांचे हैं। हमारे पूर्वज धनवान थे अथवा वीर थे तो क्या उनके इतिहास पढ़ने से हम धनबाम थोड़े ही मन जांयेंगे ? मेरा तो खयाल है कि ऐसी बेहूदा ( मूर्खता पूर्ण ) बातें कहने वाले बेकार पागल ( मूर्ख) ही होते हैं कि जो समय, शक्ति और द्रव्य का बलिदान दे रहे हैं किन्तु हम ऐसे पागल नहीं हैं। यदि घर-दुकान का काम दो पैसे पैदा करेंगे तो भविष्य में उससे बाल बच्चे सखी होंगे और पास में पैसे होंगे तो हर व्यक्ति भाकर हमारी ही याद करेगा आदि २ ।" Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www बतलाइये ! ऐसे मनुष्यों को समझाना कितना मुश्किल है ? मेरे विश्वार से तो उतना ही, जितना कि एक जंगली आदमी को चिंतामणि रत्न का मूल्य-समझाना । ऐसे अनभिज्ञ लोगों ने ही इतिहास का कोई मूल्य न समझ कर हमारा अमूल्य साहित्य अथवा उनके बिखरे पत्रों को जल में गला कर, कूट पीस कर डाडे ( शेकरी बना दिये जो प्रायः धूल कचरा ढोने के काम आते । किसी विद्वान् ने ठीक ही कहा है कि- "मूर्ख सज्जन द्वारा जितना नुकसान होता है उतना विद्वान् शत्रु द्वारा नहीं होता है ।" अतः ऐसे मूर्ख सज्जनों से तो हज़ार हाथ दूर रहना ही अच्छा है। एक अंग्रेज विद्वान् ने कहा है कि:--- "People who take no pride in the noble achievements of remete aneerters will never achieve any thing worthy to be remembered with pride by remote decendents." [ By Lord Macauley - one of the Historians ] "जो जाति अपने पूर्वजों के श्रेष्ट कार्यों का अभिमान एवं स्मरण नहीं करती है, वह ऐसी कोई बात ग्रहण नहीं बहुत वर्ष पश्चात् उसकी संतान को सगर्व स्मरण करने योग्य हों । करेगी जो जब हम हमारे पूर्वजों की अच्छी बातों को ग्रहण नहीं करते हैं तो फिर हम अपनी संतान से थोड़ी सी भी आशा क्यों रखें कि वह हमारी किसी भी अच्छी बात का स्मरण कर सकेगी। बस, यही हमारे पतन की परम्परा है। एक दूसरा अंग्रेज विद्वान् कहता है : - "अगर आप किसी जाति एवं समाज को नष्ट करना चाहें तो पहिले उसका इतिहास नष्ट कर दीजिये, जिसके नष्ट होने से वह स्वयं ही नष्ट हो जायगा ।" यह सत्य ही है कि जिन जातियों का इतिहास नहीं है वे जातियां संसार में अधिक समय तक न टिकी हैं और न टिक सकती हैं । १ - इतिहास का महत्व: इतिहास आज संसार का एक मुख्य मौलिक विषय बन गया है। संसार भर के विद्वत्समाज में इतिहास का आसन सर्वोच्च एवं आदर्शमय है । इतिहास के अभाव से कोई भी जाति, समाज एवं राष्ट्र अधिक समय तक संसार में जोवित नहीं रह सकता है । इतिहास के अध्ययन से ही हम किसी जाति, समाज एवं राष्ट्र के पतनोत्थान के कारणों को जान सकते हैं । उसकी रक्षा करने को तत्पर हो सकते हैं । अतएव इतिहास ही साहित्य का सर्व प्रधान अंग है। बिना इतिहास के हमारा साहित्य अधूरा एवं अपूर्व रह जाता है । इतिहास के अभाव में हम यह कदापि नहीं जान सकते कि किन २ कारणों से किस देश, समाज एवं राष्ट्र का उत्थान- अभ्युदय एव पुनः पतन का श्री गणेश हुवा था और वह अपनी चरमसीमा तक पहुँच गया था तथा अब हमें कौन २ उपाय ग्रहण करने चाहिये जिस के द्वारा कि हमारा पुनः उत्थान हो सके । - अतः भूतकाल की परिस्थिति को जानने के लिए इतिहास ही हमारा सच्चा शिक्षक एवं अवलम्ब है । इतिहास ही हम भूले भटकर्ता को सच्चा पथ-प्रदर्शन कराने वाला परम मित्र का काम देता है अतएव इतिहास की हम जितनी महिमा एवं प्रशंसा करें उतनी ही थोड़ी है। कारण, इतिहास के अभाव से भविष्य की उन्नति का मार्ग साफ-स्वच्छ एवं निर्विघ्न बनाने में ऐसी २ उलझने उपस्थित हो जाती हैं कि जिससे पिण्ड छुडाना मुश्किल हो जाता है । भूतकालीन इतिहास से हम वर्त्तमान में भविष्य का मार्ग बड़ी सुविधा के साथ निर्माण कर सकते हैं। भूत-कालीन इतिहास वर्तमान में हम को ऐसी शिक्षायें देता है एवं ऐसी२ घटनाओं का बोध कराते हैं कि जिन के द्वारा भविष्य में अवनति मार्ग को त्याग कर भावी उन्नति मार्ग का अवलम्बन कर मानवत जाति की सेवा करते हुए भाग्यशाली बन सकते हैं। भूतकालीन इतिहास से हम उस समय की सब परिस्थति एवं घटनाओं का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। हमारा अतीत कैसा था, राजनैतिक सामाजिक, धार्मिक एवं जातियों प्रवृत्ति रीति-रिवाज़ कैसा था किन किन जातियों ने किनर साधनों एवं प्रयत्नों से अपनी उन्नति की थी । नि किन वीर पुरुषों ने देश-जाति के लिये सर्वस्व एवं आत्म बलिदान दिया था और अपनी कमनीय कीर्ति किस प्रका library.org विश्व व्यापी बना कर अमर बना दी थी तथा अपने इतिहास को सुवर्णाक्षरों में लिखा कर हमारे लिये पथ प्रदर्शक बना Jain गये हैं। प्राचीन काल में किस किस देश में क्या क्या उद्योग, कहा कौशल्य, वाणिज्य व्यापार और किस २ स्थान एवं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमि में क्या क्या उत्पादन थी । किस देश के लोग किस देश से सभ्यता-सौम्यता और व्यवहार कुशालता की शिक्षा प्राप्त कर अपने देश में उसका प्रचार किया करते थे । जनता का जीवन निर्माण तथा आत्म-कल्याण किस प्रकार से होता था। प्राचिन समय के अपने पूर्वजों की वीरता, उदारता. वात्सल्यता, परोपकारिता, व्यापार कुशलता-रण कुशलता एवं सामुद्रिक व्यापार कुशलता देश का मान, खान-पान आदिर सब बातें हम एक मात्र इतिहास से ही जान सकते हैं। तथा इन बातों पर (गौर) मनन करने के पश्चात् अपने जीवनोपयोगी बना सकते हैं। देश में वर्ण-व्यवस्था कर तक अपनी उमति करती रही और कब और किस समय व किस कारण से उसमें विकार पैदा हुआ । आतियों का निर्माण कब और किस संयोग से हुआ कौन २ सी जातिएँ विदेशों में जाकर विदेशी कहलाई एवं इस के विपरीत कौन-कौन सी जातियां विदेशों से आकर यहां बली । देश के प्राचिन आचार विवार में क्या क्या रद्दों-बदल एवं मिश्रण हुआ ! हमारे देश की सभ्यता ने किस किस देश पर अपना प्रभाव डाला तथा विदेशियों के आचार-व्यवहार एवं सभ्यता का हमारे देश पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ा। धार्मिक विषय में किस किस धर्म का कब कब प्रादुर्भाव हुआ और उन नूतन धर्मों ने क्या क्या न्यूनाधिक किया। धर्म के नाम पर देश में किस प्रकार फूट-कलह के बीज बोकर जनता को किस प्रकार-अधोगति में ला परका और इन कारणों से देश के सामूहिक संगठन को कैसे छिन्न-भिन्न कर डाला। एक ही -धर्म के अन्दर से अनेक धर्मो की सृष्टि क्यों रची गई और इससे देश को या फायदा अथवा नुकसान हुआ? यह सब बातें हम पुराने जमाने के इतिहास से ही जान सकते हैं। साथ ही हम उससे यह भी जान सकते हैं कि किन किन उपायों से इस विगड़ी अवस्था का सुधार हो सकेगा। : यहां पर हम अधिक लिख कर प्रस्तावना का वलेवर बढ़ाना नहीं चाहते । कारण कि विद्वद् समाज इस बात को अच्छी तरह से जानता है कि साहित्य में इतिहास ही मानव जाति को उन्नति-पथ पर लेजाने वाला एक सच्चा साधन है। अतएव अपनी भाषी उन्नति की भभिलाषा रखने वाले प्रत्येक देहधारी मनुष्य का मुख्य भौर आवश्यक कर्तव्य है कि वह कम से कम अपने पूर्वजों के इतिहास को अवश्य पड़े। २-हमारे पूर्वज और इतिहास:धत्तमान काल में भूत कालीन इतिहास प्राप्त होने में दुर्लभता का अनुभव करने वाले महाशय यहां तक कह उठते हैं कि प्राचीय समय के लोगों का इतिहास को भोर इतना आकर्षण नही था जितना कि अध्यात्म एवं तत्वज्ञान की भोर था? कारण वे लोग इतिहास लिखने में एवं उसका संरक्षण करने में इतनी अधिक रुचि न रखते थे? पर वास्तव में 'यह बात ऐसी नहीं है। हाँ, हमारे पूर्वज अध्यात्म एवं तात्विक ज्ञान की ओर विशेष रुचि रखते जरूर थे; पर इसका 'यह भर्थ नहीं कि वह इतिहास की उपेक्षा करते थे? नहीं. कदापि नहीं। वे जैसे अध्यात्म एवं तात्विक ज्ञान की ओर लक्ष्य रखते थे वैसी ही इतिहास की भोर भी उनकी अभिरुचि थी। इतना ही क्यों ? वे तो इतिहास को चिरस्थायी बनाने का भी प्रयत्न किया करते थे । इतिहास द्वारा यह स्पष्ट मालूम होता है कि अन्य देशों के विद्वान् इतिहास लिखना एवं उन्हें सुरक्षित रखना हमारे पूर्वजों से ही सीखे थे । प्राचीन काल में जब लेखन प्रवृत्ति अधिक न थी, उस अवस्था में भारतीय ऋषि-मुनि समस्त ज्ञानभण्डार कण्ठस्थ रखते थे। जब से लेखन वृत्तिका अधिक प्रचार हुआ तो उन्होंने अपना "मस्तिक का ज्ञान एवं तत्कालीन घटनाएं साद पत्र. साम्रपत्र, भोजपत्र, और पत्थर की चट्टानों पर लिख दिया करते थे। तत्पश्चात् जब कागज़ों पर लिखना प्रारम्भ हुभा उस समय से तो प्रत्येक घटनाएं खूब विस्तार से लिख दिया करते थे। जिसके प्रमाण भान पर्याप्त मिल रहे हैं। अभी ( मूगर्भ भावेषण से ) खुदाई के काम से. पंजाब एवं सिन्ध की सर हद भूमि से दो मगर ई. संवत् से ५००० वर्ष पांच हजार वर्ष पूर्व के बतलाये जाते हैं । उन दोनों नगरों से, जिसके नाम क्रमशः "हरप्या" और "मोहन जादरा" रखा गया है । कई पदार्थ ऐसे निकले हैं जिससे प्राचीन समय में भारत की सभ्पता का निश्चय हो चुका है । हतना ही, क्यों एक देवी की मूर्ति जिसके शरीर पर कपड़ा भी भा । खोदते हुए पाये गये हैं । तथा एक ध्यान मग्न मूर्ति भी प्राप्त हुई है।" इससे यह भी सिद्ध किया गया है कि आज से हज़ारों वर्ष पूर्व भी इस देश में केवड़े का उत्पादन होता था तथा. देश में धर्म की भावना भी अच्छे परिमाण में थी। वे लोग धार्मिक मूर्तियों की पूजा-पाठ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४. एवं सेवा भक्ति भी करते थे । अतः यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि भारत सभ्यता का भण्डार एवं केन्द्र था और अन्य देश बालों मे सभ्यता का पाठ भारत से हो सीखा था । भारत अन्य देशों का गुरू कहलाने के कारण ही जगद्गुरू माना जाता था । इतिहास से यह भी पता मिल जाता है कि भारतीय लोग अन्य देशों में जाकर अपने उपनिवेशों की स्थापना भी करते थे और वहां की जनता पर भारतीय सभ्यता का गहरा प्रभाव पड़ता था। अतः उपरोक्त प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि हमारे पूर्वज इतिहास के बड़े ही प्रेमी थे । इतिहास लिख कर उसका संरक्षण चिरस्थायी बनाने की पूरी २ कोशिश भी करते थे। हां, भारत में लगातार कई वर्षों तक अकाल पड़ने से एवं विदेशी लोगों के समय-समय पर विविध माक्रमणों के फल स्वरूप कई इतिहासों के भण्डार, पठनालय एवं संग्रहालय और साधन नष्ट भ्रष्ट हो जाने से इस समय जितना चाहिये इतना सिलसिलेवार नहीं मिलता है, लेकिन यह बात दूसरी है । हम यह तो कक्षपि नहीं कह सते कि उन लोगों ने अपने समय में इतिहास लिखा ही नहीं। आगे चल कर इस विषय का मैं विशेष खुलासा करूंगा । ३ – वर्तमान काल में प्राचीन इतिहास की दुर्लभता: - वर्तमान में भूत कालीन एवं प्राचीन इतिहास के न मिलने का प्रश्न सब जनता द्वारा हो रहा है। इसका उत्तर किलने के पूर्व मुझे यह कह देना चाहिये कि - एक तो भारत में जन-सहारक ऐसे भीषण दुष्काल पड़े थे और वह भी एक दो वर्ष तक नहीं अपितु कोई-कोई दुष्काळ तो निरन्तर १२-१२ वर्ष तक पड़ते ही रहे कि जिसकी भोषण यन्त्रणाओं (मार ) से अनेकों नगर एवं ग्राम स्मशान तुल्य बन गए थे। उस आपत्ति काल में जन-समूह अपने प्राण बचने एवं जन-धन की रक्षार्थं पत्र-तत्र मारे-मारे भटक रहे थे। फिर भला उस अवस्था में नया साहित्य निर्माण करना तो एक ओर रहा. पुरानों की रक्षा भी मुश्किल हो गई थी, इस कारण वे ज्ञान भण्डार जहाँ थे वहीं रखे रखाये नष्ट हो गये । दूसरा कारण विदेशी म्लेच्छों का भारत पर लगातार और पके बाद दीगर आक्रमणों का होना । फलस्वरूप प्रामों नगरों को जनसंहार एवं अग्नि-दाह द्वारा शून्य भरण्यवत बना देना । अर्थात् प्रमुख साहित्यक भण्डार, ऐतिहासिक साधन, प्राचीन नगर एवं देवस्थान भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिए गए जिसमें हमारा अमूल्य ऐतिहासिक बहुत सा साहित्य भस्मीभूत एवं नष्टभ्रष्ट हो गया । फिर भी जो कुछ साहित्य पुराना बच गया था एवं नया निर्माण किया गया था वह धर्मान्ध मुसलमानों के अत्याचारों ने तो बहुत ही जुल्म किया उसने हमलों से बर्बाद हो गया । जिसमें प्रसिद्ध धर्म-द्वषी अलाउद्दीन खिलजी के ऐतिहासिक उत्तम साधन, हजारों मन्दिर लाखों मूर्तियों को दुष्टता पूर्वक ध्वंस किया और कई ज्ञान भण्डारों, साहित्य, संग्रहालयों को ज्यों के त्यों जला कर भस्मभूत कर दिया। कहा जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने ६ मास तक तो नित्य प्रति भारतीय साहित्य भट्टी में जलवा कर स्नान के लिए गरम पानी किया गया और तक भारतीय साहित्य अमूल्य रत से कई वर्ष हिन्दुओं की होली जलवाई थी । इससे पाठक अनुमान लगा लें कि उस समय से पूर्व भारत में कितना विशाल साहित्य का खजाना भरपूर था, जिसे धर्म-द्वेशियों ने किस दुष्टता के साथ नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। इस बात की प्रमाणिकता के लिए यहां पर हम एक ऐसा ही उदाहरण पाठकों की सेवा में उपस्थित करते हैं: - "विक्रम की छठी शताब्दी के प्रथम चरण में आर्य्यं देवद्धि गणिक्षमाश्रणजी ने बल्लमी नगरी में एक विल्ट संघ सभा को और जैनागमों को पुस्तकों पर लिखने का एक बृहद् आयोजन किया। जिसमें सैकड़ों मुनियों ने अपने हाथों से तथा कई वेतनदार लेखकों ने आगमों को तथा भनेक ग्रंथों को पुस्तकों पर लिखवाया । पश्चात् यह कार्य्यं इतमा व्यापक हो गया कि जिसने जो कोई ग्रंथ निर्माण किया तो वा तत्काल ही पुस्तकों पर लिख लिया जाता। इसमें थोड़ा भी संदेह नहीं कि जैन श्रमणों ने सैकड़ों ही नहीं अपितु हजार ग्रन्थ लिखे होंगे पर वर्तमान काल में बहुत शेध करने पर भी उस समय अथवा उसके आसपास के सौ दो सौ वर्ष का लिखा हुआ एक पना भी नहीं मिला है। इसका यही अर्थ हो सकता है कि म्लेच्छ लोगों ने वे ज्ञान भण्डा धर्मान्धता के कारण दुष्टता पूर्वक जला दिए एवं नष्ट-भ्रष्ट कर डाले थे, अन्यथा इतनी विशाल संख्या में लिखे गये पुस्त Jain Educatioट हो तो ५क पन्ने सो अवश्य मिलते | जैसा हाल जैन शास्त्रों का है, ठीक वैसा ही दूसरे धर्मावलम्बियों के शास्त्रों & Personal Use Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाल है। आज भारत के बाहर कहीं कहीं विक्रम की चतुर्थ शताब्दि के बाद कोई ग्रन्थ मिलता, पर भारत में जो कुछ साहित्य मिलता है वह विक्रम की आठवीं, नवीं शताब्दि के पीछे का मिलता है । ४ - भारतीय साहित्य का सृजन: भरत के ऋषि-मुनियों ने साहित्य सृजन में कभी कमी नहीं की । उन्होंने अपने भक्त लोगों को उपदेश दे देकर इतना ढेर लगा दिया था कि उतना ढेर घास का भी शायद ही मिलता हो । गृहस्थ लोग भी उन त्याग मूर्त्ति आचायों का उपदेश शिरोघाय्यं कर अपने अथक परिश्रम से उपार्जित लक्ष्मी की ऐसे परमार्थ के कार्य निमित्त लगा अपने मानव-भव को सुफल बनाने में किसी प्रकार की मी नहीं रखते थे । कारण, इस कलि-काल में जिन मन्दिर-मूर्ति एवं आगम ही शासन के आधार समझे जाते हैं। दूसरा एक कारण यह मी था कि कोई भी भाचार्य कोई भी आगम व्याख्यान में वांचना प्रारम्भ करते उसका महोत्सव कर गृहस्थ लोग ज्ञान-पूजा किया करते थे। जिसमें भी श्री भगवतीजी जैसा आगम का तो जैन समाज में और भी विशेष प्रभाव है। ऐसे बहुत से उदाहरण जैन साहित्य में मिलते हैं कि अमुक भक्त ने श्री भगवती सूत्र बँचाया, जिसकी हीरा, माणिक्य, पन्ना, मोतियों से पूजा की ओर ३६००० प्रश्नों की ३६००० स्वर्ण मुद्रिकाओं से पूजा की। इस कार्य्यं से आये हुए द्रव्य से पुनः आगम लिखाया जाता था । इससे पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय जैन समाज की आगमों पर तिनी भक्ति एवं पूज्यभाव था । इससे स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि साहित्य लिखवाने में जितना हिस्सा जैनों का था उतना दूसरो का शायद ही था । अतः म्लेच्छ विधर्मियों के दुष्टता पूर्ण साहित्य को हानि पहुँचाने पर भी उनका सर्वथा अन्त नहीं हुआ । बचा हुआ साहित्य भी कम न था किन्तु वह अवशेष साहित्य ऐसे लोगों के हाथ में पड़ गया कि उनके पीछे उनकी सन्तान ऐसी सपूत !) निकली कि जिसने अपनी विषयबाशन ओं के पोषणार्थं उस अमूल्य साहित्य निधि को पानी के मूल्य में विदेशियों के हाथ में बेच दिया जो आज भी उन लोगों के पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। उदाहरण के तौर पर कुछ पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। नमूने के तौर पर कुछ पुस्तकालयों का ब्यौरा निम्न लिख दिया जाता है: १ - लंदन में करीब १५०० बड़े पुस्तकालय हैं, जिसमें एक पुस्तकालय में कोई १५०० पुस्तकें हस्तलिखित हैं । उनमें अधिक पुस्तकें संस्कृत प्राकृत और भारत से ही गई हुई हैं। यह तो केवल एक पुस्तकालय की ही बात है, विचारिये शेष १४९९ पुस्तकालयों में कितनी पुस्तकें होंगी ? २ - जर्मन में कोई ५००० पुस्तकालय हैं। जिसमें बर्लिन में ही बहुत से पुस्तकालय हैं एवं उसके एक पुस्तकालय में ही १२०० पुस्तकें हस्तलिखित हैं । तब ५००० पुस्तकालयों में कितनी पुस्तकें होंगी और उन पुस्तकों में विशेष भारत से गई हुई हस्तलिखित पुस्तकें कितनी होंगी ? ३- अमरका के वाशिंगटन नगर में ही ५०० पुस्तकालय हैं, जिसमें लगभग ४०००००० पुस्तकों का संग्रह है। और उसमें करीब २०००० पुस्तकें हस्त लिखित हैं । विचारिये कि भारत से गई हुई कितनी होंगी ? ४ - [फान्स में ११११ बड़े पुस्तकालय हैं। जिसमें पेरिश का एक विवलियोथिक नामक पुस्तकालय में ४०००००० पुस्तकें हैं, उनमें १२००० पुस्तकें हस्तलिखित हैं। संस्कृत एवं प्राकृत भाषा की हैं जो प्रायः सब की सब भारत से ही हुई हैं। ५- रूस मे १५०० बड़े पुस्तकालय हैं। जिसमें एक राष्ट्रीय पुस्तकालय में ही ४०००००० पुस्तकें हैं । उनमें मी २२००० पुस्तकें संस्कृत एवं प्राकृत भाषा की भारत से गई हुई पुस्तकें हैं । ६ - इटली में के ई ४५०० पुस्तकालय हैं । उनमें भी लाखों पुस्तकों का संग्रह है । कोई ६०००० १ज़ार पुस्तकें संस्कृत व प्राकृत भाषा की प्रायः सब भारत से ही गई हुई हैं। यह तो एक नमूने के तौर पर बतलाया गया है, किन्तु इनके अतिरिक्त भी पाश्चात्य देशों में शायद ही कोई - ऐसा राष्ट्र हो कि जहाँ के पुस्तकालयों में भारतीय पुस्तकों का संग्रह न हो ! यह प्रवृत्ति केवल अंग्रेजों के भारत में आने Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के बाद ही प्रारम्भ नहीं हुई थी किन्तु इस समय के सैकड़ों वर्ष पूर्व से ही विदेशी लोग भारत में आ आ कर यहाँ की अमूल्य पुस्तकें अपने देश में ले जाते थे। उदाहरण के तौर पर देखिये, विक्रम की पाँचवी शताब्दि में चीनी यात्री फाइयन भारत में आया और १५२० पुस्तकें ताड़ पत्रों पर लिखी हुई भारत से अपने देश ले गया। ई. संवत् की सातवीं शताब्दि में चीनी यात्री हुयनत्संग भारत में आया और वह भी भारत से कोई १५०० ताड़ पत्र पर लिखी हुई पुस्तकें ले गया था। इस प्रकार भारत में कितने ही यात्री आये और असंख्य पुस्तक-रत्न भारत से अपने २ देशों में ले गये। इसकी संख्या का अनुमान कौन लगा सकता है। फिर भी हमें इस बात को बड़ी खुशी है कि जिन म्लेच्छों ने हमारे साहित्य को जला का खाक कर दिया था, उसकी अपेक्षा जो पाश्चात्य लोग ले गये दह सहस्रत: अच्छा ही है । कारण, वहां हमारे साहित्य का अच्छी तरह संरक्षण हुआ और होता रहेगा जो कि हम से भी उस समय भसम्भव एवं कठिन था तथा हमारे यहां रहने पर उनसे क्षुद्र कीड़े ही लाभ उठाते, किन्तु पाश्चात्यों ने उस अमूल्य साहित्य से अधिकाधिक अछे से अच्छा लाभ उठाया। हमारे पूर्वज ऋषि महर्षियों ने ऐसा कोई भी-विषय छूत (शेष) न रहने दिया कि जिस पर कलम न उठाई हो । जैसे, आत्मवाद, अध्यात्मवाद, कर्मवाद, परमाणुवाद, लोकाचार, नीति, राजनीति, ज्योतिष, वैद्यक, खगोल, भूगोल, गणित, फलित आदि २ । इतना ही नहीं, पशु-विज्ञान, भाषा आदि को भी लेखिनी से अछूता न छोड़ा था। जैसे विक्रम की तेरहवीं शताब्दि में हंसदेव नामक जैन मुनि ने “मृग पक्षी शास्त्र" नाम का ग्रन्थ लिखा था। जिसमें १९०० श्लोक हैं और उनके ३६ वर्ग जिनमें २२५ पशु-पक्षियों की भाषा का प्रतिपादन किया है। उस ग्रन्थ को जैनों ने ही नहीं, जैनेतर विद्वानों ने मुद्रित भी करवा लिया और पठन-पाठन द्वारा अच्छा लाभ भी उठाया है। देखो-"अक्टूबर ४१ की मासिक सरस्वती"। जिसमें उसके सम्पादक ने बड़ी महत्वपूर्ण आलोचना की है। वैसे तो आज भी अनेक ग्रन्थ हमारे ज्ञानभण्डारों में विद्यामान हैं। परन्तु वे ऐसे.स्वार्थी-अनभिज्ञ लोगों के हाथ में है कि जिनसे सिवाय क्षुद्र कीराण के अतिरिक्त कोई भी विद्वान् लाभ नहीं उठा सकते हैं । जन कल्याणार्थ निर्माण किया साहित्य भाज उन लोगों की संपति बन गई है मैंने ऐतिहासिक साधनों का अभाव एवं मिलने की दुर्लभता का यह सबसे महत्व पूर्ण कारण बतलाया है कि "कई विधर्मी आक्रमणों से, कई मुसलमानों को धर्मान्धता से, विदेशियों द्वारा दूसरे देशों में ले जाने से, और अवशेष हमारे ही देश के स्वार्थी लोगों के अधिकार में रह जाने से ऐतिहासिक ग्रन्थ मिलने की दुईभता का अनुभव करना पड़ता है, जो इतिहास लिखने में सर्व प्रथम साधन कहा जा सकता है। २-ऐतिहासिक साधनों में दूसरा नम्बर है मन्दिर एवं मूर्तियों का । भारत में प्राचीन काल जिसे हम ऐतिहासिक पूर्व काल कह सकते हैं, से ही मूर्तियों का मानना सावित है । विद्वानों का भी मत है कि मूर्तियों की मानता का प्रारंभ जैनों से ही हुआ है। जैन शास्त्रों के आधार पर तो मूर्तियों की मान्यता अनादि काल से चली आई है, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो अभी सिन्ध और पंजाब की सरहद पर जो "हरप्पा" और "मोहन जादरा" नामक मगर निकले हैं, जिसमें एक देवी को तथा दूसरी ध्यानावस्थित मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। विद्वानों का कहना है कि वे मूर्तियाँ इ. स. पाँच हजार वर्ष पूर्व की बनी हुई हैं । इनके अतिरिक्त मैंने "मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास" के पाँचवे प्रकरण में बहत प्रमाणों से भूर्ति पूजा की प्राचीनता सिद्ध करदी है जिज्ञासुओं को वहां से जान लेना चाहिये। जैसे जैन साहित्य पर अत्याचार गुजरा था वैसे ही मन्दिर एवं मूर्तियों पर भी दुष्टों ने जुल्म गुजारने में कमी नहीं रक्खी थी । अतः उन मूर्तियों पर के शिलालेख भी ध्वंस हो गये । जिस शत्रुजय तीर्थ को बहुत प्राचीन माना जाता है, समय समय पर उसका जीर्णोद्धार भी हुआ था। किन्तु चौदहवीं शताब्दि में अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने उनको नष्टभ्रष्ट कर डाला । इनके अतिरिक्त अनेको मन्दिर एवं मूर्तियों और शिलालेखों का विधर्मियों द्वारा दुष्टता पूर्वक ध्वंस कर दिया गया था। जो कुछ शेष प्राचीन मन्दिर और मूर्तियां बच गई थीं, उनकी प्राचीनता एवं कई शिलालेख उनका जीर्णोद्धार कराते समय हमारे ही हाथों से हमारी असावधानी के कारण चूना मिट्टी से मिटा दिये गये थे। अतएव प्राचीन मन्दिर मूर्तियों एवं शिलालेख मिलना दुर्लभ हो गये । फिर भी निरन्तर शोध (खोज) से आज भूगर्भ से थोड़े बहुत प्रमाण मिले हैं। किन्तु वे इतने विशाल इतिहास के लिए पर्याप्त नहीं कहे जा सकते । तथापि हमारे इतिहास लिखने में परमोप योगी साधन है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-इस विषय में तीसरा नम्बर है पट्टावलियों का पट्टावलियों में अधिकतर इतिहास जैनाचार्यों या उनके शिष्य शिष्य श्चमगों का ही मिला है। शायद कहीं २ उन श्रमणों के साथ सम्बन्ध रखने वाले गृहस्थों का इतिहास भी मिलता |किन्तु वह बहुत थोड़े परिमाण में । फिर भी इतिहास के लिए पट्टावलियाँ बहुत उपयोगी साधन है। किन्तु पट्टाव केषों विक्रम की तेरहवी चौदहवीं शताब्दि में लिखी गई हैं, और इनमें सैकड़ों वर्ष पूर्व की घटनाएं भाचार्यों के कण्ठस्थ कान परमरा से चला आया है; इसका वर्णन होने से कई लोगों का उन पर विश्वास कम है।हाँ पट्टावलियों में एक हेमवन्त विरावली विक्रम की तीसरी शताब्दि में आचार्य हेमवन्त सूरि की बनाई कही जाती है। किन्तु उसकी प्राचीनता के लिय में सबका एक मत नहीं है। कई लोग इस स्थविरावली के विषय में संदेह करते हैं और कई विद्वान उसको ऐतिः हासिक दृष्टि से परमोपयोगी भी समझते हैं। कुछ भी हो, किन्तु हेमवन्त स्थवरावली में लिखी हुई घटनाएँ उड़ीसा प्रान्त की हस्तीगुफा से मिला हुआ महामेघवाइन चक्रवर्ति सम्राट खारबेल के शिलालेख से मिलती हुई है। शेष पट्टाव लयां विक्रम को तेरहवीं चौदहवीं शताब्दि की होने पर भी उन पर अविश्वास नहीं किया जाता है। कारण कि वे पट्टावलियां हमारे पंच महाब्रम धारी सत्यवर्ति एवं संयमी आचार्य द्वारा लिखी गई हैं। वे भव भीरु आचार्य जान बूझ कर एक अक्षर भी न्यूनाधिक नहीं लिखते ऐसी जैन-समाज की निश्चित धारणा है। हमें एक नाम के कई आचार्य एवं राजा हो जाने से समयादि के विषय में किसी कारणवश त्रुटि भा भी गई हो तो अन्य साधनों से उसका संशोधन करना हमारा परम कर्तव्य है। किन्तु ऐसी साधारण त्रुटियों के लिए उन प्राचीन एवं परमोपयोगी साहित्य का अनादर हम कदापि नहिं कर सकते हैं। इन पट्टावलियों के अतिरिक्त कई आचार्यों के लिखे ग्रन्थ भी इतिहास के उपयोगी साधन हैं । जैसे:-आचार्य हेमचन्द्रसूरि का विषाष्टि-सिलागा पुरुष चरित्र और परिशिष्ट पर्व, भाचार्य प्रभाचन्द्र सूरि रचित प्रभाविक चरित्र, आचार्य मेरुतुंग सूरि रचित प्रबन्ध चिन्तामणि, आचार्य कक्कसूरि रचित नाभिनन्दन जिनोद्धार और उपकेश गच्छ चरित्र इत्यादि कई ग्रन्थ उपलब्ध हैं। किन्तु हैं वे तेरहवीं चौदहवीं शताब्दि के लिखे हुए। - इतिहास के साधन के विषय में चौथा नम्बर वंशावलियों का है। वंशावलियों जैन धर्म एवं जैन गृहस्थों के इतिहास के लिये बहुत ही उपयोगी साधन है । कारण कि जैन गृहस्थों का विस्तृत इतिहास जितना जनवंशावलियों में मिलता है उतना दूसरे स्थानों में नहीं मिलता है । वंशावलियों की शुरुआत तो विक्रम की आठवीं शताब्दि से होगई थी, किन्तु इतने प्राचीन समय की वंशावलियों आज कही भी दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। जैसा कि अर्वाचीन पहावलियों में प्राचीनसमय का इतिहास लिखा मिलता है. ठीक इसी प्रकार अर्वाचीन वंशवलियों में भी प्राचीन समय का इतिहास लिखा गया है। उनकों हम सर्वथा कल्पित नहीं कह सकते हैं। कारण कि. उन पट्टावलियों को लिखने वालों ने भी किसी न किसी भाधार पर ही लिखा होगा । अन्यथा बिना आधार तो वे लिख ही क्या सकते थे ? १-प्राचीम पट्टावलियाँ एवं बंशावलियाँ न मिलने के विषय में हम ऊपर लिख आये हैं कि प्राचिन समय तो क्या किन्तु देवर्द्धिगण क्षमाश्रमजी के समय में लिखे गये सैकड़ों हजारों ग्रन्थों से भाज एक भी पत्र नहीं मिलता है । हाँ, उस समय की लिखी हुई प्रतियों का उतारा किये हुए अर्वाचीन ग्रन्थ मिल सकते हैं। इसी प्रकार पट्टावलियों एवं वंशावलियों को भी हम मान ले तो उनके अंदर संदेश को स्थान नहीं या कम रह जाता है । यदि हम उन पट्टावलीयों एवं वंशावलियों पर विश्वास ही न करें तो हमारे पास ऐसा कोई भी साधन नही कि जैससे हम हमारे पूर्वजों का इतिहास लिखने में थोड़ी भी सफलता हासिल कर सकें । इसका यह अर्थ तो कदापि नहीं ही सकता है। कि हम अन्ध विश्वास एवं आँखें बन्द कर के ही लिखे हुए सब साधन को बिना किसी कसौटी पर कसे ही स्वीकार कर लेते हैं । जहाँ कहीं भी हमें संदेह हो उस बात को अन्य साधनों द्वारा संशं धित कर लेना होगा। कई लोग ऐसे मी पक्षपाती हैं कि जिम में अपनी मान्यता कि सिद्धि होती हो वह तो प्राचिन एवं अर्वारिन सब प्रमाणिक मानते हैं। कहां थोड़ी सी भी बात अपनी मान्यता के विरद्ध आई कि उसे कल्पित ठहरा देते हैं यह बात इन्साफ की नहीं पर एक अन्याय की बात है, मुख्यतया इतिहास क्षेत्र में पक्षपात रखना सर्वथा अनुचित है। .!-इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १४७ पर देखें लिखत की नलन । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंशावलियाँ लिखने की शुरुआत कब से या किस कारण हुई ? इस के लिए पं० हीरालाल हंसराज जामनगर वाले ने अपनी अंचल गच्छ वृहद् पट्टावली मैं लिखा है कि भीनमाल वा राजा भाण ने जैन धर्म स्वीकार करने के पश्चात् श्री शजयादि तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला । उस समय उसके संघपति को वासक्षेप देने के विषय में आपस में खेंचा तानी होगई। उस समय तमोम गच्छों के आचार्य एकत्रित होकर एक मर्यादा कायम करदी कि जिस गच्छ के आचार्यों ने जिन लोगों को सबसे पहले प्रतिबोध देकर अजैनों से जैन बनाया, उसी गच्छ के आचार्य उनको तीर्थ संघादि ऐसे प्रसंग पर वासक्षेप दे सकेगे। इससे इतिहास की अव्यवस्था न होगी और गृहस्थ लोग भी कृतघ्नता के कलंक से बच जायगे इत्यादि । इस मर्यादा को उन्होंने एक लिखत पा लिख कर तथा सव आचार्यों के हस्ताक्षर करवा कर पक्की एवं चिरस्थायी बना दी। यदि उस मर्यादा के अनुसार चलते तो गृहस्थों का इतिहास ठीक सिलसिलेवार सुव्यवस्थित रह जाता किन्तु कलिकाल ने उस मर्यादा को चिरकाल तक चलने नहीं दिया। दुषम काल के कारण कई लोगों ने जिनशासन की चलती हुई माया एवं क्रिया समाचारी में न्यूनाधिक प्ररुपणा करके नये नये मत चला कर संघ में फूट-कलह पैदा कर दिया था। इतनी तो उनमें योग्यता न थी कि वे स्पयं कुछ कर सकें, वे तो चलते हुए शासन में छेद-भेद डाल कर कुछ भद्रिक लोगों को अपनी नयी दुकानदारी के अनुयायो बनाने का दुस्साहस र डाला। अतः उन जिन-शासन-रक्षक शासन शुभचिन्तक घुरन्धर आचार्यों की बान्धि हुई मर्यादा का छेद-भेद कर डाला । इनकी शुरुमात करीब विक्रम को ग्यारहवीं शताब्दि से होने लग थी जो वर्तमान समय तक भी मौजूद है। ___पूर्वाचार्यों की स्थापन की मर्यादा में गड़बड़ होने का एक यह भी कारण हुआ था कि कई गच्छों के भाचार्यों ने अपने २ पृथक २ गच्छ के मन्दिरों की सार सँभाल के लिए उन मन्दिरों के गोष्ठिक सभ सदों) बना दिये । जिसमें स्वगच्छ-परगच्छ का भेद नहीं रखा गया था। किन्तु जिस मन्दिर के आस पास घर थे और उनमें मन्दिर की सार संभाल करने की योग्यता थी उनको ही सम्मिलित किया गया इस कार्य में भले ही शुरू करने वालों की इच्छा अच्छी होगी और वे गोष्टिक बनने वाले भी अपने अपने प्रति बोधक आचार्य को जानते ही थे। अपने अपने गच्छ को एवं समावारी को भी जानते थे किन्तु केवल एक पास में आये हुए मन्दिर की सार-सम्हाल करने की गर्ज से ही वे सभासद बन गये थे। पर बाद ज्यों ज्यों समय व्यतीत होता गया त्यों को उसका रूप भी बदलने लगा। सबसे पहले तो यह कार्य वाही की गई कि जिस मन्दिर के गोष्ठिक के घर में लग्न पुत्र जन्मादि शुभ कार्य हो, वह अन्य मन्दिरों में एक एक रुपया दे तो वह जिस मन्दिर का गोष्ठिक हो, उस मन्दिर में दो रुपया देवे । इससे यह हआ कि एक बाप के दो पुत्र थे, एक पत्र एक गच्छ के अर्थात् महावीर के मन्दिर के पास रहता था, वह मवीर के मन्दिर का गोष्ठिक (सभासद) बन गया। तब दूसरा भाई दूसरे गच्छ के अर्थात् पार्श्वनाथ के मन्दिर के पास रहता था वह पाश्र्व मन्दिर का गोष्टिक बन गया। इस तरह दोनों भाई दो गच्छ के हो गये । आगे चल कर जिस गच्छ के मन्दिर का गोष्ठिक बना था, उसको सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण तथा व्याख्यान सुनने के लिए भी वही जाना पड़ता था और उनकी ही क्रिया समाचारी करनी पड़ती थी। अर्थात एक ही पिता के दो पुत्रों की दो गच्छ की क्रिया हो गई । बाद कई पुश्त गुज़र गई तब उन गच्छ के आचार्यों ने अपने गोष्ठिकों पर पक्की छाप लगा दी कि आपके पूर्वजों को हमारे पूर्वाचार्यों ने मांस मदिर छुड़ा कर श्रावक बनाय था। अतएव आप हमारे गच्छ के हैं । इतना ही क्यों, उन्होंने तो कई कथाएं भी रच डाली और उनका प्राचीन इतिहास मिटा कर नूतन वरूपनाएँ कर अली, जिससे कि पूर्वाचार्यों की बांधी हुई मर्यादा में गड़बड़ होगई । नूतन मत धारियों को तो ज्यो त्यों कर अपना बाड़ा बढ़ाना ही था, अतः भद्रिक लोगों से उन्होंने वाफ़ो लाभ उठाया एवं अपना स्वार्थ साधन किया। कई एक गच्छ का श्रावक नया मन्दिर बनाता या संघ निकालना चाहता तो उस समय उसके प्रतिबोधक आचार्य की परम्परा के आचार्य नज़दीक न होने से तथा बुलाने पर भी न आने से दूसरे गच्छ के भाचार्य से बासक्षेप लिया कि उन पर भी अपनी छाप लगा दी। इसी प्रकार किसी प्रान्त में दूसरों का भ्रमण न होकर जिसका अधिक भ्रमण एवं अधिक परिचय के कारण अन्य गच्छीय श्रावकों को अपनी क्रिया समाचारी करवा कर अपनी छाप ठोक दी। उनकी संतान ने बचपन से हो उनको ही देखा अतः उन पर विश्वास, कर लिया। इस प्रकार नये नये मत पंथ निकाल कर गृहस्थ कोगों केतिहास को इस प्रकार भ्रम में डाल दिया कि अब उनके अन्दर से शुद्ध सत्य वस्तु शोध कर निकालनी मुविका होगई। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक गच्छ का श्रावक दूसरे गच्छ को मानने लग जाय एवं एक गच्छ का भावक दूसरे गच्छ का कहलाने छग जाय तो इससे न तो जैन संख्या में न्यूनाधिकता होती है और न किसी गच्छ वाले त्यागी आचार्यों को ही नुकसान ला है। क्योंकि स्यागी पुरुषों को तो सब गच्छ वाले मानते पूजते हैं । परन्तु इस गच्छ परिवत्त'न से एक तो समाज में ट, कुसंप की भट्टियाँ धधकने लग गई थीं, दूसरे प्राचीन इतिहास को मिटा देने से उनके पूर्वजों ने सैकड़ों वर्षों से देश समाज एवं धार्मिक कार्यों में असंख्य द्रव्य ध्यय कर एवं प्राणों की आहुति देकर बड़ी र सेवायें करके जो धवल कीर्ति औ उज्ज्वल यशः कमाया था वह सब मिट्टी में मिल गया। उस गौरवशाली इतिहास के अभाव से उनकी सन्तान की नसों में रमती का खून नहीं उबलेगा, फलस्वरूप वह उन्नति करने में अयोग्य ही रहेगी और घह अपना नाम मुर्दा कौम में बई खुशी से लिखवा देगी। ___ जैन समाज का इतना बड़ा नुकसान होने पर भी गृहस्थों के गच्छ परिवर्तन करने वाले मतधारियों को कुर भी काम नहीं । हाँ, इतना ज़रूर हुभा कि एक ही जाति के लोग भिन्न भिन्न स्थानों में पृथक् पृथक् गच्छों की क्रिय करने में आपसी फूल कुसम्प बढ़ने लग गये। आज भी हम बहुत से ग्राम ग्रामान्तर में देखते हैं कि एक जाति एक ग्राम एक गच्छ की क्रिया करती है तब दूसरे ग्राम में वही जाति दूसरे गच्छ की उपासक होना बतलाती है । ___ वंशावलियों का लिखना ऊपर बतलाई हुई मन्दिरों के गोष्ठिकों की योजनानुसार हुआ और जब उन २ पौसालों प्राचार्यादि आचार में शिथिल हो गए तब वंशावलियाँ उनकी आजीविका का आधार बन गई । जो जो गोष्ठिक बे, पौसालों वाले उनकी वंशावलियाँ माँडने से वे धर्मगुरु के स्थान से हट कर कुल-गुरु कहलाने लग गए । यह हाल मैंने कई प्राचीन एवं प्रमाणिक ग्रन्थों को पढ़ कर लिखा है। इसमें कई जातियों के गच्छों का रद्दोबदल हो गया है कारण, कि ओसवाल जाति के मूल स्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरि ही थे। बाद में आप की संतान परम्परा के आचार्यों में इस वंश को खूब बढ़ाया था। अतः ओसवालों की अधिक जातियाँ इसी उपकेश गच्छ द्वारा ही स्थापित की गई थीं किन्तु उस गोष्ठिक योजनानुसार कई-कई जातियाँ अनेक गच्छों के नाम से विभाजित हो गई, जो आज वर्तमान समय में मी दृष्टिगोचर हो रही हैं। जैसे वाफना रांका चोरड़िया संचेती आदि जातियों के पूर्वजों को २४०० वर्ष जितना प्राचीन इतिहास था जिसको नूतन मत धारियों ने ८००-९०० वर्ष जितनी अर्वाचीन ठहरा दिया और इनकी पुष्टि में कई कल्पित ज्याएं भी घड़ डाली । इसी प्रकार संघी भंडारी मुनौयतादि जातियों के विषय भी गड़बड़ कर डाली । इससे और तो कुछ नहीं पर उन जातियों के इतिहास अव्यवस्थित हो जाने से जैन समाज को बड़ा भारी नुकसान हुआ है । इन गड़बड़ मचाने पालों में कई गच्छ तो नाम शेष ही रहे हैं पर उनके द्वारा फैलाई गलत फहमी अवश्य अमर बन गई है। वंशावलियों में लिखा हुआ हाल कितना ही अतिशयोक्ति पूर्ण क्यों न हो किन्तु हमारे इतिहास के लिए इतना उपयोगी है कि दूसरे स्थानों में खोजने पर भी भओसवाल जाति का इतिहास नहीं मिलता है । अतः हमारा कर्तव्य है कि हम उन मावलियों का ठीक संशोधन कर इतिहास के काम में लें। देखिये इतिहास के मर्मज्ञ एवं प्रसिद्ध लेखक पं. गौरीशंकरजी क्षा स्वनिर्मित राजपूताने के इतिहास में पृष्ठ १० पर लिखते हैं: " x x इतिहास व काव्यों के अतिरिक्त वंशावलियों की कई पुस्तकें मिलती हैं x xx x x x तथा जैनों की पटावलियां भादि मिलती हैं। वे भी इतिहास के साधन हैं" पट वलियों और वंशावलियों के अतिरिक्त कई रासा, ढालें, चौपाई, सिलोकादि, अपभ्रंश भाषा का साहित्य बहुभा है और उसमें अर्वाचीन महापुरुषों को जीवन घटनाएँ आदि का वर्णन मिलता है । और वे घटनाएं प्रायः प्रामविक होने से ऐतिहासिक कही जा सकती हैं। इनके अलावा कई राजा, बादशाहों के दिए हुए फरमान (आज्ञापत्र) (प्रमाणपत्र) भी इतिहास के साधन हैं। वर्तमान की शोध-खोज से प्राप्त इतिहास की सामग्री:वर्तमान में विद्वानों की इतिहास की भोर भधिक रुचि बढ़ती जा रही है और इसके लिए पौर्वात्य एवं पाश्चात्य . Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १० MOT विद्वानों तथा सरकार के पुरातत्व विभाग की ओर से भारत के प्रत्येक प्रान्तों में शोध-खोज ( अन्वेषण ) का कार्य्यं बहुत अर्से से आरम्भ भी हो चुका है। बहुत से प्राचीन साधन एवं सामग्री भी प्राप्त हो चुकी है। जैसे: - १ – प्राचीन शिला लेख – जिसमें कई तो मन्दिर एवं मूर्तियों पर कई स्तम्भों पर कई स्तूपों पर और कई पत्थर की छोटी बड़ी चट्टानों पर खुदे हुए मिलते हैं। सबसे प्राचीन शिलालेख भगवान महावीर के पश्चात् ८४ वर्ष का है, जो अजमेर के पास बड़ली ग्राम से पं० गौरीशंकरजी ओझा द्वारा मिला है। इसके अतिरिक्त सम्राट अशोक, सम्प्रति और चक्रवर्त्ति राजा खारवेल के शिला लेख हैं। इन शिला लेखों ने इतिहास क्षेत्र पर काफ़ी प्रकाश डाला है। इनके अलावा और भी बहुत शिलालेख मिले हैं, जो कुशान वंशी राजाओं के समय और उसके बाद के हैं । २- प्राचीन मन्दिर मूर्त्तियाँ - इनकी प्राचीनता विक्रम पूर्वं चार पांच शताब्दि की तो आम तौर मानी जाती है पर इनके अतिरिक्त ई० सं० पूर्व पांच हज़ार वर्षों तक की मूर्त्तियाँ भी उपलब्ध हुई हैं। ३ - प्राचीन स्तूप एवं प्राचीन स्तम्भ - इनकी प्राचीनता ई० सं० के पांच छः सौ वर्ष पूर्व की है। ४ - प्राचीन सिक्के - सिक्का - हज़ारों की संख्या में मिले हैं। इनकी प्राचीनता ई० सं० पूर्व छठी शताब्दि की है । ५ – इनके अलावा मध्य कालीन ताम्रपत्र, दान-पत्र, सिक्के, मन्दिर भूर्तियों के शिलालेख एवं स्तूप, गुफाएँ और सिक ये अधिकाधिक संख्या में मिले हैं । ६ - लिखित पुस्तकें - जिसमें ताड़ पत्र पर लिखी पुस्तकें विक्रम की चौथी शताब्दि से प्रारम्भ होती हैं । इसके बाद उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, यह पुस्तकें जो चतुर्थी सादी की पाश्चातीय प्रदेशों से मिली हैं। पर भारत में भी प्राचीन पुस्तकों का मिलना असम्भव नहीं । आदि २ बहुत से साधन मिले हैं, शोद-खोज ( अन्वेषण ) का कार्य चालू है । भाशा है और भी मिलते रहेंगे । किन्तु विशाल भारत का इतिहास के लिए इतने ही साधन पर्याप्त नहीं हैं । यह तो केवल नाम मात्र के साधन हाँ, यदि इन साधनों के साथ हमारी प्राचीन पट्टावलियों और वंशावलियाँ मिला दी जांय तो इतिहास की थोड़ी बहुत पूर्ति हो सकती 1 ५ - वर्तमान में जैन धर्म के इतिहास की दशा: भारत का इतिहास ई० सं० से करीब ९०० वर्ष पूर्व से प्रारम्भ होना विद्वानों ने माना है। और जैनधर्म के भ० पार्श्वनाथ को भी विद्वानों ने ऐतिहासिक पुरुष होना स्वीकार किया है जो इ० सं० पूर्व की नौवीं शताब्दि में बनारस के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। यदि अश्वसैन राज को ई० सं० पूर्व नवीं शताब्दि से मानले तो करीब २ इतिहास काल के पास पहुँच जाता है । जब श्रीकृष्ण और अर्जुन के समय का अनुमान किया जाय तो उस समय जैनों के बाद सवे नेमिनाथ तीर्थंकर होना सावित है । वर्तमान काठियावाड़ प्रान्त के प्रभास पटूटन के पास भूमि के खोद काम से एक ताम्र पत्र मिल है जिसमें लिखा है कि "रेवा नगर के राज्य का स्वामी सुजाती के देव 'नेबुसदेनेशर हुए। वे यादु राज (कृष्ण के) के स्थान (द्वारिका) भाया । उसने एक मन्दिर सूर्य... देवनेमि जो स्वर्गं समान रेवतपर्व का देव है उसने मन्दिर बना कर सदैव के लिए अर्पन किया " ( " जैन-पत्र वर्ष ३५अंक १ ता० ३१-३-३७ विद्वानों का मत है कि सदेनेझर राजा का समय ई० सं० पूर्व छठी शताब्दि का है। खैर, कुछ भी हो, पर शोध खोज करने पर भ० नेमिनाथ को भी ऐतिहासिक पुरुष मान लिया जाय तो भाश्चर्य की बात नहीं है। जब इतिहास में जैनों का आसन इतना ऊंचा है, तब दुख इस बात का है कि जैनों में आज करीब २००० दो हजार साधु विद्यमान होने पर भी आज पर्यन्त जैन धर्म का इतिहास लिखने को किसी एक ने भी लेखनी न उठाई यहा कितने अफ़सोस की बात है ? यद्यपि ! कई लेखकों ने एवं कई संस्थाओं की ओर से जैन इतिहास के नाम से कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं किन्तु उनमें संक्षिप्त रूप से जैनाचार्यो का और प्रसंगोपात थोड़े नामांकित गृहस्थों का इतिहास लिख कर उनका नाम जैन इतिहास रख दिया है । किन्तु उन प्रकाशित पुस्तकों में भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नहीं आया। यदि जो Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -माया भी है तो इतना ही कि भगवान् पार्श्वनाथ के छठे पट्टयर आवार्य रत्नप्रभसूर ने वीरात् .. वर्षे उपकेशपुर के गा-प्रजा एवं सवालक्ष क्षत्रियों को प्रतिबोध कर जैन धर्म की दीक्षा देकर महाजन वंश की स्थापना करने का ही उल्लेख गहमा दृष्टिगोचर होता है पर इतना उल्लेख करने से उन परम्परा के इतिहास की इति श्री नहीं हो जाती है। पवावं रत्नप्रभसूरि की परम्परा संतान आचार्यों ने उस महाजन संघ का पालन पोषण और वृद्धि यहां तक की थी कि मरु सेन्ध कच्छ, सौराष्ट्र, लाट कांकण, शूरसेन, पंचाल कुनाल भावंती, बुन्देल खण्ड और मेदपोटादि प्रान्त में धूम घूम कर महाजन वंश की वृद्धि कर करोंडों की संख्या तक पहुंचा दिया था। उस शुद्धि की मशीन का जन्म विक्रम पूर्व ४०० वर्ष हुआ था और वह विक्रम की चौदहवीं पन्द्रहवी शताब्दि तक द्रति एवं मन्दगति से चलती ही रही थी। मेरा तो यहां तक खयाल है को भ० पार्श्वमाथ की परम्परा का इतिहास एक ओर रख दिया जाय तो जैन धर्म का इतिहास अपूर्ण एवं ब्धूरा ही रह जाता है। जैन धर्म का इतिहास लिखने वाले को भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लिखना परमावश्यक है। कारण कि, महाजन वंश का इतिहास के माथ इस परम्परा का घनिष्ट सम्बन्ध है और महाजन वंश का जितना इतिहास इस गच्छ व सम्प्रदाय के पास मिलेगा, दूसरे स्थान खोजने पर भी नहीं मिलेगा । यदि Sant विद्वान् लेखक इस कार्य को हाथों में लेता तो वे जैन धर्म का इतिहास सर्वाङ्ग सुन्दर बना सकता पर साथ में यह भी है कि इतिहास का लिखना कोई साधारण काम नहीं है इस कार्य में जितने साधनों की आवश्यकता हैउतना ही पुरुषार्थ की जरूरत हैं इसको वे ही लोग जान सकते हैं कि जिन्होंने ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखा है। जब हम देखते हैं कि साधारण जातियों का इतिहास जनता के सामने आ गया है तब जैन धर्म जैसा प्राचीन एवं विशाल धर्म का इतिहास इतने अन्धेरे में पड़ा यह एक बड़ी शरम की बात है मैंने इस विषय के कई सामयिक पत्रों में लेख भी दिया पर किसी के कानोंतक जू भी नहीं रेंगी इस हालत में मैं मेरी भावना को दबा नहीं सका तथापि मुझे पहले से ही यह कह देना चाहिये कि न तो मैं इस विषय का विद्वान ही हूँ न ऐसा सुलेखक ही और न इस प्रकार विशाल इतिहास लिखने जितनी सामग्री ही मेरे पास है फिर भी दूसरे किसी विद्वान ने इस ओर कदम न उठाता देख मैंने यह अनाधिकारी चेष्टा कर इस वृद्ध कार्य में हाथ डाला है । मुझे यह भावना क्यों और किस तरह से पैदा हुई इसका भी थोड़ा हाल पाठकों के सामने रख देना अप्रसंगिक न होगा। मेरा जन्म ओसवाल जाति में हुभा और संसार में मेरा पेशा (जीविका) व्यापार करने का था मैंने जिस ग्राम में जन्म लिया था, उसमें २०० घर महाजनों के थे। किन्तु वहां पर हिन्दी पढ़ाई के लिए स्कूल न थी और न ही कोई सरकारी स्कूल थी। केवल एक जैन यतिजी का उपआसरा था, और वे ही सब ग्राम के लड़कों को पढ़ाया करते थे। उनका परिश्रम-शुल्क (महनताना ) एक पटी का एक टका था। करीब एक रुपये में एक विद्यार्थी अपनी काम चलाऊ पढ़ाई कर लेता था। इससे अधिक उस समय पढ़ाना लोग व्यर्थ ही समझते थे। कारण उन लोगों की धारण थी कि इतनी दाई से ही हमारे लड़के लाखों का व्यापार कर लेते हैं। उनकी लिखी हुई लाखों की हुण्डी वगैरह सिकर जाती है तो फिर अधिक पढ़ाई करवा कर समय और द्रव्य का व्यय क्यों किया जाय । यतिजी की पढ़ाई केवल धार्मिक ही नहीं थी किन्तु धार्मिक के साथ २ महाजनी भी पढ़ाया करते थे। उनकी पढ़ाई में एक खास विशेषता यह थी कि माता पिता एवं देवगुरु धर्म का विनय मक्ति पर अधिक जोर दिया जाता था। यतिजी का पढ़ाया हुआ प्रत्येक लड़का अपने २ कार्य में प्राय: होशियार ही होता था। उन विद्यार्थीयों में मैं भी एक था किन्तु केवल एक व्यापार के अतिरिक्त संसार में क्या हो रहा है, इसको हम नहीं जानते थे । हमारे जीवन का ध्येय एकमात्र पैसा पैदा करना हो समझा जाता था। जब छब्बीस वर्ष की उमर में मैं घर छोड़ कर स्थानकवासी समुदाय में साधु बना, तो वहां भी बोल चाल गया तथा शास्त्र के पाठ रटरटकर कण्ठान करने के अलावा विशेष ज्ञान की प्राप्ति नहीं हई। जो हमारे धर्म के शास्त्र कित संस्कृत भाषा में है, उनको पढ़ने के लिए उन भाषाओं के ज्ञान का भी मेरे पास अभाव ही था। उन शास्त्रों पर गुर्जरा Jain Edurawa:TSAN (अर्थ) आप समझना या व्याख्यान द्वारा दूसरों को समझा देना। हमारा काम था। किन्तु यदि उसा टाary.org Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अर्थ) लिखने में किसी लेखक की गलती हो गई हो तो उसको सुधारने के लिए हमारे पास कोई भाषा-ज्ञान का साधन नहीं था। और ऐसे कई उदाहरण बन भी चुके हैं। जैसे: १-निशीथ सूत्र के ११वें उदेशा में एक सूत्र का ऐसा अर्थ लिखा हुआ था कि साधु की बगल (कक्ख ) में रोग नहीं भावे वहां तक सूत्रों की याचना नहीं दी जाये। पूछने पर कहा गया कि ज्ञानी का वचन तहत सूत्रों को कई रहस्य होती हैं। बस इतना कह कर व्याख्यानदाता छुट गये परन्तु उसको सुधार लेने का ज्ञान उसमें नहीं था दर असल इसमें लिखने वाले की ही गलती थी कि उसने रोम के स्थान रोग लिख दिया था। वास्तव में होना चाहिये था रोम (बाल) पर लिखने बाले ने रोम के स्थान रोग लिख दिया। जब कि प्राकृत-संस्कृत भाषा का ज्ञान ही नहीं तो उस अशुद्धि की कैसे सुधार सकते हैं । वे तो अशुद्ध हो या शुद्ध हो पन्ने पर लिखे हुए अक्षरों को ही ज्ञानी के वचन मानते हैं। २-एक मुनि उत्तराध्यान सूत्र का पांचवां अध्यायन व्याख्यान में बांच रहे थे, उसके गुर्जर टव्वा में लिखा हुभा था कि साधु जाव जीव स्त्री पाले । साधु ने भी व्याख्यान में पन्न' को पढ़ कर सुना दिया। श्रोताओं ने पूछा कि जब साधु ने स्त्री का त्याग किया है तो फिर वह पुनः स्त्री क्यों पाले ? मुनि ने उत्तर दिया कि वीतराग का ज्ञान स्याद्वाद है। सम्भव है इसमें भी सूत्र की कोई रहस्य हो । वास्तव में मूल पाठ का अर्थ यह था कि साधु जाव जीव तक चारित्र पाले किन्तु लिखने वाले वेतनी लेखक ने चारित्र के स्थान पर च अलग तोड़ दिया और रित्र के स्थान रि में मिला दिया, जिससे स्त्रि बन गया। जिसका अर्थ च अलग होने से पदपूर्ण ( पदपूर्ति) समझ लिया और स्त्री का अर्थ औरत करके कह दिया कि 'साधु जाव जीव स्त्री पाले।" इससे कैसा अर्थ का अनर्थ हो जाता है । इसका मुख्य कारण भाषा-ज्ञान का अभाव ही है। आज भी यदि उन सस्ते वेतन दार लहियां के लिखी हुई सूत्र की प्रतियों को उठा कर देखे तो आप को ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायगे कि जिन्होंने अर्थ का अनर्थ कर दिया और पढ़ने वाले भी ऐसे अनभिज्ञ थे कि पन्ने पर लिखा हुआ पढ़ कर सुना दिया। उन लोगों की पंक्ति में मैं भी एक था। स्थानकवासी समुदाय में मैं नौ वर्ष रहा था पर वहां पर कई बातों में माया कपटाई तथा एक मूर्ति के न मानने से सूत्रों के पाठ छीपाना अर्थ को बदलाना या व्यर्थ आडम्बर और धमाधम इत्यादि मुझे पसन्द नहीं थी। मेरी प्रकृति शुरू से ही-एकान्त एवं निवृति में रह कर ज्ञान-ध्यान करने की थी। जब आगमों का अध्ययन करने से मेरी श्रद्धामूर्ति पूजा की ओर झुकी तो मैंने उस समुदाय में दो वर्ष ओर रहा और इस विषय में बहुत शोध खोन की पर सिवाय अन्धपरम्परा के और कुछ भी नहीं देखा अतः उस को छोड़ दिया, किन्तु मैं उसी निवृत्ति को चाहता था। भाग्य वशात् मुझे एक ऐसे योगीश्वर मिल गए जो स्वयं अठारह वर्ष तक स्थानकवासी समुदाय में रह कर निकले थे और वे आचार्य विजयधर्म सूरीश्वरजी महाराज के पास संवेगी दीक्षा ली थी। आपका शुभ नाम था मुनिश्रीरत्नविजयजी महाराज । उस समय आप ओसियां तीर्थ पर रह कर अकेले योग साधन करते थे । भापके पास रहने से मेरी एकान्त में रहने की भावना तो सफल हो गई। पर भाषा शुद्धि के लिए जिस ज्ञान की मुझे अभिलाषा थी वह पूर्ण न हुई । कारण एक तो गुरु महाराज दीक्षा देकर थोड़े ही समय में मुझे ओसियां में रख कर बिहार कर गये । अब मैं अकेला ही रह गया जिसे एक तो स्थानकवासियों से निकाला तो मूर्तिपूजा की चर्चा छिड़ गई । दूसरे जहां जाता वहां व्याख्यान देना और भी क्रियाकाण्ड से समय बहुत कम मिलता था; उसमें भी मुझे पुस्तकें लिख कर छपाने का शौक लग गया था। भाषा शुद्ध न होने से विद्वान् लोग मुझे उपाछम्भ भी देते थे कि आपकी पुस्तकों का भाव अच्छा होने पर भी भाषा की अशुद्वियों से उनका उतना प्रभाव नहीं पड़ता है. कि जितना पड़ना चाहिये । फिर भी हमारे मारवाड़ी भाई अशुद्ध पुस्तकों को भी खूब अपनाग क्योंकि वे भी प्रायः अपठित ही थे। अर्थात् सरीखा सरीखी संयोग मिल गया यही कारण था कि मेरी पुस्तकों की ऊपरा ऊपरी भावृतियों छपती गई । खैर उस समय मैं अकेला ही था, किसी की सहायता भी न थी। इस परिस्थिति में मेरे दो वर्ष समाप्त हो गये। तीसरे वर्ष मैंने गुरु महाराज की सेवा में सूरत में चातुर्मास किया वहां पढ़ाई करने का भी सुअवसर था किन्तु व्याख्यान यहां भी मुझे ही देना पड़ता था। तथापि एक पण्डित रख कर संस्कृत मार्गोपदेशिका पढ़ना प्रारम्भ किया। प्रथम भाग पूरा कर द्वितीय भाग के कई पाठ हुए, इतने में चातुर्मास ख़त्म हो गया और मैंने तीर्थराज श्री शत्रुजय की यात्रार्थ विहार कर दिया। रास्ते में कई साधुओं से भेंट हुई तथा गुर्जरवासी साधु-साध्वियों का प्रायः शिथिलाचार देखा तो इस Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 29 VYVÝTV YVYYYYYYYYYY VÝUTVUVIVUTVU मुताजी लीछमीलालजी फलौदी (मारवाड़) मुताजी बदनमलजी फलौदी (मारवाड़) मुताजी २ वसतिमलजी १ गणेशमलजी ३ मिश्रीमलजी-जोधपुर आप For Privata & Personal Use Only नश्रीज्ञानसुन्दरजी के संसार पक्ष के ती Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास,9. International श्रीकापरड़ा तीर्थ मुनिम-मुलतानमलजी जैन परमभक्त श्रावक भंडारीजी चन्दनचन्दजी जोधपुर श्रीयुक्त सुगनचन्दजी जांघड़ा कापरड़ा www.ja Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हालत को परमात्मा सीमंधर स्वामी के पास कांगजे, हुण्डी पैठ परपैठ और मेझरनामा लिख कर भेजने की इच्छा हुई भतः मेझरनामा लिख दिया। इसका मुख्य कारण तो यही था कि मैं स्थानकवासी समुदाय से आया हुआ था, क्रिया पर मेरी रुचि थी। इधर साधुओं का आचार-व्यवहार भी प्राय: शिथिल ही था। खैर, उस मेझर नामे के लिखने से एक दो नहीं किन्तु अखिल संवेगी मुनि-मण्डल मेरे से खिलाफ हो उठो । स्थानकवासी तो पहिले से ही मुझ से खिलाफ थे, अव चारों ओर से ही विरोध के बादल उमड़ उठे । इससे नया ज्ञानध्यान करना तो दूर रहा किन्तु पहिले जो किया था उसकी भी सार सम्हाल होनी मुश्किल हो गई। मेरे पास अब केवल एक आधार अवश्य था और वह था सस्य । यदि उस समय मुझे इतना ज्ञान होता कि आज जिस दशा पर मैं मेझरनामा लिख रहा हूँ, भविष्य में मेरी भी यह दशा हो जायगी तो मुझे अवश्य विचार करना पड़ता। किन्तु जो होने वाला होता है वह तो अवश्य ही होकर रहता है। अभी तक इतिहास की ओर मेरी थोड़ी सी भी रुचि न थी। संसार में तो हम हमारे पूर्वजों के दो चार पीढ़ियों के नाम के अतिरिक्त और कुछ भी न जानते थे। हमारे कुलगुरु कभी नाम लिखने को आया करते थे तब वे कहते थे कि भापका गच्छ कंवलागग्छ है। जब दीक्षा एवं संवेग दीक्षाली, तब हमें इतना मालूम हुआ कि आचार्य रत्नप्रभसूरिजी ने वीरात् ७० वर्षे उपकेशपुर के राजा-प्रजा एवं सवालक्ष क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। जिनके आगे चल कर कई गोत्र हुए, उनमें १८ गौत्र मुख्य थे; जिनमें राव उत्पलदेव की संतान श्रेष्ठि गौत्र कहलाई और वैद महता उस श्रेष्टि गौत्र की एक शाखा है । जब मैने फलौदी में लगातार तीन चातुर्मास किए तो वहाँ कँवल गच्छ के उपाश्रय में एक विशाल ज्ञान भण्डार था, उसे देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसमें उपकेशगच्छ, पट्टावलियाँ कुछ वंशावलियों की वहियां एवं कम्बे लम्बे ओलिये और कई फुटकर पन्ने देखने को मिले । उनके अन्दर से कुछ उतारने लायक पाने थे वे मैंने अपने हाथ से वहीं उतार लिये। इसके पूर्व राजकदेसर के यतिवर्य माणकसुन्दरजी तथा रायपुर के यतिवयं लाभसुन्दरजी ने भी उपकेशगच्छ सम्बन्धी कई प्राचीन ग्रन्थ कई चित्र और कई बादशाहों के दिए फरमान व सनदें आदि मुझे दिखाई थीं किन्तु उस समय इस और मेरा लक्ष्य न होने के कारण उनको इतना उपयोगी नहीं समझा था। तथापि उन्होंने मुझे स्वगच्छ का समझ कर देखने के लिए एवं रखने के लिए दे दिए थे। मेंने उन सबको भोशिया में एक पेटी भर रख दिये थे। जब फलौदी में इस विषय की ओर मेरी रुचि हुई तो ओसियां से पेटी मंगवाकर उनको भी देखने लगा किन्तु, फलौदी में मैं अकेला था तथा दोनों समय व्याख्यान भी बाँचना पड़ता था, अतः समय बहुत कम मिलता था; फिर भी जितना हो सका अभ्यास जरूर करता रहा। जब मैंने नागौरा में चातुर्मास किया तो एक सज्जन ने मुझे एक पुस्तक जिसका नाम "महाजन वंश मुक्तावली" जो बीकानेर के यति रामलालजी ने वि० सं० १९६५ में मुद्रित करवाई थी, मुझे दो और मैंने ध्यान लगा कर पढ़ा; उससे मालूम हुआ कि य सजीने केवल गच्छ ममत्व के कारण ओसवाल जतियों के इतिहास का जबरदस्त खून कर डाला है। कारण कि उस पुस्तक में बाफना रोको पोकरणा चोरडिया संचेती आदि जातियों-आचार्य रत्नप्रभसूरिजी द्वारा प्रतिबोधित है। जिनका इतिहास कोई २४०० वर्ष जितना प्राचीन है, उनको अर्वाचीन आचार्य द्वारा प्रतिबोधित बतला कर ७०.. ८०० वर्ष जितनी अर्वाचीन बतला दी । यह एक बड़े से बड़ा अन्याय है। इनके अलावा संघी, भण्डारी मुनौयत-ढड्डादि स्थानकवासियों से जितने योग्य साध संवेगी समदाय में आये समाज सबका सत्कार किया पर मैं तो शुरू से ही समाज में कांटा खोला की तरह खटकने लगा इसमें एक तो मैं किसी के पास नहीं रह कर स्वतंत्र ही रहा। दूसरा मैं एकला होने पर भी उपकेश गच्छ 'जो सब गच्छों में ज्येष्ट एवं प्राचीन है' का नाम धराया। यही कारण है कि मेरा सस्कार तो होना दूर रहा पर मुझे मेरे ही विचारों के लिये अनेक कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ी। योग्यास्मार्थी शिष्य मुझे मिला नहीं और अयोग्य को मैंने शिष्य बनाया नहीं। हाँ मुर्ति नहीं मानने वाले जैसे मुझे मिले वैसे ही उनकों ले लेना ठोक समझा शायद वह योग्य नहीं निकले पर मूर्ति की निंदा करने वाले जितने कम हो उतने ही अच्छे । अतः मैं करीब Jan Ed"३५ वर्षों से मेरी प्रतिज्ञा पालता हुआ एक साधु के साथ विहार करता हूँ !ly Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत-सी जातियाँ अन्यान्यो गछ के आर्यों द्वारा प्रतियोधित हुई थी, उन सबको खतरगच्छाचार्यों द्वारा प्रतिबोधित लिखकर उन जातियों के प्रति घो' अन्याय किया है। अतएव मैंने एक पत्र बीकानेर यतिजी को लिखा है कि आपने 'महाजन वंश मुक्तावली' किस आधार पर लिखी है आदि पर उत्तर के लिये बहत समय तक इन्तजारी करने पर भी पत्र का उत्तर न मिला । अतः मेरी इच्छा हुई कि मैं इस पुस्तक की समालोचना रूप एक पुस्तक लिखू किन्तु यह तो इतिहास का विषय था और इसमें केवल जैन पुस्तकों से ही काम नहीं चल सकता। किन्तु इसमें मुख्य तया भारतीय राजाओं के इतिहास की जरूरत थी। मेरे विचार से इन कठिनाइयों के कारण हो १५ वर्ष व्यतीत हो गये किसी ने भी कलम न उठाई । फलत: मैने इस विषय की सामग्री संकलित करनी आरंभ की। ज्यों ज्यों मैं इस विषय के इतिहास देखता गया त्या त्यों ही मेरा इतिहास के प्रति प्रेम बढ़ता गया। ___जब में नागौर से खजवाना आया तो वहां पर कई कँवलागच्छ की पौसालो वाले मिले। जिसमें भटरक देवगुप्त सूरि (प्रसिद्ध नाम यति मुकन जी) मिले और उन्होंने अपने पास का विस्तृत ज्ञान-भण्डार मुझे उपासरे बुला कर और उदारता भी बतलाई कि आप हमारे गच्छ के त्यागी साधु हो । इन पुस्तकों में से आपके जो उपयोग में आवें वे देखें व लिगावें। इनके अतिरिक्त महात्मा छोगमलजी तनसुखदासजी ने भी अपने पास की पुरानी वंशावलियाँ, ख्याते की बहियाँ भी बतलाई. जिससे मेरा उत्साह और भी बढ़ गया! किन्तु ऐसा ग्रन्थ लिखने में किसी निवृत्ति स्थान की भी अपेक्षा रहती है, कारण कि इतिहास का काम एकाग्र चित्त से ही बन सकता है। अतएव इसके लिए महात्मा तनसुखदासजी ने मेड़ता रोड फलौदी में ही रहने की सलाह दी और यह मेरे भी पसंद आई। तनसुखजी भी छः मास फलौदी रह गए और मैंने भी फलौदी रह कर साधन एकत्रित कर "जैन जाति निर्णय" नामक पुस्तक लिखी । परन्तु कहा है कि श्रेयांसि वह विनानि अर्थात् मैंने कोई पचास साठ ग्रन्थों का अवलोकन कर बड़े ही परिश्रम से मैटर तैयार किया था, किन्तु एक सज्जन जो अच्छा विद्वान था; उस मैटर को देखने के लिए ले गया और कह गया कि मैं इसे देख कर वज़रिये रजिस्ट्री आपको वापिस भेज दूंगा। भवितव्यता वश उस सजन पुरुष ने उस मैटर को कहीं खो दिया। जब मैटर खो जाने का समाचार मुझे मिला तो बहुत ही दुःख हुआ। किन्तु हतोत्साह न हो द्विगुणित उत्साह से उस पुस्तक को पुनः दोबारा लिखा और बीलाड़ा जाकर मुत्ताजी खीवराजजी की द्रव्य-सहायता से छपवा भी दिया। जब पुस्तक प्रकाशित हुई तो उसकी प्रशंसा पत्रों का मेरे पास ढेर लग गया। किन्तु हमारे कई भाइयों को इस पुस्तक से दुःख भी कम न हुआ। उन्होंने अत्यन्त हल्ला मचाया और असभ्य शब्दों द्वारा अपना परिचय दिया। लेकिन मेरा उत्साह कम न हुआ और मैं आगे बढ़ता ही गया, मैंने निश्चय किया कि ओसवाल जैसी विशाल एवं परोपकार प्रिय जाति का इतिहास अभी तक जनता के सामने नहीं रखा गया है । अतएव मैंने सामयिक पत्रों में लेख लिखकर जैन विद्वानों से कई वार अपील की किन्तु इस ओर किसी ने भी ध्यान न दिया। इतना ही नहीं, वरन् बहुत से सजनों ने तो मुझे ही पत्र लिखे कि गुजराती साधुओं में बहुत लिखे पढ़े विद्वान् साधु हैं, परन्तु वे जैन जातियों के इतिहास से इतने जानकार नहीं हैं कि जितने मारवाड़ के आप जैसे साधु हैं । कारण वर्तमान में जितनो जैन जातियाँ विद्यमान हैं इन सब की उत्पत्ति मरुधर प्रदेश से ही हुई है एवं इनके संस्थापक शुरू से ही उपकेश गच्छ-आचार्य रत्नप्रभसूरि आदि आचार्य ही थे। अतएव इन जातियों के विषय में जितना इतिहास उपकेशगच्छ वालों के पास मिलेगा उतना शायद ही दूसरों के पास मिल सके। इसलिये हम आपसे ही प्रार्थना करते हैं कि आप जैसे भी हो सके, जल्दी से एक ऐसा प्रामाणिक इतिहास लिखें कि जिसका जैन एवं जैनेतर जनता पर अच्छा प्रभाव पड़े। अतः इतनी योग्यता न होने पर भी जाति सेवा को लक्ष्य में रख कर इस कार्य को हाथ में ले लिया। इस कार के लिए सामग्री तो पहले से फलौदी के उपासर यतिवयं लाभसुन्दरजी, रायपुर तथा माणकसुन्दरजी राजलदेसर तथा-बीकानेर मेड़ता फलौदी नागौर केकोन चांगोद. पालसणी और खजवान के भट्टारक, देवगुप्तसूरि एवं महात्मा गासीरामजी छोगमलजी तनसुखदासजी द्वारा मिल गई थी। ___ "जैन जाति निर्णय" लिखने के पश्चात् मेरा अनुभव भी काफी बढ़ गया था। मैंने "जैन जाति महोदय" नामक ग्रन्थ को एक ऐसी वृहद् योजना तैयार की, जिसके अलग २ पच्चीस प्रकरण के चार खण्ड बना देने का निर्णय कर लिया। जिसमें केवल जैन जातियों का ही नहीं किन्तु जैन धर्म सम्बन्धी सम्पूर्ण इतिहास समावेश हो सके। यह केवल विचार ही Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ e नहीं किया वरन् कार्य भी शुरू कर दिया। और कोई ६० फार्म अर्थात् १००० पृष्ठ और ४३ चित्रों के साथ प्रथम विभाग जें छः प्रकरण का एक खण्ड सादड़ी श्रीसंघ की द्रव्य-सहायता से मुद्रित करवा दिया। जिसको जैन समाज ने बहुत हर्ष एवं उत्साह के साथ अपनाया और द्वितीय खण्ड की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगी । किन्तु प्रथम खण्ड के पश्चात् काय' इतना शिथिल पड़ गया कि जिसको पुनः हाथ में नहीं लिया गया। इसका कारण एक तो मैं अकेला था दूसरा जैन साधुओं की दैनिक क्रिया व भ्रमण करना और व्याख्यान देना, चर्चादि करना; दूसरी और भी छोटी बड़ी कई पुस्तकें छपवाने में समय निकलता गया एवं कुछ अवस्था भी वृद्ध होती गई और बड़ा काम हाथ में लेने में कुछ आलस्य प्रमादों का भी आक्रमण होजाना संभाविक था । कुछ भी हो, किन्तु उस छुटे हुए काम को पुनः हाथ में न ले सका । इस समय में बहुत से सज्जनों के पत्र भी आये । खेर, जब हम निश्चय पर आते हैं तो यही संतोष होता है कि जब जो काम बनना होता है तब ही बनता है । इतना होने पर भी न तो मैं उस काम को भूल गया और न मेरा उत्साह ही कम हुआ । सदैव मेरा यही विचार रहता कि समय मिलने पर अधूरा रहा ग्रन्थ अवश्य पूरा करना है। इतने समय के विलम्ब में एक लाभ अवश्य हुआ कि जो पहिली सामग्री थी उसमें अधिकाधिक बृद्धि ही होती गई । कारण कि कई ग्रन्थ पढ़ने से एवं जहां गया वहीं के ज्ञान भण्डार देखने से, कुल गुरुओं के मिलने से, उनके पास की वंशावलियाँ एवं बहुत सी ख्यातें देखने से प्रमाणों एवं नई २ बातों का संग्रह करने में मुझे बहुत अधिक सहायता मिलती रही । पुनः कार्यारम्भ और विचारों का परिवर्तन जब वि० सं० १९९४ का मेरा चातुर्मास सोजत शहर में हुआ और वहां पर मेरे शरीर में बीमारी होगई, एक दम शरीर कमज़ोर होगया। एक दिन मकान से नीचे उतरता था तो चक्कर खाकर भूमि पर गिर गया । कुछ सावधान हुआ तो यह दिल में आई कि आयुष्य का कुछ निश्चय एवं विश्वास नहीं । यदि यह प्रारम्भ किया गया कार्य्यं अधूरा रह गया तो मेरे पीछे कोई व्यक्ति इस कार्य्यं को शायद ही पूरा कर सके । अतएव इतनी सामग्री जो एकत्र की है वह व्यर्थ सी हो जायगी । इसलिये अब छोटी छोटी पुस्तकें छपवानी बन्द कर इसी कार्य्यं को पूरा कर देना ज़रूरी है । जब तबियत सुधर गई तो मैंने कापरड़ा तीर्थ जैसे निर्वृत्ति के स्थान में पुन: अधूरा काम हाथ में लिया । पर साथ ही यह भी विचार हुआ कि "जैन जाति महोदय" प्रथम खण्ड प्रकाशित हुए कोई ९-१० वर्ष हो गये । वे पुस्तकें किन किन के पास पहुँची हैं और अब लिखे जाने वाले ग्रन्थ किन किन को मिलेंगे । अतः पहले वाले को अब छपने वाले ग्रन्थ नहीं मिलेंगे तो दोनों ही अधूरे रह जायेंगे । इसलिए अब शुरु से ही क्यों न लिखा जाय ? कि जिस किसी के पास जायगा तो वहाँ पूरा ग्रन्थ ही जायगा । जब मैंने मेरे परामर्शदाताओं से सलाह ली तो वे भी मेरे से सहमत हो गये । अतः मैंने यह निर्णय कर लिया कि इस ग्रन्थ को शुरू से ही छपवाना और पूरा छप जाने पर ही इसको वितीर्ण करना उचित होगा । यद्यपि कई सज्जनों ने यह भी आग्रह किया जैसे जैसे इसके भाग निकरते जांय वैसे वैसे ही ग्राहकों की दे दिये जावें । इसमें ग्रन्थ छपाने में, लिखाने में, खरीदने एवं द्रव्य की सहायता में सुविधा रहेगी; किन्तु कई सज्जनों ने इसमें पहली वाली अव्यवस्था की आपत्ति की और सम्पूर्ण ग्रन्थ छपने पर ही प्रसिद्ध करने का विचार ठीक समझा और वैसा ही निर्णय किया तथा संस्था ने भी वही स्वीकार कर लिया । ग्रन्थ का नाम-करण पहले इस विषय का जो ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका थ उसका नाम " जैन जाति महोदय" रखा गया था । साधारणतः इस नाम पर यही भान होता था कि इसमें जैन जातियों का ही इतिहास होगा ? यह अब इस ग्रन्थ का विषय बहुत विशाल कर दिया। कारण कि इसमें केवल जैन, जातियों का ही इतिहास नहीं वरंच भ० पाव नाथ की परम्परा के सम्प्रति समय तक ८४ पट्टधर हुए हैं उन सब का सामग्री के अनुकुल विस्तृत इतिहास एवं प्रत्येक पट्टधर के शासन से जैन धर्म सम्बन्धी जो कुछ कार्य्यं हुआ है, उन सब को सम्मिलित कर दिया है । जैसे म०पार्श्वनाथ के चतुर्थ पटटूधर Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रामण के शासन में भ० महावीर और महात्मा बुद्ध का शासन एवं उसके शासन के अन्दर की प्रत्येक घटनाएँ आदि का इतिहास भी शामिल लिख दिया गया है। इसी प्रकार भ. पार्थ नाथ के ८४ पटधरों के शासन में भ. महावीर के पट्ट-परम्परा में जितने गच्छ निकले एवं उन गच्छों के जितने भी आचाय्यं हुए तथा उन आचार्यों के शासन में जितनी जितनी घटनाएं घटी और उन में मुझे जितना इतिहास मिला, मैंने यथास्थान लिख दिया है । वह भी केवल धार्मिक ही नहीं अपितु सामाजिक और राजनेतिक इतिहास भी विशेष रूप से लिख दिया गया है । जोकि आप इस ग्रन्थ की विषयानुक्रमणिका से देख सकेंगे। ___इस ग्रन्थ का नाम क्या रखा जाय । इस विषय में कई सज्जनों की सलाह ली- जैनधर्म का इतिहास रखा जाय: किन्तु इस नाम से कई पुस्तकें पहिले प्रकाशित हो चुकी हैं। और उसमें केवल एक जैन आचार्य, वह भी भ. महावीर की परमपरा के ही आचायों का ही शासनविशेष वर्णित है। उसमें भी जिस गच्छ वालों ने इतिहास लिखा है वे प्रायः अपने ही गच्छ परम्परा का इतिहास लिखा है अतः इस नाम से जनता एक साधारण इतिहास समझ सकती है खैर, भ० महावीर को परम्परा के विषय को तो वहुत सी पहावल्लियां वगैरा में लिखी गई हैं किन्तु म० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अभी तक किसी ने नहीं लिखा है। मेरे ख़याल से जैन धर्म के इतिहास में पार्श्वनाथ परम्परा का अधिक हिस्सा है। अतः मैंने मुख्यतया उन पार्श्वनाथ परम्परा का ही इतिहास लिखा है। इस कारण इस ग्रन्थ का नाम भी "भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास" रखना ही उपयुक्त समझा है। किन्तु पाठक ? यह न समझे कि इस ग्रन्थ में केवल पार्श्वनाथ की परम्परा का ही इतिहास है ? इस में पार्श्वनाथ या महावीर के शासन एवं परम्परा का तथा इन २८०० वर्षों में जैनधर्म सम्बन्धी घटी हुई घटनाओं में मुझे जितना इतिहास मिला है, मैंने सबका ही इसमें समावेश कर दिया है। इस ग्रन्थ की सामग्री संकलन करने में मैंने कोई २० वर्षों से खूब ही परिश्रम किया है और कई प्रकार की कठिनाइयाँ भी उठाई हैं। तथा सैकड़ों ग्रन्थों का भी अवलोकन किया है। जो कोई सामग्री एवं प्रमाण मिला उठा नहीं छोड़ा है। जहां प्रमाण कहीं नहीं मिला वहां पहावलियों, वंशावलियों को भी काम में लिया है, कि जिन पर मेरा विश्वास हो गया था। मेरे ज्ञान से मैंने किसी गच्छ, समुदाय, मत. पन्थ एवं जाति-गोत्र के प्रति अन्याय नहीं किया है। अपक्षपात से ही इतिहास को लिखा है। यों तो आज पर्यन्त मैंने बहुत से ग्रन्थ लिखे हैं किन्तु यह ग्रन्थ मेरे जीवन का अन्तिम प्रन्थ है। इस समय मेरी आयु ६२ वर्ष की हो चुकी है, शरीर की कमजोरी एवं नेत्रों की रोशनी भी बहुत कम होती जारही है । अतः भविष्य में अब मुझे आशा नहीं कि कोई ऐसा दूसरा ग्रन्थ लिख सकूँ । हां, मेरे हृदय में यह भावना जरूर है कि यदि यह ग्रन्थ समाप्त हो गया तो मैंने जो पहले ग्रंथ लिखे हैं, उनके अंदर रही हुई अशुद्धियों का परिमार्जन कर तथा शीघ्रबोध के जो २५ भाग लिखे थे उनको ठीक विवेचन के साथ दूसरी भावृत्ति लिख कर मुद्रित करवा दूं । खैर, इस समय तो इस ग्रन्थ को ही पूर्ण करने का प्रयत्न करूंगा। ___ अन्त में मैं इतना कह देना आवश्यक समझता हूँ । कि प्रथम तो इतिहास का लिखना ही एक टेढ़ी खीर है, उसमें भी मेरे जैसा-अल्पज्ञ के लिए तो और भी विशेष है। दूसरे सबसे पहला तो यही सवाल रहता है कि जितनी सामग्री चाहिये उतनी मुझे उपलब्ध नहीं हुई है। इसलिए मैंने अधिक माश्रय पट्टावलियो एवं वंशावलियों का ही लिया है कि जिस पर वर्तमान में इक तर्फा देखने वालों का विश्वास बहुत कम है। तथपि मैंने अपने दीर्घकाल के अनुभव से और निश्वित धारणा से इन साधनों का ठीक संशोधन कर विश्वास किया है । अन्य विद्वानों से भी निवेदन करता हूँ कि जब तक मेरी लिखी घटनाओं के विरुद्ध कोई प्रमाण न मिले तब तक उनको ठीक-यथार्थ ही मानें। ___मनुष्य की दृष्टि दो प्रकार की होती है। खण्डन और २ मण्डन । खण्डन दृष्टि वाला कहता है कि अमुक बात का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है ? तब मण्डन दृष्ठि वाला कहता है कि इस बात के खिलाफ कोई प्रमाण नहीं मिलता है; अतः इसको हम भसत्य नहीं कह सकते हैं। इन खण्डन मण्डन के विवाद में हमारे हजारों जैनवीरों का इति - भगानधि अंटेरे में पडा है। किसी की भी यह हिम्मत नहीं पड़ती कि उनको (प्रकाशित करा) प्रकाश में लाये। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - इसका नतीजा यह हुआ कि वत्त मान स्कूलों में कोमल हृदय के विद्यार्थियों को जो पाठ्य पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं उनमें साधारण लोगों के इतिहास पढ़ाये जाते हैं पर जिन जैन वोरों ने एवं उदार नर रत्नों ने भारतके सार्वभौम उपकार करने में अपनो करोड़ों की सम्पत्ति पानी की तरह बहा दी, उनका इसमें प्रायः नामनिशान भी नहीं है। जब तक होनहार विद्यार्थियों को अपने पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास को न पढ़ाया जाय तब तक उनकी संतानों की नशों में कदापि खून नहीं उबलेगा । जब कि भारत की सैकड़ों हजारों जातियों में जगत सेठ, नगर सेठ, चौबटिया, टीकायत शाह और पंचों जैसी महान् पदवियाँ यदि मिलो हैं तो एक इस जैन जाति के वीरों को ही मिली हैं। यह कुछ काम करने से मिली हैं या यों ही ? जब काम करने से मिली हैं तो उनके कामों का इतिहास कहां है ? वह इतिहास हमारी पट्टावलीयों वंशावलीयों में ही मिल सकेगा, कि जिन पर हमारे कई एक विद्वानों (1) का विश्वास कम हो रहा है। यह केवल भ्रम या पक्षपातका विमोह है। फिर हमारे पास ऐसा कौनसा साधन है कि जिसके द्वारा हमारे पूर्वजों का इतिहास जनताके सम्मुख रखा जा सके। मेरी तो अब भी यही राय है कि अभी भी समय है जैन विद्वान् एक ऐसी संस्था कायम करें कि जिसके द्वारा जितनी पट्टावलीयां एवं वंशावलियादि इस विषय का जितना साहित्य मिले उन सब को एकत्रित कर उनका अनुसंधान करें और यदि कहीं त्रुटियाँ नज़र आयें तो अन्य साधनों द्वारा संशोधन कर उसके अन्दर से जितना भी तथ्य मिले उनको इतिहास की कसोटी पर कस कर ठीक सिलसिलेवार संकलित कर जनता के सामने रखें तो मेरा पक्का विश्वास है कि विद्वत्समाज ऐसे इतिहास की अवश्य क़दर करेगा । वर्तमान कइ सज्जनोंमें एक यह वढी भारी खूबी है कि आप कुछ काम करते नही और दूसरा कोइ करताहो तो उसके अन्दर कई प्रकार की व्यर्थ त्रुटियों निकालकर विघ्न उपस्थित करदेते हैं अतः काम करने वालों का उत्साह गिर जाता है यहाँ तो वही काम कर सकता है कि किसी के कहने सुनने की परवाह तक नही रखे और गुप चुप अपना काम करता रहे ! हाँ जिस किसी को रुची हो या लाम दिखताहो वह अपनावे यदि ऐसा नहो तो चपचाप रहें । मेरे खयाल से जैनधर्म के लिये कोई भी छोटा मोटा काम करेगा वह जैनधर्म को नुकशान पहुचाने को या जैनागमों से खिलाफ तो करेगा ही नही। काम करने वाले की इच्छा शासन की सेवा करने की ही रहती है हाँ किसी विषय की अनभिज्ञता के कारण कुछ अन्यथा होता हों तो उनको सज्जनता पूर्वक सूचना दें। मेरे खयाल से ऐसा मूर्ख कौन होगा कि जिसके हाथोंसे शासन को नुकसान होता हो और उसका एक भाइ ठीक सुझाव कर रहा हो तो वह इन्कार करे अर्थात् कोह नहीं करेगा यदि इस पद्धतिसे कार्य किया जायतो शासन का न अहितो और न भापसमें किसी प्रकार से मन मलीनता का कारण बने ? प्रस्तावना को मैंने काफी लम्बी चौडी करदी है पर इसमें अनोपयोगी तो कइ बात मेरे खयाल से नही आई होंगी फिर भी इतना बडाग्रन्थ का परिचय करवाना थोडा में हो नही सकता है खैर अब जिन जिन सज्जनों द्वारा सामग्री व सहायता मिली है उनका आभार मानना मैं मेरा कर्तव्य समझ कर उनकी नामावली लिख देता हूँ । सहायकों की शुभ नामावली इस वृहद्ग्रन्थ लिखने में जिन जिन महानुभावों की ओर से मुझे किसी प्रकार से सहायता प्राप्त हुई है उन सज्जनों का उपकार मानना मैं मेरा खास कर्तव्य समझता हूँ और शास्त्रकारों ने भी फरमाया है कि उपकारियों के उपकार को भूल जाय वे लोग कृतघ्नी कहलाते हैं और कृतघ्नी जैसा दूसरा कोई पाप ही नहीं होता है अतः उपकारियों का उपकार मानना जरूरी हैं यों तो मेरे इस कार्य में बहुत सज्जनों का उपकार हुआ है और उन सबका मैं आभार भी समझता हूँ पर जिन महानुभाव ने विशेष सहायता पहुँचाई और इस समय मेरी स्मृति में है उनकी शुभनामावली यहाँ दे दी जाती है । १ - उपकेशगीय यतिवर्य लाभसुन्दरजी जो कई अर्सा से आप रायपुर (सीपी) में ही रहते थे जब १६७३ का मेरा चतुर्मास फलोदी में हुआ था तब खास मेरे से मिलने एवं दर्शनार्थ फलोदी आये थे और मुके उपकेशगच्छ में क्रिया उद्धार किया देख आपको बड़ी खुशी हुई थी कारण जैसे श्राप निर्लोभी निःस्पृही एवं शान्तवृति वाले थे वैसे ही गच्छअनुरागी भी थे आपने कहा था कि मेरे पीछे ऐसा कोई सुयोग्य शिष्य Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] नहीं है कि मेरा ज्ञान भण्डार को संभाल सके अतः मैं मेरा ज्ञानभण्डार आपकी सेवा में अर्पण करना चाहता हूँ आप उनका सद् उपयोग करावें । मैंने कहा कि ज्ञानभण्डार देखने का तो मुझे शोक है पर उसकों प्रहन कर में कहाँ लिये फिरू तथापि आपकी इच्छा तो वहीं रही। बाद हम दोनों ने फलोदी के उपकेशगच्छ के उपाश्रय का ज्ञानभंडार देखा और उसमें कई गच्छ सम्बन्धी साहित्य था उसके अन्दर से मैंने कई नोट कर लिये । इस प्रकार नोट कर लेने का तो स्थानकवासियों में भी मुझे शौक था और अभी तक मेरे पास बहुतसे नोट किये हुए पड़े भी हैं खैर जिस समयमें ओसियोंमें ठहरा हुआ था उस समय यतिजीने अपना ज्ञानभंडार मेरे नाम पर ओसियों भेज दिया मैंने उसका अवलोकन किया जिसमें उपकेशगच्छ सम्बन्धी पट्टावलियो वंशावलियाँ व आचार्य के जीवन वगैरह थे मैंने रख लिया शेष जितने हस्तलिखित एवं मुद्रित पुस्तकें थी तथा मेरे पास हस्तलिखित आगम वगैरह थे वे सबके सब श्रोसियों में श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानभण्डार की स्थापना कर उसमें अर्पण कर दिये जिसकी लिस्ट में जिन जिन दातारों की ओर से मुझे पुस्तक मिली थीं उनके ही नाम लिखादिये। २-उपकेशगच्छीय यतिवर्य माणकसुन्दरजी राजलदेसर वाले सं० १९७४ जोधपुरके चतुर्मासमें मेरेसे मिले उन्होंने भी अपने पासके प्राचीन साहित्य जिसमें भी स्वगच्छ सम्बन्धी बहुत साहित्य था एवं एक उपकेशगच्छ की विस्तृत पट्टावली जो मारवाड़ी भाषा में लिखी हुई थी तथा श्री पूज्यों के दफ्तर की वंशावलियों तथा राजा बादशाहों से मिले हुए पट्टे परवाने सिनन्दे वगैरह भी थी इनके अलावा कोरंटगच्छाचार्यों की एक वही जो कोरंटगच्छ के श्रीपूज्यों बीकानेर आये थे तब दे गये थे उस बही में कोरंटगच्छाचार्यों ने अजैन क्षत्रियों को जैन बनाये और बाद में कई कारणों से उनकी जातियाँ बन गई थी उन जातियों की उत्पति या वंशावलियों और उनके किये हुए धर्म कार्यों का विस्तृत लेख थे वह भी साथ लाये थे यतिवर्य गच्छ के पक्के अनुरागी थे और अपने गच्छ का उत्थान करना भी चाहते थे। मैंने यतिजी के लाये हुए साहित्य से बहुत से नोट कर लिये उन्होंने कहा कि यह सब आपके ही पास रखें पर मैंने इन्कार कर दिया और कहा कि जब मुझे जरुरत होगी तब मंगवालूगा पर भवितव्यता कि वे मेरे से मिलने के बाद थोड़े ही जीवित रहे ३-यतिवर्य प्रेमसुन्दरजी आपने भी उपकेशगच्छ चरित्रादि कई साहित्य मुझे दिखाया जिसमें उपकेशगच्छ चरित्र तो कई दिन मेरे पास रहा मैंने उसकी प्रति उतरा कर मूल प्रति वापिस देदी। ४-जब मैंने नागोर चतुर्मास किया था वहां भी उपकेशगच्छीय उपाश्रय से मुझे बहुत साहित्य देखने को मिला कई बादशाही पट्टे परवाने भी देखे। ५-वहाँ से जब मैं खजवाने आया वहाँ पर भी उपकेशगच्छ की एक शाखा की गादी है भट्टारक देवगुप्त सूरि (प्रसिद्धनामगुरांमुकतजी)थे उन्होंने मुझे स्वगच्छ का त्यागी साधु समझ कर बड़े ही सम्मान के साथ अपने उपाश्रय ले गये और अपने पास का विस्तृत ज्ञान भंडार दिखाया और कहा कि मेरे कोई योग्य शिष्य नहीं है इन पुस्तकोंसे आपके उपयोगमें आवे तो श्राप कृपाकर लिरावें आपके ज्ञान कोष को मैंने तीन दिन अवलोकन किया और आगमों के अलावा व्याकरण न्यायादि तथा ज्योतिष वैद्यक के भी बहुत से प्रन्थ थे और गच्छ सम्बन्धी पट्टावलियों तथा वंशावलियों के बड़े बड़े पोथे और लम्बे लम्बे भुगले भी थे जिनमें उपकेशगच्छ के मूल ४० गौत्रों की वंशावलियों तथा उन्होंके किये हुए धर्म कार्य तथा तलाब कुए बापियों धर्मशालाएं आदि जन कल्याणार्थ दुष्कालादि में महाजनों ने करोड़ों द्रव्य व्यय कर मनुष्यों को अन्न और पशुओं को घास दे उनके प्राण बचाये तथा बहुत से वीर पुरुष युद्ध में काम श्राये उनकी स्त्रियाँ सतियाँ हुई के भी उल्लेख थे। मैंने इसी कार्य के लिये खजवाने में कई २४ दिन ठहर कर बहुत से नोट कर लिये ।। ६-खजवाने में महात्मा घासीरामजी छोगमलजी तनसुखदासजी की पौसाल है और वे महाजनों की वंशावलियां भी लिखते हैं तथा बहुत वृद्ध होने से उनको स्वगच्छ सम्बन्धी बहुत बातों का ज्ञान भी था उनके पास से भी मैने बहुत नोट किया था वे भी गच्छ के पक्के अनुरागी थे यही कारण है कि इसी काम के लिये सनसुखदासजी मेरे पास ७-८ वर्ष रहे और इस विषय की सामग्री के लिये स्वगच्छ और परगच्छ की Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास करु ता. एकायतरीनाष्टामाव्यतरादा श्रीउपकसबंसोबरागावोगावआग्रंबावमिकाकरनालगजन्मिामामणिपांचमाकीपर सनालरला तथावालकनगे घराबाजागापहिरनहीनघालोवरूपंगवाजोगहणीनपहरापहिला बसालघारजपूतापश्चात्महेश्वरीमाझंगात्रीतलाधणपतिंगोत्रंानातःसवालषदशनारामरयावकामना शानगरामलात्पत्रिततीधन्नालानगरवासयामंत्रिसाललिकारियश्यनराजातातिनचकाटियरमाब सारा राजीनःसहयवहारःकधारातताराज्ञाव्यवहारियातिदिर दादतातनवरातिमात्रसिजात हामातलस्पगृहपवरंजातोपरंसंताननासितदामंत्रिसातलनसंतानार्यबाह्मणाःPष्टापत्रात मलकापतानयसलानापन्चानजानामतस्पिन्नवसरतहारकत्रीदेवाशंदमूरयःसमागताःतदामात्रमा नयागुरबाबदिता:संतानोपचारांगरवाटणणातदायुरुतिरुक्कायद्यस्माकं स्वतंयाकरिष्यसिी, कारख्यामः कथयिष्यामसिदामंत्रिमातलनायुरूवनंजगतापवावगुरूक्ति दलपहल खरााष्ठामाव्यतरीदतस्पत्रलमरवनतिजल्पिता असभातरतीयत्वनडालगाव समापगंशारवाई जा। एकदाहाशस्त्रासापरस्परंकलहरुबाएकास्वाद्रव्यगृहांबावनगताततव्यपस्य सारवानवापध्मठिलााउपस्निाळाद्यारक्यंकपपतितामिवाव्यंतरीजोतातयातवगृहवशात्पाताना लाननतवतिाफ्वातन्श्यनि.काशिनाततः पती/सीतापमातगुरुनिगवरीदाषनिवार) तासानलासप्तपुत्रा:जातातिनसणधीशतिनाथस्पप्रामाद:कारितामनिसातलघुबरकुल भरहनापूनासामंत देवनागपवाहरुसालोऽथजगसी पूना नदवसार पवाहरुसालोऽयजगसी पूनाछत्रदवसागरश्दूल्हारसाहरुगरलूपचन सामभाताराकसmyTIOकहानगतजमारकालाजालात3RNA तजमारकालजोलारनपुत्र नेतसारतत्पुरनाकमातीकमनश्री वंशावली नं०३ कारक: वादिश्रीदेवरूजीसामुपदेशाता तत्वायारिल विमनवसहानामशसाट तारकालतातरावसाहजादार जाधकदारमर,... हमासाहहरवदतार्यापूनसिरोपुनकुमरमालपनंगपाल तेजपाल जगपाल केसवयनरे पालासाह कुमरपालारानगर सासलाराए। साहरा म्याराज्एकानकः प्रतापाधिपाबतंबी HEपालनवजावधसधेनस्सहाशवजयथाहाताातपूजारहानरूपनामूमनासाए जामावहारवासवत३छ 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अलीमसा तामनश्रीराजययात्राकृतातिहारकी श्रीदेविितःतिलकहतामव३३१वषोसंपली सवनावित्रमाणिकातंत्र्पनामाकागरावरगामपनी कालुगरनिगरकान्ट -12 वंशावली नं०५ al Education international www.janetrary.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, ॥णा सालि-बाउपदेशदेशागो युरू गोरगौनजाका महाहिनी नारायणायामपसोनव दिनेभूज्यताइग्रजयायामानाराजपत्रमाणासाकलममीपस्तनराधानगरवास्तव्यातहारकनाप ईश्वसूखामुपदशतःभावकाजाताबोहापायनवाजाश्रीमानसिहनपुत्रजन्मानमिसनारायणानागरग। विकाग्रगत तंत्रकनामिगोपालकनपुजिता गोपुरूषपालिचंदेरगढीकितानिवर्तत। तान्पादोयमकतू अदनारूतिरूजातानिपुष्पा जिप्रकालाकालालिमपामतीपचीतविष्यतितिस्पनामगोषुक इतिटीय तीदिनी गानस्तागोपुरूजरवायना जानातिनीपकारेन हर्मपत मध्यवशात्स्वभावकालातमततःअंबिकाएलकुल दलापतबाराजामानासधपत्याधुलत्युत्रप्रनसर धव्याने पानरमारयनगरचोहारशराजा न्यथोप्रीम न्माणिक देवनामनपतकादायकाविश्रुतापूज्यश्रीगुरुसरदवक्वसासत्पनगदिमांटिंकरसनताप्रातमध 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पुनलकमुषेन निजात्य सुटता येतवेवंब्रात्या गावाच्यास्त्रियोवती एकदाहात्या स्त्रिस्पापरस्परंक तंए कास्त्रीव्यग्रहीलापतावश्यकुपनषिगत्तामध्मेतिताउरि अाबा वंशावली नं० १ बहुरा गौत्र "स्वस्तियारपकनवंशाश्रीमालवंशात्तापागोत्रीमालबियाचवटंकेोगावजात्रवाशी तरसिदिन पूरुपने वराजवशीयादवान्वयारावतरामदवावाश्रीसर्वदेवमूरीतांजपदबानश्रावकाजातःसवदा नतातिन्नमालनगरे।श्रीघरपाटकाश्रेयाजयमालादत्रातिन श्रीमालऽतिवधास्परबापनाजिातातियात्रा माहातानपुत्रजगसापासको जरामापत्रधरतनमागवयजलपूनाइननाधएशि मालवादशमंडपाचलाश्रीचप्रत्तस्वामीशमादप्रतिष्टाप्रतिमाकारिता शेषरमारनि.नागोरीतपागला संवता३शवर्षीततामलवियातिपकासात वाताबाद तायारलापरकर्मटाजाटारमोनपालकमातायासुनवतपुत्र मामरसारगरमाकपातायोभारूप्रत्रनानायालागादेपसारंगापुत्रपटाचिन पर वंशावली नं०२ श्रीमाल वंश (शेष ८ ब्लाँक तैयार न होने से उत्तरार्द्ध में दिये जायगे) , Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सालों में घूम घूम कर कुछ द्रव्यार्थीयों को द्रव्य भी दिया पर बहुत सामग्री एकत्र की-जिसका उपयोग नि जैनजातिमहोदय तथा इस प्रन्थ में किया है।। ७-जब में जैतारण से वीलाड़ा जा रहा था मार्ग में खारिया प्राम आया में तपागच्छ के उपाश्रय में ठहरा वहाँ पर रहीखाते में वंशावलियों के लम्बे लम्बे १०-१२ भुगले पड़े थे मैंने वहां के अग्रेश्वर श्रावकों की आज्ञालेकर ले लिया इसी प्रकार पाली से कापरड़े जाते मार्ग में चौपड़ाग्राम आया वहां मन्दिर के मुहार में महाजनों की बहियों के साथ वंशावली की बहियां तथा कई कागज के भूगले पड़े थे जो बिलकुल रही खाते में थे वहां के श्रावकों की आज्ञा से मैंने ले लिया और एक आदमी कर कापरड़ाजी ले गया उसमें प्रायः तपा गच्छ के श्रावकों की वंशावलियों थी। -जब मैं गोडवाड में विहार कर रहा था तो चांणोदगया वहां भी उपकेश गच्छ की पौसाल थी और वे भी श्रावकों की वंशावलियां लिखते हैं और उनके पास में भी प्राचीन साहित्य काफी था वहाँ से भी मुझे काफी मसाला मिला था इत्यादि मेरे २८ वर्षों का भ्रमन में जहाँ जहाँ इस विषय का साहित्य मिला मैं प्राय अधिक नोट ही करता रहा कारण इतनी सामग्री कहा लिये फिरता रहूँ। बहुतमा साहित्य जो मुझे मिला मैने संग्रह भी किया और कई महात्मा मेरे से ले भी गये थे तथापि मेरे पास आया उसके नोट तो मैं बराबर करता ही रहा। --इनके अलावा भी मेरे भ्रमन में जहाँ जहाँ मैंने ज्ञान भण्डारों का अवलोकन किया तथा महा. त्माओं की पौसाला वालोसे मिला और उन लोगोंसे मुझे जो कुछ उपयोगी जानने योग्य साहित्य मिला उसका में संग्रह करतारहा जितना साहित्य मुझे मिला था उसपर मैंने आंखें मूंदकर अन्ध परम्परासे ही विश्वास नहीं कर लिया था कारण में जानता हूँ कि वंशावलियों में जिस जिस समय की घटनाएं लिखी मिलती हैं वे उस समय की लिखी हुई नहीं है फिर भी कुछ परिश्रम करके संशोधन किया जाय तो उसमें से इतिहास की सामग्री प्राप्त हो सकती है मैंने संशोधन करने पर भी जिस पर मेरा विश्वास हो गया उसको ही काम में ली है। १०--श्रीमान प्रतापमलजी अमोलखचन्दजीवेजवाड़ाके फार्म वाले श्रीमान दुर्गाचन्दजो कर्मावस वाले तथा कुनणमलजो अनराजजी व्यावर वाले श्रापकी मारफत कम्पनी को कागजों का ओर्डर संस्था वालों ने दिया था तथा संस्थासे हुण्डी भी भजिवादी था पर प्रतिबन्धादि कारणसे कम्पनी वाले कागज देने से इन्कार कर दिया हण्डी भी वापिस आग पर उपरोक्त ज्ञानप्रेमियोंने बहत कोशिश कर कागज भिजवाया जिससे ही हमने इस ग्रन्थ को समाज की सेवामे रख सके अतः आपका उपकार माना जाता हैं। .. ११-श्रीमान त्रिभुवनदास लेहरचन्द शाह वड़ोदा वालों की मारफत शशीक्रान्त एण्ड कम्पनीने हमें कई ब्लौक छापने के लिये देकर समाज के द्रव्य की रक्षा की है इस लिये हम आपका आभार समझते है। १२ श्रीमान देवकरणजी रूपकरणजी महता अजमेर वालोंने कागजों का स्टाक अपनी हवेलीमें रखवाया और समय-समय प्रेस वालों को देने में परिश्रम लिया अतः आपकी भी ज्ञान भक्ति हम भूल नहीं सकते हैं। १३- सेठजी हीराचन्दजी संचेती अजमेर वालों ने भी हमारा अजमेर सं० २००० का चतुर्मास में सेवा का अच्छा लाभ उठाया है। १४–श्रीमान् गणेशमलजी वसतीमलजी मिसरीमलजी वैद्य महता जोधपुर वालों ने भी इस ग्रन्थ के लिये प्रबन्ध करने में समय समय अच्छी सुविधाएं कर दी थी। १५-उपरोक्त सज्जनों के अलावा विशेष सहायता मुनि गुणसुन्दरजी की रही कि इसकी सहायता से ही मैंने इस बृहद्ग्रंथ लिखने में सफलता हासिल की है। १६-पण्डित गौरीनाथजी कि आपने कई संस्कृत पट्टा० फार्मे संध करने में सहायता पहुंचाई। १७--श्रीमान् रामलालजी गोयल मैनेजर आदर्श प्रेस ों तो आपने मेरे वर्षों से कार्य दिलचस्पी से करते आये हैं वरन इस ग्रन्थ के लिये तो आपने धार्मिक भावना से अच्छी सहायता एवं समय २ पर Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] सलाह देकर इस प्रन्थ की उपयोगिता बढ़ादी है । और प्रेस के और भी सज्जनों ने एवं फोरमेन आदि ने समय समय पर अच्छी सहायता पहुँचाई है अतः आप सजनों का नाम भी भूल नहीं सकते हैं। उपरोक्त सज्जनों के अलावा भी इस ग्रन्थ लिखने एवं प्रकाशन करवाने में जिन जिन सज्जनों ने हमें सहायता पहुचाई है उन सबका मैं सहर्ष उपकार प्रदर्शित करता हूँ । ॐ शान्ति ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय अब हम इस प्रन्थ का पाठकों को संक्षिप्त परिचय करवा देते हैं१-इस ग्रन्थ का नाम मैंने 'भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास' क्यों रखा ? है कि इस ग्रन्थमें मुख्य विषय भगवान पार्श्वनाथ, की परम्परा में ८४ आचार्य हुए हैं उनका तथा उन आचार्योंके किये हुए शासन हितार्थ कार्यों को ही अग्र स्थान दिया है कारण इस विषय के आज पर्यन्त जितने ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं उनमें भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दृष्टिगोचर नहीं होता है यदि किसी ने लिखा भी है तो इतना ही कि 'भ० पार्श्वनाथ के छटे पट्टधर आचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उपकेशपुर के क्षत्रियों कों प्रतिबोध देकर महाजन संघ की स्थापना की थी' पर बाद में भी पार्श्वनाथ के पट्टधर प्राचार्यों का हम पर कितना उपकार हुआ है कि जिन्होंने जैनधर्म की नीव ही क्यों पर जैनधर्म को जीवित रखा कह दिया जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं कही जा सकती कारण आज जैनधर्म पालन करने वाले प्रोसवाल पोरवाल और श्रीमाल वंश है वे उन्हीं श्राचायों के बनाये हुए हैं इतना ही नहीं पर उन प्राचार्यों द्वारा स्थापन की हुइ शुद्धि की मशीन कह २००० वर्ष तक अपना काम करती रही जिसके जरिये लाखों नहीं पर करोड़ो अजैनों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर महाजनसंघ की अशातित वृद्धि की थी ऐसे जवर्दस्त उपकार करने वाले आचार्यों के उपकार को भूलजाना एक बड़ा से बड़ा कृतघ्नीपन कहा जा सकता है उस कृतघ्नीत्व के बनपाप से ही समज का पतन हो रहा है अतः मैंने उन आचार्यों का इतिहास लिख समाज के सामने रखा दिया है। २-इस ग्रन्थ का नाम 'भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रखने से पाठक यह भूल न कर बैठे कि इस ग्रन्थमें केवल भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का ही इतिहास है पर इस ग्रन्थमें भगवान महावीर की परम्परा का इतिहास भी विस्तृत रूप से दिया गया है जितना भी मुझे उपलब्ध हुआ है । इनके अलावा भी जैनधर्म के साथ सम्बन्ध रखने वाले अनेक विषय का उल्लेख भी इस ग्रन्थ में यथा स्थान कर दिया गया है जिसको संक्षिप्त से बतला दिया जाता है। ३-राज-प्रकरण-इसमें महाराजा अश्वसेन के पश्चात् शिशुनागवंश, नंदवंश, सूर्यवंश, चन्द्रवंश, यादुवंश, मौर्यवंश, शुगवंश, विक्रमवंश, शकवंश चष्टानवंशके महाक्षत्रिप, कुशानवंश, गुप्तवंश', हुणवंश, वल्लभीवंश, चेटकवंश मगध का राजवंश, डांगदेश का राजवंश, कौसुवीराजवंश, कलिंगराजवंश, कौशलराजवंश, सिन्धुसौवीरा राजवंश इनके अलावा दक्षिण के जैनराजाओंका तथा परमार, चौलक्य, च वड़ा, राष्ट्रकूट, प्रतिहार, वगैरह जैन धर्म के साथ सम्बन्ध रखने वाले राजाओं का वर्णन एवं वंशावलियों भी दी गई हैं ४-इस प्रकरण में वंश कुल वर्ण गौत्र जातियों का इतिहास लिखा गया है इनके अलावा खंडेलवाल, नरसिंघपुरा वघेरवालादि दिगम्बरों की जातियों तथा अग्रवाल पल्लीवाल महेसरी वगैरह कि उत्पत्ति ५-इसमें जैनागमों की वाचना का वर्णन है, द्वादशवर्षीय जन संहारक दुष्काल के अन्त में पाटली पुत्र में संघसभा और आगम वाचना । पुनः वज्रसूरि के समय भयंकर दुष्काल के अन्त में सोपार पट्टन में आगम वाचना तीसरी मथुरानगरी तथा वल्लभी में आगम वाचना। आगमों के चारों अनुयोगद्वार पृथक् २ करना ८४ आगमों की संख्या ४५ आगमों के योगद्वाहन । जैन श्रमणों के लिये पुस्तके रखना एवं खोलना Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] बन्धनो का प्रायश्चित। आवश्यकता होने पर पुस्तकें लिखना वल्लभी नगरी में संघ सभा और पागमो को पुस्तकारूढ करना इत्यादि ६-चैत्यवास प्रकरण, इसमें चैत्यवासियों के लिये चैत्यवाल कबसे, चैत्यवास क्या सुविहित सम्मत ? चैत्य वास से हानी लाभ ? चैत्तवास में विकार, चैत्यवास के समय समाज का संगठन, संघ व्यवस्था समाज की उन्नत दशा, चैत्यवासी बड़े बड़े धुरंधर आचार्य जिन्हों का समाज एवं राजामहाराजो पर जबर्दस्तप्रभाव चैत्यवास हाटा देने से हानी लाभ इत्यादि ___७- व्यापारी प्रकरण-जैन व्यापारियों के व्यापार क्षेत्र की विशालता-भारत और भारत को बाहर पश्चात्य प्रदेशों में व्यापारियों की पेढियों और व्यापार से लक्ष्मी का वरदान इत्यादि ८--गच्छ प्रकरण--तीर्थकरों की मौजुदगीमें गच्छों की आवश्यकता-आचार्यों के शिष्योंसे पृथक् २ गच्छ, क्रिया भेद के गच्छ, एवंग्रामों के नाम के गच्छ, वर्तमानमें ८४ गच्छ कहे जाते हैं पर इस प्रकरण में ३१० गच्छों का पता लगाया है इत्यादि__-तीर्थ प्रकरण-इसमें प्राचीन अर्वाचीन तीर्थों का वर्णन है। __ १०-पट्टावलीयां-इसमें जितने गच्छों की पट्टावलियो उपलब्ध हुई हैं उनको तथा गच्छों की शाखाए वगैर ही पट्टा-वलियों को भी दर्ज कर दिया है। ११-धर्म का प्रचार-किस प्रान्त में किस समय धर्म का प्रचार किस प्राचार्य द्वारा हुआ और किस कारण वे प्रान्त धर्म विहीन बनी। १२-शाह प्रकरण-जैनोमें जगतसेठ नगरसेठ टीकायत चौधरी चौवटीया वौहरा कोठारी और शाह पद्वियों कब एवं क्यों तथा जैन समाज में ७४॥ शाह क्यों कहे जाते हैं इत्यादि ।। १३–सिका प्रकरण-सिका का चलन कब से प्रारम्भ हुआ है इसके पूर्व व्यापार कैसे चलता था सिक्कों पर धार्मिक चिन्ह इत्यादि। १४-स्तूभ प्रकरण-जिसमें प्राचीन समय में स्तुभ भी बनवाये जाते थे अतः जैनोंने भी बहुत से स्तुभ करवाये थे पर विद्वान लोगो ने भ्रांति से जैन स्तुभों को बौद्धोंकठहरादिये पर शोध खोज करने पर वे स्तुभ जैनों के ही सिद्ध हो गये इत्यादि। १५- गुफा प्रकरण-इसमें गुफाओं का वर्णन है पूर्व जमानेमें जैन श्रमण प्रायः गुफाओं एवं जंगलोंमें ही रहते थे इत्यादि इनके अलावा और भी कई विषय इस ग्रन्थ में लिखे गये हैं फिर भी जैन साहित्य समुद्र है जिसका पार पाना मुश्किल है तथापि अब सेकड़ों ग्रन्थ की वजाय इस एक ही ग्रन्थ पढ़नेसे ही पाठको का काम निकल जावेगा अन्तमें मैं मेरे प्यारे पाठकों से इतना कहदेना आवश्यक समझता हूँ कि एक व्यक्ति पर अनेक कामों की जुम्मावारी होते हुए भी स्वल्प समयमें इतना बड़ा ग्रन्थ लिख कर समाज की सेवामें उपस्थित करदे और उसमें कई त्रुटियो रहजाना यह एक स्वभाविक बात है दूसरा जिस सिलसिलावर को पहली मैंने योजना बनवाई थी पर समय एवं सहायक के अभाव मैं ठीक उसकी पूर्ति कर नहीं सका दूसरा एक तो मेरी उतावल से लिखने की प्रकृति दूसरी इस समय मेरी ६३ वर्षों की अवस्था और नेत्रों की कमजोरी होने से कहीं कहीं अशुद्धि भी रह गई हैं फिर भी साथमें शुद्धिपत्र भी दे दिया गया है पाठक पहले शुद्धिपत्र से पुस्तक शुद्ध कर पढ़े फिर भी यदि कोइ त्रुटि रह गई हो तो मैं मेरे पाठकों से क्षमा की प्रार्थना करता हुआ मेरी प्रस्तावना को समाप्त कर देता हूं शुभम् सा. १-११-१३ अजमेर ज्ञानसुन्दर Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ,, नं०२ नभिनन्दन जिनोद्धार इस ग्रंथ को लिखने में अन्य ग्रंथों की ली गई सहायता १ उपकेशगच्छ की पट्टावली नं० १ ३८ तपागच्छ पट्टावली जै० क० हेरेल्ड में २ , , , नं० २ ३६ तपागच्छ पट्टावली प० समुच्चीय में " " , नं०३ ४० पल्लीवालगच्छ पट्टावली (श्री अगर० ४ उपकेशगच्छ चरित्र नं. १ ४१ जैनधर्म का इतिहास (भावनगर०) ४२ जैनधर्म का प्राचीन इतिहास भाग १ ४३ जैनधर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ ७ उपकेशगच्छ प्रबन्ध ४४ महाजनवंश मुक्तावली ८ भ० पार्श्वनाथ चरित्र ४५ जैन सम्प्रदाय शिक्षा ६ उत्तर भारत में जैनधर्म ४६ स्याद्वादानुभव रत्नकर १० उपकेशगच्छ छन्दबद्ध पट्टावली ४७ कल्पसूत्र हिन्दीभाषान्तर ११ उपकेशगच्छ मारवाड़ी भाषा पट्टा० ४८ प्रभुमहावीर पट्टावली (स्था० मणिला०) १२ उपकेशगच्छचार्यों की बड़ी पूजा ४६ नागपुरिया तपागच्छ पट्टावली १३ उपकेशगच्छी श्रावकों की वंशावलियाँ ५० महावीर चरित्र १४ 1चौरडिया जाति की बही ५१ जम्बु स्वामी,चरित्र १५ 2 वैद्य महता जाति का बडा श्रोलिया ५२ श्रेणिक चरित्र १६ 3 बाफणा जाति का बडा अोलिया ५३ नीनाणवे प्रकार की पूजा १७ 4 यतिवर्य लाभसुन्दरजी द्वारावंशा० ५४ शत्रुजय महात्म्य १८ 5 यतिवर्य माणकसुन्दरजीद्वारा, ५५ शत्रुजय का रास १६ 6 यतिवर्य दीपसुन्दरजी द्वारा , ५६ शग्रंजय उद्धारसार २० 7 भट्टारक देवगुप्रसूरि द्वारा वंशा ५७ श्री आचारांगसूत्र २१ 8 छाजेड़ जाति की वंशावलीयाँ ५८ श्री सूयघड़ा सूत्र २२ 9 लुणावत जाति की वंशावलियाँ ५६ श्रीस्थानायांगसूत्र २३ 10 संचेती जाति की वंशावलियाँ ६० श्री समवायांगजी सुत्र २४ 11 बीसगौत्रों की वही ६१ श्री भगवतीजी सूत्र २५ कोरंटगच्छीय श्री पूज्यजी की वही ६२ श्री ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र २६ कोरंटगच्छीय श्रावकों की वंशावलीयाँ ६३ श्री उपासकदशांगसूत्र २७ कोरंटगच्छ की पट्टावली ६४ श्री अन्तगढदशांगसूत्र २८ कोरंटगच्छ का इतिहास शिलालेख्गदि ६५ श्री अनुतरोवबाई सूत्र २६ प्रभाविक चरित्र ६६ श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र ३० प्रबन्ध चिंतामणि ६७ श्री विपाकसूत्र ३१ परिशिष्टा पर्व ६८. श्री उवबाईजीसूत्र ३२ प्रबन्ध कोष ६६ श्री राजप्रश्नीजी सूत्र ३३ विविध तीर्थ कल्प ७० श्री जीवाभिगमजीसूत्र ३४ जैनगौत्र संग्रह ७१ श्री पन्नवणाजी सूत्र ३५ आंचल गच्छ पट्टावली ७२ श्री जम्बुद्वीप पन्नतिसूत्र ३६ हेमवंत थेरावली ७३ श्री निरियावलकाजी सूत्र ३७ तपागच्छ पट्टावली त्रिमासिक में ७४ श्री उचराध्यायनजी सूत्र Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ श्री दशवकालीक सूत्र ७६ श्री नंदीसूत्र ७७ श्री अनुयोगद्वार सूत्र ७८ श्री श्रघनियुक्तिसूत्र ७६ श्री निशीथसूत्र ८० श्री वृहद् कल्पसूत्र ८२ श्री व्यवहारसूत्र ८३ श्री दशश्रुतस्कन्ध सूत्र ८४ श्री कल्पसूत्र सुबोधका ८५ श्री कल्पद्रुम टीका ८६ श्री पड नियुक्तिसूत्र ८७ श्री श्रावश्यकजी सूत्र बौद्धग्रन्थ महावगा बौद्ध ग्रन्थ दीर्घनिकाय मज्जमिकाय विनय पिटिका० ε "" ६१ ६२ ऋग्वेद ६३ यजुर्वेद ६५ महाभारत 39 "" , ६६ रामायण ६६ मनुस्मृति ६७ पद्मपुराण ६५ ब्रह्माण्ड पुराण ६६ प्रभासपुराण १०० शिवपुराण १०१ श्रीमालपुरांण १०२ नागपुरांण १०३ योगवासिष्ट १०४ दुर्वास महिम्नस्तोत्र १०५ भवानी सहस्र नाम १०६ स्कन्धपुरांण १०७ बृहदारण्यका १०८ कालीतंत्र १०६ महानिर्वाण तंत्र ११० भैरवीचक्र तंत्र १११ रुद्रायणतंत्र ११२ वेद अंकूश ११३ सर्व धर्म संग्रह [२३] ११४ सुभाषीत रत्नभाण्डागर ११५ उपदेश कथाकोष ११६ उपदेशप्रसाद ११७ बारह व्रतों की टीप ११८ शोघ्रबोध भाग १ ला ११६ जैनतत्वालोक० १२० मारवाड़ की ख्यात १२१ मुनौयत नैणसी की ख्यात भा ? १२२ मुनौयत नैणसी की ख्यात भा० २ १२३ साहित्यरत्नाकर १२४ विविध विषय विचार १२५ आगम सार संग्रह १२६ महाजन संघ १२७ प्राचीन जैन स्मारक वंबई प्रान्त १२८ मैसूर प्रान्त १२६ मध्य प्रान्त १३० १३१ १३२ "2 " १३३ जैन लेख संग्रह खण्ड १ ( वा० पू० ना० ) १३४ खण्ड २ १३५ खण्ड ३ " "" "2 37 १३६ धातु प्रतिमा लेख संग्रह भा० १ (बु० ) "" 22 39 35 39 22 "" 15 "" 39 13 "" 39 बंगाल प्रान्त संयुक्त प्रान्त 33 शिलालेख दक्षिण प्रान्त के "" भा० २ 93 "" 99 55 १३७ १३८ जैन लेख संग्रह भा० १ (जिनवि०) 35 १३६ भा० २ "" "" 99 " १४० जैन शिलालेख भा० १ ( ० वि० धर्म - ) "" " "" १४१ राजपूताना का इतिहास १४२ मारवाड़ का इतिहास १४३ भारत के प्राचीन राजवंश भा० १ १४४ भा० २ १४५ भा० ३ 39 ११ 39 १४६ जैनधर्म विषय प्रश्नोत्तर १४७ जैनतत्वादर्श भा० १-२ १४८ भारत इतिहास की रूपरेखा भा० १ भा० २ "" १४६ 33 "" "" १५० प्राचीन भारत वर्ष भा० १ १५१ ” भा० २ १५२ भा० ३ "" 33 35 35 " Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ १५३ , , , भा०४ १५४ , , , भा०५ १५५ एक जूना पन्ना १५६ श्रमण भगवान महावीर १५७ वीर निवाण सवत् जैनकालागणना १५८ राजपूताना की शोध खोज १५६ कुवलयमाला कथा १६० श्रीमाल वणियों का जातिभेद १६१ अग्रवाल जाति का इतिहास १६२ महेसरी कल्पद्रम १६३ पीसांगण की हस्तलिखित पोथी १६४ खजवाणा की हस्तलिखित पोथी १६५ समररासु (आम्रदेवसूरि) १६६ ओसियाँ का प्राचीन शिलालेख १६७ ओसियाँ का एक प्राचीन कवित १६८ ओसवाल जाति का रासा १६६ ओसवाल भीपालोरारास १७० महाजनों के प्राचीन कवित १७१ मारी सिन्ध यात्रा १७२ वंग चूलिया सूत्र १७३ निशीथसूत्र चूणी १७४ वृहद् कल्पसूत्र चूर्णी १७५ आवश्यकसूत्र चूर्णी १७६ नागवंशी राजाओं का वर्णन १७७ मौर्यवंशी राजाओं का इतिहास १७८ हिन्दू सम्राट (चन्द्रगुप्तमौर्य) १७६ अशोक के धर्मलेख संग्रह ५८० सम्राट् सम्प्रति १८१ गांगांणी का प्रा० स्तवन १८२ महान सम्मति १८३ कलिंग का इतिहास १८४ बौद्ध दिव्यावधान ग्रन्थ १८५ बौद्ध ग्रन्थ अशोकावधान १८६ पद्चुत् अशोक और महान सम्प्रति १८७ महेश्वर पुराण १८८ टॉड राजस्तान १८६ नवतत्व भाष्य १६० विचारश्रेणि थेवरावली Jain Educ.११.१ तित्थोगली पइन्ना २६२ वैश्य काण्ड नामक पुस्तक १६३ जैन रामायण १६४ जैन साहित्य का इतिहास १६५ सिंहलद्वीप का इतिहास १६६ सुदशन विलास बौद्धग्रन्थ १६७ कालसप्तति १६८ दीवाली कल्प १६६ रत्न संचय २०० तत्वार्थ सूत्र २०१ कालकाचार्य की कथा २०२ वृहत्कल्प भाष्य २०३ युग प्रधान २०४ कथावली २०५ योगशास्त्र २०६ ज्योतिष कारण्डु पइन्ना २०७ लोकप्रकाश २०८ उपदेशकल्पवल्ली? २०६ लिपिमाला २१. प्राप्त हुए शिलालेख २११ भद्रबाहु चरित्र २१२ स्त्री मुक्ति प्रकरण २१३ केवलीमुक्ति प्रकरण २१४ दिगम्बर पट्टावली का भाव २१५ मथुरा के शिलालेख ११६ ज्ञानावर्णव ११७ श्रावक मूलाचार ११८ रत्नमालिका ११६ पोरवाल जाति का इतिहास २२० अंगपन्नति २२१ पार्श्व बस्ती का शिलालेख २२२ सरस्वती मासिक का लेख २२३ भारत के व्यापारी २२४ महाजन संघ की पंचायतियाँ २२५ मार्ताण्ड पुराण २.६ भागवत पुराण २२७ दान महात्म्य २२८ ब्रह्मचर्य महात्म्य २२६ कर्मग्रन्थ २३० प्रा. जैन इतिहास भा० w ww.jainelibra १६ १६ For Private & Personal US Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ काव्यमाला गुच्छक सप्तम् २३२ प्रबन्धावली २३३ श्रात्मानन्द शताब्दी अंक २३४ महावीर विद्यालय रोप्प महोत्सवांक २३५ गच्छमत प्रबन्ध २३६ विमल चरित्र २३७ तपागच्छ श्रमण वृक्ष २३८ नागरी प्रचारणी पत्रिका अंक २३६ शंखस्मृति २४० आसन स्मृति - २४१ पारासर स्मृति २४२ दर्शनसार दिगम्बर २४३ जैनहिषैती भाग ७ वा २४४ डा, फूहार का मत २४५ प्रोफेसर ए, चक्रवर्ति २४६ बौद्ध साधु धेनूसेन का प्रन्थ २४७ जैनीझम (बाबू कृष्णा० ) २४८ मुक्त मुक्तावली २४६ ललित बिस्तरा २५० डा० स्टीवेन्स का मत २५१ डा० भाण्डाकार २५२ मारी मेवाड़ यात्रा २५३ सूरीश्वर और सम्राट २५४ शतपदी भाषान्तर २५५ डा० सर कर्निंग होम २५६ डा० फ्लट साब का मत २५७ जैनसत्यप्रकाश मासिक २५८ जैन साप्ताहिक भावनगर २५६ जैसलमेर का इतिहास २६० मेहताजी का चरित्र २६१ भगवान् पार्श्वनाथ २६२ भ० महावीर - म० बुद्ध २६३ राजपूतांना के जैनवीर - २६४ जैनवीरों का इतिहास २६५ मारवाड़ के सुपुत २६६ मेवाड़ के सुपुत २६७ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय २६८ जैन ऐतिहासिक रास माला २६६ जैन प्रन्थावली [ २५ ] २७० नवपद प्रकरण टीका २७१ ऐतिहासिक जैन काव्य २७२ प्रवचन परीक्षा २७३ पंचासक प्रकरण २७४ राज तरंगिणी २७५ त्रिषष्टि सि० पुरुष चरित्र २७६ वस्तुपाल तेजपाल २७७ विमलमंत्री २७८ बप्पभट्टसूरि और श्रमराजा २७६ जैसलमेर ज्ञान भ० सूची २८० पाटण ज्ञान भंडारों का सूची पत्र २८१ बडौदा सेट्रल लाइब्रेरी का सूची पत्र २८२ कुमारपाल चरित्र २८३ सिरोहीराज का इतिहास २८४ उदयपुर राज का इतिहास २८५ पाटण का इतिहास २८६ सिद्धान्त समाचारी २८७ श्रोसवाल जाति का इतिहास २८८ जैनपत्र का रोप्यमहोत्सवांक २८६ जैनगुजर कवियों भाग २६० प्राचीन कलिंग ओर खारवेल २६१ जैनसाहित्य का प्र० इतिहास २६२ प्रगट प्रभाविकपार्श्वनाथ २९३ तीर्थकरों के बोल २६४ जैनसाहित्य संशोधक मासिक २६५ जैनों प्रतापी के पुरुष २६६ साढा चमोतर शाह की ख्यात प्र० १ २६७ प्र० २ २६८ प्र० ३ २६६ प्र० ४ ३६० प्र० ५ " भगवान् पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध करने को कह पश्चात्य विद्वानों ने अपने २ ग्रन्थों में उल्लेख किये हैं जिसको उत्तर भारत में जैनधर्म नामक पुस्तक में नामोल्लेख किया है पाठकों के जानने के लिये यह लिख दिया जाता है 19 " 33 39 19 99 39 1. "Chandragupta Maurya" by Ho, H. L O. Garrett M. A. L. E, S. 2. Dr. Vincent Smith, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] (History of India ) Page 146. 16. Elliot, Hinduism and Budhism, i., 3. The Venerable Axcetic Mahavire's | p. 110 Parents were Worshipers of Parsva 17. Poussin, The way to Nirvana, p. 67. and followers of the Sraimans (S. B. 18. Guerinot, op. and loc, Eit. E. Vol 22 Kalpa Sutra B. K. II Lc. 1 19. Charpentier, Uttaradhyayana Int., 15. P. 194.) p.21. 4. Buhler, The Indian Sect of the 20. Colebrook, op. cit., ii, p. 377. Jainas, p. 32. 21. Stevenson (Rev. ), op. and loc, cit. 5. Jacobi, S. B. E., x/v., p. XXI. 22. Thomas ( Edward ), op. cit., p. 6. 6. Wilson, op. cit.,i, p. 334. 7. Lassen, I. A., ii., p. 197. 8. Jacobi, I. A,, ix. p. 160. 23. Colebrooke, op. and loc. cit. 9. Belvalkar, The Brahma 24. Early faith of Ashok Jainism by Dr Sutras, p. 106. Thomas South Indian page 39. Jainism II 10. Dasgupta, op. cit , p 173. 25. Vienna Oriental Journal VII 382. 11. Radha Krishna, op. cit., p. 281. 12. Charpentier. C. H. I.,i,p 153. 26. Indian Antiquary XXI 5960. 18. Mazumdar, op. cit., pp. 262 ff. 27. Jainism of the Early Faith of Asoka 14. Guerinot, Bibliographie Jaina, page 23. Int., p. xi. . Journal or the Behar and Orissa 15. Frazer, Literary History of India, Research Society Volume III, 29. Oxford History of India, p. 128. इस ग्रन्थ में आये हुए चित्रों का संक्षिप्त परिचय परिचय पृष्ट x com am पत्र नंबर | चित्र संख्या चित्र नाम १ भगवान पार्श्वनाथ ध्याना स्थित २ आचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज तीरंगा ३ आचार्य विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज साहित्य परमयोगिराज मुनिवर्य श्रीरत्नविजयजी महाराज इस ग्रन्थ के लेखक मुनि श्रीज्ञानसुन्दरजी महाराज ६ मुनिराज श्रीगुणसुदरजी महाराज ७ श्रीउपकेश गच्छ चरित्र का ब्लौक श्रीउपकेश गच्छ चरित्र का ब्लौक श्रीउपकेश गच्छ श्रावको की वंशावलियों का ब्लोक १० श्रीउपकेश गच्छीय श्रावकों की वंशावलियों , , ११ श्रीउपकेश गच्छीय श्रावकों की वंशावलियों, ,, १२ श्रीउपकेश गच्छीय श्रावकों की वंशावलियों ,, , १३ श्रीउपकेश गच्छीय श्रावकों की वंशावलियों ,, , १४ श्रीउपकेश गच्छ एवं तपा गच्छ के श्रावकों की वंशा० १० । १५ मुनि ज्ञानसुंदरजी म० कापरडाजी तीथे में ... 0 0 ururuw uruuy 222 . Personal Use Only www. ibrary.org Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ 1 अपर | चित्र संख्या चित्र नाम परिचय पृष्ट १६ मुनि गुणसुंदरजी महाराज व्याख्यान में १७ दोनों मुनि महाराज श्रीकेसरियानाथ की यात्रार्थ १८ श्रीमान् मुत्ताजी कानमलजी पीपलिया वाले १६ श्रीमान् गणेसमलजी मुता , , २० , माणकचंदजी मुता २१ श्रीमान् लालचंदजी मुता २२ मुनीजी लीछमीलालजी मिसरीलालजी फजोदी २३ मुत्ताजी वदनमलजी जोरावरमलजी फलोदी २४ मुत्ताजी गणेसमलजी वसतीमलजी मिसरीमलजी जोधपुर २५ भंडारीजी चंदनचंदजी सा० जोधपुर २६ सेठिया मुलतानमलजी तीर्थ श्रीकापरडाजी के मुनिम २७ जाघड़ा सकनचंदजी कापरडाजी तीर्थ आचार्य हरिदत्तसूरि और लोहित्या चार्य का शास्त्रार्थ २६ विदेशी आचार्य-उज्जैन नगरी में राजारांणी केशी कुवर की दीक्षा ३० मुनि पेहिताचार्य कपिलवस्तु नगरी में-बुद्ध को वैराग्य का कारण ३१ केशीश्रमणाचार्य चित प्रधान-सावक्षी नगरी में ३२ महात्मा बुद्ध ७४ ७३ महात्मा इस ३४ भगवान महावीर और कामातुर स्त्रियों का उपसर्ग ३५ भगवान महावीर और चण्ड कौशिक सर्प का उपसर्ग ३६ भगवान महावीर के पैरों पर गोपालों ने खीर पकाई भगवान् महावीर के कानों में गोपालों ने खीले ठोकदी ३८ श्रीमाल नगर में दो मुनि भिक्षार्थ एक ब्राह्मण के घर पर जाते हैं ३६ आचार्य स्वयं प्रभसूरि श्रीमाल नगर की गज सभा में ४० प्राचार्य स्वयं प्रभसूरि-पद्मावती नगरी की राज सभा में ४१ आचार्य स्वयं प्रभसूरि जंगल में जिनके ऊपर विमाण रुक गया ४२ आचार्य रत्नप्रभसूरि ५०० साधु से उपकेशपुर लुगाद्री पहाड़ी पर ४३ दो गुनि भिक्षार्थ उपकेशपुर में जाते हैं मांस मंदिर की प्रचरता ४४ मुनियों का विहार चांमुडा देवी की प्रार्थना पर ३५ साधु० ठहरे ४५ राज कन्या।मंत्री के पुत्र को व्याही दम्पति शय्य में, मंत्री पुत्र को सर्प काटना ७१ ४६ मंत्री पुत्र को मृत समझ स्मशान-राज कन्या सती होने को अश्वारूढ़ ४७ देवी के कहने से मृतकुँवर को सूरिजी के चरण कमलों में ४८ आचार्य रत्नप्रभसूरि के चरण प्रक्षाल का जल मुछित पर छांटना ४६ सूरिजी का उपदेश और राजा मंत्री सवालक्ष क्षत्रियों ने जैन धर्म स्वीकार ५० उपकेशपुर की राज सभा में सूरिजी और पाखण्डियों का शास्त्रार्थ ५१ प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के नेत्रों में देवी ने वीमारी कर डाली ५२ मंत्री ऊहड़ की गाय का दूध कम होने का कारण (वीर मूर्ति) ५३ दसरावा के प्रसंग पर देवी की पूजा सात्विक पदार्थ से ५४ देवी की बनाइ मूर्ति हस्ती पर आरूढ़ कर जलूस के साथ नगर में लाना १०५ Jain Education Internativ १५ उपकेशपुर और कोरंटपुर में एक लग्न में सूरिजी ने प्रतिष्ठा करवाई १०४ ६७ १८ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र नंबर | चित्र संख्या २४ २५ २६ २७ २८ २६ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३८ ३६ ४० ५६ ५७ ५८ ५६ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ දිපු ६६ आचार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वरजी महाराज स्थलिभद्र ने कोश वैश्या के यहाँ १२ वर्ष प्रेम से रहना श्रक के हाथो से शकडाल मन्त्री का मारा जाना स्थुलिभद्र की दीक्षा और वैश्या के मकान पर चतुर्मास afra का ७५ फल तोड़ना और वैश्या का नाच में एक मर्म की गाथा आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज सम्राट् सम्प्रति का माता पिता पितामहादि सम्राट् सम्प्रति-आर्य सुहस्ती श्राचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेशपुर में महावीर मूर्ति के प्रन्थियों पर टाकी लगाना आचार्य श्री कक्कसूरिजी की अध्यक्षत्व में शान्ति पूजा ७६ मुग्धपुर में म्लेच्छ ने साधुओं को मार डालना सूरिजी को केद खटकुंप नगर का संघ ने एकादश पुत्रों को सुरिजी के अर्पण आचार्य देव गुप्त सूरि के पास देवर्द्धिगरिण दो पूर्व का अध्ययन चन्द्रनागेन्द्रादि बसेन के चारों शिष्यों को ज्ञान पढ़ाना आचार्य यज्ञदेव सृरि ने सोपार पतन में आगम वाचना देना मथुरा के कंकाली टीला से मिला प्राचीन अयग पट्ट मथुरा के कंकाली टीला से मिली प्राचीन खण्डित मूर्त्तियाँ प्राचीन सिक्का का ब्लौक ७७ ७८ ७६ το ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ 10 20 3 1 1 ६० ६१ ६२ चित्र नाम ब्राह्मण के पुत्र को सर्प काटना और सूरजी के पास लाना जैनधर्म स्वीकार करने की शर्त पर विषापहरण - १८००० जैनवने पहाड़ी पर पार्श्व मन्दिर की मूर्ति हटा कर देवी की मूर्ति रखदी चार्य रत्नप्रभसूर का शत्रुञ्जय पर स्वर्गवास आचार्य यक्ष देवरि सिन्ध में जा रहे वहां जंगल में घुड़सवार रावरुद्राट अपना पुत्र कक्व के साथ जैन दीक्षा आचार्य श्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज [ २८ ] आचार्य कक्कसूरि भ्रांति से मार्गे भूल देवी का मन्दिर में देवगुप्त को बली से बचाकर जैन दीक्षा से दीक्षित करना तीर्थङ्कर देव की प्राचीन मूर्त्ति अष्ट्रीया साँची का महाबीर स्तम्भ साँची के महावीर स्तम्भ के सिंह द्वार का एक तरफ का दृश्य सम्राट् अजातशत्रु ( कूणिक ) का बनाया स्तम्भ लेख कौशल पति राजा प्रसनजितका बनाया हुआ विशाल स्तम्भ कौशल पति राजा प्रसनजित की रथ यात्रा में भक्ति सम्राट् खारबेल का अमरावती का विजय महाचैत्य सम्राट् सम्प्रति का बनाया हुआ सिंह स्तम्भ नन्दीश्वर द्वीप का० तीर्थकरों का समवसरण परिचय पृष्ट १०७ १०७ १०७ १०८ २१३ २१३ २३२ २३४ २३४ ३०२ ३१२ ३२२ ३२२ ३२२ ३२२ ३२६ ३३७ ३३७ ३८५ ३८५ ५०४ ५०४ ५०८ ५०८ ५१५ ५३० ५३० 59 ६६६ ६६ : १००१ १००१ १००१ १००२ १००२ १४०१ १४०१ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका संसार में विद्वानों की संख्या हमेशों कम से कम हुआ करती है कि वे संक्षिप्त लेख होने पर भी उसका भाव को ठीक समझ सके पर साधारण लिखे पढे कि संख्या विशेष होती है उन लोगों को बोध के लिये सादी सरल भाषा और लेख विस्तारपूर्वक स्पष्ट लिखा हुआ हो तो वे सुविधा के साथ लाभ उठा सकते हैं अतः मैंने जैसे इस प्रन्थ को विस्तार से लिखा है वैसे ही इसकी विषयानुक्रमणिका विस्तार से लिखना समुचित समझा है और इस प्रकार विषयानुक्रमणिका विस्तारसेलिखने में एक दो फार्म बढ़ जायगा पर इतना बड़ा ग्रंथ में एक दो फार्म का खर्चा अधिक हो जाना कोई बात नहीं है पर साधारण जनता विषयानुक्रमणिका पढ़ कर सम्पूर्ण प्रन्थ के भावों को ठीक तरह से समझ ले यही हमारे उद्देश्य की पूर्ति है । विषय पृष्टकि विषय पुष्टांक विषय पृष्टकि मङ्गलाचरण भगवान् पार्श्वनाथ (वि० पू० ८२० से ७२० ) भ० पार्श्वनाथ का शासन प्र० भ० पाश्र्व० कमट तापस भ० पार्थ० अलता सर्प भ० पार्श्व० का मंत्र० धरणेन्द्र भ० पार्श्व० का विवाह 33 भ० पा० वर्षोदान-दीक्षा भ० पार्श्व० के उपसर्गं भ० पा० को केवलज्ञान म० पार्श्व० का उपदेश भ० पा० का निर्वाण ( वि० पू० ७२० - ६९६ ) गणधर के द्वारा धर्म प्रचार नि वरदस और पांच सौ चौर पांचसी चोरों की दीक्षा २ - आचार्य हरिदत्तसूरि १ ३ ३ ४ ५ 23 पाश्चात्य विद्वानों के ग्रन्थों की नामावली,, १- गणधर शुमदत्त 39 "" ७ "9 ८ ( वि० पू० ६९६ - ६२६ हरिदतसूरि का विहार सावरथी नगरी में पदार्पण कोहित्याचार्य से शास्त्रार्थं 39 ९ हजार शिष्यों के साथ कोहिग्य की दीक्षा ८ लोहित्य का महाराष्ट्र में बिहार ४ - आचार्य केशीश्रमण अहिंसा धर्मका प्रचार ( वि० पू० ५५४ - ४७० ) लोहित्य को आचार्य पद 39 महाराष्ट्र में जैनधर्म के विषय प्र० १० ११ डा० फ्रेज साहब का मत प्रोफेसर ए-चक्रवर्ति " बौद्ध साधु धेनूसेन का मत महाराष्ट्र में साहित्य संघ 99 तामिल भाषा का कुरलग्रन्थ " लोहित्याचार्य का निर्वाण ३- श्राचार्य समुद्रसूरि " केशी को जाति स्मरण ज्ञान उपदेश का प्रभाव राजादि को वैराग्य कौणंबी में यज्ञ- योजना केशीश्रमण का शास्त्रार्थ अभयदान और अहिंसा د. ( वि० पू० ६२६ - ५५४ ) यशवादियों की प्रबलता सूरिजी का जबर उपदेश विदेशी • मुनिका उज्जैन में पदार्पण केशी का पूर्वभव पेहित मुनि कपिलवस्तु में मुनि के उपदेश- बुद्ध को वैराग्य बुद्ध का घर से निकलना बुद्ध की जैन-दीक्षा के प्रमाण दि० दर्शनसार ग्रन्थ श्वे० आचारांग सूत्र बौद्धग्रन्थ महवग्गादि डा० स्टीवेन्स एम्पीरियगेय टीयर डा० फहरार का मत स्वयं बुद्ध का कहना बौद्धमत का प्रादुर्भाव 29 राजाराणी केशी वर की दीक्षा | भगवान महावीर १४ 19 " १२ १२ "" १३ उज्जैन का राजकुमार दक्षिण के मुनि पूर्व में शेष मुनियों का संगठन भारत की विकट समस्या श्रमण-सभा एवं जागृति मुनियों का अलग र विहार कई राजा पुनः जैनधर्मी ( वि० पू० ५४२-४७० ) १८ २१ भ० म० जीवन के प्रन्थों की मामा० भ० म० जम्म और कुंडली Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० म० गर्भ में अभिग्रह देवकृत जन्म महोत्सव भ० महावीर की बालक्रीड़ा भ० म० विद्यालय में प्र० भ० म० का विवाह भ० म वर्षी दान-दीक्षा भ म अभिग्रह भ० म० उपसर्ग भ० म० विहार म० म० तपश्चर्य भ० म० केवलज्ञान भ० म० परिवार भारत में जैनों की संख्या भ म० के भक्त राजाओं की नामा० भ० म० का निर्माण भ० म० के शासन में पाश्र्व सं० गौतमः केशी के प्रश्नोत्तर ३० १ चार पांच महाव्रत ? २ अचेल सचेल ? ३ संसार में दुश्मन कौन ? ४ पाश बन्धन में बन्धे कौन ? ५ विषयवल्ली कौन ? ६ ज्वालामान अग्नि कौन ? ७ उन्मार्ग जाने वाला अश्व० ८ कुपंथ - कुमार्ग ९ पानी का महावेग १० समुद्र के अन्दर मौका ११ घोर अन्धकार कौन ? पार्श्व० संतानिया तु गिया में दूसरे केशीश्रमणाचार्य महावीर अमलकांपा में सूरियाभ देव का नाटक पूर्वभव प्रदेशीराजा का जीव श्वेताम्बिका नगरी चितप्रधान सावस्थी में केशोश्रमण की भेट चित ने १२ व्रत लिये वाकः की विनंति उद्यान ने पारधी का दृष्टान्त चित्तका समाधान केशी श्वेताका पधारे प्रदेशी को उपदेश की प्रार्थना २५ सूरिजी का उपदेश चार पुरुष धर्म के अयोग्य भेट में आये अश्व चित प्रदेशी सुरि के पास ३६ रमणीक अरमणीक भावादनी के चार विभ राणी राजा को विष देना केशीश्रमण के विषय १२ शरीरी मानसी दुःख केशी के द्वारा पंच महाव्रत स्वीकार ३५ विवाद का समाधान काल सेवेसी-गंगीयाजी भ० महावीर के बाद में राजा प्रदेशी के प्रश्न १ मेरी दादी धर्मात्मा थी २ मेरा दादा अधर्मी था ३ जीवित चोर को कोठी में ४ मृत्यु चोर को कोठी में ५ युवक वृद्ध वजन उठावे ६ मनुष्य बाण चलाता है । ७ चौर के टुकड़े २ कर के देखा ८ जीवको प्रत्येक्ष बताओ ९ हस्तीबड़ा कुथुछोटा १० परम्परा से चला आया धर्म ११ लोह बनिये का उदाहरण इन ११ प्रश्नों के उत्तर तीन प्रकार के आचार्य ( वि० पू० ४७०.४१८ ) विद्याधर वंश के वीर पूर्व में मुनियों की बाहुल्यता शत्रुंजय की यात्रा के बाद ३९ भ० म० और केशी का निर्वाण ४ - आचार्य स्वयंप्रभसूरि ५० आबु पर व्याख्यान ४६ अहिंसा का महाल्य श्रीमाल के भक्तों की प्रार्थना देवी चक्रेश्वरी की प्रेरणा विहार में कष्ठ-कटनाइया सूरिजी श्रीमाल नगर में मुनि भिक्षार्थ नगर में मांस मदिरा की प्रचुरता सूरि राज सभा में प्रवेश धर्मलाभ की हांसी प्रतिवाद हृदयस्पर्शी उपदेश ९०००० घरों को जैनी बनाया श्रीमाल नगर से श्रीमाल नूतन श्रावकों को ज्ञानदान ऋषभदेव का मन्दिर पद्मावती में बढ़ा यज्ञ सूरिजी का पहुँचना अहिंसा का उपदेश ४५००० घरों को जैनी बनाया प्राग्वट बंश की नीव शान्ति नाथ का मन्दिर रचूड़ की दीक्षा (भ. महावीर की परम्परा ) [ १ ] गणधर सौधर्माचार्य ५५ कोल्लग में मिल-भादिला का पुत्रसोधम्म चार वेद अठारह पुराण के ज्ञातामध्यपाप में यज्ञ प्रारम्भ भ महावीर का आगमन सौधर्म की शंका का समाधान पांच सौ के साथ दीक्षा गणधर पद-द्वादशाङ्गी सौधर्म चार्य की मोक्ष [२] आचार्य जम्बु राजगृह- रिषभ धारणी जम्बु का जन्म युवक व्यय आठ कन्याओं से सम्बन्ध सौधर्माचार्य का उपदेश वैराग्य-दीक्षा की भाशा ? आठ कन्याओं से विवाह ५६ ५६ 6 ू Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखशय्या में दम्पति प्रभवादि चोर ५०० के साथ बम्बु के दृष्टि से चोरों के पैर चोर-दो विद्यालो एक दो अम्बु का चोरों को उपदेश ५२७ के साथ जनुं की दीक्षा धर्म प्रचार और मोक्ष स्वयंप्रभ सूरि का स्वर्गवास प्राग्वट के लिये प्रश्नोत्तर श्रीमाल के विषय प्रश्नोत्तर ६ - आचार्य रत्नप्रभसूर (वि. पू ४१८-३८६ ) 39 ६२ विद्याधर रथनुपुर नगर महीन्द्रचूड़ - लक्ष्मी राणी रखचूड़ का जन्म रखचूड़की विद्याएं रक्षका विवाह महीन्द्रचूड़ राजा की दीक्षा ६३ W चारण मुनिका आगमन नन्दीश्वर का महात्म्य यात्रार्थ प्रस्थान विमानों का रुक जाना स्वयंप्रभ सूरि का व्याख्यान दीक्षा लेने में एक शर्त - चंद्रचूड़ - लंका से मूर्ति प्रतिज्ञा पूर्वक मूर्ति की पूजा मूर्तिसाथ में रख दीक्षा पाँच सौ के साथ रत्त्रचूड़ की दीक्षा वीरात् ५२ वर्षे सूरिपद ६४ प्रभसूरी ५०० से बिहार देवी की प्रेरणा मरूधर में ० मिध्यासियों से उपसर्ग कष्टों को सहन करना पाखण्डियों द्वारा अपमान रूपकेषापुर तक पहुचन उपकेश पुर की उत्पत्ति ६५ मा का नयसेन राजा चौदह पूर्व का अध्ययन भीमसेन चन्द्रसेन दो पुत्र स्वयं-प्रभसूरि द्वारा जैनधर्म जयसेन का स्वर्गवास राजा के लिये मतभेद भीमसने को राज ५६ जैनों पर अत्याचार चन्द्रसेन द्वारा चन्द्रावती शिवसेन द्वारा शिवपुरी श्रीमाल का तुटजान तीन प्रकोट की व्यवस्था श्रीमाल का नाम भिश्रमाछ ५. او उत्पल कुंवर का अपमान ऊहडकों भोजाई का ताना दोनों मिल नया राजस्थापन संग्रामसिंह का समागम बनजारों से १८० अश्व टेलीपुर राजा को भेट भूमि की प्राप्ति निमित्त उसकी भूमि पर नगरआबाद उपवेशपुर नाम करण भीनमाल से लाखों नरनारी पुत्र पिता का ६ मास से मिलना ५०० मुनियों से रत्नप्रभ सूरि लुणाद्वीप पहाड़ी पर ध्यान भिक्षार्थं नगर में जाना मांस मदिरा की प्रचुरता मुनियों की तपोवृद्धि विहार की आज्ञा मुंडा देवी की प्रार्थना ३५ मुनियों से सूरिचतुर्मास ४६५ का कोरंट में चतुर्मास जलण देवी का विवाह पुत्री राजपुत्री मंत्री के पुत्र को मंत्री पुत्र उपचार सब निसफळ को स्मशान मंत्री पुत्र राजकन्या सती होने को देवी लघ साधु के वेश में संसार का अनादित्व ६७ | मनुष्य जन्मादि सामग्री को सर्प काटा ७२ मुच्छित को सूरि के चरणों में अगुष्ट प्रक्षल का जल छींटा निर्विष हो खड़ा होगया रत्नादि सूरिजी को भेट पर सूरिजी का सचेट उपदेश ७५ मनुष्य का कर्त्तव्य यज्ञ में पशुओं की बली हिंसा का फल मरक देवगुरु धर्म का स्वरूप श्रावक के बारह व्रत आठ कर्म दृष्टांत के साथ ईश्वर जगत का कर्ता नहीं घट द्रव्यादि तास्विक वि० चार निक्षेप दृष्टान्तों के साथ धर्माराधान की खास आवश्यकता व्याख्यान का प्रभाव और जैनधर्म ८८ स्वीकार करने की भ्रातुरता देव विद्याधरों का आगमन देवी के द्वारा वासक्षेप सवालक्ष क्षत्रियों को जैनधर्म की दीक्षा देना पाखन्डियों का राजा के पास आना परम्परा का हक्क लगाना राजा का कोरा जवाब राजसभा में शास्त्रार्थं जैन नास्तिक नहीं है। जैनधर्मप्राचीन है ७७ ७८ ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ पुराण नाग पराण १-२ ८६ जैन ईश्वर को मानता है धर्म की प्राचीनता के प्रमाण ९२ ऋग्वेद १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १०० } १११२-१३-१४-१५-१६-१ -१८ ब्रह्माण्ड पुराण महाभारत १-२ शिव Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवानी सहस्त्रनाम घर घोड़े से नगर प्रवेश [४] शय्यंभवाचार्य ११६ मनुस्मृति पूजा के साथ मण्डप में पज्ञ में शय्यंभव स्कन्ध पुराण शुभ मुहुर्त का निश्चय प्रभव के पास दीक्षा प्रभास पुराण कोरंट संघ का आना १०५ मणक पुत्र की दीक्षा बृहदारण्य का पाखण्डियों की पराजय प्रतिष्ठा के लिये प्रार्थना दशवैकालिक सूत्र सस्य की विजय दोनों मन्दिरों का एक मुहूर्त समाज पर रत्नप्रभसूरि का उपकार महाजन संघ की स्थापना सूरिजी दो रूप बनाये रत्नप्रभसूरि का स्वर्गवास भविष्य का महान् काम दोनों मन्दिरों की प्रतिष्ठा यात्रुजय पर सूप पर्युषणों की बाराधना प्रतिष्ठा का समय १०६ सिंहावलोकन देवी के मन्दिर जाने से रोकना ९६ राजा उत्पलदेव की भावना प्रमाणवाद १२२ दशहरे का भागमन पहाड़ी पर पार्श्व मन्दिर प्रत्येक्ष, प्रमाण, उदाहरण देवी का पूजन ब्राह्मण पुत्र को सर्प काटना भनुमान का संयोग सूरिजी के नेत्रों में वेदना सूरिजी द्वारा निर्विष पट्टावलियां भी साधन है चक्रेश्वरी देवी का आना ओ. ऐतिहासिकता १२८ हजारों ब्राह्मणादि जैन चामुण्डा का माफी मांगना चौदह लक्ष नये जैन उपकेशपुर, उ० घंश, उ० गच्छ, करड़-मर का-समाधान १०८ उपकेश शब्द की व्युत्पत्ति १३१ प्रतिष्ठा के कारण साविक पदार्थों से देवी की पूजा शिलालेखों के प्रमाण कोरंट गच्छोत्पति संघ के साथ सूरिजी हेमवंतास्थविरावली १३८ देवी का पुन: प्रकोप कनकप्रभ. को सूरिपद नन्दी सूत्र सूरिजी का उपदेश एनप्रभसूरि का कोरंटपुरजान मथुरा का पोलाक श्रावक देवी की प्रतिज्ञा संघ को उपालम्ब उपकेशवंश की उत्पत्ति देवीको समकित अपने हाथों से सूरिपद चार भैसा शाह लोगों का जैनधर्म स्वीकार पाश्वनाथ म. प्रतिष्ठा १११ चन्दनमलजी मागोरी जैनधर्म का प्रवल उद्योत वि० तरहवीं शताब्दी मनोहरसिंहजी डग्गी ऊहड़ मन्त्री का मन्दिर १०१ म्लेच्छों के हमला आदित्यनाग गौत्रसे चोर० शाखा दिन को बनाना रात्रि में गिर जाना देव मन्दिर में देवी की मूर्ति ओ. उ. २२२ का कारण १४२ सर्व दर्शन वालों से प्रश्न मन्दिर के लिये प्रमाण प्राचीन कवित भाभनगरी सुरिजी का पथार्थ कहना तीर्थों का संघ पक्ष देव सूरि मन्त्री की गाय का दूध यक्षदेव को मूस्पिद वज्रसेन के चार शिष्य गोपाल का निर्णय यक्षदेव का मगद जाना अठारह गौत्रों के प्रमाण अहड़ का सूरिजी से प्रभ पक्ष को प्रतिबोध कल्प सूत्र कल्पद्रुमटीका देवी का ऊहर के पास जाना [३] प्रभवाचार्य ११७ उपकेश गच्छचरित्र. मूर्ति के दर्शनों की उत्कण्ठा धौर क्षत्री-और चोरपली में चन्द्रसूरि से चन्द्रशाखा १४४ भपूर्ण होने से ठहरने का उपदेश नम्बु के साथ दीक्षा कोरंट गच्छ पट्टावही श्रीसंघकी भातुरता धर्म प्रचार प्रभाधिक चरित्र वरघोड़ा और सूरिजी संघ में पट्टधर का अभाव गच्छ मत-प्रबन्ध प्रतिमाजीको भूमि से नि० १०४ शय्यंभव भट्ट तपागच्छ पहावली १४६ रत्नादि पुरुषों से पूजा पशान्तिनाथ की मूर्ति आंचक गन्छ पहाबली ११२ १४१ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माल के राजा भाण इतिहास लिखना प्रारम्भ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास प्राचीन भारतवर्ष पोरवालों की उत्पत्ति खरतर यति श्रीपालजी ख० यति राम० मुनि चिदानंद ख. वीर पुत्र आनंदसागरजी स्था. मुनि मणिकाळजी वंशावलियां के ३४ प्रमाण एक प्राचीन पत्र का लेख ऐतिहासिक प्रमाण बेसट श्रेष्ठी से समरसिंह तक शिलालेखादि प्रगाण शत्रुचय का शिलालेख मुमि श्रीरत्नविजयजी म. श्वेत हूणों का समय पाटण की स्थापना वल्लभी का भंग शंका जाति की उत्पत्ति इरिभद्र सूरि और महानिशीथ ओखिया के मन्दिर का शिलालेख अटरू ग्राम ५०८ का शिलालेख १८४ वर्ष का शिला लेख वीरात् ८४ शिलालेख विद्वानों की सम्मतियां शबू पूर्णचंद्रजी नाहर सुखसम्पतराजजी भण्डारी अगरचंदजी नाहटा जैन ज्योति पत्र मणिलाल बकोरभाई व्यास नथमलनी उदयमलजी मूलचंदजी बोहरा, अजमेर हंसराजजी मुथा पं. श्रीवल्लभ शर्मा भा. विजयानंद सूरि आ. विजयनेमि सूरि पं. सिद्धविजयजी म पं. गुलाबविजयजी आ. विजयधर्म सूर आ. बुद्धिसागर सूरि १४८ मुमि श्रीरत्न विजयजी म. १४९ १५० 941 १५८ १६७ www.om १७० मुनि श्री विद्याविजयजी म. आबू के मन्दिर का निर्माण आ. विजयलखित सूरि आ. आम्रदेव सूरि ब्राह्मणों के साथ ओसवालोंका सम्बन्धक्यों नहीं ? मुनि श्री दर्शन विजयजी म महेश्वर कल्पद्रुम १७४ द्रव सम्प्रति १७७ प्राचीन शिलालेखों के अभाव का समाधान ? पट्टावलियां उस समय की नहीं हैं ? ओझाजी का मत ओसवालों को हित शिक्षा प्रश्न दूसरे का उत्तर ओ. उ. शंका-समाधान १७५ सूरिजी ने कायर नहीं बनाये जैनधर्म वीर एवं उदारों का है ऐतिहासिक साधन भगवान् महावीर मौर्य कलिङ्ग पति खारवेज ओसवाल संस्था उपकेश का अपभ्रंश भोमिया दो शंकाएं उत्पलदेव कौन था ? ओसवाल मूळ शब्द है ? श्रीमाल नगर की प्राचीनता भोझाजी का मत श्रीमा के राजा १७९ पं. ही. हं. के गौत्र संग्रह में ओसिया में प्रतिहार वच्छराज का राज्य बाबू पूर्णचंद्रजी नाहर मुणोत नेणसी की ख्यात दोनों समाधानों का सारांश रत्नप्रभसूरि नाम के ६ आ० ओसिया में १०१३ का शिलालेख ओसिया का १० ११ का शिलालेख अर्वाचीन कविस गौन व कवित्त की तुलना गौत्र बनने के कारण आठवीं शताब्दी का इतिहासअंधेरे में नहीं हरिभद्र सूरि आदि आचार्य १८७ कृतघ्नपने का पाप अघटित प्रश्नों के उत्तर प्रश्न पहले का उत्तर गौ जातियों सूरि ने नहीं बनाई गौत्रों का होना बुरा नहीं गौत्रों की विश्वव्यापकता अन्य धर्मों में भी गौत्र हैं १६३ १९४ सब लोग राज नहीं करते हैं पतन का कारण बुरीआचरण है प्रश्न तीसरे का उत्तर १९५ महाजन संघ बनाया था शुद्धि की मशीन २००० वर्ष क्षत्रियों का जैन होना प्रश्न चतुर्थ का उत्तर जैनधर्म राजसता विहीन जैन जातियों जैनेसर क्यों आचार्यों के विहार का अभाव जैनचार्य की वृद्धि ? प्रश्न पांचवां का उत्तर १९७ १९६ पंथ, मत किसने बनाये ? क्या उनको स्वप्न भी आशाथी ? ओसवाल कायर नहीं थे उन्होंने राज भी किया है ओसवाल उन्नति के सिखर अठारह गौत्रों का कारण ओसवालों में शूद्र नहीं है १०२ भोसवालों का भःसन क्षत्रियों के उपनाम ढेडिया. बलाई चामड चंडालिया २०३ जैनों का पतन क्यों ! १९८ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवालों का आदर्श २०७ ओसवालों की जातियां ओसवालों का स्थान वालों का धर्म ओसवालों के धर्म गुरु ओसवालो के धर्म कार्ये ओसवालों की परोपकारिता ओसवालों की पंचायतियां ओसवालों के पर्व दिन ओसवालों का सम्मेलन ओसवालों की आवार शुद्धि ओसवालों की वीरता ओसवालों का पदाधिकारी ओसवालों की दान मर्यादा ओसवालों की व्यवशाय ओसवालों की बोहरगतो ओसवालों का व्यापारिक क्षेत्र ओसवालों के विवाह सादी भोसवालों की गृह देवियां ओसवालों की पोशाक ओसवालों की भाषा ओसवालों का महत्व भोसवालों का गोधनपालन rearer की मैत्रीक भावना ओसवालों के याचक ओसवाला के गौत्र जातियां ६ आचार्य यक्षदेव सूरि २१३ ( वि० यू० ३८६-३४२ ) सूरिजी के कार्य - उपदेश सूरिजी कोरंटपुर में पूर्व प्रांत की यात्रा सूरिजी पुनः मरूधर में सिन्ध की ओर बिहार कष्ट कठनाइयां घुड़सवारों से भेट अहिंसा का उपदेश शिव नगर में सूरिजी विहार का प्रमाण सूरिझी का व्याख्यात मिक्षा की आमन्त्रण आपस का संवाद मुनियों के तपस्या का प्रभाव दूसरे दिन का व्याख्यान शिवनगर में सूरिचतुर्मास जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा २२० | राजकुँवर की दीक्षा २२३ धर्म की तुलना परीक्षा राव रूद्राट की प्रार्थना सच्चायिका मातुलादेवी राजा प्रजा ने जैनधर्म स्वी. २२८ उपकेशपुर में स्वर्गवास राजा व राजकुँवर की दीक्षा मुनि कक्क की प्रतिज्ञा पुत्र सिंध से शत्रु जय का सब मुनि कक्क को सूरि पद सूरिजी का स्वर्गवास शत्रुंजय पर स्तूप निर्माण राव उत्पल देव के पांच कोरंटाचार्य कनकप्रभसूरि आपके पट्टधर सोमप्रसूरि शय्यंभव सूरि का शेष हाल ८ - आचार्य कक्कसूरि २३२ (वि० पू० ३४२ से २८८ ) कक्कसूरि का कुल वंश दीक्षा और सूरि पद शिव नगर में पदार्पण उपदेश का प्रभाव चतुर्मास शिव नगर में आत्मभावन और बिहार का वि० २३२ देवी मातुला की प्रेरणा बिहार और कठनाइयों २१६ राजकुँवर की रक्षा प० भद्रावती में सूरिजी का प० २१९ उपदेश का प्रभाव राजा प्रजा को जैन धर्म की० रास्ता की भ्रांति देवी का मन्दिर २३४ राजकुमार की बाकी - संवाद जंगली लोगों को उपदेश २३५ छ से जय का संघ देवगुप्त को सूरि पद ककसूर कोरंटपुर में सोमप्रभसूर की भेंट कपुर में संघ सभा उपदेश का जबर प्रभाव सूरिजी का कोरंट में चातुर्मास २३८ 39 २२१ प्रमाण और समय का नि० १३० |[६] आचार्य संभूति विजय आचार्य भद्रबाहु स्वामी २४२ भद्रबाहु वराहमिहिर का प्रश्न भद्रबाहु चन्द्रगुप्त का प्रश्न इनके लिये प्रमाण दिगम्बरों की मान्यताहरिषेण का बृहत्कथा कोष चन्द्रगिरी का शिशालेख uise वस्ती का शिला लेख अंग पन्नति का उल्लेख श्वेताम्बर शास्त्रों के प्रमाण भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तका स० आचार्य हेमचन्द्र सूरि का० तीन भद्रबाहु का पृ० समय भद्रबाहु द्वारा १६ स्वपनेके ० पाटलीपुत्र में संघ सभा एकादशांग की संकलना भद्रबाहु को नेपाल से बुलाना स्थलिभद्र को १० पूर्व का ज्ञान २५० भद्रबाहु का पाटलिपुत्र में भामा २३८ स्थलिभद्र को ७ बहिनों मुनि सिंह का रूप बनाना reature और छेदसूत्र २० साध्वियों के हिये वि० नियम [५] आचार्य यशोभद्रसूरि २४१ मुनि अग्नि दक्ष के प्रश्न सूरि द्वारा भविष्यवाणी आगम व जिनप्रतिमा की हीलना २४३ २४४ २४६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२७ भद्रबाहु की दशा नियुक्तिये २५५ म्यापारी द्वारा भेणिक का पत्ता दश भाइयों को पक्ष में गोदास मुनि से अलग गच्छ श्रेणिक मगध का राजा पिता को पिंजरा में भद्रबाहु का स्वर्गवास राजा के और भी राणियां श्रेणिक का मृत्यु दसरे भद्रबाहु एक बौदधर्म को क्षेमारणी 'चम्पा में राजधानी प्रतिष्टि नपुर नगर चेलना राणी जैन धर्मी थी हार-हस्ती का झगड़ा बराहमिहिर व भद्र• की दीक्षा राजा राणी के धर्मवाद चेटक राजा के पक्ष में दोनो विद्वान-प्रकृति पृथक जैनमुनि के मकान में वैश्या काशी कोशल के १८ राजा मद्रबाहुको सूरिपद मुनि ने नन्धि का प्रयोग कूणिक को दो इन्द्रों ने मदद दी वराह मिहर का द्वेष जैनधर्म की प्रभावना दो दिनों मे १८०००००० ज्योतिष विष के अन्य बौद्ध भिक्षुओं को भोजन हस्ती जल मरा हारदेव लेगया वराहमिहर की कल्पना राइता द्वारा पन्हीयां-पेट में चहल्ल कु. दीक्षा लेली राज के पुत्र का निमित श्रेणिक और अनाथी मुनि विशाला का भंग मजारी द्वारा राजपुत्र का मृत्यु भ० महावीर का आगमन वर्णनाग नतुआ मद्रबाहु की प्रशंसा राज जैनधर्म स्वीकार ७१८ | उसका बालमित्र बराहमिहर की मृत्यु देवता ने राजा की परिक्षा की कूणिक कहर जैन था संघको कष्ट देवता ने १८ सर का हार दिया | उसके बनाया हुआ स्तम्भ उपसर्गहरं स्तोत्र तापसोका संचाना हस्ती बुद्ध के लिये कूणिक के. भाव दो गाथा भण्डार श्रेणिक द्वारा जैनधर्म का प्रचार राजा उदाइ ७२८ राज प्रकरण २५४ तीर्थ यात्रार्थ संघ पाटली-पुत्र में राजधानी काशी का राजा अश्वसेन कलिंग की पहाड़ी पर ७२० | नागदशक सेनापति शिशुनागवंश की उत्पति मन्दिर और सुवर्णमय मूर्ति दक्षिण तक विजय शिशुनाग राजा का समय १०८ सोने के कौ का स्वस्तिक भनुराधपुर में मन्दिर शिशुनाग वंश के दस राना अभयकुंवर बैनातट में दो यक्ष की मूर्तियां पांचवाँ राजा प्रसेनजित २५७ मन्दाराणी का पुत्र था राजा उदाइ की मृत्यु राजा के १०० पत्र धे नन्दा अभय राजगृह भाये राजा भनु खु-मुदा पुत्रों को परिक्षा जौहरिया का जेवर नन्दवंशी राजा ७३. श्रेणिक का विदेशागमन कोतवाल का पेहरा मन्दवर्धन जैन धर्मी था धन्ना सेठ का मिलाप दीवान को योगी बनाना इसके लिये प्रमाणिक प्र. ७३॥ श्रेणिक की बुद्धि-चातुर्य राजा और धोबी कावरत न मंत्री कल्पक भी जैन था धक्षा के नन्दा पुत्रो कुँवा में मुद्रका परीक्षा पमानन्द दूसरा नंद राजा . पिता पुत्री का सम्वाद अभय कुवर मुख्य प्रधान वर्ण व्यवस्था तोड़ कर भेणिक सेठ के घर पर अभय कुंवर की दीक्षा शूद कन्या के साथ विवाह ठ के यहां तेजमतुरी राजा कूणिक ७२३ महानन्द नौवानंद ७३२ मातट में व्यापारी कूणिक का गर्भ में आना और राजाओं का समय रेणिक ने सब माल ले लिया पिता के कलेजा का मांस मोर्य वंश के राजा नन्दा का श्रेणिक से विवाह २५८ अभय कुमार की बुद्धि से मंत्री चाणक्य जैन था दाका गर्भधारण करन कूणिक का जन्म और कईनाम चाणक्य का जन्म सिमित की बीमारी राज करने की तृष्णा मुनिका भविष्य Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्य की स्त्री द्रव्य के अभाव चित्रा पाटलीपुत्र की राज सभा दासी द्वारा मंत्री का अपमान चाणक्य की प्रतिज्ञा मयूरों के नगर में जाना चन्द्र पीने का मनोरथ शर्त पर दोहला पूर्ण किया पुत्र जन्म नाम चन्द्रगुप्त बालक चन्द्रगुप्त राजा मंत्री के उपाय एक बुढ़िया की नेक सलाह चन्द्रगुप्त मगध का राज इरान की बादकी हार० संधि भारत की सभ्यता चन्द्रगुप्त की राजधामी चन्द्रगुप्त का दरबार चन्द्रगुप्त की शासन पद्धति चन्द्रगुप्त की सैनिक म्ब० चन्द्रगुप्त की सैनिक भर्ति चन्द्रगुप्त का सैनिक मण्डल चन्द्रगुप्त का अनशन चन्द्रगुप्त का जुग चन्द्रगुप्त का शासन मण्डल चन्द्रगुप्त के मण्डों का कर्त्तव्य चन्द्रगुप्त का गुप्तचर विभाग के साम्राज्य सड़कें चन्द्रगुप्त का कृषि विभाग चन्द्रगुप्त चन्द्रगुप्त का राज कोष की आय की न्याय व्यवस्था चन्द्रगुप्त चन्द्रगुप्त का शिक्षा विभाग चन्द्रगुप्त का दान विभाग चन्द्रगुप्त का चिकित्सा विभाग चन्द्रगुप्त का स्वास्थ्य रक्षा विभाग चन्द्रगुप्त का संकट निवारण वि० के भागमन साधन चन्द्रगुप्त चन्द्रगुप्त का विदेश का मार्ग चन्द्रगुप्त का डाक प्रबंध १५३ २४ चन्द्रगुप्त की वीरता चन्द्रगुप्त का धार्मिक जीवन मंत्री चाणक्य जैन था धर्म की परीक्षा के लिये सब धर्म के साधुओं की दुकाना सम्राट् ने जैन धर्म स्वीकार किया गंगाणी के मन्दिर की मूर्ति आशातना का जबर दंड चन्द्रगुप्त के जैन होने में प्रमाण रा० ब० नरसिंहाचार्य के स्युमन का मत डां०] इनिछे का मत का० प्र० जयसवाल द- स्मिथ का मत डॉ विन्सेण्ड - डा - मेगस्थनीज - धौमस डॉ- विल्सम मि० वी० लुइस रइस मि० जार्ज सी० आदि राजा बिन्दुसार शान्ति प्रिय राजा धार्मिक जीवन तीर्थ को यात्रा व्यापार का विकास जल-थल मार्ग का व्यापार वूलों का आना जाना देश की सेवा सम्राट् अशोक अशोक का जम्म ब्राह्मण पुत्री की कथा सुसीम भाई था अशोक के भाई बहन अशोक का राज्याभिषेक अशोक की राज्य सीमा अशोक की कलिंग पर चढ़ाई अशोक का घराना जैनधर्मी २७८ २७९ अशोक को युद्ध की हिंसा का पश्चाताप और बौद्ध भिक्षु की भेट सम्राट द्वारा छोक सि अशोक का शासन विभाग अशोक के कर्मचारियों का दौरा अशोक की शासन नीति अशोक का पथिक विभाग अशोक का कला विभाग अशोक का आयुर्वेदिक विभाग अशोक द्वारा धर्म प्रचार अशोक का व्यक्तित्व अशोक के सिद्धान्त अशोक का साम्राज्य अशोक की तीर्थ यात्रा अशोक का धर्म देख राजा कुनाल बौद्धग्रन्थों में कुनाक पुराणों में कुन जैन साहित्य में कुनाक कुनाल व तथ्यगुप्ता कुमाल को उज्जैन भेजना २८७ कुनाल को अन्धा का पत्र कुनाल की संगीत विद्या सम्प्रति का अम्म दश मास के सम्प्रति को लेकर पाटलीपुत्र जाना गायन की गाथा सम्प्रति को युवराज पद उज्जैन पर अधिकार सम्राट सम्प्रति प्रमाणों का कारण बौद्ध ग्रन्थों में सम्प्रति अशोक का अन्त समय बीदों का दान मंत्री व संपत्ति की मनाई अशोक का पृथ्वी दान अशोक का देहान्त २८९ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रति का राज्याभिषेक २६० | सूरिजी चन्द्रावती में संगति की राज्य व्यवस्था सम्राट को राजधानी सत्यकेतु वि० का मत सम्राट का धार्मिक जीवन सुहस्री उज्जैन में सम्प्रति को जातिस्मरण जैन धर्म स्वीकार करना जैन धर्म का प्रचार मन्दिरों का जीर्णोद्धार नये मन्दिरों का निर्माण narara का संघ सुदर्शन तालाब उज्जैन में संघ सभा धर्म प्रचार का आयोजन शुभोंको मुनिवेष पहना कर अनार्य देशों को भेजना मुनियों का अनार्य देश में विहार वापिस आयें साधुओं के उद्गार अनार्य देशों के प्रमाण धर्मोपदेश स्थान २ पर शिलालेख मौर्य वंश का समय सिद्धाचार्य की दीक्षा सिद्धाचार्य को सूरिपद 1. देवगुप्तसूरि मरूधर में उपकेशपुर का राव सारङ्ग ५० नर नारियों की दीक्षा कोरंटपुर में देवगुप्तसूरि सोमप्रभसूरि से मिलान २९२ जिनदेव के द्वारा शत्रुञ्जय का संघ २९३ | सिद्धसूरि का आगमन २९४ २९६ वररुचि की माया ३०० ३०२ दोनों में विद्याविवाद शिवाचार्य की जैन दिक्षा मुनिरश्न को सूरि पद सिद्धसूरि का स्वर्गवास संघ शत्रु जयतीर्थ पर देवगुप्त सूरि का स्वर्गवास पांच आचार्यों के नाम एवं काम [७] आर्य्य स्थूलभद्रस्वामी ३२१ | ११ - आचार्य रत्नप्रभ सूरि ३३३ मन्त्री शकडाळ (वि. पू. २१७-१८२) कच्छ राजा का पुत्र दीक्षा और सूरिपद सूरिजी का सिन्ध में कर्माशाह का कथन सूरिजी पंजाब में भावास्ति में शास्त्रार्थ - स्थूलभद्र और वैश्या ३०७ ९ - आचार्य देवगुप्तसूरि ३१२ वैश्या का नाच करना ( वि० पू० २८८ - २४७ ) ३१३ शकडाल की सत्यता श्रीयक का विवाह गलत फहमी फैलाना डाल की दीर्घ दृष्टि पूर्व प्रान्त मे दुष्काक श्रमणों का पश्चिम में स्थूलभद्र को पदवी स्थूलभद्र की दीक्षा वैश्या के यहां चतुर्मास शकडालकापुत्र द्वारा मृत्यु ३२४ आर्य सुहस्ती और सम्प्रति उज्जैन में संघ सभा आमन्त्रण गुरु का दुक्कर २ कहना सिंह गुफावाली वैश्या के यहां वैश्या का बुरा प्रभाव नेपाल की रत्न कम्बल मुनि को प्रतिबोध रथिक का आम्र तोड़ना एक मार्मिक गाथा स्थूलभद्र की सात बहिनें १० - आचार्य श्री सिद्धसूरि [वि. पू. २४०-२१७] चंद्रपुरी का राजकुमार सिद्धाचार्य - शास्त्रार्थ - ३१४ जैनदीक्षा गच्छ नायक उपकेशपुर का चतुर्मास पल्हिका में संघ सभा ३१७ चंद्रावती में शिवाचार्य यज्ञ का उपदेश मंत्रो का कोश उत्तर ३१९ सिद्धसूरि चंद्रावती में वीर क्षत्रियको दीक्षा मुनि रल की कठोर तपश्चर्या उपकेशपुर का राव सारङ्ग सूरिपद व ६४ दीक्षाएं ३२५ प्रसूरि आवन्तिको ओर स्वागत और वार्तालाप प्रभसूर और सुदस्ती सूरि सम्राट सम्प्रति और रत्नप्रभसूरि सूरिजी के व्याख्यान का प्रभाव सूरिजी का विहार छोहाकोट में चतुमस मन्त्रीश्वर का संघ ३२७ | तीर्थ पर सूरि पद पूर्व की भोर विहार ३३१ ३२९ | सूरिजी का स्वर्गवास ३३४ ३३७ ३४० ३४१ [[८] आर्यं महागिरि सुहस्ती ३४४ सम्प्रति की दान शालाएं आचार्यों का विसंभोग समय के लिये विचार भेद अवंति सुकुमाल की दीक्षा अवंति पार्श्वनाथ का मंदिर सामली विहार राजा श्रीचंद और श्रीमति नवकार मंत्र और पूर्व भव मुनिसुत्र तस्वामी का मंदिर ३४७ ३४९ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ बलिरसह गच्छ और ४ शाखा ३५० जैन मन्दिर-तीर्थ | कल्की-अवतार की कल्पना उदेह गच्छ के ६ कुल और • शाखा / विप्र. पतित समझाजाय स्वामि घातक पुष्पमित्र चारण गच्छ के कुल ४ शाखा विधर्मियों का अत्याचार पुष्पमित्र का अत्याचार उहुवाटिका गाछ के ३ कुल शाखा जैनों की मान्यता नन्दों के स्तूप चुदाना बेश वाटिका गच्छ के ४ कुल ४ शाखा हेमवन्त थेरावली निर्ग्रन्थों व भिक्षुओं को हत्या मानव गच्छ के ३ कुल ४ शाखा प. क. वि. म. का अनुवाद पु० मुनि हत नाम कोटिक गच्छ के ४ कुल ४ शाखा शोभनराय कलिंग पति कल्की की कल्पना दोनों सूरियों का समय चण्डराज व नन्दराजा जैन व बौद्धों के ग्रन्थ भार्य महागिरि की पट्टावली भिखुराय खारवेल वैदान्तियों के ग्रन्थ १२-श्रीयक्षदेवमूरि ३५२ कलिंग में जैन सभा जैन व पोद्ध साधुओं के शिर काट लाने (वि. पू. १८२ से १३६) दृष्टिवाद की व्यवस्था वाले को प्रत्येक मस्तक की १०० दीनार मंत्री धर्मसेन निग्रन्थों के ग्रन्थों. तित्थोगलि पहना कल्की-विस्तार सौलह स्त्रियां और कोरि द्रव्य का इतिहास में कर्णिका स्थान १६३ खारवेल की मगध पर चढ़ाई त्याग कर तीर्थ पर दीक्षा पुराणों में कलिंग पुष्प मित्र को सजा स्याग, वैराग्य व तपस्या कलिंग का व्यापार १३-आचार्य कक्क-सूरि ३८७ तीर्थ पर सूरि पद-प्रदान कलिंग का राजवंश (वि. पू० १३६-७९) सूरिजी का पूर्व में विहार कलिंग का शिलालेख १६१ उपकेशपुर का राज पुत्र पशवादी एवं बौद्धों का पराजय ९९ वर्ष की शोध खोज लाखण की दीक्षा पाश्वं मूर्ति और उपासना ३.५ मूल लेख व हिन्दी अनुवाद ३१६ शास्त्रार्थ में विजय देवी का भागमन और प्रार्थना समाट-खारवेल का जन्म ३१९ | कठोर तप-लब्धियाँ मरुधर पधारने से लाभ चन्द्रावती का राजा त्रि. राव खेतसी का स्वम चन्द्रावती में संघ सभा सूरिजी उपकेशपुर में मूषीक दश विजय मुनि भार्याए की संख्या उपदेश का प्रभाव भोजक और राष्ट्रीय विजय कोरंटाचार्य सोमप्रभसूरि रावजी की पुत्र के साथ दीक्षा खारवेल का विवाह प्रत्येक प्रान्त में विहार जैन धर्म का उद्योत खारवेल के राज्य का विस्तार ३७. उपकेशपुर का राजा जैत्रसिंह सूरिजी का स्वर्गवास सिकन्दर के बाद भारत पर महावीर मूर्ति की दो गांठे ३०९ व्यापारियों के दुःख मिटाना धृद्धों की सख्त मनाई कुल गण शाखा और शिष्य परिवार घूसी की बाल्यावस्था टाकी लगाने से रक्त धारा भार्य प्रियग्रन्थ का जीवन मगधपति पुष्पमित्र का अत्याचार कक्क सूरि का भाना खारवेक चक्रवर्ती राजा हर्षपुर का वर्णन देवी की भाराधना मगध पर आक्रमण शान्ति स्नान पूजा पज्ञ का प्रारम्भ व सूरिजी का उपदेश दान धर्म और देश हित अठारह गोत्र के स्नात्रिए कलिंग का इतिहास ३५७ तोसली कलिंग की राजधानी भासल का घ जैन शास्त्रों में कलिंग खण्डगिरी पहादी की गुफा ३७६ आबू पर सूरिका स्वर्गवास खण्डगिरि उदयगिरि उदयगिरि की गुफाएं १४-आचार्य देवगुप्त-सरि कुमार कुमारी तीर्थ मञ्चीपुरी की गुफा व शिलालेख (वि. पू. ७९-१३) ३९६ शत्रुजय गिरनार-भवतार छोटी बड़ी सेकड़ों गुफाएं सरिजीका उप० व्याख्यान " " , राज्याभिषेक देश विजय ३९. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य-जन्म पर टान्त आर्य शान्ति सैनिक से उच्चनागोरी-शाखा | कालका चार्य का स्वर्ग बास मां-बेटा का सुन्दर सम्वाद जनमानसाला | कालका-चार्य और राजादत्त १९५ माता पितादि १५ की दीक्षा [१२] आर्य सिंहगिरि ४१९ / 5-आचार्य पादलिप्त सूरि ४२९ चिंचट गौ. शाहनाथ के तीर्थपर सूरिपद चार शिष्यों की ४ शाखाएं फूल-सेठ-प्रतिमा सेठाणि दक्षिण-प्रान्त में विहार ... देवी की भाराधना मैन धर्म का प्रचार-दीक्षाएं 4-कालकाचार्य नागहस्ति का चरणोदक भावंती मेदपाट-मरुधर चार काल-का-चाय के समय की घटनाएं पुत्र जन्म नाम नागेन्द्र श्रीमाल में यज्ञ आयोजन कौनसी घटनाएं किसके साथ ? नवजात पुत्र सूरि के भेंट सरिजी का पधारना ४.१ महाविदह में तीर्थकर द्वारा नागेन्द्र की शिक्षा दीक्षा लाखों जीवों अभयदान काल-का-चार्य की प्रशंशा " भिक्षा देने वाली का वर्णन चतुर्मासवाद-संघ इन्द्र का हाह्मण के रूप में दशवें वर्ष में सूपिद भजनों को जैन बनाये पञ्चमारा में ३०० वर्ष की आयु अनु० पादलेप और भाकाश गमन चन्द्रावती में प्र. दी. धारावास का राजा मथुरा से पाटलीपुत्र १५-आचार्य सिद्धसरि ४०४ गुणाकर सूरि का आना। मुरंड राजा को जैन बनाना (वि. पू. १२-५२ वर्ष) कालक-सरस्वती की दीक्षा विनयवान की परीक्षा कासक को आचार्य पदवी उपकेशपुर राजा पुण्यपाल भोंकार नगर का राजा भीम चिंचट गौ. रूपणसी उजैन में कालकाचार्य मानखेट का राजा कृष्ण सरस्वतीसाध्वी पर बलात् । भोपालादि ३७ दीक्षाएं 6-रुद्रदेव मूरि और धीवर ४३१ भाष्य चूर्णिया के प्रमाण चन्द्रावती में सूरिपद भगनी भोगी गर्दभील 7-श्रमण सिंह और विसालपुर का रास बल्लभी का राजा शिलादित्य का• शकों के देश में जाना | 8-आयें खपट सूरि विहार क्षत्र की विशालता एक शक राजा से मित्रता विद्याभूषित मुनि भुवन शोभन की दीक्षा ९६ माण्डलिकों को भारत में कठोर अभिग्रह गुरु शस्त्र नगर में वौद्धों का पराजय ४३१ सौराष्ट्र में विश्राम बौदाचार्य का मर कर यक्ष होना सप का अनुभव और दीक्षा सुवर्ण सिद्धि उप. राजा रत्नसिंह संघ को उपद्रव उज्जैन पर शकों का आक्रमण संघ सभा--पद्वियाँ खपटसूरीका चमत्कार गर्दभी विद्या का आना कोरंटाचार्य सर्वदेवसूरि राजा को जैनी बनाना बाणावलियों के बाण सूरिजी का स्वर्गवास मुनि भुवन की भूल गर्दभिभिल्ल की मृत्यु भापके शासन में दीक्षाएं 9-महेन्द्रोपाध्याय ४३३ साध्वी पुनः संघ में " , यात्रार्थ संघ उत्सर्गोपवाद मार्ग पाटलीपुत्र में राजा द्वारा " , प्रतिष्ठाएं ब्राह्मणों का अन्याय उज्जैन में शकों का राज्य 1-आचार्य उमास्वामि ४१७ बाल-मित्र भानुमित्र कामा को मंत्र कर देना उपाध्याय का जाना 2-श्यामाचार्य के प्रज्ञ कालका-चार्य का भरोंच में चतु-1. मांस और पुरोहित का प्रपञ्च । ब्राह्मणों का अचेत होना पना सूत्र के ३६ पद प्रतिष्ठितपुर में पञ्चमी की चतुर्थी दीक्षा की शर्त पर सचेत 3-विमल मूरिका पद्मचरित्र कालकाचार्य का समाज पर प्रभाव पादलिप्त नागार्जुन [१०] आर्य इन्द्र दिन ४१६ | अविनीत शिष्य ४२७ 10-नागार्जुन की स्वर्ण विद्या [११] आये दिन्न सागरसूरि व भष्टपुष्पी पादलित भाकाश गमन ४१२ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ४४१ पात्रुअप में गदलिप्तपुर नगर । भरोंच पर भाक्रमण और सूरिजी भद्रेश्वर सूरि की कथावली ५० रान सभामें पण्डित सिद्धसेन का स्वर्गवास हेमचन्द्र सूरि का योग शास्त्र चार शास्त्रों का सार श्लोक में 10 13 आचार्य जीवदेवमूरि ४४८ मलपगिरि का ज्योतिष क. पादलिस सूरि का योग से मरण उ.विनयविजयजी लोक प्रकाश वायट नगर में धनदेव-शीलवंती. ११ विरोधी पण्डित के उद्गार दो पुत्र महिधर-महिपाल । दो वाचनाए' में पाठान्तर ४५८ पादलित सूरि के ग्रन्थ जिनदत्त सरिव महिधर की दीक्षा) देवर्द्धि के पूर्व सूत्र लिखा जाना पादलिससूरि का स्वर्गवास रसील सूरि नाम आगम वाचना महिपाल की दि. दीक्षा गुरु शिष्यों को वाचना मुकुन्द वृद्ध ब्राह्मण जैन दीक्षा स्वर्ण कीर्ति नाम - गणधर पद ज्ञानाभ्यासवताना विद्याओं की प्राप्ति पाटलीपुत्र में वाचना क्या मुसल फूलाभोगे? दोनों मुनि वायट में एकादशाङ्ग पूरे देवी की भाराधना व वरदान स्वर्ण कीर्ति की दीक्षा और दशवैकालिक राज सभाओं में वाद-जय जीवदेव सरि नाम तीन छेद सूत्र मूसल का फूलाना जीवदेव सूरि के चमत्कार भार्य रक्षित ने चार अनु. वृद्धवादी सूरि का विहार साधु की जबान बंद सोपार पट्टन में वाचना सिद्धसेन की भेंट साध्वी पर चूर्ण ४४६ मथुरा में भागम वाचना जंगल में शास्त्रार्थ पास का पुतला लोक संख्या का प्रमाण मध्यस्थ गोपाल राजा विक्रम ने निम्बा मंत्री द्वारा आगों का संक्षिप्त करना सिद्धसेन की असमयज्ञता महावीर मन्दिर का जीर्णोद्धार भागमों की संख्या ८४ गौपालों का निर्णय बल्ल सेठ का यज्ञ और हिंसा से घृणा | योगो द्वाहन १५ भागमों के मुनि भिक्षा के लिये 12 सिद्धसेन की दीक्षा व सरिपद ४५. निगम वादी मत बल्ल का सरिजी से जैनधर्म स्वीकार करना उनके २६ निगाम प्रस्थ सिद्धसेन सूरि और विक्रम ४३ लल्ल के पच्चास हजार रूपये विक्रम संवत् किसने सिद्धसेन चित्रकूट में जैन मन्दिर का बनाना मिले हुए शिलालेख पुस्तक और दो विद्या जैन मन्दिर में मृत गाय सिद्धसेन और राजा देवपाल क्या बलमित्र ही विक्रम था! परकाय प्रवेशिनी विद्या से । विक्रम के चरित्रादि राजा के लिये विद्या का प्रयोग गाय को शिवालय में भेजी १६-आ. रत्नप्रभसूरि तृतीय ४६९ राज्य मान से शिथिलाचारी ४४४ ब्राह्मणों ने सूरिजी के सामने शिर झुकाया वृद्धवादी सूरि की एक गाथा (वि० सं० ५२-११५) ब्राह्माणों से कई शर्ते सिद्धसेन सावधान ओंकार नगर जीवदेव सूरि का स्वर्गवास ४५३ आगमों को संस्कृत में कर देना तप्त भट्ट गौ० पे० कु. मृत गाय की घटना वाले जिनदत्त सूरि बारह वर्ष का प्रायश्चित राजसी की बाल क्रीड़ा रामा विक्रम को प्रतिबोध 14-स्कन्दिलाचार्य ४५४ माँ-बेटा का संवाद महादेव की स्तुति १ युग प्रधान पावली के स्कंदिल राजसी का विवाह पावं मूर्ति प्रकट होना । २ वृद्धवादी को दीक्षा देने वाले , सिद्धसूरि ओंकार नगर में विक्रम राजा का जैन होना ३ हेमवन्त पहावली के सूरिजी का उपदेश कात्रुक्षय का संघ १४७४ माथुरी वाचना के राजसी की दीक्षा भोकार नगर में जैन मन्दिर इन चारों का परस्पर सम्बन्ध ४५५ सूरिपद और रत्नप्रभसूरि नाम सिबसेन और गोपाल (२) ४५५ माथुरी और वल्लभी वाचना १५० सूरिजी पभावती में ४६५ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राणा का विराट् संघ बचावती का राज और राणा जय की यात्रा सूरिजी का कच्छ सिंध में बिहार निमय व्यवहार की चर्चा पजाब में विहार कलिङ्ग की यात्रा मेहपाट - मरुधर में सूरिजी बीरपुर में नास्तिकों का जोर राज कम्पा सोनक बीरसेम की दीक्षा सोमककस नाम शिक्षा में पदार्पण मंत्री के द्वारा सम्मेतशिखर का संघ पूर्व प्राम्स में सर्वत्र बिहार देवी की प्रसन्नता बाद विजय का वरदान तीतरपुर की राज सभा में पुनः बीरपुर ड. सोमकलस को सूरिपद कोरं गच्छ के सर्वदेव सूरि सोमकलस को सूरिपद यत्र का जन्म- शान बचको सुनि के चरण में अर्पण मन की परीक्षा और दीक्षा वज्र की देवों ने परीक्षा उपाधी को बाचमा भद्रगुप्त को भावुक की दीक्षाएं तीर्थों के संघ मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं [१३] आर्य वज्रस्वामी ४८३ सुनन्दा - धमगिरि धमगिरि की दीक्षा स्वम पूर्वधर- सूरि पद मन्त्र सूरि पाटलीपुत्र में को पति करने का ह रुक्मणि की दीक्षा ४७३ दुष्काल में संघ रक्षा ४७७ ४७८ १३. ४८६ पूजा के लिये पुष्पों का वज्रसूरि के समय मूर्तिवाद सूरि को सूठि का विस्मरण सूरि का स्वर्गवास सूरि की दो घटनाएं ४८७ 15 - आर्य समितिसूरि ४८८ ब्रह्मद्वीप में पांचसौ तापस पादलेप से अलपर चलना समिति सूरि का ब्रह्मद्वीप में जाना ५०० तापसो को जैन दीक्षा महाद्वीपी शाखा 16 - आर्य रक्षितसूरि ४८९ अय की स्थिति दशपुर में उदयन राजा ब्राह्मण सोमदेव-रुद्रसोमा आरक्षित फल्गुरक्षित आर्य रक्षित का पढ़कर आमा राजा प्रजा के द्वारा स्वागत दृष्टिवाद पढ़नेकों जाना तोसकीपुत्राचार्य और रक्षित की दीक्षा प्रथम शिष्य स्फोट कावज्रसूरि के पास पढ़ना फल्गुरक्षित को बुलाने के लिये भेजना फल्गुरक्षित की भी दीक्षा ४९० माना आर्य रक्षित सूरिपद आर्य रक्षित का दशपुर माता पिता को दीक्षा देना चार अनुयोग पृथक करना आरक्षित के पास इन्द्र का आना ३०० वर्ष की आयुका अनुमान भार्यं रक्षित का स्वर्गवास गोष्ट मालिक का अलग 17 - आर्य नंदिलमूरि ४९४ वैराव्या की विस्तार कथा श्रीशत्रुञ्जय तीर्थका उद्धार ४९५ ४९२ बोद्धों के हाथ में शत्रु अर्थ जावड़शाह का उद्धार भावद का पूर्व वास भागढ़ के घर दो मुनि भविष्य का निमित्त जावड़ का जन्म भावड़ के अधिकार में १२ प्राम के आक्रमण जावड़ को ग्लेच्छों ने पकड़ किया धन प्राप्ति व्यापार मुनियों का उपदेश तक्षशिला से मूर्ति का जहाजों में तेजमन्तरी ४९७ ४९८ पक्ष का उपद्रव बज्रसूरि की विजय तीर्थ का उद्धार (पुनः प्रतिष्ठा) पाहिका से शत्रुजका संघ १७ - श्री यक्षदेवसूरि ४९९ (वि. ११५ – १५७ ) वीरपुर व वीरसेन सोनकदेवी की सत्य प्रतिज्ञा लग्न के समय देव देवी को मात ? सोनक का प्रतिक्रमण पाखण्डियों की गुरुकंठी सोनल का सुसराल रस्नप्रभसूरि का आगमन पाखण्डियों का पराजय सोमल का पतिदेव को उपदेश राजा राणी आदि ४५ की दीक्षा सोमकलस को सूरिपद यक्ष देव सूरिनाम प्रभाव वज्रसेन के समय बारह वर्षीय दुष्काळ ५०४ यदेवसूरि की आगम वाचना चन्द्र नागेन्द्रादि को ज्ञान- पदवी मुग्धपुर पर म्लेच्छों का आक्रमण ५०७ मुनि व श्रावकों से मूर्तियों का रक्षण खच्कुप संघ का अपने पुत्रों को दीक्षा के लिये देना ५०१ ५०४ ५०८ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३९ ५१० आधार नगर में सरिजी शिवभूति की उ खडता भाचार्य जिनसेन का भामा कई भन्यों की दीक्षाएं नग्नव का आग्रह राजा प्रजा को उपदेश ५३८ सम्भात नगर में प्रतिष्टाएं भाचार्य का उपदेश ८५ ग्राम के लोगों को ज.ध.की दीक्षा विकट समय में सरि जी का विहार उपधी रखने के कारण ८५ जातियों का कोष्टक सरि जी के शासन में दीक्षाएं शिवभूति का नग्न वन जाना ८१ जातियों के वित्त साध्वी भी नग्न संघ दिगम्बरोत्पत्ति का समय " , प्रतिष्ठाएं वैश्याने बाल कपड़ा दिया बधेरवालो की उ० इस घटना का समय [१४] आर्य वज्रसेन सरि ५१२ नरसिंह पुरो की उ० नग्नस्व से हानि द्वादशवर्षीय दुष्काल स्त्रीमुक्ति प्रकरण परमारों की १८ जातियां दुष्का की भयंकरता देवली भाहार प्रकरण ५२२ | गौगर इनकी २२ जातियां मोतियों के बदले जवार नहीं मिले तीर्थकर प्रणीत शास्त्र दो मुनि भिक्षार्थ दिगम्बरों की ८७ जातियां दिगम्बर शास्त्र पीछे बने सेठानी का विष पीसना पल्लीवाल जाति ५४२ पवे की प्राचीनता मुनियों की अनुकम्पा मथुरा के शिलालेख पल्लीवाल-वैश्य व ब्राह्मण तीन दिन का भविष्य क्रिया काण्डियों का भल्याचार डॉ. हर्मन जेकॉपी चार पुत्रों की दीक्षा पाली की प्रभुता हिन्दूधर्म के शास्त्र दुकाल से बचे हुए साधुओं की संख्या बौद्ध धर्म के शास्त्र ऐतिहासिक पाली पक्षदेवसूरि की वाचना व्यापारिक-पाली दिगम्बर शास्त्र शासन के निन्हव दिगम्बर संघ भेद डॉट साहब का मत पालीवाल जाति में जैन धर्म ५४४ -जमाली मूल संघ के भेद पल्लीवाल गच्छ भौर पट्टावकी ५४५ २-तिष्य गुप्ता, द्राविड़ संघ के भेद पल्लोवाल जाति के उदारनर ३-भयक वादी यापनीय संघ के भेद ५-क्षणिक वादी काष्ट संघ के भेद अग्रवाल जाति ५४७ ५-दो क्रिया वादी, माथुर संघ के भेद भगुरुजाति के व्यापार से 1-औराशिक तारण पन्थ भप्रहा नगर से अग्रवाल -गोष्ट मालिक तेरह अग्रसेन राजा से अग्रवाल दूसरे भी कई निन्हव अग्रवालों के १७॥ गौत्रों के कारण कोष्टक दिगम्बर मत्तोत्थसी, ५२० गुमान , भगवास जाति में जैन धर्म ५५० स्थवीर नगर इनका समय कृष्णार्षि आचार्य दिगम्बर जातियां ५३५ माहेश्वरी जाति ५५१ शिवभूति ब्राह्मण मत्स्य देश में खंडेला नगर खंडेला नगर खंडेल सेन राजा रात्रि देरी से आना देश में मरकी का रोग राजा के सन्तान नहीं माता का ताना ब्राह्मणों का यज्ञ ब्राह्मणों का वरदान शिवभूति की दीक्षा नग्न मुनि का बलिदान पुत्र जन्म और सज्जन कुमार नाम रस्नकांवड़ पर ममत्व बीमारी की वृद्धि जैनाचार्य का भाना भाचार्य का उपालम्ब राजा का स्वप्न राजकुंवरादि का जैनत्व स्वीकार करना जिमकरूपी कामाचार नरक की वेदना को देखना जीव हिंसा की मनाई का हुक्म | बीस " तोता Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 रिया में पज्ञ योजना | मथुरा में धर्म की प्रभावमा धनदेव पुनः धनवान पर ने यज्ञ विध्वंस कर डाला सरिजी महबर में ५६६ | धनदेव के साथ १४ दीक्षाएं मणों का श्राप ५५३ उपकेशपुर सुचम्ति गौत्र भनका महो- आचार्य देवगुप्त सूरि के शिष्य मराव सहित कुवर पाषाणवत एसव व चतुर्मास ११ दीक्षाएं धर्म मूर्ति लग्धि संपम पार्वती की आराधना हंसावलो महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा राज सुन्दर ज्योतीष में न: सावधान सरिजी कोरंधपुर में पनकक-परकाय में र उमरावों से ७२ जातियां ५५३ नमप्रभ सूरि से मिलाप नगप्रभ-भाकाशग. १जातियों के माम कक्क सूरि का बिहार मथुरा की भोर न्याय मुनि शास्त्रार्थी सन को पुनः श्राप हंसावली के शा. जसा की प्रार्थना | जैन व्यापारी-प्रकरण ५८२ वजन की सन्तान जागा संघपति राणा ज्ञाता सूत्र में भहन सेठ समय की समालोचमा ५५५ तीर्थ पर दीक्षा श्रीपाल का जहाजी व्यापार हेश्वरी और अमांस भोजी पुन. कोरंटपुर में ऋषभ दत्त के दासियां भोसवाल माहेश्वरी सम्बन्ध देवी का भागमन भानन्दादि श्रावकों का व्यापार १८--आचार्य कक्क सूरि ५५८ विशाल मूर्ति को सूरिपद सम्राट चन्द्रगुप्त का राज्य (वि० सं० १५७-११) कक्क सरि का स्वर्गवास सम्राट सम्प्रति का राज्य विस्तार कोरंटपुर में प्राग्वट लका शासन में दीक्षाएं भारन की जातियां उजता देवी का दोहळा शासन में तीर्थों के संघ ऐतिहासिक प्रमाण त्रुम्जय तीर्थ की रचना शासन में मन्दिर प्रतिष्ठाएं चीनी मुद्राओं का इतिहास पुत्र का नाम त्रिभुवन १६-श्री देवगुप्त सूरि ५७४ मृच्छ कटिक नाटक काळा का स्वप्न सूरीजी का उपदेश (वि. सं. १७४ १७७) लाकुपेरी फ्रांसी वह्मचर्य का वर्णन नागपुर के आदित्यनाग गौत्रीय पाश्चात्य प्रदेशों में भारतीय व्यापार अपुत्रस्याति स्ति | भेरा व नंदा को देवदर्शन ग्रीस के एरियन कामत बह्मचर्य की नव बाद ५॥ पुत्रनम्म, धनदेव नार ग्रीस देश के इतिहास का मत मानेकानि सहस्त्राणि सरि का व्याख्यान नाव द्वीप के इतिहास का मत वाग्रत की गुप्ति 'शा. भेरा की भावना युनानी डीस माइस का क्या मत आठ-प्रकार रक्षण सूरि का चतुर्मास अलेक जैडियस पादरी ब्रह्मचारी साधु भगवती सूत्र का महोत्सव मिश्र के लाल जाति के, भुवन का दृढ़ निश्चय शा. भैरा मन्दिर बनवाया भारतीय व्यापारी नगर ५२ नर नारियों की दीक्षा सम्मेत शिखरजी का संघ भारत के धन कुंवर व्यापारी त्रिभुवन का नाम देवभद्र संघ में १८४ देरासर प्राचीन भारतवर्ष की शिव नगर का राव गें। संघ का विस्तार शिव नगर में मन्दिर की प्रतिष्ठा सभ्यता का प्रचार १५सनों की दीक्षा माता और धनदेव का संवाद (सरस्वती का लेख) ५४० मुनि देवभद्र को सरिपद भैरा की दीक्षा व्यासजी व सुखदेवजी की यात्रा भीपुर के श्रेष्ठि राजपाल के धनदेव से लक्ष्मी का रुष्ट होना पाण्डवों को दो बार यात्रा द्वारा पूर्वका संघ ५६५ आचार्य कक्क सूरि नागपुर में राजासागर की पृथ्वी विजय भूरिजी का मथुरा में चतुर्मास धनदेव का परिचय धृत राष्ट्र का पाणि महण म्यास्पान में भीभगवती सूत्र सूरिजी का उपदेश अर्जुन का विवाह Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुरूदका लग्न जैनों की उदारता राजामलदेव द्वारा संघ सभा १९ भारतीयों का पाश्चात्य प्रदेश से संबंध | शाकम्भरी का राज व नागभट्ट सूरिपद और सरिजी का स्वर्गवास एशिया, अफगानिस्थान, तुर्कीस्थान, रनभूषण को सूरिपद सरिजी के शासन में दीक्षाएं साइबेरिया, जावद्वीप, लंका, मफ्रिका | | सूरिजी का स्वर्गवास "" " तीर्थों के संघ सिंधु नदी, भबीसीनिया, युरोप, युनान, | | शासन दीक्षा-संघ प्रतिष्ठाए सरिजी के शासन में प्रतिष्ठाएं रोम, अमरिका २१ आचार्य रत्नप्रभसरि ६११ भादित्यनाग की चोरलिया शास्त्रा। महाजन संघ की पञ्चायत ५९१ (वि० सं० १९९-२१८) । शिला लेख भादि प्रमाण १३२ पञ्चयतियों की व्यवस्था हंसावली का जसा-निधन २२ श्री यज्ञदेव सूरि ६३५ और शास्त्र पञ्चायतों का न्याय वाचक धर्मदेव का (वि. सं. २१८-२३५) न्याय के उदाहरण निरधन जस्सा सत्यपुर के सुचंतिगौत्रीय काह कात्रण टॉड साहब का मत पातोली को सिंह का स्व. व मांगी का पुत्र धर्मसी २०-आचार्य सिद्धसरि ५९६ असा को पारस मिला सन्यासी का भागमन (वि० सं० १७७-१९९) पातोलोने तलाव खुदाया ब्रह्मचर्य व्रत का महत्व माण्डन्ध पुर का श्रेष्टि नागदेव ककसूरि का भागमन ब्रह्मचारी सुदर्शन ६३९ नागदेव का तीसरा विवाह श्री भगवती सूत्र की पूजा धर्मसी भादि १८ को दीक्षाएं २७ पुत्रों में तेजसी भागों को लिखाना बक्षदेव सरी भिन्नमास में कक्क सूरि का आगमन मन्दिर का कार्य प्रारम्भ ब्राह्मणों की ईर्ष्या तेजशी का वैराग्य माता की मोह दशा पुत्र जन्म-राणा नाम सच्चे ब्राह्मण-वेदोसति ५७ भावुकों की दीक्षा ९६ भांगुल सुवर्ण की मूर्ति १५ । ब्राह्मणों ने जैन धर्म स्वीकार किया सिंध में चतुर्मास व १७ दीक्षाएं गुरु मूर्ति को चर्चा मथुरा में बौद्धों का पराजय ६५५ मुनियों को पदवी प्रदान मन्दिर की प्रतिष्ठा सूरिजी का चतुर्मास चित्रकूट में राज हंस को उपाध्याय पद दुकाल में उदारता इकवीस भावुकों की दीक्षा सूरिजी का स्वर्गवास तीर्थ यात्रा का संघ दुष्काल और देशक सिद्धसूरि का पद महोत्सव संघपति राणा की दीक्षा जगा और सच्चायिका शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा सरिपद रत्नप्रभ नाम २२२ भोसवालो का दान वल्लभी में श्रमण सभा सत्यपुरी में चतुमास जगाशाह के कवित्त वल्लभी में बौद्धों का पराजय ५९९ लाखणादि १८ दीक्षाए सरिजी के शासन में दीक्षाएं सारस्थ पति पदवी नागपुर देवा का संघ सूरिजी के शासन में तीर्थों के संघ सूरिजी का दक्षिण में विहार १०३ | पंच पंचमुद्रिए प्रभावनायें " प्रतिष्ठाएं मदुरा, मानखेट में चतुर्मास दक्षिण की ओर विहार २३ आचार्य श्री कक्कसरि ६५१ पुनःभावन्तिप्रदेशमें भावंति मंत्री रूघवीर वीरशेखर और सन्यासी मथुरा में बोद्धों का पराजय (वि. सं. २३५२६०) मन्त्र बाद में मुनि की विजय ६०३ तक्षशिला में चतुर्मास लोहाकोट में मन्त्री नागसेन सन्यासी की जैन दीक्षा भद्र, बापनाग मंत्री दीक्षाए पक्षदेव सरि का भागमन भाघाट नगर में चतुर्मास ६०४ कोरंट में दो आचार्य नागदेव का पौषध व्रत श्रेष्टि गौत्री मंत्री मुकन्द का संघ चन्द्रावती के मंत्री की दीक्षा ६२५/ संस्तार पौरसी की गाथा । उपकेश पुर में चतुमांस नागपुर में ७ दीक्षाए राना एवं मंत्रिका संवाद सार्वभौम-महा दुष्काल उपकेशपुर-चतुर्मास १२७ मन्त्री को दोध एवं सूरि पद १२२ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी उपकेशपुर में मोक्ष मार्ग के दो रास्ते मनिधर्म पर व्याख्यान भाव की प्रधानता किसान का दृष्टान्त मथुरा के मन्दिर की प्र. मुनि-गुणतिलक को सूरिपद मथुरा में सूरिजी का स्वर्गवास शासन में दक्षाएं क संघ १९५ " तीर्थों के संघ , प्रतिष्ठाएं गाजी का विहार और भनार्य देवगुप्त सूरि की महिमा सुनी अपदेश देकर जैन बनाना और परीक्षा कर नमस्कार किया भामरेक के महादेव का परिग्रह परिमाण | शत्रुम्जय पर सूरिका स्वर्गवास सम:शिखर तोर्थ का विराट संघ | सूरिजी के शासन में दीक्षाएं हाथ पर देवियों का आना संव तीर्थ पा महादेवादि १६ की दीक्षाएं प्रतिष्ठाएं मुंनि कल्याण कलश को सूरिपद २५-आचार्य श्री सिद्धमुरि पूर्व की और विहार .१६ सरिजी के शासन में दीक्षाएं (वि. सं २८२.२९८ ) | उपकेशपुर के श्रेष्टि जैसा , प्रतिष्ठाएं चाम्पा का पुत्र सारंग २४-आचार्य श्री देवगुप्त सूरि६६६/ देवगुप्त सूरिका आगमन (वि० सा० १६०२८२) जेता को उपदेश और नियम चंद्रावती के कुमट डावर सारङ्ग पर सूरिजी की दृष्टि सूरिजी का विहार और पनो का पुत्र कल्याण सारङ्गका घरसे निकलना अक्कसूरी का भागमन सिद्धपुरुष की सेवा व्याख्यानों में सामुद्रिक शास्त्र स्वर्ण सिद्ध को प्राप्ती कल्याण का वैराग्य गरीबों का उद्धार माता पुत्र का संवाद सौपार से उपकेशपुर का संघ सूरिजी और डावर स्वर्ण का सदुपयोग कल्याण को दीक्षा व सूरिपद तीर्थ यात्रार्थ संघ सूरिजी चन्द्रावती में मन्दिरों का निर्माण डाबर, पक्षा को उपदेश सूरिजी का पुनः आगमन सन्यासी का प्रश्न मन्दिर की प्रतिष्ठा व सोने की प्रभावना शिवराजर्षि का दृष्टान्त पन्य के साथ लक्ष्मी उर्व अधो और मृत्युलोक जेता एवं सारंग आदि ५६ की दीक्षाएं ईश्वर ने सृष्टिकी रचना नहीं की सौभाग्य कीति और सृस्पिद अन्यासी की दीक्षा भाचार्य शत्रुक्षय की ओर वर, पन्नाआदि ३२ दीक्षाए सिद्ध पुरुष भी शत्रुतय पर मौज में सूरिजी दोनों को आपस में भेंट जसमा में व्याख्यान आत्मा के विषय की चर्चा सा का जैन धर्म स्वीकार करना तापस की दीक्षा तपोमूर्तिनाम के बनवाये हुये मन्दिर व सौपार पट्टन में पदार्पण प्रतिमा क प्रतिष्ठा सूरिजी का व्याख्यान म मुनियों को पदवियाँ लोभ और कपिलका दृष्टान्त कि दीक्षा हुने के कारण ५. नरनारियों की दीक्षा नयों ने सीमंधर स्वामी के मुख से | नागपुर में प्रतिष्ठा कदर्पियक्ष शत्रुजय ६९९ वज्रसेन सूरि मधुमती में बनकर के दो स्त्रियां अभक्ष्य-कारण घरसे निकलना सूरिजी की भेंट गरसी के प्रत्याख्यान मांस से मर कर कपर्दी स्त्रयों ने सरिपर आक्षेप किया राजा सूरिजी को पकड़ना नगर पर शिजाएं बरसाना क्षमा की याचना शजय का अधिष्ठा [१५] आचार्य चन्द्रसूरि ७०० सौपार पटन दुमज जिनदास एवं ईश्वरी के घर भिक्षार्थ साधु विष का प्रयोग तीन दिनों को शर्त सुकाल-चार पुत्रों की दीक्षा [१६] सामंत भद्रसूरि जंगलों में रहना कठोर तपश्चर्य ग्रन्थों का निर्माण [१७] आचार्य वृद्धदेवसूरि ७०१ चैत्यवास शिथिलता कोरंटपुर में महावीर चैत्य Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१५ " संघ देवचन्द्रोपाध्याय मानतुंग सूरि की बीमारी शालकी १४साथियों के साथ दीक्षा सर्व देव सरि का भा० इन्द्र का दियाहुमा १८ अक्षर का मन्त्र७१२ शिकार जातेहुए राजकुमार देवचन्द्र को सूरिपद 18 आचार्य मल्लवादी ७२२ विद्याका चमत्कार द्रव्य की भेंट [१८] प्रयोग्न सूरि ७०२ उपदेश एवं जैन धर्म की दीज्ञा भांच में जिनानंद ॥ नारदपरी जिनदत का बौदानन्द के साथ शास्त्रार्थ जयानंद को सूरिपद पुत्र मानदेव की दीक्षा जिनानन्द वल्लभी में सूरिजी का स्वर्गवास . नेमिचैत्य में वाप ७१५ दुर्लभादेवी तीन पुत्रों के साथ दीक्षा स्. शासन में दीक्षाएं [१६] आर्य मानदेवसरि ७१३ नयचक्र ग्रन्थ पढ़नेकी मनाइ तक्षशिला में मरकी क रोग मल्ल मुनि के मनोरथ | , , वीरों की वीरता घरदत्त नारदपुरी में देव ने पुस्तक खींच लिया , प्रतिष्ठाए पूरा प्रणामों की सजा श्रृत देव को भाराधना २७-आचार्ययक्षदेवमूरि ७४९ घुशान्ति से शान्ति देवता का वरदान (वि. ३०-३६) तक्षशिला का इतिहास नयचक्र का निर्माण इस्तीपर सिध भूमि वीरपुर [२०] आचार्य मानतुंग भरोंच में बौद्धों को पराजित भूरिंगौत्रीय शाह गोसल बनारस में राजा हर्षदेव कर देश बाहिष्कृत करना शाह लालन का परिवार धनदेव, शीलवती व मानतुङ्ग जिनानंद को पुन : भरोच में बुलाना | गोसला पुत्र धरण मानतुङ्गकी दिगम्बरी दीक्षा बदाचार्य मरकर व्यंकर होना धरण की मात्ता क्षत्रीयानी मानतुङ्गको बहिन के यहां भिक्षार्थ दोनों प्रन्यों का ध्वंस करना धग अपने मोसाल कमण्डल में जीवोत्पत्ति मल्लवादी का समय मांसाहारी के साथ संवाद बहिन का उपासम्म मल्लवादी नाम के कई भाचार्य .१५ / अमांस भोजी भी राज कर. श्वेताम्वरा चार्य बनारसमें २६-आचार्यरत्नप्रभसूरि ७३६ वीरपुर पर आक्रमण मानतुन की श्वे. दीक्षा धरण की विजय (वि० सं० १९८-110) पण्डित मयूर की पुत्री धरणको सात ग्राम बक्सीस सरिजी का भागमन बाण का विवाह सौपार पट्टन पत्नी का प्रकोप व भाद्र गौत्रीय शाह देदा राज कोक व धरण सेवा में पुत्री का वाप, मयूर के कोद रोग मा. सिरसरि का भागमन ग्याख्यान का प्रभाव सूर्योपासना भापत्री का व्याख्यान राजा और धरणादि की दीक्षा वाण के हाथ, पग, काटना तीन बनिये का दृष्टान्त विहार क्रमशः नागपुर चण्डिका शतक की रचना खेमा के साथ ५० दीक्षाएं नागपुर में सूरि पद जय पराजय के निर्णय के लिये काश्मीर | सूरिपर महोत्सव यक्षदेव सूरि पल्हिकपुरी में मयूर के ग्रन्थों को जलाना ७१० रत्नप्रभसूरि भिन्नमाल में व्याख्यान का वक्तव्य राजसभा में मानतुग सरि भिन्नमाल का राजा अजितदेव दानधर्म की विशेषता राजा का प्रकोप गंगदेव का रात्रि भजन दश प्रकार का दान १४ तालों वालो कोटरी रात्रि भोजन का उपदेश भनेक उदाहरण भक्तामर की रचना उसका प्रभाव सात क्षेत्र की विशेषता साले टूट गये सूरिजी जावलं पुर में बलाहगौत्र शाह केला राजाने चमत्कार देखा आ० शा० झालकी उदारता शत्रुञ्जयादितीर्थों का संव जैनधर्म स्वीकार किया भागमपूजा-भागम लेखन सौराष्ट्र कच्छ में विहार ७५४ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिन्ध के लोग कच्छ में शूचीर और सतियाँ पुत्र जन्म ठाकुरसी नाम सुरिजी का सिन्ध में पदार्पण पात्रार्थ तीर्थों के संघ ठाकुरसी के लग्न को छ मास दीक्षाएं में नाई का भला मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं सूरिजी का शुमा मन पार्थ मन्दिर की प्रतिष्टा २९-आचार्य देवगुप्तसरि ७७५ व्याख्यान और वैराग्य श्री भगवती सूत्र की पूजा माता पुत्र का संवाद (वि. सं. ३५७-३७०) देवी की प्रार्थना सूर उपकेश उकुरसी १३ के साथ दीक्षा कोरेटपुर के श्रीमान योग्यता पर सरिपद भामा नगरी का कशाह शा: लुम्बों-फूली-वरदत्त भावुकों की दीक्षाएँ ७५९ सूरिजी का दक्षिण में विहार वरदत्त के शरीर में रक्त की बीमारी अष्टि यशोदेव के मन्दिर की प्राग्वट रावल का संघ ७५० स्नान पूजा और मतभेद दीक्षाएं एवं पदवियों हस्तनापुर के तप्तभट्ट नंदा का। निकाला सम्मतशिखर का संघ सौपार पट्टन में दीक्षाएं सरिजी का आगमन शाकम्भरी में धर्मविशाल को सरि देवी सहायिका बन्दनार्थ सौराष्ट्र एवं गिरनार पद और सूरिजी का स्वगवास । सृरिजी का वासक्षेप योगियों को जमात तरुण साधु सूरिजी के शासन में दीक्षाए उपदेश और कषाय के भेद मुनि और तापस का संगद .९० , शासन में या संघ शंख श्रावक का प्रभ स्थाद्वाद, आत्मा क्रम, चार प्रकार के युद्ध में वीरगति व सतियों कषाय विषय दृष्टान्त जीव, पांच प्रकार के ज्ञान माहिसादिवि. दुकाल में शत्रु कार बादत्त की दीक्षा-पूर्णानन्द तापस की दीक्षा शान्तमूर्ति, .. मन्दिरों को प्रतिष्ठाएँ उपकेशपुर में सरिपद सरिजी मांडपपुरमें मुनि शान्ति सागर को सरि २८-आचार्य ककसरि ७६४ छट छट की निगन्तर तपस्या माका गामनी विद्या सूरिजी के शासन में दीक्षाए (वि स. १३१.३५.) विद्या बल से संघरक्ष्य ." भभापुरी नगरी , तीर्थों के संघ मुनि सोमकलस वचन सिद्धि ...३ वीरों को धीरता सातियों श्रेष्ठिगीत्रीय धर्मण-कर्मा गुणनिधान और वचन सन्धि जनोपयोगी कार्य देवी का साक्षात्कार सूरिजी चित्रकोर में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं यात्रार्थ उपकशपुर का संघ. मंत्री की प्रार्थना सरिजी के हाथों से कर्मा की दीक्षा कई नगरों में मन्दिरों की संख्या संघ सभा का आयोजन वल्लभीका भंग और रोका सरिपद-और ककसूरि और १६ | सूरजी का सचीट ल. जैनियों का संबन्ध बाप्पनग गौत्रीय का पुनड़ प्रभावना-योग्य पद्वियों घरड़ गोत्रीय कपर्दि का संघ विदेशियों के आक्रमण ७८७ पालिहकाले शत्रुञ्जय का संघ सूरिजी के शासन में दीक्षायें कोरंटपुर में सघ भेद शूरवीर और सतियाँ काकु, पातक संघमें साथ राजपूत कन्या के साथ विवाह बल्लभी पुरी में व्यापार वरदत्त की विशेषता तलाव कुवे और दुकाल में यात्रार्थ तीर्थों के संघ पुष्कल द्रव्योपार्जन सात प्रकृति का क्षयोप-सम चम्ग की कांगसी तीन प्रकार की आराधना मन्दिर मूयिों की प्रतिष्ठाएं बलात्कार कांगसी छीन लेना सरिजी चन्द्रावती में ३. आचार्य सिद्धसरि ७९१ रांका द्वारा विदेशी शैन्या दुर्गा श्रीमाल के धर्म कार्य (वि० स० ३७०-४००) रांका की सन्तान से रोका जाति सरिजी का विहार-उपकार जाबलीपुर-मोरख गौत्री मूल गौत्र बलाइ मुनि पूर्णानन्द को सूरिपद मगाशाह और जैती ३१-आचार्य रत्नप्रभसरि ८१२ सूरिजी के शासन में दीक्षाएं तीर्थयात्रा का मनरथ (वि० सं० ४००-४२७) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंखपुर. राव कानद सुवर्ण मुद्रा की प्रभावना | ३३-आचार्य कक्कमरि ८४८ धमा फेफों और भीमदेव शाह पातका प्रभाव ( वि. १४०.४८०) भीम के पैरों में सर्प सं. १२९ का जनसंहार दुकाल शिवपुरी पशोदित्य चोरडिया सिद्धसरि का भागमन पाता की प्रतिज्ञा मैना को पुत्र के अभाव चिन्ता उपदेश का प्रभाव दुकाल में सर्व द्रव्य व्यय देव पर भटल श्रद्धा संवाद सूरिजी और भीमदेव देवी की आराधना-थेली दूसरी शादी का आग्रह माता और भीम का संवाद पात्ता की परवाही पत्री व्रत की दृढ़ता भीम के साथ ३. दीक्षाएं धर्म का प्रभाव सेठ सेठानी का दृष्टान्त मुनि शान्ति सागर नाम ८१६ सरिजी का भा० उपदेश चौगसी देहरी का मन्दिर सिन्ध भूमि में विहार चक्रवर्ति की ऋद्धि का सेठानी का मनोरथ पूर्ण डामरेल नगर का राव चणोट पाता के साथ ७२ दीक्षाएं पुत्र का नाम शोभन अहिंसा धर्म का उपदेश शास्त्रार्थ में बोद्धों का पराजय सुरिजी का आगमन मुनि शान्ति सागर और सन्यासी उपकेश-प्रमोद०-सरिपद मन्दिर की प्रतिष्ठा सूरिजी का समझाना भार्बुदाचल को यात्रा शोभन की दोक्षा सन्यासी की दीक्षा देवी की भविष्य वाणी सरिपद नाम कक्कसूरि डामरेल मगर में शान्ति को सरिपद | देवप्रभादि मुनियों का माना भीनमाल में कुंकुन्द आचार्य भन्यमुनियों को पदवियां शवपुरी-शोभन के मन्दिर की कोरंटाचार्य ननप्रभसूरि क्षणक बादी का प्रश्न प्रतिष्ठा व शोभन को दीक्षा ककसूरि भोग्नमाल में सरिजी का विस्तार से उत्तर म्लेच्छों के हमले मन्दिरों का रक्षण व्याख्यान एवं उपालम्ब क्षणकबादी की दीक्षा मेदपाट में बोलों का उत्पाद कुकंद की कोमलता तक्षशील की ओर विहार सरिजी भाघाट नगर में तीनों सरियों का चतुर्मास तीर्थ को पुनः प्रतिष्ठा मथुरा के बोद्ध और सरिजी देवी का शुभागमनश्रेष्टि हाप्पा का यात्रार्थ संघ बेदान्ति कपालिका की दीक्षा। सुरिजी की तपभावना तीर्थ पर हाप्पा की देक्षा और कुंकंद मुनि माम . शिवपुरी में सरिजो मथुरा में बोरों का पराजय भद्रगोत्र सरवाण के संघ में मार्बुदाचल की यात्रा चंदेशी में उपद्रव की शान्ति-२५ छन्द को कोंकण को भाज्ञा संघ को शंकट से बचाना देवी की प्र० से उपकेशपुर में सूरिजो का चतुर्मास पाली में मारोट कोट और सोमाशापह ८५४ रात्र भालहक की भाग्रह पाली में श्रमण सभा मुद्रका में गुरुचित्र संघ सभाका का आयोजन कुंकुन्द की भावना राजाने सोमा को केद कर दिया मुनि प्रमोदरस्न को सरिपद कुकुन्द भीनमाल में गुरू भष्टक से बेडियो तुटी शासन में दीक्षाएं सरिजी उपकेशपुर में भरोच में गुरु दर्शनार्थ तीर्थ यात्रार्थ संघ आचार्य पदकी योग्यता दुर्विचार और देवो की सजा मन्दिरों को प्रतिष्ठाएं | भाचार्य की आठ संप्रदा ८४. देवी का प्रत्यक्ष भाना बन्ध ३२-आचार्य यक्षदेवमूरि ८३१ उप० सोमप्रभ को सरिपद आदि के दो नाम भण्डार (वि० सं० १२४.४४०) | यक्षदेव सूरि का स्वर्गवास सरिजी का शासन प्रति करणावती नगरी सूरिजी के शासन में दीक्षा उपकेशगच्छ में १६ शाखाएं भट्ठारह गौत्रों में कनोजिया. " तीर्थों के संघ | रिजी का विहार दक्षिण में शाह सारंग, पांचवार तीर्थों के संघ मन्दिरों की प्र० बापिस मावंती में Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झटकूप का राजसी धवल उज्जैन के चतुर्मास के बाद खटकूप में धवल की दीक्षा जैन मन्दिर को प्रतिष्ठा दोनों आचार्य उपकेशपुर में । मिश्र माल का संघ कुंकुंदाचार्य का चतु० मिन माल करि उपकेशपुर में बाद पूर्व की यात्रार्थं मिल संघ का आग्रह कुंकु दाचार्य का स्वर्गवास भिन्नमाल संघ ने देवगुप्त सूरि बनारस के दो टुकड़े कसूरि चन्द्रावती में चन्द्रावती में श्रमण सभा सूरिजी का सवेट उपदेश बाद उपकेशपुर में श्रेष्ठिगौत्र • यात्रार्थ संघ सूरिजी संघ के साथ शत्रुंजय देवी के कहने से ३३ दिन की आयुः राजहंस मुनि को सूरिपद तीर्थ पर सूरिजी का स्वर्गवास सूरिजी के शासन में दीक्षाएं. तीर्थों के संघ 3 3g 33 29 मन्दिरों की प्र० ३४ - आचार्य देवगुप्तरि ८७८ ( वि० सं० ४८०-५२० ) खटकूप नगर का राजसी तेरह पुत्रों में धवछ व्यापारखेती गायो खेती से होने वाला लाभ राजसी को चित्रावल्ली कुदाचार्य खटकूंप नगर में मन्दिर बनाने का निश्चय सम्मेतशिखर का संघ अंजनसिलाका का प्रश्न राजसी धवल उज्जैन में कक्कसूरिजी खटकूंप आये ૪૮૦ सालग नाम बड़ा सेट ८८५ सूरिजी - सालग का संवाद सालग ने जैनधर्म स्वीकार सलग का बनाया मंदिर सलग का वि० शिखरजी का संघ तोर्थपर सालग की दीक्षा पांच पांच लोना मुहर परामणी में लोहाकोट में श्रमण सभा सिंध कछ होकर शत्रुञ्जय भरोंच आयु होकर चन्द्रावती सांगण के मन्दिर की प्र० घर देरासर में माणक की मूर्ति द्रभ्य व्यय करने का सवाल उस समय का समाधान धवल की दीक्षा मन्दिरको प्रतिष्ठा सुवर्ण मुद्रण परामणी में शत्रुंजयादि तीर्थों का संघ राजसी की सपति तीर्थ पर दीक्षा खेतसीकों संघ माल तीर्थ पर श्रेष्ट देवराज के म० राजहंस को सूरिपद पद्मावती में चतुर्मास तीन सौ सन्यासियों को दीक्षा श्रेष्टि० मंत्री अर्जुन ने पूर्व का संघ देववाचक को दो पूर्व का ज्ञान भरोंच नगर में श्रमण सभा सूरि जी का सचोट उपदेश सूरिजी उपकेशपुर में सूरिजी का पांच मास का आयु: मंगल कुम्मको रिपद सूरिजी का स्वर्गवास शासन में दिशाए तीर्थों का संघ मन्दिरों की प्र० ३५- आचार्य सिद्धरि ८९५ ( वि० सं० ५२०-५५८ ) चित्र कोट नगर विरहट गौश्री शाह ऊमा सारंग, व्यापारार्थं विदेशमें समुद्र में उत्पात को घवराये निश्चय पर दृष्टान्त देवता बली मांगता है। सारंग की धर्मं दृढ़ता पर देवता संतुष्टो पैरों में पड़ता है एक दिव्यहार सारंग को सारंगादि सकुशल घर आये आचार्य देवगुप्त सूरि चित्रकोट में शाह ऊमा सारंगादि ३७ दीक्षाएं पुनढ़ने शिखरजी का संघ नि० सारंग ही सिद्धसूरि बनते हैं । चंद्रावती नगर में सूरिजी उपकेशपुर का राव हुल्ला म्लेच्छों की सैना का उपद्रव शाक वाजी भक्षी पर कायरता का० " ५०० राजसे सब को दूर करना काम पड़ा ने पर वेही काम० रावजीका पश्चाताप महाजनों की वीरता और दुश्मन का भाग छुटना रोवजी पुन: जैनधर्म स्वी० सूरिजीका आयु १ मास १३ दि० विनमसुन्दर को सूरपद सूरिजी का स्वर्गवास सूरिजी के शासन में वीर कुशल - राजकुशल पं० रेणुकोट में बांदी के साथ पण्डितजी की विजय पताका शासन में दीक्षाएं 3 " ९१० तीर्थो के संघ प्रतिष्ठाएँ 49 दुकाल में अन्न घास दान वीर वीरांगण में वीरता वीर परम्परा [२१] आचार्य वीर सूरी नागपुर में नेमिनाथ की प्र० [२२] आचार्य जयदेवसूरि ९२१ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१३ रणथंभोर में पन प्रभुकी प्र. ऊमास्वाति का आर्य समय राजाग्रह पर चढाई [२३] आ० देवानन्दसूरि कालकाचार्य कितने-समय अभयकुमार की बुद्धि का प्रयोग विदिशा नगरी का महत्व आचार्यखपट सूरि का , देव पट्टन में पार्श्वनाथ की प्र० महागिरि-सुहस्ती की यात्रार्थ [२४] आचार्य विक्रमसूरि आचार्य पादलिप्त सूरि का , आचार्य नागहस्ती सूरि का, सम्प्रति को राजधानी वि. दिशा में सरस्वती की भाराधना भाचार्य वृद्धवादी सिर० सूरि अवंति राजाओं की नामावली मुंका पीपल वृक्ष नवप्लव होगा। समय का विचार आचार्य स्कन्दिल सूरि का , कई भजैनों को जैन बनाये विक्रम वंश की वंशावली ६६. आचार्य जोवदेव सूरि, [२५] आचार्य नरसिंहमूरि ९२२ आचार्य ब्रमसेनादि , चष्टान वंश का गज जैन धर्मी जैन धर्म और बोद्ध धर्म के. भ्रांति हिंसक मक्ष को प्रतिबोद्ध आचार्य मल्लबाडी का, महाक्षत्रपों राजा की राणी जैन थी खुमाण कुल के लोगों को जैन जैनागमों को पुस्तको पर क्षत्रय राजाओ की वंशावली समुद्र नाम का क्षत्री को दीक्षा पुस्तकें रखने में प्रायश्चित पश्चिम के क्षत्रयों की , . [२६] आचार्य समुद्रसरि पुस्तकें जितनी बार बान्धे छोड़े प्राय गुप्त वंशी राजाओं की , ९५५ हिंसक चामुंडा को प्रतिबोध पुस्तक रखने में असंयम श्वेत हूणों के राजा जेन दिगम्बरों की पराजय जितना ज्ञान सतना कण्ठस्थ अंग देश को चम्पा नगरी नाग० इच्छा तीर्थ को पुनः श्वे० पुस्तकें रखने में इतना ही दोष दधिवहान राजा जितना शास्त्र कारों ने कहा पद्मावतो राणा का दोहला [२७] आचार्य मानदेवमूरि विक्रम के पूर्व पुस्तकें लिखी जाती थी | हस्ती-वंशदेश में ले जाना विस्मृत सूरि मंत्र पुनः स्मरण विक्रम की दूसरी शताब्दी |सणी की दीक्षा देवी माविका की भाराधमा विक्रम की चौथी शताब्दी रोगी के पुत्र का जन्म २०-आय-देवर्द्धि गणि राजप्रश्श्री सूत्र में पुस्तकरत चाक के घर करकंदु नाम क्षमाश्रमण पुस्तक पांच प्रकार के पद्मावती की पुनः दीक्षा दो प्रकार को पट्टा-गुरु० युगप्रधान. भठारह प्रकार की लिपि निमित वेत्ता का निमत भोजपत्र, तारपत्र, कागद पर किस परम्परा के स्थविर थे? बच्चों में विवाद ताडपत्र पर लिखने का समय राजा का इन्साफ मथुरी एवं वल्लभी याचना लिखने के लिये साही काली। ब्राह्मणों को ग्राम देना आचार्यमेरुतुंगकी स्थविरावली लाल सोनारी भष्टगंधादि करकंदुकों कलिंग का राज मन्दी सूत्र की स्थविरावली दवात-लेखन भादि १७ चीजो . ब्राह्मणों को चम्ग भेजना कल्प सूत्र की स्थविरावली लेखन के गुण-दोष दोनों राजाभों में युद्ध एक तीसरी स्थविरावरी भन मात्रा, पडि मात्रा लिपि पद्मावती साध्वी के कहने से दोनों के मतभेद में तीसरा की साधुओं के अलावा अन्य लोग बाप-बेटा का मिलाप दुषमकाल का श्रमण संघ ९३.. लेखक को निर्दोषता चम्पा पर संतानिक राजा की तेवीस उदय युग प्र. काल यंत्र विदेह देश के राजाओं धारणी जिभ्या कड मर गइ तेवीस उदय के आदि युग प्र० राना चटेक-गणशतक | चंदन बाला को कौसुवी 'तेवीस उदय के अन्तिम युग प्र. पुत्र शोभनराय बजार में बेची जाना प्रथम उदय के २० युग प्रधान चरेक के लात पुत्रियों में धनो सेठ खरीद की दूसरे उदय के २३ युग प्र० छः पुत्रियों का विवाह एक कु. चंदण बाला को कारागृह में युग प्रधानों का समय भावंति राजा चण्डप्रद्योतम की.. | महावीर का अभिप्रह Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दन बाला का दान बन्दन बाला की कूणिक ने चम्पा में राजधानी दीक्षा इस देश कोसुंबी नगरी तानिक-मृगावती जयंति खंड प्रद्योतन को कार्रवाइ सृगवती के शील की रक्षा वत्सपति की वंश वळी राजा के लिये भ्रांति कौशल देश की राजधानी राजा प्रसेनजित जेनीथा उसका बनाया जैन स्तम्भ कौशल यति की वंशावली मिकी हुई मूर्ति के शिलालेख सिन्धु सौवीर देश उदाइ राजा प्रभावती राणी महावीर मूर्त्ति त्रिकाल पूजा सुवर्ण गुठि का दाशी उज्जैन नरेश की कारवाई ९६७ भ० महावीर का आगमन भाणेज केशी को राज-दीक्षा अभिच कुंदा का द्वेष चम्पा० राजर्षि के बीमारी दही में विषका देना देवता का उपद्रव्य पट्टन दहन होना सिन्ध में मूर्ति का मिलना कुमारपाल के समय मूर्ति शूरसेन देश-मथुरा नगरी सिंह स्तूप की प्रविष्टा क्षत्रपों की वंशावली मूर्ति-दाशी का अपहरण उदार की उज्जैन पर चढाई मूत्ति दासी और राजाको पकड़ लाना मार्ग में वरसाद और जंगल में देरा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण आंत्र वंशियों की वंशावली वल्लभो नगरी का इतिहास १९६८ | हिन्दू शास्त्रों में सौरठ को अनार्य वल्लभी का राज प्रवन्ध वल्लभी की वंशावली ९६९ दासी और मूर्ति देकर क्षमापना ९७१ राजा उदाइ की भावना २३ कलिंग देशकांचनपुर करकंडु राजा कलिंगपति खारबेल का शिलालेख कलिंग पतियों की वंशावली आंध्रदेश-दक्षिण प्रदेश नंदवंश का श्रीमुखराजा शिलालेख और सिक्का ९७३ " "9 99 उपकेशपुर नरेशों की वंशावली ९७८ ૧૦ 99 चन्द्रावती को मांडव्य पुर की .९८२ ९८३ भिन्न माल विजय पट्टन शंखपर राजाओं को 19 की की " " पुरातत्व की शोध खोज इतिहास के साधन सिक्काओं की शुरुआत 19 99 "3 बीरपुर राजाओं की, नागवंशियों नागपुर बसाया नागपुर राजाओं की सिक्का - प्रकरण "" ९७४ व्यापार की श्रेणियां राजा विंवसार का नाम श्रोणिक पहले व्यारार कैसे चलता था ? ६७५ वस्तु के बदले वस्तु तेजमतुरी का व्यववहार भूमि से प्राचीन नगर तीन प्रकार के सिक्के मिले हैं f -काओं पर राजाओं के चिह्न जैन तीर्थङ्कारो के चिन्ह तीर्थङ्कारों की माता को स्वप्नेसाहित्य का अभाव और भ्रम बोद्धधर्म का प्रचार क्यों ? पाश्चात्य देशों में जैन धर्म प्र० ९७६ ९८४ ९८५ जैन धर्म के कठिन नियम भारत के प्राचीन धर्म जैनों के लिये अन्य धर्मों बुद्ध के माता पिता जैन थे बुद्ध ने जेन दीक्षा ली थी शूद्र के लिये स्थान शूद्र और जैन धर्म श्रेणिक नंद मौर्य राजाओंजैन और बोद्धों के मत्तभेद चीनी यात्रा भारत में जैन साहित्य का प्रकाश उड़ीसा प्रान्त का शिलालेख खारबेज जैन चक्र० राजा ९८६ | मथुरा का सिंह स्तूप ९८७ स्तूप की प्रतिष्ठा सर कनिंगहोम का मत मन्दिरों स्तूपों की शुरुआत भारत में जैनराज भ का राज सिक्काओं के चित्र स्तूप - प्रकरण पुरात्व की शोध खोज जैनस्तूपों की प्राचीनता ९९४ ० फ्लट् का मत ० स्थिम का मत मथुरा में जैन मन्दिर वस्तूप मथुरा में भागम वाचना मथुरा गच्छ-संघ साची स्तूप आवंती के दो विभाग विदिशा नगरी में जैनों की • जीवित स्वामी की प्रतिमा जैनाचार्यों का यात्रार्थं आ० सांची पुरी में स्तूपों का संचय जैनों का यात्रा धाम तीर्थं सम्राट् सम्प्रति की राजधानी स० [सम्प्रति को जैनधर्म की दीक्षा विदिशा के कई नाम Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : स. चन्द्रगुप्त क दीपक दान " " राज महल बनाना स. अशोक सांची की यात्रा प्रोफेसर कर्न का मत राजा तरंगिणो का मत डॉ. कनिंगहोम का मत जगचिन्तामणि का चैत्य वन्दनमें मारवाड़ का साचौर चीनी यात्री का भारत में आना धारा का पं. धनपाल सत्यपुरी में सांची के स्तूप जैनों का तीर्थ है सांची के कटघरों पर शिलालेख म. महावीर का निर्वाण पूर्व दिशा पावापुरी का अर्थ स्थापनगरियां भी होती है शा. त्रि० ले का मत्त प्रमाण भारहूत-स्तूप १००१ चम्पा नगरी जैन तीर्थ म. महावीर का केवल कल्याण कौशलपति प्रसेनजित द्वारा । चम्पा में महावीर की रथयात्रा सम्राट कूणिक का स्तूप-शिलालेख शाह निकले. के मत्तानुसार अमरावती-स्तूप १००२ दक्षिण-महाराष्ट्र प्रान्त बेनाकटक की राजधानी अमरावती में थी चक्रवर्ति महाराजा खारबेज की दक्षिण देश की विजय के उपलक्ष में विजय महा चैत्य बनाया विस्तृत शिलालेख में भी० शाह त्रि.ले०का मतानु. गुफा-प्रकरण १००४ श्रमण संस्कृति श्रमणों का जंगल में रहना योग साधना और कब्धियां गुफाएं बनाने के कारण गुफाओं को प्राचीनता चूनावा की शिल्पकला एवं चित्रकला राजगृह की धर्म एवं श्रमणों के नाम की गुफाएं ३६-आचार्य ककसूरी १००७ दो-दो तीन-तीन मंजिज की गु० (सं. ५५८-१०१) गुफाओं की संख्या बढ़ने का कारण | आचार्य ककसूरी गुफाओं में मूर्तियों और मन्दिर दुकाल का बुरा प्रभाव भारत में जनसंहार दुकाल मेदिनीपुर नगर गुफाओं के साधु नगर में उपकेशवंशियोंका व्यापार पुरातत्व की शोध खोज शाह करमण श्रष्टि गौत्रीय कलिंग की खण्डगिरि पहाड़ी में सेकड़ों धर्म परायण माता मैना गुफाओं और बहुत से शिल लेख भी है एकादशपुत्रों में विमलविहार में नागार्जुन की गुफाएं न.गपुर सुचेती-नोदा पंच पहाड़ की गुफाएँ तीर्थों का संघ की भायोजन गिरनार को गुफाएँ देवा का ताना-विमल की भावना शत्रुक्षय पर्वत में भी गुफाएँ थी बरार खान देश की पर्व श्रेणि मेदिनीपुर में सिद्धति में भी बहुत गुफाएँ है चतुर्मास का निर्णय पीपकनेर पातलखेडा की गु० विमल द्वारा शत्रुजय का संघ । देवा का सवाल विमल की उदारता अजंटा की प्रसिद्ध अंजनेरी की गु मूर्तियां भी है, दुःखी पळद का दश्य-सरिजी विमल का सगल भाकाइ की सप्तसात- , चांदादी की पहाड़ी में गु० मूर्तियां वैराग्य चार प्रकार के त्रिगनवाड़ी-गु• मूर्तियाँ विमल कों वैग्य नासिक गुप्र०-भ. राम का मन्दिर कुटम्बियों का भाग्रह चामरलेन में गु० मू. तीर्थ पर विमलादि की दीक्षा मागी-तुंगा पहाड़ की गुफाएँ श्री पाल को संघपति पदार्पण पुना जिल में जैन-बोद्ध गुफाएँ विनया सुन्दर नाम करण करेली ग्राम के पास जैन गुफाएँ विनयसुन्दर का ज्ञानाभ्यास सत्तारा लिा में भी बहुत गुफाएँ है नागपुर के भद्रगौ० गोल्हा का मसोत्सव घूमलवाड़ी गुफा-पार्श्वमूर्ति पूर्वक विनय सरिपद-कक्कसरि ऐवल्ली जैन गुफाएँ मन्दिर दो नाम भण्डार रत्न. यक्ष वादामी की प्रसिद्ध गुफाएँ है चयवास और शिथिलता हेनुसंग की गुफाएँ सूरिजी जावळीपुरी में जोलवा को श्रमण सभा सूरि क उपदेश धाराशिव को श्राद वर्ग को भी दो शब्द ऐल्लुरा की जावलीपुर में चतुर्मास दोलताबाद की भठारह नर नारियों की दीक्षा सेतवा की कोरंटपुरादि में विधार। For Private & Personal use only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशपुर के कुम्मठ भोजाने are गौत्र कांकरिया शाखा नेनीवाद के द्रव्य की व्यवस्था खम्मत नगर में चतुर्मास प्राग्ववंश शाह कुम्भा के सूरिजी के शासन में दीक्षाएं प्रतिष्ठाएं यात्रा संघ दुकाल मैं वीर वीरांगण तलाव कुएँ 33 जैनधर्म पर विधर्मियों के आक्रमण स्वामि शंकराचार्य कुम्भरेजमट्ट دو 95 99 39 " १०१९ १०२० पांड्य देश का सुन्दर राजा पल्लवदेश महेन्द्रवर्मा राजा मदुरा मीनक्षी मन्दिर के चित्र सीजार नगर के पुस्तका लय के चित्र राजा गणपतदेव का पाप-प सूरिजी का दक्षिण में बिहार प्रदुरा में श्रमण सभा मांडवगढ़ में चतुर्मास १०२५ रामानुजधर्म वालों के ३७ - आचार्य देवगुप्तसूरि १०२७ १०२६ सूरिजी के शासन में ( वि० सं० ६०१ - ६३१ ) पद्मावती के प्राग्वट यशोवीर-रामा मंडन - खेतो- खीवशी युवक की मृत्यु-मंडन का वैराग्य मंडन और गुरुजी का संवाद मंडनादि की दीक्षा व मेरूप्रभनाम खम्मात में उपा० च० सूरिपद मरोच में बौद्धों का प्रचार भच का संघ खम्मात में मच में सूरिजी शास्त्रार्थ में विजय मच में सूरिजी का चतुर्मास १०३० मथुरा में चतुर्मास आठ मुमुक्षुओं की दीक्षा श्रेष्ठ गौत्री हरदेव का मो० बप्पानाग चांग के मन्दिर की प्र० काशी होकर पन्जाब में सिन्ध कच्छ सौराष्ठ शत्रुंजय पद्मावती में चतुर्मास प्राग्वट माला की अजब दीक्षा कोरंटपुर में सर्वदेवसूरि-की भेट श्रीमाल खुमाण ने सवालक्ष विहार माडव्यपुर में श्रेष्ठि रावशोभणादि ७को दीक्षा १०४० चोरड़िया स रावल का महोत्सव उपा० ज्ञानकलस को सूरिपद चित्रकोट का किल्ला बनाना 35 "" २५ را 39 भावुक की दीक्षाएं मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं तीर्थों का संघ तलाव वापी कुए वीर वीरांगणाएं सीन दुकालों में १०३६ १०३७ १०४१ " ३८ - आचार्य सिद्धसूरि १०४६ ( वि० सं० ६३१ - ६६० ) मालपुर सिन्ध, रावकानद बपनाग देदा-आसल महावीर का मन्दिर सम्मेतशिखर का संघ आसक से लक्षमी का पृथक होना देवगुप्तसूरि का शुभागमन व्याख्यान का प्रभाव निर्धन को रस कुंपिका लोभी पुरुष के मंडियों लगाते गये आसक को निधान की प्राप्ती १०३३ मन्दिर - संघ-सूत्र वाचन आसकादि ४२ के साथ दीक्षा ज्ञानकळस मुनि के अभिप्रह १०४८ १०५१ १०५३ १०५४ सूरिपद सिद्धसूरिनाम चैत्यवास में शिथलता विहार- पृथ्वी प्रदक्षिणा नारदपुरी पल्ली-मेकरण मैकरण का संघ शत्रुंजय संघ को सोना की 5 या आचार्य श्री के शासन में " 39 " 19 39 मुमुक्षुओं की दीक्षाएं मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं तीर्थों का संघ तलाव कुएं वीर वीरांगणाएं दुष्काल की भयंकरता पद्मावती तप्तभट् सहखण सेठानी सरजू पुत्राभाव चिंता पत्नीव्रत का संवाद पुत्र का जन्म- खेमा नाम खेमा सुनने मात्र से प्रतिक्रमण संहारका " ३६ - आचार्य ककसूरि (८) १०६३ ( वि० सं० ६६० - ६८० ) खेमा की उदारता खेमा की खादी के लिये सूरिजी का आगमन - व्याख्यान नरक के दुखों का वर्णन संयम और देवों के सुख संयम के इस भव के सुख खेमा-माता पिता २७ दोक्षाएं सूरिपद - ककसूरिनाम शाकम्भरी में पदार्पण श्रेष्ठ गोपालने लक्षद्रव्य रावगेंदा मंत्री जेसल १०५६ आत्मवाद कर्मवाद १०५८ १०५९ सूरिजी का व्याख्यान राज सभामें जैनधर्म के वि० गलतफहमी सृष्टिवाद, स. अ. क. अ. १०६४ १०६६ १०६९ ७१ १०७२ २०७३ २०७४ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " दीक्षाएं ११०० क्रियावाद राव गोसल ने जैनस्व स्वीकार विवाह को केवल छ मास हुए भर्मवाद वीर भूमि पर गोसलपुर नगर १०९४ | एक शय्या में ब्रह्मचर्य रावगेंदा ने जैनधर्म स्वीकार राव गोसल के चौदह पुत्र दम्पति का सम्वाद सूरिजी का चतुर्मास शाकम्मरी अक्षय निधान भूमि से काम भोग का फल शास्त्रों में डिड सालगने पांच लक्षव्यय ७६ | सूरिजी का चतुर्मास गोसलपुरमें दोनों की भावना दीक्षा की इतना द्रव्य कहाँ से प्रश्नका समा० पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा आचार्य श्री का पदार्पण उप० ११२ चलमाणे चलिये कर्म वि. १०७७ राव गोसल का संघ करण की ३१ के साथ दीक्षा बिहार एवं पृथ्वी प्रदक्षिणा सीर्थ पर शुभ कार्य चन्द्रशिखर नाम १४ वर्ष गुरुकुल भावुको नरनारियों को दीक्षा सूरिजी का तीर्थं पर ठहरना सूरिपद एवं सिद्धसूरिनाम भस्मगृह का प्रभाव किस पर १०७९ | वीर संसानियों का मिलाप शत्रुजय से भरोंच नगर में सूरिजी के शासन में १०८० - आपस में वार्तालाप उपदेश कोटाधिश मुकन्द सेठ पुत्र पीपासु ११ विकट समय को पार करना सूरिजी की सेवा में उपदेश , यात्रार्थ संघ विहार पटना में चर्मास १०१९ | जैनधर्म के तस्वों का बोध पुष्कल द्रव्य व्यय का भी कारण दक्षिण में ११ दीक्षाएं और जैनधर्म स्वीकार करना जैन तलाव नहीं खुदाने का समा ? तीन वर्षों के अन्दर २८ दीक्षा ब्राह्मणों की ईर्षाग्नि प्रज्विलत उदार जैनों के बनाये तलावादि ! मंत्री रघुवीर का सं सूरिजी चन्द्रावती में वीर वीरांगण की देश सेवा भरोच में चतुर्मास सेठ मुकन्द के पुत्र होने की खुशी ४०-आचार्यदेवगुप्तमरि (5)१०८५ अवंति में होते चितोड़ में चतु. उपकेशपुर का संघ सूरिजी के ६० दुर्गारांका ने नौलक्ष व्यय उपकेगपुर में चतुर्मास धर्म प्रभाव ११२० (वि० सं०६८०-७२४) सात भावुकों की दीक्षा मेदपाट चंदेरी मथुरा काशी नारदपुरी सुर्चति वीजो-बरजू मेदपाट से मरूधर में आये ११०२ पंजाब सिन्ध कच्छ सोराष्ट्र होते पुनड़ के प्रबल पुन्य नागपुर में चतुर्मास हुए मरोंच नगर में पधारे सूरिजी का आगमन उपकेषापुर में पदार्पण मुकन्द ने प्रवेश महो• नौलक्ष. ष्टिगोत्र देवल ने एकलक्ष कोटाधिया करण की दीक्षा ११०४ सम्मेतशिखर का संघ भाचार्य का व्याख्यान नारदपुरी में चतुर्मास तीर्थ पर मुकन्द की दीक्षा २३ मनुष्य जन्म की दुर्लभता १.८८ सूरीश्वरजी के शासन में आचार्यश्री के शासन में उदाहरण के तौर पर राजा • मुमुक्षुओं की दीक्षाएं , भावुकों को दीक्षाएं पुनड़पर प्रभाव , मन्दिरों की प्रतिष्टाएं , मन्दिर की प्रतिष्ठाए मूञ्छित माता का विलाप तीर्थ यात्रार्थ संघनि .. तीर्थों के संघ यात्रा सोलह नरनारियों के साथ पुनड़की दीक्षा , वीर वीरांगणाएं का सत | , दुकाल, तलाव, वीरता सूरिपद देवगुप्तसूरिनाम १०९० तलाब कुवा का ४२-आचार्य कक्कसरि (९) ११२८ सूरिजी चन्द्रावती में , दुकाल में अन्न घास प्राग्वट रोड़ाकाबानार्थ संघ (वि० सं०.७४-०३७) , उदारता का परिचय सरिजी सिन्ध में बिहार यादुवंश अर्य भीम-सेणी जंगल में शेर बकरा का युद्ध ४१-आचार्य सिद्धसरि (८) ११०९ , ४ाचा सिद्धार(८) ११०९ कजल की सगाई करदी घुड़सवारों का जंगल में आना (वि० सं०७२४-७७४) गोसलपुर में सूरीश्वरजी मार्य नाम से सम्बोध करना उपकेशपुर-भदित्यनाग व्याख्यान में ब्रह्मावत का उपदेश पूरिजी का उपदेश मंत्री अर्जुन का पुत्र करण बिना भाज्ञा दीक्षा देने का प्रश्न Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी का ठीक समाधान ११३० सूरिजी के शासन में गच्छ समुदायों के पृथक् होना कजलादि • जन को दीक्षा " मुमुक्षओं की दीक्षाएं जातियाँ बनने के कारण १५ वर्ष गुरुकुल वाद सूरिपद , मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं संगठन तुटने से पतन बैत्यवास से हानी लाभ , तीर्थ यात्रार्थ संघ महाजन संघ रूपी कल्पवृक्ष ११७. चन्द्रावती में संघ सभा , वे तलाब बनाना महाजन संध की नींव डालना सूरिजी का सचोट उपदेश ।, वीर वीरांगणाएं वृक्ष और उसकी शाखाएं वृद्धकिसान और सिंह का उदा. । कुल वर्ण-बंश गोत्र-जाति या ११५५ । सेठिया जाति भी एक शाखा है मरूधर में श्रीमाल नगर सूरिजी के उपदेश का प्रभाव ११३६ दो प्रकार का काल उ.भ. विहार क्षेत्र की विशालता जैनधर्म की नींव कब-क्यों कर्म भूमि अकर्म-भूमि कन्याकुब्ज का विहार और म. ऋषभदेव द्वारा चार कुल आठवीं शताब्दी का भीनमाल आचार्य बप्पमट्टिसूरि की भेट भरत राजा द्वारा चार वेदों का ११५७ आचार्य उदयप्रभसूरि द्वारा जैन काशी की करवत सूरिजी का नगर प्रवेश का ठाठ वृद्ध श्रावकों द्वारा प्रचार दोनों भाचार्यों में वात्सल्यता महाणाँ का चिन्ह जनौउ श्रीमाल के २४ ब्राह्मण भी चैत्यवास की चर्चा तीर्थकरों का शासन विच्छेद उदय प्रभसूरि को भेंट और ११४० बप्पभटिसूरि का समर्थन ब्राह्मणों की स्वार्थ अन्धता सद् उपदेश देना। दोनों आचार्यों के आपस में संसार का पतन-अव्यवस्था सूरिजी और ब्राह्मणों का संवाद ककसूरि का पूर्व में बिहार चार वर्षों की व्यवस्था नाम-काम ब्राह्मणों ने जैनधर्म स्वीकार ॥ लक्षणावती में चतुर्मास वर्गों के लिये ब्राह्मणों की कल्पना शेष ब्राह्मणों का ईर्षा पाटलीपुत्र में पदार्पण पुनः ब्राह्मणों की हुकमत सूरिजी का चमत्कार कलिंग के तीर्थ की यात्राथं ११४३ वेदों के नाम बदल देना अन्य लोग भी जैनधर्म में महाराष्ट्र प्रान्त में विहार शूद्रों पर अत्याचार महाजनसंघ की उदारता पुनः कांकण-सोपार में चतु० वंशो की उत्पत्ति सोमदेव के किये धर्म कार्य शत्रु जप की यात्रा कच्छ में बिहार गोत्रों की उत्पति सोमदेव को राजा से सेठ पदवी श्रेष्टि लाइक का पुत्र देवशी कोटी द्रव्य | जैन शास्त्रों में गोत्रों का वर्णन सं. ११.३ में बेटी व्यवहार बन्द छमासकी विवाहित त्याग दीक्षा ११४४ जातियों की उत्पतिस्मृति तोडना जाने पर जोड़ना नहीं ११७५ पंजाब में दो चतुमास भ० महावीर का शासन बाबाजी के चनों का दृष्टान्स मथुरा में चतुर्मास उच्च नीच के भेदों को मिटाया सेठिया जातिके किये हुए धार्मिक कार्य करमण के बनाये मन्दिर प्र० वर्ण गोत्र जाति का बन्धन उस समय के धार्मिक कार्य सोपार में यक्ष का उपद्रव ११४५ | वीर भक्त राजा श्रेणिक-बेमराजा कुछ समय पहला का गोडबाड़ सर्वधर्म वालों के उपाय निःसफल हिंसा पर अंकुश अहिंसा का प्र. वर्तमान के नोकरी करनेवालों ककसरि ने शान्ति करवा चारों वर्ण जैन धर्म पालते थे हृदय की संकीर्णता ११ राजा जैन धर्म स्वीकार किया स्वयंप्रभसूरि मरूधर में जनजातियों केसाथबेटी व्यवहार तुटा राना का शत्रु जय संघ ११४७ रत्नप्रभसूरि उपकेशपुर में जाने से दोनों पक्ष को हानी पुनः जोड़ने विहार में सिकारी सवार महाजन संघ की स्थापना ११६४ | की जरूरत समाज के पतन के कारण भहिंसा का उपदेश जैन बने उस समय का मरूधर गुजरात को जैनजातियां का पत्तम माडव्यपुर राव महावली ११४९ भारत में जैन राजाओं का राज भारत के अद्भुत चमत्कार रावनी की वंशावली ११५, | पुनः जैनों में उच्च नीच के भेद भाव वर्तमान के नये २ भाविष्कार ११६० Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र की सुघोषा घंटा अश्ववोध तीर्थ की स्थापना दुबतिथि-बप्प-महिका पुत्र सूरपाल घर प्रज्ञापन्नासूत्र का परिचारणपद शुकन की का पूर्वभव से निकल मीरा गयो सिद्धसूरी की भेट दाहाजा में विनोबहलों की गाडियों सुदर्शना राजपुत्री होकर माता पिताकी आज्ञा से दीक्षा बप्पभष्ट राजकुमार अमरयश की मूली का चमत्कार | इस तीर्थ का उद्धार करवाया मुनि की प्रबल प्रज्ञाएक दिन में १००० एक वृक्ष के पुष्प से मनुष्य गधा बनजाय सम्राट सम्प्रति विक्रम के उद्धार श्लोक कण्ठस्थ करना चूर्ण का चमत्कार सरिजी गिरनार पर अंबा देवी राजपुत्र भामकी भेट दःख में सहाय सजीव भग्नि का माहार कर सके । संतुष्ट हो सूरिजी गुटका प्रदान की १९. भाम को ग्वालियर का राज वृक्ष के फलों का चमत्कार जिससे मनचाहा काम कर सके मुनि बप्पट्टि को बुलाना हस्ती पर बैठा योनि प्रभत प्रन्थ की अपूर्व विद्या भरोंच नगर अग्नि से भस्म होगया । कर नगर प्रवेश महोत्सव किया सुवर्ण एवं सरसप विद्या ११४५ सूरिजी ने गुटक से तीर्थोद्धार करवाया सूरिपद सिंहासन पर बैठना गजसिंह का काष्ट-मयूर आचार्य वीरसूरि ११९८ | आमराजाने सुवर्ण मूर्ति और मन्दिर मदन चरित्र उडन खटोला . श्रीमालनगर शिवनाग पूर्णलता ब्राह्मणों की ईर्षा सूरिजी का मान में मृगपशुग्रन्थतियंच की भाषा वीरनामका एक पुत्र सात स्त्रियां सूरिजी अन्यत्र विहार कर दिया उपदेशप्रसाद का उदाहरण सत्यपुरी महावीर को हमेशा यात्रा लक्षमणावती का राज धर्म ने सूरि का सोपर में विक्रमराजा सोमल स्वागत कर अपने वही रखा राजा आम माताकामृत्यु एकर पत्नी को कोटिर द्रव्य सोमल की अद्भुत कला देकर आप निवृति विमलगणि अंग विद्या का पाताप प्रधानों को ही क्योंराजा भार कोकास की हस्तकला जैन धर्मी देव बस में जीव दया राजा के द्वारा स्वयं सूरिजी की बिनती को गया उज्जैन में विचार धवक राजा अष्टापद की यात्रा देवसहाय एकगाथाका १०८ अर्थ सूरिजी ने किया चार रस्नों के चार काम देवतों के चावल ले आये संघ राजाके साथसूरिजीग्वालयेरमें भाये पाटकी पुत्र का राजा उज्जैन पर मगर प्रवेश का महोत्सव राजा को जैनधर्म की दीक्षा १२.९ राजा का नाम काकजंध होजाना आ. सिद्धसेन. वीमार बप्पमटि मोदेरामें एक राजपुत्र की जैन श्रमण दीक्षा कोकास भी उज्जैन में वीरसूरिका समय पुनः राजा मामके पास भाये काष्ट के कबूतरों द्वारा धान आचार्य वीरसुरि दूसरे १२०१ समस्याओं में सूरि का चमत्कार राजा से भेंट कोकास को मान सरिजी और बौद्धाचार्य के शास्त्रार्थ भावहडा गच्छ के आचार्य वीरसरि काष्ट का गरूड विमान विजय में राजा आम की वि. पाटण का सिद्धगजा की राजसभा में राजा राणी कोकास आकाश में एकपाद की चार समस्याए की पूर्ति राजा का अहम् भाव सूरिजी के विहार का नगरों या तीर्थों की पहचान ११८८ बोद्धाचार्य जैन धर्म स्वीकार विचार दरवाजेपर पेहरा आकाशगमन राजा जैनधर्म छटाब्रत की मर्यादा वानराज विद्वान भी जैनधर्म स्वी. से पाली जाना राजा का पश्चाताप कांचनपुर में राजाराणी कोकास केद भ. नन्नसरि का राजसी ठाड आम ने देखा सूरिजी बोद्धपुर में बोद्धों की परास्त कोकास की कला से मुक्त राजा आम नटनी से मोहित हो गया ग्वालियर का राजा चामर छत्र दिये पूर्व भाव-दोनों की दीक्षा ११९३ राजा आम का पूर्व भव नागपुर में सूरिजी पाटण के प्रधान कैवल्यज्ञान होकर मोक्ष में सरिजी के शील की परीक्षा वैश्या द्वार चामर छत्र राजा को भेज दिये राजगृह का किल्ला. भोज की नजर भाचार्य विजयसिंहसूरि ११९४ पुनः पाटण में पदार्पण राजा आम जैनधर्म स्वीकार स्वर्ग में भरोंच नगर का प्राचीन इतिहास वादिसिंह नामका संख्यदर्शनी सूरिजी का अनशन, स्वर्गवास ब्राह्मणों का यज्ञ ५९७ का बलीदान अभिमानी वीरसूरि द्वारा परास्त दुदुक वैश्या गामी राजा की मृत्यु भश्व के लिए मुनि सु० पधारे कमलकीर्ति दिगम्बर की पराजय कनौज का राज भोज करने लगा भपना तथा भश्व का पूर्व भव आचार्य बप्पभट्टिपरि १२०४ आम राज से भी भोज की विशेषता Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमराज को एक रानी का संतान उप केश वंश में राज कोठारी जाति रामा आम और बाप भट्टि सूरिका जी शत्रुंजय का शिलालेख प्राचार्य हरिभद्रसूरि १२१८ १२१७ चित्तोड़ का भट्ट हरिभद्र जैन मन्दिर में प्रभु का उपहास साध्वी की एक गाथा पुनः मन्दिर में देव स्तुति जिनदत्त सूरि का उपदेश भट्ट की दीक्षा ज्ञानाभ्यास और सूरिपद हंस परमहंस की जैन दीक्षा माता का उपालम्ब सिद्ध की दीक्षा ज्ञान बौद्ध ग्रन्थों का अभ्यासार्थं भाँति और बौद्ध दीक्षा गार्षिके पास हलित विस्तरा पुनः जैन दीक्षा कुवलयमाला कथा आचार्य महेन्द्रसूरि सर्वदेव का द्रव्य शोभन की दीक्षा मुनि शोभन का अथाह ज्ञान पुनः धारानगरी में धनपाल को बोध भोज के साथ धनपाल शिवमन्दिर में - ९ - पं० धनपाल की युक्तियों यज्ञार्थ एकत्र किये पशु पुनः धनपाल की युक्ति धनपाल की तिलकमंजरी कथा राजा की मांग अस्वीकार - अग्नि में धनपाल का चला जाना भरोंच के पण्डित का धारा में आना राज सभा के पण्डित असमरथ राजा ने धनपाल को बुलाया - विजय आचार्य चा बोद्ध शास्त्रों का अम्बासार्थं हंस की मृत्यु परमहंस भागकर राजा सूरपाल के शरण बोद्धों के साथ शास्त्रार्थं में विजय परमहंस हरिभद्रसूरि के पास हरिभद्र सूरपाल की सभा में बोद्धों के साथ शास्त्रार्थ में परास्त कार्पासिक का ग्रन्थ प्रचार चौदह सौ चालीस ग्रन्थ माहनिशीथ का उद्धार कथावली का उल्लेख मतभेद हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास सूराचार्य की तैयारी धारा का आमंत्रण हस्ती पर सवार हो धारा गया भोज का सम्मुख शानदार स्वागत धारा के सब पण्डितों को परास्त आचार्य सिद्धर्षिका जीवन १२३१ सूराचार्य का प्रकण्ड प्रभाव तंबोली के वेष में पुनः पाटण रात्री में घर पर देरी से आना ० अभयदेवसूर १२४१ द्रोणाचार्य के पास दीक्षा सुराचार्य नाम राजाभोज एकगाथा पाटण राजा को भेजी पाटण का राजाभीम ने सूराचार्य से एक गाथा बनाकर धारा नगरी भेजी राजा भोज का मान गल गया सूराचार्य शिष्यों को पढ़ाने में रजोहरण की एक दंडी हमेशा तोड़ डालना कोहा की दंडी बनाने का विचार, श्री संघ की समक्ष बनराज की मर्यादा राजा ने भूमि दो पु० मकान बनाया जिनेश्वर पाटण में चतुर्मास किया वसतिवास नाम का नया मत नि० प्रभाविक चरित्र का प्रमाण दर्शन सप्ताति का प्रमाण दुकाल से आगमों की परिस्थत देवी के आदेश से नौ अंग की टीका सूरिजी के शरीर में बीमारी घरेणन्द्र का आगमन स्तम्भन तीर्थ की स्थापना आचार्य वादीदेवम्वरि १२५४ मधुमति प्राग्वट वीर नाग का पुत्र रामचन्द्र वहां से भरोंच नगर में आये रामचन्द्र एक सेठ के कोलसे को सुवर्ण देखा सेठ ने एक सौ दीनार बक्सीस रामचन्द्र की दीक्षा देवमुनि नाम सरस्वती का वरदान गुरु का उपालम्ब ग्यांग में कहा धारा के वादियों को पराजय पण्डितों को जीत कर मान करना सूरिपद देवसूरि नाम १२४७ धारा नगरी में लक्ष्मीपति सेठ दो ब्राह्मणों को दीक्षा की भावना ८४ चेत्योंकाधिपति वर्द्धमानसूरि क्रियोद्धार-दो शिष्य जिनेश्वर सूरि बुद्धिसागर सूरि गुरु आज्ञा से पाटण पधारे घरघर में जाचने पर भी स्थान नहीं सोमेश्वर पुरोहित ने अपना मकान दिया चैवासियों के आदमी ने निकलने का पुरोहित राजा दुर्लभ की राज सभा में चैत्यवासी भी राजा के पास आये बादी के गूढ़ श्लोक का अर्थ देवसूरि ने बतलाया अनेक वादियों को परास्त किये बादी देवसूरि नाम करण दिगम्बर कुमुद्रचन्द्र को परास्त आचार्य हेमचन्द्रसूरि १२६० धुंका के मोढ़ चाच का पुत्र चंगदेव की दीक्षा सोमचन्द्र नाम सरस्वती के लिये काश्मीर की ओर नेमिचैत्य में ठहरकर ध्यान सामने आकर देवी ने वरदान दिया सूरिपद और हेमचन्द्र सूरि नाम सिद्धराजा की भेट और भक्त राजा की विजय में आशीर्वाद सिद्धहेम व्याकरण का निर्माण पण्डवों का शनंजय पर मोक्ष जाना ब्राह्मणों की ईर्षाग्नि शान्त Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान में स्त्रियों-सिंह का उदा. महाजनसंघ के प्राचीन कथित १३.४ भोसवालों में दातार सरिजी को निस्पृहिता भैरूपाह लोड़ा ४३-आचार्य देवगुप्तसरि प्रभासपाटण शिवनमस्कार | रामाशाह लोड़ा की की कीर्ति (वि० ८३७.८९२) कुमारपाक पर राजा का द्वेष कर्मचन्द्र चोपड़ो पाल्हिक नगरी २८-कार कुमारपाल सूरिजी के शरण में नैंतसी छाजेड संचेती रांणा-भूरि का पुत्र मल्ल । कमारपाल का भ्रमण अन्नदाता धरमसी विदेवाका व्यापार में भाने जाने का माल सिद्धराजा का देहान्त संघवी नरहरदास आ. कक्कसरि का शुभागमन कुमारपाल पाटण का राजा सुराणों की उदारता महल की भावना. वैराग्य हेमचन्द्र सरि को गुरु जैनधर्म स्वीकार | सोहिलमाह का छंद मल्ल की दीक्षा ध्यानसुन्दर अर्णोराज पर चढ़ाई असफल छजमल बाफणा सूरिपद देवगुप्तसूरि नाम इष्ट पर विश्वास और विजय जगदूशाह की उदारता विहार रात्रि जंगल में चन्द्रकान्त मणि की २१ अं-मूर्ति जबेरी हीरानन्द के वहां बादशाह देव का कोपबाद प्रसन्नता बाग्भट द्वारा शत्रजयका उद्धार कोरपाल सोनपाल लोढ़ा सन्यासी की करतूत और घृत वाणिया के सात द्रम्भ उद्धार में समददिया जाति के वीर सुरिजी का चमत्कार सन्यासी की दीक्षा हेमाचार्य के बनाये ग्रन्थों को लिखाना | टीकुशाह की उदारता वीरपुर का राव सोनग सेवा में मंत्री उदायण का पुत्र अंबड़ धारा नगरी के वैद्य मेहता रावजी ने जैन मन्दिर बनाया मुनिसुव्रत तीर्थ का उद्धार हथुदिया राठौर जैन मुनि साध्वियों के उपकरणों का राजा पतित साधु को बन्दन शूरवोर संचेती प्रमाण रखने का करणादि १५२८ साधु ने अपना पतिताचार छोड़ा रणथंभोर के संचेती दीक्षा के लिये योग्य अयोग्य वीतमय पाटण की मूर्ति सोजत के वेधमेहता सन्यासी जी की जैन दीक्षा कुमारपाल का यात्रार्थ संघ नि. वीर वैधमेहता पाताची सूरिजी का विहार की विशालता हेमाचार्य का पुनीत जीवन गद शिवाना के वैद्यमेहता उपकेशपुर में संघ सभा ७४॥ शाहाओं की ख्याति १२७१ , , वैद्यमेहता राजसी सरिजी का संचोट उपदेश ७॥ क्यों कहलाये जालौर के वैधमेहता तेजसी कल्याण कुम्भ को सूरिपद चित्तौड़ के युद्ध में ७४॥ मण जनेऊ चारण और जैन कविका संवाद राखेचा जाति की उत्पत्ति खेमा देवाणी का उदाहरण भायं जाति के वीर देवी ने निधान बतलाया लुनाशाह का उदाहरण कुंकुंम नाति की उत्पत्ति १३४४ वैद्यमेहता नारायणजी पांच प्रतियों पृथक २ मोरक्ष-पोकरणा वीर कुंकुमजाति को धूपियादि शाखाएं पूर्व जमाना की उदारता विनायकिया जाति की उत्पति संचेतों का कवित्त १-२-३-४ वर्तमान की दालिद्रता सूरिजी के शासन में दीक्षायें वेद्यमेहता पाताजी जोधपुर महाजन संघ के पूर्व का समय प्रतिष्टाएं समदड़ियामुता जोधपुर संघादि ऐतिहासिक तथ्य की कसोटी दुकाल में करोडों का दान ७॥ शाहाभों की नामावली ओसवाल ज्ञातिका रासो श्रीमाल वंश की जातियाँ तलाव कुवा वापियाँ " के पिता के नाम नामांकित श्रीमाली वीरों की वीरता सतियों का सत , की जातियों , के नगर मोसवल भोपाल कर रासो ४४ आ० सिद्धसरिजी १३५० का समय भोसवालोत्पति के कविन (वि. सं०-८९२-९५२) के कार्य श्रेष्टि लुबो रोनी का पत्रपनड़ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , प्रतिष्टाएं " तलाव , दुकाल में " ९४१५ दपाट देवपट्टन एक्गुससूरी का आगमन ह चतरो भोली लादुक व्याख्यान में मनुष्यजन्मादि , संघादि तीर्थ के संघसुब मुगए पुनदादि की दीक्षा सूरिपद लादुक निर्धन की विपत में चैत्यवासियों की शिथिलता देव पटन में योगी का माना मालेचया जाति की उत्पति , वार की वीरता छडुक की श्चद्धा की परीक्षा इस जातिका वंश वृक्ष ४६ आचार्य देवगुप्तसरि १३८९ भनायासे द्रव्य की प्राप्ति १४१३ सूंड वाघमार जाति की उत्पति इसजाति के किये हुए शुभकार्य (वि० ०११-१०१३) । सरिजी की सेवा में योगी दशपुर मंत्री सारंग रली चन्द | लाडुक के साथ योगो की दीक्षा मल जाति की उत्पत्ति छाजेड़ जाति की उत्पति सोमसुन्दर को जाब. सूरिपद चन्द्र की दीक्षा-पद्मप्रभनाम गरुड़ जाति की उत्पति सरिपद विहार की विशालता इस जातिका वंश वृक्ष कार्य १३६२ वंश वृक्ष और शुभकार्य गांधी जाति की उत्पत्ति पावागढ़ में रावलाधा को उप. १३६३ चार भाइयों की चार शाखाएं गुदेचा जाति की उत्पति १३९३ | गरुड़ पारस-फलोदी का मन्दिर हेलरिया जाति की उत्पति धर्म घोष ५०० मुनि फलोदी में चतु. प्राग्वट भूतका संघ पहरामणी । आचार्य के शासन में दीक्षाएं भूता की दीक्षा विनयरूचिनाम गरूड़ जाति के शुभ कार्य सरस्वती की आराधना वरदान १३९ भूरा जाति की उत्पति प्रतिष्ठाएं सोमसुन्दर नन्दीश्वर की यात्रा छावत जाति की उत्पति १४२२ संघादि यशोभद्र सूरिका जीवन तलाब कए जम्बुनाग मुनि लौद्रवा नगरमें १०१ ब्राह्मणों से बाद दुष्काल में ब्राह्मण लड़का का दुवतिया वीर-विरांगणएं सरिजी पाळीमें सूर्य की विद्या राजा का वर्ष फल लिखना पांच तीर्थों की हमेशा यात्रा मन्दिर और प्रतिष्ठा ४५ आ. ककसरि १३७० आधाट नगर में सरिजी : १४०३ जम्बु नाग के ग्रन्थ (सं. ९५२-१०११) पांच स्थानों पर एक साथ प्रति० जिनभद्र. पचप्रभ की दीक्षा गोसलपुर जगमल्ल मोहन सका कुवे में पानी पद्मप्रभ की व्याख्यान रसिकता सिद्धसूरी का आगमन पाटण का राजा मूलराज हेमचन्द्रसूरि-कुमारपाल उपदेश का जबर प्रभाव सरिजी की आकाश विद्या याचना-बलात्कारमोहनादि १३ दीक्षाएं गिरनार का जिन भूषण रात्रि में विहार सेनपल्ली मुनि सुन्दर को सूरिपद (ककसूरि) वल्लभी में अवधूत का आना विसानाइदेवी. त्रिपुरा का संदेश १५०५ विहार की विशालता दीक्षाएं १३८५ पट्टावकी तथा शिलालेख नागपुर से डामरेल राजा का दान ब्राह्मण सदाशंकर का मंत्र १३७६ देव. नागपुर में चतुर्मास देवी मंत्र साधान-वचन सिद्धि नक्षत्र जाति की उत्पत्ति १३७५ | गुलेच्छदेवाकी ज्ञान भक्ति श्रावक यशोदिस्य की सहा. नक्षत्र जातिकी शाखाएं मा० शासन में दीक्षाएं पुन: पाटण में पनप्रम प्रतिष्ठाएं कागजाति की उत्पति राणी के योगाभ्यास का संघादि इस जाति का वंश वृक्ष कार्य पद्मप्रभ ने योग साधना बायरेचा जाति की उत्पत्ति कक्षा तळाब १३८३ अजमेर में शास्त्रार्थ-विजय बंश वृक्ष और शुभकार्य बीर की वीरता सूरीश्वरजी के शासन में दीक्षाए मा० कक्कसूरि के जीवन ४७ आचार्य सिद्धपरि १४११ " , प्रतिष्ठाए परिजी के शासन में दीक्षाएं १३८५ (वि० १०१३-१001) , संपादि Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ४८ आचार्य ककसरि १४३३ डिहूपुरनगर भैसाशाह 16 भैसाशाह के संघ के कवित्त बाप्पनाग-गधाशाह सरिजी अपनी लघुना करते (वि० सं० १०७४-१००) भैसाशाह से लक्ष्मी का कोप तीर्थङ्करों का समवसरण १४६५ गुजरं में पाटण की स्थापना भाचार्य ककसूरि की कृपा का विस्तार से वर्णन किया पाटण नरेश की संघ व्यवस्था धर्म पर भैसा की अटूट श्रद्धा सूरिजी के शासन में दीक्षाएं चैत्यवासियों की प्रभुता छाणों के कंडे सुवर्ण के , प्रतिष्ठाएं नाहटा जाति का श्रीचन्द ११३६ | भैसाशाह के किये हुए दो कार्य ., संघ यात्रा भोजा की पत्नी मोहनी ने झवेरात का हार भैसाशाह के राज खटपट " कुए तलाव बनाकर प्रभु के कण्ठ में धारण मिन्नमाल में जा बसना , वीर वीरांगणा दम्पति का संवाद गदइया सिक्का का चलन दुकाल में सिद्धसूरि का भागमन ककसूरि भिन्नमाल में १४५९ | उपकेशगच्छ में खटकुप शाखा भोजा के साथ ३४ दीक्षाएं संघ सभा का आयोजन यक्ष मेहतर को गच्छभार सूरिजी का विहार नागपुर सरीश्वरजी के शासन में १४५२ । कृष्णर्षि का चमत्कार शाह करमण का यात्रार्थ संघ दीक्षाएं नागपुर में सेठ नारायण की ४०० संघपति सात लक्षा-माला मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ कुटम्ब के साथ जैनधर्म की दीक्षा संघ को सुवर्ण मुद्रा पहरामणी तीर्थयात्रार्थ संघ नारायण ने किल्ला में मन्दिर उपकेशपुर चतुर्मास १४४१ दुकाखों में धान वस्त्रघास सूरिजी के कर कमलों से प्रतिष्ठा पानी में बप्पनाग० मूलो युद्ध में काम आना सतियां हीना कृष्णार्षि का चमत्कार कन्धि सप्तभट्ट, मेहकरण का कुवा तलाव वापियों सिद्धसूरि के पट्ट पर दो आचार्य श्रेष्ठि शाह भाणा के पु० उदा की दीक्षा "४९ आचार्य देवगुप्त सूरि १४५५/ कक्कसूरि मारोट कोट में चन्द्रावती में चतुर्मास किल्ला खोदने से मूर्ति निकली ३६० परमारों को जैन बनाये (वि० सं० ११०८.११२४) सूरदेव राजा का मन्दिर १९७५ डामरेलनगर गुलेच्छ पना शाकम्भरी में उपद्रव शान्तिमुनि त्रिभुवनगढ़ के राज को कुंवर चोखा का सम्बन्ध गोसल शान्ति और नये जैन बनाना प्रतिबोध और जैनमन्दिर की पुत्री रोल्ली के साथ कर दिया १४५६ संघ को उदारता रोटी बेटी व्यवहार विणाबाद और देवगुप्तसूरि १७७ सूरिजी का उपदेश चोखा का वैराग्य सुरिजी का चतुर्मास शाकम्भरी में डामरेलमें विद्यावाद विवाह की तैयारियाँ लग्न कर दिया संचेती फागु के मन्दिर की प्रतिष्ठा चोखा रोली का सम्बन्द ५०-आचार्य सिद्धसरि १४७९ हि० अर्जुन की आगम भक्ति १४४२ दोनों दीक्षा की तैयारी में (वि० सं० ११२८.११७४) शिकार जाते हुए सरदार भनुकरण में ४२ दीक्षाएं १४५९ भिन्नमाल में भैसाशाह के पुत्र धवल राव भाभड़ को उपदेश देवगुप्तसूरि भिन्नमाल में देवगुप्तसूरि ने धवल को उपदेश जैन धर्म और आभद जाति भागमपूजा छत्तीस सहस्त्र मुद्रा माता का मोह पिता की भाज्ञा रावजी का बनाया जैनमन्दिर भैसाशाह की माता का संघ धवल की दीक्षा इन्द्रहंसनाम राव आभड़ की वंशावली १४४४ आते समय पाटण में ईश्वर सठे बोस्थरा लाखण का संघ देवी की प्रेरणा मेदपाट में विहार भैसा तो हमारे यहां पाणी भरते हैं इन्द्रहंस को तीर्थ पर सूरिपद भाघट नगर में चतुर्मास भैसाशाह ने घृत तेल का सौदा उपकेशापुर से कदर्पि पाटण में भृमण-मथुरा में कोरंट गच्छीय तेलिया घीवानन्दी में सिद्धसूरि का पाटण में चतुर्मास सर्वदेवसूरि से मिलाप माण्डवगढ़ की दुकानों में कदर्पि का मन्दिर बनाना नाहटा भासक का संघ यात्रा १४४६ | गुर्जरों से भैसा पर पाणी हाना छुड़ाया वीरसूरि का विघ्न Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवसरि का समाधान १५८० | झामा जाति की उत्पत्ति दुष्काल में मन्दिर का शेष कार्य ब्रह्मदेव ने कराया | सुराण जाति की उत्पति १५.२ कुंए तलाव बैमाचार्य की विद्या मंत्रों का चमत्कार नाहर जाति के विषय गच्छ वीरों की वीरता उस समय धर्म का रक्षण कैसे किया? मन्दिरों के गोष्टिक बनाने में २८ भगवान महावीर की परम्परा जनता की धर्म पर श्रदा का कारण नागपुरिया तपागच्छ १५०३ २९ विबुध प्रभसूरि कोरंट गच्छ का इतिहास गोहिलाणी नौलखा भुतेड़िया पिपाडा ३० जियानन्दसूरि किसी भी क्षेत्र की संकीर्णता से पत्तन हीरण गोगद शिशोदिया रूणीवाल ३. रविप्रभसूरि समाज की बागडोर भाचार्यों के हाथ में | वेगाणी हिंगद रायसोनी झामड़ छोरि ३२ यशोदेव सूरि बनेत्तरों को जैन बनाना या सामड़ा लोढ़ा सुरिया मीठा नाहर | ३३ प्रथोम्नसरि महाजन संघकी उदारता जडियादि जातियों १५०४ ३४ मानदेवसूरि उपवा. कोरंट नामावली आँचल गच्छीय कटारिया रत्नपुर ३५ निमलचन्द सूहि कोरंटाचार्य बीकानेर में सेठयादि २० जातियों १५०४ ३६ भा० उद्योतन सरि वंशावलियों की वही श्री पूज्यकों मलधार गच्छ-पगरिया गोलिया गिरया- ३७ आ० सर्वदेवसूरि (१) मा० नमसूरि और घुड़सवार गेहलदादि १८ आ० देवसूरि सम्बाद में उपदेश का प्रभाव पूर्णिमिबागच्छ-साह सियालादि ३९ आ० सर्वदेवसूरि (२) धादीवाल जानिकी उत्पत्ति शाखाए ११९३) नाणावाल गच्छ दहा कावड़ियादि ४० आ० यशोभद्रसूरि नेमिचन्द्रसूरि रातदिया भैरू की पूजा-बली का. सुरांणा गच्छ-सुराणा संखला मणवटादि इतिहास के अभाव का कारण सरिजी के उपदेश का प्रभाव पल्लीवाब गच्छ-धोखा बोहरादि धारण व्यवहार का ज्ञान रातदिया जाति की उत्पत्ति केदरसागच्छ-बंब गंग गहेलडादि मन्दिर मूर्तियों के शिलालेख संखलेचा जाति की उत्पत्ति १४९५ सांढेरागच्छ-भंडारी गुगलिया चतुर प्रतिहार कक का शिलालेख बोत्थरा जाति की उत्पत्ति वृहसपागच्छ-ललवाणी लोकड उफरिया हथुड़ी के राठौरों का , मिनि जाति की उत्पत्ति लोढा घरयादि भनेक जातियों ओसियों के मन्दिर का , खिषसरा जाति की उत्पत्ति एक जाति में अनेक गच्छों में नाम का एक खण्डित प्रपास्ति , मांडोतादि कई जाति की उत्पत्ति कारण उपकेशगच्छ चार्यों की प्रतिष्ठा बांठिया-कवाद जाति की उत्पत्ति १४९९ | एक अंग्रेज विद्वान् का कथन करवाई के शिलालेख शाह-हरखावत क्यों कहलाये ? सूरीश्वरजी के शासन में ककुदाचार्य की संतान के शिला. पररिया जातियों की उत्पत्ति दीक्षिए सिद्धाचार्य की संतान के , सिंधी जाति की उत्पत्ति प्रतिष्ठाए द्विवन्दनीक शाखा के भ. देवरिया जाति को उत्पत्ति १५०० यात्रार्थ संघ कोटाचार्यों के म०के० Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उत्तरार्द्ध भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पूर्वार्द्ध की दो जिल्दे पाठकों की सेवामें पहुच गई जिनको पढ़ने से आपको ज्ञात हो चूका है कि इसमें जैनधर्म का कितना विस्तृत इतिहास आया है कि आजपर्यन्त ऐसा ग्रन्थ कहीं से प्रकाशित नहीं हुआ होगा खैर अब पाठकों यह जिज्ञासा अवश्य रहती होगी कि - इस ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में क्या क्या विषय आवेंगे ? अतः यहां पर संक्षिप्त से बतला देना अच्छा होगा कि - १- भगवान् पार्श्वनाथ के ५१ से ८४ पट्टधर आचार्यों का जीवन तथा उनके शासन में भावुकों की fare मन्दिरों की प्रतिष्ठाए तीर्थों के संघादि शुभकार्य - २ - भगवान् महावीर के ४० वॉपट्टधर से विर्तमान के श्राचार्यों का जीवन तथा उनके जीवन के शासन सम्बन्धी कार्यों का इतिहास जितना मुझे मिला है। ३ – तीर्थाधिकार इसमें प्राचीन अर्वाचीन तीर्थों का इतिहास उनकी उत्पति मन्दिरों- मूर्तियों की प्रतिष्ठा का समयादि सब हाल लिखा जायगा । ४ - गच्छाधिकार - भ० महावीर के पश्चात् किस समय से तथा किस कारण से और किस पुरुष द्वारा कौन सा गच्छ उत्पन्न हुआ यो तो ८४ गच्छ कहे जाते हैं पर मेरी शोध खोज से ३१० गच्छों का पता गया है । ५ - जैनशासन के अन्दर जैसे पृथक २ गच्छ निकले हैं वैसे कई मत्त एवं पन्थ भी निकले उन लोगों ने अलग मत्त पन्थ निकाल कर क्या किया ? ६ - चैत्यवासी अधिकार चैत्यवास कब से क्यों और किसने किया चैत्यवास के समय जैन समाज की दशा तथा साथ में राज महाराजा पर चैत्यवासियों का प्रभाव, चैत्यवास में विकार कब से हुआ ओर चैत्यवास के हटाने से समाज को क्या क्या हानी लाभ हुआ ? 13 - पट्टावली - अधिकार जैनधर्म में जितने गच्छ हुए उन गच्छों की पट्टावलियाँ सब तो नहीं मिलती हैं पर जितनी मिली है उनकों लिखी जायगी ८ - जैन जातियों - जैनाचार्यों ने जैनों को प्रतिबोध कर जैनधर्म में दीक्षित किये बाद किस कारण aaaaaaa बनी जिसका विवरण | साढ़ा बारह न्यात प्रान्तवर ८४ जातियों वगैरह - श्रागमाधिकार - जैनधर्म के मूल अंगोपांग आगमों के अलावा किस समय किन किन आचार्यों ने किस किस विषय के ग्रन्थों का निर्माण किया । १० - जैनधर्म कहां तक राष्ट्र-राजाओं का धर्म रहा अर्थात् कहाँ तक राजा महाराजा जैनधर्म के उपासक बन कर रहे बाद जैन लोग राजाओं के मंत्री, महामंत्री सेनापति दीवान प्रधानादि उच्चाधिकार पर रह कर देश समाज एवं धर्म की किस प्रकार सेवा की इत्यादि । इनके अलावा और भी कई छोटी बड़ी विषय लिखी जायगी पूर्वार्द्ध की अपेक्षा उत्तरार्द्ध लिखने में हमे बहुत सुविधा रहेगी कारण पूर्वार्द्ध लिखने में हमकों बहुत कठनाइयों का सामना करना पड़ा है जिसमें अधिक मुश्किली तो प्रमाणों के लिये उठानी पडी है इस विषय का खुलास मैंने प्रस्तावनादि में कर दिया है कि उस समय केप्रमाण बहुत कम मिलते है वह भी केवल एक मेरे इस ग्रन्थ के लिये ही नही पर किसी विषय के लिये क्यो न हो पर प्रमाण के लिये सबकों यही अनुभव करना पड़ता है । यही कारण है कि पूर्वार्द्ध में अधिक प्रमाण वंशावलियो पट्टावलियों से ही लिये गये है जब उत्तरार्द्ध के लिये बहुत से ऐसे प्रमाण मिल सकते है कि जिनको हम ऐतिहासिक प्रमाण कह सकते है। पट्टावलियों वंशालियों भी सर्वथा निराधार नही पर उनमें भी इतिहास की बहुत सामग्री भरी पडी है शेष समय पर - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ coooooooooooooo ला PooooooooooooooA भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ------ - - -- - 4700s0OOOccc00000oC. Doooooooooo Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** ற் भ० यादीश्वरः पूर्णानन्दमयं महोदयमयं कैवल्यचिद्दङमयं, Depeat jesser ज्ञानोद्योतमयं कृपारसमयं स्याद्वादविद्यालयं, ................. रूपातीतमयं स्वरूप रमणं स्वाभाविकाश्रीमयम् । श्रीसिद्धा चलतीर्थराजमनिशं वन्देऽहमादीश्वरम् ॥ भ० पार्श्वनाथ: किं कर्पूरमयं सुधारसमयं किं चन्द्ररोचिर्मयं, किं लावण्यमयं महामणिमयं कारूण्य केलीमयम् । विश्वानन्दमयं महोदयमयं शोभामयं चिन्मयं, शुक्लध्यानमयं वपुजिनपतेर्भूयाद् भवालम्बनम् ॥ भ० महावीरः वीरः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितो वीरं बुधाः संश्रिता, वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो वीराय नित्यं नमः । वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपो, वीरे श्रीधृतिकीर्तिकान्तिनिचयः श्रीवीर ! भद्रं दिश ॥ .................. *....................********* ...................... Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ ] [वि० सं० पू० ८२० तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ श्री तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान् ख्यात स्त्रिविंशोमहान् । सर्वः स्वेतर धार्मिकः सनिवहो भिन्न न यं ज्ञानवान् ॥ दीप्ताग्ने 'अ. सि. आ. उ सा', त्ति वचसा नागम् च यत्रा तवान् । कुर्याच्छि धरणेन्द्र नामक करः सर्पस्य सोऽत्रात्मवान् ॥१॥ । वाज से करीबन २८०० वर्ष पूर्व का जिक्र है जब कि भारत भूमि भगवान पार्श्वनाथ के पुनीत चरण कमलों से पवित्र हो रही थी । भगवान् पार्श्वनाथ का विश्वोपकारी शासन १६००० * अतिशय प्रभावशाली लब्धिसम्पन्न उत्कृष्ट ज्ञानी ध्यानी विद्वान मुनि पुङ्गवों, ३८००० विदुषी साध्वियों अनेक राजा महाराजा और असंख्य भव्य भक्तों से सुशोभित हो रहा था। प्रभु पार्श्वनाथ के कल्याणकारी-उपदेशामृत का पान कर भारत का जीवन परम उल्लासमय हो रहा था, उनके दिव्य चारित्र एवं भव्य भावनाओं से जन कल्याण के साथसाथ आत्म विकास एवं मोक्ष साधन का मार्ग प्राणीमात्र के लिए खोल दिया गया था। क्षुद्र से क्षुद्र जीवों को जी ने का स्वतंत्र अधिकार एवं अभयदान प्राप्त हो चुका था। आ हा! हा!! उस समय भारत में दो सूर्यों का प्रकाश हो रहा था । एक सूर्य संसार के द्रव्य अन्धकार को हटा रहा था, तब दूसरा सूर्य विश्व का भाव अन्धकार ( अज्ञान ) को समूल नष्ट कर रहा था। यही कारण है कि उन ज्ञान रश्मियों के आलोक में प्रेम का अद्भुत प्रवाह भारत के जीवन को नवप्लावित बना रहा था। बस, उन लोकोत्तर महापुरुष के दिव्य जीवन की यही विशेषता थी कि उनके दर्शन, स्पर्शन ही क्या, पर उनका स्मरण मात्र से ही जनों का कल्याण हो जाता था। यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगी कि उस समय संसार भर में इतने ही शुभ परमाणु थे कि जिससे भगवान् पार्श्वनाथ का शरीर का निर्माण हुआ था। भगवान पार्श्वनाथ किसी मत्त पंथ समुदाय एवं व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति नहीं थे किन्तु आप किसी प्रकार के भेद भाव बिना अखिल विश्व के कल्याणकत्तों थे। यही कारण है कि आपश्री का नाम विश्व विख्यात हैं, आप श्री का उज्जवल यश एवं कमनीय कीर्ति जैन समाज में ही नहीं, पर सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है । आप श्री का पुनीत एवं अलौकिक जीवन चरित्र के लिये यों तो बृहस्पति भी वर्णन करने में असमर्थ हैं तथापि कई विद्वानों एवं धुरंधरों ने आप श्रीजी के कई जीवन चरित्र लिखे और उनमें से कई मुद्रित भी हो चुके हैं। अत: यहां पर मैं श्राप श्री का जीवन विस्तृत रूप से नहीं लिख कर आप श्री के जीवन की मुख्य-मुख्य घटनाएं लिख कर पाठकों के सामने रख देता हूँ। भारत के वक्षस्थल पर विश्व विख्यात काशी नाम का मनोहर एवं रम्य देश है, जो विद्या के लिये बहत प्रसिद्ध है, उस काशी देश की मुख्य राजधानी बनारस नगरी जो धन धान्य से समृद्ध एवं व्यापार Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० पू० ८२० ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास का केन्द्र थी, जिस समय का इतिहास हम लिख रहे हैं उस समय बनारसी नगरी में महान् प्रतापी अश्वसेन नाम का राजा राज कर रहा था, उसने जनोपयोगी कार्य एवं भुजबल से अपनी कीर्ति एवं राज्यसीमा खूब दूर-दूर तक फैला दी थी। राजा अश्वसेन के गृहदेवी एवं महिलाओं के सकल गुण विभूषित वामादेवी नाम की पटराणी थी, महाराणो वामादेवी एक समय अपनी सुख शय्या में अर्ध निद्रावस्था में सो रही थी । मध्यरात्रि में महाराणीजी ने गज, वृषभादि चौदह महास्वप्न देखे, बाद तत्क्षण सावधान हो एवं स्वप्नों की स्मृति कर अपने पतिदेव के पास आई और देखे हुए स्वप्न का हाल राजा को सुनाया । राजा स्वप्नों का हाल सुन कर बहुत हर्षित हुआ, और मधुर बचनों द्वारा महाराणी से कहने लगा कि आप बड़े ही भाग्यशाली हैं और आपने उत्तम स्वप्न देखे हैं इसके प्रभाव से आपकी कुक्षि से उत्तम पुत्र-रत्न जन्म लेगा इत्यादि । गनीजी ने राजा के शब्द सुन कर बहुत हर्ष मनाया और शेष रात्रि अपनी शय्या में देवगुरु की भक्ति में व्यतीत की । सूर्योदय होते ही गजा गजसभा में श्राकर अपने अनुचरों द्वारा स्वप्न-शास्त्र के जानकार पण्डितों को बुलाए उनका सत्कार कर, राणीजी ने जो स्वप्न देखे थे, जिनका फल पूछा । पण्डितों ने अपने शास्त्रों के आधार पर खूब जांच पड़ताल करके कहा हे राजन् ! महाराणीजी ने बहुत उत्तम स्वप्न देखे हैं, जिससे आपके कुल में केतु समान महा भाग्यशाली पुत्र जन्म लेगा और बड़ा होने पर वह राजाओं का राजा होगा। यदि त्यागवृत्ति धारण करेगा तो संसार का उद्धार करने वाले तीर्थकर होगा। राजा ने पण्डितों को पुष्कल द्रव्य दिया, बाद महाराणीजी के पास जाकर सब हाल कहा जिसको सुनकर महाराणी के हर्ष का पार नहीं रहा। ___महाराणीजी गर्भ का सुखपूर्वक पालन पोषण कर रही थी और जो-जो दोहजा-मनोरथ उत्पन्न होते वे सब राजाजी अच्छी तरह से पूर्ण करते थे और शांति से समय जा रहा था। विक्रम संवत् पूर्व ८२० वर्ष पौष बद १० की रात्रि में माता वामादेवी ने पुत्र को जन्म दिया । उस समय का वायुमंडल स्वभाव से ही स्वच्छ, रम्य और सुगन्धमय बन गया था । दशों दिशा अचेतन होने पर भी फल फूलित हो गई थी। सब प्रह स्वभाव से ही उच्चस्थान पर आ गये । भगवान् के जन्म से दूसरे तो क्या पर नरक जैसे दुःखी जीवों को भी कुछ समय के लिये शांति मिली । भगवान् के जन्म के प्रभाव से छप्पन दिक्कुमारी देवियों के आसन कम्पने लगे, उन्होंने ज्ञान बल से जाना की भारत में तीर्थंकर भगवान् का जन्म हुआ है । अतः हमारा पुराना आचार है कि हम बहां जाकर सूतकी कार्य करें। अतः अपने-अपने स्थान से चल कर छप्पन दिक्कुमारिए माता के पास आई । माता और पुत्र को नमस्कार कर अपने अपने करने योग्य सब कार्य किये। जब देवियां अपना कार्य कर चली गई तब शकेन्द्र का आसन कम्पा और उन्होंने भी अपने ज्ञान बल से भगवान का जन्म हुआ जानकर माता के पास आये और पांच रूप बना कर तथा एक प्रतिबिंब बना कर माता के पास रखा और भगवान् को सुमेरु पर ले गये वहां ६४ इन्द्र और असंख्य देव देवियों ने शामिल होकर बड़े ही समारोह से प्रभु का स्नात्र महोत्सव किया। बाद प्रभु की पूजा कर माता के पास रख दिये और प्रतिबिंब वापस लेकर देव, इन्द्र सब नंदीश्वर द्वीप जाकर वहां के ५२ चैत्यों में अष्टाह्निका महोत्सव कर अपने-अपने स्थान चले गये इति देवकृत महोत्सव । यह सब कार्य रात्रि के समय में ही हुए। सूर्योदय होते ही राजा अश्वसेन स्नान मंजन कर राजसभा में आया और पुत्र-जन्म का खूब ठाटबाट Jain Educati International Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ ] [वि० सं० पू० ८२० महोत्सव किया, जिनमंदिरों में सौ हजार और लक्ष द्रव्य वाली पूजा कराई। तीसरे दिन लोकाचार के अनुसार कुवर को सूर्य चन्द्र के दर्शन कराए, छट्टो दिन रात्रि जागरण, एकादशवें दिन असूची कर्म दूर करके बाहरवें दिन देशोटन अर्थात् ज्ञाति भोज बनवा कर सज्जन संबंधी को भोजन करवा कर पंडितों की सम्मति से नवजात कुंवर का नाम पार्श्वकुंवर रखा । आनंद मंगल के साथ द्वितीया के चन्द्र तथा चम्पकलता की तरह पार्श्वकुं वर वृद्धि पा रहा और माता के मनोरथ को पूरा कर रहा था। बाल क्रीड़ा भी आपकी अलौकिक थी, जब आपकी वय विद्याग्रहण के योग्य हुई तो माता-पिता बड़े ही समारोहमहोत्सव के साथ पार्श्वकुवर को पाठशाला में ले गये । पर बिचारे अध्यापक के पास इतना ज्ञान ही कहां था जो वह पार्श्वकुवर को पढ़ाता । उसने पार्श्वकुवर से कई प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया। कारण जब पार्श्व माता के गर्भ में आया था उस समय मति श्रुति और अवधि ज्ञान अर्थात् तीन ज्ञान साथ में लेकर आए थे जिससे भूत भविष्य एवं वर्तमान की रहस्य छानी बातें भी जान सकें । एक समय का जिक्र है कि बनारसी नगरी के बाहर एक कमठ नाम का तापस आया था और वह लकड़ जलाकर पांचाग्नि तापता हुआ तपस्या कर रहा था, जिस की महिमा नगरी में सर्वत्र फ़ैल गई थी तथा नागरिक लोग पूजापा का सामान लेकर तापस की वन्दन पूजन करने को जा रहे थे जिसको देख कर माता वामादेवी की इच्छा भी तापस के दर्शनार्थ जाने की हुई, साथ में अपने प्यारे पुत्र पार्श्व को भी कहा क्या पार्श्व तू भी मेरे साथ चलेगा ? माता का मन रखने के लिए पार्श्वकुवर भी हस्ती पर सवार हो माता के साथ तापस के पास आए। पर, वहां पाश्र्व कुवर क्या देखता है कि एक जलते हुए बड़े लकड़ के अंदर एक सर्प भी जल रहा था । करुणासागर पाश्व कुंवर को सर्प की अनुकम्पा आई और तापस को कहने लगा कि हे महानुभाव ! आप ऐसा अज्ञान कष्ट क्यों करते हो कि जिसके अंदर पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है ? इस पर तापस क्रोधित होकर बोला- हे राजकुवार ! आप केवल गज अश्व ही खेलना जानते हैं योग एवं तर में आप क्या जानते हैं, व्यर्थ तपसी की छेड़छाड़ करना अच्छा नहीं है । बतलाइये आपने हमारे उत्कृष्ट तप में कौन-सी हिंसा देखी है ? यदि आप सत्य वक्ता हैं तो इस जन-समूह के सामने बतलावें कि हमारे तप में कौन-सी हिंसा है ? इस पर पार्श्वकुवर ने अपने अनुचरोंको हुक्म दिया कि यह बड़ा लकड़ जल रहा है इनको फाड़ तोड़ कर टुकड़े कर डालो ? बस! फिर तो क्या देर थी, अनुचरों ने उस लकड़ को चीर कर दो टुकड़े कर दिये कि अन्दर से तड़फड़ाट करता हुआ व्याकुल हुआ दीर्घकायवाला सर्प जलता हुआ निकला जिसको देख कर सब के दिलों में करुणा के भाव पैदा हुए । अतः तापस की निंदा और पार्श्वकुंवर की प्रशंसा होने लगी जिससे तापस लज्जित होकर मुंह नीचा कर विचार करने लगा कि इतने जन समुदाय में पार्श्वकुवर ने मेरा अपमान किया है, तो मेरी तपस्या का फल हो तो भविष्य में मैं पार्श्वकुंवर को दुःख दे कर अपना बदला लेने वाला होऊं, ऐसा निधान कर लिया। इधर जलता हुआ सर्प मरने की तयारी में था, पार्श्वकुंवर ने उसको अ. सि. आ. उ. सा. मंत्र सुनाया जिससे सर्प के श्रध्वसाय शुभ हुआ वह मर कर धरणेन्द्र नागकुमार जाति का इन्द्र हुआ । तापस भी समयान्तर में मर कर मेघमाल जाति का कमठ देव हुआ । पार्श्वकुवर जब यौवन वय को प्राप्त हुआ तो अश्वसेन ने कुस्थलनगर के राजा प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती के साथ बड़े ही समारोह के साथ पार्श्वकुवर का विवाह कर दिया । इच्छा के न होते हुए भी www.jainer orary.org Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० पू० ८२० ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा के हेतु पार्श्वकुवर संसार में रह कर शुभ कमों को भोगने लगा। शास्त्रकारों ने भी कहा है कि सम्यग्दृष्टि के भोग भी कर्म निज्जरा का हेतु होता है । जिस जीव को निकट भविष्य में मोक्ष जाना है वह शुभ हो या अशुभ हो संचित कर्म को अवश्य भोगवना ही पड़ता है। अतः पार्श्वकुवर भी २९ वर्ष तक संसार में रहा । बाद में लौकान्तिक देव ने आकर प्रार्थना की कि हे ! प्रभू ! लोक में अज्ञान रूपी अन्धकार छा गया है, पाखण्ड का जोर बहुत बढ़ गया है आप श्रीजी दीक्षा लेकर संसार का उद्धार करावे इत्यादि । बस ! पार्श्वकुवर ने उसी दिन से वर्षी दान देना प्रारम्भ कर दिया । दिन प्रति १-८००००० सौनइयों का दान दिया करता था । एक वर्ष में ३८८८०००००० सौनइयां दान में दिया, तत्पश्चात् ६४ इन्द्र और असंख्य देव दीक्षा महोत्सव निमित्त आये तथा मनुष्यों में राजा प्रजा ने भी दीक्षा महोत्सव में शामिल होकर खूब जोरदार महोत्सव किया। फिर वि० सं० पूर्व २७९० वर्ष पौष बद ११ के दिन ३०० नरनारी के साथ पार्श्वकुवर ने संसार त्याग कर, दीक्षा धारण कर ली। महापुरुषों का एक यह भी नियम हुआ करता है कि पहले अपनी आत्मा का सर्व विकास कर ले बाद दूसरों को उपदेश देते हैं । अतः भगवान् पार्श्वनाय ने दीक्षा स्वीकार कर घूमते घूमते एक दिन निर्जन जंगल में श्राकर प्रतिज्ञा पूर्वक ध्यान लगा दिया। इधर कमठ तापस का जीव मर कर मेघमाली देव हुआ था उसने उपयोग लगाया कि मेरा वैरी पार्श्व कहां है, मैं जाकर उससे मेरा बदला लू? मेघमाली ने अपने ज्ञान से पार्श्वनाथ को एक जंगल में ध्यान में खड़ा देखा । देव ने अपना बदला लेने का सुअवसर जान कर पार्श्वनाथ के पास आया और वैक्रय लब्धि से पहले तो जोरों से वायु चलाई, जिससे जंगल के झाड़ तुट तुट कर गिर गये । पर पार्श्व प्रभू थोड़े भी चलायमान नहीं हुए, बाद में धूल की वृष्टि की जिससे प्रभू का शरीर धूल में दब गया । केवल नाक और श्वास ही बची । तदन्तर मसलाधार पानी बरसाया प्रभू की नासिका तक पानी पहुँच गया, पर प्रभू तो अचल मेरु थे, वे धैर्य में अडिग रहे । इस हालत में धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ तो उसने ज्ञान लगा कर देखा तो भगवान् पार्श्वनाथ पर घोर संकट गुजर रहा है अतः धरणेन्द्र और पद्भावती शीघ्र ही प्रभू के पास आए । पद्मावती ने प्रभू को सिर पर ले लिया और धरणेन्द्र ने सहस्रफण बना कर प्रभू पर छत्र कर दिया। बाद में धरणेन्द्र ने ज्ञान लगा कर देखा तो यह नीच कर्म मेघमाली कमठासुर का ज्ञात हुआ शीघ्र ही दुष्ट देव को बुला कर इन्द्र ने खूब फटकारा इस हालत में मेघमाली ने घबराकर, प्रभ के चरणों में सिर झुका कर अपने अपराध की माफी मांगी और अपराध की क्षमा चाहता हुआ अपर्ने स्थान को चला गया । धरणेन्द्र व पद्मावती ने प्रभू की भक्ति नाटक वगैरह करके वह भी स्वस्थान गये । प्रभ की प्रभुता ऐसी थी कि कष्ट देने वाले मेघमाली पर द्वष नहीं धरणेन्द्र-पद्मावती भक्ति नाटक कर पर राग नहीं हा भी है किः "कमठे धरणेन्द्र च स्वोचितं कर्म कुर्वति, प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः।" भगवान पार्श्वनाथ दीक्षा के दिन से लगा कर ८२ दिन तक देव मनुष्य तिर्यंच के अनुकूल प्रतिकूल जितने उपसर्ग परिसह हुए उन सब को समभाव से सहन किये और पूर्व संचित घाती कर्म । उनको निर्जरा कर डाली । जब ८३ वां दिन वर्त रहा था तब शुक्ल ध्यान की उच्चश्रेणी और शुभ अध्वशार Jain Educan International Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ ] [वि० सं० पू० ८२० से केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया जिससे सकल लोकालोक के चराचर एवं दश्यादृश्य सर्व पदार्थों को हस्तामल की तरह जानने देखने लग गये, उस समय ६४ इन्द्र एवं देवादि भगवान् के केवल कल्याण करने को साधु ये रजत सुवर्ण और मणिरत्न मय तीन गढ़ वाला समवसरण की रचना की जिस पर प्रभू बिराजमान होकर देव, मनुष्य, तिच अपनी-अपनी भाषा में समझ सके ऐसी अमृतमय देशना दी और यह बतलाया कि संसार असार है, कुटुम्ब कारमो स्वार्थी है, यौवन संध्या के रंग के समान है, सम्पत्ति कुंजर का कान समान, शरीर क्षण भंगुर और आयु अस्थिर है यदि आप लोगों को जन्म मरण के दुःखों से छूटना है तो धर्म एवं श्रावक धर्म की आराधना करो इत्यादि वैराग्यमय देशना सुनकर कई लोग तो संसार का त्याग कर दीक्षा ली कइयों ने श्रावक व्रत और कइयों ने समकित धारण की। इस प्रकार भगवान् पार्श्व - | ने ७० वर्ष तक केवलावस्था में विहार कर संसार का उद्धार किया। अनेक महानुभावों ने प्रभु के चरण कमलों में दीक्षा ली जिसमें १६००० महामुनिराज लब्धिसम्पन्न उत्तम ग्रंथों के रचने वाले मुनि तथा ३८००० विदुषी साध्वियां १६४००० उत्कृष्ट व्रतधारी श्रावक ३३९००० श्राविकाएं और असंख्य लोग जैन धर्म को पालन करने वाले हुए थे । नाथ भगवान् पाश्वनाथ जैनधर्म का प्रचार बढ़ाते हुए अपनी १०० वर्ष की पूरी आयु खत्म कर वि० सं० पू० ७२० श्रावण शुक्ला ८ के दिन सम्मेत शिखर पहाड़ पर अनशन पूर्वक नाशवान शरीर का त्याग कर मोक्ष पधार गये । इनके पूर्व भी १९ तीर्थकरों ने इसी स्थान पर मोक्ष प्राप्त किया था। जब भगवान् पार्श्वनाथ का निर्वाण हो गया तो चतुर्विध संघ निरुत्साही बन गया और ६४ इन्द्र तथा असंख्य देव भी निरुत्साही होते हुए भी भगवान् का निर्वाण कल्याण किया और आपके पट्ट पर गणधर शुभदत्त को स्थापित कर उनकी आज्ञा में चतुर्विध श्रीसंघ अपना कल्याण कार्य संपादन करने लगा इति पार्श्व चरित्र ।" कई पाश्चात्य विद्वान् लोग भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते थे। पर अनेक प्रमाण उपलब्ध हुए तब विद्वानों ने यह उद्घोषणा कर दी कि भगवान् पार्श्वनाथ एवं भगवान् महावीर काल्पनिक नहीं पर ऐतिहासिक पुरुष हैं । उन विद्वानों के कतिपय ग्रन्थों के नाम उल्लेख कर दिये जाते हैं : 1 Stevenson (Rev.) Kalpa-Sutra, Int, P. XII 2. Lassen Indian Antiquary II P. 261, 3. Jacobi, Sacred Books of the East, YIP. P. XX1, 4. Belvalkar, The Brahma Sutras P. 106, 5. Charpentier, Cambridge History of India I, P. 153, 6. Guerinot. Bibliographie Jaina Int. P. XI, 7. Frazer, Literary History of India P. 128, 8. Elliet, Hinduism and Budhism I, P. 110, 9. Poussin, The way of Nirvana. P. 67, 10. Dutt, op., cit, P. 11, 11. Colebrooke, op., cit, II P. 317, 12. Thomas (Edward), op., cit, P. 6, 13. Wilson, op., cit, I P. 334, 14. Dasgupta, op., cit, P. 173, 15. Radha Krishna, op, cit, P. 281, 16. Mazumdar, op, cit, P. 281, 17. Stevenson (Rev. ) op., and loc, cit www.jainelitary.org Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० [सं० पू० ७२० ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर गणधर शुभदत्ताचार्य आचार्यः शुभदत्त देवगणभृत् पट्टस्य तस्थौ सुधीः । तेजस्वी शतयोधतुल्य विजयी श्रीद्वादशाङ्गी रणे ॥ वीरो जैनमतोन्नतौ स सुकृतिश्च क्रेतु यत्नं महान् । गातुं तस्य गुणान् शुभान् सुरगुरुः शक्तो भवेद्वा न वा ॥ भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर गणधर भगवान् शुभदसाचार्य हुए। आप भगवान पार्श्वनाथ के हस्त दीक्षित गणधरों में मुख्य थे । यद्यपि कल्पसूत्र में भगवान् पार्श्वनाथ के आठ गणधर कहे हैं पर आवश्यकवृत्ति आदि में दस गणधर होना लिखा है, शायद दस गणधरों में से दो गणधर अल्पायु वाले हों और उनका मोक्ष हो जाने से कल्पसूत्रकार ने आठ गणधर ही लिख दिया हो तो उपरोक्त अपेक्षा से उनका लिखना ठीक ही है। प्राचीन समय से एक यह भी कहावत चली आई है कि वर्तमान २४ तीर्थकरों के १४५२ गणधर हुए हैं एवं मंदिरों में १४५२ गणधरों की पादुकाएं स्थापित की हुई दृष्टिगोचर भी होती हैं। जब कि १४५२ की संख्या भगवान् पार्श्वनाथ के १० गणधर माने जा ' तब ही मेल सकती है, इससे भी यही पाया जाता है कि भगवान् पार्श्वनाथ के दश गणधर हुए थे । गणधर शुभदत्ताचार्य महान तेजस्वी प्रखर प्रभाविक द्वादशाङ्गी के रचयिता जिन नहीं पर जिन तुल्य सोपयोग सकल चराचर एवं दृश्यादृश्य पदार्थों को हस्तामल की तरह जानने देखने वाले शासन भारवाहक एक धुरंधर आचार्य हुए । धर्म प्रचार करने में तो आप विजयी सुभट की तरह सदैव तत्पर रहते थे । शासन का संचालन करने में तो आप चतुर मुत्सद्दी का काम कर बतलाते थे । आपश्री की नायकत्व में चतुर्विध श्रीसंघ सुख और शांति से आत्मकल्याण सम्पादन किया करते थे । वादियों पर तो पहले से हो आपकी पक्की धाक जमी हुई थी कि आपका नाम सुन कर वे कोसों दूर भागते थे । यज्ञ वादियों के अखाड़े निर्मूल कर दिये थे । हिंसा जैसी राक्षसी निष्ठुर प्रथा निस्तेज बन गई थी । अहिंसा का सर्वत्र प्रचार हो गया था । बहुत से राजा प्रजा जैन धर्म को स्वीकार कर अपने-अपने राज्य में अहिंसा का प्रचार जोर से कर रहे थे । आपके आज्ञावर्ती हजारों साधु साध्वियां भारत के अनेक प्रान्तों में जैन धर्म का प्रचार कर रहे थे अर्थात् आप श्री के शुभ प्रयत्नों से जैन धर्म उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच गया या एवं जैन धर्म एक विश्व का धर्म बन चुका था । ६ २ ॥ गणधर शुभदत्ताचार्य ने ज्ञान, ध्यान, तप, संयम की आराधना करते हुए घाती कर्मों को जड़मूल से नष्ट कर दिया, जिससे आपको कैवल्यज्ञान, कैवल्य दर्शन प्राप्त हो गया, जिससे श्राप लोकालोक के सर्व भावों को हस्तामल की भांति देखने, जानने लग गये । आपके जीवन के लिये मनुष्य तो क्या पर वृहस्पति जैसे देव भी कहने में असमर्थ हैं । आपने कैवल्यावस्था में भी सर्वत्र बिहार कर संसार का उद्धार किया है । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर शुभदत्ताचार्य ] [वि० पू० ७२० वर्ष एक समय की जिक्र है कि गणधर शुभदत्ताचार्य के हस्तदीक्षित मुनिवरदत्त ५०० शिष्यों के साथ विहार करते हुए जंगल में जा रहे थे पर सूर्य अस्त हो जाने से उनके सब साधुओं को जंगल में ही ठहर जानो पड़ा । जब वे अपनी आवश्यक क्रिया करके ज्ञान ध्यान में स्थित थेतो वहाँ कई चोर आ निकले और उन्होंने भी रात्रि में वहीं विश्राम लिया। चोरों का इरादा था कि इन साधुओं के पास कुछ माल हो तो छीन लिया जाय । जब रात्रि में वे चोर मुनियों के पास आये तो मुनियों के पास ज्ञान एवं धर्मोपदेश के अलावा था ही क्या,उन चोरों को उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया मुनियों के उपदेश में न जाने क्या जादू भरा हुआ था कि चोर अशुभ कृत्यों से नरक के दुःखों को सुन कर एकदम संसार से भय भ्रान्त होकर सोचने लगे कि आहा-हाइन महात्मा का कहना सत्य है, एक मनुष्य अकृत्य करके द्रव्य उपार्जन करता है उसके खाने वाला तो सब कुटुम्ब है पर भवान्तर में दुःख जो पाप करता है उस एक मनुष्यको ही सहन करना पड़ता है अतः उन्हों के अन्दर मुख्य चोर जो हरिदत्त नामका राजपुत्र था उसने मुनियों से पूछा कि इसका कोई ऐसा उपाय है कि हम लोग इस बुरे कृत्य से छुट जावें और पहिले किये हुये पाप से मुक्त हो जावें ? मुनि ने कहा कि भव्य ! इसका सीधा और सरल यही उपाय है कि आप भगवती जैनदीक्षा की शरण लें कि नये कम बन्ध हो जायं और पूर्व किये कर्मों का नाश हो जाय इत्यादि इनके अलावा कोई दूसरा मार्ग ही नहीं है बस उन चोरों ने मुनियों के पास दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया, अतः उन्हीं ५०० चोरों ने सूर्योदय होते ही मुनियों के चरण कमल में भगवती जैनदीक्षा ग्रहण कर वे अपनी आत्मा के कल्याण में लग गये । अहाहा ! जैन मुनियों की संगत का शुभफल कि अधम्म से अधम्म कार्य करने वाले भी मुनियों की क्षणिक सत्संग से अपना कल्याण कर सकते हैं। मुनिवरदत्त उन हरिदत्तादि ५०० चोरों को दीक्षा देकर क्रमशः विहार करते हुए गणधर शुभदत्ताचार्य के चरण कमलों में आये और उन नूतन मुनियों को देख गणधरश्री ने वरदत्त एवं नूतन मुनियों की खूब प्रशंसा की। इस प्रकार गणधर भगवान् की समुदाय में ऐसे अनेकानेक रत्न थे जैसे समुद्र में अमूल्य रत्न होते हैं और वे महात्मा स्वकल्याण के साथ पर कल्याण करने में सदैव तत्पर रहते थे। सत्य कहा है कि "सरवर तरुवर सन्त जन, चौथा कहिये मेह । परोपकार के कारणे चारों धारी देह ।" इस प्रकार गणधर शुभदत्ताचार्य चिरकाल तक शासन की सेवा एवं उन्नति कर अन्त में मुनि हरिदत्त को अपना उत्तराधिकारी बना कर आप अनशन एवं समाधिपूर्वक मोक्ष पधार गये । भगवान पारस पट्टपर गणधर श्रीशुभदत्त हुए, जो द्वादशांगी ज्ञान के विस्तार में समर्थ हुए । उनकी विमल वर ज्योति से आलोकमय संसार था, जैनधर्म के थे सूर्य वे उनके न यश का पार था। विजयी सुभट सम वीर थे उनका चरित्र महानथा, पा सके नहीं थाह वृहस्पति गंभीर उनका ज्ञान था। इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर गणधर शुभदत्ताचार्य हुए। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ६९६ वर्ष ] ग्रा [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २ - प्राचार्य हरिदत्त सूरि आचार्यो हरिदत्तमूरि रथ तं पट्टेऽनुयातो बहु- । तेजस्वी निजधर्मवृद्धिनिरतः निष्णात बुद्धिर्गुरुः || सावत्थी नगरी स्थितो जिनमते लौहित्यकं दीक्षयन् । शिष्यानेक सहस्रकान् प्रहितवान् यस्तान् महाराष्ट्रके ॥ चार्य हरिदत्तसूरि - आप भी द्वादशाङ्गी एवं चतुर्दशपूर्व के पूर्णज्ञाता एवं प्रखर पण्डित थे । ऋद्धि-सिद्धि और विद्या लब्धियों के तो आप खजाने ही कहलाते थे । धर्मप्रचार करने में आप एक मशीनगिरी का ही काम किया करते थे । वाद और शास्त्रार्थ में श्राप सदैव विजयी होकर वादियों को नतमस्तक कर डालते थे । श्रापकी आज्ञा में हजारों साधु साध्वियां एवं लाखों करोड़ों श्रावक श्राविकायें मोक्षमार्ग का आराधन किया करते थे । यज्ञ में होने वाले बलिदान ने आपका चित्त आकर्षित किया । प्राणिमात्र की हित कामना के उद्देश्य से हिंसा को धर्म का रूप देने वाले उन कर्मकाडियों को आपने हिंसा तत्व का उपदेश कर जीव मात्र को अभयदान दिलाया । अहिंसा के प्रचार में संलग्न सूरीश्वरजी के हृदय की करुणा ने हिंसा पर विजय प्राप्त की । श्रापके सफल शासन में धर्म और नीति के पहिये वाले समाज रथ का सुचारु रूप से संचालन समस्त संसार को उन्नति के शिखर पर पहुँचा रहा था । श्राचार्य हरिदत्तसूर अपने शिष्य समुदाय के साथ भ्रमण करते हुये एक बार सावत्थी नगरी के उद्यान में पधारे। वह समय जनता के लिये बड़े ही सौभाग्य का था । राजा अदीनशत्रु आदि जनमेदनी सूरिजी के स्वागत - दर्शन एवं वन्दनार्थ उमड़ पड़ी । आपके उपदेशामृत से सब लोग मंत्रमुग्ध बन गये थे । और हिंसा परमोधर्म की ओर उनकी विशेषाभिरुचि जागृति हुई । Jain Educatio International उसी समय सारथी नगरी में एक लोहित्याचार्य नामक यज्ञप्रचारक अपने १००० शिष्यों के साथ आया हुआ था और वह अपने सिद्धान्त एवं यज्ञकर्म का जोर से प्रचार भी करता था । एक स्थान में दो धर्म के समर्थ प्रचारक एकत्र हो जांय तो धर्मवाद खड़ा होना एक स्वाभाविक बात थी । चाहे अप्रेसर लोग इन बातों को नहीं भी चाहते हों पर साधारण जनता का तो यह एक व्यवसाय ही बन जाता है । और आखिर वह वाद उग्र रूप धारण कर असरों को मत - ममत्व के अन्दर विवश बना ही देते हैं। यही हाल सावत्यी नगरी के अन्दर दोनों ओर का हो रहा था । लोहित्याचार्य केवल विद्वान ही नहीं पर सत्यप्रिय भी था । अतः राजा श्रदीनशत्रु की राजसभा में दोनों श्राचार्यों का बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ । लोहित्याचार्य का पक्ष यज्ञधर्म का था और इसमें जो पशुबलि श्रादि हिंसा होती है वह हिंसा नहीं 'वैदिक हिंसा न हिंसा भवति' अर्थात यज्ञादि में जो हिंसा होती है वह हिंसा अहिंसा ही समझी जाती है और इसमें पशुओं की मुक्ति, संसार की शान्ति और धर्म का उत्कर्ष होता है इत्यादि लाभ बतलाया जाता था । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिदत्तसूरि का जीवन ] [वि० पू० ६९६ वर्षे प्राचार्य हरिदत्तसूरि का पक्ष अहिंसा परमोधर्म का था। उन्होंने प्रतिवाद में ऐसे अकाट्य प्रमाण पेश करते हुये प्रियवचनों से समझाया कि आप विचार कर सकते हो कि यदि हिंसा से ही जीवों की मुक्ति एवं शान्ति हो सकती हो तो फिर तो 'अहिंसा परमो धर्मः' यह शास्त्र वाक्य निरर्थक ही साबित होगा और जो शास्त्रों में अहिंसा का उच्च आदर्श बतलाया है उन सब को अप्रमाणिक ही समझना होगा इत्यादि । आचार्य श्री के शान्तिमय प्रमाणों ने लोहित्य की अन्तरात्मा पर खूब गहरा प्रभाव डाला। बस फिरतो था ही क्या, मुमुक्षुओं को सत्य का भास होते ही वे असत्य को त्याग सत्य ग्रहण कर लेते हैं यही हाल लोहित्य का हुआ। उसने हिंसा को त्याग कर अहिंसा भगवती के चरणों में शिर झुका दिया। यह हिंसा पर अहिंसा की पूर्ण विजय थी। अहिंसा का जयनाद हुआ। उपस्थित राजा महाराजा एवं नागरिकों पर अहिंसा का खूब प्रभाव हुश्रा और लोहित्य के साथ अहिंसामय जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा ग्रहण कर वे भी जैन धर्म के उपासक बन गये। ___ लोहिताचार्य ने अपने हजार साधुओं के साथ आचार्य हरिदत्तसूरि के चरण कमलों में जैन दीक्षा लेने के पश्चात् जैनधर्म के शास्त्रों का गहरा अध्ययन कर लिया। तदनन्तर आपने निश्चय करलिया कि मैंने जैसे हिंसाधर्म का प्रचार किया था वैसे ही अब हिंसा का उन्मूलन कर अहिंसा का प्रचार करूँगा । जब प्राचार्य हरिदत्त ने लोहित्य की योग्यता देखी तो उसको गणि पद से विभूषित कर उनके १००० साधुओं को साथ दे महाराष्ट्र प्रान्त में विहार करने की आज्ञा फरमा दी । क्यों कि उस प्रान्त में यज्ञवादियों का खूब जोर जमा हुआ था और न वहाँ किसी अहिंसा प्रचारक का जाना ही होता था । यदि कोई साधारण व्यक्ति चला भी जाय तो उन हिंसा प्रचारकों के साम्राज्य में वह अधिक समय जीवित भी नहीं रह सकत, था। अतः आचार्यश्री ने लोहित्य को इस कार्य के लिए सर्वगुण सम्पन्न जान कर ही आज्ञा दे दी थी । इतना ही क्यों पर उन आगम विहारी भविष्यवेत्ता ने भविष्य का महान लाभ जान कर ही इस कार्य के लिए प्रयत्न किया था और आगे चल कर उन महर्षि हरिदत्तसूरि का प्रयत्न सफल भी हुआ जिसको श्राप आगे चल कर पढ़ ही लेंगे। गणिवर लोहित्याचार्य बड़े ही उत्साह के साथ गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर अपने सहस्र शिष्यों को साथ लेकर क्रमशः भ्रमण करते हुये अपने निर्देश स्थान अर्थात् महाराष्ट्रीय प्रान्त में पदार्पण कर अपना प्रचार कार्य प्रारम्भ कर दिया। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन हिंसक पाखण्डियों के साम्राज्य में इन अहिंसा के पुजारी को किस किस प्रकार कठनाइयों का सामना करना पड़ा था ? उन निष्ठुर हृदयी दैत्यों ने जैन साधुओं को जान से मार डालने के अनेकों प्रयत्न करने में भी कुछ उठा नहीं रक्खा था । पर आखिर अहिंसा भगवती के चरणों में उन हिंसकों को शिर मुकाना ही पड़ा और गणिवर लोहित्य को अपने कार्य में आशातीत सफलता प्राप्त होती ही गई वह भी साधारण व्यक्तियों में नहीं पर अनेक गजा महाराजा अहिंसा के पुजारी बन गये अर्थात् जैन धर्म के अनुयायी बन कर लोहिय के कार्य में सहायक भी बन गये । फिर तो था ही क्या, लोहित्य ने जैनधर्म की नींव सुदृढ़-मजबूत बनाने में मेदनी जिनालयों से मंडित बना दी । वहाँ के श्रीसंघ ने लोहित्य की योग्यता पर मुग्ध बन उनको सूरिपद से विभूषित किया जो उस समय उस प्रान्त में इस पद की परमावश्यकता थी। इस विषय के जैनसाहित्य में अनेक प्रमाण विस्तृत संख्या में मिलते १तत्पट्टे सरिराचार्य, हरिदत्तःसुधीःस्थितः, स्वस्त्याख्यायांनगर्याञ्चसर्वशास्त्रविशारदम् । जित्वा लौहित्याचार्य, शास्त्रार्थ शास्त्रवित्तमः, सहस्रछत्रयुक्तं तं, दीक्षयामासजैनधे ॥ उपकेशगच्छचरित्र Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ६९६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हैं, इतना ही क्यों पर आज की शोध खोज से भी महाराष्ट्रप्रान्त में जैनधर्म के प्रचार के लिये यत्र तत्र कई प्रमाण मिलते हैं उससे भी साबित होता है कि आचार्य भद्रबाहु के पूर्व महाराष्ट्र में जैनधर्म का काफी प्रचार था। आचार्य लोहित्य ने उस सूरि पद को केवल खजाने में अमानत ही नहीं रख छोड़ा था पर उसको चिरस्थायी बनाने का जबर्दस्त प्रयत्न किया था । आपने अनेक स्थानों एवं राजसभाओं में यज्ञवादियों एवं हिंसाप्रचारकों के साथ शास्त्रार्थ कर विजय का डंका बजाया था । पशु-बलि और अत्याचार को उन्मूल कर असंख्य मूक प्राणियों को अभयदान दिलवाया था । अनेक भद्रिक जो मिथ्यात्व सेवन कर नरकाभिमुख हो रहे थे उनको सदुपदेश देकर समझाया अर्थात् उनको मोक्ष एवं स्वर्ग का अधिकारी बनाया इत्यादि । लोहित्याचार्य ने अपने यश को उषा को लाली से लोहित कर दिया जो प्रातःकाल होते ही कृतज्ञ प्राणी के हृदय में उनकी पुन्य स्मृति को जागृति रखती है । अन्त में लोहिताचार्य केवलज्ञान प्राप्त करअपनी अन्तिम अवस्था में मुनि देवभद्रा को अपना पदाधिकार देकर आप अनशन एवं समाधि के साथ इस नाशवान शरीर को त्याग कर मोक्ष पधार गये । इन लोहित्याचार्य की संतान महाराष्ट्रप्रान्त में भ्रमण करती हुई लोहित्य शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इधर आचार्य हरिदत्तसूरि ने अपना बिहारक्षेत्र इतना विशाल बना दिया कि अंग बंग पंचाल कलिंग और हिमालय तक आप स्वयं तया अपने साधुओं को भेज भेज कर धर्म का खूब ही प्रचार बढ़ाया अन्त में आपने मुनि आर्यसमुद्र को सूरि बना कर व्यवहारगिरि पर्वत पर समाधि मरण कर अक्षय स्थान पर कब्जा कर लिया । हरिदत्तसूरि की संतान पूर्व भारत में रही वह निर्ग्रन्थ शाखा कहलाई । पट्टधर उनके हुए आचार्य हरिदत्तमूरिवर । अद्भुत प्रतिभा अकलुष सदय जिन धर्म की आभा प्रखर ॥ वे धर्म का विस्तार कर विख्यात शासन कर हुए। सावत्थी नगरी मध्य जो शास्त्रार्थ में उद्धर हुए ॥ एक सहस्र शिष्यों सहित लोहित्य को दीक्षित किए। फहरा ध्वजा महाराष्ट्र को जैनधर्म से भूषित किए ॥ इति भगवान पार्श्वनाथ के पट्टपर प्राचार्य हरिदत्तसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुए । ॐ इतिहास की शोध खोज से पता मिलता है कि महाराष्ट्रप्रान्त के साहित्य निर्माण के लिये एक संघ कायम किया गया था। उसका उद्देश्य था कि प्रमाणित साहित्य जनता के सामने रक्खे । इस संघ का समय ईसवी सन् की पहली शताब्दी का था, ऐसा विद्वानों का मत है । उसी समय का तिरुवल्लुर नामक तामिल जैन साधु का बनाया हुआ एक कुरल नामकाउत्कृष्ट काव्य मिलता है । यह साधु जैन ही था। नीलकेशी की टीका में इस काव्य को जैन शास्त्र होना स्पष्ट शब्दों में कहा गया है । इस ऐतिहासिक साहित्य से भी यही सिद्ध होता है कि ईसवी सन् के आरम्भ में महा. Jain Educatinternational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिदत्तमरि का जीवन ] [वि० पू० ६९६ वर्ष राष्ट्रप्रान्त में जैनश्रमणों का अस्तित्व ही नहीं वरन् तामिल भाषा के ग्रन्थ निर्माण करने वाले मौजूद थे। इससे अनुमान किया जा सकता है कि इस समय के पूर्व भी उस प्रान्त में जैन धर्म प्रचलित होगा। डॉ. फ्रेजरसाहिब ने अपने इतिहास में लिखा है कि यह जैनियों के ही प्रयत्न का सुंदर फल है कि दक्षिण भारत में नया आदर्श, साहित्य, आचार-विचार एवं नूतन भाषा शैली प्रगट हुई ।" इस घटना के लिये विश्वसनीय एवं ऐतिहासिक प्रमाण जैसा चाहिये वैसा मेरे जानने में अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। इसका यही कारण है कि यह घटना अति प्राचीन अर्थात् भगवान् महावीर के १५० वर्ष पूर्व की एवं विक्रमी ६२० वर्ष पूर्व की है। फिर भी एक प्रमाण ऐसा मिलता है कि पूर्वोक्त घटना का होना सम्भव हो सकता है। दिगम्बर मतानुसार आचार्य भद्रबाहु अपने १२००० शिष्यों के साथ दुष्काल के समय महाराष्ट्र प्रान्त में पधारे थे और उन्होंने वहाँ के जिनालयों की यात्रा भी की थी। अतः भद्रबाहु के पूर्व वहाँ जैनधर्म होना सिद्ध होता है। प्रोफेसर ए. चक्रवर्ती का अनुमान है कि यदि भद्रबाहु के पूर्व दक्षिण भारत में जैनधर्म का प्रचार न होता तो दुर्भिक्ष के समय यकायक १२००० शिष्यों के साथ भद्रबाहु दक्षिण में जाने का साहस न करते, वरन् उनको अपने अनुयायियों द्वारा शुभागमन किये जाने का विश्वास था । इसी से वे दक्षिण में जाकर ठहर सके। एक और भी प्रबल प्रमाण है कि सिंहलद्वीप के इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला महावंश नामका एक पाली भाषा का ग्रन्थ है जिसे धेनुसेन नामक एक बौद्ध भिक्षु ने लिखा है । इस ग्रन्थ का निर्माण काल ईसवी सन् की पांचवी शताब्दी का अनुमान किया जाता है । इस ग्रंथ में ईसा के ५४३ वर्ष पूर्व से लगा कर ३०१ वर्ष तक का वर्णन है । इसमें वर्णित घटनायें सिंहलद्वीप के इतिहास के लिये यथेष्ठ प्रमाणित मानी जाती हैं। इसमें सिंहलद्वीप के नरेश 'पनुगानय के वर्णन में कहा गया है कि उन्होंने लगभग ४३७ ईसा पूर्व अपनी राजधानी अनुराधपुर में स्थापित की और वहाँ निर्ग्रन्थ मुनियों के लिये एक गिरि नामक स्थान बनाया । निर्ग्रन्थ कुम्बन्ध के लिये राजा ने एक मन्दिर भी निर्माण कराया जो उक्त मुनि के नाम से विख्यात हुआ इत्यादि । एक विधर्मी अर्थात् स्पर्धा करने वाला धर्म का भिक्षु इस प्रकार प्राचीन इतिहास लिखता है, जिससे ईसा की पांचवीं शताब्दी पूर्व अर्थात् भद्रबाहु की यात्रा के समय से दो सौ वर्ष पूर्व महाराष्ट्र में जैन मुनियों का भ्रमण और राजा महाराजाओं का उनके उपासक होना सिद्ध होता है । अतएव महाराष्ट्र प्रान्त में लोहित्याचार्य द्वारा जैनधर्म की नीव डालना जैनपट्टावल्यादि ग्रन्थों में लिखा हुआ मिलता है वह पूर्वोक्त प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणों से साबित हो सकता है। + लोहित्याचार्य के पट्ट पर देवभद्राचार्य देवभद्र के पट पर गुणभद्राचार्य हुए । आचार्य श्रीकेशीश्रमण के बुलाने पर गुणमद्राचार्ग अपने बहुत शिष्यों के साथ केशीश्रमण के पास आ गये-और शेष साधु महाराष्ट्रप्रान्त में रहे थे उनकी परम्परा कहां तक चली होगी पर भद्रबाहु के समय तो वे महाराष्ट्र में विद्यमान थे। www. ११brary.org Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ६२६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३-प्राचार्य समुद्रसूरि आचार्यस्य समुद्रसूरि सुमते कान्त्याः प्रभावो महान् । जातो यश्च बहून् नृपेन्द्र मुकुटान् संदीक्ष्य जैने मते । उज्जैन्याः जयसैन नाम नृपतिं तस्यैव पत्नी पुनः, पुत्रं केशिकुमार नाम सहितं तेने च जैन प्रभाम् ॥ tone ...... चार्य समुद्रसूरि-आप श्रीमान् आचार्य हरिदत्त सूरि के हस्त दीक्षित और आपके उत्तराधिकारी थे । आप चतुर्दशपूर्व के परमज्ञाता थे । सूरि पद के योग्य सर्वगुणसम्पन्न थे : आपके उन्नतिशील जीवन के विषय में अधिक लिखना मानो सूर्य को चिराग दिखाना है कारण कि आपकी प्रतिभा का प्रभाव प्राणीमात्र के हृदय कमल में उच्च स्थान पाये हुए था । क्यों कि आपने अनेक कठिनाइयों को सहन करके यज्ञवादियों के निष्ठुर आचरण को रोक प्राणीमात्र को अभयदान दिलवा कर अहिंसा का साम्राज्य स्थापित करवा दिया था। श्रापके उपदेश का असर केवल साधारण जीवों पर ही नहीं पर बड़े बड़े राजा महाराजाओं पर भी हुआ करता था । यही कारण है कि आपने अनेक राजाओं को जैनधर्म की शिक्षा-दीक्षा देकर अहिंसा देवी के उपासक बनाये थे ! आचार्य समुद्रसूरि के समय एक विकट समस्या थी। आपका जीवन संघर्षमय था। पशुहिंसकों की अनेक व ठिनाइयों का आपको सामना करना पड़ा था फिर भी इस अहिंसा के पुजारी ने अपनी सद् - वृतियों और सत्य के नाद से अत्याचार और चिरकाल की कुरूढ़ियों का उन्मूलन कर ऊंच-नीच के जहरीले भेद-भावों को मिटाकर समभाव का साम्राज्य स्थापित करने में आशातीत सफलता प्राप्त करली थी अर्थात आपका विजय झंडा चारों ओर फहरा रहा था । आपके आज्ञावृति हजारों दिगविजयी साधु चारों ओर घूम घूम कर जैनधर्म के प्रचार को तेज रफ्तार से बढ़ा रहे थे। आपके शासनवृति एक महाप्रभावशाली विदेशी नामक मुनि थे वे एक समय कई ५०० मुनियों के साथ विहार करते हुये क्रमशः श्रावन्ती (उज्जैन) नगरी के उद्यान में आ निकले ! जब राजा प्रजा को इस बात की खबर मिली तो वे बड़े ही समारोह के साथ मुनिवर्य को वन्दन करने को आये । जिसमें आवन्ती नगर का अधिपति राजा जयसैन उनकी पट्टानी अनंगसुन्दरी तथा आपका लौतासा पुत्र केशीकुमार भी साथ में थे । सब लोग मुनिप्रवर को वन्दन कर यथास्थान बैठ गये और उपदेश श्रवण की जिज्ञासा कर रहे थे। अतः मुनिवर्य ने अपना कर्त्तव्य जान कर जनता के कल्याणार्थ भववारणी धर्मदेशना दी जिसमें संसार की असारता सम्पत्ति की चंचलता, आयुष्य की अस्थिरता, कुटुम्ब की स्वार्थता और मनुष्य जन्मादि सामग्री की दुर्लभता का इस प्रकार व्याख्यान दिया कि श्रोताजन श्रवण कर मंत्रमुग्ध हो गये और कई लोगों की भावना संसार से विरक्त हो अपने कल्याण की ओर जागृत हो गई। जब व्याख्यान खत्म हुआ तो सब लोग मुनिवर को वन्दन कर चलने लगे परन्तु राजकुमार केशी वहाँ Jain Educ International Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य समुद्रसरि का जीवन [वि० पू० ६२६ वर्ष ठहर गया और मुनि के सामने टकटकी लगा कर देखने में इतना मस्त बन गया कि अपने माता पिता के वहां से रवाना होने की भी उसको सुधि न रही। तब सब लोगों के चले जाने पर केवल एक तेजस्वी बालक को बैठा हुआ देख कर एक मुनि ने उसको सम्बोधन कर कहा कुमार ! क्या ध्यान लगा रहा है ? कुमार-गुरुवर्य ! यह क्या कारण है कि मैं आपकी ओर देखता हूँ तो मेरे हृदय में एक प्रेम का समुद्र ही उमड़ उठता है कि जिसको में वाणी द्वारा कह भी नहीं सकता हूँ। मुनि अपने ज्ञान में उपयोग देकर कुमार को जवाब दिया कि हे भव्य ! तुमने पूर्व भव में भगवती जैनदीक्षा का अाराधन किया है अतः तुमको दीक्षितों पर धर्म स्नेह होता है और ऐसा होना स्वभाविक भी है अतएव तुमको प्रेम का अनुभव हो रहा है यह पूर्वजन्म का ही संस्कार है। कुमार-हे प्रभो ! क्या मैंने सचमुच ही पूर्व भव में दीक्षा ग्रहण कर उसका पालन किया था ? यदि ऐसा ही है तो कृपया मेरा पूर्वभव सुनाइये ? कारण, आप ज्ञानी हैं। मुनि ने कहा कि हे कुमार ! सुन मैं तुझे पूर्वभव सुनाता हूँ। इसी भारत के वक्षस्थल पर धनपुर नाम का नगर था वहां पृथ्विीधर राजा और उसके सौभाग्यवती देवी थी। जिसकी कुक्ष से सात पुत्रियों के बाद एक कुमार ने जन्म लिया जिसका नाम देवदत्त रक्खा था। उस देवदत्त ने बाल्यावस्था में ही गुणभूषण आचार्य के पास जैनदीक्षा धारण कर चिरकाल दीक्षा का आराधन किया। अन्त में समाधिपूर्वक काल कर पांचवॉ ब्रह्म नामक स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और वहां से चव कर तू यहां राजकुमार हुआ, अतः दीक्षा एवं दीक्षितों पर अनुराग होना स्वाभाविक है । - कुमार-मुनि से अपना पूर्वभव सुन कर इहापह लगाया तो क्षण भर में उसको जाति-स्मरण ज्ञानोत्पन्न हो आया, जिससे जैसे मुनि ने कहा उसने प्रत्यक्ष में अपना पूर्वभव देख लिया। फिर तो ज्ञानियों के लिये देर हो क्या थी ? उसको संसार कारागृह जैसा मालूम होने लगा और मुनिवर्य से प्रार्थना की कि हे प्रभो! आप यहाँ ही विराजें, मैं अपने माता पिता की आज्ञा लेकर आता हूँ और आपकी शरण में दीक्षा लूंगा। मुनि ने कहा जहाँ सुखम् । पर धर्म कार्य में विलम्ब नहीं करना । राजपुत्र केशीकुमार उन मुनियों को वन्दन नमस्कार कर वहाँ से चल कर सीधा ही अपने माता पिता के पास आया और उनको अपने विचारों को सुना कर दीक्षा की आज्ञा मांगी । पर इस प्रकार एक छोटा सा बच्चा दीक्षा में क्या समझे, अतः उन्होंने कुमार का कहना हँसी में गुजार दिया; पर जब कुमार ने अपने अनुभव एवं संसार की असारता और दीक्षा की उपादेयता के विषय में ठोस शब्दों में कहा तो माता पिता ने जाना कि केशी की बात हँसी की नहों पर सचमुच दीक्षा की है । कुमार को बहुत समझाया पर आखिर कुमार की दीक्षा का प्रभाव उल्टा राजा रानी पर इस कदर हुआ कि उन्होंने स्वयं अपने बड़े पुत्र को राज सौंप कर अपने प्यारे पुत्र के साथ मुनि विदेशी के चरण कमलों में दीक्षा लेने की तैयारी कर ली। फिर तो था ही क्या ? नगर भर में इस बात की खूब हलचल मच गई और कई ५०० मुमुक्षु केशीकुमार का अनुमोदन कर दीक्षा के लिये तैयार हो गये और मुनिवर्या ने उन सब को बड़े ही समारोह के साथ दीक्षा देकर उनका उद्धार किया। राजर्षि जयसैन और आर्यका अनंगसुन्दरी ने नाशवान राज का त्याग करके दीक्षा लेली बाद ज्ञान, ध्यान और तप संयम की आराधना में संलग्न हो गये और आपकी इच्छा अब अक्षय राज की ओर लग marewwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww www.gelibrary.org Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ६२६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गई । श्राहा, आचार्य समुद्रसूरि जैसे गुरु और केशीश्रमण जेसे शिष्य, फिर तो कमी हो किस बात की थी; उन्होंने क्रमशः सब कर्मों का क्षय कर अन्त में केवल ज्ञान केवल दर्शन प्राप्त कर मोक्ष पधार गये । इधर बार्षिकेशी श्रमण को जातिस्मरण ज्ञान से पूर्व भव में पढ़ा हुआ सब ज्ञान स्मृति मात्र से हस्तामलक की तरह याद हो गया। इनके अलावा भी आपने चतुर्दश पूर्व का अध्ययन कर लिया, इतना ही क्यों पर आपकी कठोर तपश्चर्य्या, खंड ब्रह्मचर्य्य श्रादि गुणों से अनेक विद्याओं एवं लब्धियों ने भी आपको पात्र समझ कर वे स्वयं वरदायी बन गई। आप स्वमत और परमत के शास्त्रों में तो इतने प्रवीण हो गये थे कि वादी और प्रतिवादी आपकी क्रान्ति को सहन नहीं करते हुए दूर दूर भाग रहे थे । जिस समय आचार्य समुद्रसूरि अपने शिष्य मंडल के साथ धर्मप्रचार करते हुये भूमंडल पर बिहार करते थे उस समय कौशाम्बी राजधानी में एक यज्ञ का आयोजन हो रहा था जसकी खबर श्राचार्य समुद्रसूरि को मिली । भला, ऐसे सुअवसर को सूरिजी कब जाने देने वाले थे । इधर केशीश्रमण जैसे शिष्य की प्रबल प्रेरणा होने से वे चलकर कौशाम्बी राजधानी की ओर पधारे और आपका हिंसा विषय पर जोरों से व्याख्यान होने लगा, जिसका जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ परन्तु यज्ञवादियों को यह कब अच्छा लगने वाला था । उनके दिल में यह शंका होने लगी कि यह नास्तिक लोग कभी अपने कार्य में विघ्न न डालदें । अतः उन्होंने भी अपना पक्ष मजबूत बनाने के लिये प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया । आखिर सूरिजी की ओर से मुनि केशीश्रमण और यज्ञवादियों की ओर से उनके खास अध्यक्ष आचार्य मुकन्द राजसभा में श्राये और उनका शास्त्रार्थ हुआ । श्राचार्य मुकन्दने यज्ञ की हिंसा को हिंसा बतला कर खूब पुष्टि की। उपस्थित लोग यह सकते थे कि इसके खंडन के लिये जैनसाधु क्या कहेगा । पर केशी श्रमण हिंसा परमोधर्म के विषय ऐसे अकाट्य प्रमाण सभा के सामने रक्खे कि जिसके समक्ष ये हिंसक लोग निरुत्तर होगये । श्रतः विजयमाला केशीश्रमण के कंठ में शोभायमान हो गई । हिंसकों पर केशी श्रमण की यह सर्व प्रथम विजय थी । बस, जैनधर्म की जयध्वनि से गगन गूंज उठा अहिंसा भगवती का फंडा चारों ओर फहराने लगा । राजा और प्रजा उल घोर हिंसा से घृणा कर हिंसा भगवती के उपासक बनगये । और आचार्य समुद्रसूरि ने अपने कर कमलों से उन सब की शुद्धि करके वासक्षेप के विधिविधान से उन सब को जैनधर्म में दीक्षित किये । आचार्य समुद्रसूरि अपनी अन्तिमावस्था में मुनि केशीश्रमण को सर्वगुणसम्पन्न जान कर अपना पट्टाधिकार एवं गच्छ भार केशीश्रमण को देकर तीर्थधिराज श्री सम्मेतशिखर पर सलेखना एवं समाधिपूर्वक अनशन कर केवल ज्ञान दर्शन प्राप्त कर मोक्ष पधार गये। * इति श्री पार्श्वनाथ प्रभु के तीसरे पट्टधर श्राचार्य समुद्रसूरि महाप्रभाविक हुये । * समुद्रसूरिराचार्यो, महाधर्म प्रचारकः उज्जयिन्या नगर्यास्तु, जयसेनाभिधं नृपम् ॥ केशिकुमार राट्पुत्रं राज्ञीश्चानङ्ग सुन्दरीम् । सम्बोध्य जैन तत्वंतु, जैन धर्मे दीक्षत || केशिनामा तद्विनेयो, यः प्रदेशि नरेश्वरम् । प्रबोध्य नास्तिकाद्धर्मा ज्जैन धर्मेऽध्यरोपयत् ॥ उपकेशगच्छ चरित्र Jain EducaInternational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष प्राचार्य केशीश्रमणा तुर्यः पट्टधरेष्ट केशिश्रमणः स्वीयप्रभावेण यः, चारित्रेण तपस्यया च जनतां निन्ये समग्रां वशे । श्वेताम्बी नगरी नृपो बहुतया यो नास्तिको रक्षितःः जालात्पापधियां च येन नृपतिर्यत्नात् प्रदेशी महान् ॥ है या चार्य केशीश्रमण-- श्राप उगते सूर्य की किरणों की भांति प्रकाश करने में समर्थ बाल ब्रह्मचारी चतुर्दशपूर्वधर अहिंसा एवं जैनधर्म के कट्टर प्रचारक युवकाचार्य थे। आप की प्रतिभा का प्रचण्ड प्रभाव चारों ओर प्रकाशित हो रहा था । आप केवल मनुष्यों से ही नहीं पर देव देवेन्द्र नर नरेन्द्र एवं विद्याधरों से भी पूजित थे; आपके ज्ञान सूर्य का प्रभाव मिथ्यान्धकार को जड़मूल से नष्ट कर रहा था। पशु-हिंसक यज्ञप्रचारक तो आपके सामने इस प्रकार पलायन हो जाते थे कि जैसे शेर के सामने गीदड़ भाग छूटते हैं । आपकी उपदेश पद्धति इतनी मधुर रोचक और सारगर्भित थी कि जिसको सुनकर देव मनुष्य और विद्याधर मंत्र मुग्ध बन जाते थे। आपने जैसे जैनसंख्या में वृद्धि की वैसे जैनश्रमण संघ की भी खूब वृद्धि की थी। जिस समय आप पूर्व भारत में धर्म प्रचार बढ़ा रहे थे। उस समय लोहित्यशाखा के श्रमण दक्षिण भारत में विहार कर रहे थे । पर दुर्दैववशात् दक्षिण विहारी श्रमण समुदाय के अन्दर स्वच्छन्दता के कारण कुछ वैमनस्य पैदा हो गया था जिसको पूर्व भारत में रहे हुये केशीश्रमणाचार्य ने सुना, अतः आपने उन साधुओं को आज्ञा कर अपने पास पूर्व में बुला लिया, फिर भी कुछ साधु दक्षिण में रह भी गये थे । जो साधुगण दक्षिण में रहे थे वे अपना संगठन बल बढ़ा कर जैनधर्म के प्रचार में लग गये थे। दक्षिण के साधु पूर्व में आने के बाद थोड़े समय तो शान्त रहे, पर बाद को तो जो हाल दक्षिण में था वह ही पूर्व में हो गया जिसको कलिकाल के उदय के पूर्व का प्रभाव कहा जा सकता है । अत: एक ओर तो केशीश्रमणाचार्य घर की बिगड़ी को सुधारने का प्रयत्न कर रहे थे, तब दूसरी ओर यज्ञवादियों का जोर बढ़ता जा रहा था। वे लोग थोड़ी थोड़ी बात में बड़े २ यज्ञ कर असंख्य निरपराधी मूक प्राणियों के कोमल कंठ पर छुरे चला कर यज्ञवेदियों को खून से रंगने में धर्म बतला कर जनता को अज्ञान के गहरे गड्डे में ढकेल रहे थे। इतिहास की शोध खोज से यह पता सहज ही में लग जाता है कि वह जमाना भारत के लिये बड़ा ही विकट, भीषण और दुःखमय था राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक शृंखला का पतन हो चुका था और पाखण्डियों का अत्याचार भारत को गारत कर रहा था। उस जमाने का सब कारोबार ब्राह्मणों की जुल्मी सत्ता के नीचे चलता था । ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्व को भूल कर स्वार्थ के पुतले बन बैठे थे। पारलौकिक सुखों के फरमान लिख कर समाज को उल्टे रास्ते ले जा रहे थे । क्षत्रियवर्ग एवं राजा महाराजा उन स्वार्थ-प्रिय ब्राह्मणों के बांये हाथ के कठपुतले बन कर अपने पथ से च्युत हो रहे थे । समाज की बागडोर उन अत्या www.१५orary.org Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रियों के हाथ में थी और वे समाज के शिरताज बन चुके थे। सत्ता अहंकार की गुलाम बन अपना दुरु पयोग कर रही थी । बलवान अपने बल की आजमाइश निर्बलों पर करते थे । सिवाय ब्राह्मणों के ज्ञान के द्वार सब के लिये बन्द ये । बिचारे शूद्रों की तो उस जमाने में सबसे बड़ी खराबी थी। उनकी संसार में घास फू'स जितनी भी कीमत नहीं रही थी । उनको धर्मशास्त्र पढ़ना तो क्या पर सुनने से ही प्राणदंड मिलता था धर्म र स्वार्थका साम्राज्य था । कर्तव्य सत्ता का गुलाम बन चुका था । करुणा ने पैशाचत्व का रूप धारण कर जनता में त्राहि-त्राहि मचा दी थी । मनुष्य कहलाने वालों ने अपने मनुष्यत्व को अत्याचार पर बकर दिया था। प्रेम, स्नेह और एकता केवल पुस्तकों के पृष्ठों पर ही अंकित थी अर्थात् इस भयंकरता ने चारों ओर पापाचार एवं तृष्णा की भट्टियें भभका दी थीं जिसके सामने यदि कोई पुकार भी करता तो सुनता कौन था ? फिर भी सुधारक लोग उन अत्याचारों के सामने कटिबद्ध हो जनता को रक्षण कर ही रहे थे। पर वे थे बहुत थोड़े जो उस बिगड़ी का सुधार करने में अपर्याप्त ही माने जाते थे । इधर भगवान केशी श्रमणाचार्य ने अपने श्रमण संघ की एक विराट् सभा की, जिसमें समाज प्रेसर श्राद्ध वर्ग भी शामिल थे। आचार्य केशी श्रमण ने अपने साधुओं को स्वकर्तव्य समझाते हुये अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा प्रभावशाली एवं सचोट उपदेश देकर कहा कि वीरो ! आपने जिस उद्देश्य को लक्ष्य में रख संसार का त्याग किया था, वह समय आपके लिये श्रा पहुँचा है । विश्वोद्धार के लिए से कटिबद्ध हो जाइये । जगत का उद्धार आप जैसे त्यागी महात्माओं ने किया और करेंगे । एक नहीं पर अनेक फतें आपके सामने उपस्थित हों तो तुम तनिक भी परवाह मत करो, इतना ही क्यों पर इस नाशवान शरीर की भी परवाह मत करो और अपने कर्तव्य पर डट जाओ इत्यादि । प्राणप्रण आखिर तो शेर शेर ही होते हैं। भले ही थोड़ी देर के लिये उनकी निद्रावस्था में मृगादि वनचर क्षुद्र प्राणी अपना विजय राज समझ लें पर जब वे शेर गर्जना करते हैं तो मृगादि पशुओं का धैर्य टिक नहीं सकता है, अतः सूरिश्वरजी का वीरतामय उपदेश सुनकर वे मुनिपुंगव शेरों की भांति बोल उठे कि हे पूज्यवर ! जिस प्रकार आप हुक्म फरमावें हम शिरोधार्य करने को तैयार हैं किसी भी कठिनाइयों की हमें परवाह नहीं है । हम अपना कर्तव्य अदा करने को कटिबद्ध हैं । अपने साधुओं के वीरतामय वचन सुन कर सूरिजी का उत्साह और भी बढ़ गया और साधुनों की योग्यता पर उनकी अलग २ टुकड़ियां बनाकर निम्नलिखित स्थानों की ओर विहार की आज्ञा फरमा दी । ५०० मुनियों के साथ वैकुण्ठाचार्य को तैलंग प्रान्त की ओर । ५०० मुनियों के साथ कालिकापुत्राचार्य को दक्षिण महाराष्ट्र प्रान्त की ओर । ५०० मुनियों के साथ गर्गाचार्य को सिन्ध सौवीर प्रान्त की ओर । ५०० मुनियों के साथ यवाचार्य को काशी कौशल की ओर । ५०० साधुओं के साथ अन्नाचार्य को अंग वंग कलिंग की ओर । ५०० मुनियों के साथ काश्यपाचार्य को सुरसैन (मथुरा) प्रान्त की ओर। ५०० मुनियों के साथ शिवाचार्य को अवन्ती प्रान्त की ओर । ५०० मुनियों के साथ पालकाचार्य को कोंकण प्रदेश की ओर । Jain Educa? & International Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सावस्थी नगरी में जाकर आचार्य हरिदत्तसूरि ने लोहित्याचार्य को शास्त्रार्थ में परास्त कर उनके १००० शिष्यों के साथ जैन दीक्षा दो और उनको महाराष्ट्र प्रान्त में धर्म प्रचारार्थं भेजे । पृष्ठ ३ Sant श्री विदेशी आचार्य ने उज्जेन नगरी के राजा जयसेन रानी अनंगसुन्दरी और आपके लोतासा पुत्र केशी कांवर को दीक्षा दी बाद वही केशीश्वमण पार्श्वनाथ के हतुर्श पट्टधर आचार्य हुए । पृष्ठ 1wjainelibrary.org Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मुनिपेहित ने कपीलवस्तुनगरी के राजा शुद्धोदन एवं राजकंवर बुद्ध को धर्मोपदेश दिया जिससे विरक्त हो बुद्ध ने जैन दीक्षा स्वीकार करली । पृष्ठ १७ Jain Education in tega केशीश्रमणाचार्य ने चित्तप्रधान के आग्रह से श्वेताम्बिकानगरी में जाकर के नास्तिक शिरोमणि राजा प्रदेशी को प्रतिबोध देकर जैनधर्म में दीक्षित किया । पृष्ट ३० vate & Personal use only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन 1 [वि० पू० ५५४ वर्ष ५०० मुनियों के साथ केशीश्रमण (जिन्होंने गौतम के साथ चर्चा की थी) को पांचाल की भोर इनके अतिरिक्त कुछ छोटी २ और टुकड़ियां बना कर शेष प्रदेशों में भेज दीं और स्वयं १००० मुनियों के साथ मगध प्रदेश में रहकर सर्वत्र उपदेश कर धर्म प्रचार करने का बीड़ा उठा लिया। आचार्य श्री की इस महत्वपूर्ण योजना से आपको इतनी सफलता प्राप्त हो गई कि थोड़े ही दिनों में आपने चारों श्रर जैनधर्म एवं अहिंसा भगवती का झंडा फहरा दिया और विश्व फिर से शान्ति का श्वास लेने लगा । जनता अपने कर्तव्य को समझने लगी । यज्ञ जैसे निष्ठुर कार्य से उनको सहज ही में घृणा आने लगी जिसे थोड़े दिन पूर्व वे धर्म का एक मुख्य अंग समझते थे । श्राचार्यजी के प्रयत्न का प्रभाव केवल साधारण जनता पर ही नहीं पड़ा था पर आपका प्रभाव धर्म चमकने लगा । फलस्वरूप :११ - कौशाम्बीका राजा संतानीक १२- सुग्रीव नगर का राजा बलभद्र १३ - काशी कैौशल के बड़े २ राजा महाराजाओं पर हो चुका था । अतः चारों ओर फिर से जैन १- वैशाली नगरी का राजा चेटक ६ - पोलासपुर नगर का राजा विजयसेन २ - राजगृह का राजा प्रसेनजीत ७ - सांकेतपुर का राजा - चन्द्रपाल ३ -- चम्पा नगरी का राजा दधिवाहन ८ - सावस्थी नगरी का राजा अदीनशत्रु ४ - क्षत्रिकुण्ड का राजा सिद्धार्थ ९ कांचनपुर नगरका राजाधर्मशील ५ - कपिलवस्तु का राजा शुद्धोदन १० - कपिलपुर नगर का राजा जयकेतु गण राजा इनके अलावा भी कई भूपति जैनधर्म की शरण लेकर स्वपर कल्याण करने लगे और जब राजा भी इस प्रकर जैनधर्म के झण्डे के नीचे आ गये तो साधारण जनता का तो कहना ही क्या था ? वे लाखों नहीं पर करोड़ों की संख्या में अपनी पतित दशा को त्याग कर जैनधर्मोपासक बन गये । कहा भी है कि 'यथा राजा तथा प्रजा' । अहाहा - संगठन में एक कैसी बिजली सी शक्ति रही हुई है कि जिसका साक्षात्कार हमारे चरित्र नायकजी ने प्रत्यक्ष में कर बतलाया था जिसको पढ़ सुन कर यदि आज भी हमारे सूरिसम्राट् उन महात्माओं का अनुकरण करें तो हमारे लिये कोई भी कार्थ्य असाध्य नहीं है । १४ - श्वेताम्बिका का राजा प्रदेशी राजा महात्मा बुद्ध आचार्य केशी श्रमण के श्राज्ञावृति साधुत्रों में एक पेहीत नामक विद्वान एवं प्रतिभाशाली साधु था । वह एक समय अपने शिष्य समुदाय के साथ विहार करता हुआ कपिलवस्तु नगर में आ पहुँचा। वहाँ का नरेश पहिले से ही जैनधर्मोपासक था, अतः आगंतुक मुनियों का स्वागत सत्कार करना स्वभाविक ही था । मुनिपुंगव का व्याख्यान हमेशा त्याग एवं वैराग्य पर होता था जिसका जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ता था । राजा शुद्धोधन के पुत्र बुद्धिकीर्ति ( गोतमबुद्ध) पर तो आप का इतना प्रभाव हुआ कि वह व्याख्यान सुन कर संसार से विरक्त हो गया । पर राजा शुद्धोदन एवं आपका कुटुम्ब यह कब चाहता था कि बुद्ध कीर्ति हमको -श्री भगवतीजी सूत्र, राजप्रश्नीजी सूत्र, उत्तराध्ययनजी सूत्र, कल्पसूत्रादि सूत्रों में तथा चरित्र और पट्टावलियादिग्रन्थों में भगवान् पार्श्वनाथ संतानियों के अस्तित्व के उल्लेख प्रचुरता से मिलते हैं । १७ www.janmelibrary.org Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास छोड़ कर साधु बन जाय, इसलिये उन्होंने अपने प्यारे पुत्र बुद्धकीर्ति के लिये ऐसा प्रबन्ध कर रक्खा कि न तो वह दीक्षा ही ले सके और न उनकी आज्ञा बिना कहीं दूर प्रदेश में ही जा सके। मुनिवर्य ने कुछ दिन वहाँ ठहरकर बाद वहाँ से विहार कर दिया । पर बुद्धकीर्ति के अन्तःकरण में जो वैराग्य का बीज बो गये थे वह दिन दूना और रात्रि चौगुना फलता फूलता ही गया । एक समय बुद्धिकीर्ति संसार त्याग की भावना से अपने एक छीनिया नाम के नौकर को साथ ले अश्वारूढ़ हो अपने वास स्थान से चल धरा । श्रागे चल कर अश्व और नौकर को तो वापिस लौटा दिया और श्राप जाकर पेहीत मुनि के पास जैनदीक्षा ले ली जो उनका अन्तःकरण चाहता था। बहुत अर्से तक बुद्ध ने जैनश्रमणत्व का पालन किया और यथासाध्य तपस्या भी की पर उनको इच्छित वस्तु न मिली । अतः तपस्या से उसका दिल हट गया और साधुओं से अलग हो स्वयं अकेला भ्रमण करने लगा। तदनन्तर उसने 'बौद्ध' नामक नूतन धर्म चलाया जो आज भी विस्तृत संख्या में विद्यमान है। बौद्धमतवाले यद्यपि स्पष्ट रूप से यह स्वीकार नहीं करते है कि बुद्ध ने सबसे पहले जैनश्रमणों के पास जैनधर्म की दीक्षा ली थी। पर प्रमाणों के अनुशीलन करने पर यह पता सहज ही में लग जाता है कि बुद्ध ने प्राथमिक दीक्षा जैनसाधुओं के पास ही ली थी। जिसके कतिपय प्रमाण यहां उद्धृत कर दिये जाते हैं। १-सिरिपासणाहतित्थे, सरऊतीरेपलास णयरत्थे । पहिआसवस्ससीहे, महालुद्धोबुद्धकीत्तिमुणी ॥ तिमिपूरणासणेया अहिंगप पवज्जा वऊ परम भट्ठरतंवरंधरिता पवाट्ठियतेणएयतं ॥ मंसस्सनत्थिजीवो, जहाफलेदहियदुद्धसकराए तम्हा तं मुणित्ता, भक्खंतो नत्थि पाविहो । मझंणव ज्जाणिज्जं,दव्वदवं जहाजलतहा एदंइतिलोएधोसिता, पवतियं संघ सावधं ॥ अन्नो करेदिकम्मं, अणेतं भुंज दीसिद्धंतं परि कप्पिउणे णूणं, वसि किच्चणि रय मुववणे ॥ दर्शन सार नामक ग्रन्थ ( दिगम्बर ) २. इसी प्रकार श्वेताम्बर समुदाय के श्रीआचारांगसूत्र की शिलांगाचार्य कृत टीका में भी बुद्ध को जैन साधु होना लिखा है। ३. बौद्धधर्म के 'महावग्ग' नामक प्रन्थ में बुद्ध के भ्रमण समय का उल्लेख किया है जिसमें लिखा है कि एक समय बुद्ध राजगृह गया और वहाँ 'सुप्प' सुपास वसति में ठहरे थे । इससे यही सिद्ध होता है कि बुद्ध प्रारम्भ समय में जैन थे और जैनों के सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ के मन्दिर में ठहरे थे। ४. बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तरा के उल्लेख से भी यही सिद्ध होता है कि राजा शुद्धोदन जैनश्रमणोपासक थे अर्थात् पार्श्वनाथ सन्तानियों के उपासक थे। अतः बुद्ध ने सबसे पहिले जैनश्रमणों के पास दीक्षा ली हो तो यह असंभव भी नहीं है। ५. डॉ० स्टीवेन्सन साहब के मत से भी यही सिद्ध होता है कि राजा शुद्धोदन का घराना जैन धर्म का उपासक था। ६. इम्पीरियल गेज़ीटियर ऑफ इण्डिया व्हाल्यूम दो पृष्ठ ५४ पर लिखा है कि कोई कोई इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि गौतमबुद्ध को महावीर स्वामी से ही ज्ञान प्राप्त हुआ था । जो कुछ भी हो यह तो निर्विवाद स्वीकार ही है कि गौतम बुद्ध ने महावीर स्वामी के बाद शरीर त्याग किया, यह भी निर्विवाद सिद्ध ही है कि बौद्धधर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध के पहिले जैनियों के तेईस तीर्थङ्कर और हो चुके थे । mammarwar . Jain Education international Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 29 महात्मा बुद्ध महात्मा इशु (शशि कान्त एण्ड कम्पनी बड़ोदा के सौजन्य से ) Education International Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन [वि० पू० ५५४ वर्ष ७-डाक्टर भण्डारकर ने भी महात्माबुद्ध का जैन मुनि होना स्वीकार किया है ( देखो जैन हितैषी भाग ७ वां अंक १२ पृ०१) [ परिणाम है। ८-बुद्ध ने अपने धर्म में जो अहिंसा को प्रधान स्थान दिया है यह भी जैन धर्म के संसर्ग का ही ९ -डाक्टर फहरार ने भी कहा है कि महात्मा बुद्ध का घराना जैनधर्मोपासक था। शायद् बुद्ध ने पहिले जैन धर्म की दीक्षा ली हो तो भी असंभव नहीं है। १. श्रीमान ध्रुव ने अपने भाषण में कहा है कि महात्मा बुद्ध का जन्म जैन घराने में हुआ था, यही कारण है कि आपने अहिंसा पर खूब जोर दिया जैसे महावीर ने दिया था। ११- बुद्ध ने आत्मा को क्षणिक स्वभाव माना है जो जैन सिद्धान्त में 'द्रव्य पर्याय' की व्याख्या की है द्रव्य नित्य और पर्याय अनित्य अर्थात् पर्याय समय २ पर बदलते हैं । बुद्ध ने द्रव्य को पर्याय समम आत्मा 'क्षणिक' प्रतिक्षण नाश होने वाला माना है, इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध होता है कि बुद्ध का घराना जैन था और बुद्ध ने प्रारम्भ में जैनदीक्षा स्वीकार की थी। उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट पाया जाता है कि महात्मा बुद्ध ने जैनश्रमणों के पास दीक्षा अवश्य ली थी। बुद्ध का यज्ञ-हिंसा के प्रति विरोध और अहिंसा के विषय में उपदेश जैनों से मिलता जुलता होने से कई अनभिज्ञ लोगों ने जैनों को ही बौद्ध लिख दिया एवं जैनधर्म को बौद्धों की एक शाखा बतलाने की भी धृष्टता कर डाली। पर जब जैनों ने अपनी स्वतंत्रता एवं प्राचीनता के अकाट्य प्रमाण विद्वानों के सामने रक्खे तब जाकर उन्होंने अपनी भूल समझ कर यह स्वीकार किया कि नहीं, बौद्धधर्म अलग है और जैन धर्म अलग है ! बौद्धधर्म में यह शक्ति संगठन नहीं था कि वह जैनधर्म की बराबरी कर सके । कारण बौद्धधर्म अहिंसा की बुनियाद पर पैदा हुआ था पर बाद में वे मांसभक्षी बन गये थे और आज भी उनमें मांसभक्षण का प्रचुरता से प्रचार है तब जैनधर्म शुरू से आज तक अमांसभोजी है और भविष्य में रहेगा। अतः जैनधर्म और बौद्धधर्म पृथक पृथक धर्म हैं। जैन धर्म की नींव आस्तिवाद पर और बौद्ध धर्म की नींव क्षणिक वाद पर है। जैनधर्म का त्याग वैराग्य और तप संयम उत्कृष्ट होने से संसारलुब्ध एवं इन्द्रियों के वशीभूत प्राणियों से पालना दुस्साध्य है । तब बौद्धधर्म के नियम सादा और सरल थे जिसमें ऐसी किसी खास वस्तु का निषेध एवं कष्ट नहीं था जिससे हरेक व्यक्ति उसका पालन कर सकता था। बुद्ध ने अपना नया मत निकाल कर अपना मत चलाया था पर फिर भी महावीर के स्याद्वादसिद्धान्त को वह ठीक ही समझता था, जिसका प्रमाण खास बुद्ध के निर्माण किये शास्त्रों में भी मिलता है। बौद्धों के समस्त धार्मिक ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त है जो "त्रिपिटक' कहलाते हैं, इनके नाम क्रमशः विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक हैं । प्रथम पिटक में बौद्धमुनियों के प्राचार और नियमों का दूसरे में महात्मा बुद्ध के निज उपदेशों का और तीसरे में विशेषरूप से बौद्ध सिद्धान्त और दर्शन का वर्णन है । सुत्तपिटक के ५ निकाय अर्थात् अंग हैं जिसमें से दूसरे का नाम मममीमनिकाय है इसमें अनेक स्थानों पर महात्मा बुद्ध का निर्मन्थ मुनियों से मिलने और उनके सिद्धान्तों आदि के विषय में बातचीत करने का उल्लेख पाया है । इन उल्लेखों से सिद्ध होता है कि बुद्ध को भगवान महावीर की सर्वज्ञता का १२ www.jaipemorary.org Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पता मिल गया था और उन्हें उनके सिद्धान्त में रुचि भी हो गई थी। उदाहरणार्थ उन उल्लेखों में से एक यहाँ उद्धृत किया जाता है जिसमें बुद्ध कहता है कि - एक मिदाह, महानाम, समयं राजगहे विहरामि गिज्झकूटे पद्यते ते नखोपन समयेन संबहुला निगण्ठा इसिगि लिपस्से काल सिलायं उब्भस्थकाहान्ति आसन पटिक्खित्ता ओपक्कमिका दुक्खातिप्या कटुका वेदना वेदयन्ति अथखोहं महानाम सायण्ह समयं पटिसल्लाणा बुट्टि तो येन इसि गिलिपस्सम काय सिला येन ते निगण्ठा तेन उपसंकमिम् उपसंकमिचा ते निगण्ठे एतद् वोचम् किन्नु तुम्हे आवुसो तुम्भदका आसन पटिक्खित्ता ओपक्कमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वेदना वेदियथाति एवं बुत्ते महानामते । निगण्ठामं एतदवोचें ॥ __निगण्ठो आवुसो नायपुत्तो सव्वन्नु सव्वदस्सावी अयरिसे सं ज्ञाण दस्सन परिजाणइ चरतो चमे तिट्टतो च सुतस्स च जागरस्स च सततं समित्तं ज्ञाण दस्सनं पचुपट्टितंतिः सो एवं आह. अत्थि खोवो निगण्ठा पूव्वे पापं कम्मंकतं. तंइमायकटु काय दुक्करि कारिकाय निज्जेरथ, पनेत्य एतरहि कायेन संवुता, वाचाय संयुता, मनसा संयुता तं आयतिं पापस्स कम्मस्स अकरणं, इति पुराणानं, कम्मानं तपसा व्यन्तिभावा नवानं कम्मनं अकरणा आयतिं अनवस्सवो, आयतिं अनवस्सवा, कम्मकक्खया कमकक्खयो, दुक्खयो, दुक्खया वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सव्वं दुक्ख निजिएणं भविस्सति तं चपन् अम्हाकं रुच्चति चेवखम ति च तेन च आम्हा अत्तमनातिः P. T. D. Majjhim Vol. 18 I. PP. 92-93 __ भावार्थ-महात्मा बुद्ध कहता है हे महानाम मैं एक समय राजगृह में गृद्धकूट नामक पर्वत पर विहार कर रहा था उसी समय ऋषिगिरि के पास कालशिला नामक पर्वत पर बहुत से निर्ग्रन्थ (मुनि) आसन छोड़ उपकर्म कर रहे थे और तीव्र तपस्या में प्रवृत थे। हे महानाम मैं सायंकाल के समय उन निर्ग्रन्थों के पास गया और उनको कहा, "अहो निम्रन्थ तुम आसन छोड़ उपकर्म कर क्यों ऐसी घोर तपस्या की वेदना का अनुभव कर रहे हो ? ॥"हे महानाम जब मैंने उनसे ऐसा कहा तब वे निम्रन्थ इस प्रकार बोले अहो निम्रन्थ ज्ञातपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है वे अशेष ज्ञान और दर्शन के ज्ञाता हैं हमारे चलते ठहरते सोते जागते समसत्त अवस्थाओं में सदैव उनका ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है। उन्होंने कहा कि हे निम्रन्थ तुमने पूर्व जन्म में पापकर्म किया है उनकी इस घोर दुष्चर तपस्या से निर्जरा कर डालो। मन वचन और काया की संव्रती से नये पाप नहीं बंधते और तपस्या से पुराने पापों का व्यय हो जाता है । इस प्रकार नये पापों के रुक जाने से और पुराने पापों के व्यय से आयति रुक जाती है, आयति रुक जाने से कर्मों का क्षय होता है, कर्मो के क्षय से दुःख क्षय होता है दुःख क्षय से वेदना क्षय और वेदनाक्षय से सर्व दुखों की निर्जरा होती है । इस पर बुद्ध कहता है यह कथन हमारे लिये रुचिकर प्रतीत होता है और हमारे मन को ठीक जचता है। ऐसा ही प्रसंग मज्जिम निकाय में भी एक जगह पर आया है वहाँ भी निम्रन्थों ने बुद्ध से ज्ञातपुत्र ( महावीर ) के सर्वज्ञ होने की बात कही और उनके उपदृष्टि कर्मसिद्धान्त का कथन किया तिस पर बुद्ध ने फिर उपर्युक्त शब्दों में ही अपनी रुचि और अनुकूलता प्रगट की। Jain Educenternational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन 1 [वि० पू० ५५४ वर्ष इस उदाहरण से पाया जाता है कि भगवान महावीर का त्याग वैराग्य कठोर तप और स्याद्वाद को महात्मा बुद्ध बड़ी रुचि से मानता था । महात्मा बुद्ध का समय भगवान महावीर के समकालीन था अर्थात् भगवान महावीर के जन्म दो वर्ष पूर्व से महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् छः वर्षो से महात्मा बुद्ध का निर्वाण हुआ था, अतः महावीर का आयुष्य ७२ वर्ष का था और महात्मा बुद्ध का श्रायुष्य ८० वर्ष का था । प्रसंगोपात महात्मा बुद्ध का संक्षिप्त परिचय करवाने के बाद अब हम मूल विषय पर आते हैं । केशी श्रमणाचार्य महाप्रतिभाशाली हुये। आपने जैनधर्म की कीमती सेवा की यज्ञवादियों की बढ़ती जाती क्रूरता को रोकने में भागीरथ प्रयत्न किया तथा उन पाखंडियों के चंगुल में फंसे हुए नरेशों को एवं जनता को जैनधर्म में स्थिर किया और जैनश्रमण संघ में खूब आशातीत वृद्धि की कि जिन्होंने भारत में hari र भ्रमण कर जैनधर्म का प्रचार किया । फिर भी उस समय की बिगड़ी हुई परिस्थिति को सुधारने के लिए कुदरत एक प्रतिभाशाली लौकिक महापुरुष की प्रतीक्षा कर रही थी । ठीक उसी समय जगतोद्धारक विश्ववत्सल भगवान महावीर ने श्रवतार धारण किया । फिर तो था ही क्या ? जैसे सूर्य उदय होने के पूर्व ही चारों ओर प्रकाश फैल जाता है वैसे विश्व के वायुमण्डल में शान्ति के परमाणु प्रसारित होने लगे । भगवान महावीर यों तो भगवान् महावीर के पवित्र एवं परोपकारी जीवन पर प्रकाश डालने वाले पृथक २ विद्वानों की ओर से बड़े २ प्रन्थों का निर्माण हो चुका है उनके अन्दर से कई ग्रन्थ तो मुद्रित भी हो गये हैं । अतः यहां पर भगवान महावीर के जीवन विषय संक्षिप्त में ही लिखा जाता है । ई० स० पूर्व ५९८ वर्ष का समय था कि क्षत्रीकुण्डनगर के राजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिसला देवी की रत्न कुक्ष में चौदह स्वप्न सूचित भगवान महावीर ने अवतार लिया । उस दिन से ही राजा सिद्धार्थ का १ महावीर स्वामी चरित्र कर्ता गुणचन्द्र गणि १ - भगवान महावीर की जन्म कुण्डली २ महावीर स्वामी चरित्र नेमिचन्द्र वि० सं० ११३९ पं० मंगलकलस वि० सं० ३ महावीर स्वामी चरित्र ४ महावीर स्वामी चरित्र ५ महावीर स्वामी चरित्र ६ महावीर स्वामी चरित्र ७ महावीर स्वामी चरित्र ८ महावीर स्वामी चरित्र इनके अलावा भी कई छोटे १२ 99 २ श्रु. १० के. मं. ७ सू. बु. श. गु. ४ ९ ७ स ६. सं ** 99 11 पं० निधान कुशल वि० सं० "" "" जिनेश्वरसूरि शिष्य असग (दिगंबर) " बड़े जीवन लिखे गये थे । 19 www. brary.org Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास राज समृद्धशाली बनता गया। धन-धान्य रत्न सुवर्ण और राज की खूब वृद्धि होने लगी। गर्भ के प्रभाव से रानी त्रिसला देवी को अच्छे २ दोहले (मनोरथ) होने लगे जिसको राजा सिद्धार्थ ने बड़े ही हर्ष के साथ पूर्ण किये । क्रमशः चैत्रशुक्लत्रयोदशी के दिन की रात्रि समय महावीर का जन्म हुआ। कुदरत से ही सब गृह' उच्च स्थान पर आ गये जो ऐसे पुरुष के लिये आना चाहिये थे। वह समय तीन लोक के जीवों के लिये बड़े ही आनन्द का था । नरकादि के जीवों को भी उस समय शान्ति मिली थी। उसी रात्रि में इन्द्रादि देवों ने भगवान को मेरुशिखर पर ले जाकर प्रभु का स्नात्र महोत्सव किया । तदनन्तर प्रभात होते ही राजा सिद्धार्थ ने जन्ममहोत्सव खूब समारोह से मनाया । विशेषता यह थी कि सौ हजार और लक्ष दिनार व्यय कर जिन मन्दिरों में पूजा रचवाई गई थी, क्योंकि राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिसला भगवान पार्श्वनाथ संतानियों के श्रावक थे और श्रावक के घरों में ऐसा मंगलिक कार्य हो तो पहिले प्रभुभक्ति होनी ही चाहिये । इस प्रकार कमशः महोत्सव मनाते हुए बारहवें दिन देशोठन (भोजन करके प्रभु का नाम 'वर्द्धमान' रखा जो यथा नाम तथा गुण था, क्योंकि भगवान के गर्भ में आते ही राजा सिद्धार्थ के राज में धन धान्यादि की अभिवृद्धि हुई थी। __ भगवान जब बाल-क्रीड़ा करते थे उस समय एक देव भगवान की वीरता की परीक्षा करने को पाया पर भगवान के पराक्रम के सामने वह लज्जित हो गया था । तत्पश्चात् माता पिता ने अपने मनोरथ पूर्ण करने को भगवान को विद्यालय में प्रवेश करवाने का महोत्सव किया, पर विचारे अध्यापक के पास इतना ज्ञान कहाँ था कि वह वर्तमान को पढ़ा सके । उस समय इन्द्र का श्रासन विचलित हुआ और उसने स्वर्ग लोक से चल कर ब्राह्मण का रूप धारण कर विद्यालय में आकर राजकुंवर वर्तमान को ऐसे २ प्रश्न पूछे और भगवान ने उन प्रश्नों के उत्तर दिये, जिसको सुन कर विद्यालय का अध्यापक विस्मित हो गया । उन प्रश्नोत्तर का एक ग्रन्थ बन गया जिसका नाम जिनेन्द्र व्याकरण रखा गया था। जब भगवान ने युवकावस्था में पदार्पण किया तो अनेक राजाओं के वहां से विवाह के आमन्त्रण आये। भगवान की इच्छा के न होने पर भी माता पिता के श्राग्रह से राजकन्या जसोदा के साथ राजकुवर वद्धमान का विवाह बड़े ही समारोह से हो गया। हाँ पूर्व संचित जितने कर्म होते हैं वह तो भोगने ही पड़ते हैं और सम्यग्दृष्टि जीवों के भोग भी कर्म निर्जरा का हेतु होता है। भगवान वद्ध मान ने माता के गर्भ में ही दीक्षा की भावना कर ली थी, पर साथ में यह नियम कर लिया था कि जब तक माता पिता जीवित रहें वहाँ तक मैं दीक्षा नहीं लूंगा, इसका कारण मातो पिता का पुत्र प्रति अनुराग ही था । जब भगवान की उम्र २८ साल की हुई तो राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिसलादेवी का स्वर्गवास हो गया। वर्द्धमान का अभिग्रह पूर्ण हो गया तो वृद्धभ्राता नन्दीवर्द्धन से कहा कि मैं दीक्षा लूंगा, इसमें आपकी अनुमति होनी चाहिये । वृद्धभ्राता ने कहा वीर ! अभी तो मेरे माता पिता का वियोग हुआ है और जो आधार है वह तुम पर ही है कुछ असो अभी तुम ठहरो; अतः वृद्धभ्राता के कहने से दो वर्ष और संसार में रहना स्वीकार किया। जब एक वर्ष व्यतीत हुआ तो लौकान्तिक देवों ने आकर प्रार्थना की कि प्रभो! विश्व में मिथ्यात्व का जोर अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया है । अतः श्राप दीक्षा लेकर जगत का उद्धार करावें। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भगवान महावीर के मानस को डीगाने के लिये कामातुर स्त्रियों हावभाव करती है पर वीर मेरू की भाँति अचल रहे। भगवान महावीर के पैरों पर गोपालों ने खीर पकाई । और कुतो से मांस कटाया पृष्ठ भगवान महावीर को चण्डकोशीक सर्प ने जोरों से काटा भगवान महावीर के कानों में गोपालों ने कीले जिसके बदले उन्होंने सर्प को आठवे स्वर्ग पहुँचाया ।ersonal Us ठोक दी । फिर भी वीर तो वीर ही थे 49 Jain E natio Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशी श्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष भगवान वर्द्धमान ने एक वर्ष तक वर्षोदान दिया जिसका प्रमाण प्रति दिन १०८००००० सौनइयों का था, अतः वर्षीदान के बाद ई. स. पूर्व ५६८ वर्ष के मार्गशीर्ष कृष्णा १० के दिन इन्द्रादि श्रसंख्य देव और महाराजाओं के महोत्सव के साथ एकले दीक्षान्त्रत ग्रहण कर लिया । विशेषता यह थी कि जिस दिन प्रभु ने दीक्षा ली उसी दिन श्रभिग्रह ( प्रतिज्ञा ) कर ली कि यदि देव मनुष्य और तिर्यन्च का कोई भी उपसर्ग होगा वह मुझे अपने पूर्व संचित कर्म समझ कर समयक् प्रकार से सहन करना होगा । महापुरुषों का यह भी नियम हुआ करता है कि वे पहिले अपनी आत्मा का सर्व विकास कर लेते हैं तब ही वे दूसरों का कल्याण करने में प्रवृति करते हैं और यह बात है भी ठीक कि जिसने अपना कल्याण कर लिया है वही दूसरों का कल्याण कर सकता है। कहा भी है कि " तन्नाणं तारिया " । भगवान् वर्द्धमान ने जिस दिन दीक्षा ले कर विहार किया उस दिन से ही आप पर उपसर्ग एवं परिसद्दों ने हमला करना प्रारम्भ कर दिया था, एवं बारह वर्षों में अधिक समय श्रापका उपसगों में ही व्यतीत हुआ था । यदि उन सब को लिखा जाय तो एक बड़ा भारी प्रत्थ बन जाय, पर मैं अपने उद्देश्या नुसार संक्षिप्त में कतिपय उदाहरण आपके सामने रख देता हूँ कि भगवान महावीर ने कैसे २ उपसर्गो को सहन किया था । १ - भगवान के दीक्षा समय आपके शरीर पर चन्दनादि सुगन्ध पदार्थों का लेपन किया था जिसके मारे भ्रमरगण प्रभु के शरीर का मांस काट काट खाने लग गये थे, तब दूसरी ओर भगवान के अद्भुत रूप को देख कर कामातुर औरतों ने अनेक प्रकार के हाव-भाव नृत्य विलासादि किये, पर प्रभु ने दोनों पर समभाव ही रखा। २ – एक समय जंगली गोपालकों ने अपने बैलों के कारण प्रभु को अनेक प्रकार के कष्ट पहुँचाये; उस समय शक्रेन्द्र का श्रासन कम्प उठा, अतः इन्द्र ने आकर गोपालकों को सजा देकर दूर हटाया और भगवान की वन्दना स्तुति की, पर प्रभु ने न तो गोपालकों पर द्वेष ही किया न शक्रेन्द्र पर राग ही किया । इतना ही क्यों इन्द्र ने अर्ज की कि प्रभो आपको बड़े २ कष्ट होने वाले हैं, यदि आप आज्ञा फरमावें तो मैं श्रापकी सेवा में रह कर उन कष्टों को निवारण करू ? इस पर प्रभु ने कहा इन्द्र यह न तो हुआ और न होगा कि कोई भी व्यक्ति दूसरों की सहायता से कल्याण करे किया और करेगा श्रर्थात् अपना कल्याण श्राप ही कर सकेगा। अतः आपकी सहायता की मुझे आवश्यकता नहीं है। आ हा, वीर तो सच्चे वीर ही थे । ३ – शूलपाणि यक्ष और संगम नामक अधम देवों के उपसर्ग को सुनते ही कलेजा कांप उठता है । अधम देवों ने प्रभु को इतने घोर कष्ट पहुँचाये कि वे अपनी आयुष्य से ही जीवित रहे, शेष देवों ने तो उपसर्ग करने में कुछ भी उठा न रक्खा । ४-एक समय महावीर जंगल में जा रहे थे तो किसी गोपालक ने कहा कि श्राप किसी दूसरे रास्ते से जाइये, कारण कि इस रास्ते के बीच एक चंडकोषिक सर्प रहता है और उसका विष इतना जहरीला है कि वह जिधर दृष्टि प्रसार करता है उधर ही जीवों को भस्मीभूत बना देता है इत्यादि । प्रभु ने सोचा कि जब उस सर्प में इतनी शक्ति है और उसका दुरुपयोग करता है यदि उसी शक्ति का वह सदुपयोग करने लग जाय तो उसका कल्याण हो सकता है, क्योंकि 'कर्मशूरा सो धर्मे शूरा' बस भगवान उसी रास्ते चले गये और जहां सर्प की बांबी ( बिल ) थी वहां ध्यान लगा दिया। फिर तो था ही क्या ? सर्प ने www.netbrary.org. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास क्रोध में लाल बंबूल होकर प्रभु को काटा, पर दूसरे लोगों को काटने पर खून निकलता है लेकिन भगवान को काटने पर सर्प ने दूध पाया, जिससे सर्प को बड़ा ही आश्चर्य हुआ उस समय प्रभु ने कहा चंडकोषिक ! बुम बुम इतने में तो सर्प को जाति-स्मरण हो आया उसने अपना पूर्व रूप देखा कि मैं पूर्व भव में एक था । क्रोध के मारे मर कर सर्प हुआ हूँ और यहां भी क्रोध के वश हो अन्य जीवों को कष्ट पहुँचा रहा हूँ जिसमें भी महावीर जैसे लोकत्तर पुरुष को, धिक्कार हो मेरे क्रोध को । कृतापराधेऽपि जने, कृपामंथरतारयोः । ईषद्वाष्पादयोर्भद्रं, श्रीवीरजिननेत्रयोः || बस उस सर्प ने शान्त चित्त से प्रतिज्ञा कर ली कि अब मैं किसी को भी तकलीफ नहीं दूंगा, इतना ही क्यों पर मुझे कोई कष्ट देगा तो भी क्षमा करूंगा । सर्प ने अपना मुंह बांबी (बिल) में डाल कर शरीर को भूमि पर रख दिया । प्रभु ने वहां से विहार कर दिया। जब लोगों को मालूम हुआ कि सर्प ने शान्ति धारण कर ली है तो मिष्टान्न पदार्थों से सर्प की पूजा की, उस मिष्टान से वहां चींटियां आ गई और सर्प के शरीर को काट २ कर खाने लगीं तो भी सर्प ने उन पर क्रोध द्वेष नहीं किया अतः सर्प समभावों से मर कर आठवें देवलोक में उत्पन्न हुआ । ५ - एक समय भगवान ने विहार करते हुये एक जंगल में ध्यान लगा दिया था। कोई किसान अपने बैलों को भगवान के पास छोड़ कर कार्यवशात् ग्राम में चला गया था । बलद वहाँ से चले गये, किसान ने वापिस कर देखा तो बलद नहीं मिले। रात्रि भर ढूढ़ता फिरा पर बलद नहीं मिले। फिर सुबह वे बलद स्वयं प्रभु के पास आ गये। किसान ने आकर देखा तो उसको प्रभु पर बहुत गुस्सा आया । उसने खैर की कीलें लाकर प्रभु के कानों में इस कदर ठोक दीं कि कानों के छेद आरपार हो गये । इतना कष्ट होने पर भी भगवान् ने उस गोपाल पर किंचित भी द्वेष नहीं किया अर्थात अपने पूर्वसंचित कर्म समझ कर समभाव से सहन कर लिया इस प्रकार अनेकानेक उपसर्ग एवं परिसह को बड़ी वीरता के साथ सहन करते हुये करीब साढ़े बारह वर्ष निकल गये और साढ़े बारह वर्षों में प्रभु ने तपश्चर्या भी इतनी की कि पूरा एक वर्ष भी आहार पानी नहीं किया होगा । तपश्चर्या के नाम संख्या तप दिन पारणा दिन सर्व दिन छ मासीतप न्यून छ मासी तप चतुर्मासी तप तीन मासी तप अढ़ाई मासी तप दो मासी तप डेढ़ मासी तप एक मासी तप पाक्षीक तप अष्टम तप छट्ट तप १ १ ९ २ २ ६ २ १२ ७२ १२ २२९ १८० १७५ १०८० १८० १५० ३६० ९० ३६० १०८० ३६ ४५८ ४१४९ , 9 १२ ७२ १२ २२९ ३४८ १८१ १७६ १०८९ १८२ १५२ ३६६ ६२ १७२ ११५२ ४८ ६८७ ४४९७ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष एक तरफ तो पोर उपसर्ग को सहन करना और दूसरी ओर उत्कृष्ट तपश्चर्या फिर विचारे कर्म तो रह ही कैसे सकते थे ? अतः जम्बु नामक प्राम के पास रजुबालका नदी के किनारे पर सोमक के खेत में अशोक के वृक्ष के नीचे छट का तप गोधों आसन और शुक्लध्यान की उच्चश्रेणी में अध्यात्म चिन्तवन करते हुये ज्ञानावर्णिय, दर्शनावणिय, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घनघाती कर्मों को क्षय कर प्रभु महावीर ने कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शन को प्राप्त कर लिया। आत्मा पर जो कर्मों के दलक के पर्दै थे वे दूर होते ही प्रभु लोकालोक के चराचर पदार्थों के द्रव्य गुण पर्याय को हस्तामलक की मुआफिक देखने लगगये। इस सुअवसर को जान कर इन्द्रादि असंख्य देव-देवी महोत्सव करने को आये । प्रभु ने देव मनुष्य और विद्याधरों को धर्मदेशना दी, पर उस समय किसी ने व्रत नहीं लिया। दूसरे दिन देवों ने समवसरण की रचना की, उस पर विराजमान हो भगवान महावीर ने अहिंसा परमो धर्मः पर व्याख्यान दिया। भगवान के उपदेश का अधिक प्रभाव वेदान्तियों के निष्ठुर यज्ञ पर हुआ । यही कारण है कि इन्द्रभूति आदि ११ यज्ञाध्यक्ष महान् पंडितों ने अपने २ दिल की शंकाओं का समाधान करके वे स्वयं तथा उनके ४४०० छात्रों ने भगवान महावीर के चरण कमलों में दीक्षा ग्रहण की और प्रभु के शिष्य बन गये फिर तो कहना ही क्या था ? प्रभु ने चतुर्विध संघ की स्थापना की और यज्ञ में होते हुये असंख्य निराधार मूक प्राणियों को अभयदान दिलवा कर उस पापवृति को समूल नष्ट कर दिया और उस समय की विषमता एवं वर्ण ज ति उपजाति और नीच ऊंच के मिथ्या भ्रम का शिर फोड़ कर सब को समभावी बना कर प्राणी मात्र को अपना कल्याण करने का अधिकार दे दिया। भगवान् महावीर ने ३० वर्ष तक चारों ओर घूम घूम कर जैनधर्म का खूब प्रचार किया । कई नर नारियों को दीक्षा देकर अपने शिष्य बनाये, जिस में १४००० मुनि और ३६००० साध्वियाँ तो मुख्य थे। इसी प्रकार १५९.०० श्रावक और ३३६००० श्राविकाएं व्रतधारियों में अग्रेश्वर थे इनके अलावा जैनों की संख्या उस समय +४०००००००० कही जाती है। भगवान महावीर के लिए अनेक पौर्वात्य और पाश्चात्य धुरंधर विद्वानों, संशोधकों और इतिहासज्ञों ने अपना मत प्रगट किया है कि भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक नहीं, परन्तु उपदेशक एवं प्रचारक थे। इस विषय में मैंने बहुत से प्रमाण जैनजाति महोदय प्रन्थ के प्रथम प्रकरण में उद्धत कर दिये हैं और उनके अलावा भी अनेक प्रमाणों से यह बात स्पष्टतया निश्चित हो चुकी है कि भगवान महावीर एक ऐतिहासिक पुरुष थे और उन्होंने अहिंसा का खूब जोरों से प्रचार करके प्राणीमात्र को जीने का अधिकार प्राप्त करा दिया था और यज्ञ यागादिक में दी जाने वाली बलि को उन्मूलन करके ब्राह्मण धर्म पर भी अहिंसा की जबरदस्त छाप जमा दी थी इत्यादि । भगवान महावीर का जीवन जगत के कल्याण के लिए हुआ था । भगवान महावीर के अहिंसा परमोधर्मः एवं स्याद्वाद सिद्धांत का प्रभाव केवल साधारण जनता पर ही नहीं परन्तु बड़े २ राजा महाराजाओं पर भी हुआ था । अतः कतिपय राजाओं के नाम यहाँ उद्धत कर दिये जाते हैं । + "भारत में पहिले ४०००००.०० जैनथे, उसी मत से निकल कर बहुत लोग अन्य धर्म में जाने से इनकी संख्या घट गई, यह धर्म बहुत प्राचीन है, इस मत के नियम बहुत उत्तम हैं, इस मत से देश को भारी लाभ पहुँचा है"। "बाबू कृष्णनाथ बनर्जी, जैनिजम" २५ www.ainelibrary.org Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १-राजगृह नगर का शिशुनागवंशी महाराजा श्रेणिक-आप राजा प्रसेनजित के उत्तराधिकारी थे। आपने शुरू से बौद्धधर्म की शिक्षा पाई थी और उसी धर्म के उपासक थे, परन्तु श्रापका विवाह वैशाली के महाराजा चेटक की पुत्री चेलना के साथ हुआ था। महारानी चेलना कट्टर जैन उपासिका थी। उसने बड़ी कोशिश के साथ अपने पतिदेव को जैनधर्म के तत्त्वों को समझा कर जैनधर्म के उपासक बनाये । राजा श्रेणिक ने जैनधर्म की विशेषता समझ कर जैनधर्म का खूब ही प्रचार किया । केवल भारत में ही नहीं पर भारत के बाहर विदेशों में भी प्रचुरता से प्रचार किया था। आपने बहुत से जैन मन्दिर बनवा कर मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी करवाई थी। हेमवन्तपट्टावली से ज्ञात होता है कि कलिंग की खंडगिरि पहाड़ी पर आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव का मन्दिर बना कर उसमें स्वर्णमय मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। उसी मूर्ति का जिक्र महामेघवान चक्रवर्ती महाराज खारवेल के शिलालेख में आया है जिसको हम आगे चल कर बतायेंगे। महाराजा श्रेणिक जिनभक्ति में इतना लीन था कि वह हमेशा १०८ स्वर्ण के जौ ( चावल ) बना कर जिन प्रतिमा के सामने स्वस्तिक किया करता था। यही कारण है कि उसने धर्म की प्रभावना करके तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन कर लिया जो अनागत चौबीसी में पद्मनाभ नामक तीर्थकर होंगे। २- चम्पा नगरी का महाराजा कोणिक (अशोकचन्द्र ) आप राजा श्रेणिक के पुत्र और उत्तराधिकारी थे। आप भगवान महावीर के पूर्ण भक्त थे। आपको ऐसा नियम था कि भगवान महावीर प्रभु कहां बिराजते हैं जिसका पता मिलने से ही अन्न-जल ग्रहण करते थे । आज की भांति तार डाक का साधन नहीं था फिर भी उसने मनुष्यों की ऐसी डांक बैठा दी थी जिसकी हमेशा खबर आया जाया करती थी। "उपपातिकसूत्र" ३-पाटलीपुत्र नगर के राजा उदाई-आप महाराजा कोणिक के पुत्र एवं उत्तराधिकारी थे। आपने चम्पानगरी को छोड़ कर अपनी राजधानी पाटलीपुत्र में कायम की। श्राप बड़े ही शान्तिप्रिय धर्मज्ञ एवं आत्म-कल्याण करने में ही संलग्न थे। किप्ती षडयंत्रवादियों द्वारा धर्म के विश्वास पर आपके जीवन का अन्त कर दिया गया। ___ " श्रेणिक चरित्र" ४-वैशाली नगरी का महाराजा चेटक-आप भगवान महावीर के पूर्णभक्त थे, एवं बारह व्रतधारी श्रावक भी थे। जैनसिद्धान्तों में आपका विशेष वर्णन आता है। “भगवती सूत्र" ५-२२-काशी कोशल देश के १८ गणराजा-ये भी भगवान के परमभक्त थे। भगवान की अंतिम अवस्था में पावापुरी नगरी में आकर महाराजा चेटक के साथ पौषधवत किये थे। “ निरियावलिका सूत्र" २३-सिन्धु सौवीर देश का वितभयपाटण का महाराजा उदाई और पटराणी प्रभावती-ये दोनों भगवान महावीर के परमभक्त थे और इन्होंने भगवान के चरणों में जैन दीक्षा लेकर मोक्ष की प्राप्ति कर ली थी। " भगवती सूत्र" २४-वितभयपट्टण का राजा केशीकुमार--ये महाराज उदाई के भगिनी पुत्र (भानजा) थे वह भी जैनधर्मोपासक थे। “भगवती सूत्र" २५-ब्राह्मणकुड नगर के राजा ऋषभदत्त-आपने भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त कर ली थी। __ " भगवती सूत्र" Jain Educa & International Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशी श्रमण का जीवन ] ( २६ ) श्रवन्तीनगरी के महाराजा चंडप्रयोधन जैनधर्म बड़ी रुचि से पालन करते थे । “उत्तराध्ययनसूत्र” (२७) कपिलपुरनगर के महाराजा संयति ने भगवती जैनदीक्षा को पालन कर अक्षय सुख को प्राप्त किया था । "उत्तराध्ययनसूत्र” [वि० ( २८ ) दर्शानपुरनगर के महाराजा दर्शनभद्र जैन थे उन्होंने एक समय भगवान महावीर का स्वागत बड़ा ही शानदार किया था पर मन में ऐसा अभिमान आया कि भगवान के उपासक अनेक राजा हैं पर मेरे जैसा स्वागत शायद ही किसी ने किया हो ? यह बात वहाँ पर आये हुए शकेन्द्र को ज्ञात हुई जिसने वैक्रय से अनेक हस्तियों के रूप बनाये कि जिसको देखते ही राजादर्शानभद्र का गर्व गल गया। अब वह इस सोच में था कि इन्द्र के सामने मेरा मान कैसे रह सके । आखिर उन्होंने ठीक सोच समझ के महावीर प्रभु के पास भगवती दीक्षा स्वीकर कर | यह देख इन्द्र ने आकर उन मुनि के चरणों में शिर झुका कर कहा हे मुनि सच्चा मान रखनेवाले संसार भर में एक श्राप ही हो, दर्शानभद्रमुनि ने उसी भव में मोक्ष प्राप्त करली | "उत्तराध्ययन सूत्र” (२९) आवंतीदेश के सुदर्शननगर के महाराजा युगबाहु और उनकी महाराणी मैारया पक्के जैन थे । पू० ५५४ वर्ष “उत्तराध्ययन सूत्र” (३०) चम्पानगरी के महाराजा दधीबाहन भी जैनधर्मोपासक थे जिन्हों की पुत्री चन्दनबाला ने " कल्पसूत्र' भगवान महावीर के पास सब से पहले दीक्षा ग्रहण की थी ( ३१ ) काशीदेश के महाराजा शंख ने भी भगवान के पास दीक्षा धारण कर कल्याण कर लिया था । "ठाणासँग सूत्र" उत्तराध्ययन सूत्र " (३२) विदेह देश मिथलानगरी के महाराजा नमिराज ( ३३ ) कलिङ्गपतिमहाराजा करकंडू ( ३४ ) पंचालदेश कपीलपुर के स्वामी महाराज दुमई (३५) गंधारदेश पुंडवर्धननगर के नृपति निग्गई एवं चारों नृपति कट्टर जैन श्रभ्यास करते चारों को साथ ही में ज्ञान हो श्राया और नाशमान संसार का त्याग कर प्रहण कर आत्म कल्याण कर लिया । 6 "" 39 ( ३६ ) सुग्रीवनगर के महाराजाबलभद्र जैनश्रमणोपासक थे । आपके एकाएक मृगापुत्रनामक कुमार भगवती जैनदीक्षा पालन कर संसार का पार कर दिया था । "उत्तराध्ययन सूत्र अ० ११" (२७) पोलासपुर के राजाविजयसेन जिन्हों के पुत्र श्रमन्ताकुमार ने भगवान् महावीर प्रभु के पास "अन्त गददशांग सूत्र” दीक्षा ले के संसार का अन्त किया । "भगवती सूत्र " ( ३८ ) सावत्थि नगरी के राजा श्रदीनशत्रु आदि भी परम जैन थे । ( ३९ ) सांकेतपुर नगर के राजा चन्द्रपाल जिन्हों के पुत्र ने महावीर प्रभु के पास दीक्षा ली थी । “उत्तराध्ययनसूत्र” ( ४० ) क्षत्रियकुन्द नगर के राजा नंदवर्धन जो भगवान महावीर के वृद्धभ्राता थे । श्रापने श्रहिंसा 33 33 थे । अध्यात्म का उन्होंने जैनदीक्षा " उत्तराध्ययन सूत्र” २७ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास धर्मं का खूब प्रचार किया । आपने महावीर के दीक्षा के सातवें वर्ष मुंडस्थल नगर में महावीर का दर्शन कर वहाँ महावीर का मंदिर बनाया । "कल्प सूत्र ( ४१ ) कौशाम्बी नगरी के महाराजा संतानीक और आपकी पट्टराणी मृगावती भी जैन थे जिन्हों की बहन जयन्ति बाई ने भगवान महावीर के पास जैनदीक्षा ग्रहण करी थी । महाराजा संतानीक के पुत्र राजा दाई आदि भी पक्के जैन थे । “भगवती सूत्र” "उत्पातिक सूत्र (४२) कपिलपुर के जयकेतु राजा भी जैन थे । ( ४३ ) कांचनपुर के महाराजा धर्मशील भी जैन थे । “उत्तराध्यन सूत्र” (४४) हस्तिनापुर के राजा श्रदीनशत्रु और श्रापकी महाराणी धारणी भी जैन थे जिन्हों के पुत्र सुबाहुकुमार ने भगवान के पास दीक्षा ली थी । "विपाक सत्र ' (४५) ऋषभपुर नगर के महाराजा धनबहा और सरसावती राणी जैनधर्मानुयायी थे । आपके पुत्र भद्रनंदी ने प्रभु महावीर के पास जैनदीक्षा ग्रहण की थी। " (५२) चम्पानगरी के राजादत्त और रत्तवतीराणी जैनधर्म को प्रेमपूर्वक आपके पुत्र महिचन्द्र ने राजऋद्धि और ५०० अंतेवर का त्याग कर जैनदीक्षा ली थी । (४६) वीरपुरनगर के महाराजा वीर कृष्ण मित्र और रतिदेवी जैनधर्म श्राप के पुत्र सुजातकुमार ने महावीर के पास जैनदीक्षा लेकर उसका सम्यक् प्रकार से (४७) विजयपुर नगर के वासवदत्त राजा और कृष्णादेवी जैनधर्मोपासक सुवासवकुमार ने महावीर के पास जैनदीक्षा ली थी । " विपाकसूत्र” ( ४८ ) सोगंधिकानगरी के अहत नामक राजा जैनधर्म के बड़े भारी प्रचारक थे, आपके पुत्र महचन्द्रकुमार ने भी जैनदीक्षा ग्रहण की थी । " विपाकसूत्र” " ( ४९ ) कनकपुरनगर के प्रीचन्द्र राजा भी लैन थे, आपके पुत्र वैश्रमणकुमार ने भी भगवान वीर प्रभु के पास दीक्षा लेकर स्वपर कल्याण किया था । “ विपाकसू त्र" (५०) महापुरनगर के बलराजा सुभद्रादेवी जैनधर्मोपासक थे, श्रापके पुत्र महाबलकुमार ने ५०० अंतेवर और राज्य त्याग कर जैनदीक्षा ली थी । “विपाकसूत्र” (५१) सुघोषनगर के श्रर्जुन राजा भी जैन थे आप के पुत्र भद्रनन्दी ने बड़े वैराग्य के साथ भगवान महावीर के पास जैन दीक्षा ग्रहण करी । “विपाकसूत्र” पालन करते थे, “ विपाकसूत्र” " विपाकसत्र " पालन करते थे, पालन किया । थे, आपके पुत्र ( ५३ ) साकेतनामानगर के राजा मित्रनन्दी और श्रीकान्ता राणी जैनधर्मोपासक थे, आपके पुत्र वरदत्तकुमार ने भगवान महावीर के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा को ग्रहण कर स्वपर कल्याण किया । “विपाक सूत्र” (५४) श्रमल कम्पानगरी के राजा सेत जैनधर्मी थे, जिन्होंने भगवान महावीर प्रभु के श्रागमण समय बड़ा ही जोरदार स्वागत किया था । "राय पसेणीसूत्र' २८ Jain Educationternational ( ५५ ) श्वेताम्बिकानगरी के राजा प्रदेशी और सूरिकान्त कुँवर भी जैनधर्म के परमोपासक थे । राजा प्रदेशी कठिन व्रत-तपश्चर्या करके सूरयाम नाम का देव हुआ एक भव कर मोक्ष जायगा । " राय पसेणीसूत्र” Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष (५६) हस्तिनापुर के राजा शिव ने पहिले वापसी दीक्षा ली थी और इसका मत था कि संसार भर में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं, परन्तु जब भगवान महावीर का समागम होने से आपको अपनी मान्यता मिथ्या मालूम हुई तो भगवान वीर के सिद्धान्तको स्वीकार कर जैनदीक्षा ग्रहण कर ली। “भगवती सूत्र" (५७) राजा वीराँग ( ५८) राजा वीरजस इन दोनों नृपतियों ने भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर मोक्षपद को प्राप्त किया। _ "ठाणायांग सूत्र ठा०८" (५९) पावापुरी के राजा हस्तपाल जैनधर्म के कट्टर प्रचारक थे जिन्होंने भगवान महावीर को आप्रहपूर्वक विनती कर अन्तिम चातुर्मास अपने यहाँ कराया और उसी चातुर्मास में भगवान महावीर का निर्वाण हुआ। "कल्पसूत्र" इनके अलावा भी कई राजा महाराजा भगवान महावीर प्रभु के शान्तिमय झंडे के नीचे अपना आत्म-कल्याण करते थे । मैंने अपने उद्देश्यानुसार महावीर प्रभु का जीवन संक्षेप में लिखा है। अन्त में वि. सं. पूर्व ४७० वर्ष भगवान महावीर ने चरम चतुर्मास पावापुरीनगरी के महाराज हस्तपाल की रथशाला में किया और कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि में भगवान ने वेदनीय नाम गोत्र और आयुष्यकम का क्षय कर मोक्ष पद प्राप्त कर लिया। तत्पश्चात इन्द्रादिक असंख्य देव और चतुर्विध श्रीसंघ ने शोक संयुक्त प्रभु का निर्वाण कल्याणक किया उसी रात्रि के अन्त में गुरु गोतम स्वामीको केवल ज्ञान हुआ। यह बात तो मैं पहिले ही लिख पाया हूँ कि भगवान् के समय पार्श्वनाथ प्रभु के सन्तानिये केशीश्रमण के आज्ञावृति हजारों की संख्या में साधु धर्मप्रचार कर रहे थे। यज्ञवादियों के चंगुल में फंसे हुए कई राजा महाराजाओं को सदुपदेश देकर जैनधर्म के परमोपासक बनाये थे। ___ जब भगवान महावीर ने चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना कर प्रचलित नियमों में समयानुसार रद्दोबदल कर कई नये नियमों का निर्माण किया था, उस समय भी पार्श्व संतानिये मौजूद थे तथा ज्यों ज्यों उनकी महावीर से भेंट होती गई त्यों त्यों वे वीरशासन स्वीकार करते गये।। जैसे पार्श्वनाथ संतानिये केशीकुमार जिसका वर्णन श्रीउत्तराध्ययन सूत्र के २३ वा अध्ययन में पाता है जिसको मैं संक्षेप से यहाँ लिख देता हूँ। जो पाठकों के लिये बड़ा लाभदायक है। एक समय का जिक्र है प्रभु पार्श्वनाथ के संतानियों में से मुनि केशीश्रमण भूमण्डल पर विहार करते हुए अपने ५०० मुनियों के परिवार से सावत्थी नगरी के तन्दुकवन उद्यान में पधार गये । श्राप तप संयम की सम्यक् आराधना कर रहे थे जिससे आपको अवधिज्ञान प्राप्त हो गया था, अतः आप मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान और अवधिज्ञान एवं वीनज्ञानधारक थे। उसी समय भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गणधर इन्द्रभूति जो मतिज्ञान श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनपर्यवज्ञान एवं चार ज्ञान के ज्ञाता तथा चौदहपूर्वधर थे वे भी अपने ५०० शिष्यों के साथ जगत उद्धार करते हुए क्रमशः सावत्थी नगरी के कोष्ठक नाम के उद्यान में पधार गये। इस बात की शहर में खूब चर्चा हुई । भक्त लोगों ने दोनों मुनियों का अच्छा स्वागत किया परन्तु भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानिये चार महाव्रतरूपी धर्मदेशना तथा भगवान महावीर के सन्तानिये पांच महाव्रत रूपी धर्मदेशना दे रहे थे तथा पार्श्वनाथ संतानियों के पाँच वर्ण के वस्त्र रखने का विधान ww. ibrary.org Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और वीर संतानियों के एक सफेद वर्ण के वस्त्र और वह भी परमाणुपेत होने से लोगों को शंका होना स्वाभाविक ही था जब कि दोनों का ध्येय मोक्ष मार्ग साधन करने का है तो फिर ये अन्तर क्यों ? जब दोनों नायकों के शिष्यों का आपस में मिलाप एवं संवाद हुआ और उन्होंने अपने २ आचार्यों को जा कर निवेदन किया तो वे आचार्य भी शासन के हितैषी एवं दूरदर्शी थे कि ऐसी बातें छोटे आदमियों के हाथों में न दे कर आप ही आपस में समाधान करके जनता की शंका को मिटा देवें । बस, फिर तो था ही क्या ? गणधर इन्द्रभूति ने सोचा कि भगवान पार्श्वनाथ के संतानिये हमारे लिए ज्येष्ठ हैं, अतः मुझे उनकी सेवा में जाना चाहिये । गणधर इन्द्रभूति ने केवल ऐसा विचार ही नहीं किया परन्तु उन्होंने अपने शिष्यों को ले कर तन्दुकवन की ओर चलने के लिए प्रस्थान ही कर दिया जहाँ कि पर्श्वनाथजी के सन्तानिये ठहरे हुए थे। इधर केशीश्रमण आचार्य को मालूम हुई कि गौतम यहाँ आ रहा है तब अपने शिष्यों को कहा कि हम गौतम के सामने जा रहे हैं तुम गौतम के लिए पाट या उस पर घास का श्रासन लगा के तैयार रखो। बस, केशीश्रमण अपने कई शिष्यों को साथ ले कर गौतम के सामने गये । उधर गौतम आ ही रहा था रास्ते में दोनों का मिलाप हुआ और परस्पर मिलने से दोनों पक्ष में धर्मस्नेह की तरंगें उछलने लगीं। और वे सब चल कर तन्दुक उद्यान में आये जिस समय पूर्व स्थापित आसनों पर केशीश्रमण और गौतम विराजमान हुए उस समय प्रतीत होता था मानो सूर्य और चन्द्र ही उद्यान को शोभायमान कर रहे थे। इधर इस बात की खबर स्वमत और परमत के लोगों को हुई कि आज दोनों प्राचार्य तन्दुकवन में एकत्र हुए हैं। इनके आपस में संवाद होगा जिसमें किसका पक्ष सच्चा रहेगा चल कर देखें अतः दुनिया उलट पड़ी और देखते २ उद्यान खचाखच भर गया। केवल मनुष्य ही नहीं पर श्राकाश में गमन करने वाले देव और विद्याधर भी इस संवाद सुनने को ललचा गये। जब उनको भूमि में बैठने को स्थान नहीं मिला तो वे आकाश में ही स्थिर रहे, अब सब लोगों के इच्छा यही हो रही थी कि इनका संवाद कब प्रारम्भ हो । केशीश्रमण भगवान मधुर स्वर से बोले कि हे महाभाग्य ! अगर आपकी इच्छा हो वो मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ ? गौतमरवामि विनय पूर्वक बोले कि- हे भगवान ! मेरे पर अनुग्रह करावें अर्थात् आपकी इच्छा हो वह प्रश्न पूछने की कृपा करे। (१) प्रश्न-केशीश्रमण भगवान ने प्रश्न किया कि हे गौतम ! पार्श्वप्रभु और वीर भगवान दोनों ने एक ही मोक्ष के लिए यह धर्म रास्ता (दीक्षा) बतलाते हुए पार्श्वप्रभु ने चार महाव्रतरूपी धर्म और वीर भगवान ने पांच महाव्रतरूपी धर्म बतलाया है तो क्या इसमें आपको आश्चर्य नहीं होता है ? उ०-गौतम स्वामी नम्रतापूर्वक बोले कि हे भगवान पहले तीर्थकर श्रीआदिनाथ भगवान के मुनि सरल (माया रहित) थे किन्तु पहले न देखने से मुनियों का आचार व्यवहार को समझना ही दुष्कर या परन्तु प्रज्ञावान होने से समझनेके बाद श्राचार में प्रवृति करना बहुत ही सहज था और चरम तीर्थकर वीर भगवान के मुनि प्रथम तो जड़वत होने से समझना ही दुष्कर और वक्र होने से समझे हुवे को भी पालन करना अति दुष्कर है इसीलिए इन्हीं दोनों भगवान के मुनियों के लिए पांच महाव्रत रूपी धर्म कहा है और शेष २२ तीर्थकरों के मुनि प्रज्ञावान होने से अच्छी तरह से समझ भी सकते थे और सरल होने से परिपूर्ण आचार को पालन भी कर सकते थे अतः इन्हीं २२ भगवान के मुनियों के लिये चार महाव्रत रूपी धर्म कहा Jain Ede International Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष है। पाँच महाव्रत कहने से स्त्री चोथा व्रत में और परिग्रह धन धान्यादि पांचवाँ व्रत में गिना है परन्तु प्रज्ञापान समझ सकते हैं कि जब किसी पदार्थ पर ममत्व भाव नहीं रखना तो फिर खियां तो ममत्व भाव का घर ही हैं अतः स्त्री और परिग्रह को एक ही व्रत में माना गया है । हे भगवान इसमें किंचित भी आश्चर्य की बात नहीं है दोनों भगवानों का ध्येय तो एक ही है । यह उत्तर श्रवण कर के परिषदा को बड़ा ही संतोष हुआ। यह उत्तर श्रवण करके भगवान केशीश्रमण बोले कि हे गौतम इस शंका का समाधान आपने अच्छा किया परन्तु एक प्रश्न मुझे और भी पूछना है । गौतम स्वामी ने कहा कि भगवान आप अवश्य कृपा करावें । (२) प्रश्न-हे गौतम श्री पार्श्वप्रभु ने साधुओं के लिये 'सचेल' वस्त्र सहित रहना वह भी पांचों वर्ण के स्वल्प या बहुमूल्य अपरिमित मर्यादावाले वस्त्र रखना कहा है और भगवान वीरप्रभु ने 'अचेल' वस्त्र रहित अर्थात् जीणं वस्त्र वह भी श्वेतवर्ण और स्वल्प मूल्यवाला रखना कहा है इसका क्या कारण है ? ___ उत्तर-हे भगवान मुनियों को वस्त्रादि धर्मोपकरण रखने की आज्ञा फरमाई है इसमें प्रथम तो साधुलिंग है वह बहुत से जीवों का विश्वास का भाजन है और लिंग होने से भव्यात्मा धर्म पर श्रद्धा रखते हुये स्वात्मकल्याण कर सकते हैं दूसरा मुनियों की चित्तवृत्ति कभी अस्थिर भी हो जावे तो भी ख्याल रहेगा कि मैं साधु हूँ, दीक्षित हूँ, वेश में यह अतिचारादि मुझे सेवन करने योग्य नहीं हैं अर्थात अतिचारादि लगाते हुये चिन्ह देखके रुक जावेगा । अतः यह लिंग एवं धर्मोपकरण संयम के साधक हैं इसमें पार्श्व प्रभुके संतानिये सरल और प्रज्ञावन्त होने से उन्हों को किसी भी पदार्थ पर ममत्व भाव नहीं है और वीर भगवान के मुनि जड़ और बक्र होने से उन्हों के लिये उक्त कायदा रखा गया है, परन्तु दोनों का ध्येय एक ही है धर्मोपकरण मोक्ष साधन करने में सहायक जान के ही रखने की आज्ञा दी है। केशीश्रमण-हे गौतम ! आपने इस शंका का अच्छा समाधान किया परन्तु और मुझे प्रश्न करना है। इस प्रकार दोनों के धर्म स्नेह युक्त बचनों को श्रवण करके परिषदा बड़ी ही आनन्द को प्राप्त हुई। गौतम-हे भगवान आप कृपा करके फरमाइये । (३) प्र०-हे गौतम! इस संसार भर में हजारों दुश्मन हैं उन्हीं दुश्मनों (वैरी) के अन्दर आप निवास किस प्रकार से करते हैं और वह दुश्मन आपके सन्मुख युद्ध करने को बराबर पाते हैं और हमला भी करते हैं उन दुश्मनों को कैसे पराजय करते हो ? उ.-हे भगवान जो दुश्मन हैं वह सर्व मेरे जाने हुये हैं । इन्हीं दुश्मनों का एक नायक है उसको पहिले से ही मैंने अपने कब्जे में कर रखा है और उसी नायक के चार उमराव हैं वह तो हमेश के लिये मेरे दास ही बन रहे हैं और नायक के राज्य में पाँच पंच हैं । वह मेरे आज्ञाकारी ही हैं । इन्हीं दुश्मनों में यह +४+५=१० मुख्य योद्धा हैं । इन्हीं को अपने कब्जे में कर लेने से पीछे बिचारे दूसरे दुश्मनोंकी तो सामर्थ ही क्या है ? अतः मैं इन्हीं दुश्मनों का पराजय करता हुआ सुखपूर्वक विचरता हूँ। तर्क-हे गौतम ! आपके दुश्मन एक नायक, चार उमराव, पांच पंच कौन हैं और किसको पराजय किया है ? समाधान हे भगवान् ! दुश्मनों का नायक एक 'मन' है, यह आत्मा के निज गुण को हरण करता wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww www.j३orary.org Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास है, इन्हीं को अपने कब्जे में कर लेने से 'मन' के चार उमराव क्रोध, मान, माया, और लोभ यह मेरे आज्ञाकारी बन गये हैं। जब इन्हीं पांचों को श्राज्ञाकारी बना लिए तब ही से पांच पंच 'इन्द्रियां' हैं उन्हों का सहज में पराजय कर लिया, बस इन्हीं १० योद्धों को जीत लेने से सर्व दुश्मन अपने आदेश में हो गये हैं अतः मैं दुश्मनों के अन्दर निर्भय विचरता हूँ। यह उत्तर श्रवण करने पर देवता विद्याधर और मनुष्यों को बड़ा ही आनन्द हुत्रा और भगवान् केशीश्रमण बोले कि प्रज्ञावन्त आपने मेरे प्रश्न का अच्छा युक्तिपूर्वक उत्तर दिया परन्तु मुझे एक और भी प्रश्न करना है ? गौतम-हे महाभाग्य आप अनुप्रह कर अवश्य फरमावें । (४) प्रश्न-हे गौतम ! इस आरापार संसार के अन्दर बहुत से जीव निवडबन्धरूपी पाश में बन्धे हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं तो आप इस पाश से मुक्त होके वायु की माफिक अप्रतिबन्ध कैसे विहार करते हो ? उ.--हे भगवान ! यह पाश बड़ा भारी है परन्तु मैं एक तीक्ष्ण धारा वाले शस्त्र के उपाय से इस पाश को छेद-भेद कर मुक्त होकर अप्रतिबन्ध विहार करता हूँ। तर्क - हे गोतम ! आपके कौनसी पाश है और कौनसे शस्त्र से छेदी है ? समा०-हे महाभाग्य ! इस घोर संसार के अन्दर रागद्वेष पुत्र कलत्र, धनधान्य रूपी जबरदस्त पाश है उन्हीं को जैन शासन के न्याय और सदागम भावों की शुद्ध श्रद्धना अर्थात् सम्यग्दर्शनरूपी तीक्षण धागवाले शस्त्र से उस पाश को छेदन-भेदन कर मुक्त होकर श्रानन्द में विचर रहा हूँ। अर्थात् राग द्वेष मोहरूपी पाश को तोड़ने के लिए सदागम का श्रवण और सम्यग् श्रद्धनारूप सम्यग्दर्शनरूपी शस्त्र है इन्हीं के जरिये जीव पाश से मुक्त हो सकता है। हे गौतम ! आप तो बड़े ही प्रज्ञावान हो और मेरे प्रश्न का उत्तर अच्छी युक्ति से कहके मेरे संशय को ठीक समाधान किया परन्तु एक और भी प्रश्न पूछता हूँ। गौतम-हे भगवान् मेरे पर अनुग्रह करावें । (५) प्रश्न-हे भाग्यशाली ! जीवों के हृदय में एक विषवेल्लि होती है जिसका फल विषमय होता है । उन्हीं फलों का आस्वादन करते हुए जगत् जीव भयंकर दुःख के भाजन हो जाते हैं तो हे गौतम आपने विषवेल्लि को मूल से कैसे उखेड़ के दूर करदी और अमृतपान करते हो ? उ०-हे भगवान् ! मैंने उसी विषवेल्लि को एक तीक्ष्ण कुदाले से जड़ामूल से उखेड़ दी, अब उन विषमय फल का भय न रखता हुश्रा जैन शासन में न्यायपूर्वक मार्ग का अवलम्बन कर अमृतपान करता हुआ विचरता हूँ। तर्क-हे गौतम! आपके कौनसी विषवेल्लि है और कौन से कुदाल से उसको उखेड़ कर दूर करी है ? समा०-हे केशीश्रमण ! इस घोर संसार के अन्दर रहे हुवे अज्ञानी जीवों के हृदय में तृष्णारूपी विषवेल्लि है; वह वेल्लि भवभ्रमणरूपी विषमय फल देने वाली है परन्तु मैं संतोषरूपी तीक्षण धारावाला कुदाला से जडा-मूल से नष्ट करके शासन के न्याय माफिक निर्भय होके विचरता हूँ। wrAN ..३२ Jain Educacinternational Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष (६) प्रश्न-हे गौतम ! इस रौद्र संसार के अन्दर प्राणियों के हृदय और रोमरोम के अन्दर भयंकर जानल्यमान अग्नि प्रज्वलित होती हुई प्राणियों को मूल से जला देती है, तो हे गौतम ! आप इस ज्वलंत अमिको शान्त करते निर्भय होकर कैसे विचरते हैं ? उ०-हे भगवान् ! इस कुपित अग्नि पर मैं महामेघ की धारा के जल को छांट कर बिलकुल शान्त करके उस अग्नि से निर्भय होकर विचरता हूँ। तर्क-हे गौतम! आपके कौन सी अग्नि है और कौनसा जल है ? समा०-हे भगवान् ! कषायरूपी अग्नि अज्ञानी प्राणियों को जला रही है परन्तु तीर्थकर रूपी महामेघ के अन्दर से सदागम रूपी मूसलधारा जल से सिंचन करके बिलकुल शान्त करता हुआ मैं निर्भय विचरता हूँ । (७) प्रश्न-हे गौतम ! एक महाभयंकर-रौद्र-दुष्ट दिशाविदशा में उन्मार्ग चलने वाला अश्व जगत के प्राणियों को स्वइच्छित स्थान पर ले जाता है तो हे गौतम ! आप भी ऐसे अश्वारूढ हैं फिर भी आपको वह उन्मार्ग नहीं ले जाता हुआ वह अश्व तुमारी मरजी माफिक चलता है इसका क्या कारण है ? ____उ०-हे भगवान् ! उस अश्वका स्वभाव तो रौद्र भयंकर और दुष्ट ही है और अज्ञानी प्राणियों को उन्मार्ग लेजा के बड़ा ही दुःखी बना देता है परन्तु मैंने उस अश्व के मुंह में एक जबरजस्त लगाम और गले में एक बड़ा रस्सा डाल दिया है कि जिन्हों से सिवाय मेरी इच्छा के किसी भी उन्मार्ग में बिलकुल जा नहीं सकता है अर्थात् मेरी इच्छानुसार ही चलता है। तर्क-हे गौतम ! आपके अश्व कौन और लगाम तथा रस्सा कौन सा है ? समा०-हे भगवान् ! इस लोक में बड़ा साहसिक रौद्र उन्मार्ग चलने वाला 'मन' रूपी दुष्टअश्व है वह अज्ञानी जीवों को स्वइच्छा घुमाये करता है परन्तु मैं धर्म शिक्षणरूपी लगाम और शुभ ध्यानरूपी रस्सा से खेंच के अपने कब्जे में कर लिया है कि अब किसी प्रकार के उन्मार्गादि का भय नहीं रखता हुवा मैं आनन्द में विचरता हूँ। केशीनमण । हे प्रज्ञावान, गौतम ! आपने अच्छी युक्ति से यह उत्तर दिया है परन्तु एक प्रश्न मुझे और भी पूछना है ? परिषदा को बड़ा ही आनन्द होता है । गौतम-हे दयालु कृपा कर फरमावें । (८) प्रश्न-हे गौतम इस लोक के अन्दर अनेक कुपन्थ ( खराब मार्ग) हैं और बहुत से जीव अच्छे रास्ते का त्याग कर कुपन्थ को स्वीकार करते हैं। उन्हीं से अनेक शारीरिक मानसिक तकलीफें उठाते हैं तो हे गौतम श्राप इन्हीं कुपंथ से बच के सन्मार्ग पर किस तरह चलते हो ? उ०-हे भगवान् ! इस लोक के अन्दर जितने सन्मार्ग और उन्मार्ग हैं वह सर्व मेरे जाने हुवे हैं अर्थात् सुपन्य कुपन्थको मैं ठीक ठीक जानता हूँ इसी वास्ते कुपन्थ का त्याग कर सुपन्थ पर आनन्द से चलता हूँ। तर्क-हे गौतम ! इस लोक में कौनसा अच्छा और कौनसा बुरा रास्ता है ? समा०-हे महाभाग्य ! इस लोक में अनेक मत-मतांतर हैं जो स्वच्छंद निजमतिकल्पना इन्द्रियपोषक वार्थवृत्ति से तत्व के अज्ञात लोगों ने चलाये हैं अर्थात ३६३ पाखण्डियों के चलाये हुये रस्तों को कुपस्थ कहते हैं और सर्वज्ञ भगवान् ने निस्पृहता से जगतोद्धार के लिये तत्वज्ञानमय रस्ता बतलाया है वह सुपंथ है अतः मैं कुपन्थ का त्याग करता हुआ सुंदर सद्बोधदाता सुपन्थ पर ही चलता हुआ आत्महमणवा कर रहा हूँ। sorrormanenrn mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmarare. www33elibrary.org Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हे गौतम ! यह उत्तर आपने ठीक युक्ति द्वारा प्रकाश किया परन्तु एक और भी प्रश्न मुझे पूछना है। हे क्षमागुणालंकृत भगवान फरमाइये ? (९) प्रश्न-हे गोतम ! इस घोर संसार के अन्दर महापाणी के वेग के अन्दर बहुत से पामर प्राणी मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो इनके शरणदायक किसी द्वीप को श्राप जानते हो? उ०-हे भगवान ! इनको पाणी के महावेग से बचाने के लिये एक बड़ा भारी विस्तारवाला और सौम्य प्रकृति सुंदराकार महाद्वीप है। वहां पर पाणी का वेग कभी नहीं आता है, उसी द्वीप का श्रावलम्बन करते हुए जीवों को पाणी का वेग सम्बन्धी किसी प्रकार का भय नहीं होता है ? तर्क-हे गौतम ! वह कौनसा द्वीप और कौनसा पाणी है ? समा०-हे भगवान ! इस रौद्र संसारार्णव में जन्म जरामृत्यु रोग शोक भय आदि पाणी का महावेग है इसमें अनेक प्राणी शारीरिक मानसिक दुःख का अनुभव कर रहे हैं। जिसमें एक सुंदर विशाल अनेक गुणागार धर्म नाम का द्वीप है । अगर पाणी के वेग के दुख को देखते हुये भी इस धर्म द्वीप का अवलम्बन कर ले तो इन दुःखो से बच सक्ता है । अर्थात इस घोर संसार के अन्दर जन्म मृत्यु श्रादि दुखी प्राणियों को सुखी बनने के लिये एक धर्म ही का अवलम्बन है और धर्म ही से अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। __ हे गौतम ! श्रापकी प्रज्ञा बहुत अच्छी है । यह उत्तर आपने ठीक दिया परन्तु एक प्रश्न मुझे और भी पूछना है ? हे कपासिंधु ! आप अवश्य कृपा करावें । (१०) प्रश्न-हे गौतम ! महासमुद्र के अन्दर पाणी का वेग (चक्र) बड़े ही जोर शोर से चलता है उसके अन्दर बहुत से प्राणी डूब कर मृत्यु-शरण हो जाते हैं और उसी समुद्र के अन्दर निवास करते हुये, आप नौकारूढ़ हो कैसे समुद्र को तर रहे हो ? उ०-हे भगवान ! उस समुद्र के अन्दर नाव दो प्रकार की है (१) छिद्र सहित कि जिन्हों के अंदर बैठने से लोग समुद्र में डूब मरते हैं ( २ ) छिद्र-रहित कि जिन्हों के अन्दर बैठ के, आनन्द के साथ समुद्र को तर सकते हैं। तर्क-हे गौतम ! कौनसा समुद्र और कौनसी श्राप के नाव है ? समा०-हे भगवान ! संसाररूपी महासमुद्र है। जिसमें औदारिक शरीररूपी नाव है परन्तु जिस नाष में श्राश्रवद्वार रूपी छिद्र है अर्थात् जिस जीव ने आश्रवद्वार सहित शरीर धारण किया है वह तो संसार समुद्र में डूब जाता है और जिसने श्राश्रवद्वार रोक कर शरीर रूपी नौकारूढ हुवा है। वह संसार समुद्र से तर के पार हो जाता है । हे भगवान ! मैं छेदरहित नौकारूढ होता हुआ ही समुद्र तर रहा हूँ । हे गौतम ! यह उत्तर तो आपने ठीक युक्तिपूर्ण दिया परन्तु मुझे एक प्रश्न और भी पूछना है ? हे स्वामिन् ! श्राप कृपा कर फरमावें। (११) प्र०-हे गौतम ! इस भयंकर संसार के अन्दर घोरोनघोर अन्धकार फैल रहा है जिसके अन्दर बहुत से प्राणी इधर के उधर धक्के खाते भ्रमण कर रहे हैं, उन्हों को रास्ता तक भी नहीं मिलता है। तो हे गौतम ! इस अन्धकार में उद्योत कौन करेगा ? क्या यह बात आप जानते हो ? । उ०-हे भगवान ! इस घोर अन्धकार के अन्दर उद्योत करने वाला एक सूर्य है, उन्हीं सूर्य के Jain Educas International Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमणं का जीवन ] [ वि० पू० ५५४ वर्ष Matrimurwanama प्रकाश होने से अन्धकार का नाश हो जायगा है तब उधर इधर भ्रमण करने वालों को ठीक रास्ता मालूम होगा। तर्क-हे गौतम ! अन्धकार कौन सा और उद्योत करने वाला सूर्य कौन सा है ? समा०-हे भगवान ! इस पारापार लोक के अन्दर मिथ्यात्वरूपी घोर अन्धकार है जिसमें पामर प्राणी अन्धे होकर इधर उधर भ्रमण करते हैं परन्तु जब तीर्थकररूपी सूर्य केवल ज्ञान रूपी प्रकाश में भव्यात्माओं को सम्यग्दर्शन रूप अच्छा सुन्दर रास्ता दिखला देगा तब उन्हीं रास्ते से जीव सीधा स्वस्थान पहुँच जावेगा । यह उत्तर सुन के देवादि परिषदा प्रसन्नचित्त हो रही थी। हे गौतम ! यह आपने ठीक कहा परन्तु एक और भी प्रश्न मुझे करना है। गोतम-फरमावो भगवान। (१२) प्रश्न-हे गौतम ! इस अनादि प्रवाह रूप संसार के अन्दर बहुत से प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित हो रहे हैं उन्हों के लिए आप कौन सा स्थान मानते हो कि जहां पर पहुँच जाने से फिर जन्म मरण ज्वर रोग शोक की वेदना बिल्कुल ही न होने पावेगी। उ.-हे भगवान् ! इस लोक में एक ऐसा भी स्थान है कि जहां पर पहुँच जाने के बाद किसी प्रकार का दुःख नहीं होता है। तर्क-हे गौतम ! ऐसा कौनसा स्थान है। समा-हे भगवान ! लोक के अग्रभाग पर जो निवृत्तिपुर ( मोक्ष) नाम का स्थान है वहां पर सिद्धावस्था में पहुँच जाने पर किसी प्रकार का जन्म ज्वर मृत्यु आदि दुःख नहीं हैं अर्थात् कर्म रहित होकर वहां जाते हैं अतः अव्यावाद सुखों में विराजमान हो जाते हैं। केशीस्वामी-हे गौतम ! आपकी प्रज्ञा बहुत अच्छी है और अच्छी युक्तियों द्वारा आपने इन सब प्रश्नों का उत्तर दिया है । परिषदा भी यह प्रश्न सुन के शांत चित्त और वैरागरस का पान करती हुई जिनशासन की जयध्वनि के शब्द उच्चारण कर विसर्जन हुई। इन प्रश्नोत्तरों के अन्त में केशीश्रमण ने अपने शिष्यों के साथ जो पहले चार महव्रत थे उसको भगवान गौतम स्वामी के पास पांचमहाव्रत स्वीकार कर लिया । इस प्रकार भगवान महावीर के शासन की आराधना करते हुए केशीश्रमण परमपद को प्राप्त हो गये।। इसी प्रकार मुनि कालिसीवेसीर आदि ने भी महावीर शासन को स्वीकार कर के मोक्ष प्राप्त की तथा मुनि गंगियाजी३ वगैरह और भी बहुत से साधुओं ने भगवान महावीर के शासन का आलम्बन कर अपनी आत्मा का कल्याण किया। १-एवंतु संसए छिन्ने केसी घोर पराक्कमे । अभिवंदित्ता सिरसा गोयमंतु महाजसं ॥ पंच महन्वय धम्म पडिवज्जइ भावओ । पुरिमस्स पच्छिमंमि मग्गे तत्थ सुहावहे ।। उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २३ . २-तएणंसे कालासवेसियपुते अणगारे थेरे भगवते वंदइनमंसई वंदित्ता नमंसित्ता चाउजामाओ धम्माओ पंचमहव्वइया सपडिक्कमणं धम्म उवसंपजित्ताणं विहरई। ___ "भगवतीसूत्र शतक १ उ०१ पृष्ट १६" 34 www.jamedbrary.org Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कई ऐसे भी पार्श्वनाथ के सन्तानिये थे कि अपने जीवन पर्यन्त वे पार्श्वनाथ के सन्तानिये ही रहे थे जैसे आनन्दमैथिलादि ५०० मुनि तुंगिया नगरी में पधारे थे जिन्हों को भगवान महावीर ने तथा गण. धर गौतमस्वामी ने भी पार्श्वनाथ संतानिये कहा है तथा उन्होंने तुंगिया नगरी की आम परिषदा में चार महाव्रतरूपी धर्मदेशना दी थी। दूसरे प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने वाले केशीश्रमणा चाय थे, उन्होंने भी चार महाव्रतरूपी देशना दी तथा उन्हों की मोक्ष भी पार्श्वनाथ संतानियों के रहते हुये ही हुई थी और इन केशीश्रमणाचार्य का विस्तृत वर्णन रायपसेनी सूत्र में है और वह है भी बहुत उपयोगी जिसको पाठकों के लाभार्थं यहां उद्धृत कर दिया जाता है कि भगवान केशीश्रमणाचार्य ने नास्तिक शिरोमणि कठोर हृदयी एवं कूर प्रकृति वाले राजा प्रदेशी को किस हेतु युक्ति एवं अपने ज्ञान द्वारा प्रतिबोध दे कर कट्टर आस्तिक एवं जैनी बनाया था जिसको मैं संक्षिप्त से यहां बतला देता हूँ। ____एक समय भगवान महावीर प्रभु आमलकम्पा नगरी के उद्यान में पधारे वहां के राजा प्रजा ने ३–तप्पभिइ च णं से गंगेयेअणगारे समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणइ सव्वनु सव्वदरिसी, तए णं से गंगेयेअणगारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करेत्ता बंदइ नमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं चयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भे अंतियं चाउजामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं एवं जहा कालासवेसियपुत्तो तहेव भाणियव्वं जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ ___ "भगवतीसूत्र शत्तक ६ उद्देशा ३२" | 8 तेणं कालेणं २ पासावचिजा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विणयसंपन्ना णाणसंपन्ना दंसणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लजासंपन्ना लाघवसंपन्ना ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोमा जियनिदा जितिंदिया जियपरीसहा जीवियासमरणभय विप्पमुक्का जाव कुत्तियावणभूता बहुस्सुया बहुपरिवारा पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडा अहाणुपुधि चरमाणा गामाणुगाम दुइजमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव तुंगिया नगरी जेणेव पुष्फवतीए चेइए तेणेव उवागच्छंति २ अहापडिरूव उग्गहं उगिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरंति ॥ xxतएणते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं तीसे य महति महालियाए परिसाणं चाउजामं धम्म परिकेहति । भगवतीसूत्र शतक २ उद्देशा ५ पृष्ट १३६-३८ -एवं खलु देवा. तुंगियाए नगरीए बहिया पुष्फबईए चेइए पासावच्चिजा थेरा भगवंतो समणोवासएङ्गि इमाह एयारूवाइ वागरणाई पुच्छिया-संजमेणं भंते ! किं फले ? तवे किंफले ? भगवती सूत्र शतक २ उद्देशा ५ पृष्ट १४० +-ते] कालेणं तेण समएण पासावचिज्झे केशीणाम कुमार समणे जाइसंपण्णे x x ततेण केसीकुमार समणे चित्तस्स सारहिस्सतीसेमहति महालियाए महव्व परिसाते चाउज्झामं धम्मॅकहेइ राजप्रश्नी सत्र पृष्ठ २१५-२२१ Jain Edue International Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ) [वि० पू० ५५४ वर्ष भगवान का अभिवंदन किया और भगवान ने उनको धर्मदेशना सुनाई उस समय पहिले देवलोक में रहने वाला सूरयाम नाम के देव ने अपने ऋद्धि एवं परिवार के साथ आकर भगवान का वंदन किया। भगवान ने उसको भी धर्म उपदेश दिया जिसको श्रवण कर के सूरयाभ ने कहा कि हे प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं, अतः मेरी भक्ति को जानते हो परन्तु यह गोतमादिक मुनि हैं जिनको मैं भक्तिपूर्वक ३२ प्रकार का नाटक कर के बतलाऊंगा ऐसे दो तीन बार कहा उस पर भी भगवान ने मौन ही रक्खा 'मौनं सम्मति लक्षणं' बस, सूरयाभ ने ३२ प्रकार का नाटक किया, बाद भगवान को बन्दन कर के स्वर्ग चला गया। __ गोतमने सूरयाम देव का पूर्वभव पूछा जिसके उत्तरमें भगवानने फरमाया कि इस भारतके वक्षस्थल पर केकयी जिनपद देशकी श्वेताम्बिका नाम की नगरी में राजा प्रदेशी राज करता था परन्तु वह था नास्तिक, जीव और शरीर को एक ही मानता था अतः वह परभव और पुन्य पाप के फल को भी नहीं मानता था । फिर वह पाप करने में उठा ही क्यों रक्खे ? अतः वह राजा अधर्म की ध्वजा ही कहलाता था। राजा प्रदेशी के सूरिकान्ता परमवल्लभ एवं प्रियकारिणी रानी थी और सूरिकान्त नाम का कुवर था वह राजकाय चलाने में पड़ा ही कुशल था । राजा प्रदेशी के चित्त नाम का प्रधान था वह भीचार बुद्धि निपुण एवं बड़ा ही विचा. रज्ञ, प्रत्येक राजकार्य में सलाह देने वाला मुत्सद्दी था। राजा के अधर्म कार्य को वह सहन नहीं कर सकता था और उसको अच्छे रास्ते पर लाने की कोशिश किया करता था। एक समय राजा प्रदेशी को सावत्थी नगरी के राजा जसतु के साथ ऐसा कार्य उपस्थित हुआ कि उसने अपने प्रधान चित्त को सावत्थी भेजा । प्रधान चित्त सावत्थी जाकर अपने राजा की भेंट वहां के राजा की सेवा में रख जिस काम के लिये आया था उसको राजा से कह कर उस कार्य में लग गया। . चित्त प्रधान ने सुना कि यहां शहर के बाहर कोष्ठक नाम के उद्यान में पार्श्वनाथ के सन्तानिये केशीश्रमण आये हुए हैं अतः वहाँ से चल कर केशीश्रमण के पास आया और केशीश्रमण ने उस चित प्रधानादि को धर्म उपदेश सुनाया जिसको श्रवण कर के चित प्रधान बहुत खुश हुआ और वह गृहस्थ धर्म पालन करने योग्य श्रावक के बारह ब्रत प्रहण कर आचार्य श्री का परम भक्त बन गया। इधर राजा जय. शत्रु ने प्रधान का कार्य कर दिया और राजा प्रदेशी से प्रेम की वृद्धि के लिए बहुमूल्य भेंट तैयार कर प्रधान को दे दी । जब प्रधान ने अपने नगर को जाने की तयारी करी तो वह अपने गुरु महाराज को वंदन करने के लिये उद्यान में आया और वंदन कर के प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आप श्वेताम्बिका नगरी पधारें आपको बहुत लाभ होगा। एक बार नहीं परन्तु दूसरी तीसरी बार कहा इस पर प्राचार्य ने फरमाया कि चित्त तू बुद नीतिज्ञ है और समझ सकता है कि बगीचा कितना ही सुन्दर या फलफूल वाला हो, परन्तु उसमें एक शकारी पारिधि बैठा हो तो क्या वनचर पशु या खेचर जानवर आ सकता है ? अतः तेरी श्वेताम्बिका केतनी ही अच्छी हो परन्तु प्रदेशी जैसा जहाँ पारिधि है वहाँ कैसे आया जाय । इस पर चित्त प्रधान ने म्हा हे प्रभो ! श्वेताम्बिका नगरी में बहुत उदार चित वाले एवं भद्रिक लोग हैं । आपके पधारने पर वह लोग मापकी सेवा भक्ति उपासना करेंगे और विविध प्रकार का असान पान खादिम सादिम प्रतिलाभ करेंगे। फिर आपको प्रदेशी राजा से क्या प्रयोजन है ? यदि आपका वहां पधारना हो जाय और प्रदेशी राजा को उपदेश देने पर वह संभल गया तो बहुत द्विपद चौपद प्राणियों को आराम पहुँचेगा इत्यादि। इस पर पाचार्य महाराज ने फरमाया ठीक है चित्त, वर्तमान योग अर्थात् अवसर देखा जावेगा। बस, चित्त साधुओं www.www.wwww ww.wom wwwwwwwwwwwwwwwwamrememwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww www.ibrary.org Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की परिभाषा से समझ गया कि प्राचार्य श्री अवश्य हमारे नगर में पधारेंगे। चित्त प्रधान गुरु महाराज को वंदना कर के वहाँ से रवाना हो गया । क्रमशः वह श्वेताम्बिका नगरी में पहुँचा तो सबसे पहिले मुनियों को ठहरने के लिये बनपालक को कर दिया कि यदि कोई जैनश्रमण यहाँ आ जावें तो तुम उनकी अच्छी खातिर कर के इस बगीचे में ठहरा देना तथा पाट पाटला व संथारा के लिये घास वगैरह की आमंत्रण करना । वल्पपश्चात आकर हमको खबर देना । बाद प्रधान अपने मकान पर गया और राजा को सब हाल सुना दिया जो कि सावत्थी नगरी में कर के आया था। प्रधान चित्त ने नगरी के अच्छे २ मनुष्य थे उनको भी यह शुभ समाचार सुना दिये कि यहाँ केशीश्रमणाचार्य पधारने वाले हैं । इधर केशीश्रमण अपने शिष्य समुदाय के साथ क्रमशः विहार करते हुये श्वे. ताम्बिका पधार गये । बनपालक को खबर मिलते ही बड़े ही सत्कार के साथ उन्हें उद्यान में ठहराया तथा पाट पाटले व घास वगैरह की आमंत्रणाकरी । बाद में नगरी में जा कर चित्त प्रधान को शुभ संदेश दे दिया। चित्त ने बहुत खुश हो कर बनपालक को खूब इनाम दिया । यह खबर सब शहर में पहुँच गई और चित्तादि बहुत से लोग मुनियों को वंदन करने के लिए आये जिन्हों को केशीश्रमण ने धर्मलाभपूर्वक धर्म उपदेश सुनाया जिसको सुन कर लोगों ने जैनधर्म पर श्रद्धा कर के प्राचार्य की भूरि २ प्रशंसा की। ____ चित्तप्रधान ने एक समय केशीश्रमण से प्रार्थना की कि गुरु महाराज आप प्रदेशी राजा को धर्मोपदेश दिलावें । यदि यह राजा सुधर जायगा तो बहुत जीवों का भला होगा, इत्यादि । इस पर प्राचार्य श्री ने कहा हे चित्त ! धर्म सुनने के अयोग्य जीवों के चार लक्षण हैं १- साधु को आता सुन कर दो चार मील सामने न जावे २–मुनि उद्यान में आ गये हों फिर भी दर्शन करने को न जावे ३-मुनि मकान पर आ गये हों तब भी वन्दन न करे। ४-और रास्ता में मुनि मिल जावें फिर भी वन्दन न करे । भला ऐसे मनुष्यों को कैसे धर्म सुनाया जावे ? चित्त ने कहा कि आपका कहना सत्य है परन्तु मैं एक उपाय से राजा प्रदेशी को आपके पास ले श्राऊं, फिर आप मनमाना धर्म सुनाइये १ जहा सुखं __ राजा प्रदेशी के कम्बोज देश से चार अच्छे घोड़े भेंट में पाये थे । एक दिन चित्त ने राजा प्रदेशी को कहा और राजा ने स्वीकृति दे दी अतः प्रधान ने भेंट आये हुये चार घोड़ों के रथ को तैयार करवा कर राजा प्रदेशो को उस रथ में बैठा कर आप स्वयं सारथी बन कर रथ को जंगल में लेगया और इधर उधर खूब घुमाया जिससे राजा प्रदेशी का जी घबराने लगा। चित्त ने कहा कि ये मृगवन उद्यान नजीक है, यदि आपकी आज्ञा हो तो वहाँ चले चलें वहाँ सब तरह का आराम है । बस, रथ को लेकर उद्यान में चले गये और एक कमरे में ठहर गये । पास में ही केशीश्रमण का व्याख्यान हो रहा था और हजारों भक्तगण सुन रहे थे जिसको देख कर राजा प्रदेशी ने चित्त को कहा रे चित्त ! यह जड़ मूढ़ कौन है और इतने जड़ मूढ़ इसका व्याख्यान सुनने वाले कौन हैं ? इस पर चित्त ने कहा कि यह जैन श्रमण हैं अपने धर्म का उपदेश कर रहे हैं इनकी मान्यता जीव और शरीर को अलग अलग मानने की है । ये शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता हैं । पृच्छक के प्रश्नों का उत्तर अच्छी युक्ति से देते हैं। यदि आपकी मरजी हो तो आप भी पधारिये । इस पर राजा प्रदेशी प्रधान को साथ लेकर केशीश्रमण के पास गये परन्तु प्रदेशी ने मुनि को वंदन नहीं किया; फिर भी पूंछा कि आप जीव और शरीर को अलग २ मानते हो क्या ? Jain Educacinternational Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष www हे प्रदेशी ! जैसे कोई हसल के चुराने वाला व्यापारी मार्ग को छोड़कर उन्मार्ग जाता है इसी प्रकार राजन् ! तुम भी हमारा हसल ( वंदना ) चुरा कर प्रश्न करते हो । हे नरेश्वर ! क्या यहाँ आने के पहिले तुम्हारे ये विचार हुये थे कि यह जड़ मूढ़ कौन बैठा है, और इनकी सेवा करने वाले जड़मूद कौन हैं, क्या यह सत्य है ? राजा प्रदेशी को केशीश्रमण का वचन श्रवण कर बड़ा आश्चर्य हुा । उसने सोचा कि यह कोई ज्ञानी महात्मा है फिर भी उसने पूंछा हे प्रभो ! आपने मेरे मन की बात को कैसे जान ली ? केशीश्रमण-हे भूपति ! हमारे जैन शासन में पांच प्रकार के ज्ञान बतलाये हैं यथाः १-मतिज्ञान-मगज से शक्तियों द्वारा ज्ञान होना। २-श्रुतिज्ञान-श्रवण करने से ज्ञान होना। ३-अवधिज्ञान-मर्यादायुक्त क्षेत्र पदार्थों का देखना । ४-मनः पर्यवज्ञान-अढाई द्वीप के संज्ञी जीवों के मन का भाव जानना । ५- केवल ज्ञान-प्रात्म का सर्व विकास होने से सर्व पदार्थों को हस्तामलक की भाँति देखना और जानना। इन पांच ज्ञानों से एक केवल ज्ञान छोड़ कर शेष चार ज्ञान मुझे हैं जिसके जरिये से मैंने तेरे मन की बात कही है। इस पर राजा प्रदेशी को इतना ज्ञान तो सहज ही में हो गया कि यह महात्मा कोई अलौकिक पुरुष है, शायद मेरे संशय को मिटा देवें तो भी ताज्जुब की बात नहीं । अतः राजा ने मुनि से पूछा कि क्या मैं यहां बैठ सकता हूँ? केशीश्रमण ने उत्तर दिया हे राजन् ! यह आपका ही मकान है। राजा बैठ गया और प्रश्न किया कि क्या आप जीव और काया को अलग अलग मानते हो ? मुनि ने कहा हाँ, जीव और काया अलग अलग हैं और इसको मैं प्रमाणों द्वारा साबित भी कर सकता हूँ। ____१--प्रश्न राजा- यदि आपकी यही मान्यता है तो मैं पूंछताहूँ कि मेरी दादी जो बड़ी धर्मात्मा थीं उनकी उम्र ही प्रायः धर्म में गई थी । आपकी मान्यतानुसार वह अवश्य स्वर्ग में गई होंगी। यदि वह आके मुझे कह दें कि बेटा मैं धर्म करके स्वर्ग में गई हूँ और वहाँ सुख का अनुभव करती हूँ तुम भी पाप को छोड़ धर्म करो ताकि तुमको भी स्वर्ग मिले । तो मैं मान लूँ कि जीव और शरीर अलग हैं । जो मेरे दादीजी का शरीर यहाँ मेरे हाथ से जलाया गया और उनका जीव स्वर्ग में है । यदि ऐसा न हो तो मेरी मान्यता ठीक है कि वही जीव वही शरीर । शरीर के साथ जीव उत्पन्न होता है और शरीर नष्ट के साथ जीव भी नष्ट हो जाता है। जैसे पांच तत्वों के संयोग से जीव उत्पन्न होता है और पाँच तत्व नष्ट होने से जीव भी नष्ट हो जाता है। उ०-हे राजन् ! यह सब आपका भ्रम है । देखिये एक मनुष्य स्नान मज्जन कर सुगंधित पदार्थ ले देवपूजन को जा रहा है । रास्ते में एक टट्टी आई जो कि महादुर्गधित थी । वहाँ किसी मनुष्य ने देवपूजन करने वाले को बुलाया कि जरा इस टट्टी में आइये तुम्हारे से कुछ बात करना है । भला वह देवभक्त श्रा www.animireonipornrAnnivainineupauravurvaraurariumurt.niwamine www. library.org Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सकता है ? नहीं । इसी प्रकार मनुष्यलोक के दुगंधित पुद्गनों की गन्ध भूमि से ४०० या ५०० योजन ऊंची जाती है । अतः उस दुर्गध के मारे देवता मर्त्यलोक में नहीं आते हैं। जैसे देवपूजन को जाने वाले के लिए टट्टी का उदाहरण । और भी शास्त्रों में कहा है कि १-तत्काल के उत्पन्न हुए देवताओं के मनुष्यों का सम्बन्ध छूट जाता है ( विस्मृत ) और वहाँ देव देवियों से नया सम्बन्ध हो जाता है इसीसे देवता आ नहीं सकते हैं । २-तत्काल का उत्पन्न हुआ देवता देवता सम्बन्धी दिव्य मनोहर काम-भोगों में मूर्छित हो जाते हैं अतः यहाँ के सड़न पड़न विध्वंसन काम भोगों का तिरस्कार करते हैं इसलिए आ नहीं सकते ३-तत्काल का उत्पन्न हुआ देवताओं के आज्ञाकारी देवदेवियाँ एक नाटक करते हैं उन्हीं को देखने में लग जाते हैं वह सुखपूर्वक देखने वालों को ज्ञात होता है कि मुहूर्त मात्र का नाटक है परन्तु यहाँ २००० वर्ष क्षीण हो जाते हैं अतः देवता पा नहीं सकते हैं ४-तत्काल के उत्पन्न हुये देवता मनुष्य लोक में आना चाहें परन्तु मृत्यु लोक की दुर्गन्ध ४ . ०-५०० योजन ऊर्ध्व जाती है। अतः दुर्गध के मारे देवता यहां पर श्रा नहीं सकते हैं । अतः राजन् ! तू इस बात को स्वीकार करले कि जीव और शरीर अलग २ है और जीव को किये हुये शुभाशुभ कर्म अवश्य भोगने पड़ते हैं जो सुखी, दुखी, मूर्ख, विद्वान, ब्रह्मचारी, व्यभिचारी श्रपुत्री, बहुपुत्री, रोगी, निरोगी, दुर्भागी, सुभागी, आदि आदि विचित्र प्रकार का संसार आपकी नजरों के सामने मौजूद है । यदि तज्जीव तद्शरीर माना जाय तो जीव के पुन्य पाप का फल ही नहीं । पुन्य पाप क फल नहीं तो परलोक नहीं; परन्तु यह ऊपर बतलाई संसार की विचित्रता से यह प्रत्यक्ष खिलाफ है अतः आप को मानना चाहिये कि जीव अलग है और शरीर अलग है। (२) प्रश्न-हे प्रभो आपको युक्तियाँ बहुत आती हैं परन्तु मैं आपको पूछता हूँ कि मेरे पितामह (दादा) बड़े ही अधर्मी थे। प्राणियों के रक्त से हमेशा हाथ रंगे रहते थे, जीवों को मारने में उनको घृणा नहीं थी अतः आपके मतानुसार वह नर्क में गये होंगे । यदि वह आकर मुझे नरक के समाचार कहें कि हे पौत्र ! मैं पाप करके नक में गया हूँ यदि तू भी पाप करेगा तो तेरे को भी नर्क में दुःख सहन करना पड़ेगा तो मैं आपका कहना स्वीकार कर सकता हूँ कि शरीर और जीव अलग २ हैं वरना मेरा माना हुआ अच्छा है कि जीव शरीर एक ही है। १०-हे राजन् ! मैं आपसे पूछता हूँ कि यदि आपकी प्यारी पटरानी सूरिकान्ता के साथ कोई व्यभिचारी बलात्कार करे तो क्या आप उसको दंड देंगे ? हाँ प्रभो उस दुष्ट को मारूंगा पीटूगा कैद कर दूंगा । मुनि ने कहा यदि वह व्यभिचारी आपसे कहे कि थोड़ी देर के लिये मुझे जाने दीजिये कि मैं अपनी स्त्री पुत्रादि कुटुम्बियों से मिल कर वापिस आ जाऊंगा तो क्या आप उसको छोड़ देंगे ? नहीं प्रभो ऐसे कुकृत्य करने वाले को क्षण भर भी नहीं छोडूं । हे राजन् ! इसी भांति नारकी के नैरिये अपने दुष्कृत्यों को भोगते हुये यहां नहीं पा सकते हैं और उसके कई कारण भी हैं जैसे १-तत्काल उत्पन्न हुआ नैरिया नारकी की महावेदना को क्षय नहीं कर सका अतः वह पाना चाहता है तो भी नहीं आ सकता अर्थात् जितनी मुद्दत कारागार की है उसको पूर्ण न भुगत ली हो वहाँ तक आ नहीं सकता है २-नैरिये परमाधानी देवताओं के आधीन रहते हैं अतः देवता उसको क्षण भर भी नहीं छोड़ता है ३-नारकी में भोगने योग्य कर्म नहीं भोग सके अतः वह पा नहीं सकता है४-नारकी सम्बन्धी प्रायुध्य जहां तक सम्पूर्ण क्षय नहीं करता है वहां तक वहां से निकल नहीं सकता है । इन कारणों से नैरिये चाहते हुये भी नहीं आ सके तो Jain Educo International Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्षे फिर तुम्हारा दादा नर्क से आकर तुमको कैसे कह सके ? परन्तु पाप करने वालों को अवश्य नर्क में जाना पड़ता है। अतः तुम मान लो कि जीव और शरीर अलग २ है और पुन्य पाप का फल भवान्तर में अवश्य भुगतना पड़ता है। ३-प्रश्न-हे स्वामिन् ! एक समय मैं राज सिंहासन पर बैठा था उस समय कोतवाल एक चोर को पकड़ कर मेरे पास लाया । मैंने उस जीते हुए चोर को एक लोहे की कोठी में डाल दिया और ऊपर से ऐसा ढाकन लगा दिया कि जिसमें वायु तक भी प्रवेश न कर पावे फिर कितनेक समय बाद उस कोठी को खोली वो वह चोर मरा हुआ पाया। मैंने उस कोठी को बारीक दृष्टि से देखा तो कहीं पर छिन्द्रन नजर नहीं आया जिससे कि चोर के शरीर से जीव अलग होकर बाहर निकल सका हो । बस, मैंने निश्चय कर जिया कि शरीर और जीव कोई भिन्न २ वस्तु नहीं है अतः एक ही है। उ०-राजन् ! यह तुम्हारी कल्पना ठीक नहीं क्योंकि आपको विचारना चाहिये कि शरीर तो स्थूल पुदगलों से बना है और जीव अरूपी पदार्थ है। तथा उसकी गति भी अप्रतिहत है वह किसी पदार्थ की रुकावट से रुक नहीं सकता है । यदि कोठी के छिद्र न होने से ही आपको भ्रांति हुई हो तो मेरा एक उदाहरण सुन लीजिये । भूमि के अन्दर एक गुप्त घर बड़ा ही सुन्दर है। जिसके अन्दर एक पुरुष को ढोल और बाका दे के बैठा दिया, बाद उसका दरवाजा व सब छिद्र बन्द कर दिये जैसे आपने कोठी के छिद्र बन्द किये थे, तब अन्दर बैठे हुये आदमी ने ढोल को खूब जोर से बजाया । क्यों राजन् ! क्या उस ढोल की आवाज बाहर आ सकती है एवं बाहर रहे हुए मनुष्य सुन सकते हैं ? हाँ प्रभो आवाज आती है और मनुष्य सुन भी सकते हैं। हे राजन ! जब आठ स्पर्श वाले स्थूल पुदगलों के गुप्त घर से बाहर आने में न तो छिद्र होता है और न रुकावट होती है तब जीव अरूपी अति सूक्ष्म कोठी से निकल जावें और उसके छिद्र न पड़े इसमें आश्चर्य की बात ही कौनसी है । कोठी तो क्या परन्तु बड़े २ पहाड़ और पृथ्वी के अन्दर से भी निकल जाता है, अतः आप को मान लेना चाहिये कि जीव और शरीर पृथक २ हैं। ४-प्रश्न- हे प्रभो ! एक समय कोतवाल ने चोर लाकर मेरे सामने खड़ा किया, मैंने उस चोर को मार कर कोठी में डाल दिया । ऊपर से ऐसा बन्द किया कि कोई छिद्र रहने नहीं पावे । फिर थोड़े दिनों में खोल के देखा तो उस चोर के मृत शरीर में बहुत से जन्तु दीख पड़े । जब कोठी के छिद्र न हुआ तो यह जीव कहां से आये ? अतः मैंने निश्चय किया कि तज्जीव तत्शरीर । ___उ०-हे राजन् ! यह आपकी एक भ्रान्ति है देखिये एक लोहे का गोला अग्नि में तपाने से अग्निमय बन जाता है परन्तु अग्नि शान्त होने पर उस गोले में कोई छिद्र होता है कि जिसके द्वारा अग्नि ने प्रवेश किया ? नहीं भगवान । बस समझ लो कि जैसे लोहे के गोले में स्थूल शरीर वाली अग्नि प्रवेश करने में छिद्र नहीं होता है तो कोठी में अदृश्य जीव के प्रवेश करने में छिद्र कैसे हो सकता है। अतः जीव और शरीर अलग २ हैं इसको मानना ही आप जैसे बुद्धिमानों का काम है । ५-प्रश्न-हे ग्वामिन् । श्रापका मानना ऐसा है किप्रत्येक जीव में अनन्त शक्ति रही हुई है परन्तु मैं देखता हूँ कि जितना वजन युवक उठा सकता है उतना वृद्ध नहीं उठा सकता। बतलाइये इसका क्या कारण है ? यदि सब जीवों में शक्ति समान है तो वजन उठाने में वृद्ध और जवान का अन्तर क्यों ? अतः मेरा मानना ठीक है कि शरीर और जीव अलग २ नहीं पर एक ही हैं। www.janelibrary.org Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उ.-हे नरेश ! प्रत्येक जीवों में अनन्त शक्ति है परन्तु उनके आत्मा पर कर्मरूपी आवरण लगे हुए हैं जिसमें जिनके जितने आवरण दूर हट जाते हैं उतनी २ शक्ति विकास में आ जाती है इसके लिए सुनिये, दो समान बलवान मनुष्य हैं एक के पास नई काबर दूसरे के पास पुरानी काबर है । क्या वे दोनों बराबर वजन उठा सकते हैं ? नहीं। इसका क्या कारण है ? मनुष्य तो दोनों बलवान हैं परन्तु काबर नई और पुरानी का अन्तर है। बस जीव सरीखे हैं परंतु नये पुराने कर्मों का ही अंतर है। अतः मान लो कि जीव और शरीर अलग २ हैं। ६-प्रश्न-हे प्रभो ! यदि सब जीव बराबर हैं तो मैं पूछता हूँ कि एक मनुष्य बाण चलाता है वह बहुत दूर जाता है तब दूसरे का चलाया बाण नजदीक गिर जाता है इस कारण मैंने तो यह निश्चय किया है कि जीव और शरीर एक ही हैं। उ०-हे राजन् ! एक पुरुष के पास बाण या उसकी सब साम्रग्री नई है तब दूसरे के पास पुरानी है तब क्या वे दोनों बराबर बाण को दूर फेंक सकेंगे ? नहीं । बस, यही कारण है कि जीव पुराने होने पर भी उसके शरीर इन्द्रिये आदि साम्रप्री नई पुरानी का अंतर है । अतः इस उदाहरण से समझ लीजिये कि जीव और शरीर भिन्न हैं। ७-प्रश्न-प्रभो! आपको युक्तिये तो बहुत याद हैं परंतु मैं भी पक्का खोजी हूँ। देखिये एक दिन कोतवाल ने एक चोर को लाकर मेरे सामने पेश किया। मैंने अपनी मान्यता की जाँच के लिये उस चोर के दो तीन चार एवं अनेक खंड करके देखा और खूब देखा परंतु कहीं भी जीव नहीं पाया । भला इस हालत में मैं कैसे मान लकि जीव और शरीर अलग २ हैं ? उ-वाह राजन् ! तुम भी एक मूढ़ कठियारे के समान दीख पड़ते हो । जैसे एक समय बहुत से कठियारे एकत्र हो काष्ट लेने की गरज से जंगल में गये, वहाँ जाकर स्नान मज्जन देवपूजन करके रसोई बनाई ।सब ने भोजन किया। बाद एक कठियारे को कहा कि तू यहां ठहर जा इस अग्नि का संरक्षण करना। शायद अनि बुझ जाये तो यह आरण की लकड़िये हैं इससे अग्नि निकाल कर ससय पर रसोई बना के तैयार रखना हम काष्ट ले कर श्रावेंगे उसके अंदर से थोड़ा २ काष्ट तुमको दे कर बराबरी का बना लेंगे । बस, कठियारे काष्ट लेने को चले गये पीछे उस प्रमादी ने अग्नि बुझ जाने की परवाह न की। जब अग्नि बुझ गई तो उसने आरण की लकड़ियों के दो तीन चार एवं अनेक खंड करके देखा तो कहीं भी अनि नहीं पाई । बस, निराश हो कर बैठ गया। इतने में जंगल से कठियारे काष्ट लेकर आये तो न थी रसोई न थी अग्नि जब उसको पूछा तो जवाब दिया कि अग्नि तो बुझ गई थी लकड़ियों के टुकड़े २ करके सब टटोला परंतु कहीं भी अमि न पाई अतः मेरा क्या कसूर है, इस पर कठियारों ने कहा हे मूढ़ ! हे तुच्छ !! तुझे इतना मालूम नहीं है कि लकड़ियों के टुकड़े २ करके अग्नि की तलाश करते हैं इत्यादि उसका खूब तिरस्कार किया। बाद में उन्होंने आरण की लकड़ियों को घिस कर अग्नि निकाली और भोजन बना कर खा पी कर सुखी हुये । हे प्रदेशी ! तू भी कठियारे की भांति मूढ़, तुच्छ एवं मूर्ख है । . प्रदेसी-हे भगवान ! आपने इस विस्तृत परिषदा में मेरा अपमान किया, क्या आपके लिये ऐसा करना योग्य है ? केशीश्रमण-हे राजन् ! आप जानते हो परिषदा कितने प्रकार की होती है ? amanamamare Jain Educati # ternational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि. पू० ५५४ वर्ष प्रदेशी-हे भगवान ! मैं जानता हूँ कि परिषदा चार प्रकार की होती है (१) क्षत्रियों की परिषदा (२) गाथापतियों की परिषदा (३) ब्राह्मणों की परिषदा (४) ऋषियों की परिषदी केशीश्रमण-प्रदेशी तू यह भी जानता है कि इन परिषदों का अपमान करने से क्या सजा मिलती है ? प्रदेशी-हे प्रभो मैं जानता हूँ कि (१) क्षत्रियों की परिषदा का अपमान करने से सूली या फांसी की सजा (२) गाथापतियों की परि० का अपमान करने से डंडा या हाथ चपेटा की मार (३) ब्राह्मणों की परि० का अपमान करने से अक्रोष वचन और (४) ऋषि परि० का अपमान करने से मूद, तुच्छ, मूर्ख आदि शब्दों की सजा दी जाती है। केशीश्रमण-हे प्रदेशी ! तू जानता हुआ ऋषियों का अपमान करता है जब सजा मिलती है तब इज्जत और अपमान का बहाना लेता है। क्योंकि तुम जानते हुए मेरे से देदा टेढ़ा बर्ताव करते हो, क्या यह अपमान नहीं है ? - प्रदेशी-हे प्रभो ! आप का कहना सत्य है । आए मेरे मन की बात को जानते हो हे भगवान ! मैं आपकी पहली व्याख्या से ही ठीक समझ गया था परंतु अपनी जैसी श्रद्धा वाले अपने साथियों को समझाने के लिए मैंने आपसे प्रतिकूल प्रश्न किये थे । फेशीश्रमण-हे राजन् ! आप जानते हो लोक में व्यवहारिया (व्यापारी) कितने प्रकार के होते हैं ? प्रदेशी- हे स्वामिन् ! मैं जानता हूँ । व्यवहारिया चार प्रकार के होते हैं जैसे (१)--यदिसाहूकार रुपये मगने को आया है उसको रुपया भी देवे और सत्कार भी करे (२) रुपया देवे पर सत्कार न करे (३) रुपया न देवे और सत्कार करे (४) न रुपया दे न सत्कार करे । केशीश्रमण-हे प्रदेशी ! तू इन व्यवहारियों में से दूसरे नम्बर का व्यवहारिया है क्योंकि तू अपने मन में तो ठीक समम गया है परंतु बाहर दिखाव में आदर सत्कार नहीं करता है। भला तुम्हारा मन गवाही देता है फिर लज्जा की क्या बात है, खुल्लमखुल्ला सत् धर्म को क्यों नहीं स्वीकार कर लेते हो ? ... ८-प्रश्न-भगवान् श्राप शरीर और जीव को प्रत्यक्ष हस्तामलक की माफिक बतला देवें तो मैं आपका कहना मानने को तैयार हूँ। केशीश्रमण-पास में रहे हुये वृक्ष के पान चलते हुए देख कर पूछा कि हे प्रदेशी ! यह पान क्यों चलते हैं ? प्रदेशी-वायुकाय चलने से पत्ते चल रहे हैं। केशीश्रमण-प्रदेशी यदि तू वायुकाय से पत्ता चलना मानता है तो उस वायुकाय को हस्तामलक की तरह बता सकता है ? प्रदेशी-नहीं प्रभो ! वायुकाय बहुत सूक्ष्म है उसे कैसे बताई जाय। केशीश्रमण-जब वायुकाय आठ कर्म तीन लेश्या और चार शरीरवाला होने पर मी तू नहीं बतला सकता है तो अरूपी अशरीरी जीव को कैसे बतलाया जाय ? हे प्रदेशी ! एक जीव ही क्यों परन्तु छदमस्थ मनुष्य इस बातों को नहीं देखता और नहीं बतला सकता है। १-धर्मास्तिकाय २-अधर्मास्तिकाय ३-श्राकाशस्तिकाय ४-शरीररहित जीव ५-परमाणु wwwg३ibrary.org Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास wwwwwwwww पुद्गल ६-शब्द के पुद्गल ७-गंध के पुद्गल ८-भव्याभव्य ९-यह जीव इस भव में मोक्ष जावेगा या नहीं और १०-यह जीव तीर्थकर होगा या नहीं ? इन दस बातों को सर्वज्ञ ही बता सकते हैं। ९-प्रश्न-हे भगवन् ! आपके शासन में सब जीवों को बराबर माना गया है तो हस्ति इतना बड़ा और कुथवा इतना छोटा क्यों ? उ०-एक दीपक है, उस पर छोटा सा ढाकन रख देने से दीपक का प्रकाश उस ढाकन के नीचे समावेश हो जाता है अगर उससे कुछ बड़ा ढाकन रक्खें तो दीपक का प्रकाश बड़ा ढाकन जितना पड़ेगा। इस न्याय से दीपक के मुताबिक जीव प्रदेश है और ढाकन के माफिक नाम कर्म की औघना (शरीरमान ) है । जो पूर्व भव में जितना लम्बा चौड़ा शरीरमान-औघना कर्म बांधा है उतने में जीव का प्रदेश समावेश हो सकता है जैसे हाथी और कंथवा । १०-प्रश्न-हे प्रभो ! आपकी युक्तिये प्रबल एवं प्रमाणिक हैं, परन्तु आप सोच सकते हो कि मेरे बाप दादा से चला आया धर्म चाहे वह खोटा भी क्यों न हो परन्तु मैं उसे एकाकी कैसे छोड़ सकता हूँ? उ०-प्रदेशी तू भी लोहावाणिया का भाई है, परन्तु याद रखना जैसे लोहावाणिया को पश्चाताप करना पड़ा उसी तरह तुमको भी पछताना पड़ेगा। प्रदेशी-भगवान् ! लोहावाणिया कौन था और उसको क्यों पश्चाताप करना पड़ा था ? कृपा कर इसको भी सुना दीजिये। केशीश्रमण-नरेश ! ध्यानपूर्वक सुनना यह तुम्हारे लिये बड़े लाभ का दृष्टान्त है । एक नगर से बहुत से व्यापारी लाभार्थ गाड़ों में किरयाणा आदि माल भर कर उसको बेचने के लिये विदेश में जा रहे थे, चलते २ गस्ते में कई लोहे की खाने आई जो किरयाणा से बहुमूल्य वाली थी अतः व्यापारियों ने अपने माल को छोड़ कर गाड़ों में लोहा भर लिया, फिर आगे चलने पर तांबे की खानें आई जो लोहे से कई गुना अधिक मूल्य वाली थीं अतः व्यापारियों ने लोहे को छोड़ तांबा से गाड़ियां भरली। उसमें एक व्यापारी ऐसा भी था कि उसने तांबा न लेकर लोहा ही रक्खा तब दूसरे व्यापारियों ने उसका हित चाह कर कहा कि यह तांबा बहुमूल्य है हम सब लोगों ने लोहा छोड़ कर तांबा से गाड़ियां भर ली हैं अतः तुम भी तांबा ले लो परन्तु उसने जवाब दिया कि मैं जानता हूँ कि लोहा की बजाय तांबा बहुमूल्य है परंतु मैं तुम्हारे जैसा चंचल चित्तवाला नहीं हूँ कि एक को छोड़ दूसरे को ग्रहण कर लू चाहे लाभ हो चाहे हानि मैंने तो जो ले लिया सो ले लिया । खैर वहां से आगे चले तो चांदी की खाने आई सब लोगों ने तांबा छोड़ कर चांदी ले ली पर लोहा वाले लोहावाणिया ने तो लोहा ही रक्खा । आगे चल कर सोने की खानें आई सब लोगों ने चांदी छोड़ सोना ले लिया फिर भी लोहावाणिया ने तो लोहे को ही महात्म्य दिया, आगे चल कर रत्नों की खाने आई । व्यापारियों ने सोना छोड़ कर गाड़ों में रत्न भर लिये और अपने साथ वाले लोहावाणिया का हितचिन्तन करते हुए उसको बार २ समझाया,भाई तुमको तांबा चांदी और सोने की खानों पर समझाया था परन्तु तुमने एक की भी बात न सुनी फिर भी तुम हमारे साथ में आये हो इसलिये हम तुम्हारे भले की कहते हैं कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है तुम अब भी इस लोहे को छोड़ कर रत्नों को ले लो कि अपन सब बराबर हो जावें परंतु लोहावाणिया ने उत्तर दिया कि अपने बाप दादों से चली आई रीति रिवाज को हम कैसे छोड़ सकते हैं हमने एक वार ले लिया सो ले लिया अब बदला बदली नहीं करते हैं । भला ऐसे Jain Educa temational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशी श्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष मूर्ख अपने हिताहित को नहीं जानने वाले मनुष्य को मनुष्य तो क्या पर साक्षात् अवतारी पुरुष भी कैसे समझा सकता है ? आखिर लोहावाणिया ने अपना हठ नहीं छोड़ा। फिर वे सब के सब अपने निवासस्थान पर आये और वे लोग बहुमूल्य रत्रों में से एक एक रत्न बेच कर जेवर वस्त्र मकान सवारियां वगैरह सुख के तमाम साधन बनाकर देवताओं के समान सुख भोगने लगे जिसको लोहावाणिया ने देखा तो उसकी आंखें खुलीं और अपनी मूर्खता या हटामहता के लिये सिर ठोक २ कर पछताने लगा । हे प्रदेशी ! तू बुद्धिमान है ऐसा न हो कि रन मिलने पर भी उसका अनादर कर कुल परम्परा के बहाने लोहे को ही पकड़े रख कर लोहे |णिया के उदाहरण को चरितार्थ कर बैठे । प्रदेशी - हे प्रभो ! मैं लोहावाणिया का साथी नहीं हूँ। मैं हिताहित को अच्छी तरह से समझ गया हूँ । मेरे दिल में कुल परम्परा का वृथा भ्रम था वह आपके चरणों की कृपा से चोरों की भांति भाग गया है। हे प्रभो ! आप जैसे जगत-उद्धारक पुरुषों का सुयोग होने पर इस भव में तो क्या परंतु किसी भव-भवान्तर में भी पश्चाताप करने की आवश्यकता नहीं रहती है। हे दयानिधे ! मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि आपकी पहिली व्याख्या से मेरी अन्तरात्मा में सत्य का सूर्य उदय हो चुका था और अब मैं जीव शरीर को भिन्न २ मान कर कट्टर आस्तिक बन गया हू' । अब तो आप कृपा कर मुझे ऐसा धर्म सुनावें एवं रास्ता बतलावें कि जो नास्तिकपने में कर्म संचय किया है वह शीघ्र ही टूट जाय । केशीश्रमण ने राजाप्रदेशी की अभ्यर्थना स्वीकार कर केवली प्ररूपित विचित्र प्रकार का धर्म सुनाना शुरू किया और उसको विस्तार से सुनाया। अन्त में कहा कि आत्म-कल्याण के लिए मुख्य २ मार्ग हैं १ - साधुधर्म २ - गृहस्थधर्म, जिसमें साधुधर्म के लिए सर्वथा संसार को त्याग कर पंचमहाव्रत पांच समति तीन गुप्ति, दस यती धर्म, १२ प्रकार तप और १७ प्रकार संयम की आराधना करना और गृहस्थ धर्म के लिये समकित मूल १२ व्रत हैं । प्रदेशी - सूरीजी का व्याख्यान श्रवण कर परम आनन्द को प्राप्त हुआ और बोला कि हे प्रभो ! दीक्षा लेने की योग्यता अभी मेरे अन्दर नहीं, परन्तु गृहस्थ धर्म के १२ व्रत पालने की मेरी इच्छा है अतः इस विषय का जो विधि विधान हो वह करवा दीजिये । केशी श्रमण - जहा सुखं कह कर उसको समकित मूल १२ व्रत उच्चराय दिये । राजा प्रदेशी व्रत धारण कर अपने आपको अहोभाग्य समझ कर अपने स्थान जाने को तैयार होगया, इस पर केशीश्रमण ने पूछा कि हे राजन् ! आप जानते हो कि आचार्य कितने प्रकार के होते हैं । प्रदेशी - हां प्रभो मैं जानता हूँ कि कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य एवं तीन प्रकार के आचार्य होते हैं। केशीश्रमण – हे प्रदेशी ! आपको ये भी मालूम होगा कि इन श्राचार्यों का बहुमान कैसे किया जाता है ? प्रदेशी -- कलाचार्य्यं और शिल्पाचार्य्यं का बहुमान वस्त्राभूषण भोजनादिक से होता है तब धर्माचाका सत्कार वन्दन, नमस्कार, सेवा और भक्ति से होता है । केशीश्रमण--हे राजन् ! जब आप इस प्रकार के जानकार हैं तब फिर तुमने अपने श्राचार्य का बिना बहुमान किये कैसे जाने की तैयारी कर ली ? प्रदेशी --हे स्वामिन् ! मैंने जो बिना बहुमान किए जाने की तैयारी करी है इसमें भी कुछ महत्वपूर्ण www.library.org Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रहस्य रहा हुआ है और वह यह है कि यह पहिला ही पहिल मामला है । यदि मैं यहां अकेला कुछ कर भी यूँ तो इसे कौन जानेगा अतः मेरा इरादा है कि कल मैं अपने अन्तेवर पुत्र कुटुम्ब और अपनी प्रजा के साथ बड़े ही समारोह और भक्ति सहित आकर आपका वन्दन नमस्कार करूंगा। केशीश्रमण-इसको सुन कर मौन साधन कर लिया क्योंकि साधुओं का ऐसा व्यवहार है कि जैनधर्म की विधि विधान के लिए उपदेश तो कर सकते हैं परन्तु आदेश के समय मौन व्रत रखते हैं। प्रदेशी-उस रोज तो वहां से चला गया, बाद दूसरे दिन अपने पुत्र, रानियां, मन्त्री और नागरिक लोंगों के साथ चार प्रकार की सेना सहित बड़े ही समारोह के साथ आचार्यश्री को वन्दन करने के लिए आया जिसको देख कर और लोगों की भी जैनधर्म पर श्रद्धा होगई अर्थात् उन लोगों को भी आत्मकल्याण करने की रुचि हो गई। __आचार्य केशीश्रमण ने राजा प्रदेशी आदि को बड़े ही विस्तार से धर्म उपदेश सुनाया जिसमें मुख्य विषय था आत्मकल्याण का जिसके लिए त्याग वैराग्य और तपश्चर्या आदि का करना आवश्यक बतलाया था और दानादि के लिये विशेष जोर दिया था । इस उपदेश का असर राजा प्रदेशी वगैरह पर बहुत ही अच्छा हुआ । तदनंतर वे लोग आचार्य भगवान को वन्दन नमस्कार करके जाने के लिए तैयार हुए, उस समय केशीश्रमण ने मधुर वचनों से कहा कि हे नरेश ! आप रमणीक के स्थान अरमणीक न बन जाना। प्रदेशी-हे प्रभो ! मैं आपकी परिभाषा में समझ नहीं सका हूँ कि रमणीक और अरमणीक किसे कहते हैं ? केशीश्रमण--जैसे एक किसान का खेत जिसमें फसल पकती है तब वह रमणीक कहलाता है क्योंकि वहां किसान, साहूकार, मेहमान, ब्राह्मण, भिक्षु, पशु, पक्षी आया जाया करते हैं । तत्पश्चात् धान वगैरह अपने घरों पर ले जाते हैं । बाद वहां कोई भी नहीं आता है, जिसको अरमणीक कहा जाता है इसी प्रकार इक्षु का खेत वगैरह भी समझ लीजिए, जो कि पहले रमणीक होता है बाद में अरमणीक हो जाता है और इसी भांति नाटकशाला जो प्रारम्भ में रमणीक दीखती है जब नाटक करके लोग चले जाते हैं वही नाटकशाला अरमणीक दीख पड़ती है एवं फलाफूला उद्यान रमणीक दीखता है जब वह उद्यान सूख जाता है तब अरम. णीक होजाता है,इस प्रकार अनेक उदाहरण हैं। अतः मैं आपसे यही कहता हूँ कि मेरी मौजूदगी में तो आप रमणीक दीखते हो जो कि आपकी धर्म पर श्रद्धा, एवं व्रत धारण करना तथा वन्दन भक्ति आदि २ धर्मकार्य में अभिरुचि है,परन्तु मेरे जाने पर अरमणीक न हो जाना कि कहीं भाव-भक्ति धर्म-साधन में शीतल होजाओ अर्थात् धर्म-भावना को बढ़ाते हुये स्वपर कल्याण करने में तत्पर रहना । प्रदेशी---हे प्रभो ! इस बात की आप पक्की खातिरी रक्खें कि मैं कदापि रमणीक का अरमणीक नहीं होऊंगा । मैं आपको विश्वास दिलाता हुश्रा प्रतिज्ञा करता हूँ। मेरे राज में श्वेताम्बिका नगरी आदि ७००० ग्राम हैं जिसकी आमद आवेगी उसके चार भाग कर दूंगा। १-अन्तेवर, २-सेना, ३-खजाना और ४-दानशाला के लिये व्यय करूंगा, जिसमें याचकों को प्रति दिन अन्न, जल, वस्त्र वगैरह दान देता रहूँगा राजा प्रदेशी अपनी आमद को अन्तेवर, सेना और खजाने में तो पहिले ही व्यय करता था परन्तु केशीश्रमण की उदारता के व्याख्यान से उसने दानशाला खोलने का निश्चय किया जिसको केशीश्रमण ने उपादेय समझ कर के ही इन्कार नहीं किया था। अहाहा ! भिक्षुओं की भिक्षा के अन्दर से भाग लेने वाले राजा के विचारों में कितना परिवर्तन हुआ। यह सब भगवान केशीश्रमण की महती कृपा का सुन्दर फल है। Jain Educatnternational Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष और मेरे करने योग्य पोषध, उपवास, व्रत, पचरखान तथा आचार विचार का पालन करता रहूंगा । अतः मैं रमणीक का अरमणीक न होऊंगा । राजा के कहने पर सूरीजी को विश्वास हो गया कि राजा प्रदेशी बड़ा धर्मज्ञ है अतः उसको और भी जो कुछ देने काबिल शिक्षा थी वह दी जिसको राजा ने बड़े हर्ष के साथ ग्रहण की। बाद सूरिजी को वन्दन नमस्कार कर अपने स्थान को चला गया और आत्मकल्याण में लग गया। इधर आचार्य केशी श्रमण भी वहां से विहार कर अन्य प्रदेश में चले गये । आहा ! संसार की स्वार्थ वृत्ति, जब से राजा प्रदेशी संसार के कार्य्यं से विरक्त हो आत्मकल्याण में लग गया और छट छट पार करने लगा तो उसकी रानी सूरिकान्ता जो एक दिन राजा को वल्लभ थी उसने सोचा कि राजा ने राज की सार-सम्भाल करना छोड़ दिया और केवल धर्म कार्य में ही लग गया तो ऐसे राजा से मेरा क्या स्वार्थ है अतः किसी विष, शस्त्र या अग्नि के प्रयोग से मार डालूँ और अपने पुत्र सूरिकान्त को राज दे दूँ। इस विचार में रानी ने कई दिन निकाल दिये, परंतु ऐसा समय हाथ नहीं लगा कि वह राजा के जीवन का अंत कर दे । तब उसने अपने पुत्र सूरिकांत को बुला कर सब हाल कहा, परंतु कुंवर अपने पिता को इस प्रकार मारने में रानी से सहमत नहीं हुआ । अतः वहां से उठ कर चला गया। इस पर रानी ने सोचा कि कहीं कुंवर जाकर राजा को न कह दे अतः इस कार्य में विलम्ब न करना चाहिये । राजा तो छट छट पारणा करता था उसके बारह छट हो चुके थे और तेरहवां छट का पारणा था उस समय रानी ने बड़ी नम्रता के साथ आग्रह किया कि हे धर्मात्मा पतिदेव ! आज का पारणा ( भोजन ) हमारे यहां करके मुझे अनुगृहीत करें । राजा ने स्वीकार कर लिया और रानी ने विषमिश्रित भोजन से राजा को पारणा करा दिया । जब राजा के शरीर में विष फैलने लगा तो उसने जान लिया। फिर भी रानी पर किंचित भी द्वेष नहीं किया और अपने संचित कर्म समझ कर अपना चित्च समाधि में रक्खा । इतना ही क्यों पर उसने समाधि मरण की तैयारी कर ली अर्थात् घास का संथारा बिछा कर उस पर आप बैठ गया । पहला नमस्कार सिद्ध भगवान को किया दूसरा नमस्कार अपने धर्माचार्य्यं केशीश्रमण को किया । तत्पश्चात् अपने भवसम्बन्धी पापों की आलोचना की और १८ पाप तथा ४ प्रकार के हार का सर्वथा त्याग कर दिया और समाधि पूर्वक काल करके प्रथम देवलोक में सूरियाभ नाम के विमान में चार पल्योपम के आयुष्य वाला देव हुआ जिसका नाम सूरियाभ है जो अभी तुम्हारे सामने नाटक करके गया है । इससे तुम्हारे प्रश्न का समाधान हो गया कि सूरियाभ देव पूर्व भव में श्वेताम्बिका नगरी का प्रदेशी राजा था । गौतम -- हे प्रभो ! यह सूरियाभदेव देवता का भव समाप्त कर कहाँ जायगा ? में राजकुँवर होगा महावीर - गौतम ! यह सूरियाभ देवता का जीव यहां से चल कर महाविदेह क्षेत्र जिसका नाम दृढ़पइना रक्खा जावेगा और वह वहां पर सब प्रकार के सांसारिक सुखों आखिर दीक्षा लेकर केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में चला जायगा । का अनुभव करके “राजप्रश्नी सूत्र” प्रश्न - उत्तराध्ययन सूत्र के २३ वें अध्ययन में गौतम और केशीश्रमण की आपस में चर्चा हुई और केशी श्रमण ने चार महाव्रत के पाँच महाव्रत स्वीकार कर लिये थे तो केशीश्रमण को पार्श्वनाथ की संतान कैसे कही जा सकती है ? उत्तर - उस समय केशीश्रमण नाम के दो मुनि हुये हैं १ - गौतम के साथ चर्चा करने वाले तीन www.gelibrary.org Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ज्ञान संयुक्त थे । २ - राजा प्रदेशी को प्रतिबोध करने वाले चार ज्ञान वाले थे इनके लिये कल्पसूत्र में उल्लेख मिलता है कि पार्श्वनाथ प्रभु की युगान्तगढ़ भूमि में पार्श्वनाथ के चार पट्टधर मोक्ष जावेंगे १ - गण - धर शुभदत्त २ - आचार्य हरिदत्त ३ - आचार्य समुद्रसूरि और ४ - केशी श्रमणचार्य । इस लेख से पार्श्वनाथ के चतुर्थ पट्टधर केशी श्रमणाचार्य गौतम के साथ चर्चा करने वाले केशीश्रमण से अलग थे और वे पार्श्वनाथ की परम्परा में मोक्ष गये हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि महावीर के निर्वाण समय भी पार्श्वनाथ के सन्तानिये पार्श्वनाथ के शासन की क्रिया समाचारी करने वाले विद्यमान थे । भगवान महावीर ने यह भी आर्डर नहीं निकाला था कि अब मेरा शासन प्रवृतमान हो गया है तो तुम पार्श्वनाथ के संतानिये कहला कर अलग क्यों रहते हो अर्थात तुम सब हमारे शासन में चले आओ इत्यादि और न पार्श्वनाथ संतानियों का भी श्राग्रह था कि हम पार्श्वनाथ के संतानिये अलग रह कर पार्श्वनाथ का शासन चलावेंगे। इन सब का मतलब यह है कि जहां जहां पार्श्वनाथ के संतानियों को भगवान महावीर की भेंट होती गई वहां वहां उन्होंने मगवान् महावीर के शासन को अर्थात चार महात्रत के पांच महाव्रत स्वीकार करते गये । शेष रहे हुए भगवान् पार्श्वनाथ के संतानिये क्रिया प्रवृति सब भगवान् महावीर शासन की ही किया करते थे, एवं आज भी करते हैं और वे पार्श्वनाथ की परम्परा में होने से महावीर संतानिये उनको पार्श्वनाथ संतानिये ही कहते थे । और भगवान् पार्श्वनाथ के संतानिये भी अपनी पट्ट परम्परा प्रभु पार्श्वनाथ से मिलाने की गरज से वे अपने को पार्श्वनाथ संतानिये कहलाते थे । दूसरे भगवान महावीर के पूर्व जैनधर्म के अस्तित्व का यह एक सबल प्रमाण भी है। तीसरे जहां आत्म-कल्याण है वहां परम्परा की खींचतान को थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता है । परम्परा केवल उपचरित नय से ही कही जाती है । वास्तव में जैनधर्म अनादिकाल से प्रचलित है । यही कारण है कि आज पर्यंत वीर शासन किसी आचार्य ने पार्श्वनाथ संतानियों के लिये एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया है कि भगवान् महावीर शासन में श्राप पार्श्वनाथ संतानिये क्यों कहलाते हो ? इतना ही क्यों बल्कि इनको श्रेष्ठ समझ कर बहुमानपूर्वक आदर सत्कार किया है। प्रसंगोपात् केशी श्रमणाचार्य के विषय के प्रश्नोत्तर लिखकर अब भगवान महावीर का विषय जो अपूर्ण रह गया था पूर्ण करते हैं । भगवान् महावीर के छदमस्थावस्था का विहार क्षेत्र १ अस्थिग्राम २ राजगृह ३ चम्पा ४ पृष्ट चम्प ५ भद्रिका ६ श्रभिया ७ राजगृह ८ भद्रिका ९ अनार्य भूमि १० सावस्थि ११ विशाला १२ चम्पानगरी एवं बारह चर्तुमास हुये और कैवल्यज्ञान होने के बाद वेसालिक और वानिया गाँव में १२ राजगृह में १२ मिथिला में ६ और अंतिम चर्तुमास पावानगरी में हुआ, इससे पाया जाता है कि भगवान् महावीर का विहार प्रायः अंग वंग मगध कलिंग और सिन्धु सोवीर वगैरह पूर्व में ही हुआ था तथा महाराष्ट्रीय प्रान्त में लोहि-त्याचा की संतान विहार कर धर्म प्रचार किया करती थी । ई० स० पूर्व ५२६ वर्षे भगवान महावीर का निर्वाण हुआ । और आपके पीछे गणधर सौधर्माचार्य * - पासस्सणं अरहओ पुरिसादाणीयस्स दुविहाअंतगढ़ भूमि हुत्था । तं जहा - जुगंतगढ़ भूमिय परिआयअंतगढ़ भूमिय, जाव चउत्थाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगढ़ भूमि - इत्यादि Jain Educa International कल्पसूत्र Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाय कशाश्रमण का जीवन | १० ५० ४७० वर्ष पट्टधर हुये, क्योंकि भगवान् महावीर के नौ गणधर तो भगवान् की मौजूदगी में ही मोक्ष पधार गये थे, शेष इन्द्रभूति और सौधर्म दो गणधर रहे जिसमें इन्द्रभूति को तो उसी दिन केवल ज्ञान हो गया था. अतः भगवान् महावीर के पट्टधर गणधर सौधर्म को ही बनाया गया था। आप बड़े ही प्रतिभाशाली एवं धर्मप्रचारक थे, आपका पवित्र जीवन वीर वंशावली में विस्तार से लिखा मिलता है । बौद्ध प्रन्थों में इस बात का उल्लेख किया है कि ज्ञातपुत्र महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनके शिष्यों में कुछ कलह हो गया था पर जैनशास्त्रों में इस बात का जिक्र तक भी नहीं है कि महावीर के निर्वाण के बाद उनके शिष्यों में कुछ भी क्लेश हुआ हो । हां, भगवान् महावीर की मौजूदगी में जमाली और गोसाला का उत्पात जरूर हुआ था जो भगवत्यादिसूत्र में उल्लेख किया गया है। शायद बौद्धों ने उस जमाली गोसाला काश जो महावीर की मौजूदगी में हुआ उसको भगवान महावीर के निर्वाण के बाद लिख दिया हो तो उसको बौद्धों की भूल ही समझना चाहिये । प्रसंगोपात भगवान् महावीर का संक्षिप्त में जीवन कह कर अब मैं अपने मूल विषय पर आता हूँ कि श्राचार्य केशीश्रमण बड़े ही प्रभाविक एवं धर्म-प्रचार करने वाले सूरीश्वर हुये जिन्होंने मृत्यु के मुँह में जाने वाले जैनधर्म को जीवित रक्खा । इतना ही क्यों पर भगवान् महावीर के शासन समय में भी वे चारों और धूम २ कर धर्म का प्रचार किया करते थे । अन्त में श्राचार्य केशी श्रमण अपनी अन्तिम अवस्था में केवल ज्ञान प्राप्त करके मुनि स्वयंप्रभसूरि को आचार्य पदसे विभूषित बना कर अपनी सब समुदाय का भार स्वयंप्रभसूरि के अधिकार में करके आप जन्मजरामरणादि के दुःख को नष्ट कर अनशन एवं समाधिपूर्वक मोक्ष पधार गये क्रान्ति के अवतार थे आचार्य समुद्र सुनाम था । उनसे प्रभावित थे सभी उनका स्वरूप ललाम था ॥ आवन्ति नृप जयसेन निज पटदेवी अनंग सेना सहित । जैनधर्म में दीक्षित हुये हो वीतराग हिंसा रहित ॥ निजपुत्र केशीकुमार को भी धर्म में प्रवृत बना । जैनधर्म को वर्द्धन किया कर दिव्यतम परभावना || ये तु पटधर केशि ही विख्यात श्रमणाचार्य थे । थे ब्रह्मचारी तापसी उनके अनोखे कार्य्य थे ॥ सेविया का राजा प्रदेशी नास्तिकों में अग्र था । आचार्य के उपदेश से ही वह बना जैनाग्र था ॥ पाखंडियों के चक्र में अनेक भूपति ग्रस्त थे । उनका किया उद्धार था वे अज्ञता से त्रस्त थे || ॥ इति श्री भगवान पार्श्वनाथ केचतुर्थ पट्टधर आचार्य केशीश्रमण बड़े ही प्रतिभाशाली हुए ॥ ४९ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४७० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ५-प्राचार्य स्वयंमसूरि आचार्योऽथ च पंचमः सुविदितो नाम्ना तु स्वायंप्रभः, सूरिः सोऽत्रसुतीर्णवान् सरिदिमाँ विद्यां सुविद्याधरः । श्रीमालेतिपुरे चकार नवतिं जैनान् सहस्रं ततः, त्रिभिः खैरथ वाण वेद सहितान् पद्मावती नाम्नि च ॥ चार्य स्वयंप्रभसूरि-आप विद्याधरकुल के नायक थे। अतः अनेक विद्याओं से विभूषित होना स्वभाविक ही था। आपकी दीक्षा प्राचार्य केशीश्रमण के कर कमलों से हुई थी। दीक्षा के पश्चात् आपने जैनागमों का अध्ययन किया तो स्वल्प समय में शाबोंके पारंगत बन गये । आप अहिंसा धर्म के कट्टर प्रचारक थे। यज्ञवादियों - से शास्त्रार्थ में अनेक स्थानों पर विजयी हो, आपने वादियों को नत-मस्तक कर दिया था। आपका विहारक्षेत्र पूर्व बंगाल कलिंग वगैरह विस्तृत था। आपके आज्ञावृत्ति साधुओं की संख्या भी अधिक थी कि वे विस्तृत प्रदेश में विहार कर धर्म का जोरों से प्रचार भी किया करते थे। ___ भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् आपके पट्टधर गणधर सौधर्म और आपके आज्ञावृति हजारों मुनिराज अंग बंग मगधादि प्रदेश में बिहार कर जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे । इधर आचार्य स्वयंप्रभसूरि भी अपने मुनियों के परिवार के साथ उसी प्रदेश में भ्रमण किया करते थे एवं दोनों समुदायों में अच्छा प्रेम स्नेह और मेल मिलाप था। एक दूसरे के धर्मकार्य में सहायता एवं अनुमोदन कर जैनधर्म का सितारा चमका रहे थे। ____एक समय का जिक्र है कि प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि ने सोचा कि इधर पूर्व में तो बहुत साधु हैं यदि किसी प्रान्त में साधुओं का विहार न हो उस प्रदेश में चल कर जैनधर्म का प्रचार किया जाय तो अधिक लाभ हो सकता है इत्यादि । हाँ, उस समय के साधुत्रों का केवल विचार में ही समय नहीं जाता था पर वे अच्छे कार्यों को शीघ्र ही कार्यरूप में कर बतलाते थे, अतः आचार्यश्री ने ५०० साधुओं को अपने साथ रखने का निश्चय कर लिया और शेष साधुओं के लिये वहाँ ही विचरने की सुन्दर व्यवस्था कर दी। सूरिजी ने पूर्व से ५०० मुनियों के साथ विहार कर दिया और क्रमशः धर्मप्रचार करते हुये पधार रहे थे, पर उन धर्मशून्य क्षेत्रों में विहार करना एक टेढ़ी खीर थी। कारण, कई प्रदेश तो ऐसे भी थे कि वे जैनश्रमणों के प्राचार व्यवहार से बिलकुल अनभिज्ञ ही थे इतना ही क्यों पर कई लोग उन तपस्वी साधुओं को अनेक प्रकार के कष्ट देने में भी कुछ उठा नहीं रखते थे, पर जिन महात्माओं ने स्वात्मा के साथ जगत के कल्याण की भावना से राजपाट धन सम्पत्ति एवं कुटुम्ब को त्याग कर साधु पद धारण किया था उनके लिये वे भीषण कठिनाइये आत्म-कल्याण में बाधक नहीं पर साधक बन कर उनके उत्साह को और भी बढ़ाती थीं अतः वे महात्मा उन परिसह देने वालों को धर्म उपदेश देकर उनको सन्मार्ग पर लाने की कोशिश किया Jain Education international Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्वयप्रभसूर का जीवन | | वि० पू० ४७० वर्ष करते थे जैसे श्राम्रवृक्ष पर लोग पत्थर फेंकते हैं पर वे तो बदले में आन जैसा मधुर फल ही देते हैं । बस इस प्रकार बिहार करते हुए सूरीश्वरजी अपने शिष्यमंडल के साथ तीर्थाधिराज श्री सिद्धगिरि पधारे और वहां की यात्रा बड़े ही श्रानन्द के साथ की। कुछ अर्सा वहां पर स्थिरता कर वहां से लौट कर आबुदाचल पधारे वहां के तीर्थ की यात्रा कर कुछ रोज निर्वृति के निमित्त वहां ठहर गये । कभी २ वहां पर आपका व्याख्यान भी हुआ करता था । एक दिन आपका व्याख्यान अहिंसा पर हुआ। जिसमें मुख्यतथा यज्ञ की हिंसा के लिये विस्तार से आलोचना की थी जिसके प्रमाण इतने अकाट्य थे कि सुनने वालों के हृदय में दया के अंकुर पैदा हुये बिना नहीं रहते थे । उस दिन के व्याख्यान में अन्य लोगों के साथ श्रीमाल नगर से श्राये हुये कुछ लोग भी थे । वे लोग सूरिजी का दयामय व्याख्यान सुन कर आश्चर्य में डूब गये और मन ही मन में विचार करने लगे कि अहो ! कहां तो इन दया के अवतार का श्रहिंसा पर व्याख्यान और कहां अपने यहां होने वाले निष्ठुर यज्ञ, कि जिसके अन्दर असंख्य मूक प्राणियों का निरापराध होते हुये बलिदान दिया जाता है । श्रतः उनका हृदय दया से लबालब भर गया ! उन्होंने सूरिजी को नमन करके प्रार्थना की कि हे दयालु ! हम लोगों ने तो इस प्रकार का व्याख्यान अपनी जिन्दगी में आज पहिले ही सुना है यदि आप जैसे महात्मा हमारे यहां पधारें तो बड़ा भारी लाभ होगा। कारण, कि हमारे यहां नास्तिकों का साम्राज्य बरत रहा हैं । हाल तत्काल ही में एक वृहद् यज्ञ होना प्रारम्भ हुआ है जिसके लिये अनेक जाति के कई सवालक्ष निरापरा पशु एकत्र किये गये हैं जिनका बलिदान दिया जायगा । तदोपरान्त नगर के प्रत्येक घर से भैंसा और बकरे होमे जायंगे और उसमें धर्म, स्वर्ग, मोक्ष तथा दुनिया की शांति एवं उन्नति का कारण बतलाया जाता है और हम लोग भी उन लोगों के अन्दर के हैं। इतना होने पर भी हमारे यहां के राजा भी बड़े ही सरल स्वभाव एवं भद्रिक परिणामी हैं । हमें उम्मेद ही नहीं पर पूर्ण विश्वास है कि आपका वहाँ पधारना हो जाय तो आपके उपदेश का प्रभाव वहाँ की जनता पर काफी पड़ सकेगा और लाखों मूक प्राणियों को अभयदान भी मिल जायगा । श्रतः श्राप कृपा कर हमारे श्रीमालनगर की ओर अवश्य पधारें। सूरिजी ने उन गृहस्थों का कहना सुन कर अपने दिल में विश्वास कर लिया और कह दिया कि क्षेत्र स्पर्शन होगा तो हम उधर ही बिहार करेंगे। पर यदि हमारा उधर ना होजाय तो आप अपनी विनती को याद रखना | गृहस्थों ने कहा कि भगवान् ! यदि हमारा भाग्य हो और आपका पधारना हमारे यहां होजाय तो हम तो क्या पर बहुत से लोग आपकी सेवा भक्ति करने वाले मिल जायगे । आप इस बात का तनिक भी विचार न करें । सूरिजी ने कहा कि ठीक महानुभावो ! हमारे क्या चाहिये, हमारा तो जीवन ही परोपकार के लिये है। बस सूरिजी के वचन पर उन गृहस्थों को विश्वास हो गया कि सूरिजी महाराज का पधारना हमारे यहां अवश्य होगा । अतः वे लोग सूरिजी को वन्दन कर अपने नगर की ओर चले गये और नगर में पहुँच कर कई लोगों को यह शुभ समाचार सुना भी दिये । इधर सूरिजी महाराज रात्रि समय विचार कर रहे थे कि मैंने गृहस्थों को कह तो दिया है, पर क्षेत्र परिचित है, पाखण्डियों का साम्राज्य है, इत्यादि । इतने में तो अर्बुदाचल की अधिष्ठात्री देवी चक्रेश्वरी ५१ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४७० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ने प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आप क्या विचार करते हो ? वहाँ पधारने से श्रापको महान लाभ होगा, मेरी भी प्रार्थना है कि आप वहाँ अवश्य पधारें। वे पेटार्थी अपनी विषय वासना पोषणार्थ हम देवी देवों को बदनाम करते हैं और कहते हैं कि यह बलि देवी देवों को दी जाती है इत्यादि । आपके पधारने से हम लोगों का कलंक भी धुल जायगा। बस फिर तो देर ही क्या थी ? सुबह होते ही क्रिया काण्ड से निवृत हो सूरिजी ने अपने शिष्यों के साथ श्रीमाल नगर की ओर बिहार कर दिया, पर उन पाखगियों के साम्राज्य में इस प्रकार बिहार करना कोई साधारण कार्य नहीं था पर एक टेढ़ी खीर थी। रास्ते के संकट के लिये तो मुक्त भोगी ही जान सकते हैं । पर जिन महाभाग्यशालियों ने जन कल्याणार्थ अपने आप को अर्पण कर दिया है। उनको सुख दुख एवं कठिनाइयों की क्या परवाह है। वे भूखे प्यासे क्रमशः चलते हुए श्रीमाल नगर के उद्यान में पहुँच गये पर वहाँ पहुँच जाने पर भी आपका कौन स्वागत करने वाला था। जो अवंदाचल पर गृहस्थ मिले थे वे भी भाग्यवशात् उस समय बाहर प्राम गये हुये थे। खैर, मुनियों ने ध्यान लगा कर तपोवृद्धि की। जब मुनियों को क्षुधा पिपासा प्रबल सताने लगी तो वे सूरिजी की आज्ञा ले नगर में भिक्षा के लिये गये और एक गृहस्थ के घर में प्रवेश किया तो वहाँ एक निर्दय दैत्य कई पशुओं का बध करते नजर आया। बस, वे साधु तो वों से ही वापिस लौट कर सूरिजी के पास आ गये और नगर का सब हाल सुना कर प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! यह नगर साधुनों के ठहरने काबिल नहीं है, अतः यहाँ से शीघ्र ही विहार करना चाहिये। सूरिजी ने साधुओं को धैर्य्य दिया और अपने विद्वान शिष्यों को साथ लेकर सीधे ही राजसभा में आये जहां कि अनेक जटाधारी यज्ञाध्यक्ष एकत्र हो यज्ञ विषय की सब तैयारियां कर रहे थे। कुछ लोग एक तरफ बैठ कर जैन साधुओं के विषय में बातें कर रहे थे कि यह जैन सेवड़ा अपने कार्य में विघ्न तो न डाल दें इत्यादि। राजा जयसैन राजसभा में बैठा था कि सामने से एक तेजस्वी महात्मा श्राते हुए नज़र पड़े जिनके मुखमण्डल पर अपूर्व तेज था । लम्बे कान, दीर्घ बाहु एवं विशाल हृदय था और भूमि देख कर चल रहे थे। राजा इस प्रकार सूरिजी का अतिशय प्रभाव देख कर अपने सिंहासन से चट से उठा और सूरिजी के सामने जाकर उनको नमन भाव किया प्रत्युत्तर में सूरिजी ने धर्मलाभ दिया जिसको सुन कर वे उपस्थित लोग मुसकरा कर हंसने लगे कि यही जैन साधुओं की मूदता है कि अभी तक इनको अशीर्वाद देना भी नहीं पाता है। राजा जयसैन ने उन लोगों की चेष्टा देख कर सूरिजी से कहा कि महात्माजी ! आप वन्दन के उत्तर में आशीर्वाद नहीं देते जैसे कि अन्य साधु दिया करते हैं ? सूरिजी ने कहा कि राजन् ! यदि मैं आपको चिरंजीवी का आशीर्वाद दू वो नरक में भी दीर्घ आयुष्य है । बहुपुत्र का दूतो श्वानादि के किसी शिवोपासक ने जैनों से कहा कि नो वापि नैव कूपं न च वरं तुलसी नैव गङ्गा न काशी । नो ब्रह्मा नैव विष्णुनच दिवसपति व शंभू न दुर्गा ॥ विप्रेभ्यो नैव दानं न च तीर्थगमनं नैव होमो हुतासी । रे रे पाखण्ड मूढ़ ! कथय भवतां कीदृशो धर्मलाभ ॥ 7 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्यस्वयंप्रभसूरि के शिष्यों में दो मुनि मासोपवासी तपस्वी भिक्षार्थ श्रीमाल नगर के, एक घर में प्रवेश किया तो वहां माँस मदिरा एवं जीव का वध होता देख वापिस लौट आये। पृष्ठ ५२ आचार्य स्वयंप्रभसूरि श्रीमाल नगर की राजसमा में जाकर राजा प्रना को धर्मोपदेश दिया और यज्ञ में बलिदान होने वाले सवालक्ष जीवों को अभयदान दिलाकर ९०००० घरवालों को जैन बनाये । पृष्ट ५२amy.org Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास' 20008038272 P.SMALI आचार्य स्वयप्रभसूरि पद्मावती नगरी में होने वाला वृहद्, यज्ञ में जाकर वहाँ के राजा प्रजा को उपदेश देकर ४५००० घर वालों को जैन बना कर जैनधर्म का प्रचार किया । पृष्ठ ५४ Jain Education Internation आचार्थं स्वयंप्रभसूरि जंगल में देवियों को उपदेश दे रहे हैं ऊपर से जाता हुआ विमान रुक गया उस विमान के विद्याधरोंसे रत्नचूड़ादि ५०० विद्याधरों ने सूरिजी के हाथों से दीक्षा ली । पृष्ठ ६३ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्वयंप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४७० वर्ष भी बहुपुत्र हाते हैं । यदि धन धान्य का दूतो वैश्या के भी होता है। अतः यह आशीर्वाद नहीं पर दुराशीष ही हैं। पर जो मैंने आपको धर्मलाभ सही आशीर्वाद दिया है वह त्रिवर्ग साधन रूप आशीर्वाद है क्योंकि जो कुछ मन इच्छित सुख शांति मिलती है वह सब धर्म से ही मिलती है । इतना ही क्यों पर धर्म साधन संसार में जन्म मृत्यु मिटा कर मोक्ष में पहुँचा देता है । अतः हमारा धर्मलाभरूप आशीर्वाद इस भव और परभव में कल्याणकारी है, इत्यादि । सूरिजी के मार्मिक वचन सुन कर राजा की अन्तरात्मा में बड़ा ही चमत्कार पैदा हुआ और राजा को विश्वास हो गया कि यह अलौकिक महात्मा है अतः राजा को धर्म का स्वरूप सुनने की जिज्ञासा जागृत हो गई । और प्रार्थना करने लगा कि महात्मन् ! आप कृपा कर यहां पधारे हैं तो कुछ धर्म का स्वरूप तो फरमायें कि जिस धर्म से जनता का कल्याण हो सके। - नगर में यह खबर बिजली की भांति सर्वत्र फैल गई कि आज एक जैन सेवड़ा राजसभा में गया है और वहां कुछ धर्मचर्चा करेगा। चलिये अपन लोग भी सुनेंगे वह क्या कहेगा ? अतः वे लोग भी शीघ्रता से राजसभा में आये और देखते देखते राजसभा खचाखच भरगई। उधर वे यज्ञाध्यक्ष भी सब सुनने को उपस्थित हो गये। सूरिजी ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा धर्म का स्वरूप कहना प्रारम्भ किया जिसमें अधिक विवेचन हिंसा और अहिंसा की तुलना पर ही किया कि संसार में हिंसा सदृश कोई पाप नहीं और अहिंसा से बढ़ कर कोई धर्म नहीं है इत्यादि अपनी मान्यता को इस प्रकार सिद्ध कर बतलाया कि उपस्थित श्रोताओं के हृदय कमल में अहिंसा ने चिरस्थाई स्थान कर लिया। इस विषय में ज्यों ज्यों वाद विवाद होता गया त्योंत्यों सूरिजी के प्रमाण जनता को अपनी ओर आकर्षित करते गये । आखिर उस निष्ठर यज्ञ की ओर जनता की घृणा और अहिंसा की ओर सद्भाव बढ़ता गया। फलस्वरूप राजा जयसेन उनके मंत्री और नागरिक लोगों के ९०००० घर वालों को सूरिजी ने जैनधर्म की दीक्षा-शिक्षा देकर उन्हें जैनधर्म का अनुयायी बनाया। जिस यज्ञ के लिये लाखों मूक प्राणियों को एकत्र किया गया था उन सब को अभय दान दिला कर छुड़वा दिया और यज्ञ करना भी बंद करवा दिया । फिर तो था ही क्या ? श्रीमाल नगर में जैनधर्म और सूरिजी की घर २ में मुक्त-कण्ठ से भूरि भूरि प्रशंसा होने लगी। जब कि श्रीमाल नगर के राजा प्रजा जैन बन गये तो अब सूरिजी के प्रति उनको भक्ति का पार नहीं रहा । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता रहा और जैनधर्म का सत्य स्वरूप सुन कर लोगों की श्रद्धा जैनधर्म प्रति खूब मजबूत हो गई। सूरिजी ने सोचा कि यहाँ पर एक जैन मन्दिर बन जाना अच्छा जैनों की ओर से उत्तरनो ज्ञानं नैव सत्यं न च सुगुण धरो नैव तत्त्वादि चिंता । नाहिंसा प्राणी वर्गे न तु विमल मनं केवलं तुंद भर्ति ।। रात्रि भोजी च नित्य पयसी जलचरा जीव घाते कृतांता । रे रे पाखण्ड विप्र कथयत भवताँ कीदृशे यज्ञधर्माः ।। www.jaingsary.org Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४७० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास है क्योंकि साधुओं का सदैव पाना और रहना मुश्किल है । अतः सूरिजी ने एक दिन व्याख्यान में जैन मन्दिर के लिये उपदेश दिया और कहा कि महानुभाव ! आत्मकल्याण के अन्य २ साधनों में अपने इष्ट देव का मन्दिर एक मुख्य साधन है क्योंकि इसके होने से देव की उपासना सेवा भक्ति हो सकती है, धर्म पर रद श्रद्धा और हमेश के लिये चित्तवृति निर्मल रहती है, पाप करने में घृणा होती है अन्याय एवं अत्याचार उनके हाथों से प्रायः नहीं होता है यदि कुछ अर्सा के लिये साधुओं का आगमन न भी हो तो मन्दिरों के द्वारा अपना आत्मकल्याण कर सकते हैं इत्यादि, बस, फिर तो देरी ही क्या थी ? उन भावुकों ने बड़ी खुशी के साथ स्वीकार कर उसी समय मन्दिर की नींव डाल दी। आचार्यश्री ने वहाँ पर कितने ही समय ठहर कर उन नूतन श्रावकों को जैनधर्म के तात्विक विषय एवं सामायिकादि पूजा विधि और क्रिया विधान का अभ्यास करवाया। एक समय सूरिजी ने यह संवाद सुना कि पद्मावती नगरी में एक वृहद् यज्ञ का आयोजन हो रहा है और वहाँ भी विचारे मूक प्राणियों की बलि दी जायगी, फिर तो था ही क्या ? आपने श्रीमाल नगर के मुख्य श्रावकों को सूचित किया कि मैंने पद्मावती नगरी की ओर जाने का निश्चय किया है । इस हालत में वे श्रावक लोग इस महान लाभ को हाथों से कब जाने देने वाले थे। उन्होंने कहा कि यदि आप पधारें तो हम भी इस कार्य के लिये पद्मावती चलेंगे? ___इधर तो सूरिजी पद्मावती पहुँचे उधर भीमाल नगर के श्रावक भी उपस्थित हो गये । सूरिजी इस कार्य में पहले सफलता पा चुके थे वे बड़े उत्साह से राजसभा में पहुँचे । पर वे यज्ञाध्यक्ष बड़े ही घमंड के साथ कहने लगे कि महात्मन् ! यह श्रीमाल नगर नहीं है कि आपने राजा प्रजा को भ्रम में डाल शास्त्रविहित यज्ञ करना मना करा दिया । पर यहाँ तो है पद्मावती नगरी और वेदानुयायी कट्टर धर्मज्ञ राजा पद्मसैन । श्राप जरा संभल के रहना इत्यादि। - सूरिजी ने कहा विप्रो ! न तो मैं श्रीमाल नगर से कुछ ले आया और न यहाँ से कुछ ले जाना है। मेरा कर्तव्य दुनिया को सन्मार्ग बतलाने का है वही बतलाया जायगा फिर मानने न मानने के लिये जनता स्वतंत्र है इत्यादि सवाल जवाब हुये । इतने में तो बहुत से लोग एकत्र हो गये। सूरिजी ने अपना व्याख्यान शुरू कर दिया ।यह तो आप पहिले ही पढ़ चुके हो कि इस प्रकार केशि नामा तद्विनयो, यः प्रदेशि नरेश्वरम् । प्रबोध्य नास्तिकाद्धर्मा, जैन धर्मेऽध्यरोपयत् ॥१॥ तच्छिष्याः समजायन्त, श्री स्वयंप्रभ सूरयः । विहरन्तः क्रमेणेयुः श्री श्रीमालं कदापि ते ॥ तत्र यज्ञे यज्ञियानां, जीवानां हिंसकं नृपम् । प्रत्यषेधीत्तदा सूरिः, सर्व जीव दया रतः ॥ नवामुत्तगृहस्थानन साधं क्षमापति नतदा । जैन तत्त्वं संप्रदश्य, जैनधर्म न्यवेशयत ॥ पद्मावत्यां नगर्यश्च, यज्ञस्या योजनं श्रुतम् । प्रत्यरौत्सीत्तदा सूरि, गत्वा तत्र महामतिः ॥ राजानं गृहिणश्चैव चत्वारिंशत् सहस्र कान् । बाण सहस्र संख्याथ, चक्रेऽहिंसावतान्नरान् ॥ अतः सूरेश्व शिष्याणां संख्या वै वृद्धितां गता । सुराणां पोषण यैव, एधितेन्दोः कलाइव ॥ न सेहिरे परे तत्र उन्नतिं धार्मिकीं तदा । यथा चान्द्रमसी कान्ति तस्कराध्वान कामिनः ॥ तस्थुस्ते तत्पुरोधाने मास कल्पं मुनीश्वराः । उपास्यमानाः सततं भव्यैर्भव तरुच्छिदे ॥ Jain Educa 8 ternational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्वयंप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४७० वर्ष कायों में सरिजी पक्के अनुभवी और सिद्ध हस्त थे । आपके कहने की शैली इतनी उत्तम प्रकार की थी कि कठोर से कठोर हृदय वाले निर्दयी भी आपका उपदेश सुनने से रहमदिल बन जाते थे । कुछ होनहार भी बाह का उन्मूल था । सूरिजी तो मात्र एक निमित्त कारण ही थे, अतः श्रापके उपदेश का प्रभाव उपस्थित लोगों पर इस कदर हुआ कि राजा प्रजा करीब ४५००० घर वालों ने उस निष्ठुर कर्म का त्याग कर सूरि श्री के चरण कमलों में जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और अहिंसा भगवती के उपासक बन यये। , ___सूरिजी ने यहाँ पर मासकल्पादि ठहर कर उनको जैनधर्म के आचार व्यवहारादि का ज्ञान करवाना और वहाँ पर एक शान्तिनाथ के मन्दिर बनाने का निश्चय करवाया । इस प्रकार सूरिजी ने आबुदाचल से भीमाल नगर तक घूम घूम कर लाखों मनुष्यों को मांस मदिरादि दुर्व्यसन छुड़वा कर जैनधर्म का उपासक मनाया और उनके श्रात्म-कल्याण के लिये मेदनी जिनमन्दिरों से मण्डित करवा दी । सूरिजी की अध्यषता में तीर्थ यात्रार्थ कई संघ निकाल कर भावुकों ने यात्रा कर अपने अहोभाग्य समझे इत्यादि जैन धर्म का खूब प्रचार किया तथा अनेक जैनेतरों को जैनधर्म की दीक्षा देकर शासन की अपूर्व सेवा की। आचार्य श्री स्वयंप्रभसूरि ने अपने पवित्र कर-कमलों से अनेक नर नारियों को दीक्षा देकर जैन श्रमण संघ की आशातीत वृद्धि की थी पर एक महत्त्वपूर्ण दीक्षा आपके कर कमलों से ऐसी हुई कि वह चिरस्थाई बन गई थी । जिनका नाम था मुनि रत्नचूड़ । मुनिरत्नचूड़ का पवित्र एवं चमत्कारपूर्ण जीवन हम आगे चल कर आचार्य रत्नप्रभसूरि के माम से लिखेंगे जिसको पढ़ कर पाठक मंत्रमुग्ध बन जायंगे कि आत्मकल्याण एवं जैनधर्म के प्रचारक महात्माओं ने किस प्रकार संसार की ऋद्धि को असार समझ कर त्याग किया है और ऐसे त्यागी महात्माओं का जीवन जगत के जीवों के लिए कैसे उपकारी बन जाता है इत्यादि। आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने अपने उपकारी जीवन में जैनशासन की बड़ी भारी कीमती सेवा बजाई। जिन प्रदेशों में जैनधर्म का नाम तक भी लोग नहीं जानते थे वहाँ हजारों कठिनाइयों को सहन कर जैनधर्म का बीज बो कर अपनी ही जिन्दगी में फला फूला देखना यह कोई साधारण बात नहीं है । जिन माँसाहारियों को सूरीश्वरजी ने जैनधर्म के परमोपासक बनाये थे वे आगे चल कर नगर के नाम से श्रीमाली एवं प्राग्वट कहलाये और उन लोगों ने तथा उनकी सन्तान परम्परा के अनेक दानी मानी उदार नररत्नों ने शासन की बढ़िया से बढ़िया सेवा की है जिसको मैं अगले पृष्ठ पर लिखूगा। आज जो श्रीमाल और पोरवाल लोग सुखपूर्वक जैनधर्म को आराधन कर आत्म-कल्याण कर रहे हैं यह सब उन महान् उपकारी आचार्य स्वयंप्रभसूरीश्वरजी के अनुग्रह का ही सुन्दर फल है। ___ पर दुख इस बात का है कि जिनके पूर्वजों को मांस मदिरा छुड़वा कर जैनधर्म में दीक्षित किये थे वे श्रीमाल एवं पोरवाल आज उन परमोपकारी का नाम तक भूल कर कृतघ्नी बन गये हैं शायद उन लोगों के पतन का कारण ही यह कृतघ्नीपन तो न हो ? आचार्य स्वयंप्रभसूरि के समय भगवान महावीर के पट्टधर गणधर सौधर्माचार्य तथा सौधर्म गणभर के पट्टधर आचार्य जम्बु हुए थे । 'जनके जीवन का विस्तार से वर्णन जैनशास्त्रों में किया है पर मैं अपने उद्देशानुसार यहां संक्षिप्त से लिख देता हूँ। गणधर सौधर्माचार्य-इस भारत भूमि पर एक कोल्लग नाम का सुन्दर एवं रम्य सनिवेश था जिसके www.jandibrary.org Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४७० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अन्दर धम्मिल नाम का ब्राह्मण अपनी भहिला नाम की पत्नी के साथ रहता था। वे धन धान्य से पूर्ण और सुख शान्ति में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे । उस ब्राह्मण के प्रबल पुन्योदय एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ जिसका नाम सुधर्म रक्खा गया था जो कि यथा नामस्तथागुण था । माता पिता ने कई महोत्सवों के साथ उसका लालन पालन किया और बाल भाव व्यतीत होने पर उसको विद्याध्ययन के लिये अध्यापक गुरु की सेवा में भेज दिया। यों तो ब्राह्मणों के लिए विद्या हमेशा के लिए वरदायी हुआ ही करती है पर आप पर विशेष कृपा थी पहिले जमाने में विद्याध्ययन में विशेष समय खर्च कर दिया जाता था और प्राय: कर के ब्राह्मण लोग चार वेद छः शास्त्र अठारह पुराण और इतिहास आदि ग्रंथों का पठन पाठन कर लिया करते थे तदनुसार धर्म नाम का विद्यार्थी भी तमाम शास्त्रों का अध्ययन एवं चौदह विद्या के पारंगत हो गये । इनके अलावा आपने यज्ञाध्यक्ष पद को भी प्राप्त कर लिया था और इस कार्य में करीबन ५० वर्ष भी व्यतीत कर दिये थे । एक समय मद्यपापा नगरी के अन्दर सौमल नाम के ब्राह्मण ने एक वृहद् यज्ञ करना प्रारम्भ किया जिसमें अन्य अन्य पंडितों के साथ सुधर्म नाम के पंडित भी शामिल थे। इधर जब भगवान महावीर को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ तब देवरचित समवसरण में विराजमान हो कर धर्मदेशना देना प्रारम्भ किया तो उस समय भिन्न २ विचार वाले इन्द्रभूति आदि पंडित भगवान के समीप आकर अपनी शंकाओं को दूर कर भगवान के शिष्य बन गये जिसका वर्णन आवश्यक सूत्र एवं कल्पसूत्र में विस्तार से किया है जिसमें सुधर्म पंडित भी एक था । उसके दिल में यह शंका थी कि मनुष्यादि सर्व जीव जैसे इस भव में हैं वैसे ही अगले जन्म में होते हैं ? या मनुष्य मर कर पशु आदि योनि को प्राप्त होते हैं, जैसे वेद की श्रुतियों में लिखा है कि:पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशव: पशुत्वंइत्यादिनि । भावार्थ यह है कि जैसे इस जन्म में पुरुष स्त्री आदि हैं वैसे ही पुनर्जन्म में होंगे या इनसे विरुद्ध । शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यत इत्यादि इन सब श्रुतियों का भगवान ने यथार्थ अर्थ समझा कर उनके भ्रम को दूर हटा दिया, अतः सुधर्म पंडित ने सच्चे तत्वों की ठीक परीक्षा कर के आत्म-कल्याण की उत्कृष्ट भावना से अपने ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर प्रभु के चरण कमलों में दीक्षा धारण कर ली और ३० वर्ष तक भगवान के चरणों की सेवा की, तत्पश्चात् भगवान के पट्टधर बन १२ वर्ष छदमस्थ अवस्था में द्वादशांगी के पारंगसपने में शासन को सुचारु रूप से चला कर जैनधर्म का प्रचार एवं उन्नति की। जब आप को केवलज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न हुआ, फिर भी आठ वर्ष तक भूमंडल पर विहार कर अनेक भव्य प्राणियों का उद्धार किया । अन्त में आप अपने पट्टधर जम्बूस्वामी को स्थापन कर मोक्ष पधार गये । ये महावीर के प्रथम पाट धर्म गणधर हुये । अब आगे जम्बू स्वामी के लिये भी संक्षिप्त से लिख दिया जाता है । भगवान महावीर स्वामी के दूसरे पट्टधर श्राचार्य जम्बू स्वामी बड़े प्रभावशाली आचार्य हुए। आपका जन्म मगधदेश के अन्तर्गत राजगृहनगर के निवासी कश्यप गोत्रीय ( उत्तम क्षत्रिय) छनर्वै करोड़ सुवर्ण मुद्रिकापति श्रेष्ट ऋषभदत्त की हरितन गोत्रीय भार्यो धारणी के कुक्षि से हुआ था। जब ये गर्भ में थे तो इनकी माग को जम्बू सुदर्शन वृक्ष का स्वप्न आया था। ये पंचम ब्रह्मदेवलोक से चल के अवतीर्ण | जब ये गर्भ में थे तो इनकी माता को कई-कई पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हुई थी । हुए थे ऋषभदत्त ने बहुत हर्षोत्साह से धारणी के इष्ट वस्तुओं द्वारा मनोरथ पूर्ण किए । शुभ घड़ी में आपका जन्म Jain EducaInternational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्वयंप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४७० वर्षे हुआ था । जन्मोत्सव बड़े धूम-धाम से किया गया । स्वप्न के अनुकूल आपका नाम जम्बुकुमार रक्खा गया । आपने अपनी बाल्यावस्था खेलते-कूदते बहुत प्रसन्नता पूर्वक बिताई । आपने शिक्षा ग्रहण करने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रक्खी । आप बहोतर कला विज्ञ थे । जब आप विद्या पढ़ कर धुरन्धर कोटि के विद्वान हुए तो माता पिता ने इन्हीं के सदृश्य गुणों वाली विदुषी रूपवती देवकन्या सदृश्य पाठ कुलीन लड़कियों से श्रापका विवाह कराना उचित समझा और वाक्दान ( सगाई ) का भी निश्चय हो गया। इधर भगवान सौधर्माचार्य विचरते हुए राजगृह नगरी की ओर पधारे। आप अपने शिष्यों के साथ गुण शिलोद्यान नामक रमणीक स्थान में पधार गये। नगर के सारे लोग सूरिराज का दर्शन करने को आतुरता से उद्यान में आकर अपने जीवन को सफल बनाने लगे। ऋषभदत्त भी धारणी और जम्बुकुमार सहित सूरीश्वरजी की सेवा में दर्शनार्थ श्रा उपस्थित हुआ। आचार्यश्री ने धर्मोपदेश करते हुए बड़ी खूबी से प्रमाणित किया कि संसार असार एवं कष्टप्रद है तथा इस द्वन्द्व को हरने का उपाय दीक्षा लेना है। इसी से मुक्ति का मार्ग मिल सकता है । सच्चे उपदेश का प्रभाव भी खूब पड़ा। जम्बुकुमार के कोमल हृदय पर संसार की असारता अंकित होगई । जम्बुकुंवर ने विचार किया कि पूर्व पुन्योदय से ही इस मानव जीवन का आनन्द मुझे प्राप्त हुआ है। बड़े शोक की बात होगी यदि मैं इस अपूर्व अवसर से लाभ न उठाऊँ ! बार-बार मानव-जीवन मिलना दुर्लभ है । अब देर करके चुप रहना मेरे लिए ठीक नहीं, ऐसा सोच कर उन्होंने निश्चय किया कि आचार्यश्री के पास ही दीक्षा ले लेनी चाहिए। इससे बढ़ कर कल्याण की बात मेरे लिए क्या हो सकती है ? जम्बुकुमार ने आचार्यश्री के पास जाकर अपने मनोगत विचार प्रकट कर दिए । जम्बुकुमार इन्हीं विचार तरंगों में गोता लगाता हुआ नगर को लौट रहा था कि एक बन्दूक की आवाज सुनाई दी । देखता क्या है कि एक गोली पास होकर सरररररर निकल गई । कुँवर बालबाल बच गया। जम्बुकुँवर ने विचार किया कि यदि मैं इस घटना से पंचत्व को प्राप्त होता तो मेरे मनोरथ टूट जाते । अब देर करना भारी भूल है कौन कह सकताहै कि मृत्यु का प्रावे ? उन्होंने सोचा क्षण भर भी व्यर्थ बिताना ठीक नहीं । इस समय मैं क्या कर सकता हूँ ? यह सोचने की देर थी कि तत्काल आत्मनिश्चय हुआ कि मैं आजन्म ब्रह्मचारी रहूँगा । मन ही मन में पूर्ण प्रतिज्ञा कर ली कि मैं सम्यक् प्रकार से जीवनपर्यन्त शीलव्रत रक्खूगा । धन्य ! धन्य ! जम्बुकुमार आतुरता से अपने माता-पिता के पास पहुँचा और उसने अपने निश्चय की बात कह सुनाई और भिक्षा मांगी कि मुझे आज्ञा दीजिये ताकि मैं दीक्षा लेकर अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने में शीघ्र समर्थ होऊँ। - ऋषभदत्त और धारणी कब चाहती थी कि अद्वितीय पुत्र हमसे दूर हो । पुत्र ने प्रार्थना करने में किसी प्रकार की भी कमी न रक्खी । वैराग्य के रंग में रंगा हुआ कुमार संसार में रहने के समय को भार समझने लगा। पिता ने उत्तर दिया नादान कुमार ! इतने अधीर क्यों होते हो ? अभी तुम्हारी आयु ही क्या है ? हमने तुम्हारा विवाह रूपवती शीलगुण सम्पन्न आठ कन्याओं से कराना निश्चय कर लिया है। अब न करने से सांसारिक व्यवहार में ठीक नहीं लगेगा । यदि तुझे हमारी मान मर्यादा का तनिक भी विचार है तो अपना हठ छोड़ कर हमारी बात मान ले । विवाह करने से आनाकानी मत कर, क्या तूं हमारी इसनी बात तक न मानेगा ? तूं एक आदर्श पुत्र है । हमारी बात मान कर विवाह तो कर ले। जम्बुकुमार दुविधा में पड़ गया। आज्ञाकारी पुत्र ने पिता की बात टालनी नहीं चाही । विवाह करने की हामी भर ली। ५७ www.janelibrary.org Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४७० वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास . पुत्र के ऐसे विनय व्यवहार से पिता-माता बहुत उल्लासपूर्वक विवाह के लिये तैयारी करने लगे । सारी सामग्री बात की बात में एकत्रित हुई । कन्याओं के माता पिता ने विवाह की तैयारी कराने के प्रथम अपनी आठों बालिकाओं को बुला कर पूछा कि जिस कुँवर के साथ तुम्हारा विवाह होने वाला है वह संसार से उदासीन है । वह एक न एक दिन संसार के बन्धनों को तोड़, राज्य सदृश्य लक्ष्मी और कामिनी को तिलाजलि दे दीक्षा अवश्य ग्रहण करेगा ही। तथापि उसका पिता विवाह करने पर उतारू है। वह बरजोरी अपने पुत्र को बाध्य कर विवाह के लिए तैयार करता है । तुम्हारी अनुमति इस विषय में क्या है ? निस्संकोचपूर्वक कहो, मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी इच्छाओं के विरुद्ध मैं कुछ करूं । पुत्रियों ने प्रत्युत्तर दिया कि पिताजी ! निस्संदेह हम अपना जीवन उस कुंवर पर समर्पित कर चुकी हैं । उसने हमारे हृदय में घर करलिया है अतएव दूसरे पति के लिए हमारे मन में स्थान पाना असम्भव है। आप निस्संकोच हमारा पाणि-ग्रहण उसके साथ करवा दीजिए । पिता ने पुत्रियों की बात ही मानना उचित समझ कर विवाह की खूब तैयारियों की । निर्विघ्नतया विवाह समाप्त हुआ । पिता ने अपनी पुत्रियों को दहेज में इतना धन दिया कि सारे लोग उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे । वह धन ९९ वें करोड़ सुनैया था। विवाह के पश्चात् जम्बुकुमार रात्रि को महल में पधारे तो आठों स्त्रियाँ सुन्दर वेश भूषण पहिन कर वचन चतुराई से अपनी ओर आकर्षित करती हुई जम्बुकुमार के पास आकर हावभाव दिखा कर अपने वश में करने का प्रयत्न करने लगी । पर भला उदासीन कुंवर पर इन बातों का क्या प्रभाव पड़ने का था। उधर प्रभव नाम का चोरों का सरदार अपने साथ ५०० चोरों को लेकर उस नगर में आया। उसने विचार किया कि जम्बुकुमार को ९९ करोड़ सुनैये दहेज में मिले हैं तो उन्हीं को जाकर किसी प्रकार चुरा कर लाना चाहिए । इसी हेतु से वह जम्बुकुमार के महलों में उसी दिन चतुराई से गुप्त रूप से पहुँच गया । जाकर क्या देखता है कि धन की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है । जम्बुकुंवर अपनी नवविवाहित स्त्रियों को समझाने में तन्मय हैं । और वह सुरसुन्दरियां अपने पति को संसार में रखने के लिए अनेक उदाहरण सुना रहीं थीं। चोरों ने उनकी बातें सुनी । कुंवर अपनी स्त्रियों को कह रहा था कि जिस सुख के लिए तुम मुझे लुभाने का प्रयत्न कर रही हो वह सुख वास्तव में तो दुःख है । यदि तुम्हें सच्चे सुख को प्राप्त करने की इच्छा है तो मेरा अनुकरण करो । स्त्रियों ने समझाए जाने पर कुंवर की बात मान ली और इस बात की सम्मति प्रकट की कि हम भी आठों आप के साथ ही साथ दीक्षा ग्रहण करेंगी । चोर विस्मित हुए। उनकी समझ में नहीं आया कि यह कुँवर इस धन की ओर, जिसके लिए कि हम दिन-रात हाय-हाय करते हुए अपने प्राण तक संकट में डालते हैं, इन स्त्रियों की ओर, जिनके कि वशीभूत होकर हम अनेकों निर्लज्ज काम कर डालते हैं, दृष्टि तक नहीं डालता । सचमुच यह कुँवर कदाचित पागल ही होगा। चोरों ने चाहा कि अपन तो अब इनका सम्वाद सुन चुके हैं । यहां से रफ्फूचक्कर होना चाहिये । पर देखिये शासन देव ने क्या रचना रची । ज्योंही चोर सुनैयों की गठरिया सर पर धर कर टरकने लगे कि उनके पैर रुक गए । वे पत्थर मूर्ति की तरह फर्श पर अचल हो गये । चोरों के होश स्नता हो गए । वे प्रथम तो खूब डरे पर अन्त में और कोई उपाय न देख कर गिड़गिड़ा कर कातर स्वर से कुँवर को सम्बोधन कर बोले कि आप को धन्य है। Jain Educa contemnational Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्वयंप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४७० वर्ष कहाँ तो हम अधम कि धन को ही जीवन का ध्येय समझ कर रात दिन इसकी ही प्राप्ति के लोभ में अपनी जिन्दगी को पशुओं से भी बदतर बिताते हुए मारे मारे फिरते हैं; जिसके कारण कि हम फटकारे जाते हैं और कहाँ आप से भाग्यशाली नर कि इस धन को तृण समान तथा इन रूपवती स्त्रियों को नर्क प्रद समझ कर छोड़ने का साहस कर रहे हो । वास्तव में हम अति पामर हैं हम अंधेरे कुए में हैं। हम अपने लिये अपने हाथ से खड्डा खोद रहे हैं। आप अहोभागी हैं। सब कुछ करने में आप पूरे समर्थ हैं, मैं आज आप से एक बात की याचना करता हूँ । आप हम पर अनुग्रह कर वह शीघ्र दीजिएगा । मैं आपको उसके बदले दो चीजें दूंगा । श्रवसर्पिणी निद्रा और ताला तोड़ने की विद्या तो आप लीजिये और स्तम्भन विद्या दीजिये । जम्बुकु वर ने समझाया कि जिस चीज को तुम प्राप्त करने की इच्छा करते हो वास्तव में वह निःसार है । तुम्हारे भागीरथ प्रयत्न का फल कुछ भी नहीं होगा । यदि सचमुच तुम्हारी इच्छा हो कि हम ऐसी विद्या सीखें कि जिस से सदा सर्वदा सुख हो तो चलो सौधर्माचार्य के पास और दीक्षा लेकर अपने जीवन का कल्याण करो। इस प्रकार से जम्बुकु वर ने ५०० चोरों को भी प्रतिबोध देकर इस बात पर तत्पर कर दिया कि वे भी दीक्षा लेना चाहने लगे । इस प्रकार कुवर अपने माता पिता और ८ स्त्रियों के ८ माता ८ पिता आदि को भी प्रतिबोध दे . कर सब मिला कर ५२७ स्त्री पुरुषों के साथ बड़े समारोह के साथ सौधर्माचार्य से दीक्षा ग्रहण की। जम्बु मुनि अपने अध्ययन में दक्ष होने के लिये आचार्यश्री ही की सेवा में रहे । चौदहपूर्व और सकल शास्त्रों पारंगत हो बीस वर्ष पर्यन्त छदमस्थ अवस्था में दीक्षा पाली । वीरात् सं० २० वर्ष में आचार्य सौधर्मस्वामी ने अपने पद पर सुयोग्य जम्बुमुति को आचार्य पद दे मुक्ति का मार्ग ग्रहण किया। इनके पीछे बालब्रह्मचारी जम्बु आचार्य को कैवल्यज्ञान और कैवल्यदर्शन उत्पन्न हुआ । आपने ४४ वर्ष पर्यन्त भारत भूमि पर विहार "कर जैनधर्म का विजयी झंडा यत्र तत्र फहराया । अपने अमृतमय उपदेश से कई भव्यात्माओं का उद्धार किया । इति जम्बू सम्बन्ध । आचार्य स्वयंप्रभरि ने मरुधर देश में विहार कर वाममार्गियों के साम्राज्य में इस प्रकार जैनधर्म की नींव डाल कर उसका प्रचार किया यह कोई साधारण बात नहीं थी फिर भी उन्होंने अनेक कठिनाइयों को सहन कर अपने कार्य की सिद्धि कर ही ली । आज जो मरुधर प्रान्त में जैनधर्म का अस्तित्व विद्यमान है वह उन सूरीश्वर जी महाराज की कृपा का ही मधुर फल है । आचार्यश्री ५२ वर्ष तक धर्म का प्रचार करके वीर संवत् ५२ की चैत्रशुक्ला प्रतिपदा के शुभदिन तीर्थाधिराज श्रीशत्रु जय की शीतल छाया में चतुर्विध श्रीसंघ की उपस्थिति में मुनि रत्नचूड़ को अपना पट्ट अधिकार देकर अनशन और समाधिपूर्वक स्वर्ग सिधाये । प्रश्न- कई लोग कहते हैं कि पोरवाल सबसे पहिले हरिभद्रसूरि ने ही बनाये थे तो फिर आप क्यों फरमाते हो कि प्राग्वट (पोरवाल) वंश की स्थापना स्वयंप्रभसूरि ने की थी ? उत्तर - - हरिभद्रसूरि ने पोरवाल बनाये हों तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि ये तो जैनाचायों का मुख्य काम ही था । जैसे ओसवाल जाति आचार्य रत्नप्रभसूरि ने बनाई थी । बाद भी पिछले श्राचार्य जैनेतरों को प्रतिबोध करके सवालों में मिलाते गये; इसी प्रकार हरिभद्रसूरि ने भी पोरवाल बनाके पूर्व पोरवालों के शामिल कर दिये हों; परन्तु पोरवाल वंश के आदि संस्थापक तो स्वयंप्रभसूरि ही थे । ८० www.jalnaturary.org Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४७० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ArAM आचार्य हरिभद्रसूरि का समय पट्टावलीकारों के मतानुसार वि० की छट्ठी शताब्दी का है परन्तु इतिहास की शोध से उनका समय ९ वीं शताब्दी के शुरूआत का स्थिर होता है तब विक्रम की दूसरी शताब्दी में प्राग्वट ( पोरवाल ) जाति के वीरों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है । देखिये पं० वीर विजयजी रचित ९९ प्रकार की पूजा में श्राप लिखते हैं: संवत एक अठलंतरे रे जावड़ सा नो उदार, उद्धरजो मुझ साहिबा रे न आवे फिर संसार हो निजी भक्ति हृदय मां धारजो रे पांचवी पूजा गाथा । कविवर समयसुन्दरजी शत्रुजय रास में फरमाते हैं कि:अट्ठोतरसो बरस गयो विक्रम नृपथी जी वारोजी, पोरवाड़ जावड़ करावयो ये तेरमो उद्धारोजी ढाल चौथी गथा १६ इनके अलावा विमल मंत्री की वंशावली में ऐसा उल्लेख मिलता है कि वि० सं० ८०२ में वनराज चावड़ा ने पाटण नगर श्राबाद किया था। उस समय विमल मंत्री के पूर्वज लहरीनाम का पोरवाल उनके मंत्री पद पर नियुक्त किया गया था और उस लहरी के पिता का नाम नानग्ग बतलाया जाता है जब विक्रम की आठवीं शताब्दी में नानग्ग और लहरी पोरवाल वंश के वीर विद्यमान थे तथा उपरोक्त वि० सं० १०८ में जावड़ पोरवाल का अस्तित्व मिलता है तो फिर वि० की छट्ठी एवं नवीं शताब्दी में हरिभद्रसूरि ने पोरवाल वंश की स्थापना की कैसे मान लिया जाय ? .. जब हम वंशावलियों की ओर देखते हैं तो इनके विषय में प्रचुरता से प्रमाण मिलते हैं जो आगे चल कर इसी ग्रन्थ में बतलाये जायंगे जिससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जायगा कि प्राग्वटवंश ( पोरवाल) के आदि संस्थापक आचार्य स्वयंप्रभसूरि हो थे। प्रश्न-कई लोग यह भी कहते हैं कि श्रीमाल जाति के स्थापक प्राचार्य उदयप्रभसूरि ही थे तो फिर आप स्वयंप्रभसूरि को कैसे बताते हो और इसके लिये आपके पास क्या प्रमाण है ? उत्तर-जैसे हरिभद्रसूरि ने जैनेतरों को जैन बना कर पोरवालों में मिलाया और वे पोरवाल कहलाये इसी प्रकार उदयप्रभसूरि ने भी जैनेतरों को जैन बना कर श्रीमालों में मिलाया और वे श्रीमाल कहलाये परन्तु इससे उदयप्रभसूरि को श्रीमाल वंश का संस्थापक नहीं कहा जा सकता संस्थापक तो स्वयंप्रभसूरि ही हैं। श्रीमाल नगर की प्राचीनता के लिये कुछ सन्देह है ही नहीं; क्योंकि इस विषय के पुष्कल प्रमाण मिलते हैं। अब रहा श्रीमाल जाति का विषय इसके लिये यह कहना अनुचित नहीं है कि श्रीमाल नगर के लोगों से ही श्रीमाल वंश कहलाया है। जब हम समय की ओर देखते हैं तो उदयप्रभसूरि का समय वि० की आठवीं शताब्दी का है और स्वयंप्रभसूरि का समय वि. पू. ४०० वर्ष का इन १२०० वर्ष के अन्तर में सैंकड़ों नहीं बल्कि हजारों श्रीमाल वंश के नररत्नों ने धर्म कार्य किये हैं जिसके उल्लेख पट्टावलियों, वंशावलियों आदि प्रन्थों में प्रचुरता से मिल ते हैं जो हम आगे चल कर इसी प्रन्थ में प्रमाण के साथ प्रकट करेंगे। Jain Ede n International Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४१८ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उपसंहार प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि १-आपका जन्म विद्याधर कुल में हुआ। २-आपकी दीक्षा केशीश्रमणाचार्य के कर कमलों से हुई। ३- आप चौदहपूर्वज्ञान के धुरंधर विद्वान एवं अहिंसा धर्म के कट्टर प्रचारक थे। ४-आपके सुरिपद का समय महावीर निर्वाण वर्ष का है।। ५-आपने मरुधर भूमि में पधार कर जैनधर्म रूपी कल्पवृक्ष लगाया। ६-आपने श्रीमाल नगर में पधार कर ९०००० घरों को दीक्षा दी। वही लोग आगे चल कर श्रीमाल कहलाये। ७-आपने पद्मावती नगरी में जाकर यज्ञहिंसा बन्द कराई और ४५००० घर क्षत्रियों को ___ जैनधर्म में दीक्षित किया । वही लोग समयान्तर में प्राग्वट ( पोरवाल ) नाम से प्रसिद्ध हुये । ८-आपने आबू से कोरंटपुर तक जैनधर्म का काफी प्रचार किया । ९-आपके शासन समय राजा जयसैन के पुत्र चन्द्रसैन ने चन्द्रावती नगरी और शिवसैन ने शिवपुरी की स्थापना कर जैन नगर बसाये । जो कि वहाँ के राजा प्रजा जैन धर्मोपासक थे। आपने अनेक मुमुक्षु नर नारियों को जैन दीक्षा देकर श्रमणसंघ में खूब वृद्धि की जिसमें रत्नचूड़ विद्याधर को भी दीक्षा दी थी। १०-आपका स्वर्गवास वीर निर्वाण सं० ५२ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के शुभ दिन सिद्धिगिरि की शीतल छाया में हुआ था। ११-आपका जीवन त्याग वैराग्य एवं परोपकार के लिये ही हुआ था जिसको पढ़ने सुनने अनु. करण करने से जीवों का कल्याण हो सकता है। आचार्य स्वयंप्रभसूरि वर संसार में विख्यात थे । विद्वान थे बहुभाषी थे वे पंच पट्टधर ज्ञात थे। श्री माल नगरी मध्य में नव्वे सहस्र कुटुम्बजन ।। इनसे आधे पद्मावती में जैनी बने थे धार प्रन ॥ इस तरह आचार्य ने वर्द्धन किया जिन धर्म का । वे सम हृदय पर हो सदय वन्धन मिटाया कर्म का । ॥ इति भगवान पार्श्वनाथ के पंचम पट्ट पर आचार्य श्री स्वयंप्रभसूरि हुये ॥ 89 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४१८ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६-प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी सूरिः षष्ठतमो बभूव गुणवान् रत्नप्रभो नामकः, सोप्यासीदधिकः प्रियो जिनमते विद्याधराणां प्रभुः। गत्वाउत्पलदेव नाम नृपति ख्यातोपकेशे पुरे, वंशी मन्त्रिवरं तयोहडमपि क्षत्रांश्च लक्षााधकान् ॥ दत्त्वा श्राद्धपट्ट महाजनगणं संस्थापयामास च, ये नैवात्र त ओसवाल पद वाच्या ओसवंशोद्भवाः । श्री सूरेरुपदेश वारि जलदैनित्यं तथा वर्षितम् , येनाद्यापि हि कीत्यते गुणगणः प्रातः महद्धिर्जनैः । .......wweenase .0000.0saneaoness' Are+ AURA प श्रीमान् विद्याधरकुलभूषण और अनेक विद्याओं के वारिधि थे। रथनुपुर नगर के राजा महेन्द्रचूड की महादेवीलक्ष्मी की रत्नकुक्ष से आपका जन्म हुआ था। आपका नाम रत्नचूड़ रक्खा गया था। आपकी बालक्रीड़ा बड़ी ही अनुकरणीय थी। विद्याभ्यास __ के लिये तो कहना ही क्या; क्योंकि, विद्याधरों में विद्या प्रचार का तो जन्म-सिद्ध अधिकार था । अतः आप अनेक विद्याओं के पारगामी ही थे । जब आपने युवकवय में पदार्पण किया तो आपके पिताश्री ने योग्य राजकन्या के साथ आपका लग्न कर दिया। आपका का दाम्पत्य जीवन बड़े ही सुख शान्ति में व्यतीत हो रहा था । आपके कई संतानें भी हुई थीं। राजा महेन्द्रचूड़ अपनी अन्तिमावस्था में अपने प्यारे पुत्र रत्नचूड़ को राजयोग्य सर्वगुणसम्पन्न जान कर अपना उत्तराधिकारी बना कर आप आत्म-कल्याण में जुट गये। विद्याधरों का नायक राजा रत्नचूड़ बड़ी शान्ति और न्याय पूर्वक राज्य सम्पादन कर रहा था। अपनी कुल परम्परा से ही आप जैनधर्म के परमोपासक थे । इतना ही क्यों पर तीर्थङ्कर देवों की भक्ति और मूर्तिपूजा का तो आपके अटल नियम था कि बिना पूजन किये श्राप अन्न जल भी ग्रहण नहीं करते थे जिसमें एक मूर्ति तो ऐसी थी कि जिसकी महत्त्वपूर्ण घटना इस प्रकार है। ___ जिस समय रावण ने महासती सीता का हरण किया था और इस कारण भगवान रामचन्द्रजी और वीर लक्ष्मण श्रादि ने लंका पर चढ़ाई की थी उस समय रत्नचूड़ के पूर्वज चन्द्रचूड़ नाम के विद्याधर भी भगवान रामचन्द्र के पक्ष में लंका गये थे और लंका की लूट में अन्य अन्य पदार्थों के साथ चन्द्रचड़ विद्याधर रावण के चैत्यालय से एक नीलम पन्नामय चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति ले आये थे। उसकी सेवा पूजा एवं उपासना क्रमशः परम्परा से भूपति करते आये थे उस नियमानुसार हमारे चरित्र नायक राजा रत्न चड़ भी बड़ी भक्ति के साथ उस मूर्ति की त्रिकाल पूजा कर रहे थे। कहा भी है कि 'यथा राजा तथा प्रजा' जब राजा धर्मिष्ट होता है तब प्रजा भी उसका अनुकरण अवश्य किया करती है। Jain Educatnternational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्रप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४१८ वर्ष . एक समय का जिक्र है कि रथनुपुर के उद्यान में एक चारणमुनि का शुभागमन हुआ । राजा प्रजा सब लोग मुनि को वन्दन करने के लिये गये और मुनिश्री ने उन आये हुए श्रावकों को संसार असार एवं भव तारण रूप देशना दी । आत्म-कल्याण के साधन कार्य में तीर्थ यात्रा भी एक है, इस पर मुनिराज ने खास अपना अनुभव किया हुआ अष्टम नन्दीश्वर द्वीप के बावन जिनालयों का इस कदर वर्णन किया कि उपस्थित लोगों का दिल नंदीश्वर द्वीप के बावन जिनालयों की यात्रा करने को हो आया। व्याख्यान खत्म होने के बाद मुनिराज ने तो आकाशगामिनी लब्धि द्वारा विहार कर दिया। राजा प्रजा के दिल में यात्रा की लगन लगी थी वह वृद्धि ही पाती ही गई । अतः राजा प्रजा ने निश्चय कर अपने आकाशगामी विमानों को तैयार कर यात्रा के लिए प्रस्थान कर दिया । पट्टावलीकार ने विमानों की संख्या का उल्लेख नहीं किया है। पर नाभिनन्दन जिनोद्धार ग्रन्थकर्ता ने यात्रार्थ जाने वाले विद्याधरों के विमानों की संख्या एक लक्षर की बतलाई है और यह सम्भव भी हो सकता है। कारण, आगे चल कर इन विद्याधरों में से ५०० ने दीक्षा ली थी। ___ जब वे विमान में बैठे हुए विद्याधर आकाश मार्ग से गमन कर रहे थे तो आगे चल कर उनके विमान आकाश में रुक गये । इसका कारण जानने को नीचे देखा तो अनेक मुनियों के साथ एक महात्मा कई देव देवांगनाओं को धर्म देशना दे रहे थे । विद्याधरों के नायक ने सोचा कि हम लोग स्थावर तीर्थ की यात्रार्थ जा रहे हैं और जंगम तीर्थ की आशातना कर डाली यह अच्छा नहीं किया । अतः वे विद्याधर विमान से उतर कर सूरिजी के चरण कमलों में आये और अपने अपराध की माफी माँगते हुये कहा कि हे प्रभो ! हम लोगों ने अज्ञान के वश आपकी आशातना की है अतः आप क्षमा प्रदान करें। १ अन्यदा स्वयंप्रभसूरि देशनां ददतां उपरि रत्नचूड़ विद्याधरो नन्दीश्वरे गच्छन् तत्र विमान स्तंभितः । तेनचिंतितः मदीयो विमानः केन स्तंभितः । यावत् पश्यति तावदधो गुरु देशनां ददतं पश्यति । स चिंतय ते मयाऽविनयः कृतः यतः जंगम तीर्थस्य उल्लंघनं कृतं! स आगतः गुरु वन्दति धर्म श्रुत्वा प्रतियोद्धः स गुरु विज्ञापयति । मम परंपरागत श्री पार्श्व जिनस्य प्रतिमास्ति तस्य वन्दने मम नियमोस्ति । सा रावण लंकेश्वरस्य चैत्यालये अभवत् । यावत् रामेण लंका विध्वंसिता तावद् मदीय पूर्वजेन चन्द्रचूड़ नरनाथेन वैताड्य आनीता सा प्रतिमा मम पास्ति तया सह अहं चारित्रं ग्रहीष्यामि गुरुणा लाभं ज्ञात्वा तस्मै दीक्षा दत्ता। . 'उपकेश गच्छ पट्टावली' पृष्ठ १८४ : . २ तदा च वैताड्य नगे, मणिरत्न इति प्रभुः विद्याधराणामैश्वर्य, पालयन्नस्ति विश्रुतः ॥ स च अन्यदाऽष्टम द्वीपे, दक्षिणस्यां दिशि स्थिते नित्योद्यताञ्जन गिरौ, शाश्वत्तान्जिननायकान् ॥ विवन्दि पुर्विमानानां, लक्षेण सहितोऽम्बरे गच्छन् ददर्शतान, सूरीन् मुनि पंचशती युतान ॥ नोल्लंघ्यं जंगम तीर्थं, मत्वाऽतोऽवत तार च प्रणम्य भक्तया न्यषदद्, देशनाकर्णनेच्छया । परयोऽपिहि संसारासारता परिभाविकाम् तादृशी देशना चक्रुः स यथाऽभूद् विरक्त धी ॥ निवेश्यथ सुतं राज्येऽनुज्ञाप्य च निज जनम्, विद्याधर पञ्च शती युतो व्रतमुपाददे ॥ "नाभिनन्दन जिनोदारपृष्ट ३१" www.jamelibrary.org Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४१८ वर्ष ] आचार्य रत्नप्रभसूरिका जीवन ] श्राचार्य श्री ने उन मुमुक्षुत्रों को क्षमा प्रदान से संतुष्ट कर योग्य समझ कर ऐसी देशना दी कि जिससे वे संसार को आसार जानकर सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेने को उपस्थिति हो गये । पर राजा रत्नचूड़ ने जरूरी जान कर सूरिजी से निवेदन किया कि हे पूज्य वर ! आपके कहने से इतना तो अवश्य जान गये कि बिना दीक्षा के आत्म कल्याण हो नहीं सकता । इतना ही क्यों; पर हम दीक्षा लेने को भी तैयार हैं पर मेरे एक ऐसा अटल नियम है कि मैं चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति, जो मेरे पूर्वजों द्वारा लंका से लाई गई थी, की पूजा किये बिना मुंह में अन्न जल नहीं लेता हूँ। अतः मूर्ति साथ में रख कर दीक्षा ग्रहण करू जिससे कि मेरा नियम भी भंग न हो और दीक्षा पाल कर कल्याण भी कर सकू। सूरिजी ने लाभालाभ को जान कर आज्ञा फरमादी। बस फिर तो देरी ही क्या थी राजा रत्नचूड़ ने अपने पुत्र को राजगद्दी सौंप कर ५०० विद्याधरों के साथ प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि के चरण कमलों में दीक्षा धारण कर ली। आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने उन मोक्षार्थियों को दीक्षा देकर राजा रत्नचूड़ का नाम रत्नप्रभ रख शेष पांच सौ मुनियों को रत्नप्रभ का शिष्य बना दिया । तदन्तर मुनि रत्नप्रभ गुरु चरणों की सेवा उपासना करते हुये क्रमशः बारह वर्ष निरन्तर ज्ञानाभ्यास कर द्वादशांग, अर्थात् सकलागमों के पूर्णतया ज्ञाता बन गये । इतना ही क्यों; पर आपने तो आचार्य पद योग्य सर्वगुण भी प्राप्त कर लिये, अतः आपका भाग्य रवि मध्यान्ह के सदृश चमकने लग गया। श्राचार्य स्वयंप्रभसूरि ने अपनी अन्तिमावस्था और मुनिरत्नप्रभ की सुयोग्यता देख कर वीरात् ५२ वें वर्ष मुनिरत्नप्रभ को आचार्यपद से विभूषित * कर चतुर्विध संघ का नायक पना कर अपना सर्वाधिकार उनको सौंप दिया । तदनन्तर प्राचार्य रत्नप्रभसूरि शासन तंत्र सुचारु रूप से चलाते हुये पाँच सौ मुनियों को साथ लेकर भूतल पर धर्म प्रचार करते हुये विहार करने लगे। __ आचार्य रत्नप्रभसूरीश्वर बड़े ही प्रतिभाशाली थे। आपका उपदेश मधुर, रोचक एवं प्रभावोत्पादक होता था । श्राप अनेक विद्याओं से विभूषित एवं अहिंसा परमोधर्म के कट्टर प्रचारक थे। आपके तप संयम का तप तेज सूर्य की भांति सर्वत्र फैला हुआ था। तांत्रिक, नास्तिक एवं वाममागियों पर आपकी जबरदस्त धाक जमी हुई थी। अतः आप अपने कार्य में सदैवस फलता पाया करते थे। __एक समय सूरिजी अपने शिष्य मंडल के साथ तीर्थाधिराज श्रीश@जय की यात्रा कर अर्बुदाचल पधारे और वहाँ की यात्रा कर रात्रि में विहार का विचार कर रहे थे । उस समय वहाँ की अधिष्ठात्री चक्रश्वरीदेवी ने प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! आपका शुभ बिहार यदि मरुधर की ओर हो तो बहुत ही लाभ होगा । कारण आपके गुरुवर्य ने श्रीमाल नगर तक विहार कर लाखों मूक प्राणियों को जीवन प्रदान कर यज्ञ जैसी निष्ठुर प्रवृति का उन्मूलन कर लाखों भक्त बनाये थे, पर वे भवितव्यता के कारण वहाँ से आगे * १ सगीतार्थ क्रमेणऽथ, सूरिभिः स्वपद कृतः मुनि पंचशती युक्तो, विजाहार धरातले । __'नाभिनन्दन जि. पृ० ४०' २ "क्रमेण द्वादशांगी चतुर्दशपूर्वी बभूव गुरुणास्वपदे स्थापितः श्रीमद्वीरजिनेश्वरात् द्विपंचाशत वर्षे आचार्य पदे स्थापितः पंचाशत साधुभि सहधरां विचरति" 'उपकेशगच्छ पट्ठावली'पृष्ट १०४ Jain Educa.९४ termational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष नहीं बढ़ सके । शायद उन्होंने वह प्रदेश आपके लिये ही छोड़ दिया हो, अतः मेरी प्रार्थना है कि आप मरु भूमि की ओर विहार करावें । कारण, आप इस प्रकार कार्य के लिये सर्व प्रकार से समर्थ हैं इत्यादि । देवी के वचन सुन कर सूरिजी ने अपने श्रुतज्ञान से उपयोग लगा कर देखा तो देवी का कथन सत्य जान पड़ा । बस फिर तो देर ही क्या थी ? सुबह होते ही विहार कर दिया और क्रमशः मरुधर भूमि की ओर चल दिये। जिस समय प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने मरुभूमि की ओर विहार किया था उस समय मरुधर अज्ञान से छाया हुआ था । नास्तिकों का साम्राज्य बरत रहा था । मांस मदिरा एवं व्यभिचार को धर्म का स्थान देकर इन बातों का जोरों से प्रचार हो रहा था । इतना ही क्यों पर इस विषय के कई प्रन्था भी निर्माण कर उनको ईश्वरीय वाक्य कह कर जनता को विश्वास दिलाया जाता था। फिर तो जनता के लिये ऐसी कौनसी कामना शेष रह जाती थी कि वे धर्म के नाम पर अपनी इन्द्रियों एवं विषय कषाय का पोषण करने में थोड़ी सी भी कमी रक्खें ? उन नास्तिक पाखण्डियों ने जनता को इस कदर वश में कर ली थी कि जैसे मंत्रवादी भूत पिशाच को वश में कर लेते हैं । इतना ही क्यों पर उन पाखंडियों के साम्राज्य में किसी सत्यवक्ता का प्रवेश करना तो मानों एक चौरपल्ली के समान ही था। फिर भी आचार्य श्री किसी बात की परवाह नहीं करते हुये यूथपति की भांति अपने शिष्यों के साथ आगे बढ़ते ही गये । हाँ, उन पाखंडियों की ओर से सूरिजी का का स्वागत (?) होने में भी किसी प्रकार की कमी नहीं थी। न मिलता था अहार पानी न मिलता था ठहरने को मकान । इतना ही क्यों पर स्थान स्थान पर जैन साधुओं की ताड़ना, व तर्जन और असभ्य शब्दों से अपमान होता था । पर जिन महात्माओं ने जन कल्याणार्थ अपना जीवन अर्पण करने का निश्चय कर लिया हो उनको मान अपमान एवं जीवन मरण की परवाह ही क्या थी ? वे अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करते हुये एवं भूखे प्यासे क्रमशः उपकेशपुर नगर तक पहुँच गये जो नास्तिकों का एक केन्द्र नगर कहलाता था प्रसंगोपात उपकेशपुर ( वर्तमान जिसे ओसियाँ कहते हैं ) नगर का थोड़ा सा हाल लिख दिया जाता है कि इस नगर को कब और किसने आबाद* किया था ? 8 श्री महावीर निर्वाणात् द्विपंचाशत वत्सरे गुरोः सूरिपद प्राप्य ततो अष्ठादश हायनैः॥२१७॥ नाभिनन्दन जिनोद्धार पृष्ट +मय मांसं च मीनं च, मुद्रा मैथुन मेव च । एते पंचमकारश्व, मोक्षदा हि युगे युगे । पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले। उत्थितः सन् पुनः पीत्वा, पुनर्जन्मो न विद्यते । रजस्वला पुष्करं तीर्थ, चाण्डाली तु स्वयं काशी । चर्मकारी प्रयाग स्याद्रजकी मथुरा मताx मातृयोनि परित्यज्य विहरेत् सर्व योनिषु x x सहस्र भग दर्शनात् मुक्तिः x x x ॐ कदाचिदुपकेशपुरे, सूरयः समवासरन् । यादृक् तमगरं येन, स्थापितं श्रूयतां तथा । 'उपकेश गच्छ चरित्र Jain Education Interfonal www.library.org Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्राचार्य स्वयंप्रभसूरि के जीवन में आप पढ़ चुके हो कि सूरिजी ने सबसे पहिले श्रीमाल के राजा, जयसैनादि ९०००० घरों के क्षत्रियों को मांस मदिरा छुड़वा कर जैन बनाया था। राजा जयसैन को दो रानियें थीं। बड़ी का पुत्र भीमसैन और छोटी का पुत्र चन्द्रसैन था। जिसमें चन्द्रसैन तो अपने पिता का अनुकरण कर जैनधर्म की उपासना एवं प्रचार करता था पर भीमसैन की माता शिवधर्मोपासिका होने से भीमसैन शिवधर्मोपासक ही रहा । यही कारण था कि दोनों बन्धुओं में धर्म विषय सम्बन्धी द्वंद्वता चलती थी। पर स्वयं राजा जयसैन के जैनधर्मोपासक होने के कारण भीमसैन की इतनी नहीं चलती थी। फिर भी राजा जयसैन इन बातों को सुनता था तब उसको बड़ा भारी दुःख हुआ करता था और यह भी विचार आया करता था कि यदि भीमसैन को राजसत्ता दे दी गई तो यह धर्मान्धता के कारण जैनधर्मोपासकों को सुख से श्वास नहीं लेने देगा इत्यादि । राजा जयसैन ने अपनी अन्तिमावस्था में अपने मनोगत भाव चन्द्रसैन को कहे जिसके उत्तर में चन्द्रसैन ने कहा पूज्य पिताजी आप इस बात का कुछ भी विचार न करें। यह तो जैसे ज्ञानियों ने भाव देखा है वैसे ही बनेगा। आप तो अन्तिम समय चित्त में समाधि रक्खें। जैनधर्म का यही सार है कि समाधि मरण से आराधिक हो अपना कल्याण करले इत्यादि । . फिर भी राजा जयसैन के दिल में जैनधर्म की इतनी लग्न थी कि उन्होंने उमराव मुत्सद्दी आदि अग्रेसरों को बुला कर कहा कि मेरा तो अब अन्तिम समय है और मैं आप लोगों को यह कहे जाता हूँ कि मेरे बाद मेरा पदाधिकार चन्द्रसैन को देना । कारण, यह राजतंत्र चलाने में सर्व प्रकार से योग्य है इत्यादि कह कर राजा जयसैन ने तो अल्प समय में आराधना पूर्वक समाधि के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया। बाद राजपद के लिये तत्काल ही दो पार्टियें बन गई एक पार्टी का कहना था कि राजा जयसैन की अन्तिमाज्ञानुसार राजपद चन्द्रसैन को दिया जाय । तब दूसरी पार्टी का कहना था कि राजा चाहे धर्मान्धता के कारण चन्द्रसैन को राज देना कह भी गये हों पर यह नीतिविरुद्ध कार्य कैसे किया जाय ? कारण, भीमसैन राजा का बड़ा पुत्र होने से राज्य का अधिकारी वही है। यह मतभेद केवल राजपद का ही नहीं था पर इसमें अधिक पक्षपात धर्म का ही था और इस पक्षान्धता ने इतना जोर पकड़ा कि जिसका अन्तिम निर्णय करना तलवार की धारा पर आ पड़ा। चन्द्रसैन जैसा धर्मज्ञ था वैसा ज्ञानी भी था। उसने सोचा कि यह जीव अनंत वार राजा हुआ है इससे श्रामिक कल्याण नहीं है । केवल एक नाशवान राज के कारण हजारों लाखों मनुष्यों का स्वाहा हो जायगा । अतः उसने अपनी पार्टी वालों को समझा बुझाकर शान्त किया। बस फिर तो था ही क्या ? शिवोपासकों का पानी नौ गज चढ़ गया और भीमसैन को राजतिलक कर राजा बना ही दिया। ___ भीमसैन ने राजपद पर आते ही जैनों पर जुल्म गुजारना शुरू कर दिया मानो कि जैनों से चिर. काल का बदला ही लेना हो १ इस हालत में चन्द्रसैन की अध्यक्षता में जैनो की एक सभा हुई और उसमें नगर त्याग का निश्चय कर लिया । राजा चद्रसैन ने श्रीमालसे आबूको ओर एक नया नगर पसानेकी गरज से प्रस्थान किया तो एक अच्छा उन्नत स्थान आपको मिल गया बस वहाँ ही उसने नीव डाल कर नगर Jain Educatie sterational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष बसाया और उसका नाम चंद्रावती नगरी रख दिया। बस श्रीमाल नगर के जितने जैन थे वे सबके सब नूतन स्थापित की हुई चन्द्रावती नगरी में आकर अपने स्थान बनाकर वहां रहने लगे और वहाँ का राजा चन्द्रसैन को बना दिया। थोड़े ही समय में यह नगरी अलकापुरी के सदृश होगई और आस पास के बहुत से लोग आकर बस गये वहां के लोगों के कल्याणार्थ राजा चन्द्रसैन ने भगवान पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर भी पनाया, कहा जाता है कि एक समय चन्द्रावती में जैनों के ३६० मन्दिर थे अतः वह जैनपुरी ही कहलाती थी। चन्द्रसैन का एक लघुभ्राता शिवसैन था उसने पास ही में एक शिवपुरी नगरी बसा कर अपना गज्य वहाँ जमा दिया। जब श्रीमाल से जैन सबके सब चले गये तो पीछे था ही क्या ? फिर भी रहे हुए लोगों की व्यवस्था के लिये कार्यकर्ताओं ने तीन प्रकोट बना दिये प्रथम प्रकोट में कोटिध्वज द्वितीय प्रकोट में लक्षाधिपति और दृवीय प्रकोट में शेष लोग । इस प्रकार व्यवस्था करने पर फिर नगर की थोड़ी बहुत सुन्दरता दीखने लगी। कई प्रन्थों में इस नगर की प्राचीनता बतलाते हुए युग युग में नामों की रूपान्तरता भी बतलाई है जैसे कृतयुग में रत्नमाल, त्रेतायुग में पुष्पमाल द्वापर में वीरनगर और कलियुग में श्रीमाल भिन्नमाल बतलायाहै। राजा भीमसैन के दो पुत्र थे १-श्री पुंज २-सुरसुन्दर और श्रीपुंज के पुत्र उत्पल देव (श्रीकुमार) ॐ चन्द्रावती नगरी आबू के पास थी विक्रम की तेरहवी चौदहवी शताब्दी तक तो इस नगरी की बड़ी भारी जाहु जलाली थी परन्तु आज तो उसके भग्न खण्डहर नजर आते हैं। + शिवपुरी का रुपान्तर वर्तमान सिरोही शहर है जो पुरानी सिरोही के नाम से प्रसिद्ध है। यह दोनों नगर उस समय जैनों के केन्द्रस्थल कहलाये जाते थे। १ श्रीमाल मितियन्नाम, रत्नमाल मिति स्फुटम्, पुष्पमालं पुनर्भिन्नमालं युग चतुष्टये । चत्वारि यस्य नामानि, वितन्वन्ति प्रतिष्ठितम्, अहो ! नगर सौन्दर्य प्रहार्य त्रिजगत्मपि ॥ 'इन्द्र हंसगणि कृत उपदेश कल्प बल्ली १ कृत युगे रयण माला, त्रेतायुगे पुष्पमाला, द्वापरे वीर नगरी कलियुगे भीन्नमाल । २ श्रीश्रीमालपुरे पूर्व श्रीपुंजोऽभून्नरेश्वरः । सुरसुन्दरनामास्य, कुमारः सत्वशेवधि ।। स कदाप्यभिमानेन, पुरान्तिर्गत्य निर्भयः । एकान्तेनिंजने भूदेशं नवस्थान चिकीर्षया ॥ 'उपकेश गच्छ चरित्र' * तत्रश्री राजा भीमसैन तत् पुत्र श्रीपुंज तत्पुत्र उत्पलकुमार अपरनाम श्रीकुमार तस्य बान्धव श्रीसुरसुन्दर युवराज राज्यभार धुरंधर तयोरमात्य चन्द्रवंशीय द्वौभ्राता तत्र-निवासी सा० ऊहड़१ उद्धरण २ लघुभ्राता गृहे सुवर्ण संख्या, अष्टादश कोट्यः संति वृद्धभ्रातुगृहे नवनवति लक्ष संति । ये कोटीश्वरास्ते दुर्गमध्ये वसतिये लक्षेश्वरास्ते बाह्य वसति । तत ऊहेडेन एक लक्ष भ्रातुः पायें उच्छीणं याचितं ततो बान्धवेन एवं कथितं भवते ! विना नगरं उध्व समस्ति भवता समागमे वासो भविष्यति । एवं ज्ञात्वा राजकुमार ऊहडेन आलोचितवान् नूतनं नगरं बसेयं ततो मम बचनं अग्रे आयातः। उपकेश गच्छ पटावल्ली पृष्ठ १८४ + कई पटावलियों में उत्पल देव को श्री पूँज का छोटा भाई होना भी लिखा है। www.६७brary.org Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पृ० ४०० वर्ष ] भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एक समय का जिक्र है कि उत्पलदेवकुमार आपसी ताना के कारण अपमानित हो नगर से निकल गया उसकी इच्छा एक नया नगर बसा कर स्वयं राज करने की थी। जब कार्य बनने को होता है तब निमित्त कारण सब अनुकूल मिल ही जाता है । इधर तो राजकुमार अपमानित होकर नगर से निकल रहा था उधर प्रधान का पुत्र उहड़ कुमार भी संयोग वश अपमानित होकर राजपुत्र के साथ हो गया। नया नगर बसाना यह कोई बच्चों का खेल एवं साधारण कार्य नहीं था पर एक बड़ा ही जबरदस्त कार्य था । अतः न अकेला राजकुमार कर सकता था और न मंत्रीपुत्र ही, पर कार्य निकट भविष्य में ही बनने को था कि कुदरत ने दोनों का संयोग बना दिया। - जब दोनों नवयुवकों ने नगर को त्याग कर एक बड़ी आशा पर प्रस्थान कर दिया तब उनको प्रबल पुन्योदय के कारण शुकन वगैरह अच्छे से अच्छे होते गये । अतः क्रमशः वे रास्ता चलते चलते एक जंगल में होकर जा रहे थे वो रास्ते में एक सरदार मिला । उसने उन्हें तेजपुंज और चेहरे पर वीरता की झलक देख कर पूछा कि कुँवरजी कहाँ से पधारे और कहाँ जा रहे हो ? कुमार ने जवाब दिया कि हम श्रीमाल नगर से आये और एक नया नगर श्राबाद करने को जा रहे हैं। सरदार ने सुन कर आश्चर्य किया और कहा कुँवरजी नयानगर आषाद करना बच्चों का खेल तो है ही नहीं, आपके पास ऐसी कौन सी सामग्री है कि जिसके आधार पर आप नया नगर बसाने की बातें कर रहे हो ? कुमार ने जवाब दिया कि सामग्री हमारी भुजाओं में भरी हुई है जिससे हम नयानगर श्राबाद करेंगे। सरदार ने सोचा यह कोई राजवंशी है । अतः उसने प्रार्थना की कि कुदरजी दिन थोड़ा ही रह गया है, आज तो यहाँही विश्राम कीजिये । कुमार ने मंत्री की ओर देखा और दोनों ने एक मत होकर सरदार की प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसके साथ हो लिये। सरदार था विराट नगर का संग्रामसिंह नाम का एक साधारण राजपूत । सरदार ने दोनों मेहमानों को अपने घर लाकर भोजन पानी का स्वागत किया और अपने कुटुम्बियों से सलाह की कि अपने जालणदेवी कन्या षड़ी हो गई है, इन मेहमानों के साथ ब्याही जाय तो भविष्य में एक राजरानी पद को प्राप्त कर लेगी। अतः सरदार ने कुवरजी से प्रार्थना की कि आपने हमारा मकान पावन किया है तो इसको चिरस्थायी बनाने के लिये हमारी कन्या के साथ शादी कर लीजिये। कुँवरसाहब ने जवाब दिया कि मैं एक मुसाफिर हूँ आप सोच समझ कर कार्य करें। सरदार-मैंने ठीक सोच समझ करके ही प्रार्थना की है जिसको श्राप स्वीकार कीजियेगा । जब सरदार का अति आग्रह हुआ तो मंत्रीकुमार ऊहड़ ने इसको शुभ शकुन एवं अच्छा निमित्त समझ कर सरदार संग्रामसिंह की प्रार्थना को इस शर्त पर स्वीकार कर ली कि जब हम राज स्थापन कर पायेंगे तब आकर लग्न करेंगे। सरदार ने मंजूर करके सगाई की सब रस्म कर डाली । बस प्रभात होते ही दोनों कुमार वहाँ से रवाना हो गये । उस समय शकुन बहुत ही अच्छे हुये अतः दोनों का उत्साह बढ़ता ही गया। एक सौदागर कई घोड़े लेकर जा रहा था। मंत्री ऊहड़ ने जाकर १८० अश्व इस शर्त पर खरीद कर लिये कि जब हम नगर श्राबाद करेंगे तब तुम्हारे इन प्रश्वों का मूल्य चुका देंगे। केवल उनके पचन पर विश्वास करके सौदागर ने अश्व दे दिये। दोनों वीर अश्व लेकर क्रमशः ढेलीपुर ( देहली ) नगर में पहुँचे। उस समय वहाँ पर श्री साधु नामक राजा राज कर रहा था पर उसके ऐसा नियम था कि ६ मास राज कार्य देखता और ६ मास अन्ते ..wwwwwwpmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmAAAAAAAY Jain Educenternational Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष वरगृह में रहता । भाग्यवशात् जिस दिन दोनों कुमार देहली पहुँचे उसी दिन राजा ने अन्तेवरगृह में प्रवेश किया । अतः राजकुमार प्रतिदिन दरबार में मुजरो करने को जाकर एक अश्व भेंट कर दिया करता था। ऐसे करते १८० दिनों में १८० अश्व! भेंट कर दिये । पर उसकी कुछ भी सुनवाई नहीं हुई । इधर तो उत्पल देव हताश हो रहा था उधर राजा राजसभा में आया । जब उत्पलदेव के अश्वभेंट का समाचार राजा ने सुना तो तुरंत ही कुमार को बुला कर पूंछा कि तुम क्या चाहते हो ? राजकुमार ने कहा कि मैं एक नगर आबाद करने के लिये भूमि चाहता हूँ । राजा ने कह दिया कि जहाँ ऊजड़ भूमि देखो वहाँ नयानगर बसा लो मेरी इजाजत है। बस फिर तो था ही क्या ? दोनों वीर वहाँ से चलते चलते मंडोर तक आये पर उनको कोई ऐसी भूमि न मिली कि नगर आबाद कर सकें। वहाँ से आगे चल कर एक समुद्र तट पर आकर देखा तो वहाँ उन्होंने भूमि पसंद कर ली क्योंकि जहाँ पानी की प्रचुरता होती है वहाँ सब बातों की सुविधा रहती है। खाद्य पदार्थ भी पैदा होता है जिससे व्यापार खुल उठता है इन फायदों को सोच कर उन्होंने वहीं छड़ी रोप दी अर्थात् नगर बसाने का निश्चय कर लिया। इस बात की इत्तला भिन्नमाल में पहुँची कि वहाँ से हजारों लोग चल कर नूतन नगर में आ बसे । भूमि उसवाली होने से नूतन नगर का नाम उएस रख दिया। स्वल्प समय में नगर नौ योजन चौड़ा और १२ योजन लम्बा बस गया। मिन्नमाल में १८००० व्यापारी ९००० ब्राह्मणं और दूसरे लोग तो इतने थे कि जिनकी गिनती लगानी भी मुश्किल थी। इसका कारण राजा भीमसैन का जनता के प्रति सद्भाव नहीं पर क्रूर भाव ही था । अतः राजा के अत्याचार से दुखित हुई जनता उन दुःखों से मुक्त हो नूतनवास उएस नगर में आ बसी । जब व्यापारी लोग आ गये तो दूसरे वहां रह कर करें भी क्या ? व्यापारियों के साथ ब्राह्मण भी आ गये और दो २ व्यापारी + एक एक ब्राह्मण का निर्वाह भी कर देते थे । और उस नूतन नगर की अधिष्ठात्री चामुडा देवी की स्थापना कर दी। १ ढेलीपुरे राजाश्रीसाधु तस्य ऊहडेन १८० (५५) तुरंगमा भेटिकृता उएसा संतुष्टो ददौ । ततो भिन्नमालात् अष्टादश सहस्र कुटुम्ब आगताद्वादश योजना नगरी जाता। 'उपकेश गच्छ पट्टावली' २ अष्टादश सहस्राणि, कुलानां वणिजां तथा; तद‘नि द्विजातीनामसंख्याः प्रकृतिरपि, सहादाय ययौ तत्र यत्रतनगरं कृतम् , नव योजन विस्तीर्ण दैध्य द्वादश योजनम् । 'उपकेश गच्छ चरित्र' २ कई प्राचीन वंशावलियों में इस विषय के कवित्त भी मिलते हैं जैसे - गाड़ी सहस गुण तीस, भला रथ सहस्त्रग्यारे, अट्ठारह सहस्र असवार पाला पायक नहीं कोई पारे उट्ठी सहस अट्ठार, तीस हस्ती मद जरता; दश सहस्र दुकान वणिक व्यापार करता। नव सहस्र विप्र भिन्नमाल से मणिधर साथे माँडिया;राव उपलदे मंत्री ऊहड़,घरबार साथे छाँड़िया।। द्वाभ्यां वणिग्भ्यां तक विप्रवृत्तिः प्रकल्पिता पाद्र देवी च चामुडा तत्स्थ लोक कुलेश्वरीः। पिता पुत्रश्च यत्रोभौ वाणिजौ व्यवहारिणौ षण्मासी तस्थुषो जातु मिलितौ न मिथ क्वचित 'उपकेशगच्छ चरित्र' mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm www.gerary.org Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उस नूतन बसे हुये नगर में व्यापार तो इतना होने लगा कि यदि पिता पुत्र अलग २ व्यापार करते तो वह कभी २ छः छः मास तक भी न मिल पाते थे । श्रीमाल नगर के अलावा और भी बहुत नगरों के बड़े २ व्यापारी लोग भी व्यापारार्थ आ रहे थे, जैसे आज बम्बई कलकत्ता व्यापार के केन्द्र हैं और दूर २ के लोगों ने व्यापारार्थ वहां श्राकर अपना निवास स्थान बना लिया है । इसी प्रकार उस समय नूतन बसे हुये उपकेशपुर में व्यापारार्थ दूर २ के लोग आकर बस गये हों तो यह सम्भव हो सकता है। जहाँ पानी की प्रचुरता होती है वहां व्यापार स्वयं खुल उठता है इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं । प्रसंगोपात उपकेशपुर की स्थापना कह कर अब मूल विषय पर आते हैं। ____आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेशपुर पधार तो गये पर किसी एक श्रादमी ने भी उनका स्वागत सत्कार नहीं किया, इतना ही क्यों पर किसी ने ठहरने के लिये स्थान तक भी नहीं बतलाया । इस हालत में आचार्य श्री ने अपने साधुओं के साथ एक लुणाद्री पहाड़ी पर जाकर ध्यान लगा दिया। यह वो आप पहले ही पढ़ चुके हो कि उन मांस आहारियों के प्रदेश में जैन मुनियों के लाने योग्य सात्विक पदार्थ के आहार का कहीं पर योग नहीं मिलता था अतः कई अर्सा से मुनी तपस्या किया करते थे और इस प्रकार निरन्तर तपस्या करना कोई साधारण काम भी नहीं था । तब कई साधुओं को शरीर का निर्वाह न होता देख पारणा करने की इच्छा हुई तो वे गुरु महाराज की आज्ञा लेकर नगर में भिक्षा के लिये गये पर नगर में ऐसा * १ आज भी उपकेशपुर (ओसियाँ ) के आस पास जो इक्षुरस निकालने की अनेक पत्थर की चरखिये यत्र तत्र मिलती हैं इससे साबित होता है कि पूर्व जमाने में यहां पानी की प्रचुरता थी और बहुत गुड़ पैदा होता था। - २ वर्तमान जैसलमेर, फलौदी और बीकानेर नगर हैं; वहाँ पहिले पानी था । आज वहाँ भूमि खुदाई का काम होता है तो दीर्घकाय वाले मच्छों के कलेवर हाड़ पिंजर मिलते हैं, वे इस बात को प्रमाणित करते हैं कि पूर्व जमाने में यहाँ पानी की प्रचुरता थी। . ३ प्राचीन वंशावलियों में यह भी लिखा मिलता है कि यहाँ बालदियों का बहुत व्यापार था । लाखों पोटों द्वारा माल आता जाता था। इस पानी के कारण बालदियों को बहुत चक्कर काटना पड़ता था । अतः अनेक बालदियों ने इस पानी को हटाने का प्रयत्न किया था जिसमें एक हेमानामक बिनजारा ने ही सफलता पाई थी जिसकी एक कहावत भी है कि"लाखा सरीखा लख गया, ओठा सरीखा आठ। हेम हड़ाउन आवसी, फिरने इणही ज भट्ट॥ इत्यादि प्रमाणों से साबित होता है कि उएशपुर के पास मीठे पानी की झील थी। *"गोचर्या मुनीश्वरा ब्रजंति परं भिक्षा न लभते । लोका मिथ्यात्ववासिताः यादृशा गता तादृशा आगता । मुनीश्वराः पात्राणि प्रतिलेष्य मासं यावत् संतोषेण स्थित : पश्चात् विहारः कृतः पुनः कदाचित् तत्राआतः शासनदेव्याकथितं भो आचार्य अत्र चातुर्मासकं कुरु । तत्र महालाभो भविष्यति । गुरुः पंचत्रिंशत् मुनिभिः सहस्थितः मासी द्विमासी तृमासी चतुर्मासी उप्योसित कारिका" उपकेशगच्छ पटावली--१८५ Jain Educak ganternational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पाश्र्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य रत्नप्रभ सूरि ५०० मुनियों के साथ अनेक कठिनाइयों को सहन करते हुए उपकेशपुर पधारे और लुणाद्रि पहाडी पर ध्यान लगा दिया। पृष्ठ ७० and आचार्य रत्नप्रभ सूरि के दो तपस्वी साधु उपकेशपुर में भिक्षार्थ गये एक घर में प्रवेश किया वहाँ निर्दय लोग जीवों को काट रहे थे और मांस मदिरा को प्रचुरता देख मुनि वापिस लौट आये । पृष्ठ ७० wwal netbrary.org Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास D.G.MALI, सूरिजी ने मुनियों को विहार का आदेश दिया उस समय चामुंडा देवो आकर सूरिजी से प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आप यहाँ चतुर्मास करावे आपको बहुत लाभ होगा अतः ३५ साधुओं के साथ सूरि श्रीने चतुर्मास किया शेष ४६५ मुनि विहार कर दिया। पृष्ठ ७१ COORa4 dan edical राजसुता अपने पति देव के साथ सुख शरया में सो रही श्री रानि समय राजा के जमाई को पीता खाँण हे).org Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष स्क भी घर नहीं पाया कि जिसके घर की जैन साधु भिक्षा ले सके । क्योंकि नगर के तमाम लोग मांसा हारी थे । और मदिरा पीते थे घर २ में मांस मदिरा का खूब गहरा प्रचार था। रक्त एवं हडिडयाँ घास कुस की भांति दृष्टिगोचर होती थी एवं मदिरा पानी की भाँति पीयी जाती थी। अतः साधु जैसे रिक्त हाथों गये थे वैसे ही वापिस लौट आये और तपोवृद्धि कर ध्यान में स्थित हो 'ज्ञानामृत भोजनम्' इस युक्ति को चरितार्थ कर रहे थे पर औदारिक शरीर वाले इस प्रकार आहार बिना कहाँ तक रह सकते हैं ? उपाध्याय वीरधवल ने समय पाकर सूरिजी से निवेदन किया कि हे पूज्यवर ! साधुओं को तप करते को बहुत समय हो गया । सब साधु एक से भी नहीं होते हैं । अतः इस प्रकार कैसे काम चलेगा ? इस पर सूरिजी ने आज्ञा फरमा दी कि यदि ऐसा ही है तो यहां से विहार करो। इस बात को सुन कर उपाध्यायजी ने भी सब साधुओं को विहार की आज्ञा दे दी और साधुओं ने विहार की तैयारी कर ली। वहां की अधिष्टात्री देवीचामुंडा ने अपने ज्ञान द्वारा इस सब हाल को जान विचार किया कि श्राबुदाचल से देवी चक्र श्वरी के भेजे हुये महात्मा मेरे नगर में आकर इस प्रकार भूखे प्यासे चले जॉय इसमें मेरी क्या शोभा रहेगी। अतः देवीचामुण्डा ने सूरिजी के चरण कमलों में आकर प्रार्थना की कि हे प्रभो ! श्राप छपा कर यहो चतुर्मास करावे आपको बहुत लाभ होगा इत्यादि । इस पर सूरिजी ने अपने ज्ञान में उप. योग लगा कर देखा तो वास्तव में लाभ होने वाला ही था, देवी की विनती स्वीकार कर ली और साधुओं को आर्डर दे दिया कि जो विकट तपश्चर्या के करने वाले हैं मेरे पास ठहरें। शेष विहार कर सुविधा के क्षेत्र में चतुर्मास करें। इस पर कनकप्रभादि ४६५ साधु विहार कर कोरंटपुर की ओर चले गये और शेष ३५ साधु सूरिजी की सेवा में रहे, जो मास दो मास तीन मास और चार मास की तपश्चर्या करने में कटिबद्ध थे। इधर तो सूरिश्वरजी अपने शिष्यों के साथ भूखे प्यासे जंगल की पहाड़ी पर ध्यान लगा रहे थे। उधर देवी ऐसे सुअवसर की प्रतीक्षा कर रही थी कि मैंने सूरिजी को वचन देकर चतुर्मास करवाया है तो इनके लिये कोई भी लाभ का कारण हो । ठीक है कि कार्य बनने को होता है तब कोई न कोई निमित्त भी मिल जाता है। ___यह बात तो आप पीछे पढ़ आये हैं कि राजपुत्र उत्पलकुमार ने अपनी मुसाफिरी के समय वैराटपुर के क्षत्रिय वीर संग्रामसिंह के यहां एक रात्रि मेहमान रह कर उनकी पुत्री जलणदेवी के साथ सम्बन्ध किया था। बाद आप उपकेशपुर आबाद करने के पश्चात् उनके साथ शादी कर ली थी। उसी जालन देवी के एक पुत्री हुई थी जिसका नाम सौभाग्यसुन्दरी रक्खा था। तस्मिन्नमकेशिपुरे पर्यन्तोद्यानसीमनि । सूरीणाँ तस्थुषाँ कोऽपि नाकार्षीद वन्दनादिकम् । तमानादरमालोक्य सूरीणं शासनामरी । गौरवार्थ शासनस्योत्सर्पणा यै मनो व्यधात् ॥ वतो देव्यार्थितः सूरि श्चातुर्मास्यंतु स्थीयताम् । एवंकृते महानलाभः प्राप्स्यते हित्वया प्रभो। आदि देश मुनिः शिष्या, नत्र तिष्ठन्तु साधवः । उग्र तपः कर्तु कामा गच्छन्त्वन्येयदच्छया ॥ पंचत्रिंशतु मुनयः स्थितास्तत्र महोजसः। अन्ये विजह कोरंटपुरं चातुर्मास्यचिकीर्षया । उपकेशगच्छ चरित्र ७१ www. library.org Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू०४०० वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास vramanannonw इधर मंत्री उहड़ के एक पुत्र हुआ जिसका नाम त्रिलोक्यसिंह रखा था । भाग्यवशात् राजा उत्पलदेव ने नगर आबाद करवाने में मंत्री ऊहड़ का उपकार समम अपनी पुत्री सौभागसुंदरीका विवाह मंत्री पुत्र त्रिलोक्यसिंह के साथ कर अपने पर जो ऋण था उसे हलका कर दिया था। वे दम्पति आनन्द में अपना संसार निर्गमन कर रहे थे। थली प्रान्त में एक पीना जाति के सर्प होते हैं । लघु शरीर होने पर भी उसका विष गुरु होता है । जिस किसी को काटा हो तो फिर उसके जीवन की श्राशा कम ही रहती है। भाग्यवशात एक समय राजकन्या अपने पतिदेव की शय्या पर सो रही थी।रात्रि में अकस्मात् पीना सर्प ने मंत्रीपुत्र त्रिलोक्यसिंह को काट खाया। जिसका विष उसके सब शरीर में व्याप्त हो गया । जब राजपुत्री ने जागृत हो अपने पतिदेव के शरीर को विष व्याप्त पाषाणवत देखा तो एक दम दुःख के साथ रुदन करने लगी। जिसको सुन कर सब कुटुम्ब एकत्रित हुआ और कुमार की दशा पर करुणक्रन्दन करने लगा। इधर बहुत से मंत्र तंत्रवादियों को बुलाया गया। उन्होंने अपना-अपना उपचार किया पर उन सबके सबने निराश होकर कह दिया कि राजजमाई मृत्यु को प्राप्त हो गया । अब इसको शीघ्र अग्नि-संस्कार कर देना चाहिये। बस ! फिर तो दुःख का पार ही क्या था ? कारण इस प्रकार की मृत्यु उस समय बहुत कम होती थी। जिसमें भी मंत्रीपुत्र एवं राजजमाई की युवकवय में यकायक मृत्यु हो जाना बड़े ही दुःख की बात थी। नगर भर में हाहाकार मच गया। पर इसका उपाय भी तो क्या था ? उस मृत कुमार के लिये एक झापन (मंडी) बना कर उसमें बैठा कर श्मशान की ओर जाने लगे। इधर राजकन्या अपने पतिदेव के साथ जल कर सतित्व धर्म रखने के लिये अश्वारूढ़ हो माँपन के साथ हो गई। कई अज्ञ लोग नासमझी के कारण यह भी कह देते हैं कि रत्नप्रभसूरि एक शिष्य को साथ लेकर ओसियों में आये थे और वहाँ गौचरी नहीं मिलने से वह शिष्य जंगल से काष्ट भार लाकर उसको बेच कर अन्न लाकर रोटी बना कर सूरिजी को खिलाता था । वह कार्य इतना अर्सा किया कि उसके शिर के बाल उड़ कर टाट पड़ गई । एक दिन सूरिजी ने उस शिष्य के शिर पर हाथ दिया तो शिर पर कोई बाल नहीं पाया |अतः सूरिजी ने कारण पूछा शिष्य ने सब हाल सुनाया । अतः सूरिजी ने कुछ रुई मॅगा कर उसके सांप से राजपुत्र को कटवाया । बाद राजा वगैरह सूरिजी के पास आकर पुत्र जिलाने की प्रार्थना की तब सूरिजी ने उस साँप से राजपुत्र का विष वापिस खिंचवाया। इस प्रकार चमत्कार बतला कर राजा प्रजा के * पतिं वै राजपुत्र्यास्तु, पुत्रं राजमन्त्रिणः । दैवात्तत्राऽदशत् सर्पः, निष्फलः सकलो विधिः ॥ अद्यमानः श्मशानंतु, मृतो ज्ञात्वा जनेश्वसः भवितु भस्म साद्देवी, अश्वारूढ़ तु तं गता ॥ उपकेशगक्छ चरित्र अथ मंत्रेश्वर ऊहड़ सुतं भुजगेन दृष्टः । अनेक मंत्र वादिनः आहूताः परं न कोपि समर्थस्तैः कथितं अयं मृत दाघो दीयतां । तस्य स्त्री काष्ठभक्षणे स्मशाने आयाता, श्रेष्ठस्य महान दुःखो जातः । उपकेशगच्छ पट्टावली पृ० १८५ । maranwwwwwwwani Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्षे सवालक्ष मनुष्यों को प्रोसवाल बना कर जैनधर्म धारण करवाया इत्यादि । पर यह बात बिलकुल गलत हो नहीं बल्कि एक बिना शिर पैर की गप्प है । सूरिजी एक साधु के साथ नहीं पर ५०० साधुओं के साथ पधारे थे और भिक्षा के अभाव में वे तपश्चर्या करते थे। न रुई का साँप बनाया और न राजपुत्र को कटवाया । वे चौदहपूर्वधर महात्मा ऐसा कौतूहल करते ही क्यों ? उन्होंने जो कुछ किया था; वह अपने आत्मबल और उपदेश द्वारा ही किया था। वह प्राचीन पट्टावलियों, चरित्र प्रन्थों में विद्यमान है जिसको कि मैं आज लिख रहा हूँ। जिसको पढ़ने से आप स्वयं समझ सकेंगे। . नगर में शोक के काले बादल सर्वत्र छा गये थे । राजा, मंत्री और नगर के लोग रुदन करते हुये राजजामाता की स्मशान यात्रा के लिये जा रहे थे। भाग्यवशात् रास्ता में एक लघु साधु ने आकर उन लोगों से कहा अरे मूर्ख लोगो! इस जीते हुये मंत्रीपुत्र को जलाने के लिये स्मशान क्यों ले जा रहे हो ? बस, फिर तो था ही क्या ? उन लोगों ने जाकर राजा एवं मंत्री से सब हाल निवेदन किया। अतः उनके अन्तरात्मा में कुछ चैतन्यता जागृत हुई । शीघ्र ही कहा कि उस साधु को यहाँ लाओ । जब साधुको ढूंढने को गये तो वह नहीं मिला । इस हालत में सब की सम्मति हुई कि बहुत अर्से से शहर के बाहर लुणाद्री पहाड़ी पर कई साधु आये हुये हैं और वह लघु साधु भी उनके अन्दर से एक होगा, अतः मृतकुमार को लेकर वहाँ ही चलना चाहिये । बस ग़रजवान क्या नहीं करते हैं ? सब लोग चल कर सूरिजी के पास आये और राजा तथा मंत्री हाथ जोड़ कर दीनस्वर से करने लगे प्रार्थना । कि हे दयासिन्धो ! अाज हमारे पर दुर्दैव का कोप होने से हमारा राज्य शून्य हो गया है । हमारे पुत्र रूपी धन को मृत्यु रूपी चोर ने हरण कर लिया है। हे करुणावतार ! आज हमारे दुःख का पार नहीं है, अतः आप कृपा कर हमारे संकट को दूर कर पुत्र रूपी भिक्षा प्रदान करें। आप महात्मा हैं रेख में मेख मारने को समर्थ हैं इत्यादि नम्रता पूर्वक प्रार्थना की। इस पर वीरधवलोपाध्याय ने समय एवं लाभालाभ का कारण जान उन लोगों से कहा कि थोड़ा गर्म जल होना चाहिये । बस पास में ही नगर था और आज तो घर २ में गरम जल था । एक आदमी जाकर गर्म जल लाया । उस गर्मजल से सूरिजी के चरणांगुष्ठ का प्रक्षालन कर इस जल को मंत्री पुत्र पर डाला । बस, फिर तो था ही क्या, मंत्रीपुत्र के शरीर से विष चोरों की तरह भाग गया और मंत्रीपुत्र खड़ा हो कर इधर उधर देखने लगा। वादित्रान् आकर्ण्य लघुशिष्यः तत्रागतः झंपाणो दृष्ट्रवा एवं कथापयति भो ! जीवितं कथं ज्वालयतः ते श्रेष्ठिने कथितं एषः मुनिवरः एवं कथयति । श्रेष्ठिना झंपाणो वालितः क्षुल्लकः प्ररष्टः गुरु पृष्ठे स्थितः-मृतकामानीय गुरु अग्रे मुचति श्रेष्टिगुरुचरणो शिरं निवेश्य एवं कथयति भोदयालु ! मम देवो रुष्ठः मम गृहो शून्यो भवति तेन कारणेन मम पुत्र भिक्षां देहि ? गुरुणा प्रासुक जलमानीय चरणौ प्रक्षाल्य तस्य छंटितं । सहसात्कारेण सज्जो बभूव हर्ष वादित्राणि वभूव । लोकैः कथितं श्रेष्टि पुत्र नूतन जन्मो आगतः। उपकेशगच्छ पट्टावली पृ० १५५ wwwwww.v.inwww. .... --0- - wwwww.. Jain Education Internal ७३ www.jainelinary.org Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास rammmmmmm. सब लोग आश्चर्यचकित हो गये । चारों ओर हर्ष के नाद एवं बाजे बजने लगे । और सबके मुंह से यही शब्द निकलने लगे कि आज इन महात्मा की कृपा से मंत्रीपुत्र ने नया जन्म लिया है । अर्थात् काल के गाल में गया हुआ राजजमाई जीवित हो गया है इत्यादि । अब तो नगर में सर्वत्र आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि और जैनधर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी। . राजा और मंत्री ने सोचा कि महात्मा का अपने पर महान उपकार हुआ है तो प्रत्युपकार के लिये अपने को भी महात्मा का उचित सत्कार करना चाहिये । अतः उन्होंने अपने खजानचियों को हुक्म कर दिया कि तुम्हारे पास कोष में जितने बढ़िया से बढ़िया रत्न मणियां हो वह सूरिजी की भेंट कर दो । तत्पश्चात् महात्माजी की जयध्वनि और हर्ष वाजित्रों के साथ मंत्रीपुत्र को लेकर नगर की ओर चले गये और सर्व नगर में महान हर्ष के साथ सूरिजी की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे। वे ही लोग क्या; पर चमत्कार को नमस्कार सर्वत्र हुआ ही करता है। ___ जब राजखजानचियों ने बहुमूल्य रत्नमणि आदि लेकर सूरिजी की सेवा में भेंट की तो सूरिजी सोचने लगे कि अहो संसार-लुब्ध जीवों की अज्ञानता कि जिस परिग्रह को ज्ञानियों ने अनर्थ का मूल बसलाया है संसार में जितने पौद्गलिक सुख दुख और तृष्णा है उनका मूल कारण परिग्रह ही है तथा मैं अनर्थ का मूल और संसार की वृद्धि समझ कर परिग्रह का त्याग कर आया हूँ। उसको ही संसारी लोग एक महत्व की वस्तु समम यहां लाकर मुझे खुश करना चाहते हैं इत्यादि, विचार करते हुए आप विशेष उदासीनता के साथ केवल ध्यान में ही मस्त रहे। इस पर खजानचियों ने सोचा कि शायद् महात्मा इतने थोड़ा द्रव्य से संतुष्ट नहीं हुये हों, उन्होंने जाकर राजा एवं मन्त्री से कहा कि हमारी भेंट महात्माजी ने स्वीकार नहीं की है । अतः आप जो कुछ हुक्म फरमायें वैसा ही किया जाय । मन्त्री ने राजा से कहा कि अपनी बड़ी भारी गलती हुई है कि जिन महात्मा का अपने पर इतना बड़ा उपकार हुआ उनके लिये अपने नौकरों से भेंट करवाई। अतः खुद अपने को चलना चाहिये । बस, फिर तो देरी ही क्या थी १ चार प्रकार की सेना तैयार करवाई और सर्व नगर में इत्तला करवा दी। अतः बड़े ही समारोह से राजा मंत्री एवं नागरिक लोगों ने सूरिजी के चरण कमलों में आकर वन्दन कर नम्रता मार्गेकश्चिन्मुनिस्तत्र, प्रोवाच ताँस्तु वाहकान् कथं धक्ष्यन्ति जीवन्तमित्युक्त्वाऽन्द धौहिस ।। अन्वेषितो ऽपिसाधुः स न तेषां दृष्टिगोचरः ययुः सर्वे तदासूरे शरणं शोक विह्वला ॥ मृतकं तु समास्थाप्य ववन्दुस्ते यथा विधि पोचुश्च नम्र शिरसो रुदन्तो स्ते च वाहकाः ।। अस्माकं मृत्यु चौरेण, मुषित पुत्रौ महानिधि । जीवयत्वं मंत्रि पुत्र राजजामातथं च नः भवन्तो हि महात्मान शरणागत वत्सलः साध्नुवन्ति च कार्याणि साधव साधु दर्णना॥ एवं ब्रुवाणे लोकेतु तेषामन्यतमोमुनि । प्रोवाच दयया ताँस्तु उष्ण मानीयताँ जलम् ॥ मुने क्षालित चरणेन जलेन परिषेचनम् । कृतं मृतो परितदा सहसा जीबितोत्थित ॥ उवाच जनता तत्र हर्ष वादित्र निस्वनै । अद्य त्वया मंत्रिपुत्र ! लब्धं जन्म द्वितीयकम् ॥ 'उपकेश गच्छ चरित्र Jain Edu 19 international Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पाश्वनाथ को परम्परा का इतिहास SOCMAR मंत्र यंत्र वादियों ने कह दिया कि अब यह मरगया है इसका अग्निसंस्कार करवादो अतः विमान में बैठाकर स्मशान में लेजा रहे थे उसकी पत्नी सती होने के लिये अश्वारूढ हो आगे चल रही थी। सामने एक लघु साधु आकर कहता है कि इस जीते हुये को क्यों जलाते हो ? पृष्ठ ७२ लोगों के कहने से विमान सूरिजी के पास लाया और राजा एवं मंत्री ने प्रार्थना की कि हे पूज्य ! आज हमारा राज शून्य हो गया अतः आप हसको पुन्न रूपी भिक्षा दिरावें । पृष्ठ ७३ wwwjainelibrary.org Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का हतिहास MALI सूरिजी के चरणांगुष्ट का प्रक्षाल किया जिसपर सूरिजी ने वासक्षेप डाला । वह जल मत प्राय: मंत्रीपुत्र पर छांटा जिससे ही वह निर्विष हो कर बैठा हो गया जिससे हर्षनाद होने लगा- पृष्ट ७३ ... . SASY D.CMALI राजा मंत्री ने सूरिजी को रत्नमणि आदि भेट की जिसको सूरिजी ने स्वीकार नहीं किया परन्तु धर्मोपदेश Halfbrary.org देका मना RA लवियों को जैन बनाया और उन्न सबका महाजन मंत्र 10 मिया-m.. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष के साथ प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आपका तो हम लोगों पर महान उपकार है; पर हम कृतघ्नी लोग उसको भूल कर आपका कुछ भी स्वागत नहीं कर सके । अतः उस अपराध को तो क्षमा करें और यह हमारा राज्य को स्वीकार कर हम लोगों को कुछ कृतार्थ बनावें इत्यादि । ___सूरीश्वरजी ने लाभालाभ का कारण जान कर एवं ध्यान से निर्वृति पाकर आये हुये उन राजादि को कहा कि हे राजन् ! आप भले मेरा उपकार समझे; पर मैंने अपने कर्तव्य के अलावा कुछ भी अधिकता नहीं की है । क्योंकि हम लोगों ने स्वात्मा के साथ जनता के कल्याण के लिये ही योग धारण किया है। दूसरे आप जो रत्नादि द्रव्य और राज का आमंत्रण करते हैं वह ठीक नहीं क्योंकि अभी आपको यह ज्ञान नहीं है कि यह पदार्थ आत्म कल्याण में साधक हैं या बाधक ? यदि हमको इन पुद्र्गालक पदार्थों का ही मोह होता तो हम स्वयं पुरअन्तेवर एवं राजभंडार का त्याग कर साधु नहीं बनते । अतः इस धन दौलत एवं राज से हम निस्पृही योगियों को किसी प्रकार से प्रयोजन नहीं है इत्यादि । राजा मन्त्री और नागरिक लोग सूरिजी महाराज के निस्पृहता के शब्द सुन कर मंत्र मुग्ध एवं एकदम चकित हो गये और मन ही मन में विचार करने लगे कि अहो ! आश्चर्य कि कहां तो अपने लोभानन्दी गुरु कि जिस द्रव्य के लिये अनेक प्रयत्न एवं प्रपंच कर जनता को त्रास देकर द्रव्य एकत्र करते हैं तब कहां इन महात्मा की निर्लोभता कि बिना किसी कोशिश के आये हुए अमूल्य द्रव्य को ठुकरा रहे हैं । वास्तव में सच्चे साधुओं का तो यही लक्षण है हमें तो अपनी जिन्दगी में ऐसे निस्पृही साधुओं के पहिले ही पहल दर्शन हुये हैं । फिर भी दुख इस बात का है कि ऐसे परम योगीश्वर अपने नगर में कई असें से विराजमान होने पर भी हम हतभाग्यों ने और तो क्या पर दर्शन मात्र भी नहीं किया। इनके खान पान का क्या हाल होता होगा ? इस वर्षा ऋतु में बिना मकान यह कैसे काल निर्गमन करते होंगे इत्यादि, विचार करते हुए राजा ने पुनः प्रार्थना की कि हे दयानिधि ! यदि इस द्रव्य एवं राज को श्राप स्वीकार नहीं करते हैं तो हमें ऐसा रास्ता बतलाइये कि हम आपके उपकार का कुछ तो बदला दे सकें ? क्योंकि हम लोग आपके आचार व्यवहार से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। सूरिजी ने कहा राजेन्द्र ! हम लोग अपने लिये कुछ भी नहीं चाहते हैं हम केवल जनकल्याणार्थ भ्रमण करते हैं। हमारा कार्य यह है कि उन्मार्ग से भवान्तर में दुःखी बनते जीवों को सन्मार्ग पर लाकर सुखी बनाना । यदि आप लोगों की इच्छा हो तो धर्म का स्वरूप सुन कर जैन धर्म को स्वीकार कर लो ताकि इस लोक और परलोक में आपका कल्याण हो । श्रेष्टिना गुरुणां अग्रे अनेक मणिमुक्ताफलसुवर्णवस्त्रादि आनीय भगवान गृह्यताँ ? गुरुणां। कथितं मम न कार्य परं भवद्भि जैन धर्मो गृह्यताँ । "उकेरा गच्छ पट्टावली" ततस्तुराजसचिव सूरये सूर्य वर्चसे । अर्पयामास समक्त्या बहुरत्न च हाटकम् ॥ 'उपकेश गच्छ चरित्र' १ततोऽवरत् स सचिवं, श्रुत्वावै धर्मरूपकम् । गृह्यताम् जैन धर्मश्च, कल्याणं लभ्यताँ त्वया ॥ अर्पितं तद्धनं तेन, नाङ्गीकृतमलोभिना । पूज्यन्ते मुनयश्चैव, त्यक्त सर्व परिग्रहा ॥ 'उपकेश गच्छ चरित्र' www.jai hory.org Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास राजादि सब लोगों का सूरिजी के श्रात्मज्ञान विशुद्धचरित्र, निस्पृह और जनकल्याणकारी वचनों पर पहिले से ही श्रद्धा विश्वास हो आया था। फिर सूरिजी ने स्वतः धर्म सुनने को फरमा दिया फिर तो था ही का? उन लोगों ने शिर झुका कर कह दिया कि प्रभो ! आप कृपा कर हम लोगों को जरूर धर्म के स्वरूप सुनावें । इस पर आचार्यश्री ने उन धर्म जिज्ञासुओं पर दया भाव लाकर उच्च स्वर और मधुर भाषा से धर्म देशना देना प्रारम्भ किया, हे राजेन्द्र ! इस अपार संसार के अन्दर जीव को परिभ्रमण करते हुये अनंतकाल हो गया कारण कि सूक्ष्मबादर निगोद में अनंतकाल, पृथ्वी पाणि ते वायु में असंख्याताकाल, और वनस्पति में अनंतानंत काल परिभ्रमण किया । बाद कुछ पुन्य बढ़ जाने से बेन्द्रिय एवं तेन्द्रिय चारिंद्रय व तीर्थंच पांचेन्द्रिय व नरक और अनार्य मनुष्य व अकाम निर्जरादि देवयोनि में परिभ्रमण किया पर उत्तम सामग्री के अभाव से शुद्ध धर्म न मिला, हे राजन् । शास्त्रकारों ने फरमाया है कि सुकृतों का सुफल और दुष्कृत्यों का दुष्फल भवान्तर में अवश्य मिलता है। इस कारण शुभाशुभ कर्म करता हुआ जीव चतुर्गति में परिभ्रमन करता है जिसको अनंतानंतकाल व्यतीत हो गया। जिसमें अव्वल तो जीव को मनुष्यभव ही मिलना मुश्किल है | कदाच मनुष्य भव मिल भी गया तो आर्य्यक्षेत्र, उत्तमकुल, शरीरआरोग्य, इन्द्रियपरिपूर्णता और दीर्घायुष्य क्रमशः मिलना दुर्लभ है, कारण पूर्वोक्त साधनों के अभाव में धर्म्म कार्य्य बन नहीं सकता है। अगर किसी पुण्य के प्रभाव से पूर्वोक्त सामग्री मिल भी जावे परन्तु सद्गुरु का समागम मिलना तो अति कठिन है और सद्गुरु बिना सज्ञान की प्राप्ति होना सर्वथा असंभव है । हे नरेश ! आप जानते हो कि बिना गुरु के ज्ञान हो नहीं सकता है और संसार में जितना अज्ञान फैलाया है वह स्वार्थी कुगुरुश्रों ने ही फैलाया है । श्राप स्वयं सोच सकते हो कि क्या जीवहिंसा से भी कभी धर्म हो सकता है ? पर पाखण्डियों ने तो केवल मांस की लोलुपता के कारण मांस खाने में, मदिरा र पीने में और व्यभिचार सेवन करने में भी धर्म बतला दिया है, इतना ही क्यों ? जिस ऋतुवंती एवं शूद्रनियों का अच्छे मनुष्य स्पर्श तक भी नहीं करते वे उनके साथ गमन करने में भी तीर्थों की यात्रा जितना पुन्य बतलाते हैं । अरे उन्होंने तो अपनी बहिन बेटी से भी परहेज नहीं रक्खा है । अतः एक जन्म के देने वाली माता के अलावा संसार भर की स्त्रियों के साथ मैथुन कर्म की छूट दे दी है। भला थोड़ासा विवेक १ या क्रियते कर्म, तादृशं भुज्यते फलम् । यादृशं मुच्यते बीजं तादृशं प्राप्यते फलम् ।। सुचिनकम्मा सुचिना पल्ला दुच्चिना कम्मा दुचिना फल्ला भवति । * चवारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो । माणुसत्तं मुझसद्धा संजमंमिय वीरियं । सभावनाण संसारे, नाणा गोत्तासु जाइसु । कम्मानारणा विहाकड पुढो विस्सं भयापया ॥ एगया देव लोसु, नरएस विएगया। एगया आसुरं कार्य, अहा कम्मेहिंगच्छइ । एगया खतिओ होई, तओ चंडाल बुक्कुसो । तओ कीड़पयंगोय तओ कुंथु पिपीलिया || माणुस्सं विग्ग लघु, सुइ धम्मस्स दुल्लहा । जं सोचा पंडिवज' ति, तवं खंति महिंसयं । आहच्च सवणं लड्डु, सद्धा परम दुल्लहा । सुच्चाने या उयं मग्गं, बहवेपरिभस्सइ ॥ खेतं वत्थु हिरणंच पसवोदास पोरुसं । चत्तारि काम खंधाणि तत्थसे उववज्जई ।। मित्तवं नायचं होई, उच्चगोएय वण्णवं । अप्पायंके महापन्ने अभिजाए जसो बले ।। " श्री उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३” Jain Edon International Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन [ वि० पू० ४०० वर्ष बुद्धि से सोचो कि ऐसा धर्म नरक में ले जाने वाला है या स्वर्ग में ? अर्थात इस प्रकार के दुराचार सेवन से सिवाय नरक के और स्थान ही कहां है। यह बात समझाई किसको जाय १ इन पाखण्डियों ने तो भद्रिक जनता के शुरू से ही ऐसे बुरे संस्कार डाल दिये हैं और साथ में यह भी प्रतिबन्ध लगा दिया है कि हमारे सिवाय किसी का उपदेश तक भी नहीं सुनना और जनता उन धर्मनाशकों के वचन पर विश्वास कर लेती है। ऐसे प्रज्ञाहिनों के लिये मनुष्य तो क्या पर ब्रह्माजी भी क्या कर सकते हैं ? अतः मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि सब से पहिले प्रात्मकल्याणार्थ धर्म की परीक्षार करनी जरूरी है जैसे सोने की परीक्षा चार प्रकार से होती है कमोटी, सूलाक, ताप और पीटन। इसी प्रकार धर्म की परीक्षा भी शील, सत्य, दया, दान और तप से होती है, वही धर्म पवित्र कहा जा सकता है कि जिसमें पूरे चारों गुण हों । और आत्म-कल्याण भी उसी धर्माराधन से हो सकता है। ___ महानुभावो! केवल तिलका और मुद्रा धारण करने से तथा मन्त्रोच्चारणमात्र से ही जीवों का कल्याण नहीं होता है । यदि जिसका हृदय आत्म-ज्ञान शून्य है तो वे चाहे ब्राह्मण ही क्यों न हो पर अपना जन्म ज्यर्थ ही गंवा देते हैं अतः केवल बाह्य आडम्बर पर ही धोखा न खा जाना चाहिये। इतना ही क्यों पर सम्यग्ज्ञान रहित पाखण्डियों की सहायता करना एवं पोषण करना भी नरक का कारण होता है; क्योंकि पाखण्डी संसार में पाखण्ड फैलाते हैं वे सब सहायकों की सहायता से ही फैलाते हैं, अतः उनको भी उसका फल तो लगना ही चाहिये और इस कारण वे नरक के द्वार देखते हैं। हे राजेश्वर ! अब इन पाखण्डियों के यज्ञ का भी थोड़ा सा हाल सुन लीजिये कि इन निर्दय दैत्यों ने संसार में मांस का प्रचार करने के लिये जनता को किस तरह से धोखा दिया है । पहिले तो मैं शुद्ध यज्ञ का स्वरूप बतला देता हूँ कि जैसे सत्यरूपी स्तूप, तपरूपी अग्नि, कर्मरूपी समिधा अहिंसा रूपी आहुति से आत्मा के साथ अनादि काल से लगे हुये कर्मो को होम कर उसका नाश करना इत्यादि । इस यज्ञ से जीव स्वर्ग एवं मोक्ष का अधिकारी बनता है और इस विषय का यह एक ही उदाहरण नहीं है पर पूर्व महर्षियों ने अपनी अन्तरध्वनि अनेक३ प्रकार से उद्घोषित की है। १ यस्य नास्ति स्वयंप्रज्ञा, शास्त्र तस्य करोति किं। लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणं किं करीष्यति॥ २ यथा चतुर्मि कनकं परीक्षते, निघणच्छेदन तापताड़नैः । तथैव धम्मैः विदुषा परीक्षते, श्रुतेन शीलेन तपो दया गुणैः ॥ + तिलकैमुद्रयामंत्र, क्षामतादर्शनेन च । अन्त शून्या वहिसारा वंचयन्ति द्विज जनम् ॥ * यतिने काँचनं दत्वा, ताम्बूलं ब्रह्मचारिणे । चौरेभ्योऽप्यमय दत्वा, स दाता नरकं व्रजेत् ॥ ३ सत्य यूपं तपोमग्नि, कर्मणा समाधीमम् । अहिंसामाहुतिदद्या, देवं यज्ञ सताँमतः ॥१॥ इन्द्रियाणि पशुन् कृत्वा, वेदी कृत्वा तपो मयीं। अहिंसा माहुति कृत्वा, आत्म यज्ञ यजाम्यहम् ॥२॥ ध्यानाग्रौ जीव कुण्डस्थ, दममारूत दीयिते । असत्कर्म समितक्षेपे, अग्निहोत्रं कुरूतमम् ॥३॥ ४ न शोणित कृतं वस्त्रं, शोणिते नैव शुद्धते । शोणिता यद्वस्त्रं, शुद्धं भवति वारिणा ॥ ७७ www.jainellorary.org Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [ भगवान् पाश्र्वनाथ की परम्परा का इतिहास हे पृथेश ! आप जानते हो कि खून से लिप्त हुश्रा वस्त्र खून से कभी साफ हो सकता है ? नहीं कदापि नहीं । इसी प्रकार र कर्म करने वाले जीव ऐसी निर्दय प्रवृति करते हैं जिसके जरिये उनको अवश्य नरक में जाना पड़ता है क्योंकि मांस भक्षण करने वाले को एक ही नहीं पर १८ दोष लगते हैं, इतना ही क्यों, पर यज्ञ का नाम लेकर निरपराध प्राणियों का वध करता है वह घोर नरकर में जाता है और जिस पशु को मारता है उसके जितने बाल हैं उतने हजार वर्ष उसको नरक में दुख भोगना पड़ता है। हे क्षत्रधीरा ! जब बड़े से बड़ा अपराधी जीव मुंह में तृण लेकर खड़ा हो जाता है तो वह अबध्य समझा जाता है तो सदैव तृण भक्षण करने वाले निरपराध जीवों के प्राण लूट लेना कौन बहादुरी की बात है। यदि किसी धर्म वाले इस प्रकार प्राणियों की हिंसा का उपदेश क ते हों तो वह नास्तिक से भी नास्तिक हैं। इतना ही क्यों पर ऐसे नास्तिकों पर विश्वास रखने वाले भी घोर नरक में जाकर असंख्यकाल तक घोर दुःखों को भोगते हैं और भी देखिये महर्षियों ने क्या फरमाया है: हे पृथ्वीपति ! जो लोग यज्ञ का नाम लेकर निराधार मूक प्राणियों के प्राण हरन करते हैं वे सीधे ही घोर नरक में जावेंगे । और अपने साथियों को भी वे नरक में साथ ले जाते हैं क्योंकि हिंसा से न तो कभी हुआ है और न कभी धर्म होने वाला ही है । "जल पर पत्थर कभी नहीं तरता है, सूर्य पश्चिम में नहीं उगता है, अग्नि कभी शीतलता नहीं देती है, पृथ्वी कभी पाताल में नहीं जाती है इत्यादि पर उपरोक्त कार्य दैवयोग से कभी अपने असली भावों को छोड़ा हुआ भी दिखाई देने लग जाय तथापि हिंसा से धर्म तो कभी भी नहीं होता है। हे नरेन्द्र ! कितनेक निर्दय दैत्य भद्रिक लोगों को उल्टे समझाते हैं कि ब्रह्मा५ ने यज्ञ के लिए ही पशु आदि जीवों को पैदा किया है अतः यज्ञ में जिन २ प्राणियों की बलि दी जाती है वह सीधे ही स्वर्ग में पहुँच जाते हैं इत्यादि । पर उन निर्दय दैत्यों से कहाजाय कि यदि यज्ञ में बलिदान होने वाले जीव स्वर्ग में पहुँच जाते हैं तो क्या आप स्वयं एवं अपने माता पिता पुत्र आदि को स्वर्ग नहीं चाहते हो ? पहिले उनको बलि देकर स्वर्ग: पहुँचा दीजिये क्योंकि मूक प्राणी आपसे कभी यह याचना नहीं करते हैं कि हमको आप स्वर्ग १ यस्तु मात्स्यानि, मांसानि भक्षयित्वा प्रपद्यते। अष्टादशापराधं च, कल्पयामि वसुन्धरा॥१॥ २ देवापहार व्याजेन, यज्ञव्याजेन येऽथवा । घ्नन्ति जन्तून गतघृणा, घोरं ते यान्ति दुर्गतिम ॥१॥ ३ अन्धे तमसि मज्जामड, पशुभिर्यजामहे । हिंसा नाम भवेद् धर्मो, न भूतो न भविष्यति ॥ + यदि ग्रावा तोये तरति तरणियद्युदयते, प्रतिच्यान्सप्तार्चियदि, भजति शैल्य कथमपि । यदिक्ष्मापीडं स्यादुपरि, सकलस्यपिजगतः । प्रसूतेसत्वानी तदपिन बधः कापिसुकृतम् ॥ ४ वैरिणोऽपि विमुच्यन्ते, प्राणान्ते तृणभक्षणात् । तृणाहराः सदैवैते, हन्यते पशवः कथम् ॥१॥ ५ यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः, स्वयमेव स्वयम्भुवा। यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य, तस्मात् यज्ञेवधोऽवधः॥ ओषध्यः पशवोवृक्षास्तियं चः पक्षिणास्तथा । यज्ञार्थ निधानंप्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ॥ Harmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwimmmmmmmmmwwwwwwmarwariorrnmnnwwwmonirmirmirmirmirmirmirmnnnnnnnrmmammmmmmmmmmmmmunnnnnnnnnnnwommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ७८ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रनप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष पहुँचावें । वे तो विचारे दीन स्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हम स्वर्ग को नहीं चाहते हैं हम तो जंगल के जल घास पर ही सन्तुष्ट हैं। अरे पाखण्डियो ! यदि जीव हिंसा करके ही स्वर्ग चला जायगा तो नर्क के द्वार तो बन्दर ही हो जायंगे । यदि कोई मांसभक्षी यह कहते हों कि हम यज्ञ में बलि देकर दुनिया की शान्ति३ करते हैं और इस से कुल वृद्धि भी होती है तथा दशहरे आदि में भैंसे बकरे मारना हमारी कुल परम्परा हैं तो यह उनकी भूल है क्योंकि न तो हिंसा से कभी शान्ति हुई है और न कुल वृद्धि ही होती है, वरन् हिंसा से तो उल्टी अशान्ति और कुल का नाश ही होता है । ___ राजन् ! आप स्वयं सोच सकते हो कि इस प्रकार हिंसा से धर्म की इच्छा रखने वाला अज्ञानी आरमा मानो जाज्वल्यमान अग्नि से कमल की, अंधकार मयी रात्रि में सूर्य की, सर्प के मुंह से अमृत की, वितंडावाद में साधुवाद की अजीर्ण से निरोगता की, कालकूट जहर से जीने की आशा रखता है अर्थात् उपरोक्त आशायें जैसे निरर्थक हैं वैसे हिंसा से धर्म की आशा रखना व्यर्थ है । हे नरेन्द्र ! जो मनुष्य संसार में रहता है वह भी झूठ बोलने में महापाप समझता हैं जब एक धर्म के उपदेशक झूठा उपदेश दें तथा मिथ्याप्रन्थों की रचना कर बिचारे भद्रिक जीवों को तथा उनकी वंश परम्परा के लिये नरक के द्वार खुल्ला रख देंवे तो पहले नरक में जाकर उन भक्तों के लिये उन्हें ही नरक में स्थान करना होगा इसमें शंका की कोई बात नहीं है अर्थात् जो हिंसामय शास्त्रों की रचना करता है वह तो बिना किसी रुकावट के सीधा नरक में ही जाता है । हे धराधिप ! संसार में जितने प्राचीन धर्म हैं उन सब का एक ही सिद्धान्त है कि 'अहिंसापरमोधर्म:' क्योंकि धर्म की माता अहिंसा है। बिना अहिंसा न तो धर्म का जन्म होता है और न धर्म की वृद्धि ही १ निहतस्य पशोर्यज्ञे, स्वर्गप्राप्तिवदीयते । स्वपिता यजमानेन, किन्तु तस्मानहन्यते ॥ + नाहं स्वर्ग फलोपभोग तृषितो नाभ्यर्थितस्त्वमया। संतुष्टस्तृण भक्षणेन,सततं साधो न युक्तं तवं॥ स्वर्गे यान्ति यादित्वया विनिहता यज्ञेध्रुवं प्राणिनो ।यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथावान्धवैः ॥ २ यूपंच्छित्वापशूनहत्वा, कृत्वा-रुधिर कर्दमम् । यद्यवे गम्यते स्वर्गे, नरके केन गम्यते ॥ ३ हिंसाविघ्नाय जायते, विघ्न शान्त्यै कृतापिहि । कुलाचार धियाऽप्येषा, कृता कुल विनाशिनी ॥ ४ स कमल वनमग्रेर्वासरं भास्वदस्ता, दमृत मुरगक्त्रात् साधुवाद विवादात् ॥ रूगपम मम जीर्णाज् जीवितं कालकूटा, दभिलपतिवधान यः प्राणिनाँ धर्ममिच्छेत् ॥ १-ये चक्रःकर कर्माणः शास्त्रहिंसोपदेशकमक्ते, यास्यतिनरके नास्तिकेभ्योऽपिनास्तिकाः २-विश्वस्तो मुग्धधीर्लोकः, पात्यते नरकावनौ । अहो नृशंसैर्लोभान्ध, हिंसाशास्त्रोपदेश कैः ॥ सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउन मरिज्ज। तम्हा पाणावह घोरं, निग्गंथा वज्जयंते णं ॥ कपिलानां सहस्राणि, यो विप्रभ्यः प्रयच्छति। एकस्य जीवितं दद्याद्, न च तुल्यं युधिष्ठिर ! ॥ न तो भूयस्तपो धर्मः कश्चिदन्योऽस्ति भूतले । प्राणिना भयभीतानामभयंयत्पदीयते ।। womenwwwwwwwwwwwwwwwwmarwmwwwrammmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ७९ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास होती है अतः आप निश्चय समझ लें कि धर्म का लक्षण ही अहिंसा है; इतना ही क्यों पर सर्व धर्मों में पांचव्रत २ मूल माने हैं उसमें भी अहिंसा को सबसे पहिला स्थान दिया गया ३ है। महर्षियों ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि कोई दानेश्वरी कांचन का मेरु और वसुंधरा दान देता है और दूसरा एक मरते हुये जीव को प्राणों का दान देता है तो प्राणदान के सामने कांचन का मेरु और पृथ्वी कुछ भी गिनती में नहीं है। हे राजन् !एक तरफ तो सब वेदों ५ का अध्ययन, सर्व यज्ञ तथा सर्व तीर्थों की यात्रा और दूसरी ओर एक प्राणी के प्राणों को बचाना, इन दोनों में एक प्राणी के प्राणों को बचाना ही श्रेष्ठ रहेगा, कारण जितने धर्म कृत्य हैं; उनमें जीव दया ही प्रधान है और दया सहित धर्मकृत्य है वही आत्मकल्याण में साधक बन सकता है। जैसे अपने प्राण अपने को वल्लभ हैं वैसे ही सब जीवों को अपने २ प्राण वल्लभ हैं; अतः किसी जीव को तकलीफ पहुँचानी यह मनुष्यधर्म के बाहर की बात है इसमें भी जो मनुष्यों में राजा कहलाता है उसका तो खास फर्ज ही है कि वे नीति के नाते सभी चराचर प्राणियों को अपने प्राणों के तुल्य समझे । हे नरेन्द्र ! संसार में सब धर्मों में दान धर्म को ही श्रेष्ठ माना है जिसमें भी अभयदान को तो यहाँ तक उत्तम माना है कि उसको वराबरी न गौदान १ कर सकता है न पृथ्वीदान कर सकता है और न अन्नदान ही कर सकता है। हे राजन् ! अहिंसा सब जीवों का हित करने वाली मातारे के समान है । अहिंसा ही मरुप्रदेश जैसे निर्जल स्थान में अमृत की नालिका ३ समान है अहिंसा ही दुःखरूपी दावानल के शान्त करने में महामेघ की धारा समान है इत्यादि । हे नरेन्द्र ! आप किसी भी धर्म के साहित्य को उठा कर देखिये वह अहिंसा से ओत प्रोत ही मिलेगा , हाँ कोई लोग उनको काम में लेता हो या न लेता हो यह बात दूसरी है; पर पूर्व महर्षियों का तो यह अटल सिद्धान्त है कि बिना अहिंसा न तो धर्म होता है और न जीवों का कल्याण ही होता है, अतः आप अपना कल्याण करना चाहते हो तो आपको परमेश्वरी अहिंसा का उपासक बन जाना चाहिये । १-अहिंसा लक्षणो धर्मो ह्यधर्मः प्राणिनाँ वधः । तस्माद् धर्मार्थिभिलॊकैः कर्त्तव्या प्राणिनाँ दया॥१॥ २-अहिंसा सर्व जीवेषु, तत्वज्ञैः परिभाषितम् । इदंहि मूल धर्मस्य, शेषस्तस्यैवविस्तरम् ॥२॥ ३-पंचैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसासत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुन वर्जनम् ॥३॥ ४-यो दद्यात् कांचनं मेरुः , कृत्स्ना चैव वसुन्धरा । एकस्य जीवितं दद्यात्, न च तुल्य युधिष्ठिर ॥४॥ ५-सर्वे वेदा न तत् कुयु, सर्वे यज्ञाश्च भारत । सर्वेतीर्थाभिषेकाच, यत् कुर्यात् प्राणिनी दया ॥५॥ ६-दीयते म्रिय माणस्य, कोटिर्जीवित एव या, धनकोटिं परित्यज्य, जीवो जीवितु मिच्छति ॥६॥ १-न गोप्रदानं न महि प्रदानं, नाऽन्नप्रदानं हि तथा प्रदानम् । ___ यथा वदन्तीहबुधा प्रदानं, सवे प्रदानेष्वभयप्रदानम् ॥ २-मातेव सर्व भूतानामहिंसाहितकारिणि । अहिंसैव हि संसारमरवमृतसारिणिः ॥ ३-अहिंसा दुःख दवाग्नि प्रवृषेणधनाऽऽवलि, भव भ्रमिरुजाता महिंसा परमौषधी ॥ wrememmmmmmmmmmmmmmmmmmm . Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष हे सज्जनो! मैंने आपको हिंसा और अहिंसा की समालोचना करके बतलाई है। इसमें मेरा कुछ भी स्वार्थ नहीं हैं क्योंकि साधु का जीवन तो सदा परोपकार के लिये ही होता है। अगर किसी जीव को उन्मार्गजाता हुआ देखें तो हमारा धर्म है कि हम उनको सन्मार्ग बतलावें, फिर मानना न मानना उनकी मरजी की बात है। सूरिजी के सारगर्भित व्याख्यान का जनता पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा कि वे मन ही मन में हिंसा से घृणा करने लग गये तथा अहिंसा की ओर उनकी श्रद्धा झुकने लग गई । जैनशास्त्रों के अनुसार इधर तो उन लोगों के कर्मों की स्थिति परिपक्क होने से उपादान कारण सुधरा हुआ था, उधर आचार्यश्री का निमित्त कारण मिल गया फिर तो कहना ही क्या था ? __ आचार्यश्री ने अपने सन्मुख बैठे हुये मठपतियों एवं ब्राह्मणों से कहा कि क्यों, भट्टजी महाराज! आपके हृदय में भी अहिंसा भगवती का कुछ संचार हुआ है या नहीं ? कारण मैंने प्रायः आपके महर्षियों के वाक्य ही आपके सन्मुख रखे हैं । हे भूर्षियो ! आपके ऊपर जनता ठीक विश्वास रखती है और आप अपने स्वरूप स्वार्थ के लिये विश्वास रखने वालों को अधोगति के पात्र बना रहे हो यह एक विश्वासघात और कृतघ्नीपना की बात है। इससे आप खुद डूबते हो और आपके विश्वास पर रहने वालों को भी गहरी खाई में डुबाते हो । अगर आप अपना कल्याण चाहते हो तो वीतराग-ईश्वर सर्वज्ञ प्रणीत शुद्ध पवित्र अहिंसामय धर्म को स्वीकार करो ताकि पूर्व किये हुये दुष्कर्मों से छुट कर और भविष्य के लिये आप की सद्गति हो अतः यह हमारी हार्दिक भावना है। इस पर ब्राह्मणों ने कहा कि आपके सर्वज्ञ पुरुषों ने कौनसा धर्म बतलाया है कि जिससे भाप हमारा भला कर सको ? तथा आपके धर्म का क्या तत्त्व है ? इसको भी सुना दीजिये ।। सूरीश्वरजी महाराज ने कहा कि हे महानुभावो ! धर्म का मूल-तत्व सम्यक्त्व (श्रद्धा ) है ! वह समकित दो प्रकार का है (१) निश्चयसम्यक्त्व (२) व्यवहारसम्यक्त्व । जिसमें यहाँ पर मैं व्यवहार सम्यक्त्व के लिये ही संक्षिप्त से कहूँगा । जैसे: देव-अरिहन्त-वीतराग१ ईश्वर सर्वज्ञ सकलदोषवर्जित कैवल्यज्ञान, केवल्यदर्शन अर्थात् सर्व चराचर पदार्थोंको हस्तामलक की तरह जाने देखें और जिनका आत्मज्ञान तत्वज्ञान बड़े ही उच्चकोटि का हो और सर्व जीवों के कल्याण के लिये जिनका सुप्रयत्न हो सर्वजीवों के प्रति जिनकी समदृष्टि हो; "अहिंसा परमोधर्मः" जिनका खास सिद्वान्त हो; क्रीडा-कुतूहल और अष्टादश दोषवर्जिति पुनः पुनः अवतार धारण करने से सर्वथा मुक्त हो उन्हें देव समझना चाहिये । ४-तुष्यन्ति भोजनैर्विप्रा,मयूर घन गर्जितैः। साधवापरकल्याणे, खल परविपत्तिभिः देवत्व श्रीजिनेष्ववा, मुमुक्षपुगुरुत्वधी । धर्मधीरार्हताधर्मः, तत्स्यात् सम्यक्त्व दर्शनम् ॥ १ न राग रोषादिक दोष लेशो, यत्रास्ति बुद्धः सकल प्रकाशः । शुद्ध स्वरूपः परमेश्वरऽसौ, सतां मतो देव पदाभिधेयः ।। तस्मात् स देवः खलुवीतरागः पियऽप्रिय वा नहितस्य कश्चित् । रागादिसत्ताऽऽवरणानिनाम, तद्वाँश्च सर्वज्ञ तयाकुतः स्यात् १ ॥ awwwwwwwwwwinnnnnnnnnnwarmar nrnawrreneurmarmanane. nuaruna.inARAAAAPunnynonvayrinawwwwwwwwwwwwwwwwimara Jain Educak International www.jaictary.org Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गुरु - अहिंसा, सत्य, चौर्य, ब्रह्मचर्य और निस्पृहता एवं पंचमहाव्रत पांच समिति, तीनगुप्ति, दश प्रकार का यतिधर्म, सतरह प्रकार संयम, बारह प्रकार तप, इत्यादि शम दम गुणयुक्त भव्य प्राणियों के कल्याण के लिये जिन्होंने अपना जीवन ही अर्पण कर दिया हो उनको गुरु समझना चाहिये । धर्म-‘अहिंसापरमोधर्मः' अहिंसाही धर्म का मुख्य लक्षण है। इसके साथ क्षमा, तप, दान, ब्रह्मचर्य, देवगुरुसंघ की पूजा, स्वधर्मियों की सेवा, उपासना, भक्ति, आदि करना जिस धर्म से किसी प्राणियों को तकलीफ न पहुँचे और भविष्य में स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति हो उसको धर्म समझना । जैनधर्म की लिये यह श्रद्धा के मूल तीन तत्व हैं । इनके अलावा आत्म कल्याण के लिये श्रद्धा के साधन दो प्रकार के बतलाये हैं १ – आचार ज्ञान, २ - तात्विकज्ञान, जिसमें आचार में अहिंसा; जिसकी प्रत्येक धर्म कार्य में मुख्यता है । हिंसा धर्म पालन करने वालों को सबसे पहिले तो जुत्रा, मांस, मदिरा, वैश्या, चोरी, शिकार, और परस्त्रीगमन एवम् सात कुव्यसनों का त्याग करना होता है । आगे चल कर व्रतधारी श्रावक होता है वह एक व्रत से लेकर बारह व्रत स्वीकार कर उसका पालन करता है । व्रत निम्न लिखित हैं: ( १ ) पहिलावत - हिलते चलते त्रस जीवों को बिना अपराध मारने की बुद्धि से मारने का त्याग करना। अगर कोई अपराध करे व मारने को आवे, अथवा आज्ञा भंग करे इत्यादि उन व्यक्तियों के सामना करना गृहस्थों के लिये प्रतभंग नहीं है । ( २ ) दूसरात - ऐसा झूठ न बोलना चाहिये कि वह राज कानून से खिलाफ हो अर्थात् राजदंड ले और लोगों में भंडाचार हो । अपनी कीर्ति व प्रतिष्ठा में हानि पहुँचे। इसी प्रकार झूठीगवाही देना, विश्वासघात व धोखेवाजी राजद्रोह देशद्रोह मित्रद्रोह इत्यादि न करना इत्यादि असत्य कार्यों की मना है । ( ३ ) तीसरात - बिना दी हुई वस्तु नहीं लेना अर्थात् चोरी करने का त्याग है । जिस चोरी से राजदंड ले - लोगों में भंडाचार अर्थात् व्रतधारी की कीर्ति व विश्वास में शंका हो । परभव में उन क्रूर कर्म का बदला देना पड़े। ऐसे काय्यों की सख्त मना है । ( ४ ) चौथेत्रत में - स्वदारासंतोष अर्थात् संस्कारपूर्वक शादी की हुई हो उनके सिवाय परस्त्री, वेश्यादि से गमन करना मना है । (५) पांचवांत में - धन माल द्विपद चतुष्पद राज स्टेट जमीन वगैरह स्वेच्छा से परिमाण किया हो उनसे अधिक ममत्व बढ़ाना मना है । (६) छठात्र में - पूर्वादि छः दिशाओं में जाने की मर्यादा करने पर अधिक जाना मना है । (७) सातवांत - - उपभोग परिभोग की मर्यादा है जैसें खाने पीने के पदार्थ एक ही वक्त काम में आते हैं उसे उपभोग कहते हैं और वस्त्र भूषण स्त्री मकानादि पदार्थ बारम्बार काम में आते हैं उसे परिभोग कहते हैं। इनका परिमाण कर लेने के बाद अधिक नहीं भोग सकते हैं । और मांस, मदिरा, मधु, मक्खन, अनंतकाय, पकाया हुआ वासी अन्नादि रसचलितभोजन, द्विदलादि कि जिसमें प्रचुरता से जीवोत्पत्ति होती हैं वह सर्वथा त्याज्य है। दूसरा व्यापारापेक्षा जो १५ कर्मादान अर्थात् अधिकाधिक कर्मबन्ध के कारण हों जैसे (१) श्रम का आरंभ कर कोलसादि का व्यापार करना (२) वन कटा कर व्यापार (३) शकटादि बनाकर किराये से फिराना ( ४ ) किराये की नियत से मकानात बन्धाना व गाड़ी ऊँट वगैरह भाड़े देना या फिराना (५) पत्थर की खाने निकलवाना (६) दान्त (७) लाख ( ८ ) रसतैल घृत मधु वगैरह ( ९ ) विष सोमलादि का व्यापार (१०) केशवाले जान ८२ Jain Education international Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष वरों का व्यापार तथा ऊन जट का व्यापार, ( ११ ) यंत्र पीलन आदि ( १२ ) पुरुष को नपुंसक बनाना (१३) अग्नि वगैरह लगवाना (१४) तलाव के जल को शोषन करवाना ( १५ ) असतिजन का पोषन इस प्रकार १५ कर्मादान यानि अपनी आजीविका के निमित्त ऐसे तुच्छ कार्य करना व्रतधारी श्रावकों के लिये शक्त मना है । यह १५ कर्म व्यापार के लिये मना किये हैं । (८) अनर्थ दंडवत - निरर्थक श्रात ध्यान करना, अपना स्वार्थ न होने पर भी पापकारी उपदेश देना । दूसरों की उन्नति देख ईर्षा करना - आवश्यकता से अधिक हिंसाकारी उपकरण एकत्र करना । प्रमाद के वश हो घृत तेल दूध दही छाछ पाणी के बरतन खुले रख देना इनको नर्था दण्ड कहते है अतः पूर्वोक्त चारों बातों का व्रतधारी श्रावक को त्याग करना पड़ता है । ( ९ ) नौवात्रतमें - हमेशा समताभाव रह कर सामायिक कर ने का नियम रखना पड़ता है। (१०) दशवांत में - दिशादि में रहे हुये द्रव्यादि पदार्थों के लिये १४ नियम याद करना (११) ग्वारहवाँत - में तिथि पर्व के दिन अथवा अन्य दिवस जब कभी अवकाश मिले श्रवश्य करने योग्य पौषधत्रत जो ज्ञानध्यान से आत्मा को पुष्ट बनाने रूप पौषधत्रत करना । (१२) बारहवांत में - अतिथि संविभाग - महात्माओं को सुपात्र दान देना । इनके अलावा श्रावकों को हमेशा परमात्मा की पूजा करना, नये २ तीर्थों की यात्रा करना, स्वधर्मी भाइयों के साथ वात्सल्यता और प्रभावना करना, जीवदया के लिये बने वहां तक अमारि पढह फिराना, जैनमदिर जैनमूर्ति ज्ञान, साधु, साध्वियां, श्रावक, श्रावकाओं एवं सात क्षेत्र में समर्थ होने पर द्रव्य को खर्चना और जिनशासनोन्नति में तन मन और धन लगाना गृहस्थों का आचार है इत्यादि यह गृहस्थधर्म सम्राट् से लेकर साधारण इन्सान भी धारण कर सुखपूर्वक पालते हुए आत्म-कल्याण कर सकते है । जो गृहस्थी संसार से विरक्त होकर साधु बनना चाहता है उनके लिये पांच महाव्रत है जीवहिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांचों अत्रतों को मन वचन काया से करना, करावंन और अनुमोदन इस प्रकार सर्वथा त्याग करने से पंच महाव्रत का अधिकारी बनता है उसको साधु एवं सन्यासी भी कह सकते हैं । चा, चाय, अमायी न्यायी और वेपरवायी ये पाँच साधु के खास लक्षण होते हैं । कनककामिनी के सदैव त्यागी होते हैं और स्व-पर कल्याण के लिए वे हमेशा प्रयत्न किया करते हैं यह तो व्रत धारियों का आचार तत्त्व है । थोड़ा सा तात्विक विषय को भी समझा देते हैं। जैनधर्म की नींव कर्म सिद्धान्त पर अवलम्बित है जीव शुभ या अशुभ जैसे जैसे कर्म करता हैं भव भवान्तर में वैसे२ ही फल भोगता हैं, वे कर्म आठ प्रकार के हैं । १ - पहिला ज्ञानावर्णिय कर्म — जिसके उदय से जीव का ज्ञानगुण श्राच्छादित हो जाता है, जैसे घी के बैल की आँखों पर पाटे बाँध देने पर उसको कुछ भी ज्ञान नहीं रहता है और वह घाणी के चारों ओर फिरता ही रहता है। ऐसे ही जीव ज्ञानावर्गीय कर्मोदय से संसार में परिभ्रमन करता है । २ - दूसरा दर्शनावर्णिय कर्म- जीव के दर्शन गुण को रोक देता है। जैसे राजा के पहिरेदार यदि कोई व्यक्ति राजा से मिलना चाहे पर पहिरेदार मिलने नहीं देता । ३- तीसरा वेदनीकर्म – जीव के अब्याबाधगुण को रोक देता है जैसे - मधुलिप्त छुरी जो मधुर भी लगती है और तीक्षणता से जबान को भी काट डालती है। इसी प्रकार साता सात वेदनी कर्म है । ४ - चौथा मोहनीयकर्म - जो जीव के क्षायिक गुण को श्राच्छादित कर देता है । जैसे मदिरा पिश्रा हुआ मनुष्य को हिताहित का भान तक नहीं रहता है। वैसे ही मोहनीय कर्मोद्रय जीव को हिताहित का भान नहीं रहता है। 1 ८३ www.janevbrary.org Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास wwwwwwwwwwwwwwwwwramme ५-पाँचवा आयुष्य कर्म-जीव के अटल अवगाहना गुण को रोक देता है; जैसे कारागार में पड़ा हुमा कैदी । जितनी कैद हुई है उतनी कैद भोगने से ही छुटकारा होता है । वैसे ही आयुः कर्म समझ लेना। ६-छट्ठा नामकर्म-जीव के अमूर्तिगुण को रोक देता है जैसे चित्रकार शुभाशुभ दोनों प्रकार के चित्र बना सकता है । वैसे ही शुभ अशुभ दो प्रकार नाम कर्म होता है। ७-सातवां गौत्रकर्म-जीव के अगुरुलघु गुण को रोकदेता है जैसे कुम्भकार का घड़ा जिसमें उच्च पदार्थ तथा नीच पदार्थ भरे जाते हैं । वैसे ही नीच ऊँच गौत्र कर्म है । ८-आठवां अन्तरायकर्म-जीव के वीर्य गुण को आच्छादित कर देता है जैसे राजा ने किसी को इनाम देने को कहा है पर खजानची बीच में अन्तराय डाल सकता है वैसे ही अन्तराय कर्म समझना इत्यादि । जैन सिद्धान्त में कर्मों के विषय को खूब विस्तार से कहा है. कर्मो की मूलप्रकृति, उत्तरप्रकृति, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, तथा कर्मबन्ध के कारण जैसे कि--मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योग एवं चार कारण हैं । इन कारणों से जीव के कर्मबन्ध होता है, उस बन्ध के भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश एवं चार प्रकार हैं। जैसे २ अध्यवसाय से पाप कर्म करते हैं वैसे २ कर्मों की स्थिति और रसअनुभाग से कर्मबन्ध हो जाते हैं और उसकी मुद्दतपूर्ण होने पर वे कर्म उदय होते हैं तब उनको भोगना पड़ता है, अतः समझदार मनुष्यों का कर्तव्य है कि इन कर्मबन्ध के कारणों से सदैव बचता रहे तथा पूर्व संचित कर्म हैं उनको तोड़ने के कारण ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं वीर्य हैं इनकी आराधना कर कर्म को हटा दें तो वह जीव आत्मा से परमात्मा बन सकता है जिनको ईश्वर भी कहते हैं। २-हे धराधीश ! ईश्वर दो प्रकार से माने जाते हैं एक जीवनमुक्त दूसरे विदेहमुक्त । जीवनमुक्त का अर्थ यह है कि ऊपर जो आठ कर्म बतलाये हैं उनमें ज्ञानावर्णिय, दर्शनावर्णिय, मोहनीय और अन्तराय कर्म एवं चार घनघाती कर्म अर्थात आत्मघाती कर्म हैं। वे श्रात्मा के खास २ गुणों को आच्छादित कर देते हैं अतः इनके दूर करने से कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शन प्राप्त कर लेते हैं। जिससे वे एक समय मात्र में लौकालोक के सर्व भावों को हस्तामलक की तरह देख सकते हैं उनको जीवन मोक्ष कहते हैं तथा शेष रहे हुए वेदनी आयुष्य नाम और गौत्र एवं चार अघाती कर्मों का क्षय करने से इस नाशवान देह को छोड़ जीव मोक्ष में चला जाता है, वहाँ अक्षय सुखों में स्थित हो जाते हैं। हे राजन् ! ईश्वर सच्चिदानन्द, निरंजननिराकार, सकलउपाधिरहित, स्वगुणभुक्ता आत्मगुणों में रमणता में ही लीन रहते हैं और लोकालोक के द्रव्य गुण पर्याय को जानते देखते हैं। कई अनभिज्ञ लोग जो ईश्वरतत्त्व के सच्चे स्वरूप को नहीं जानते हैं वह कहते हैं कि ईश्वर जगत का कर्ता-हर्ता है, ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है, ईश्वर जीवों को कर्मों के फल भुक्ताते हैं, ईश्वर पुनः पुनः अवतार धारण करते हैं इत्यादि । __ पर यह सब कहना बच्चों के खेल सदृश्य है क्योंकि ईश्वर न तो जगत का कर्ता हर्ता है न ईश्वर ने सृष्टि की रचना ही की है न ईश्वर जीवों को शुभाशुभ कमों का फल ही भुक्ताते हैं, और न वे पुनः अवतार ही लेते हैं । इसका कारण यह है कि पूर्वोक्त सब काम कमौंपाघी वाला जीव ही कर सकता है, परन्तु ईश्वर ने तो सकल कर्मों से मुक्त होकर निरंजन निराकार पद को प्राप्त कर लिया है तब वे सकर्मिक कार्य कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् ईश्वर पूर्वोक्त कार्यों से एक का भी कर्ता हर्ता नहीं है । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन 1 [वि० पू० ४०० वर्ष हे राजन् ! जैनधर्म ईश्वर को अनादि मानते हैं और यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध भी है । अतः न ईश्वर कर्त्ता हर्त्ता है, न सृष्टि का रचयिता सिद्ध हो सकता है। दूसरे न ईश्वर जीवों को पुन्य पाप के ताने वाला ही सिद्ध होता है कारण जीव स्वयं कर्म करता हैं और स्वयं भोगता हैं। भला ! एक मनुष्य भंग पी ली तो क्या उसका नशा ईश्वर देता है या स्वयं श्रा जाता है ? भांग का नशा तो स्वयं आ जाता है । फिर निराकार ईश्वर को जगत के जाल में क्यों फंसाया जाता है ? तीसरे ईश्वर के कर्मों का अंशमात्र भी नहीं रहने से वे पुनः अवतार भी नहीं लेते हैं इत्यादि विस्तार से समझाया । हे राजन् ! जैन धर्म में मुख्य षट्द्रव्यों को माना है जैसे धर्मद्रव्य; अधर्मद्रव्य, श्राकाशद्रव्य, जीव द्रव्य, पुद्गलद्रव्य और कालद्रव्य । धर्मद्रव्य अर्थात् धर्मास्तिकाय -जो अरुपी है सम्पूर्ण लोक व्यापी है। जीव और पुद्गलों को गमनसमय धर्मास्तिकाय सहायता देता है अर्थात् जीव और पुद्गल गमनागमन करते हैं इसमें धर्मास्तिकाय की ही सहायता है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय जीव पुद्गलों को स्थिर रहने में सहायक है, आकाशास्तिकाय जीव और पुदगलों को स्थान देने में सहायक है और कालद्रव्य जीव और पुद्गलों की स्थिति को पूर्ण करता है। जीव द्रव्य अनन्त है और उपयोग यानी ज्ञान-दर्शन इसका गुण है और पुद्गल रूपी है सम्पूर्ण लोक व्यापक है । मिलना और बिछुड़ना इसका लक्षण है। इन छः द्रव्य में पांच जड़ हैं और एक जीव द्रव्य चेतन है तथा इन छः द्रव्यों में पांच रूपी और एक पुद्गल द्रव्य रूपी है। इन छः द्रव्यों में एक जीव द्रव्य उपादय है एक पुद्गल द्रव्य हय है और शेष चार द्रव्य ज्ञय हैं इत्यादि । हे नरेन्द्र ! जैनधर्म में नौ तत्त्व माने गये हैं जैसे जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संबर निर्जरा, बंध और मोक्षतत्त्व | जीव अजीव के छः द्रव्य हैं वह पहले कह दिये हैं तथा पुन्य किसी भी दुःखी प्राणी को सुखी बनाना अर्थात् मन, वचन और काया से आराम पहुँचाना इसमें शुभ भावना से पुण्य होता है जिससे भवान्तर में सब अनुकूल सामग्री मिलती है एवं सुखों का अनुभव करते हैं और किसी जीव को दुःख देने से पापकर्मबन्धता है और भवान्तर में इसके कडुए फल से जीवन भर में दुःखों का अनुभव करना पड़ता है । आश्रव पुन्य पाप रूपी कर्म आने का कारण है तब संवर ( तत्वरमणता ) कर्म श्राने को रोकता है । वन्ध शुभाशुभअध्यवसायों से कर्म का बन्ध होता है। निर्ज्जरा आत्म प्रदेश पर कर्मों के दलक लगे हुए हैं उनको तप-संयम दया दान पूजनादि सत्कर्मों से हटा देना उसको निर्जरा कहते हैं जब सब कर्म हट जाता है तब उस जीव की मोक्ष हो जाती है इन नौ तत्त्वों का शास्त्रों में बहुत विस्तार है । हे नरेश ! तात्त्विक पदार्थों को जानने के लिए सात नय और चार निक्षेत्र भी बतलाये हैं जैसे( १ ) नैगम नय-वस्तु के एक अंश को वस्तु मानना । २) संग्रह नय-वस्तु की सत्ता को वस्तु मानना । ( ३ ) व्यवहार नय- - वर्तती वस्तु को वस्तु मानना । ( ४ ) ऋजुसूत्र नय-वस्तु के परिणाम रूप को वस्तु मानना । ( ५ ) शब्द नय - वस्तु के असली गुण को वस्तु मानना है । ( ६ ) संभीरूदनय-वस्तु का एक अंश न्यून होने पर भी वस्तु को वस्तु मानना है । (७) एवंभूतनय - सम्पूर्ण वस्तु को वस्तु मानना है । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास . वस्तु के अंश को वस्तुमानने का कारण यह है कि उस शुभ भावना में यदि काल प्राप्त हो जायतो उसकी अच्छी गति होती है। उदाहरण के तौर पर देखिये । जैसे आप इस समय व्याख्यान सुन रहे हैं इसको सात नयों द्वारा इस प्रकार समझना चाहिये । ० पू० ४०० वर्ष ] १ - व्याख्यान सुनने की इच्छा की— नैगमनय के मत से व्याख्यान सुना ही कहा जा सकता है । २ -- व्याख्यान सुनने को जाने के लिए सब सामग्री एकत्र की— दूसरी संग्रहनय वाले का मत है। कि एक अपेक्षा से उसको व्याख्यान सुना ही कहा जाता है। पूर्व उदाहरणा पेक्षा । ३ – व्याख्यान प्रारम्भ हो गया और श्रोताजन व्याख्यान सुन भी रहा है - तीसरी नय का मत है कि उसको व्याख्यान सुना ही कहा जाता है ! पूर्ववत् ४- ध्याख्यान के स्थूल विषय जैसे किसी का चरित्र एवं क्रिया-- आचार विषयक व्याख्यान सुन लिया पर तात्विक विषय को नहीं समझा फिर भी चौथी नय के मत से व्याख्यान सुना ही कहा जाता है । ५ - व्याख्यान के तात्विक विषय को सुन कर ठीक समझ लिया अर्थात् तत्त्वबोध हो गया उसको पांचवी नय वाला व्याख्यान सुना मानता है । ६ -- व्याख्यान का जितना विषय सुना हैं उसमें अंशमात्र न समझने पर भी छटा नय वाला व्याख्यान सुना ही मान लेता है । ७—व्याख्यान का सब विषय सुन कर सबको धारण कर लेने पर सातवीं नय वाला व्याख्यान सुना मानता है । इसने सम्पूर्ण व्याख्यान सुनना और उस पर अमल करने कों ब्या० सुना माना । हे राजन् ! इसमें यथास्थान नय को स्थापन कर सब सातों नय को यथाक्रम मानने वाले को सम्यग् दृष्टि कहा जाता है और एक एक नय को खेंच कर अपेक्षारहित एकान्त आग्रह करके मानने वाला मिथ्यादृष्टि कहलाया जाता है, अतः जिनभाषित सातों नयों को मानना चाहिये । अब चार निक्षेप भी सुन लीजिये । १-- नामनिक्षेप - किसी भी पदार्थ का नाम रख दिया जैसे किसी पदार्थ का नाम ऋषभदेव रख दिया और उस नामसे बतलाना यह नाम निक्षेप है । २ - स्थापनानिक्षेप - किसी भी पदार्थ की स्थापना कर दी उस स्थापना को सत्य मानना यह स्थापन निक्षेप है जैसे ऋषभदेव की मूर्ति या ऋषभदेव ऐस अक्षर लिख देना । ३ -- दव्य निक्षेप - जिस पदार्थ में भूतकाल में गुण था तथा भविष्य में गुण प्रगट होवेगा उसको द्रव्य निक्षेप कहा जाता है । जैसे-धनासारथवहा का भव में ऋषभदेव ने तीर्थंकर नामोपार्जन किया वह द्रव्य ऋषभदेव है तथा ऋषभदेव का सिद्ध होने के बाद भी द्रव्य ऋषभदेव कहा जाता है । ४ - भाव निक्षेप - वर्तमान में वस्तु के गुण को भाव निक्षेप कहते हैं। जैसे समवसरन में बैठे हुए ऋषभदेव हे राजन! इनके अलावा द्रव्य, गुण, पर्याय, कारण, कार्य, निश्चय, व्यवहार वग़ैरह वग़ैरह जैन सिद्धान्त में तत्वज्ञान विषय की विस्तार से चर्चा है तथा आसन, समाधि, 1 योग और अध्यात्म विषय का तो महर्षियों ने बड़े २ गन्थों का निर्माण किया है कि वह उनकी हमेशां की क्रिया ही थी । १ इच्छा च शास्त्रं च समर्थता चेत्येषोऽपि योगो मत आदिमोऽत्र प्रमादतो ज्ञानवतोऽप्यनुष्ठा ऽभिलाषिणो ऽसुन्दरधर्मयोगः श्रद्धान- बोद्धौदधतप्रकृष्टौ हतप्रमादस्य यथाऽऽत्मशक्ति यो धर्मयोगो वचनानुसारी स शास्त्रयोग परिवेदितव्य ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्प्रभवरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्षे ... योग तीन प्रकार के हैं, मनयोग वचनयोग कायायोग । इनका निरोध करने को ही वास्तविक योग कहते हैं। इसका ही नाम मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्ति हैं । इनके अलावा क्रियायोग, इच्छायोग शास्त्रयोग, समर्थ्य योग, राजयोग, सहजसमाधियोग, इत्यादि इनके भेद हैं। इन सब में अध्यात्मयोग जो जड़ चैतन्य को यथार्थ भावों में समझ कर चिन्तवन करना उस योग कोही कर्म निर्जरा का हेतु कहा जाता है । अध्यात्मयोग कार्य है और शेषयोग इनके कारण हैं इत्यादि खूब विवेचन करके समझाये। मैं तो आपको भी सलाह एवं खास तौर पर उपदेश देता हूँ कि आपको किन्हीं भावों के प्रबल पुन्योदय से मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री मिल गई है इसको सफल बनाने के लिये धर्म आराधन करने में लग जाना चाहिए । क्योंकि संसार में परिभ्रमन करते हुए जीवों को एक धर्म का ही शरण है । यदि जिस प्राणी ने धर्म का आराधन नहीं किया वह सदैव दुःखी ही रहा है । संसाररूपी दावानल में जलते हुए जीवों के लिये धर्मरूपी उद्यान ही एक विश्राम का स्थान है । जिस माता पितादि कुटुम्ब के लिये अनर्थ किया जाता है वे दुःख भुक्तने के समय काम नही देंगा पर एक धर्म ही माता पिता है कि दुःख के समय रक्षा कर सकता है ३ । संसार में धन धान्य राज सम्पत्ति एवं यशः धर्म से ही मिलता है । यदि मनुष्य इस भव और पर शास्त्रादुपायान् विदुषो महर्षेः शास्त्राऽप्रसाध्यानुभवाधिरोहः । उत्कृष्ट सामर्थ्य तया भवेद् यः सामर्थ्य योगं तमुदाहरन्ति ॥ न सिद्धिसम्पादनहेतुभेदा सर्वेऽपि शास्त्राच्छकनीयबोधः। सर्वज्ञता तच्छृतितोऽन्यथा स्यात् तत्मातिभज्ञानगतः स योगः तत् प्रातिभं केवलबोधभानोः प्राग्वृत्तिकं स्यादरुणोदयाभम् । 'ऋतम्भरा' 'तारक' एवमादिनामानि तस्मिन्नवदन् परेऽपि । शुद्धाऽऽत्मतत्त्वं प्रविधाय लक्ष्यममूढ़ दृष्टया क्रियते यदेव । अध्यात्ममेतत् प्रवदन्ति तज्झा नचाऽन्यदस्मादपवर्गबीजम् ॥ The enlightened define Adhyatma as everything that is done clearly keeping in view (realisiog) the unsullied nature of soul. Nothing besides leads to salvation. "देवतापुरतो वाऽपि जले वाऽकलुषात्मनि । विशिष्ट द्रमकुंजे वा कर्त्तव्योऽयं सतां मतः" 'पवापलक्षितो यद्वा पुत्रंजीवकमालया। नासाग्रस्थितया दृष्टया प्रशान्तेनान्तरात्मना" ॥३८३॥ देखो यह तपस्वी साधु चार चार मास से भूखे प्यासे योगाभ्यास कर रहे हैं। १ अस्ति त्रिलोक्यामपि कः शरण्यो जीवस्य नानाविधदुःखभाजः । धर्मः शरण्योऽपि न सेव्यते चेद् दुःखप्रहाणं लभतां कुतस्त्यम् १ ॥५७॥ २ संसारदावानलदाहतप्त आत्मैष धर्मोपवनं श्रयेच्चेत् । क्व तर्हि दुःखानुभवावकाशः १ कीदृक् तमो भास्वति भासमाने ? ॥५८॥ ३ मातेव पुष्णाति पितेवपाति भ्रातेव च स्निह्यति मित्रवञ्च । पीणाति धर्मः परिषेवितस्तद् अनादरः साम्पतमस्य नैव ॥५९॥ ४ सौस्थ्यं धनित्वं प्रतिभा यशश्च लब्ध्वा सुखस्यानुभवं करोषि । यस्य प्रभावेण तमेव धर्ममुपेक्षमाणो नहि लजसे किम् ? ॥ ६० ॥ wwe orary.org Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भवमें सुख की इच्छा करता है तो उसको धर्माराधन करना चाहिये, वरन् अधर्म से दुःख ही सहन करना पड़ेगा ५ । क्योंकि आम्रका बीज बोने से ही आम्र के फल मिलता है ७ परन्तु बंबुल के बीज बोने से आम्रके फल कभी नहीं मिलता है ६ । अतएव सुख का मूल धर्म ही है इन सब बातों में विवेक की जरूरत है । यदि विवेकवान पुरुष है तो इस संसार से पार होकर मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है और विवेकशून्य मनुष्य उल्टा संसार को बढ़ा देता है ८ । जीव अनादि काल से विषय कषाय श्रालस्य प्रमाद में ही खुशी एवं मग्न रहा यदि मोज शोक या मंत्रों से गोष्टी आदि कार्यों में तो खास कामों से भी समय निकाल देता है पर धर्म के लिये कई बहाना करके कहता है कि मुझे समय नहीं मिलता है । यह विवेक-हीनता भवान्तर में कैसे दुःखदाई होगी ऐसे विचार कर धर्म के लिये खास तौर से समय निकाल कर धर्म की आराधना अवश्य करनी चाहिये । इत्यादि सूरीश्वरजी ने बड़ी ओजस्वी भाषा से धर्म देशना दी कि जिसको श्रवण कर उपस्थित श्रोतागण मन्त्रमुग्ध बन गये। कारण कि इस प्रकार का धर्म उन्होंने अपनी जिन्दगी भर में कभी नहीं सुना था, अतः लोग मन ही मन में सोचने लगे कि दुनिया में तरणतारण कहा जाय तो एक यही महात्मा और इनक कथन किया धर्म ही है क्योंकि इसमें स्वार्थ का तो अंशमात्र भी नहीं है, जो है वह परमार्थ के लिए ही है खेद और महाखेद है कि ऐसे महात्मा कई असों से यहां पर विराजमान हैं पर अपन हतभाग्यों जाकर कभी दर्शन तक भी नहीं किया हाय ! हाय !! एक अमूल्य रत्न को कांच का टुकड़ा समझ कर उनसे दूर रहना सिवाय मूर्खता के और क्या हो सकता है, पर अब गई बात के सोचने से क्या होता है ! अब तो इन महात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए कि श्राप यहां विराजकर हम अज्ञानियों का उद्धार करावें इत्यादि सब लोग एक सम्मत होकर सूरीश्वरजी से प्रार्थना की। हे प्रभो ! आज आपने व्याख्यान देकर हमारे अज्ञानरूपी पर्दे को चीर डाला है । हमारी आत्मा अज्ञानरूपी अन्धकार में गोता खा रही थी आपने सूर्य्य सा प्रकाश कर सद्मार्ग बतलाया है । ० पू० ४०० वर्ष | ५ इच्छन्ति धर्मस्य फलं तु सर्वे कुर्वन्ति नामुं पुनरादरेण । नेच्छन्ति पापस्य फलं तु केऽपि कुर्वन्ति पापं तु महादरेण ॥ ६१ ॥ ६ इष्यन्त आम्रस्य फलानि चेत् तत् तद्रक्षणादि प्रविधेयमेव । एवं च लक्ष्म्यादिफलाय कार्यों कुर्वन्त्यबोधा नहि धर्मरक्षाम् ॥ ६२ ॥ ७ सुखस्य मूलं खलुधर्म एवच्छिन्न च मूले क्व फलोपलम्भः । आरूढ़ शाखा विनिकृन्तनं तद् यद् धर्म मुन्मुच्य सुखानुषङ्गः ।। ८ येनैव देहेन विवेक हीना, संसार बीजं परिपोषयन्ति । तेनैव देहेन विवेकभाजः संसार बीजं परिशोषयन्ति ॥ "वयस्यगोष्टीं विविधां विधातुं मिलेत् कथञ्चित् समयः सदापि । अल्पोऽवकाशोऽपि न शक्य लाभो देवस्य पूजा करणाय हन्त ॥ आत्मोन्नत्ति वास्तविकीं यदीयं समीहतेऽन्तकरण स मर्त्यः उपासनार्थ परमेश्वरस्य कथंचिदानोत्यवकाशमेव ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष हे करुणासिन्धो ! आपने केवल हमारे पुत्र को ही जीवन दान नहीं दिया है, पर हम सब लोग मिथ्यात्व समुद्र में डूब रहे थे, आज आप ने हाथ पकड़ कर हमारा उद्धार किया है। जिस धर्म को हम नास्तिक एवं अनीश्वरवादी धर्म समझते थे उसका आपने सत्यस्वरूप समझा कर हमारे चिरकाल के प्रम को जड़मूल से उखाड़ दिया है। आज हमको एक अमूल्य रत्न की भांति अपूर्व धर्म की प्राप्ति हुई है जिससे हम अपनी आत्मा को कृतार्थ होना समझते हैं । हे दयासागर ! हमारे शब्दकोष में ऐसा शब्द ही नहीं है कि हम आपके इस उपकार को शब्दों द्वारा ध्यक्त कर सकें, तथापि हमारी यही प्रार्थना है कि आप यहां विराजमान रहें और हम अज्ञात लोगों पर दयाभाव लाकर जैनधर्म की शिक्षा-दीक्षा देकर हमारा उद्धार करावे इत्यादि । ___ इस पर सूरीश्वरजी महाराज ने राजा मन्त्री और उपस्थित लोगों को सम्बोधन करते हुए कहा कि महानुभावो! इसमें तारीफ और प्रशंसा की क्या बात है ? क्योंकि मैंने जो धर्म देशना दी है इसमें अपने कर्तव्य पालन के अलावा कुछ भी अधिकता नहीं की है । यदि आपने सत्यधर्म को सत्य समझ लिया है तो इस पवित्र जैनधर्म को स्वीकार करने में अब आपको क्षण मात्र भी विलम्ब नहीं करना चाहिये । कारण; धर्म का कार्य शीघ्रातिशीघ्र ही करना चाहिये । बस, फिर तो देरी ही किस बात की थी। राजा प्रजा ने अपने गले के जनेऊ और कंठियें तोड़ तोड़कर सूरीश्वरजी के चरणों की ओर डाल दिये । बाद उन धर्मजिज्ञासु मुमुक्षुत्रों की उत्कंठा एवं उत्साह को देख कर सूरीश्वरजी ने सबसे पहिले इस भव या पूर्वभवों में मिथ्वात्वादि पाप कर्म के आचरण किये थे उन सबकी पालोचना करवाई, बाद सम्यक्त्व धारण करने में जो क्रिया विधान करवाना जरूरी था वह विधि विधान करवाने में प्रवृत्तमान हुए। जब जीवों के कल्याण का समय नजदीक आता है तब निमित्त कारण भी सदा अच्छे से अच्छे बन जाते हैं । इधर तो बड़े ही उत्साह के साथ विधि विधान हो रहा था। उधर जयध्वनि के नाद से गगन गूंज उठा । जनता आकाश की ओर ऊर्ध्व दृष्टि का प्रसार कर देखने लगी तो आकाश से कई विमान आते हुए दीख पड़े। उन विमानों के अन्दर कई तो विद्याधरों के विमान थे जो सूरीश्वरजी के दर्शनार्थ आ रहे थे और कई देवदेवांगनायें भी सूरीश्वरजी की भक्ति से प्रेरित होकर सूरिजी के चरण कमलों का सर्रा एवं वन्दन करने को भा रहे थे। जब उन आगन्तुकों ने देखा कि राजा प्रजा जो महामिथ्यात्व में फंसे हुये थे, सूरीश्वरजी के शिष्य बनने की तैयारी कर रहे हैं तो उनको बड़ा भारी हर्ष हुआ और उन्हें अन्यवाद दिया क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवों को इससे अधिक क्या खुशी हो सकती है कि आज वे मिथ्यात्वी लोग सूरीश्वरजी के उपदेश से अपने स्वधर्मी बन रहे हैं । समयज्ञ देवी चक्रेश्वरी ने वासक्षेप का थाल लाकर सूरिजी महाराज के सामने रख दिया, सूरिजी ने समान विद्यादि से उनको अभिमंत्रित कर सबसे पहिले राजा उत्पलदेव के शिर पर डाला। उस समय मंत्री का सिर की पाग हाथों में लेकर सूरिजी से वासक्षेप की प्रार्थना कर रहा था। अतः सूरीश्वरजी Jain Education Intern al Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास महाराज ने यथाक्रम उन राजा प्रजा पर ऋद्धि सिद्धि वृद्धि संयुक्त वासक्षेप डालकर करीबन सवा लक्ष क्षत्रियों को जैन धर्म में दीक्षित किये। तत्पश्चात उन नूतन जैनों एवं विद्याधर और देवदेवांगनाओं को थोड़ी पर सारगर्भित धर्मदेशना दी जिसका उपस्थित श्रोताओं पर अच्छा प्रभाव पड़ा । तत्पश्चात सभा विसर्जन हुई। अहा ! हा !! आज उकेशपुरनगर में सर्वत्र हर्ष छा गया है और घर २ में खुशियां मनाई जा रही हैं। जैनधर्म और आचार्य रत्नप्रभसूरिजी महाजाज की जयध्वनि से गगन गूंज उठा है। घर घर में धवल मंगल के गीत गाये जा रहे हैं । यह शुभ दिन था श्रावण वद १४ का। ____ जब कि इस वितीकार को वहां के मठधारी पाखंडियों ने देखा एवं सुना तो उन लोगों को बड़ा ही दुःख हुआ। क्यों न हों ? उनके हाथ की सबकी सब बाजी ही चली गई । अतः उन लोगों ने खूब हुल्लड़ मचाया । फिर भी उनका प्रयत्न सर्वथा निष्फल भी नहीं हुआ । मांस मदिरा एवं व्यभिचार के लोलुप शूद्रादि कई लोग उन पाखंडियों के पक्षकार बन उनके उपासक रह भी गये । अतः वे अपने पैर आगे बढ़ाने लगे। । एक दिन उन मठाधीशों के अग्रेसर सब लोग मिल कर राजा उत्पलदेव की राजसभा में आये और राजा को कहने लगे कि नरेन्द्र ! आप जानते हो कि कुल परम्परा से चले आये धर्म को बिना सोचे समझे एकदम छोड़ देने से जीवों की नरक गति होती है। यदि आपको ऐसा ही करना था तो पहिजे उन सेबड़ों का हमारे साथ शास्त्रार्थ तो कराना था कि विश्व में सच्चा धर्म कौन है और कौनसे धर्म के पालन करने से जीवों का कल्याण होता है इत्यादि । राजा ने कहा कि कुल परम्परा और धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है । क्या किसी परम्परा ने अन्याय अकृत्य किया हो तो उनकी संतान भी वही कार्य करती रहे ? केवल मैंने ही क्यों पर मेरे पितामह राजा जयसैन ने भी मिथ्या धर्म का त्याग कर जैनधर्म को स्वीकार किया था तो मैंने क्या अन्याय किया ? मैंने तो अपने पूर्वजों का ही अनुकरण किया है। इतना ही क्यों पर आपके और इन महात्माओं के धर्म को तुलनात्मक १आचार्य श्रीरत्नप्रभसरि वैशाखमास में उपकेशपुर नगर में पधारे थे वहां मासकल्प करके आसपास के प्रदेश में भ्रमण किया तथा वापिस उपकेशपुर पधारे। और चतुर्मास भी वहीं किया इस अर्से में मुनियों को कहीं पर भी शुद्धआहार पानी का जोग नहीं मिला था, अतः वे तपस्या करते ही रहे । उस कठोर तपश्चर्या और परोपकार के लिये हजारों कठिनाइयाँ सहन की थीं, उसका प्रभाव जनता पर पड़ने को ही था, परंतु इसमें कुछ निमित्त कारण की भी आवश्यकता अवश्य थी। बस, श्रावण कृष्णा १३ के दिन मंत्रीपुत्र को सांप का काटना और इस कार्या में देवी की प्रेरणा का होना । बस, सूरिजी ने समय को अनुलक्ष में रख कर एवं जनता को विश्वास दिलाने को इधर तो थोड़ा गरम पानी मंगवाकर अपने अंगुष्ठ प्रक्षालन का जल उस मृतप्राय मंत्रीपुत्र पर छिड़काया तो वह निर्विष हो गया, उधर दूसरे दिन राजाप्रजा को धर्म-देशना देकर उन सबको श्रावणकृष्णा १४ को जैन-धर्म की दीक्षा शिक्षा दी। उन राजा, मंत्री और क्षत्रियों की संख्या पट्टावलीकारों ने सवालक्ष की लिखी है । अतः इस उपकार के बदले में ओसवालों को चाहिये कि श्रावणकृष्णा १४ को अपनी समाज का जन्म-दिन समझ कर सर्वत्र महोत्सव मनोवें। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४८० वर्ष दृष्टि से खूब विवेचना एवं परीक्षा करके ही सत्यधर्म को स्वीकार किया है। दूसरे आप शास्त्रार्थ का व्यर्थ ही घमंड क्यों करते हो ? मेरे ख्याल से तो जैसे शेर के सामने गीदड़ और सूर्य के सामने दीपक कुछ गिनती में नहीं वैसे ही जैनधर्म के सामने आप हैं। यदि आपके दिल में इस बात का घमंड है वो अब भी क्या हुआ है, तैयार हो जाइये पर इस बात को पहिले सोच लीजिये कि कहीं इन रहे सहे शूद्र लोगों को भी न खो बैठे ? फिर भी उन पाखण्डी वाममागियों का अत्याग्रह होने से सत्य के उपासक महारजा उत्पलदेव एवं मंत्रीऊहड़देव ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर शास्त्रार्थ करवाने का निश्चय कर लिया और सूरीश्वरजी महाराज से प्रार्थना की, पर सूरिजी का तो यह काम ही था कि उपदेश एवं शास्त्रार्थ कर उन्मागे जाते हुए जीवों को सन्मार्ग पर लाना । राजा के आदेशानुसार ठीक समय पर सभा हुई और इधर से तो सूरीश्वरजी अपने शिष्य-मंडल के साथ सभा में पधारे एवं भूमिपर्माज्जन कर अपनी कंवली का आसन लगा कर विराज गये तथा उधर से वे पाखण्डी लोग भी खूब सजधज कर बड़े ही घमंड एवं आडम्बर के साथ आये ! जब पहले से ही सूरिजी महाराज भूमि पर विराजे थे तो उनको भी भूमि पर आसन लगाकर बेठना पड़ा। सभा-स्थान राजा प्रजा से खचाखच भर गया था शास्त्रार्थ सुनने की सबके दिल में उत्काण्ठा थी। प्रश्न-वाममार्गियों ने कहा कि जैनधर्म नास्तिक धर्म है ? उत्तर-सूरिजी ने कहा कि नास्तिक उसे कहा जाता है जो स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप आत्मा, कर्म, मोक्ष और ईश्वरादि तत्वों को न माने, पर जैनधर्म तो इन सब बातों को यथार्थ मानता है अतः जनधर्म नास्तिक नहीं पर कट्टर श्रास्तिक: धर्म है। प्र०-जैनधर्म प्राचीन नहीं पर अर्वाचीन धर्म है। 30-शायद् इस प्रदेश में आपने अपनी जिन्दगी में जैनधर्म को अभी ही देखा होगा, फिर भी जैनधर्म अर्वाचीन नहीं पर प्राचीन धर्म है जिसके प्रमाण वेदों एवं पुराणों में मिलते हैं जिन वेदों को व्यासकृत एवं ईश्वरकृत कहा जाता है, उन वेदों के पूर्व मी जैनधर्म विद्यमान था तभी तो वेदों और पुराणों में जैनधर्म के विषय उल्लेख किया गया है। प्र०-जैनधर्म ईश्वर, और ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता है। उ०-ईश्वर को जिस आदर्श रूप में जैनधर्म मानता है । इस प्रकार शायद ही कोई दूसरा मत्त मानता हो, क्योंकि जैनधर्म ईश्वर को सच्चिदानन्द, आनन्दघन, निरंजन, निराकार, सकलोपाधिमुक्तः कैवल्यज्ञान, कैवल्य दर्शनादि, अनंतगुणसंयुक्त और स्वगुणभुक्ता, अनंतगुण ऐश्वर्य सहित को ही ईश्वर मानता है। हाँ, जैनधर्म का सिद्धान्त ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानते हैं और यह है भी यथार्थ कारण, ईश्वर सकलकर्मोपाधी रहित होने से जगत के साथ उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है कि वे जगत् का कर्ता हर्ता १-आत्मास्ति कर्माऽस्ति परभवोऽस्ति मोक्षोऽस्ति तत्साधकहेतुरस्ति । इत्येवमन्तःकरणे विधेया दृढ़प्रतीतिः सुविचारणाभिः ।। परमैश्वर्य युक्तात्वाद मत्त आत्मैववेश्वर स च कर्तेति निर्दोषःकत विवादो व्यवस्थित । wwerelibrary.org Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बन सके। आपने यह भी कभी सोचा होगा कि ईश्वर को जगत का कर्ता मानने से ईश्वर की ईश्वरता रहती है या कुम्भकार के सदृश्य उन पर कई प्रकार की आपतें आ जाती हैं। भला ! आप ही बतलाइये कि यदि ईश्वर जगत का कर्ता हर्ता है तो सृष्टि रचने में ईश्वर उपादान कारण है या निमित्त कारण ? • जैनधर्म की प्राचीनता के विषय इस समय भी अनेक प्रमाण मिल सकते हैं जैसे किॐ नमोऽर्हन्तो ऋषभो "यजुर्वेद ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा "यजुर्वेद" ॐ त्रैलाक्यप्रतिष्ठिताना,चतुर्विंशति तीर्थकराणा | ऋषभादिवर्द्धमानान्ताना,सिद्धाना शरणं प्रपद्ये "ऋग्वे" ॐ पवित्रं नग्न मुपवि ( ई ) प्रसामहे येषा नना ( नग्नेय ) जातिर्येषा वीरा। ऋग्वेद" ॐ नग्नंसुधीरंदिग्वाससंब्रह्मगभंसनातनंउपैमिवीरं पुरुषमर्हतमादित्यवर्ण तमसः पुरुस्तात् स्वाहा । "ऋग्वेद" नाभिस्तुजनयेत्पुत्रमरुदेव्या मनोहरम् । ऋषभं क्षत्रियश्रेष्ठं, सर्वक्षत्रस्यपूर्वकम् ।। ऋषभाद्भारतोजज्ञे,वीरपुत्रशताग्रज । राज्ये अभिषिच्यभरतं, महाप्रव्रज्या माश्रितः "ब्रह्माण्ड पुराण" युगे युगे महापुण्यं दृश्य ते द्वारिकापुरी । अवतीर्णो हरियंत्र प्रभासशशिभूषणः रेवताद्रौजिनोनेमियुगादिर्षिमलाचले । ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्यकराणम् "महाभारत" दर्शयन्वर्त्मवीराणं, सुरासुरनमस्कृतः । नीति त्रयस्य कर्ता यो, युग्गादौप्रथमोजिनः ॥ सर्वज्ञ सर्वदर्शी च सर्वदेवनमस्कृतः । छत्रत्रयीभिरापूज्यो मुक्ति मार्गम् सौ बदन् ॥ आदित्य प्रमुखाः सर्वेबद्धांजलिभिरिशितुः । ध्यायाँति भवतो नित्यं, यदंधियुगनीरजम् । कैलास विमले रम्ये, ऋषभोयं जिनेश्वरः । चकारस्वावतारं यो सर्वः सर्वगतः शिवः ॥ "शिवपुराण" अष्टषष्टिषुतीर्थेषु,यात्रायां यत्फलं भवेत् । आदिनाथस्यदेवस्य,स्मरणेनापितद्भवेत् ॥ "नागपुराण" नाहं रामो नमे वांच्छा, भावेषु च न मे मनः । शान्तिमास्थातु मिच्छामि, चात्मन्येव जिनोयथा॥ योग कासिष्ठ प्रथम वैराग्य प्रकरण जैनमार्गरतो जैनो, जितक्रोधो, जितामयः दक्षिणा मूर्ति सहस्र नाम ग्रन्थ तत्रदर्शनेमुखशक्ति रि ति च त्वं ब्रह्मकर्मेश्वरी कर्ताऽर्हन् पुरुषो हरिश्च सविता बुद्धः शिवस्त्वंगुरुः ।। दुर्वासा ऋषिकृत महिम्न स्तोत्र कुण्डसनाजदद्धात्री,बुद्धगाताजिनेश्वरी । जिनमाताजिनेन्द्रा च,शारदाहंसवाहिनी भवानी सहस्रनाम ग्रन्थ कुलादिबीजंसर्वेषां, प्रथमोविमलवाहनः । चक्षुष्मांश्चयशस्वी,वाभिचन्द्रोथ प्रसंनेजित् ॥ मरुदेवि च नाभिश्व, भरतेः कुल सत्तमः। अष्टमो मरुदेव्यां तु, नामे जतिउरुक्रमः ॥ दर्शयन्वात्मवीराणं, सुरासुरनमस्कृतः । नीति त्रयकर्ता यो युगादौ प्रथमोजिनः ॥ ममुस्मृति ९२ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य रत्नप्रभसूरि और वाममागियों के आपस में राजसभा के अन्दर शास्त्रार्थ हुआ जिसमें वाममागियो का बुरी तरह से पराजय हुआ। पृट ९१ सूरिजी ने अपने भक्तों को हिंसक देवी के मन्दिर में जाने से रोक दिये अतः देवी ने आचार्य श्री के नेत्रों में वेदना करदी। जब चार देवियों ने आकर चामुंडा को खूब फटकारी तब उसने माफी मांगी। पृष्ट ९७ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास - SEAN IOCMOGIN मौरात्रिी के समय सूरिजी के साथ भक्त लोग पूजा के लिये देवी के मंदिर में गये। देवी ने कड़द-मड़द (मांस मदिरा) न देख कर कोप किया पर सूरिजी ने हित वचनों से देवी को प्रतिबोध देकर सम्यक्त्व धारणी बनाई । और भी बहुत लोगों ने जैन धर्म स्वीकार किया । पृष्ठ ९८ D.C/MALI Jain Eduraineraits Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष जैसे मिट्टी के वरतन को बनाने में मिट्टी उपादान कारण और कुम्भकार निमित्त कारण है। यदि आप कहोगे कि ईश्वर उपादान कारण है क्योंकि सृष्टि ईश्वरमय है तो सृष्टि में भले बुरे, सुशील, व्यभिचारी, इगवान, निर्दय, साहूकार और चोर भी ईश्वर ही है ऐसा मानना पड़ेगा यदि कहो कि ईश्वर निमित्त आरोहस्व रथे पार्थ गांडीवंच कदे करु । निर्जितामेदिनीमन्ये, निर्ग्रन्था यदि सन्मुखे ।। ___महाभारत (तत्त्व निर्णयप्रसाद) स्पष्ट्वाशत्रुजयंतीर्थ, नत्वारैवतकाचलम् । स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते ॥ परमात्मानमात्मानं, लसत्केवल निर्मलम् । निरंजन निराकारं ऋषभन्तु महाऋषिम् ।। स्कन्ध पुराण अकारादि हकारातं, मूर्दाघोरेफसंयुतम् ॥ नाद बिन्दु कलाक्रान्तं, चन्द्रमण्डल सन्निभम् ॥ एतद्द विपरंतत्त्वं, यो विजानाति तत्त्वतः । संसार बन्धनं छित्वा, स गच्छेत्परमांगतिम् ॥ दशभिभोंजितैर्विप्रः, यत्फलं जायते कृते । मुनरर्हत्सुभक्तस्य तत्फलं जायते फलो ॥ नागपुराण पद्मासनसमासीनः, श्याममूर्ति दिगम्बरः। नेमिनाथःसिवोथैवं नामचक्रेस्य वामनः । कलिकाले महाघोरे, सर्वपाप पणाशकः । दर्शनात्स्पर्शना देव, कोटियज्ञ फलप्रदः ।। प्रभासपुराण वामनेन रैवते, श्रीनेमिनाथाये, बलिबन्धन सामार्थ,तपस्तेपे वामनावतार आदित्य त्वमसि आदित्यासद आसीत् । अस्तभ्रादयाँ वृषभोतरिक्षं जमिमीते वरीमाणं । पृथिव्याः आसीत् विश्वा, भुवनानि सम्रविश्वे तानिवरुणस्यव्रतानि ॥ ऋग्वेद यति धामानि हविषा, यजन्तिता तें विश्वापरि । भूरस्तुयज्ञगयस्फानं प्ररणः सुवीरो वीरहा प्रचार सोमादुर्यात् ॥ समिद्धस्य परमहसोय, वन्देतवश्रियंवृषभोगम्भवा नसिममध्वरेष्विध्यस ऋग्वेद अहंता ये सुदानवो, नरोअसो मिसा स प्रयज्ञ । यज्ञियेभ्यो दिवो अर्चा मरुद्भयः ऋग्वेद अर्हन्विभर्षि सायकानि, धन्वार्हन्निष्कंयजतं । विश्वरूपम् अर्हनिदंदयसेविश्वंभवभुवं । ऋग्वेद दीर्घायुक्त्वा युवलायुर्वा शुभ जातायु ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा । वामदेव शान्त्यर्थ मनुविधीयते सास्माकं अरिष्टनेमि स्वाहा ॥ ऋषभंपवित्रंपुरुहूतध्वरंयज्ञेषुयज्ञपरमपवित्रं, श्रुतधरंयज्ञप्रतिप्रधानंऋतुयजनपशुमिंद्र माहवेति स्वाहा।। x x ज्ञातारमिन्द्रंऋषभंवदन्ति, अतिचारमिन्द्रतमरिष्टनेमि, भवेभवे सुभवं सुपार्श्वमिन्द्र हवेतुशक्रं अजितंजिनेन्द्रं तवर्द्धमानं पुरुहूतमिंद्र स्वाहा ॥ दधातु दीर्घायुस्तत्वाय बलायवर्चसे, सुमजास्त्वाय रक्ष रक्ष रिष्टनमि स्वाहा ।। हदारएबके) अषम एव भगवान् ब्रह्मा, भगवताब्रह्मणास्वयमेवा। चीर्णानि ब्राह्माणितपासिच प्राप्तः परं पदम् ॥(मारण्यके) ॐ नमो अर्हतो ऋषभो ॐ ऋषभः पवित्रं पुरुहूत मध्वरं यज्ञेषु नग्न परमं माह संस्तुतं वर शत्रुजयतं पशुरिंद्र माहुरिति स्वाहा ।। ॐ ज्ञातारमिंद्रं वृषभं वदंति अमृतारमिंद्र हवे सुगतं सुपार्श्व. मिंद्र माहुरितिस्वा ॥ ॐ नग्न सुवीरं दिग्याससं ब्रह्म गर्भ सनातनं उवेमि वीरं पुरुषं महातमादित्य ऋग्वेद Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कारण है तो सृष्टि का उपादान कारण जो जड़चैतन्य वह कहाँ से आये ? और इसके पूर्व यह किर स्वरूप में थे कि जिस उपादान को लेकर ईश्वर ने सृष्टि की रचना की इत्यादि सूरीश्वरजी के वचन सुन कर पाडियों की बोलती बंद हो गई वे विचारे इसका उत्तर ही क्या दे सकते ? कारण उन्होंने तत्त्वज्ञान को तो कभी स्पर्श हीं नहीं किया था । ऋ वर्णं तमसः पुरस्तात् स्वाहा || याजस्यनु प्रसव आवभूवेमा च विश्वभुवनानि सर्वतः । स नेमिराजा परियति विद्वान् प्रजां पुष्टि वर्धय मानो अस्मै स्वाहा || आतिथ्यरूपंमासरं महावीरस्यनन हु । रुपामुपास दामेत तिथौ रात्रोः सुरासुताः ।। ऋश्वेद कृकुभः रुपं ऋषभस्य रोचते, बृहछुकः शुक्रस्य पुरोगा, सोमसामस्यपुरोगाः पत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृषि तस्मै त्वागृह्णामि तस्मै तं साम सोमाय स्वाहा । स्वास्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वास्तिनो बृहस्पतिर्द धातु | ऋश्वेद ऋग्वेद अप्पाददिमेयवामन, रोदसीइमाच विश्वा भुवनानि मन्मना यूथेन निष्टा वृषभो विराजास ॥ सत्राहणंदाघषितुम्रमिध्धं, महामपारं वृषभं सुवज्रहं तापवत्राहा सनितो तं वाजं । नयेदिषः पृथिव्याअंतमायुर्नमायाभिर्धनदापर्यभुवन युजवजवृषभश्चक्रे । ऋग्वेद ॠग्वेद ऋग्वेद इमस्तोमअर्हंतेजातवेदसे रथंइवसंमहेयममनीषया, भद्राहि न प्रमंतिअस्यसंसदि । तरणिरित्सषासतिबीजंपुरं ध्याः युजा आवइन्द्र पुरुहूतं नमोंगरा नेमि तष्टेव शुद्ध । ऋग्वेद उपरोक्त प्रमाणों से कितनेक प्रमाण तो आज भी उपलब्ध हैं परन्तु कई प्रमाण स्यात् इस समय वेदों में नहीं मिलते हैं इसका कारण यह हो सकता है कि वेदों की अनेक शाखाओं तथा उन शाखाओं की मंत्रसंहिताओं में भी परस्पर अंतर है जैसे शुक्लयजुर्वेद कृष्णयजुर्वेद आदि वेदों की शाखाओं में भी कई अंतर है अत: जब तक कि समस्त शाखाओं की मंत्रसहिताओं को न देख ली जाय तब तक प्राचीन जैनशास्त्रों में लिखे हुये उपरोक्त मन्त्रों को असत्य नहीं कहा जा सकता है । पुस्तकों में न्यूनाधिक करने की पद्धति तो उन लोगों में पहिले से ही चली आ रही है। मनुस्मृति में ग्रंथ श्लोकसंख्या आर्यसमाजी बहुत थोड़ी बतलाते हैं। शेष श्लोकों को जाली एवं प्रक्षिप्त कहते हैं और सनातन धर्मी सम्पूर्ण मनुस्मृति को मनुकृत मानते हैं । इसी प्रकार गीता के मूल ७ श्लोक कहते हैं जिसको बाद में बढ़ा कर ७० श्लोक कर दिये और आज उनके ७०० श्लोक कहे जाते हैं तथा सत्यार्थप्रकाश किताव में आर्यसमाजी जो चाहते हैं वह स्वेच्छाअनुकूल काटछांट कर देते हैं इत्यादि इस विषय में अधिक जानने वाले जिज्ञापुओं को शंकाकोष, पुराणोंकी पोल, पुराण परिक्षा और पुराणलीला आदि ग्रंथों को देखना चाहिये । इनके अलावा अज्ञानतिमिरभास्कर नामक ग्रंथ भी इस विषय पर काफी प्रकाश डाल सकता है उनको भी देखना खास जरूरी है । 1 ९४ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष बाद यज्ञ के विषय के प्रश्न हुये जिसको भी सूरिजी ने इस कदर से समझाये कि राजा प्रजादि उपस्थित लोगों की उस निष्ठुर हिंसा प्रति घृणा और अहिंसा की तरफ विशेष रुचि होने लग गई । इस शास्त्रार्थ में भी सूरीश्वरजी का ही पक्ष विजयी रहा और जैनधर्म की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई । बस ! उपकेशपुर में जहां देखो वहां जैनधर्म और श्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज की प्रशंसा एवं गुणानुवाद हो रहा था । आचार्यश्री का व्याख्यान हमेशा होता था । उन नूतन जैनों के लिये जिस जिस विषय की आवश्यकता थी उसी विषय का व्याख्यान सूरिजी महाराज दिया करते थे । श्राचार्य श्री इस बात को सोच रहे थे कि इन लोगों को जैनी तो बना दिया पर यह किस प्रकार से सदैव के लिये सच्चे जैन बने रहें इत्यादि । आखिर सूरिजी ने यह निश्चय किया कि इन लोगों के लिये एक ऐसी सुदृढ़ संस्था कायम करवा दी जाय कि जिसके जरिये यह लोग तथा इनकी वंश परम्परा जैनधर्म की उपासना करते रहें। सूरिजी महाराज ने अपने विचारों को कार्यरूप में परिणित करने के लिए राजा उत्पलदेव के अध्यक्षत्व में एक सभा की और सूरिजी ने अपने विचार सभा के सामने उपस्थित किये जिसको सब लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक शिरोधार्य किया और आचार्यश्री ने उन नूतन जैन समूह ' के लिये "महाजन संघ " नाम से संस्था स्थापन करवादी । जब से उपकेशपुर के जैन - महाजनों के नाम से कहलाने लगे। इस संस्था के कायम करने में सूरिजी महाराज के निम्नलिखित उद्देश्य ही मुख्य थे । ( १ ) जिस समय प्रस्तुत संस्था स्थापित की थी उसके पूर्व उस प्रान्त में क्या राजनैतिक; क्या सामाजिक, और क्या धार्मिक सभी कार्यों की श्रृंखलायें टूट कर उनका श्रत्याधिक पतन हो चुका था । श्रतः इन सबका सुधार करने के लिये ऐसी एक संगठित संस्था की परमावश्यकता थी, और उसी की पूर्ति के लिये आचार्यश्री का यह सफल प्रयास था । ( २ ) संस्था कायम करने के पूर्व उन लोगों में मांस मदिरा का प्रचुरता से प्रचार था । यद्यपि आचार्यश्री ने बहुत लोगों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देने के समय इन दुर्व्यसनों से मुक्त कर दिये थे । तथापि सदा के लिये इस नियम को दृढ़तापूर्वक पालन करवाने तथा अन्यान्य समाजोपयोगी नये नियमों को बनवा कर उनका पालन करवाने के लिये भी एक ऐसी संस्था की आवश्यकता थी जिसको सूरिजी ने पूर्ण करने का प्रयत्न किया था । (३) नये जैन बनाने पर भी जैनों के साथ उनका व्यवहार बंद नहीं करवाया था क्योंकि किसी भी क्षेत्र को संकुचित बनाना श्राप पतन का प्रारंभ समझते थे । पर किसी संगठित संस्था के अभाव में वे नये जैन, शेष रहे हुए आचार -पक्षित जैनों की संगति कर भविष्य में पुनः पतित न बन जायं, इस कारण से भी एक ऐसी संस्था की आवश्कता थी जिसकी सूरिजी ने पूर्ति की । ( ४ ) ऐसी संस्था के होने पर अन्य स्थानों में अजैनों को जैन बनाकर संस्था में सामिल कर लिया जाय तो नये जैन बनाने वालों को और बनने वालों को अच्छी सुविधा रहे, इसलिए भी ऐसी एक सुदृढ़ संस्था की जरूरत थी। जिसके लिये ही सूरीश्वरजी का यह सफल प्रयत्न था । www.netbrary.org Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास (५) ऐसी संस्था होने से ही संगठन बल उत्तरोत्तर बढ़ता गया और संगठन बल से ही धर्म या समाजोन्नति के क्षेत्र में वे लोग आगे बढ़ते गये । अतः ऐसी संस्था होने की जरूरत थी। (६) संस्था का ही प्रभाव था कि जो महाजन संघ लाखों की तादाद में था वह करोड़ों की संख्या तक पहुंच गया। (७) ऐसी सुदृढ़ संस्था के अभाव से ही पूर्व आदि प्रान्तों में जो लाखों करोड़ों लोग जैनधर्म को छोड़ कर मांसाहारी बन गए थे । यदि उस समय वहां भी ऐसी संस्था होती और उसका कार्य ठीक तौर पर चलता तो आज "सराक" जैसी जैनधर्म पालन करने वाली जातियों को हम अपने से बिछुड़ी हुई कभी नहीं देखते, अतएव ऐसी संस्था का होना अत्यन्त आवश्यक था। (८) संस्था का ही प्रभाव है कि आज "महाजन संघ" भले ही अल्प संख्यक हो, पर वह जैन धर्म को अपने कंधे पर लिए समप्र संसार के सामने टक्कर खा रहा है अर्थात् उसे जीवित रख सका है। यह "महाजन संघ" बनाने का ही शुभ फल है इत्यादि-- सूरिजी महाराज ने जिस लाभको लक्ष्य में रख 'महाजन संघ' नामक संस्था को जन्म दिया था वे सबके सब सिद्ध हुए आज भी हमारी दृष्टिगोचर हो रहे है धन्य है जैनधर्म को जीवित रखने वाले रिपुंगव के सूरिजी महाराज जिस उद्देश्य से अनेक आपत्तियों को सहन कर मरुधर में पधारे थे उन्होंने अपने कार्य में खूब सफलता हासिल करली । आज तो उपकेशपुर में जैनधर्म का झंडा फहरा रहा है। आचार्यश्री उन नूतन श्रावकों को जैनधर्म का स्याद्वाद-तात्विक ज्ञान एवं आचार व्यवहार क्रिया काण्ड वगैरह ज्ञानाभ्यास करवा रहे थे। विशेषतया अहिंसा परमोधर्मः के विषय में उनके संस्कार इस कदर जमा रहे थे कि जीवों को मारना तो क्या पर किसी जीव को दुःख पहुँचाना भी एक जबरदस्त पाप है इत्यादि सम्यक् ज्ञान एवं धर्म का प्रचार कर रहे थे। इसी प्रकार श्रावक के बारह व्रतों का भी उपदेश कर रहे थे। राजा उत्पलदेव और मंत्री ऊहड़ादि समझदार लोग ज्यों-ज्यों सूरिजी का उपदेश एवं जैनधर्म की विशेषताएँ सुनते थे त्यो-त्यों उनको बड़ा भारी आनन्द आता था। - इस प्रकार आनन्द में समय जा रहा था । पयूषणों का समय नजदीक आया तो जनता में और भी उत्साह बढ़ गया । सूरिजी की आज्ञानुसार पर्व का खूब आराधन किया । कारण, जैनों में आत्माराधन में सब से बड़ा पर्व पर्दूषण ही है। इधर तो सूरिजी महाराज का उपदेश उधर वे उत्साही श्रावक गण, फिर तो कहना ही क्या था ? आनन्दपूर्वक पाराधन किया। ___ जब आश्विन मास आया तो इधर तो सूरिजी ने आंवल की ओलियों और सिद्धचक्र अाराधन का उपदेश दिया, उधर पूर्वसंस्कारों की प्रेरणा से लोगों को देवीपूजन याद आ गया। वे लोग विचार करने लगे कि इधर तो सूरिजी कह रहे हैं कि जीव हिंसा नहीं करना और उधर है देवी चामुण्डा । यदि इसको बलि न दी जाय तो अपने को सुख से रहने नहीं देगी। इस बात का विचार कर सब लोग एकत्र हो पूज्य आचार्य महाराज की सेवा में आये और हाथ जोड़ अर्ज करने लगे कि हे पूज्यवर ! यहां की देवी निर्दय होने के कारण भैंसे ओर बकरे का बलिदान लेती है और उन्हें मारने के समय आप कौतूहल से प्रसन्न होती है । रक्तांकित भूमि पर आई चर्म देख Jain Education in rational Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष खुश होती है और निष्ठुर हृदय वाले उसके भक्त उसे प्रसन्न करने के लिये ऐसे जघन्य कार्य करते हैं। इस पर आचार्यश्री ने कहा कि यह कार्य धर्म के प्रतिकूल एवं महावीभत्सतापूर्ण हैं, अतः आप जैसे धर्मास्माओं को उस देवी के मंदिर में नहीं जाना चाहिये । इस पर भक्त लोगों ने कहा कि हे प्रभो ! यदि हम उस देवी की इस प्रकार पूजा न करें तो वह देवी हमारे सब कुटुम्बों का नाश कर डालेगी। इस पर सूरिजी ने कहा कि तुम क्यों घबराते हो । मैं स्वयं तुम्हारी रक्षा करूंगा । बस!उन भक्त लोगों ने सूरिजी पर विश्वास कर देवी के मंदिर जाना एवं पूजा करना बंद कर दिया। जब देवी ने इस बात को अपने ज्ञान से जाना तो वह प्रत्यक्ष रूप से आचार्यश्री के पास जाकर कहने लगी कि हे प्रभो ! मेरे सेवकों को मेरे मंदिर में आने व पूजन करने से रोक दिया यह आपने ठीक नहीं किया है ? सूरिजी ध्यान में थे अतः कुछ भी उत्तर नहीं दिया इसलिये देवी का क्रोध इतना बढ़ गया कि वह आचार्यश्री को किसी प्रकार से कष्ट पहुँचाना चाहने लगी । अहा ! क्रोध कैसा पिशाच है कि जिसके वश मनुष्य तो क्या पर देव देवी भी अपना कर्त्तव्य भूल कर बे मान बन जाते हैं खैर देवी ने एक परोपकारी आचार्य को कष्ट देने का निश्चय कर लिया। किन्तु आचार्य देव सदैव अप्रमत्तावस्था में रहते थे एवं आप श्रीमान इतने प्रभावशाली थे कि उनके अतिशय प्रभाव के सामने देवी का कुछ भी वश नहीं चला । फिर भी एक समय का जिक्र है कि आचार्यश्री अकाल के समय स्वाध्याय-ध्यान रहित कुछ प्रमाद योनि निद्राधीन थे । उस समय देवी ने उनकी आंखों में वेदना उत्पन्न करदी। सावधान होने पर आचार्यश्री ने जान लिया कि यह तकलीफ देवी ने ही पैदा की है। खैर ऐसा समझ लेने पर भीवे ध्यानस्थ हो गये। बाद चक्रेश्वरी आदि कई देवियें सूरिजी के दर्शनार्थ आई और सूरिजी के नेत्रों में वेदना देख अपने ज्ञान से सब हाल जान लिया और देवी चामुंडा को बुलायी एवं शक्त उपालम्ब दिया । अतः देवी प्रत्यक्ष रूप होकर सूरिजी से कहने लगी कि यह वेदना मैंने ही की है और उसको मैं ही मिटा सकती हूँ । परन्तु श्राप मेरी प्रिय वस्तु जो करड़-मरड़ है वह मुझे दिला दीजियेगा। मैं शीघ्र ही इस वेदना को दूर कर दूंगी और यावञ्चंद्रदिवाकर आपकी किंकरी होकर रहूँगी । यह सुन कर आचार्यश्री ने स्वीकार कर लिया कि मैं तुझे करड़ मरड़ दिला दूंगा। इस पर देवी संतुष्ट होकर सूरिजी की वेदना का अपहरण कर तथा चक्रेश्वरी देवी का सरकार सन्मान कर अपने स्थान पर चली गई । बाद चक्रेश्वरी आदि देवियाँ भी सरिजी को बन्दन कर आदर्य हो गई। ' जब सूरिजी के भक्त-गण श्रावकों ने सुना कि सूरिजी के नेत्रों में बीमारी हुई है और इसका कारण शायद देवी चामुंडा की पूजा बन्द करवाना ही तो न हो ? अतः सुबह होते ही भक्त-लोगों ने सूरिजी के पास आकर नम्रता पूर्वक प्रार्थना की कि हे प्रभो ! यह चामुंडा आप जैसे समर्थ महात्मा से ही इस प्रकार पेश आई है तो हमारे जैसे अल्प सत्व वालों के लिए तो कहना ही क्या है ? जब तक आप यहां विराजमान हैं तब तक तो फिर भी जनता को विश्वास है पर आपके पधार जाने के बाद न जाने यहां का क्या हाल होगा ! अतः हम लोगों की अर्ज है कि आप देवी-पूजन का आदेश दे दीजिये जैसा कि आप मुनासिब समझे । क्योंकि नागरिक लोगों की यह ही इच्छा है। सूरिजी ने उन भावकों को कहा कि यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो तुम पक्वान्न खाजा गुलराव आदि तथा कर्पूर कुंकुमादि से देवी पूजन कर सकते हो यदि तुम लोगों को देवी का भय है तो मैं आपके साथ चलने को भी तैयार हूँ। बस फिर तो था ही क्या ? श्रावकों ने ऐसा ही किया और राजा प्रजा wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwne २७ Jain Education Inte 3onal www.jainmhorary.org Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एवं सूरिजी ने देवी के मन्दिर में जा कर उन पक्वान्नादि सात्विक पदार्थों को देवी के सामने रख दिया। और आचार्यश्री ने कहा कि लो देवी मैं आपको करड़-मरड़ ( लडू खाजा गुलराव) दिलाता हूँ। उस समय देवी एक कुमारिका के शरीर में अवतीर्ण होकर बोली कि हे प्रभो ! मैंने अन्य प्रकार के करड़-मरड़ की याचना की थी और आपने मुझे अन्य प्रकार के करड़-मरड़ दिलवाया । इस पर सूरिजी एकदा प्रोक्तं भो यूयं श्राद्धा तेषां देवीनों निर्दय चित्ताया महिष बाल्कटादि जीव वधास्थि भंग शब्द श्रवण कुतुहल प्रियया अविरताया रक्तांकित भूमितले आद्रिचर्मबद्ध वंदतमाले निष्ठुर जन सेवितं धर्मध्यान विद्यापके महाबीभत्स रौद्रे श्रीचामुण्डादेवीगृहे गंतुं न बुध्यने । इति आचार्य वचः श्रुत्वा ते प्रोचुः प्रभो युक्त मेतत् परं रौद्र देवी यदि छलिस्यामतदा सा कुटुम्बान मारयति । पुनराचार्यैः प्रोक्तं अहं रक्षां करिस्यामि । इत्याचार्य वाक्यं श्रुत्वा ते देवी गृह गमनात् स्थिताः । आचार्याणाम् प्रत्यक्षी भूय देव्या सकोप भित्युक्तं आचार्य मम सेवकान् मम देव गृह अगच्छ मानान् निवारणाय त्वं न भविष्यति । इत्युक्तत्वा गता देवी परं सातिशय काल भावात् महा प्रभावात् अनेक सुरकृत प्रातिहोर्ये आचार्य देवी न प्रभावति । एकदा छलं लब्ध्वा देव्या आचार्यस्य काल वेलायां किंचित् स्वाध्यायादि रहितस्य वामनेत्र भूरधिष्टिता वेदना जाता। आचार्य यावत् सावधानी भूय पीड़ायाः कारणं चिंततं तावत् देवी प्रत्यक्षी भूय । इति प्रोक्तं मया पीड़ा कृता । अहं स्वशक्तत्या त्वं स्फेटयिष्यामि । इति सा वष्टंभ । आचार्योक्तं श्रुत्वा सभयाकूतं सविनय प्रोक्तं भवादृशानां ऋषीणां विग्रहं विवोदा न युक्तः यदित्वं करड़-मरड़ ददासि तदाहं वेदना अपहरामि । आचन्द्रार्क त्वात् किंकरी भवामि । इति श्रुत्वा आचार्यः प्रोक्तं करड़-मरड़ दोययिष्योमि । इत्युक्ता गता देवी। प्रभाते श्रावका नामाकार्य तैः पक्वन्न खजकादि सुंडक द्वयं कर्पूर कुंकुमादि भोगश्च आनीय श्री चामुण्डादेवी देव गृहे श्रीरत्नप्रभाचार्यः श्रावकैः सार्धगतः। ततः श्रावकैः पार्थात् पूजा काराप्य वाम दक्षिणां हस्ताभ्यां पक्वन्न सुंडकादि चूर्ण याद्भः आचार्यैः प्रोक्तं देवी करड़मरई दत्तमास्ति । अतः परं ममोपासिकात्वं इति वचनानंतरं एव समीपस्य कुमारिका शरीरे आवेशः कृत ततः प्रोक्त प्रभो अन्य करड़-मरडं याचिंतं अन्य दत्तं । आचार्यः प्रोक्त त्वयावधो याचितः सतु लातुं दातुं न बुध्यते इत्यादि सिद्धांत वाक्यं कुमारी शरीरस्था श्रीसचिकादेवी सर्व लोक प्रत्यक्षं श्रीरत्नप्रभाचार्य प्रतिबोधिता । श्रीउपकेशपुरस्था श्रीमहावीर भक्ता कृता सम्यक्त्वधारिणी संजाता । अस्ता मांसं कुसुममपि रक्त नेच्छिति । कुमारिका शरीरे अवतीर्ण सती इति वक्ति भो मम सेवका यत्र उपकेशपुरस्थं स्वयंभूमहावीर विव पूजयति श्रीरत्नप्रभाचार्य उपसेवति भगवन् शिष्यं प्रशिष्यं वा सेवति तस्याहं तोषं गच्छामि । तस्य दुरितं दलयामि यस्य पूजा चित्त धारयामि । एतानि शरीरे अवतीर्णा सा कुमारी कथ्यताँ। श्रीसचिका देव्या वचनात् क्रमेण श्रुत्वा प्रचुरा जनाः श्रावकत्वं प्रतिपन्नाः। उपकेशगच्छ पदावलि पृष्ट wwwwwwwwwwwwwwwwwwww imanna Jain Education Ternational Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] कहा कि जिस प्रकार तुमने मांगा था वह न तो मुझे दिलाना योग्य है और न श्रपको ग्रहण करना ही योग्य है। इसके अलावा सूरिजी ने और भी कहा कि हे देवी तुमने पूर्व जन्म में कुछ अच्छे कार्य किये थे उसकी वजह से तो तुम्हें देवयोनि प्राप्त हुई है और अब ऐसे जघन्न कार्य में रत हो कर न जाने किस योनि में जन्म लोगी इत्यादि, हित वचनों से महात्मा ने ऐसा प्रतिबोध दिया कि कुमारिका के शरीर में रही हुई देवी को सर्वजनों के समक्ष उपकेशपुर के महावीर मन्दिर की पूर्ण भक्त बना दी। देवी सम्यकत्व धारिणी हो गई, इतना ही क्यों ? देवी ने यहां तक प्रतिक्षा कर ली कि मांस मदिरा तो क्या ? पर मैं किसी लालपुष्प व लालवस्त्र को भी ग्रहण न करूंगी। बाद में देवी ने उपस्थित लोगों के समक्ष कहा कि उपकेशपुर स्थित श्रीस्वयंभू महावीर भगवान की मूर्ति को पूजेगा या रत्नप्रभसूरि और इनके शिष्य प्रशिष्यों की सेवा भक्ति करते रहेगा उसके लिए मैं सदैव उनके दुःखों को दलित करने के लिये तैयार रहूँगी । [वि० इस चमत्कारपूर्ण घटना को देख कर पहिले जो जैन बने थे उनकी श्रद्धा दृढ़ मजबूत हो गई तथा और भी बहुत से लोगों ने जैन धर्म की बहुत कुछ प्रशंसा की और उन्होंने सूरिजी के उपदेश से मिध्या मत को त्याग कर जैन धर्म को स्वीकार कर लिया । अर्थात जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत हुआ । ० पू० ४०० वर्ष दिया कि तुम चंडिका का पूजन मारे जाते हैं अतः देवी पापिनी है। लोगों ने कहा तो निस्सन्देह यह सकुटुम्ब हमारा संहार कर देगी । सूरिजी के इस कथन पर श्रावकगण देवी की पूजा से कुपित हुई । वह रात दिन गुरु के छल छिद्र देखने इसी प्रकार उपके गच्छ चरित्र में भी उल्लेख मिलता है यथा :एक दिन पूज्य आचार्यश्री ने देवी के उपासक भक्तों को उपदेश मत करो । क्योंकि इसके मन्दिर में हमेशा प्राणियों को कि हे प्रभो ! यदि हम लोग इस देवी की पूजा न करें सूरीश्वरजी ने उत्तर दिया कि मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा । विमुख हो गये । इस पर देवी सूरीश्वरजी पर बहुत लगी। एक दिन जब गुरुजी सायंकाल के समय बिना ध्यान के बैठे एवं सोए हुएथे तो देवी ने उनके नेत्रों में पीड़ा उत्पन्न कर दी। पूज्यसूरिजी ने योगबलद्वारा नेत्र पीड़ा का कारण जान गये और उस देवी के अपने पर ऐसा उपदेश दिया कि देवी स्वयं लज्जित हो गई। वह सूरिजी से इस तरह प्रार्थना करने लगी कि हे स्वामिन् ! मैंने ज्ञान भाव से प्रेरित हो आपका यह अपराध किया है, आप मुझे क्षमा करें। मैं अब फिर कभी ऐसा अपराध नहीं करूंगी, हे विभो ! श्राप मुझ पर प्रसन्न हों। सूरिजी बोले देवी इतना रोष क्यों ? देवी ने कहा आपने मेरे भक्तों को मेरी पूजा से मना किया है। यदि आप मेरा अभीष्ट जो ( कड़द मड़ड़ ) मुझे दिलादो १ अन्यदोपासकाः पूज्यैः प्रोक्ताः माचण्डिकाऽर्चनम् । कुरुध्वं यदियाँ सत्व घात पातकिनी सदा ॥ स प्रभावा प्रभो! देवी, नार्च्छते यदि तद् ध्रुवम । हन्ति नः स कुटुम्बेन, प्येवं प्राहुरुपासकाः ।। अहं रक्षाँ करिष्यामि, त्युक्ते सूरिभिरर्चनात् । निवृत्ताः श्रावका: सर्वे, कुप्यतिस्माथ सा गुरौ ॥ छलं विलोकयन्त्यस्थात्सा गुरूणामहर्निशम् । सायं ध्यान विहीनानां, नेत्र पीड़ामकल्पयत् । विज्ञाय ज्ञान तो हेतुं, पूज्याः देवीमकीलयन् । तथा तथा स कष्टा सा, सूरिनेवं व्यजिज्ञपत् ॥ अज्ञान भाव विहितो ऽपराधः क्षम्यतां मम । न विधास्ये पुनः स्वामि, नेवं जातु प्रसीद नः ॥ वरि रूचे कथं रोषः ? सऽऽहमत्सेवकान् भवान् । अरक्षयन्मदभीष्टं, मदुक्त चेत्करिष्यसि ॥ लब्धेऽभीष्टे प्रभोऽवश्यं, वश्याते ऽन्वयिनामपि । भवित्रीति वदन्तीं ताँ, जगुराचार्य पुङ्गवाः ॥ 1 ९९ www.jain library.org Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तो हे प्रभो ! आपके और आपके वंशजों के मैं अवश्य श्राधीन हो जाऊंगी। ऐसा कहती हुई देवी को आचार्यवर ने उत्तर दिया कि हे देवि ! आप अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहें। मैं आपको अभीष्ट 'कढड़ा 'मड़ड़ा' दिलादूंगा आप उनमें ही रती करना। गुरु के उक्त कथन पर देवी संतोष के साथ अन्तर्ध्यान हो गई और प्रातःकाल गुरुजी के पास सब श्रद्धालु श्रावक एकत्रित हुए उसको कहा कि हे श्रावकों ! तुम सब सुहाली श्रादि पक्कान्न तथा प्रत्येक घर से चंदन, अगर, कस्तूरी श्रादि भव्य भोग एकत्रित करो और इस प्रकार सब सामग्री सजा कर जल्दी ही पौषधागार ( पोशाला ) में एकत्र मिलो बाद संघ को साथ लेकर चामु ंडा देवी के मंदिर चलेंगे। यह सुन कर श्रावक गण सब सामग्री एकत्रित कर पौशाला एकत्रित हुये और सूरिजी उन्हें साथ ले चामुंडा के मन्दिर में गये । वहां पहुँच कर श्रावकों ने देवी का पूजन किया और सूरिजी ने कहा कि हे देवी! तुम अपना अभीष्ट ले लो। ऐसा कह कर दोनों तरफ के पक्कान्न पूर्ण सुण्डकों (टोपले ) को दोनों हाथों से चूर्ण कर पुनः बोले कि हे देवी अपना अभीष्ट प्रहण करो । यह सुन देवी प्रत्यक्ष रूप हो सूरिजी के सामने खड़ी रही और बोली कि हे प्रभो ! मेरी अभीष्ट वस्तु 'कडड़ा मडड़ा' है । गुरु बोले हे देवी ! यह वस्तु तुझे लेना और मुझे देना योग्य नहीं क्योंकि मांसाहारी तो केवल राक्षस ही होते हैं। देवता तो अमृत पान करने वाले होते हैं। हे देवी! तू देवताओं के आचरण को छोड़कर राक्षसों के आचरण को करती हुई क्यों नहीं जाती है ? हे देवी! तेरे भक्त लोग तेरी भेंट में लाये हुये पशुओं को तेरे सामने मारकर तुमको इस घोर पाप में शामिल कर उस मांस को वे स्वयं खाते हैं, तू तो कुछ नहीं खाती अतः तू व्यर्थ हिंसात्मक कार्य को अंगीकार करती हुई क्या पाप से नहीं डरती है ? यह तो निर्विवाद है कि चाहे देवता हो चाहे मनुष्य हो पाप कर्म करने वाले को भावान्तर में नरक अवश्य मिलता है । इस जीव हिंसा के समान भयंकर और कोई पाप नहीं है । यह बात सब दर्शनों ( धर्म शास्त्रो ) में प्रसिद्ध है । अतः तू जगत की माता है तो तेरा कर्तव्य है कि 9 निज प्रतिज्ञा वचने, स्थिरी भाव्यों त्वया सदा । कड़ड़ाँ मड़ड़ा देवि दास्ये तत्र रतिं कृथाः ॥ प्रतिज्ञाय गुरूक्तंतद्, देवी सद्यस्तिरोदधे । प्रातः सर्वानपि श्राद्धान्, गुरवः पर्यमीलयन् ॥ मिलितानाँ श्रावकाणाँ, पुरतः सूरयोऽवदन् । पक्वान्नानि विधाप्यन्ताँ, सुहाली प्रभृतीनि भोः । प्रतिगेहं घनसाराऽगुरु कस्तूरिकादिकः । भोगः संमील्यताँ भव्यो गृह्यताँ कुसुमानि च ॥ कृत्वैवं पौषधागारे, शीघ्र मांगम्यताँ यथा । चामुंडाऽऽयतनं यामः संघेन सहिता वयम् ॥ पूजोपस्कर मादाय श्रावकाः पौषधोकसि । अभ्ययुः सूरयः सार्धं, तैर्देवी सदेन ययुः ॥ अयू पूजन सुरीं श्राद्ध, सूरयो द्वार संस्थिताः । अवदंश्च निजाभीष्टं, लाहि देवि ! ददाम्यहम् || इत्युक्तोभय पार्श्वस्थे, पक्वान्नभृत सुण्डके । पाणिभ्याँ चूर्णयित्वोचुः, स्वाभीष्टं देवि गृह्यताम् ॥ अथ प्रत्यक्ष रूपेण, सूरीणाँ पुरतः स्थिता । प्राह प्रभो मद भीष्ट, कड़ड़ा मड़ड़ा ऽपरा ॥ गुरु रूचे न सा युक्ता, लातुं दातुं च ते मम । पालदा राक्षसा एव, देवा देवि ! सुधा ऽशनाः ॥ पूर्व दर्शन विख्यातं स्वनामार्थं विदन्त्यपि । पलादानाँ समाचारं चरन्ती किं न लज्जसे ॥ लोक चोपायन पशून, विनिहत्य पुरस्तव । तानत्ति नीत्वा स्वगृहे, त्वमश्नासि न किंचन । स्वीकुर्वाण मुधा हिंसा, पातकान्न विषभेकिम् । देवानाँ मानवानाँच, नरकः पाप क्रर्मणा ॥ , ०० Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रखप्रभसरि का जीवन [वि० पू० ४०० वर्ष सष 'जीवों पर दया भाव रखना' और तू इसी 'अहिंसापरमोधर्म' का आश्रय ले इत्यादि । इस प्रकार सूरिजी कथित उपदेश से प्रतिबुद्ध हुई देवी सूरिजी को कहने लगी, हे प्रभो ! आपने मुझे संसार कूप में पड़ती हुई को बचायी है । हे प्रभो ! आज से मैं आपकी आधीनता स्वीकार करूंगी और आपके गण में भी व्रतधारियों का सांनिध्य करूंगी तथा यावच्चन्द्रदिवाकर आपका दासत्व ग्रहण करूंगी। किन्तु हे प्रातःस्मरणीय सूरिपुंगव ! आप यथा समय मुझे स्मरण में रक्खना और देवतावसर करने पर मुझे भी धर्मलाभ देना । अपने श्रावकों से कुकुम, नैवेद्य, पुष्प आदि सामग्री से साधार्मिक की तरह मेरी पूजा करवाना इत्यादि। दीघदर्शी श्रीरत्नप्रभ सूरि ने भविष्य का विचार करके देवी के कथन को स्वीकार कर लिया। क्योंकि सत्पुरुष गुणग्राही होते हैं। पापों को खंडित करने वाली वह चंडिका सत्य प्रतिज्ञा वाली हुई। यह जान उस दिनसे जगत में देवी का नाम 'सत्यका' प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकार श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर ने देवी को प्रतिबोध देकर सर्वत्र विहार करते हुये सवालाख से भी अधिक श्रावकों को प्रतिवोध दिया । -ऊहड़मंत्री का बनाया महावीर मन्दिर उपकेशपुरनगर में मंत्री उहड़ अपनी पुन्यवृद्धि के लिये एक नया मंदिर बना रहा था । पर दिन को जितना मन्दिर बनावे वह रात्रि में गिर जाता था। अतः विस्मय को प्राप्त हुये मंत्री ने तमाम दर्शनकारो को मन्दिर गिर जाने का कारण पूछा। पर उनमें से किसी एक ने भी समुचित उत्तर देकर मंत्री के भ्रमित मन को पापं नातः परं किंचित् , सर्व दर्शन विश्रुतम । तस्माज्जीव दयाधर्म, सारमेकं समाश्रय ॥ इत्यादिभिरुपदेशैः प्रबुद्धा प्राह हे प्रभो ! । भव कूपे पतयालो, हस्तालम्ब मदा मम ॥ इतः प्रभृति दासत्वं, करिष्येऽस्मि तव प्रभो ! । आ चन्द्राकं त्वद्गणेऽपि संनिध्यं वतिनामपि ॥ परमस्मि स्मरणीयाः ! स्मर्तव्या समये सदा । धर्मलाभः प्रदातव्यो, देवताऽवसरे कृते ॥ तथा कुंकुम नैवैद्य-, कुसुमादिभिरुद्यते । श्रावकैः पूजयध्वं माँ, यूयं साधमिकीमिव ॥ दीर्घ दर्शिभिरालोच्य, श्रीरत्नप्रभसूरिभिः । तद्वाक्य मुररी चक्रे, यत्सन्तो गुण कंक्षिणः ॥ सत्य प्रतिज्ञा जातेति, चण्डिका पाप खंडिका। सत्यकेति ततो नाम, विदितं भुवनेऽभवत् ॥ एवं प्रबोध्यताँ देवीं, सर्वत्र विहरन् प्रभुः। सपादलक्ष श्राद्धाना, मधिकं प्रत्यबोधयत् ॥ इतश्च श्रेष्ठी तत्राऽऽस्ते, ऊहड़ कृष्ण मन्दिरम् । कारयन्नतुलंनव्यं, पुण्यवान् पुण्य हेतवे । दिवा विरचितं देव, मंदिरं राज मन्त्रिणा । भिन्नत्वं प्राप्नुयाद्रात्रौ, ततो विस्मयता गतः ॥ अमाक्षीद्दार्शिकान् मंत्री, कथ्यतामस्य कारणम् । न कश्चिद्वचे तत्वज्ञः, सत्यं सत्यं वचस्तदा ॥ ततोऽपृच्छन्मुनि मन्त्री, कारणं च कृताञ्जलिः । प्रत्युवाच ततः सूरि, मंन्दिरं कस्य निर्मितम् ॥ नारायणस्य मन्त्रीति, प्रोवाचाचार्यमक्षरम् । तच्छ्रुत्वा मुनि शार्दूलः, प्रोवाच गिर मुत्तमाम् ॥ उपद्रवं नेच्छसिचेन्, महावीरस्य मन्दिरम् । कारयत्वं हे मन्त्रिन् । मदाज्ञाँ च गृहाणत्वम् । मन्त्रिणेवं कृते चैव, नाभूत् पुनरुपद्रवः । एव मालोक्य लोकास्च, सर्वे वित्मयतां गताः ॥ तन्मूल नायक कुते, श्री वीर प्रतिमाँ नवाम् । तस्यैव श्रेष्टिनो धेनोः, पयसा कत्तु मादृणात् ।। उपकेश गच्छ चरीत्र AAAAAAAAAAAAAAMAnnumerammmmmmmmmmmmunimamsin wife afbrary.org Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास संतुष्ट नहीं किया। इस हालत में मंत्री ने आचार्य रत्नप्रभसूरि के पास आकर वही सवाल पूछा कि गुरु महाराज ! दिन को बनाया हुआ मेरा मन्दिर रात्रि में क्यों गिर जाता है ? इस पर सूरिजी ने कहा कि मंत्रेश्वर ! आप मन्दिर किसका बनाते हो ? मंत्री ने कहा कि मंदिर नारायण का बनाता हूँ (जो पहिले से प्रारम्भ किया हुआ है)। इस पर सूरिजी ने अपने ज्ञानबल से देख कर कहा कि यदि आप महावीर के नाम से मन्दिर बनावें तो ऐसा उपद्रव नहीं होगा। मंत्री ने सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्य कर ली। और महावीर के नाम से मन्दिर बनाना शुरू किया फिर तो एक भी उपद्रव नहीं हुआ और मन्दिर क्रमशः तैयार होने लग गया। जिसको देख सब लोग आश्चर्ययुक्त हो गये। इधर पहले से ही देवी ने उस मन्दिर के योग्य महावीरदेव की मूर्ति बनानी शुरू कर दी थी। जिसका हाल यह है कि-मंत्री की गाय 'जो घड़ासरशवाडावाली-धनघटीगाय के नाम से मशहूर थी' वह गाय गोपाल से पृथक् हो लुणाद्रिपहाड़ी के नजदीक एक कैर का माड़ के पास जाती थी तो स्वयं दूध-स्राव हो जाता था जब गाय का दूध कम होने लगा तो मंत्री ने गोपाल को धमका कर उसका कारण पूंछा ? गोपाल दिन भर गाय के साथ रहा और शाम को प्रस्तुत स्थान दूध-स्राव होता देख कर मंत्री के पास आया और सब हाल कहा एवं साथ चलकर मंत्री को वह स्थान भी बतलाया कि जहां गाय का दूध स्वयं मर जाता था। बाद मंत्री के दिल में संदेह हुआ कि यहां क्या चमत्कार होगा कि गाय का दूध स्वयं स्राव हो जाता है । इस संदेह के निवारणार्थ सब दर्शनिकों को एकत्र कर अपनी गाय का दूध मरने का कारण पूछा तो किसी ने कहा यहां धन का खजाना है । किसी ने कहा यहाँ ब्रह्मा की मूर्ति है, किसी ने विष्णु, किसा ने शिव, किसी ने बुद्ध और किसी ने गणेश की मूर्ति बतलाई । इस प्रकार भिन्न २ कारण बतलानेसे मंत्रि का सन्देह नहीं मिटा और इस संदेह २ मैं उसने कई मास व्यतीत कर दिये। आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेशपुर में चतुर्मास कल्प करके आस पास के ग्रामों में विहार कर पुनः उपकेशपुर में पधारे थे और किसी उद्यान के एक विभाग में आप ठहरे हुये थे । अतः मंत्री ने जाकर विनय के साथ सूरिजी से अपनी गाय का दूध के विषय प्रश्न पूंछा जिसको अच्छा लाभ वाला जान सूरिजी ने मंत्री से कहा कि मंत्री तुम कल प्रभात होते ही आना मैं तुम्हारे प्रश्न का समुचित उत्तर दूंगा । विश्वास का भाजन मंत्री सूरिजी को वंदन कर अपने मकान पर चला गया। बाद सूरिजी ध्यान में स्थित हो गये । रात्रि में देवी चामुंडा ने सूरिजी के पास आकर अर्ज की कि हे पूज्यवर । कई महीनों से मैं भगवान महावीर की मूर्ति घटोध्नी श्रेोष्ठिनो धेनुः, साय निर्गत्य गोकुलात् । लावण्यहृदनामाद्रौ, क्षीरं क्षरति नित्यशः ॥ गोपालः श्रोष्ठिनाप्रच्छि, दुग्धाभावस्ये कारणम् । तेन सम्यग विनिश्चित्य, कथितं दृर्शितं च तत्॥ सोऽपि विप्रानथाऽपृच्छत् , तथा दर्शनिनोऽखिलान् । स्वर्गार्दुग्ध स्राव हेतुं, तेऽप्याख्यन् नैक भाषया॥ के प्याहुः शेवधि रिह, केपि कृष्णः शिवोऽपरे । त्वद्देव गृह योग्योऽय, बुद्धो लम्बोदरो ऽथवा ॥ मिथो विभिन्न वाच्येभ्य, स्तेभ्यः सन्दिग्ध मानसः। मासान् पंच व्यतीयाय, साधिकान् कतिभिर्दिनैः।। सूरयोऽपि मास कल्पं, तत्र कृत्वाऽन्यतो गतः । चतुर्मास कल्पान्ते, पुनस्तत् पुरमागमन् ॥ तान पुरोद्यान भूभागे, ऽवस्थिता नवगत्य सः। सूरीनु पेत्य पप्रच्छ, श्रेष्ठी सन्देह मात्मनः ॥ तद्विज्ञाय शुभोदकं, सूरि माह विचिन्त्य भोः। प्रातस्ते संशय पोष्ठि, अपने ष्याम्य संशयम् ॥ 9 . . Jain Education temnational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष wwwwwww जो बालूरेती और मंत्री की गाय के दूध से तैयार कर रही हूँ । जब छः मास पूर्ण होगा तब मूर्ति सर्वांगसुन्दर बन जायगी। जिसकों पुरा छ मास होने पर ही निकाली जायगी। - सूरिजी ने कहा देवी आप स्वयं मंत्रीश्वर के पास प्रगट हो सब हाल उसको सुनादो तो अच्छा होगा । देवी ने ऐसा ही किया कि रात्रि में उसने मंत्री के पास जाकर कहा कि मैं यहां की चामुडा देवी हूँ। गुरु महाराज की आज्ञा से यहां आई हूँ। तुम बड़े हो भाग्यशाली हो कि तुम्हारी गाय के दूध से मैं तुम्हारे मंदिर के योग्य मूर्ति बना रही हूँ । इत्यादि सब हाल सुना दिया और अंत में कहा कि तुम पाप के घररूप-सन्देह को शीघ्र त्याग कर देना । बस इतना कह कर देवी अदृश्य हो गई । सुबह होते ही मंत्री ने सूरिजी के पास आकर चरण कमलों में नमस्कार किया और अपने प्रश्न के उत्तर कि प्रार्थना की । सूरिजी ने कहा कि रात्रि में देवी ने तुमसे कह दिया है न ? ___ मंत्री ने कहा हां देवी ने तो कहा पर मैं पुनः आपसे सुनना चाहता हूँ। इस पर सूरिजी ने मंत्री को सब हाल कह सुनाया । सूरिजी से सब हाल सुन कर मंत्री को भगवान महावीर प्रभु की मूर्ति के दर्शन की इतनी उत्कंठा लगी कि उसी समय सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! पधारिये प्रभुर्विव निकलवा कर उसके दर्शन करवाकर हमारेजन्म को कृतार्थ बनावें। इस पर सूरिजी ने कहा मंत्रीश्वर जरा धैर्य रक्खो, अभी सात दिन की देरी है । जब यह मूर्ति सर्वांग सुन्दर बन जायगी तब अच्छे मुहूर्त में खूब समारोह के साथ लावेंगे। श्रद्दधानः सतद्वाक्यं, स्वमन्दिर मयाद् रयात् । सूरयोऽपि व्यधुानं, निश्या गाच्छा सनामरी ।। व्यजिक्षयदिदं देवी, प्रभोवीर जिनेशितुः । कुर्वाणाऽस्मि नवं विम्गं, षण्मासाचद् भविष्यति ॥ प्रभवः प्रोचिरेदेवि ! प्रत्यक्षी भूय तत्परः । सर्व मेतत्समाख्याहि, स्वमुखेन यथा तथम् ॥ साऽपि गुर्वाज्ञया गत्वा, तत्र प्रत्यक्षरूपिणी । श्रोष्ठिनं गत निद्रंद्राक प्राह विस्मित मानसम् ॥ भोः श्रोष्ठिन् । गुर्वनुज्ञाता, ऽयाता हं शासनामरी । गोस्राव हेतुं गदितुं, शृणु तत् प्रयताशयः ॥ स्वदोगक्षीरेण वीरस्य, कुर्वाणा प्रतिमां शुभाम् । बचे हैं मास्म तत्कार्षीः, सन्देहं गेह मेनसः ।। इत्युक्त्वा सा तिरोधत, सोऽपि मोह वशं वदः। प्रातर्गत्वा च नत्वा च, गुरू पादानुपाविशत् ।। संयोज्यपाणी सोऽपृच्छत् , प्रश्नं स्वीयमथप्रनुः। प्रोचे शासन देवो ते, आच चक्षे स्वयं निशि ॥ यद्यप्येवंपरं पूज्य,त्तथापि प्रतिपाद्यताम् । ततः सर्व यथा वृत्तं, गुरुराख्यात वानपि । व्याजिज्ञ पदथ श्रेष्ठी, शीघ्रं सँचलत प्रभो। यथा वीर जिनेशस्य, बिम्ब निष्कास्यतेऽधुना ॥ सूरयोऽपि विलम्बस्व, सादरः सप्तवासरीम। आने ष्यामः शुभे लग्ने, पूर्णीभूत मिदं जगुः ।। श्रेष्ठयपि प्राह तल्लग्नं, शुभं यत्र सुरी वचः । पूज्यादेशश्च तत्तर्णम, पूर्ण कुरु मतंममः।। अत्याग्रहत्तस्य पूज्या, श्चेलुश्चञ्चलत्तोज्झिताः । श्रेष्ठिना सहितास्तत्र, यत्र वीर जिनेश्वरः॥ तत्र स्वर्णमय यव, स्वस्तिकं कुसुमानि च । वीक्ष्य स्वयम् खनित्वोर्वी, श्रेष्ठी पाकाशयजिनम् ।। हृदये निम्बुक फल सम ग्रन्थि युगान्वितः। निःससार महावीरो, न्यून सप्त दिनत्वत्तः ॥ दिवि दुन्दुभयोनेदुर्भुवि मानव वादितः । नान्दी निनादः प्रसरन्, व्यानशे व्योम मण्डलम् ।। vvxxxxwww. in orrenita.wammanna Jain Eõucation International www.o rary.org Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मंत्री ने कहा पूज्यवर ! देवी की बनाई मूर्ति और आप जैसे समर्थ पुरुषों का आदेश, हमारे लिये तो यह अच्छे से अच्छा अवसर एवं शुभ मुहूर्त है । कृपा कर हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर श्राप तो शीघ्र पधारें कि हम सब लोग भगवान वीर प्रभु के दर्शन कर भाग्यशाली बनें । इतनी उत्कंठा का यही कारण था कि उन लोगों ने पहिले कभी जैन तीर्थंकरो की मूर्ति के दर्शन नहीं किये थे। अतः उत्कंठा होना स्वभाविक ही थी। गम्भीर आशय एवं धैर्थ चित्तवाले सूरिजी उन भावुकों की उमंग एवं उत्साह को नहीं रोक सके और भवितव्यता का विचार कर आपने चलने की स्वीकृति दे दी। बस फिर तो था ही क्या ? मंत्री ने सबक खबर दे दी। हस्ती वगैरह सब लवाजमा और सब सामग्री साथ में लेकर सूरिजी के पास आये और सूरिर्ज भी उन श्रावक वर्ग के साथ हो जहां भगवान वीर प्रभु की प्रतिमा थी वहां पधारे।। जहां गाय का दूध स्त्राव होता था उस संकेत से भूमि खोदकर अन्दर से मूर्ति निकाली और हीर पन्ना माणक मुक्ताफल तथा सुवर्ण पुष्पों से एवं शुभ भावना से प्रभुको वधाये । हाँ सात दिन की जल्दी कर के कारण मूर्ति के वक्षस्थल पर निंबू के फल जैसी दो प्रन्थिये रह गई। उसको भी सज्जन पुरुषों ने शुभ निमित ही माना । प्रभु प्रतिमा भूमि से निकलते ही आकाश में दुंदुभी के मधुर नाद होने लगे। इधर मनुष्यों के बजाये हुए बारह प्रकार के बाजों से गगन गूंज उठा अर्थात् वह शब्द आकाश के चारों ओर फैल गया। पंच प्रकार के पुष्पों की वृष्टि हुई, दिशा सर्वत्र निर्मल बन कर मानो नाचने ही नहीं लगी हो और दक्षिणदिश का शुभ सुगन्ध एवं मंद मंद वायु चलने लगा। वाजा गाजा के गंभीर नाद एवं सर्व लवाजमा के साथ भगवान की मूर्ति को गजारूढ़ कर राजा प्रजादि बड़े हो हर्षोत्साह से प्रभु को नगर प्रदेश करवाया । मंत्रेश्वर ने प्रभुप्रतिमा को अपने मन्दिर में ले जाकर आरति आदि भक्ति से योग्यासन पर स्थापन की तत्पश्चात् आचार्य श्री की जयध्वनी से आचार्यदेव को पास ही की पौषधशाला में ठहरा दिये । तदनंतर श्रेष्ठि बुद्धि वाले धर्मज्ञ मंत्रीश्वर ने उस मंदिर की प्रतिष्ठा के लिये सूरिजी से मुहूर्त की प्रार्थना की जिस पर सूरिजी ने माघशुक्ला पंचमी गुरुवार ब्राह्ममुहूर्त और धनुर्लग्न का सर्व-दोष विवर्जित मुहूर्त दिया, जिसको मंत्री ने बड़े ही हर्ष के साथ मुक्ताफलादि से बधाय के ले लिया। उसी दिन से धर्मवीर मंत्रीश्वर प्रतिष्ठा की सामग्री एकत्र करने में लग गया ! पंच वर्णा पुष्प वृष्टि, बभूव गगनाङ्गणात् । दिशः प्रसेदुर्वायुश्च, नीरजा दक्षिणो ववौ ॥ अथ मङ्गल तूर्येषु, वाद्यमानेषु सर्वतः । वर्द्धमान जिनं श्रेष्ठी, हृष्टो देव गृहेऽनयत् ।। भक्ति युक्तस्ततः श्रेष्ठी, निज मंदिर सन्निधौ । गुरूनुपाश्रयेऽनैषी, दुपरूध्य सगौरवम् ॥ ततः प्रतिष्ठा लनानि, शोधयित्वा विशुद्ध धोः। लग्नमेकं विनिश्चिक्ये, सर्व दोष विवर्जितम् ॥ माघमासे शुद्धपक्षे, पूर्णायाँ पंचमी तिथौ । ब्राह्मे मुहूर्ते वारेच, गुरौ लग्न' पुनर्धनुः ॥ तदुपस्कर कार्याणा, मीलने यावदादृतः । श्रेष्ठी प्रवर्तते व्यग्रः, सूरि वाक्याद्यथा विधि ॥ तावत् कोरंटक पुरात् ,सङ्घ विज्ञप्ति पाणयः । श्रावकाः समुपेत्याशु, सूरिपादान व वन्दिरे ॥ व्यजिज्ञपन्निदं पूज्याः , कोरंटक पुरे वरे । श्री वीर मन्दिरं सद्यो, बिम्बं चाकारयनवम् ॥ Annow Jain Educatiogenational Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास भूमि से महावीर मूर्ति निकाल कर एवं हीरा पन्ना पुष्पादि से पूजा कर बड़े ही जूलूस के साथ हस्ती पर आरूढ़ कर नगर प्रवेश करवाया पर कुच्छ जल्दी निकालने से मूर्ति के वक्षस्थल पर निंबुफल सदृश दो ग्रंथियों रह गई । वह इस समय भी विद्यमान है । पृष्ठ १०४ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास---- For Privale & Personal use only उपकेशपर में महावीर मन्दिर की तथा कोरंटपुर में भी महावीर मन्दिर की एक ही साथ में आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीरात् ७० वर्ष माघशुक्ल पंचमी गुरुवार धनुर्लग्न में प्रतिष्ठा करवाई । आचार्यश्री ने वैक्रयलब्धि से दो रूप बनाये थे । पृष्ट १०५ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष आचार्य रत्नप्रभरि उपकेशपुर में ५०० मुनियों के साथ पधारे थे, जिसमें ३५ मुनियों ने तो सूरीजी के पास में चतुर्मास किया था, शेष कनकप्रभादि ४६५ ने सूरिजी की आज्ञा से विहार कर दिया था। उन्होंने चल कर कोरंटपुर में चतुर्मास किया था औरआपके उपदेश से कोरंटपुर के श्रीसंघ ने अपने यहाँ एक महावीर का मन्दिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा का शुभमुहूर्त माघ शुक्ला पंचमी गुरुवार ब्राह्ममुहूर्त और धनुर्लन में निकला । श्रतः कोरंटपुर के श्रीसंघ ने मुनि कनकप्रभ से प्रतिष्ठा के लिये कहा तो मुनिवर ने साफ कह दिया कि प्रतिष्ठा तो हमारे गुरुवर्य रत्नप्रभसूरि ही करावेंगे । श्रतः कोरंटपुर श्रीसंघ चल कर उपकेशपुर आया और सूरीजी से साग्रह विज्ञप्ति की कि प्रतिष्ठा के समय आप कोरंटपुर पधार कर प्रतिष्ठा करावें । सूरिजी ने कहा कि वह मुहूर्त यहाँ के मन्दिर की प्रतिष्ठा का है जो श्रापके यहाँ है । फिर हमारे से कैसे आाया जा सकेगा ? 1 इस पर कोरंट संघ निराश हो गया। इतना ही क्यों पर उनके चेहरा भी उदास हो गया जिसको देख कर सूरिजी ने दीर्घ दृष्टि से विचार कर कहा कि महानुभावो ! आप उदास क्यों होते हो ? आप लोगों काही श्राह है तो आप प्रतिष्ठा की सब सामग्री तैयार रक्खो; प्रतिष्ठा के ठीक समय पर मैं वहां आकर आपके यहां भी प्रतिष्ठा करवा दूंगा, इत्यादि । इस पर कोरंटसंघ खुश हो सूरिजी को वंदनकर निज स्थान को चला गया और वहां जाकर प्रतिष्ठा की सब सामग्री जुटाने में दत्तचित्त से लग गया । " इधर सूरिजी महाराज ठीक लग्न के समय श्रीसम्पन्न उपकेरापुर में वीर बिम्बकी प्रतिष्ठा करवा रहे थे तत्प्रतिष्ठा विधानाय, संघाऽभ्यर्थनयाऽनया । प्रसीद भगवन्नेहि, पूरयाऽस्मन्मनोरथान् ।। तदेव लग्न विज्ञप्त, र वधार्य धियाँ निधिः । सूरिः प्रोचे कथं भव्याः ! घटतेऽस्माकमागमः ॥ यत्तत्राप्यत्र चैवैकं, लग्न ं शुद्धं तथाऽपरम् । तदत्रत्यं कथं त्यक्ता, मन्त्र ते ॥ तच्छ्रुत्वा सविषादाँस्तान् ब्रीड़ापन्नान् विलोक्यच । प्रभुराह मास्म सूर्य, विषीदत्त सुधा बुधाः ॥ देह क्यादेक लग्नत्वा, समं लम साधनम् । परमत्र साधयित्वा व्योम्नाऽऽयास्यामि तत्रहि ॥ कार्या प्रतिष्ठा सामग्री, भवद्भिः कृत निश्चयैः । यथा तत्रैव लग्न ेऽहं कुर्व्वे संघ समीहितम | ततः प्रोल्लसिताऽऽनन्दाः, श्रावकाः सूरिपुङ्गवम् । वन्दित्वा स्वपुरं जग्मुः, सङ्घायाऽऽचरव्युराशुते ।। ततः सर्वा पि सामग्री, प्रतिष्ठाया उपासकैः । मिलित्वा मीलयामासे; माघे मासे यथा विधि || ततः श्रीमत्युपकेशे, पुरे वीर जिनेशतुः । प्रतिष्ठाँ विधिनाऽऽधाय, श्री रत्नप्रभ सूरयः ॥ कोरंटकपुरे गत्वा, व्योम मार्गेण विद्यया । तस्मिन्नेव धनुर्लन े, प्रतिष्ठाँ विदधुर्वम् || श्री महावीर निर्वाणात्, सप्तत्या वत्सरैर्गतैः । ऊकेशपुर वीरस्य, सुस्थिरा स्थापनाऽजनि ॥ भूयोऽपि व्योम यानेन व्यावृत्याऽऽगत्य सूरयः। श्रष्ठिनं बोधयामासु, र्जिनस्नानार्चनक्रियाम || सक्रमादूहड़ श्रेष्ठी जिन धर्मधरोऽभवत । शुद्ध सम्यक्त्व भृत्तस्य परिवारोऽपि चाभवत् ॥ श्रीरत्नप्रभसूरीणा मागत्या ऽऽगत्य तस्थुषाम । मासकल्पास्तदान के व्यतीयुः कल्पसेविनाम || उपकेशपुर एवं सूरेः संयमिनस्तदा । विस्तरेण प्रभावस्य कालो ऽप्यनल्पताँ गतः ॥ भव्याब्ज बोधंकुर्वन्तं; तत्रस्थं सूरिभास्करम् । वीक्ष्व द्विजातमोद्यूक इव नोद्वीक्षितुं क्षमाः ।। Jain Educati? Unternational moorary.org www Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उसी समय आकाश मार्ग अर्थात् वैक्रय लब्धि से दूसरा रूप बना कर उसी लग्न में कोरंटपुर जाकर वहां भी महावीरमन्दिर को प्रतिष्ठा करवा दी और कार्य होने के पश्चात् पुनः उपकेशपुर पधार गये । इन दोनों मंदिरों की प्रतिष्ठा का समय वीर निर्वाण के बाद ७० वें वर्ष का था अर्थात वीर निर्वाण के बाद ७० वर्ष माघ शुक्ल पंचम के दिन दोनों नगरों में भगवान महावीर की मूर्तियां स्थिर स्थापन की । धन्य है ऐसे जगतउद्धारक महात्माओं को कि जिन्हों का नाम विश्व में आज भी अमर है । इसके अलावा उपकेशगच्छ पट्टावलीकारों ने भी मंत्री ऊहड़ के बनाये हुए महावीर मंदिर तथा कोरंटपुर के महावीर मंदिर का संक्षेप में वर्णन किया है जो चारित्रकार के कथन से ठीक मिलता जुलता है। पूर्व श्रेष्टिना नारायण प्रासादं कारयि तुमारब्धं सदिवसो करोति रात्रौ पतति सर्वे दर्शनिनः पृष्टा न कोपि उपायो कर्थितं तेन रत्नप्रभाचार्यो पृष्टाः भगवान् मम प्रासादो रात्रौ पतति ! गुरुणां प्रोक्त कस्य नामेन कारयतः ? नारायणा नामेन । एवं नहीं महावीर नामेन कुरु मंगलं भविष्यति प्रासादस्य विघ्न न भविष्यति श्रेष्टिना तथैव प्रतिपन्न । अथ शासन देव्यां गुरुणां कथितं हे भगवन ! अस्य प्रासाद योग्यं मयादेव गृहात् उतरस्यां दिशी लूणाद्रहाभिधानं डुगरिकायां श्रीमहावीर विम्बं कारयितुमारब्धं । तत्र तेव श्रोष्टिना गोपाल वचनात् गोदुग्ध-स्राव कारणं ज्ञात्वा सर्वेपि दर्शनिनः पृष्ठाः तैः पृथक् पृथक् भाषया अन्यदान्वंदुक्त ततः श्रोष्टिना स आचार्योऽभिवंद्य पृष्टः ततः शासन देव्या वाक्यात् आचार्यों ज्ञात्वा एवं कथयति तत्र त्वात्प्रासाद योग्य विम्बो भविष्यति पर षट् मासैः सा सप्त दिनैः निष्कास नीय श्रेष्टि उच्छुक संजातः किंचिदूनैदिनैः निष्कासितः निंबु फल प्रमाण हृदयस्य ग्रन्थी द्वय सहितं । आचार्य प्रोक्त अद्यापि किंचित् असम्पूर्ण विम्वं विलम्ब स्व श्रेष्टिना प्रोक्त गुरुणा कर प्रासादात् सम्पूर्ण भविष्यति । तेनावसरे कोरंटकस्य श्रद्धाना आव्हानं आगतं भगवन् प्रतिष्ठार्थमागच्छ ? गुरुणा कथितं मुहूर्त बेलाया आगच्छामि । निजरूपेण उपकेशे प्रतिष्ठाकृता वैक्रय रूपेण कोरंट के प्रतिष्ठा कृता श्रादै द्रव्य व्यय कृताः ततस्तेन श्रेष्टिना श्री औपकेशपुरस्य श्रीमहावीर विम्व पूजा आरात्रिक स्नात्र करण देववन्दनादि विधिः श्री रत्नप्रभाचार्यात् शिक्षिता तदनंतर मिथ्यात्वा भवान् श्रावकत्वं केषांचित् श्रेष्टि सम्बन्धिनां संजातं ततः आचार्येण ते सम्यक्त्वधारी कृताः। सप्तत्य वत्सराणा चरम जिनपतेमुक्त जातस्य वर्षे । पंचम्या शुक्ल पक्षे सुरगुरु दिवसे ब्रह्मणः सन्मुहूर्ते ॥ रत्नाचार्य सकल गुण युक्तः सर्व संघानुज्ञातैः । श्रीमद्विरस्य बिम्बे भव शत मथने निर्मितेयं प्रतिष्ठाः ॥ उपकेशे च कोरंटे, तुल्य श्रीवीरविम्वयोः । प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्री रत्नप्रभ सूरिभिः॥ Jain Education Softional Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्षे वंशावलीकारों ने इस प्रतिष्ठा का विस्तार से वर्णन करते हुए फरमाया है कि इस प्रतिष्टा का जनता पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा था । क्यों न पड़े ! पहिले तो इस प्रान्त में यह जैन मंदिर और प्रतिष्ठा पहिले ही पहिल था, दूसरे नूतन बने हुए राजा प्रजा जैनों का उत्साह भी अपूर्व था, तीसरे द्रव्य की खुले हाथों छूट थी, चतुर्थ उन लोगों को जैनोपासकों की वृद्धि भी करनी थी, पंचम देवी चामुंडा की बनाई हुई अतिशय चमत्कारी मूर्ति छटे प्रतिष्ठा करवाने वाले महाप्रभाविक आचार्य रत्नप्रभसूरि और सातवां वह समय जैन धर्म के उदय का था एवं सात शुभ निमित्त कारण मिल गया। फिर तो कहना ही क्या था। इस प्रतिष्ठा का ठाठ देख राजा उल्पलदेव का उत्साह और भी विशेष बढ़ गया और उसने भी नगर की पहाड़ी पर एक पार्श्वनाथ प्रभु का मंदिर बनाने का निश्चय कर डाला और वह केवल विचारमात्र ही नहीं पर तत्काल ही कार्य प्रारम्भ भी कर दिया। ब्राह्मण पुत्र की घटना और सूरिजी का चमत्कार एक समय दैववशात् ब्राह्मणों में मुख्य एक कोट्याधीश ब्राह्मण के पुत्र को काले नाग ने डस लिया तो वह मृतप्राय हो गया । उसके पिता ने विष वैद्यों से अनेक जड़ी बूटियाँ श्रादि यंत्र मंत्र तंत्र से प्रेम पूर्वक उपचार कराया और भी अनेक उपाय किये परन्तु वे सब दुष्ट के साथ किये हुए उपकार के समान व्यर्थ हुए । अत: उस मृतप्राय ब्राह्मण पुत्र को पालकी में बैठा कर शोक से विह्वल तथा विलाप करते हुए उसके पिता आदि ब्राह्मण श्मशान पर चले ! सूरिजी ने धर्म की उन्नति के लिये, उस ब्राह्मण कुमार को जिन्दा जान कर शोक विह्वल उसके पिता को अपने पास जल्दी ही बुलवाया और कहा हे ब्राह्मण ! यदि तेरा पुत्र पुनर्जीवन प्राप्त कर ले तो तुम लोगक्या करोगे ? ब्राह्मण ने उत्तर दिया मैं आजन्म अापका दास बन कर रहूँगा और मानो पूज्यवर ! आपने मुझे सकुटुम्ब को जीवन दान दिया हो ऐसा मानूंगा। विशेष क्या ? आप ही मेरे पिता, माता, स्वामी और देवता स्वरूप हैं। ___ ब्राह्मण के ऐसा कहने पर सूरिजी ने अपने पैर धोये और जल को उसे देकर भेजा । ब्राह्मण ने पुत्रको शवारोही पालकी से उतार चारों तरफ से उसका अभिसिंचन किया। अमृत तुल्य उस जल से अभिसिंचन हुआ ब्राह्मण कुमार विष रहित हो निद्रा से जगे प्राणी के तमान बैठा हो गया और पिता से पूछा कि यह क्या * तदा मुख्य ब्राह्मणस्य धन कोटी शितुः सुतः । दुष्ट कृष्णाऽहिनादंष् टोमृत कल्पइबाऽभवत् ॥ पिताऽगदै र्जाङ्गलिकै रुपचारत्समादरात् । धनैरुपायैस्तद् व्यर्थ मासी दिव खले कृतम् ॥ शिविकायाँ तमारोप्य क्रन्दन्तः शोक विह्वलाः । पितृ प्रभृतयो विपाश्चेलुः प्रेत वनोपरि । धर्मोन्नत्यै सूरयोऽपि, त्त विदित्वा सजीवितम् । शीघ्रमाकारया मासु, स्तत्तातं शोक संकुलम्॥ पूज्यै रुक्त त्वत्सुतश्चे, दुज्जीवति ततो भवान् । किंकरोति स आहत्वत् , किंकरो जीवितावधि। सकुटुम्बस्य मे पूज्य, दत्तस्याज्जीवितं तथा। किमन्यत्त्वं पितामाता, त्वं स्वामी त्वं च देवता।। स्वपादक्षालन जलं, दत्वा प्रेषीत्ततोद्विजः । शिविकायाः समुत्तायोऽभ्यषिञ्चत् सर्वतः सुतम ॥ पीयूषेणेव तेनाऽथ, संसिक्तः पादवारिणा । विष मुक्तः समुत्तस्थौ, गतनिद्र इवाङ्गवान् ॥ किमेतदिति पृच्छन्तं, तातस्तत्सुतम् ब्रवीत् । वत्स! स्वच्छाशय ! भवान्, यममुख गतोऽभवत्॥ परं कृपा वारिधिभिः, सूरिभिर्गुण भूरिभिः । वितीर्णं सकुटुम्बस्य, तवमेऽपि च जीवितम ॥ १०७ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ब्राह्मण और है ? ब्राह्मण अपने पुत्र के वचन को सुनकर बोला कि हे शुद्धान्तःकरण वाले मेरे वत्स ! आज तू मृत्यु के मुख में पहुँच गया था । परन्तु कृपा के सागर महागुणो के आगर पूज्यचरणसूरिजी ने सकुटुम्ब मेरा और तेरा पुनः जीवनदान किया है । ब्राह्मण पुत्र ऐसी सरस वाणी को सुनते ही प्रणाम करने की इच्छा से वहां से उठ कर सब ब्राह्मणों सहित गुणों में श्रेष्ठ गुरुजी के पास गया। वहां जा कर और सूरिजी को आदर सहित देख कर मस्तक के केशों को उनके पैरों में लुटाता हुआ भक्तिपूर्वक स्वयं पृथ्वीतल पर लोटता हुआ उनके पैरों की बन्दना करने लगा और बोला हे भगवन ! मुझे जीवन दान देके आज आपने श्रमण ( जैनी सन्यासी ) के आपसी चिरकाल के वैर को भुला दिया । हे गुरो ! आज से आप वैश्यों के तुल्य हमारे भी पूज्य हो । इस वचन को तत्रास्थित अन्य ब्राह्मण समुदाय ने भी अंगीकार किया। उस दिन से ले कर सारे ब्राह्मण श्रावक वैश्यों के समान ही पूज्य सूरिजी का गौरव करने लगे और उनकी श्राज्ञा का श्रादर करने लगे । इस प्रकार अठारह हजार ब्राह्मणों आदि को प्रतिबोध कर जैन बनाये । जिससे जैन संख्या में वृद्धि और धर्म की खूब प्रभावना हुई इस प्रकार आचार्य श्री ने अनेक स्थानों पर जैन बना कर मारवाड़ जैसा वाममार्गियों के प्रदेश को जैनमय बना दिया पट्टावलीकारों ने इन सब को मिला कर ३८४००० घरों की संख्या बतलाई है वह ठीक ही है ऋतु । आचार्य रत्नप्रभसूरि की सर्वत्र भूरि भूरि प्रशंसा हो रही थी । चार्य रत्नप्रभसूर के लिये यह दूसरी बार का मौका था क्योंकि पहले मंत्रीपुत्र की घटना ऐसी ही बनी थी उसके बाद देवी को प्रतिबोध दिया तत्पश्चात मंत्री ऊहड़ के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्टा करवाई बाद यह ब्राह्मण के पुत्र की घटना घटी। यही कारण है कि ब्राह्मण लोग कह रहे हैं कि हे पूज्यवर हम ब्राह्मण भी वैश्यों की भाँति आपके उपासक हैं इससे यह सिद्ध होता है कि ब्राह्मणपुत्र की घटना के पूर्व श्राचार्य श्री ने उपकेशपुर में राजा मंत्री क्षत्री एवं वैश्य (व्यापारी) लोगों को जैन धर्म में दीक्षित कर पाये थे अतः किसी को यह भ्रान्ति न हो जाय कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने केवल ब्राह्मण पुत्र को जिला कर १८००० लोगों को ही जैन बनाये थे ? पर यह घटना तो बाद में दूसरी बार घटी थी और इस प्रकार सूरिजी ने अपने जीवन में १४००००० नये जैन बनाये थे जो इस ग्रन्थ के पढ़ने से विदित हो जायगा । इतिश्रुत्वा (सरसT) समुत्थाय विविन्दिपुः । गुरून् गुण गुरून विमः, सर्व विप्र समन्वितः ।। भूपीठे विलुठन भक्तया, सूरीन वीक्ष्य ससादरम् | पादौ ववन्दे मौलिस्थ, केश प्रोच्छन पूर्वकम ।। अबादी दद्य भगवन, जीवितं ददता मम । विम श्रमणयोवरं, मिति मिथ्या कृतं वचः || इतः प्रभृतिनः पूज्या, गुखो वणिजामिव । अन्यैरपि तदा विप्रै, स्तदुक्तं बह्वमन्यत ॥ तदा प्रभृति सर्वेपि ब्राह्मणः श्रावका इव । तद्गौरवं विदधिरे तदाज्ञाँ नावमेनिरे ॥ एवं प्रभावयन्तस्ते, सुरयो जैन शासनम् । अष्टादश सहस्त्राणि: जङ्घानाँ प्रत्यबोधयत् ॥ Jain Education national Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उपकेशपुर में एक कोटीधिश ब्राह्मण के पुत्र को सांप काट खाया था इसके बहुत उपाय किये पर कुच्छ इलाज नहीं लगा। आखिर स्मशान ले जा रहे । पृष्ठ १०७ आचार्य रत्नप्रभसूरि के पास आकर अर्ज की कि यदि आप हमारे पुन को जीलादें तो हम और हमारी वंशपरम्परा आपके श्रावकों के सदृका श्रावक बनकर भक्ति करेंगे । अतः सूरिजी ने अपने योग से उसे निर्विष बना दिया और १८००० लोगों को जैन बनाये पृष्ठ १०८ www.ainelibrary.org Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hotailsinelibrary.org आचार्य रत्नप्रभसूरि अपने जीवन में चौदह लक्ष घरों वालों को नये जैन बना कर वीरात् ८४ वर्ष माघशुक्लपूर्णिमा को श्री शत्रुजयतीर्थ पर स्वर्गवास किया । पृष्ठ १२० For Private & Personallisen भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 2.C MALI उपकेशपुर की पहाड़ी पर राजा उत्पलदेव के बनाया हुआ पार्श्वनाथ के मन्दिर की सूरिजी ने प्रतिष्टा करवाई। उस मूर्ति को हटाकर जैनेत्तरों ने उसके स्थान पर देवी की मूर्ति रखदी है और पाश्वमूर्ति को देहरी के पिछले भाग में एक ताक पर रखदी है । पृष्ठ १११ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष कोरन्ट गच्छ की उत्पत्ति भारत में पंचमारा ( कलिकाल ) का पदार्पण हो चुका था। भले ही वह शैशवावस्था का ही क्यों न हो ? पर उसकी मौजूदगी में इतना वृहद् कार्य बिल्कुल निर्विघ्नता से सम्पादन हो जाना तो एक उसके लिए कलंक रूप ही था । अतः वह अपनी करने में उठा क्यों रक्खे ? जब उसको कहीं भी अवकाश न मिला तब उसने कोरंटपुर के संघ को उत्तेजित किया। बात यह बनी कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर और कोरंटपुर के श्री महावीरमन्दिर की एक लग्न में प्रतिष्ठा करवाई थी। इसमें मूलगे रूप से तो उपकेशपुर में और वैक्रय रूप से कोरंटपुर में प्रतिष्ठा करवाई थी। कोरंटपुर में प्रतिष्ठा करवा कर वे तत्काल ही उपकेशपुर पधार गये थे। बाद में जब कोरंट संघ को इस बात की खबर हुई कि आचार्य रत्नप्रभसूरि मूलगे रूप से तो उपदेशपुर में रहे और अपने यहां तो वैक्रय (मायावी ) रूप से आये थे, भला इस मायावी रूप से कराई प्रतिष्ठा का क्या प्रभाव पड़ेगा ? अतः उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि मुनि कनकप्रभ को अपने आचार्य बना कर पुनः प्रतिष्ठा करवानी चाहिये। परन्तु वास्तव में उनके इस निश्चय में कोई औचित्य न था और न उनके अन्तःकरण में रत्नप्रभसूरि के प्रति अश्रद्धा थी, केवल कलिकाल के प्रभाव से मतिभ्रम के कारण ऐसा निश्चय कर डाला; परन्तु जब मुनि कनकप्रभ से संघ ने प्रार्थना की तो पहिले तो उन्होंने इन्कार किया । इतना ही क्यों पर उन्होंने संघ को ठीक समझाया कि रत्नप्रभसूरि जैसे प्रतिभाशाली आचार्य होते हुए दूसरा श्राचार्य बनना एवं बनाना अनुचित है । इससे समुशय में भेद पड़ जायगा और भविष्य में संगठन शक्ति का ह्रास होने से बड़ा भारी नुकसान होगा। दूसरे यह सो आप जानते हो कि एक शरीर से इतने फासले पर एक लग्न में दोनों प्रतिष्ठा कैसे हो सकती हैं ? आपके यहां वैक्रय से नहीं आते तो उपकेशपुर में वैक्रय से रहते बात तो एक ही थी । अतः मेरी सलाह है कि इस विषय में आप शान्ति रखें इत्यादि । पर संघ के दिल को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने तो श्रीमाल पद्मावती वगैरह आमन्त्रण भेज संघ को बुला लिया और आग्रह पूर्वक मुनि श्री कनकप्रभ को आचार्य पद से विभूषित कर ही दिया। मुनि कनकप्रभ ने भी उन संघ के विग्रह चित्त को शान्त करने के लिए द्रव्य क्षेत्र काल भाव देख कर संघ का कहना स्वीकार कर लिया। ___ जब इधर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने कोरंटपुर का हाल सुना तो आपने विचार किया कि कुदरत ने जो किया है वह अच्छा ही किया है कारण इस समय धर्म प्रचार के लिए ऐसे समर्थ पद की आवश्यकता भी है। क्योंकि आचार्यपद एक ऐसा महत्त्व का एवं जुम्मेदारी का पद है कि जिसको धारण करने पर उसका कर्तव्य को अदा करना पड़ता है और कोरंटपुर संघ ने कनकप्रभ को आचार्य बना कर मेरे कन्धे का कुछ भार भी हलका कर दिया है अतः कोरन्टसंघ का मुझे उपकार ही मानना चाहिये । ___ आचार्य रत्नप्रभसूरि इतने दीर्घदर्शी और शासन हितैषी थे कि नूतनाचार्य और कोरंटपुर श्रीसंघ का उत्साह बढ़ाने के लिए अपने कुछ साधुओं को साथ लेकर कोरंटपुर की ओर विहार कर दिया। कहा भी है कि 'संदेसे खेती नहीं पकती है और काम सुधारो तो डीले पधारों' अहा ! हा !! पूर्व जमाने के प्राचार्यों की कैसी वात्सल्यता ? कैसी शासन चलाने की पद्धति और कितनी निरभिमानता कि स्वयं सूरिजी ने भविष्य को लक्ष्य में रख कर कोरंटपुर की ओर विहार करदिया। १ wwwsammelorary.org Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ___ आचार्य रत्नप्रभसूरि क्रमशः कोरंटपुर के नजदीक पधार रहे थे। यह शुभ समाचार कोरंटपुरमें पहुँचे तो बड़े ही हर्ष के साथ आचार्य कनक प्रभसूरी ने अपने शिष्य-मंडल के साथ सूरीजी के स्वागत के लिए प्रस्थान कर दिया । भला इस हालत में कोरंटसंघ कब पीछे रहने वाला था । एक कोरंट संघ ही क्यों, पर उस प्रान्त में खासी चहल पहल मच गई थी और उन्होंने बड़े ही समारोह से सूरिजी का स्वागत किया। __ आचार्य रत्नप्रभसूरि एवं कनकप्रभसूरि जिस समय कोरंटपुर स्थित महावीर मन्दिर का दर्शन कर व्याख्यान पीठ पर विराजमान हुए तो सूर्य और चन्द्र की भांति ही शोभने लगे। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने मंगलाचरण के पश्चात फरमाया कि कोरंट श्रीसंघ ने हमारे गुरुभ्रात कनकप्रभ को प्राचार्य बना कर योग्य सत्कार किया है इसके लिए मैं आपकी प्रशंसा करता हूँ, क्योंकि जब दुकानें बढ़ती हैं तो उनके संचालक भी बढ़ने ही चाहिए । इस समय हमें धर्म का क्षेत्र विशाल बनाने की परमावश्यकता है । यदि कनकप्रभसूरि इस पद की जुम्मेवारी समझ कर अपना कर्तव्य अदा करेगा तो श्री संघ का किया हुआ प्रस्तुत कार्य अधिक लाभकारी होगा और मैं श्रीसंघ के किए हुए शुभ कार्य में शामिल होने की स्वीकृति भी देता हूँ। जिस कारण को लेकर आपने कनकप्रभ को आचार्य बनाया है थोड़ा उसका भी खुलासा कर देना अनुचित न होगा । बात यह थी कि आप लोग तो गुरु महाराज के बनाये हुए श्रद्धासम्पन्न श्रावक थे । आपकी श्रद्धा मजबूत है, पर उपकेशपुर के श्रावक अभी नये हैं, इसलिये मेरी उपस्थिति वहाँ खास जरूरी थी । अतः मैं मूलगे रूप वहाँ रह कर वैक्रय रूप से आपके यहाँ आया था। बस, इसके अलावा दूसरा कोई भी कारण नहीं था । यदि इसके अलावा आप लोगों के दिल में कोई दूसरा भाव हो तो शीघ्र ही निकाल दें। सूरिजी के इन वचनों को सुन कर कोरंटसंघ बड़ा ही संतुष्ट हुआ और नम्रतापूर्वक कहने लगे कि हे प्रभो! आप जैसे शासन स्तम्भ एवं धुरंधरों के द्वितीय भाव हो हो कैसे सके ? पर हम अल्प बुद्धि वालों ने अज्ञान के वश एवं कलिकाल के प्रभाव से व्यर्थ ही दुर्विचार कर यह कार्य कर डाला है;अतः आपक्षमा प्रदान करावें ।इधर कनकप्रभसूरि ने अर्ज की कि हे विभो ! इस संघ की आतुरता से यहाँ का वातावरण देख मैंने संघ का कहना स्वीकार कर लिया था। फिर भी मैं आपका श्राज्ञापालक एक शिष्य हूँ और आप तो मेरे पूज्य ही हैं मैं यह आचार्य पद आपके चरण कमलों में अर्पण कर देता हूँ। क्योंकि आप जैसे पूज्य पुरुषों की मौजूदगी में यह पद मुझे शोभा नहीं देता है, इत्यादि । सूरिजी ने संघ एवं कनकप्रभसूरि को सम्बोधन कर कहा कि श्रीसंघ ने श्रापकी योग्यता पर जो कार्य किया है वह अच्छा ही किया है और आज मैं भी अपनी ओर से आपको आचार्य पद दे देता हूँ। अतः अव आप इन चतुर्विध श्रीसंघ का सुन्दर रीति से संचालन कर जैन धर्म की वृद्धि करो। अहाहा ! जैनाचार्यों का धर्म प्रेम स्नेह और वात्सल्यता कि जिसको देख संघ चकित हो गया और मन ही मन पश्चाताप करने लगा कि हम लोगों की भ्रांति मिथ्या ही थी । खैर समय बहुत हो जाने से सभा शान्ति के साथ विसर्जित हुई। बाद दोनों आचार्यों ने प्रेम के साथ धर्म प्रचार के हित कई प्रकार की योजना तैयार की और उसको शीघ्र ही काम में लेने का निश्चय किया। इधर कोरंटश्रीसंघ ने सृरिजी से चतुर्मास की विनती की और Jain Educa r national Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष ------------- आचार्य श्री ने उसे स्वीकार भी कर लिया । उधर उपकेशपुर के संघ अग्रेसर कोरंटपुर आये थे। और चतुर्मास के लिये साग्रह प्रार्थना की । इस पर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने कनकप्रभसूरि को उपके शपुर चतुर्मास करने का आदेश दे दिया । वस दोनों नगरों के संघ में आज आनन्द एवं हर्ष का पार नहीं था । और दोनों सूरीश्वर ने कई अर्सा तक कोरंटपुर में विराज कर जनता को धर्मोपदेश दिया। तत्पश्चात इधर तो कनकप्रभसूरि ने उपकेशपुर की ओर विहार कर दिया और उधर रत्नप्रभसूरि श्रीमाल पद्मावती चन्दावती आदि अर्बुदाचल के आस-पास के प्रदेश में विहार कर धर्म की प्रभा बढ़ाई वाद कोरंटपुर में चार्तुमास कर दिया। उस जमाने में अजैनों को जैन बनाने की तो एक मशीन ही चल पड़ी थी। जहां पधारते वहाँ थोड़ी बहुत संख्या में नये जैन बना ही डालते और उनके आत्म-कल्याण साधन के निमित्त जैनमन्दिरों की प्रतिष्ठा भी करवाया करते थे कि जिससे आत्म-कल्याण के साथ धर्म पर श्रद्धा भक्ति भी बढ़ती रहे दूसरा धर्म पर अपणायत और गौरव भी रहता है। दोनों सूरियों का दोनों नगरों में चर्तुर्मास हो जाने से श्रीसंघ में धार्मिकप्रेम स्नेह भक्ति एवं श्रद्धा और धर्म का उत्साह खूब ही बढ़ा । जो दोनों संघ में कलिकाल ने अपनी प्रभा का बीज बोया था उसे सत्ययुग में जन्मे हुये सूरिजी ने मूल से नष्ट कर डाला अर्थात् दोनों सूरिजी एवं दोनों नगरों के श्रीसंघ में शान्ति और धर्म-स्नेह बढ़ता ही गया । चर्तुमास समाप्त हो जाने के बाद दोनों सूरियों का विहार हुआ। वे भूभ्रमण कर धर्म प्रचार करने में लग गये। ___ इस प्रकार उपकेशपुर के आस पास विचरने वाले मुनिगण आचार्य रत्नप्रभसूरि की आज्ञा में रहे उन समूह का आगे चल कर उपकेशगच्छ नाम संस्करण हुआ तथा कोरंटपुर के आस पास में बिहार करने वाले श्रमणगण जो आचार्य कनकप्रभसूरि की आज्ञा में रहे आगे चल कर उनके गच्छ का नाम कोरंटगच्छ कहलाया इस तरह से भगवान पार्श्वनाथ की परम्परावृति श्रमणसंघ की दो शाखाए हो गई और वेाद्यवधि विद्यमान है । -राजा उत्पलदेव के बनाये पार्श्वनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा___ राजा उत्पलदेव जो एक पहाड़ी पर मन्दिर बना रहाथा एवं खूब रफ्तार से तैयार होरहा था। उस मंदिर के लिये चतुर शिल्पकारों से मूर्तियाँ भी तैयार करवाई । जब क्रमशः सब काम तैयार होगया तो राजा मंत्री और नागरिक लोगों की प्रतिष्ठा के लिये इतनी उत्कंठा हो आई कि उन्होंने दोनों सूरीश्वरों को आमन्त्रण के लिये अपने निज मनुष्यों को आमन्त्रण पत्रिकायें देकर भेजे और विशेषतया कहलाया कि पूज्यवर ! श्राप की आज्ञानुसार सब कार्य निर्विघ्नता से वैयार हो गया है। अब आप शीघ्र पधार कर इस मदर की प्रतिष्ठा करवा कर हम लोगों को कृतार्थ बनावें इत्यादि ) दोनों' सूरिजी गजा का आमन्त्रण पाकर विहार कर उपकेशपुर पधारे । अतः जनता में खूब ही १–एक पट्टावली में यह प्रतिष्ठा कनकप्रभसूरि के करकमलों से होना लिखा है, पर पट्टावली नंबर ४ में आचार्य रत्नप्रभसूरि और कनकप्रभसूरि एवं दोनों आचार्यों का नाम लिखा हुआ है, संभव है कि दोनों सू रिवर पधारे हों । कारण, राजा उत्पलदेव को जैनधर्म का बोध कराने वाले आचार्यरत्नप्रभसूरि ही थे तो ऐसे समय पर वे नहीं पधारें यह कम जचता है । अतः यह अधिक विश्वसनीय है कि प्रतिष्ठा के समय दोनों सूरिवर पधारे हों । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उत्साह फैल गया । महावीर मंदिर को आज सात वर्ष हो गुजरे थे। आज उपकेशपुर में वही ठाठ लग रहा है। हर्ष के वाजिंत्र चारों ओर बाज रहे हैं। नूतन मूर्तियों की अंज्जन सिलाका और पहाड़ी पार पाश्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा बड़े ही उत्साह के साथ हो गई। इसका समय वंशावलियों में वीर निर्वाण सं० ७७ माप शुक्लापंचमी का बतलाया है। ठीक है इतने बड़े मंदिर के बनने में शायद सात वर्ष तो लग ही गये होंगे। उस मन्दिर के कम्पाउण्ड में देवी सच्चायका का भी एक मन्दिर बना दिया था जिसकी प्रतिष्ठा भी पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा के साथ हो सूरिजी के कर-कमलों से करवा दी थी । देवी सच्चायका उपकेशपुर के जैनों की गौत्र देवी कहलाती थी। जिसका प्रभाव जनता पर खूब ही हुआ था, तथा इसके अनुकरण में और भी कई नये मन्दिरों की वहाँ तथा आसपास के प्रदेश में सूरिजी ने प्रतिष्ठायें करवाई थीं। ____ महाराज उत्पलदेव का बनाया पार्श्वनाथ का मन्दिर विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक तो ठीक हालत में पूजित रहा । पर इस समय उपकेशपुर पर यवनों का एक बड़ा आक्रमण हुआ था और उन्होंने कई मन्दिर मूर्तियों को तोड़ फोड़ कर नष्ट भी कर दिया । उस समय उपकेशपुर में एक वीरभद्र' नाम का साधु महावीर के मंदिर में ठहरा हुआ था और वह था भी विद्याभूषित, पर जब यवनों का आक्रमण होने वाला था तो संघ अप्रेसरों ने महावीरमन्दिर की मूर्ति के रक्षण निमित, मूल गंभीर की वेदी पर एक पत्थर की दीवार बनादी और वहाँ से बहुत से लोग चले भी गये । यवनों ने पहाड़ी के ऊपर के पार्श्वनाथ मन्दिर पर भी धावा बोल दिया। कुछ मूर्तियां खंडित कर डाली । देवी सच्चायका का मन्दिर भी तोड़ डाला । इस बुरी हालत में वहाँ के जैन लोग अपना जान माल लेकर रफूचक्कर हुये । जब जैनेत्तर लोगों ने पार्श्वनाथ के मूल मन्दिर से पार्श्वनाथ की मूर्ति उठा कर टूटे हुये देवी के मन्दिर से देवी की मूर्ति ले जा कर पार्श्वनाथ के मूल मन्दिर में रख दी। इस बात को उस जमाने के सब लोग जानते थे, पर समय व्यतीत होने पर पिछले लोग उस मन्दिर को देवी का मन्दिर ही मानने लग गये । पर वास्तव में यह देवी का नहीं पाश्वनाथ का ही मन्दिर था और यह बात निम्नलिखित प्रमाणों से साबित भी होती है, जैसे कि: १-देवी का मन्दिर हो तो एक ही गम्भारा यानी एक ही देहरी होनी चाहिये, पर इस मन्दिर में तीन देहरी सामने और पास पास में भी देहरियाँ बनी हुई है जो जैन मन्दिर को साबित कर रही हैं। १ सिद्धस रिगुरुभ्राता, वीरदेवःसदापुरे । ओकेशेनिवसन्नासीत्, पाठयन्श्रावकार्मकान् ॥1 न भोगमनविद्याद्य, कलासु सकलासु यः । सिद्धःप्रसिद्धःसर्वत्र, सबभूव ततो गुणैः ।। श्रुत्वा प्रसिद्धं गर्विष्ठः, कोऽपी योगोतदाश्रये । एत्योवाच मुने! वारि, पाय्यतां तृषितोऽस्म्यहम् ॥ वीरदेव मुनौ तत्र, तिष्ठत्येवं प्रभावके । द्विपञ्चाशदधिकेषु, शतेषु द्वादशस्वथ ।। विक्रमाद्वियतीतेषूपकेश नगरे बलम् । तुरुष्काणामा जगाम, पौरलोकः पलायितः ॥ वीरदेवो नभोगामि, विद्याबल वशात् स्थिरः । अभूद् यावत्सुरासन्न, म्लेच्छ सैन्यमुपागमम् ।। ततः श्रीवीर विम्बस्य, पुरः पाषाण बीडकम् । दत्वाद्वारि निस्सार, तावन्म्लेच्छाउपागताः ॥ Jain Educ e rational Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष २-पार्श्वनाथ की मूर्ति जो मूल मन्दिर में थी वह सामने की देहरियों के पीछे एक ताक में विराजमान कर दी,वह आज भी उसी स्थान में विराजमान है जिसका यह फोटू सामने दिया गया है। यदि पार्श्वनाथ का मन्दिर नहीं होता तो वहाँ पार्श्वनाथ की मूर्ति क्यों होती ? ३-इस मन्दिर के पीछे एक उपाश्रय के खण्डहर हैं. टूटे हुये स्थभा पर एक शिलालेख खुदा हुआ है कि किसी श्रावक ने महावीर की रथयात्रार्थ यह उपाश्रय करवाया था। इससे भी पाया जाता है कि उस उपासरे में जैन श्रमण रहते होंगे और महावीर के मन्दिर की रथयात्रा निकलती थी वह इस पार्श्वनाथ के मन्दिर तक आकर रात्रि यहाँ ठहर भजन भक्ति और स्वामिवात्सल्य करके दूसरे दिन वापिस जाती थी। ४-मन्दिर और प्रकोट के बीच देवी के मन्दिर के चिन्ह भी इस समय नजर आ रहे हैं। ५-इस मन्दिर की शिल्पकला भी जैन मन्दिरों से मिलती जुलती है। ६-मारवाड़ में इस मन्दिर के सदृश देवी का कहीं भी मन्दिर नहीं है पर जैन मन्दिर बहुत से नजर आते हैं । अतः यह मन्दिर पार्श्वनाथ का ही था जिसको आज देवी का मंन्दिर कहा जाता है। उपकेशपुर से श्री शत्रुजय तीर्थ का विराट् संघ___एक दिन सूरीश्वरजी महाराज ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वाग जैनतीर्थकी यात्राका उपदेश दिया और पूर्व जमाने में भरत, सागर,राम, पांडवादि एवं नयसेन नरेशों के यात्रार्थ निकाले संघों का बड़ी खूबी से व्याख्यान दिया जिसका प्रभाव इस कदर हुआ कि वहां की जनता को यात्रा करने की एकदम उत्कंठा हो आई । भला राजा उत्पलदेव अपनी वृद्धावस्था में ऐसा सुअवसर कब जाने देने वाले थे। आपने सूरिजी की सम्मति लेकर तीर्थों के संघ की तैयारियां कर ली और सकल श्रीसंघ को आमन्त्रण भी भेज दिया । जिनके पास राजसत्ता हो उनके सामग्री का कहना ही क्या है ? वंशावलियों में इस संघ का वर्णन करते हुए लिखा है कि करीब एक लक्ष भावुक तो संघ के प्रस्थान समयही थे। कई ५००० साधु साध्धियाँ और कई देरासर संघमें साथ थे जिसके नायक थे आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि एवं श्री कनकप्रभसूरि । संघपति पद महाराजा उत्पलदेव को दिया गया था । शुभ मुहूर्त में संघ ने प्रस्थान कर दिया संघ के लिए सब इन्तजाम राजा उत्पल देव की ओर से हा था। जैसे जैसे संघ आगे बढ़ता गया वैस २ नर नारियों की संख्या भी बढ़ती गई । मानो तीर्थ यात्रा के लिए मानव मेदनी उलट गई हो । कारण, इस प्रदेश में पहले ऐसा संघ कभी नहीं निकला था। दूसरे लोगों को महान पवित्र सिद्धगिरी के दर्शन की भी उत्कंठा थी। अतः सिद्धक्षेत्र में संघ पहुँचा तो वहाँ करीब पांच लक्ष जनता संघ में एकत्र हो गई थी । रास्ता में अनेक स्थानों में संघ का शानदार स्वागत भी हुआ था हीरा पन्ना माणक मोतियों से तीर्थ को बधाया कई दिन यात्रा का आनन्द लुटा कइ स्वामिवात्सल्य हुए तीर्थ पर संघमालादि महोत्सव हुए तत्पश्चात् संघ आनन्द से यात्रा कर वापिस लौटकर उपकेशपुर आया। नाशकन्मण्डपे छन्ने, नमस्युत्पतितुंमुनिः । तरवारि करैर्लेच्छः, सआहत्य निपातितः ।। ततोदेवप्रभावेण, सुप्रतिष्ठाविशेषतः । मध्येप्रवेष्टुंजवना, नशेकुर्गर्भवेश्मनः ॥ उ० च० * सं० १२४५ फाल्गुनसुदि ५ अद्येहश्रीमहावीर रथशाला निमित्तं ................ पाल्हियाधति देवचंद बंधू यशधर भार्या सम्पूर्ण श्राविकया आत्म श्रेयाथ समस्त गोष्ठि प्रत्यक्षं च आत्मीया स्वजन वर्ग समतेन आत्मीय गृहं दत्। शिलालेख वा० पू० खं० १ पृष्ठ १९६ लेखांक ८०७ १५ ११३ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बाद राजा उत्पलदेव ने आचार्य रत्नप्रभसूरि से अभ्यर्थना की कि हे प्रभो ! अब मेरी वृद्धावस्था है यह चर्तुमास तो आप कृपा कर यहाँ ही करावें ताकि मैं यथाशक्ति धर्म श्राराधन कर सकू इत्यादि । सूरिजी ने अपने परम भक्त राजा उत्पलदेवादि की विनती स्वीकार कर वह चर्तुमास उपदेशपुर में ही करने का निश्चय कर लिया। इस पर उपकेशपुर नगर के भक्तगण का उत्साह खूब बढ़ गया और वे लोग अपना आत्म-कल्याण करने में तत्पर हो गये । वास्तव में सूरिजी का चर्तुमास महाराजा उत्पलदेव के धर्माराधन के लिए बड़ा ही लाभकारी हुआ और दूसरे लोगों ने भी यथाशक्ति धर्म का आराधन किया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य और आत्मकल्याण के विषय पर होता था । अतः कई नरनारियों ने सूरिजी के पास भगवती जैनदीक्षा को भी स्वीकार कर स्वकल्याण के साथ पर कल्याण करने में तत्पर हो गये । और कई भावुकों के बनाये हुए मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा करवा कर जैनधर्म की खूब प्रभावना की । एक समय अवसर पाकर राजा उत्पलदेव और मंत्री उहड़ ने सूरीश्वरजी से प्रार्थना की कि हे प्रभो ! यों तो आपकी कृपा से हम लोगोंने यथाशक्ति थोड़ा बहुत धर्मकार्य किया ही है पर एक खास बात हमारे दिल में यह है कि हमारे यहां श्रपश्री के कर कमलों से किसी योग्य मुनिराज को आचार्य पद दिया जाय तो उसका हम लोग महोत्सव करके अपने जीवन को कृतार्थ बनायें । कारण, इस प्रान्त में यह कार्य अभी नहीं हुआ है। अतः सब लोगों की साग्रह उत्कंठा है। दूसरे आपश्रीजी की अवस्था भी वृद्ध होगई है। अतः हमारी इस प्रार्थना को स्वीकार कर हमारे उत्साह को बढ़ायें। सूरिजी ने कहा कि आपकी भावना बहुत अच्छी है, फिरभी मैं इसका विचार करूंगा। इस पर राजाने कहा इस बात के लिए आपको क्या विचार करना है? उपाध्याय वीरधवल आपके पद प्रतिष्ठित होने में सर्व गुण सम्पन्न हैं । अतः आप इनको आचार्य बना दें इत्यादि। राजा मंत्री और श्रीसंघ का अति आग्रह होने से सूरिजी ने देवीसत्यका की सम्मति ली पर देवी भी ऐसे सुचवसर को हाथों से कब जाने देने वाली थी । उसने सम्मति दे दी । अतः सूरिजी ने वीरधवल को सूरिपद देने का निश्चय प्रगट कर दिया। फिर तो था ही क्या ? राजा ने बड़े उत्साह से पट्ट महोत्सव की तैयारियाँ करनी शुरू कर दीं। केवल उपकेशपुर में ही नहीं पर उस प्रान्त में खूब चहल पहल मच गई। जिनमंदिरों में ठाई महोत्सव शुरु हो गये। कहा जाता है कि इस महोत्सव में राजा उत्पलदेव ने सवा करोड़ द्रव्य व्यय कर सुर्लभ बोधित्व उपार्जन किया था शुभ मुहूर्त में और स्थिर लग्न में आचार्य श्री रत्नप्रभसूरिने उपाध्याय वीरधवल को आचार्य पद से विभूषित बनाये, और आपका नान देवी सत्यका की सम्मति से यक्ष देवसूरि रख दिया साथ में ११ मुनियों को उपाध्याय, १५ मुनियों को वाचनाचार्य और १५ मुनियों को पंडित पड़ भी दिया था । उपकेशपुर में सूरिपद का यह महोत्सव पहिले पहल ही हुआ था । अतः इसका जनता पर खूब प्रभाव हुआ इतना ही क्यों पर कई ३७ पुरुष और ६० महिलाओं ने सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार की थी। सूरीश्वरजी के उपकेशपुर में चतुर्मास करने से जैनधर्म की खूब उन्नति एवं प्रभावना हुई । सद्गुरुपद नित बंदोरे भविका । चर्चित होत आनंदोरे || भविका० स० ॥ राजगृहि सर्व संघ मिलकर | विनति पत्र पठावे । बहुत से श्रीसंघ सामा आवे । गुरुपद शीश झुकावेरे || भविका० स० ॥ १ ॥ करजोरी पुन विनति करते है। संघ उपद्रव टालो |यक्ष मानभद्र नित्य सतावे | ताको विघन निवारोरे ॥ 'श्री रलप्रभसूरि की बड़ी पूजा " Jain Educnternational Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्षे मगधदेश के अन्तर्गत राजगृह नगर में एक यक्ष ने ऐसा उत्पात मचा रखा था कि जिसके उपद्रव से सम्पूर्ण नगर निवासी लोग महान दुःखी हो गये, अर्थात् नगर में त्राहि त्राहि मच गई । इस संकट के लिए नगर निवालियों ने बहुत उपचार किये पर वे सब के सब निष्फल ही रहे ।। मरुधर के कई मनुष्य व्यापारार्थ मगध में गये थे, वहां के लोगों ने मरुधर निवासियों के मुह से श्राचार्य रत्नप्रभसूरि की ध्वल कीर्ति एवं अतिशय प्रभाव सुना और उनकी इच्छा रत्नप्रभसूरि को मगध में लाने की हुई, अतः कई भक्तजन मगध से चल कर मरुधर में आये और प्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी के दर्शन कर प्रसन्न हुए तदनन्तर उन मगधों ने अपनी दुःख गाथा सुनाई और श्रीसंघ का आमन्त्रण पत्र सूरीश्वर जी को दिया और साथ में पूर्व में पधारने की भी साग्रह प्रार्थना की । इस पर सूरीश्वरजी ने बहुत कुछ विचार किया पर आपश्री तो उस समय एक ऐसे ध्यान के कार्य में लगे हुए थे कि उन विशेष कारणों से पधार नहीं सके, परन्तु आपके हृदय में संघ संकट दूर करने की भावना अवश्य थी। अतः आपश्री ने अपने योग्य शिष्य यक्षदेवसूरि को आदेश दे दिया कि राजगृह श्रीसंघ की इतनी आग्रह है तो तुम जाओ और श्री संघ के संकट को दूर करो इत्यादि। यद्यपि यक्षदेवसूरि की इच्छा सूरीश्वरजी की सेवा छोड़ने की नहीं थी, तथापि सूरीश्वरजी की आज्ञा शिरोधार्य भी करना जरूरी बात थी। अतः गुरु आदेश को शिरोधार्य कर लिया पर उस समय कोरंटपुर का संघ भी सूरिजी से विनती करने आया हुआ था और उनकी अत्याग्रह देखकर सूरीश्वरजी ने यक्षदेवसूरिको आज्ञा दे दी कि तुम यहाँ से कोरंटपुर होकर ही पूर्व में जाना । अतः सूरिजी की आज्ञानुसार उपकेशपुर से १०० साधुओं को साथ लेकर यक्षदेवसूरि विहार कर पहिले कोरंटपुर पधारे। अतः कोरंटसंघ में खूब हर्ष एवं उत्साह फैल गया । सूरि जी महाराज ने जिस कार्य के उद्देश्य से पूर्व की ओर पधारने का इरादा किया था वह आपकी परीक्षा तो पहले ही होने वाली थी कि कोरंटपुर में आपके किसी लघु शिष्य ने पात्र प्रक्षालन का जल बिना उपयोग से एक यक्ष की मूर्ति पर डाल दिया । बस, यक्ष क्रोधित हो उस साधु को पागल सा बना दिया । यह घटना सूरिजा ने सुनी तो साधु को उपालम्ब दिया और उस यज्ञ को प्रत्यक्ष में बुलाकर ऐसा समझाया कि वह सूरिजी महाराज का परम भक्त बनगया । खैर सूरिजी महाराज ने कुछ अर्सा तक कोरंटपुर में स्थिरता कर वहां से विहार किया तो शौरीपुर मथुरा की यात्रा करते हुए पूर्व प्रान्त में पदार्पण किया। क्रमशः वे विहार करते हुए मगध प्रान्त एवं राजगृह नगर में पधार गये समय के अभाव उस रोज श्राप नगर के बाहर स्मशानों में ही ठहर गये । नगर में सवत्र यह बात फैल गई थी कि मरुधर कान्त से एक जबर्दस्त जैन साधु आया है अतः अब अपना सब दुःख संकट दूर हो जायगा। १-मूरिः कोरंटकपूरे, कदाऽपिविहरन् ययौ। मणिभद्राख्ययक्षस्य, समनिस्थितिमादधे ॥ तच्छिष्योलघुकाकोऽपि, यक्षमूनि मोख्यतः। बालभावाचंचलत्वात् पात्रक्षालनवार्यधात् ॥ ततः प्रकुपितोयक्षः, शिष्यं तं पहिलंव्यधात् । सरयोज्ञानतोज्ञात्वा, निग्रहं साग्रहं व्यधुः ।। निगृहीतः स आचायः, सेवकत्वं प्रपन्नवान् । यक्षाऽऽराद्ध पदस्यास्य, सान्वयं नामचाभवत् ॥ २-शौरिपुय्यां च मथुरायां. विहरन्तो मुनीश्वराः । अंग बंग कलिगेषु, मगधेषु तथैव च ॥ __पताकोत्सर्पितातैस्तु जैनधर्मस्य शाश्वती । धर्मात्मानोहि कुर्वन्ति, धर्मकृतंनिरन्तरम् ।। ११८ www.jandibrary.org Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास _रात्रि समय सूरिजी ने स्मशान में ध्यान लगा दिया था। उसी समय यक्षराज ने मारे गुस्से के स्मशान में आकर इतना उपद्रव करना शुरु किया कि कायर मनुष्य का कलेजा फट जाय या वह जान लेकर वहां से भाग जाय । पर सूरिजी को तो इस बात की परवाह ही नहीं थी और वह यक्ष भी सूरिजी का एक बाल भी बाँका नहीं कर सका। तत्पश्चात् सूरिजी ने 'नमीउणं' महा मंत्र का जाप किया जिससे यक्ष का कोप शान्त हुश्रा और उसने सूरिजी के पास आकर शिर झुका दिया और सूरिजी उस यक्ष को उपदेश देने लगे कि हे यक्षराज ! पूर्व जन्म में तो तुमने कुछ अच्छे पुन्यों का संचय किया था कि इस भव में तुमको देवयोनि मिली है पर इस देव योनि में इस प्रकार का घोर पातक कर रहा है इसका फल सिवाय नरक के क्या हो सकेगा इत्यादि। सूरिजी के उपदेश से यक्ष को थोड़ा बहुत बोध तो हुआ पर वह था गुस्से में अतः बोला कि हे महामुनि ! इस नगर के लोग बड़े ही नालायक एवं दुष्ट हैं। इन लोगों ने मेरी बहुत आशातना की है। इतना ही नहीं पर मेरी मूर्ति को तोड़फोड़कर टुकड़े २ कर दिये हैं तो क्या मैं अपना बदला नहीं लूंगा ? सूरिजी ने कहा, हे यक्षराज ! अगर आपका किसी ने अपराध भी किया हो तो उसका बदला लेने में आपकी बड़ाई या महत्त्व नहीं है पर उदारता के साथ उस अपराध को क्षमा करने में ही बड़प्पन है यह तो नीच पुरुषों का काम है कि अपराध का बदला लेना, दूसरे आशातना तो एक दो जीवों ने की होगी और उसका दंड सब नगर को दिया जाय यह विवेकी पुरुषों का काम नहीं है अतः आप शान्ति रक्खें । सूरिजी के इन वचनों से यक्ष शान्त होकर कहने लगा कि गुरु महाराज आपके उपदेश ने मेरे पर बहुत प्रभाव डाला है और आज से मैं आपको अपना गुरु ही समझता हूँ ! मैं अब आपकी आज्ञानुसार इस नगर के लोगों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं दूंगा पर मेरी मूति वापिस बननी चाहिये । सूरिजी ने यक्ष की बात स्वीकार करली और कहा ठीक है यक्षराज ! आपकी मूर्ति बन जायगी । अतः यक्ष सूरिजी का भक्त बन गया और वन्दन नमस्कार कर कहा कि पूज्यवर ! आप जब मुझे याद करेंगे मैं सेवा में हाजिर होऊंगा । इतना कह कर चला गया। सुबह सहस्रकिरणवाला सूर्य प्रकाशमान होते ही सूरिजी महाराज नगर के नजदीक उद्यान में पधार गये उधर नगर के सब लोग सूरिजी को वंदन करने को आये। सूरिजी ने मधुर ध्वनि से भवतारक देशना दी । व्याख्यान के अन्त में जैन जैनेतर लोगों ने अपनी दुःख कथा कह सुनाई और उसको मिटाने की प्रार्थना की । सूरिजी ने कहा कि किसी भी देवस्थान की आशातना करना इस लोक और परलोक में अहित का ही कारण है अतः तुम्हारे नगर से यक्षदेव की आशातना हुई है। यद्यपि देव मिथ्यात्वी था पर अब वह समदृष्टि बन गया है। अतः आप लोग उस यज्ञ की मूर्ति पूर्ववत स्थापित करो तुम्हारा सब संकट मिट जायगा। भक्त लोगों ने स्वीकार कर लिया । सूरिजी महाराज के इस चमत्कार को देखकर नगर के लोग जैनधर्म की भूरिभूरि प्रशंसा करने लगे। साथ में सूरिजी का भी महान उपकार समझकर कई जैनेतर लोगों ने जैनधर्म को भी स्वीकार कर लिया । अतः सूरिजी के पधारने से जैनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई। नगर में जहाँ देखो वहाँ जैनधर्म का ही यशोगान हो रहा था। सूरिजी ने कई दिन तो गजगृह नगर में ठहरकर जनता को धार्मिक उपदेश सुनाया, बाद आस पास के प्रदेश में विहार किया तथा वहाँ के तीर्थों की यात्रा कर अपनी आत्मा को पवित्र बनाई। श्रीसंघ के अत्याग्रह से वह चर्तुमास तो राजगृह नगर में ही व्यतीत किया। Jain Edigenternational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष पट्टावली नं ५ में लिखा है कि यक्षदेवसूरि ने पूर्व देश में बिहार कर कई सवा लक्ष अजैनों को जैन बनाये और ३०० मुमुक्षुत्रों को जैनधर्म की दीक्षा दी फिर भी आपकी इच्छा उस प्रान्त में विचरने की थी परन्तु आपको पुनः आचार्यश्री की सेवा में पधारने की बहुत जल्दी थी । अतः वहाँ से विहार कर जल्दी ही गुरू सेवा में उपकेशपुर पहुँच गये और अपने विहार का सब हाल सूरीश्वरजी की सेवा में निवेदन कर दिया जिसको सुनकर श्राचार्य्यश्री बहुत प्रसन्न हुये, कहा भी है कि 'कमाऊ बेटोकिसको प्यारो नहीं लागे'। आचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज इधर अपना योगकार्य सफल होने के बाद राजपूताना एवं मरुधर प्रान्त में नये नये श्रजैनों को जैन बना बना कर जैनधर्म का खूब जोरों से प्रचार कर रहे थे और अनेक नये २ मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराके जैनधर्म की नींव को मजबूत बना रहे थे। उधर पूर्व बंगाल और मगधदेश में श्राचार्य जम्बूस्वामी की अध्यक्षता में हजारों साधु जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे । आचार्य जम्बूस्वामी को भगवान महावीर के निर्वाण के बाद २० वर्षों में केवल ज्ञान हुआ और ४४ वर्ष तक आपने केवल ज्ञान में धर्मोपदेश दिया और वीर निर्वाण संवत् ६४ में आपकी मोक्ष हुई। आपके पश्चात् श्रपके पट्टधर प्रभवस्वामी हुये । आपका चरित्र भी महाप्रभावशाली था, जिसको मैं यहां संक्षेप में लिखे देता हूँ । भगवान महावीर प्रभु के - पहले पट्टधर गणधर सौधर्म, दूसरे पट्टधर आर्यजम्बु हुए जिनका जीवन पहले पढ़ चुके हैं अब तीसरे पट्ट पर श्राचार्य श्रीप्रभवस्वामी बड़े ही प्रतिभाशाली हुये । इनकी जीवनी महत्वपूर्ण - रहस्यमयी है । श्रापका जन्म विन्ध्याचल पर्वत के समीपवर्ती जयपुर नगर के कात्यायण गोत्रिय नरेश जयसेन के घर हुआ था | आपका लघु भाई विनयधर था। जिसका स्वभाव राजसी था। छोटे भाई पर पिता विशेष प्रसन्न रहता था । विनयधर भी चतुर और राजनीति विशारद था अतएव जय सेन ने अपना उत्तराधिकारी विनयधर को ही बनाया । यह बात प्रभव को अनुचित प्रतीत हुई। प्रभव इस बात को सहन न कर सका । अतः वह अपने भाई से असहयोग कर नगर के बाहर चला गया। जाता जाता एक अटवी में पहुँच गया । वहां क्या देखता है कि उस स्थान पर बहुत से लश्कर एकत्रित हैं। वह उनके पास गया और उन्हें अपना परिचय इस ढंग से दिया कि सारे दस्युगण चाहने लगे कि यदि यह रूठा राजकुमार हमारा नायक हो जाय तो हम निर्भय होकर चोरियां करेंगे। बना भी ऐसा ही कि प्रभव उस पल्ली के ४९९ चोरों का नायक बन कर उसने जनता को हर प्रकार से लूटना प्रारम्भ किया। देश भर में त्राहि त्राहि मच गई। उस देश राजा ने इन चोरों को पकड़ने का पूर्ण प्रयत्न किया पर एक भी चोर हाथ नहीं लगा । प्रभव ने चोरों को ऐसी युक्तियां बता दीं कि कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सकता था । प्रभव की प्रकृति बड़ी उम्र थी। जिस कार्य में वह हाथ डालता उसे सम्यक् प्रकार से सम्पादित कर ही लेता था । एक बार वह श्रेष्टि महल में गया और वहां जम्बुकुमार का उपदेश सुना । इस वृत्ति को तिलांजलि दे उसने अपने ४९ चोरों सहित सौधर्माचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की। उसने उम्र प्रकृत्ति के कारण शास्त्रों का ज्ञान बहुत शीघ्र प्राप्त कर लिया। उसका कार्य इतना श्रेष्ठ हुआ कि वह अन्त में वीरात् ६४ संवत् में जम्बुमुनि के पीछे आचार्य पद पर आरूढ़ हुआ । जिस प्रकार प्रभव संसार में लूटने खसोटने में शूरवीर थे उसी भांति दीक्षित होने पर कर्म काटने में पूर्ण योद्धा थे । किसी ने ठीक ही तो कहा है “कर्मेशूरा ते धर्मेशूरा" । प्रभव मुनि चौरह पूर्वधरज्ञानी और सकल शास्त्र पारंगत । आपने जैनधर्म का खूब अभ्युदय किया । श्रापने अपने ज्ञावर्ती सहस्रों ११ry.org. www.ji Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास साधुओं का संगठन एवं संचालन भी बड़ी खूबी से किया। हजारों नरनारियों को दीक्षित कर आपने जैनशासन के उत्थान में पूरा हाथ बँटाया । आपने अन्तिम अवस्थामें श्रुतज्ञान द्वारा उपयोग लगा कर जानना चाहा कि मैं अपने पीछे आचार्यपद से किसको विभूषित करू ? पर कोई साधु दृष्टिगोचर नहीं हुआ तब आपने श्रावकवर्ग की ओर निरीक्षण किया तो कोई होनहार पुरुष नहीं जँचा । आपने आश्चर्य किया कि मेरे सम्मुख आज करोड़ों जैनी हैं क्या कोई भी आचार्यपद के योग्य नहीं है ? तो अब क्या किया जाय ? तब आपने जैनेतर लोगों की ओर दृष्टिपात किया तो आपने समस्या हल होने की सम्भावना अनुभव की । आपको ज्ञान हुआ कि राजगृह नगर का रहने वाला यक्षगौत्रिय यजुर्वेदीय यज्ञारंभ करते हुए अप्रेश्वरों में शय्यंभव भट्ट इस पद के योग्य हो सकता है । इसके अतिरिक्त और कोई नहीं है । तब आपने अपने साधुओं को उस स्थान की ओर भेज कर यह संदेश कहलाया कि वहां यज्ञ करने वालों को जाकर बार २ कहो कि "अहो कष्टं महोकष्टं तवं न ज्ञायते परम्" । इस सूत्र को बार बार उच्चारण करो तथा वापिस लौट श्रश्र । श्राचार्यश्री की आज्ञानुसार मुनिगरण उस शान्त स्थान की ओर गये और शय्यंभवभट्ट के समक्ष जाकर उपरोक्त वाक्य की कई बार पुनरावृति की । भवभट्ट ने विचार किया कि यह निरापेक्षी जैनमुनि असत्य नहीं बोलते। क्या मेरा श्रम सब व्यर्थ है ? क्या सचमुच मैं प्रतिकूल मार्ग का पथिक हूँ ? सत्यासत्य का निर्णय करने के हित वह अपने गुरु के पास खम लेकर गया और पूछा कि आप सत्य सत्य सप्रमाण कहिये कि इस क्रियाकाण्ड का क्या फल है ? यदि तुमने संतोषप्रद उत्तर नहीं दिया तो इसी तलवार से तुम्हारी खबर लूंगा । गुरू ने देखा कि अब श्रसत्य कहने से जान जोखों में है तो सत्य हाल कह दिया कि वत्स ! इस यज्ञ के स्तम्भ के नीचे जैनतीर्थकर शान्तिनाथ स्वामी की मूर्ति है और इसी मूर्ति के अतिशय से ही अपना यज्ञ का कार्य चल रहा है । अन्यथा अपना इतना प्रभाव कभी नहीं पड़ सकता था। यह समाचार सुनते ही शय्यंभवभट्ट ने यज्ञ स्तम्भ को हटा कर शांन्तिनाथ भगवान की मूर्ति निकाल कर दर्शन किये। दर्शन करते ही उसे प्रतिबोध हुआ । मिथ्या गुरू को त्याग कर आपने सम्यक् दर्शन का अवलम्बन लिया, यज्ञ यागादि की निष्ठुर क्रियाओं से दूर होकर आपका मन शुद्ध जैनधर्म के चरित्र की ओर झुक गया । आपने प्रभव आचार्य के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेकर आपने गुरुकुल में रह चौदहपूर्व का अध्ययन एवं मनन किया । श्राचार्य प्रभवसूरि आचार्यपद का भार शय्यंभवमुनि को दे निवृत्ति मार्ग पर चलते हुये व्यवहारगिरि पर्वत पर अनशन लेकर वीरात् ७५ संवत् को स्वयं स्वर्गधाम पधारे। आपके पट्ट पर आचार्य शय्यंभवाचार्य हुए, अतः आपका सक्षिप्त परिचय भी यहां करवा दिया जाता है। भगवान महावीर के चौथे पट्ट पर शय्यंभवसूरि बड़े ओजस्वी एवं निस्पृह हुए। जिस समय आपने यज्ञ आदि को त्याग कर प्रभवश्राचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की थी उस समय आपकी धर्मपत्नी गर्भवती थी | इस गर्भ से मतक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब यह बालक आठ वर्ष का हुआ तो सहपाठियों द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर अपनी माता को आकर पूछने लगा कि मेरे पिताजी कहाँ हैं ? माता ने अपने पुत्र मनको उत्तर दिया कि बेटा "तेरा पिता तो जैन साधु है, जब तू मेरे गर्भ में था तब उन्होंने एक जैनाचार्य के पास दीक्षा ली थी। आज वे मुनि राजा महाराजाओं से पूजे जाते हैं । तेरे पिता अपनी योग्यता से वहाँ भी आज आचार्य पद पर सुशोभित हैं "। Jain Edia Prnternational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ वि० पू० ४०० वर्ष ___ जब माता से पुत्र ने यह बातें सुनी तो उसकी भी इच्छा हुई कि एक बार चलकर देख तो आऊं कि वे आचार्य कैसे हैं ? विचार करते २ उपने मिलने के लिए प्रस्थान करना निश्चय किया। उसने सोचा कि कदाचित् माताजी मेरे प्रस्ताव से सहमत न हों अतएव बिना पूछे चुपचाप वहां से भाग जाना ही ठीक है। 'मनक' अन्त में घर से बाहर निकल गया और शय्यंभव आचार्य का समाचार पूछता पूछता चम्पानगर में पहुँच गया । नगर के द्वार पर यह बैठा था कि उसने आचार्य श्री को प्रवेश करते हुये देखा । उसने उन्हें जैनमुनि समझ कर पूछा कि क्या आपको ज्ञात है कि मेरे पिता शय्यंभव, जो आज कल आपके आचार्य कहलाते हैं इस नगर में हैं ? आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि “सो तो ठीक, पर तुम्हें उनसे अब क्या सरोकार है । क्या तुम्हें पिता के पास दीक्षा लेना है ?" मनक ने उत्तर दिया, "जी हाँ, मेरी इच्छा है कि मैं भी दीक्षा लूँ"। आचार्य श्री ने कहा कि यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो चलो मेरे साथ । मैं वही हूँ। तुम्हें दीक्षा दूंगा। मनक की दीक्षा समारोह के साथ हुई । आचार्य श्री ने विचार किया कि इस मनक मुनि को कुछ अध्ययन कराना चाहिये क्योंकि श्रुतज्ञान के योग से ज्ञात हुआ कि इसकी श्रायु स्वल्प है। आचार्य श्री जो शिक्षा प्रणाली से पूर्ण परिचित थे इस मुनि के पाठ्यक्रम की नई योजना करने लगे। पाठ्यक्रम बनाने के हेतु से पूर्वाग उद्धृत कर बैकाल के अन्दर दशाध्ययन सङ्कलित कर उसका नाम दशवकालिक सूत्र रख दिया और मनक मुनि ने इस सूत्र का अध्ययन कर केवल अर्द्ध वर्ष में ही आराविपद प्राप्त कर स्वर्ग की ओर स्थान किया । जिस समय मनक मुनि का देहान्त हुआ उस समय आचार्य श्री की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई । इन प्रेमाश्रुओं से अन्य मुनियों ने उदासीनता समझ कर आचार्यश्री से प्रश्न किया कि आपकी इस दशा का क्या कारण है ? आचार्य श्री ने उत्तर दिया कि मनक मेरा सांसारिक नाते से पुत्र और धार्मिक नाते से लघु शिष्य था । ऐसी छोटी उम्र में काल कर जाने के कारण मुझे खेद है पर साथ में मेरे ही हाथों से इसने चारित्र आराधन कर उच्च पद को प्राप्त किया है इसी का मुझे हर्ष है। यशोभद्र आदि मुनियों ने पूछा, "भगवन् ! आपने यह बात हमें प्रथम क्यों नहीं प्रकाशित की ? अन्यथा हम इसकी वय्यावच्च का पूर्ण लाभ उठाते।" श्राचार्य श्री ने उत्तर दिया कि यदि यह नाता मैं पहिले बता देता तो कदाचित इसके अध्ययन में व ध्यान में कुछ खामी रह जाती ! इसी कारण से मैंने तुम्हें यह बात नहीं कहो । फिर आचार्य श्री ने विचार किया कि उस नूतन सूत्र दशवकालिक को पुनः पूर्वाग तक संहारण करूँ। इस पर चतुर्विध संघ ने अनुरोध किया कि भगवन् ! इस पंचमकाल में ऐसे सूत्र की नितान्त आवश्यकता है अतएव आप इस सूत्र को ऐसा ही रहने दीजिये ताकि अल्प बुद्धि वाले भी इसका आराधन कर अपना कल्याण करने में समर्थ होवें । आचार्य श्री ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर वह सूत्र उसी रूप में रहने दिया। इसी सूत्र के प्रताप से आज साधु साध्वियां अपना कल्याण कर रही हैं और इस बारे के अन्त तक कई प्राणी अपना उद्धार करेंगे। आचार्यश्री शय्यंभवसूरि बड़े ही उपकारी हुये । धर्म का प्रचार अपने प्रबल प्रयत्न से करते रहे । आचार्य रत्नप्रभसूरि ने इस भूमि पर जन्म लेकर अपने कल्याण के साथ अनेक भव्यों का कल्याण किया। इतना ही क्यों पर महाजन संघ रूपी एक कल्प वृक्ष लगाकर उनकी वंश परम्परा हजारों वर्षों तक चिरस्थायी बना दी । आपने अपने जीवन में १५०० साधु ३००० साध्वियां और १४:०००० घर वाले www.११९ary.org Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्षे । [ भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास आचार पतित क्षत्रियों को जैन बना कर जैनशासन को खूब उन्नति की । और मारवाड़ जैसे प्रान्त में अनेक जैन मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैन धर्म की नींव सुदृढ़ बनाकर धर्म को चिरस्थायी बना दिया। श्राचार्य रत्नप्रभसूरि एवं आपके साधुओं का विशेष विहार उपकेशपुर एवं उसके आस पास के प्रदेश में होने से आगे चलकर उनके समूह एवं सम्प्रदाय का नाम उपकेशगच्छ हुआ और आचार्य कनकप्रभसूरि के श्रमणों का विहार प्रायः कोरंटपुर एवं उसके आस पास के प्रदेश में होने से वह समूह कोरंटगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ___ कहने की आवश्यकता नहीं है कि जैन समाज पर इन आचार्यों का कितना जबर्दस्त उपकार है कि जिन्होंने मांस मदिग आदि दुर्व्यसन सेवन से नरक के अभिमुख हुए जीवों का दुव्र्यसन छुड़ा कर जैनी बना स्वर्ग मोक्ष के अधिकारी बनाये । यदि इस उपकार को हम लोग क्षण भर भी भूल जाय तो हमारे जैसा कृतघ्नी पापी जगत में कौन होगा ? अतः उन पूज्यवर आचार्यों का प्रति समय उपकार समझ स्मरण करना हमारा सबसे प्रथम कर्तव्य है । लोक युक्ति है किगुरु गोविन्द दोनों खड़े, किस के लागू पाय । बलिहारी गुरु देव की सो, मार्ग दिया बताय ॥ ___ मैं इन परोपकारी सूरीश्वर के सम्पूर्ण जीवन से न तो इतना वाकिफ हूँ और न इस लोहे की तुच्छ लेखनी से लिख ही सकता हूँ,तथापि जितना मसाला मुझे मिला है वह एक बालकीड़ा की तौर लिखा है । फिर भी मैं उम्मेद रखता हूँ कि मेरा यह लिखा हुआ संक्षिप्त जीवन भी जैनसमाज के लिए परोपकारी होगा। आचार्य रत्नप्रभसूरि का जन्म महावीर निर्वाण का वर्ष था आपने ४० वर्ष की उम्र में राजपाट सुख सम्पति एवं कुटुम्ब परिवार को त्यागन करके आचार्य स्वयंप्रभसूरि के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा को ग्रहण किया तत्पश्चात् १२ वर्ष पर्यंत ज्ञान ध्यान एवं प्राचार्य पद योग्य सर्व गुण संपन्न होकर वीरात् ५. वें वर्ष आचार्य पद पर आरूढ़ हुए और अठारह वर्षों के बाद उपकेशपुर नगर में पधार कर आचार पतित क्षत्रियों को जैन धर्म की दीक्षा शिक्षा देकर 'महाजन संघ' की स्थापना करी तथा १४ वर्ष तक उसकी खूब वृद्धि करी । अन्त में १५०० साधु ३००० साध्वियां और असंख्य भक्त गणों के साथ भवतारक परम पुनीत तीर्थाधिराजश्री शत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर वहां चतुर्विध श्री संघ की विद्यमानता में अनसन एवं समाधि के साथ जैनधर्म की आराधना पूर्वक इस नाशवान शरीर का त्याग कर वीरात् ८४ वर्ष माघशुक्ल पूर्णिमा के दिन बारहवाँ अच्युत स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। अतः ओसवाल समाज का यह सब से पहिला कर्त्तव्य है कि वे प्रति वर्ष श्रावण कृष्ण चतुर्दशी के दिन श्रोसवाल जाति का जन्म दिन का महोत्सव और माघ शुक्ल पूर्णिमा के दिन बडी २ सभायें करके आचार्यरत्नप्रभ सूरि की जयन्ति मनाकर यह शुभ सदेश प्रत्येक प्राणी के हृदय तक पहुँचाकर कृतार्थ बने । षष्टम पट्टधर जो हुए आचार्य रत्न सुनाम था। विद्याधरों के अग्र थे उद्धार उनका काम था॥ उपकेशपुर में पहुंच नृपति रविवंशी उपलदेव को । दीक्षित किया मंत्री ऊहड़ सह लक्ष क्षत्री वीर को॥ उपकेशवंशी ओसवंशी ही आज ओसवाल है । आचार्य गुण कैसे करे उनका बहुत उपकार है। ॥ इति भगवान पार्श्वनाथ के छटे पट्टधर आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि का संक्षिप्त जीवन ॥ Jain Eduronternational Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभरि का जीवन ] सिंहावलोकन १ - वीर निर्वाण संवत् एक में आचार्य रत्नप्रभसूरि का विद्याधर वंश में जन्म | २ - वी० नि० सं० ४० में आचार्य स्वयंप्रभसूरि के हाथों से रत्नप्रभसूरि की दीक्षा । ३ - वी० नि० सं० ५२ में आचार्यश्री स्वयंप्रभसूरि के करकमलों से आचार्य रत्नप्रभसूरि का श्राचार्य पद प्रतिष्ठत होना । ४ - वी० नि० सं. ७० के वैशाख मास में श्राचार्य रत्नप्रभसूरि का ५०० मुनियों के साथ में उपशपुर पधारना | ५ - वी० नि० सं०७० श्रावण कृष्ण चतुर्दशी के शुभदिन में रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर के सूर्यवंशी राजाउत्पलदेव चान्द्रवंशी मंत्री ऊहड़ और नागरिक क्षत्रियों को कुव्यसन छुड़ाकर जैनधर्म में दीक्षित करना । [वि० पू० पू० ४०० वर्ष ६ -- वी० नि० सं० ७० श्रावण शुद्ध प्रतिपदा के शुभदिन में उन नूतन जैनों की 'महाजन संघ' रूपी एक सुदृढ़ संस्था कायम करना । ७ - वी. नि. सं. : ७० माघशुक्ल पंचमी के दिन आचार्य रत्नप्रभसूरि के कर कमलों से उपकेशपुर और करंटपुर नगर में महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा का होना । ८ - वी. नि. सं. ७० में कोरंटपुर के श्रीसंघ द्वारा कनकप्रभ को श्राचार्य पद होना । ९ - वी. नि. सं. ७७ में उपकेशपुर के महाराजा उत्पलदेव के बनवाये पहाड़ी पर के प्रभु पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा आचार्य रत्नप्रभसूरि एवं कनकप्रभसूरि के कर कमलों से होना । १० - वी. नि. सं. ८२ में आचार्य रत्नप्रभसूरि के कर कमलों से वीरधवलोपाध्याय को श्राचार्य पद से विभूषित कर आपका नाम यक्षदेव सूरि रखना और श्राचार्य रत्नप्रभसूरिजी अन्तिम शलेखनायोग एवं ध्यान में लग जाना । यह पहले जमाना की पद्धति थी कि आचार्य श्री अपने गच्छ का भार किसी योग्य मुनि को देकर, आप विशेष निर्वृति में लग जाते थे तदानुसार आचार्य रत्नप्रभसूरि ने भी किया था । ११ - वी. नि. सं. ८३ में आचार्य यक्षदेवसूरि ने राजगृह नगर में उपद्रव करते हुये यक्ष को प्रतिबोध करके वहाँ चतुर्मास किया तथा पूर्व देश की यात्रा कर सवा लक्ष नये जैन तथा ३०० साधु साध्वियों को दीक्षा देकर पुनः उपकेशपुर पधारना । १२-- श्राचार्य रत्नप्रभसूरि का अपने शेष जीवन में १४००००० नये जैन श्रावक श्राविकाओं तथा १५०० साधु ३००० साध्वियों को जैनधर्म की दीक्षा देना । १३- वी. नि सं. ८४ माघशुल्क पूर्णिमा के दिन श्री सिद्धगिरि पर श्राचार्य यक्षदेवसूरि को गच्छ नात्रक पदार्पण कर चतुविध श्रीसंघ की मोजुदगी में अनशनपूर्वक आचार्य रत्नप्रभसूरिका स्वर्गवास होना । १४ - श्रीसिद्धगिरी पर श्रीसंघ की ओर से आचार्य रत्नप्रभसूरि के स्मृति के लिये एक विशाल स्तूप करवाना । দিস Jain Education Intational www.jatthe brary.org १२१ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष वर्ष ] आणा रहा हूँ । शान्तिचंद्र -आजकल आप क्या लिख रहे हैं ? कान्तिचंद्र — मैं प्राचीन इतिहास लिख रहा हूँ । शान्ति- - वह किस विषय का है ? शान्ति- आपका कहना थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाय तो भी इतिहास के अनुसंधान वे बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं । अतः वह आदरणीय हैं । कान्ति - क्या पूछते हो, विषय बहुत जटिल है । शान्ति - आखिर वह है क्या ? कान्ति - इतिहास की सामग्री शिलालेख, ताम्रपत्र, दानपत्र, सिक्का और उस समय के लिखे हुये कान्ति- मैं अपने पूर्वजों का इतिहास लिख प्रमाणिक पुरुषों के प्रन्थ ही हो सकती हैं और इनको हम ऐतिहासिक एवं प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं । शान्ति - - आपका कहना ठीक है परन्तु विशाल भारत के लिये पूर्वोक्त साधन अपर्याप्त ही समझे जाते है । अतः इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के साथ परोक्ष प्रमाण ( श्रागम उपमान और अनुमान ) मान लिये जांय तो इतिहास सर्वाग-शुद्ध बन सकता है । कान्ति- मैं इस बात को मानने के लिये तैयार नहीं हूँ। मेरा सिद्धान्त तो एक ही है । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्रमाणवाद शान्ति - कितनाक लिख लिया है ? कान्ति - लिखें क्या, भाई साहब कुछ साधन ही नहीं मिलता है । शान्ति - फिर भी कुछ तो मिला ही होगा न ? कान्ति - बहुत कम मिला है । शान्ति - आपने प्राचीन ग्रन्थ पट्टावलियां या कुलगुरुओं की लिखी हुई वंशावलियों का अवलो कन किया है या नहीं ? शान्ति - ये आपका एकान्तवाद केवल हठवाद कान्ति-मुझे उस साहित्य पर विश्वास नहीं है। ही है । लीजिये एक उदाहरण आपके सामने उपस्थित शान्ति - किस कारण से ? कान्ति- त उस साहित्य में केवल इधर उधर की सुनी हुई बातें ही हैं। करता हूँ। किसी गोविन्दराजा का शिलालेख वि. सं. ९८० का मिला, उसी वंश के नन्दराजा का दूसरा शिलालेख वि. सं. १०७१ का मिला। इन दोनों शान्ति - पट्टाव लियें वंशावलिये सर्वथा निरा धार नहीं हैं, उनमें भी ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत सा तथ्य रहा हुआ है, अतः इतिहास लिखने में वे उपादेय हैं। देखिये खास इतिहास के लिखने वाले पं. गौरीशंकरजीश्रोमा क्या कहते हैं : के बीच में ९१ वर्ष का अन्तर है जिसके लिये कोई भी साधन नहीं मिला, परन्तु वंशावलियों में गोविन्द का पुत्र चंद्र और चन्द्र का पुत्र इन्द्र लिखा मिलता है अब आप गोविंद का ९१ वर्ष राज समझेंगे या वंशा वलियों में लिखा हुआ गोविन्द का पुत्र चंद्र तथा चन्द्र का पुत्र इन्द्र और इन्द्र का पुत्र नन्द समझेंगे ? कान्ति -- गोविन्द और नन्द के बीच ९१ वर्ष का अन्तर है जिसके लिये चाहे इतिहास में मिले या न मिले, पर अनुमान से दो राजा होना मानना ही पड़ता है इसमें कोई सन्देह नहीं है । शान्ति - बस, मैं भी यही कहता हूँ और इसी का नाम ही परोक्ष प्रमाण अर्थात् अनुमान प्रमाण "इतिहास व काव्यों के अतिरिक्त वंशावलियों की कई पुस्तकें मिलती हैं X X तथा जैनों की कई एक पट्टावलियां आदि मिलती हैं । ये भी इतिहास के साधन हैं । " राजपूताना का इतिहास पृष्ठ १०" कान्ति - कोई कुछ भी कहो, जहाँ तक ऐतिहासिक प्रमाण न मिलें वहाँ तक मैं उन्हें उपादेय नहीं समझता हूँ । १२२ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] ० पू० ४०० वर्ष है । इतना ही क्यों पर इन अनुमान प्रामाणादि एकदम उनसे मुंह मोड़ लेना । इतिहे प्रमाणों से ही इतिहास की भींत खड़ी की जाती है। जितना पटटावल्यादि ग्रन्थों में है उतना अन्य स्थान कान्ति-मैंने वंशावलियाँ और प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलेगा। पर शायद आपकी शिक्षा में इसका बहुत से देखे हैं उनमें साल, संवत, घटना, स्थान स्थान न हो ? और व्यक्ति के विषय में इतनी गड़बड़ है कि स्थान कान्ति-श्राप परोक्ष प्रमाण किसको कहते हैं ? मिले तो समय नहीं मिलता है और समय मिलता है शान्ति-आगम, उपमान और अनुमान ये तो व्यक्ति नहीं मिलता है तो फिर उस पर कैसे परोक्ष प्रमाण हैं। विश्वास किया जाय ? कान्ति-आगम का अर्थ क्या है ? शान्ति-यदि किसी स्थान पर ऐसा हुआ हो शान्ति-प्राचीन समय के लिखे हुये सूत्र, तो क्या सब पट्टावलिये त्याज्य हो सकती हैं। प्रन्थ, रास, पट्टावलियां वंशावलियां ये सब आगम दूसरे इस प्रकार की गड़बड़इतिहास में भी कम नहीं प्रमाण, तथा एक वस्तु का सम्बन्ध दूसरी वस्तु से है और उन लोगों को भी समय समय पर अन्य साधनों जोड़ देना और आगे चल कर वे सत्य सिद्ध हो जाय द्वाग संशोधन करना पड़ता है । देखिये पृथ्वीराज उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं। रासो, मुणोयत नैणसी की ख्यात और टॉड साहब कान्ति-श्राप जी चाहे वह माने परन्तु मैं तो का राजस्थान वगैरह कई प्रन्थ हैं जो इधर उधर की ऐतिहासिक प्रमाण एवं प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता हूँ सुनी हुई बातों के आधार पर निर्माण किये गये हैं शांति-आपने एक विद्वान का कहना सुना है ? और वे परमोपयोगी होने से उनकी गिनती ऐतिहा- कांति-नहीं, कृपा कर सुनाइये । सिक साधनों में है । तो फिर हमारी पट्टावल्यादि शांति-वस्तु की मूलस्थिति को जानने के लिये का तिरस्कार क्यों किया जाता है ? दो प्रमाणों की आवश्यकता है १-प्रत्यक्षप्रमाण कान्ति-श्रापका कहना ठीक है परन्तु पृथ्वी- २-परोक्ष प्रमाण । यद्यपि परोक्ष प्रमाण प्रत्यक्ष राज रासो, नैणसी की ख्यात और टॉड गजस्थान प्रमाण के सामने गौण है तथापि परोक्ष प्रमाण के आदि प्रन्थों को इतिहास में स्थान भले ही दे दिया बिना प्रत्यक्ष प्रमाण का काम भी तो नहीं चलता है। है, परन्तु उनमें बहुत से स्थानों पर श्रुटिये है। सच पूछो तो परोक्ष प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण का ठीक शान्ति-हाँ, उन प्रन्थों में श्रुटिये जरूर रही हुई मार्गदर्शक है। परोक्ष प्रमाणकी सहायतासे ही प्रत्यक्ष हैं पर उन त्रुटियों के कारण उनका अनादर कर दिया प्रमाण आगे चलता है । इतना ही क्यों पर प्रत्यक्ष जाय तो ज्न प्रन्थों में जो इतिहास का मसाला है प्रमाण वाले पग २ पर अनुमान प्रमाण की शरण वह आपको खोजने पर भी अन्यत्र नहीं मिल सकता लेते हैं । समझा नहीं कान्ति ! है । अत: संशोधकों का कर्तव्य है कि उनका संशो- कान्ति-मेहरबान ! मैं खंडन मंडन के झगड़े में धन करके उनको काम में लें,जैसे नैए सी की ख्यात उतरना नहीं चाहता हूँ । खैर, बतलाइये ! श्राप इस काशीनागरीप्रचारिणी सभा ने मुद्रित करवाई है। समय क्या लिख रहे हैं ? जहाँ श्रुटिये थीं वहां उन्होंने संशोधन कर फुटनोट शान्ति-मैं ओसवाल जाति की उत्पत्ति के में टिप्पणिय कर दी है। इसी प्रकार प्राचीन पट्टा विषय का इतिहास लिख रहा हूँ। वल्यादि प्रन्थों का भी संशोधन करना चाहिये न कि कान्ति-श्राप किस निर्णय पर आये हैं ? १२३ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वि० पू० ४०० वर्ष । नासवालों की उत्पत्ति वि. पू० ४०० क्यों ? दूसरे भी कई प्रमाण हो सकते हैं। आनाम हुई। एसा मेरा खयाल है। कान्ति -- मैं तो केवल अनुमान से ही कहता हूँ। ___ कान्ति-क्या बात करते हो ? क्या ओसवाल शान्ति-- अनुमान आप अपने काम की रुकावट जाति की उत्पत्ति विक्रम पूर्व ४०० वर्ष में हुई है ? में ही मानते हो या सब बातों के लिये ? मैंने तो आज ही यह बात आपके मुंह से सुनी है ? कान्ति-कुछ विचार कर कहा कि सब के लिये । शान्ति -हाँ, मैं ठीक कहता हूँ। शान्ति-भला आपका काम रुक जाता है जब कान्ति ---इसके लिये आपके पास क्या प्रमाण हैं? तो आप अनुमान से मान लेते हो, तब हमारे महान शान्ति-यह लीजिये पटावलियां वंशावलियां संयमी पुरुषों के लिखे हुये प्रन्थ पट्टावल्यादि को वगैरह वगैरह बहुत प्रमाण हैं। मानने में आप हिचकिचाते हो । इसको पक्षपात कहते ___ कान्ति - मैं आपसे पहिले ही कह चुका हूँ कि हैं या हठधर्मीपना ? मुझे इस साहित्य पर विश्वास नहीं हैं। ____ कान्ति-पर वे सैंकड़ों वर्षों की पुरांणी बातें बाद शान्ति-भाई साहब ! आप अपनी शिक्षा से में किस आधार पर लिखी होंगी ? लाचार हैं वरना यह कभी नहीं कहते । कारण, मैं शान्ति-पहले के लोग सब ज्ञान को कण्ठस्थ आपको अभी सममा चुका हूँ कि पट्टावलियां और रखते थे और गुरु परम्परा से वह ज्ञान सैंकड़ों वर्षों वंशावलियां इतिहास के खास साधन हैं और यही तक उसी रूप में चला आता था । जब बुद्धि की मंदता हमको बतला रहे हैं कि ओसवाल ज्ञाति की उत्पत्ति हुई तो पुस्तकों में लिखा गया, जैसे हमारे धर्म के मूल उपकेशपुर में प्राचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा वि०पू० ४०० आगम भगवान महावीर के कहे हुये हैं और उस वर्ष में हुई। फिर आप नहीं मानते हो इसका क्या ज्ञान को करीब १००० वर्ष तक साधु कंठस्थ ही याद कारण है ? रखते रहे। जब स्मरण-शक्ति मंद पड़ने लगी तो उन्होने __कान्ति-ओसवाल ज्ञाति की उत्पत्ति उपकेशपुर पुस्तकों पर लिख लिये। इसी तरह पट्टावल्यादि प्रन्थों में प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के द्वारा हुई, इसमें तो किसी को भी समझ लीजिये। प्रकार की शंका नहीं है, पर इसका समय वि० पू० कान्ति-आपके दबाव और आगम के नाम ४०० वर्ष का मानने में जरा दिल हिचकिचाता है। पर मैं मान तो लेता हूँ, पर मेरी अन्तरात्मा इस बात हां, इस जाति की उत्पत्ति विक्रम की दशवीं शताब्दी को मंजूर नहीं करती है । के आस-पास हुई होगी ऐसा विद्वानों का खयाल है शान्ति--खैर, इस विषय को तो मैं आपको जिसको मैं भी ठीक समझता हूँ। फिर आगे चल कर समझाऊंगा पर पहिले आप से शान्ति-इसके लिये आपके पास क्या प्रमाण है? यह पूछ लेता हूँ कि आपके पिता का क्या नाम है ? कान्ति-प्रमाण तो मेरे पास कुछ भी नहीं है कान्ति-मेरे पिता का नाम है केशरीसिंह । पर इस समय के पूर्व इस जाति के अस्तित्व का शान्ति -क्या सबूत ? शिलालेखादि कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है। कान्ति -दुकान पर मौजूद बैठे हैं आप देख लें। __ शान्ति-जब आपके पास प्रमाण ही नहीं हैं, शान्ति-केशरीसिंहजी के पिता का क्या नाम है ? तो फिर आप दशवीं शताब्दी कैसे कह सकते हो ? कान्ति-उमरावसिंह ? और प्रमाण के लिये केवल शिलालेख का ही आग्रह शान्ति-क्या प्रमाण है ? wwwmarriwwwwwww Jain Educa88ernational Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [२० पू० ४०० वर्ष कान्ति-हमारे पितामह के समय का उनका कान्ति-इसमें शंका का क्या फोटू मेरे पास मौजूद है । देख लीजिये। खुर्शीनाम मौजूद है। उकेश, शान्ति-- उमरावसिंह के पिता का क्या नाम है ? शान्ति-शायद कोई तुम्हारे पितामह ने :कान्ति-रामसिंह। से वैसे ही लिख दिया हो। कान्ति-वाह भई तुम भी कमाल करते है शान्ति-क्या सबूत ? कहीं ये बातें कल्पना से लिखी जाती हैं ? हमारे कान्ति -- उन्होंने एक सुनार स सान का कठा पितामह ने अपने पितामह के कथनानुसार ठीक ठीक खरीद की थी उसके रुपये सुनार की बही में नाम लिखा है। मंडे हुये थे, जिसके रुपये ब्याज सहित मैंने हाल ही शान्ति-आपके पितामह के पितामह को कैसे में चुकाये हैं। मालूम हुआ हंगा? शान्ति-रामसिंह के पिता का क्या नाम ? ___कान्ति-वाह ! यह भी कोई पूछने की बात है ? कान्ति-छत्रसिंह। उन्हें अपने पिता से मालूम हुआ होगा। शान्ति-क्या प्रमाण है ? शान्ति--तो तुम्हारे कहने का अभिप्राय यह है कान्ति-उन्होंने एक तालाब पर छत्री बनाई कि वंशपरम्परा से खुशीनामे का ज्ञान चला पाया है। थी जिसका शिलालेख आज भी मौजूद है। कान्ति-हाँ, बस अब तुम समझ गये । शान्ति- छत्रसिंह के पिता का क्या नाम था ? शान्ति-मैं तो समझ गया मेहरवान! पर आप अभी नहीं समझे हैं। कान्ति-लक्ष्मणसिंह। कान्ति-क्यों ? शान्ति - क्या सबूत ? शान्ति-क्योंकि वंशपरम्परा के ज्ञान से लिखी कान्ति-आप तीर्थों की यात्रा पधारे थे उस समय हुई अपनी वंशावली में तो आपको सन्देह नहीं है, पंडों को कुछ दान दिया था, वह पंडों की बही में परन्तु गुरु परम्परा के ज्ञान से लिखी हुई पट्टाउसी समय का लिखा हुआ मिलता है। वलियों और वंशावलियों में आपको सन्देह है। ___ शान्ति-लक्ष्मणसिंह के पिता का क्या नाम कान्ति-सत्य है भाई साहब ! यह मेरा मिथ्या था ? भ्रम था । वास्तव में पट्टावलियाँ और वंशावलिय कान्ति-सुन्दरसिंह। माननीय ग्रन्थ हैं। यह मेरी भूल थी कि मैं इस शान्ति-क्या सबत ? साहित्य पर सन्देह करता था। कान्ति-इसके लिये ऐतिहासिक प्रमाण तो शान्ति-कान्ति ! एक तुम ही नहीं पर ऐसे कोई नहीं हैं परन्तु हमारे पितामह ने अपनी याद. वर्तमान शिक्षा पाये हुये अर्द्धदग्ध बहुत से लोग भ्रम दाश्त से जैसा कि उन्होंने अपने पितामह से सुना था में पड़े हुये हैं। फिर भी उनमें विशेषता यह है कि एक खुर्शीनामा बनाया था। उसमें लक्ष्मणसिंह के दूसरे के प्रमाणों को मानते नहीं और आपके पास पिता का नाम सुन्दरसिंह लिखा है। प्रमाण नहीं । और कह देते हैं कि फलां ग्रन्थ पट्टा___ शान्ति-इस खुर्शीनामा में आपको किसी प्रकार वलियों को हम महीं मानते हैं। ऐसे अर्द्ध दग्ध की शंका तो नहीं है न ? मनुष्यों को कैसे समझाया जाय ? १२५ www.jantipary.org Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ं ] आचार पति है साहब आपका कहना सत्य है । हॉलये क्या पर मेरी खुद की ही यही यी । आप तो क्या पर ब्रह्माजी भी कर जाति देते कि ओसवालों की उत्पत्ति विक्रम से मैंने वर्ष पूर्व हुई तो मैं कदापि नहीं मानता। पर श्राप के साथ वार्तालाप होने से यह निशंक हो चुका है कि पट्टावलियों के अनुसार ओसवालों की उत्पत्ति बि० पू० ४०० वर्षों में हुई है और इसके विषय में पदावलियों और वंशावलियों में जो लिखा है उसमें शंका करने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि उन त्यागी संयमी महात्माओं को असत्य लिखने का कोई भी कारण नहीं था अतः वह सत्य ही है। दूसरी बात यह भी है कि यदि पट्टावली और वंशावलियों को न माना जाय तो इस विषय के लिये हमारे पास दूसरा साधन ही क्या है ? आज हम देखते हैं तो किसी सवाल के पास ४ पुश्त, किसी के पास ८ पुश्त और किसी के पास १० पुश्त से आगे के नाम तक भी नहीं मिलते हैं तो उनके पूर्वजों ने देशसमान और धर्म की क्या क्या सेवायें की उनका तो पता ही क्या चलता है । यही कारण है कि ओसवाल समाज के नररत्नों ने देश की बड़ी बड़ी सेवायें कीं और अपना तन, मन र धन अर्पण किया, पर आज संसार में उनका कहीं पर मान या स्थान नहीं है। इसका मूल कारण पट्टावलियों का अनादर करना ही हैं। उनके बिना हम जनता को क्या बता सकते हैं ? एक विद्वान ने ठीक कहा है कि जिस किसी जाति को नष्ट करना है तो पहिले उसका इतिहास नष्ट कर दो, वह स्वयं नष्ट हो जायगी, इस युक्ति के अनुसार ओसवाल जाति के नष्ट होने में मुख्य कारण अपना इतिहास न जानना ही है। खैर, एक बात और पूछनी है और वह यह है कि ओसवाल जैसी बुद्धिशाली और समझदार जाति ने इस पथ Jain Educaternational [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास का अवलम्बन क्यों किया होगा कि वह अपने इतिहास के लिये इस प्रकार उदासीन रहे । शान्ति - इसमें मुख्य कारण नये नये गच्छ एवं समुदाय तथा आपसी भेद का ही है। कान्ति- - पर उन्होंने ऐसा क्यों किया और इसमें उनका क्या स्वार्थ था । शान्ति - नये नये गच्छवालों को अपने उपा सक बनाने थे। जब तक उनका प्राचीन इतिहास न भुला दिया जाय तब तक वे उन नूतन गच्छधारियों के भक्त बन ही नहीं सकते थे । अतः उन्होंने कई श्रोसवालों के इतिहास को ही नष्ट कर दिया । जैसे आदित्यनाग ( चोरडियादि ) वाप्पनाग ( बापनादि ) संचेति आदि १८ गोत्र और उनकी सैंकड़ों शाखा उपशाखाओं का इतिहास २४०० वर्ष जितना प्राचीन है जिसको ८००-१००० वर्ष में बतला दिया जिसमें भी ८००-१००० वर्ष में उनके पूर्वजों ने जो कार्य किये उसका नाम निशान भी नहीं, केवल एक उत्पत्ति के लिये कल्पना का कलेवर बतला कर बिचारे भद्रिक लोगों के प्राचीन इतिहास का खून कर दिया और भविष्य के लिये उनको कदाग्रह की शकल में ऐसा जकड़ दिया कि वे शोध-खोज एवं निर्णय तक भी नहीं कर सके। दूसरे एक समुदाय भेद भी ऐसा पड़ गया कि उनके उपासक अपने पूर्वजों का नाम लेने में भी पाप समझते हैं । कारण, उन्होंने अनेक मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई, अनेक बार तीर्थयात्रा के संघ निकाल यात्रा की इत्यादि । यह वर्तमान मंदिर मूर्ति नहीं मानने वालों के लिये उनकी मान्यता से खिलाफ है इत्यादि कारणों से सवाल जाति का इतिहास नष्ट-भ्रष्ट हो गया । कान्ति-भाई साहब यह तो बड़ा भारी कृतघ्नीपना है । कारण, एक साधारण उपकार को भी भूल जाय उसे कृतघ्नी कहते हैं तो जिन महापुरुषों ने Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] I: पू० ४०० वर्ष मांस मदिरा और व्यभिचार-सेवी नरक के अभि- की इतनी आग्रह है तो मैं इस म. मुख हो रहे थे उनको दुर्व्यसनों से छुटवा कर करवा कर सर्व-साधारण की सेवा में रखा सन्मार्ग पर लाये और स्वर्ग मोक्ष के अधिकारी कान्ति-अच्छा इस सम्बाद को ' बनाये और केवल उन पर ही नहीं परन्तु उनकी वंश- खर्चा का क्या इन्तजाम हैं ? परम्परा आज तक के लोगों पर बड़ा भारी उपकार शान्ति - खर्चा का आप कुछ भी विचार न है, उनको भूल जाना तो एक जबर्दस्त कृतघ्नीपना करें। कार्य करने वाले हों तो समाज में द्रव्य की है। आपका कहना ठीक है कि इस समाज का पतन कुछ भी कमी नहीं है । व्यर्थ तो हजारों लाखों का प्रायः इस कृतघ्नीपना से हुआ और हो रहा है। पानी हो रहा है, तो इस छोटे से काम के लिये ऐसी ___ शान्ति --अरे भाई ! तुम्हारे जैसे लिखे-पढ़े कौन सी बात है। आदमी का एक घंटा पहिले यह हाल था तो अप- कान्ति-जेब में हाथ डाल कर २०) नोट ठित लोगों का तो कहना ही क्या। निकाल कर दे दिये और कहा कि अधिक खर्चा कान्ति--मेहरबान ! आपका कहना सत्य है लगेगा तो मैं दूसरे मास की तनख्वाह आने पर दे पर अब इस वार्तालाप को ज्यों का त्यों छपवा कर दूंगा । आप इसको अवश्य मुद्रित करवा कर हाथोंजनता के हाथों में रख देना अच्छा, है क्योंकि आज- हाथ भेंट दें। कल के लिखे-पढ़े लोगों के इस प्रकार बात समझ शान्ति-पर आप तकलीफ क्यों उठाते हो ? में आजायगी तो साँप की भांति निर्माल कांचली उतार इतना सा खर्चा तो मैं भी कर सकूँगा। के दर फेंकने में उसके थोड़ी भी देर नहीं लगेगी । हा, कान्ति--आपने तो मुझे समझाने में कितना हमारी शिक्षा कितनी भी बुरी हो, पर हम को ठीक लाभ कमाया है इतना लाभ तो मुझे भी लेने दीजिये समझाने वाले हों और हम समझ जायं, तो असत्य त्याग और सत्य ग्रहण करने में हठ-धर्मी कभी नहीं शान्ति-अच्छा भाई जै जिनेन्द्र की. अब मैं करते हैं। कारण, हम न तो रूढ़ि के गुलाम हैं और जाता हूँ। आपका समय लिया इसके लिये क्षमा करना। न कल्पित परम्परा के दास ही हैं। हम हैं सत्य के कान्ति-जै जिनेन्द्र भाई साहब! आप ने तो आज शोधक और सत्य के उपासक ।। मेरे पर बहुत उपकार किया है कि मैं कृतघ्नीत्व के शान्ति--अच्छा भाई कान्तिचन्द्र, आप से समुद्र में डूब रहा था आपने बाह पकड़ कर मेरा वार्तालाप करने में मुझे बड़ा ही आनन्द आया और उद्धार किया है जिसको मैं कभी भूल नहीं सकता हूँ। आपके दिल ने बड़ा भारी पलटा खाया जिससे मैं खैर फिर कभी कृपा कर इस प्रकार वार्तालाप का अपने परिश्रम को भी सफल समझता हूँ और आप लाभ देना । १-वि० १० वीं शताब्दी का इतिहास इतना अँधेरे में नहीं है। यदि ओसवाल जाति १० वीं शता में बनी होती तो तत्कालीन साहित्य में उसका वर्णन अवश्य होता, क्योंकि उस समय घटित साधारण घटनाओं का उल्लेख होने पर भी एक जबरदस्त घटना ( लाखों मनुष्यों का धर्म परिवर्तन ) का साहित्य में नाम निशान तक न होना, यह सूचित करता है कि ओसवाल जानि वहुत समय पूर्व बन चुकी थी। २- जैन शिलालेख का समय प्रायः वि० १० वीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है परन्तु यह जाति इससे वहुत पूर्व बन चुकी थी फिर उसका शिलालेख कैसे मिल सकता है । अतः यह जाति बहुत प्रचीन है। १२७ www.janerbrary.org Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वा । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार पतित ओसवाल जाति की ऐतहासिकता सवाल ये महाजन संघ का रूपान्तर नाम है। इस महाजन संघ की संस्था को आचार्य रत्नप्रभसूरि जाति त की थी। महाजन संघ में केवल ओसवाल ही नहीं पर श्रीमाल पोरवाल आदि जातियों का भी समावश हो जाता है । अतः पहिले महाजन संघ के लिये ही लिख दिया जाता है। १-महाजन यह शब्द सर्वत्र प्रसिद्ध है । २-इस महाजनसंघ संस्था के निर्वाह के लिये जहाँ २ महाजन लोग बसते है एवं व्यापार करते हैं, वहां वहां व्यापार पर प्राचीन समय से 'महाजनाउ' लागन लगाई गई है ये महाजन संस्था को साबित कर रही है कि यह संस्था बहुत प्राचीन है। ३-महाजनसंघ रूपी संस्था के अाय व्यय के हिसाब के लिये प्रामोग्राम बहियाँ चौपड़ा रहते हैं और उनका हिसाब सालों-साल होता है । ४-महाजनों के वहां लगन शादी होती है उसमें भी संघ पूजा वगैरह दी जाती है उस समय भी 'महाजनाउ' को याद किया करते है। कहीं २ पुत्र जन्म वगैरह शुभ अवसर पर भी महाजन संस्था को कुछ न कुछ भेंट करते हैं। ५-महाजन संघ के महत्व बतलाने वाले प्राचीन अर्वाचीन कई कवित्त भी मिलते हैं। इत्यादि प्रमाणों से महाजनसंघ की प्राचीनता प्रमाणिकता और महत्ता स्वयं-सिद्ध हो जाती है कि महाजनसंघ रूपी एक सुदृढ़ संस्था प्राचीन कालसे चली आरही है जिस का जन्म समय वि. पू. ४००वर्ष का है। महाजन न भयो मंत्री, राज गयो रावण को, महाजन की सलाह बिन शिशुपाल नास्यो है। भयो थो भिखारी नल, हरचंद में विखो पड़यो, महाजन बासिटी बिन कौरव कुल नास्यो है। महाजन मुत्सद्दी बिन केते राज्य बदल गये, महाजन की बुद्धि बिन यादवकुल घास्यो है । महाजन दिवान राणा महाराणा ज्याके हृदय, भयो भान जाण कमल ज्यू प्रकाशो है ॥१॥ महाजन जहाँ होत तहाँ हट्टी बजार सार, महाजन जहाँ होत तहाँ नाज ब्याज गल्ला है । महाजन जहाँ तहाँ लेन देन विधि व्यवहार, महाजन जहाँ होत तहाँ सब ही का भला है । महाजन जहाँ होत तहाँ लाखन को फेरफार, महाजन जहाँ होत तहाँ हल्लन पै हल्ला है । महाजन जहाँ होत तहाँ लक्ष्मी प्रकाश करे, महाजन नहीं होत तहाँ रहवो बिन सल्ला है ॥२॥ भूखे नंगे अरु दुखीजन के सदा मां बाप हैं। अकाल के भी काल हैं और हरन दुख संताप हैं। देख नहिं सकते दुखी पशु को भी इनकी बान है । सब जीव इन को प्राणसम हैं रत्नप्रभ की शान है ॥ हैं महाजन ही महा जन सब गुणों की खान हैं। जगतसेठ नगरसेठ पंचादि पद जो महान हैं। पाये अनेकों बार बहु फिर भी न कुछ अभिमान है । ये वीर हैं गंभीर है बस रत्नसम रत्नप्रभ संतान है ।। Jain Edua ternational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [वि० पू० ४०० वर्ष उपकेश वंश उपकेश वरा-यह महाजन संघ की एक शाखा है। प्राचीन साहित्य में उपकेशवंश के उऐश, उकेश, उकेशी, उकेशीय, उकोसिय, और उपकेश एवं नाम मिलते हैं और उनके उत्पन्न होने के कारण इस मुजब हैं : १-उस-श्रोसवाली भूमि पर जिस नगर को आबाद किया उसे ऊस-ओन-उऐश कहा, यह उस ओसवाली भूमि का ही द्योतक है । तत्पश्चात उपकेशपुर निवासी लोग उपकेशपुर छोड़ कर अन्य नगरमें जा वसने के कारण वहाँ के लोग उस उपकेशपुर से आये हुये समूह को उपकेशवंशी कहने लग गये और यह बात है भी स्वभाविक, जैसे : ___कोरंटनगर से कोरंटवाल, पालीनगर से पलिलवाल, खंडवा से खंडेलवाल,श्रीमाल नगर से श्रीमाली, अग्रह से अग्रवाल, महेश्वरी से महेसरी, रामपुर से रामपुरिया, साचोर से सांचोंरा, मेड़ता से मेड़तवाल, प्राग्वट से प्राग्वटवंश, इस प्रकार उपकेशपुरवासियों का नाम उपकेशवंश हो गया । २-उकेश- यह उऐश का रूपान्तर प्राकृत भाषा वालों ने उकेस लिखा है। ३-उपकेश-उऐश और उकेस को संस्कृत भाषा वालों ने अपनी सहूलियत के लिये उपकेश लिखा है। यह तीनों शब्द नगर के नाम के साथ व्यवहृत किये हैं जैसे : १-उपकेशपुर के लिये उए रापुरे समायती "उपकेशगच्छ पट्टावली" उकेशपुरे वास्तव्य "उपकेशगच्छ चरित्र" श्रीमत्युपकेशपुरे "नाभिनन्दन जिनोद्धार" २-उपकेशवंश के लिये उएशवंशे चंडालिया गोत्रे- "बा० पूर्णचन्दजी सम्पादित शिला० नं १२८५ उकेशवंशे जांघड़ा गोत्रे-- "बा० पू० ना० स० शि० नं. ४८० उपकेशवंशे श्रेष्टिगोत्रे "ब० पू० च. स. शि.नं. १२५६ ३-उपकेशगच्छ के लिये उएश गच्छे श्री सिद्धिसूरिभिः बुद्धिसागर सूरि सं० लेखाँक ५५८" उकेशगच्छे श्री कक्कसूरि सन्ताने , , , १०४४" उपकेशगच्छे श्री कुकुन्दाचार्य सन्ताने , , , १९५" इस महाजन संघ के कई लोग व्यापार करने लगे तो गुर्जरादि प्रान्तों में उनको वाणिया कहने लगे, पर इससे उन लोगों का महत्व कम नहीं हुआ था। कहा है कि "लिये दिये लेखे करी, लाख कोट धन धार, वणिक समों को नहीं, भरण भूप भंडार" बीस वसा नहिं वणिक जीमे जो झूट बोले, वीस वसा नहिं वणिक पेट नो परदो खोले। बीस वसा नहिं वणिक उतावलियो जे थाये, वीसवसा नहिं वणिक बनता सूविहि पाये ॥ वली वीस वसा ते वणिक नहिं चढ़यो रावले जाणिये,जे सत्य तजे सामल कहे वीस वसा नहिं वाणियो। १७ १२९ www.gainelibrary.org Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इस प्रकार उएश उकेश और उपकेशवंश के नाम की उत्पत्ति हुई और जैसे उपकेशपुर के साथ उपकेशवंश का सम्बन्ध है वैसे ही उपकेशपुर और उपकेशवंश के साथ उपकेशगच्छ का भी घनिष्ट सम्बन्ध है। इसका समय महाजन संघ की उत्पत्ति से दो तीन शताब्दियों का समझा जा सकता है। कारण, महाजनसंघ के नाम के बाद ३०३ वर्षों में तो १८ गौत्र होने का प्रमाण मिलता है। अतः महाजनसंघ एवं उपकेशवंश को इस समय से पूर्व बना होना मानना न्यायसंगत और युक्तियुक्त है । उपकेश गच्छ उपकेशवंश की मूल उत्पत्ति खास तौर तो टपकेशपुर से ही हुई है और इसके प्रतिबोधक आचार्य रत्नप्रभसूरि ही थे। ये बात स्वाभाविक है कि जहाँ लाखों मनुष्यों को मांस मदिरा श्रादि कुव्यसन छुड़ा कर जैनधर्म में दीक्षित करने पर उन को बार २ उपदेश करने के लिये जाना आना पड़ता ही है। बस, रत्नप्रभसूरि या उनकी संतान उपकेशपुर या उसके आस पास अधिक विहार करने से इस समूह का नाम उएश उकेश और उपकेशगच्छ हो गया जैसे कोरंटपुर से कोरँटगच्छ संखेश्वरपुर से सँखेश्वरगच्छ, वल्लभी से वल्लभीगच्छ, वायटगाँव से वायटगच्छ, और सँडेरा से सँडेरागच्छ इत्यादि, इसी माफिक उपकेशपुर से उपकेशगच्छ हुआ। प्रोसवाल __ ओसवाल-यह उपकेशवॅश का अपभ्रंश है क्योंकि विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास उपकेशपुर का अपभ्रंश ओसियां हुआ, तब से ही उपकेशवॅश का नाम ओसवाल हो गया और ऐसा होना असंभव भी नहीं है जैसे जावलीपुर का जालौर, नागपुर का नागौर, मॉडव्यपुर का मॅडोर, हर्षपुर का हरवाला, कर्चरपूर का कुचेरा, किराटकूप का कराडू, आदि अपभ्रंश हुआ है वैसे ही उपकेशपुर का ओसियां हुआ है। श्रोसवालों के लिये शिलालेख देखा जाय तो विक्रम की तेरहवीं शताब्दी पूर्व का कोई भी नहीं मिलता है । यदि मिलते भी हैं तो विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के, वे भी बहुत कम सँख्या में। इसका यही कारण हो सकता है कि इस जाति का मूलनाम उपकेशवँश था बाद उसका अपभ्रंश ओसवाल होने पर भी पिछले लोगों ने प्रन्थों में एवं शिलालेखों में बीसवीं शताब्दी तक जहाँ तहाँ उपकेशवँश का ही प्रयोग किया है, जैसे पोरवाल जाति का प्रचलित नाम पोरवाल होने पर भी शिलालेखों में आज भी उनको प्राग्वट ही लिखे जाते हैं । इसी प्रकार ओसवालों को समझ लेना चाहिये। यों तो ये ग्रन्थ ही इस जाति की प्राचीनता साबित कर रहा है, परन्तु उन पदावलियों वंशावलियों के अलावा वर्तमान ऐतिहासिक साधनों के आधार पर अच्छे अच्छे विद्वान लोगों ने इस जाति की प्राचीनता के लिये जो अभिप्राय दिया है उसको मैं यहाँ उद्धृत कर देता हूँ। wwwvvvvvv Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] वि० पू० ४०० वर्ष ] श्रीउपकेशवंश की व्युत्पत्ति और उपकेशगच्छ का वास्तविक अर्थ मूलकर्त्ता - खरतरगच्छीय पं० वल्लभगणि ( वि० सं० १६५५ ) थ - केश शब्दस्यार्थः लिख्यते १ मूल - इशिक ऐश्वर्ये ओकेषु गृहेषु इष्टे पूज्यमाना सती या सा ओकेशा, सत्यका नाम्नी गोत्र देवता । अत्र ओक शब्दः अकारान्तः तस्यां भवस्तस्या अयमिति वा ओकेशः । भवे इत्य प्रत्ययः, तस्येदमित्यनेन वा अण् प्रत्ययः । सत्यका देवीहि नवरात्रादिषु पर्वसु अस्मिन् गणे पूज्यते सा चास्यगणस्य अधिष्ठात्री अतएवाऽस्य गच्छस्य ओकेश इति यथार्थं नाम प्रोद्यते सद्भिरिति प्रथमोऽर्थः ॥ १ ॥ हिन्दी अनुवाद - मूल शब्द ओकेश में दो भिन्न पद हैं जैसे- " ओक-ईश" इनमें ईश शब्द की व्युत्पत्ति इशिक ऐश्वर्य्यवाची इस धातु से होती है और श्रोक का अर्थ है घर । जो श्रावक श्रादिकों के घरों में पूज्यमान हो करके ऐश्वर्य को प्राप्त हो उसे ओकेशा कहते हैं । यह श्रोकेशा सत्यका के नाम से प्रसिद्ध एक गोत्र देवी है । "इस जगह सकारान्त ओकस शब्द का प्रहण न कर अर्थ संगति की सुविधा के लिए अकारान्त शब्द का ग्रहण किया है जो ध्यान में रहे" और जो गच्छ ओकेशा देवी के नाम पर प्रसिद्ध हो या उसका उपासक हो उस गच्छ को "ओकेशः " ऐसा कह सकते हैं । यहाँ व्याकरण नियम से "भवे" इस अर्थ में या ‘तस्येदम्” वह उसका है इस अर्थ में सूत्रादेश से अण प्रत्यय होता है। इस ओकेश ग में नवरात्रादि पर्वों के प्रसंग पर सत्यकादेवी की घर घर पूजा होती है क्योंकि वह देवी इस गण की अधि ष्ठात्री देवी है और इसी से इस गच्छ का नाम यथार्थरूप से "केश" यह सज्जनों द्वारा कहा जाता है। यह केश शब्द का पहिला अर्थ हुआ ? || २ मूल - ईशनमीशः ऐश्वर्यं ओकैर्महर्द्धिक श्राद्धममुखलोकानाँगृहैरीशो यस्यां सा ओकेशा ओसिकानगरी । तत्र भवः ओकेशः । ओसिका नगर्या हि अस्य गणस्य ओकेश इति नाम श्री रत्नप्रभसूरीश्वर तो विख्यातं जातम् । इति द्वितीयोऽर्थः ॥ २ ॥ 1 हिन्दी अनुवाद - ईशनं याने ईश = ऐश्वर्य्य । तथा ओकै - श्रर्थात् महाधनिक श्रावक आदि मनुष्यों के घरों से युक्त है ऐश्वर्य जिसमें ऐसी श्रोशा "ओसिका" नाम की नगरी, और उस नगरी में पैदा हुए गच्छ का नाम ओकेश | क्योंकि इसी नगरी से ही इस गण का नाम "ओकेश" ऐसा श्री रत्नप्रभसूरीश्वर से विश्व में विख्यात हुआ है । यह श्रीकेश शब्द का दूसरा अर्थ है || १३१ www.alebrary.org Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मूल-अः कृष्णः, उः शंकरः, को ब्रह्मा । एषां द्वन्द्वसमासे ओकास्ते ईशते पूज्यमानाः संतो देवत्वेन मन्यमाना सन्तश्च येभ्यस्ते ओकेशाः । ओकै :- कृष्ण, शंभु ब्रह्मभिर्देवैरीशते ये ते वा ओकेशाः । पर शासन जनाः क्षत्रिय राजपुत्रादयः । प्रतिबोध विधानात्तेषामयं ओकेशः । तस्येदमित्यण् प्रत्ययः । श्रीरत्नप्रभसूरिभिस्तेष पारतीर्थिकधर्म, निष्ठता सिद्धान्तोक्तविशुद्धजैनधर्म निष्ठायां प्रतिबोध दानेन प्रवर्त्तना कृता । तथा च श्रूयते पूर्वेहि श्रीरत्नप्रभसूरीणां गुरवः श्रीपार्श्वापत्यीय केशीकुमाराऽनगार सन्तानीयत्वेन विख्यातिमन्तो जगति जज्ञिरे । ततः प्राप्तः सूरिमंत्राः ससतंत्राः रमणीयाऽतिशय निचयाः स्वकीय निस्तुष शेमुषी प्रागभार संभारात् ज्ञातत्रिदश सूरयः श्रीमच्छ्रीरत्नप्रभसूरयः किति गते काले विहरंत: संतः श्रीओसिका नगर्या समवसृताः । तस्याँ च सर्वे लोकाः पारतीर्थिक धर्मधारिणोसंति । न कोऽपि जैनधर्मधारी । ततः साध्वाचारं प्रतिपालयद्भिः सिद्धान्तोक्त तीर्थङ्कर धर्म शुभकर्म प्ररूपणाँ कुर्वद्भिः सद्भिः श्रीरलप्रभसूरिभिः पारतीर्थिकाः नैकच्छेक विवेकिलोकाः ! प्रतिबोधितास्ततः एतेओकेशा इति विरुदो विख्यातो जातः । इति तृतीयोऽर्थः ॥ 11 वि० ० पू० ४०० वर्ष ] 1 हिन्दी अनुवाद - अ: = कृष्ण, उः = शंकर, कः = ब्रह्मा, ये एकाक्षरी कोष से प्रसिद्ध नाम हैं ? इनका द्वन्द समास करने पर "ओक्" ऐसा शब्द बना । अब ये तीनों देव जिन मनुष्यों द्वारा ईशते = याने देव स्वरूप से पूज्यमान होते हुये ऐश्वर्य को प्राप्त हों उन मनुष्यों को श्रीकेश कहते हैं । अथवा श्रोकैः = कृष्णः, शंभु और ब्रह्मा नामक देवताओं से जो खुद ऐश्वर्य्य "धन दौलत" प्राप्त करें उन्हें प्रोकेश कहते हैं । ये सब पर शासन को धारण करने वाले क्षत्रिय राजपुत्र आदि हैं और उनका प्रतिबोध करने से यह गच्छ श्रकेश नाम से प्रसिद्ध हुआ । यहां "तस्येदम्" इस सूत्र से अण प्रत्यय होता है ये क्षत्रयादि श्री रत्नप्रभसूरि द्वारा उनके पारतीर्थिक धर्म की निष्ठा से सिद्धान्तों से कहे हुए विशुद्ध जैनधर्म की निष्ठा में प्रतिबोध देने से प्रधतित हुए | जैसे सुना जाता है कि : 1 "प्राचीन काल में श्री रत्नप्रभसूरि के गुरु श्री पार्श्वनाथ सन्तानीय केशीकुमार अनगार के सन्तानीय पणे से जगत् में प्रसिद्धि को प्राप्त हुए । उनसे सूरि मंत्र को प्राप्त कर, सर्व तन्त्र स्वतंत्र, रमणीय अतिशय समूह वाले, स्वकीय निर्मल बुद्धि से बृहस्पति तक को नीचा दिखाने वाले सूरीश्वर श्रीरत्नप्रभसूरि कुछ समय बीत जाने पर विहार करते हुए श्रीओसिकानगरी को आए । वहाँ सब मनुष्य पारतीर्थिक धर्म को धारण करने वाले थे, जैन धर्मी कोई नहीं था । तत्र साधु के सदाचार को पालने वाले, सिद्धान्त कथित तीर्थकरों के धर्म की शुभ-शुद्ध प्ररूपणा को करने वाले महात्मा श्रीरत्नप्रभसूरिजी ने पारतीर्थिक धर्मी अनेक विचारशील क्षत्रिय लोगों को प्रतिबोध दिया। उसी दिन से ये श्रोकेश गच्छ है" ऐसा विरुद विश्व में विख्यात हुआ । यह इसका तीसरा अर्थ है । खुलासा - ओक - का अर्थ एकाक्षरी कोष द्वारा कृष्ण, शंभु और ब्रह्मा होता है, उनसे ऐश्वर्य प्राप्ति करने वाले क्षत्रिय आदि अन्य धर्मावलम्बी ओकेश कहाए और उनके प्रतिबोध देने से श्रीरत्नप्रभसूरि का गच्छ भी ओकेश नाम से प्रसिद्ध होगया । Jain Educat?mational Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] वि० पू० ४०० वर्ष ] ४-मूल-अः कृष्णः, आ ब्रह्मा, उः शंकरः, एषाँ द्वन्द्वे आवस्ततः ओभिः कृष्ण ब्रह्मा शंकर देवैः कायते स्तूयते देवाधिदेवत्वादिति ओकः प्रस्तावात् श्रीवर्धमानस्वामी । "क्वचिदिति ड़ प्रत्ययः ओकश्चासौ ईशश्च ओकेशस्तस्याऽयं ओकेशः । वर्तमान तीर्थाधिपति श्रीवर्धमानजिन पति तीर्थाश्रयणादिति चतुर्थोऽर्थः ॥ ४ ॥ हिन्दी अनुवाद-श्रः = कृष्ण, आ= ब्रह्मा, उः = शंकर, इनका द्वन्द्व समास करने पर 'ओ" ऐसा शब्द बना फिर ओभिः = कृष्ण ब्रह्मा और शंकर से जो कायते = स्तुति किया जाय देवाधिदेवपणे से वह श्रोक हुआ याने कृष्णादि से स्तुत देवाधिदेव ! यहाँ पर प्रस्तावक्रम से श्रोक - इसका अर्थ श्रीवर्धमान स्वामी प्रहण करना चाहिये । ओक इसमें "कचित्०"-. इससे ड प्रत्यय होता है । अन्तर ओकश्च असौईशः = जो ओक वही ईश्वर ऐसा कर्म धारय समास करने से ओकेश शब्द सिद्ध होता है । फिर "तस्य अयं = उसका वह" इस सद्धित नियम से श्रोकेश का उपासक गच्छ भी श्रोकेश ही रहा । क्योंकि यह गच्छ वर्तमान तीर्थाधिपति श्री वर्धमान जिनपति तीर्थङ्कर का श्राश्रित है । यह ओकेश शब्द का चौथा अर्थ हुआ। ५ मूल-अः अर्हन् “अः स्यादर्हति सिद्धे चेत्युक्तेः" प्रस्तावादिह अ इति शब्देन श्री वर्द्धमानस्वामी प्रोच्यते । ततः अस्य ओका गृहं चैत्यमिति यावत् । ओकः श्रीवर्द्धमानस्वामि चैत्य मित्यर्थः । तस्मादीशः ऐश्वयं यस्य स ओकेशः। यतोऽयं गणः श्रीमहावीरतीथंकरसान्निध्यतः स्फाति मवापोति पञ्चमोऽर्थः ॥ एवमस्य पदस्याऽनेकेडव्यर्थाः संबोभुवति परं किं बहु श्रमेणेति ॥शम् ॥ हिन्दी अनुवाद-श्र= अर्हन् “श्रः स्यादर्हति सिद्धे च" = अ: नाम अर्हन और सिद्ध का है इस वचन से । प्रकरण क्रम से इस स्थल पर अ इस शब्द से वर्धमानस्वामी को जानना चाहिये। फिर अस्य = महावीरस्वामी का ओकः = गृह अर्थात् मन्दिर इस तत्पुरुष समास से ओक इसका अर्थ वर्धमान स्वामी का चैत्य हुआ। बाद में तस्मात् = उस वर्धमान स्वामी के चैत्य से है ईशः = ऐश्वर्य जिसका "इस बहुब्राहि समास से" वह प्रोकेश हुआ । कारण यह ओकेश गण श्री महावीर तीर्थङ्कर के सान्निध्य से ही स्फाति = वृद्धि को प्राप्त हुआ है । इस प्रकार ओकेश शब्द का यह पाँचवाँ अर्थ हुआ ॥ ५ ॥ शेष में इस ओकेश पद के इस प्रकार अनेक अर्थ हो सकते हैं परन्तु मैंने अधिक श्रम करना ठीक नहीं समझा है। अथ उपकेश शब्दस्य कियन्तोऽर्थाः लिख्यन्ते-तद्यथाः १ उप, समीपे केशाः शिरोरुहाः सन्त्यस्येति उपकेशः श्रीपार्थापत्यीय केशीकुमाराऽनगारः । एतदुत्पत्ति वृत्तान्तस्तु श्रीस्थानांगवृत्त्यादौसमपञ्चः प्रतीत एऽस्ति । तत एवाऽवगन्तव्यः । ततः उपकेशः श्रीकेशकुमाराऽनगार पूर्वजोगुरुर्विद्यतेयस्मिन् गणे स उपकेश "अभ्रादित्वाद प्रत्ययः" अस्मिन् गच्छे हि श्रीकेशीकुमारानगार प्राचीनोगुरुरासीत् । ततोयथार्थमुपकेश इति नाम जात मिति प्रथमोऽर्थः ॥ १॥ - केशीस्त्रमणाचार्य के पट्टधरस्वयंप्रभसूरि और स्वयंप्रभसूरि के पट्टधररत्नप्रभसरि हुये । १३३ RE www.timehorary.org Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हिन्दी अनुवाद-अब हम प्रस्तावक्रम से उपकेश शब्द के भी कुछ अर्थ लिखते हैं। जैसे उप।। समीप में हैं केश जिसके वह उपकेश अर्थात् श्रीपार्श्वनाथ सन्तानीय केशीकुमाराऽनगार, "इसका उत्पत्ति वृतान्त श्री स्थानायांग सूत्र की वृत्ति में सप्रपञ्च ( विस्तार से ) वर्णित है अतः जिन्हें देखने की इच्छा हो उक्त पुस्तक से देख लेना चाहिये ।" बाद में उपकेशः = श्री केशीकुमाराऽनगार है पूर्वज गुरु जिस गण में उस गण का नाम भी उपकेश हुआ यहाँ बहुव्रीहि समास करके "अभ्रादित्वात" इससे अ प्रत्यय होता है । स्पष्टार्थ-इस गच्छ में ही श्री केशीकुमाराऽनगार प्राचीन गुरु थे और उन्हीं के अपर नाम उपकेश से इस गच्छ का नाम भी उपकेश शब्द का प्रथम अर्थ हुआ ॥१॥ २ मूल-उपवर्जितात्स्यक्ताः केशाः यत्र स उपकेशः "ओसिकानगरी" तस्याँ हि सत्यका देव्याश्चैत्यमस्ति । तदग्रेचघनैर्जनः प्रथमजातबालकानाँसुदिनेदिने मुण्डन कार्यते । तत उपकेश इति यथार्थ नाम ओसिकानगर्यापख्यातं जातम् । तत्र भवो योगच्छः स उपकेशः प्रोद्यते सद्भिर्विद्वद्भिः । अत्र हि "भवे" इत्यनेन सूत्रेण अणि प्रत्यये "संज्ञा पूर्वकस्य विधेरनित्यत्वावृद्धरभावः" । श्रीरत्नप्रभसूरितः अनेक श्रावक प्रतिबोध विधानाऽनन्तरंलोके गच्छस्य उपकेश इति नाम प्रसिद्धं जात मिति द्वितीयोऽर्थः ॥ २ ॥ हिन्दी अनुवाद-उपवर्जिताः = छोड़े हैं केश जहाँ उस स्थान का नाम उपकेश अर्थात् श्रोसिका नगरी में एक सत्यका देवी का मन्दिर है और उसके आगे धनिक लोग अच्छा दिन देख वहाँ पर अपने पैदा हुए बच्चों का प्रथम मुण्डन संम्कार "झडूला बड़ा" कराते हैं। इससे उपकेश यह श्रोसिका नगरी से ही यथार्थ नाम प्रसिद्ध हुआ है । क्योंकि विद्वान् लोग व्याकरण नियमाऽनुसार वहाँ होने वाले पदार्थ को भी उसी नाम से संबोधित करते हैं । अतः उपकेश "श्रोसिका" से वहाँ पर प्रसिद्ध होने वाले गच्छ का भी उपकेश नाम होना शास्त्र संमत है । यहाँ पर "भावे" इस सूत्र से अण प्रत्यय होता है और "संज्ञा पूर्वस्य विधेरनित्यत्वात्" इस नियम से वृद्धि का अभाव हो जाता है अन्यथा "औपकेश' ऐसा शब्द बन जाता । निष्कर्ष-श्री रत्नप्रभसूरि से उपकेश "श्रोसिका" नगरी में अनेक क्षत्रियों का प्रतिबोध किये जाने पर लोक में उस गच्छ का भी उपकेश नाम प्रसिद्ध हो गया । यह उपकेश शब्द का दूसरा अर्थ है ॥ २॥ ३ मूल-को-ब्रह्मा, अः कृष्णः, अः शंकरः ततो द्वन्द्वे काः। तैरीष्टेऐश्वर्यमनुभवति यः सः केशः । कानां ईशः ऐश्वश्रयस्माद्वा केशः पारतीर्थिकः धर्मः सः उपवर्जितस्त्यक्तो यस्मात् स उपकेशस्तीर्थ कृदुक्त विशुद्ध धर्मः सः विद्यते यस्मिन् गच्छे स उपकेशः । अत्राऽपि "अभ्रादित्वाद प्रत्वयः" इति तृतीयोऽर्थः ॥३॥ हिन्दी अनुवाद-कः = ब्रह्मा श्रः = कृष्ण पुनः अः= शंकर इनका द्वन्द्व समास करने पर 'का' बना ! फिर तैः = उन ब्रह्मा कृष्ण और शंभु अर्थ वाले “का” से जो ऐश्वर्य को अनुभव करे वह हुआ केश अथवा कानां = ईशः केशः ब्रह्मा, कृष्ण और शंभु का है ऐश्वर्य जिससे ऐसा जो केश याने पारतीथक धर्म और वह पारतीर्थिक धर्म जिसने उपवर्जितः = याने छोड़ दिया है वह हुआ उपकेश याने तीर्थङ्करों से कहा हुआ विशुद्ध धर्म तथा ऐसा तीर्थकृदुक्त विशुद्ध धर्म जिस गच्छ में विद्यमान हो, उस गच्छ का नाम भी हुआ उपकेश । यहाँ पर भी "अभ्रादित्वात्" इस गण सूत्र से अप्रत्यय होता है। इस प्रकार उपकेश शब्द का यह तीसरा अर्थ है ॥३॥ 930 Jain Ed International Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष ४ मूल-कं च सुखं ई च लक्ष्मीः कयौ ते ईशे स्वायत्त यत्र यस्माद्वा सः केशः अर्थात् जैनोधर्मः । सः उपसमीपे अधिको वाऽस्माद्गच्छात् स उपकेश इति चतुर्थोर्थः ॥ ४ ॥ हिन्दी अनुवाद-क= सुख, ई = लक्ष्मी ये दोनों जिस धर्म में या जिस धर्म में तद्धर्मी मनुष्यों के स्वाधीन हैं उस धर्म का नाम हुआ केश अर्थात् स्वाधीन सुख संपत्ति वाला जैनधर्म । और वह धर्म ( जैन धर्म ) जिस गच्छ से उप = समीप में हो या जिससे अधिक प्राप्त हो उस गच्छ का नाम भी उपकेश गच्छ है । इस प्रकार यह इसका चौथा अर्थ है। ५ मूल-कश्च, अश्व, ईशश्च = केशाः ब्रह्मा विष्णु महेशाः । तद्धर्म निराकरणात्ते उपहताः येन सउपकेशः । प्रकरणादत्र श्री रत्नप्रभसूरि गुरुः तस्याऽय' उपकेशः । अत्राऽपि "तस्येद मित्यणि प्रत्यये पूर्वववृद्धेरभावो न दोष पोषणायेति पंचमोऽर्थः ॥ ५ ॥ हिन्दी अनुवाद-क, अ, और ईश इन तीनों से बना केश जिसका अर्थ होता है ब्रह्मा विष्णु और महेश । तथा उनके "ब्रह्मा विष्णु महेश के" धर्म का निराकरण करने के कारण ते = वे ( ब्रह्मा विष्णु महेश) उपहताः= दूर किये गए हैं येन = जिससे सः = वह हुआ उपकेश । प्रकरण वश यहाँ उपकेश नाम से श्री रत्नप्रभसूरि का ग्रहण करना चाहिये । बाद में तस्य = उस "उपकेश" विभूषित श्री रत्नप्रभसूरि का अयं = यह गच्छ है इससे इस गच्छ का नाम भी उपकेश प्रसिद्ध है। यहाँ पर भी "तस्येदम्" इस सूत्र से अण प्रत्यय होने पर पूर्ववत् वृद्धि का अभाव हो जाता है । यह उपकेश शब्द का पाँचवाँ अर्थ है। इत्थमन्येऽप्यनेकाः ग्रन्थाऽनुसारेण विधीयते । परमलं बहु श्रमेणेति । एव मुक्त व्यक्त युक्ति व्यतिशक्त्या ओकेशोपलक्षणे-- उभे अपि नाम्नी यथार्थे घटां प्राचत इति ओकेशोपकेश पद द्वयदशार्थी समाप्ता ।। हिन्दी अनुवाद-इस प्रकार ग्रंथों के अनुसार इन दोनों पदों के और भी अनेक अर्थ किए जा सकते हैं पर यहाँ पर मैंने संक्षेप से पूर्वोक्त दश अर्थ किये हैं, विद्वानों के लिये येही पर्याप्त हैं । तथा इस तरह की कथित प्रकट युक्ति व्यतिशक्ति से ओकेश शब्द के उपलक्षण रूप दोनों शब्द अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट करते हैं। इस तरह ओकेश श्रोपकेश इन दोनों पदों के दश अर्थ यहाँ समाप्त होते हैं। ॐ शान्तिः ३ ॥ इति संवत् १६५५ वर्षे श्रीमद्विक्रमपुरनगरे सकलवादी वृन्द कंद कुद्दाल श्रीककुदाचार्य सन्तानीय श्रीमच्छ्रीसिद्धसूरीणां आग्रहतः श्रीमबृहत्खरतर-गच्छीयवाचनाचार्य श्रीज्ञानविमल गणि शिष्य पण्डित श्रीवल्लभगणिविरचिताचेयम् ।। श्रीरस्तु । आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर के प्राचार पतित क्षत्रियों को मांस मदिरा और व्यभिचारादि कुव्यसन छुड़ा कर जैन धर्म की शिक्षा दीक्षा देकर जैनी बना कर इस जनसमूह का नाम 'महाजन-संघ रक्खा । इस संस्था ने आगे चल कर इतना जबरदस्त काम किया कि पिछले आचार्यों ने जब जब जैनेतरों को उपदेश देकर जैनधर्म में दीक्षित किया तो वे पूर्व स्थापित महाजन संघ में ही मिलाते गये। क्योंकि वे दूरदर्शी प्राचार्य इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि अपने बनाये नूतन जैनों को अलग रखेंगे तो ...१३५brary.org Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्षे] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वह शक्ति इनमें नहीं आवेगी कि जो सङ्गठन में है । अतः उपकेशपुर में प्रतिबोध पाने वाले तो उपकेशवंशी कहलाते ही हैं । पर बाद में उपकेशपुर के अतिरिक्त स्थानों में प्रतिबोध पाकर जैन बनने वाले संघी, भंडारी, मुनोयत, वरडिया, वाठिया, मावक, आर्य सुराणा, सांड, साँखला, संखलेचा, बोत्थरा, धाड़ीवाल आदि जातियां भी उपकेशवंश के नाम से ही ओलखाई जाने लगी। इतना ही क्यों पर पूर्वोक्त जातियों के दानवीर उदार नररत्नों ने हजारों, लाखों करोड़ों द्रव्य व्यय करके जैनमन्दिर मूर्तियां निर्माण करवा कर उनकी प्रतिष्ठा करवाई थी और उस उदार दिल वाले एक गच्छ के आचार्यों के पास नहीं,पर पृथक-पृथक गच्छ वाले श्राचार्यों के पास प्रतिष्ठा करवाई थी और उन उदार दिल वाले श्राचार्यों ने उन श्रावकों की जातियों ले के नामों के साथ उएश उकेश और उपकेशवंश जोड़ दिया था कि वे इस वंश की प्राचीनता एवं विशालता और संगठन बता रहे हैं । पाठकों की जानकारी के लिए नमूने के तौर पर कुछ शिलालेखों का वह विभाग यहां उद्धत कर दिया जाता है कि जिन जातियों के आदि में उपकेश वंश का उल्लेख हुश्रा है। मुनिश्री जिनविजयजी सम्पादित प्रा. जैन लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक वंश-गोत्र-जाति लेखांक वंश-गोत्र-जाति लेखांक वंश-गोत्र-जाति ३८५ उपकेशवंशे गणधर गोत्रे । ४१३ उपकेशज्ञाति लोढ़ा गोत्रे | ३८९ उ० चुन्दालिया गोत्रे ३८५ उपकेशज्ञाति काकरेच गोत्रे २९३ उपकेशवंशे वृद्ध शाखा | ३९१ उ० भोगर गोत्रे ३९९ उपकेशवंशे कहाड़ गोत्रे । २५९ उपकेशवंशे दरडा गोत्रे | ३६६ उ० रायभंडारी गोत्रे ३९८ उपकेशज्ञाति श्रीमाल २६० उपकेशवंशे प्रामेचा गोत्रे | २९५ उपकेशवंशीय वृद्ध सज्जनिय चंडालिया गोत्रे | २८९ उ० गुलेच्छा गोत्रे _ ४१५ उपकेशज्ञाति गदइया गोत्रे श्रीमान् बाबू पूर्णचन्दजी नाहर सं० जैनलेख संग्रह खंड १-२-३ ४ उपकेशवंशे जाणेचा गोत्रे ५० उपकेशज्ञातौ श्रादित्यनान गोत्रे ५०९ उपकेश ज्ञाति चोपड़ा गोत्रे ५ उपकेशवंशे नाहार गोत्रे ५१ उपकेशज्ञातौ बंब गोत्रे ५९६ उपकेश ज्ञाति भंडारी गोत्रे ६ उपकेशज्ञाति भादड़ा गोत्रे ७४ उ० बलहा गोत्रे रांका साखायां ५९८ ढेढिया प्रामे श्री उएस वशे ८ उपकेशवंशे लुणिया गोत्रे ७५ उकेशवंशे गन्धी गोत्रे ६१० उकेशवंशे कुर्कट गोत्रे १० उपकेशवंशे वारडा गोत्रे ९३ उकेशवंशे गोखरू गोत्रे ६१९ उपकेश ज्ञाति प्रावेच गोत्रे २९ उपकेशवंशे सेठिया गोत्रे ९९ उपकेशवंशे कांकरिया गोत्रे ६५९ उपकेशवंशे मिठडिया गोत्रे ४१ उपकेशवंशे संखवाल गोत्रे ४९७ उपकेशज्ञाति आदित्य नाग ६६४ श्री श्री वंशे श्री देवा + ४७ उपकेशवंशे ढोका गोत्रे गोत्रे चोरवडियया साखायां १०२२ उ० ज्ञाति विद्याधर गोत्रे १०८ उपकेशवंशे भोरे गोत्रे १२९२ उपकेश ज्ञाति आर्या गोत्रे १२७६ उ. ज्ञा०श्रेष्टिगोत्रेवैद्यसाखा १२९ उकेशवंशे बरडा गोत्रे लुणावत साखायां १३८४ उ. वंशे भूरिगोत्रे( भटेवरा) १३० उपकेशज्ञातौ वृद्धसजनिया १३०३ उपकेशवंशे सुराणा गोत्रे १३५३ उपकेश ज्ञातौ बोडिया गोत्रे ४०० उपकेशगच्छेतातेहड़ गोत्रे १३३४ उपकेशवंशे मालू गोत्रे १३८६ उ० ज्ञा० फुलपगर गोत्रे ४७३ उपकेशवंशे नाहटा गोत्रे १३३५ उपकेशवंशे दोसी गोत्रे १३८९ उपकेश ज्ञाति-बापणा गोत्रे १३६ १३६ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्षे ४८० उकेशवंशे जांगड़ा गोत्रे १०२५ उए ज्ञा० कोठारी गोत्रे १४१३ उकेशवंशे भणशली गोत्रे ४८८ उकेशवंशे श्रेष्टि गोत्रे १०९३ उ० ज्ञा० गुदेचा गोत्रे १४३५ उएसवंशे सुचिन्ती गोत्रे १२७८ उकेशज्ञा० गहलाड़ागोत्रे ११०७ उपकेश ज्ञाति डांगरेचा गोत्रे १४९४ उपकेश सुचंति १२८० उपकेश ज्ञातौ दूगड़गोत्रे १२१० उ० सीसोदिया गोत्रे १५३१ उ० ज्ञाती बलहागोत्र रांका १२८५ उएशवंशे चंडालिया गोत्रे १२५५ उपकेश ज्ञाति साधु साखायां १५१६ उपकेश ज्ञाती सोनी गोत्रे १२८७ उपकेशवंशे कटारिया गोत्रे १२५६ उपकेश ज्ञातौ श्रेष्टि गोत्रे १५८१ उपकेश वंशे श्रेष्टिगोत्रे इसी प्रकार आचार्य बुद्धिसागरसूरि एवं विजयेन्द्रसूरि के सम्पादित किये शिलालेख संग्रह की मुद्रित पुस्तकों में उपकेशवंश के प्रमाण तथा और भी अनेक शिलालेखों में ओसवाल जातियों के आदि में उपकेशवंश का प्रयोग हुआ है पर यहां पर तो केवल नमूने के तौर थोड़े से शिलालेखों को नम्बर के साथ उद्धृत किये हैं ।* जिस प्रकार ओसवालों की जातियों के साथ उपकेशवंश का प्रयोग हुआ है इसी प्रकार पोरवालों के साथ प्राग्वटवंश तथा श्रीमालियों के साथ श्रीमाल वंश एवं श्रीमाली जाति का प्रयोग हुआ है। इन शिलालेखों के अन्दर ओसवालों की प्रत्येक जातियों के आदि में उपकेशवंश का प्रयोग देख कर आपको इतना तो सहज ही में ज्ञात हो जायगा कि पूर्वाचार्यों का हृदय कितना विशाल था कि उन्होंने अपने या दूसरों के बनाये हुये जैनों की तमाम जातियों को उपकेशवंश में शामिल कर दी थीं। कारण, वे अच्छी तरह से समझते थे कि ओसवाल जाति की शुरुआत उपकेशपुर से ही हुई थी और शुरू से इस जाति का नाम उपकेशवंश ही था। इतना ही क्यों पर उन दूरदर्शी आचार्यों ने शुरू से महाजनसंघ की स्थापना करने वाले प्राचार्यश्रीरत्नप्रभसरीश्वरजी महाराज का सन्मान एवं सत्कार भी किया है। महाजन संघ, उपकेशवंश और ओसवाल जाति की मूल व्याख्या के पश्चात् अब इस जाति की उत्पत्ति के समय के विषय में जितने प्रमाण मुझे मिले हैं उनको तीन विभागों में विभक्त कर दिया है १-विभाग में पट्टावलियों के प्रमाण २- वंशवलियों के प्रमाण ३-ऐतिहासिक प्रमाण। इनके अलावा कई विद्वानों की सम्मतिऐं और जनाचार्य एवं मुनिवरों के लेखों को यथाक्रम आगे के पृष्टों में लिखने का प्रयत्न किया जायगा। यहाँ हमारा अभिप्राय केवल इस बात को ही सिद्ध करने का था कि उएश-उकेश-उपकेश शब्द जैनजातियों के साथ सर्वत्र व्यवहृत हुआ है। अतः उपरोक्त शिलालेखों के केवल उन्हीं शब्दों को नम्बरों के साथ दे दिया है क्योंकि समय का निर्णय तो हम आगे चल कर करेंगे। Jain EduCon International www१३७ary.org Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० ० पू० ४०० वर्ष | [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास "महाजन संघ उपकेशवँश और सवाल जाति की उत्पत्ति विषय पावल्यादि ग्रन्थों के प्रमाण O १ - हिमवन्त पट्टावली -- जैनपट्टावलियों में यह हिमवन्त पट्टावली सबसे प्राचीन पट्टावली है। इसके रचियता आचार्य हिमवन्तरि हैं । आपश्री का नामोल्लेख श्रीनन्दी सूत्र की स्थविरावली में मिलता है"जेसिमो अणुओगो पयरइ अजवि अड्डभरहम्मि, बहुनयर निग्गयजसे ते वन्दे खंदिलायरिए । ततो हिमवन्त महन्त विकमे थिइ परकमणंते, सझायणंतधरे हिमवन्त वंदिमोसिरसा || कलियसुय अणुओगस्स धारए धारएव पुव्वणं, हिमवन्त खमासमणे वन्दे गागज्जुणापरिए || आचार्य हिमवन्तरि आर्य खन्दिल के पट्टधर थे । अतः इतिहास के लिए प्रस्तुत पट्टावली बड़ी उपयोगी है । इसमें वर्णित घटनाओं में किसी प्रकार की शंका नहीं है फिर भी समय के लिए संशोधन की आवश्यकता है। "जसमद्दो मुणि पवरो, तप्पयसोहंकरो परो जाश्रो । अहमणंदोमगहे, रज्जंकुणइ तयाअइलोही || सुट्ठिय सुपडिबुद्धे, अज्जे दुन्ने वि ते नम॑सामि । भिक्खुराय - कलिंगा - हिवेण सम्माणिए जिट्ठे || हमवन्त पट्टावली वीर निर्वाण संवत् और जेनकाल गणना पृष्ट १६२ यशोभद्रसूरि नन्दराजा, श्रार्य सुस्थीसूरि, महाराजाभिक्षुराज ( खारवेल) वग़ैरह जो पट्टावली की उपरोक्त गाथा में वर्णन है वह सब उड़ीसा की खंडगिरिपहाड़ी की हस्ती गुफा से प्राप्त महामेघबाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल के शिलालेख से ठीक मिलता है । अतः इस पट्टावली की सत्यता में थोड़ी भी शंका को स्थान नहीं मिलता है । " वी० नि० जै० का० पृष्ठ १८०" प्रस्तुत हेमवंत पट्टावली को प्रखर इतिहासवेत्ता पं० मुनिश्री कल्याणविजयजी महाराज ने स्वरचित "वीर निर्वाण संवत् और जैनकालगणना" नामक प्रबन्ध में स्थान दिया है और उस पट्टावली के आधार पर लिखा है कि: " मथुरा निवासी ओशवंशशिरोमणि श्रावक पोलाक ने गंधहस्ती विवरण सहित उन सर्व सूत्रों को ताड़पत्रआदि में लिखवा कर पठन-पाठन के लिये निग्रन्थों को अर्पण किया । इस प्रकार जैनशासन की उन्नति करके स्थविर आर्यस्कंदिल विक्रम संवत् २०२ में मथुरा में ही अनशन करके स्वर्गवासी हुए " वी० नि० काला० पृष्ठ १८० प्रस्तुत लेख में गन्धहस्ती विवरण के लिये लिखा है वह विवरण यद्यपि वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, पर यत्र-तत्र कई शास्त्रों में इसके अस्तित्व के प्रमाण श्रवश्य मिलते हैं यथा: वि० [सं० ९३३ में आचार्यशीलांगसूरि हुये हैं श्रापने श्रीआचारांगसूत्र पर टीका बनाई है जिसके प्रारम्भ में आप लिखते हैं कि : शस्त्र परिक्षा विवरण मति, बहु गहनं च गंधहस्तिकृतम् । तस्मात् सुखबोधार्थ, गृहम्यहबञ्जसा सारम् ॥ Jain Educareinternational "श्रीश्राचारंगसूत्रटीका" Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [वि० पू० ४०० वर्ष इनके अलावा गंधहस्तीकृत तत्त्वार्थ भाष्य के सम्बन्ध में मध्यकालीन साहित्य में कहीं २ उल्लेख मिलता है जैसे "धर्मसंग्रहणीटीका" आदि में “यदाह गंधहस्ती-प्राणपानौ उच्छ्वास निश्वासौ" इत्यादि गंधहस्ती के ग्रन्थों के भी अवतरण दिये हुये मिलते हैं। इससे स्पष्ट पाया जाता है कि पूर्व जमाने में गन्धहस्ती आचार्य ने जैनागमों पर विवरण जरूर लिखा था जिसको प्रोसवंशशिरोमणिश्रावकपोलक ने लिखवा कर जैनश्रमणों को स्वाध्याय करने के लिये समर्पण किया था पोलाक के साथ ओसवंश शिरोमणि विशेषण स्पष्ट बतला रहा है कि उस समय मथुरा में इस वंश की संख्या विशेष थी तब ही तो पोलाक को ओसवंश शिरोमणि कहा है। जब हम ओसवंश की वंशाललियों को देखते हैं तो पता मिलता है कि उस समय मथुरा में जैनमंदिर बनाने एवं जैनाचार्यों की आग्रहपूर्वक विनती करके चतुर्मास करवाने वाले बहुत श्रावक बसते थे जो हम आगे चल कर वतलावेंगे। तथा आय्य स्कन्दिल ने वाचना जैसा वृहद् कार्य उसी मथुरा में प्रारंभकिया था अतः यहां जैनों की घन वसति हो इसमें शंका ही क्या हो सकती है। प्रस्तुत पट्टावली में उपकेशवंश की उत्पत्ति के विषय में भी लिखा है कि: "भगवान महावीर के निर्वाण से ७० वर्ष बाद पार्श्वनाथ की परम्परा के छ? पट्टधर आचार्य रतप्रभ ने उपकेशनगर में १८०००० क्षत्रिय पुत्रों को उपदेश देकर जैनधर्मी बनाया, वहाँ से उपकेश नामक वंश चला। 'जैनकाल गणना० पृष्ट १६५' इस लेख से भी पाया जाता है कि वीरनिर्वाणात् ७० वें वर्ष में आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा उपकेशपुर में उपकेशवंश की उत्पत्ति हुई थी इसी प्रकार पं० हीरालाल हंसराज जामनगरवालों ने हेमवंत पट्टावली का आधार लेकर लिखा है:__"मथुरा निवासी अने श्रावकों मां उत्तम अने ऊसवंस मां शिरोमणि एवा पोलाक नामना आदित्यनागगौत्र-चोरडिया शाखा में भैंसाशाह नाम के चार पुरुष हुए और चारों ही नामी हुए जैसे १-वि० सं० २०९ में श्रीशत्रुञ्जयतीर्थ का विराट्संघनिकाला जिसकावर्णन नागोरीजी ने एवं डांगीजी ने अपने लेख में किया है २-वि० सं० ५०८ में अटारू ग्राम में भैसाशाह ने जैनमन्दिर बनाया जिसका शिलालेख मुन्शी देवीप्रसादजी की शोधखोज से प्राप्त हुआ और मुन्शीजी ने "राजपूताना की शोधखोज" नामक पुस्तक में विस्तार से मुद्रित भी किया है। ३-वि० सं० ११०८ में भैंसाशाह हुआ। आपके अपार लक्ष्मी थी और गदियाणा नाम का सिका चलाने से आपकी सन्तान 'गदइया' नाम से प्रसिद्ध हुई, वे अद्यावधि विद्यमान हैं। ४-विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में नागोरशहर में भैंसाशाह हुआ जिसके वृद्ध भ्राता 'बालाशोह' ने नागौर में भगवान ऋषभदेव का मन्दिर बनाया वह इस समय बड़ा मन्दिर के नाम से विद्यमान है। 930 www.aantihary.org Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्रावके गंधहस्तीजीए करेला विवरणो सहित ते सगला सूत्रो ताड़पत्र आदिक पर लिखावी ने स्वाध्याय करवा माटे निग्रन्थों ने समरपन करिया ए रीते श्री जिनशासन नी प्रभावना करीने श्रीआर्यस्कंदिल स्थविर विक्रमअर्कना वे सो वे मां वर्ष मां मथुरा नगरी मां अनशन करीने स्वर्गे गया"। ___ आंचलच्छ पटावली पृष्ट १६ श्रीमान् चन्दनमलजी नागोरी ने ता० २०-११-१९२५ के जैनपत्र जो भावनगर से प्रकाशित होता है उस में वि० सं० २०९ में आदित्यनाग गोत्रीय श्रीमान् साशाह के श्रीश@जय तीर्थ की यात्रा निमित्त निकाले हुये संघ के विषय में एक विस्तृत लेख लिखा है, इससे हमारी उपरोक्त हेमवंतपट्टावली की बात और भी पुष्ट हो जाती है। ____ श्रीमान् मनोहरसिंहजी डांगी ने 'श्रोसवाल सुधारक' नामक अखबार के ता० २०-६-३६ के अंक में प्रस्तुत 'भैंसाशाह के संघ का वर्णन' वाला लेख निकाला है। डांगीजी ने भैंसाशाह का आदित्यनाग गोत्र और इसकी चोरडिया शाखा तथा वि० सं० ११०८ में चौरडियों से गदइया शाखा निकली लिखी है पर इसकी उत्पत्ति के विषय में भूल भी की है। वि० सं० २०२ में श्रादित्यनाग गोत्र से चोरडिया जाति का नाम-संस्करण हुआ, यह उल्लेख वंशावलियों में मिलता है, अतः वि० सं० २०९ में भैंसाशाह ने तीर्थाधिराज श्रीशधुंजय का विराटसंघ निकाला हो तो यह संभव हो सकता है। __ ओसवालों की उत्पत्ति का समय वि० सं० २२२ का जनप्रवाद सर्वत्र प्रसिद्ध है। आप किसी भी ओसवाल को पूछेगे तो वह फौरन जवाब देगा कि ओसवालों की उत्पत्ति बीयेबावीस में हुई, कई कुलगुरुओं की वंशावलियों में भी बीयेबावीस तथा भाटों की विरुदावलियों में भी ओसवालोत्पति का समय बीयेबावीस का ही लिखा मिलता है और इस विषय के कई कवित्त भी मिलते हैं। आभा नगरी थी आव्यो, जग्गो जग में भाण । साचल परचो जब दीयो, जब शीश चड़ाई आण।। जुग जीमाड्यो जुगत सु, दीधो दान प्रमाण । देशल सुत जग दीपता, ज्यारी दुनिया माने कॉण ॥ चूप धरी चित भूप, सेना लई आगल चाले । अरबपति अपार, खडबपति मिलीया माले ॥ देरासर बहु साथ, खरच सामो कौण भाले। घन गरजे बरसे नहीं, जगो जुग वरसे अकाले ॥ यति सती साथे घणा, राजा राणा बड़ भूप । बोले भाट विरुदावली, चारण कविता चूप ॥ मिलीया सेवग सांमटा, पूरे संख अनूप । जग जस लीनो दान दे यो जग्गो संघपति भूप ॥ दान दियी लख गाय, लखवलि तुरंग तेजाला । सोनो सौ मण सात, सहस मोतियन की माला॥ रूपा तो नहीं पार, सहस करहा कर माला । बीयेबावीस भल जागियो, यो ओसवाल भूपाला ॥ इस कवित्त को इतना प्राचीन तो नहीं समझा जाता है कि घटना समय में बना हुआ हो, फिर भी इसको बिल्कुल निराधार भी नहीं कहा जा सकता है । कारण, यह कवित्त भी किसी हकीकत पर से ही बना होगा। इस कवित्त में भाट भोजकों को दान देने में संघपति ने दान में करोड़ों का द्रव्य व्यय किया है जिसको देख कर किसी को श्राश्चर्य एवं शंका करने की आवश्यकता नहीं है। कारण, इस उपकेश वंश को वरदान था कि "उपकेशे षहुलंद्रव्यं" उपकेश वंश वाले ज्यों २ शुभ कार्यों में द्रव्य व्यय करते रहेंगे Jain Educ e rnational Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष त्यों २ उनके द्रव्य की पुष्कल वृद्धि होती रहेगी। केवल एक जगाशाह ने ही नहीं पर ऐसे तो सैंकड़ों हजारों उदार दानेश्वरी हुये हैं कि एक धर्म कार्य में लाखों नहीं पर करोड़ों द्रव्य व्यय किया था। वह जमाना तो जैनों के उत्कृष्ट अभ्युदय का था, पर आज गये गुजरे जमाने में भी जैनी लोग धर्म के नाम पर लाखों रुपये व्यय कर रहे हैं। सेठ कर्मचन्द नगीनचंद पाटण वालों के संघ में छः लक्ष, सेठ माणकलाल भाई अहमदाबादवालों के संघ में दश लक्ष, सेठ घारसी पोपटलाल जामनगर वालों के संघ में पांच लक्ष और संघपति पाँचूलालजी वैद्य मेहता फलोदी वालों के संघ में सवा लक्ष रुपये स्वर्च हुए थे। जब हम पाश्चात्य उदार गृहस्थों की ओर देखते हैं तो एक एक व्यकि विद्या प्रचार एवं धर्म प्रचार के लिये करोड़ करोड़ पौंट बात की बात में दे डालते हैं तो उस जमाने में इतना व्यय कर देना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। वि० सं० ११५ में उपकेशगच्छ में एक यक्षदेवसूरि नाम के महाप्रभाविक एवं दशपूर्वधर आचार्य हुये हैं जो आर्य बजूस्वामी के समकालीन थे। श्राप सोपारपट्टन में विराजते थे उस समय आर्य वजूसेन अपने नवदीक्षित चन्द्र, नागेन्द्र, निवृति और विद्याधर नामक चार शिष्यों को पढ़ाने के लिये सोपारपट्टण में आये चन्द्रादि चारमुनि किस वंश जति के थे, इस विषय का एक लेख उपाध्याय छगनलाल शान्तिलाल ने आत्मानन्द शताब्दी प्रन्थ के गुजराती विभाग पृष्ठ १०० पर प्रकाशित करवाया है जिसमें लिखा है कि: "आर्य वज्रसेन ने ( उक्कोसिया गोत्रना) चार स्थविरों शिष्यों तरीके हता" ___ उपाध्यायजी यह 'उक्कोसिया' शब्द कहां से लाये होंगे ? यह खास कल्पसूत्र से ही लिया गया है । कारण, उक्केस, उक्केशी, उक्केशिय वंश को ही शायद उक्कोसिया कहा हो तो असंभव भी नहीं है। उक्के शिय और उक्कोसिया एक ही वश एवं गोत्र का नाम हो तो निःशंक होकर कहना चाहिये कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में उपकेशवंश के उदार वीरों का मथुरा में विस्तृत परिमाण में अस्तित्व था। ___ जब हम वंशावलियों की ओर देखते हैं तो उपकेशियवंश के बलाहगोत्र बापना गोत्र, चींचटगोत्र श्रेष्टि गोत्र और आदित्यनागादिगोत्र के कई उदार वीरों ने विक्रम की दूसरी तीसरी चौथी शताब्दी में मथुरा, आभापुरी, चंदेरी आदि नगरियों में जैन मन्दिर बनाने के प्रमाण मिलते हैं और यह बात असंभव भी नहीं है क्योंकि वि. पू. ९७ वर्ष अर्थात वीरात् ३७३ वर्षे उपकेशपुर में भगवान महावीर की मूर्ति के वक्षस्थल पर प्रतिष्ठा के समय जो दो प्रन्थिये रह गई थी जिसको छेदन करवाने के लिये टांकी लगाते ही रक्त की धारा बहने लग गई थी अर्थात् बड़ा भारी उत्पात मच गया, उसकी शांति के लिये आचार्य कक्कसूरि की अध्यक्षता में वृहद् शान्ति स्नात्र पूजा पढ़ाई गई थी, उस समय १८ गोत्र वाले धर्मज्ञ लोग स्नात्रिये बने थे, जिसका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में इस प्रकार मिलता है । "तप्तभट्टोबप्पनागर, स्ततःकर्णाट३ गोत्रजः । तुर्यो बलाभ्यो नामाऽपि. श्रीश्रीमालः५पंचमस्तथा। कुलभद्रो मेरिषश्च , विरिहिया हयोऽष्टमः। श्रेष्टि गोत्राण्य मृन्यासन् पक्षे दक्षिण संज्ञ के ॥ सुचिन्तता'ऽऽदित्यनागौर, भूरि भोद्रऽथचिंचटि:५। कुंभट : कान्यकुब्जौऽथ डिडुभाख्योऽष्टमोऽपिच।। तथाऽन्यः श्रेष्टि ९ गोत्रोयो, महावीरस्य वामतः । नव तिष्ठन्ति गोत्राणि, पंचामृत महोत्सवे ॥ ___ "उपकेश गच्छ चरित्र" इसमें ९ गोत्र वाले प्रभु प्रतिमा के डायें और ९ स्नात्रिये जीमणी ओर पूजापा लेकर खड़ा होना लिखा है www. g ary.org Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जब कि वि०पू० एक शताब्दी में १८ गोत्र केवल पूजा में स्नात्रिये हुये थे तो संभव है कि इनके अलावा भी उपकेशपुर में तथा अन्य नगरों में और भी कई गोत्र होंगे परन्तु उन्हें जानने के लिये हमारे पास इस समय कोई साधन नहीं है फिर भी हम यह तो दावे के साथ कह सकते हैं कि विक्रम की दूसरी तीसरी चौथी शताब्दी में उपकेशवंश के वीरों ने अनेक धर्म कार्य किये थे जो वंशावलियों में आज भी उपलब्ध होते हैं। इत्यादि प्रमाणों से हेमवन्त पट्टावली विक्रम की दूसरी शताब्दी में लिखी गई हो तो उस समय ओसवाल वंश शिरोमणि पोलाक श्रावक के होने में सन्देह करने की कोई बात नहीं है । अब हम आगे चल कर और पट्टावलिये उद्धृत कर देते हैं कि जिससे हेमवन्त पट्टावली पर और भी प्रकाश पड़े। - २-उपकेशगच्छीय पट्टावलियादि ग्रन्थ अन्यदा स्वयंप्रभसूरि देशनाँ ददाताँ उपरि रत्नचूड़ विद्याधरो नंदीश्वरे गच्छन् तत्र विमानः स्तंभितः। x गुरुणा लाभंज्ञात्वा तस्मैदीक्षादत्ता । क्रमेणद्वादशाङ्ग चतुर्दश पूर्वी बभूव,गुरुणा स्वपदे स्थापितः श्रीमद् वीरजिनेश्वरात् द्वपंचाशतवर्षआचार्यपदे स्थापितः पंचशतसाधुभिः सह धराँविचरति x तत्र श्रीमद्रत्नप्रभसूरि पंचसयाशिष्य समेत लुणद्रही समायति x मासकल्प अरण्येस्थिता x सपादलक्षश्रावकानाँ प्रतिबोधकारक x प्रचुराजनाः श्रावकत्वः प्रतिपन्ना। क्रमेण श्रीरत्नप्रभाचार्य वीरात् ८४ वर्षे स्वर्गगत : उपकेशगच्छ पट्टावली १८४ एवं प्रबोध्यतां देवीं सर्वत्र विहरन् प्रभुः । सपादलक्ष श्राद्धानामधिकंप्रत्यबोधयत् ॥ उमकेशगच्छ चरित्र श्रीमहावीरनिर्वाणाद द्विपंचाशति वत्सरे । गुरोः सूरिपदं प्राप्य ततोऽष्टादशहायनैः ।। ऊकेश-कोरण्टकयोः पुरयोस्त्रिशला भुवः। जिनस्य विम्वे संस्थाप्य चामुण्डाँ प्रतिबोध्य च ॥ सपादलक्षमधिकश्रद्धानाँ प्रतिबोध्य च । चारित्रं निरतीचारं पालयित्वा यथोदितम् ॥ नाभिनन्दन जिनोद्धार पृष्ट ४५ रयणप्पभस्व रिहिं उएशपुरे थप्पिओ उएसवंसं, संठविओ महावीरं वीरनिव्वाणगओ चुल्लासी वरिसेहि सत्तुज्जे सग्ग संपत्तो तस्स पट्टवर जक्खदेवों जक्ख पडिबुद्धो गयो सिन्ध भूमिओ जत्थ राव रुद्दाट पुत्त कक्काइजिणधम्मे थिरिकओ ॥ भगवान महावीर के मंदिर की प्रतिष्ठा के समय के विषय में देखियेयत्रास्ते वीरनिर्वाणत्सप्तत्यावत्सरैर्गतैः । श्री मद्रत्नप्रभाचायः, स्थापितं वीर मंदिरम् ॥ "नाभिनन्दन जिनोद्वार" उपकेशे च कोरंटे, तुल्यं वीर बिम्बयोः । प्रतिष्ठा निर्मिता शक्तया, श्री रत्नप्रभसूरिभिः ॥ "उपकेरागच्छ पट्टावली" उपकेशगच्छ प्रबन्ध हस्त लिखित १५२ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CIRicorn 12. 4 -0-- - -- - ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्षे सप्तत्यावत्सराणाँ चरमजिनपते(क्त जातस्य वर्षे । पंचम्याँ शुक्लपक्षे सुर गुरू दिवसे ब्रह्मणः सन्मुहूर्ते ॥ रत्नाचार्यैः सकल गुण युतैः सर्व संघानुज्ञातैः । श्रीमद्वीरस्य बिंबे भव शतमथने निर्मितेयं प्रतिष्ठा ॥ "उपकेशगच्छ चरित्र" "उपकेशगच्छे श्रीरत्नप्रभसूरियेन उएशनगरे कोरंटनगरे च समकालं प्रतिष्ठाकृता रूपद्वय कारणेन चमत्कारश्च दर्शिताः।" ___ "कल्पसत्र की कल्पद्रु म कलिका टीका स्थविरावलि" ततः श्रीमत्युपकेशपुरे, वीर जिनोशेतुः । प्रतिष्ठाँ विधिनाऽऽधाय श्रीरत्नप्रभसूरयः ॥ कोरंटकपुरंगत्वा व्योम मार्गेण विद्यया । तस्मिन्नेव धनुर्लग्ने, प्रतिष्ठाँ विदधुर्वराम् । श्री महावीरनिर्वाणात्सप्तत्यावत्सरैर्गतः। उपकेशपुरे वीरस्य सुस्थिरा स्थापनाऽजनि ॥ नाभिनन्दन जिनोद्धार" ___ इन पट्टावल्यादि प्रन्थों से निश्चय होता है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीरात् ७०वर्षे श्रावण कृष्णा चतुर्दशी के शुभ दिन उपकेशपुर में 'महाजनसंघ' की स्थापना करी और उसी वर्ष के माघ शुक्ल पंचमी के दिन शुभ मुहूर्त में शासलाधीश चरम तीर्थकर भगवान महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई। वे मन्दिर आज भी ओसियां एवं कोरंटपुर में विद्यमान हैं। विक्रम की दूसरी शताब्दी में उपकेशगच्छाचार्य श्रीयक्षदेवसूरि जो पहले बतलाए जा चुके हैं। श्राप एक समय सोपारपट्टन में विराजते थे। उस समय बज स्वामी के पट्टधर वनसैनाचार्य ने चार शिष्यों को दीक्षा दी और वे सपरिवार सोपारपट्टण यक्षदेवसूरि के पास ज्ञानाभ्यास के लिए आये । और वे शिष्यों को ज्ञानाभ्यास करवाने लगे । बीच में ही अकस्मात् श्राचार्य वनसैनसूरि का स्वर्गवास हो गया । बाद उन चारों शिष्यों को आचार्यश्री ने स्वशिष्यों से भी विशेष समझ कर खूब ज्ञानाभ्यास करवाया, इतना ही क्यों पर उन चारों मुनियों के बहुत से शिष्य करवा कर शुभ मुहुत्त में आगम विधि अनुसार क्रिया कल्प करवा कर वासक्षेप देकर सूरिपद से विभूषित किया, तत्पश्चात् उन चारों सूरियों ने प्राचार्य यक्षदेवसूरि का परमोपकार मानते हुए भूमंडल पर विहार किया । अहा ! हा! पूर्व जमाने में जैनाचार्यों की कैसी वात्सल्यता ! कैसी उदारता !! और शासनप्रति कैसी शुभभावना !!! कि समुदाय या गच्छ का किसी प्रकार का भेदभाव न रखते हुये एक दूसरे को किस प्रकार सहायता करते थे जिसका यह एक ज्वलन्त उदाहरण है। यही कारण है कि जैनधर्म की सर्व प्रकार से उन्नति हो रही थी। अस्तु । वे चन्द्रादि चारों सूरीश्वर महान प्रभाविक हुये कि उन चारों के नाम पर चार कुल अथवा चार शाखा प्रसिद्ध हो गई और उन चार कुल एवं शाखाओं में बड़े-बड़े धुरन्धर आचार्य हुए, जिन्होंने जैनधर्म का खूब ही उद्योत किया । जैसे कि : १-- चन्द्रसूरि से चन्द्रशाखा-जिसमें सर्वदेवसूरि, हेमचन्द्रसूरि, विजयहीरसूरि, श्रादि तथा बड़गच्छ तपागच्छ पूर्णतालगच्छ आदि ये सब चन्द्रकुल में हुये । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पट्टावली समुचय पृष्ट १८९ २-नागेन्द्रसूरि से नागेन्द्रकुल-जिसमें उदयप्रभसूरि मल्लिसैनसूरि आदि कई महाप्रभाविक आचार्य हुए जिन्होंने लाखों अजैनों को जैन बना कर जैन संख्या की वृद्धि की! ३-निवृत्तिसूरि से निर्वृत्ति कुल-जिसमें शेलांगाचार्य; द्रोणाचार्य, सूराचार्य गर्गाचार्य आदि धुरन्धर आचार्य हुए निनके चरणकमलों में अनेक भूपति सिर झुकाते थे। ४-विद्याधरसूरि से विद्याधरकुल-जिसमें १४४४ प्रन्थों के रचयिता आचार्य हरिभद्रसूरिआदि महाप्रभाविक आचार्य हुए । जो जैन जैनेत्तर लोगों में खूब मशहूर हैं। इस विषय का उल्लेख उपकेशगच्छपट्टावली में इस प्रकार मिलता है । ___"एवं अनुक्रमेण श्रीवीरात ५८५ वर्षे श्रीयक्षदेवसरिर्बभूव महाप्रभावकर्ता, द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षमध्ये वनस्वामी शिष्य वज्रसेनस्य गुरौ परलोक प्राप्ते यक्षदेवसरिणा चतस्रः शाखाः स्थापिता "इत्यादि।" भावार्थ-श्रीवीर के निर्वाणकाल से ५८५ वर्ष बीतने पर महाप्रभाविक श्रीयक्षदेवसूरि प्राचार्य हुये। इस समय दुर्दैववश १२ वर्ष का अकाल पड़ने पर वजूस्वामी के शिष्य श्री वज्रसेनसूरि के परलोक प्रयाण करने पर श्रीयक्षदेवसुरि ने चार शाखायें स्थापित की जिसका वर्णन ऊपर लिखा जा चुका है। इनके अलावा उपकेशगच्छ चरित्र में भी इस विषय का उल्लेख मिलता है। तदन्वये यक्षदेवसरिरासीद्धियां निधिः । दशपूर्वधरोवज्रस्वामीभुव्यभवद्यदा ॥ दुर्भिक्षे द्वादशाब्दीये, जनसंहारकारिणी । वर्तमानेऽनाशकेन, स्वर्गेऽगुबहुसाधवः ॥ ततो व्यतीते दुर्भिक्षेऽवशिष्टान् मिलितान् मुनीन् । अमेलयन्यक्षदेवा, चार्याचन्द्रगणे तथा॥ तदादि चन्द्रगच्छस्य, शिष्य प्रव्राजनाविधौ । श्राद्धानाँ वास निक्षेपे, चन्द्रगच्छः प्रकीय॑ते ।। गणः कोटिक नामापि, वज्रशाखाऽपिसंमता । चान्द्रं कुलं च गच्छेऽस्मिन, साम्प्रतं कथ्यते ततः।। शतानि पंच साधूना, पुनगच्छेऽपिमिलनिह । शतानि सप्त साध्वीना,तथोपाध्याय सप्तकम् ॥ दशद्वौवाचनाचार्या, श्चत्वारो गुरवस्तथा । प्रवर्तकौ द्वावभूताँ, तथैवोभे महत्तरे ॥ द्वादशस्युः प्रवर्त्तिन्यः; सुमीति द्वौ महत्तरौ । मिलितौ चन्द्रगच्छान्तः सङ्खयेयं कथ्यते गणे॥ ___ "उपकेशगच्छ चरित्र अर्थ-दशपूर्वधर श्राचार्य वज्रसूरि के सदृश अनेक गुणनिधि आचार्य यक्षदेवसूरि भूमण्डल पर विहार करते थे, उस समय बारह वर्षीय जनसंहार करने वाला भीषण दुष्काल पड़ा था । जब धनिक लोगों के लिए मोतियों के बराबर ज्वार के दाने मिलने मुश्किल हो गये थे तो साधुओं के लिए भिक्षा का कहना ही क्या था ? यदि कहीं मिल भी जाय तो सुख से खाने कौन देता ? उस भयंकर दुकाल में यदि कोई व्यक्ति अपने घर से भोजन कर तत्काल ही बाहर निकल जावे तो भिक्षक उसका उदर चीर कर अन्दर से भोजन निकाल कर खा जाते थे । इस हालत में कितने ही जैनमुनि अनशनपूर्वक स्वर्ग को चले गये । शेष रहे हुए मुनियों ने ज्यों-त्यों कर उस दुष्काल रूपी अटवी का उल्लंघन किया। जब वज्रसूरि के पट्टधर वनसैन के निमित्त ज्ञान से अकाल के बाद सुकाल हुआ तो आचार्य यक्षदेवसूरि (चन्द्रादि चार मुनियों को पढ़ाने वाले ) ने रहे हुए साधुओं को एकत्र किये तो ५०० साधु, ७०. साध्वियां, ७ उपाध्याय, १२ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Jain E ng International Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्षे वाचनाचार्य ४ गुरु ( आचार्य ), प्रवर्तक, २ महत्तर ( पदविशेष ) १२ प्रवर्तनी, महत्तरिका इत्यादि सबको शामिल मिला कर गच्छ मर्यादा बांध दी कि इस चंद्रकुल में आज से यदि किसी को दीक्षा दी जाय अथवा श्रावक को समकित या व्रत उच्चाराया जाय उस समय वासक्षेप दिया जाता है उस समय कोटिक गण वजीशाखा और चंद्रकुल के नाम लिये जायंगे इत्यादि । यह मर्यादा चंद्रकुल की परम्परा में अद्यावधि विद्यमान है। इस प्रमाण से यह बात स्पष्ट सिद्ध हो जाती है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में उपकेशगच्छ के अन्दर बड़े २ विद्वान् मुनि और यक्षदेवसूरि सरीखे पूर्वधर श्राचार्य विद्यमान थे, इससे अधिक प्रमाण क्या हो सकता है। इस विषय में आचार्य विजयानन्द सूरीश्वरजी अपने जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर नामक ग्रंथ के पृष्ठ ७७ पर प्राचार्य यक्षदेवसूरि द्वारा चंद्रादिक चार कुलों की थापना होना बतलाया है जो इसी निबन्ध में आप श्री के किये हुये प्रश्नोत्तरों को ज्यों के त्यों उद्धृत कर दिया जायगा । ३ कोरंटगच्छीय पट्टावली आदि ग्रन्थ वीर निर्वाणात् ७० वें वर्षे प्राचार्यरत्नप्रभसूरि उपकेशपुर नगर में श्राव्या ! उठे आहार पाणी रों जोग नहीं मिल्यो तरे कनकप्रभादि ४६५ साधु विहार करने कोरंटपुर में चौमासो किधो । ज्यारे मुनिवर ना उपदेश सुं कोरंटपुर में महावीरजी रो एक मन्दिर बणायो । उठीने रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर का राजा उपलदेव तथा मंत्रीऊहड़ और सवालक्ष राजपतों ने जैनधर्म के श्रावक बनाया और मंत्रीऊहड़ ने महावारस्वामी रो मन्दिर बनायो उण वख्त कोरंटपुर का संघ रत्नप्रभसूरि री विनती करणने उपकेशपुर गयो तरे रत्नप्रभसूरि कह्यो के अठे पण महावीरजी रा मन्दिर री प्रतिष्ठा करवाणी है जिणरो मुहुर्त माघ शुद्ध ५ रो है ने थारों उठारा मन्दिर को मुहुत पण माघ शुद्ध ५ को है । पण संघरा आने से रत्नप्रभसूरि हामल भरी । पछे मुहूर्त पर दोय रूप बना कर एक सुं उपकेशपुर दूसरा से कोरंटपुर में प्रतिष्ठा कराई तिके दोनोंई मन्दिर आज सुधी ऊभा छे इत्यादि । कोरंटपुर की हस्तलिखित पट्टावली पन्ना ३ आचार्य विजयानन्दसूरिजी महाराज फर्माते हैं कि : तथा अयरणपुर की छावनी से ६ कोस के लगभग कोरंट नाम नगर उज्जड़ पड़ा है जिस जगा कोरंटानामें आज के काल में गाँव बसता है तहां भी श्री महावीरजी की प्रतिमा मन्दिर की श्री रत्नप्रभसूरिजी की प्रतिष्ठा करी हुई अब विद्यमान काल में सो मन्दिर खडा है । जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर नामक ग्रन्थ पृष्ठ८१' कोरंटगच्छ के विषय तो पाठक प्राचार्यरत्नप्रभसूरि के जीवन में पढ़ आये हैं कि कोरंटगन्छ की उत्पत्ति कोरंटपुर में आचार्यकनकप्रभसूरि से ही हुई है जिसकी प्रमाणिकता के लिए 'प्रभाधिक चरित्र' में एक देवचन्द्रोपाध्याय का उदाहरण मिलता है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में कोरंटपुर के महावीर मन्दिर में देवचन्द्रोपाध्याय रहता था जिसको सर्वदेवसूरि ने चैत्यवास छुड़ा कर उप विहारी बनाया इत्यादि । जैसे किः तत्र कोरंटकं नाम पुर मस्त्युन्नता श्रयम् । द्विजिह्व विमुखायत्र विनता नन्दना जनाः ॥ तत्राऽस्ति श्री महावीर चैत्यं चैत्यं दधद् दृढ़म । कैलाश शैलबद्भाति सर्वाश्रय तयाऽनया॥ उपाध्यायोऽस्ति तत्र श्रीदेवचन्द्र इति श्रतः । विद्ववृन्द शिरोरत्न तमस्ततिहारो जनैः ॥ Jain Education Internal www.984 pary.org Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० ० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 1 आरण्यक तपस्ययाँ, नमस्ययाँ जगत्यपि । सक्तः शक्तान्तरं गाऽरि विजये भवतीर भूः ॥ सर्वदेवप्रभु सर्व देव सद्ध्यान सिद्धिभृत् । सिद्धिक्षेत्रे पिपासुः श्री वारणस्याः समागमत् ।। बहुश्रत परिवारो विश्रान्तस्तत्र वासरान् । काँश्चित प्रबोध्यतं चैत्यव्यवहार ममोचयत् ।। स पारमार्थिकं तीव्रं धत्ते द्वादशधा तपः । उपाध्याय स्ततः सूरि पदे पूज्येः प्रतिष्ठितः ॥ "प्रभाविक चारित्र मानदेव प्रबन्ध पृष्ठ १६१ ' उपाध्याय देवचन्द्र का समय विक्रम की पहिली या दूसरी शताब्दी का माना जाता है, श्रतः कोरंटपुर का महावीर मंदिर उस समय के पूर्व का बना हुआ था और उसकी प्रतिष्ठा उन्हीं रत्नप्रभसूरि द्वारा हुई थी कि जिन्होंने उपकेशपुर में प्रतिष्ठा कराई थी । कोरंटपुर की प्राचीनता का एक और भी उल्लेख मिलता है जैसे कि : --- "उपके गच्छे श्रीरत्रप्रभसूरिः येन उसियानगरे कोरंटकनगरे च समकालं प्रतिष्ठाकृता रूपद्वयकरणेन चमत्कारश्च दर्शितः " "कल्पसूत्र की कल्पद्र मकलिका टीका के स्थविरावली अधिकार में " इनके अलावा 'गच्छमतप्रबन्ध' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ २५ पर श्री श्राचार्य बुद्धिसागरसूरि लिखते हैं × × × “वि० सं० १२५ माँ कोरंटनगरना नाहड़ मंत्री सत्यपुर मां जिनमन्दिर बंधाव्यं तेमां महावीरप्रभु जी प्रतिमानी प्रतिष्ठा श्रीजज्जकसूरि करी 'जय उवीर सच्चउरीमंडण' अ चैत्यवन्दन मां तेनो पाठ छे वि० सं० १२५ मां कोरंटगच्छ जेना थी प्रसिद्ध थयो ते कोरंटनगरनी जाहोजलाली प्रवर्तती हती" कोरंटगच्छ की उत्पत्ति तो ऊपर बतलाते हुये कनकप्रभसूरि से ही हो गई थी। शायद यह ज्जजगसूरि कोरं गच्छ के कोई श्राचार्य होंगे और मन्त्री के बनाये हुये किसी महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई होगी। मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी ( वर्त्तमान में श्राचार्य) लिखते हैं कि : यह मन्दिर अन्दाजन २४०० वर्ष का पुराना है । इसकी प्रतिष्ठा पार्श्वनाथ सन्तानिये श्रीरत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज ने श्रीवीर निर्वाण से ७० वर्ष वाद प्रोसियोंजी के करके एक ही लग्न में की थी। ४ श्री तपागच्छीय पटटावल्यादि हवे श्री पार्श्वनाथ ना प्रथमगणधर श्रीशुभेय नामे तष्यशिष्या शिष्याचाय्र्य चार्य हरिदत्त श्रीसमुद्रस्वामी । तस्य शिष्याचार्य्य श्री केशी । श्री वीरवारे केशी स्वामि । तस्य तस्स शिष्य श्री स्वयं प्रभसूरि । तस्य शिष्याचार्य्यं श्री रत्नमभसूरि प्रगट हुआ । तेहने श्रीवीर मुक्ति पछो वर्ष बावन आचार्य पद हुऔ । श्रीवीरमुक्ति गया पछी वर्ष पचेस्तरे ( ७० ) ओईसा नगरी चामुण्डा प्रतिबोधी घणा जीवने अभयदान देई साचिल्ल नाम दीधु । पुनः तेहीज नगर नो स्वामी परमार (सूर्यवंशी) श्रीउपलदेव प्रति धर्मोपदेश देई एक लापनें नवाणु हजार गोत्री (५-२ ) स्यू प्रतिबोध्या ति श्रीपाव' नाथमासाद थाप्यो । एरिज सूरिये प्रतिष्ठयो । तिहाँ थी उपकेशज्ञाति कहाणी | श्री रत्नप्रभसूरि ने उपकेशगच्छ लोके को इति चौथो पट || जैन साहित्य संशोधक खंड १ अंक ३ पृष्ठ ३ में मुद्रित वीरवंशावलि १४६ernational Jain Educ महावीर - मन्दिर के साथ दो रूप - कोरं टाजी तीर्थ का इतिहास पृष्ठ २ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष इसी प्रकार जैन श्वे० कान्फ्रेंस हेरल्ड अखबार पृष्ठ ३३० में मुद्रित तपागच्छ की पट्टावली में भी प्राचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा श्रोसवंश की उत्पत्ति लिखी है। ५--आंचलगच्छ पट्टावली पार्श्वनाथजीनी पाटे छट्ठा श्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरिजी के उपकेशपट्टन मां महावीर स्वामि नी प्रतिमा नी प्रतिष्ठा करी तथा ओशयां नगरी मां ओशवालों नी तथा श्रीमाल नगरमा श्रीमाली नी स्थापना करी। हीरालाल हंसराज कृत जैनधर्म का इतिहोस पृष्ठ १४० श्री महावीर प्रभु थी सीत्र वर्षों गया बाद श्री पार्श्वनाथ प्रभुनी छट्ठी पाटे स्थविर श्रीरत्नप्रभनामना आचार्य थया । तेमणे उपकेश नगर मां अक लाख असी हजार क्षत्रिय पुत्रों ने प्रतिबोध्या, अने तेश्राओ जैन धर्म स्वीकारवा थी तेओने तेमणे उपकेश (ओसवाल) नामना वंशमा स्थाप्या। आंचलगच्छ महोटी पट्टावली पृष्ठ ५ पं० हीरालाल हंसराज जामनगर वालों ने श्रांचलगच्छ बड़ी पट्टावली का गुजराती भाषान्तर किताब के पृष्ट ७८ पर कुछ ऐतिहासिक घटनायें लिखी हैं जिसके अन्दर से कुछ सार हिन्दी में यहां उद्धृत कर दिया जाता है। १-भिन्नमाल नगर के राजा भाण ने जब शत्रुजय का संघ निकालने की तैयार की तो प्रस्थान के समय संघपति के तिलक करने के विषय एक ऐसा मतभेद खड़ा हुआ कि राजा भाण के प्रतिबोधक गुरु तो उदयप्रभसूरि थे और इनके संसार पक्ष के काका ने दीक्षा ली उनका नाम सोमप्रभसूरि था । सोमप्रभसूरि ने अपने भतीजपने का हक लगा कर तिलक करना चाहा पर अन्य बहुत प्राचार्यों की सम्मति से यह निर्णय हुआ कि संघ प्रस्थान का तिलक एवं वासक्षेप उदयप्रभसूरि ही दे सकेंगे क्योंकि राजा भाण को धर्मबोध उदयप्रभसूरि ने ही दिया था। इस निर्णय के पश्चात भी सब आचार्यों की सम्मति से एक लिखिति कर लिया कि जिस आचाय के प्रतिबोधक श्रावकसंघ निकालें या मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करावें तो उस कार्य में उन आचार्य तथा उनकी संतान का ही प्रधानत्व रहेगा जिन्होंने उनके तथा उनके पूर्वजों को प्रतिबोध देकर श्रावक बनाया इत्यादि । इस लिखित में हस्ताक्षर करने वाले श्राचार्यो के नाम इस प्रकार लिखे हैं। १-नागेंन्द्रगच्छीय सोमप्रभाचार्य २-ब्राह्मणगच्छीय जिज्जगसूरि ३-उपके शगच्छीयांस द्वसूरि ४-निर्वृत्तिगच्छोय महेन्द्रसरि ५ विद्याधरगच्छीयहरियाणांदसूरि ६-सांडोरगच्छीयईश्वरसूरि ७ वृहद्गच्छीय उदयप्रभसूरि ८-आह सूरि ९-आद्रसूरि १०-जिनराजसूरि ११- सोमराजसूरि १२-राजहं ससूरि १३-गुणराज सूरि १४-पूर्णभद्रसूरि १५ - हसति नकसूर १६-प्रभारत्नसूरि १७-रंगराजसूरि १८-देवरङ्गसूरि ११देवाणं दसूरि २० -- महेश्वरसूरि २१ --ब्रह्मसूरि २२-विनोदसूरि २३ --कर्मराजसूरि २४-तिलकसूरि २५ - जयसिंहसूरि २६-विजयसिंहसूरि २७ -नांमिगसूरि २८-भीमराजसूरि २९-जयतिलकसूरि ३०-चंद्रहससूरि ३१--वीरसिंहसूरि ३२-रामप्रभसूरि ३३-श्रीकर्णसूरि ३४ - विजयचंद्रसूरि तथा३५ - अमृतसूरि । इनके अलावा गजा भाण तथा श्रीमाली जोगा, राजपूर्ण और श्रीकर्णादि संघ अग्रेश्वरों के भी हस्ताक्षर करवाये गये थे, अतः यह मर्यादा चिरकाल तक पालन की गई थी और संघ में अच्छी शान्ति भी बनी रही थी। तक-उस समय के प्राचार्यों को श्रावकों के लिये इतना ममत्व था कि जिसके लिये लिखित बनाना पड़ा। www.ja१४७ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास LAranMINine. undarma nand समा०-यह ममत्व नहीं पर संघ का व्यवस्थित रखने की सुन्दर व्यवस्था थी और जब तक उन दूरदर्शी श्राचार्यों की व्यवस्था ठीक तरह से चलती रही तब तक समाज में अच्छी शान्ति रही। बाद में नये नये मत पंथ एवं गच्छ पैदा हुये और उन्होंने उन शासन शुभचिंतकों की व्यवस्था को तोड़-फोड़ दर दर में विभाजित कर दी। बस उस दिन से ही जैन समाज के दिन बदल गये और गच्छ मेद का कलह पैदा होगया। अतः उन दूरदर्शी श्रावार्यों की व्यवस्था ममत्व भाव की नहीं पर शासन को व्यवस्थित रखने की ही थी। २-दूसरी एक घटना ऐसी भी लिखी है कि भिन्नमाल के राजा भाण के बहुत राणियें होने पर भी उसके कोई संतान नहीं थी जब एक निमित्त शास्त्र के वेत्ता से पूछा तो उसने अपने निमित्त बल से कहा कि उपकेशपुर में ओसवाल जाति का जगमाल श्रेष्टि है उसको कन्या रत्नाबाई जो कि बहुत गुणांलंकृत है उसके साथ राजा का विवाह हो तो राजा के सन्तान हो सकती है। राजा भांण ने श्रेष्टिवर्य से रत्ना बाई की याचना की, पर सेठ साहब ने इन्कार कर दिया । तब राजा ने एक वैश्या को धन का लोभ देकर उपकेशपुर भेजी। उसने रत्नाबाई से गुप्त बात की पर रत्नाबाई ने कहा कि यदि राजा के साथ मेरी शादी हो जाय और शायद मेरे पुत्र भी हो जाय परन्तु दूसरी राणियों के पुत्र होगा तो राज का मालिक वह होगा तो फिर मेरे पुत्र की और मेरो क्या दशा होगी, अतः राजा इस बात को स्वीकार करें कि मेरे पुत्र हो तो राज्याधिकार उसोही दिय जाय दूसरे को नहीं तो मैं शादी करने को तैयार हूँ । वैश्या ने राजा के पास जाकर सब हाल निवेदन किया जिसको राजा ने स्वीकार कर लिया क्योंकि गरजवान क्या नहीं करता है । बस गजा रूप बदल कर वैश्या के साथ उपकेशपुर गया और रत्नाबाई को गुप्तरूप से लेकर भिन्नमाल आया और बड़े ही समारोह से उसके साथ शादी करनी। प्रस्तुत पट्टावली पृट इस घटना से पाया जाता है कि विक्रम की आठवीं शताब्दी में उपकेशपुर उपकेशवंशियों से फला फूला आबाद था। ६-जैन धर्म का प्राचीन इतिहास श्रीमहावीर स्वामीना निर्वाण पछी सीचेर वर्ष बाद श्री पार्श्वनाथ संतानो मां छट्टी पाटे श्रीरत्नप्रभसूरि नामे आचार्य थया । तेमणे उपकेशपट्टण नामना नगरमाँ श्रीमहावीरस्वामीनी प्रतिमानी प्रतिष्ठा करी । तथा ओश्या नगरीमा क्षत्रियनी जातिओने प्रतिबोधीने ओशवालोनी स्थापना करी, अने श्रीमाल नगर माँ श्रीमालिओनी स्थापना करी। जैन इतिहास पृष्ट १७ भावनगर से प्रकाशित ७--भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास डाक्टर त्रिभुवनदास लेहरचन्द बड़ोदा वालों का मत है कि: २३ माँ तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ संतानीयामाँ छठी पेढ़ी थयेला रत्नप्रभसूरि नामना आचार्य हता तेमणे लाखोनी संख्यामाँ जैनो बनाव्या हता।" प्राचीन भारतवर्ष भाग बीजो पृष्ठ १७६ श्रोसवालों की उत्पत्ति पोरवालों के समकालीन हुई है । जब पोरवालों के अस्तित्व का प्रमाण मंत्री विमल के पूर्वज लेहरी नानग का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी और जावड़ का समय विक्रम की पहिली शताब्दी का लिलता है तब ओसवाल ज्ञाति को ही अर्वाचीन क्यों मानी जाय अर्थात् ओसवाल ज्ञाति का समय व०पू० ४०० वर्ष का मानना न्यायसंगत ही है इसी प्रकार श्रीमाली जाति के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है कि वि० सं० ७९५ में प्राचार्य उदयप्रभसूरि ने श्रीमाल के ६० कोटिधीशों को जैन बना Jain १४Cn international wwwwwwwwww Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष कर पूर्व स्थापित श्रीमाल ज्ञाति में मिला दिया । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रीमालज्ञाति के समकालीन श्रो सवाल जाति ही उतनी ही प्राचीन है कि जितनी श्रीमाल जाति प्राचीन है । ८ - खरतरगच्छीय यतिवर्य श्रीपालजी ने अपनी 'जैनसम्प्रदाय शिक्षा' नामक किताब के पृष्ट ६०७ पर ओसवालोत्पत्ति के विषय में लिखा है कि: चतुदर्श (चौदह) पूर्वधारी, श्रुतकेवली, लब्धिसंयुक्त, सकलगुणों के आगर, विद्या और मंत्रादि के चमत्कार के भंडार, शान्त, दान्त और जितेन्द्रिय, एवं समस्त श्राचार्यगुणों से परिपूर्ण, उपकेशगच्छीय जैनाचार्य श्री रत्नप्रभसूरिजी महाराज पाँच सौ साधुओं के साथ विहार करते हुये श्री आबूजी अचलगढ़ पधारे थे, उनका यह नियम था कि वे (उक्त सूरिजी महाराज) मासक्षमण से पारणा किया करते थे, उनकी ऐसी कठिन तपस्या को देख कर अचलगढ़ की अधिष्ठात्री अम्बादेवी प्रसन्न होकर श्री गुरु महाराज की भक्त हो गई, अतः जब उक्त महाराज ने वहाँ से गुजरात की तरफ विहार करने का विचार किया तब अम्बादेवी ने हाथ जोड़ कर उनसे प्रार्थना की कि - "हे परमगुरो ! आप मरुधर (मारवाड़) देश की तरफ विहार कीजिये, क्योंकि आपके उधर पधारने से दयामूल धर्म (जिनधर्म) का उद्योत होगा" देवी की इस प्रार्थना को सुन कर उक्त आचार्य महाराज ने उपयोग देकर देखा तो उनको देवी का उक्त वचन ठीक मालूम हुआ । आगे यतिजी लिखते हैं कि रत्नप्रभसूरि एक शिष्य के साथ उपकेशपुर में पधारे । देवी से रूई मंगा कर सांप बनाया और राजा के कुँवर को कटाया बाद उसका विष उतार का राजाप्रजादि नगर निवासियों को धर्मोपदेश दिया इसको यतीजी ने बहुत विस्तार से लिखा है साथ में दो छप्पय भी दिए हैं, जिस में एक तो किसी भाटों का अर्वाचीन कल्पित है और प्राचीन पट्टावलियों से मिलता जुलता है जो कि : वर्द्धमान त पछै बरष बावन पद लीधो । श्रीरत्नप्रभसूरि नाम तासु सत गुरु व्रत दीधो ॥ भीनमाल सुं ऊठिया जाय ओसियाँ बसाया । क्षत्रि हुआ शाख अठारा उठे ओसवाअ कहाण || इक लाख चौरासी सहस घर राजकुली प्रतिबोधिया । रत्नप्रभसूरि ओस्याँ नगर ओसवाल जिण दिन किया + ॥१॥ उस समय श्री रत्नप्रभसूरि महाराज ने ऊपर कहे हुए राजपूतों की शाखाओं का महाजन वंश और अठारह गोत्र स्थापित किये थे जो कि निम्नलिखित हैं : - १ तातहड़गोत्र, २ बाफणागोत्र, करणाट ३ बलहारागोत्र, ५ मोराक्षगोत्र, ६ कूलहटगोत्र ७ विरहटा गोत्र, ८ श्री श्रीमालगोत्र ९ श्रेष्ठी गोत्र, १० सुचिंतीगोत्र, ११ आईचनांगगोत्र, १२ भूरि ( भटेवरा ) गोत्र, १३ भाद्रगोत्र, १४ चींचटगोत्र, १५ कुमंटगोत्र, १६ डिंडगोत्र, १७ कनौजगोत्र १८ लघुश्रेष्ठ गोत्र । इस प्रकार ओसियां नगरी में महाजनवंश और उक्त १८ गोत्रों की स्थापना कर श्री सूरिजी महाराज विहार कर गये और इसके पश्चात् १० वर्ष के पीछे पुनः लक्खीजंगल नामक नगर में सूरिजी महाराज विहार करते हुए पधारे और उन्होंने राजपूतों के दशहजार घरों को प्रतिबोध देकर उनका महाजनवंश और सुघड़ाद बहुत से गोत्र स्थापित किये । प्रिय वाचकवृन्द ! इस प्रकार ऊपर लिखे अनुसार सबसे प्रथम महाजनवंश की स्थापना जैनाचार्य श्री रत्नप्रभसूरिजी महाराज ने की, उसके पीछे वि० सं० सौलहसौ तक बहुत से जैनाचाय्यों ने राजपूत + दूसरा कवित्त की समालोचना आगे के पृष्टों में की गई है । अतः यहां नहीं लिखी है । www.jal १४y.org Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास माहेश्वरी, वैश्य और ब्राह्मण जाति वालों को प्रतिबोध देकर ( अर्थात् ऊपर कहे हुए महाजनवंश का विस्तार कर ) उनके महाजनवंश और अनेक गोत्रों को स्थापन किया है।" इसी प्रकार खरतरगच्छीय यति रामलालजी ने अपनी 'महाजनवंशीय मुक्तावली' नामक किताब में लिखा है कि वीर निर्वाण से ७० वें वर्ष में आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में महाराज उपलदेव आदि क्षत्रियों को प्रतिबोध कर जैन श्रावक बनाये जिनके १८ गोत्रों का नाम ऊपर यति श्रीपाजी के लेखानुसार ही लिखा है तथा खरतरगच्छीय मुनि चिदानन्दजी ने अपने स्याद्वादानुभव रत्नाकर नाम की पुस्तक में भी इसी आशय का लेख लिखा है। ___ खरतरगच्छीय वीरपुत्र आनन्दसागरजी ने अपने कल्पसूत्र का हिन्दी अनुवाद पृष्ठ ४६७ पर लिखा है कि “इसी तरह उपकेशगच्छ में श्रोसवंश स्थापक श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर हुए जिनने अपनी लब्धि से दो रूप करके श्रोसियां और कोरंटनगर में समकाल प्रतिष्ठा कराई"। ९-स्थानकवासी समुदाय के मुनि श्री मणिलाल ने "जैनधर्मनोप्राचीनस क्षिप्त इतिहास अने प्रभु वीर पट्ठावली" नामक एक गुर्जर भाषा की पुस्तक लिखी है जिसके पृष्ट ७३ पर लिखा है किः _ "महावीर स्वामीना निर्वाण पछी सित्तरे वर्ष बाद श्रीपार्श्वनाथभगवान ना शासन मां छट्ठी पाटे "श्रीरत्नप्रभ" नामे आचार्य थया तेमणे "ओसीया" नामनी नगरी मां क्षत्रिय जाति ने प्रतिबोध श्रापी श्रावको बनाध्या त्यारे श्रोसवालों नी स्थापना थई, अने "श्रीमाल" नगर मां श्रीमाली ओनी स्थापना थई, अम श्री जैनधर्म विद्या प्रसारक वर्ग तरक थी, बहार पडेल "जैन इतिहास' नामक ग्रंथ मांथी उल्लेख मली आवे छे, महावीर स्वामी ना समय मां पण श्री पार्श्वनाथ भगवानना "संतानिया" संतो विचरता हता, ते श्री उत्तराध्ययन सूत्रमा प्रावेला श्री पार्श्वनाथ शासनना श्रीकेशीस्वामी अने प्रभु वीरना शासन ना श्री गौतम स्वामी ओ बने बच्चे वृत, वस्त्रो आदि बाबतमां चालेला संवाद पर थी सिद्ध थाय छे। श्रा उत्पत्ति बाबतनो बधु उल्लेख दृष्टिगोचर थयो नथी; पण समय नु अनुसंधान विचारतां आ हकीकत केटलेक अंशे सत्य होवान मानी शकाय । इस प्रकार और गच्छों की हद्दावल्यादि ग्रन्थों में ओसवाल उत्पत्ति विषयक उल्लेख होना संभव होता है क्यों कि यह एक प्रसिद्ध बात है कि जहाँ ओसवाल पोरवाज और श्रीमालों का प्रसंग आता है वहां इस बात को द्यवश्य लिखते हैं। आज हम सामयिक पत्र पत्रिकाओं और राजतवारीखों को पढ़ते हैं तो इस विषय के अनेक लेख मिलते हैं। अतः इस विषय में फिर ज्यों २ पट्टावल्या दि ग्रन्थ मिलते जायगे त्यों २ विषय पर प्रकाश पड़ता जायगा। उपरोक्त पट्टावल्यादि ग्रन्थ साधारण व्यक्तियों के लिखे हुये नहीं हैं परन्तु हमारे परमपूज्य महान प्राचार्यों के लिखे हुये हैं कि जिनपर हमारा अटल विश्वास है। अतः कोई कारण नहीं कि हम इन प्रमाणों में किसी प्रकार की शंका करें क्यों कि उन महाव्रतधारी सत्यवक्ता, निस्पृहौ आचार्यों को गलत लिखने में कोई भी स्वार्थ नहीं था । अतः इन पट्टावल्यादि के प्रमाणों से ओसवाल जाति की उत्पत्ति का समय वि० पू० ४०० वर्ष मानना न्याय संगत और युक्तियुक्त है । 90. Jain Eden International Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष महाजनसंघ उपकेशवश और प्रोसवाल जाति की प्राचीनता के विषय वंशावलियों के कतिपय प्रमाणा १-विक्रमपूर्व ९७ वर्ष के समय में जिन १८ गोत्रों का उल्लेख मिलता है उसी १८ गोत्रों की वंशावलियों में प्रत्येक गोत्रों के स्थापक वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का ही नाम बतलाया जाता है । शायद इसका यह कारण हो कि महाजन सङ्घ के आदि संस्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरि थे अतः उन परमोपकारी प्राचार्यश्री की स्मृति के लिये सर्वत्र अर्थात् क्या उपकेशवंश के अठारह गोत्रों के और क्या ओसवाल जाति के आदि पुरुष रत्नप्रभसूरि ही को बतलाया गया हो तो यह यथार्थ ही है क्योंकि उपकेशवंश अठारह गोत्र और ओसवाल जाति यह कोई अलग अलग नहीं है पर ये सबके सब उस महाजनस के रूपांतर नाम एवं उसकी शाखा प्रतिशाखा रूप हैं अतः उनके आदि में रत्नप्रभसूरि का नाम लेना या लिखना यह उनका कृतज्ञपना ही है। अब थोड़े से प्रमाण वंशावलियों के बतला देते हैं कि श्रोसवाल जाति कितनी प्राचीन है ? १-उपकेशपुर में श्रेष्ठिगोत्रीय राव जगदेव ने वि० सं० ११९ में चंद्रप्रभ का मंदिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा प्राचार्य यक्षदेवसूरि ने की। २-खतरीपुर में तप्तभट्ट गोत्रीय शाह नोढ़ा जैतल ने वि० सं० १२२ में श्री शत्रुजय का विराट् सङ्घ निकाला जिसमें आचार्य यक्षदेव आदि बहुत से साधु साध्वी थे।। ३-वजयपट्टन में वाप्पनाग गोत्रीय मंत्री सज्जन ने वि० सं० ११९ में भगवान महावीर का मंदिर बनाया जिसकी प्र० यक्षदेवसूरि ने की । जिसमें मंत्रीश्वर ने सवालाख रुपपे खर्च किये । ४-धेनपुर में भाद्रगोत्रीय मंत्री मेहकरण ने वि० सं० ३०९ में आचार्य रत्नप्रभसूरि की अध्यक्षता में तीर्थों की यात्रा के लिये एक बड़ा भारी सङ्घ निकाला जिसमें एक लाख यात्रियों की संख्या थी। ५-उपवेशपुर में श्रीष्टिगोत्रीय राव जल्हणदेव ने वि० सं० २०८ में आचार्य रत्नप्रभसूरि के उपदेश से महावीर मंदिर में अठाई महोत्सव किया। जिसमें संघ को आमंत्रण कर एकत्र किया, सात दिन तक स्वामी वात्सल्य और एक दिन नगर सहरनी की और आये हुये स्वधर्मी भाइयों को पहरामणि में वस्त्र वगैरह के साथ एक एक सोना मोहर भी दी, इस सुअवसर पर प्राचार्य अपने विद्वान शिष्यों में से पांचों को पंडित पद, १२ को वाचनाचार्य पद ४ को उपाध्याय पद प्रदान किया। ६-भिन्नमाज नगर में सुचंति गोत्रीय शाह पेथड़ हरराज ने वि० सं० ३५८ में प्राचार्य श्री देवगुप्तसूरि के उपदेश से भगवान ऋषभदेव का मन्दिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा देवगुप्तसूरि ने की। ७-मांडव्यपुर में कुलभद्रा गोत्रीय शाह नाथा खेमा ने आचार्य सिद्धसूरि के उपदेश से देवाधिदेव ऋषभनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया जिसकी प्रतिष्ठा वि० सं० ३७७ में प्राचार्य सिद्धसूरि द्वारा करवाई। ८-सालणपुर में श्रष्टि गोत्रीय मंत्री उहड़ ने महावीर का मंदिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा ३९३ में आचार्य सिद्धसूरि ने करवाई। १५१ www.janelibrary.org Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ९-दूघड़ों की वंशावली में लिखा है कि दूधड़ समरथ कांना ने रत्नपुर में श्रीमहावीरका विशाल मंदिर बनाया था जैसे वि० सं० २४७ माघशुद्धि ५ उकेशवंशे दूघड़गोत्र शा० समरथ काना केन निज मात कुमारदेवी श्रेयार्थ श्रीमहावीर बिंब करापितं प्र० श्री उपकेशगच्छे कक्क सूरिभिः । वि० सं० २१९ जेष्ठशुक्ला ७ उपकेशवंशे दूघड़ गोत्र शाह देदा भारमल ने रोहलीग्राम में श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ का मंदिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा उपकेशगच्छीय श्राचार्य यक्षदेवसूरि से कराई। १०-गटिया गौत्र का शा० देवराज ने चंदेरी नगरी में सं० ५२१ में श्रीआदिनाथ का मंदिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा सिद्धसूरि ने की तथा अपने शत्रुजयादि तीर्थों का सङ्घ निकाल कर यात्रा की और साधर्मी भाइयों को लेन-पहिरामणी दी। श्रापका पुत्र नगराज और नगराज का पुत्र नरदेव बड़े ही नामी हुये ।। ११-कुमट गौत्रे शा दुर्जनशाल ने वि० सं० ५३९ में आचार्य सिद्धसूरि का पट्ट महोत्सव किया और आपके अध्यक्षत्व में सम्मेतशिखर तीर्थ का सङ्घ निकाल साधर्मी भाइयों को पहिरामणी दी जिसमें एक लक्ष द्रव्य सुकृत कार्यों में व्यय किया। आपके पुत्र बनवीर और बनवीर के पुत्र वस्तुपाल तथा वस्तुपाल का पुत्र चन्दकरण हुआ, इसने वि० सं० ६०४ में भिन्नमाल नगर में भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर कराया जिसकी प्रतिष्ठा उपगच्छीय सिद्धसूरि ने करवाई। १२--श्रादित्यनागगोत्रे चोरड़िया शाखा में वि० सं०५१३ में शा० धरमण माधु सलखणादि ने नागपुर में श्रीपार्श्वनाथ का मंदिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने करवाई और श्रापके अध्यक्षत्व में श्रीशत्रुजयादि तीर्थों का सङ्घ निकाला, इन शुभ कार्यों में इन वीरों ने पांच लक्ष द्रव्य व्यय किया। १३--वाप्पनागगोत्रे वि० सं० ५८९ में शा० हापु वीरमदेव तोला जागरूपादि ने शत्रुजयादि तीर्थों का सङ्घ निकाला स्वामिवात्सल्य कर साधर्मी भाइयों को मोदक में एक एक सुवर्णमुद्रिका और वस्त्रादि की पहिरामणि दी इस सङ्घ में मुख्य नायक आचार्य कक्कसूरि थे। १४-चोरडिया जाति से डीडवाना में एक लालाशाह से लालोडिया शाखा निकली । उन लालाशाह ने वि० सं० ६७९ में बड़े भयंकर दुष्काल में मनुष्यों को अन्न और पशुओं को घास देने में अपनी लाखों रुपयों की सम्पत्ति प्रदान कर दी। उस दिन से शाह लाला की संतान 'लालोडिया' नामक शाखा से प्रसिद्ध हुई । लालाशाह के तीसरी पुस्त में जघडूशाह बड़ा ही नामी उदार पुरुष हुआ। १५--तप्तभट ( तातेड़ )-वि० सं० ५११ नागपुर में शाह रघुवीर हरचंद ने आचार्यदेवगुप्तसूरि के उपदेश से शत्रुजयादि तीथों का सङ्घ निकाला जिसमें सवालक्ष द्रव्य व्यय किया। साधर्मी भाइयों को सोने मोहरों की पहिरामणी दी और तीन बड़े यज्ञ भी किये तथा प्राचार्यश्री को नागपुर में चतुर्मास करवा कर अपनी ओर से महा महोत्सव पूर्वक श्री भगवती सूत्र बंचा कर श्री सङ्घ को महाप्रभाविक आगम सुनाया। जिसमें आपने कई लक्ष द्रव्य व्यय किया। wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. Jain Ed i nternational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष १६-वीरहटगोत्रे वि० सं० ५७८ शा० सारंग के पुत्र सायर ने माघशुक्ला ५ को चन्द्रावती नगरी में आचार्य कक्कसूरि के पट्टमहोत्सव में सवालक्षद्रव्य व्यय किया । इसकी परम्परा में वि० सं० १०३७ में शा० सोनपाल ने हणावा ग्राम से श्रीशत्रुजय का संघ निकाला तथा श्रीविमलनाथ स्वामी का मंदिर बनाया जिसकीप्रतिष्टा उपकेशगच्छीय आचार्य सिद्धसूरि ने की । सोनपाल का पुत्र दहेल हुआ वह हणवा को छोड़ धारा नगरी गया इसका एक कवित्त भी मिला है। "धाराधीप देहलने पद मंत्री सिर थापै । शाह मोटो सामंत जगत सगलो दुःख कापै ॥ धर्मकर्म सहुसाचवे दान अड़कल समर पै । नवखंड नाम देहल कियो सोनपाल सुत सहु जंपै ॥ १७-भाद्रगोत्रे समदड़िया शाह हरचंद ने वि० सं० ७९९ नागपुर में प्राचार्य कक्कसूरि को ४५ आगम लिखा कर भेंट किया। __१८-श्रेष्टिगोत्रिय शा० रूपचन्द के पुत्र मलयसी ने आभानगरी में प्राचार्य देवगुप्त सूरि का पद महोत्सब किया, सम्मेतशिखर का संघ निकाल यात्रा की । इस शुभ कार्य में पुष्कल द्रव्य व्यय किया जिस का समय वि० सं० ८३९ का था। १९-लघुश्रेष्टि गोत्रिय शा० देपाल धनदेव ने वि० सं० ५९५ में आचार्य कक्कसूरि के उपदेश से भीनमालनगर से श्रीशत्रुजय का संघ निकाला जिसमें सात लक्ष द्रव्य व्यय किया । धनदेव की परम्परा के चतुर्थ पट्टधर महानंद ने चन्द्रावती नगरी में वि० सं० ६६९ में आचार्य सिद्धसूरि की अध्यक्षता में शत्रुजय का बड़ा भारी संघ निकाला। जिसमें तीन लक्ष द्रव्य व्यय कर पुन्योपार्जन किया। २०-चिंचट गोत्रे शाह वीरदेव ने वि० सं० ५९९ में शत्रुजय का संघ निकाला जिसमें आपने ७ लक्ष द्रव्य खर्च किया इस संघ में आचार्य कक्कसूरि नायक थे। ___ इस गोत्र में वि० सं० ७०३ में जल्हन का पुत्र देसल बड़ा ही नामी एवं उदार पुरुष हुआ उसने दुकाल में एक करोड़ मन धान गरीबों को दिया, आपकी संतान देसड़ा कहलाई शा० देसल ने कीराटकुम्प में मंदिर बना कर पार्श्वनाथ की सोने की मूर्ति बना कर वि० सं० ७०३ में आचार्य कक्कसूरि के कर कमलों से प्रतिष्ठा करवाई । आह-हा धर्म पर कैसी श्रद्धा और भावना थी। २१-कनोजिया गोत्रे वि० सं० ८८५ कनकावती नगरी में शा० राजधर ने श्रीशान्तिनाथ का मन्दिर बना कर प्राचार्य देवगुप्त सूरि से प्रतिष्ठा करवाई तथा शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला तत्पश्चात् राजधर ने करोड़ों की सम्पति छोड़कर आचार्यश्री के पास दीक्षा ली। इसी गोत्र में आज्जा का पुत्र कुकुम को सच्चायिका देवी तुष्टमान हुई जिससे अपार लक्ष्मीवान हुआ बाद उसने करोड़ों रुपया शुभकार्य में व्यय किया सातबार संघ निकाला, साधर्मीभाइयों को सोने मोहरों की प्रभावना दी और २१ नये मंदिर बना कर प्रतिष्टा करवाई, उजमणादि में पुष्कल द्रव्य व्यय किया इसके वंश में भोजराज हुआ, ओसियों जाकर महावीर देव का स्नात्र और सञ्चायिका देवी का महोत्सव कर याचकों को अथाह दान दिया इनका समय वि० की नौवीं शताब्दी का था। २२-इन कनोजिया गोत्र से दूधाशाह से वि० सं० ९०८ में धूपिया शाखा निकली जिसका कारण बतलाया है कि यह जिन भक्ति में सदैव लीन रहता था इनके यहां बनजारा बहुत सी कस्तूरी लाया था जिसको लेकर सब की सब मंदिरजी में धूप होता था उस पर डाल दी और वनजारे को मुह मांगे दाम दे दिये । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० ० पू० ४०० [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २३ - मोरख गोत्र वि० सं० ६५८ में शा० रत्नो जोगीदासादि बड़े ही उदार दानेश्वरी हुये। दुकाल में गरीबों और पशुओं को अन्न घास देकर नाम कमाया । श्रापकी वंश परम्परा में एक नाथाशाह नामका पुरुष पुष्कर में रहता था ! उस पर गुरु महाराज की पूर्ण कृपा थी या पूर्वभव के पुन्य से उसके घर में लक्ष्मी सूट हो गई थी । वि० सं० ७२२ में एक दुकाल पड़ा था । वह महाभयंकर जनसंहारक था उसमें शा० नाथा ने विणजारों द्वारा जहां जिस भाव में मिला धान और घास मंगवा कर दुकाल को सुकाल बना दिया इसकी कीर्ति के कई वंशावलियों में कवित्त भी मिलते हैं जैसे कि 1 वर्ष 1 कांते आया रे दुकाल तू नाथा के दरबार में मिलेगा न मान तोकू जा जा देश पार में || कुत कोरा दोरा लगत हुन पिच्छोरा तौर में । अनाथ सनाथ भयो नाथो उगत ही भौर में ॥ २४ - वि० सं० १०१९ में आचार्य सिद्धसूरि ने राष्ट्रकूट वंशीय राव सुखा को प्रतिबोध कर जैन श्रावक बनाया । जिसकी छुट्टी पुस्तक में गोसल धनराज नाम के दो नामी पुरुष हुए । सुखो सुप्रसिद्ध नयर मोखीणो अवचल | केसीपुर पोकरणी साख सुखा सुनिश्चल || तस सुत गोसल कल्पवृक्ष अवचल जग छाजै । खीमडीयोगढ़ कउरसिंह जुडील वल गाजै ॥ पीथड़ सिखरों प्रगट नर सुकवि गल्ह समुचरे । पुविला सयण खीवस जसो धनराज सहु उदरे || २५ - भूरिगोत्र - भटेवरा शाखा के शाह नानग वीरमदेव ने वि० सं ४९७ अछूपत्तानगरी में पार्श्वनाथ का देहरा कराया प्र० उपकेशगच्छीय श्राचार्य देवगुप्त सूरि ने करवाई । २६ - - पद्मावती नगरी में प्राग्वट नरसिंह चतुर्भुज ने वि०सं० ३३५ में आचार्य यक्षदेवसूरि के उपदेश से नव लक्ष द्रव्य सात क्षेत्र में व्यय कर बाप बेटे ने श्राचार्य श्री के पास दीक्षा लीनी । २७ - वि० सं०० ४०९ में चन्द्रावती नगरी में प्राग्वट लालन पाताजी ने भगवान महावीर का मंदिर बना कर श्राचार्य रत्नप्रभसूरि से प्रतिष्ठा करवाई। इस शुभ कार्य में एक लक्ष रुपये खर्च किये । भाइयों को हिरामणी दी सात बड़े यज्ञ (जीमणवार) किये । २८--वि० स ं० २७९ में कोरंटपुर में श्रीमाल सावंतसी खेतसी ने आचार्य देवगुप्त सूरि के उपदेश से सम्मेतशिखरजी आदि तीर्थों का बड़ा भारी संघ निकाला । सब तीर्थों की यात्रा की, तीन बड़े यज्ञ (जीमणवार) किये, साधर्मी भाइयों को पहिरामणी दी । इस शुभ कार्य में आपने नौ लक्ष द्रव्य व्यय किया । २९- पिलाणी ग्राम में श्रीमाल चन्द्रभाग कल्याणजी ने वि० सं० २३५ में आचार्य कक्कसूरि का पट्ट महोत्सव करके आपके उपदेश से बीस स्थानक तप का उजमा किया जिसमें ५२ ग्रामों के सङ्घ को आमंत्रण पूर्वक बुलाया । सात यज्ञ (जीमणवार ) किये । इस शुभ कार्य में तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया । * उपकेशगच्छ में क्रमसः ६ रत्नप्रभसूरि ६ यक्षदेवसूरि २३ ककसूरि २२ देवगुप्तसूरि २२ सिद्धसूरि नाम के आचार्य हुए हैं इनके अलावा भिन्नमाल शाखा चन्द्रावतीशाखा, कीराट्कूप शाखा, खजूरपुरीशाखा वगैरह में भी आचार्यों के यही नाम थे अतः समय निर्णय करने वाले चक्र में न पड़ जाय । इसलिये पहले पट्टावलियों से जाँच कर लेनी चाहिए । १५४ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्षे ३०-वि० स० ३०२ रूणी ग्राम में आचार्य रत्नप्रभसूरि के उपदेश से प्राग्वट वंशीय शा० देदा करमण ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला, यज्ञ करके साधी भाइयों को सोना मोहर और वस्त्रादि की पहिरामणी दी। इस दानवीर ने शुभ कार्यों में तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया। ३१-वि० स० ४६६ में आचार्य कक्कसूरि के उपदेश से कोटियाला ग्राम में श्रीमालवंशीय सुरजण पुनड़ ने अपनी लाखों रुपयों की मिल कियत सात क्षेत्र में खर्च कर सकुटुम्ब पचास नर नारियों के साथ सूरिजी महाराज के पास दीक्षा ली जिससे जैनधर्म की खूब प्रभावना हुई। ३२-वि० सं० ५९२ में प्राचार्य कक्कसूरि के उपदेश से हथियाण ग्राम में प्राग्वटवंशीय कल्हण करमण ने भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर बना कर सुवर्णमय मूर्ति की प्रतिष्ठा प्राचार्य कक्कसूरि से करवाई । ३३-वि० स० ५११ में आचार्य देवगुप्तसूरि के उपदेश से चंद्रावती के मंत्री सारंगदेव ने श्री शत्रुजयादि तीर्थो का बड़ा भारी संघ निकाला तथा चंद्रावती में भगवान महावीर का मंदिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा कक्कसूरि ने कराई । मंत्रेश्वर ने न्यायोपार्जन द्रव्य को शुभ काम में लगाया । ३४-वि० सं० २१६ में आचार्य रत्नप्रभसूरि के उपदेश से शिवपुरी के मंत्री बनवीर के पुत्र सलखण ने ४७ नर नारियों के साथ सुरिजी के पास दीक्षा ली जिसके महोत्सव में मंत्रीश्वर ने सवालक्ष द्रव्य खर्च करके जैनधर्म का उद्योत किया। इत्यादि यह तो केवल नमूने के तौर पर थोड़े से प्रमाण लिखे हैं पर इस प्रकार के प्रमाणों से वंशावलियां भरी पड़ी हैं और यह ग्रन्थ ही इन भंडारों में पड़ी बातों को प्रसिद्ध करने की गरज से निर्माण किया जा रहा है । अतः यथास्थान एन वीरों के धर्म का प्रकाशित किये जायंगे। पाठकों को उपरोक्त कार्य्य पढ़ कर आश्चर्य होगा कि एक एक कार्य में वे धर्मज्ञ लोग लाखों रुपये खर्च कर देते थे तो उनके पास कितना द्रव्य होगा या वे इतना द्रव्य कहां से लाते होंगे ? हाँ, आजकल के पचीस पचास एवं सौ रुपये माहवारी पर नौकरी करने वाले या भूठ कपट से व्यापार करने वालों को यह आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है । पर उन लोगों ने न तो कभी नौकरी की थी और न व्यापार में कभी झूठ ही बोला था । उनका सब कार्य एवं व्यापार हमेशा न्यायपूर्वक औ सत्यता से ही होता था । दूसरों का बिना हक़ एक छदाम लेना भी वे हराम समझते थे अतः न्याय और सत्य से वे लोग द्रव्यो पार्जन करते थे और उसको इस प्रकार शुभ कार्यों में लगाते थे। वह जमाना तो बहुत दूर का है पर आप आज अमेरिकादि पाश्चात्य देशों को देखिये उनके पास कितनी लक्ष्मी है और अपने धर्मप्रचार के लिये किस प्रकार करोड़ों द्रव्य व्यय करते हैं, तो फिर उस जमाने के लिये कौनसी आश्चर्य की बात है। जिस जमाने के मैंने ऊपर प्रमाण दिये हैं उस जमाने में धर्म कार्यो में मुख्य कार्य मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्टा करवाना, तीर्थों की यात्रार्थ बड़े बड़े संघ निकाल कर हजारों लाखों साधर्मी भाइयों को यात्रा करवाना और उन साधर्मी भाइयों को वस्त्राभूषण एवं सोने मोहरादि की पहिरामणी देना, साधर्मीभाइयों की सहायता करना, आचार्यों का पट्टमहोत्सव करना, अपने घर से महोत्सव कर भगवत्यादि बड़े सूत्र बंचाना उजमना वगैरह करना और दुकालादि में अन्न घास देकर प्राण बचाना इत्यादि । बस, इन शुभ कार्यों से ही उनका पुन्य बढ़ता था और जहाँ पुन्य है वहाँ लक्ष्मी बिना बुलाये ही आकर डेरा डाल देती है । roman.xmuvwarnimirmiriwn in Education International Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ___ऊपर का मेटर लिखने के पश्चात् पुराणी वंशावलियों के पन्ने उल्टते समय एक ऐसी घटना का भी उल्लेख नजर आया है कि वि० सं० ११३ में उपकेशवंशीय बलाहगोत्र के शाह वीरमदेव ने एक महेश्वरी रामपाल की पुत्री के साथ शादी करली थी उस समय उपकेशवंशियों का बेटी व्यवहार राजपूतों के साथ होता था तथापि कई लोगोंने वीरमदेवके लिये महेश्वरीकी कन्या के साथ लग्न कर लेने का विरोध किया जिससे एक मतभेद खड़ा हो गया पर उस समय समाज के शुभचिंतक जैनाचार्य आपसी मतभेद नहीं पड़ने देने के लिये खड़े कदम रहते थे और उन आचार्यों का समाज पर बड़ा भारी अंकुश भी था अतः आचार्य रत्न प्रभसूरि को खबर होते ही उन्होंने महेश्वरी कन्या को विधि विधान से वासक्षेप देकर जैन बनाली जैसे अन्य राजपूतादि को बनाते थे । बस, वह मतभेद वहां ही शांत हो गया। इस घटना से इतना तो सहज ही में जाना जा सकता है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में ओसवंश एवं उपकेशवंश अच्छी आबादी पर था । अतः इसका जन्म चार पांच शताब्दी पूर्व हुआ हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ___इन वंशावलियों में केवल श्रावकों के कराए हुए मन्दिरों की प्रतिष्ठा एवं तीर्थयात्रा निमित्त निकाले सङ्घादि का ही वर्णन नहीं है पर उस समयवर्ती राजकीय प्रकरण का भी बहुत मसाला मिलता है। सूर्यवंशी महाराजा उत्पलदेव ने जैनधर्म स्वीकार करने के बाद कितने पुश्त तक उपकेशपुर में राज किया तथा आपकी संतान में किन-किन वीरों ने कौन से नये नगर एवं ग्राम बसा कर वहां पर कितने २ समय तक राज किया तथा समीपवर्ती माण्डव्यपुर में कौन २ राजा हुए तथा चन्द्रसेन की सन्तान ने चन्द्रावती नगरी में कब तक राज किया। किस जैनाचार्यों ने किस किस समय जैनेतर क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर जैन बनाये और किन किन कारणों से उनकी जातियों के नाम संस्करण हुये इन सब बातों का पता वॅशावलियों से मिल सकता है। अतः जैनधर्म और जैन जातियों के हाल जानने के लिये वैंशावलिये बड़े ही काम की वस्तुयें हैं। उन वैंशावलियों आदि साधनों को न जानने से ही आज हमारी यह दशा हो रही है कि न तो हमारा कहीं स्थान मान है और न हम अपने पूर्वों के किये हुए सुन्दर कार्यों को जनता के सामने रख ही सकते हैं । यही कारण है कि हमारी नसों में अपने पूर्वजों के गौरव का खून बहना बंद होगया है फिर भी हम समाज का द्रव्य व्यय कर उन्नति २ चिल्ला रहे हैं पर इस कोरे चिल्लाने की क्या कीमत है ? हमारी वंशावलियां आज व्यवस्थित रूप में नहीं हैं। जो जिनके पास है उन्होंने उनको अपनी आजीवका का मुग्व्य साधन समझ रक्खा है । यदि कोई जिज्ञासु देखना चाहे तो वे इतना संकुचित भाव रखते हैं कि एक अक्षर दिखाने को अपनी आजीविका का बन्द होना समझते हैं। यही कारण है कि हमारा ऐतिहासिक ज्ञान प्रायः लुप्त हुआ और होता जारहा है और इसकी ओर किसी का लक्ष्य तक भी नहीं पहुँचता है इससे ज्यादा क्या अफसोस हो सकता है ! ___ प्रस्तुत वंशावलिये जो मुझे मिली हैं प्राचीनता की दृष्टि से इसनी प्राचीन तो नहीं हैं कि जिस समय की घटनायें इनमें उल्लिखित हैं फिर भी यह विल्कुल निराधार भी नहीं हैं । वे भी किसी न किसी आधार एवं वंशपरम्परा से चले आये ज्ञान के आधार पर ही लिखी होंगी। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [ वि० पू० ४०० वर्ष एक जूना पन्ना में निम्नलिखित मन्दिरों की प्रतिष्ठा के लेख हैं। १-वि० सं० २०८ माघ शुद्ध ७ बाप्पनाग गौत्रे शा० महीपाल भा० मायादे पु० अरजूनकेन श्रीमहावीर विम्ब करपित प्र० रत्नप्रभ सूरिभिः । २-वि० सं० २४३ फाल्गुन शुद्ध ११ सुचंति गौत्रे शा० आना मानाकेन श्री पार्श्वनाथ बिब करापितं प्र. कक्क सरिभिः ३-वि० सं० २९७ जेष्ठ कृष्ण ५ श्रीष्टि गौत्रीय मंत्रीश्वर हरपाल जसदेवकेन श्री आदिनाथ प्रतिमा करापितं प्र० आ० सिद्धसूरिभिः । ४-वि० सं० ३४२ मार्गशीर्ष शुद्ध १३ अष्टिगोत्रीय शा० ठाकुर धर्मसीकेन चौबीसी पट्टक करापिता प्र० कक्कसरिभिः। ५–वि० सं० ६८३ वैशाख शु० ३ गुरौ श्रेष्टि भोपालकेन श्री पार्श्वबिम्ब करापितं प्र० श्री उपकेश गच्छे कक्कसूरिभिः । ६-वि० सं० ७१२ माघ शुद्ध १३ बाप्पनाग गौत्रे सा० देपाल भा० देवलदे पु० धना महकरणेनश्री शान्तिनाथ बिम्ब करापितं प्र० उपकेशगच्छे कक्कसूरिभिः । ७-वि० सं० ७४३ फाल्गुन शु०७ भौम आदित्यनागगौत्रे चोरडियाशाखायाँ शा० मंगला भा० मांगी पु० जसो भा० जसादै पु० नाथ रूपा जोधाकेन श्रीमहावीर बिम्ब करापितं प्र० उपकेश गच्छे देवगुप्तसूरिभिः ८-सं० ८०३ मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी सुचिन्ती गौत्रे सा० भीमा करणदेव धांधलकेन मातु पिता श्रेयार्थ श्रीपार्श्वनाथ बिम्ब करापितं प्रतिष्ठा श्री उपकेशगच्छे ककसूरिभिः । ९-सं० ८४२ फाल्गुन शुक्ल ३ भाद्रगौत्रे सा० लल्लु भार्या ललतादै पुत्र सारंगेकेन श्रीपार्श्वबिम्ब करापितं प्रतिष्ठा श्री उपकेश गच्छे देवगुप्तसूरिभिः । १०-सं० ८७२ ज्येष्ठ कृष्णा ७ उकेशवंशे श्रेष्टिगौत्रे सा० जैता भा० जैतलदे पु० रत्नाकानाकेन श्री आदिनाथ बिम्ब करापितं प्रतिष्ठा श्री उपकेश गच्छे देवगुप्त सूरिभिः । ११-सं० ९११ ज्येष्ठ कृष्णा ११ उकेशवंशे चीचटगोत्रे सा रघुबीर भा० रानादे पु० देवपाल हरजीवन केन श्री पार्श्वबिम्ब करापितं प्रतिष्ठा श्री उपकेशगच्छे सिद्धसूरिभिः ।। १२-सं० ९६६ माह शुक्ल १५ उपकेशपुर वास्तव्य उकेशवंशे तप्तभट्ट गौत्रे सा नानग भार्या नानोद पु० धरण पूरण केशव खेमा आदि कुटुम्बेन श्री वासपूज्य विम्ब करापितं प्रतिष्ठा श्री उपकेशगच्छे देवगुप्तसूरिभिः । १३-सं० ५८७ माघ शुद्ध ५ उपकेशवंशे सचंति गौत्रे सा० पोमा नागड़केन श्री शांतिनाथ बिम्ब करापित प्र० श्रीउपकेशगच्छे गुप्तसूरिभिः । १४-सं० ४९९ वैशाख शुक्ला १० श्री उपकेश वंशे भाद्रगोत्रे शा० पुरंदर जगमल्ल केन श्रीआदिनाथ बिम्ब करापितेन प्र० उप० श्री देवगुप्तसरिभिः । १५-सं० ५१३ माघ शुद्ध ३ उपकेशवंशे चोरड़िया गोत्रे सा० छाड भार्य छाडदे पु० नोढा भा० नागणदे केन स्व माता छाहड़ी श्रेयार्थ श्री महावीर देव बिम्ब करापितं प्र० उप० श्रीदेवगुप्तसूरिभिः । www१५७rary.org Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास महाजनसंघ उपकेशश और प्रोसवाल जाति के उत्पति विषयक ऐतिहासिक प्रमाणा १-विक्रमकी बारहवीं शताब्दी से आज पर्यन्तके प्रमाण देने की आवश्यकता ही नहीं है । कारण, इस समय के तो सैंकड़ों प्रमाण उपलब्ध ही हैं। खास तौर तो इस समय पूर्व के प्रमाण उपस्थित करने की आवश्यकता है जिसके लिए ही यह मेरा प्रयत्न है। पुनीत तीर्थश्रीशत्रुजय के पन्द्रहवें उद्धारक स्वनामधन्य श्रेष्टिवर्थ समरसिंह हुए हैं आपके पूर्वज श्रेष्टि वेसट का वर्णन 'नाभिनन्दन जिनोद्धार' नामक ग्रन्थ में किया है । यह एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जिसके पढ़ने से पाठक स्वयं जान सकेंगे कि विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के आस-पास में उपकेशपुर उपकेशवंश एवं उपकेशगच्छ किस परिस्थिति में था । जैसा किअस्ति स्वस्तिचव्व ( कव) द् भूमेर्मरुदेशस्य भूषणम् । निसर्गसर्गसुभगमुपकेशपुरं वरम् ॥ सागा यत्र सदारामा अदारा मुनिसत्तमाः। विद्यन्ते न पुनः कोऽपि तादृक् पौरेषु दृश्यते ॥ यत्र रामागतिं हंसा रामा वीक्ष्य च तद्गतिम् । विनोपदेशमन्योन्यं ताँ कुर्वन्ति सुशिक्षिताम् ॥ सरसीषु सरोजानि विकचानि सदाऽभवन् । यत्र दीपमणिज्योतिर्वस्तरात्रितमस्त्वतः ॥ निशासु गतभत णाँ गृहजालेषु सुभ्रुवाम् । प्राप्ताश्चन्द्रकराः कामक्षिप्ता रूप्या शरा इव ।। यत्रास्ते वीरनिर्वाणात्सप्तत्या वत्सरैर्गतैः । श्रीमद्रत्नप्रभाचायः स्थापितं वीरमन्दिरम् ।। तदादि निश्चलासीनो यत्राख्याति जिनेश्वरः । श्री रत्नप्रभसूरीणाँ प्रतिष्ठाऽतिशयं जने ॥ यत्र कृष्णागर द्धतधूमश्यामलितत्विषा । सदैव प्रियते तस्मानभसा श्यामलं वपु । मृदङ्गध्वनिमाकण्य मेघगर्जित विभ्रमात् । मयूरा कुर्वते नृत्यं यत्र प्रेक्षणकक्षणे ॥ प्रतिवर्ष पुरस्यान्तर्यत्र स्वर्णमयो रथः । पौराणाँ पाप मुच्छेत्तुं मिव भ्रमति सर्वतः ॥ यत्रास्ते विदग्धा नाम वापी वा (चा) पीनविभ्रमा। निम्नाऽधोऽधोगामिनीभियोऽसौ सोपानपंक्तिभिः । यस्याँ यैः कौतुकी लोकः, कृत कुङ्कम हस्तकः । सोपानर्यात्यधोभागं, न नियति स तैः पुनः ॥ तत्पुरःप्रभावो वंश, ऊकेशाभिध उन्नतः । सुपर्वा सरलः, किन्तु, नान्तः शून्योऽस्ति यः क्वचित् ॥ तत्राऽष्टादश गोत्राणि, पात्राणीच समन्ततः । विभान्ति तेषु विख्यातं, श्रेष्टिगोत्रं पृथुस्थिति ।। तत्र गोत्रेऽभवद् भूरि भाग्यसम्पन्न वैभवः । श्रेष्ठी वेसट इत्याख्याविख्यातः क्षितिमंडले ॥ य द्दल धन संतान, निचितप्यथिवेश्मगु । तत्रामा (तत्याग।) दिव दारिद्रय, त्वरितंदूरखा बजत् ।। कीयां यस्य प्रसर्पन्त्या, शुभ्रया भुवने विधुम् । विनाऽपि कौमुदोलासः समाजयत शाश्वतः ॥ यस्माः सोमोऽपि सोमोऽपि, न साम्यं समपेयिवान् । ऐश्वयेणाऽनुतरेण, सौम्यत्वेन नवेन च ॥ ऋद्धया समृद्धया येन, धनदेवेन (नेव)व(शी) लितम् । लेभे नतु कुबेरत्वं, न पिशाचकिता:पि च ॥ कोऽप्याऽपूर्वस्तग्दुणानाँ स्वभावः प्रभवत्यंपम् । मनोऽन्य गुण सम्बद्धं, मोचयन्त्यपि विक्षिवाः ॥ १५८ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्ष तस्य शस्यतमस्यापि क्रुतश्चिदपि कारणात् । विरोधः सहजाज्जज्ञे नागराग्रेसरैः सह ।। ततश्च वेसटः श्रेष्ठी यत्र वैरं परस्परम् । तत्र देशे न वास्तव्यमिति नीतिमचिन्तयत् ।। एवं विचार्य सोऽथाममतिर्णन्तुमना मनाक् । बभूव भूमिभाजाँ किं क्वचिदस्ति स्थिरा मतिः ।। ततः सर्वस्वमायाय दायाद इव गोत्रतः । अभिमानेन सा श्रेष्ठी बभूव नगरात् पृथक् ।। सोच्छा (त्सा) हं रथमारूढः शुभायतिविसूचकैः। शकुनः प्रेरितोऽचालीत् मुवाग्भिः स्वजनैरिव ।। अविलम्बैः प्रयाणैः स गच्छन्नच्छाशयः पथि । किराटकूपनगरं प्राप पापविवर्जितः ।। सुरसमपताकाभिश्वलन्तीभिश्चतुर्दिशम् । पथिकानाह्वयतीव यत्पुरं सर्वदिग्गतान् ।। यत्र वापीपु कूजन्तो राजहंसादिपक्षिणः । कथयन्तीव पान्थानाँ वारिणो रमणीयताम् ।। दह्यमानागरुद्ध तधूमोर्मिकलितेऽम्बरे । वरात्र इवाभाति यत्र नित्य घनोन्नतिः ।। नानादेशागतोपान्तविश्रान्तानन्तसार्थिकम् । सार्थ तन्नगरं वीक्ष्य श्रेष्ठी स्थितिमति व्यधात् ।। तत्र वित्रासिताशेषशात्रवो देशनायकः । परमार कुलोत्पन्नो जैत्रसिंहाभिधः सुधीः ।। नाभिनन्दन जिनोद्धार प्रस्ताव १ श्लोक १७ से ४८ __मरूभूमि का भूषणरूप उपकेशपुर नाम का एक श्रेष्ट नगर है जो पृथ्वी पर स्वस्तिक की तरह अति सुन्दर और षट् ऋतु के फल फूलों सहित बाग बगीचे से शोभायमान है। वहाँ रहनेवाले मुनिजन कनक कामिनी के सम्बन्ध से बिल्कुल मुक्त हैं परन्तु नागरिक लोगों में ऐसा कोई दृष्टिगोचर नहीं होता है कि जिसके पास पुष्कल द्रव्य और विनीत सुन्दर रमणी न हों । उस नगर में हंसों की चाल रमणियां और रमणियों की चाल हंस बिना ही उपदेश के शिक्षा पा रहे हैं। मकानों पर लगी हुई मणियों की कान्ति से अन्धकार का नाश होता है और तालावों के अन्दर कमल सदा प्रफुल्लित रहते हैं । रात्रि के समय मकानों को जालियों के अन्दर चन्द्र की किरणों का प्रकाश विरहणि औरतों को कामदेव के बाण की भाँति संतप्त करता है। व्यापार का तो एक ऐसा केन्द्र है कि पिता पुत्र अलग २ व्यापार करनेवाले शायद छे छे मास में भी मिल नहीं सकते। उस नगर में वीर निर्वाण से ७०वें वर्ष आचार्य रत्नप्रभसूरि ने भगवान् महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा की हुई मूर्ति आज पर्यंत विद्यमान है। उस मन्दिर में धुकता हुआ धूप के धुयें से श्राकाश श्यामावर्ण का दीखता है । जब मन्दिर में पूजा भक्ति नाटक होता है जिर की ध्वनि से मयूर मेघ की भ्रान्ति कर नाच ने लग जाते हैं। उस नगर के लोगों के पाप को उच्छेद करनेवाला एक नर्दम नामक स्वर्णमय सुन्दर रथ जो महावीर की रथयात्रा के निमित्त सालभर में एक बार सब नगर में घूमता है। उस नगर के बाहर एक विदग्धा नामकी ऐसी भूलभुलैया वापी है कि जिस सोपान से कुकुंम के छापा लगा कर वापी के अन्दर जाता है फिर कोशिश करने पर भी उस सोपान के द्वारा वापिस नहीं आया जाता है। उस नगर में विशाल एवं उन्नत धन धान्य सम्पन्न एक संगठन में संगठित हुआ उपकेश नाम का उन्नत वंश है और जैसे वंश पत्तों से एवं बड़ शाखाओं से शोभायमान है वैसे यह उपकेशवंश १८ गोत्र से शोभायमान है। उस नगर में धन धान्य से समृद्धिशाली और भूमंडल में विख्यात श्रेष्टि गोत्र अवतंश वेसट नाम का सेठ रहता था जिस ने याचकों को बार२ दान देकर उनका घर द्रव्यले भर दिया था कि उनके घरों से दरिद्र चोरोंको तरह भाग गया था। उनकी १५९ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उज्ज्वल कीर्ति का प्रकाश विश्व में चारों ओर इतना फैल गया था कि चन्द्र के उदय न होने पर भी रात्रि विकासी कमल सदा के लिए विकसित रहने लगे। स्वयं चन्द्रमा अपने सम्पूर्ण ऐश्वर्य और सौम्यता से भी श्रेष्ट की बराबरी नहीं कर सकता था लक्ष्मी में तो आप की वराबरी कुबेर भी नहीं कर सकता था क्योंकि कुबेर में पिशाचपना था वह श्रेष्टि में नहीं था । अतः श्रेष्टि के सर्वगुण अलौकिक थे जिस किसी ने एक वार आपके गुणों का दर्शन मात्र कर लिया उसका हृदय दूसरों के अनुराग से सहज ही मुक्त हो जाता था । में ऐसे अलौकिक पुरुष की कीर्त्ति एक स्थान स्थिर होजाय यह कुदरत को मंजूर नहीं था, अतः उस नगर के असरों के साथ श्रेष्टि का मतभेद हो गया। इस हालत में श्रेष्टि ने विचार किया कि जहाँ रहने पर अपने या दूसरों के कर्मबंध का कारण हो वहाँ रहने क्या फायदा है । अतः श्रष्टि वेसट अपना धनमाल स्टोक गाड़ों में डाल कर तथा आप सकुटम्ब एक रथ में बैठ कर उपकेशपुर से प्रस्थान कर गया। परन्तु भाग्यशाली जहाँ जाता है वहाँ सब सामग्री अनुकूल मिल ही जाती है। चलते समय सेठजी को अच्छे अच्छे शकुन और कई प्रकार के शुभनिमित स्वतः मिल आये क्रमशः चलते हुये किराटकूप नगर के उद्यान तक पहुँच गये । प्रन्थकार ने किराटकूप नगर का थोड़ा सा वर्णन इस प्रकार किया है। कीटकूपनगर बड़ा ही सुंदर था और चारों ओर मंदिरों पर ध्वजायें इस कदर फहरा रहीथी कि मानो मुसाफिरों के मनको मन्दिरों की ओर आकर्षित कर रही हैं। स्वच्छजल से भरी हुई वापियों के अन्दर राजहंसादिक पक्षियों के मधुर शब्द मानों फिरते घूमते मुसाफिरों को वापियों की सुन्दरता और जल की स्वच्छता ही बतला रहे थे जिन मन्दिरों में सुगन्धि धूप इतना हो रहा था कि जिस के धुयें से आकाश मानों वर्षा ऋतु के बादलों की तरह श्यामवर्ण का मालूम होता था । अन्य २ देशों के अनेक सार्थवाह - व्यापारी एवं बनजारे नगर के समीप विश्रान्ति लेते थे इत्यादि नगर की आबादी सुन्दरता और आरोग्यवर्द्धक जलवायु देखकर श्रेष्टि वेसट का दिल ललचा गया कि मैं इसी नगर में निवास कर दूं । उस नगर में पँवार वंश विभूषण महाबुद्धिवान प्रजापालक 'जैत्रसिंह' नाम का राजा राज करता था जिसने अपने पराक्रम से तमाम शत्रुओं को अपने अधिकार में कर लिया यही कारण था कि उसकी धवल कीर्त्ति चारों ओर फैली हुई थी । श्रष्टिवर्य बेसट बहुमूल्य रत्नों की भेंट लेकर राजा के पास जाते हैं और राजा श्रेष्टिको ने का कारण पूछता है जब श्र ेष्टी ने अपना हाल सुनाया तो राजा खुश होकर सेठ को अपने नगर मे रहने की अति आग्रह से आमंत्रण करता है । कहा भी है कि 'भाग्यशाली जहाँ जाता है वहाँ सब ऋद्धि सिद्धियें तैयार रहती हैं' । राजा और श्रष्टि का वार्त्तालाप हो रहा था इतने में दरबान आकर अर्ज कर रह है कि दरवाजे पर सुहाजनसंघ आया है और आप से मिलना चाहता है । राजा ने आज्ञा दे दी और महाजनसंघ राजा के पास आकर प्रार्थना की कि हमारे मन्दिरों में अठाई महोत्सव शुरू हुआ है। जिसका आज वरघोड़ा है अतः जीवदया के लिये उद्घोषना होजानी चाहिये कि राजभर में कोई जीव न मारने पवे | इस पर राजा ने कहा कि यह तुम्हारा क्या धर्म है कि हरएक काम में तुम लोग इस प्रकार की प्रार्थना किया करते हो ? इस पर पास में बैठा हुआ श्रेष्टिवर्य वेसट ने राजा को इस प्रकार का उपदेश दिया कि वह दया अहिंसा के सच्चे स्वरूप को समझ कर हिंसा त्याग कर अहिंसा भगवती का परम उपासक बन गया और श्रष्टि ने किराटकूप को अपना निवास स्थान बना लिया । श्रष्टि वेसट का वंश-वृक्ष ग्रन्थकार ने इस प्रकार लिखा है । १६० Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] इसमें शाह गोशल के पुत्र देसल का ही यहाँ वर्णन किया जाता है । उपकेशवंशीय वेसट I वरदेव जिनदेव | नागेन्द्र सलक्षण ( पालनपुर गया) आजड़ गोसल देसल ( पाटा गया) T समर सिंह Jain Education Irnational [वि० पू० ४०० वर्ष श्रष्टि शाहदेसल बड़ा ही भाग्यशाली धर्मात्मा एवं उदार था आप अपने जीवन में १४ बार तीर्थों की यात्रा निमित्त संघ निकाले जिस में आपने १४ करोड़ रुपये खर्चकिये तथा वि० सं० १३६९ में अलाउद्दीन खिलजी ने धर्मान्धता के कारण पुनीत तीर्थ श्री शत्रुंजय का उच्छेद कर दिया था जिसका उद्धार कराना उस समय एक टेढ़ी खीर समझी जाती थी क्यों कि उस समय मुसलमानों के श्रस्य । चार ने भारत में त्राहि २ मचा दी थी, परन्तु उपकेशगच्छाधिपति गुरुचक्रवर्ती आचार्य सिद्धसूरि के उपदेश से श्रष्टिवर्य देसल एवं आपके पुत्ररत्न तिलंग देश के स्वामी स्वनामधन्य समरसिंह ने दो वर्षों के अन्दर अन्दर शत्रुंजय तीर्थ को पुनः स्वर्ग सदृश्य बना कर वि० सं० १३७१ माघशुक्ल १४ सोमवार पुष्य नक्षत्र के शुभमूहूर्त में उपकेश गच्छाधिपति गुरुचक्रवर्ति श्राचार्य सिद्धसूरि के कर कमलों से प्रतिष्ठा कराई इस विषय के लिये उसी समय कई प्रन्थ निर्माण हुये थे जैसे वि० सं० १३०१ माघशुक्ल १४ को प्रतिष्ठा हुई संवत् १३७१ चैतबदी ७ के दिन निर्वृतिगच्छ के आचार्य श्राम्रदेवसूरी ने "समररा सुनामक" रास की रचना की तथा वि० सं० १३९३ में श्राचार्य कक्कसूरि ने नाभिनंदन जिनोद्धार नामक ग्रंथ निर्माण किया जिन्होंने अपने हाथों से इस प्रतिष्ठा का करने योग्य सब कार्य सम्पादन किया था । अतः दोनों ग्रंथों को ऐतिहासिक ग्रंथ कहा जा सकता है । लक्ष्य नाभिनंदन जिनोद्धार ग्रंथ शत्रुंजय तीर्थ का पंद्रहवां उद्धार को ही में रख कर लिखा गया है और समरसिंह के पूर्वजों का संक्षिप्त परिचय शाल्हाशाद के लिये ग्रंथकार ने श्रष्टवर्य वेसट से ही परिचय करवाया है परंतु वेसट के पूर्वज उपकेशपुर में कब से बसते होंगे इन के लिये यह कहना अतिशययुक्ति न होगा कि वि० पू० ४०० वर्ष सूर्यवंशी महाराजा उपलदेव को श्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने जैनधर्म में दिक्षित किया उसी उपलदेव की वंश-परम्परा वेट के पूर्वज उपकेशपुर में रहते आये होंगे। जब हम वंशावलियों की ओर देखते हैं तो विक्रम की सातवीं शताब्दी से श्रेष्ठवर्य रघुवीर हुआ उसकी परम्परा में ही वेसट हुआ है जिसको हम इसी ग्रंथ में यथास्थान लिखेंगे। यहां तो केवल ऐतिहासिक प्रमाण को लक्ष्य में रख कर श्रेष्टि वेसटका उदाहरण दिया है कि श्र ेष्ठिवर्य वेसट के समय उपकेशपुर और किराटकूप नगर उपकेशवंशियों से किस प्रकार आबाद एवं फलाफूला था और न विशाल संख्यक लोगों के नगरांतर होने के कारण यह वंश कितना प्राचीन समझा जाता है । *श्रीदेशलः सुकृत पेसल वित्त कोटी | चंचच्चतुर्द्दश जगज्जनितावदातः शत्रुंजय प्रमुख विश्रुत सप्त तीर्थ: । यात्रा चतुर्दश चकार महमहेन ॥ उपगच्छ पट्टावली १९२२ +श्रीविक्रमादुडुपवाजि कृशानुसोम संवत्सरे १३७९ तपसि मासि चतुर्दशेऽह्नि । सुमेध पक्षशशाङ्कवारे, लग्ने झपे च बलशालिनि वर्तमाने || 'नाभिन्न्न जिलोदर पृष्ट १६८ www६ Porary.org. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २ - वि० सं० १००५ में उपकेशगच्छीय पं० जम्बुनाग ने 'मुनिपति चरित्र' नाम का प्रन्थ लिखा है। और यह ग्रन्थ जैसलमेर के भण्डार में विद्यमान है। ३ - वि० सं० १०११ का एक शिलालेख ओसियों के मन्दिर की एक मूर्ति पर है जिसको श्रीमान् पूर्णचन्द्रजी नाहर ने प्राचीन लेख संग्रह भाग १ पृष्ठ ३१ पर मुद्रित करवाया है । ४ - वि० सं० १०१३ का शिलालेख भी ओसियां के मन्दिर में लगा हुआ है इसको भी श्रीमान् पूर्णचन्दजी नाहर ने प्राचीन लेख संग्रह भाग १ पृष्ठ १९२ पर छपाया है । ५ - वि० सं० १०२५ उपकेशगच्छीय पं० जम्बुनाग ने 'जिनशतक' नामक काव्य की रचना की वह सप्तम काव्य गुच्छक नामक पुस्तक के पृष्ठ ५२ पर मुद्रित हो चुका है। ६ - वि० सं० १०७३ आचार्य देवगुप्तसूरि ने 'नवपद प्रकरण' नामक ग्रन्थ निर्माण किया था वह सेठ देवचन्द्र लालभाई सूरत वालों की ओर से मुद्रित हो चुका है तथा नवतत्वगाथा नामक ग्रन्थ भी इसी आचार्य ने लिखा है । ७ - वि० सं० ९१५ में उपकेशगच्छवाचनाचार्य कृष्णर्षि के शिष्य जयसिंह ने धर्मोपदेशलघुवृत्ति की रचना की थी । यह पाटण के भण्डार में विद्यमान है जिसकी नोंध जैन प्रन्यावली पृष्ठ १८२ पर की गई है। ८ - विक्रम की नौवीं शताब्दी में वायटगच्छीय आचार्य बप्पभट्टलूर एक महाप्रभाविक श्राचार्य हुए जो जैनशासन में विशेष विख्यात हैं । उन्होंने ग्वालियर के राजा श्राम को प्रतिबोध देकर जैन बनाया जिसने ग्वालियर में एक विशाल मन्दिर बना कर उसमें सुवर्णमय मूर्ति स्थापन करवाई थी। राजा आम के एक राणी वैश्यवंश की थी उनकी सन्तान जैनधर्म पालन करने से ओसवंश में शामिल हुई तथा उनमें से किसी ने राजा के कोठार का काम करने से उनको जाति राजकोठारी कहलाई, उसी वंश में स्वनामधन्य कर्माशाह हुआ कि जिन्होंने विक्रमकी सोलहवीं शताब्दी में पुनीत तीर्थ श्रीशत्रुंजय का सोलहवां उद्धार करवाया जिसका शिलालेख आज भी शत्रुंजय तीर्थ पर विद्यमान है उसमें लिखा है कि: एतच गौपाहगिरौ गरिष्टः श्रीबप्पभट्टी प्रतिबोधितश्च । श्री आमराजोऽजनितस्यपत्नी काचित् बभूव व्ययहारि पुत्री ॥ लत्कुक्षि जाताः किल राज कोष्टागाराह गोत्रे सुकृतैक पात्रे । श्री ओसवंशे विशदे विशाले तस्यान्वयेऽमी पुरुषाः प्रसिद्धाः ॥ "प्राचीन लेख संग्रह द्वितीय भाग पृष्ट २” इस लेख से इतना तो स्पष्ट पाया जाता है कि वि० सं० ८०० पूर्व श्रोसवंशीय लोग भारत के चारों ओर फैल गये थे इस प्रकार एक प्रान्त एवं एक नगर में उत्पन्न हुआ महाजनसंघ इस प्रकार फैल जाने में कितनी शताब्दियों का समय चाहिये पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं । ९ - मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज की शोध खोज से ओसियों के एक भग्न मन्दिर के खण्डहरों में एक टूटी हुई चन्द्रप्रभ की मूर्ति के नीचे खण्डित पत्थर के टुकड़े पर शिलालेख मिला था जिसमें सं० ६०२ XXX आदित्यनाग गोत्रे x x लिखा हुआ था शायद् आदित्यनाग गोत्र वालों ने उस मन्दिर एवं मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई हो। इससे पाया जाता है कि सं० ६०२ पूर्व उपकेशपुर उपकेशवंशियों से फलाफूला एवं अच्छा आबाद था । Jain Edu &nternational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष १० - विक्रम की छुट्टी शताब्दी का जिक्र है कि श्वेत हूण तोरमाण ने पंजाब की तरफ से आकर मार वाड़ को विजय कर भिन्नमाल में अपनी राजधानी कायम की। वहां जैनाचार्य इरिगुप्तसूरि आये थे उन्होंने तोरमाण को उपदेश देकर जैनधर्म का अनुरागी बनाया और उसने भिन्नमाल में भगवान् ऋषभदेव का मंदिर भी बनाया पर तोरमाण के बाद उसका पुत्र मेहिरकुल हुआ। जब से मेहिरकुल ने राजसत्ता हाथ में ली तब से ही जैनों के दिन बदल गये । मेहिरकुल ने जैनों पर इतना सख्त जुल्म गुजारा कि कई जैनों को अपने जान माल बचाने की गरज से जननी जन्मभूमि का त्याग कर सौराष्ट्र, कोंकन और लाट प्रदेश (गुजरात) की श्रर जाना पड़ा था । श्राज उक्त प्रदेशों में ओसवाल, पोरवाल और श्रीमालादि जातियां निवास करती दृष्टिगोचर हो रहों हैं वे सब मेहिरकुल के अत्याचारों से दुखित होकर मारवाड़ से ही गई हुई हैं। अतः विक्रम की छुट्टी शताब्दी में ओसवाल, पोरवाल और श्रीमाल जातियों का मारवाड़ में विशाल संख्या में होना साबित होता है । अतः इससे उपकेशवंश की प्राचीनता साबित होती है । ११ - वि० सं० ८०२ में आचार्य शीलगुणसूरि की सहायता से वनराज चावड़ा ने श्रणहल्लपुर नाम का नया पाटन शहर बसाया था। उस समय भी चंद्रावती भिन्नमालादि मारवाड़ के नगर ओसवालादि जैन जातियों से सुशोभित थे और कई मुत्सद्दी एवम् व्यापारियों को आमन्त्रण - पूर्वक बड़े ही सन्मान सत्कार से पाटण ले गये थे और यह बात है भी ठीक कि पहिले जमाने में नगर की आबादी का मुख्य कारण महाजन ही समझा जाता था । जहां महाजन होते हैं व्यापार खुल उठता है और व्यापार की उन्नति का कारण भी महाजन ही हैं तथा राजतंत्र चलाने में भी महाजन मुत्सद्दियों की कार्यकुशलता से राज का प्रबन्ध व्यवस्थित और जनता को आराम रहता था । अतः पहिले जमाने में जहां तहां महाजनों की आवश्यकता रहा करती थी । इन प्रमाणों से विक्रम की पांचवीं छट्ठी शताब्दी में ओसवंश के लोग भारत के अनेकों विभागों में फैले हुए थे तो यह जाति कितनी प्राचीन समझी जा सकती है। ५२-वल्लभी का भंग जो एक बार ही नहीं किन्तु कई बार हुआ है पर सबसे पहिली वार वल्लभी का भंग विक्रम की चौथी शताब्दी में हुआ था और उसमें कांगसी का कारण की कथा को मुख्य बतलाई जाती है जिसके लिए प्राचीन ग्रन्थों में लिखा हुआ मिलता है कि फेफावती नगरी में काकु और पातक नाम के दो बलाह गौत्रीय साधारण गृहस्थ रहते थे। जब वहां से श्रीशत्रुंजय तीर्थ का एक बड़ा भारी संघ निकला तो वे काकु और पातक भी उस संघ में यात्र सिद्धगिरी गए थे । पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण किसी वल्लभीनगरी के साधर्मी भाई ने उन काकु पातक की धर्म-निष्टा देख कर अपने यहां रख लिए और उनको सहायता देकर व्यापार कराया। इन बिरादरों के बड़े भारी पुण्योदय हुए कि उस व्यायार में पुष्कल द्रव्य पैदा कर लिया। बाद इनकी संतान में दो पुरुष पैदा हुए जिन्हों का नाम था शंका और बांका। रांका के एक पुत्री थी जिसका नाम था चम्पा । रांका ने किसी देश के व्यापारियों से अपनी पुत्री चम्पा के लिए एक बाल सँवारने के कारण 'कांगसी' खरीद की थी तथा वह कांगसी ऐसी थी कि वल्लभीनगरी में उसके सदृश दूसरी काँगसी नहीं थी । एक समय राजा शल्यादित्य की कन्या बगीचा में गई थी, भाग्यवशात् उसी समय चम्पा भी वहां आ गई थी । उसके पास कांगसी देखी तो राजकन्या ने कहा कि चम्पा यह कांगसी मुझे दे दे और जितना खर्चा लगा हो वह मेरे से ले ले; पर चम्पा ने बालभाव के कारण कांगसी देने से इन्कार कर दिया और वहां से चल कर अपने मकान पर श्र १६३ www.jamie brary.org Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गई । राजकन्या ने अपने स्थान जाकर माता से कहा कि चम्पा के पास कांगसी है वह मुझे दिला नहीं तो मैं अन्न जल नहीं लूंगी । रानी ने राजा को कहा और राजा ने रांकाशाह को बुला कर कांगसी मांगी। शंकाशाह ने चम्पा को कहा और बहुत समझाया पर उसने भी हट पकड़ लिया कि मुझे मरना मंजूर है पर कांगसी नहीं दूँगी । अतः रांका ने लाचार होकर राजा को कहा आप आज्ञा दे तो मैं दूसरी कांगसी मँगा कर या नई बना कर सेवा में हाजिर कर सकता हूँ, पर वह कांगसी तो चम्पा देने को इन्कार है । राजा ने कहा कांगसी की कोई बात नहीं है पर मेरी कन्या ने हठ पकड़ लिया है अतः कांगसी तुमको देनी पड़ेगी । शंकाशाह ने कहा कि यही हाल मेरा है । चम्पा ने हट पकड़ लिया है कि मैं कांगसी नहीं दूंगी | आप ही बतलाइये इसका अब मैं क्या करूं ? आखिर में राजा ने जबरदस्ती से अपनी सत्ता द्वारा रांकाशाह एवं चम्पा से कांगसी छीन ली। इस पर रांकाशाह को बहुत गुस्सा आया और उसने काबुल वालों को बहुत द्रव्य देकर उसकी सेना द्वारा वल्लभीनगरी पर धावा करवा के वल्लभी का भंग करवा दिया। बस उस काशाह की सन्तान का कहलाई । इससे यह प्रमाणित होता है कि विक्रम की चौथी शताब्दी पूर्व उपकेशवंशी भारत के कई विभागों में फैले हुए 1 १३ - १४४४ प्रन्थ के कर्त्ता प्रसिद्ध आचार्य हरिभद्रसूरि का समय जैन पट्टावल्यादि ग्रन्थों के आधार पर वि० सं० ५८५ का है पर हरिभद्रसूरि नाम के बहुत आचार्य हो गये हैं, अतः आजकल की शोध से उन १४४४ ग्रन्थों के कर्ता हरिभद्रसूरि का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी का कहा जाता है | आचार्य हरिभद्र के समकालीन आचार्य देवगुप्तसूरि हुये हैं । आचार्य हरिभद्रसूरि आदि आठ आचार्यों ने महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया जिसमें देवगुप्तसूरि भी शामिल थे, यह बात महानिशीय सूत्र के दूसरे अध्ययन के अन्त में लिखी है जैसे: “अचितचिंतामणिकल्पभूयस्स महानिसीहसुयस्कंधस्स पुव्वाई रास असितह चैव खंडिए उहिया एहिं उहि बहवे पतंगा परिसाड़िया तह वि अच्च तसुमच्छाहसयति इमं महानिसीहसूयस्कंध किसि पयणस्स परमाहार भूय, परंततमहच्छति कविउणं पवयणवच्छतेणं बहुभवल संतोवियारिय' च काउतहायआयरिय अठ्याए आयरियहरिभदेण १ जं तत्थायरि से हितं सच्चं समती एसा हिऊणं लिहियंति अन्नेहिपि सिद्धसेण २, बुढवाई ३, जख्खसेण ४, देवगुते ५, जस्सभद्देणंखमासमणसीस रविगुत्त६, सोमचंद ७, जिणदास-गणि खमथ सब्बे मूरिपमुहे हि जुगप्पहाण ८" महानिशीथ पुत्र अ० दूसरा हस्त लिखित प्रति पाने ७२-१ १४ - ओसियों मन्दिर की प्रशस्ति के शिलालेख में उपकेशपुर के पड़िहार राजाओं में वत्सराज की बहुत प्रशंसा लिखी है । जिसका समय वि० सं० ७८३ या ८४ का है। इससे भी यही प्रकट होता है कि उस समय उपकेशपुर की भारी उन्नति थी । अतः आबू के उत्पलदेव पँवार ने श्रोसियों बसाई यह भ्रम भी दूर हो जाता है। कारण बू के पँवार उत्पलदेव का समय विक्रम की दशवीं शताब्दी का है तब आठवीं शताब्दी में उपर्कशपुर अच्छा आबाद था और वत्सराज पड़िहार वहाँ का शासन कर्त्ता था फिर समझ में नहीं आता है कि उत्पलदेव पवार ने कौनसी ओसियां बसाई होगी ? १६४ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष १५-वि० सं० ५०८ का एक शिलालेख कोटा राज्यान्तर्गत अटारू नामक ग्राम के एक जैनमन्दिर के भग्न खण्डहरों में प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ मुंशी देवीप्रसादजी जोधपुरवालों की शोध-खोज से मिला था ! मुंशीजी ने उस शिलालेख की ठीक समालोचना करते हुए स्वरचित "राजपूतानाकीशोध-खोज” नामक पुस्तक में लिखा है कि प्रस्तुत शिलालेख में भैंसाशाह के नाम का उल्लेख किया गया है । उस भैंसाशाह के लिए मुन्शीजी ने लिखा है कि भैंसाशाह के और रोड़ा बिनजारा के आपस में व्यापारिक सम्बन्ध इतना घनिष्ट था कि जिसको चिरस्थायी बनाने के लिए उन दोनों ने अपने नाम से एक ग्राम आबाद किया जिसका नाम भैंसरोड़ा...भैंसरोड़ा अर्थात् भैंसाशाह का नाम और रोड़ा बिनजारा का नाम । प्रस्तुत भैंसरोड़ा ग्राम मेवाड़ इलाके में आज भी विद्यमान है । इस लेख से यह पाया जाता है कि विक्रम की पांचवी शताब्दी पूर्व उपकेशवंश अनेक नगरों में खूब ही फला फूला और वृद्धि पाया हुआ था। जब हेमवन्त पट्टावलीकार दूसरी शताब्दी में मथुरा निवासी ओसवंश शिरोमणि श्रावक पोलाक का उल्लेख करते हैं तथा वि० सं० २२२ में श्राभा नगरी में धनकुबेर जगाशाह सेठ बसता था उस पर क्यों नहीं विश्वास किया जाय ? तथा विक्रमपूर्व ९७ वर्षे उपकेशपुर में महावीर स्नात्र समय १८ गोत्र के भावुकों ने स्नात्रीय बन कर पूजा पढ़ाई थी इसमें शंका ही क्यों हो सकती है। पूर्वोक्त सब प्रमाण हमारी पट्टावलियों में लिखा हुआ ओसवंश उत्पत्ति का समय वि० सं० पूर्व ४०० वर्षों को प्रमाणित करता है । १६ - पुरातत्व की शोधखोज से अनेक पदार्थ ऐसेभी मिलते हैं जो इतिहास क्षेत्र पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। कुछ अर्सा पहले पूर्व प्रदेश की भूमि खोदने का काम करते समय एक मूर्ति मिली है जिस पर कुछ भाग खंडित शिलालेख भी है उसमें सं० १८४ (८४) और श्रीवंश अक्षर स्पष्ट दिखाई देते हैं जिसकी समालोचना'श्वेताम्बर जैन ' अखबार में जो आागरे से प्रकाशित होता है की गई थी। जब हम श्रीवंश ज्ञाति की ओर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि यह ज्ञाति उपकेशवंश की ही होनी चाहिये। कारण, इसी जाति का एक शिलालेख विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का मिलता है। इनके अलावा वंशावलियों में भी श्रीवंश ज्ञाति के यत्र तत्र प्रमाण मिलते हैं । यदि हमारी धारणा ठीक है और श्रीवंश ज्ञाति उपकेशवंश की ही ज्ञाति हो तो कोई कारण नहीं कि हम उपकेश वंश को वीरात् ७० वर्षे मानने में किसी प्रकार की शंका करें, क्योंकि वि० सं० पूर्व ९७ वर्ष में तो उपकेशवंश के १८ गोत्रों का पता मिलता है और वे गोत्र उस समय के पूर्व बन चुके थे । जब वीरात् ७० वर्षों में इस वंश की उत्पत्ति हुई हो तो १८४ वर्षों में गोत्रों का नाम संस्करण हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । १७ - महावीर निर्वाण से ८४ वर्ष का एक शिलालेख पं० गौरीशंकरजी श्रोफा की शोध-खोज से वर्ली ग्राम से मिला है वह लेख एक पत्थर खण्ड पर खुदा हुआ है और अजमेर के अजायबघर में सुरक्षित है । शिलालेख खंडित है । अतः यह निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता है कि यह शिलालेख इतना ही था या इसके पूर्व उत्तर विभाग में और भी कुछ लिखा हुआ था जो प्रस्तुत लेख के साथ सम्बन्ध रखता हो । * संवत् १५३० वर्षे माघशुद्धि १३ खौ श्री श्रीवंशे श्रे० देवा० भा० पाचु पु० ० हापा भा० पुहती पु० श्रे महिराज सुश्रावकेण भा० मातरसहितेनपितृ श्रेयसे श्रीअंचलगच्छेश जयकेशरीसूरिणामुपदेशेन श्री सुमतिनाथ बिंबं कारितं प्र० श्री संघेन" । " बा० पू० ना० लेखांक ६६४" १६५ary.org www.j Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य रत्नप्रभसूरि का स्वर्गवास वीर निर्वाण सं० ८४ में हुआ था और पट्टावलियों में यह भी लिखा मिलता है कि आपश्री के शरीर का सिद्धगिरि पर जहां अग्निसंस्कार हुआ था वहाँ श्रीसंघ ने एक विशाल स्तूप भी बनाया था । शायद प्रस्तुत लेख उस स्तूप के साथ सम्बन्ध रखने वाला हो। और यह बात असम्भव भी नहीं है क्योंकि वीर निर्वाण के बाद ८४ वर्ष का जैसा रत्नप्रभसूरि के स्वर्गवास का उदाहरण मिलता है वैसा दूसरा कोई नहीं मिलता है । यह केवल मेरा अनुमान ही है, पर कभी २ ऐसा अनुमान सत्य भी हो सकता है। परन्तु यहां एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि रत्नपभसूरि का स्वर्गवास सौराष्ट्र के शत्रुजय तीर्थ पर हुआ है तब बर्ली ग्राम शत्रुजय से सैंकड़ों मील दूर है, फिर बी से मिलने वाला शिलालेख रत्नप्रभसूरि से क्या सम्बन्ध रख सकता है ? ___ भगवान महावीर का मोक्ष पावापुरी में हुआ था पर आपके मन्दिर स्तूप अन्यान्य प्रदेश में भी मिलते हैं। इसी प्रकार रत्नप्रभसूरि भी एक महान उपकारी पुरुष हुये हैं और आपके भक्त लोग अनेक स्थानों में रहते थे। आपनी का उपकार भी बिलकुल निकट समय का ही था। यदि किसी भक्त जन ने भक्ति से प्रेरित हो उस समय तथा बाद में कुछ स्मृति-चिन्ह बनाया हो और उसमें लिख दिया हो कि भगवान महावीर के बाद ८४ व वर्ष में आपका स्वर्गवास हुआ था तो कुछ असंभव भी नहीं है । मैंने यह निर्णय की तौर पर नहीं पर एक कल्पना की तौर पर ही अनुमान किया है। __इत्यादि उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों से हम इस निश्चय पर आ सकते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ के छठे पट्टधर प्राचार्य रत्नप्रभसूरि हुये थे और उन्होंने वीरात् ७० वें वर्ष उपकेशपुर में पधार कर वहां के राजा और प्रजा के लाखों मनुष्यों को मांस मदिरादि दुर्व्यसन छुड़ा कर जैन धर्म में दीक्षित कर उस समूह का नाम 'महाजन संघ' रखा था । वही महाजन संघ आगे चल कर नगर के नाम पर उपकेशवश कहलाया और श्रोसवश श्रोसवाल उसी उपकेशवंश का रूपान्तर नाम हुआ था इत्यादि। हम उपरोक्त प्रमाणों से जिस निश्चय पर आये हैं, जब तक इनके खिलाफ कोई विश्वासनीय प्रमाण न मिले वहाँ तक हमारा दृढ़ विश्वास है कि ओसवालों की उत्पत्ति वि० पू० ४०० वर्ष अर्थात् वीर निर्वाण के बाद ७० वर्ष में हुई थी और इसी प्रकार सब विद्वानों एवं ओसवालों को भी मानना एवं इस मान्यता पर विश्वास रखना चाहिये । Jain Ede international Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पृ० ४०० वर्षे MAN महाजनसंघ उपकेशवंश और प्रोसवाल जाति की उत्पत्ती विषय विद्वानों की सम्मतियें १-श्रीमान् पूर्णचन्द्रजी नाहर ने स्वसम्पादित प्राचीन लेख संग्रह खण्ड तीसरे के पृष्ठ २५ पर लिखा है कि ओसवालों की उत्पत्ति विक्रम सं० ५०० से १००० वर्ष में हुई होगी जैसे कि आप लिखते हैं "इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि 'ओसवाल' में 'श्रोस' शब्द ही प्रधान है । ओस' शब्द भी 'उएस' शब्द का रूपान्तर है और 'उएस' 'उपकेश' का प्राकृत है। इसी प्रकार मारवाड़ के अन्तर्गत 'श्रोसिया' नामक स्थान भी 'उपकेशनगर' का रूपान्तर है । जैनाचार्य रत्नप्रभसूरिजी वहां के राजपूतों की जीवहिंसा छुड़ा कर उन लोगों को दीक्षित करने के पश्चात वे राजपूत लोग उपकेश अर्थात् ओसवाल नाम से प्रसिद्ध हुये। xx x जहाँ तक मैं समझता हूँ ( मेरा विचार भ्रमपूर्ण होना भी असम्भव नहीं ) प्रथम राजपूतों से जैनी बनाने वाले पार्श्वनाथ सन्तानिया श्रीरत्नप्रभसूरि नाम के आचार्य थे। उपरोक्त घटना के प्रथम श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के पट्ट परम्परा का नाम उपके शगच्छ भी नहीं था इत्यादि जैन लेख संग्रह खण्ड तीसरा पृष्ठ २५ नोट-ओसवालों का उत्पत्ति स्थान ओसियों और प्रतिबोधक आचार्यरत्नप्रभसूरि थे इस विषय में श्रीमान नाहरजी हमारे सम्मत हैं तथा आपका यह कहना भी ठीक है कि ओसवाल बनने की घटना के पूर्व पार्श्वनाथ की पट्ट-परम्परा का नाम उपकेशगच्छ मी नहीं था ? क्योंकि पार्श्वनाथ की परम्परा का उपकेशगच्छ नाम उपकेशपुर में महाजनसंघ बनाने के बाद में ही हुआ है। शेष शंकाओ के लिये देखो 'शंकाओं का समाधान' नामक लेख जो इसी प्रन्थ में प्रकाशित है। २-इसी प्रकार 'ओसवाल जाति का इतिहास' के लेखक श्रीमानभंडारीजी ने भी नाहरजी का ही अनुकरण करते हुए कहा है कि ओसवालों की उत्पत्ति वि० सं०५०० से ९०० के बीच में हुई होगी। ___३-श्रीमान् अगरचन्दजी नाहटा बीकानेरवालों ने पल्लीवाल पट्टावली नामक एक लेख आत्मानन्द शताब्दी अंक के पृष्ठ १८७ पर मुद्रित करवाया है जिसमें आप लिखते हैं कि: "श्वेताम्बर समाज में दो तीर्थकरों की परम्परा अद्यावधि चली आती है । १-पार्श्वनाथ २-महावीर । भगवान महावीरदेव की विद्यमानता में प्रभु पार्श्वनाथजी के सन्तानिये केशीगणधर की विद्यमानता के प्रमाण श्वे० मूल अागमों में पाये जाते हैं यद्यपि केशी के अतिरिक्त और भी कई मुनिराज पार्श्वनाथ सन्तानिये उस समय विद्यमान थे और उसका उल्लेख अंगसूत्रों में कई जगह प्राप्त है तथापि केशी मुख्य और प्रभाविक थे उनकी परम्परा आज तक भी चली आ रही है इसलिये वे यहाँ उल्लेखनीय हैं। इस परम्परा के छठे पटधर रत्नप्रभसूरिजी नामक प्राचार्य बहुत प्रभाविक हो गये हैं कहा जाता है कि श्रोसियां ( उपकेश ) नगरी में वीर निर्वाण सम्वत् ७० के बाद १८०००० क्षत्रियपुत्रों को उपदेश देकर जैनधर्मी आपने ही बनाये और वहाँ से उपकेशनामावंश चला जो आज भी श्रोसवाल के नाम से सर्वत्र सुप्रसिद्ध है। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये उनका नाम सदा चिरस्मरणीय रहेगा।" ४-जैनन्योति नामक साप्ताहिक अखबार जो अहमदाबाद से प्रकाशित होता है जिसके ता०५-६-३७ के अंक में एक पुस्तक की समालोचना करते हुए लिखते है: www१६७ary.org Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 'ओसवालोत्पत्ति विषयक शंकाओं का समाधान' लेखक-मुनिराज श्रीज्ञानसुन्दरजी प्रकाशकश्रीरत्नप्रभाकर ज्ञाव पुष्पमाला मु? फलौदी ( मारवाड़) कीमत-पठन पाठन, पृष्ट ५४ प्रथमावृति श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमालना १५२ मां प्रन्थांक तरीके प्रगट थयेल ___"आप्रन्थ ओसवाल जातिना इतिहास ने लागती विगतो थी भरपुर छे, उपके शवंश-ओसवालवंशनी विगतो अनेक रीते बोधदायक छे आ जातिना प्रथमस्थापक श्रीरत्नप्रभसूरि जो वि० सं० पूर्व ४०० मा अर्थात् वीरनिर्वाणसस्वत् ७२ मां मरुधरप्रान्तमां अाव्या हता ने उपकेशपुरमा अजैनों ने जैनधर्म मां मेलववानु भागीरथ कार्य क्र्यु हतुं । आ पुस्तक ओसवालवंश नी उत्पत्ति थी लई आधुनिक स्थिति सुधी नी सुन्दर रीते सवाल जवाब नी ढब थी चर्चा करे छे । मुनिराज श्रीज्ञानसुन्दरजीना ऐतिहासिक ज्ञान थी जैनजगत परिचित ज छे श्रा ग्रन्थ तेमना उड ज्ञान नी विशेष खातरी आपे छ । ५-ऊसवंश-उकेशवंश-उपकेशज्ञाति - उमेशज्ञाति के ओसवालज्ञातिना नामे ओलखातो जथो मूल माँ श्रीमालनगर थी छुटो पड़ी ने जुदा जुदा स्थान माँ जाइ बसेला लोकोनो समूह छे । उत्पलदेव नामनो राजाकुँवर अने उहड़नामनो श्रीमाली वाणियो (मन्त्री) अवे पोतपोताना कुटुम्बियो थी दुभाइने श्रीमालनगर छोड़ी चाल्या गया । तेमणे राजपूतानाना मध्य भाग मे रेतीली-रणनी बीच्चे उस (उह) वाली एक जगाने नबु नगर वसाव्यु । नवानगर नुं नाम उस अथवा ओस नगर पाइयु । ज्याँ वधारे वस्ती होय त्याँ केटलाक लोको ने धंधा रोजगार ने माटे मुझावू पडतु होय ते स्वाभाविक छे आवा लोको कोई नवू द्वार खोजताज होय छे । एकाद स्थान नवु वसे छे अने त्यां पोतानो लगवग लागे एवंछे अने एवँ जाणताना साथे तुरतज तेश्रो ते तरफ पयाण करे छे । राजकुँवर उत्पलदेव अने तेमना साथी उहड़ श्रेष्टिले श्रीमालनगर माँ थी पोताना कुटुम्बियों ने तोड़ावी लीधा ते साथे श्रीमालनगर माँ थी घणा लोक नवानगर माँ जाइ वस्या x x x x महावीरस्वामी पछी ७० वर्षे अटले बिक्रम संवत् पहिला ४०० वर्षे रत्नप्रभसूरि श्रे श्रोस नगरना निवासियो ने अने त्यांना राजा उत्पलदेव ने जैनधर्मी बनाया। "मणिलाल बकोरभाई व्यास कृत श्रीमाली वाणिया ना शातिभेद ग्रन्थ पृष्ट ६४" ६-इतिहास-प्रमी मरुधरकेसरी पूज्य मुनिराज श्री श्री १००८ श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब की पवित्र सेवा में बम्बई-६-८-३७ सादर वन्दना के पश्चात् बड़े ही हर्ष के साथ सेवा में निवेदन किया जाता है कि आपश्री की भेजी हुई 'श्रोसवालोत्पत्ति विषयक शंकाओं का समाधान' नामक पुस्तक मिली,जिसको आद्योपान्त पढ़ने से हमारे चिरकालीन संस्कार जो ओसवालों की उत्पत्ति वि. सं. २२२ में होने के थे वह आज रफूचक्कर हो गये और हमारा इतिहास ६२२ वर्ष पूर्व पहुँच गया है अर्थात् हमारी जाति की उत्पत्ति वि. पू ४०० में हुई थी। आपकी लिखी पुस्तक ने अच्छा प्रभाव डाला है। तदर्थ श्रापको कोटिशः धन्यवाद । सेवा कार्य लिखावें आपका चरण किंकर “नथमल उदयमल' ७-विक्रम सम्वत् प्रारम्भ से ठीक चार सौ वर्ष पूर्व अर्थात आज से करीब चौबीस सौ वर्ष पूर्व जैन समाज के संगठन और वृद्धि के निमित्त श्वेताम्बर आम्नाय के जैनाचार्य श्रीमद् रत्नप्रभसूरिजी महाराज ने १६८ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष जो आन्दोलन ओसियों नगर से ( जो मारवाड़ में जोधपुर के निकट आजकल तो प्राममात्र है ) प्रारम्भ किया था और सर्व प्रथम उस नगर के राजा उत्पलदेव पंवार (सूर्यवंशी) को जैनधर्म का प्रतिबोध देकर राजा सहित १८ गोत्रों के क्षत्रियों को जैनधर्म अंगीकार कराया था, एवं उन्हें सकुटुंब जैन क्षत्रिय बनाया था । उसके फलस्वरूप ओसवाल ( श्रोसियाँ वाले ) जाति उत्पन्न और आरम्भ हुई । एक जाति की स्थापना सिर्फ चमत्कार वश नहीं हो सकती थी । सिद्धि और चमत्कार तो कई जगह नजर आते हैं लेकिन कोई जनसमूह अन्धश्रद्धा या अंध विश्वास से एक सूत्र में बंधना स्वीकार नहीं करता है। जब तक मनोवृत्तियाँ एक कौम में नहीं आती और चित्त को शान्ति व श्रानन्द की आशा नहीं होती तब तक कोई भी नये पंथ पर आना पसन्द नहीं करता। बाद में १८ गोत्र स्थापित हुये और यह आन्दोलन कभी तीव्र तो कभी मंद गति से चलता रहा। __ प्रोसवाल समाज की परिस्थिति पृष्ठ २ लेखक श्रीमान् मूलचन्दजी बोहरा-अजमेर ८-ओसवाल जाति की उत्पत्ति के विषय मैंने आज पर्यन्त जितने प्रन्थ देखे हैं उनके सारांश रूप इस निर्णय पर आया हूँ कि ओसवालों की उत्पत्ति विक्रम पूर्व ४०० वर्ष में प्राचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा हुई है और इसका शुरू से महाजन संघ, बाद उपकेशवंश नाम था जिसको आज हम श्रोसवाल कहते हैं । एक समय इस जाति की बड़ी भारी जाहोजलाली थी। हंसराज मूथा महाजनों को महता शीर्षक लेख" ९-मैं ओसवालों को उत्पत्ति के विषय में कतई अनभिज्ञ था परन्तु जब मुझे श्रोसवालोत्पत्ति विषयक साहित्य पढ़ने का मुनि श्रीज्ञानसुंदरजी की कृपा से अवसरप्राप्त हुआ और उपकेशगच्छ चरित्र,नाभिनन्दन जिनोद्धार पट्टावलियां और वंशावलियां आदि तथा शिलालेख संग्रह आदि का अवलोकन किया तो मेरी तो यह धारणा हुई कि ओसवाल जाति जिसके पहले दो नाम उपकेशवंश और महाजनवंश हैं वह अति प्राचीन है और विक्रम से ४०० वर्ष पहिले इसकी उत्पत्ति होने में कोई शंका नहीं है। जो लोग धार्मिक साहित्य को बिल्कुल गप्प ही समझते हैं और उस पर विश्वास नहीं करते उनकी बात तो जाने दीजिये परन्तु मैं उन प्रादमियों में से नहीं हूँ । धार्मिक साहित्य धार्मिक पुरुषों द्वारा लिखा जाता है और वे हमसे ज्यादा सच्चे होते हैं। कोई बात किस विशेष कारण से कुछ की कुछ लिख गई हो वह बात दूसरी है परन्तु यह नहीं हो सकता कि सबका सब साहित्य ही झूठ कल्पित अथवा गप्प हो । "श्रीवल्लभ शर्मा" इस प्रकार अनेक विद्वानों की सम्मतियें मेरे पास मौजूद हैं पर ग्रंथ बढ़ जाने के भय से केवल नमूने के तौर पर कतिपय सज्जनों की सम्मतियां दर्ज कर शेष को मुलतवी रखदी हैं। उपरोक्त सम्मतियों को दो विभागों में विभाजित कर दिया जाय तो एक विभाग ओसवंश की उत्पत्ति का समय विक्रम की पांचवीं शताब्दी से दशवीं शताब्दी का और दूसरा विक्रम पूर्व ४०० वर्ष का निर्णय करता है। विक्रम की पांचवीं से दशवीं शताब्दी कहने वालों के पास कुछ भी प्रमाण नहीं है वे केवल अनुमान से ही अपना मगज लड़ाते हैं और उनका मुख्य अाघार शोध खोज पर है । यदि शोध खोज से भविष्य में इस समय से प्राचीन प्रमाण मिल जायगा तो वे उसको सहर्ष मानने को तैयार हैं । अतः उनका मत अभी निश्चित नहीं हैं। तब दूसरे पक्ष की सम्मतियें वि० पू० ४०० वर्ष की हैं। इनका विश्वास ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ जैनधर्म के धुरन्धर श्राचार्यों के लिखे पट्टावल्यादि ग्रंथों पर है । इन सबका निर्णय करना विद्वानों की विचारधारा पर ही छोड़ दिया जाता है। Jain Education mational www१६९rary.org Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४००६ | [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जैनाचार्य और मुनिवरों के लेखों में सवंश की उत्पत्ति के विषय प्रमाणा १ आचार्य श्रीविजयानन्दसूरीश्वरजी महाराज प्र. - कौन जाने किसी धूर्त ने अपनी कल्पना से श्रीपार्श्वनाथ और उनकीपटूपरम्परा लिख दी होवेंगी, इससे हमको क्यों कर श्री पार्श्वनाथ हुये निश्चित होवे ? ४२ ---जिन आचार्यों के नाम श्रीपार्श्वनाथजी से लेकर आज तक लिखे हुए हैं उनमें से कितनेक श्राचार्य ने जो जो काम किये हैं वे प्रत्यक्ष देखने में आते हैं जैसे श्रीपाश्वनाथजी से छट्टे पट्ट ऊपर श्री प्रसूरिजी ने वीरात् ७० वर्ष पीछे उपकेश पट्टन के श्रीमहावीरस्वामी की प्रतिष्ठा करी सो मंदिर और प्रतिमा आज तक विद्यमान है, तथा अयरणपुर की छावनी से ६ कोस के लगभम कोरंटनामानगर ऊजड़ पड़ा है जिस जगह कोरंटा नामक आज के काल में गाम बसता है वहाँ भी श्रीमहावीरजी की प्रतिमामंदिर की श्री सूरिजी की प्रतिष्ठा करी हुई अब विद्यमान काल में सो मंदिर खड़ा है तथा उसवाल और श्रीमाल जो वरिये लोकों में श्रावक ज्ञाति प्रसिद्ध हैं वे भी प्रथम श्रीरत्नप्रभसूरिजी ने ही स्थापना करी है तथा श्रीपार्श्वनाथजी से १७ सत्तरहवें पट्ट ऊपर श्रीयक्षदेवसूरि हुये हैं । वीरात् ५८५ वर्षे । जिन्होंने बारह वर्षीय काल में स्वामी के शिष्य वज्रसेन के परलोक हुये पीछे तिनके चार मुख्य शिष्य जिनको बज सेनजी ने सोपारक पट्टा में दीक्षा दीनी थी तिनके नाम से चार शाखा- कुल स्थापन करे, वे ये हैं नागेन्द्र १ द्र २ निवृत्ति ३ विद्याधर ४ । यह चारों कुल जैन मत में प्रसिद्ध हैं, तिनमें से नागेन्द्र कुल ਜੋ उदयप्रभ सूरि मल्लिषेण सूरि प्रमुख और चन्द्रकुल में बड़गच्छ, तपगच्छ, खरतरगच्छ, पूर्णतल्लीयगच्छ, देवचंद्रसूरि के शिष्य कुमारपाल के प्रतिबोधक श्री हेमचन्द्रसूरि प्रमुख श्राचार्य हुए हैं तथा निवृत्तकुल में श्रीशीलांकाचार्य श्री सूरि प्रमुख श्राचार्य हुये हैं तथा विद्याधर कुल में १४४४ ग्रंथ के कर्त्ता श्री हरिभद्रसूरि प्रमुखाचार्य ये हैं तथा मैं इस ग्रंथ का लिखने वाला चन्द्रकुल में हूँ। तथा पैंतीसवें पट्ट ऊपर श्रीदेवगुह सूरिजी हुये हैं जिन्हों के समीपे श्रीदेवद्विगणि क्षमाश्रमणजी ने दो पूर्व पढ़े थे तथा श्रीपार्श्वनाथजी के ४३ पट्ट ऊपर श्री सूरि पंचप्रमाण प्रथ के कर्त्ता हुये हैं सो ग्रंथ विद्यमान है तथा ४४ वें पट्ट ऊपर श्रीदेवगुप्तसूरिजी विक्रमात् १०७२ वर्ष नवपद प्रकरण के कर्त्ता हुये हैं सो भी ग्रंथ विद्यमान है तथा श्रीमहावीरजी की परम्परा वाले आचार्यों ने अपने बनाये कितनेक प्रन्थों में प्रगट लिखा है कि उपकेशगच्छ है सो पट्ट परम्परा से पार्श्वनाथ २३ वें तीर्थंकर से श्रविच्छिन्न चला आता है। जब जिन श्राचार्यों की प्रतिमा मंदिर की प्रतिष्ठा करी हुई और ग्रंथ रचे हुये विद्यमान हैं तो फिर उनके होने में जो पुरुष संशय करता है उसको अपने पिता पितामह प्रपितामह आदि की वंश परम्परा में भी संशय करना चाहिये । जैसे क्या जाने मेरी सातवीं पेढ़ी का पुरुष श्रागे हुआ है कि नहीं। इस तरह का जो संशय कोई विवेक - विकल करे उसको सब बुद्धिमान उन्मत्त कहेंगे। इसी तरह श्रीपार्श्वनाथ की पट्ट परम्परा के विद्यमान होने पर जो पुरुष श्री पार्श्वनाथ २३ तीर्थकर के होने में संशय करे तिसको भी प्रेक्षावंत पुरुष उन्मत्त की ही पंक्ति में समझते हैं तथा पुरुष जो काम करता है सो अपने किसी संसारिक सुख के वास्ते करता है परन्तु सर्व संसारिक १७० Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ३०० वर्ष इन्द्रियजन्य सुख से रहित केवल महाकष्ट रूप परम्परा नहीं चला सकता है । इस वास्ते जैनधर्म का संघदाय धूर्त का चलाया हुआ नहीं किन्तु श्रष्टादश दूषण रहित अत् का चलाया हुआ है । जैन विषयक प्रश्नीचर नमक अन्य पृष्ठ ७७ २- श्राचर्य श्रीविजयने मिसूरिश्वरजी जब पालड़ी के संघ के साथ जैसलमेर पधार रहे थे ओसियाँ तीर्थ पर आपके दर्शन हुए और रत्नप्रभसूरि के विषय में वार्तालाप हुआ तो आपने फरमाया कि आचार्य रनभसूरि जो भगवान पार्श्वनाथ के छुट्टे पाट पर हुये उन का जैन समाज पर बड़ा भारी उपकार है कि उन्होंने इसी ओसियां नगरी में ओसवालवंश की स्थापना की थी इत्यादि । ३- ववृद्ध मुनिश्री सिद्धविजयजी महाराज जो लोहार की पोल के उपाश्रय विराजते थे जब एक मंदिर में पूजा पढ़ाई जा रही थी वहाँ मैं भी गया और करीब ७५ साधु साध्वियें वहाँ पधारे थे। कई साधुओं ने मुझे पूछा कि तुम किस गच्छ के हो ? मैं उपकेशगच्छ का हूँ । उपकेश ओटले शुं ? श्राचार्य रत्नप्रभसूरि का गच्छ उपकेशगच्छ है । यह नाम ही उन्होंने नया ही सुना अर्थात् उनको बड़ा ही आश्चर्य हुआ। बाद मैंने उन महात्माओं को समझाया तथा मुनिश्रीसिद्ध विजयजीमहाराज ने कहा कि अरे साधुश्रो ! तुम इस बात को भले ही न समझते हो पर मैं जानता हूँ कि उपकेश गच्छ सब से पुराना और जेष्ठ गच्छ है इसके संस्थापक हैं श्राचार्यरत्नप्रभसूरीश्वरजी जो भगवान् पार्श्वनाथ के छटे पट्टधर हुये हैं जिन्होंने मारवाड़ में ओसियानगर में क्षत्रियों को प्रतिबोध करके श्रोसवाल बनाये थे इत्यादि । ४ - पन्यास श्रीगुलाब विजयजीमहाराज भट्ठी की पोल एवं पं० वीरविजयजी महाराज के उपाश्रय में विराजते थे। मैं जब वि० सं० १९७४ में अहमदाबाद गया था तो आप के दर्शनार्थ गया । वहां भी श्रीसवालों के संबंध से बातें हुई तो आरने फरमाया कि श्रोसवालों को वीर स ७० में आचार्य रत्नप्रभसूरि बनाये थे । मैंने पूछा कि इसके जिये आपके पास कोई प्राचीन प्रमाण है तो श्रापने एक हस्तलिखित प्राचीन पट्टावली के पन्ने निकाल कर मुझे बताया कि देखो इस पट्टावली में स्पष्ट लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर नगर में आचारपतित सत्रा लक्ष क्षत्रियों को जैनी बनाया। उन जैनों का नाम ही उपकेशवंश तथा श्रोसवाल हुआ है इत्यादि । ५ - आचार्य विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज ने सूरतनगर गोपीपुरा की नेमुभाई की बाड़ी में व्याख्यान में फरमाया कि ओसवालो ! तुम्हारी जन्म भूमि मारवाड़ में ओसियां नगरी है, वोरात ७० वे वर्ष आचार्य रत्नप्रभसूर ने वहां के राजपूतों को जैनी बनाये, वही लोग ओसियां नगरी के नाम से ओसवाल कहलाये । से ओसवाल इधर गुजरात की विक्रम की बट्टी शताब्दी में हूणों अत्याचार के कारण मारवाड़ से बहुत ओर गये हैं पर सवालों का उत्पत्तिस्थान तो ओसियां नगरी ही हैं। आचार्य स्वप्रभसूरि की कराई हुई प्रतिष्ठा वाला महावीर मंदिर आज भी ओसियां में विद्यमान है । ६ -- श्राचार्य बुद्धिसागरसूरिजी महाराज फरमाते हैं कि :--- उपकेशगच्छ-तेवीसमा तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ प्रभुना शासननी गच्छ परंपरा हजु चालुजहती । अत्यारे तेमनी पाटे छट्टा श्रीरतप्रभसूरिजी थया । तेणे उपकेश पट्टनमा महावीर स्वामीनी प्रतिमानी प्रतिष्ठा करी । तेणे ओसियानगरीमां राजा अने क्षत्रियोने प्रतिबोध देओनी ओशवंश १७१ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास स्थापन करी औशवाल बनाव्या। तथा तेमणे श्रीमाली वंशनो स्थापना करी । तेऔनौ उपकेश वंशनी स्थापना करी तेथी तेऔना गच्छनु उपकेश नाम प्रसिद्ध थयु। उपकेशगच्छमाँ धर्म धुरंधर महा प्रभावक अनेक आचार्यो थया छ । जैन गच्छ मत प्रबंध पृष्ठ ७ ७-"भेष्टलुं तो निर्विवाद सिद्धथई चूक्यो छे के ओसवाल जाति नो जन्मस्थात एज श्रोसियां छे पहला जमाना में ज्योरे श्रोसियों नो नाम उपकेशपुर हतो त्यारे श्रोसवालजाति नो नाम पण उपकेशवंशज हतो अने आ उपकेशवंश नो जेटलो सम्बन्ध उपकेशपुर ने साथे छे तेटलोज सम्बन्ध उपकेशगच्छ ने साथ छै केम के जेम उपकेशपुर उपर थी त्याना रहेवासी लोगों नो नाम उपकेशवंश थया छ तेमज उपकेशपुर में प्राचारपतित क्षत्रिय लोगों ने जैन बनाब्या तथा त्यारे पच्छि तेओ ना साधु गणी बख्त उपकेशपुर तथा तेना आस पासना प्रेदेश में विचरवा थी तेओनुनाम उपकेशगच्छ थयो छै जेम के वल्लभी में रहवा थी ते साधु वल्लभी गच्छाना शंखेश्वर ने आसपास विहार करवां थी शंखेश्वरगच्छ वायटग्राम ने आस पास रहवा थी वायटगच्छ अने संडेरा ग्राम में रहवा थी तथा तेने आस पास भ्रमण करवा थी सांडेरागच्छ ना कहवाया था प्रमाणे उपकेशपुर में वधारे समय रहवा थी तेम तेने श्रास पास विचरवा थी उपकेशगच्छ कहेल छे हिवे ओसवाल बनवानो समय जोवानो रहे छे अने माटे पट्टावल्यादिप्रन्थों मां वीर निर्वाण थी ७० मा वर्षनो उल्लेख मिले छ अने ते विल्कुल निराधार पण नथी केमके ओसियांना एक भग्न देहराना खण्डहर में चन्दाप्रभुनी मूर्ति ने नीचे एक खण्डित लेख अमे अमारी नजरो थी जोव्यो ? अने तेने अन्दर वि० सं०६०२ नो संवत छे तेमज आदित्यनागगौत्र पण लिखेल छै शेषभाग खण्डित थइ गयो छे छतां अटलु तो निश्चय थइजायछ के वि० सं० ६०२ पहला श्रा जाति नो अस्तित्व बहु प्रमाण मां थावो जोइये । जैनो ने बुद्धिवाद नो देवालो काढीनाक्यो होय तेम लागे छे अटला माटेज तेश्रो अकेला तर्क वाद थी कहे छ के ज्या सुधी ऐतिहासिक प्रमाण न मिले त्यां सुधी अमोए श्रा बात ने मानवामाटे तैयार नथी। भले तेओ माने के न माने आथी कांइ बलवानो नथी केमके बधो शांसन तेओनेज ऊपर अवलम्बित नथी अगर भा प्रमाणे ऐतिहासिक प्रमाण बिना कोई पण वस्तु नज मानी शकाय तो वधी पट्टावलियो झूठी ठहरशे । चरमकेवली जम्बुस्वामी अने प्रभावस्वामी ने माटे पण कोई ऐतिहासिक शिलालेख वतावशे खरू के ? अगर ऐतिहासिक प्रमाण न मिले तो शु ते बातों ने असत्य मानाशे ? नहीं ! नहीं !! कदापि नहीं !!! बीजी बात श्रा छे के थोड़ी देर ने माटे अमे श्रेम मानिलइए के वीरात् ७० वर्ष श्रोसवाल न थया होय तो पछी श्रोसवाल जाति क्यारे थई ? अने तेने माटे पण कांइ समय तो निश्चित करोज पड़से अने श्रेम न होय तो अम कहो के आ ओसवाल जाति आकाश मां थी उतरी आवी छे पण श्रेटलु लो केउ जोइये के ते दिवस क्या वर्ष क्या मास नो हतो बुद्धिनो देवालो अमे अटला माटेज कहीए छए के जे प्रमाण जैन पट्टावल्यादि प्रन्थों मा मले छे तेने तो तेओ मानता नथी अने पोताने पासे किसु पण प्रमाण जड़तो नथी पाची केवल न कामी तर्क करवा थी शु. वलवानो छे इत्यादि। "धर्मरत्न" ८-जैनाचार्योबेलखेली जूनी पट्टावलियों अने प्रशस्तिोमा अवां सैकड़ों प्रमाण मली आवे छे के जेमां जैनाचार्योना सिंधमा विचरवाना उल्लेखो मले छे। जूनामां जूनु प्रमाण वि० सं० पूर्वे लगभग ४०० वर्ष ना Jain Edmonternational Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [वि० पू० ४०० वर्ष mmmmmmmmmmm समयनु छ, के जे वखते रत्नप्रभसूरिना पट्टधर यक्षदेवसूरि सिंधमां आव्या हता । अने सिंधमां अवतां तेमने घणु कष्ट उठाववु पडयु हतुं । आ यक्षदेवसूरिना उपदेश थी कक्क नामना एक राजपुत्रे जैन मंदिरो बंधाव्यों हतां, अने पछी दीक्षाधी हती। "मुनिश्री विद्याविजयजी कृत मारी सिंधयात्रा पेज १२" ९--"उएस या ओसवंश के मूल संस्थापक यही रत्नप्रभसूरिजी थे जिन्होंने आसवंश की स्थापना महावीर के निर्वाण से ७० वर्ष बाद उकेश ( वर्तमान श्रोसियां ) नगर में की थी । आधुनिक कतिपय कुलगुरु कहा करते हैं कि रत्नप्रभाचार्य जी ने बीये बाबीसे ( २२२ ) में श्रोसवाल बनाये यह कथन कपोल कल्पित है, इसमें सत्याँश बिल्कुल नहीं है । जैन पदावली और जैन ग्रन्थों में ओसवंश स्थापना का समय महावीर निर्वाण से ७० वर्ष बाद ही लिखा मिलता है जो वास्तविक मालूम होता है। आबू के मन्दिरों का निर्माण ग्रन्थ पृष्ट २ १०-मुनि श्री ललितविजयजी जो आप सदगुणानुरागी शान्तमूर्ति मुनि श्रीकपूरविजयजी महाराज के शिष्य हैं । आपने एक 'आगम सारसंग्रह' नाम: वृहद्रन्थ का निर्माण किया है जिसके सातवें भाग के पृष्ट १४३ पर लिखा है किः-"प्रथमे अानगर नो नाम उरकेशपट्टण हतुxxश्रीपार्श्वनाथ प्रभुना संतानिया श्रीरत्नप्रभसूरि x राजा उपलदेव X आदिकने प्रतिबोधी ३८०००० अभिय राजपूतों के जेनु अरखकमल विरुद छे इत्यादि" ११-उवएसगच्छह मंडणउ ए गुरु रयणप्पहरित, धम्मु प्रकासई तहि नयरे पाउ पणासइ दुरित ।। तसु पटलच्छीसिरिमउडो गणहरु जखदेवसूरि त, हंसवेसि जसु जसु रमए सुरसरीयजलपूरि त ॥ तसु पयकमलमरालुलउ ए ककसूरि मुनिराउत, ध्यानधनुषि जिणि भंजियउ ए मयणमल्ल भड़िवाउत॥ तसु सींहासणि सोहई ए देवगुप्तसूरि बईठु त, उदयाचलि जिम सहसकरो अगमतउ जिण दीठु त ।। तिह पहुपाटअलंकरणु गच्छभार धोरउ त, राजु करइ संजम तणउ ए सिद्धसरि गुरु एहुने । आम्रदेवमुनि कृत समरा समरसिंह पृष्ट २३४ ॥ १२- सब संसार की श्रार्यजातियों के क्रिया कांड कराने वाले गुरु ब्रह्मण हैं जब ओसवाल जाति के साथ ब्राह्मणों का कोई भी सम्बन्ध नहीं है इसका क्या कारण है ? उत्तर के लिये समरादित्य कथा का संस्कृत सार में एक श्लोक उद्धृत किया है और उसके साथ सम्बन्ध रखने वाली घटना प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होती है जिसमे महाजनसंघ एवं उपकेशवंश की प्राचीनता स्वयं सिद्ध हो जाती है। यह तो श्राप पहिले पढ़ ही चुके हैं कि श्रीमालनगर से १८००० व्यापारियों के साथ ९००० ब्राह्मण भी उपकेशपुर में आये थे और यह बात है भी ठीक । कारण जहाँ यजमान जाते हैं उनके पीछे याचक भी जाया करते हैं क्यों कि याचकों का जीवनाधार यजमान ही होते हैं दूसरे यजमानों के संस्कारादि क्रिया काण्ड करने वाले वे ब्राह्मण ही थे उस समय के ब्राह्मणों ने इस सूत्र की भी रचना कर डाली थी कि 'ब्राह्मणां च जगत गुरु' बस फिर तो था ही क्या ब्राह्मणों ने अपनी सत्ता और जबर्दस्त बाड़ा बन्दी कर रक्खी थी कि अपने यजमान के घरों में कोई भी क्रियाकाण्ड करवाना होता तो सिवाय उनके गुरु के (ब्राह्मण) कोई दूसरा करा ही नहीं सकता था । यही कारण है कि उन ब्राह्मणों का जनता पर www. sary.org Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पाश्वनाथ को परम्परा का इतिहाः अधिक से अधिक टैक्स था (पंचशतीश शोडषाधिकम् ) कि जिसको साधारण लोग सुख से दे ही नहीं सकते थे फिर भी ब्राह्मणों के साम्राज्य में वह विचार कर भी तो क्या सकते थे ? उनको मजबूर हो देना ही पड़ता था इस कारण उन ब्राह्मणों की जुल्मी सत्ता अर्थात् नादिरशाही से जनता के नाक में दम आ गया था और वह उस कष्ट से मुक्त होना चाहती थी पर इसका कोई उपाय ही नहीं था। जब उपकेशपुर के राजा मन्त्री और नागरिक लोगों ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया जा तब उन ब्राह्मणों का टैक्स जनता पर ज्यों का त्यों हो रहा : कारण जैन हो गर तो धया हुश्रा ? संस्कार विधान एवं जन्म विवाह और मृर स्वादि क्रिया तो करानी ही पड़ती थी क्योंकि वह जमाना ही क्रियाकांड का था। थोड़ी २ बातों में भी उन ब्राह्मणों की खुशामद करनी पड़ती थी। पर कहा है कि 'अतिसर्वत्र वर्जयेत' अन्याय अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है तो उसके पैर उखड़ ही जाते हैं । इन ब्राह्मणों के अन्याय का भी यही हाल हुआ। एक समय मंत्री ऊहड़ किसी कार्य्यवशात् मलेच्छों के देश में गया था । वापिस लौट के श्राया नो ब्राह्मणों ने उदघोषणा कर दी की उहड़ मंत्री मलेच्छो के देश में जाकर पतित बन आया है। अतः इसके यहाँ कोई भी ब्राह्मण क्रियाकाण्ड नहीं करावे इत्यादि ! इस पर ऊहड़ ने उन विनों के सामने बहुत नम्नना पूर्वक लावारी की और द्रव्य खर्च करने या ब्राह्मणों को भोजन करने के लिए कहा पर सत्ता के घमंड में ब्राह्मणों ने एक भी नहीं सुनी । अतः मंत्री कुपित हो कर सदैव के लिए जनता को इस शंक्रान्त से मुक्त होने का एक उपाय सोच कर अपने आदमियों को हुक्म दे डाला और उन्होंने ब्राह्मणों को खूब पीटा परन्तु ब्राहाण हमेशा अवय हुश्रा करते हैं। तत्पश्चात् एक ऐसी घटना बनी कि ऊहड़ ने एक लक्ष यवनो को बुलाया और ब्राह्मणों के पीछे कर दिये। ब्राह्मण वहां से भाग कर श्रीमालनगर में चले गये यवनो ने भी उनका पीछा किया और चलकर श्रीमालनगर पर धावा बोल दिया । श्रीमाल नगर के महाजनों ने ब्राह्मणों से पूछा और उन्होंने सब हाल कह एनाया। इस पर महाजनों ने ऊड़ के पास जाकर प्रार्थना की ऊहड़ ने कहा कि यदि ब्राह्मण उपके शपुर वालियों पर अपना हक छोड़ दें तो मैं उनको समझा कर वापिस लौटा सकता हूँ । बस, महाजनों के कहने से श्रीमाली ब्राह्मणों ने स्वीकार कर लिया और एक इकरारनामा लिख दिया कि आज से उपकेशपुरवासियों पर हमारा कोई हक्क नहीं है। उस दिन से उपकेशवंशियों के साथ ब्राह्मणों का सम्बन्ध टूट गया। अब उपकेशवंश वाले स्वतंत्र हैं कि अपना दिल चाहे उस ब्राह्मण से क्रियाकाण्ड करवा सकते हैं और यह रिवाज आज पर्यन्त चला भी आ रहा है कि संसार भर की तमाम आर्य जाति के गुरु ब्राह्मण हैं पर उपकेश्वंश यानी ओसवालों के साथ ब्राह्मणों का कोई भी सम्बन्ध नहीं रहा है । तस्मात्उकेशज्ञातिनाँगुरखोब्राह्मणानहिं । उएसनगरं सर्वकररीणासमुद्धिमत् ।। सर्वथा सर्व (वि ) निर्मुक्तमुएशनगरंपरम् । तत्प्रभृतिसंजातमिलिलोकप्रवीणाम् ॥१॥ ( समाइजच वयानुसार ) "श्रीमाली वणिया शातिमेद ५५तक पृष्ट ६." इस लेख में मंत्री ऊहड़ का जिक्र आया है। यह वही उहड़ है जिसने उपकेशपुर में महावीर मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई थी जिसका समय वि० पू० ४०० वर्ष का ही था । १७४ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४००६ प्रोसवंशोत्पत्ति विषयक शंकाओं का समाधान ऐतिहासिक साधनों के आधार पर उपकेशवंश अर्थात् ओसवालवंशोत्पत्ति का समय निश्चित करना जटिल समस्या है । इस सम्बन्ध में जितने साधनों की आवश्यकता है; उतने साधन उपलब्ध नहीं हैं। यही बाधा भारतीय प्रत्येक विषय के इतिहास निरूपण में उपस्थित होती है । ऐतिहासिक साधनों की न्यूनता का मुख्य कारण गत शताब्दियों में मुस्लिम शासन की अत्याचार पूर्ण धर्मान्धता ही है। उन्होंने अपने युग में भारतीय इतिहास के प्रधान साधनों को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। कई उत्तम २ पुस्तक भंडार जला दिये; भारतीय मन्दिर और मूर्तियों को खंडित कर दिया; अनेक कीर्तिस्तंभ एवं असंख्य शिलालेख नष्ट प्रायः कर दिये । इस प्रकार पार्दा जनता के धार्मिक अधिकारों पर संघातिक चोट कर ऐतिहासिक साधनों को भविष्य के लिये लुप्त प्रायः कर दिया। इतस्ततः प्राप्त हुये जीर्णावशिष्ट साधनों का भी बहुत कुछ अंश जीर्णोद्धार करते समय लक्ष्य न देने से अलभ्य हो गया। अंततोगत्वा जो कुछ भी ऐतिहासिक मसाला विद्वानों के हाथ लगा है. उन्हीं साधनों की सहायता से इतिहास की धार-भित्ति प्रस्तुत की जाती है। इधर पौर्वात्य और पाश्चात्य पुरातत्वज्ञों और संशोधकों की शोध खोज से इतिहास की कुछ सामग्री प्राप्त हुई है । वह अपर्याप्त होने पर भी इतिहास क्षेत्र पर अच्छा प्रकाश डालती है । जैसे कि :-- १- भगवान महावीर को ऐतिहासिक पुरुष मानने में एक समय विद्वत्समाज हिचकिचाता था, परन्तु पुरातत्वज्ञों की खोज के पश्चात् केवल महावीर को ही नहीं अपितु प्रभु पार्श्वनाथ को भी ऐतिहासिक महापुरुष एक ही आवाज से स्वीकार करता है । इतना ही नहीं किंतु अभी निकट भविष्य में ही प्राप्त काठिया बाड़ प्रान्त के अन्तर्गत प्रभास पाटण नगर के एक ताम्रपत्र ने तो भगवान नेमिनाथ को भी ऐतिहासिक महापुरुष सिद्ध कर दिया है, जो कि श्रीकृष्ण और अर्जुन के समकालीन जैनों के बाईसवें तीर्थङ्कर थे । २-- ऐतिहासिक प्रमाणों से मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त भी जैन सिद्ध हो चुके हैं और जिस सम्प्रति को लोग कालनिक व्यक्ति समझ बैठे थे; श्राज इतिहास की कसौटी पर एक जैन सम्राट प्रमाणित हुये हैं। यही क्यों ? किन्तु जो शिलालेख, स्तंभलेख एवं आज्ञापत्र इत्यादि आज तक सम्राट अशोक के माने जाते थे; उन सब लेखों को डाक्टर त्रिभुवनदास लेहरचंद ने इतिहास के अकाट्य प्रमाणों द्वारा सम्राट सम्प्रति के सिद्ध किये हैं । इस सम्बन्ध में नागरी-प्रचारिणी पत्रिका के वर्ष १६ के प्रथम अंक में उज्जैन निवासी श्रीमान् सूर्यनारायणजी व्यास ने भी लेख लिख कर प्रकाश डाला है एवं श्री नागेन्द्र वसु ने भी यह सिद्ध किया है कि जो शिलालेख, स्तम्भलेख, आज्ञापत्र इत्यादि सम्राट अशोक के माने जा रहे हैं; वास्तव में प्रायः वे लेखादि सम्राट सम्प्रति के हैं। ३- कलिंगपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराज खारबेल, जिनके आदर्श कार्यों के उल्लेख में जैन और जैनेतर साहित्य प्रायः मौन था; किन्तु उड़ीसा की हस्तीगुफा के शिलालेख ने यह स्पष्ट सिद्ध कर दिया कि महाराजा खारवेल जैन धर्म के उपासक ही नहीं अपितु कट्टर प्रचारक थे। ४- इसी प्रकार कुछ व्यक्तियों का अनुमान था कि ओसवालजाति की उत्पत्ति दशवीं वि शताब्दी के निकटवर्ती समय में हुई होगी परन्तु आधुनिक ऐतिहासिक साधनों के आधार पर एवं कोटाराज्यान्तर्गत १७५ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अटारू प्राम से प्राप्त वि० सं० ५०८ का शिलालेख जो कि इतिहासज्ञ मुन्शी देवीप्रसादजी की शोध खोज से प्राप्त हुआ है और आपने जिसका उल्लेख "राजपूताना की शोध खोज" नामक पुस्तक में भी किया है। इन सब साधनों के आधार पर श्रोसवालजाति की उत्पत्ति का समय विक्रम की दूसरी तीसरी शताब्दी स्थिर होता है और पट्टावलियों के आधार से वि० पू० ४०० वर्ष । तथा ज्यों २ शोध का कार्य विशाल रूप धारण करेगा; त्यों २ ऐतिहासिक विषयों पर अधिकाधिक प्रकाश पड़ता जायगा । प्रायः १० वर्ष पूर्व मैंने "श्रोसवालजाति समय निर्णय" सम्बन्धी एक पुस्तिक लिखी थी। इस पुस्तक के द्वारा प्रस्तुत विषय पर भच्छा प्रकाश पड़ा। तथापि कुछ व्यक्तियों ने इसी विषय में कई लचर दलीलें उपस्थित की हैं, उनका समुचित समाधान करना ही मेरे इस निबंध का मुख्य उद्देश्य है। उपकेश (ओसवाल) वंश के संस्थापक भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के छट्टे पट्टधर आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि थे । इस विषय का प्रस्तुत प्रन्थ में विस्तृत रूप से उल्लेख किया है । आचार्य रत्नप्रभसूरि वि० पू० ४०० वर्ष अर्थात् वीर निर्वाण सं० ७० में मरुधर प्रान्त के उपकेशनगर में पधारे। अजैनों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर जैन बनाये। इस नवदीक्षित जनसमूह का नाम “महाजन वंश" रख एक सुदृढ़ संस्था स्थापित की। कालान्तर में वे उपकेशनगर से अन्य प्रान्तों में जा जा कर बसने लगे। वहां वे अपने आदि स्थान के नामानुसार "उपकेशवंशी" कहलाने लगे। संभवतः यह नामसंस्कार मूल समय के पश्चात् ही चौथी शताब्दी में हुआ हो इसका एक कारण यह भी है कि महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा के पश्चात् ३०३ वर्ष में उपकेशपुर में महावीर मूर्ति के ग्रन्थीछेद का उपद्रव हुआ तब से कई उपकेशपुर के निवासी लोग उपकेशपुर का त्याग कर अन्य नगरों में जा जा कर वसने लगे और वहाँ के लोग उपकेशपुर से आने वाले को उपकेशी कहने लगे हों और बाद में उस उपकेश शब्द ने उपकेशवंश का रूप धारण कर लिया हो तो यह संभव हो सकता है। जब हम वंशावलियां देखते हैं तो उसमें भी विक्रम की दूसरी शताब्दी में उपकेशवंश के आमतौर से उल्लेख मिलते हैं इससे हमारा ऊपर का कथन और भी पुष्ट हो जाता है। अब रही शिलालेख की बात इस विषय में यह समझना कठिन नहीं है कि उस समय शायद साधारण बातों के शिलालेख नहीं खुदाये जाते होंगे जैसे आज भी खुदाई काम होता है तो भूगर्भ से बहुत सी जैन मूर्तियां निकलती हैं उस पर शिलालेख नहीं हैं एवं सम्राट सम्प्रति के कई मन्दिर मूर्तियें इस समय मौजूद हैं पर उनमें से किसी पर शिलालेख नहीं है तथा ओसियां और कोरंटा के महावीर मूर्तियों पर भी शिलालेख नहीं है । दूसरे शायद क्वचित शिलालेख होंगे भी परन्तु मुस्लिम अत्याचारों से वे नष्ट हो गये होंगे। अतः उस समय और उसके आस पास के समय में जैन समाज की करोड़ों की तादाद और उनके लाखों मूर्तियाँ बनाने पर भी आज उस समय का कोई शिलालेख नहीं मिलाता है यही कारण है कि जैन शिलालेखों का समय विक्रम की नोवीं दशवीं शताब्दी से आरंभ होता है। विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में उपकेशपुर का अपभ्रंश श्रोसियों नाम हुआ। इस दशा में उपकेश-वंश का नाम भी रूपान्तरित हो कर "ओसवाल" होना युक्तियुक्त ही है। वर्तमान "ओसवाल" * मथुरा का कंकाली टीला आदि का खोद काम करने से कई मूर्तियां आदि प्राचीन स्मारक मिले हैं उसमें थोड़े पर शिलालेख हैं शेष पर शिलालेख नहीं हैं। Jain Edu? 1998 ternational Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्ष शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में शोध खोज करने पर भी दशवीं शताब्दी से प्राचीन प्रमाण नहीं मिलता है । यह स्वाभाविक ही है। जिस शब्द का प्राचीनता की दृष्टि से अभाव है, उसका अस्तित्व ढढूंना मानो "पानी को मथ कर धृत निकालना है"। अतएव यह निर्विवाद स्वीकार करना चाहिये कि "महाजन-वंश" के रूप में "ओसवाल" जाति की उत्पत्ति उपकेशपुर में आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि द्वारा हुई । इस घटना के समय के सम्बन्ध में मतभेद अवश्य है। इस सम्बन्ध में नवीन विचार वाले निश्चयात्मक सिद्धान्त पर तो नहीं आये हैं, किन्तु कई प्रकार की दलीले अवश्य किया करते हैं किसी पदार्थ के निर्णय करने में तर्क और शंकाए उत्पन्न होना लाभप्रद ही है किंतु इसके पूर्व सत्य को स्वीकार करने की योग्यता प्राप्त करना कुछ विशेष लाभप्रद है। पदार्थ विशेष की पूर्णतया जांच और निर्णय करने में सर्व प्रथम समय, शक्ति, अभ्यास एवं साधन जुटाना आवश्यक होता है; किन्तु दुःख है कि प्रस्तुत विषय के सम्बन्ध में शायद ही किसी संशोधक ने आज तक यथा-साध्य परिश्रम किया हो । इस महत्वपूर्ण विषय के सम्पादन के लिए सर्व प्रथम कर्तव्य तो ओसवालों का ही है । उन्हें चाहिये कि वे अपनी जाति की उत्पत्ति के विषय में शोध खोज कार्य के लिए सतर्क हों । यह लिखते हुए भी हमें दुःख होता है कि अखिल भारतीय ओसवाल महासम्मेलन ने अपने ४-५ अधिवेशनों में इस विषय के इतिहास के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया। यह उचित नहीं कि जिस समाज के उद्धार के लिए तो हम हजारों रुपयों के साथ अपनी शक्ति और समय का व्यय कर दें किन्तु उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में बिल्कुल मौन रहें । कहा है कि-"मूलं नास्ति कुतःशाखा" अर्थात् जिस वृत के मूल का पता नहीं; उसके अन्यान्य अङ्गों का उद्धार कैसे संभव हो सकता है ? जब सम्मेलन के विद्वानों की भी यही दशा है तो अन्य साधारण व्यक्तियों के सम्बन्ध में तो कहा ही क्या जाय ? प्रायः ओसवालवंशीय श्राज केवल धनोपार्जन करने में ही अपना गौरव समझते हैं; किन्तु इसकी उन्हें चिन्ता नहीं है कि सभ्य समाज उन्हें प्राचीन समझता है या अर्वाचीन ! अाधुनिक समय की इस विषम परिस्थिति को देखते हुये यह आवश्यक हो गया है कि हम सर्व प्रथम अपने इतिहास को उपलब्ध करें। __उपकेश-वंश ( ओसवालों ) की उत्पत्ति के समय के सम्बन्ध में हमारे सम्मुख जो शंकाएँ उपस्थित होती हैं, उनका समाधान करने के पूर्व हम दो बातों का उल्लेख करना परमावश्यक समझते हैं १-कुछ लोगों नेहमारे पूर्वज सूर्यवंशी महाराजा उत्पलदेव को भ्रम से परमार जाती का उत्पलदेव समझते हुये ओसवाल जाति को दशवीं शताब्दी का निकटवर्ती समाज समझ लिया २-दूसरी बात महाजनसंघ या उपकेशवंश की उत्पत्ति के वास्तविक समय पर बिल्कुल लक्ष्य न देते हुये "ओसवाल" शब्द की उत्पत्ति के समय को ही महाजन संघ का मूल उत्पत्ति-समय समझ लिया । ये दोनों भ्रमात्मक बातें ओसवंश उत्पत्ति-समय के समय निर्णय में बाधक हैं । अतएव प्रथम इनका समाधान करना अधिक आवश्यक है। उपकेशपुर नामक नगर बसाने वाले उत्पलदेव को कई इतिहास से अनभिज्ञ व्यक्ति परमार कहते हैं । वस्तुतः वे परमार नहीं थे। भाट भोजकों की दंतकथाओं के अतिरिक्त किन्हीं प्राचीन ग्रन्थों और पट्टावलियों में उत्पलदेव गजा को परमार लिखा नहीं मिलता है। हमारे उत्पलदेव का समय तो विक्रम से ४०० वर्ष पूर्वका है; उस समय परमारों का अस्तित्व ही नहीं था। परमारों के आदि पुरुष धूम्रराज थे। उनके बाद उत्पलदेव नाम के एक राजा अवश्य हुये हैं जिनका कि समय वि. की दशवीं शताब्दीका है। Jain Education national १७७ainelibrary.org Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इन्हीं परमार जाति के उत्पलदेव को और हमारे श्रीमालनगर के राजवंश में उत्पन्न हुआ सूर्यवंशी उत्पलदेव को एक ही समझ लेना यह एक अक्षम्य भूल है देखिये । वि ० पू० ४०० वर्ष ] तत्र श्री राजा भीमसेनः तत्पुत्र उत्पलदेव कुमार अपर नाम श्री कुमारः तस्य वान्धवः श्री सुरसुन्दरो युवराजो राज्य भारे धुरन्धरः " || " उपकेशगच्छ पट्टावली” इस उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि श्रीमाल के राजवंश के साथ परमार वंश का कोई सम्बंध नहीं है । वंशावलियों में श्रीमालनगर के राजा भीमसैन को सूर्य्यवंशी कहा है । “तत्र श्रीमालनगरेसूर्यवंशी भीमसेन राजा राज्यं करोति" । अब आगे चल कर देखिये श्रीमालनगर कितना पुराणा है । श्रीमालनगर की प्राचीनता के संबंध में श्रीमालपुराण में लिखा है : [विमल प्रबन्ध श्रीमाले s हं निवत्स्यामि, श्रीमालं दयितं मम । श्रीमाले ये निवत्स्यन्ति, ते भविष्यन्ति मे प्रियाः " || श्रीकारस्थापनापूर्व, श्रीमालेद्वापरान्तरे । श्रीश्रीमाले इतिज्ञाति, तत्स्थाने विहिता श्रिया || श्रीमालमितियन्नाम, रत्नमालमितिस्फुटम् । पुष्पमालंपुनर्भिन्नमालं, युगचतुष्टये ॥ चत्वारि यस्यनामानि, वितन्वन्ति प्रतिष्ठितम् । अहो ! नगरसौन्दर्य, प्रहार्यं त्रिजगत्यपि ॥ I श्रीमाल पु० 'इन्द्र हंस गणि कृत उपदेश कल्पवल्ली" इस प्रकार अनेक प्रन्थों में श्रीमालपुर ( भिन्नमाल ) की प्राचीनता के सम्बन्ध में प्रमाण मिलते हैं । इस नगर की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में यह कथन ठीक है कि विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में भिन्नमाल के शासनकर्त्ता परमार थे । परमार कृष्णराज के दो शिलालेख विक्रम संवत् १९१३ और ११२३ के मिले हैं । इसके पूर्व भिन्नमाल नगर पर किसका राज्य था ? इस विषय में पं० गौरीशंकरजी ओझा ने अपने राजपूताने के इतिहास के पृष्ठ ५६ पर लिखा है कि वि० संवत् ४०० और इसके पूर्व भिन्नमाल पर गुर्जरों का राज्य था । विक्रम की ६ ठीं शताब्दी में हूण तोरमाण पंजाब की ओर से मारवाड़ में आया, उस समय भी भिन्नमाल पर गुर्जरों का ही राज्य था । तोरमाण ने गुर्जरों को पराजित कर दिया श्रतएव वे गुर्जर लाट प्रान्त की ओर चले गये। उन गुर्जर लोग के नामानुसार ही उस प्रान्त का नाम गुर्जर पड़ गया । हूण तोरमाण आया था उस समय मारवाड़ में नागपुर, उपकेशपुर, जावलीपुर, माण्डव्यपुर एवं भिन्नमालादि अनेक प्रसिद्ध नगर थे । इन नगरों में से भिन्नमाल नगर को अधिक पसंद कर हूए तोरमाण ने वहीं पर अपनी राजधानी कायम की। इन प्रकरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय भिन्नमाल नगर अच्छा आबाद नगर होगा । जिस समय तोरमाण ने भिन्नमाल में अपनी राजधानी स्थापित की, उस समय वहां पर जैनाचार्य हरिदत्त एवं देवगुप्त विराजते थे । उन्होंने तोरमाण को जैनधर्म का उपदेश देकर जैनधर्मानुरागी बनाया था । और जैनधर्म का अनुरागी होकर तोरमाण ने भिन्नमालनगर में भगवान् ऋषभदेवजी का मन्दिर बनाया । श्रतएव इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि उस समय भिन्नमालनगर में जैन-धर्मानुयायियों की खूब अच्छी आबादी होगी इत्यादि । ( कुवलयमाला कथा से) माजी के उपरोक्त लेख में यह भी लिखा मिलता है कि वि० सं० ६८५ में भिन्नमालनगर पर Jain Edi? 9 International Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष चावड़ावंशियों का राज्य था। संभवतः हूणों से ही चावड़ा वंशियों ने भिन्नमालनगर का अधिकार छीन लिया होगा। पं० हीरालाल हंसराज ने अपनी “जैनगोत्रसंग्रह" नामक पुस्तक में लिखा है कि वि० सं० २०२ में भिन्नमाल पर अजीतसिंह नामक राजा का राज था। उस समय भिन्नमालनगर अच्छी श्राबादी पर था; परन्तु म्लेच्छ मीर मामोची ने इस नगर पर आक्रमण कर खूब लुटा था। खैर इसके पूर्व भिन्नमाल में किसका राज्य था ? इस सम्बन्ध में कोई ऐतिहासिक साधन उपलब्ध नहीं है पर पट्टावलियों के अनुसार वि० सं० के ४०० वर्ष पूर्व भिन्नमाल पर सूर्यवंशी राजा भीमसेन का राज्य होना सिद्ध होता है। इस प्रकार भिन्नमाल नगर की प्राचीनता सिद्ध करने के पश्चात् इस बात का स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है कि कुछ व्यक्तियों ने आबू एवं किराडू के उत्पलदेव परमार को और उपकेशपुर बसाने वाले भिन्नमाल के राजकुमार उत्पलदेव को एक ही मानने की भूल को है । पट्टावल्यादि प्रमाणों से भिन्नमाल के राजकुमार उत्पलदेव का समय वि० पू० ४०० वर्ष सिद्ध होता है। तब किसी कारणवश आबू के उत्पलकुमार परमार को जिसका कि समय वि० की दशवीं शताब्दी है-उपकेशपुर ( ओसिया) के प्रतिहारों का आश्रय लेना पड़ा हो और-पश्चात् वह वापिस अपने नगर लौट गया हो। ऐसी दशामें ऐसा भ्रम करलेना कि उत्पलदेव परमार ने ही दशवीं शताब्दी में उपकेशपुर (ओसिया) बसाया होगा, अक्षम्य भूल है क्योंकि यह बात तो साधारण मनुष्य की समझ में भी आ सकती है कि जब उत्पलदेव परमार श्रोसियों में आकर प्रतिहारों की शरण में रहा था तब श्रओसियां उस समय से कितना प्राचीन होगा कि जिसमें उत्पलदेव परमार ने आकर श्राश्रय लिया था। दूसरे ओसियों के महावीर मन्दिर में वि सं १०१३ का शिलालेख लगा हुआ है उसमें लिखा है कि: तस्या कापत्किल प्रेम्णालक्ष्मणः प्रतिहारताम् ततोऽभवत् प्रतीहार वंशोराम समुद्भवः ॥६॥ तद्वंशे सबशी वशीकृत रिपुः श्रीवत्सराजोऽभवत्कीर्तिर्यस्य तुषार हार विमला ज्योत्स्नास्तिरस्कारिणी नस्मिन्मानि सुखेन विश्व विवरे नत्वेव तस्माद्वहिनिर्गन्तुं दिगिभेन्द्र दन्त मुसल व्याजाद काळेंन्मनुः ॥ ७ ॥ समुदा समुद्रायेन महता चमूःपुरा पराजिता येन.... 'समदा ॥ ८ ॥ ........ 'समदारण तेनावनीशेन कृता भिरक्षैः सद् ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्रैः । समेतमेतत्प्रथितं पृथिव्यामृकेशनामास्ति पुरं गरीयः ।। ९ ॥ जैनलेख संग्रह खंड पहिला पृष्ट १६३ इस शिलालेख में उपकेशपुर में प्रतिहार वत्सराज का राज होना लिखा है । जब वत्सराज प्रतिहार का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी का है अतः आठवीं शताब्दी में उपकेशपुर अच्छा आबाद था, फिर भी वह आठवीं शताब्दी में ही नहीं बसा था पर उस समय से भी बहुत प्राचीन था जो हमारी पट्टावलियों में विक्रमपूर्व चारसौ वर्ष से भी पूर्व बसा लिखा है । अतः यह शंका करना व्यर्थ है कि बाबू के परमार उत्पलदेव ने वि० की दशवीं शताब्दी में ओसियां बसाई थी। यदि यह भूल उपकेशपुर बसाने वाले राजकुमार उत्पलदेव को परमार समझ लेने से ही हुई हो तो इस लेख में संशोधन कर लेना परमावश्यक है। दूसरी शंका उपकेशवंश का नाम रूपान्तरित होकर "श्रोसवाल" शब्द से व्यवहार में आने से उत्पन्न हुई है। इस सम्बन्ध में हमें यह देखना चाहिये कि "ओसवाल" शब्द की उत्पत्ति किस समय में १७९ www.simary.org Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और कैसे हुई ? अनेक प्रमाणों के आधार से यही स्पष्ट होता है कि श्रोसवाल शब्द की उत्पत्ति श्रोसियां नगरी से ही हुई । ओसियाँ उपकेशपुर का अपभ्रंश शब्द है और इस शब्द की उत्पत्ति का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास का है। इसके पूर्व इस नगर का नाम उपकेशपुर और जाति का नाम उएस-उकेश और उपकेश था । जैसे -- क-"उएस" यह मूल शब्द है और उसवाली भूमि का द्योतक है, अर्थात् जिस भूमि पर ऊस (ओस का पानी) पड़ता हो उसे ओस अर्थात् उएस कहते हैं । इस भूमि पर जो शहर आबाद हुआ वह उसपुरओसपुर उएसपुर कहलाया । ख--प्राकृत भाषा के लेखकों ने "उएस" शब्द को प्रन्थबद्ध करने में "उकेसपुर" प्रयुक्त किया है। ग-संस्कृत के रचयिताओं ने अपनी सुविधा के लिये "उकेसपुर" को "उपकेशपुर" शब्द के रूप में परिवर्तित कर दिया। प्राचीन ग्रन्थों में इसका नाम उएश, उकेश और उपकेशपुर ही मिलता है । यथाः-- "समेत मेतत प्रथितं पृथिव्यामुकेश नामास्ति पुरं" ॥ श्रोसिया मदिर का शिलालेख वि० सं० १०५३ का "कदाचिदुपकेशपुरेसूरयःसमवासरन्, वा यादृग तन्नगरंयेन, स्थापितं श्रयतां तथा" उपकेशगच्छ चरित्र "अस्तिअस्तिचव्वक्रद् भूमेमरुदेशस्यभूषणम् । निसर्गसर्गसुभगमुकेशपुरं वरम्" ना० जि० श्लोक १८ "अस्ति उपकेशपुरनगरं, तत्रोत्पलदेवनरेशोराज्यंकरोति । उपकेशगच्छ पट्टावली पूर्वोक्त प्राचीन शिलालेखों व ग्रन्थों में सर्वत्र उएस उकेश या उपकेशपुरके नाम का ही उल्लेख मिलता है; परन्तु किसी भी स्थान पर ओसियां शब्द का प्रयोग दृष्टिगोचर नहीं होता। इससे यह निश्चय होता है कि जिसको आज हम श्रोसियां कहते हैं; उसका मूल नाम उकेस या उपकेशपुर ही था और इसी उपकेशपुर के नामानुकूल यहां के निवासियों का नाम उपकेशवंश हुआ है । यद्यपि कालांतर में तत्कालीन कारणों से गोत्र एवं जातियों के पृथक् पृथक् नाम पड़ गये; किन्तु अद्यावधि इन जातियों के प्रारम्भ में वही मूल नाम उएस ऊकेस, अथवा उपकेशवंश लिखने की पद्धति विद्यमान है। प्रमाणस्वरूप अनेकों शिलालेख इस समय भी विद्यमान हैं । देखिये इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १३६ पर। जब उपकेशपुर का अपभ्रंश "ओशियां' हुआ, तब से कहीं २ श्रोसवंश ( ओसवाल ) शब्द का भी उल्लेख हुआ है पर वह बहुत थोड़े प्रमाण में और वह भी वि० १३ वीं शताब्दी के समीपवर्ती समय में दृष्टिगत होता है जैसे 'सं० १२१२ ज्येष्ठ वदि ८ भौमे श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य संताने श्री ओसवंशे मंत्रि धाधकेन श्रीविमलमंत्री हस्तीशालायाँ श्रीआदिनाथ समवसरणं कारयाँ चक्रे श्रीनन्नमरिपट्टे श्रीकक्कसूरिभिः प्रतिष्ठितं वेलापहनी वास्तव्येन । "स० जिनविजयजी सं० शि० दू० लेखांक २४८ इससे पूर्व भोसवाल शब्द का प्रयोग कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। उपरोक्त ऐतिहासिक प्रमाणों से यही प्रमाणित होता है कि ओसवाल शब्द मूल शब्द नहीं है; अपितु ॐ इस स्थान पर हमने समय का निर्णय न करके केवल प्राचीनकाल से व्यवहार में आते हुये "उएस" या उपकेश शब्द की व्यवहारिकता को ही सिद्ध करने का प्रयत्न किया है ! Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्ष उपकेश शब्द का अपभ्रंश है। प्राचीन कालमें जो जैन धर्मानुयायी उपकेशवंशीय थे वे ही आज ओसवाल नाम से विख्यात हैं। श्रोसवाल शब्द की प्रसिद्धि का प्रारम्भ वि० की ११ वीं शताब्दी के निकट होता है । श्रीमान बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर अपने जैन लेखसंग्रह तृतीयखंड के पृष्ठ २५ पर "ओसवाल ज्ञाति" नामक लेख में लिखते हैं कि :___ "इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि "श्रोसवाल" में श्रोस शब्द ही प्रधान है। 'श्रोस' शब्द भी उएश शब्द का रूपान्तर है और उएश शब्द उपकेश (संस्कृत रूप) का प्राकृत रूप है । इसी प्रकार मारवाड़ के अन्तर्गत "ओसियां" नामक स्थान भी उपकेशनगर का ही रूपान्तर है। जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि ने वहां के राजपूतों से जीवहिंसा छुड़ा कर उन्हें दीक्षित किया । पश्चात वे राजपूत लोग उपकेश अर्थात् ओसवाल नाम से प्रसिद्ध हुये ।" श्रीमान् बाबूजी का कथन भी ऊपर के प्रमाणों से सर्वथा मिलता है । अतएब यह सिद्ध होता है कि "श्रोसिया" शब्द उपकेश का ही अपभ्रंश है । और इस नगर को बसाने वाले श्रीमालनगर के राजकुमार उत्पलदेव के साथ पॅवार (परमार) शब्द किसी स्थान पर नहीं है । अतएव जिन्हें आज हम श्रोसियां कहते हैं प्राचीन समय में उपकेशनगर था और जिसको आज हम ओसवाल कहते हैं। प्राचीन काल में उन्हीं का मूलनाम उपकेशवंश था । उपरोक्त दोनों बातों का निर्णय करने पर हमें इस सारांश को लक्ष्य में लेना चाहिये किः १-ओसवाल शब्द की प्राचीनता के सम्बन्ध में विक्रम की ११ वीं शताब्दी से पूर्व अन्वेषण करने में अपने समय को व्यर्थ व्यय न करें और न इस विषय की व्यर्थ दलीलों द्वारा दूसरों का समय नष्ट करें । कारण, ओसवाल शब्द मूल नहीं अपितु उपकेश शब्द का अपभ्रंश है । श्रतएव जिन्हें ११ वीं शताब्दी से पूर्व इस जाति की प्राचीनता के प्रमाण हूँढने हों वे "उपकेशवंश" के नाम का प्रमाण दृढ़े; क्योंकि ग्यारहवीं शताब्दी से पूर्व इस ओसवाल जाति का यही नाम प्रचलित था । और एक यह भी बात स्मरण रहे कि उपकेशवंश की प्राचीनता साबित हो जायागी तब ओसवाल जाति की प्राचीनता तो स्वतः सिद्ध हो जायगी; क्योंकि एक ही जाति के समयानुसार दो नाम व्यवहार में पाये हैं। २-दूसरा निष्कर्ष-कि उपकेशपुर बसाने वाले श्रीमाल (भिन्नमाल) नगर के राजकुमार उत्पलदेव और हैं तथा आबू के उत्पलदेव परमार और हैं । दोनों के समय में १४०० वर्ष का अंतर है । अतएव कोई भी व्यक्ति उपकेशपुर बसाने वाले श्रीमाल नगर के राजकुमार उत्पलदेव को परमारवंशीय समझने की भूल न करें । कारण, वे वस्तुतः परमारवंशी नहीं पर सूर्यवंशी थे। केवल दोनों के नाम की सौम्यता होने से कई इतिहासानभिज्ञ मनुष्यों ने एक ही समझने की भूल की है । इसी कारण ये शंकाएँ उत्पन्न हुई हैं; किन्तु भविष्य के लिये ये शंकाएँ निर्मूल हो जायें, इसी निमित्त ही हमारा यह प्रयास है अस्तु ।। ___ अब हम यहाँ यह बतलाना आवश्यक समझते हैं कि आज कल के कई लोग विचार-स्वातंत्र्य के नाम पर ओसवाल जाति की उत्पत्ति के विषय किस प्रकार की शंकाएं करते हैं और वास्तव में वे शंकाएं ठीक हैं या स्वपर का समय शक्ति का व्यर्थ व्यय कराने वाली हैं, देखिये। __ शंका नं० १ -मुनीयत नैणसी की ख्यात में लिखा है कि बाबू के उत्पलदेव परमार ने ओसियां बसाई और इस उल्पलदेव का समय वि० की दशवीं शताब्दी है । यदि ओसवालजाति इसी श्रोसियां से उत्पन्न हुई है तो यह जाति वि० की दशवीं शताब्दी से प्राचीन किसी दशा में नहीं हो सकती है ? Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घि० पृ० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास समाधान-'मुनौयत नैणसी की ख्यात' में किसी भी स्थान पर यह नहीं लिखा है कि आबू के उत्पलदेव परमार ने श्रोसिय बसाई; किन्तु नैणसी की ख्यात से तो ओसियां की उल्टी प्राचीनता ही सिद्ध होतो है । देखिये "नैणसी की ख्यात" प्रकाशक काशीनगरीप्रचारिणी सभा पृष्ठ २३३ पर लिखा है किः "धरणी वराह का भाई उत्पलराय किराडू छोड़ कर ओसियां में जा बसा। सचियाय देवी प्रसन्न हुई और धन-माल दिया। श्रोसियाँ में देवल कराया।" इसकी टिप्पणी में लिखा है कि "वसंतगढ़ से प्राप्त हुये सं० १०९९ के परमारों के शिलालेख से पाया जाता है कि उत्पल राजा धरणीवराह का भाई नहीं किन्तु परदादा था, जिसका समय दशवीं शताब्दी के प्रारम्भ में होना चाहिये।" __ इस प्रमाण से यही प्रमाणित होता है कि श्रोसियां नगर उत्पलदेव परमार के पूर्व भी समृद्धि-सम्पन्न नगर था। इसी कारण उत्पलदेव परमार ने किराडू छोड़ कर ओसियां में निवास किया। यहां केवल शंका का ही समाधान है। ओसियां कितनी प्राचीन है, यह हम आगे चल कर सिद्ध करेंगे। तात्पर्य यह है कि शंका करने वालों को पहले ग्रंथ का पूर्वापर सम्बन्ध देख लेना चाहिये ताकि उभय पक्ष के समय शक्ति का अपव्यय न हो। शंका नं० २-भगवान् श्रीपार्श्वनाथ की परम्परा में रत्नप्रभसूरि नाम के ६ आचार्य हुए हैं। यदि ओसवाल वंश के संस्थापक अंतिम रत्नप्रभसूरि मान लिये जायं तो क्या आपत्ति है ? इनका समय वि० की पांचवीं शताब्दी का है। यह समय ऐतिहासिक प्रमाणों से ओसवाल जाति की उत्पत्ति के समय से मिलता जुलता है । अतः अनुमान किया जा सकता है कि ओसवंश के संस्थापक अन्तिम रत्नप्रभसूरि हैं ? ___समाधान -भगवान् श्रीपार्श्वनाथ की परम्परा में रत्नप्रभसूरि नाम के ६ आचार्य हुये और अंतिम रत्नप्रभसूरि का समय ५ वीं शताब्दी का है, यह सत्य है । अतः कुछ समय के लिये मान भी लिया जाय कि श्रोसवालजाति के आधसंस्थापक अंतिम रत्नप्रभसूरि हैं फिर भी इस समय के सम्बन्ध में प्रमाण देने के लिये तो प्रश्न हमारे सामने ज्यों का त्यों खड़ा ही रहेगा न ? आद्यरत्नप्रभसूरि और अंतिम रत्नप्रभसूरि के बीच ९०० वर्षों का अन्तर है । अंतिम रत्नप्रभसूरि के समय के तो अनेकों ग्रन्थ आज भी मिलते हैं; परन्तु किसी भी ग्रन्थ या शिलालेख से यह पता नहीं चलता कि वि० की ५ वीं शताब्दी में अन्तिम रत्नप्रसूरि ने ओसवालवंश की स्थापना की हो, क्योंकि उस समय का इतिहास इतने अंधेरे में नहीं है। कारण, अन्तिम रत्नप्रभसूरि के समकालीन एवं आस पास के समय में हुए अन्याचार्यों के विषय पट्टावल्यादि ग्रन्थों में बहुत उल्लेख मिलते हैं । जब अन्तिम रत्नप्रभसूरिजी द्वारा एक प्रांत में इतना बड़ा परिवर्तन हो जाना और इस परिवर्तन के सम्बन्ध में उस समय के बने हुये ग्रंथों में गंध तक नहीं मिलना, यही प्रमाणित करता है कि यह घटना तत्कालीन ग्रंथ रचना के पूर्व सैंकड़ों वर्षों की होनी चाहिये । अन्यथा इतना महान परिवर्तन जो लाखों मनुष्य एक धर्म को छोड़ दूसरे धर्म की दीक्षा ले कदापि छिपा हुआ नहीं रह सकता । अतएव जिनके सम्बन्ध में प्रमाण की गन्ध तक न मिले उन्हें केवल कल्पना एवं अनुमान मात्र से ओसवाल वंश का संस्थापक मान लेना और आद्य रत्नप्रभसूरि के सम्बन्ध में अनेक प्रमाण मिलने पर भी उनको न मानना यह दुराग्रह के सिवाय क्या है ? उन प्रमाणों को लिखने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह वृहद् ग्रंथ प्रमाण रूप में ही लिखा गया है, एवं आद्योपान्त पठन करने के पश्चात् पाठक स्वयं ही निर्णय कर सकेंगे। शंका नं० ३-ओसवाल बनाने के समय ओसियां में महावीर का मंदिर बना। उसी मंदिर में एव Jain Ed S ternational Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [वि० पू० ४०० वर्ष प्राचीन शिलालेख लगा हुआ है। शिलालेख का समय वि० सं० १०१३ का है इससे अनुमान हो सकता हैं कि ओसवालोत्पत्ति का समय दशवीं, ग्यारहवीं शताब्दी का ही हो । समाधान-यह शंका केवल शिलालेख का संवत् देख कर ही की गई है न कि लेख को श्राद्योपान्त पढ़ कर । यदि सम्पूर्ण लेख दृष्टि में निकाल लिया होता तो इस शंका को स्थान नहीं मिलता। यही शिलालेख श्रीमान् बाबू पूर्णचन्दजी संपादित शिलालेख संग्रह प्रथमखंड लेखक ७८८ में ज्यों का त्यों मुद्रित हुआ है। शिलालेख खंडित है फिर भी शेष भाग को भी ध्यानपूर्वक पढ़ने पर यह स्वयं स्पष्ट हो जाता है कि वह लेख न तो ओसवालों की उत्पत्ति का है, और न महावीर के मंदिर की मूल प्रतिष्ठा का ही, न किसी मंदिर बनाने वाले का, न प्रतिष्ठा करने वाले आचार्य का नाम है। इस लेख से तो ओसियां का अधिक प्राचीनत्व सिद्ध होता है । इस शिलालेख में ओसियों में प्रतिहारों का राज्य होना लिखा है, जिसमें वत्सराज प्रतिहार की बहुत प्रशंसा की गई है, ( देखो पृष्ठ १७९ ) तदनुसार विक्रम की ८ वीं शताब्दी में ओसियां वत्सराज के राजत्वकाल में एक ऐश्वर्यशाली नगर सिद्ध होता है। अतएव यह शिलालेख भी इस नगर की प्राचीनता प्रमाणित करता है यह शिलालेख स्थान २ पर अत्यन्त खंडित हो गया है । अतएव उसके कुछ आवश्यक अंग पाठकों की जानकारी के लिये हम यहां उद्धृत करते हैं: ___xxxप्रकट महिमा मण्डपः कारितोऽत्रxxभूमण्डनो मण्डपः पूर्वस्यां ककुभि त्रिभारा विकलासन् गोष्ठिकानुxxx तेन जिनदेवधाम तत्कारितं पुनरमुष्य भूषणंxx+ संवत्सर दशदत्यामंधिकायां वत्सरैस्त्रयो दशभिः फाल्गुन शुक्ल तृतीयxx जै० ख० पृष्ठ १६३ इन खंडित वाक्यांशों से यह वृतांत ज्ञात होता है कि जिनदेव नामक श्रावक ने वि० सं० १०१३ फाल्गुन शुक्ला तृतीया को किसी मंदिर के रंगमंडप का जीर्णोद्धार करवाया, पर यह ज्ञात नहीं होता है कि यह शिलालेख किस मंदिर का है ? क्योंकि प्रस्तुत शिलालेख दूसरे मंदिरों के खण्डहरों में प्राप्त हुआ था और इसकी रक्षा के निमित्त महावीर मंदिर में लगा दिया गया था। यदि इस मंदिर को १०१३ में बना हुआ मान लें तो एक आपत्ति हमारे सामने ऐसी खड़ी हो जाती है कि वह हमें महावीर मंदिर को १०१३ में बनना मानने में बाध्य करती है और वह यह है किः "आचार्य कक्कसूरि के समय मरकी का उपद्रव हुआ था उस समय महावीर मन्दिर में शांति पूजा पढ़ा कर भगवान् शान्तिनाथ की मूर्ति स्थापन की थी इस विषय का एक शिलालेख भी मिलता है। "ॐ संवत् १०११ चैत्र सुदी ६ श्री कक्काचार्य शिष्य देवदत्तगुरुणा उपकेशीय चैत्यगृह अस्वयुज चैत्रषष्टयं शान्तिप्रतिमा स्थापनिय गंदोदकान् दिवालिकामासुलप्रतिभा इति" वायु लेखांक १३४ भला महावीर का मंदिर वि०सं० १० १३ में ही बना होता तो उसमें १०११ में शांतिनाथ की मूर्ति कैसे स्थापन करवाई जाती,अतः प्रस्तुत महावीर का मंदिर १०१३ में नहीं पर वि०सं०पू० ४०० में मंत्री ऊहड़ ने अपने निज द्रव्य से बनाया । देवी चीमुडा ने गाय के दूध और बालूरेत से महावीर प्रभु की प्रतिमा बनाई; जिस प्रतिमा को ७ दिन पूर्व ही निकालने से मूर्ति के वक्षस्थल पर निंबू फल जैसी दो गांठे रह गई। प्रतिमाजी की प्रतिष्ठा आचार्य रत्नप्रभसूरि के कर कमलों द्वारा हुई । मंदिर प्रतिष्ठा सम्बन्धी ऐ पी महत्वपूर्ण घटना को उद्धृत शिलालेख में स्था न न मिले, यह असम्भव है । अतएव श्रोसियांजी का उपरोक्त उद्धृत 973 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शिलालेख महावीर मंदिर का नहीं अपितु जिनदेव नामक श्रावक द्वारा किसी मंदिर के टूटे हुये रंगमंडप के जीर्णोद्धार से सम्बन्ध रखता है । अतएव इस शिलालेख के द्वारा ओसवाल वंशोत्पत्ति के समय का अनुमान करना केवल कल्पना मात्र ही है। शंका नं०४-कल्पसूत्र में भगवान महावीर से १००० वर्ष तक के प्राचार्यों की नामावली मिलती है; इस नामावली में न तो रत्नप्रभसूरि का नाम है और न ओसवाल बनाने का उल्लेख है । इससे अनुमान होता है कि इस समय के बाद किसी समय में ओसवालों की उत्पत्ति हुई होगी। समाधान-श्रीकल्पसूत्र भद्रबाहुकृत है और इसकी स्थविरावली देवऋद्धिगणि क्षमाश्रमण के समय की है; जिनका कि समय ५ वीं शताब्दी का है। श्रीमान देवऋद्धिगणि क्षमाश्रमण ने महावीर से १००० वर्षों का सबका सब इतिहास नहीं लिखा, परन्तु उन्होंने केवल अपनी गुरूप्रावली लिखी है। भगवान महावीर के समय में दो परम्परायें थीं १-पार्श्वनाथ परम्परा २- महावीर परम्परा । देवऋद्धि क्षमाश्रमण महावीर की परम्परा में थे । आचार्य वज्रसैनसूरि के ४ शिष्यों से चार शाखायें उत्पन्न हुई। उनमें से एक शाखा में क्षमाश्रमणजी थे अतः आपने केवल एक अपनी शाखा की गुरुपावली का उल्लेख कल्पसूत्र में किया है । जब कि श्री क्षमाश्रमणजी कृत कल्पस्थविरावली में महावीर परम्परा और चन्द्रकुलादि समयोचित विषयों का ही इतिहास नहीं मिलता है तो पार्श्वनाथ परम्परा एवं उपकेशगन्छ के लिये तो कल्पसूत्र में स्थान कहाँ से मिले ? इससे यह तो नहीं कहा जा सकता कि जिस घटना का उल्लेख कल्पसूत्र की स्थविरावली में न हो वह ऐतिहासिक घटना ही नहीं। भला सम्राट सम्प्रति एवं खारवेल वगैरह का महत्वपूर्ण इतिहास है और कल्प स्थविरावली में उनकी गन्ध तक भी नहीं है इसको हम मानते हैं या नहीं ? यदि मानते हैं तो फिर केवल श्रोसवंश और रत्नप्रभसूरि के लिये ही विरोध क्यों ? खैर । यह शंका तो ओसवाल बनाने की है; परन्तु कल्प स्थविरावली में तो पार्श्वनाथ परम्परा का नाम भी नहीं है, तथापि यह निर्विवाद सिद्ध है कि महावीर के समय के पहिले से ही पार्श्वनाथ की परम्परा विद्यमान थी। अतएव यह शंका निर्मूल है । इससे ओसवालोत्पत्ति की प्राचीनता में श्राक्षेप नहीं किया जा सकता है। शंका नं० ५- श्रोसवालों में प्रथम अठारह गोत्रों का निर्माण हुआ बताया जाता है एवं वे अठारह जाति के राजपूतों से बने हैं । इन अठारह जाति के राजपूतों के सम्बन्ध में एक कवित्त भी कहा जाताहै किः"प्रथम साथ पंवार १ शेष शिशोदा २ शृंगाला, रणथंभा राठौर ३ वसंच ४ बालचचाला ५ दइया ६ भाटी ७ सोनीगरा ८ कच्छावा ९ धनगौड़ १० कहीजे, जादव ११ जाला १२ जिंद १३ लाज मरजाद लहीजे ॥ खरदरा पाट ओपे खरा लेणा पाटज लाखरा, एक दिन ऐते महाजन भये, शूराबड़ी बड़ी साखरा ।। इस कवित्त में कई जातियों के नाम रह भी गये हैं, फिर भी ये जातियां उतनी प्राचीन नहीं हैं जितना कि पट्टावलियों में ओसवालोत्पत्ति का समय मिलता है। अतः इस कवित्त के आधार पर हम ओसवाल जाति की उत्पत्ति दशवी ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास की समझते हैं। Jain EducP ternational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष समाधान- यह कवित्त स्वयं अपने को अर्वाचीन साबित करता है तथा किसी भी प्राचीन ग्रन्थ, पावलियों एवं वंशावलियों में यह कवित्त दृष्टिगोचर नहीं होता । इसके अतिरिक्त शंकाकर्ताओं को जरा यह भी विचारना चाहिये था कि यदि श्रोसवालोत्पत्ति दशवीं शताब्दी में भी मानली जाय तो भी यह कवि तो समय और भाषा की दृष्टि से अर्वाचीन ही ठहरता है। इसी प्रकार इस कवित्त में उल्लिखित राजपूतों की जातियें वि० की पांचवी शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी में पैदा हुई हैं। तत्र तो इस कवित्त के आधार पर सवालोत्पत्ति का समय भी वि० की १७ शताब्दी का ही समझना चाहिये । 1 इस कवित्त के अनुसार क्या आपकी अन्तरात्मा इस बात को मंजूर करने को तैयार है कि स वालों की उत्पति वि० की १७ वीं शताब्दी में हुई होगी ? नहीं, कदापि नहीं । समय न तो इन राजपूत जातियों सूरिजी का उद्देश्य तो भिन्न २ जरा चश्मा उतार कर देखना चाहिये कि आचार्य रत्नप्रभसूरि के का अस्तित्व ही था और न उन्होंने अठारह गोत्र स्थापित ही किये थे । जातियों के टूटे हुये शक्ति तंतुओं को संगठित करने का था और वास्तव में उन्होंने ऐसा ही किया था । पश्चात् भिन्न २ कारण पाकर गोत्रों का निर्माण हुआ है जैसे कि वीरप्रभु से ३७३ वर्षे उपकेशपुर में महावीर राजपूतों की १८ जातियां श्रसवालों के १८ गोत्र | तप्तभट्ट - तातेड़ बाप्पनाग वापना १- परमार १२- शिशोदा ३ - राठौर - बासंचा ४ ५- वालेचा ६ – दइयाँ ७- भाटी ८- सोनीगरा ९- कच्छावा १० - गोड़ ११ - जादव १२- माला १३ -- जिन्द इस कवित्त में राजपूतों की कुल १३ जातियां बताई हैं परन्तु ओसवालों के गोत्र १८ हैं । इसके लिये शंकाकर्ता उपाय सोचेंगे। क्या २४ समय विक्रम की नवी शताब्दी वि० ९४वी शताब्दी वि० ६ठी शताब्दी प्रसिद्ध 35 वि० की १३वीं शताब्दी वि० की ४थी शताब्दी वि० की १३वीं शताब्दी वि० की ८वीं शताब्दी वि० की १२वीं शताब्दी प्राचीन वि० १०वी शताब्दी वि० [श्रप्रसिद्ध कर्णाट-करणावट बलहा - राँका बाँका मोरष - पोकरण कुलइट वीरहट श्रीश्रीमाल - श्रेष्ठि-वैद्य मेहता सुचंती - संचेती श्रादित्यनाग - चोरड़िया,, भूरि- भटेवरा भाद्र - समदड़िया चींचट - देसरडा कुम्मट कनौजिया - डीड – कोचर मेहता लघुश्रेष्ट — सिद्ध प्रसिद्ध "" " 32 37 " 29 "2 समय का समय वि० पू० ९७ वर्ष का है। इनको राजपूतों की जातियों से मिलाइये । का समय वि० पू० ४०० वर्ष का है तथा इन गोत्रों के नाम का पता मिलने महान संघ के संस्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरि होने से इन १८ गोत्रों १८५ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मूर्ति के प्रन्थ छेद का एक उपद्रव हुआ । उस समय शान्ति स्नात्र पूजा पढ़ाई गईथी। उस पूजा में ९जीमणी और ९ डाइ ओर स्नात्रिये बनाये गये थे, उनका उल्लेख ग्रन्थों में मिलता है कि वे १८ स्नात्रिये १८ गोत्र के थे, पर यह निश्चय नहीं कहा जा सकता कि उस समय १८ गोत्र ही थे ? खैर यहां पर देखना तो यह है कि १८ गोत्रों और गजपूतों की उपरोक्त १८ जातियों का आपस में क्या सम्बन्ध है। राजपूतों की १३ जाति और ओसवालों के १८ गोत्रों की ऊपर दी हुई इस तालिका से पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं कि इनमें न तो समय की समानता है और न किसी शब्द की समानता है। फिर समझ में नहीं आता है कि ऐसी अर्थशून्य निःसार दलीलें करके जनता में व्यर्थ भ्रम क्यों पैदा किया जाता है ? यह तो केवल “परेश्वर्य दर्शने असहिष्णु" बुद्धि काही प्रदर्शन करना है । अस्तु ऐसे निस्सार कवित्तों पर विश्वास करना अज्ञता का ही द्योतक है । श्रोसवालों के १८ गोत्रों की सृष्टि हुई है उसमें निम्न लिखित कारण हैं जैसे कि: १- तप्तभट्ट-यह एक प्रसिद्ध पुरुष के नाम पर गोत्र हुआ है जिसको आज तातेड़ कहते हैं । २-बाप्पनाग-यह नागवंशी राव वाप्पा की स्मृति में गोत्र बना है जिसको आज बाफणा-बहुफणा कहते हैं ओर नाहटा जांघड़ा बैताला दफत्तरी बालिया और पटवा आदि इनकी शाखायें हैं । ३-कर्णाट-- यह कर्णाट प्रान्त से आया हुआ समूह का नाम है। ४-बलाह-वह एक बलाहनगर से आये हुये जत्थे का नाम है। रांका बांका सेठ इनकी शाखा है। ५- श्रीश्रीमाल - यह श्रीमालनगर से आये हुए लोगों का गोत्र है । ६-आदित्यनाग-यह आदित्यनाग नासक नागवंशी उदार एवं वीर पुरुष के नाम पर गोत्र हुआ है। चोरड़िया, गुलेच्छा, पारख, सामसुखा श्रीर गदइया आदि इनकी शाखायें हैं । ७-माता भूरि के नाम पर भूरि गोत्र कहलाया। ८-कन्नोज से आये हुये कनौजिया कहलाये। ९-कुमट का व्यापार करने से कुमट कहलाये । १०-संघ में श्रेष्ट काम करने से श्रेष्टि कहलाये । ११-संचय करने से संचेती कहलाये। इत्यादि कारणों से महाजन संघ के गोत्र बन गये और इन गोत्रों में ज्यों २ वृद्धि होती गई त्यों २ इनकी शाखायें फैलती गई । इनके अलावा बाद में भी जैनेतरों को जैन बनाये गये और इसी प्रकार कारणों से उनके भी गोत्रों का नाम संस्करण होता गया। इस कथन से पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि पूर्वोक्त कवित्त में बतलाई हुई राजपूतों की १३ जातियों के साथ ओसवालों के १८ गोत्रों का क्या सम्बन्ध है ? कुछ भी नहीं, क्योंकि ओसवालों के १८ गोत्रों का समय वि० पू० ४०० वर्षों का है । तब राजपूतों की पूर्वोक्त १३ जातियों का समय वि० की चौथी से सत्तरहवीं शताब्दी का है तथा राजपूतों की जातियों के कारण कुछ और ही हैं। समझ में नहीं आता है कि श्रोसवालजाति का इतिहास लिखने वाले महाशयजी ने इतनी बड़ी भूल क्यों की होगी कि एक कल्पित कवित्त को अपनी ऐतिहासिक किताब में उद्धृत कर अपना खुद का तथा दूसरों का समय शक्ति और द्रव्य का व्यर्थ व्यय क्यों किया होगा । annowwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww..rani.maratramnawwarninrar १८६ Jain Educenternational Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता । [वि० पू० ४०० वर्ष शंका नं०६ - प्रोसवालों की उत्पत्ति के समय के सम्बन्ध में कुछ व्यक्ति विक्रम की ८ वीं कुछ दशवीं और कुछ ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी का अनुमान करते हैं। और कहते हैं कि इस विषय के प्रमाण तो हमारे पास कुछ भी नहीं हैं, परन्तु ओसवाल जाति के शिलालेखादि कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते हैं अतः अनुमान किया जा सकता है कि मोसवाल जाति की उत्पत्ति विक्रम की ८ वी १० वीं या ११ वीं शताब्दी में हुई होगी? समाधान-पहिले ही हम सिद्ध कर चुके हैं कि 'ओसवाल' शब्द इस जाति की उत्पत्ति के समय का नहीं है बल्कि 'महाजनसंघ' और उपकेशवंश शब्दों का रूपान्तरित नाम है। इस रूपान्ततरित नामकरण का समय वि. की ११ वीं शताब्दी है । इसलिए इस ओसवाल शब्द के सम्बन्ध में ११ वीं शताब्दी के पूर्व शिलालेख इत्यादि ऐतिहासिक साधन खोजना व्यर्थ है । क्योंकि जिस नाम का प्राचीन काल में जन्म ही न हुआ हो उसका अस्तित्व मिले ही कहां से ? आज-कल कई लोगों को यह एक प्रकार का चेपी रोग लग गया है कि वे स्वयं तो कुछ परिश्रम करते नहीं हैं। किन्तु प्रत्येक वस्तु के लिए कह उठते हैं कि अमुक वस्तु को हम नहीं मानते क्यों कि इसके प्रमाण के लिए शिलालेख नहीं मिलते हैं । तो क्या जिनका शिलालेख नहीं मिले, वे सब घटनायें असत्य ही समझी जाती है ? साथ ही जो लोग ओसवालों की उत्पत्ति वि० की ८ वी, १० वीं एवं ११ वीं शताब्दी की कहते हैं; क्या वे शिलालेखादि ऐतिहासिक साधनों एवं प्रमाणों से प्रमाणित कर सकते हैं ? नहीं उनके पास तथ्यहीन एक मनगढन्त कथनमात्र के अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है। वि० की ८ वीं से १० वीं शताब्दी तक का इतिहास इतना अंधेरे में नहीं है कि जनता में एक इतना बड़ा जबरदस्त परिवर्तन अर्थात् लाखों मनुष्यों का धर्म परिवर्तन हो जाय और इस परिवर्तन के सम्बन्ध में उस समय या उसके बाद के साहित्य में गन्ध तक न मिले यह कदापि सम्भव नहीं है। जब कि उस समय की साधारण घटनाओं के लिये बड़े २ ग्रन्थ निर्माण हो चुके हैं । जैसे कि: १-प्राचार्य हरिभद्रसूरि ब्राह्मण धर्म से जैनधर्म में आये । ऐसी तत्कालीन सामान्य घटनाओं का विस्तृत वर्णन जैनसाहित्य में उपलब्ध होता है । आपक समय जैनग्रन्थों के आधार छटी शताब्दी का है। २-आचार्य बप्पभट्टसूरि ने ग्वालियर के राजा आम को प्रतिबोध देकर जैन बनाया और उसकी एक रानी की संतान ओसवंश में मिल गई, जिसका गोत्र राजकोष्ठागर हुआ जो कि ओसवाल जाति का एक अंग है। इस घटना का उल्लेख भी जैन साहित्य में अत्यन्त विस्तारपूर्ण मिलता है। इस घटना का समय विक्रम की ९ वीं शताब्दी का प्रारम्भिक काल है। ३-आचार्य शीलगुणसूरि ने बनराज चावड़ा को प्रतिबोध देकर जैन बनाया उसने वि० सं० ८०२ में पाटण नगर बसाया । जिसका उल्लेख भी उसी समय के प्रन्थों में मिलता है । ४-आचार्य उदयप्रभसूरि ने विक्रम की आठवीं शताब्दी में भिन्नमाल नगर के राजा भाण तथा ६२ कोटाधीशों को जैन बनाया इत्यादि । घटनाओं से साहित्य शोभायमान हैं । ५-वादीवैताल आचार्य शान्तिसूरिने राजा भोज की सभा में जाकर वहां के पंडितोंसे बड़ाभारी यश कमाया इत्यादि । इन सबका अधिकार जैनसाहित्य में विद्यमान है इनका समय विक्रम की दशवीं ग्यारहवीं शताब्दी का है। viaN www. g ary.org Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि पू. ४०० वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६-प्रखर पंडित श्रीमान् द्रोणाचार्य के शिष्य सूराचार्य ने धारा नगरी में जा कर राजा भोज की सभा के पंडितों को मंत्रमुग्ध कर दिया । इस वृतान्त के सम्बन्ध में प्रन्थों में विस्तृत प्रमाण मिलते हैं । इनका समय विक्रम की ११ वी १२ वी शताब्दी का निकटवर्ती है। ७-आचार्य उद्योतनसूरि ने अपने शिष्यों को वट वृक्ष के नीचे सूरिपद दिया; उसी दिन से षड़गच्छ की स्थापना हुई । इसका उल्लेख तत्कालीन प्रन्थों में मिलता है। इस घटना का समय १०वीं शताब्दी का है । इत्यादि अनेक प्रमाण उस समय के साहित्य में विद्यमान हैं इतना ही क्यों पर साधारण से साधारण घटनाओं के सम्बन्ध में भी विस्तृत वर्णन किया गया है । ऐसी दशा में आठवीं, दशवी, ग्यारहवीं शताब्दी में अनुमानतः माने गये लाखों मनुष्यों केधर्म परिवर्तन के संबंध में किसी भी प्रन्थ में कुछ भी उल्लेख न मिलना आपके अनुमान को कल्पित प्रमाणित करता है और साथ में यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है कि ओसवाल जाति ( उपकेशवंश-महाजनसंघ ) की उत्पत्ति न तो वि० को ८ वीं शताब्दी में हुई और न १० वी ११ शताब्दी में हुई। पर इस घटना का समय इतना प्राचीन है कि जिस समय जैनों का कोई भी इतिहास व दूसरी घटना पुस्तकारूढ नहीं हुई थी और न उस समय का कोई शिलालेख ही मिलता है। उस समय के आचार्य एवं मुनिवर्ग सब ज्ञान को कंठस्थ ही रखते थे और अपनी शिष्य परम्परा को भी यही शिक्षा दी जाती थी कि वे गुरु परम्परा से ज्ञान मुंहजबानी ही रखते थे। दूसरों के लिए तो क्या पर जो जैन धर्म के मुख्य आगम थे वे भी मुंहजबानी ही रखते थे। यदि उस समय की तमाम घटनाओं के लिए केवल शिलालेखों द्वारा ही निर्णय किया जाता हो तो हमारे परमपूज्य जम्बुस्वामी, प्रभवस्वामी, शय्यंभव प्राचार्य संभूतिविजय और यशोभद्रादि बहुत से ऐसे आचार्य हुए हैं कि शिलालेखों में उनका नाम निशान तक भी नहीं है तो क्या हम उनको भी नहीं मानेंगे ? यह कदापि नहीं हो सकता। ओसवाल जाति का प्राचीन शिलालेख नहीं मिलने से तो यह जाति उल्टी प्राचीन ही ठहरती है क्योंकि जैन शिलालेखकाल विक्रम की दशवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है अतः इस समय के बहुत पूर्व इस जातिका जन्म हुआ था अतः उस समय का शिललेख न मिलना स्वाभाविक ही है । अब रही पट्टावलियों की बात । हां, पट्टावलिये घटना समय की नहीं है। इसका कारण उस समय हमारे अन्दर लिखने की पद्धति नहीं थी जब मूल आगम ही वीर निर्वाण से १००० वर्ष बाद लिखे गये थे तो पट्टावलियां इसके पूर्व लिखी जाना सर्वथा असम्भव ही है, पर इसले पट्टावलियों की महत्ता एवं सत्यता को क्षति नहीं पहुँचती है । कारण, पट्टावलियें भी गुरु परम्परा से आये हुए ज्ञान के आधार से ही बनी हैं । यदि २५०० वर्षों का इतिहास लिखते समय हमारी पट्टावलियों को दूर रख दी जाय तो हमारा इतिहास नहीं के बराबर है । हमारी पट्टावलियों में केवल जैनधर्म सम्बन्धी ही उल्लेख नहीं है पर अन्य भी इतने उपयोगी लेख हैं कि वे दूसरी जगह खोजने पर भी नहीं मिलते हैं। देखिये विद्वान लोग क्या कहते हैं: ___ "इतिहास व काव्यों के अतिरिक्त वंशावलियों की कई पुस्तकें मिलती हैं + + तथा जैनों की कई एक पटावलियां आदि मिलती हैं । ये भी इतिहास के साधन हैं । पं०गौ०ओ० “राजपूताना का इतिहास पृ० १." अतः इतिहास लिखने में पट्टावलिये एक साधन है । हाँ, जब से गच्छों एवं समुदाय के भेद हुये और कई लोगों ते मताग्रह के कारण पट्टावलियों में गड़बड़ कर दी है उसके लिये हमारा कर्त्तव्य है कि हम उनका संशोधन करें न कि एकाध पट्टावली में त्रुटियें देख सब पट्टावलियों का अनादर कर बैठे। १८८ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [ वि० पू० ४०० वर्ष ___पक्षपास रहित जैनेतर विद्वानों का हमारी पट्टावलियों प्रति जितता सद्भाव है उतना कई जैन नाम धराने वालों का नहीं है इसका कारण पूर्व बतलाया गच्छ एवं समुदाय भेद ही है; पर उन लोगों को मताग्रह के कारण अभी यह बात नहीं सूझती है कि हम अपने ही पैरों पर कुठाराघात कर रहे हैं जिसका भविष्य में क्या फल मिलेगा ? इस सत्य वस्तु को छिपाने एवं मिटाने से जैनजातियों एवं श्रोसवाल जाति का गौरव बढ़ता है या मिट्टी में मिल जाता है । जिस जाति का २४०० वर्षों का उज्जवल इतिहास है उसको ८८०-९०० वर्ष जितना सममना कितनी भारी भूल है। इस भूल का परिणाम यह होगा कि १५०-१६०० वर्षों में ओसवाल जाति ने तन धन मन से लाखों नहीं पर करोड़ों रुपया देश सेवा के लिये व्यय किये हैं एवं देश पर बड़ा भारी उपकार किया है उन सब पर पानी फिर जायगा। अरे अकल के बादशाहो ! जरा विशाल दृष्टि से विचार करो कि श्रोसवालों को जगतसेठ नगरसेठ, पंच चौधरी आदि महत्वपूर्ण पद मिले हैं वह कुछ करने से ही मिले होंगे, तथा बड़े बड़े राजा महाराजाओं ने पट्टा, परवाने, सनद एवं पत्रों द्वारा ओसवालों का बड़ा भारी उपकार माना है और राज रखने वाला कहा है, यह कुछ करने पर कहा होगा या यों ही लिख दिया है। पर इस उज्जवल इतिहास को छिपा देने से आपकी क्या दशा हुई है ! कहाँ पर आपकी पूँछ रही है !! कहाँ पर आपका आसन रहा है !!! इतना ही क्यों पर श्राप दुनिया में जीते गिने जाते हो या मुदों ? जो अपने पूर्वजों को भूल कृतघ्नी बन जाते हैं उनकी इससे अधिक क्या दशा हो सकती है। ___अरे अर्द्ध शिक्षको ! आज तुम्हारे प्रतिपक्षी तुम्हारे उज्जवल इतिहास को नेस्त नाबूद करना चाहते हैं और तुम उसमें सहायक बनते हो, यह एक बड़ी मजा की बात है। देखिये आज स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकें जिसमें साधारण व्यक्तियों के विषय में कितने गौरवशाली इतिहास लिखे गये हैं तब तुम्हारे भगवान महावीर के विषय में तो कई लोग महावीर को जानते ही नहीं हैं और कोई जानते हैं तो साधारण व्यक्ति की तरह दो शब्द लिख दिये । परन्तु वह किसके पुत्र थे इनकी माता कौन थी उनका क्या व्यवसाय था और उन्होंने कौन सा महत्त्वशाली काम किया था आदि आदि बातों के लिये अभी जनता अंधेरे में हो है । यह हमारे अर्द्धदग्ध शिक्षितों की संकुचितता का ही परिणाम है । जब भगवान महावीर का ही यह हाल है तो जगदूशाह चम्पाशाहादि जैसे दानेश्वरियों का तो नाम ही कहां से हो ? क्योंकि ऐसे अनेक दानी मानी उदार एवं वीर पुरुषों का पुनीत जीवन पट्टावलियों वंशावलियों में है और उनको मानने से आपने इन्कार कर दिया इतना ही क्यों बल्कि आपने तो उनको झूठा बतला कर अवहेलना भी कर डाली। अतः आपको संतान उन वीरों के नाम तक को भी भूल जायगी तो कौन सी आश्चर्य की बात है ? __ओसवालो ! आप अपने उन पूर्वजों के उदार जीवन नहीं पढ़ोगे वहाँ तक तुम्हारे हृदय में गौरव नसों में खून कभी नहीं उबलेगा । जब आपके हृदय में गौरव और नसों में खून ही नहीं रहेगा तो तुम दुनिया के सामने कुछ भी करने एवं बतलाने काबिल नहीं रहोगे। इसी कारण तुम दर दर के भिखारी बन कर पग २ पर ठुकराये जाते हो । खैर अभी तो इतनी ही हालत हुई है पर भविष्य में न जाने कुदरत ने आपके लिये क्या क्या तजवीज सोच रक्खी है। ओसवालो! यदि तुम्हारे मगज के सामने गच्छ या समुदाय की दीवार खड़ी हो गई हो तो ____१८९ wwwmarnelibrary.org Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४८० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उसको फौरन हटा दो। कारण, तुम आज किसी भी गच्छ एवं धर्म के उपासक हो पर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने तुम्हारे पूर्वजों को मांस मदिरादि दुर्यसन छुड़ा कर ओसवाल बनाये हैं। उस मह न उपकार को यदि तुम भूल जाओगे तो दुनियाँ तुमको नुगरा कहेगी, गुण चोर कहेगी, कृतघ्नी कहेगी और विशेषतया कहेगी कि ओसवाल जाति अपनी जाति का प्राचीन इतिहास मिटाने वाली एक मुर्दा जाति है । ___एक अंग्रेज विद्वान ने ठीक कहा है कि "जिस जाति को नष्ट करना हो तो उसके इतिहास को नष्ट करदो, वह जाति स्वयं नष्ट हो जायगी" बस, तुम्हारी भी यही दशा होने वाली है। आज भारत की छोटी बड़ी सब जातियाँ अपनी प्राचीनता साबित करने में तन धन अर्पण कर खूब परिश्रम कर रही हैं । जैसे नाई कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं, सेवग कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं, खाती कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं, ढेड़ कहते हैं कि हम ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न हुये हैं इत्यादि अपनी २ प्राचीनता और अपने २ गौरव प्रगट कर रही हैं तब ओसवाल जाति का कुछ पता ही नहीं है। कारण,ओसवालों की प्राचीन पट्टावलियों एवं वंशावलियों में इस जाति को मूल उच्चवर्ण एवंक्षत्रिय बतलाई है और आज २३९६ वर्ष हुये लिखा है । इस पर तो अर्द्ध शिक्षितों का विश्वास नहीं है और खुद के पास कोई प्रमाण नहीं है। अतः उन विचारों की दशा धोबी के कुत्ता जैसी हुई है कि 'न रहे घर के और न रहे घाट के। भला, इतिहास शिलालेख की ढाल आगे रखने वाले ओसवाल जाति की उत्पत्ति वि० सं० ५०० से ९०० के बीच में हुई का अनुमान करते हैं। उन महानुभावों से पूछा जाय कि यदि कोई लड़का यह कहदे कि मेरे बाप का तो मुझे पता नहीं है पर वि० सं० १८०० से १९०० के बीच में होने का अनुमान कियाजा सकता है,यह उत्तर उस लड़के के लिये ठीक है न? यदि कोई ऐसी भी कुतर्क कर बैठे कि खैर सं० १८०० से १९०० तक तुम्हारे पिता का होना हम मान लें पर वह रहता कहां था, उसकी जाति क्या थी, उसने अपनी शादी कब और किस के साथ की थी इत्यादि ? क्या इन तकों का भी वह लड़का समाधान कर सकेगा ? नहीं। इसी प्रकार कई ओसवाल सजन भी वि सं० ५.० से ९०० के बीच में ओसवाल जाति की उत्पत्ति होना कहने वाले यह बता सकेंगे कि अमुक स्थान, अमुक जाति वर्ण वालों से अमुक पुरुष द्वारा ओसवाल जाति की उत्पत्ति हुई है ? नहीं कदापि नहीं। उन्होंने तो एक ही नाम रट रखा है कि ओसवालों के लिये वि. की ११ वीं शताब्दी पहले का कोई शिलालेख नहीं मिलता है। खैर, अब आगे चल कर इसका भी समाधान कर देंगे कि यह कहना कितना महत्व रखता है। किंचित समय के लिये हम ऐसी भी कल्पना कर लें कि ओसवालजाति आठवीं अथवादशवीं ग्यारहवीं शताब्दी में बनी, किन्तु इस समय के पूर्व भी तो कोई न कोई जाति जैनधर्म का पालन करती होंगी और उनकी संख्या लाखों की नहीं पर करोड़ों की थी और केवल शिलालेखों से ही सत्यता सिद्ध होती हो तो बताइये कि उन करोड़ों मनुष्यों के सम्बन्ध में कितने शिलालेख मिलते हैं ? शिलालेखों के अभाव में क्या हम मान लें कि ओसवाल जाति की उत्पत्ति के पूर्व जैनधर्म के उपासक कोई भी मनुष्य नहीं थे १ नहीं कदापि नहीं ! शिलालेख मिलें या न मिलें किन्तु जैनधर्म पालन करने वाले उस समय करोड़ों मनुष्य विद्यमान थे। जिसको हमारी पट्ठावल्यादि प्रम्थ डंके की चोट साबित करते हैं । उपर्युक्त शंका के समाधान में केवल एक बात कहनी शेष रह गई है और वह यह है कि शिलालेखों Jain Eduga terational Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्षे का आग्रह करने वालों से हम प्रश्न करते हैं कि अपने जिन पूर्वजों को आप मानते हैं, क्या उन सब के शिलालेख ही क्यों पर नाम को भी आप जानते हैं ? संभवतः २-४ पीढ़ी से पूर्व के कोई ऐतिहासिक साधन नहीं होंगे ? इस प्रश्न के उत्तर में या तो आपको अपने पूर्वजों को मानने से इन्कार करना होगा या हमारी हीपद्धति का अनुकरण करना पड़ेगा । अतएव दुराग्रह मात्र से वस्तुतत्व की सिद्धि में गति नहीं हो सकती। सुज्ञ पाठक ! उपरोक्त समाधानों से यह स्पष्ट रूपेण विदित हो गया होगा कि जैनसाहित्य में एवं अन्य प्रन्थों में कहीं भी प्रोसवाल वंशोत्पत्ति का समय आठवीं, नवमी दशवी अथवा ग्यारहवी शताब्दि नहीं बताया गया है किन्तु इसके विरुद्ध विक्रम पूर्व ४०० वर्ष में महाजनसंघ; उपकेशवंश,-पोसवालों की उत्पत्ति सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण मिलते हैं और भविष्य में ज्यों ज्यों अधिक शोध होगी त्यों २ अनेक प्रमाण उपलब्ध भी होंगे। जितने प्रमाण हमें मिले हैं वे इसी ग्रंथ में मुद्रित करवा दिये हैं जिससे स्पष्ट सिद्ध हो चुका है कि वि० सं० पू०४०० वर्ष में प्राचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा उपकेशपुर में क्षत्रिय वर्ण से ओसवाल जाति बनी है अतः उन परमोपकारी आचार्यदेव का जितना उपकार हम माने उतना ही थोड़ा है यदि उन महापुरुषों का उपकार भूल कर हम कृघ्नी बन जाय तो हमारे जैसा पापी इस संसार में कौन हो सकता है? देखिये पं० वीरविजयजी महाराज ने बारहव्रत की पूजा में क्या फरमाया है कि " मांसाहारी मातगी बोले । भानु प्रश्न घरयोरे । मो० । जूठानर पग भूमिशोधन । जल छटकाव करयोरे । मा० । जिस चांडालनी के शिर पर भ्रष्टा की ओड़ी और हाथ में मांस की बोंटी है पर वह भूमि को जल छटकाव से शुद्ध करती जा रही थी इसको देख किसी भानु ने उसको प्रश्न पूछा जिसके उत्तर में चांडालनी (भंगण) ने कहा कि यदि इस भूमि पर झूठा बोला कृघ्नी लोग निकला हो तो मैं भूमि को शुद्ध कर पैर रखती हूँ। क्योंकि झठा बोला कृतघ्नी बड़े भारी पापी होते हैं उसके परमाणु इतते खराब होते हैं कि जिस भूमि पर पैर रखने से वह भूमि अपवित्र हो जाती है कि उस पर कोई दूसरा पुरुष चले तो वे परमाणु उसके लगने से उसकी चित्तवृत्ति मलीन हो जाती है । अतः मैं भूमि को शुद्ध करके पैर रखती हूँ। पाठकों मूंठ बोलना और किया हुआ उपकार को भूल कर कृतघ्नी बन जाने का कैसा जबर पाप है अतः उपकारी पुरुषों का उपकार मान कर कृतज्ञ बनो यही मेरी हार्दिक भावना है। ००० www.herary.org Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अघटित प्रश्नों का प्रमाणिक उत्तर अाजकल विचार-स्वातन्त्र्य का साम्राज्य है, अतः जिस ओर दृष्टिपान किया जाता है उसी ओर अर्थात् सर्वत्र समाज, जातियां और धर्म के नाम से आक्षेपों तथा समालोचनाओं की वृष्टि दीख पड़ती है । वास्तव में समालोचना संसार में बुरी बला नहीं है। प्रत्युत समान तथा जाति की बुराइयों को निकालनेवाली, मार्गोपदेशिका, एवं उन्नतिदायिनी है। जिस समाज में जितने निःस्वार्थ तथा निष्पक्षपात आलोचक हैं, उतने ही उसके लिए अधिक लाभदायी हैं । किन्तु अनुभव ने इससे प्रतिकूल ही भान कराया । वर्तमान में कुत्सित भावनाओं को आगे रख कर आलोचक महोदय आक्षेपपुंज से कुआलोचना किया करते हैं। जिससे समाज को लाभ के बदले अधिकाधिक हानि पहुँचती जाती है और क्लेश के कारण समाज अस्तव्यस्त हो गया है। आजकल के लिखे-पढ़े नवयुवकों के मगज में जितनी तर्कशक्ति है उतना उनके पास समय नहीं है कि जिस विषय का वे प्रश्न, तर्क एवं समालोचना करें उसके लिए वे उस समय का इतिहास देख सके कि उस समय कि क्या परिस्थिति थी, उस समय किन २ बातों की आवश्यकता थी इत्यादि । जब तक इन बातों का अध्ययन न कर लिया जाय तब तक व्यर्थ आक्षेप तथा तर्क करने में अपना तथा दूसरों का समय को ही बर्बाद करना है। दूसरे उन लोगों में यह भी एक विशेष गुण है कि न तो उनको अपने पूर्वजों पर विश्वास है और न प्राचीन प्रन्थों पर ही भरोसा है, फिर उनको समझाया जाय तो भी किस प्रकार ?कारण वे स्वयं अभ्यास करते नहीं और दूसरे कि सुनते नहीं। खैर ! वे लोग क्या क्या प्रश्न करते हैं उनका थोड़ा सा नमूना पाठकों की जानकारी के लिए यहां दर्ज कर दिया जाता है जरा ध्यान लगाकर पढ़ें। १-आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने क्षत्रियों को जैन बना कर उनको गौत्र एवं जातियों के बन्धन में बांध दिये अतः बहुत ही बुरा किया । जो विश्वव्यापी जैन धर्म था वह एक जाति मात्र में ही रह गया ? २-आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने एक वीर बहादुर राजपूत वर्ग को ओसवाल बना कर उनकी वीरता को मिट्टी में मिला दी और उनको कायर कमजोर डरपोक बना दिया। ३-श्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरि क्षत्रियों को ओसवाल बनाने के कारण ही शेष क्षत्रियों ने जैनधर्म से किनारा ले लिया। ४-आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के श्रोसवाल बनाने से ही जैनधर्म राजसत्ता-विहीन बन गया। ५-प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने श्रोसवाल बना कर बहुत बुरा किया कि इसमें अनेक गौत्र जातियां एवं मत पन्थ गच्छ फिरके और समुदायें बन गई। जिसमें इनकी समुदायिक शक्ति के टुकड़े २ हो कर पतन के गहरे गढ़े में गिर गई। इत्यादि अनेक प्रश्न करते हैं और इन बातों के लिये बहुत से लोगों को शंका भी रहा करती है, पर जब तक वस्तु के असली स्वरूप को मनुष्य नहीं समझ पाता है तब तक शंकाएँ पैदा होना स्वभाविक ही है। पर मैं उन प्रश्नकर्ताओं का इस गरज से उपकार मानता हूँ कि उन्होंने इस प्रकार के प्रश्न करके उनके समा धान के लिए हमारे मगज में एक शक्ति पैदा की है। तथा मन के मन में भ्रम करना और उस भ्रम को हमेशा के Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्ष लिये दिल में दबा कर रखने के बजाय प्रश्न करना कई गुणा अच्छा है कि जिससे शंका का समाधान भी हो सके और चित्त का भ्रम दूर होकर विश्वास की भी वृद्धि हो सके। महानुभावो ! पहिले तो आपको उस समय की परिस्थिति के इतिहास का अभ्यास करना चाहिये था कि उस समय इस महान कार्य की जरूरत थी या नहीं ? दूसरे यह भी सोचना चाहिये था कि भाचार्यरत्नप्रभसूरि ने ओसवाल एवं गौत्र जातियां आदि अलग २ जातियां बनाई थी या अलग २ जातियों का संगठन कर एक शक्ति एवं संगठनमय सुदृढ़ संस्था स्थापित करवाई थी ? तथा प्राचार्यश्री ने उन वीर क्षत्रियों को कायर कमजोर बनाये थे या उनकी शक्ति और भी बढ़ाई थी १ आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उन आचारपतित क्षत्रियों को जैन बना कर जैनधर्म को राजसत्ता विहीन बनाया था या जैनधर्म राजाओं का धर्म बन गया था। आचार्य रत्नप्रभसूरि के राजपूतो को जैन बनाने से जैनधर्म का क्षेत्र संकुचित बन गया था या विशाल बन गया था ?इत्यादि इन सब बातों को खूब दीर्घदृष्टि से सोचना चाहिये था। इन सब बातों का अभ्यास करके ही प्रश्न करना था। खैर, अब भाप भपने प्रश्नों का उत्तर भी सुन लीजिये। १०-श्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि ने क्षत्रियों को जैन बना कर उनको गौत्र एवं जातियों के बन्धन में बांध कर बहुत ही बुरा किया कि जो विश्वव्यापी जैनधर्म था वह एक जाति मात्र में ही रह गया। उ०-आचार्यरत्नप्रभसूरि जिस समय मरुधर में पधारे थे उस समय मरुधर अज्ञान से छाया हुआ था। घर २ में मांस, मदिरा एवं व्यभिचार की भट्टियें धधक रही थीं। वर्ण जाति उपजाति एवं पृथक २ मत-पंथों में विभक्त हुई जनता की शक्ति का दुरुपयोग हो रहा था । उस समय में अनेक कठिनाइयां और परिसहों को सहन करके केवल उन जीवों के कल्याण के लिये ही सूरिजी पधारे थे। इतना ही क्यों पर वसति के अभाव में जंगल में ठहर कर चार-चार मास तक भखे प्यासे रहते हुये भी उन पाखण्डियों के कठोर उपसगों को सहन किया था। सूरिजी ने अपने आत्मबल और उपदेश द्वारा उन आचारपतित क्षत्रियों की शुद्धि कर सब को समभावी बनाके उनका संगठन चिरस्थायी बनाये रखने की गरज से 'महाजनसंघ' नामक संस्था स्थापित करवाई थी, पर उस समय उनको स्वप्न में भी यह मालूम नहीं था कि हमारे पीछे ऐसे सपूत (!) जन्मेंगे कि आज हम जिन पृथक् २ वर्ण जाति मत पंथ वालों को एक सूत्र में प्रथित कर रहे हैं, वे आगे चल कर इस संस्था के टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे; जैसे कि पिछले लोंगों ने कर दिया और आज भी कर रहे हैं। इस पर भी तुरी यह कि अपना दोष पूर्वाचार्यों पर मढ़ना इससे अधिक कृतघ्नीपना भी क्या हो सकता है। दूसरे गौत्र और जाति का होना, यह भी रत्नप्रभसूरि ने नहीं बनाई है । उन्होंने तो एक 'महाजनसंघ' स्थापित करवाया था पर बाद में उस महाजनसंघ की ज्यों २ वृद्धि एवं उन्नति होती गई और उसके अन्दर ऐसे २ नामांकित पुरुष होते गये कि जिनके नाम से जातियां बनती गई, जो उन जातियों के नामों से पता लग सकता है, जैसे आदित्यनाग के नाम पर आदित्यनाग गौत्र, बापनाग से बापनाग गोत्र, तप्तमा मे तातभट गौत्र, भादा से भाद्र गौत्र इत्यादि। गौत्रों का होना बुरा भी नहीं है क्योंकि आचार्य रत्नप्रभसूरि के पूर्व भी गोत्र थे और गृहस्थ लोगों के विवाह शादी में इन गौत्रों की जरूरत भी रहती है कि वे कई गौत्र छोड़ के ही अन्य गोत्रीयों के साथ अपना विवाह करते हैं। Jain Education national www.j१२ary.org Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और जातियों के होने से धर्म की विश्व-व्यापकता मिट भी नहीं सकती है। भला ! गौत्र जाति के होने से ही धर्म की विश्व-व्यापकता मिट जाती हो तो भगवान महावीर के समय कश्यप गौत्र, जलंधर गौत्र, कोटन्य गौत्रादि गौत्र वाले जैनधर्म पालन करते थे । उसी समय आनन्दादि गाथापति अर्जुनमाली, सकडाल कुम्भार ऋषभदत्तादि ब्राह्मण और हरकेशी एवं मेत्तारियादि शूद्र लोग भी जैन धर्म पालन करते थे। जैनधर्म की विश्व-व्यापकता गौत्र जातियों से नहीं मिटी है, पर इसका असली कारण कुछ और ही है। और वह है संकुचित विचार वालों की संकुचितता कि जिन्होंने अपने संकुचित विचारों के साथ जैनधर्म के क्षेत्र को भी संकुचित बना दिया । यदि गोत्र एवं जातियां बनने से ही जैनधर्म की विश्व-व्यापकता मिट जाती हो तो आचार्य रत्नप्रभसूरि ने श्राचारपतित क्षत्रियो को जैन बनाने के बाद भी सैंकड़ों वर्ष तक अजैनों की शुद्धि कर उनको जैन बना कर पूर्व जैनों में शामिल मिलाये थे और उनकी संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी। यह कैसे बन सकता ? . खैर, जैनधर्म के लिये तो आपने अपने परमोपकारी महापुरुषों पर सब दोषारोपण कर दिया, पर आपके साथ ही बौद्ध एवं वेदान्ति धर्म है और उनमें अनेक गौत्र जातियां शामिल होने पर भी उनकी विश्वव्यापकता नहीं मिटी है तो एक जैनधर्म की विश्व-व्यापकता कैसे मिट सकती है। अतः आचार्य रत्नप्रभसूरि पर यह आक्षेप करना बिल्कुल मिथ्या और अनभिज्ञता का सूचक है कि उन्होंने क्षत्रियों को जैन बना कर उनके पृथक २ गौत्र एवं जातियां बना दी तथा जातियां बनाने से जैनधर्म जो विश्व-व्यापक था वह केवल एक जाति मात्र में रह गया, इत्यादि । ___ उन महापुरुषों ने तो जो किया था वह जीवों के कल्याण और जैनधर्म की उन्नति के लिये ही किया था और उनके इस प्रकार करने से ही जैनधर्म जीवित रह सका है। २ प्र०-प्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि ने एक वीर बहादुर राजपूतों को ओसवाल बना कर उनकी वीरता को मिट्टी में मिला कर उनको कायर कमजोर डरपोक बना दिया । १०-आचार्य रत्नप्रभसूरि ने न तो ओसवाल बनाये थे और न उनको कायर कमजोर ही बनाये थे। कारण आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में प्राचारपतित क्षत्रियों को विक्रम पूर्व ४०० वर्षों में जैन क्षत्रिय बनाये थे, तब उपकेशपुर का अपभ्रंश नाम ओसियां तथा ओसियों के नाम से ओसवाल शब्द की उत्पत्ति हुई है। इसका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का है। फिर यह आक्षेप रत्नप्रभसूरि पर क्यों ? और इस प्रकार ग्रामों के नाम से तो और भी बहुत नाम हुये हैं जैसे महेश्वरीपुरी से महेश्वरी, खण्डेल से खण्डेलवाल, पाली से पल्लीवाल इत्यादि, तो क्या इन नामों से ही नुकसान हो गया। __ दूसरे ओसवाल कहलाने से ही कायर एवं कमजोर कहना भी एक भ्रम ही है क्योंकि आचार्यरत्नप्रभसूरि ने जिन क्षत्रियों को जैन बनाये थे न तो वे कायर कमजोर हुये थे और न उनकी संतान ही कायर कमजोर कहलाई थी । जरा इतिहास के पृष्ठों को उलट कर देखिये, राव उत्पलदेव की संतान ने २८ पुश्तों तक राज्य किया था। महाराज चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार, अशोक और सम्राट सम्प्रति ने जैनधर्म पालन करते हुये ही बड़ी वीरता से राज का संचालन किया था। महामेघबाहन चक्रवर्ती खारबेल कट्टर जैन होते हुये भी उन्होंने भारत पर विजय कर चक्रवर्ती पद को प्राप्त किया था। सम्राट विक्रम भारत का राज बड़ी वीरता से करता हुआ भी जैन धर्म का पालन करता था। वल्लभी का शिलादित्य राजा, कान्यकुब्ज का चित्र Jain E१९४international Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्ष गेंद राजा, ग्वलनेर का आम राजा, महाराष्ट्र के चोलवंश, राष्ट्रकूटवंश, पांड्यवंश, कलचूरीवंश, वगैरह, वगैरह, अनेक राजाओं ने जैनधर्म पालन करते हुये भी बड़ी वीरता से राज किया है । इतने दूर क्यों जाते हो, परमाहत महाराजा कुमारपाल के जीवन को पढ़िये तो आपको जैनों की वीरता का पता चलेगा कि कायर कमजोर थे या वीर थे। किसी भी धर्म के उपासकों को देखिये, वे सब के सब राजा नहीं होते हैं। कई राज करते हैं तो कई दीवान, प्रधान मन्त्री, महामन्त्री फौजी हाकिम वगैरह पद वाले होते हैं, तो कई व्यापार एवं कृषी कर्मवाले भी होते हैं । यही हाल जैनधर्म का था और इस प्रकार कई जैनों ने राज कर्मचारी पद को सुशोभित करते हुये भी अपनी वीरता का परिचय दिया था । कायरता तो उनके पास भी नहीं फटकती थी जिसके उज्जवल यश और धवल कीर्ति से इतिहास भरा पड़ा है। वीर यशोदित्य, शादूल, नारायण, त्रिभुवनसिंह, जसकरण, समर्थसिंह ठाकुरसी, जेतापाता, विमल, वस्तुपाल तेजपाल, समरसिंह, तेजसिंह, सुलतानसिंह वगैरह वगैरह हजारों वीर हुये । हाल थोड़े समय पूर्व संघवी इन्द्रराजजी, फतेहराजजी, बच्छराजजी, मुनोयत, सुन्दरदास नैणसी, मेहता नथमलजी, और मेहताजी विजयसिंहजी । इन्होंने ओसवाल कहलाते हुये भी क्षत्रियों से बढ़ चढ़ के वीरता के काम किये हैं । क्या कोई इतिहास का जानकर ओसवाल जाति पर कायरता और कमजोरी का कलंक लगा सकता है ? कदापि नहीं ! श्रोसवाल जाति में कायरता और कमजोरी होने का कारण क्षत्रियों से जैन बनाना नहीं है पर श्रोसवालों के खराब आचरण तथा दया का असली स्वरूप को न जानने वाले उपदेश ही हैं । जैसे धनमाल की कृपणता के कारण, आत्त ध्यान करना, दूसरे का बुरा चाहना, बाल विवाह, वृद्ध विवाह, कुजोड़ लग्न आदि कई कारण हैं कि वे अपने बुरे आचरणों से स्वयं कायर कमजोर बन बैठे हैं और उनका दोष पूर्वाचार्यों पर पर लगाते हैं। इससे अधिक अन्याय ही क्या हो सकता है ? वास्तव में जैनधर्म वीरों का ही धर्म है और वीर होगा वही जैनधर्म पालन कर सकता है। आज के जैनधर्मोपासक केवल नाम के ही जैन कहलाते हैं । जैनत्व तो इन लोगों से हजार हाथ दूर रहता है । यदि जैनी कहलाना हो तो सब से पहले वीर बनो जैसे पूर्व जमाने में थे। ___ ३ प्र.-श्रापार्य श्रीरत्नप्रभसूरि के क्षत्रियों को ओसवाल बनाने के कारण ही क्षत्रियों ने जैनधर्म से किनारा ले लिया। ___ उ-यह पहिले कहा जा चुका है कि रत्नप्रभसूरि ने क्षत्रियों को ओसवाल नहीं बनाये थे, पर 'महाजन संघ' बनाया था और उसकी स्थापना उपकेशपुर में हुई । बाद उपकेशपुर के लोगों ने अन्य स्थानों में जाकर निवास किया, इस हालत में वे लोग उपकेशपुर के होने के कारण उपकेशी कहलाये और भागे चल कर उनका वंश उपकेशवंश कहलाने लगा। वह शिलालेखों में सर्वत्र प्रसिद्ध है तथा विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में उपकेशपुर का नाम अपभ्रंश होकर ओसियां हो गया; जैसे जावलीपुर का जालौर, नागपुर का नागौर, माण्डव्यपुर का मॅडौर, नारदपुर का नाडौल, वैसे उपकेशपुर का श्रोसियां नाम पड़ गया। अत: ओसियों में बसने वाले श्रोसवाल कहलाये पर इस प्रकार श्रोसवाल नाम होने से क्षत्रियों ने जैनधर्म से किनारा ले लिया कह देना तो एक अनभिज्ञता की ही बात है; क्योंकि महाजनवंश स्थापन करने के पश्चात् १९५ www.aimeldiary.org Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास करीब २००० वर्ष तक क्षत्रिय लोग जैन बन कर श्रोसवालों में शामिल होते आये हैं। फिर यह क्यों कहा जाय कि ओसवाल बनाने से ही क्षत्रियों ने जैनधर्म से किनारा ले लिया ? क्षत्रियों के जैनधर्म से किनारा लेने का कारण श्रोसवाल होना नहीं है पर इसका कारण कुछ रही है । वह यह है कि एक जैनधर्म के नियम सख्त हैं जो संसार-लुब्ध जीवों से पलना मुश्किल है, दूसरे श्रोसवालों में जो नये जैन बनने वालों के साथ सहानुभूति पहिले थी वह बाद में नहीं रही। तीसरे सवालों का खुद का संगठन भी छिन्न-भिन्न हो गया था । कारण, एक तरफ तो शासन में छेद-भेद बाल नये मत गच्छ निकाल कर अपनी २ बाड़ाबन्दी में लग गये थे, जिससे समाज में राग द्वेष क्लेश काप्रह की भट्टियें धधकने लगीं और उनकी जो शक्ति जैनों को जैन बनाने में लग रही थी वही शक्ति जैनधर्म को नुकसान पहुँचाने में काम करने लगी । जब खास जन धर्म का प्रचार बढ़ाने वाले साधुओं का ही यह हाल था तो उनके उपासकों के लिये तो कहना ही क्या था ? वे तो उन साधुत्रों के हाथ के कठपुतले ही बने हुए थे। जैसे वे नचाते वैसे ही नाचते थे। दूसरी ओर आगे चल कर उस ओसवाल समाज में भी एक ऐसा उत्पात मच गया कि जिसके दो टुकड़े बन गये जो लोड़ा साजन और बड़ा साजन के नाम से आज भी जीवित है; इत्यादि कारणों से क्षत्रियों ने जैनधर्म से किनारा ले लिया है न कि ओसवाल बनने से - ४ प्र० - आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के ओसवाल बनाने से ही जैनधर्म राजसत्ता -विहीन बन गया । उ०—--यह केवल समझ की भ्रांति है कि श्रोसवाल बनाने से जैनधर्म राजसत्ता विहीन बन गया, पर राजसत्ता विहीन होने का कारण ओसवाल बनाना नहीं किन्तु इसका मुख्य कारण उन राजा महाराजाओं को जैनधर्म का सत्य उपदेश नहीं मिलना ही है। राजा महाराजाओं को सदुपदेश क्यों नहीं मिलता है इसका कारण साधुत्रों में ऐसे ज्ञान का अभाव है, क्यों कि सब से पहिले तो साधु बनते समय यह नहीं देखा जाता है कि यह व्यक्ति साधुपद के योग्य है या अयोग्य ? जब अयोग्यों को साधुपद दे दिया जाता है तो वे अपनी उदरपूति में ही अपने जीवन की सफलता समझ कर समाज का भला करने के बजाय समाज के भारभूत बन जाते हैं । कई साधु ऐसे भी होते हैं कि जिन्होंने एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त का मुंह भी नहीं देखा होगा | राजा महाराजा तो दूर रहे पर पूर्वाचार्यों के बनाये हुए श्रावकों को भी वे संभाल नहीं सकते हैं। उदाहरण के तौर पर देखिये एक गुर्जर प्रान्त में आज करीब २००० साधु साध्वियां विद्यमान हैं, फिर भी एक दो शताब्दी पूर्व कई २०-२५ जातियों के हजारों लाखों लोग जैनधर्म पालन करते थे, प्रायः वे सब जैन धर्म को त्याग कर जैनेतर बन गये हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि साधु अपनी सुविधा के लिए बड़े बड़े शहरों में रहना पसन्द करते हैं जहाँ आवश्यकता नहीं, वहाँ १००-१५० एवं २०० साधु साध्वियां एकत्र ठहर जाते हैं । तब जहाँ ग्राम में भ्रमण कर उपदेश की खास जरूरत है वहाँ कोई जाते तक भी नहीं । यदि कभी विहार करते जा निकले तो उनके पण्डित लेखक नौकर चाकर आदि का ठाठ एवं खर्चा देख वे प्रामड़ा के लोग दूर से ही घबरा जाते हैं। तब दूसरे धर्म वाले लोग घूम घूम कर उनको उपदेश कर तथा कई प्रकार की सुविधाएं बता कर एवं आराम पहुँचा कर अपने धर्म में मिला लेते हैं । जब पूर्वाचार्यों के बनाये श्रावकों का ही यह हाल है तो राजा महाराजाओं को उपदेश देने के लिए तो हम आशा ही क्यों रक्खें ? फिर भी तुर्रा यह कि वर्तमान में अपना कसूर है वह पूर्वाचार्यो पर डाल दिया जाता है । यह एक प्रकार से कृतघ्नीपना ही है । 1 १९६ Jain Edsalon International Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष जैन साधुओं की ही क्यों पर आज तो जैनाचार्यों की संख्या भी इतनी बढ़ रही है कि कई दर्जन प्राचार्य होने पर भी किसी प्राचार्य ने किसी राज-सभा में जाकर व्याख्यान दिया हो ऐसा कभी सुनने में नहीं आता है । हाँ, यदि किसी श्रावक की कोशिश से यदि किसी छोटे बड़े राजा ने एक दिन किसी आचार्य का व्याख्यान सुन लिया हो तो वे अखबारों में, पुस्तकों में, छोटी बड़ी पत्रिकाओं में, अपने नाम के आगे यह टाइटिल लगा देते हैं कि अमुक राजा प्रतिबोधक श्राचार्य श्री...... बस इतने में आप कृतकृत्य बन जाते हैं । पर अब जमाना ऐसा नहीं है। जमाना पुकार पुकार कर कहता है कि कुछ काम करके दिखाओ। समझ गये न ? जैनधर्म राजसत्ता विहीन होने काकारण रत्नप्रभसूरि नहीं पर उनको जैनधर्म का उपदेश नहीं मिलना है । आचार्य रत्नप्रभसूरि ने तो क्षत्रियों को जैनधर्मी बना कर जैनधर्म को राष्ट्रीय धर्म बना दिया था यही कारण है कि रत्नप्रभसूरि के बाद भी अनेक राजाओं ने जैनधर्म के परमोपासक बन कर जैनधर्म का पालन एवं प्रचार किया था। ५ प्र०--आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने ओसवाल बना कर बहुत बुरा किया कि इसमें अनेक गौत्र जातियां एवं फिरके समुदाय बन गये, जिससे इनकी सामुदायिक शक्ति टुकड़े २ हो कर पतन के गहरे गढ़े में गिर गई। उ०--क्या आपको यह विश्वास है कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने ही पृथक् २ गौत्र, जातियां, गच्छ समुदाय और फिरके बनाये थे ? आप पहिले पढ़ चुके हो कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने तो क्षत्रिय वैश्य ब्राह्मण लोग जो पृथक् २ मत-पंथ में विभाजित हो अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते थे, उनको उपदेश देकर एवं संगठन का महत्व बतला कर उनके हृदय के चिरकाल के नीच-ऊंच के जहरीले भावों को मिटा कर उन सब को समभावी बना कर 'महाजन संघ' रूपी एक सुदृढ़ संस्था स्थापन की थी और उनमें जैसे रोटी-व्यवहार था वैसे बेटी-व्यवहार भी चालू हो गया और वह चिरकाल तक चलता भी रहा था । यद्यपि उस महाजनसंघ में नगर के नामों से कई शाखायें चल पड़ी थों जैसे उपकेशवंश, श्रीमाल वंश, प्राग्वटवंशादि, तथापि उन सब का रोटी-बेटी-व्यवहार एक ही था। शिलालेखों से पता मिलता है कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी तक तो इन सबके प्रायःरोटी बेटी-व्यवहार शामिल था। बाद में संघ के स्वार्थी अग्रेसरों के मगज में अहंपद का कीड़ा घुस गया। किसी को धनमद, किसी को राजसत्ता का अहंकार, किसी को ऐश्वर्य एवं संख्या बल का गर्व। बस, एक ने कहा कि हम तुमको बेटी नहीं देंगे। दूसरे ने अपनी चली वहां कह दिया कि हम तुमको बेटी नहीं देंगे । पर उस समय सब की संख्या अधिक होने से किसी को तकलीफ नहीं हुई, अतः न रक्खी परवाह और न किया प्रयत्न । बस, एक एक के दिल खिंचते ही गये, बाद तो दिन निकलने पर यह भाखने लगे कि हम कभी शामिल थे ही नहीं । फिर भी उस समय के आचार्यों ने धर्म कायें, पूजा-प्रभावना, स्वामिवात्सल्य में उनका लेना-देना खाना-पीना अलग नहीं होने दिया! अतः रोटी व्यवहार शामिल रहा और बेटी-व्यवहार टूट गया । रोटी-व्यवहार शामिल होते हुए भी बेटी-व्यवहार टूट जाना एक पार्टीबन्दी का कारण था । यही कारण था कि अपनी २ पार्टी बन्ध गई और अपनी पार्टी में ही बेटी का लेन देन होने लगा। बस, उन अभिमान के पुतलों के घर में अभिमान के परमाणु चारों ओर घूमने लगे। क्या श्राहार में और क्या पानी में जहाँ देखो वहाँ उनकी ही प्रबलता थी । भला इस हालत में उनके घरों से श्राहार www.१९७ry.org Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पानी ले जाकर गौचरी करने वाले साधु कैसे बच सकते ? उनका असर आये बिना कैसे रह सकता ? जैन साधु जिन्होंने राग-द्वेष का त्याग कर दीक्षा ली थी, पर संसर्ग के कारण उनके मगज में भी ऐसे कीड़े पैदा हुये कि उन्होंने जैनसमाज को टुकड़े २ कर अपने २ गच्छ बना कर उनको कई भागों में विभाजित कर डाला । अतः एक ही वीर शासन में अनेक गच्छ मत-पंथ-समुदाय बन कर पूर्व संगठन के टुकड़े २ हो गये । इसका दोष पूर्वाचायों पर मढ़ना, यह कितना अन्याय है । क्या प्राचार्यरत्न प्रभसूरि ने महाजनसंघ स्थापित किया था उस समय उनको स्वप्न में भी यह ख्याल था कि आज मैं भिन्न २ जातियों के शक्तितन्तुओं को एकत्र कर संगठन का किला बना रहा हूँ, उसको मेरे पीछे ऐसे सपूत (!) जन्मेंगे कि वे इस किले को तोड़ फोड़ कर एक-एक पत्थर अलग २ कर डालेंगे और उसका सब दोष मेरे पर मढ़ देंगे ? इस बात को इतिहास डंके की चोट बतला रहा है कि महाजनसंघ के लिये प्राचार्यरत्नप्रभसूरि ने जो जो नियम निर्माण किये थे और महाजनसंघ उन नियमों का ठीक तौर पर पालन करता गया वहाँ तक नो इस महाजनसंघ की खूब उन्नति होती गई । यहाँ तक कि संसारभर में जगतसेठ, नगरसेठ, टीकायत पंच, चौधरी वगैरह सन्मानपूर्वक पद थे वे सबके सब महाजनों को ही दिये गये थे। महाजनों ने इन पद की जुम्मेवारीको अच्छी तरह समझ कर अपने न्यायपूर्वक उपार्जित द्रव्य को देश समाज और धर्म के हित व्यय करने में कुछ भी उठा नहीं रक्खा था । इस बात किसी से छिपी नहीं है। समय की बलिहारी है कि एक समय श्रोसवाल जाति उन्नति के उँचे शिखर पर पहुँच गई थी, वही जाति श्राज अवनति के गहरे गड्ढे में जा पड़ी है। बस, परिवर्तनशील संसार इसी का ही नाम है। इस में यों तो अनेकों कारण है पर मुख्य कारण उस कृतघ्नीपने का ही है जो इन प्रश्नों से श्राप ठीक तौर पर समझ गये होंगे कि मांस, मदिरा व्यभिचारादि दुर्व्यसन से नरक के मार्ग जाते हुओं को श्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि ने अनेक कठनाइयों को सहन कर उनको उपदेश द्वारा जैनधर्म के सन्मार्ग पर लाकर स्वर्ग मोक्ष के अधिकारी बनाये; जिसके बदले में वे आक्षेप करते हैं ऐसे मनुष्यों की क्या कभी उन्नति हो सकती है ? खैर ! अब भी समय है कि अपने अधर्म विचारों को हटा कर उन परमोपकारी महात्माओं का उपकार समझे, इत्यालम् । ___प्र०--कई लोग यह भी कहा करते हैं कि जैनियों की दया अहिंसा ने भारत को गारत बना दिया है ? उ०-यह उन लोगों के अधूरे अभ्यास का ही परिणाम है। कारण, यदि ठीक तौर से अभ्यास कर लिया होता तो यह कदापि नहीं कह सकते कि जैनियों की अहिंसा ने भारत को गारत बना दिया। या यह कहने वाले लोग अहिंसा के स्वरूप को ही नहीं समझते होंगे कि अहिंसा किसको कहते हैं ? अहिंसा एक अमोघ शस्त्र है जिसके सामने बड़े बड़े हिंसकों ने अपना सिर मुकाया है । अहिंसा में दिव्य शान्ति है, महान क्रान्ति है और अचिन्त्य शक्ति है । एक समय भारत में हिंसकों की प्रबलता थी और उस हिंसा के जरिये भारत क्लेशतम बन गया था। उस समय भगवान् महावीर ने अहिंसा का उपदेश भारत के कोने २ में पहुँचा दिया था, तब जाकर जनता ने शान्ति का श्वास लिया । यह तो बहुत दूर के समय की बात है पर श्राप वर्तमान में ही देखिये कि एक ओर तो हिंसावादी हैं कि अनेक प्रकार की हिंसा वृत्ति से काम लेते हैं तब दूसरी ओर महात्मा गाँधी हैं कि जो अहिंसा को एक Jain Ed i nternational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [वि० पू० ४०० वर्ष अपना बड़े से बड़ा अस्त्र बना कर काम ले रहे हैं जिसके सामने हिंसावादियों को अपना सिर झुकाना ही पड़ा है। इस विषय में अब अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है कि सच्ची एवं शुद्ध मन से अहिंसा का पालन करने वाला सदैव विजयी होता है। ___सच्ची अहिंसा है वहां मान, मद, क्रोध, लोभ, विश्वासघात, धोखेबाजी श्रादि अनुचित कार्य स्वप्न में भी नहीं होते हैं । जब कि पर आत्मा को थोड़ा ही कष्ट पहुँचाना हिंसा समझी जाती है तो पूर्वोक्त कार्य तो हिंसापूर्ण होते हैं। हां कितनेक भाई जैन कहलाते हुए भी अहिंसा के स्वरूप को ठीक तौर पर नहीं समझ कर दया का उल्टा दुरुपयोग करते हैं कि वे क्षुद्र प्राणियों की दया करते हुए पांचेन्द्रिय जैसे जीवों तथा अपने भाइयों की ओर दुर्लक्ष रखते हैं । वे अहिंसक कहलाते हुए क्रोध, मान, माया, लोभ, विश्वासघात, धोखेबाजी, झूठ बोलना आदि कुकृत्यों से नहीं बचते । यह तो एक अहिंसा का केवल विकृत ढांचा ही है और इसको अहिंसा नहीं पर वस्तुतः हिंसा ही कही जाती है। और जो लोग आज जैनियों की दया के लिये आक्षेप करते हैं वे इसी विकृत अहिंसा के लिये ही करते हैं न कि सच्ची अहिंसा के लिये। ओसवाल जाति के अठारह गोत्र प्रः-कई लोग यह भी कहते हैं कि जैन जातियों में सब से पहले तातेड़ी, बाफनार, कर्णावट ३, वलहा, मोरक्ष५, कुलहट ६, वीरहट, संचेती८, श्रेष्टि, आदित्यनाग १०, भूरि११, भाद्रो१२, कुमट १३, चिंचट।४, श्रीश्रीमाल१५, कनौजिया१६, डिडु७, व लधुश्रेष्टि1८ यह १८ गौत्र रत्नप्रभसूरि ने ही स्थापन किये थे ? उ०-आचार्य रत्नप्रभसूरि काय अलग २ गौत्र स्थापन करने का नहीं था, पर अलग २ जातियों में विभक्त प्रजा को एक सूत्र में संगठित करने का था और उन्होंने ऐसा ही किया था बाद में जैसे २ समय निकलता गया तथा उसमें एक एक कारण पाकर गौत्र एवं जातियां बनती गई, जैसे: १-तप्तभट्ट नामक एक नामांकित पुरुष की सन्तान तप्तभट्ट गौत्र के नाम से कहलाई। बस, आगे चल कर उसका गौत्र ही तप्तभट्ट कहलाने लगा और उसका अपभ्रंश नाम तातेड़ हो गया। - २-आदित्यनाग नामक एक उदार पुरुष ने शत्रुजय का संघ निकाला जिसमें करोड़ द्रव्य व्यय किया जिसकी सन्तान प्रादित्यनाग गौत्र से मशहूर हुई और आगे चल कर चोरड़िया पारख गुलेच्छा वगैरह कई नामों से जातियां बन गई। ३- बापनाग नामक वीर पुरुष की सन्तान बापनाग गौत्र से कहलाने लगी, इसका अपभ्रंश बाफना बहुकूनादि हो गया और जांघड़ा, नाहटा, बैतालादि कई जातियें बन गई। ४-श्रीमाल से आये हुये समूह का नाम श्रीमाल और राज की ओर से उनको एक श्री मिलने से वे श्रीश्रीमाल कहलाये। ५.-भाद्र नाम के प्रसिद्ध पुरुष की सन्तान भाद्रगौत्र के नामसे विख्यात हुई। आगे चल कर समुद्री व्यापार के कारण इनको समदरिया भी कहने लगे। इसमें एक भांडाशाह नामक प्रतापी पुरुष होने से उनकी सन्तान भाण्डावतों के नाम से कही जाने लगी। . .. .. १९९ www.jainenorary.org Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६-कनौज से आने वाले समूह का गौत्र कनौजिया हो गया। ७-बलहा नगर से आने वाले लोग बलहा गौत्र से प्रसिद्ध हुये तथा इनके अन्दर रांका और बांका नाम के दो वीर पुरुष हुये जिनकी सन्मान रांका बांका कहलाई। ८-श्रेष्टिगोत्र-राजा उत्पलदेव की सन्तान ने अनेक ऐसे श्रेष्ठ कार्य कर बतलाये कि उनकी परम्परा में वे श्रेष्ठ कहलाये तथा इनकी सन्तान में एक लालसिंह नाम के प्रसिद्ध पुरुष हुये कि उन्हों को वैद्य की पदवी मिली तब से वे.श्रोष्टि गौत्री वैद्य एवं वैद्य मेहता कहलाये । ९- करणाट देश से आये हुये समूह के लोग कर्णाट कहलाने लगे। १०- कुमटादि का व्यापार करने वालों का कुमट गौत्र बन गया। इत्यादि कारणों से गौत्र एवं जातियें बन गई थीं जिनकी संख्या के लिये निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता है कि उनकी संख्या कितनी थी। और इनकी संख्या हो भी तो नहीं सकती है क्योंकि जब कभी कारण बन गया तब ही जाति बन जाती है । हाँ, जिस दिन महाजन संघ की स्थापना हुई थी उस दिन से ३०३ वर्षों के बाद उपकेशपुर में प्रन्थि-छेदन का उपद्रव हुआ और उसकी शान्ति के लिये वृहद् शान्ति स्नात्र पूजा भणाई गई। उस पूजा में १८ गौत्र वाले स्नात्रिये थे। उनका उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में किया है। उसके आधार पर अठारह गौत्रों के नाम बतलाये जाते हैं, पर यह केवल उपकेशपुर और उसमेंभी पूजा स्नात्रिये बने उनके गौत्र हैं, पर इनके अलावा उपके शपुर में तथा उपके शपुर के अलावा अन्य स्थानों में इन महाजनसंघ रूपी समुद्र में गौत्र रूप कितने रत्न होंगे उनका पता कौन लगा सकता है ? हाँ, आचार्य रत्नप्रभसूरि के स्थापित किये महाजन संघ के १८ गौत्र होने के कारण यह कह दिया जाय कि रत्नप्रभसूरि ने १८ गौत्र स्थापित किये तो इस उपेक्षा से अनुचित भी नहीं है, क्योंकि वे गौत्र उसी महाजनसंघ के थे कि जिसको रत्नप्रभसूरि ने स्थापित किया था। । दूसरे यह १८ गौत्र और इनसे भी अधिक गौत्र एवं जातियाँ बन जाना उन महाजनसंघ की उन्नति एवं वृद्धि का ही द्योतक है। कारण जैसे जैसे महाजनसंघ की वृद्धि होती गई और उसमें जैसे जैसे नामाँकित पुरुष पैदा हो हो कर देश समाज एवं धर्म की सेवा करते गये वैसे वैसे उनकी सन्तानों के साथ उन पुरुषों के नाम चिरस्थायी बनते गये । बस वे ही नाम जातियों एवं गौत्रों के नाम धारण करते गये, जिनकी सँख्या यहां तक बढ़ गई थी कि उनको मनुष्य गिन भी नहीं पाये थे। जब उल्टा चक्र चला और महाजनसंघ की अवनति होने लगी तो उन गौत्र और जातियों की संख्या घटने लगी कि वह अंगुलियों पर गिनने जितनी रह गई, अर्थात् गौत्र एवं जातियों का घटना बढ़ना महाजन संघ की उन्नति अवनति पर ही था। सारांश यह है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने अलग २ गौत्र स्थापन नहीं किये थे। वे एक एक कारण पाकर गौत्र एवं जातिय बन गई थीं। अगर रत्नप्रभसूरि के स्थापित किये महाजन 'घ के गौत्र होने से यदि इनको रत्नप्रभसूरि के स्थापित किये कह दिया जाय तो पूर्वोक्त अपेक्षा से यह अनुचित भी नहीं है । Jain En international Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्ष क्या श्रोसवाल जाति में शूद्र भी शामिल हैं ? कई इतिहास एवं श्रोसवाल जाति की उत्पत्ति से अनभिज्ञ लोग यह भी कह उठते हैं कि ओसवाल जाति में भंगी ढेड़ादि शूद्र जातियां भी शामिल हैं और वे अपनी बात की पुष्टि के लिये दो दलीलें पेश करते हैं। १-आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में आकर जब ओसवाल बनाये थे उसमें राजा प्रजा सब नगर के लोग शामिल थे। अतः यह स्वयं प्रमाणित हो जाता है कि जब सब नागरिक ही जैन बन गये तो उसमें शुद्र भी आ गये, अतः ओसवालों में शूद्र वर्ण भी शामिल है। २-ओसवालों में ढेढ़िया बलाई चंडालिया श्रादि जातिये आज भी विद्यमान हैं, वे स्वयं शूद्रत्व की सबूती दे रही हैं । जो पूर्व अवस्था में ढेढ़ बलाई चंडाल थे ओसवाल बनने के पश्चात् भी उनके वे ही नाम ज्यों के त्यों रह गये, इससे भी पाया जाता है कि ओसवालों में शूद्र वर्ण भी शामिल है। ___उ०-जमाना बहुत सभ्यता का होने पर भी हमारे भारतीय सुपुतो (1) के अज्ञान के पर्दे अभी सर्वथा दूर नहीं हुये जिसका यह एक ज्वलंत उदाहरण है। सब से पहिले तो यह देखना है कि किसी पट्टावलियों अथवा वंशावलियादि ग्रन्थों में यह लिखा है कि उपकेशपुर नगर के निवासी सब के सब लोग जैन हो गये थे ? परन्तु पट्टावलियां वगैरह में ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि उस समय उपकेशपुर में करीब ५००००० मनुष्यों की संख्या थी जिस में सवालक्ष क्षत्रियों ने ही जैनधर्म स्वीकार किया था, इतना ही क्यों पर वाममार्गियों का शूद्र लोगों को अपने पक्षकार बना कर राज-सभा में सूरिजी के साथ शास्त्रार्थ करने का भी उल्लेख मिलता है । इससे भी यही सिद्ध होता है कि जिस समय आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में जैन बनाये उसमें एक भी शूद्र नहीं था तथा सब नगर ही जैन बन गया होता तो जन-संख्या लिखने का क्या कारण था ? यही लिख देते कि नगर निवासी सब के सब जैनी बन गये थे। दूसरे उस समय की परिस्थिति को देखा जाय तो उस समय शुद्रों के लिये किस प्रकार का परहेज रक्खा जाता था कि उन बिचारों को राजपूतों के शामिल मिलाना तो क्या पर यदि कोई ब्राह्मण अपने धर्मशास्त्र को पढ़ता वहां शूद्र की छाया भी पड़ जाय या दृष्टिपात हो जाय तो वह शूद्र बड़ा भारी अपराधी समझा जाता था। अत: इस हालत में क्षत्री एवं ब्राह्मण उन शूद्रों के साथ भोजन कर लें या बेटी का लेनदेन कर लें यह सर्वथा असंभव है । यदि ओसवाल जाति के अन्दर शूद्र लोग शामिल होते तो जैन धर्म के कट्टर विरोधी न जाने श्रोसवालों के लिये कौन सी सृष्टि की रचना कर डालते । राजा वेन, नौनंद एवं चंद्रगुप्त उच्च कुलीन क्षत्रिय होने पर भी जैनधर्म स्वीकार कर लेने के कारण उनको हलकी जाति के पतित करार दे दिया था तो ओसवालों के लिये वह कब चुप रहने वाले थे, पर उन्होंने ऐसा एक भी शब्द उच्चारण नहीं किया कि ओसवालों में शूद्र जाति शामिल है और न पिछले लोगों ने अपने पुराणादि प्रन्थों में एक अक्षर भी इस विषय का लिखा है। अत: ओसवाल जाति पवित्र क्षत्रियवर्णं से बनी है । इस जाति के जन्म-दिन से आज तक कोई भी शूद्र इसमें शामिल नहीं है। २६ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बड़े २ राजा महाराजा और नागरिक लोगों ने ओसवाल जाति को नगरसेठ, - जगत सेठ - पंच, चौधरी, टीकायादि पद अर्पण कर इस जाति की मान-प्रतिष्ठा, इज्जत - आबरू बढ़ाई, एवं सन्मान सत्कार किया है, ऐसा शायद ही किसी दूसरी जाति का बढ़ाया है । अतः इसमें शूद्र शामिल नहीं हैं । यह एक प्रसिद्ध बात है कि भारत में जितना उच्चासन ओसवाल जाति का रहा है शायद ही किसी अन्य जाति का रहा हो । यदि ओसवाल जाति में शूद्र शामिल होते तो ओसवालों के लिये जो पूर्वोक्त सन्मान मिला है वह शायद ही मिलता । इससे भी यही सिद्ध होता है कि ओसवाल जाति में कोई शूद्र शामिल नहीं है पर यह जाति उच्च खानदान के लोगों से ही बनी है । सवाल जाति में यदि शूद्रवर्ण शामिल होता तो ब्राह्मण धर्म के अप्रेश्वर शय्यंभव भट्ट, यशोभद्र, भद्रबाहु, सुहस्ती, सिद्ध सैनदिवाकर, और हरिभद्र जैसे धुरंधर विद्वान् ओसवाल जाति के गुरु बन उन के घरों की भिक्षा लेकर कदापि भोजन नहीं करते । कारण, उनके संस्कार शुरू से ही शुद्रों प्रति घृणा के थे । आद्य शंकराचार्य को यह ज्ञात होता कि जैनियों में एवं ओसवालों में शूद्र वर्ण शामिल है तो वे कई ज्ञान जैनों को जैन धर्म से पतित बना कर अपने उपासक बना उनके यहाँ की भिक्षा कदापि नहीं करते अथवा शंकराचार्य्यं ने श्रन्यान्य कारणों को लेकर जैनधर्मोपासकों की निन्दा की है, उस समय यह कदापि नहीं भूल जाते कि ओसवालों में शूद्रवर्ण भी शामिल है । पर इस विषय में उन्होंने एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया । अतः श्रोसवाल जाति में कोई भी शूद्र शामिल नहीं, पर यह जाति उच्चवर्ण से ही बनी है । यदि ओसवालों में शूद्र जातियें शामिल होतीं तो हमारे पड़ोस में रहने वाले शिव, विष्णु धर्मोपासक महेश्वरी, श्रमवालादि जातियें तथा राजा महाराजा जो भोजनादि व्यवहार ओसवालों के साथ रखते थे या रख रहे हैं, वे कदापि नहीं रखते । इतना ही क्यों पर वे लोग ओसवालों को घृणा की दृष्टि से जरूर देखते, पर ऐसा कहीं पर न तो सुना है और न देखा है । इतना ही क्यों पर सवालों को वे बड़े ही सत्कार की दृष्टि से देखते एवं भोजन व्यवहार करते थे और आज भी कर रहे हैं । इस हालत में यह कह देना कि ओसवालों में शूद्र जाति शामिल है यह केवल अज्ञानता एवं द्वेष बुद्धि का द्योतक नहीं तो और क्या है ? यद्यपि श्राज अंग्रेजों के राजत्वकाल में शूद्रों के साथ इतनी घृणा नहीं रखी जाती है कि जितनी ब्राह्मण युग में रखी जाती थी; फिर भी शूद्रों को शामिल मिलाने से ईसाइयों का एवं आर्य समाजियों का प्रचार कार्य शिथिल पड़ गया अर्थात् आगे नहीं बढ़ सका तब श्रोसवाल जाति विक्रम पूर्व ४०० वर्षों से वि० की पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी तक बढ़ती ही गई। इसका कारण यही था कि ओसवाल जाति उत्तमवर्ण से पैदा हुई थी और इनका आचार व्यवहार एवं विचार जैसा उच्च वर्ण का होना चाहिये वैसा ही था । श्रतः हम निशंक होकर डंके की चोट कह सकते हैं कि ओसवाल जाति में एक भी शूद्र शामिल नहीं है, परन्तु यह जाति शुरु से उच्च खानदान के क्षत्रियों से बनी और बाद में ब्राह्मण वैश्य भी इसमें शामिल हो गये थे । सवालों में ढेढ़िया बलाई चंडालिया चामड़ जातियां हें और वे शूद्रता का २ - दूसरी दलील - परिचय दे रही हैं, इत्यादि । पू० ४०० वर्ष ] यह दलील अपनी गहरी अज्ञानता को ही जाहिर कर रही है। कारण, दलील करने वाले को पहिले तो उन जातियों के इतिहास को देखना चाहिये कि वास्तव में ये नाम उन जातियों के शुरू से थे या बाद में किसी कारण से हुये हैं । यदि केवल नाम पर ही कल्पना की गई हो तो हमारे भाई शिव विष्णु उपासकों में जो Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्षे महेश्वरी जाति है उनमें कई जातियों के ऐसे भी नाम हैं कि मुर्दा, काग, कबु, चंडक. बुब, भूतड़ा, काबरा, सारडादि तो क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि मुदों से मुर्दा, चंडालों से चंडक, भूतों से भूतड़ा, कागों से काग और कबुओं से शामिल कबु आदि जातियाँ बनी हैं, क्या कोई बुद्धिमान इस कल्पना को सत्य मान लेगा ? नहीं, कदापि नहीं । तो फिर प्रोसवाल जाति के लिये ही यह क्यों कहा जाता है कि इसके अन्दर नामानुसार ढेढ़ियादि शूद्र जातियां हैं ? यह तो हम ऊपर सिद्ध कर आये हैं कि ओसवाल जाति पवित्र क्षत्रिय वर्ण से बनी है । हाँ, क्षत्रिय वर्ण के लिये यह कहावत आज भी कही जाती है कि "दारूड़ा पीणा और मारूड़ा गवाणा" अर्थात् मदिरा पान करना और ढोला भरूवणादि के गीत सुनना और नशे की तार में मनमानी मस्करी करनी । अतः राजपूतों में हांसी ठट्टा मस्करी करने का रिवाज बहुत था । आचार्य रत्नप्रभसूरि आदि ने उन क्षत्रियों को मांस मदिरा तो छुड़ा दिया, पर उनके हांसी ठट्टा मस्करी करने का रिवाज था वह ज्यों का त्यों रह गया, जिसके लिए आज भी ओसवालों के गीत सुन लीजिये । वही राजपूतों के गीत गाये जाते हैं। ___ मारवाड़ में कई ऐसे भी ग्राम हैं कि जिन्हों के नाम चंडावल ग्राम, चामड़िया ग्राम, ढेढ़ियाग्राम, सांढिया ग्राम, भूत प्रामादि हैं । इन ग्रामों के नामों पर वहां के रहने वालों के नाम भी वैसे ही पड़ गये । देखिये उदाहरण के तौर परः-- ढेढियेग्राम के पोसवाल कहीं जा रहे थे। रास्ते में सांढिये ग्राम के पोसवाल मिल गये। उन्होंने हाँसी हाँसी में पूछा कि अरे ढेढ़ियो ! आज कहां जा रहे हो ? तो उन्होंने उत्तर दिया कि सांढिया में सांढ मरे पड़े हैं, हम उन सांढों को घीसने को जाते हैं । बस, इस हाँसी से एक का नाम टेढिया और दूसरे का नाम सांढ पड़ गया और आगे चल कर यह नाम उनकी वंश परम्परा के लिये जाति के रूप में परिणित हो गये कि अद्यावधि इन दोनों जातियों के लोग कई ग्रामों में विद्यमान हैं। ____ चंडालिये इसी प्रकार चंडावल के ओसवाल चंडावल को छोड कर अन्य ग्राम में जा बसने से वे चंडालिये कहलाये। और चामडिया ग्राम से चामड़ कहलाये जैसे नागपुर से नागौरी, जालौर से जालोरी, फलोदी से फलोदिया इत्यादि । बलाई- रत्नपुरा के जागीरदार और वहां के रहने वाले बोहराजी लीछमणदासजी के आपस में मनोमालिन्य हो गया । उस समय कानून तो सत्ताधारियों की जबान में ही थे, वह चाइते वैसा ही अन्याय कर सकते थे। अतः बोहराजी अपना धन-माल गाड़ों में डालकर रात्रि समय गुप्त रीति से चल दिये, पर उन्हों को *ॐ संवत् १५६५ वर्षे वैशाष वदि १३ र वौ ढेढीया नामे श्री उएसवंशे सं० पीदा भार्या धरणू पुत्र सं० तोला सुश्रावकेण भा० नीनू पुत्र सा० राण सा लपमण भ्रातः सा० आसा प्रमुख कुटुब सहितेन स्वयौर्थ श्रीअंचलगच्छेश श्रीभावसागरसूरीणामुपदेशेन श्रीअजितनाथ मूलनायके चतुर्विंशति जिनपट्टकारितः प्रतिष्ठितः श्रीसंघेन बा० पू० शिलालेख नं० ५६८ यह ढेढीया गाव सौजत परगने में था और सांडिया चंडावल, चामड़िया नामक ग्राम आज भी सोजत परगने में विद्यमान हैं। इन्हीं गांवों के नाम जैन क्षत्रियों की जातियां बन गई हैं। सातपन २०३ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यह भी भय था कि शायद पीछे से जागीरदार के श्रादमी न आ जावें। अतः उन्होंने अपनी प्रोसवाली पोशाक बदल कर किसान जैसी पोशाक पहिन ली और माल की गाडियां पर कुछ चामड़े डाल दिये । वे जा रहे थे, पीछे जागीरदार को खबर होते ही रात्रि में सवारों को भेजा। उन्होंने बोहराजी की गाड़ियों को पकड़ लिया और पूंछा, तुम कौन हो ? उन्होंने अपना माल बचाने की नीयत से कहा बापजी दूर रहना हम बलाई हैं । बस, सवार वापिस लौट गये और बोहराजो अपना माल बचा कर सकुशल इच्छित स्थान पर पहुँच गये । बाद जागीरदार को मालूम हुआ कि बोहराजी बड़े ही बुद्धिमान एवं मुत्सद्दी निकले कि बलाई बन कर अपना माल बचा लिया। उस दिन से लोग बोहराजी को बलाई-बलाई कहने लगे और उनकी संतान आज भी उसी बलाई नाम से कहलाती हुई सोजत वगैरह में विद्यमान है। इसी प्रकार कई हाँसी मस्करी से, कई व्यापार से, कई अपने नामांकित पिता के नाम से जातियें बन गई थीं जिनके थोड़े से नामों का यहाँ परिचय करवा देना अप्रासंगिक न होगा। १-- सांढ, सीयाल, नाहर, काग; बुगला, गरुड़, कुकट, मिन्नी, चील, गदइया, हंस, मच्छा, बोकडीया, हीरण, बागमार, बकरा, लुंकड़, गजा, घोड़ावत्, धाड़ीवाल, धोखा, मुर्गीपाल, वागचार इत्यादि पशुओं के नाम पर ओसवालों की ज्ञातियों के नाम पड़ गये, पर यह तो कदापि नहीं समझा जावे कि यह ज्ञातियां पशुओं से पैदा हुई हैं परन्तु यह केवल-हांसी ठट्ठा का ही फल है। २-हथुडिया, साचोरा, जालौरी, सिरोहीया, रामसेणा, नागोरी, रामपुरिया, फलोदिया, मेड़तिया, मंडोवरा, जीरावला, गुदोचा, नरवरा, संडेरा, रत्नपुरा, रूणिवाल, हरसोरा, भोपाला, कुचेरिया, बोरूदिया, भिन्नमाला, चीतोड़ा, भटनेरा, संभरिया, पाटणी, खीवसरा, चामड़, ढेडिया, चंडालिया, पूंगलिया, श्रीमाल, इत्यादि ज्ञातियां निवासनगर के नाम से ओलखाई जाती हैं। ३-भंडारी, कोठारी, खजानची, कामदार, पोतदार, चौधरी पटवारी, सेठ, मेहता कानूनुंगा, शूरवा, रणधीरा, बोहरा, दफ्तरी इत्यादि जातियां राजाओं के काम करने से क्रमशः उपनाम पड़ गये हैं । ४ -घीया, तेलिया, केसरिया, कपूरिया, बजाज, गुगलिया, लूणिया, पटवा, नालेरिया, सोनी, चामड़, गान्धी, जड़िया, बोहरा, गुदिया, मणियार, मीनारा, सराफ, मवरी, पितलिया, भंडोलिया, धूप यादि ज्ञातियों के नाम व्यापार से पड़े हैं। ५ - कोटेचा, डांगरेचा, ब्रह्मचा, वागरेचा, कांगरेचा, सालेचा, प्रामेचा, पावेचा, पालरेचा, संखलेचा, नांदेचा, मादरेचा, गुगलेचा, गुदेचा, केडेचा. सुंघेचा इत्यादि ज्ञातियों के कई-कई कारणों से एवं उपनाम दक्षिण की तरफ गये हुये ओसवालों के हैं। ६-मालावत्, चम्पावत, पातावत् , सिंहावत् श्रादि तथा सेखाणि, लालाणि, धमाणि, तेजाणि, दुद्धाणि, सीपाणि, वैगाणि, आसांणि, जनाणि,निमाणि इत्यादि थलीप्रान्त व गोड़वाड़ प्रान्त मेंरहने वालों के पिता के नाम पर ज्ञातियों के नाम पड़ गये हैं। इत्यादि अनेक कारणों से ओसवालों की शाखा-प्रतिशाखारूप सैंकड़ों नहीं पर हजारों जातियां बन गई, जो ओसवालों में १४४४ गोत्र कहे जाते हैं, पर अन्तिम “डोसी और घणाइ होसी" इस पुरानी कहावत के बाद भी एकेक गौत्र से अनेक जातियां प्रसिद्धि में आई थीं । यहाँ पर यह कहना भी अतिशयोक्ति Jain Education national Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्षे न होगा कि श्रोसवाल ज्ञाति उस जमाने में शाखाप्रतिशाखा फलफूल से वटवृक्ष की माफिक फली फूली थी। यह उस समय के इस जाति के अभ्युदय को बतला रही है, क्योंकि उस समय ओसवाल जाति में सम्प था, संगठन था, जाति भाइयों के प्रति प्रेम, स्नेह, वात्सल्यता और सहानुभूति के भाव थे, एवं ओसवालों के दिन चढ़ते थे । यही कारण था कि एक एक गोत्र से अनेक शाखाप्रतिशास्त्रा निकल कर वटवृक्ष की भांति भारत के सब प्रान्तों में प्रसर गई थीं। ____संसार में उदय और अस्त का चक्र हमेशा चलता ही रहता है । जब उदय के कारण अस्त के कारणों का रूप धारण कर लेते हैं तब उदय की रुकावट होकर अस्त का चक्र चल पड़ता है। श्रोसवाल जाति का भी यही हाल हुआ कि इसमें सम्प के स्थान कुसम्प, संगठन के स्थान फूट, प्रेम के स्थान द्वष स्नेह के स्थान विद्रोह, वात्सल्यता के स्थान एक दूसरे को नीचा गिराना, सहानुभूति के स्थान अपने भाइयों को तकलीफ पहुँचा कर जड़मूल से उखेड़ फेंकने की नीति को स्वीकार की। बस, उस दिन से ही ओसवालों के दिन बदल गये । जहां हजारों घर थे वहां नाम मात्र को ओसवाल रह गये और कई हजारों की बस्ती वाले ग्राम तो ऊजड़ से हो गये । देखिये नमूना १-मेड़तारोड फलौदी में कई ५००० घर ओसवालों के थे, आज एक पार्श्वनाथ का मंदिर रहा है। २-श्रोसियों में लाखों ओसवाल बसते थे, श्राज एक महावीर मंदिर खड़ा है। ३-रानकपुर में ३५०० घर ओसवाल पोरवालों के थे, आज एक आदीश्वर बाबा ही विराजमान हैं ४-पुच्छाला महावीर के पास हजारों घरों की बसती थी, आज एक महावीर का मंदिर है । ५-जैतारन के पास एक रत्नपुरा ग्राम था, जहां के ओसवालों के नाम वंशावलियों में लिख मिलते हैं, आज वहां किसान लोग खेत रवड़ते हैं। ६-मंडोवर में जैनों की काफी आबादी थी, आज जैनों के तीन मंदिर ही शेष रह गये हैं। ७- नागौर में एक समय जैनों के ८००० घर कहे जाते हैं। केवल एक चोरडिया जाति के १००० घर थे, बाज मात्र ओसवालों के ४०० घर रह गये हैं। ८---मेड़ता में ३५०० घर थे, आज करीब १०० पा रहे हैं। ९-रुणावती (रूण) में ७५० घर तो केवल एक लोढ़ों के ही थे, आज ३५ घर आ रहे हैं। यदि इस प्रकार लिखा जाय तो एक बड़ा ग्रन्थ बन जाता है और इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात भी नहीं है । क्यों कि जिसके घर में पूर्वोक्त फूटादि के कारण पैदा होते हों वे कब जीने काबिल रहते हैं। प्रसंगोपात श्रोसवाल जाति के उदय अस्त का थोड़ा सा दिग्दर्शन करवा कर अब चंडालियादि जातियों की उत्पत्ति के विषय में थोड़ा सा हाल लिख दूगा कि यह जातियां किस वंश वणं से उत्पन्न हुई हैं जैसे ---- १-चंडालिया-इन का मूल गौत्र लुंग या लुंगिया है जो लुंगों के बड़े भारी व्यापारी थे। इनके प्रतिबोधक श्राचार्य रत्नप्रभसूरि ही थे। लुंगिया गोत्र वालों को इनकी कुलदेवी ने प्रसन्न होकर अखूट द्रव्य दिया था और उस द्रव्य को उन्होंने जैन धर्म के अभ्युदय के निमित्त खुले दिल से व्यय भी किया था। कई वार संघ निकाल कर साधर्मी भाइयों को वस्त्राभूषण और सोनामुहरों की पहिरामणि दी थी। कई स्थानों में जैन मन्दिर भी बनाये थे और दुष्कालों में मनुष्य और पशुओं को अन्न एवं घास देकर उनके प्राण भी बचाये थे। चंडालिया प्राम के कारण इन गोत्र वालों का नाम चंडालिया हुआ है । ___wwww.ja२०५० Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्षे । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २- बलाई- वि. सं. ९१३ में आचार्य पूर्णचंद्रसूरि आबू के आस-पास विहार कर रहे थे । सरसाई ग्राम में सूरिजी का पधारना हुआ । वहाँ के अधिपति परमार राव दलपतादि सूरिजी का व्याख्यान सुनने को आये । सूरिजी ने अहिंसा के विषय पर खूब जोर एवं युक्ति प्रमाण द्वारा उपदेश दिया और साथ में हिंसा और मांसाहारियों के लिये सिवाय नरक के कौन गति हो सकती है और नरक के दुःखों का भी इस प्रकार वर्णन किया कि उपस्थित लोगों का हृदय एकदम कम्प उठा और वे जैनधर्म स्वीकार कर अहिंसा के परमोपासक बन गये। जैनधर्म स्वीकार करने के बाद उनके पास बहुत द्रव्य जमा हो गया, जिससे उन्होंने बोहरगत का काम किया। अत: ये बोहराजी कहलाये। उन लोगों की सन्तान की भी खूब वृद्धि हुई। उन्हीं के अन्दर से विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में बोहराजी लिच्छमणदासजी रत्नपुरा में बसते थे जिसके विषय हम ऊपर लिख आये हैं कि बोहराजी से बलाई कहलाये। __ ३-ढेडिया यह मूल परमार जात के राजपूत थे, वि.सं. ८८९ में आचार्य सोमप्रभसूरि ने धर्मापदेश देकर जैन बनाये जिसका उदाहरण ऊपर लिखा जा चुका है कि केवल हंसी-मस्करी से ही इनका नाम ढेढ़िया पड़ गया था। इत्यादि ओसवाल समाज की तमाम जातियाँ प्रायः क्षत्रीवर्ण से ही बनी हैं, जो इस ग्रन्थ के पढ़ने से आप भली भांति जान सकोगे । इस हालत में बिना सोचे समझे एक पवित्र जाति पर क्षुद्रता का आक्षेप कर देना यह कितना अन्याय और द्वष-बुद्धि का कारण है। इस प्रकार के आक्षेप यह पहिले पहल ही नहीं हैं पर इसके पूर्व फुलेगनिवासी छोटूलाल शर्मा ने अपनी 'जाति अन्वेषण' नामक पुस्तक में भी मनगढन्त कल्पना द्वारा कई प्रकार के आक्षेप किये थे। पर जब पीपाड़ के श्रीसंघ ने उन्हें नोटिस द्वारा सूचित किया कि आपने जो अपनी पुस्तक में आक्षेप ओसवाल समाज पर किया है इसके लिये आप क्या साबूती दे सकते हैं ? वरना तुम्हारे पर कानूनी कार्यवाही क्यों न की जाय ? इसके उत्तर में शर्माजी ने क्षमायाचना करते हुये लिखा कि मैंने जैसा सुना, वैसा लिख दिया है। यदि मेरे लिखने से आपकी जाति का अपमान हुआ हो तो मैं माफी चाहता हूँ और आप जो सत्य हिस्ट्री भेज देंगे तो द्वितीय आवृत्ति में मैं अपनी भूल सुधार लँगा इत्यादि । ___ यह तो हुई ओसवाल जाति के विषय की बात, अब रही धर्म विषय की बात । धर्म कोई भी जाति एवं वर्णवाला पालन कर सकता है क्योंकि धर्म का सम्बन्ध जाति एवं वर्ण के साथ नहीं, पर आत्मा के साथ है, जैसे शैव और वैष्णव धर्म का पालन करने वाले क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य हैं वैसे शूद्र भी हैं, पर धर्म पालन करने वालों का न्याति-व्यवहार एक हो यह नियम नहीं है। इसी प्रकार जैन-धर्म को भी समझ लीजिये। यदि कोई शुद्र जैनधर्म पालन करना चाहे तो उसके लिये मनाही भी नहीं है। क्योंकि कहा है किःशूद्रोऽपि शीलसम्पन्नो, गुणवान् ब्राह्मणे भवेत् । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूद्रापत्य समाभवेत् ।। शास्त्रकारों ने वर्ण का आधार कर्म पर रख छोड़ा है। कारण, जिसका कर्म अच्छा है उसका परिणाम अच्छा है । जिसका परिणाम अच्छा है वह धर्म का पात्र है। इत्यादि इन प्रमाणों द्वारा समाधान से हमारे भ्रमवादियों की शंका निर्मूल हो जाती है और निश्चय हो जायगा कि पवित्र श्रोसवाल ज्ञाति २४०० वर्ष पूर्व पवित्र क्षत्रिय वर्ण से उत्पन्न हुई। Jain International Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पृ० ४०० वर्ष श्रोसवाल जाति का आदर्श श्रोसवाल जाति के प्रादुर्भाव का मूलस्थान उपकेशपुर है । तदनुसार इस जाति का प्राचीन प्रचलित नाम उपकेशवंश है । उपकेशपुर का अपभ्रंश होकर श्रोसियां ( नगर ) शब्द बना । तदनुसार उपकेशवंश शब्द का भी रूपान्तर होकर ओसियां नगर के आधार पर ओसवंश शब्द प्रसिद्ध हुआ। अन्यान्य नगरों में जाकर बसने से इसी वंश के लोग "ओसवाल" नाम से सम्मानित होने लगे। उपकेशवंश के प्रादुर्भाव का समय वि० पूर्व ४०० वर्ष है। आचार्य श्रीरनप्रभसूरि ने वीरात् ७० वर्षे उपकेशपुर में इस वंश की स्थापना की थी। आचार्य श्री ने हिंसामय श्राचार वाले राजपूतों की शुद्धि कर के महाजनसंघ रूपी सुदृढ़ संस्था की स्थापना की। यही संघ भारतीय जातियों के इतिहास में मानमर्यादा, वैभव, दानशीलता एवं उदारता इत्यादि की दृष्टि से अनुपम स्थान रखता है। हमारे इस महाजनसंघ अथवा ओसवाल जाति के रीति-रिवाज इत्यादि इतने उत्तम हैं कि इस भव और पर-भव में कल्याणकारी हैं । पाठकों की जानकारी के निमित्त यहां संक्षिप्त परिचय देना ही इस लेख का मुख्य उदेश्य है । १-ओसवाल ज्ञाति-राजपूतों से बनी है । इसमें प्रथम तो सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी क्षत्रिय सम्मिलित हुए - पश्चात् परमार, चौहान प्रतिहार-सोलंकी, राठौड़, शिशोदिया, कच्छवाह एवं खीची इत्यादि राजपूतों को भी प्रतिबोध दे एवं जैनधर्म में दीक्षित कर पूर्व के ओसवालों में सम्मिलित कर दिए। इस विषय में अगर आप किसी श्रोसवाल से प्रश्न करेंगे कि आपका नख क्या है ? उत्तर में यही कहेंगे कि हमारा नख परमार चौहान या अन्य जिन राजपूतों से वे बने होंगे वही बताएंगे । राजपूतों के अतिरिक्त ब्राह्मण एवं वैश्यों को भी जैनाचार्यों ने जैन बना कर ओसवाल जाति में सम्मिलित कर लिए। २-ओसवाल ज्ञाति का स्थान-इसका मृलोत्पत्ति स्थान उपकेशपुर था, जिसको वर्तमान में ओसियां नगरी कहते हैं । पश्चात विभिन्न स्थानों से भी ओसवाल बनाते गए वैसे ही यह जाति भारत के सब प्रदेशों में फैन ती भी गई जैसे मारवाड़, मेवाड़, मालवा, दंढाड़, हाड़ौती संयुक्तप्रांत, मध्यप्रांत, पंजाब, पूर्व, आसाम, दक्षिण, कर्नाटक, तैलंग, महाराष्ट्रीय, गुजरात, लाट, सौराष्ट्र, कच्छ एवं सिंध इत्यादिप्रायः भारत में ऐसा कोई नगर या प्रांत नहीं कि जहां पोसवालों की बस्ती न हो । ३.--ओसवालों के धर्म गुरु-जैनाचार्य जो कनक कामिनी आदि जगत की सब उपाधियों से बिल्कुल अलग रहते हैं और पंच महाव्रत पालते हैं, परम निर्वृति भाव से मोक्षमार्ग का साधन करते हैं । उन मुनिवर्ग को श्रोसवाल अपने धर्म-गुरु मानते हैं और उन्हों पर वे इतना भक्ति-भाव रखते हैं कि एकेक पदाधिकार और नगर-प्रवेश के महोत्सव में हजारों लाखों रुपये खरच कर डालते हैं। ऐसे आचार्य महाराज केवल ओसवालों को ही नहीं, पर आम जनता को उपदेश दे उनका जीवन नीतिमय, धर्ममय, परोपकारमय,बनाकर इस लोक और परलोक में सुख के अधिकारी बना देते हैं । श्रोसवालों के दूसरे कुलगुरु होते हैं वे ओसवालों के घरों में सोलह-संस्कार वगैरह कार्य कराया करते हैं और ओसवालों की वंशावलियां भी लिखा करते हैं । ओसवाल अपने कुल गुरुत्रों का भी यथा उचित सम्मान किया करते हैं। २०७ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू०४०० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ४-श्रोसवालों का धर्म-श्रोसवालों का धर्म जैनधर्म है । बचपन से ही वे अपने लड़कों को ऐसी शिक्षा देते हैं कि जिससे उनके संस्कार जैन धर्म पर दृढ़ जम जाते हैं वे लोग अपने जैन मन्दिर मूर्तियों की त्रिकाल प्रार्थना, पूजा, पाठ, सेवा, भक्ति, उपासना करना अपना धर्म समझते हैं और जैनमुनियों की सेवा, उपासना व व्याख्यानादि उपदेश श्रवण कर आत्मज्ञान, अध्यात्मज्ञान, तत्वज्ञान और ऐतिहासिक ज्ञान प्राप्त करते हैं और अपने सत्यज्ञान द्वारा अन्य लोगों को ही नहीं, पर गजा महाराजाओं के चित्त को इस पवित्र जैन धर्म की ओर आकर्षित करना अपना परम कर्त्तव्य समझते हैं । ५-ओसवालों के धर्म-कार्य-जैन मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टा करवानी, पुराणे मन्दिरों का जीणोंद्धार करवाना, जैन तीर्थों की यात्रा के लिये बड़े बड़े संघ निकालना, स्वामिवात्सल्य करना, अर्थात् स्वधर्मी भाईयों को हर प्रकार से मदद करना, शासन की प्रभावना अर्थात् किसी प्रकार से अपने धर्म का प्रभाव जनता पर डालना, स्थान स्थान पर ज्ञान-भण्डारों की स्थापना करना, अहिंसा परमोधर्मः का प्रचार विश्वव्यापि कर देना इत्यादि धर्मकार्य एवं परोपकार करना ओसवाल अपना परम कर्त्तव्य समझते हैं। ६-ओसवालों की परोपकारिता -दानशाला (शत्रुकार), अनाथालय, औषधालय, विद्यालय, मुसाफिरखाना. कुंवे, तालाब, बावड़ियां, सदाव्रत, पानी की प्याऊ, दुष्कालादि में अन्नदानादि से दीन दुःखियों का उद्धार करना, गौशाला पांजरापोलादि अनेक सुकृत कार्य कर देशवासी भाइयों की सेवा में हजारों लाखों क्रोड़ों द्रव्य खरच करना ओसवाल लोग अपना परम कर्तव्य समझते हैं ।। ७-ओसवालों की पंचायतियों- ओसवालों के न्याति जाति पंचायतियों का संगठन इतना उत्तम रीति से रचा गया है कि ग्राम में झगड़ा-टंटा-फिसाद व लेन-देन सम्बन्धी किसी प्रकार से वैमनस्य हो जाय तो उनको अदालतों का मुंह देखने की आवश्यकता नहीं रहती है, कारण भोसवाल पंच उन वादी प्रति वादियों को इस उत्तम रीति से घर के घर में समझा देते हैं कि फिर अपील तक का अवकाश ही नहीं रहता है। इतना ही नहीं पर ओसवाल पंच प्राम-सम्बन्धी अनेक कार्य करने में अपना समय व द्रव्य खरच कर स्वयं कष्ट उठा लेते हैं। पर ग्राम वालों को गरम हवा तक नहीं पहुँचने देते हैं. इसलिये ही पंच परमेश्वर और मां-बाप कहलाते हैं। ८-ओसवालों के पर्व दिन-कार्तिकवद १५ महावीर-निर्वाण, कार्तिक शुक्ला १ गौतम-केवल महोत्सव, शुक्ला ५ ज्ञान पंचमी पूजा, शुद ८ से १५ तक अठाई महोत्सव; मार्गशीर्ष शुद ११ मौन-एकादशी, पोष वद १० पार्श्वनाथ जन्म-कल्याणक, माघ वद १२ मेस्त्रयोदशी, फाल्गुन शुद ८ से १५ तक फाल्गुन अठाइ महोत्सव, चैत्र शुद ७ से पूर्णिमा तक आंबिल तपश्चर्या के साथ अठाई महोत्सव, वैशाख में अक्षय तृतीया, ज्येष्ठ मास में शान्तिनाथकल्याणक, आषाढ़ मास शुद ८ से पुनम तक अठाई महोत्सव, श्रावण शुद्ध ५ को नेमिनाथ भगवान का जन्मदिन, भाद्रपद में पर्वाधिराज पर्युषण पर्व ८ दिन महोत्सव, आश्विन मास में श्रांबिल की तपश्चर्या के साथ अठा महोत्सव । इनके सिवाय जिनल्याणक तिथि, प्रतिष्ठा दिन श्रादि जैनों में पर्व माना गया है। इन पवित्र दिनों में धर्म-कृत्य विशेष किया जाता है, पाप कर्म का त्याग कर आत्मभाव में रमणता करना ओसवाल लोग अपना कर्तव्य समझते हैं। Jain Edoenternational Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [वि० पू० ४०० वर्ष ९-ओसवालों का सम्मेलन-दीर्घदर्शी श्रोसवालों ने अपने सम्मेलन के लिये प्रत्येक प्रान्त में एकेक तीर्थों पर ऐसे मेले मुकर्रर कर दिये हैं कि वर्ष भर में एक दो सम्मेलन तो सहज ही में हो जाता है। वे भगवान की भक्ति के साथ अपने न्याति जाति सामाजिक और धार्मिक विषय में किसी प्रकार के नये नियम बनाना और पुराणे नियमों का संशोधन करना, खराब रूढियों को निकालना सदाचार का प्रचार करना इत्यादि समयानुसार कार्य कर सकते हैं कारण वहां सब प्रान्त के लोग एकत्र होने से न तो किसी के घर पर वह कार्य होता है न किसी को बुलाने के लिये खरचा उठाने का जोर पड़ता है और धर्मस्थान पर प्रेम एक्यता से किये हुय कार्य को चलाने में कोशिश भी नहीं करनी पड़ती है। १०-ओसवालों का आचार व्यवहार-जुवा, चोरी, शिकार, मांस, मदिरा, वैश्या, परनारी एवं सात कु-यसन और विश्वासघात धोखेबाजी, राजद्रोह, देशद्रोह, समाजद्रोह आदि लोक निंदनीय कार्य सर्वथा त्याज्य हैं और वासीअन्न ( भोजन ) द्विदल, बावीशअभक्ष, अनछाना पाणी, रात्रीभोजन, श्रादि २ जीवहिंसा का कारण और शरीर में बीमारी बढ़ाने वाले पदार्थ ओसवालों के लिये सर्वथा अभक्ष हैं। सुवा सुतकवाले घरों में अन्नजल नहीं लेना ऋतु-धम्म चार दिन बराबर टालना सदैव स्नान मज्जन से शरीर व वस्त्रशुद्धि कर पूजा पाठ आदि अपना इष्ट स्मरण करने के बाद स्त्री व पुरुष अपने गृह कार्य में प्रवृतमान होते हैं इतना ही नहीं पर यज्ञोपवीत लेना भी प्रोसवालों का कर्तव्य है ओसवाल लोग सदैव थोड़ा बहुत पुन्य अपने घरों से निकालते हैं जैसे अभ्यागतों को अन्नजल, गायों को घास, कुत्तों को रोटी, भिक्षुकों को भोजन यह ओसवालों की दिनचर्या है। ११-श्रोसवालों की वीरता-भारतीय अन्योन्य ज्ञातियों से श्रोसवालों की वीरता चढ़बढ़ के है। कारण यह ज्ञाति मूल गजपूतों से बनी है श्रोसवालों में ऐसे ऐसे शूरवीर हुये हैं कि सेंकड़ों जगह संग्राम में प्रतिपक्षी व अन्यायीओं को पराजय कर अपनी विजय पताका भूमण्डल में फहराते हुए देश का रक्षण किया जिनवीरों की वीरता का उज्ज्वल जीवन इतिहास के पृष्ठों पर आज भी सुवर्ण अक्षरों से अंकित है । १२-ओसवालों का पदाधिकार-दीवान, मंत्री, महामंत्री, सेनापति, हाकिम, तहसीलदार, जजजगतसेठ, नगरसेठ, पंच, चौधरी, पटवारी, कामदार, खजानची, कोठारी, बोहराजी, आदि ओसवालों को अपनी योग्यता पर पदाधिकार मिला एवं मिल जाता है तदनुसार वे जहाँ तहाँ नागरिकों का भला भी किया करते हैं और नागरिकों की तरफ से ही नहीं पर राजा महाराजाओं की तरफ से बड़ा भारी मान मरतबा भी मिलता है यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगा कि उस समय राजदरबार में ओसवाल चाहत वह हो जनता का भला कर गुजरते थे । अर्थात इस पदाधिकार के जरिये ओसवालों ने दुनिया का बहुत भला किया देश और राजाओं की कीमती सेवा करके अच्छी तरक्की दी थी। १३-ओसवालों की मानमर्यादा-रीतिरिवाज इज्जत वगैरह अन्योन्य ज्ञातियों से खूब चढ़बढ़ के हैं कारण ओसवालों की शौर्यता वोरता, धैर्यता, गंभीर्यता, नीतिकुशलता, रणकुशलता, सन्धिकुशलता, साम, दाम, दंड, भेद प्रतिज्ञापालन, देशसेवा, राजपेवा समाजसेवा, धर्मसेवा और चतुर्यादि अनेक सदगुणों से आकर्षित हो राजा और प्रजा ओसवाल लोगों को इज्जत आदर सत्कार-मानमहत्व देना अपना खास कर्त्तव्य समझते हैं। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १४-श्रोसवालों का पेशा (धंधा )-जिन राजामहाराजाओं को मिथ्याचरण छुड़ा के ओसवाल बनाये गये थे । वह चिरकाल (कई पीढ़ियों ) तक राज हो करते रहे और कितनेक लोगों ने राजकर्मचारी बन राजतंत्र चलाये और कितनेक लोग व्यापार करने लगे उनके लिये यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि व्यापार में जितनी हिम्मत महाजनों की है इतनी शायद ही अन्य ज्ञाति की होगी। व्यापार करने का तात्पर्य केवल पैसा पैदा करने का ही नहीं था, किन्तु व्यापार देशोन्नति का एक अंग समझा जाता है। जिस देश में व्यापार की उन्नति है वह देश सदैव के लिए सुखी और समृद्धशाली रहता है, इसीलिये देशसेवा में श्रोसवाल अग्रेसर माने जाते हैं और प्रोसवालों ने खेती को भी व्यापार का एक अंग माना है और जो साधारण गाँव में रहते हैं वे ओसवाल व्यापार के साथ खेती भी कराया करते हैं । इसमें उन लोगों ने मुख्य दो बातें समम रक्खी हैं; १-पुरुषार्थी जीवन २-गृह जीवन में सुख शान्ति । यही कारण है कि वे खेती से अपना तमाम खर्चा निकाल सकते हैं। इतना ही क्यों पर वे अनेक गौ आदि का रक्षण भी करते हैं, जिससे अपने शरीर का स्वास्थ्य भी अच्छा रहे । दूसरे व्यापार में जो द्रव्य पैदा करते हैं वह धर्मकार्य में खुशी से लगा देते हैं। १५-ओसवालों की बोहरगत-श्रोपवाल लोग बहुत धनाढ्य थे। वे राजा महाराजा ठाकुरों जमीनदारों और किसान लोगों को द्रव्य कर्ज में दिया करते हैं । इसमें स्वार्थ के साथ देशसेवा भी रही हुई है कारण देश आबादी का अाधार किसानों पर है किसानों को जैसे जैसे साधन सामग्री अधिक मिलती है वैसे वैसे पैदावारी अधिक करते हैं। जिस देश में खाद्यपदार्थादि की अधिक पैदावारी है, वहां राजा प्रजा सब सुखी और उन्नत रहते हैं। १६-ओसवालों के व्यापारक्षेत्र की विशालता-भारतीय देशों के सिवाय सामुद्रिक जहाजों द्वारा अन्य देशों में भी ओसवाल व्यापारियों का व्यापार था, ज्ञाति भाइयों के सिवाय अपने देश-भाइयों को भी व्यापार में उन्नत बनाने की कोशिश करते हैं जो लोग देश में व्यापार करते हैं वह भी बड़े ही थोकबन्द व्यापार करते हैं कि एक बड़े व्यापारी के पीछे सैकड़ों लोग अपना गुजारा अच्छी तरह से कर सकें। ओसवालों को कुलदेवी का वरदान है कि वह व्यापार में बहुत द्रव्य पैदा करे। "उपकेश बहुलं द्रव्यं"। ओसवाल जैसे न्यायपूर्वक द्रव्योपार्जन करते हैं वैसे ही वह शुभ कार्यों में भी लाखों क्रोडों द्रव्य खरच के अपने जीवन को सफल बनाते हैं। १७-ओसवालों के ब्याह लग्न-जो राजपूतों से ओसवाल बनाये गये थे उनकी लग्न-शादी कितनेक अरसे तक तो राजपूतों के साथ ही होती रही। बाद ओसवाल ज्ञाति का एक बड़ा भारी जत्था बन गया, तब से उनकी लग्न शादी जैनधर्भ पालने वाली ज्ञातियों में होने लगी, अतः श्रोसवालों का लग्नक्षेत्र विशाल था। और इस ज्ञाति के पूर्वजों ने ऐसे उत्तम रीतरिवाज बाँध रखे हैं कि जिसमें धनाढ्य और साधारण एवं सब का निर्वाह अच्छी तरह से होता रहे। इस ज्ञाति में धर्म-विवाह बड़ी इज्जत के साथ होते हैं । कन्या का पैसा लेना तो दूर रहा पर कन्या के वर के वहाँ का पानी पीना भी पाप समझते हैं। इसी कारण से इस ज्ञाति की बड़ी भारी इज्जत मानी जाती है और विस्तार से फली-फूली है। १८-ओसवालों की गृहदेवियां-ओसवालों के घरों में महिलाओं की बड़ी भारी इज्जत मान-मर्यादा काण-कायदा है । बाहर जाने के समय दो चार इतर जाति की औरतें साथ रहती हैं पानी भरना, अनाज Jain Edm onternational wow.jainelibrary.org Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष पीसना, गोबर उठाना वगैरह हलके कार्य वह नहीं करती हैं वैसे कार्य उन्होंके घरों में प्रायः मजूर ही किया करते हैं । ओसवालों की स्त्रियाँ प्रायः लिखी पढ़ी होती हैं । हुन्नर उद्योग में वह होशियार होती हैं। सलमासितारा व जरी के कसीदे वग़ैरह आवश्यक्ता माफिक गृहकार्य में वह दूसरों की अपेक्षा वगैर सब कार्य स्वयं कर लेती हैं | जैसे वह गृहकार्य में चतुर होती हैं वैसे धर्मकार्य में भी बड़ी दक्ष हुआ करती हैं। हाँ कई लोग छोटे ग्रामों में रहते हैं वह अन्य लोगों के संसर्ग के कारण पराधीन न रह कर सब कार्य स्वयं कर लेते हैं। 1 १९ - सवालों की पोशाक - श्रोसवालों की पोशाक प्रायः मारवाड़ी है । वे श्रेष्ठ कपड़ों के साथ जेवर पहनना अधिक पसन्द करते हैं । मुसाफिरी के समय तलवारादि शस्त्र भी रखा करते हैं । श्रसवालों के घरों में औरतों की पोशाक जितनी सुन्दर व शोभनीय होती है उतनी ही अदबमय है। चाहे ओसवाल लोग विदेश में चले जावें परन्तु उनकी पोशाक तो अपने देश की ही रहेगी, परन्तु जो चिरकाल से विदेशवासी हो गये हैं उन्हों की पोशाक देशानुसार बदल भी गई है, पर वह कभी देश में आते हैं तब तो उनको अपने देश की पोशाकादि धारण करनी पड़ती है २०- ओसवालों की भाषा - श्रोसवालों की मूल भाषा मारवाड़ी है पर वे प्राय: संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, मराठी, कनाडी, तैलंगी, बंगाली आदि बहुत भाषा-भाषी हुआ करते हैं। यह कहना भी अतिशय युक्ति न होगा कि जितनी भाषाओं का बोध ओसवालों को है उतना शायद ही किसी अन्य ज्ञाति को होगा । श्रीसवालों में उच्च भाषा व उच्च शब्दों का प्रयोग विशेष रूप में होता है । पत्रों की लिखावट में भी ऐसे प्रिय और उच्च शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिससे प्रेम-ऐक्यता का संचार स्वभाव से ही हो जाता है । श्रोसवालों को जैसे भाषा का विशाल ज्ञान है वैसे लिपियों का ज्ञान भी विस्तृत है । वह हरेक लिपि को इशारा मात्र से पढ़ सकते हैं। इसका कारण ओसवालों का व्यापार हरेक देशवासियों के साथ होना ही है । २९- ओसवालों का महत्व - श्रोसवाल ज्ञाति श्रन्यान्य ज्ञातियों से चढ़ बढ़ के होने पर भी अन्य अन्य ज्ञातियों के साथ प्रेम ऐक्यता के साथ उनकी उन्नति में आप सहायक बन मदद करते हैं। इतना ही नहीं बल्कि ग्राम-सम्बन्धी कोई भी कार्य हो, उसमें आप कितने ही कष्ट व नुकसान उठा लेते हैं, राज दरबार में जाने का काम पड़ने पर आप अपना काम छोड़ वहां जावें, जवाब सवाल करें, पैसा खरच करें, पर ग्रामवासियों तक गरम हवा तक नहीं आने देवे इस परोपकार-वृत्ति से ही दुनिया में श्रोसवालों का मान - महत्व मशहूर है । २२ - सवालों के घरों में गौधन का पालन — सवालों के घरों में गौधन का पालन विस्तृत संख्या में होता है। ऐसा शायद ही घर होगा कि जिस घर में गौमाता का पालन न होता हो ? सन्तान वृद्धि और वीरता का मुख्य कारण कहा जाय तो गौ का पालन करना ही है। दूसरी बात यह भी है कि ओसवाल के घरों में गौ का पालन इतनी उत्तमरीति से होता है कि आप कष्ट सहन कर लेने पर भी गौ को तकलीफ नहीं होने देते । इसी कारण से दूसरों से पंच दश रुपये ओसवालों से कम लिये जाते हैं। किसानों को विश्वास है कि ओसवालों के घरों में गौधन बहुत सुखी रहते हैं । उन गौओं का लाभ केवल ओसवालों को ही नहीं, पर दूध दही छाछ वगैरह का बहुत से लोगों को भी लाभ मिलता है, यह उनकी उदारता का परिचय है । २११ www.jamelibrary.org Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २३-श्रोसवालों के याचक-यों तो जितने याचक हैं उनकी याचना पर श्रोसवाल यथाशक्ति देते ही हैं, परन्तु एक संवग जाति ओसवालों के लिये मुकर्रर है और वे सेवग सिवाय ओसवालों के किसी से याचना नहीं करते, फिर भी ओसवालों की कृपा से वे अन्य याचकों की अपेक्षा बढ़-चढ़ के रहते हैं । श्रोसवालों के न्याति-जाति, पंच पंचायती शादी व संघ-सम्बन्धी हरेक काम काज अर्थात् एक घर सम्बन्धी व समुदाय. सम्बन्धी कोई कार्य हो, उनके लिये सेवग लोग हैं, वह श्रोसवालों के हरेक कार्य करने को व टैल-बन्दगी में हाजर रहते हैं और जैनमन्दिर उपासराओं का काजा-कचरा निकालना, बरतन चिरागबत्ती घीस के तय्यार रखना, इत्यादि और उन सेवग जाति के निर्वाह के लिये ओसवालों ने प्रतिदिन प्रत्येक घर से एकेक रोटी देणा, और लग्न-शादी में त्याग या इनाम वगैरह के रुपये देना कि जिससे उन सेवगों का सुखपूर्वक निर्वाह हो जाय और सेवगों ने भी ऐसी प्रतिज्ञा ले रखी है कि हम श्रोसवालों के सिवाय दूसरी ज्ञाति से याचना नहीं करेंगे। २४-श्रोसवालों की सर्व जीवों के प्रति मैत्री की भावना-पर्युषणादि पर्व-दिनों में ओसवाल स्वयं पापकर्म को त्याग करते हैं और दूसरी ज्ञातियों को उपदेश द्वारा व द्रव्य द्वारा उनका पापकार्य छुड़ाते हैं इतना नहीं पर इस विषय में बड़े बड़े राजामहाराजा और बादशाहों के चित्त को आकर्षित कर जीव दया व पर्वदिनों में अख्ते पलाने के विषय में पट्टे परवाने सनदें फरमान प्राप्त कर उनका अमल दर अमल देश-प्रदेश में करवा कर बिचारे निरपराधी अबोले जीवों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। केवल पशुओं के लिये ही नहीं, बल्कि कई दुष्कालों में क्रोडों रूपैये खरच कर अपने देश भाइयों के प्राण भी बचाये हैं यह श्रोसवालों की उदारभावना का परिचय है। २५-श्रोसवालों के गोत्र जातियां-ये हम पहिले लिख पाये हैं कि श्रोसवाल जाति प्रायः क्षत्री वर्ण से ही बनी है। उन क्षत्रियों की अनेक जातियां इसमें शामिल हैं। जब से प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने उन वीर क्षत्रियों को ऐक्यता के सूत्र में संगठित कर महाजन संघ बनाया था, तब तो वे सब महाजन संघी कहलाते थे परन्तु बाद में कई २ कारणों से उनके गौत्र बन गये और ऐसे गौत्रों की आवश्यकता भी रहा करती है । क्योंकि जब गृहस्थों के लग्न शादी का काम पड़ता है तब वे कई गौत्र छोड़ कर शादी करते हैं। मारवाड़ में चार गौत्र १-बाप २-बाप की माता ३-अपनी माता ४ -- अपनी माता की माता इन चार गौत्रों को छोड़ कर शादी की जाती है । अतः गौत्रों की आवश्यकता है । __एक सेवग श्रोसवालों की जातियों की गिनती करने के लिये निकला और जहां पोसवाल बसते थे और उसको मालूम थी वहां घूम २ कर उसने ओसवालों की जातियां एक किताब में लिखनी शुरू कर दी। जब वह जातियां लिखते २ पुनः मकान पर आया तो उसकी औरत ने पूछा कि आपने ओसवालों की कितनी जातियां लिखी हैं? सेवगजी ने जवाब दिया कि मैंने ओसवालों के १४४४ गौत्र लिखे हैं। इस पर उस औरत ने पूछा कि मेरे पीहर में जो ओसवालों का गौत्र है वह भी आपने लिख लिया है न ? उसका क्या नाम है ? डोसी । सेवग ने कहा यह ओसवाल जाति एक समुद्र है, इसका पता मेरे जैसे से नहीं लगता है। 'रह गया एक डोसी तो बहुत सा होसी' अर्थात् यह ओसवालों की एक उत्कृष्ट उन्नति का ही दिन था जिसके आधार पर हमने यह ओसवाल जाति का आदर्श लिखा है। 10 . engin २१२ Jain Educator international Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १४ Anamnavinnn.mmm ७--प्राचार्य यक्षदेवसूरिः क्षात्रः सप्तम पट्टधृक् समभवद्देवस्तु यक्षोत्तरः, सूरिः सिन्धुजल प्रवाह भरिते प्रान्ते सुतं भूभृतः । ककं ज्ञानसमूह मादिशदयं तत्याज वेध्यं यथा, क्षत्रान् रुद्रट वंशजानुप दिशद्दीक्षा च तस्यास्तटे॥ चार्य यक्षदेवसूरि--श्राप अद्वितीय प्रभावशाली थे। पिछले प्रकरण में श्राप पढ़ पाये हैं कि आचार्य रत्नप्रभसूरि के पास वीरधवल नामक उपाध्याय थे । महाजनसंघ की स्थापना का सब कार्य प्रापश्री के हाथों से ही सम्पादन हुआ था। आपश्री जैसे विशुद्ध क्षत्रिय घंश के वीर थे, वैसे ही आप धर्म के कार्य भी वीरता के साथ किये करते थे। जैनधर्म का प्रचार और वादियों के साथ शास्त्रार्थ करने में तो आप विजयी सुभट की तरह सिद्ध हस्त ही थे। प्राचार्य कनकप्रभसूरि के साथ श्राप रत्नप्रभसूरि सा व्यवहार रखते थे। समय समय आप उनके दर्शनार्थ जाते थे अतः दोनों आचार्य एवं श्राप दोनों के श्रमण संघ में विनय व्यवहार और धर्म-स्नेह दिन प्रति दिन बढ़ता ही रहता था। एक समय आचार्य यक्षदेवसूरि अपने शिष्यमण्डल के साथ मरुधर को उपदेशामृत का सिंचन करते हुये क्रमशः कोरंटपुर पधार रहे थे, जब यह खबर वहां के श्रीसंघ को मिली तो उनके उत्साह का पार नहीं रहा । एक कोरंटपुर ही क्यों पर उनके आस-पास के नगरों में खबर होने से सूरिजी के दर्शन एवं स्वागत के लिये मानो मानव मेदिनी एक दम उमड़ उठी हो? और बड़े ही समारोह के साथ सूरिजी को नगर प्रवेश कराया। अहा हा ! आज कोरंटपुर के घर घर में यह खुशियां मनाई जारही कि आज अपना अहोभाग्य है कि सूरीश्वरजी का पधारना हुआ है इत्यादि । सूरीश्वरजी ने संघ के साथ महावीर मंदिर के दर्शन किये। तत्पश्चात् मंगलाचरण के साथ थोड़ी पर सारगर्भित देशना दी। जिसको सुनकर उपस्थित लोगों के हृदय में वैराग्य के अंकूर उत्पन्न हुये । फिर शासन की प्रभावना के साथ सभा विसर्जन हुई। सूरीश्वरजी का उपदेश हमेशा त्याग वैराग्य पर ही विशेष होता था, यही कारण था कि आपके श्रमणश्रमणियों की संख्या खूब बढ़ रही थी। इसी प्रकार आपने जैनेतरों को जैनधर्म में दीक्षित कर श्राद्ध संव्या भी बढ़ाई। आचार्य यक्षदेवसूरि को एक समय पूर्व के भक्त लोगों की भक्ति एवं सम्मेतशिखरादि तीर्थों की यात्रा स्मृति में आई तो श्रापका विचार उधर की तरफ विहार करने का हो आया । जब आचार्यश्री ने अपना श्रीयक्षदेवस्तंत्पट्टे, पूर्वाचल इवाऽर्यमा । मरिरभ्युदितोरेजे, तमस्तोमहरोऽङ्गिनाम् ।। उपकेशगच्छ चरित्र २१३ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विचार साधुओं के सामने प्रगट किया तो साधुओं ने अपनी सम्मति दे दी। कारण, एक तो साधुओं को भ्रमण करने का दिल रहा करता है, दूसरे नवदीक्षित मुनियों को तीर्थंकरों के कल्याणक भूमि की यात्रा भी करनी थी; अतः पूर्व की ओर विहार करना निश्चय कर लिया। सूरीश्वरजी महाराज ने बहुत से साधुओं को मरुधर में विहार करने की आज्ञा दे दी और ५०० साधुओं को अपने साथ लेकर पूर्व की ओर विहार कर दिया क्रमशः शौरीपुर तथा मथुरा की यात्रा कर के वहाँ से हस्तनापुर बनारस होते हुये अंग बंग कलिंगादि पूर्व प्रान्त में घूम घूम कर सम्मेतशिखर पावापुर) चम्पापुर वगैरह तीर्थों की यात्रा की और राजगृह वगैरह नगरों के श्रावकों को धर्मोपदेश सुना कर बहुत उपकार किया। इधर हेमला खण्डगिरी उदयगिरि तीर्थों की यात्रा कर अपने जीवन को पवित्र बनाया। ___ उधर मरुधर में रहे हुये साधुओं ने एक सम्मेतशिखर तीर्थ का विराट संघ निकाल कर यात्रा निमित्त पूर्व में गये यह बात प्राचार्य यक्षदेवसूरि ने सुनी तो वे भी अपने साधुओं के साथ जाकर संघ में शामिल हुये; जिससे मरुधर वासियों का उत्साह बहुत ही बढ़ गया और उन सब लोगों ने सूरीश्वरजी से प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! श्राप तो पूर्व में पधार कर हम लोगों को भूल ही गये । अब आप कृपा करके मरुधर की ओर विहार करावें अर्थात इस संघ के साथ ही मरुभूमि की ओर पधारें। - सूरीश्वरजी को भी कई अर्सा पूर्व में विहार करने को हो गये थे, अतः संघ के साथ आने वाले मुनियों को पूर्व में विचरने की आज्ञा देदी और आप सपरिवार संघ के साथ यात्रा कर पुनः मरूधर में पधार गये और राजा उत्पलदेव के आग्रह से वह चतुर्मास उपकेशपुर में ही किया । आप श्री के उपकेशपुर में विराजने से उपकेशपुर और आसपास के ग्रामों में धर्म की खूब ही उन्नति एवं प्रभावना हुई। ___ एक समय आपने रात्रि में श्रात्म-चितवन करते समय यह विचार किया कि कहाँ आचार्य स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि कि जिन्होंने अनेकानेक कठिनाइयों को सहन कर वाममार्गियों जैसे पोखण्ड का निकन्दनकर जैनधर्म का प्रचार कर हजारों लाखों करोड़ों प्राणियों का उद्धार किया और कहाँ मैं ? क्या मैं उन पूर्वजों के बनाये हुये श्रावकों पर ही अपना जीवन व्यतीत करदूंगा ? नहीं, मुझे भी किसी नये प्रदेश में जाकर जैनधर्म का प्रचार करना चाहिये इत्यादि विचार करते थे कि इतने में सच्चायकादेवी आकर कहने लगी कि भो आचार्य ! आप इतना क्या विचार करते हो ? यदि आप पुरुषार्थ करें तो वही कार्यश्राप कर सकते हो जो आपके पूर्वजों ने किया है। श्राप के लिये यह सिन्ध प्रान्त नजदीक ही है और वहाँ भी वाममार्गियों का इतना ही जोर है जितना कि एक समय इस मरुभूमि में था, मैं इस बात को दावे के साथ कहती हूँ कि यदि आप सिंध प्रांत में पधारें तो आपको वही सफलता मिलेगी जो आचार्य स्वयंप्रभ और रत्नप्रभसूरि को मिली थी। आपका विहार क्षेत्र इतका विशाल था कि वे किसी भी कठिनाई या परिसहों की परवाह भी नहीं करते थे। सम्मेतशिजर तीर्थ के आसपास भूमि में विहार कर भनेक भव्यों को जैनधर्म की दीक्षा दी थी। आज जो जैनधर्म के बिछड़े हुई 'सराकजाति' वगैरह के लोग जैनधर्म से पतित हुये पाये जाते हैं वे भी उन पाश्वनाथ संतानियों के बनाये हये श्रावकही थे। भले ही जैनधर्म के उपदेशों का संयोग न होने से वह कैनधर्म को भूल गये हों परन्तु जैनों का संस्कार भभी तक उनके अन्दर विद्यमान हैं। अहिंसां धर्म के तो वे पूर्णतया पालक ही हैं। इतना ही क्यों पर वे अपने देव पार्श्वनाथ को ही मानते हैं और उनके जो गौत्र हैं उनके भी अन्तदेव, धर्मदेव' आदिदेव वगैरह २ नाम हैं। ये सब बातें उनको पूर्व जैन होना ही साबित कर रही हैं। २१४ Jain Educatiomternational Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् १४ सूरिजी की तो पहिले से ही भावना थी, फिर देवी के कहने ने तो और भी पुष्ट बना दी। आचार्य ! श्री ने ठीक निश्चय कर लिया कि चार्तुमास समाप्त होते ही सिंध भूमि की ओर विहार करना है । इधर तो चर्तुमास खत्म होने को था, उधर सूरीश्वरजी ने राजाउत्पलदेव मंत्री उहड़ वगैरह 'घ अप्रेश्वरों की सलाह ली कि मेरा विचार सिन्ध प्रान्तकी ओर विहार करने का है, इसमें आपकी क्या राय है ? राजा व मंत्रीने बड़ी प्रसन्नता के साथ अर्ज की कि हे पूज्यतर ! आपका यह विचार तो अत्युत्तम है एवं बड़ा भारी उपकार का काम है और यह प्रवृति आपके पूर्वजों से ही चली आई है और यह कार्य आप जैसे समर्थ पुरुषों का ही है; पर पहिले आप इस बात को अच्छी तरह से सोच लीजिये कि सिन्धप्रान्त में विहार करना साधारण बात नहीं पर एक टेड़ी खीर है, क्योंकि वहाँ सर्वत्र पाखण्डियों का सामाज्य जमा हुआ है । वहाँ जाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, अतः आप अपने साधुओं को शक्ति पर विचार कर लीजिये। इस पर सूरिजी ने कहा कि नरेन्द्र ! आप जानते हो कि बिना परिश्रम लाभ भी कहां है ? और जितना अधिक कष्ट है उतना लाभ भी अधिक है । आप जानते हो कि आपके मरुधर में आने में कौन सा कम कष्ट सहन करना पड़ा था ? हां, साधुओं को पूछना जरूरी बात है। अतः मैं साधुओं को पूछ लुगा पर मुझे विश्वास है कि मेरे साधुओं में एक भी ऐसा साधु न होगा जो परिसह के सहन करने में कायरता दिखा दे । राजा ने कहा ठीक है, हम लोगों को तो आपकी सेवा-एवं दर्शन का अन्तराय रहेगा; पर यह कार्य भी बड़े भारी उपकार का है । अतः हम लोग आप के इस उत्तम कार्य में सहमत हैं । __ एक दिन सूरीश्वरजी ने अपने श्रमण संघ को एकत्र कर अपने विचार प्रगट कर दिये कि मेरे सिन्ध प्रान्त में विहार करने का विचार है पर उधर विहार करने में बहुत कठिनाइये और परिसह उपस्थित होने की संभावना है, क्योंकि वहाँ न तो श्रावक हैं और न कोई स्वागत करने वाला ही है । इतना ही क्यों पर उल्टा उपद्रव करने वाले हैं, पर साथ में यह भी समझ लेना कि जितना कष्ट ज्यादा है उतना ही लाभ अधिक है। अतः जो साधु इन सब बातों को सहन करने वाले हों वह मेरे साथ चलने को तैयार हो जायें और शेष साधुओं के लिये मैं यहां विचरने की आज्ञा दे देता हूँ। सूरीश्वरजी के वचन सुन कर ऐसा कौन साधु था कि जिसके हृदय में उत्साह की बिजली न चमक उठे । वस, मानो गिरिराज की गुफाओं से शेर गर्जना कर मैदान में आते हैं, वैसे ही मुनिवर्ग बोल उठा कि हे पूज्यवर ! हमारा जीवन ही इस काम के लिये है, एक नहीं पर हजारों संकट आजावें तो क्या परवाह है ? आप अपनी वृद्धावस्था में भी इतना साहस दिखला रहे हैं तो क्या हम इस लाभ से वंचित रहने वाले हैं ? अर्थात् हम सब आपश्री के साथ विहार करने के लिये कटिबद्ध हैं-तैयार हैं। सूरीश्वरजी ने साधुगण के वीरता के वचन सुन कर यह निश्चय कर लिया कि इस कार्य में हमें अवश्य सफलता मिलेगी । बस, चर्तुमास समाप्त होते ही प्राचार्यश्री ने अपने १०० साधुओं को अपने साथ चलने की और शेष साधुओं को मरुधर में विहार करने की आज्ञा दे दी; जिसको साधुओं ने शिरोधार्यकर ली। राजा और मंत्री ने प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! सिन्ध प्रान्त एक नया क्षेत्र है । वहाँ के सब लोग मिथ्यात्वी हैं । श्रापको उधर विहार में असुविधा रहेगी , अतः हमारा विचार है कि कई श्रावक एवं आदमी आपकी सेवार्थ साथ में भेज दूं। wimanawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.v....A nur .... vvvvvvvvvanvarMaria nanawanamaina २१५ www.ainelibrary.org Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्राचार्य श्री ने कहा कि हे राजन् ! आप जानते हो कि इस प्रकार की सहायता से हम कब तक काम कर सकते हैं ? जब मंगलाचरण में ही हम सहायता के अधीन बन जावे तो आगे चल कर हम क्या काम कर सकेंगे ? अतः आपकी शुभ कामना अच्छी है, पर हम इस बात को बिल्कुल नहीं चाहते हैं।। __ बस, सरिजी ने अपने १०० साधुओं के साय उपकेशपुर से विहार कर दिया और क्रमशः सिन्ध प्रान्त की ओर आगे बढ़ने लगे। रास्ते में जैन श्रावकों के मकान आते रहे, तब तक तो उनको किसी प्रकार की तकलीफ नहीं हुई, पर जब केवल उन वाममार्गियों के ही ग्राम आये तो उन लोगों ने जैनसाधुओं को देख उनके साथ अनेक कुचेष्टायें करनी शुरू कर दी अर्थात् नाना प्रकार के परिसह देने लगे। इस पर भी न खाने को भोजन, न पीने को पानी, न ठहरने को मकान तो फिर सन्मान और स्वागत की तो आशा ही क्या ? हां स्वागत के बदले संकट और भक्ति के स्थान पग २ पर कठिनाइयां। यहां तक कि वे लोग साधुओं को पत्थर और लकड़ियों से मारने पीटने में भी कमी नहीं रखते थे। कभी कभी तो वे भूखे-प्यासे साधु स्थान के अभाव में जंगलों में ही रात्रि व्यतीत करते थे, इत्यादि । नये जैन बनाने में कितनी मुसीबतें उठानी पड़ती हैं यह तो वे भुक्त-भोगी ही जानते हैं । खैर, फिर भी जिन परोपकारी महापुरुषों ने जन कल्याण का बीड़ा उठा लिया हो उनके सामने सुख और दुःख कौन गिनती में है । जैसे चलता हुआ पंथी आम्र वृक्ष को पत्थर मारता है, पर आम्र वृक्ष तो उसको मधुर फल ही देता है । इसी भांति वे अज्ञानी जीव सूरिजी को कितना ही कष्ट दें, पर वे तो उनको शान्त वचनों से समझा कर धर्म-पथ पर लाने की कोशिश करते थे और सूरीरश्वरजी का तप-तेज एवं अतिशय प्रभाव का असर उन अज्ञ लोगों पर इस प्रकार होता था कि वह शान्ति मूर्ति साधुओं को देख कर अपने आप ही उनके सद्गुणों पर मुग्ध हो जाते थे। एक समय का जिक्र है कि सूरीश्वरजी अपने शिष्य मंडल के साथ एक भयंकर जंगल से जा रहे थे । इतने में पीछे से कई घुड़सवार बड़े ही वेग से आ रहे थे । उनके हाथों में विद्युत के सदृश्य चमकते हुये शस्त्र और एक ओर धनुषबान थे। इन सवारों के भय से बिचारे मृगादि बनचर जीव भय-भ्रान्त होकर दूर २ भागते जा रहे थे । इस कारुण्य दृश्य को देखते ही उन करुणा के समुद्र सूरीश्वरजी का हृदय दया से लबालब भर आया और उन्होंने घुड़सवारों को सम्बोधन करते हुये कहा कि ठहरो, ठहरो ! इस आवाज को सुन कर मुख्य घुड़सवार ने थोड़ा सा मुह मोड़ कर सूरिजी के सामने देखा और कहा कि तुम्हें क्या जरूरत है और तुम क्या कहना चाहते हो ? जल्दी से कह दो, हमारी शिकार जा रही है। जब घुड़सवार ने सूग्जिी की ओर टकटकी लगा कर देखा तो सूरिजी के तप तेज एवं अतिशय प्रभाव तथा शांत मुद्रा देख कर उसने घोड़े से नीचे उतर कर सूरिजी के पास आकर कहा । घुड़सवार-आप कौन हैं ? । सूरिजी-हम 'अहिंसापरमोधर्म' का उपदेश करने वाले साधु हैं। घुड़०-आप कहां से आये और कहां जाते हो ? १उपकेशपुरं गत्वा, सिन्धु देशं ततो गतः । दुस्सहानेक कष्टानि से हे तत्र महा मुनिः ।। एकदा राज पुत्रोहि कक नामा महामतिः । आखेटे गत आलेभेऽहिंसा धर्म च सूरितः ॥ 'उपकेशगच्छ चरित्र" २१६ Jain Education international Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास DCMALI आचार्य यक्षदेवसूरि सिन्धधरा में प्रवेश करते हैं राजकुँवरादि शिकार को जाते हुए घुड़ सवारों को खड़े रख अहिंसा परमोधर्म का उपदेश कर रहे हैं । आचार्य यक्षदेवसूरी ने कोरंटपुर या राजगृह के यक्ष को प्रतिबोध कर संघ का ducation intemationalस संकट मिटा कर शान्ति स्थापन की अतः अपने नाम को सार्थ किया है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] सूरि १०- हमारा एक स्थान निश्चित नहीं है, हम हमेशा घूमते ही रहते हैं । घुड़ श्राप घूम घूम कर क्या करते हो १ सूरि १०- हम जनता को धर्मोपदेश दिया करते हैं । घुड़ :- आप किस धर्म का उपदेश करते हैं ? सूरि०-- जिस धर्म से जनता का इस लोक और परलोक में कल्याण हो । - आपके धर्म का मुख्य सिद्धान्त क्या है ? घुड़०: सूरि०- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निस्पृहता । घुड़सवार मन में समझ गया कि इनका सिद्धान्त तो ठीक ही है, पर जब तक कुछ सुना नहीं जाने तब तक क्या मालूम हो सकता है। और यह तो कोई नये साधु हैं, क्योंकि मैंने पूर्व कभी ऐसे साधुओं को देखा भी नहीं है । अतः प्रार्थना की कि क्या आपका धर्म मैं भी सुन सकता हू १ सूरिजी - खुशी के साथ आप धर्म सुन सकते हैं । घुड़० -- आप कहां पर ठहर कर धर्म सुना सकते हैं ? सूरिजी - हमारे किसी स्थान का प्रतिबन्ध नहीं है । हम तो यहां जंगल में भी धर्म सुना सकते हैं। घुड़सवार - ठीक है, तब आप अपना धर्म सुनाइये । वश ! सवार शिकार करना तो भूल गये और महात्माजी से कुछ धर्म सुनने के लिए अपने साथियों के साथ सूरिजी के पास आ कर बैठ गये । हां वे चाहे कौतूहल के वश ही बेठे हों, पर इस कारण से आगे चल कार्य क्या पैदा होता है ? सूरिजी ने अपना उपदेश सुनाना प्रारम्भ किया कि: “अहिंसालक्षणोधर्मोह्यधर्मःप्राणिनोवधः । तस्माद्धर्मार्थिभिर्लोकैः कर्त्तव्योप्राणिनांदयाः । [ ओसवाल संवत् १४ भावार्थ - धर्म का लक्षण हिंसा और अधर्म का लक्षण हिंसा है । श्रतः सद्बुद्धि वाले मनुष्यों का कर्त्तव्य है कि वह मनुष्य जन्मादि अच्छी सामग्री पा कर सदैव प्राणियों की दया रूप धर्म का आचरण करे । हे भव्यो ! इस अहिंसा धर्म में किसी धर्म का मतभेद नहीं है, अर्थात् इस धर्म के लिए सब धर्म वालों का एक ही मत है, देखिये । पंचैतानिपवित्राणिसर्वेपांधर्मचारिणाम् | अहिंसासत्यमस्तेयंत्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ अर्थात् अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और त्याग इसको सब दर्शन वालों ने बड़े ही आदर के साथ माना है इसमें हिंसा मुख्य धर्म बतलाया है । अहिंसा सर्व जीवेपुतत्वज्ञैः परिभाषितम् । इदंहिमूलधर्मस्यशेषस्तस्यैवविस्तरम् || अर्थात्-संसार में जितने तत्वज्ञ महात्मा हुये हैं उन सबों ने धर्म का मूल अहिंसा बतलाया है, शेष सत्यशील वगैरह तो इसका विस्तार है। हां, दान वगैरह देना भी धर्म है, पर अहिंसा की तुलना वह भी नहीं कर सकते हैं देखिये योदद्यात्कांचनं मेरुः कृत्स्नां चैववसुंधरा । एकस्यजीवितं दद्यात् न च तुल्ययुधिष्ठिरा || श्रर्थात् एक मनुष्य सोने का मेरु दान करता है तब दूसरा मनुष्य एक मरते हुवे जीव को प्राणदान Jain Education national २१७ www.jamabary.org Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास करता है । अतः जीवनदान करने के सामने काँचन का मेरू पर्वत एवं सुवर्ण मय पृथ्वी भी किसी गिनती में नहीं है । अतः प्राणियों को जीवन दान देना सब से श्रेष्ठ धर्म है। सर्वेवेदानतत्कुर्यसर्वेयज्ञाश्चभारतः। सर्वतीर्थभिषेकाश्च यत्कुर्यात् प्राणिना दया ॥ अर्थात् एक जीव के प्राणों को बचाने में जितना पुन्य है वह पुन्य न तो वेद पढ़ने में है, न यज्ञ करने में है और न सब तीर्थों का अभिषेक करने में है। इनके अलावा भी सूरिजी ने कई हेतु युक्ति दृष्टान्त द्वारा उन घुड़सवारों को समझाते हुये कहा कि हे महानुभावो ! श्राप जानते हैं कि इस नाशवान संसार के अन्दर धर्म ही एक ऐसा कल्पवृक्ष है कि जिसके सेवन से जीव मन इच्छित फल को पा सकता है । धर्म से ही इस भव और पर भव में सुखी बन सकता है । धन-धान्य, पुत्र, कलत्र, राजपाट, सुख, सौभाग्य, यश, कीर्ति, मान, प्रतिष्ठा ऋद्धि-सिद्धि और सर्व कार्यों में सफलता- विजय धर्म से ही मिलती है । और जिन क्षुद्र प्राणियों ने पूर्व जन्म में धर्माराधन नहीं किया है और पापाचरण में अनुरक्त रह कर अनेक प्राणियों के प्राणों को नष्ट किया है अर्थात हिंसा मूठ, चोरी और मैथुन कर्म किया है. वह इसजन्म में दीन, हीन, दुःखी, दरिद्र, दुर्भाग्य, रोग शोक से प्रसित और पराधीन रह कर अनेकानेक दुःखों का अनुभव कर रहे हैं और इन सब बातों को श्राप प्रत्यक्ष में देख भी रहे हो। और पर भव में नरकादि अनेक दुःखों को सहन करना पड़ेगा ही अतः रत्न चिन्तामणि जैसा नरभव मिला है, इसको धर्मकार्य कर सफल बनाना ही बुद्धिमत्ता है इत्यादि । थोड़े समय और थोड़े शब्दों में सूरिजी ने इस कदर उपदेश दिया कि उन सुनने वालों को पाप से घृणा होने लगी और धर्म की ओर रुचि बढ़ने लगी, एवं उन्होंकी अन्तरात्मा कुछ निर्णय की ओर प्रेरणा करने लगी। घुड़०-क्यों महात्माजी ? ऐसा कौन सा धर्म है कि जिसके करने से जीव सदैव के लिये सुखीबन सके ? सूरिजी-'अहिंसा परमोधर्म' जो मैंने अभी आपको सुनाया है। घुड़-महात्माजी ! हम हिंसा अहिंसा में नहीं समझते हैं । कृपया आप इसका स्वरूप समझाइये। सूरिजी-सुनिये ! 'अन्यस्य दुःखोत्पादनं हिंसा' किसी जीव को दुःख देना हिंसा है और दुःखी जीवों को सुखी बनाना अहिंसा है । बस, संसार में सब से बढ़िया धर्म अहिंसा है। घुड़० -- महात्माजी ! हम लोग तो हमेशा शिकार करते हैं, अनेक जीवों को मार कर उनका मांस भी भक्षण करते हैं। इस कार्य में आज पर्यन्त किसी ने पाप नहीं बतलाया है. इतना ही क्यों पर हमारे धर्मोपदेशक तो शिकार करना क्षत्रियों का धर्म भी बतलाते हैं और वे खुद भी मांस भक्षण करते हैं। सुरिजी~-बड़ा ही दुःख है कि इस भारत भूमि पर ऐसे भी धर्मोपदेशक मौजूद हैं कि शिकार करना और मांस भक्षण करना भी धर्म बतलाते हैं और वे स्वयं मांसभक्षण करते हैं। महानुभावो ! आपके कहने से मालूम होता है कि अभी आपको न तो मिला है सच्चा उपदेशक और न आपने अभी सच्चे धर्म का स्वरूप को ही समझे है । खैर मैं आपसे इतना ही पूछता हूँ कि आप एक निर्भय स्थान पर बैठे हैं और कई बदमाश मनुष्य आकर आपके एक कांटा लगा दें तो आपको दुःख होगा या आराम ? या आप उसको दंड देंगे या इनाम १ धु-महात्माजी ! कांटा लगने से कभी आराम होता है ? प्रत्युतः बड़ा भारी दुःख होता है और उस बदमाश को इनाम तो क्या पर मैं ऐसा दंडहूँ कि मारपीट कर फांसी लटका देता हूँ। Jain EducaR m ational Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १४ ___ सूरिजी-जब आपके एक कांटा लगने से यह हाल है तो बिचारे निरपराधी मूक प्राणी जो जंगल की घास पर अपना निर्वाह करते हैं, उनके प्राणों को नष्ट कर डालना अर्थात् मार डालना, इससे क्या उन्हें दुःख न होता होगा । और किसी भव में वह समर्थ होगा तो आपको फांसी नहीं लटका देगा। हे भद्रो ! सब जीव सदा-काल एक ही अवस्था में नहीं रहते हैं, पर कर्मानुसार सबल निर्बल हुआ ही करते हैं । आज आप सबल हैं और वे विचारे पशु निर्बल हैं, पर कभी वे पशु सबल होगये और आप निर्बल हो गये तो वे अपना बदला अवश्य लेंगे। इस बात को सदैव ध्यान में रखना चाहिये । ___ सूरिजी के हितकारी एवं रोचक वचनों ने उन सवारों पर बहुत कुछ प्रभाव डाला और उन लोगों ने भी सूरिजी के शब्दों पर विश्वास कर सूरिजी से प्रार्थना की कि महात्माजी ! यदि आप हमारे नगर में पधारें तो हम आपसे और भी धर्म के विषय कुछ पूछ कर निर्णय करेंगे क्योंकि यहाँ जंगल में कहां तक ठहरें ? इधर दिन भी बहुत चढ़ गया है आप भले तपस्वी हैं पर हमे तो खुद्या लग रही है। सूरिजी-आप का नगर यहां से कितनी दूर है ? दूसरा सवार-महात्माजी ! हमारा शिवनगर यहाँ से दो कोस के फासले पर है । यह शिवनगर के राजा रुद्राट का पुत्र कक्ककुवर है । नगर में पधारने से आपको बहुत लाभ होगा और हम लोगों को भी सुविधा रहेगी, अतः आप कृपा करके हमारे नगर में अवश्य पधारें। सूरिजी-आपने सोचा कि मेरी पहिले से धारणा थी कि यह पुरुष कोई उच्च खानदान का होना चाहिये यह सोलह श्राना सत्य ही निकली । खैर, इन लोगों का इतना आग्रह है तो अपने को तो कहीं न कहीं जाना ही है । सूरिजी बँधी कमर अपने शिष्य मंडल के साथ उन राजकुमारादि सवारों के साथ हो गये। जब मनुष्य का भाग्योदय होता है तब निमित भी ऐसा ही मिल जाता है बस ! उन सवारों के मनमंदिर में सूरिजी के प्रति इतना पूज्यभाव हो आया कि वे सूरिजी के साथ ही साथ पैदल चल कर शिवनगर के पास एक बगीचा था वहाँ आये और सूरिजी के ठहरने के लिये उस बगीचे में सुन्दर व्यवस्था कर अपने मकान पर चले गये राजकुवर कक और साथ के सवार जो मंत्रि पुत्र वगरह थे उन्हों ने जाकर सब हाल राजा रुद्राट को सुना दिये । इस पर राजा ने प्रसन्नता प्रगट की तथा उनकी भी इच्छा महात्माजी के दर्शन कर वार्तालाप करने की हुई। इधर यह समाचार सारे नगर में बिजली की भांति फैल गया कि श्राज एक महात्मा श्राया है, उनके साथ बहुत साधुओं की जमात भी है और उसने राजकुवर शिकार के लिये जाता था, उसकी शिकार बन्द करवा दी है। सुनाजाता है कि वे यहां पर अपने धर्म का प्रचार भी करेगा, इत्यादि । * जैन आचार्योर लखेली जूनी पहावलियों अने प्रशस्तियों मां एवा सेंकड़ों प्रमाणों मले छै के जेमा जैनाच यॊना सिन्ध मां विचरवाना उल्लेख मलै छैः । जूनामाजूनो प्रमाण वि० सं० पूर्व लगभग ४०० वर्षना समयानोछ के जे वखते रस्नप्रभसूरि ना पट्टधर यक्ष देवसूरि सिन्धमा आध्याहता भने सिन्ध में आवतां तेमने घणु कष्ट उठाव पडूयु हतुं मा पक्षदेवसूरिना उपदेशथी कक्कनाम ना एक राजपुत्रे जैन मन्दिरो बन्धमा हता भने पछी दीक्षा लीधी हती। म्हारी सिन्ध-यात्रा पृष्ठ १२ नर्ता मुनि श्री विद्याविजयजी ..२१%ary.org Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वाममार्गियों के आसन चलायमान होने लगे और उनके दिल में अनेक प्रकार की तरंगें भी उठने लगी कि ऐसा न हो कि मरुधर की भांति यहां भी इन पाखण्डियों के अड्डे जम जायं; इस बात का पहिले से प्रबन्ध करना चाहिये । अतः सबसे पहिले गजा और राजकुवर कक्क को सममा कर अपने पक्ष में पके कर लेना चाहिये कि वे उन पाखण्डियों के पंजे में फंस नहीं जायं इत्यादि । राजकुंवर के ध्यान में तो था कि महात्माजी के खानपान वगैरह की व्यवस्था करनी है, पर वह राजकार्य में ऐसे फंस गया कि उनको समय ही नहीं मिला । फिर शाम के समय बहुत देरी से याद आया तो उन्होंने बहुत ही अफसोस के साथ अपनी भूल के लिये पश्चाताप किया कि मेरे विश्वास पर आये हुये महात्मा भूखे प्यासे पड़े होंगे, फिर भी वह रात्रि के समय वहां जा नहीं सका। सुबह आवश्यकादि कार्यों से निवृत्त हो बड़े ही समारोह से राजकर्मचारीगण और प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ राजा, राजकुवर, मंत्री वगैरह उस बगीचे की ओर चले कि जहां महात्माजी ठहरे थे । राजा को जाते हुए देख कई लोगों ने गतानुगति युक्ति के वश हो राजा का अनुकरण किया तो कई एक कौतूहलवश राजा के साथ हो चले, कई एक ने सोचा कि अगर अपने न जायेंगे और राजा को मालूम पड़ेगी तो अपनी दुकानदारी ही उठ जायगी, इस भय से, तो कईएक ने सोचा कि देखें, इन सेवड़ों-साधुओं की क्या मान्यता है और कैसा उपदेश देते हैं ? इत्यादि विविध कारणों को श्रागे रख कर सारे नगर के लोगों ने राजा का अनुसरण किया और शीघ्र ही राजा राजकुंवर मंत्री आदि अपनी प्रजा के साथ उस बगीचे में सूरिजी के सन्मुख आकर उपस्थित हुए । वंदन नमस्कार कर राजा अपने उचित स्थान पर बैठा गया और सभी को शांतिपूर्वक बैठ जाने का इशारा किया। सर्वत्र शांति का साम्राज्य छाया हुआ था, उस समय राजकुवर ने उठ कर सूरिजी से नम्रतापूर्वक कहा कि हे प्रभो ! मैं आपका बड़ा ही अपराधी हूँ। क्योंकि मेरे ही श्राग्रह से आप इतनी तकलीफ उठा कर यहां पधारे और मैंने आपकी तनिक भी खबर न ली । इस नगर में कोई साधारण मुसाफिर भी भूखा प्यासा नहीं रहता है और आप महात्मा हमारे मेहमान-अतिथि होते हुये भी क्षुधा-पिपासा पीड़ित रात्रि निकाली, यह बड़े अफसोस की बात है, इस हेतु मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। सूरिजी गजा और श्रोतावर्ग की ओर इशारा करके हस्तवदन और शीतल दृष्टि से मुसकराते हुये बोले कि कुंवरजी ! श्राप जरा भी दिलगीर न हों, आपकी तरफ से अपराध नहीं हुआ, परन्तु मुनियों के ठहरने लायक सुन्दर मकानादि की प्राप्ति होने से उलटा सत्कार हुआ है । देखिये यह सब मुनि लोग तपस्वी हैं, इसलिये इनको भोजन की आवश्यकता नहीं है । इतने पर भी आपके दिल में किसी तरह का रंज होता हो तो आपको हम विश्वास दिलाते है कि साधु लोग सदा क्षमाशील होते हैं । अतः उनकी तकलीफ की संभाघना करना यह व्यर्थ है । हे राजेन्द्र! आपकी धर्म भावना पर हमें खूब संतोष है। और अधिक हर्ष तो इस बात का है कि आप सज्जन धर्म-श्रवण निमित्त यहां पर उपस्थित हुये हैं । यह हमारा व्यापार है और इसी कार्य के लिये हम लोगों ने अपना सारा जीवन अर्पण कर दिया है । अपनी कार्यसिद्धि के लिये अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुये हम लोग इससे भी विकट भूमि में परिभ्रमण कर सकते हैं इत्यादि; समाधान के पश्चात सूरिजी महाराज ने अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया : सुज्ञ श्रोतागण ! इस असार एवं अपार यानी अनादि अनंत संसार में जितने चराचर जीव हैं, यह सब Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १४ 1 अपने २ पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मानुसार सुख-दुःख भोग रहे हैं। शुभ कार्य करने से सुख की प्राप्ति और अशुभ कार्य करने से दुःख की प्राप्ति भवान्तर में अवश्य होती है। इस मान्यता में किसी शास्त्र के प्रमाण की भी श्रावश्यकता नहीं है । कारण, कि आज चर्म चक्षु वाले मनुष्य भी उन शुभाशुभ कर्मों का प्रतिबिम्ब रूप फल प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि एक राजा, दूसरा रंक, एक सुखी, दुसरा दुःखी, एक धनी दूसरा निर्धन, रोगीनिरोगी, ज्ञानी अज्ञानी, अपुत्रीय- बहुपुत्रीय, सद्गुणी- दुगुखी, सुन्दररूपवान- बदस्वरूप, बुद्धिमान-निर्बुद्धि, यश- अपयश, कीर्ति- अपकीर्ति वगैरह । एक का हुक्म हजारों मान्य करते हैं तब दूसरा हजारों की गुलामी उठाता है। एक पालकी में बैठ सैर करता है, दूसरा उसे अपने कंधों पर उठा कर दुःख का अनुभव कर रहा है । यह सब पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म का फल प्रत्त्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है । प्यारे आत्मबन्धुओ ! जो मनुष्य बबूल का बीज बोता है वह मनुष्य फल भी वैसा ही पावेगा, न कि अन फल; और जो मनुष्य श्राम्रवृक्ष का बीज बोता है उसको आम्रफल की ही प्राप्ति होती है न कि बबूल की । श्रर्थात् जैसा बीज बोवेगा वैसा ही फल पावेगा । इस न्याय से जो बुद्धिमान लोग मनुष्यभव धारण कर शुद्ध देव गुरु और धर्म पर अटल श्रद्धा रखते हैं और सेवा भक्ति उपासना, सत्संग, पवित्र अहिंसाधर्म का प्रचार क्षमा, दया, शील, संतोष, ब्रह्मचर्य्य, दान पुण्य प्रभु भजन और परोपकारादि पुण्य कार्यों से शुभ कर्मों का संचय करता है उन जीवों को भवान्तर में आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, आरोग्यपूर्ण शरीर, पूर्ण इन्द्रियों की प्राप्ति, दीर्घायुष्य, देवगुरु धर्म की सेवा और अन्त में स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है, जिससे पुनः जन्म मरण का फेरा ही मिट जाता है । जो अज्ञानी जीव इस श्रमूल्य मनुष्य जन्म को धारण कर जीवहिंसा करता है, असत्य बोलता , चोरी, मैथुन, ममत्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, परनिन्दा, निर्दयता, शिकार एवं मांस-मदिरादि भक्षण करता है, कुदेव, कुगुरु और कुधर्म की उपासना करता है, एवं दुर्जनों की संगति में रह कर अनेक विधि पाप कर्मों से अशुभ कर्म का संचय करता है, वह भवान्तर में घोरातिघोर नरक कुण्ड में जाकर चिरकाल तक महान भयंकर दुःखों का अनुभव कर वहाँ से फिर पशु श्रादि दुःखमय चौरासी लाख योनियों में अट माल की तरह परिभ्रमण करता है। इसलिये विद्वानों को स्वयं विचार करना चाहिये कि मैंने अनेक भव भ्रमण करते हुये बड़ी दुर्लभता से यह मनुष्य देह पाया हूँ तो अब मुझे क्या करना चाहिये और मैं क्या कर रहा हूँ ? क्या मैंने अपनी जिन्दगी में कुछ भी सुकृत पुन्य कार्य किया है ? या खाना-पीना, मौज मजा, भोग विलास, हँसी ठठ्ठा, खेल कूद और तृणभक्षी निर्दोष प्राणियों के प्रारण लूटने में सारी जिन्दगी व्यतीत कर दी है ? मैंने अपने साथ पूर्वभव से कितना पुन्य संचय कर लाया हूँ ? अथवा जिन पाप कर्मों द्वारा धन वैभव प्राप्त कर क्क्रुटुम्ब का पोषण कर रहा हूँ। परन्तु जब मैं यहाँ से परभत्र की ओर विदा होऊँगा तब यह राजपाट, लक्ष्मी, पुत्र कलत्र, पिता-माता, भाई-बहिन श्रादि कुटुम्ब वर्ग में से कोई मेरा साथ देगा ? या परभव में मेरे पर दुःख गुजरेंगे उस समय कोई मेरा सहायक होगा ? या मैं अकेला ही दुःख सहन करूंगा ? इत्यादि विचार करना बहुत श्रावश्यक है । क्योंकि "बुद्धेः फलं तत्व विचारणं च बुद्धि का फल वही है कि मनुष्यों को तत्व का विचार करना चाहिये । सज्जनो ! यह भी याद रखना चाहिये कि यह सुअवसर यदि हाथ से चला गया तो पुनः पुनः प्रार्थना करने पर भी मिलना मुश्किल है । दुःखं पापात् सुखं धर्मात् सर्वशास्त्रेषुसंस्थितिः न कर्त्तव्यमतः पापं कर्तव्यो धर्म संचयः । धर्म न कुरुषे मूर्ख ! प्रमादस्य वशंवदः कल्येहित्रास्यतेकस्त्वां नरके दुःख विह्वलम् || ww Porary.org. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास महानुभावो ! महाऋषियों ने जिस समय वर्णव्यवस्था की शृंखलना री थी उस समय शौर्यपुरुषार्थ द्वारा जनता की एवं सर्व चराचर प्राणियों की सेवा रक्षा करने का खास भार क्षत्रियों पर रख छोड़ा था । कारण, कि उनको पूर्ण विश्वास था कि यह क्षत्रिय जाति दया का दरिया व उच्च विचारज्ञ और अपने पराक्रम द्वारा जनता की रक्षा-सेवा करने योग्य है परन्तु आज सत्संग और सदुपदेश के अभाव से उन क्षत्रीवीरों के हृदय ने पलटा खाया एवं-कुसंग मिथ्याउपदेश से ऐसे खराब संस्कार पड़ गये कि वह अपने क्षत्रिय धर्म को ही भूल बैठे हैं। जो लोग गरीब, अनाथ, और मूक प्राणियों के रक्षक कहलाते थे वे ही आज भक्षक बन गये हैं। जिस शौर्य और पुरुषार्थ द्वारा क्षत्रिय लोग संपूर्ण विश्व का रक्षण करते थे आज वे ही लोग निरपराधी मूक प्राणियों के खून से नदियां वहा रहे है इत्यादि । इसमें केबल क्षत्रियों का ही दोष नहीं है परन्तु विशेष दोष मिथ्या उपदेशकों का है। कारण, जिन महर्षिों ने संपूर्ण जगत की शांति के लिए जिनके हाथ में जपमाला दी थी कि वह निःस्वार्थ भाव से पूजा, पाठ, जप, जाप, स्मरणद्वारा सारे संसार में शांति का साम्राज्य बना रखेगा परन्तु उन पर कुदरत का कोप इस कदर हुआ कि वह स्वार्थके कीचड़ में फंस कर जपमाला के स्थान उनकर हाथों में तीक्षण छुरा धारण कर निर्दय दैत्य की भांति विचारे मूक प्राणियों के कंठ पर चलाने में अपना कर्त्तव्य समझने लगे। इतना ही नहीं परन्तु उस भयंकर पाप की पुष्टि के लिये नया विधि विधान बना कर उस पाप से छुटकारा पाने का मिथ्या प्रयत्न भी किया है। अधिक दुःख तो इस बात का है कि क्षत्रिय लोग उनके हाथ के कठपुतले बन गये इस हालत में वे पाखंडी लोग प्रणियों के रक्त से यज्ञवेदी को रंग कर अपने नीच स्वार्थों की पूर्ति करते हुये धर्म के नाम से जनता कों गहरी खाई में धकेल दें इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अगर वह धर्म के ठेकेदार धर्म के नाम पर अपने खुद के शरीर में से एक बूंद रक्त की निकाल कर अपने इष्टदेव की पूजा में चढ़ाते तो उसे मालूम होता कि प्राणियों की घोर हिंसा करने में धर्म है या महान पातक है? हे राजन् ! शिकार खेलना, मांस भक्षण करना, मदिरादि का पान करना और व्यभिचार सेवन ये चारों अधर्म कार्य खास कर के नरक में ले जाने वाले है । यदि आप अपने आत्मा का इस भव में और पर भव में कल्याण चाहते हो तो सब से पहिले इनका त्याग करना चाहिये कारण इन अधर्म कार्यों के होते हए कोई भी जीव धर्म का अधिकारी नहीं बन सकता है । श्राप नीतिज्ञ हैं आप में विचार करने की शक्ति है, आप हृदय पर हाथ रख कर सोच सकते हैं कि जहाँ तक लोक व्यवहार ही शुद्ध नहीं हैं वहाँ तक कोई भी मनुष्य धर्म समझने का अधिकारी कैसे बन सकता है क्योंकि धर्मकी भूमि शुद्धाचार है । पहिले सदाचार रूपी भूमि शुद्ध नहीं है तो उसमें धर्मरूपी बीज कैसे बोया जावे ? अगर ऐसी अशुद्ध भूमि में वीज बो भी दिया जाय तो उसका फल क्या ? अतः मैं आप सब सज्जनों को खूब जोर देकर पूर्ण विश्वास के साथ कहता हूँ कि इन चारों दुराचारों को इसी समय प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग कर दें. इसी में ही आपका हित-सुख-कल्याण है। श्राचार्य श्री के प्रभावशाली व्याख्यान का असर जनता के अन्त करण पर इस कदर हुआ कि उन घृणित दुराचार से दुनियाँ का दिल एक दम हट गया। बस, फिर तो वीरों के लिए देरी ही क्या थी? "कर्मेशूरा वह धर्म शुरा" इस युक्ति को चरितार्थ करते हुए राजा-प्रजा प्रायः उपस्थित सर्व सजनों ने प्रतिज्ञा पूर्वक हाथ जोड़ कर कह दिया कि हे दयानिधि ! आज पर्यन्त हम अज्ञान अन्धकार में रह कर दुराचार का सेवन कर रहे थे परन्तु आज आप श्री के उपदेश रूपी सूर्य किरणों ने हमारे अन्तःकरण पर इस कदर प्रकाश Haryainm.... . . .. . ...... २२२ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] (आसवाल संवत् १४ डाला है कि जिसके द्वारा मिथ्या तिमिररूपी-अज्ञान स्वयं नष्ट हो गया और इसकी बदौलत ही हम उन दुराचार से घृणा कर प्रतिज्ञा पूर्वक आप श्रीमानों के समक्ष बचन देते हैं कि मांस, मदिरा, शिकार और व्यभिचार इन चारों ब्यसनों का कमी सेवन नहीं करेंगे इतना ही नहीं परन्तु हमारी संतान भी इन दुर्व्यसनों का कभी स्पर्श तक न करेगी । महाराजकुमार कक्क खड़ा होकर कहने लगा कि मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि मेरी राज. सीमा में कोई भी शख्स किसी भी प्राणी को मारेगा तो जीव के बदले अपने प्राणों का ही दंड देना पड़ेगा। उपसंहार में प्राचार्य श्री ने फरमाया कि महानुभावो ! मैं आप स नों को एक वार नहीं पर कोटिशः धन्यवाद देता हूँ। मुझे यह विश्वास नहीं था कि चिरकाल से चली आई कुरूड़ियों को आप एक ही साथ में तिलांजखी दे देंगे । परन्तु मोक्षभिलाषी जीवों के लिये ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कारण सच्चे क्षत्रिय शूरवीरों का यह ही धर्म है कि सत्य बात समझ में आ जाने के बाद असत्य अहितकारी कोई भी रूढ़ि हो परन्तु उसको उसी क्षण त्याग देते हैं। आज आप लोगों ने ठीक उसी क्षत्रिय धर्म का यथार्थ पालन कर अपनी शूरवीरता का प्रत्यक्ष परिचय करवा दिया है । अन्त में मैं उम्मेद रखता हूँ कि जिनवाणि-अर्थात् सत्योपदेश श्रवण करने मे आप अपना उत्साह आगे बढ़ाते रहेंगे कि जिसमें आपका कल्याण हो । राजा, राजकुमार, मन्त्री और नागरिक लोग आचार्यश्री का महान उपकार मानते हुए सूरिजी को वंदन नमस्कार कर जयध्वनि पूर्वक विसर्जन हुये। शिवनगर में एक तरफ आचार्य श्री और जैन धर्म की तारीफ हो रही थी तब दूसरी ओर कई एक पाखण्डी लोग गुप्त बातें कर रहे थे कि देखिये इन साधुओं ने लोगों पर कैसा जादू डाला! गडरी परवाहकी तरह एक के पीछे प्रायः सभी लोगों ने मांस मदिरा और शिकार का त्याग कर दिया! अब तो यज्ञ में बलि व पिंडदान मिलाना ही मुश्किल होगा। अगर इस तरह कुछ दिन और चलेगा तो सनातन धर्म का सर्वनाश होना नजीक ही है इस लिए अपने को भी इनके सामने कुछ प्रयत्न करना चाहिये इत्यादि, उन लोगों ने अपने मों में विशेष मोरचाबन्दी करनी शुरू कर दी। राजा, मन्त्री आदि बुद्धिमान लोग बड़े ही हर्ष के साथ श्रात्मकल्याण के लिए खूब विचार कर रहे थे। तो इतना सब को विश्वास होगया था कि यह महात्मा खासकर निर्लोभी,सदाचारी, परोपकारी, तपस्वी और ज्ञानी जो कि भूखे प्यासे रहने पर भी निःस्वार्थ वृत्ति से अपने पर उपकार किया है । मन्त्रीश्वर ने कहा, महाराज! आपका कहना सर्वथा सत्य है कारण कि अपने लोगों से इनको लेना देना क्या है ? तथापि केवल निःस्वार्थ भाव से इतना परिश्रम उठा कर जनता पर उपकार कर रहे हैं । श्रेष्ठ जनों का वचन है कि जो परमार्थी होते हैं वे ही सांसरिक जीवों पर करुणा दृष्टि से उपकार करते हैं। महाराज कुमार कक्क ने कहा कि यह सब तो ठीक है परन्तु उनके खाने पीने का क्या बन्दोबस्त है ? दरबार ने कहा कि यह तो अपनी बड़ी भारी गलती हुई है ! उसी समय मन्त्रीश्वर को हुक्म दिया कि तुम जाओ और शीघ्र ही सब से पहिले जनके खान-पान का सुन्दर इन्तजाम करो इस पर महाराज कुमार कक्क और मंत्रीश्वर चलकर आचार्य श्री के पास आये और अर्ज करी कि महात्माजो ! आप भोजन अपने हाथ से पकावेंगे या तयार भोजन करने को पधारेंगे ? जैसी अज्ञा हो वैसा इन्तजाम करवा दिया जाय । प्रियवर ! आप लोग जैन मुनियों के प्राचार ब्यवहार से अनभिज्ञ हैं । कारण जैन मुनि न तो हाथों W २२३ elibraryorg Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास से रसोई पकाते हैं और न उनके लिए बनाई हुई रसोई उनके काम में आती है क्योंकि रसोई बनाने में जल अग्नि वनस्पति आदि की जरूरत पड़ती है और इन सब में जीव सत्ता है अर्थात आत्मा है। अतः मुनियों के निमित्त विचारे निर्दोष जीवों को हिंसा करके बनाये हुए भोजन का उपयोग साधु कैसे कर सकते हैं ? क्योंकि हम तो चराचर समस्त जीवों के रक्षक हैं न कि भक्षक ! मंत्रीश्वर ने पूछा कि आप जल, अग्नि और फल-फूलादि वनस्पति को अपने काम में नहीं लेते हैं ? आचार्य श्री-नहीं, काम में लेना तो दूर रहा परन्तु स्पर्श तक भी नहीं करते हैं। मंत्रीश्वरः-आप भोजन करते हो ? पानी पीते हो ? श्राचार्य श्री:-हाँ जिस रोज उपवासादि तपश्चर्या नहीं करते हैं उस रोज भोजनपान करते हैं। मंत्रीश्वर:-फिर आपके लिए भोजन-पानी कहाँ से आता ? कारण श्राप स्वयं बनाते नहीं और आपके लिये बनाई रसोई आपके काम में नहीं पाती है। सूरिजी-जब हमको भिक्षा की जरूरत होती है तव गृहस्थों की अपने लिये बनाई हुई रसोई में से थोड़ी २ भिक्षा ले लेते हैं जिसमें हमारा गुजर हो जाता और किसी जीव को तकलीफ नहीं होती है। ___ मंत्रीश्वरर-भोजन तो श्राप पूर्वोक्त रीति से ग्रहण कर लेते होंगे परन्तु पानी तो आप को वही पीना पड़ता होगा कि जिसमें आप जीव सत्ता बतलाते हैं ? श्राचार्य श्री- नहीं, हम कुश्रा, तलाव, नदी आदि का कच्चा जल नहीं पीते हैं मगर जो गृहस्थ लोग अपने निजके लिये गरम जल बनाया हो यदि उसमें बच जाता हो तो उस पानी से काम चला सकते हैं। मंत्रीश्वर-अगर आपकी प्रथानुसार भोजन और जल न मिले तो फिर आप क्या करते हैं ? आचार्य-ऐसे समय में भी हम खुशी मानते हुए तपवृद्धि करते हैं। इस वार्तालाप को सुन कर राजकुंवर और मंत्रीश्वर आश्चर्य मुग्ध बन गये और उनके हृदय से पान्तर नाद निकला कि अहो ! आश्चर्य ! अहो जैन मुनि ! अहो जैन धर्म ! अहो जैन मुनियों के मोक्ष वर्ति के कठिन नियम ! दुनिया में क्या कोई ऐसे कठिन नियम पालने वाले साधु होंगे ? एक चींटी और मकोड़ी तो क्या परन्तु मिट्टी, जल, और वनस्पति के फल-फूल को स्पर्श कर हिंसा के भागी नहीं बनते हैं। यह एक जैन मुनियों के श्रेष्ठतम करुण भावना का अपूर्व परिचय है । मंत्रीश्वर ने कहा राजकुंवर ! कहां तो अपने मठपति लोभान्ध और कहाँ यह निस्पृही जैन महात्मा? कहाँ तो अपने दुराचारियों का भोगविलास और व्यभिचार लीला ? और कहाँ इन परोपकारी म्हात्माओं की शान्ति और सदावृति ? इतना ही क्यों पर इन परमतपस्वी साधुजनों को तो अपने शरीर तक की भी परवाह नहीं है । राजकुंवर ! मैंने तो दृढ़ निश्चय कर लिया है कि ऐसे महात्माओं द्वारा ही जगत का उद्धार होगा इत्यादि । राजकुमार ने भी अपनी सन्मति प्रदर्शित करते हुए कहा मंत्रीश्वर ! आपका कहना सत्य है कि जो पुरुष अपना कल्याण करता है वही जगत का भला कर सकता है। अस्तु । पुनः मंत्रीश्वर ने अर्ज करी कि भगवान् ! जैसे श्रापका प्राचार व्यवहार हो वैसा करावें इसमें हम कुछ भी नहीं कह सकते पर हमारे नगर में पधार कर आप भूखे यासे न रहें । दरबारश्री ने कल के लिये भी बहुत पश्चाताप कर रहे हैं इस वास्ते हमारी भूल पर क्षमा प्रदान करें और आप नगर में पधार कर भिक्षा Jain Educat RR 8ational Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १४ करावें । इस पर सूरीश्वरजी महाराज ने फरमाया कि मंत्रीश्वर आपकी और दरबार की हमारे प्रति भक्ति है वह बहुत अच्छी बात है और ऐसा होना ही चाहिये । इतना ही नहों पर जैसे हमारे प्रति आपकी वात्सल्यता है वैसे ही सर्व जीवों प्रति रखना आपका परमकर्तव्य हैं। श्राप के श्राग्रह को स्वीकार करने में हमको किसी प्रकार का इन्कार नहीं है पर हमारे कितनेक मुनियों को एक मास का कितनेक को दो मास का एवं यथा साध्य तप प्रत्याख्यान है। श्राप जानते हो कि पूर्व संचित कर्म सिवाय तपस्या के नष्ट नही हो सकते हैं । तपश्चर्या से इन्द्रियों का दमन होता है मन कब्जे में रहता है,ब्रह्मचर्यव्रत सुखपूर्वक पल सकता है । ध्यानमौन आसन समाधि श्रानन्द से बन सकते हैं। इसीलिए ही पूर्व महर्षियों ने हजारों लाखों वर्षों तक घोर तपश्चर्या की और आज भी यथा साध्य करते हैं । हे मंत्रीश्वर! हम जैनसाधु न तो मनुहार करवाते हैं और न अाग्रह की राह ही देखते हैं। जिस रोज हमको भिक्षा करना हो उसी रोज हम स्वयं नगर में जाकर सदाचारी घरों से जहाँ कि मांस-मदिरा का प्रचार न हो, ऋतु धर्म पाला जाता हो वैसे घरों से योग्य भिक्षा लाकर इस शरीर का निर्वाह करने को भिक्षा कर लेते हैं इस वास्ते आप किसी प्रकार का अन्य विचार न करें । हम आपकी भक्ति से बहुत ही प्रसन्नचित्त हैं इत्यादि । ___ मुनिवरों की प्रभावशाली तपश्चर्या का प्रभाव राजकुमार और मंत्रीश्वर की अन्तरात्मा पर इस कदर हुआ कि वे आश्चर्य में मुग्ध बन गये और उन महात्माओं के आदर्श जीवन के प्रति कोटिशः धन्यवाद देते हुये वन्दन नमस्कार कर वापिस लौट गये और महाराज रुद्राट को सब हाल निवेदन किया । जिसको सुन कर दरबार ने साश्च- महात्माओं की कठिन तपश्चर्या का अनुमोदन किया इतना ही नहीं पर राजा की मनोभावनारूपी विजली आचार्यश्री के चरण कमलों की ओर इतनी झुक गई कि उन्होंने शेष दिन और रात्रि एक योगी की भांति बिताई और सुबह होते ही अपने कुँवर व मंत्रीश्वर और राजअन्तेवर वगैरह सब परिवार को लेकर सूरिजी के चरणों में बड़े ही समारोह के साथ हाजिर हुये । इधर नागरिक लोगों के झुन्ड के झुन्ड तथा उधर मठपति और ब्राह्मण लोग भी बड़े ही सजधज के साथ उपस्थित हुये । वन्दन नमस्कार के पश्चात सूरीश्वरजी ने अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया । कारण,पहिले दिन के व्याख्यान की सफलता से आपश्री का उत्साह खूब बढ़ा, हुआ था अतः उन्होंने पुनः जनता को धर्म का स्वरूप विस्तार से समझाते हुये कहा कि जैसे सुवर्ण की परीक्षा की जाती है वैसे धर्म की भी परीक्षा हो सकती है देखिये नीतिकार क्या कहते से ?: यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते, निर्घषण छेदन ताप ताडनैः । तथैव धर्मोविदुषां परीक्ष्यते, श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणै ॥१॥ भावार्थ- कष, छेद-सुलाक, और ताप ताड़न, एवं चार प्रकार से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है वैसे ही (१) श्रुत (ज्ञान-ध्यान) (२) शील ब्रह्मचर्य व खान पान रहन सहनादि सदाचार (३) तपश्चर्याइच्छा का निरोध (४) दया सर्व प्राणियों के प्रति वात्सल्यभाव अर्थात् जिस धर्म में पूर्वोक्त चारों प्रकार के गुण होते हैं वही धर्म जगत का कल्याण करने में समर्थ समझना और उसी को ही स्वीकार कर एवं पालन कर श्रात्म-कल्याण करना चाहिये। सज्जनो ! जैनधर्म शुद्ध-सनातन प्राचीन सर्वोत्तम पवित्र धर्म है और जनता का कल्याण करने में सदैव 90 Jain Education international २२५ www.janabrary.org Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास समर्थ है । ज्ञान, ध्यान, शील, सदाचार, तपश्चर्या और अहिंसा एवं धर्म परीक्षा के पूर्वोक्त चारों लक्षण इस पवित्र धर्म में मौजूद हैं । जैनधर्म के चौबीस अवतार (तीर्थकर) पवित्र शुद्ध क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुये थे, उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त कर जनता को धर्मशिक्षा देकर उनका जीवन धर्ममय बना दिया था। उस धर्म को जैन धर्म कहते हैं कि जिनेन्द्र का कहा हुआ धर्म है, परन्तु कालान्तर में जिस जिस प्रदेश में जैन उपदेशक नहीं पहुँच सके उस उस प्रान्त में स्वार्थप्रिय पाखण्डियों ने बिचारे भद्रिक जीवों के नेत्रों पर अज्ञान के पाटे बाँध सदाचार से पतित बना कर दुराचार की गहरी खाई में गिरा दिये और इसी दुराचार ने दुनिया में त्राहि त्राहि मचा दी, यहाँ तक कि वह अपनी अखिरी हद तक पहुँच गया है। अब इसका भी उद्धार होना ही था आज सदुपदेशक महात्माओं के ज्ञान सूर्य का प्रकाश भारत के कोने २ में रोशन हो रहा है जिससे अधर्म के पैर उखड़ गये, पाखण्डियों की पोप लीला खुल गई, दुराचारियों के अखाड़े नष्ट हो गये यज्ञ जैसे निष्ठुर कर्म विध्वंस हो गये हैं व्यभिचारलीला से जनता घृणित होगई, वर्ण और जाति की जंजीरें टूट पड़ी हैं, उच्च नीच के भेदभाव को भूल जनता एक सूत्र में संखलित हो रही है। विश्व में अहिंसाधर्म की खूब गर्जना हो रही है । श्रात्मकल्याण और परम शांतिमय धम स्वीकार करने में न तो परम्परा बाधा डाल सकती है और न उन पाखण्डियों की तनिक भी दाक्षीण्यता रही है अर्थात् वीरों के धर्म को आज वीर पुरुष निडरतापूर्वक अंगीकार कर रहे हैं। अतएव श्राप लोगों का परमकर्त्तव्य है चि सत्यासत्य का निर्णय कर सब से पहिले आत्मकल्याण के लिये पवित्र धर्म को स्वीकार कर अहिंसा भगवती के उपासक बन उसका ही श्राराधन और प्रचार करें, यह मेरी हार्दिक भावना है। आचार्यश्री के अमृतमय देशनारूपी भानु के प्रखर प्रकाश में पाखण्डी रूप तगतगते तारे एकदम लुप्त हो गये । जिन पाखरियों के दिल में मिथ्या घमंड-अमिमान-मद था वह मानों भास्कर के प्रचंड प्रताप से हिम गल जाता है वैसे गल गया । सूरीश्वरजी महाराज के तप तेज और सद्ज्ञान के सामने पाखण्डियों से एक शब्द भी बच्चारण नहीं हुआ। कारण, पहिले दिन के मनोहर व्याख्यान से ही उन भाद्रिक जनता के हृदय में सद्ज्ञान रूपी सूर्य प्रकाशित हो गया था । अत्याचारियों के दुराचार पर घृणा श्रा चुकी थी। सुरिजी महाराज की तरफ दुनिया का दिल आकर्षित हो आया था, क्योंकि “पुरुष बिश्वासस्य वचन विश्वा" आचार्य श्री का कहन, रहन, सहन, श्राचार, विचार, तप, संयम, निस्पृहता और परोपकारपण्यणता पर राजा प्रजा मुग्ध बन चुके थे फिर आज के व्याख्यान से तो लोगों की श्रद्धा और रुचि इतनी बढ़ गई थी कि कन्धे पर के डोरे और गले की कंठियां तोड़ डालने को सब लोग बड़े ही श्रातुर थे। ___ महाराज रुद्राट ने खड़े हो कर नम्रतापूर्वक अर्ज करी कि हे प्रभो ! आप श्रीमानों का कहना अक्षरशः सत्य हैं। हमारी आत्मा इस बात को मंजूर कर रही है कि जैन धर्म क्षत्रियों का धर्म है । जैन धर्म सब धर्मों से प्राचीन और पवित्र धर्म है सदाचार और नीति पथ बतलाने में यह धर्म अद्वितीय है और आत्मकल्याण करने में तो इसकी बराबरी करने वाला संसार भर में कोई भी धर्म नहीं है, फिर भी अधिक हर्ष इस बात का है कि आप जैसे महान तपस्वी गुरुवर्य अनेक प्रकार के संकट सहन करते हुये हमारे सद्भाग्योदय से यहां पधार कर हम लोगों को सद्बोध दिया, जिसके जरिये हम लोगों को आज इस प्रकार सत्यासत्य, हिताहित, कृत्याकृत्य, भक्ष्याभक्ष्य, धर्मा-धर्म का ज्ञान हुआ । इतना ही नहीं पर हम बखूबी समझ गये हैं कि आप जैसे परम-योगीश्वरों के चरण कमलों की रज भी हमारे जैसे अधर्मियों का कल्याण करने में Jain Educ& ternational Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन [ ओसवाल संवत् १४ समर्थ है । हम सब लोगआप श्रीमानों के उपदेशानुसार जैन धर्म स्वीकार करने को तैयार हैं अर्थात् आप हमारे धर्म-गुरु हैं, हम और हमारी संतान आप के शिष्य उपासक हैं। इस अभिरुचि का कारण जैसे प्राचार्यश्री का सदुपदेश था वैसे ही उन पाखण्डियों का दुराचार भी था, कारण दुनिया पहिले से ही उन दुःशीलों से घृणा कर शान्तिमय धर्म की प्रतीक्षा कर रही थी वह शान्ति आज सूरीश्वरजी के चरणों में मिल रही है। इस सुअवसर पर उपकेशपुर की अधिष्ठात्री सच्चायिकादेवी अपनी सहचारिणी देवियों को साथ ले सूरीश्वरजी के दर्शनार्थ आई थी उसने वन्दन नमस्कार के पश्चात्, वहाँ की भद्रिक जनता सूरिजी के उपदेश की ओर झुकी हुई है, यह देख देवी को भड़ा भारी आनन्द हुआ । कारण, सूरिजी को इस प्रान्त में विहार करवाने की प्रेरणा सच्चायिका ने ही को थी। सच्चायिका देवी ने सूरिजी से कहा "हे प्रभो ! यह मातूलादेवी शिवनगर की अधिष्ठात्री है और प्रति वर्ष में हजारों लाखों जीवों का बलिदान ले रही है । आप इसको उपदेश दें"। यह कहते ही मातूलादेवी ने हाथ जोड़ कर अर्ज कर दी कि हे भगवान! आप उपदेश की तकलीफ न उठावें आपका प्रभाव मेरे अन्तःकरण पर पड़ चुका है। मैं आपश्री के सन्मुख प्रतिज्ञा करती हूँ कि आज से मेरे नाम पर किसी प्रकार की जीव हिंसा न होगी, इस पर सूरिजी ने संतुष्ट हो देवी को वासक्षेप देकर जैनधर्मोपासिका बनाई । इसका प्रभाव राजअन्तेवर और महिला समाज पर भी बहुत अच्छा पड़ा । उधर राजा प्रजा बड़े ही आतुर हो रहे थे; सूरिजी ने उनको पूर्वसेवित मिथ्यात्व की आलोचना करवा के ऋद्धि-सिद्धि संयुक्त महामंत्रपूर्वक वासक्षेप के विधि विधान से सबको जैन धर्म की शिक्षा दी और सब को जैनी बनाया । बाद संक्षेप से नित्य कर्म में आने वाले नियम बतलाये । खान पान आचार की शुद्धि करवा दी; मांस, मदिरा, शिकार, वेश्यागमन, चोरी, जुआ और परस्त्री-गमनादि दुर्व्यसन सर्वथा त्याग करवा दिये और देवगुरु धर्म एवं शास्त्र का थोड़े से में स्वरूप समझा दिया इत्यादि । देवी सच्चायिका ने नूतन जैन जनता को उत्साहवर्द्धक धन्यवाद दिया। तत्पश्चात सब लोग सूरिजी महाराज को वंदन नमस्कार कर जैनधर्म की जयध्वनि के साथ विसर्जन हुये। आचार्यश्री और सच्चायिकादेवी आपस में वार्तालाप कर रहे थे जिसके अन्दर देवी ने कहा भगवान ! आपने अथाह परिश्रम उठा कर जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत किया । सूरिजी ने कहा "देवी ! इस उत्तम कार्य में निमित्त कारण तो खास आप का ही है" देवी ने कहा “प्रभो ! आप और आपकी संतान इसी माफिक घूमते रहेंगे तो अपने पूर्वजों की माफिक आपभी प्रत्येक प्रान्तमें जैनधर्मका खूब प्रचार कर सकोगे।" आपश्री ने फरमाया कि बहुत खुशी की बात है हमारा तो जीवन ही इस पवित्र कार्य के लिये है इत्यादि, बाद देवी ने सूरीश्वरजी को वन्दन कर निज स्थान की ओर प्रस्थान किया । ___ इधर शिवनगर में एक तरफ जैनधर्म की तारीफ- प्रशंसा हो रही थी तब दूसरी ओर पाखण्डियों ने अपना वाड़ा-बन्धी के लिये भरसक परिश्रम करना शुरू किया। जो शूद्र लोग थे कि जिनको वह लोग धर्म श्रवण करने का भी अधिकार नहीं देते थे, इतना ही नहीं पर वे कुछ गिनती में भी नहीं थे, पर आज उनको भी मांस मदिरा और व्यभिचारादि का लालच बतला के पाखण्डी लोग अपने उपासक बना रखनेकी ठीक कोशिश कर रहे हैं। पात भी ठीक है कि दुराचारियों का ज़ोर जुल्म ऐसे अज्ञानी लोगों पर ही चल Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३८६ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सकता है। अगर आचार्य श्री चाहते तो उन नास्तिकों का दमन करवा सकते पर उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा । कारण, धर्म पालना या न पालना आत्म-भावना पर निर्भर है न कि ज़ोर जुल्म पर। आचार्यश्री का प्रति दिन व्याख्यान होता रहा । देव गुरु धर्म का स्वरूप तथा मुनि धर्म गृहस्थधर्म और साधारण प्राचार व्यवहार से उन नूतन श्रावकों में ऐसे संस्कार डाल दिये कि दिन दिन उनकी जैन धर्म पर श्रद्धा रुचि बढ़ती गई । कालान्तर में आचार्यश्री ने वहां से विहार करने का विचार किया, इस पर महाराज रुद्राट ने अर्ज करी कि भगवान ! यहाँ के लोग अभी नये हैं, मिथ्यात्वी लोगों का चिरकाल से परिचय है न जाने आपके पधार जाने पर इन लोगों का फिर भी जोर बढ़ जावे, इस वास्ते मेरी अर्ज तो यह है कि आप चतुर्मास भी यहाँ ही करें। इस पर आचार्यश्री ने फरमाया कि राजन् ! मुनि तो हमेशा घूमते ही रहते हैं, जैनधर्म की नींव मजबूत बनाने को खास दो बातों की आवश्यकता है ( १ ) जैनमन्दिरों का निर्माण होना ( २ ) जैन विद्यालय स्थापन कर जैनतत्वज्ञान का प्रचार करना । ये दोनों कार्य आप लोगों के अधिकार के हैं । राजा ने अर्ज करी कि हम इन दोनों कार्यों को शीव्रता से प्रारम्भ करवा देंगे, पर साथ में साधुओं के उपदेश की भी बड़ी आवश्यकता है । सूरिजी महाराज ने इस बात को स्वीकार कर कितनेक मुनियों को शिवनगर में रख, आपने आस पास में विहार किया । जहाँ जहाँ आप पधारे वहाँ वहां जैन धर्म का खूब प्रचार किया। जहाँ नये जैन बनाये वहाँ जैन मन्दिर और विद्यालय की नींव डलवा ही देते थे और कहीं कहीं पर तो आप अपने साधुओं को वहां ठहरने की आज्ञा भी दे देते थे । इधर महाराज रुद्राट ने बड़ा भारी आलीशान जैन मन्दिर बनाना शुरू कर दिया । मन्त्री की कार्य कुशलता एवं द्रव्य की छूट होने से कार्य शीघ्रातिशीघ्र बन रहा था। और कई विद्यालय खोल दिये कि जिनके अन्दर ज्ञान का प्रचार भी हो रहा था। महाराज रुद्राट और श्रीसंघ के अत्याग्रह से आचार्यश्री यज्ञदेवसूरि का चर्तुमास शिवनगर में हुआ जिससे श्री-संघ में उत्साह की और भी वृद्धि हुई । और बड़े ही आनन्द से चतुर्मास समाप्त हुआ। तत्पश्चात महाराज रुद्राट के बनाये हुये महावीरप्रभु के मंदिर की प्रतिष्ठा बड़े ही धाम-धूम से हुई। विद्यालय के जरिये जैन तत्वज्ञान का प्रसार हो रहा था साथ में आचार्य श्री का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर होता था जिस प्रभावशाली उपदेश का यों तो सब लोगों पर अच्छा असर हुआ, पर विशेष प्रभाव महाराजा रुद्राट और राजकुमार कक्व पर हा कि जो अपने राजकाज और संसार सम्बन्धी सर्व कार्यों का परित्याग कर सूरिजी महाराज के चरणों की संवा करने को सलग्न हों गये, इतना ही क्यों पर राजा और राजकुँवर दीक्षा लेने को भी तैयार होगये । उनका अनुकरण करने को कई नागरिक लोग भी मुक्ति रमणी की वरमाला से ललचा गये । महोत्सव के साथ शुभ मुहूर्त के अन्दर महाराज रुद्राट ने अपने बड़े पुत्र ततो नगर मागत्य, रुद्राटादीञ्च नागरान् । कृत्वा सूरिश्च तान् जैनान्, मन्दिरार्थ मुवाचह ।। ककाख्यो राजपुत्रस्तु, युतः स्त्रीभिश्च मानवैः । अनेकैर्जगृहे दीक्षां, सूरिभ्यो ज्ञान हेतवे ।। दीक्षां संगृह्य तेजस्वी, कक वेति नृपात्मजः । जननी जन्म भूमि च, उजहार जिनालयैः ।। कक मूरिंगुरूं सोऽपि, स्वपट्टेऽस्थापयत् प्रभुः । यद्गुणान्नेश्वरोगातुं, सोऽपि चित्र शिखण्डिजः॥ Jain Educsi temational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १४ शिवकुमार को राज्याभिषेक कर आप अपने लघु पुत्र कक्कव और करीबन १५० नर नारियों के साथ आचार्य श्री यक्षदेव सूरि के पास बड़े ही समारोह के साथ जैन दीक्षा धारण करली । सिन्ध प्रदेश में यह पहलापहला महोत्सव होने से जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत हुआ। जनता पर जैन धर्म का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा। कारण, उस जमाने में सिंध प्रदेश का महाराजा रुद्राट एक नामी राजा था। उसने अपने पुत्र के साथ जैन दीक्षा लेने से सम्पूर्ण सिध प्रदेश में जैन धर्म की बड़ी भारी छाप पड़ गई थी। शिवनगर के चर्तुमास से आचार्य श्री को बड़ा भारी लाभ हुआ था। बाद में भी पास-पास में अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठा और अनेक विद्यालयों की स्थापना करवा के उन्हों ने जैन धर्म का खूब प्रचार किया। ___ आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने शिष्य समुदाय के साथ सिंध भूमि में खूब ही परिभ्रमण किया । फलस्वरूप थोड़े ही दिनों में आपने १००० साधु-साध्वियां को दीक्षा दी । सैंकड़ों जैन मदिरों और विद्यालयों की स्थापना करवाई ; अत एव चारों और जैन धर्म का झंडा फहरा दिया। मुनिगण में कक नाम के मुनि जो महाराज रुद्राट के लघु पुत्र थे वे थोड़े ही दिनों में ज्ञानाभ्यास कर स्व-परमत के अनेक शास्त्रों के पारगामी हो गये, जैसे आप ज्ञान में उच्च कोटि के ज्ञानी थे, वैसे ही जैन धर्म का प्रचार करने में भी बड़े वीर थे। जिस में भी अपनी मातृभूमि का तो आपको बहुत गौरव था अतएव आपने पहले से ही प्रतिज्ञा करली थी कि मैं सब से पहले सिंध भूमि का ही उद्धार करूंगा अर्थात सिंध प्रान्त को जैन धर्म मय बना दूंगा और आपने किया भी ऐसा ही। एक समय का जिक्र है कि आचार्यश्री ने परम पवित्र तीर्थराज श्री सिद्धाचलजी के महात्म्य का व्याख्यान किया, उसको श्रवण कर चतुर्विध श्रीसंघ ने अर्ज करी कि हे प्रभो ! श्राप हम को उस पवित्र तीर्थ की यात्रा करवा के गर्भावास को छुड़ाइये । इस बात को सूरिजी महाराज ने स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् यह उद्घोषणा प्रायः सिन्धप्रान्त में करवा दी गई कि जिसको सिद्धाचलजी की यात्रा करनी हो वह तैयार हो शिवनगर पा जाय । सूरीश्वरजीने अपने १००० साधु साध्धियोंके साथ तथा और करीबन एक लक्षश्राद्धवर्ग शिवनगरमे एकत्र होगये । तत्पश्चात महाराज शिवको संघपति पद अर्पण कर शुभ मुहूर्त्तके अन्दर संघ छरी पालता हुआ यात्रा करने को रवाना हो गया,जिसके अन्दर सोना चाँदी के देरासर रत्नोंकी प्रतिमायें और हस्ती,घोड़े, रथ, पैदल,, बाजा, गाजा नकारा निशान वगैरह बड़ा ही आडम्बर था । उस भक्ति का प्रभाव अन्य लोगों पर भी काफी पड़ रहा था । ग्राम नगर और तीर्थों की यात्रा करता हुआ क्रमशः संघ श्रीश@जय पहुँचा और संघपति आदि लोगों ने मणी माणिक मुक्ताफल तथा श्रीफल और स्वर्ण से तीर्थ को बधाया और चतुर्विध संघ ने सूरीजी महाराज के साथ यात्रा कर अपने जीवन को सफल किया। बादमें गिरनार वगैरह तीर्थों की यात्रा कर आनन्द मंगल से श्रीसंघ वापिस सिन्धप्रदेश में पहुँचा गया। इस यात्रा से जैनधर्म पर लोगों की श्रद्धा रुचि और भी बढ़ गई इत्यादि। आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने जीवन में जैनशासन की बड़ी भारी सेवा करी। प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि के बनाये हुये महाजनसंघ का रक्षण पोषण और वृद्धि करी । सिन्ध जैसी विकट भूमि में विहार कर सब से पहिले लुप्त हुये जैनधर्म का आपश्री ने ही प्रचार किया, हजारों जैनमंदिर और विद्यालयों की स्थापना करवाई और हजारों साधु साध्वियों को दीक्षा दे श्रमणसंघ में वृद्धि करी इत्यादि । आपश्री का जैनशासन पर बड़ा भारी उपकार हुआ है। आपने सिन्धप्रान्त में विहार कर जैनधर्म का बड़ा भारी झंडा २१२ www.jametery.org Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] । भगवान् पाश्र्वनाथ की परम्परा का इतिहास फहरा दिया था। जब आपने अपनी अन्तिमावस्था जानी,तब चतुर्विधश्रीसंघ के समक्ष मुनि कक्क को श्राचार्य पद पर नियुक्त कर शासन का सब भार उनको सुपुर्द कर आप कई मुनियों को साथ लेकर विहार करते हुये पवित्र सिद्धगिरि की शीतल छायामें शेषायु निर्वृतिमे बिताने लगे । अन्तमें पन्द्रह दिन के अनशन और समाधिपूर्वक श्रावणशुक्ल अष्टमी को नाशवान शरीर को त्याग कर स्वर्गवास किया। उस समय आपके उपासक साधु साध्वी श्रावक श्राविकाओं की उपस्थिति बहुत विशाल संख्या में थी।श्रीसंघ ने श्रापश्री की भक्ति एवं स्मृति के लिये सिद्धगिरि पर एक बड़ा भारी स्तूप बनवाया था। महाराज उत्पलदेव के पांच पुत्र थे-सोमदेव, जगदेव, श्रासलदेव, ब्रह्मदेव और भोजदेव; जिसमें सोमदेव को तो अपना उत्तराधिकारी बनाया, शेष चार पुत्रों को अलग २ भूमि दे दी गई थी और उन्होंने अपने नामों से छोटे २ ग्राम आबाद कर लिये थे, उन ग्रामों के नाम भी अपने २ नाम पर रक्खे थे जैसे जंगालु आसलपुर ब्रह्मसर और भोजपुर । वंशावलियों में इनका परिवार भी विस्तार से लिखा है। राजा उत्पलदेव के पाँचों पुत्र पाँच पाण्डवों की तरह शूरवीर एवं बड़े ही योद्धा थे। उन्होंने अपने अपने राज की अच्छी श्राबादी की थी। परमाईत महाराजा उत्पलदेव राजकार्य अपने पुत्रों को सौंप कर आप जैनधर्म की अराधना एवं आत्मकल्याण में संलग्न हो गया । मंत्री उहद ने भी अपना गृहभार अपने पुत्रों के सुपुर्द कर राजा उत्पलदेव के साथ निर्वृति मार्ग का अनुसरण किया और जैनधर्म के इन दोनों श्राद्य प्रचारकों ने स्वात्मा के साथ अनेक परआत्माओं का कल्याण कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया : इधर आचार्य कनकप्रभसूरि मरुधर से श्राबू तक के प्रदेश में विहार कर धर्म का प्रचार बढ़ा रहे थे। वे जब कभी अजैनों को प्रतिबोध कर जैन धर्म में दीक्षित करते थे तो उधर बसने वाले जैनों के शामिल मिला देते थे जो आचार्य स्वयंप्रभसूरि के प्रतिबोधित श्रावक थे । आचार्य कनकप्रभसूरि ने जैसे श्राद्धवर्ग में अभिवृद्धि की थी उसी प्रकार श्रमण संघ में भी खूब वृद्धि की आपके आज्ञावृति हजारों साधु साध्वी चारों ओर विहार कर जैन धर्म का प्रचार और अपना विहारक्षेत्र विशाल बना रहे थे। ___ अन्त में आचार्य कनकप्रभसूरि कोरंटपुर श्रीसंघ के महा महोत्सव पूर्वक अपने योग्य शिष्य सोमप्रभ को अपना उत्तरदायित्व देकर अर्थात् आचार्य बना कर आप श्रीं एक मास का अनशन कर कोरंटपुर में समाधिपूर्वक स्वर्गवास किया। आचार्य सोमप्रभसूरि ... आप महाराजा चन्द्रसेन के ग्यारह पुत्रों में से एक थे आपने अपनी किशोर व्यय में राज साहबी को तिलाजली देकर आचार्थ कनकप्रभसूरि के चरण कमलों में दीक्षा ली थी। आचार्यश्री की श्राप पर बड़ी कृपा थी आप थोड़े समय में सामयिक साहित्य के धुरन्धर विद्वान एवं सर्वगुण सम्पादित कर लिये थे यही कारण था कि सूरिजी ने अपनी अन्तिमावस्था में अपना सर्वाधिकार सोमप्रभ को देकर अपने पट्ट पर सूरिपद से विभूषिम किये थे। । प्राचार्य सोमप्रभसूरि बड़े ही प्रतिभाशाली एवं क्रान्तिकारी आचार्य थे आपश्री भू भ्रमण करते हुए एक समम अपने शिष्य परिवार के साथ चन्द्रावती पधारे आपका शुभागमन सुन कर राजा प्रजा को बड़ा ही हर्ष हुआ क्यों न हो एक राजकुमर दीक्षा लेकर इस प्रकार आचार्य पद प्राप्त कर पुनः नगर में पधारे। Jain EducRoernational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवमरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५८ राजा चन्द्रसेनादि सब लोग सूरिजी को वन्दन करने को श्राये सूरिजी ने अपनी विद्वतापूर्ण त्याग धैराग्य मय धर्मोपदेशना दी जिसको श्रवण कर श्रोताजन अपना कल्याण करने को तत्पर हो गये । महाराजा चन्द्रसेन और श्रापकी पट्टराणी सूरिजी ( अपने पुत्र से ) से प्रार्थना की कि आप तो संसार से मुक्त हो अपना कार्य सिद्ध कर लिया पर अब हमारी अन्तिमावस्था है कल्याण का रास्ता बतलाइये। सूरिजी ने कहा कि सबसे पहिले तो आपको राज सम्बन्धी खटपट से मुक्त होना चाहिये दूसरा अब शेष उमर तीर्थ श्री श@जय की शीतल छाया में रह कर धर्माराधना में व्यतीत करना चाहिये कारण एक तो वहाँ के परमाणु स्वच्छ है दूसरी संसार सम्बन्धी सब कार्यों से निवृत्ति मिलेगा इत्यादि सूरिजी का कहना स्वीकार कर राजा ने अपने पुत्र धर्मसेन को राज्य देकर शत्रुजय का संघ निकालने की तैयारी करनी शुरू कर दी। चतुर्विध श्रीसंघ को श्रामन्त्रण भेज कर बुलाये । सब सामग्री तैयार हो जाने पर सूरिजी महाराज ने संघपतिपद महाराजा चन्द्रसेन को दिया और शुभमुहूर्त में संघ प्रस्थान कर दिया क्रमशः यात्रा करते हुए सिद्धगिरि पर आये और वहाँ की यात्रा कर अनेक सुकृत कार्य किये राजा चन्दन जैनधर्म का एक महान प्रभाविक राजा हुआ एवं जैनधर्म का खूब प्रचार बढ़ाया। ___ भगवान महावीर की परम्परा में चतुर्थ पट्टधर श्राचार्य शय्यं भवसूरि हुये। आपका जीवन प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के जीवन प्रकरण में लिखा जा चुका है कि आपने भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा देख कर प्रतिबोध पाया था। जैसे कहा है कि: यत्-सिजंभवं गणहरं जिणपडिमादसणेण पडिबुद्धं । आचार्य शव्यंप्रभसूरि जाति के ब्राह्मण थे आचार्य प्रभवस्वामी के पास दीक्षा लेकर चतुर्दशपूर्वधर ए और अपने पुत्र मनक को दीक्षा देकर उनका स्वल्प आयु जान कर उनको श्राराधिक पद देने के लिये दशवैकालिक सूत्र की रचना की। कहा है कि:कृतं विकालवेलायाँ, दशाध्ययनगर्भितम् । दशवकालिकमिनि नाम्ना शास्त्रं बभूव तत् ॥१॥ अतः परं भविष्यति, प्राणिनोह्यल्पमेधसः । कृतार्थास्ते मनकवत् , भवतु त्वत्प्रसादतः ॥ २ ॥ श्रुताँभोजस्य किंजल्कं, दशवैकालिकं ह्यदः । आचम्पाचम्प मोदन्ता-मनगार मधुव्रताः ॥ ३ ॥ इति संघोपरोधेन, श्रीशय्यंभव सूरिभिः । दशवैकालिको ग्रन्थो, न सवत्रे महात्मभिः ॥ ४ ॥ __ आचार्य शर्यभवसूरि गृहस्थावास २८ वर्ष व्रत ११ वर्ष युगप्रधान २३ वर्ष एवं सर्वायुष्य ६२ वर्ष का पूर्ण कर वीर निर्वाण से ९८ वें वर्ष में आप अपने पट्टधर मुनिवर्य यशोभद्र को प्राचार्य पद पर नियुक्त कर स्वर्ग को प्राप्त हुए। आचार्य वर श्री यक्षदेव सप्तम पट्टधर हुये। आप क्षत्रिय वंश भूषण सिंध पद्रावित हुये ॥ आखेट को जाते हुये श्री ककराजकुमार को। नृप रुद्राट लाखों मनुज उपकृत किये हरभार को॥ करके कृपा आचार्य ने यों सिंध को जीवन दिया। भ्राँति सबकी दूर करजिनधर्म में दीक्षित किया। । इति श्री पार्श्वनाथ प्रभु के सातवें पाट पर आचार्य श्रीयक्षदेवसूरि महाप्रभाविक हुये । २३१ www.gamelibrary.org Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३४२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास -प्राचार्य कक्कसूरि आचार्योऽष्टम कक्कमूरिर्भवत्क्षत्रस्य वंशाङ्कुरःसौराष्ट्रऽथ च कच्छदेश विषयेभ्रान्त्वा च देव्यावलिम् । सेवित्वा नृपज तथा जनगणं राजान मादिश्य-वाहिंसायाः परमं व्रतं जिनमते जातो मुनि हीरकः । प्राचार्य कक्कसूरि-- श्रापश्री के लिये विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि श्राप पहले पढ़ आये हैं कि श्राप शिवनगर के राजा रुद्राट के पुत्र थे। प्राचार्य यक्षदेवPory सूरि के उपदेश से सिन्ध जैसे पाखण्डियों के प्रदेश में जैनधर्म का प्रचार करने में काफी सफलता पा चुके थे। कई जैन मन्दिरों का भी आपने निर्माण करवाया था। इतना ही क्यों पर आप अपनी चढ़ती जवानी में राज रमणी एवं संसारी सुखों को तिलांजलि देकर अपने पिता राव रूद्राट एवं १५० नर-नारियों के साथ सूरिजी के चरण-कमलों में भगवती जैन दीक्षा ली थी। तत्पश्चात् ज्ञानाभ्यास करने में भी आपने कुछ भी उठा नहीं रक्खा अर्थात स्वपरमत के साहित्य का ठीक अध्ययन कर लिया । तत्पश्चात प्राचार्य यक्षदेवसूरि ने आपको सर्वगुण सम्पन्न जान कर, प्राचार्य पद से विभूषित कर चतुर्विध संघ के नायक बनाये । आचार्य कक्कसूरि-तरुण सूर्य के किरणों की भांति अपने प्रखर ज्ञान का चारों ओर प्रकाश करने में कुछ भी उठा नहीं रक्खा । श्राप सच्चे प्रतिज्ञा पालक थे। आपने जिस समय दीक्षा ली थी उस समय प्रतिज्ञा की थी कि मैं सब से पहले जननी जन्मभूमि का उद्धार करके ही दम लुगा और आपने ऐसा ही किया। इतना ही क्यों पर आपने तो हजारों सिन्धी सुपुत्तों को जैनधर्म में दीक्षित भी कर दिये ।। धन्य है सिन्ध भूमि के सुपुत्त नर रत्नों को कि जिन्होंने मांसाहारी सिन्ध प्रदेश को आज जैनधर्ममय एवं अहिंसाप्रधान भुमि बना दी। जहाँ देखो वहाँ ऊँचे २ शिखर वाले जैन मन्दिरों की ध्वजायें, मनुष्य मात्र को धर्म की ओर आकर्षित कर रही हैं। यह सब स्वर्गस्थ आचार्य यक्षदेवसूरि के प्रबल पुरुषार्थ एवं राजकुवर कक्क अर्थात् आचार्य कक्कसूरि की असीम कृपा का ही सुन्दर एवं स्वादिष्ट फल है । अस्तु । ___एक समय आचार्य कक्कसूरि अपने ५०० शिष्यों के साथ सिन्ध भूमि में विहार करते हुए शिवनगर की ओर पधार रहे थे। जैसे कोई चक्रवर्ती विजय कर अपने नगर की ओर आ रहा हो । बस, नगरवासियों को खबर मिलते ही उनका उत्साह ऐसा बढ़ गया कि जैसे शरद पूर्णिमा के चन्द्र की शीतल किरणों से समुद्र का जल बढ़ जाता है । क्या राजा और क्या प्रजा, सब लोग सूरिजी के स्वागतार्थ बहुत दूर तक गये । जब सूरिजी के दर्शन हुये तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा। बड़े ही समारोह के साथ नगर-प्रवेश करवाया। महावीर मन्दिर का दर्शन कर उपाश्रय में पधारे और थोड़ी पर वैराग्यमय हृदयग्राही देशना दी जिसका प्रभाव उपस्थित लोगों पर बहुत अच्छा हुआ। २३२ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भगवान पार्श्वनाथ के ८ वाँ पट्टधर आचार्य श्री ककसूरिजी महाराज **********........ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५८ श्रीसंघ की अत्याग्रह प्रार्थना को मान देकर सूरिजी ने वह चतुर्मास शिवनगर में करना स्वीकार कर लिया और वहां की जनता को जिनवाणीरूपी अमृतपान से हमेशा सिंचन करने में ही प्रस्तुत रहते थे। एक समय का जिक्र है कि सूरीश्वरजी महाराज रात्रि समय धर्म प्रचार की भावना में तल्लीन थे और विशेष यह विचार कर रहे थे कि धन्य है ! पूज्य आचार्य स्वयं प्रभसूरि, रत्नप्रभसूरि और यक्षदेवसूरि को कि जिन्होंने अनेकानेक कठिनाइयों एवं परिसहों की तनिक भी परवाह न करते हुए, नये २ प्रान्तों में भ्रमण करके जैनधर्म का खूब ही प्रचार किया तो क्या मैं उनके बनाये हुए श्रावकों की रोटियें खाकर ही अपनी जीवनयात्रा समाप्त कर डालूगा या मैं भी कहीं अज्ञात प्रदेश में जाकर जैनधर्म का प्रचार करूंगा इत्यादि आचार्यश्री मन ही मन में तर्क वितर्क कर रहे थे, इतने में एक आवाज ऐसी सुनाई दी कि भो आचार्य! आप यदि कच्छ प्रान्त में विहार करें तो आपको बड़ा भारी लाभ होगा और आपकी जो मनोभावना है वह भी सफल होगी इत्यादि । इस प्रकार के वचन सुन कर आचार्यश्री एकदम चौंक उठे और इधर उधर देखा तो कोई भी व्यक्ति नजर नहीं आया । सूरिजी ने सोचा कि यह अदृश्य शक्ति कौन है ? कि जो मुझे कच्छ में जाने की प्रेरणा कर रही है । इतने में तो देवी मातुला प्रत्यक्ष आकर कहने लगी कि प्रभो ! आप हमारे सिन्ध के सुपुत्त हैं आपने सिन्ध का उद्धार किया, पर अब श्राप कच्छ प्रान्त में पधारें । जैसे आपके पूर्वजों ने नये जैन बनाने में सफलता प्राप्त की है वैसे ही आपको भी सफलता मिलेगी और कच्छ जैसे मिध्यात्व व्यापक प्रदेश में जाना आप जैसे समर्थ पुरुषों का ही काम है न कि कोई साधारण व्यक्ति वहाँ जाकर कुछ कार्य कर सके । अतः पुनः प्रार्थना है कि आप कच्छ प्रदेश में अवश्य पधारें । प्राचार्य श्री ने कहा 'तथास्तु' देवीजी ! मैं जानता हूँ कि हमारे पूर्वजों को भी आप जैसे शासनशुभचिन्तक देवों का ही इशारा मिला था और उन पूज्यवरों ने अपने कृत कार्यो में सफलता भी पाई; अतः मुझे भी विश्वास है कि आपकी सहायता से मैं भी अपने कार्य में अवश्य सफलता पाऊंगा । बस, देवी तो अदृश्य हो गई । सूरिजी ने निश्चय कर लिया कि कल सुबह ही कच्छ की ओर विहार कर देना चाहिये । प्रभात होते ही सूरिजी ने अपने श्रमण संघ को आमन्त्रण कर अपना विचार प्रगट कर दिया कि मेरा विचार कच्छ प्रदेश की ओर विहार करने का है । अतः कठिन से कठिन तपश्चर्या के करने वाले एवं बड़े से बड़े परिसहों को सहन करने वाले मुनि मेरे साथ चलने को तैयार हो जाइये और शेष साधुओं को इस सिन्ध की भूमि में विहार कर स्वात्मा का कल्याण के साथ जनता को धर्मोपदेश दे उनका कल्याण करते रहना चाहिये । इस बात की मैं आज्ञा देता हूँ। सिन्ध प्रदेश में अधिक विहार उपकेशगच्छाचार्यों का ही हुआ था । अतः वहाँ की जनता का संगठन वल बहुत ही मजबूत था कि राग, द्वेष केश और कद्वाग्रह को कहीं स्थान नहीं मिलता था, परन्तु जब वहाँ भी नये २ गच्छधारियों के पैर जमने लगे तो वहाँ का वह हाल नहीं रहा; फिर भी विक्रम की १३ शताब्दी तक तो केवल एक उपकेशगच्छ उपासकों के अधिकार में ५०० जैन मन्दिर थे । देखिये :-- यस्य देवगृहस्येच्छा, श्राद्देच्छावाऽपियस्यताम् । पूरये तत्र मद्देव, गृह पंचशती मम ॥ श्रावका अप्यसंख्याता, श्वलता तो झटित्यपि । संक्लेश कारकं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेत् ।। -उपकेशगच्छ चरित्र ४०३, ४८४ श्लोक २३३ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३४२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वीरों की सन्तान भी वीर ही होती है । सूरिजी का वासक्षेप ही वीरता का था अतः ऐसा एक भी साधुसूरिजी के पास नहीं था कि इस कार्य में पीछे पैर रक्खे । साधुओं ने बड़ी प्रसन्नता प्रगः करते हुए कहा कि हे पूज्यवर ! परोपकार और जैन धर्म के प्रचार के लिये संकट परिसह तो क्या पर हम अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार हैं। कीजिये आप विहार, हम सब साधु आपकी सेवा में चलने को तैयार हैं। बस, फिर तो था ही क्या ? श्राचार्यककसूरि ने शेष साधु षों के लिए अच्छी व्यवस्था कर डाली और शिवनगर का राजा शिव तथा और भी संघ अग्रेश्वरों की सम्मति लेकर सूरिजी ने अपने ५०० शिष्य समुदाय के साथ कच्छ की ओर विहार कर दिया। विहार के दरम्यान मार्ग का हाल तो जो सिन्ध में अाते हुये यक्षदेवसूरि का हुआ था वही हाल कक्कसूरि का हुआ । पर मुनिपुङ्गवों को इसकी कुछ भी परवाह नहीं थी। वे मार्ग में धर्म का उपदेश देते हुये एवं भूखे प्यासे रहते हुये भी आनन्द के साथ कच्छ की ओर जा रहे थे। एक समय का जिक्र है कि एक ओर तो साधु तपस्वी थे । दूसरी ओर पानी तक भी नहीं मिला तो सूरिजी ने साधुओं को ओर्डर दे दिया कि जिधर ग्राम देखो उधर जाकर जो कुछ भिक्षा का योग मिले तो पारण कर पात्रो, हम इधर रास्ते होकर जा रहे हैं। शाम को सब शामिल हो जावेंगे। जब साधु इधर उधर चले गये तो आचार्यश्री स्वयं रास्ते की भ्रान्ति से चार साधुओं के साथ एक महान अटवी में जा निकले जहाँ चारों ओर जंगल म.ड़ियें और विषम भूमि दिखाई दे रही थी। दिशाएँ अपनी भयंकरता का इतना प्रभाव डाल रही थीं कि मनुष्य तो क्या पर पशु-पक्षी भी वहां ठहर नहीं सकते थे। इधर तरुण सूर्य अपने प्रचण्ड प्रताप से विश्व को व्याकुल बना रहा था, पर हमारे आचार्यश्री उसकी पर्वाह नहीं करते हुए बड़ी खुशी के साथ अटवी का उल्लंघन कर रहे थे। उस भयंकर अटवी के अन्दर चलते हुए आपश्री क्या देख रहे हैं कि एक पर्वत के निकट देवी का मन्दिर है। एक तरफ अनेक भैंसे बकरे आदि पशु बंधे हुए हैं तब दूसरी ओर बहुत से जंगली आदमी खड़े हैं । देवी के सामने एक महान तेजस्वी तरुणावस्था में पदार्पण किया हुआ नवयुवक बैठा हुआ है, जिसकी भव्याकृति होने पर भी चेहरे पर कुछ ग्लानि छाई हुई दृष्टिगोचर हो रही थी। उस तरुण के पास में ही एक निर्दय दैत्य सा आदमी अपने कर हाथों में कुठार उठाये हुये खड़ा है । शायद तरुण की ग्लानि का कारण यह ही हो कि उस कुठार द्वारा उसकी देवी को बलि चढ़ाई जाय । ___ उस घृणित दृश्य देख कर आचार्यश्री को उस तरुण पर वात्सल्य भाव हो आया; अतएव सूरिजी महाराज एकदम चल करके वहां गये और उन करवृत्ति वालों से कहने लगे कि महानुभावो! यह आप क्या कर रहे हैं ? उन लोगों ने उत्तर दिया कि तुमको क्या जरूरत है, तुम अपने रास्ते जाओ। सूरिजी ने कहा कि मैं आपके इस चरित्र को सुनना चाहता हूँ कि आपने इस सुकुमार के लिये यह क्या तजवीज कर रक्खी है ? एक मठपति बोला कि तुम नहीं जानते हो यह जगदम्बा महाकाली है, बारह वर्षों से इसकी महापूजा होती है । बत्तीस लक्षण संयुक्त पुरुष की बलि देकर सम्पूर्ण विश्व की शान्ति की जाती है । इस पर सूरिजी महाराज ने सोचा कि अहो आश्चर्य ! यह कितना अज्ञान ! यह कितना पाखण्ड !! यह कितना दुराचार !!! जहाँ नरबलि दी जा रही है। २३४ Jain Educatio n ational Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५८ प्राचार्य-जगदम्बा अर्थात् जगत की माता, क्या माता अपने बालकों का रक्षण करती है या भक्षण? जंगली-तुम क्या समझते हो ? यह भक्षण नहीं है पर जिसकी बलि दी जाती है वह सदेह स्वर्ग में जाकर सदैव के लिये अमर बन जाता है । प्राचार्य -- तो क्या आप लोग सदैव के लिये अमर बनना नहीं चाहते हो ? जो इस नवयुवक को अमर बना रहे हो। जंगली-देवी की कृपा इस पर ही हुई है। श्राचार्य --- क्या आप पर देवी की कृपा नहीं है ? जंगली --देवी की कृपा तो सम्पूर्ण विश्व पर है। श्राचार्य-तो फिर एक इस तरुण की ही बलि क्यों ? जंगली-बकवाद मत करो, तुम अपने रास्ते जाओ। श्राचार्य -- भद्रो ! तुम इस निष्ठुर कर्म को त्याग दो, इस घृणित कर्म से देवी खुश नहीं होगी, परन्तु भवान्तर में तुमको इसका बड़ा भारी बदला देना पड़ेगा। जंगली-कह दिया कि तुम अपना रास्ता पकड़ो। आचार्य-लो हम यहां आपके पास में ही खड़े हैं, देखें तुम इस नवयुवक के लिये क्या करते हो ? जंगली ने युवक पर कुठार चलाना प्रारम्भ किया पर सूरिजी महाराज के तप तेज से न जाने उसका हाथ क्यों रुक गया कि अनेक प्रयत्न करने पर भी वह अपने हाथ को नीचा तक भी नहीं कर सका। इस अतिशय प्रभाव को देख सब लोग विमुग्ध बन गये और आचार्यश्री के सामने देखने लगे कि यह क्या बलाय है ? आचार्यश्री ने फरमाया कि भव्यो ! देवी-देवता हमेशा उत्तम पदार्थों के भोक्ता हैं न कि ऐसे घृणित पदार्थों के । यह तो किसी मांसभक्षी पाखण्डियों ने देवी देवताओं के नाम से कुप्रथा प्रचलित की है और इससे शान्ति नहीं पर एक महान् अशान्ति फैलती है। इतना ही नहीं पर इस महान् पाप का बदला नरक में जाकर देना पड़ेगा, इस वास्ते पाप कार्य का त्याग कर दो। अगर तुमको देवी का ही क्षोभ हो तो लो, देवी की जुम्मेवारी में अपने शिर पर लेता हूँ। आप इन भैंसे, बकरों और युवक को शीघ्र छोड़ दो। कारण, जैसे तुमको अपने प्राण प्यारे हैं वैसे इनको भी अपना जीवन वल्लभ है । जगत में छोटे से छोटे और दुःखी से दुःखी जीव सब जीवित रहना चाहते हैं, मरना सबको प्रतिकूल है। किसी जीव को तकलीफ देना भी नरक का कारण होता है तो ऐसी महान् घोर रुद्र हिंसा का तो पूछना ही क्या ? मैं आपको ठीक हितकारी शिक्षा देता हूँ कि आप अपना भला अर्थात् कल्याण चाहते हैं तो इस पापमय हिंसा का त्याग करो । जंगली टीग २ नेत्रों से सूरिजी के सामने देखते हुये चुपचाप रहे, कारण चिरकाल से पड़ी हुई कुरुदी का एकदम त्याग करना उन अज्ञानी लोगों के लिये एक बड़ी मुश्किल की बात थी, तथापि सूरिजी महाराज का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि वे कुछ बोल नहीं सके । १-एकदा विहरन सूरि स्त्यक्त मार्ग: सुविस्मिाः । देव्यालयं गतस्तत्र ददशे च नृपात्मजम् ॥ देवगुप्त मनाय्यस्तु, बलिं देव्यै समर्पितम् । तदारक्षच्च सूरिस्त मनार्यान् सं प्रबोध्य च ॥ सरितो लब्ध दीक्षस्तु, देवगुप्तोऽभवन्मुनिः । गुरु कृपा प्राप्त ज्ञानः शरणोल्लीढ़ इवाऽशनिः । २३५ www.amelibrary.org Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३४२ वर्षं | [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य ने उस नवयुवक के सामने देखते हुये कहा कि महानुभाव ! आपके चेहरे से तो ज्ञात होता है कि आप किसी उच्च खानदान के वीर हैं । फिरे समझ में नहीं आता है कि तुम इन निरपराधी मूक प्राणियों की त्रास को नजरों से कैसे देख रहे हो ? बस, तरुण ने सूरिजी के यह बचन सुनते ही बड़ी वीरता से उठ कर उन भैंसे बकरों को एकदम छोड़ दिया और सूरीजी महाराज के चरणों में शिर झुका कर बोला कि भगवान ! श्राज हमको नया जन्म देने वाले आप हमारे धर्मपिता हैं। आप के इस परोपकार को मैं कभी नहीं भूल सकूंगा । श्राचार्य - महानुभाव ! इस में ऐसी कौनसी बात है हमने ऐसी कोई अधिकता नहीं की है ? यह तो हमारा कर्तव्य ही है और इसके लिये ही हम अपना जीवन अर्पण कर चुके हैं, पर मुझे आश्चर्य इस बात का है कि इन पाखण्डियों के चक्र में आप कैसे फंस गये ? नवयुवक - महाराज ये लोग स्वर्ग भेजने की शर्त पर हम को यहां लाये थे। अगर आप श्रीमानों का पधारना न होता तो न जाने ये निर्दयी लोग मेरी क्या गति कर डालते । आपका भला हो कि आपने मुझे जीवन संकट से बचाया। अब मेरा जीवन तो श्रापश्री के चरणों में अर्पित है । यह कहते ही उस तरुण के हृदय की व्याकुलता के कारण नेत्रों से आंसुत्रों की धारा बहने लगी । श्राचार्य - महानुभाव ! घबराओ मत ! अगर आपको इस बात का अनुभव हो गया हो और अपने भाइयों को इस संकट से बचाना हो तो वीरतापूर्वक इस श्रासुरी नीच कुप्रथा को जड़मूल कि तुम्हारी तरह और किसी को दुःखी न होना पड़े । उखाड़ दो युवक – महाराज ! आपका कहना सत्य है, और मैं प्रतिज्ञापूर्वक श्रापके सामने कहता हूँ कि आप हमारे नगर में पधारें । मैं थोड़े ही दिनों में इन पाखण्डियों के पैर उखाड़ दूंगा ! क्योंकि इन दुराचारियों का मुझे ठीक अनुभव हो गया है । 1 आचार्य - हे भद्र ! हम इतने ही साधु नहीं, पर हमारे साथ बहुत से साधु हैं । हम लोग रास्ता भूल कर इधर आ गये हैं और हमारे साधु न जाने किस तरफ गये होंगे ? कारण हम सब लोग इस भूमि की राह से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। अगर यहाँ से कोई ग्राम नजदीक हो तो उसका रास्ता हमको बतला दीजिये । युवक - पूज्यवर ! यहाँ से बारह गाठ पर हमारी भद्रावती नगरी है, अगर आप वहाँ पर पधार जावें तो हम लोग आपके लिये सब इन्तजाम कर देंगे । आचार्यश्री ने इस बात को स्वीकार कर लिया। बस, वह नवयुवक साथ में हो गया और क्रमशः सायंकाल होते ही भद्रावती नगरी में पहुँच गये। नगरी के बाहर किसी योग्य स्थान (बगीचे) में आचार्य श्री को ठहरा कर वह नवयुवक सूरिजी की आज्ञा लेकर नगर में गया । आचार्यश्री के साथ जो नवयुवक था वह इस भद्रावती नगरी के महाराजा शिवदत्त का लघु पुत्र होश- हवास उड़ रहे थे, राज- अन्तेवर देवगुप्त था । जिस राजकुमार के लिए राजा एवं राज सम्बन्धियों के में रोना-पीटना मच रहा था, नगर के लोग चिन्तातुर थे; कारण, दिन भर चारों ओर खूब शोध खोज करने पर भी देवगुप्त लापता था। नगर भर में जहाँ देखो वहाँ यही चर्चा चल रही थी कि आज राजकुंवर देवगुप्त न जाने कहाँ चला गया कि जिसका अभी तक कुछ भी पता नहीं मिला है । २३६ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूर का जीवन ] [ औसवाल संवत् ५८ इधर देवगुप्त ने सूरिजी को बगीचा में ठहरा कर सीधा ही राजभुवन में गया और अपने पिता से मिल कर सब हाल उनको सुना कर कहा कि पूज्य पिताजी ! भला हो इन महात्माजी का कि काल के मुंह में गये हुए को मुझे बचा लिया इत्त्यादि । उस घृणित दुराचार का वर्णन करते हुए देवगुप्त का सब शरीर कांप उठा था, जिसको देख राजा ने उन मठपतियों की घातक वृति पर बहुत अफसोस किया और अपने पुत्र को जीवन दान देने वाले आचार्यश्री के प्रति भक्ति भाव से प्रेरित हो देवगुप्त को साथ ले आचार्यश्री के चरणों में हाजिर हुआ और नमस्कार कर बोला 'भगवान ! आपने मेरे पर बड़ा भारी उपकार किया इसका बदला तो मैं किसी प्रकार से नहीं दे सकता हूँ, पर अब आप अपने भोजन के लिए फरमावें कि आप भोजन बनावेंगे या हम बनवा लावें " । आचार्य―न तो हम हाथ से रसोई बनाते हैं न हमारे लिए बनाई रसोई हमारे काम में श्राती है और हमको इस समय भोजन करना भी नहीं है। बहुत से साधुओं के तपश्चर्या भी है, इधर सूर्य भी अस्त होने की तैयारी में है और सूर्यास्त होने के बाद हम लोग जलपान तक भी नहीं करते हैं । देवगुप्त - भगवान् ! ऐसा तो न हो कि आप भूखे रहें और हम भोजन करें। अगर आप अन्नजल नहीं लें तो हम भी प्रतिज्ञा करते हैं कि हम भी अन्नजल न लेंगे । बस, देवगुप्त ने भी उस रात्रि सूरि जी का अनुकरण किया अर्थात् अन्नजल नहीं लिया । इसका नाम ही सच्ची भक्ति है । देवगुप्त ने सूरिजी के अन्य साधुओं की खबर लेने को आदमी भेजे तो रात्रि में ही खबर मिल गई थी कि नगरी से थोड़े ही फासले पर एक पर्वत के पास सूर्य्यास्त हो जाने पर सूरिजी महाराज की राह देखते हुये सब साधु वहाँ ही ठहरे हैं । देवगुप्त ने यह समाचार सूरिजी महाराज के कानों तक पहुँचा दिया, मुनिवर्ग अपने ध्यान में मग्न हैं । इधर भद्रावती नगरी में उन पाखण्डियों की पापवृति के लिये जगह २ धिकार और आचार्यश्री की परोपकार-परायणता के लिये भूरि २ प्रशंसा हो रही थी । सूर्योदय होने के पश्चात इधर तो आचार्य श्री ने अपनी नित्य क्रिया से निवृत्ति पाई, उधर राजा प्रजा बड़े ही उत्साह एवं समारोह के साथ सूरिजी महाराज के दर्शनार्थ और देशनारूपी अमृतपान करने की अभिलाषा से असंख्य लोग श्राकर उपस्थित हो गये। सूरिजी महाराज ने भी धर्मलाभ के पश्चात देशना देनी प्रारम्भ की। आचार्य ककसूरिजी महाराज बड़े ही समयज्ञ थे । श्रापने अपने प्रभावशाली व्याख्यान द्वारा उन पाखण्डियों की घोर हिंसा और व्यभिचार वृत्ति पर कड़ी आलोचना की, जिसको सुन कर जनता को उन पाखण्डियों की पाप वृत्ति पर घृणा आने लगी इत्यादि । सूरिजी के व्याख्यान का उपस्थित लोगों पर इतना प्रभाव हुआ कि राजा और प्रजा एकदम सूरिजी महाराज मण्डेली झण्डा के नीचे जैनधर्म की शरण में आ गये अर्थात जैनधर्म स्वीकार करने को तैयार हो गये श्राचार्य श्री ने भी अपने वासक्षेप से उनको पवित्र बना कर जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा दे, जैनी बना लिए। इतना ही नहीं, पर महाराजकुमार देवगुप्त ने तो प्रतिज्ञापूर्वक कह दिया कि मैं तो सूरिजी महाराज के समीप दीक्षा लेकर कच्छ देश एवं जननी जन्मभूमि का उद्धार करूंगा । । जैसे दिन प्रतिदिन आचार्यश्री का व्याख्यान होता रहा वैसे जैनधर्म का प्रचार बढ़ता गया तथा सदाचार की वृद्धि के साथ साथ दुराचार के पैर भी उखड़ते गये। इनके अलावा जैन मन्दिर और जैन २३७ www.jalnenbrary.org Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ३४२ वर्ष [ भगवान् पाश्वनाथ को परम्परा का इतिहास विद्यालयों की खूब मजबूत नीवें डाली जा रही थीं कि भविष्य के लिए भी जनता में जैनधर्म की सुदृढ़ श्रद्धा और ज्ञान का प्रचार होता रहे। प्राचार्यश्री की आज्ञानुसार कई मुनि श्रआस पास के ग्रामों में उपदेश कर अहिंसा धर्म का प्रचार भी किया करते थे। कच्छ प्रदेश में कई असें से जैन धर्म का नाम तक लुप्त सा हो गया था, पर इस समय प्राचार्य श्री कक्कसूरिजी ने फिर से जैन धर्म का बीज बो दिया। इतना ही नहीं, पर उनके सुन्दर अंकुर भी दिखाई देने लग गये थे। महाराज कुमार देवगुप्त और उनके सहचारी १२५ नरनारी जो जैन दीक्षा के लिए उम्मीदवार थे उन्हें सूरिजी महाराज ने बड़े ही समारोह से जैन दीक्षा दी और हजारों नहीं पर लाखों लोगों को जैनधर्मापासक बनाये । राजा प्रजा का अत्याग्रह देख तथा भविष्य के लाभालाभ पर विचार कर आचार्यश्री ने वह चतुर्मास भद्रावती नगरी में ही किया। आपश्री के विराजने से वहाँ पर बड़ा भारी लाभ हुआ। सद्ज्ञान के प्रचार द्वारा जनता की श्रद्धा जैनधर्म पर विशेष सुदृढ़ हो गई। आसपास के ग्रामों में भी सूरिजी महाराज का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा अर्थात् थोड़े ही दिनों में जैन. धर्म एक नवपल्लव वृक्ष की भांति फलने फूलने लग गया। चतुर्मास के पश्चात आचार्यश्री एवं मुनि देव गुप्तादि कच्छभूमि में विहार कर चारों ओर जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे। मुनि देवगुप्त ने पहिले से ही प्रतिज्ञा की थी कि मैं दीक्षा लेकर सब से पहिले अपनी मातृभूमि का उद्धार करूंगा । इसी माफिक आपने धर्मध्वज हाथ में लेकर चारों ओर पाखण्डियों की पोप लीला यज्ञ होमादि में असंख्य प्राणियों की होती हुई घोर हिंसा और दुराचारियों की व्यभिचार-वृत्ति समूल नष्ट कर जहाँ तहाँ अहिंसा भगवती का ही प्रचार किया। जैनधर्म का खूब झण्डा फहराया। आचार्यश्री ककसूरि जी ने जैसे महान परिश्रम उठाया था वैसे ही आपश्री को महान् लाभ भी प्राप्त हुआ कारण कच्छभूमि में जनधर्म का प्रचार किया, सैकड़ों मुनियों को दीक्षा दी, सैकड़ों जनमन्दिरों की प्रतिष्ठा और कई जन. विद्यालयों की स्थापना करवाई, लाखों लोगों को जनधर्मोपासक बनाया इत्यादि। आपने अपने पूर्ण परिश्रम द्वारा अधोगति में जाती हुई जनता का उद्धार किया ! जिस समय मरुस्थल का श्रीसंघ सूरिजी महाराज की विनती के लिए आया था उस समय कच्छ में तीर्थाधिराज श्री सिद्धगिरि की यात्रा निमित्त संघ की बड़ी भारी तैयारियां हो रही थीं. पट्टावलिकारों ने इस संघ के लिए इतना वर्णन किया है कि सिन्ध और कच्छ के सिवाय मरुस्थलादि प्रान्तों के अनेक लोगों से कच्छ मेदिनी विभूषित हो रही थी, हजारों हस्ती रथ अश्व वगैरह सवारियाँ और सोना चांदी के देरासर रत्नों की प्रतिमायें श्रादि बहुत श्राडम्बर से संघ के लिए साम्रप्री तैयार हो रही थी तथा अनेक वाजित्रों से गगन गूंज उठा था । करीबन पांच हजार साधु साध्वि और लाखों गृहस्थ यात्रा निमित्त संघ में एकत्र हुए थे । इस में मुख्य प्रेरक मुनि देवगुप्त ही थे और आपको इस बात का बड़ा ही आनन्द भी आता था। सूरिजी महाराज के दिये हुए शुभ-मुहूर्त से महाराजा शिवदत्त के संघपतित्व में संघ रवाना हुआ। क्रमशः तीर्थ यात्रा करता हुआ श्री सिद्धगिरि का दूर से दर्शन करते ही हीरा, पन्ना और मुक्ताफल से तीर्थ पूजा की और सूरिजी महाराज के साथ भगवान् आदीश्वर की यात्रा कर सब लोगों ने अपने जीवन को पवित्र किया । इस सुअवसर पर प्राचार्यश्री ने देवगुप्त को योग्य समम श्री संघ के समक्ष सिद्धाचल की शीतल छाया में वासक्षेप के विधि-विधान से आचार्य पद से विभूषित कर अपना भार आचार्य देवगुप्तसूरि .२३८ Jain Education international Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५८ को सुपुर्द कर दिया। प्राचार्यश्री की समय-सूचकता को देख श्रीसंघ में बड़ा ही हर्ष और आनन्द मंगल छा गया। सिद्धिगिरि की यात्रा के पश्चात आचार्य देवगुप्त सूरि की अध्यक्षता में संघ वापिस लौट गया और आचार्य ककसूरि सौराष्ट्र लाट वगैरह में विहार कर मरुभूमि की और पधार गये : अर्बुदाचल की यात्रा कर चन्द्रावती, शिबपुरी, पद्मभावती साचउर और श्रीमालादि क्षेत्र को पावन करते हुए आप कोरंटपुर पधारे वहां प्राचार्य सोमप्रभसूरि आदि हजारों साधु साध्धियां आपश्री के दर्शनों की पहिले से ही प्रतीक्षा कर रहे थे। राजा प्रजा ने सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़ा भारी गहोत्सव किया, कितनेक दिन वहां विराज के चिरकाल से देशना-पिपासु भव्य जीवों को धर्मोपदेश से संतुष्ट किया । श्राचार्यश्री की अध्यक्षता में कोरंटपुर के श्रीसंघ ने एक विराट सभा करने को आस-पास में विहार करने वाले साधु साध्वियों और अनेक ग्राम नगरों के श्रीसंघ को आग्रह पूर्वक आमन्त्रण भेजा। इस पर प्रथम तो आचार्यश्री का चिरकाल से पधारना हुआ इस वास्ते उनके दर्शन का लाभ, दूसरा यह प्राचीन तीर्थरूप स्थान है भगवान महावीर की मूर्ति का दर्शन, तीसरे श्रीसंघ एकत्र होगा उनका दर्शन, चौथे श्राचार्यश्री की अमृतमय देशना का लाभ और हजारों साधु साध्वियों के दर्शन, पांचवे धर्म और समाज-सम्बन्धी अनेक सुधार होंगे इत्यादि कारणों को लेकर हजारों साधु साध्वियां और लाखों श्रावक श्राविकायें एकदम एकत्र हो गये। देवगुरु और श्रीसंघ के दर्शन एवं यात्रा के पश्चात सूरिजी महाराज के मुखारविन्द की देशना पान के लिये सब की अभिलाषा हो रही थी। उस समय जनता की धर्म पर कैसी श्रद्धा थी जिसका यह नमूना है। सूरीश्वरजी महाराज ने चतुर्विध संघ के अन्दर खड़े हो अपनी वृद्धवय होने पर भी बड़ी बुलन्द आवाज से धर्मदेशना देना प्रारम्भ किया । आपश्री ने अपने व्याख्यान के अन्दर श्रमणसंघ की तरफ इशारा कर फरमाया कि प्यारे श्रमणगण ! आप जानते हो कि एक प्रान्त में भ्रमण करने की अपेक्षा देश-देशान्तर में विहार करने से स्वपरात्मा का कितना कल्याण होता है वह मैं अपने अनुभव से आपको बतला देना चाहता हूँ कि प्राचार्य स्वयम्प्रभसूरि ने पूर्व से पधार कर श्रीमाल नगर और पद्मावती नगरी में हजारों नये जैन बनाये । आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में लाखों श्रावक बनाये, आचार्यश्री यक्षदेवसूरि ने सिन्ध जैसे देश को जैनमय बना दिया, इतना ही नहीं पर मेरे जैसे पामर प्राणियों का उद्धार भी किया। मेरे विहार के दरम्यान कच्छ जैसा पतित देश भी श्राज जैनधर्म का भली-भांति आराधन कर स्वर्ग मोक्ष के अविकारी बन रहे हैं। अभी तक ऐसे प्रान्त भी बहुत हैं कि जहां पूर्व जमाने में जैनध' का साम्राज्य वरत रहा था, आज वहां जैनधर्म के नाम को भी नहीं जानते हैं, उस प्रदेश में जैनमुनियों के विहार की बहुत जरूरत है। आशा है कि विद्वान मुनि कमर कस के तैयार हो जायंगे। साथ में आपश्री ने फरमाया कि जैसे मुनिवर्ग का कर्तव्य है कि देश विदेश में विहार कर जैनधर्म का प्रचार कर, जैसे श्राद्धवर्ग का भी कर्तव्य है कि इस कार्य में पूर्णतया सहायक बनें। नूतन श्रावकों के प्रति वात्सल्य भाव रक्खें, उनके साथ सब तरह का व्यवहार रक्खें, अपने २ ग्राम नगर में जैन विद्यालय और जैन मन्दिरों का निर्माण करवा के शासनकी सेवा का लाभ हासिल करें इत्यादि । सूरीश्वरजी महाराज की देशना से श्रोताजन को यह सहज ही में ख्याल हो आया कि आचार्यश्री के हृदय में ही नहीं,पर नस २ में और रोम २ में जैनधर्म का प्रचार करने की बिजली चमक उठी है । जिसको ही आपने वाणि द्वारा व्यक्त की है। २३९ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्यश्री के प्रभावशाली उपदेश का असर जनता पर इस कदर हुआ कि उनकी नस २ में खून उबल उठा और जैनधर्म का प्रचार करना एक खास उनका कर्तव्य बन गया था । तदनुसार बहुत से मुनिपुङ्गवों ने हाथ जोड़ सूरिजी से अर्ज करी कि भगवान् ! आप आज्ञा फरमा उसी देश में हम विहार करने को तैयार हैं, जैनधर्म के प्रचार के लिये कठिनाइये और परिसह की हमको परवाह नहीं है । पर हम अपने प्राण देने को भी तैयार हैं। इत्यादि इसी माफिक श्रीसंघ ने भी आप श्रीमानों की आज्ञा को शिरोधार्य करने की भावना प्रदर्शित करी; इस पर सूरिजी महाराज को बड़ा सन्तोष हुआ और यथायोग्य आज्ञा फरमा कर श्रीसंघ को कृतार्थ किया । बाद जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। तदनन्तर कोरंटपुर श्रीसंघ एवं आचार्य सोमप्रभसूरि ने सूरीश्वरजी महाराज को चतुर्मास की विनती करी और लाभालाभ का कारण देख आचार्यश्री कक्कसूरि और सोमप्रभसूरि ने कोरंटपुर में चतुर्मास किया। प्राचार्यश्री के कोरंटपुर में विराजने से शासन-प्रभावना, धर्म का उद्योत, जनता में जागृति आदि अनेक सद्कार्य हुये। इतना ही नहीं पर आस पास के गांवों में भी अच्छा लाभ हुआ। बाद चतुर्मास के आपश्री ने मरुस्थल के अनेक ग्राम नगरों में विहार कर धर्म प्रचार बढ़ाया। क्रमशः आप श्रीमानों का पधारना उपकेशपुर की तरफ हुआ । यह शुभ समाचार मिलते ही उस प्रान्त में मानों एक नई चैतन्यता प्रगट हो गई। उपकेशपुर के श्रीसंघ ने सूरिजी का बहुत उत्साह से स्वागत किया। श्रीसंघ के आग्रह से ५०० मुनियों के साथ वह चतुर्मास उपकेशपुर में ही विराज कर जनता में परोपकार और जैनधर्म का प्रचार बढ़ाया, बाद आपकी वय वृद्ध होने से आप कई असे तक वहाँ ही विराजमान रहे । आपने दिव्य ज्ञान द्वारा अपना अन्तिम समय जान आलोचनापूर्वक अठारह दिन का अनशन कर लुणाद्रिगिरि पर फाल्गुन शुद्ध ७ के दिन समाधिपूर्वक काल कर स्वर्गवास किया। आचार्यश्री के देहान्त से श्री संघ में बड़ा भारी शोक छा गया, आपश्री का अग्नि-संस्कार हुआ था उस जगह आपश्री की स्मृति के लिये एक बड़ा भारी विशाल स्तूप कराया जिसकी सेवा भक्ति से जनता अपना कल्याण कर सके। लुणाद्री पहाड़ी जनता के लिये एक कल्याण-भूमि एवं तीर्थरूप मानी जाती है यद्यपि चिरकाल होने के कारण वहाँ इतने चिन्ह तो नहीं मिलते हैं, तथापि कुछ २ निशान अभी मौजूद हैं । विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में एक मुनि ने वहाँ अनशन किया जिनकी पादुका वहाँ विद्यमान है। आठवे पट्ट आचार्य श्रीककसरिजी हुए, ___ जो क्षत्री कुल अवतंस थे उस्थान में समर्थ हुए । कच्छ भुज सौराष्ट्र में बली की प्रथा को नष्ट कर, ___ बली दे रहे थे सुकुँवर को रक्षित किया अज्ञान हर । राजा प्रजा को पथ दिखाया जैन धर्म में प्रवृत किया, जो तप्त थे भव ताप से उनको सदय अमृत दिया । इति भगवान् पार्श्वनाथ के आठवें पट्ट पर आचार्य कक्कसूरि महान् प्रभाविक सूरि हुए। २४. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ भगवान महावीर की परम्परा ५-भगवान महावीर के पांचवे पट्ट पर आचार्य यशोभद्ररूरि महा प्रतिभाशाली हुये । आप तुगियन गोत्र के वीर थे । आपने संसार को असार जान आन्तरिक वैराग्य भाव से प्रार्य शय्यंभवसूरि के चरणकमलों में भगवती जैन दीक्षा धारण की थी। तत्पश्चात् अभिरुचि और परिश्रम द्वारा आगमों का अध्ययन किया तो श्राप द्वादशांग के पारंगत हो गये थे, जिसमें स्वमत परमत के आप पूर्ण रूपेण ज्ञाता थे। आपने अपने परोपकारी जीवन में शासन की उन्नति के साथ अनेक भव्यों का उद्धार किया। वादी प्रतिवादियों के साथ शास्त्रार्थ में आप सदैव ही विजयी रहते थे। आपके समय जैनधर्म का चारों ओर प्रचार हो रहा था। वादियों पर तो आपकी इतनी छाप पड़ती थी कि वे आपका नाम सुन कर दूर दूर भागते थे । वेदान्तियों का मत फीका सा पड़ गया था । बोद्धभिक्षु यत्र-तत्र घूम २ कर अपना प्रचार बढ़ाने की कोशिश करते थे, पर जैनश्रमण जहाँ तहाँ खड़े कदम उपदेश कर जनता को सन्मार्ग पर लाने में प्रयत्नशील रहते थे, इत्यादि । श्राचार्य यशोभद्रसूरि के शासन में यों तो हजारों मुनि आत्म-कल्याण कर रहे थे पर एक अग्निदत्त नाम का मुनि शासन का ऐसा शुभचिन्तक था कि वह वर्तमान ही नहीं पर भविष्य के लिये भी शासन का सदैव विचार किया करता था। एक समय अग्निदत्त मुनि आचार्य यशोभद्रसूरि के पास आया और भविष्य का प्रश्न किया कि हे ज्ञानेश्वर ! भविष्य में जैन शासन का क्या हाल होगा इसका उद्योत करने वाला कौन होगा ? तथा जैन शासन को मांका दिखाने वाला भविष्य में कौन होगा ? इस पर श्रुतकेवली एवं अवधिज्ञानी आचार्य श्रीयशोभद्रसूरि ने कहा कि हे अग्निदत्त ! भगवान महा. वीर के निर्वाण के बाद २९१ वर्ष जाने पर मौर्य मुकुटमणि सम्राट सम्प्रति होगा और वह भारत और भारत के बाहर जैनधर्म का खूब प्रचार करेगा और जैन मन्दिरों से मेदिनी मंडित कर जैनधर्म का उद्योत करेगा और सम्प्रति राजा के बाद १६९९ वर्ष जाने पर बावीस गोटीले वणिक पुत्र होगा, वह श्रत धर्म की अवहेलना करेगा, उस समय हे अग्निदत्त ! श्रीसंघ की राशि पर अड़तीसवाँ धूम्रकेतु नामक दुष्ट ग्रह का संक्रमण होगा । उसकी स्थिति ३३३ वर्ष की होगी उसके बाद पुनः शासन का उदय होगा इत्यादि । इसका सारांश यह हुआ कि वीरात् २९१ में सम्राट सम्प्रति हुआ और उसने जैनधर्म का प्रचार बढ़ा कर शासन की खूब उन्नति की । बाद १६९९ वर्ष में श्रुतज्ञान की अवहेलना करने वाले २२ गोष्ठीक पुत्र हुये, अर्थात् २९१ + १६९९ = १९९० अर्थात् वि० सं० १५२० के बाद जिनप्रतिमा का विरोध करने वाले पैदा हुये । ठीक उस समय इधर तो भस्मगृह की स्थिति का अन्त होता है और वह बुझते हुये दीपक की भांति एक बार अपना अन्तिम तेज दिखाने का साहस करता है और उधर श्रीसंघ की राशि पर धूम्रकेतु नामक दुष्ट ग्रह का संक्रमण होने का समय था । इन दोनों क्रूर ग्रह के कारण शासन में एक ऐसा बंड पैदा हुआ कि उन गोठीलों ने श्रुत, सिद्धान्त, टीका, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वगैरह, सूत्र मानने से इनकार कर दिया। इतना ही क्यों पर जैनधर्म के स्तम्भ रूप मंदिर मूर्तियों का भी विरोध किया; जिनसे जैन शासन को बड़ा भारी नुकसान हुआ तथा जैन. धर्म की क्रियाओं के विरुद्ध आचरणों के कारण संसार में जैनधर्म की हीनता भी करवाई। खैर, आगे चल कर उस धूम्रकेतु की अवधि पूर्ण होने के पहिले भी उसने जाते २ भी अपना प्रभाव इस कदर बतलाया कि जैन ३१ २४१ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास धर्म के दया दान रूपी मुख्य दो सिद्धान्तों पर कुठाराघात करने वाले पैदा हुये; जब उन क्रूर प्रहों ने संघ राशि से विदा ली, तब जाकर पुनः जैनशासन का उदय होने लगा इत्यादि। आचार्य यशोभद्रसूरि की भविष्यवाणी सुन कर अग्निदत्त मुनि परम वैराग्य को प्राप्त हो तप संयम की आराधनापूर्वक स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया । x इत्यादि प्राचार्य यशोभद्रसूरिके शासनमें जैनधर्म की अच्छी उन्नति हो रही थी। अन्त में अचार्यश्री ने अपने पट्ट पर संभूतिविजय और भद्रबाहु दो मुनियों को प्राचार्य बनाकर वीर निर्वाण से १४८ वें वर्ष में जैनधर्म की आराधनापूर्वक स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। भगवान महावीर से यशोभद्रसूरि तक पट्टधर एक ही प्राचार्य होते आये, पर यशोभद्रसूरि ने अपने पट्टधर दो आचार्य बनाये थे;पर इसका यह अर्थ नहीं था कि उस समय जैन श्रमण दो विभागों में विभाजित हो दो समुदायें होगई थी पर जब तक संभूतिविजय गच्छनायक हो शासन चलाते रहे तब तक भद्रबाहु केवल गच्छ की सार, संभार का ही कार्य करते थे। संभूतिविजय सूरिका स्वर्गवास होने पर गच्छनायक पद भद्रबाहु को प्राप्त हुआ। भगवान् महावीर के छठे पट्ट पर आर्य संभूतिविजय हुए। आप मदर गौत्र दिवाकर पूज्य प्रभाविक आचार्य थे। आप भी चतुर्दश पूर्वधर श्रुत केवली द्वादशांग के धुरंधर विद्वान थे। आपने जैनधर्म का झंडा चारो ओर फहरा दिया था। आपके शासन समय भी हजारों साधु साध्वियाँ स्वकल्याणके साथ पर कल्याण करने में भागीरथ प्रयत्न किया करते थे। आपकी व्याख्यान एवं उपदेश शैली जैसी मधुर थी वैसी हृदयभेदी एवं रोचक भी थी । बौद्ध और वेदान्तियों के उपदेशक आपके सामने ऐसे तेजहीन दीखते थे कि जैसे सूर्य के सामने खद्योत । यही कारण था कि अनेक राजा महाराजा आदि मिथ्यात्व की राह छोड़ कर आपके सत्य पथ के पथिक बन अहर्निश जैनधर्म की आराधना करने में संलग्न रहते थे । आचार्य संभूतिविजय सूरि ने आठ वर्ष तक युग प्रधान पद पर रह कर जैन धर्म की बड़ी कीमती सेवा की और अन्त में वीर निर्वाण सं० १५६ में अनशन एवं समाधिपूर्वक नाशवान शरीर को त्याग कर स्वर्ग भूमि को सिधार गये। आचार्य भद्रबाहु-जब आर्य संभूतिविजय का स्वर्गवास हो गया तो चतुर्विध श्रीसंघ ने मिल कर आचार्य भद्रबाहु को गच्छनायक पद पर नियुक्त किया। आप प्राचीनगोत्र के महा प्रभाविक महापुरुष थे। ४ भणइ जस्सोभद्दसूरि, सुओवआगेण अग्निदत्त मुणि । सुणसु महाभाय जहा, सुअ हिलणमह जहाउदओ ॥ १॥ मुक्खाओ वीर पहुणो, दुसए हिय एग नवइ अहिएहिं । वरिसाइ सम्पइ नवो, जिण पडिमाराहओ हो ही ॥२॥ तत्तो अ सोलसएहिं, नवनवइसंजुएहि वरिसेहिं । ते दुट्टा वाणियगा, अवमन्नइस्संति सुयमेयं ॥ ३ ॥ तंमि समए अग्निदत्ता, संघसुयजम्मरासि नरकत्ते । अडतिसइमोदुठो, लगिस्सइधूमकउगहो ॥ ४ ॥ तस्स ठिइ तिन्निसया, तित्तिसा एगरासि वरिसाणं । तम्मियमीण पइटो, संघस्स सुयस्स उदआपच्छा ॥ ५॥ इय जस्सोभद्द गुरुणं, वयणं सोच्चामुणि सुवेरग्गे । पायहिणं कुणतो, पुणो पुणो वंदए पाऐ ॥ ६॥ आपुच्छिउणंसू रिं सुगुरु तह भद्दबाहु संभूयं । सलेहणा पवन्तो, गओग्गिदत्तो पढमकप्पे ॥ ७ ॥ वगचूलिया सूत्र का मूल पाठ Jain Ed.२४२nternational Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ आपकी दीक्षा आचार्य यशोभद्र के करकमलों से हुई थी। आप चतुर्दश पूर्वधर एवं श्रुतकेवली थे। आपका जीवन लिखने के पूर्व कुछ शंकास्पद प्रश्नों पर लिखना जरूरी है । १-आचार्य भद्रबाहु के विषय में जितने लेखकों ने भद्रबाहु जीवन लिखे हैं, प्रायः उन सबने श्रुतकेवली भद्रबाहु । को वराहमिहिर के लघुभ्राता लिखा है । इतना ही क्यों, पर इन दोनों भ्राताओं की दीक्षा भी एक ही साथ हुई । दोनों चतुर्दश पूर्वधर थे ! दोनों ज्योतिष विद्या के धुरंधर विद्वान थे । और दोनों ने ज्योतिष विषय के महान् ग्रंथों की रचना की, जिन्होंके क्रमशः वराहमिहिरसंहिता और भद्रबाहुसंहिता नाम हैं । पर भद्रबाहु लघु होने पर भी उन को आचार्य पद प्राप्त होने से वराहमिहिर रूष्ट होकर * जैनधर्म का त्याग कर दिया, इत्यादि लिखा है। पर जैन साहित्य का अवलोकन करने से किसी प्राचीन साहित्य में यह उल्लेख नहीं मिलता है कि श्रुतकेवलीभद्रबाहु वराहमिहिर के लघु भ्राता थे, पर कई प्रमाण इन से खिलाफ मिलते हैं कि श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ वराहमिहिर का कुछ भी सम्बन्ध नहीं था। इतना ही क्यों पर वराहमिहिर श्रुतकेवली भद्रवाहु के बाद कई आठ नौ शतादियों के पीछे हुआ था, जब वराहमिहिर और श्रुतकेवली भद्रबाहु के बीच आठ नौ शताब्दी का अन्तर है तो श्रुतकेवली भद्रबाहु और वराहमिहिर को समसामयिक एवं दोनों को भाई कैसे मान लिया जाय ? अर्थात् श्रुतकेवली भद्रबाहु का समय वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी है, तब वराहमिहिर का समय वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी का है। जब भद्रबाहु और वराहमिहिर समकालीन नहीं थे तो उनके निर्माण किये वराह संहिता और भद्रबाहु संहिता ज्योतिष के ग्रन्थ आज विद्यमान हैं वे किसने और कब लिखे ? इसका समाधान इस प्रकार हो सकता है कि विक्रम की छठवीं शताब्दी (वीर निर्वाण १०३२ ) में वराहमिहिर जो ऊपर बतलाया है उसका भाई भद्रबाहु होगा और उन दोनों ने जैन दीक्षा ली होगी । भद्रबाहु लघु होने पर भी उसको आचार्य १ श्रीभद्रबाहुस्वामीतुश्रीआवश्यकादिनियुक्तिविधाता। व्यंतरीभूतवराहमिहिरकृत संघोपद्रवनिवारकोपसर्गहरस्तवनेनप्रवचनस्य महोपकारं कृत्वा, पंचचत्वारिंशत् ४५ गृहे, सप्तदश १७ व्रते, चतुर्दश १४ युग प्र० चेति सर्वयुः षट् सप्तति ७६ वर्षाणि परिपाल्य श्रीवीरात् सप्तत्यकधिशत १७० व० स्वर्गभाक् छ। पट्टावली समुच्चय पृष्ठ ४४ ___"प्रतिष्ठानपुरे वराहमिहिरभद्रबाहुद्विजोबांधवौषत्रजितौ । भद्रबाहोराचार्यपददाने रुष्टः सन् वराहो द्विजवेषमादृत्य वाराहीसंहितांकृत्वानिमित्तैर्जीवति ।" बाल्पकिरणावली १६३ वराहोऽपि विद्वानासीत् । केवलमखर्वगर्व पर्वतारुढ़ः सूरिपदंयाचतेभद्रवाहाहसहोदर पार्थात् । भद्रबाहुनाभाषितःसः-वत्स ! विद्वानसि, क्रियावानसि,परंसगर्वोऽसि । सगर्वस्यसूरिपदं न दद्मः । एतत्सत्यमपि तस्मै न सस्वदे। यतो 'गुरुवचनममलमपि सलिलमिव महदुपजनयति श्रवणस्थितं शूलमभव्यस्य ।' ततो व्रतं तत्याज । मिथ्थावं गतः पुनर्द्विजवेषं जग्राह । प्रबन्ध कोष पृष्ठ २ * सप्ताश्वि वेद संख्यं शक कालमपास्य चैत्र शुक्ला दौ। अर्द्ध स्तमितेभानौ, यवनपुरेसौम्यादिवसाये ॥ "पंचसिद्धान्तिका" २४३ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पद मिल गया हो और इस कारण वराहमिहिर कुपित हो जैन धर्म की दीक्षा को छोड़ कर भद्रबाहु की भद्रबहुसंहिता की स्पर्द्धा में ही वराहसंहिता नामक ग्रन्थ निर्माण किया हो तो यह बात संभव हो सकती है अतः, वराहमिहिर के भ्राता भद्रबाहु अलग हैं और श्रुतकेवली चर्तुदशपूर्वघर भद्रबाहु अलग हैं। इसमें वराहमिहिर का अस्तित्व शक सं ४२७ ( वीर नि० सं० १०३२) का बतलाया है। ३ -- भद्रवाहु ओर चन्द्रगुप्त के विषय में एक संदग्ध प्रश्न और भी है उसका भी यहाँ उल्लेख कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा। वह प्रश्न निम्नलिखित है । दिगम्बर लेखकों ने लिखा है कि चन्द्रगुप्त ने १६ स्वप्ने देखे और भद्रबाहु से उन स्वप्नों का फल पूछा । भद्रबाहु ने उन अनिष्ठ स्वप्नों का भविष्य कहा जिससे चन्द्रगुप्त ने वैराग्य को प्राप्त हो भद्रबाहु के पास दीक्षा ग्रहण की और दुष्काल के समय श्राचार्य भद्रबाहु मुनिचन्द्रगुप्तादि १२००० की संख्या में संघ को लेकर दक्षिण की ओर चले गये । भद्रबाहु का स्वर्गवास दक्षिण में हुआ। बाद चन्द्रगुप्त मुनि एक पर्व पर तपश्चर्या करते रहे, अतः उस पर्वत का नाम चन्द्रगिरि पहाड़ हो गया इत्यादि । इस विषय का प्राचीन प्रमाण न तो श्वेताम्बर ग्रन्थों में है और न दिगम्बर ग्रन्थों में ही मिलता है। हाँ श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पहाड़ पर एक शिलालेख में भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का उल्लेख जरूर है । पं० मुनिश्री कल्याणविजयजी की मान्यता है कि उस लेख का समय शक संवत् ५७२ के श्रासपास का है । यदि यह मान्यता ठीक है तो यह आसानी से खयाल किया जा सकता है कि उस समय के किसी चन्द्रगुप्त भद्रबाहु के पास दीक्षा ली होगी। इस बात को पूर्वोक्त लेख ही सिद्ध कर रहा है। कारण, प्रस्तुत लेख में न नो भद्रबाहु को श्रुतकेवली कहा है और न चन्द्रगुप्त को मौर्य ही कहा है । ने 1 इस विषय का दिगम्बर समुदाय में सब से प्राचीन ग्रन्थ हरिषेणकृत वृहत्कथा कोष है । यह ग्रन्थ शक संवत ८५३ ( वि० सं० ९८८ ) में रचा हुआ है । इसमें श्रुतकेवली भद्रबाहु के मुख से दुर्भिक्ष का हाल सुन कर उज्जैन के चन्द्रगुप्त ने दीक्षा ली। आगे चल कर उस चन्द्रगुप्त को दशपूर्वघर बना कर विशाखाचार्य नाम का उल्लेख किया है इस कथा से पाटलीपुत्र का मौर्य चन्द्रगुप्त से यह उज्जैन का चन्द्रगुप्त भिन्न है। तब श्रुतकेवली भद्रबाहु से उज्जैन के चन्द्रगुप्त को दीक्षा देने वाले भद्रबाहु स्वतः अलग सिद्ध होते हैं। इनके अलावा पार्श्वनाथ वस्ती में शक संवत् ५२२ के आसपास का एक शिलालेख भी मिलता है, उसमें भद्रबाहु की भावि सूचना से संघ के दक्षिण में जाने का उल्लेख है पर उससे यह कदापि सिद्ध नहीं होता है कि जिनकी दुर्भिक्ष सम्बन्धी सूचना से जैन संघ दक्षिण की ओर गया था वे भद्रबाहु श्रुतके - वली ही थे, परन्तु दिगम्बरों के लेखों से ही सिद्ध होता है कि वे भद्रबाहु श्रुतकेवली की परम्परा में होने वाले दूसरे भद्रबाहु थे, जिनकी निमित्तवेत्ता के नाम से प्रसिद्धि हुई थी, जिसका प्रस्तुत लेख निम्नलिखित हैमहावीरसवितरि परिनिर्वृते भगवत्परमर्षि गौतमगणधर साक्षाच्छिष्यलोहार्य जम्बु-विष्णुदेवापराजित-गोवर्द्धन-भद्रबाहु- विशाख प्रोष्ठिल- कृत्तिकाय - जयनाम-सिद्धार्थ धृतिषेण- बुद्धिलादि-गुरुपरम्परीणक - ( क्र ) माभ्यागत महापुरुषसंतति समवद्योतितान्वय- भद्रबाहु स्वामिनाउज्जय न्याम - टांग- महानिमित्ततत्त्वज्ञानत्रैकाल्यदर्शिनानिमित्तेन द्वादशसंवत्सरकालवैषम्यमुपलभ्य कथिते सर्व संघ उत्तरापथाद्दक्षिणापथं प्रस्थितः " श्रवणबेलगोल की पार्श्वनाथ वस्ती का लेख २४४ Jain Education international Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कर का जीवन 1 [ ओसवाल संवत् ११२ ― चन्द्रगुप्त को पाटलीपुत्र का राजा न लिख कर उज्जैन का ही राजा लिखा है: "अवंति विषयेऽत्राथ, विजिताखिलमंडले । विवेक विनयानेक धन धान्यादि सम्पदा || ५ || अभादुज्जयिनी नाम्ना, पुरी प्राकारवेष्टिता । श्रीजिनागार सागार - मुनि सद्धर्म मंडिता ॥ ६ ॥ चन्द्रावदात सत्कीर्त्तिश्चंद्रवन्मोदक (कुन्नू) णाम् । चन्द्रगुप्तिर्नृपस्तत्राऽ च कच्चारु गुणोदय ||७|| भट्टारक रत्नानंदि कृत भद्रबाहु चरित्र २ परिच्छद । भट्टारक शुभचन्द्र ने अंग पन्नति नामक प्रन्थ में भद्रबाहु को अंगधर बतलाया है जिसका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी के आस पास का स्थिर हो सकता है । देखिये :"अग्गम अंगि सुभद्दो, जसभदो भदबाहु परमगणी । आयरिय परंपराइ, एवं सुदणाणमा वहदि || ४६ || अंग पन्नति प्रस्तुत भद्रबाहु को त केवली नहीं पर अष्टांग निमितधर कहा है । "आयरियो भद्दबाहू, अट्ठ गमहणिमित्त जायरो | णिण्णासइ कालवसे, सचरिमो हु णिमित्ति ओ होदि ॥ ८ ॥ इत्यादि प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि दुष्काल के समय भद्रवाहु अपने चन्द्रगुप्तादि शिष्यों को लेकर दक्षिण में गये थे । वे भद्रवाहु विक्रम की दूसरी शताब्दी के आसपास निमित्तवेत्ता एवं ज्योतिष शास्त्र के विद्वान थे और उनका शिष्य चन्द्रगुप्त कोई गुप्तवंशी राजा होगा, जैसे श्वेताम्बर समुदाय में हरिगुप्त एवं देवगुप्त नाम के गुप्तवंशी क्षत्रियाँ ने दीक्षा लेकर आचार्य हुये थे । श्वेताम्बर ग्रंथों में यह भी लिखा हुआ मिलता है कि आचार्य श्री वज्रस्वामि के समय बारह वर्षीय दुष्काल पड़ा था । आपका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का था, अतः उसी समय दिगम्बर मतानुसार आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) चन्द्रगुप्तादि शिष्यों को लेकर दक्षिण की ओर गये हों तो यह बात संभव हो सकती है और इस कथन से श्रुतकेवली आर्य भद्रबाहु ( प्रथम ) अलग थे और निमितवेता दक्षिण की ओर जाने वाले आचार्य भद्रवाड (द्वितीय) अलग थे। उपरोक्त लेख का सारांश यह है कि भद्रबाहु नाम के तीन आचार्य हुए और इन तीन भद्रबाहु के समय चार बार दुष्काल पड़े थे जैसे कि १-आचार्य भद्रबाहु -- आपका समय वीरनिर्वाण की दूसरी शताब्दी और आप चतुर्दशपूर्वघर श्रुतकेवली के नाम से मशहूर थे २ - आचार्य भद्रबाहु - श्रापका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी और आपने उज्जैन के चन्द्रगुप्त को दीक्षा दे कर दक्षिण की ओर विहार करने वाले । ३- आचार्य भद्रबाहु - आपका समय दिगम्बरमत्तानुसार विक्रम की छठी शताब्दी का था और आपके वृद्ध भ्राता वराहमिहिर थे, इन भद्रबाहु ने भद्रबाहु संहिता नामक ग्रंथ की रचना की थी । A -- प्रथम बारह वर्षीय दुष्काल - आर्य भद्रबाहु के समय में । B - द्वितीय बारह वर्षीय दुकाल - मौर्य चन्द्रगुप्त के समय ( पं० मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराज के मतानुसार ) तथा आचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत परिशिष्ट पर्वानुसार । C - तृतीय बारह वर्षीय दुकाल -- श्रार्य सुहस्ती के समय - वीर नि० की तीसरी शताब्दी । २४५ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पृ० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास D-चतुर्थ-बारह वर्षीय दुष्काल आर्य ब्रज स्वामि के समय-विक्रम की दूसरी शताब्दी । इनके अलावा आचार्य भद्रबाहु के विषय एक प्रश्न और भी है जैसे दिगम्बरों के ग्रंथों में दुष्काल के समय १२००० संघ को साथ लेकर भद्रबाहु दक्षिण की ओर गये थे लिखा है । इसी प्रकार श्वेताम्बर ग्रंथों में दुष्काल के समय भद्रबाहु अग्ने ५०० शिष्यों को साथ ले कर नेपाल की ओर चले गये थे इसका उल्लेख आवश्यक चूणि आदि ग्रंथों में मिलते हैं; परन्तु परिशिष्टपर्व में आचार्य हेमचंद्र सूरि लिखते हैं कि उस काल के समय भद्रबाहु ने समुद्र के तट पर रह कर काल निर्गमन किया था। इन दोनों मतों का समाधान इस प्रकार हो सकता है कि शायद आचार्य भद्रबाहु दुष्काल के समय अपने शिष्यों को लेकर समुद्र तट पर अपने निर्वाह के लिये चले गये हों । कुछ अर्सा रहने पर वहाँ निर्वाह होता न देखा हो और वहाँ से नैपाल की ओर चले गये हों तो यह सम्भव हो सकता है। क्योंकि जब पाटलीपुत्र में जैन श्रमणों की सभा हुई थी उस समय भद्रबाहु नेपाल में ही थे और उनको बुलाने के लिये मगध से साधुओं को नेपाल भेजा था जिसका प्रमाण हम ऊपर उद्धृत कर आये हैं । । अतः यह कोई विशेष मतभेद नहीं है। इन शंकास्पद प्रश्नों का समाधान करके बाद अब हम आचार्यभद्रबाहुके जीवन पर प्रकाश डालते हैं । जैनपट्टावल्यादि ग्रन्थों में श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय मगध के सिंहासन पर मौर्य चंद्रगुप्त का राज होना भी बतलाया है । इतना ही क्यों पर मौर्य सम्राट जैनधर्मोपासक था और आचार्य भद्रबाहु स्वामी का परमभक्त भी था । एक समय सम्राट धर्म भावना को लक्ष्य में रख कर रात्रि के समय सो रहे थे तो आपने कुछ निद्रा और कुछ जागृत अवस्था में सोलह स्वप्न देखे और जागृत होने पर सोचने लगे कि ये क्या स्वप्न हैं और इनका भावी फल क्या होगा ? अतः आपने अपने गुरु आचार्य भद्रबाहु के समीप जाकर नम्रता पूर्वक निवेदन किया कि हे प्रभो ! मैंने सोलह स्वप्न देखे हैं उसका भविष्य में क्या फल होगा ? कृपया आप सुनाइये ? श्राचार्य भद्रबाहु ने उन स्वप्नों का फल कहते हुए बतलाया कि ।। १-पहिले स्वप्न में सम्राट ने कल्पवृक्ष की शाखा टूटी हुई देखी ? फल-अब से कोई भी मुकुटबन्ध राजा जैन दीक्षा नहीं लेगा, क्योंकि वे तृष्णारूपी कीचड़ में ऐसे फंस जायंगे कि इच्छा के होते हुए भी आजीवन संसार में ही रहेंगे। २- दूसरे स्वप्न में अकाल में सूर्य अस्त हुआ देखा ? फल-अब से किसी को केवलज्ञान उत्पन्न न होगा, क्योंकि पंचमारा के जीव मंद संहनन वाले और अल्प सत्वधारी होंगे; वे अपने मन की चंचलता को रोक नहीं सकेंगे । और बिना मनको रोके केवल ज्ञान नहीं होगा। * "तंमि य काले बारसवरिसो दुकालो उवठितो सञ्जताइतो य समुद्दतीरे अच्छित्ता पुणरवि पाडलिपुत्ते मिलिता अण्णसस्उद्देसओ अण्णस्स खंड एवं संघाडितेहिं तेहिं एक्कारस अंगाणि संघातिताणि, दिटूिठवादो नत्थि, नेपालवत्तणी भयवं भद्दबाहुस्सामी अच्छति चोदसपुब्बी।" -आवश्यक चूर्णि "इतश्चतस्मिन्दुष्कालेकरालेकालरात्रिवत् । निर्वाहार्थ साधुसंघस्तीरंनीरनिधेर्ययौ ॥” । -परिशिष्ट पर्व सगर P७६ Jain Educatoernational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ ३-तीसरे स्वप्न में छिद्र वाला चन्द्र को देखा ? फल--एक ही धर्म में अनेक मत पंथ फरिके समुदाये हो जायंगे और कुमति कदाग्रह के वशीभूत होकर उत्सूत्र प्ररूपना करके भद्रिक जीवों के संगठन को छिन्न-भिन्न करके उनको अनेक विभागों में विभाजित कर देंगे । ४-चौथे स्वप्न में भूतों को नाचते देखा ? फल-कुमति लोग मोह कर्म के वशीभूत होकर उच्छंखलतापूर्वक आप स्वयं नाना प्रकार के वेश-विटम्बक होकर नत्यकों की भांति नाचेंगे और अपने आश्रितों को न चावेंगे। ५-पाचवें स्वप्न में १२ फण वाला भुजंग देखा ? फल-भविष्य निकट में १२ वर्षीय दुष्काल पड़ेगा कालिकसूत्र आदि अव्यवस्थित होगा, मुनियों का आचार शिथिल हो जायगा। शुद्ध क्रिया पात्र बहुत कम रहेंगे। ६-छटे स्वप्न में देव विमान को गिरता हुआ देखा? फल-जंगाचारण, विद्याचारण आदि लब्धियां निस्तेज हो जायंगी । कितनेक वेश विटम्बक पेटार्थी ऐसे भी होंगे कि उन लब्धियों के नाम से या मंत्र, तंत्र आदि से जनता को लूट कर अपनी आजीविका चलावेंगे । ७-सातवें स्वप्न में कचरे वाली भूमि में कमल उगा देखा? फल-उच्चवर्ण वाले धर्म का आदर कम करेंगे, प्राय: वैश्य वर्ण में ही धर्म रह जायगा, जिसमें भी सूत्र सिद्धान्त एवं तात्विक विषय पर अरुचि और हास्य, शृगार वीर रस आदिक कौतुकी कथाओं पर रुचि होगी। ८-आठवें स्वप्न में आगिया (जुगनू) का प्रकाश देखा ? फल-जैनधर्म का प्रकाश सूर्य के सदृश्य था, वह अब अगिया के प्रकाश तुल्य रहेगा । जैन धर्म की पूजा सत्कार बहुत कम रहेगा और मिथ्यात्वियों का जोर बढ़ेगा और वे ही पाखंड के जरिये पूजा-सत्कार पायेंगे । ९-नवें स्वप्न में समुद्र को तीन दिशाओं में सूखा हुआ तथा दक्षिण दिशा में थोड़ा सा जल वह भी गदला हुआ देखा । फन-जिन कल्याणक आदि क्षेत्रों में धर्म की हानि होगी तथा दक्षिण दिशा में थोड़ा बहुत धर्म रहेगा, परन्तु उनमें भी मत, पंथ, क्लेश, कदाग्रह बहुत होगा । १०-दसवें स्वप्ने में स्वर्ण के पात्र में क्षीर खाते हुए श्वान को देखा ? फल-उत्तम घरों की लक्ष्मी नीच घरों में जावेगी और उसका वे लोग प्राय दुरुपयोग ही करेंगे । उच्च खानदान के सरल और साहुकार तकलीफें उठावेगा और अधर्मी चोर लुंचा बेइमान प्रायः आराम में रहेगा: ११-ग्यारहवें स्वप्ने में बन्दर को हाथी पर चढ़ा हुआ देखा ? फल-दुर्जन लोग सुखी रहेंगे और सज्जन लोग दुखी होंगे । उत्तम कुल वंश के राजाओं का राज अधर्मी लोगों के हाथों में जायगा और वे लोगों को आराम के बदले बहुत कष्ट पहुँचावेंगे, नाना प्रकार के दंड-कर लेकर प्रजा को दुखी करेंगे। १२-बारहवें स्वप्ने में समुद्र को मर्यादा उलंघन करते हुये देखा ? फल-अच्छे कुलीन लोग अपनी मर्यादा को छोड़ देंगे । पुत्र माता पिता एवं देव गुरु की भक्ति न कर उनका अपमान करेगा, स्त्रियां अपनी मर्यादा को छोड़ कर स्वच्छन्दतापूर्वक आचरण करेंगी। शिष्य गुरु का विनय करना छोड़ देगा । समाज निर्मायक हो जायगा । एक गच्छ में बहुत आचार्य होंगे, अहमीन्द्र बन कर दूसरों की निन्दा करेंगे इत्यादि । १३-तेरहवें स्वप्ने में एक बड़े रथ में छोटे बछड़े को जुड़ा देखा ? फल-वृद्ध लोग समाज एवं धर्म रूपी रथ को चलाने में असमर्थ होंगे, परन्तु नवयुवक एवं बच्चा धर्म कार्य में अग्र भाग लेंगे जब वे धर्म एवं समाज सुधार के कार्य करेंगे और वृद्ध लोग उसमें अनेक प्रकार के विघ्न करेंगे इत्यादि । २४७ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १४-चौदहवें स्वप्ने में महामूल्यवान रत्नों को तेज हीन देखा ? फल-बड़े मनुष्य एवं साधु जिन अपने खराब आचरणों से तेजहीन हो जायंगे, छापस में क्लेश, कदामह, निन्दा करेंगे, जनता में जंग मचायेंगे, सज्जनों को सुख से नहीं रहने देंगे इत्यादि । १५-पन्द्रहवें स्वप्ने में कुलीन राजकुमार को बैल पर सवार हुश्रा देखा ? फल-राजवंश मिथ्यात्वी पाखंडी ब्यभिचारी बहुभाषी, नीच पुरुषों की संगत करने से हलके आचार वाले होंगे। सत्पुरुष जैसे सज्जनों की अवहेलना करेंगे । धर्म से वेमुख हो धर्म और धर्मी पुरुषों की निंदा करेंगा-- १६-सोलहवें स्वप्ने में हाथियों के दो बच्चों को आपस में युद्ध करता हुआ देखा ? फल-गजा आपस में युद्ध करेंगे, साधारण लोग आपस में वैर भाव रक्खेंगे । एक दूसरे को नीचा गिराने की कोशिश करेंगे । आपस में इज्जत एवं धन की हानि पहुँचायेंगे ! इसी प्रकार साधु जिन क्षमा, दया, शील, संतोष को छोड़ कर आपस २ में द्वेष निंदा कलह कदाग्रह करेंगे। परिग्रह की ममता बढ़ायेंगी। यंत्र, मंत्र, तंत्र के नाम पर विचार गरीब लोगों को कष्ट पहुँचावेंगे इत्यादि । हे राजेन्द्र ! जो आपने रात्रि के समय १६ स्वप्ने देखे हैं जिससे भविष्य का बुरा हाल विदित होता है । इसमें भी जो महानुभाव धर्म अाराधन करेगा वह भविष्य में सुखी होकर परमपद को प्राप्त कर लेगा। सम्राटचन्द्रगुप्त आर्य भद्रबाहु के कहे हुये स्वप्नों का फल सुन कर अत्यन्त वैराग दशा को प्राप्त हुआ और श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी की पूर्ण कृपा से धर्म आराधन करने में संलग्न हो गया * आचार्य भद्रबाहु के संघनायक का समय वीर निर्वाण सं० १५६ से १७० तक का है तब मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण वीर निर्वाण संवत् १५५ का है और २४ वर्ष उन्होंने राज्य किया, अतः बी० नि० सं० १७९ में चन्द्रगुप्त का स्वर्गवास हुआ इससे प्राचार्य भद्रवाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त समकालीन कहे जा सकते हैं, परन्तु इतिहासवेत्ता पं० मुनिश्रीकल्याणविजयजी महाराज अपनी 'वीर निर्वाण संवत् और जैनकाल गणना' नामक किताब में तित्थोगाली पइन्ना का प्रमाण देते हुये लिखते हैं कि श्रतकेवली भद्रबाहु और मौर्य सम्राट् चद्रगुप्त किसी तरह से समकालीन नहीं हो सकते हैं क्योंकि भद्रबाहु का स्वर्गवास वि०नि० १७० वर्ष का है तब चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण समय वी० नि• सं० २१० का है इत्यादि । जिसको हम राजप्रकरण में स्पष्टीकरण करके बतलावेंगे, परन्तु इतना कह देना आवश्यक है कि प्राचार्य हेमचन्द्र सूरी ने अपना परिशिष्ट पर्वकै नामक ग्रन्थ में मौर्य चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण समय वीर निर्वाण स० १५५ का लिखा है । यह विषय खास विचारणीय है, जिसकी चर्चा हम आगे चल के करेंगे। यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि प्रथम आर्य भद्रबाहु जो संभूतिबिजय सूरि के बाद गच्छनायक हुये थे वे चतुर्दशपूर्वधर एवं श्रुत केवली थे और आपके समय बारह वर्षीय दुष्काल भी पढ़ा था। जैसे श्वेतांबर साहित्य में चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्ने का कथन है, वैमें दिगंवर साहित्य में भी चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्न देखना और भद्रबाहु ने उसके फल कहना भी लिखा है। यदि पं० कल्याण विजयजी के मतानुसार भद्रबाहु और चंद्रगुप्त समकालीन ही नहीं हैं तो यही मानना होगा णि यह भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त कोई दूसरे होंगे नो ऊपर बतलाये गये हैं। 8 एवंच श्रीमहावीर मुक्तेवर्षशतेगते, पंचपंचासादधिके, चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृप । परिशिष्ट पर्व सर्ग लोक ३३६ २४८ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ ___ जब दुष्काल के बुरे असर से साधुओं का निर्वाह नहीं होता देखा तो अपने ५०० साधुकों को साथ ले कर आचार्य हेमचन्द्रसूरि के मत से समुद्रतट एवं नेपाल तथा आवश्यक चूर्णी व पट्टावलियों के मत से नैपाल की ओर चले गये । शेष साधु जो पूर्व में रहे थे उनमें से कई एकों ने तो अनशन व्रत करके स्वर्ग की ओर कूच किया और कई साधुओं ने ज्यों त्यों कर अकालरूपी अटवी का उल्लंघन किया । उस दुष्काल की भयंकरता ने जैनश्रमण संघ पर इतना बुरा प्रभाव डाला कि उनको आगम भी विस्मृत होगये । जब पुनः सुकाल हुआ तो उन श्रमणों ने पाटलीपुत्र में एक सभा की * उसमें जिस २ मुनि को जो २ ज्ञान याद था उसको एकत्र कर ११ अंगों की तो शृखला ठीक कर ली परन्तु बारह वाँ अंग किसी को भी याद नहीं रहा । इस हालत में संघ ने सोचा कि बारहवाँ अंग आचार्य भद्रबाहु को याद है । उनको बुला कर योग्य साधुओं को अध्ययन करवाना चाहिए नहीं तो बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छेद हो जायगा । अतः भद्रबाहु को बुलाने के लिए मुनियों को नेपाल भेजा । वे मुनी नैपाल गये और भद्रबाहु के पास जा कर बन्दना की और श्री संघ का संदेश सुना दिया इस पर भद्रबाहु ने कहा कि इस समय मैं महाप्राण योग कर रहा हूँ अतः मैं चल नहीं सकता हूँ। मुनियों ने कहा कि यह शासन का भड़ा भारी काम है अतः श्रीसंघ की श्राज्ञा को मान दे कर श्रापको वहां पधार कर मुनियों को बारहवें दृष्टिवादांग का अध्ययन करवाना चाहिये । ताकि आपके बाद दृष्टिवाद अंग का विच्छेद होना रुक जाय, किन्तु इस पर भी भद्रबाहु ने लक्ष्य नहीं दिया। उस हालत में मुनियों ने कहा कि आप जानते हो कि श्रीसंघ की आज्ञा को भंग करे उसको क्या इतश्च तस्मिन्दुष्काले कराले कालरात्रिवत् । निर्वाहाथं साधुसंघस्तीरं नीरनिधेर्ययौ ॥ अगुण्यमानं तु तदा साधूना विस्मृतं श्रुतम् । अनभ्यसनतो नश्यत्यधीतं धीमतामपि ॥ सङ्घोऽथ पाटलीपुत्रे दुष्कालान्तेऽखिलोऽमिलत् । यदङ्गाध्ययनोद्देशाद्यासीद्यस्य तदाददे ॥ ततश्चैकादशाङ्गानि श्रीसङ्घोऽमेलयत्तदा । दृष्टिवादनिमिञ च तस्थौ किंचिद्विचिन्तयन् ॥ नेपालदेशमार्गस्थं भद्रबाहुँ च पूर्विणम् । ज्ञात्वा सङ्घः समाह्वातुं ततः प्रैपीन्मुनिद्वयम् ॥ गत्वा नत्वा मुनी तौ तमित्यूचाते कृताञ्चली । समदिशति वः सङ्घस्तत्रागमनहेतवे ॥ सोऽप्युवाच महाप्राणं ध्यानमारब्धमस्तियत् । साध्यं द्वादशभिर्नागमिष्याम्यहं ततः ॥ महाप्राणे हि निष्पन्ने कार्ये कस्मिंश्चिदागते । सर्व पूर्वाणि गुण्यन्ते सुत्रार्थाभ्याँ मुहूर्ततः॥ तद्वचस्तौ मुनी गत्वा सङ्घस्याशंसतामथ । सङ्घोऽप्यपरमाहूयादिदेशेति मुनिद्वयम् ।। गत्वा वाच्यः स आचार्यो यःश्रीसङ्घस्यशासनम् । न करोति भवेत्तस्य दण्डःक इतिशंसनः।। सङ्घबाह्यः स कर्तव्य इति वक्तियदा स तु ! तर्हि तद्दण्डयोग्योऽसीत्याचार्यो वाच्य उच्चकैः।। ताभ्यां गत्वा तथैवोक्त आचार्योऽप्येवमूचिवान् । मैवं करोतु भगवान्सङ्घः किं तु करोत्त्वदः ॥ मयि प्रसादं कुर्वाणः श्रीसङ्घः प्रहिणोत्विह । शिष्यान्मेधाविनस्तेभ्यः सप्त दास्यामि वाचनाः ॥ तत्रैकाँ वाचनाँ दास्ये भिक्षाचर्यात आगतः । तिस्टषु कालवेलासु तिस्रोऽन्या वाचनास्तथा ॥ प्राचार्य हेमचन्द्रसूरिकृत परिशिष्ट पर्व पृष्ट ८८ २२९ www.jainerbrary.org Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्रायश्चित श्राता है । इस पर भदबाहु समझ गये और कहा कि मैं दृष्टिवाद पढ़ाने से इन्कार नहीं करता हूँ पर इस समय मेरे महाप्राण योग चल रहा है मैं मगध में तो नहीं चल सकता हाँ यदि मेरे पास कोई मुनि तो मैं उनको पढ़ा सकता हूँ । इस पर वे मुनि पुनः मगध में श्राये और श्रीसंघ को भद्रबाहु के समाचार सुना दिये । इस पर स्थूलभद्रादि ५०० साधु नैपाल में गये और भद्रबाहु से दृष्टिवाद अंग का अध्ययन प्रारम्भ किया परन्तु भद्रबाहु को अपने योग के कारण समय बहुत कम मिलता था । जो समय मिलता उसी में ५०० साधुत्रों को अध्ययन कराया करते थे । अतः स्वाभाविक है कि वाचना बहुत कम मिलती थी । वाचना कम मिलने के कारण बहुत से साधुओं ने सोचा कि दृष्टिवाद अंग तो एक महान् समुद्र सदृश है । इस प्रकार वाचना मिलने से यह कब समाप्त होगा ? अतः वे निराश हो पढ़ना बन्द कर वहाँ से चले गये केवल एक स्थलिभद्र ही उनके पास रह कर जितना ज्ञान मिलता उसे पढ़ते रहे। इस प्रकार पढ़ते २ कई दशवां पूर्व की वाचना चलती थी तो एक दिन स्थलिभद्र ने विनय के साथ भद्रबाहु से पूछा कि भगवान् ! अब दृष्टिवाद कितना शेष रहा है ? भद्रबाहु ने कहा स्थलिभद्र अभी तो सरसव जितना पढ़ा है और मेरु जितना शेष रहा है । फिर भी स्थुलिभद्र हतोत्साही न होकर अभ्यास करते ही रहे आचार्य भद्रबाहु अपना योग समाप्त कर पुनः मगध की ओर पधार गये । स्थूलभद्र की सात बहिनों ने भी दीक्षा ली थी । जब भद्रबाहु के साथ अपना भाई स्थूलभद्र आया सुना तो वे वन्दन करने को गई । भद्रबाहु को वन्दन कर पूछा कि हमारा भाई मुनि स्थूलिभद्र कहां है ? हम उनको वन्दन करेंगे । भद्रबाहु ने इशारा किया कि उस तरफ है जाओ वन्दन कर आओ । जब साध्वियें वन्दन करने को स्थलिभद्र के पास जाती हैं तो स्थलिभद्र अपने ज्ञान का प्रभाव बतलाने को एक सिंह X का रूप धारण कर बैठ जाता है। जब साध्वियाँ वहाँ आई तो स्थलिभद्र को न देखा पर वहाँ एक सिंह बैठा देखा तो पुनः भद्रबाहु के पास आई और वहाँ का हाल कहा इस पर भद्रबाहु ने कहा जाओ अब तुमको स्थूलभद्र मिल जायगा । साध्वियां पुनः गई तो स्थुलिभद्र असली रूप में बैठा पाया फिर वन्दन किया और सिंह के विषय में पूछा तो स्थुलिभद्र ने कहा कि यह ज्ञान का ही प्रभाव था । भद्रबाहु ने सोचा कि स्थलिभद्र को ज्ञान पाचन नहीं हुआ है । जब स्थलिभद्र जैसे का ही यह हाल है तो दूसरों का तो कहना ही क्या है भविष्य में इस ज्ञान का दुरुपयोग न हो ? श्रतः उन्होंने वाचना देनी बन्द कर दी । स्थुलिभद्र ने अपनी भूल स्वीकार की और भविष्य के लिये प्रतिज्ञा कर ली कि अब कभी ऐसा न करूंगा । साथ में श्रीसंघ ने भी बहुत आग्रह किया कि यह पहिली भूल है इसको क्षमा कर आप स्थलिभद्र को वाचना दिरावे । अतः संघ आग्रह से चार पूर्व मूल पढ़ाया एवं स्थलिभद्र १० पूर्व ४ पूर्व मूल मिला कर १४ पूर्व के ज्ञाता हुये । भद्रबाहु के पूर्व प्राय: जैनश्रमण जंगलों में ब नगर के नजदीक उद्यानों में रह कर आत्मकल्याण करते थे पर जव १२ वर्षीय महा भयंकर दुष्काल के अन्दर साधुओं का जंगल में निर्वाह नहीं होता देखा तो शायद श्रीसंघ ने द्रव्य क्षेत्र काल भाव देख कर उस विकट समय के लिए प्रार्थना की होगी कि इस X दृष्ट्वा सिंहं तु भीतास्ताः सूरिमेत्य व्यजिज्ञपन् । ज्येष्ठार्यं जग्रसे सिंह स्तत्रसोऽद्यापि तिष्ठति ॥ आचार्य हेमचन्द्रसूरिकृत परिशिष्ठ पर्व पृष्ठ ८६ Jain Educationational Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ दुकाल के समय श्राप नगर में पधार जावे तथा दीर्घ दुकाल के कारण मुनियों के दिल में भी शिथिलता श्रा गई हो। कुछ भी हो पर उस समय के पूर्व जैननिर्ग्रन्थ प्रायः जंगल में ही रहते थे परन्तु उस दुकाल के कारण उन्होंने नगर में रहना स्वीकारकर लिया। यही कारण है कि आचर्य भद्रबाहु को उस विषम समय की विकट परिस्थिति को लक्ष में रख कर छेद सूत्रों का निर्माण करना पड़ा था जैसे वृहत्कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र दशाश्रु तस्कन्धसूत्र और इन सूत्रों में अन्यान्य नियमों के साथ साधुओं को ठहरने के लिये मकान उपाश्रयों का भी विधान बतलाया है। व्यवहार सूत्र में मकान के दाता के घर का आहार पानी आदि कोई भी वस्तु लेना साधुओं को नहीं कल्पता है । इतना ही क्यों पर जिस दुकान में दूसरों के साथ मकानदाता का विभाग हो तो उस दुकान से भी कोई पदार्थ साधु नहीं ले सकेगा तथा मकान का मालिक साथ चल कर दूसरों से जरूरी वस्तु साधु को दिरावे वह भी साधु को लेना नहीं कल्पेंगा मतलब यह कि मकान के दातार को साधुओं की ओर से किसी प्रकार की तकलीफ न होनी चाहिये ताकि दातार मकान देने में संकोच न करे इत्यादि । ___ वृहत्कल्पसूत्र में यह भी लिखा है कि यदि साधु-गृहस्थ के मकान में ठहरे तो यह मकान कैसा होना चाहिये ? जिस गृहस्थ का मकान में साधु ठहरे उस गृहस्थ को किसी प्रकार का नुकसान न होना चाहिये ? देखिये थोड़े से अवतरण यहां उद्धत कर दिये जाते हैं यथाः १-उवस्सयस्म अन्तो वगडाए सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणिवा तिलाणि वा कुलत्थाणि वा गोधुमाणि वा जवाणि वा जबजवाणि वा ओखिण्णाणि वा विक्खिण्णाणि वा विइगिण्णाणि वा विप्पइण्णाणिवा, नो कप्पई निग्गण्थाणा वा निग्गन्थीणा वा अहालन्दमविवत्थए । २-अह पुण एवं जाणेज्जा-नो ओखिण्णाईनो विक्खिन्णाइनो बिइगिण्णाई नो विप्पइण्णाई, रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियकडाणि वा लच्छियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा, कप्पइ निग्गन्थाणा वा निग्गन्थीण वा हेमन्तगिम्हासु वत्थए । ३-अह पुण एवं जाणेज्जा-नो रासिकडाई नो पुंजकडाइ नो भित्तिकडाई नो कुलियकडाई, कोट्ठाउत्ताणि व पल्लाउचाणि वा मंचाउत्ताणि वा मालाउत्ताणि वा ओलित्ताणि वा विलित्ताणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा, कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गन्श्रीण वा वासवासं वत्भए। ४-उवस्सयस्स अन्तो बगडाए सुरावियडकुम्भे वा सोवरियवियडकुम्भे वा उवनिकितने सिया, नो कप्पइ निग्गथाणवा निग्गन्थीण वा अहालन्दमवि वत्थए। हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एअरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए । जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाअोवा परं वसेज्जा, से सन्तरा छए वा परिहारे वा। ५-उवस्सयस्स अन्तो वगडाय सीओदगवियडकुम्भे वा उसिणोदगावियडकुम्भे वा उवनिक्खित्त सिया, नो कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा अहालन्दमवि वत्थए । हुरत्था य २५१ www.ainabrary.org Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेजा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए । जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसेजा, से सन्तर छए वा परिहारे वा। .. ६–उवस्सयस्स अन्तो वगडाए सञ्चराइए जोई झियाएज्जा, नो कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा अहालन्दमवि वत्थए । हुरत्था य उवस्मयं पडिलेहमाणे नो लभेजा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओवा वत्थए । जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाश्री वा परं वसेज्जा, से सन्तरा छेए वा परिहारे वा। ७- उवस्सयस्स अन्तो वगडाए सव्वराइए पईवे दिप्पेज्जा, नो कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा अहालन्दमवि वत्थए। हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वत्थए नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए । तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसेज्जा, से सन्तरा छैए वा परिहारे वा। ८-उवस्सयस्स अन्तो वगडाए पिण्डए वा लोयए वा खीरं वा दहिं वा सप्पि वा नवणीए वा तेल्ले वा फाणियं वा पूर्व वा सक्कली वा सिहिरिणी व ओखिण्णाणि वा विक्खिण्णाणि वा विइगिण्णाणि वा विप्पइणाणि वा नो कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गथीण वा अहालन्दमवि वत्थए । ९–अहपुण एवं जाणेजा नो ओखिण्णाइं ४ रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा, कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा हेमन्तगिम्हासु वत्थए । १०–अह पुण एवं जाणेज-नो रासिकडाइ ४ कोठाउत्ताणि वा पल्लाउत्ताणि वा मंचाउत्ताणि वा मालाउत्ताणि वा कुम्भिउत्ताणि वा करभिउत्चाणि वा ओलित्ताणि वा विलित्ताणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा वासावास वत्थए वृहत् कल्प सूत्र पृष्ठ ३ इस मूलपाठ में लिखा है कि जिस गृहस्थों का मकान में धन धान्य गुड़ घृत दुध दही पानी वगैरह के वरतन इधर उधर बिखरा हुआ पड़ा हो । रात्रिभर अग्नि एवं दीपक जलता रहे ऐसे मकान में हाथ की रेखा सूखे वहाँ तक भी नहीं ठहरना पर दूसरे मकान की याचना करनी । यदि दूसरा मकान नहीं मिले और कारणात् ठहरने की जरूरत हों तो १-२ रात्रि ठहर सकते हैं इस से अधिक ठहर जाय तो प्रायश्चित यानि तप तथा छेद प्रायश्चित के पात्र होते हैं। यदि पूर्वोक्त पदार्थों की साधारण व्यवस्था की हो तो एक मास तथा उन पदार्थों को कोठा वगैरह में रखकर ताला दिया हो और उन पर मुद्रका कर दी हो तो चर्तुमास करना कल्पता है । इन सब बातों को लक्ष्य में ली जाय तो यही मालूम होता है कि पूर्व जमाने में ग्राम नगरों में धर्मशाला वगैरह साधुओं के लिये ठहरने का स्थान नहीं थे। और वे प्रायः जंगलों में ही रहते थे। साधुओं की अपेक्षा साध्वियों के लिए तो और भी विशेष प्रबन्ध किया है जैसे: Jain E२५२ international Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११२ १-नोकप्पई निग्गन्थीणं सागारिय अनिस्साए वत्थए २-नोकप्पई निग्गन्थीणं पुरिससागरिए उपस्सए बत्थए ३-कप्पइ निग्गन्थीणं पडिबद्धवाए सेजाए वत्थए बृहत् कल्प सूत्र पृष्ठ २ इन अवतरणों से पाया जाता है कि जिस दुकाल की भीषण मार के कारण जैन श्रमणों ने प्राम नगरों में रहने की शुरूआत की थी उस समय नगरों में साधुओं के लिए धर्मशारायें उपाश्रम बनाने का उपदेश भी नहीं देते थे । इसके लिए प्राचरांग सूत्र में सख्त मना है । यदि कोई गृहस्थ साधु के लिए मकान बना भी दे तो उप्त मकान में साधु को पैर रखने की भी मनाई है तो उपदेश देकर नया मकान बनाने की तो बात ही कहां रही ? यही कारण है कि साधुओं के लिए बनाये मकान में साधु ठहरे तो सावध क्रिया एवं घन क्रिया का विधान आचारांग सूत्र में बतलाया । जैन श्रमणों के लिए उपाश्रय का होना तो प्रायः सम्राट सम्प्रति के समय से ही पाया जाता है । जब सम्प्रति ने नये नये मन्दिरों का निर्माण कराया था तो उसके एक विभाग में श्रमणों के ठहरने को मकान भी पना दिये हों और साधुओं के लिये प्राम तौर से उपाश्रय एवं वसतिवास की शुरूआत तो आचार्य जिनेश्वर सूरि से ही होने लगी थी जिसका समय विक्रम की ग्यारवी शताब्दी का है। प्राचार्य भद्रबाहु ने तीन छेद ग्रंथों के अलावे कई सूत्रों पर नियुक्तियों को भी रचना की थी जैसे आवश्यकसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, श्राचाराँगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र, ऋषिभाषितसूत्र, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र और दशाश्रुतस्कन्द इनके अलावा उबसगाहरं स्तोत्रादि भी बनाये थे। प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी जैन धर्म के महान आचार्य हुये । आप जैनशासन में खूब ही विख्यात है। श्राप ४५ वर्प गृहवास १७ वर्ष सामानवत १४ वर्ष युग प्रधान एवं ४६ वर्ष की आयु पाल कर वीर निर्वाणात् १७० वर्षे देवगति को प्राप्त हुये + प्राचार्य भद्रबाहु तक तो वीर-परम्परा में एक सौधर्मगच्छ ही चला आया था, पर श्राचार्य भद्रबाहु के चार शिष्य हुए उनसे पृथक २ गच्छ एवं शास्त्राए का निकलना प्रारम्भ हुआ ? जसे कि श्राचार्य भद्रबाहु गोदास अग्निदत्त जिनदत्त सोमदत्त गोदास नामक शिष्य से 'गोदास' नाम का गच्छा निकला और इस 'गोदास नामक गच्छ की चार शाखा हुई, यथा-तामलित्तिया, कोडिवरिसिया, पोडबद्धणिया, दासीखाबड़िया, बस ! गच्छ और शाखा को श्रीगणेश यहाँ से ही होना शुरू हुआ है; हां इन गच्छों और शाखाओं के अन्दर तत्वभेद या क्रियाभेद नहीं था जैसे बारहवों शताब्दी के गच्छों में हुआ था। केवल अपनी गुरु-परम्परा के कारण ही इस प्रकार के गण और शाखाओं का प्रादुर्भाव हुआ था और आगे चल कर वे एक एक गण शाखाओं में मिल कर पुनः एक रूप में भी हो गये, अतः उनका अस्तित्व चिरकाल नहीं रह सका। श्राचार्य यशोभद्रसूरि के पट्ट पर दो श्राचार्य हुए थे पर आगे चल कर प्राचार्य भद्रबाहु के बाद फिर स्थुनिभद्र नाम के एक ही आचार्य हुए, जिनका चरित्र आगे के पृष्ट में दिया जायगा।। + वीरमोक्षाद्वर्षशते सप्तत्यग्रेगतेसति । भद्रबाहुरपिस्वामीययौस्वर्ग समाधिना ॥ परिशिष्ट पर्वपृष्ट १० २५३ www.jamelibrary.org Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास राज प्रकरणा 0.000000 यों तो जैन धर्म क्षत्रियों का ही धर्म है इस धर्म के बर्तवान कालापेक्षा चौबीस तीर्थ क्षत्री बंश में अवतार लेकर समय २ पर जैन धर्म का उद्धार एवं प्रचार किया और जैनधर्म को विश्वव्यापी धर्म बना दिया। यही कारण है कि एक समय जैन धर्म राष्ट्रीय धर्म एवं विश्व धर्म कहलाता था । भूतकाल में जितने चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव, प्रति वासुदेव और मण्डलीक राजा महाराजा हुए वे प्रायः सबके सब जैन धर्मोपाशक प जैन धर्म प्रचारक ही थे । इन सबका इतिहास कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने 'षिष्ठि सिलिका पुरुष चरित्र' नामक ग्रन्थ में खूब विस्तार से लिखा था और वह गन्थ मुद्रित भी हो चुका है । तथा संक्षिप्त रूप से इसी प्रन्थ के श्रादि में कोष्टक के रूप में दे दिया गया है जिसके पढ़ने से पाठक स्वयं जान सकेंगे कि जैन धर्म कितना विशाल एवं जन कल्याण के लिये कितना उपादय है । मैंने इस पुस्तक में भगवान पार्श्वनाथ के समय से ही इतिहास लिखना प्रारम्भ किया है । अत: उस समय के जैनराजाओं का इतिहास इस प्रकरण में लिखा जाना न्याय संगत है । यह बात तो जगत्प्रसिद्ध है कि भगवान पार्श्वनाथ का जन्म काशी देश की बनारसी नगरी के राजा अश्वसेन की महाराणी वामादेवी की रत्नकुक्ष से हुआ था भगवान पार्श्वनाथ अपनी ३० वर्ष की आयु में संसार के भौतिक पदार्थों का त्याग कर जैन दीक्षा स्वीकार करली थी। राजा अश्वसेन के पार्श्व कुमार एक ही पुत्र था । जब राजा अश्वसेन का देहान्त हुआ तब आपके राज के लिये कोई भी उत्तराधिकारी नहीं था । काशी के पड़ोस में स्वगौत्रीय कौशल देश का राजा काशी को अपने अधिकार में करना चाहा पर कहा है कि 'जोरू जमीन जोर की, और जोर नहीं तो और की। इस युक्ति के अनुसार मगद की लच्छवी जाति के क्षत्री शिशुनाग नामक वीर पुरुष मगद से आकर काशी प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया और काशी पति बनकर वहाँ का राज करने लगा। जब राजा शिशुनाग का काशी में राज होने से उनके राज सैना कोष्टागार वगैरह का बल बढ़ गया बाद मगद देश के हितचिन्तक अग्रेश्वर लोग शिशुनाग राजा के पास आकर प्रार्थना की कि आप तो यहां पधार गये हैं पर मगढ़ में अराजकता छा गई है अतः आप मगद पधार कर एवं वहाँ का राज अपने स्वाधीन करके वहां की जनता को सुखी बनाने की कोशिस करें । राजा शिशुनाग ने उन लोगों की प्रार्थना स्वीकार कर के अपना काकवर्ण नामक पुत्र को काशी का राज संभला कर आप मद में ये और वहाँ की व्यवस्था ठीक कर वहाँ का राज भी अपने अधीन कर लिया । राजा २५४ Jain Education international Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककारि का जीवन ] | ओसवाल सं० ११२ शिशुनाग महान् शक्तिशाली एवं प्रतापी राजा हुआ है । जिसकी सन्तान शिशुनाग वंश के नाम से प्रसिद्ध हुई । वायुपुराण में लिखा है कि शिशुनागवंश के १० गजाओं ने ३३३ वर्ष तक राज किया है। जैन शास्त्रों में भगवान पार्श्वनाथ का जन्म ई० सं० पूर्व ८७७ वर्ष में हुआ लिखा है और ई० सं० पूर्व ८४७ वर्ष में पार्श्वनाथ ने संसार का त्याग कर दीक्षा ली तथा ई० सं० पूर्व ७७७ वर्ष में भगवान पार्श्वनाथ की मोक्ष हुई । उनके बाद १७८ वर्ष में भगवान महावीर का जन्म हुआ। भगवान महावीर ३० वर्ष गृहवास में रहने के बाद दीक्षा ली और ४२ वर्ष दीक्षा पाल कर अपना सर्वायु ७२ वर्ष पूर्ण कर ई० सं० पू० ५२७ घर्ष में मोक्ष गये । जिस दिन भगवान महावीर की मोक्ष हुई उसी दिन उज्जैन नगरी की गद्दी पर राजा पालक का राज अभिषेक हुआ और उसने ६० वर्ष तक राज किया । इधर उज्जैन में पालक राजा के राज का ६० वा वर्ष खत्म होता है उधर मगद की गद्दी पर नंदवंशी राजा नंदवर्धन का राज अभिषेक हुमा। इस हिसाब से भगवान महावीर मोक्ष होने के बाद मगद के सिंहासन पर ६० वर्ष शिशुनागवंश के राजा का राज रहा ! वायु पुराण के लेखानुसार शिशनाग वंश का राजकाल ३३३ वर्ष का माना जाय तो ई० सं० पूर्व ८०० वर्षे शिशुनाग वंश के गज का प्रारम्भ होता है और ई० सं० पूर्व ४६७ वें वर्ष अर्थात् भगवान महावीर की मोक्ष के बाद ६ वर्षे शिशुनाग वंश के राज का अन्त हुआ माना जा सकता है। परन्तु श्रीमान त्रिभुवनदास लेहरचंदशाह ने अपना 'प्राचीन भारत वर्ष' नामक ऐतिहासिक ग्रंथ में शिशुनाग वंश के राजाओं की वंशावली में शिशुनाग वंश की स्थापना का समय ई० सं० पूर्व ८०५ वर्ष का बतलाया है। सब उपरोक्त हिसाब से ई० सं पूर्व ८०० वर्ष का आता है । पर वह दोनों प्रकार के समय अनुमान मात्र ही है अतः इस पर इतना जोर नहीं दिया जाता है । पर खास विचारणीय विषय तो यह है कि मैंने जैन शास्त्रों के आधार पर भगवान मह वीर के निर्वाण के बाद शिशुनाग वंश का राज ६० वर्ष रहना लिखा है तब शाह ने ५४ वर्ष लिखा है क्योंकि कोणिक ३० वर्ष (कोणिक का राज जो ३२ वर्ष रहा पर २ वर्ष महावीर की मौजूदगी में बाद ३० वर्ष ही रहा) १६ वर्ष उदाई और ८ वर्ष अनरुद्ध एवं मुदा एवं ३०-१६-८ कुल ५४ वर्ष माना है इससे ६ वर्ष का अन्तर पड़ जाता है और यह अन्तर दूसरा नहों पर राज कौणिक के राजकाल का है। कारण शाह ने कोणि क का राज ३२ वर्ष का माना है और कौणिक के राजगद्दी पर बैठने के वाद २ वर्ष में भगवान महावीर का निर्वाण होना बतलाया है। यह एक विधारणीय प्रश्न पन गया है। श्रीमान शाह लिखते हैं कि राजा कौणिक मगद के सिंहासन पर भारुड़ होने के ४ वर्ष के बाद अपनी राजधानी चम्पा नगरी में ले गया जब भगवान महावीर की मोक्ष दूसरे वर्ष ही हो गई इससे राजा कौणिक चम्पा में राजधानी कायम करने के बाद भगवान महावीर को देखा भी नहीं होंगे। तब जैन ग्रंथों में ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि भगवान महावीर चम्पानगरी पधारे उस समय वहां पर राजा कौणिक गज्य करता था इतना ही क्यों पर राजा कूणिक ने भगवान महावीर का बड़ा ही शानदार स्वागत किया है इनके अलावा भगवान महावीर जब चम्पा नगरी पधारे उस समय श्रोणिक गजा की काली आदि दस रानियों ने भगवान महावीर के पास दीक्षा ली थी इत्यादि । प्रमाणों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि राजा कौणि Eअपनी राजधानी चम्पा में ले जाने के बाद भी भगवान महावीर विद्यमान थे। और कई बार चम्पा नगरी में पधारे भी थे इसस कौणिक का राजकाल भगवान महावीर की मौजूदगी में दो वर्ष नहीं पर कुछ अधिक मानना होगा तथा भगवान महावीर के निर्वाण के बाद में कौणिक उदाई-अनुरुद्ध के ६० वर्ष मानना होगा २५५ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ___ शाह ने प्राचीन भारतवर्ष पु० पहली के पृष्ट २९७ पर लिखा है कि भगवान महावीर के पट्टधर सौधर्माचार्य चम्पानगरी पधारे तब कौणिक ने उसका धूमधाम से अच्छा स्वागत किया। यह स्वागत सौधर्माचार्य का नहीं बल्कि भगवान महावीर का ही था जो जैन सूत्र उबवाइ उपाँग में विस्तार से वर्णन किया है । पर सौधर्माचार्य का इस प्रकार स्वागत का जैन शास्त्रों में कहीं पर उल्लेख नहीं मिलता है। उसी पुस्तक के पृष्ट २९७ पर शाह ने लिखा है कि राजा चटेक और कौणिक का युद्ध ई० सं० पूर्व ५२७ वें वर्ष में हुआ । यह भी ठीक नहीं है, कारण इस युद्ध का सम्बन्ध चम्पा नगरी से है । तब राजा फौणिक ने चम्पा नगरी को अपने राज के ४ वर्ष बाद राजधानी बनाई थी। ई० सं० पूर्व ५२७ कौणिक ने चम्पा को राजधानी ही नहीं पनाई तो, तब चम्पा नगरी से युद्ध होना कैसे सिद्ध हो सकता है। अर्थात् शाह की लिखी हुई तारीख ठीक नहीं मालूम होती है । उसको फिर किसी समय बतलाया जायगा । शिशुनाग वंश के १० राजाओं का होना लिखा है। उसमें शिशुनाग, काकवर्ण, क्षेमवर्धन और क्षेमजित इन चार राजारों के नाम के सिवाय हम कुछ भी नहीं जानते हैं और न उनके जानने के लिये कोई साधन हो हमारे पास है हाँ, पीछे के ६ राजाओं के वर्णन जानने के लिये जैना शास्त्रों में थोड़े बहुत साधन अवश्य मिलते हैं। ५-- शिशुनाग वंश का पांचवां राजा प्रसेनजित्त हुआ। पहले मगद की राजधानी कुस्थाल नगर में थी प्रसेनजितने व्ययहार गिरि पर्व के ऊचे भाग पर 'गिरिव्रज' नाम से अपनी राजधानी का नगर बसाया गजा प्रसेनजित के १०० पुत्र थे । पर वे केवल बिना परीक्षा बड़े पुत्र को राज दे देना ठीक नही समझ कर अपने पुत्र की परीक्षा करना और उसमें उत्तीर्ण अर्थात राज योग्य एवं सर्व गुण सम्पन्न हो उसको राज देने का निश्चय कर लिया और कई प्रकार से परीक्षा भी की थी-जैसे एक समय राजा ने वंश की छेद्र वाली छाबें मंगवा कर उसमें रूण्ड खाजा और कुछ मिट्टि के घड़ा मंगवा कर उसमें पानी भर कर उन छावें और घड़ों का मुह बंद कर, ऊपर मुद्रकाएं लगादी और एक कमरा में रख कर १०० पुत्रों "तेणी का०२ चंपा नाम नपरी होत्था पुग्न भई चेतिते तत्थेणं चपाए नयरीए कौणिए राया वण्णभो । तत्थेणं चपाए नयरीए सेणियस रणो भज्जा कोणियस्स रणो चुल्लमाउया काली नाम देवी होत्या वणओ जहा नंदा जाव सामातियमाति पाति एक्कारसअंगाई आहीजति" "अन्तगढ़दशा वर्ग ८ बा अ० । पृ० २५ 'तत्येणं चंपाए नथरीए सोणियस्स रष्णो भज्जा कूणियस्स रनों चुक्लभाउया काली नाम देवी होत्था सोमाल जाव सुरुवा । तीसेण कालीए देवीए पुत्ते कालो नाम कुमारे होत्था, सोमाल जाव सुरवे । ततेणं से काले कुमारेअन्नयाकयाई तिहिंदती सहस्सेहिं तिहिं रह सहरसहिं तिहिं आस सहस्सेहि तिहिं मणुय कोडिहिं गरूलवूहे एकारसेमणं खंडेणं कुणिएणं रन्ना सद्धि रद्दमुसले संगाम भोयाए xxx तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिते, परिसा निग्गाया। ततेणं तीसे कालीए देवी हमी से कहाए लच्छ ठाए समाणीए-अयमेतारूवे भज्झास्थिए जाव समप्पजित्थोए "निरियालिका सूत्र प्रथम वर्ग पु. प्र. पृ. ४-६॥ "चम्पायां कूणिको राजा वभूव तस्य चानुजौ हाल्लविहल्लाभिधानौ भ्रतरौ सेचानकामिधान गन्धहस्तिनि समा रूतौ दिव्यकुण्डल दिव्यवसन विव्यहारविभूषितौ विलसन्तौ दृष्टा पद्मावामघाना कुणिक राजस्यभार्य मत्सरा घन्तिनोऽपहाराय तंप्रेरितावती, तेन तौ तं याचितौ, तौ चतद्भपा शाल्यंनगेर्या स्वकीयमातामहस्य चेटकाभिधानस्य राज्ञोऽन्तिक सहस्तिको सान्तःपुरपरिवारौ गतवन्तौ” -"श्री मागवती सूत्र शतक ७ उ० ९पृ० ३१६ टीका" २५६ Jain Education international Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन | [ओसवाल सं० ११२ को कहा कि मेरी लगाई हुई मुद्रा को तोड़ना नहीं और तुम सब भोजन कर पानी पी लो। पुत्रों ने सोचा कि पिताजी ने यह कैसा भोजन करने का आदेश दिया। बिना मुद्रा तोड़े कैसे भोजन करें ? इत्यादि विचार करते हुए निराश हो कमरा से निकल गए केवल एक श्रेणिक ही रह गया । श्रेणिक ने सोचा कि पिताजी ने जो कुछ किया, वह सोच समम के ही किया होगा। अतः इसका कोई उपाय सोचना चाहिये ! बस ! श्रेणिक ने उन वंश की छावे को हाथ से पकड़ कर इधर उधर जोर से हिलाई कि अन्दर के खाण्ड खाजा टूट २ कर कपड़े पर गिरने गे जिसको श्रेणिक ने खा लिया । इसके बाद पानी के घड़ों पर वारीक मलमल के कपड़े लगा दिये कि जिसकी सई से कपड़ा गीला हो जाये । उसको निचोड़ २ कर पानी भी पी लिया । बाद में सब भाई मिलकर राजा के पास गये। ९९ पुत्रों ने तो कहा कि हम तो सब भूखे प्यासे हैं । कारण, आपने हुक्म दिया था कि मुद्रा न तोड़ना और भोजन करके पानी पी लेना। मगर जब कि उन पर मुद्रा लगी हुई है तो हम किस तरह भोजन करे या पानी पी सकते हैं। इसके बाद श्रोणिक ने अपना हाल कहा, इस पर रा प्रसन्न हुआ पर ऊपर से उपालभ्या दिया कि तुमने सब खाजे क्यो तोड़ डाले ? २-एक समय राजा अपने पुत्रों को भोजन करवाने के लिये अच्छा २ भोजन थालों में पुरुसवाकर एक कमरे में रख कर सबको कहा-जाओ भोजन करो। जब सब पुत्र भोजन करने को बैठे ही थे कि राजा ने ऐसे कुत्तों को छोड़ा कि जिन्हों की भूस भूसाट के सामने एक श्रोणिक के अलावा सब कुवर डर कर भाग गये । तब श्रोणिक ने दूसरे भाइयों के थाल अपनी ओर खींच कर उनका भोजन कुत्तों को डालता गया और आप आपना भोजन करता गया। भोजन करने के बाद सब कुवर मिल कर राजा के पास आये और अपना २ हाल कहा। राजा अन्दर से तो श्रोणिक पर प्रसन्न थ। किन्तुऊपर से कहा श्रेणिक ने तो कुत्तों के साथ बेठ कर भोजन किया। ३-एक समय राजा ने महल में अच्छी २ वस्तुएं रखवा कर कुंवरों को कहा कि जाओ जो चीज जिसके हाथ आवेगी मैं तुमको इनाम में दे दूंगा । कुवर दौड़ कर धन, माल, वस्त्र और भूषण अपनो २ रुचि अनुसार ले आये पर श्रेणिक ने एक बजाने की भैरी जिसको वजाने से ६ मास का पुराना रोग चला जाय या ६ मास तक नया रोग न आवे ।उस भैरी अर्थात् बजाने का बाजा उठा लाया सब कुवर गजा के पास आये। जो-जो पदार्थ जिस २ कुवर ने लिये वो उन को इनायत कर दिये पर श्रेणिक से कहा कि क्या तू यह भैरी ही बजाया करेगा इत्यादि । कई प्रकार की परीक्षा कर राजा ने निर्णय कर लिया कि मेरे राज का अधिकारी होने योग्य एक श्रेणिक ही है । परन्तु वह इस देश में रहेगा तो न जाने इर्षा के वशीभूत होकर दूसरा कुवर इसके साथ कुछ कर नहीं डाले ? इस बात को सोच कर एक दिन राजा ने सब कुंवरों को बगीचे में एकत्र किये उसमें श्रेणिक का इस प्रकार अपमान किया कि वो बिना खबर दिये ही परदेश के लिए रवाना हो गया । श्रोणिक जैसा भाग्यशाली, बुद्धिमान था वैसा ही साहसी वीर भी था । वह निडर होकर अपने नगर से निकल गया और चलते २ दूर देश में जा रहा था तो रास्ते में एक धनानाम के सेठ का साथ हो गया। सेठ को देखते ही श्रेणिक ने कहा-मामाजी आप कहां जा मैरी का नाम भंभा अथवा विद्या भी था और वह सब में सारभूत होने से श्रेणिक ने परोपकार को लक्ष में रख कर उसको ही लिया था और इस कारण आप का नाम भंमसार एवं बिम्बसार हो गया। २५७ (क) Indlibrary.org Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रहे हैं, मैं भी आपके साथ चलूगा । सेठ ने देखा नवयुवक दीखने में तो कोई अच्छा भाग्यशाली दीखता है पर है कोई पागल, कारण, मैं इनकी माता का कब भाई था जिसमे इसने मुझे मामा कहा ? पर खैर, मुसाफिरी में एक से दो होना अच्छा ही है । सेठ ने नाम पूछा तो श्रेणक ने कहा कि मेरा नाम देवदत्त है खैर वे दोनों आगे बढ़े तो एक बड़ा नगर आया पर वहां उनको ठहरने को स्थान नहीं मिला और न किसी ने भी उनकी सार संभाल की। रात्री के समय देवदत्त ने कहा-क मामाजी अपन कैसे अबुम गांव में श्रा पड़े ? मामाजी ने कहा-पागल यह तो बड़ा नगर है । और बह आगे बढ़े तो एक छोटा प्राम आया वहां ठहरने को अन्ला मकान मिल गया लोगों ने उनकी अच्छी सार संभाल को । पुनः रात्री में देवदत्त ने कहा -मामाजी, यह कैसा रुंदर नगर है । पुनः आगे चलने पर एक नदी आई जिसमें पानी बह रहा था तब देवदत्त ने अपने बढ़िया जूते निकाल कर पहन लिये । सेठ ने सोचा कि यह बड़ा ही मूर्ख | जब नदी पार करली तो जूतों को उतार कर हाथ में ले लिया। जब एक वृक्ष के नीचे बैठे तो देवदत्त ने छाता तान कर शिर पर लगा लिया। जब वहां से चलने लगे तो धूप में छाता बंद कर हाथ में ले लिया। आगे चल कर उन्होंने देखा कि लोग एक मुद्दे को लेकर श्मसान जा रहे हैं तो देवदत्त ने पूछा क्यों भाई यह जिन्दा है या मुर्दा । पुन: आगे चले तो एक औरत औड़ रही थी जिसके पीछे २ लोग उसको पकड़ने को दौड़ रहे थे तो देवदत्त ने पूछा कि लोगो-औरत बंधी हुई है या खुली इत्यादि । सेठ ने इस प्रकार की बातें सुन कर अपने मन में निश्चय कर लिया कि ये तो सच्च ही पागल है । इससे तो इसका साथ छोड़ देना ही अच्छा है । चलते-चलते सेठजी का बेनातट नगर नजदीक आया तो देवदत्त से कहा कि मुझे तो अपने घर जाना है अब तुमकहां ठहरोगे ? अाज तो मैं बाजार में किसी दुकान पर ठहरूंगा कल आगे जाऊगा । इसके बाद सेठजी अपने घर आ गये। सेठजी के एक नन्दा नाम की पुत्री जो अच्छी पढ़ी लिखी, चतुर और विदुषी थी । पिता घर आथे तो रास्ते के कुशल क्षेम पूछा इसपर सेठजी ने कहा पुत्री और तो सब अच्छा था, पर, रास्ते में एक मूर्ख का साथ हो गया। उसने मुझे बड़ा ही हैरान कर दिया । नंदा ने कहा-पिता जी आपने उसको मुर्ख कैसे समझा ? पिता ने कहा कि बेटी सबसे पहले तो मिलते ही उसने मुझको मामा कहा बतलाओ मैं उसकी मां का कब भाई बना था बाद में ठजी ने गस्ते की सव बातें अपनी बेटी से कह सुनाई इस पर बेटी ने कहापिताजी, वह मूर्ख नहीं बल्कि बड़ा ही चतुर बुद्धिशाली एवं विद्वान है । इस पर, सेठ जी ने कहा कि बेटी ! संसार में एक तूं दूसरा वह बस । दो ही विद्वान हैं पर तूं यह तो बतला कि उसमें यया बुद्धिमता है ? इस पर नंदा ने जवाब दिया कि सुनिये पिता जी १-श्राप के साथ जो नवयुवक था, उसकी माता पतिव्रता-सती हैं। उसके पति के अलावा पुरुष मात्र उसके भाई हैं अतः आप उसके मामा हो हुए। २-बड़ा नगर होने पर भी मुसाफिर को आराम नहीं वह बड़ा नगर छोटा प्रामसे भी बुरा है। ३-छोटा ग्राम होने पर भी सुविधा मिले तो वह बड़े नगर से भी अच्छा हैं। ४- पानी में चलते समय कांटा खीला नजर नहीं आता है इस लिये जूता पहनना अच्छा है। ५-थल में जूता पहनने से रोग होता है। कारण, पग का परिसेवा पीच्छा उसपग में समा जाने से रोग होता है। jain Edu२५७(ख) Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११२ Newww ६-वृक्ष पर पक्षी आदि बेठे रहते हैं। भृष्टा कर देने से पोशाक खराब हो जाती है इस लिए छात तान कर शरीर को आच्छादित किया होगा। ७-रास्ते में चलते समय शरीर पर छाता करने से शरीर को ताप और छाया दोनों के होने से सर्द-गरमी एवं जुखाम तथा सिर के रोग का भय रहता है। ८-मनुष्य ने मृत्यु से पहले कुछ जनोपयोगी एवं पुन्य कार्य किया हो तो वह मुर्दा भी जिन्दा है नहीं तो ऐसा मुदी, मुर्दा ही कहा जाता है । ९-जिस औरत के पीछे बाल-बच्चे हैं वह बंधी हुई कही जाती है। बतलाये इसमें उसने क्या बुरा कहा । ये सब बातें बुद्धिमता की ही हैं। आप यह बतलाइये कि आज वह देवदत्त कहां पर ठहरा हैं । सेठ ने कहा बाजार में किसी दूकान पर होगा। नंदा ने अपनी दासी के साथ थोड़ा सा गरम पानी एक मासा तेल भेज कर कहलाया कि आप इस तेल से मालिश कर रास्ते की थकावट को दूर कीजिये ? दासी बाजार में आई तो पंसारी की दुकान पर एक मुसाफिर ठहरा हुआ था। दासी ने जरा सा तेल देकर नंदा का समाचार कह दिया। उस समय मुसाफिर के पास ५-६ मनुष्य और भीबैठे थे, उन्होंने दासी को कहा कि तूं मासा भर तेल लाकर क्या मश्करी करने आई है ? मुसाफिर ने कहा नहीं तेल भेजने वाली बड़ी चतुर है । तेल थोड़ा नहीं, पर, गहरा है । पास में पड़ा हुआ एक गरम जल के लोटे में तेल डालने से वह तेल सर्वत्र फैल गया जिससे मुसाफिर ने मालिश कर थकावट को दूर किया। दासी ने पास की दुकान वाले को कहा-लो पैसा मुझे वस्तु दीजिये मठ माहें योगी वसे, विच दीजे जीकार । सहचारी को दीजिये, वस्तु रूप विचार ॥ विचारा दुकानदार दासी के दोहे को सुनकर विचार में पड़ गया। कि क्या वस्तु दूँ ? मुसाफिर ने कहा कि पौन पैसे की मजीठ और छदाम की हदो दे दो क्यों कि म...ठ के बीच जी जोड़ने से मजीठ हाती है और इसकी सहचारिणी मेंहदी होती है । दृकानदार की दी हुई दोनों वस्तु लेकर दासी ने नंदा के पास जाकर सब हाल कहा । तब नंदा ने अपने पिता से कहा कि ऐसा बुद्धिनिधान पुरुष रत्न श्राप के हाथ आ गया है, आप उसको हरगिज न जाने दें अपने यहां बुलालें । सेठजी सुवह जाकर मुसाफिर को अपने यहां बुला लाये । अब तो मुसाफिर और नन्दा के हमेशा विद्वत पूर्वक वार्तालाप होने लगी । देवदत्त ने अपना असली नाम आरम्भ से ही बदल दिया था और अब सेठ जी की दूकान पर जाकर व्यापार की तरफ भी अपना ध्यान लगाना प्रारम्भ किया। सेठ जी की व्यापार कोठी ( दूकान ) बहुत बड़ी थी। उनकी एक कोठरी में उनके पूर्वजों की सींची हुई धूल ( तेजमतुरी ) का ढेर पड़ा हुआ था। सेठजी ने उस ढेर को फैंक देने की आज्ञा दे दी थी मगर देवदत्त ने उस ढेर को देखकर बाहर फेंकने की मनाई करदी। और कहा कि यह धूल मुझे दे दीजिये ? सेठजी ने धूल तो दे दी पर उसको मूर्ख समझा एक समय बैनातट नगर में विदेश से व्यापारी आये । उनको बहुत दिन हुए पर उनके माल खरीदने वाला नगर में कोई भी नहीं मिला । अतः वे व्यापारी निराश होकर वापिस जाने की तैयारी की। साथ में व्यापारियों ने राजा से मिलना भी उचित समझ कर कुछ भेट लेकर राजा के पास मिलने को गये । राजा ने (अनुसंधान देखो इसी पुस्तक के पृष्ठ ७१५ पर) २५७ (ग) relbrary.org Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मार्यवंशीराजा और मंत्री काणक्य मौर्यवंशी राजाओं के पूर्व थोड़ा सा हाल महावुद्धिशाली मंत्री चाणक्य का लिख दिया जाता है। -- लदेश के अन्तर्गत चाणक नामक गाँव में चणी नाम का एक ब्राह्मण रहता था, ___ जिसके चणेश्वरी नामक भार्या थी । वह दोनों परम्परा से ही जैन धर्म पालते थे। චිත්‍ර බහුම एक समय कई जैन मुनि उस ब्राह्मण भक्त के घर आ निकले जो कि बड़े ही भविष्य वेत्ता थे। उसी समय चाणेश्वरी की कुक्ष रत्न से एक पुत्र पैदा हुआ था जिसकी तो बड़ी खुशी थी, परन्तु साथ में उस नवजातपुत्र के जन्म से ही मुँह में दांत-श्रेणी देख माता को आश्वार्य हुआ। उसने आये हुये मुनि से निर्णय के लिये प्रश्न किया। मुनि ने कहा, यह तुम्हारा पुत्र इस शुभ लक्षण से एक बड़ा राजेश्वरी होगा । इस पर ब्राह्मण दम्पत्ति को खुशी हुई, परन्तु साथ में धार्मिक दृष्टि से विचार किया कि राजेश्वरी प्रायः नरकेश्वरी होता है, अतः उन्होंने नवजात पुत्र के दाँत घिस डाले और यह बात मुनिजी को भी सुना दी । मुनि ने कहा भवितव्यता बलवान होती है । दाँत घिसने से अब तुम्हारा पुत्र किसी बड़े राजा का मंत्री होगा, बस ब्राह्मणनेयथा-समय महोत्सव के साथ पुत्र का नाम चाणक्य दिया। ____ क्रमशः चाणक्य बड़ा हुआ । विद्याध्ययन भी खूब किया। जैन धर्म पर इसकी अटल श्रद्वा थी। जब युवक व्यय में पदार्पण किया तो एक कुलीन ब्राह्मण कन्या के साथ उस लग्न कर दिया । एक समय चाणक्य की स्त्री के भाई का लग्न था, अतः वह अपने पीहर गई । वहाँ दूसरी भी इनकी बहिनें अपनी अपनी ससुराल से आई हुई थीं जिनके शरीर पर बढ़िया बढ़ि। वस्त्राभूषण पहिनने को थे, जिसको चाणका की स्त्री ने देख कर विचार करने लगी कि मैं हतभाग्य हूँ पुन्य हीन हूँ पूर्व जन्म में सुकृत नहीं किया कि इस भव में मैं द्रव्यहीन दारिद्रणी हूँ। उधर लोग भी उस निर्धन ब्राह्मणी की हँसी करने लगे, अतः वह लज्जा के मारी कहीं भी जा नहीं सकी । जब लग्न कार्य समाप्त हुआ तो वह लौट कर अपने ससुराल आई ओर सदैव उदास रहने लगी । इस पर चाणक्य ने अपनी प्यारी पत्नी से पूछा और उसने सब वृत्तान्त निवेदन किया, जिसको सुन कर चाणक्य के दिल में अर्थोपार्जन करने की लिप्ता पैदा हुई । जिसके उपाय सोचने पर उसको यह मालूम हुआ कि पाटलीपुत्र नगर का राजा नन्द ब्राह्मणों को बहुत दक्षिणा देता है, अतः मुझे पाटलीपुत्र जाना चाहिये । बस उसने ऐसा ही किया पाटलीपुत्र जाकर राजसभा में राजासन छोड़ कर दूसरे आसन पर बैठ गया । इतने में गजा नन्द अपने पुत्र के साथ राजसभा में आये राजकुँवर ने अपने आसन पर एक ब्राह्मण को बैठा हुआ देख के राजा से कहा कि यह ब्राह्मण कौन है कि मेरे आसन पर बैठ गया है ? फिर भी चाणक्य तो बैठा ही रहा । इतने में एक दासी आई और उसने कहा ब्राह्मण देव पास में रहे हुये दूसरे आसन पर बैठ जाइये । इस पर चाणक्य ने दूसरे आसन पर अपना कमंडल रख दिया एवं फिर कहने पर तीसरे आसन पर दंड रख दिया चोथे पर जपमाला रख दी पांचवें पर जनेऊ रख दी, इस पर दासी ने कहा, अरे यह ब्राह्मण कैसा मूर्ख है कि कहने पर श्रासन नहीं छोड़ता है, परन्तु ज्यों ज्यों कहा जाता है त्यों त्यों उल्टा २५८ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ आसन को कब्जे करता जाता है। ऐसे ब्राह्मण का यहाँ क्या काम है ? ऐसा कह कर दासी ने एक लात मार कर उठाने लगी। इस पर चाणक्य कुपित होकर सभा के समक्ष ऐसी प्रतिज्ञा की कि मैं इस नन्द राजा को सकुटम्ब नाश कर डालूगा। ऐसा कह कर चाणक्य वहाँ से रफूचक्कर हो गया और विचारने लगा कि मेरे जन्म समय ज्ञानवान मुनि ने जो भविष्य कहा था मुझे उसके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये; बस । "अब चाणक्य राजगद्दी के योग्य मनुष्य की खोज में फिरने लगा । जिस गाँव में क्षत्रिय जाति के मयूर-पोषक लोग रहते थे, एक दिन चाणक्य परिव्राजक-वेश धारण करके भिक्षा के लिये उसी गाँव में चला गया । मयूर-पोशकों का जो सरदार था उसकी एक लड़की गर्भवती थी अतएव उसे यह दोहदा ( दोहला) उत्पन्न हुआ कि मैं चन्द्रमा को पी जाऊँ, परन्तु इस दोहले को पूर्ण करने के लिये कोई समर्थ न हुआ । उसी समय परिव्राजक-वेश में यहां पर चाणक्य आ पहुँचा । मयूर-पोशकों ने यानि उस गर्भवती कन्या के कुटुम्बियों ने चाणक्य से यह सब हाल कह सुनाया। चाणक्य बोला-"भाई यह दोहला तो पूर्ण करना बड़ा दुष्कर है तथापि तुम लोग मेरा कहना स्वीकार करो तो मैं इस दुष्कर दोहले को पूर्ण कर सकता हूँ।" पयूर-पोषकों ने कहा-'महाराज ! हमें आपकी आज्ञा स्वीकार है अब आप इस कन्या के प्राण बचावें' चाणक्य बोला-इस देवी के जो गर्भ है उसे उत्पन्न होते ही तुम मुझे दे दो तो मैं इसकी इच्छा अभी पूर्ण करदूं, अन्यथा दोहला पूर्ण न होने से इसके गर्भ का भी विनाश होगा और इस देवी की भी स्त्रैर खूबी नहीं है । मयूर-पोशकों ने चाणक्य की बात स्वीकार करली । तब चाणक्य ने वहां पर सूखे हुये घास का एक इतश्च गोल्ल विषये ग्रामे चणकनामनि, ब्राह्मणोऽभूच्चणी नामतद् भार्या च चाणेश्वरी ॥ बभूव जन्म प्रभृति श्रावकत्व चणचणी, ज्ञानिनो जैनमुनयः पर्यवात्सुश्चतद्गृहे ॥ अन्यदातुद्गतैर्दन्तैश्चणेश्वर्या सुतोऽजनि, जातं च तेभ्यः साधुभ्यस्तं नमोऽकारयच्चणी ॥ तंजातदन्तं जातं च मुनिभ्योऽकथयच्चणी ज्ञानिनो मुनयोऽप्पख्यन् भावी राजैष बालकः ॥ परिशिष्ठ पर्व स्वर्ग ८ श्लोक १९४ स ११७ मयूर-पोषक ग्रामेतस्मिंश्च चणिनन्दनः प्राविशत्कणभिक्षार्थ परिव्राजक वेषभूत् । मयूर-पोषक महत्तरस्य दुहितुस्तदा, अभूदापन्न सत्वायाश्चन्द्र पानाय दोहदः ॥ तत्त्कुटम्वेन कथितश्चाणक्यय स दोहदः पूरणीयः कथम सावितिपृष्टोऽवदच्चसः । यद्येतस्य जात मानं दारकं मम दत्थ भोः तदाहं पूराम्येव शशभृत्पान दोहदम् ।। अपूर्ण दोहदे गर्भनाशोऽस्यमाभवत्विति, तन्मतापितरौ तस्याम सातां वचनंहितत् । चाणक्योऽकारयच्चाथ सच्छिद्रं तृणमण्डपम् , पिधान धारिणं गुप्तं तदूर्चेचामुचन्नरम् ॥ तस्याधोऽकारयामास स्थालं च पयोसाभृतम् , ऊजेराकांनिशीथे च तन्दुः प्रत्यबिम्ब्यत् । गुर्विण्यास्तत्र सङ्कान्तं पूर्णेन्दं तम दर्शयत् , पिबेत्युक्ता च सा पातुमारभे विकसन्मुखी ॥ सापाद्यथ यथा गुप्तयुरुषेण तथा तथा, न्यधीयत पिधानेन तच्छिद्रं ताणमण्डपम् । पूरिते दोहदे चैवं समयेऽसूत सा सुतम् चन्द्रगुप्ताभिधानेन पितृभ्योसोऽभ्यधीयत ॥ परिशिष्ट पर्व स्वर्ग ८ श्लोक २३०-२३६ २५९ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मण्डप बनवाया और उस मण्डप के बीच में एक छिद्र ऐसा रख दिया कि पूर्णमा की मध्यरात्रि के समय जब चन्द्रमा ठीक उस मण्डप के ऊपर आया और मण्डप के बीच में उसका प्रतिबिम्व पड़ने लगा, तब चाणक्य ने एक आदमी को ठीक समझा कर उस मण्डप के ऊपर चढ़ा दिया। चाणक्य ने मण्डप के अन्दर जहां पर चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ता था, वहाँ पर दूध से भर कर एक थाली रखदी, जब बराबर पूर्णतया चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब उस दूध की थाली में पड़ने लगा तब चाणक्य ने उस गर्भवती देवी को बुलवा कर उसे चन्द्रमा से प्रतिविम्वित उस दूध की थाली को दिखाया। उस समय दूध की थाली में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब साक्षात् चन्द्रमा के समान प्रतीत होता था। चाणक्य ने उस देवी को पीने की अनुमति देदी । वह बड़े चाव से उस थाली के मुँह लगाकर पीने लगी । जैसे जैसे वह थाली के दूध को पीती गई तैसे २ चाणक्य के संकेत करने पर मण्डप पर चढ़ा हुआ मनुष्य मण्डप के छिद्र को ऐसी खूबी से आच्छादित करता रहा कि दूध की थाली में चन्द्रमा का प्रतिविम्ब भी दूध के साथ-साथ चलता हुआ मालूम होने लगा। जिससे कि उस गर्भ वती देवी को साक्षात् चन्द्रमा पीने का विश्वास होगया। इस प्रकार चाणक्य ने अपनी चतुरता से दोहला पूर्ण करवा दिया । तत्पश्चात् चाणक्य वहां से चला गया और द्रव्य के लिये किसी धातुवादी की शोध में भ्रमण कर रहा था। इधर दोहला पूर्ण होने पर नवमास-बाद उस देवी की कूख से चन्द्रमा के समान सौम्यता को धारण करने वाला और सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। उसकी माता को चन्द्रमा का पान करने का दोहला उत्पन्न हुआ था इसीलिये उस बालक का नाम “चन्द्रगुप्त रखा गया । "एक समय की बात है, जब कि चन्द्रगुप्त अन्य लड़कों के साथ पशु चरा रहा था, उन्होंने एक खेल खेलना शुरू किया । इस खेल को “राजकीय खेल” कहते थे। चद्रगुप्त स्वयं राजा बना अन्यों को उसने उपराजा आदि के पद दिये । कुछ को न्यायाधीश बनाया गया। कईयों को राजा के गृह का अधिकारी बनाया। कई चोर और डाकू बनाये गये । इस प्रकार सब कुछ निश्चित करके वह न्याय के लिये बैठ गया । गवाहियां सुनाई गई । जब देखा कि दोष अच्छी तरह सिद्ध हो गया, तब न्यायाधीशों के फैसले के अनुसार राजा ने कचहरी आफीसरों को आज्ञा दी कि अभियुक्तों के हाथ-पैर काट डाले जायं । जब उन्होंने कहा"देव हमारे पास कुल्हाड़े नहीं हैं, तब उसने उत्तर दिया- 'यह राजा चन्द्रगुप्त की आज्ञा है कि इनके हाथपैर काट डाले जायं यदि तुम्हारे पास कुल्हाड़े नहीं हैं तो लकड़ो का डण्डा बनाओ और उसके आगे बकरी के सींग लगा कर कुल्हाड़ा बनालो' । उन्होंने वैसा ही किया । कुल्हाड़ा बन गया तब हाथ-पैर काट डाले गये । चन्द्रगुप्त ने हुक्म दिया ‘फिर जुड़ जावे' हाथ-पैर । बस हाथ पैर फिर जुड़ गये" । वास्तव में बचपन के ही संस्कार भविष्य में भाग्य निर्माता होते हैं। होनहार बालकों की प्रभा उनके उदय होने के पूर्व ही सूर्य-रेखाओं के समान फैलने लगती हैं । वे इसी अवस्था में खेले हुये खेलहंसी हंसी में किये गये संकल्प-बड़े होने पर कार्य रूप में परिणित कर दिखाते हैं, एक बार "विलिंगटन" से किसी ने पूछा जब कि वह निरा बालक था कि "ये टाइमपीस क्या कहती है ?" अबोध विलिंगटन ने -इस वर्णन को असम्भव नहीं समझना चाहिये । यहाँ लेखक ने अपनी लेखन-चातुरी दिखाई है। बालकों के खेल को बालकों के अधं में लेना चाहिये । बालक चन्द्रगुप्त की आज्ञा-पालन होनी ही चाहये थी और हुई भी सही। बालक बहुत बार अपने खेलों में मारा और जिलाया करते हैं । यह स्वाभाविक वर्णन है। (मौर्यसा० का० ६० पृ०-१.२) । २६० Jain Educato International Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ उत्तर दिया कि 'क्लोक सेज दी टन, टन, टन ऐण्ड विलिंगटन भी दी लार्ड औफ लण्डन" ( घड़ी कहती है टन, टन, टन और लण्डन का लार्ड बनेगा विलिंगटन ) यह भविष्यवाणी सत्य निकली । बालकों के हथियारों की अड़चन डालने पर बालक चन्द्रगुप्त का यह कहना कि “यह राजा चन्द्रगुप्त की आज्ञा है" कितना उत्तेजक, आज्ञाकारक, आत्मविश्वासक तथा मनोबल को प्रकट करने वाला है। चन्द्रगुप्त ने खेल खेल में बतला दिया कि 'संसार को चन्द्रगुप्त की आज्ञा उलङ्घन करने का साहस न होगा । वह अत्याचारियों का संहारक और अपने पांव पर खड़ा होने वाला असम्भव को सम्भव कर दिखाने वाला स्वावलम्बी वीर होगा । अबोध शिशु चन्द्रगुप्त के इस चमत्कारिक प्रभावोत्पादक क्रीड़ा को उसके बाल्य-सखा क्या पर खास समझदार ही समझ सकते थे । स्वयं चन्द्रगुप्त भी कस्तूरी वाले हिरन की भांति अपने जौहर से अनभिज्ञ था सिंहनी का बच्चा भेड़ बकरियों में खेल रहा था। ___ ऐसी ही एक मिलती-मुलती चन्द्रगुप्त की बाल्य-क्रीड़ा का उल्लेख आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने अपने परिशिष्ट पर्व में किया है यथाः-"चन्द्रगुम अपने पड़ोस के लड़कों के साथ गांव से बाहर जाकर क्रिड़ाए करता। किसी लड़के को हाथी, किसी को घोड़ा बनाता और उनके ऊपर स्वयं चढ़ कर राजा बन कर अन्य लड़कों को शिक्षा देता तथा राजा के समान प्रसन्न होकर किसी को गांव आदि इनाम में देता एक दिन उन बालकों के क्रीड़ा करते समय कहीं से भ्रमण करता हुआ चाणक्य आ निकला । चंद्रगुप्त की उक्त चेष्टाएं देख कर उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ, वह परीक्षा लेने के तौर पर बोला-"महाराज ! कुछ मुझ गरीब ब्राह्मण को भी दान देना चाहिये ।" चन्द्रगुप्त ने बाल्य-सुलभ किन्तु वीरोचित शब्दों में कहाः- "ब्रह्मदेव ! ये गाँव की गायें चर रही हैं इनमें से जितनी तुझे आवश्यक हो ले जा, मैं तुझे सहर्ष देता हूँ।" चाणक्य मुस्कराकर बोला:-"गायें कैसे ले जाऊँ ? इनके मालकों से भय लगता है वे मारेंगे तो ? बालक चन्द्रगुप्त ने सगर्व उत्तर दिया-मैं तुझे सहर्ष दान कर रहा हूँ निर्भय होकर इन्हें गृहण करले, मेरे होते हुए तुझे भय कैसा क्या नहीं जानता है कि 'वीरभोग्या-बसुन्धरा ? इस प्रकार उस वालक का धैर्य देखकर चाणक्य बिस्मित होकर दूसरे बालकों से पूछने लगा कि यह किसका पुत्र रत्न है ? लड़कों ने उत्तर दिया, महाराज ! यह तो एक परिव्राजक का पुत्र है क्योंकि इसके नाना ने जब यह अपनी माता के गर्भ में ही था तब से ही इसे एक परिव्राजक को दे दिया है।" चाणक्य यह उत्तर सुनकर समझ गया कि यह तो वही बालक है जिसके गर्भ का मैंने दोहलापूर्ण किया था। चाणक्य बोला "अरे भाई ! जिस परिव्राजक को तेरे माता पिता ने तुझे समर्पण कर दिया है वह परिव्राजक मैं ही हूँ; और राजाओं की तू यह नकल क्या करता है ! चल मेरे साथ मैं तुझे असली राज्य देकर राजा बनाऊ ।” राज्य लेने की इच्छा से चन्द्रगुप्त भी चाणक्य की अंगुली पकड़कर उसके साथ चल पड़ा"। चाणक्य अबोध चन्द्रगुप्त के साथ उसके घर गया और कुछ भेट देकर कहा:-"मैं तुम्हारे पुत्र को सब कुछ सिखाऊंगा, उसे मेरे साथ कर दो।" तदनुसार कर दिया अतः चाणक्य चंद्रगुप्त को अपने साथ ले गया, और उसे बहुत शीघ्र युद्ध-विद्या में निपुण कर दिया, जब चन्द्रगुप्त सैन्य संचालन योग्य हो गया, तो चाणक्य ने जो रसायन सिद्धि द्वारा द्रव्य प्राप्त किया था, उस धन से कुछ सैन्य इकट्ठी की गई, और वह चंद्रगुप्त के नेतृत्व में विजय यात्रा को निकली । साहस तो महान् था किन्तु मुट्ठीभर अशिक्षित सैनिक सबल राष्ट्रों के २६१ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष 1 [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास समक्ष क्या खाकर ठहरते ? अन्त में युद्ध-क्षेत्र का परित्याग करना ही चाणक्य की सम्मति से उचित समझा गया और अब चन्द्रगुप्त और चाणक्य गुप्त भेष में भ्रमण करने लगे। अनेक बार शत्रुओं के गुप्तचरों से बच निकलने का साहस किया था जिसको आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने परिशिष्ट पर्व के आठवा स्वर्ग में खूब विस्तार से मनोरञ्जक उल्लेख किया है किन्तु विस्तार भय से यहां पर नहीं लिख कर मैं पाठकों को सलाह देता हूँ कि पूर्वोक्त ग्रन्थ से पढ़ लें। यहाँ तो सिर्फ एक उदाहरण का उल्लेख कर दिया जाता है जैसे चाणक्य और चन्द्रगुप्त जब गुप्त-वेष में भ्रमण कर रहे थे तब एक रोज अकस्मात किसी गाँव में एक बुढ़िया के घर जा पहुँचे। बुढ़िया ने उस समय खिचड़ी पकाई हुई थी और गरम गरम थाली में, निकाल कर अपने बच्चों को दे रही थी, उसमें एक लड़के ने कुछ अधिक भूखा और उतावला होने के कारण-- जल्दी खाने के लिये खिचड़ी के बीच में हाथ मारा, खिचड़ी बहुत गरम थी, इसलिये उसका हाथ जल गया और हाथ जलने से लड़का बुवे मारकर रोने लगा। लड़के की यह चेष्टा देखकर बुढ़िया बोली "अरे मूर्ख ! तू भी चन्द्रगुप्त और चाणक्य के सामन अबोध ही रहा।" - अपना नाम सुनकर चन्द्रगुप्त और चणक्य उस बुढ़िया के समीप चले गये, और पूछा-मैया! यह चन्द्रगुप्त और चाणक्य कौन है? और इस लड़के के हाथ जलने पर उसके दृष्टान्त से तुम्हारा क्या प्रयोजन है?" बुढ़िया बोली ! चन्द्रगुप्त भी एक राजपूत है जो सम्राट् बनने की अभिलाषा रखता है, उसने सीमाप्रान्त के बिजय किये बगैर ही मुख्य राजधानी पर आक्रमण कर दिया, इसीसे लोग उसके विरुद्ध उठ खड़े हुये और सीमाप्रान्तों से आक्रमण करके उसको बीचमें घेर लिया बगैर सीमाप्रान्तों के विजय किये राजधानी पर एवं बीच के शहरों पर-आक्रमण कर देना, यही उसकी मूर्खता थी, उसी तरह इस लड़के ने भी आस पास की ठंडी खिचड़ी छोड़कर गरमा-गरम खिचड़ी में हाथ मारा तभी इसका हाथ जल गया। बुढ़िया की भेद-भरी बातों से चाणक्य और चन्द्रगुप्त की आंखें खुली वे मन ही मन में उस बुढ़िया को प्रणाम कर के वहां से रवाना हुये और बहुत शीघ्र एक विशाल सैन्य संगठित करके अबकी बार उन्होंने सीमाप्रान्त को अधीन किया और वहां से ग्रामों और नगरों को विजय करते हुये उनके स्वामियों को अपने पक्ष में लेते हुए धीरे-धीरे पाटलिपुत्र तक बढ़ आये और राजा नन्द (जो उस समय का सबसे बलशाली नरेश था)--पर आक्रमण कर दिया । राजा नन्द को चन्द्रगुप्त के रण-कौशल के सामने अपने घुटने टेकने पड़े और जब वह चारों और से हताश हो गया तब चुपचाप चन्द्रगुप्त और चाणक्य की स्वीकृति से राज्य-छोड़ कर कहीं चला गया । जाते समय राजा नन्द की एक युवती कन्या चंद्रगुप्त पर आशक्त हो गई थी, अतएव उसे चंद्रगुप्त को पति करने की सहर्ष अनुमति राजा नंद ने दे दी ऐसा आचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत परिशिष्टपर्वमें उल्लेख मिलता है। संक्षेप में यही चंद्रगुप्त का जीवन-वृतांत है ! मगध का राज्य प्राप्त कर लेने पर चंद्रगुप्त ने यूनानी आक्रमणकर्ता सेल्युकस को कैसी गहरी हार दी, फिर काबुल, कंधार, हिरात जैसे प्रदेश लेकर और उसकी कन्या के साथ ब्याह कर संधि करली है।। चन्द्रगुप्त के समय में भारत की सभ्यता किस प्रकार की थी जिसके विषय में कई यत्र तत्र प्रमाण उपलब्ध होते हैं परन्तु भारतसम्राट चन्द्रगुप्त की राजसभा में यूनान का रे ल्यूकस जो सम्राट के हाथों से पराजय हो सन्धि करली थी जिसका हाल ऊपर लिखा है, उसका दूत मेगस्थनीज भारत में आया और २६२ Jain Educatie ternational Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ चन्द्रगुप्त की राजसभा में रहता था उसने जो अपनी आखों से देखकर जो हाल लिखा है उसको यहां उद्धृत कर दिया जाता है । चन्द्रगुप्त की राजधानी - अर्थात् पाटलिपुत्र नगर सोन और गङ्गा नदियों के संगम पर बसा हुआ था । आज कल इसके स्थान पर पटना और बांकीपुर नाम के शहर बसे हुये हैं । प्राचीन पाटलिपुत्र भी आजकल की तरह लम्बा बसा हुआ था उसकी लम्बाई उन दिनों में ९ मील और चौड़ाई १॥ मील थी उसके चारों ओर काष्ट की बनी हुई एक दीवार थी, जिसमें ६४ फाटक और ५७० बुर्ज थे। दीवार के चारों ओर एक गहरी परिखा या खाई थी, जिसमें सोन नदी का पानी भरा रहता था। राजधानी में चन्द्रगुप्त के महल अधिकतर काष्ट के बने हुये थे, पर शान शौकत में वे फारस के राजाओं के महलों से भी बढ़कर थे । चन्द्रगुप्त का दरबार—बहुमूल्य बस्तुओं से सुसज्जित था । वहाँ रखे हुए सोने चाँदी के बर्तन और खिलौने जड़ाऊ मेज़ और कुर्सियाँ तथा कीनखाब के कपड़े देखने वालों की श्रंख में चकाचौंध पैदा करते थे। जब कभी कभी चन्द्रगुप्त बड़े बड़े अवसरों पर राजमहल के बाहर निकलता था तो वह सोने की पालकी पर चढ़ता था । उसकी पालकी मोती की मालाओं से सजी रहती थी । जब उसे थोड़ी ही दूर जाना होता था तो वह घोड़े पर चढ़कर जाता था, पर लम्बे सफर में वह सुनहरी भूलों पर सजे हुये हाथी पर चढ़ता था । जिस तरह आजकल बहुत से राजाओं और नबाबों के दरबार में मुर्गी, बटेर; गढ़े और साँड़ वगैरह की लड़ाई में दिलचस्पी ली जाती है, उसी तरह चन्द्रगुप्त भी जानवरों की लड़ाई से अपना मनोञ्जन करता था । पहलवानों के परस्पर युद्ध भी उसके दरवार में होते थे। जिस तरह आजकल घोड़ों की दौड़ होती है और उसमें हजारों की बाज़ी लगाई जाती है उसी तरह चन्द्रगुप्त समय में भी बैल दौड़ाये जाते थे और वह उस दौड़ को बड़ी रुचि से देखता था आजकल की तरह उस समय भी लोग दौड़ में बाज़ी लगाते थे । दौड़ने की जगह हज़ार गज़ के घेरे में रहती थी और एक घोड़ा तथा उसके उधर उधर दो बैल एक रथ को लेकर दौड़ते थे १ .." चन्द्रगुप्त की शासन-पद्धति -- मगास्थनीज़ तथा सैनिक व्यवस्था और शासन पद्धति का जो पता लगता है उसे एम० ए० ने 'अशोक के धर्मलेख " नामक पुस्तक के तृतीय श्रवलोकनार्थ उद्धृत किया जाता है: कौटिलीय अर्थशास्त्र से चन्द्रगुप्त मौर्य की अत्यन्त संक्षेप में श्रीयुत जनार्दन भट्ट अध्याय में दिया है उसे यहाँ पाठकों के सैनिक व्यवस्था - चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना प्राचीन प्रथा के अनुसार चतुरंगणी थी, किन्तु उसमें अल सेना की एक विशेषता थी । चन्द्रगुप्त की सेना में हाथी ९०००, रथ ८०००, घोड़े ३००००, और पैदल सिपाही ६०००००, थे । हरएक रथ पर सारथी के अलावा दो धनुर्धर और हर हाथी पर महावत httड़कर तीन धनुर्धर बैठते थे । इस तरह कुल सैनिकों की संख्या ६००:०० पैदल, ३००००, घुड़सवार ३६००० गजारोही और २४००० रथी, अर्थात् कुल मिलाकर ७२०००० थी । इन सबों को राजखजाने से वेतन नियमित रूप से मिला करता था । सैनिक मण्डल - सेना का शासन एक मण्डल के अधीन था। इस मण्डल में ३० सभासद थे, जो ६ विभाग में विभक्त थे । प्रत्येक बिभाग में पाँच सभासद होते थे । प्रथम विभाग में पाँच सभासद होते A २६३ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास थे प्रथम विभाग जलसेनापति के सहयोग से जलसेन का शासन करता था। द्वितीय विभाग के अधिकार में सैन्य-सामग्री और रसद वगैरह रहता था। रण वाद्य बजाने वाले, साइस, घसियारे आदि का प्रवन्ध भी इसी विभाग से होता था। तृतीय विभाग पैदल सेना का शासन करता था। चतुर्थ विभागके अधिकार में सवार सेना का प्रबन्ध था। पंचम विभाग रथ सेना की देख भाल करता था और षष्ट विभाग हस्तिसैन्य का प्रबन्ध करता था । चतुरंगणी सेना तो बहुत प्राचीन काल से ही चली आ रही थी। पर जल-सेनाविभाग और सैन्य-सामग्री-विभाग चन्द्रगुप्त की प्रतिभा के परिणाम ही थे। सेना की भर्ती-चाणक्य के अनुसार पैदल सेना के सिपाही ६ प्रकार से भर्ती किये जाते थे। यथा:-'मौल' जो बाप-दादों के समय से राज सेना में भर्ती होते चले आये थे, 'भृत' जो किराये पर लड़ने के लिये भर्ती किये जाते थे, 'श्रेणी' जो सहयोग के सिद्वान्तों पर एक साथ रहने वाली कुछ योद्धा जातियों में से भर्ती किये जाते थे, 'मित्र' जो मित्र देशों में से भर्ती किये जाते थे, 'अमित्र' जो शत्रु देशों में से भर्ती किये जाते थे और 'अटवी' जो जंगली जातियों में से भर्ती किये जाते थे। सेना के अस्त्र-शस्त्र-कौटिलीय अर्थ-शास्त्र में स्थिर-यन्त्र' ( जो एक से दूसरी जगह फके जा सकें ) हलमुख' ( जिनका सिर हल की तरह हो ) 'धनुष, बाण, खंड, क्षुर-कल्प' जो छुरे के समान हो) आदि अनेक अस्त्र-शस्त्रों के नाम मिलते हैं । इनके मी अलग अलग २ बहुत से भेद थे। दुर्ग के किले-चाणक्य के अनुसार उन दिनों दुर्ग कई प्रकार के होते थे और चारों दिशाओं में बनाये जाते थे निम्न लिखित प्रकार के दुर्गों का पता चलता है:-'श्रौदक' जो द्वीप की तरह चारों ओर पानी से घिरा रहता था। 'पार्वन' जो पर्वत की चट्टानों पर बनाया जाता था। 'धान्वन' जो रेगिस्तान या महा ऊसर जमीन में बनाया जाता था । इनके अलावा वहुत से छोटे छोटे किले गांवों के बीचों बीच बनाये जाते थे। जो किला ८०० गांवों के केन्द्र में बनाया जाता था उसे 'स्थानीय, जो किला ४.० गांवों के बीचोंबीच बनाया जाता था उसे 'द्रोणमुख', जो किला २०० गांवों के मध्य में बनाया जाता था उसे 'खार्व. टिक' और जो किला १०० गांवों के केन्द्र में रहता था उसे 'संग्रहण कहते थे। नगर-शासक-मण्डल-जिस प्रकार सेना का शासन एक सैनिक मण्डल के अधीन था उसी प्रकार नगर का शासन भी एक दूसरे मण्डल के हाथ में था। यह मण्डल एक प्रकार से आजकल की 'म्यूनिसिपैलिटी' का काम करता था, और सैनिक-मण्डल की तरह ६ विभागों में बटा हुआ था। इस मण्डल में भी ३० सभासद थे और प्रत्येक विभाग चार सभासदों के आधीन था । इन विभागों का वर्णन मेगास्थनीज ने निम्न लिखित प्रकार से किया है: प्रथम विभाग का कर्तव्य शिल्पकलाओं, उद्योग-धन्धों और कारीगरों की देखभाल करना था। यह विभाग कारीगरों की मजदूरी की दर भी निश्चित करता था। कारनाने वालों के कच्चे माल की देख भाल का काम भी इसी विभाग का काम था। इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता था कि कहीं वे लोग घटिया या खराब सामान तो काम में नहीं लेते । कारीगर राज्य के विशेष समझे जाते थे। इसलिये जो कोई उनका अंग भंग करके उन्हें निकम्मा बनाता था उसे प्राण दण्ड दिया जाता था। २६४ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कर का जीवन ] [ औसवाल संवत् ११२ द्वितीय विभाग - का कर्तव्य विदेशियों की देख-रेख करना था । मौर्य साम्राज्य का विदेशियों से बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध था । अनेक विदेशी लोग ब्यापार अथवा भ्रमण के लिय इस देश में आते थे । उनका इस विभाग की ओर से उचित निरीक्षण किया जाता था और उनकी सामाजिक स्थिति के अनुसार ठहरने के लिये उन्हें स्थान तथा नौकर चाकर दिये जाते थे । आवश्यकता पड़ने पर वैद्य लोग उनकी चिकित्सा करने के लिये नियुक्त रहते थे । मृत विदेशियों का अन्तिम संस्कार उचित रूप से किया जाता था। मरने के बाद उनकी सम्पत्ति तथा रियासत आदि का प्रबन्ध इसी विभाग की ओर से होता था और उसकी आय उनके उत्तराधिकारियों के पास भेज दी जाती थी । यह विभाग इस बात का बड़ा अच्छा प्रमाण है कि बिक्रम पूर्व तीसरी और चौथी शताब्दि में मौर्य साम्राज्य का विदेशी राष्ट्रों से लगातार सम्बन्ध था और बहुत से विदेशी व्यापार आदि के सम्बन्ध से भारतवर्ष में आते थे । तृतीय विभाग - का कर्तव्य साम्राज्य के अन्दर जन्म और मृत्यु की संख्या का हिसाब ठीक ठीक नियमानुसार रखना था। जन्म और मृत्यु की संख्या का हिसाब इसलिये रक्खा जाता था कि जिसमें राज्य को इस बात का ठीक ठीक पता रहे कि साम्राज्य की आबादी कितनी बढ़ी या कितनी घटी । जन्म और मृत्यु का लेखा रखने से प्रजा से कर वसूल करने में भी सहूलियत रहती थी । यह एक प्रकार का पोल टैक्स ( Poll-Tax ) था जो हर एक मनुष्य पर लगाया जाता था । विदेशियों को यह देखकर आश्चर्य होता है कि उस प्राचीन समय में भी एक भारतीय शासक ने अपने साम्राज्य की जनसंख्या जानने का कैसा अच्छा प्रबन्ध कर रक्खा था । इसके लिये एक अलग विभाग ही खुला हुआ था । चतुर्थ विभाग - के. आधीन बाणिज्य-व्यवसाय का शासन था । बिक्री की चीजों की दर नियत करना तथा सौदागरों से बटखरों और नापजोखों का यथोचित उपयोग कराना इस विभाग का काम था । इस विभाग के अधिकारी बड़ी सावधानी से इस बात का निरीक्षण करते थे कि बनिये तथा व्यापारी राजमुद्राकित वटखरों और मापों का प्रयोग करते हैं या नहीं । प्रत्येक व्यापारी को व्यापार करने के लिये राज्य से लाइसन्स या परवाना लेना पड़ता था । और इसके लिये उसे एक प्रकार का कर भी देना पड़ता था । एक से अधिक प्रकार का व्यापार करने के लिये व्यापारी को दूना कर देना पड़ता था । पंचम विभाग -- कारखानों और उनमें बनी हुई चीजों की चीज को अलग २ रखने की आज्ञा राज्य की ओर से दी गई थी । बेचना नियम के विरुद्ध और दण्डनीय समझा जाता था । देखभाल करता था । पुरानी और नयी राज्याज्ञा के बिना पुरानी चीजों का पष्ट विभाग- बिकी हुई वस्तुओं के मूल्य पर दशमांश कर वसूल किया जाता था । जो मनुष्य कर न देकर इस नियम को भंग करता था उसे प्राणदण्ड दिया जाता था । अपने अपने कर्तव्यों के अतिरिक्त सभासदों को एक साथ मिल कर नगर- शासन के सम्बन्ध में सभी आवश्यक काम करने पड़ते थे। हाट, बाट, घाट और मन्दिर आदि सब लोकोपकारी कार्यों और स्थानों का प्रबन्ध इन्हीं लोगों के हाथ में था । मालूम पड़ता है कि तक्षशिला, उज्जयनि आदि सान्नाज्य के सभी बड़े २ नगरों का शासन भी इसी विधि से होता था । Jain Education Intational २६५ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्रान्तों का शासन-दूरस्थित प्रान्तों का शासन राजप्रतिनिधियों के द्वारा होता था। राजप्रतिनिधि आम तौर पर राजघराने के लोग हुआ करते थे। उनके अधीन अनेक कर्मचारी होते थे। 'अर्थशास्त्र' के अनुसार प्रत्येक राज्य चार मुख्य प्रान्तों में विभक्त होना चाहिये और प्रत्येक प्रान्त एक एक राजकुमार या 'स्थानिक' नामक शासक के अधीन होना चाहिये । इस बात का पता निश्चित रूप से नहीं है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का विस्तृत साम्राज्य कितने प्रान्तों में बटा हुआ था, पर अशोक के लेखों से पता लगता है कि उसका साम्राज्य चार भिन्न २ प्रान्तों में बटा हुआ था। 'तक्षशिला' 'उजयनि' 'तोसली' और 'सुवर्णगिरि' नामक चार प्रान्तीय राजधानियों के नाम अशोक के शिला-लेखों में मिलते हैं। 'तक्षशिला' पश्चिमोत्तर प्रान्त की और 'सुवर्णगिरि' दक्षिण प्रान्त की राजधानी थी। ऐसा कहा जाता है कि अशोक अपने पिता के जीवन काल में तक्षशिला और उज्जैन दोनों जगह प्रान्तिक शासक रह चुका था । राज-प्रतिनिधि या राजकुमार के बाद "राजुकों" का ओहदा था जो आज कल के कमिश्नरों के समान थे। उनके नीचे 'युक्त' 'उपयुक्त' 'प्रादेशिक' श्रादि अनेक कर्मचारी राज्य का काम नियमपूर्वक चलाते थे। "अर्थशास्त्र" और अशोक के लेखों से पता लगता है कि चन्द्रगुप्त और अशोक की शासन प्रणाली बहुत ही सुव्यवस्थित और ऊंचे ढंग की थी। दूरस्थित राजकर्मचारियोंकी कार्यवाही की सूचना देने और रत्ती २ भर के समाचार सम्राट को भेजने के लिये "प्रतिवेदक" ( सम्वाददाता ) नियुक्त थे ये लोग प्रतिदिन हर एक नगर या ग्राम का सच्चा समाचार राजधानी को भेजा करते थे। अर्थशास्त्र के अनुसार राज्य-शासन काम लगभग ३० विभागों में बटा हुआ था। इन विभागों के अध्यक्ष या सुपरिण्टेण्डेण्टों का कर्तव्य बहुत ही विस्तार के साथ "अर्थशस्त्र" में दिया गया है । इन विभागों में से मुख्य-मुख्य "गुप्तचर-विभाग, सैनिक-विभाग, व्यापारबाणिज्यविभाग, नौ-विभाग, शुल्क विभाग, ( चुगी का महकमा ) आकरी विभाग, सुरा-विभाग, (आबकारी का महकमा ) कृषि-विभाग, नहरविभाग, पशु रक्षा विभाग, चिकित्सा विभाग, मनुष्य गणना विभाग" आदि-आदि थे। गुप्तचरविभाग-सेना के बाद राज्य की रक्षा गुप्तचरों पर निर्भर थी । अर्थशास्त्र में गुप्तचरविभाग तथा गुप्तचरों का बड़ा अच्छा वर्णन मिलता है । गुप्तचर लोग भिन्न भिन्न भेषों में गुप्तरीति से घूमफिर कर हरएक प्रकार के समाचार राजा को दिया करते थे। वे न केवल साम्राज्य के भीतर बल्कि साम्राज्य के भी बाहर उदासीन तथा शत्रु-राज्यों में जाकर गुप्त बातों का पता लगाया करते थे। जिस तरह “जर्मनी के केसर ने" गुप्तचरों का एक अलग विभाग खोल रखा था और उसके द्वारा वह शत्रु-मित्र तथा उदासीन सबों का समाचार प्राप्त किया करता था, उसी तरह चन्द्रगुप्त ने भी एक गुप्तचर-संस्था स्थापित की थी और इसी संस्था के द्वारा वह सब बातों का पता लगाया करता था। वेश्याओं से भी गुप्तचर का काम लिया जाता था। गुप्तचर लोग “गूढ़ या सांकेतिक" द्वारा गुप्त संवाद भेजा करते थे जिस तरह जर्मन लोग युद्ध में कबूतरों से चिट्टीरसा का काम लेते थे उसी तरह चन्द्रगुप्त के गुप्तचर भी कबूतरों के द्वारा खबरें भेजा करते थे। कृषि-विभाग-राज्य की ओर से एक “सीताध्यक्ष" नामक अफसर नियुक्त था जो "कृषि २६६ Jain Education international Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ विभाग" का शासन करता था। उसका पद वही था जो आज कल के "डाइरेक्टर आफ एग्रिकल्चर" का है। खेती की भूमि राजा की सम्पत्ति गिनी जाती थी और राजा किसानों से पैदावार का चौथाई भाग करके रूप में आम तौर पर वसूल करता था। इस बात का पता नहीं लगता कि लगान का बन्दोबस्त हर साल होता था या कई साल के बाद । किसान लोग सैनिक सेवा से अलग रखे जाते थे । मेगास्थनीज साहब इस बात को देखकर बड़े चकित थे कि जिस समय शत्रु सेनाएँ घोरसंप्राम मचाये रखती थीं उस समय भी खेतीकर लोग शान्ति पूर्वक अपने खेती के काम में लगे रहते थे । __ भारतवर्ष सदा से कृषि-प्रधान देश रहा है। अतएव इस देश के लिये सिंचाइ का प्रश्न हमेशा से बड़े महत्व का गिना जाता है । चन्द्रगुप्त के शासनके लिये यह बड़े गौरव का विषय है कि उसने सिंचाई का एक विभाग ही अलग नियत कर दिया था । इस विभाग पर वह विशेष ध्यान देता था, मेगास्थनीज साहब ने भी लिखा है कि "भूमिके अधिकतर भाग में सिंचाई होती है इसी से साल में दो फसलें पैदा होती हैं राज्य के कुछ कर्मचारी नदियों का निरीक्षण और भूमि की नाप जोख उसी तरह करते हैं; जिस तरह मिश्र में की जाती है वे उन गूलों अथवा नालियों की भी देख भाले करते हैं जिनके द्वारा पानी खास नहरों से शाखा नहरों में जाता है, जिसमें कि सब किसानों को समान रूप से नहर का पानी सिंचाई के लिये मिल सके ।" मेगास्थनीज का उक्त कथन अर्थशास्त्र से पूरी तरह पुष्ट हो जाता है । सिंचाई के बारे में कुछ बातें अर्थशास्त्र में ऐसी भी लिखी हैं जो मेगास्थनीज के बर्णन में नहीं पाई जाती हैं। अर्थशास्त्र के अनुसार सिंचाई चार प्रकार से होती थी, यथा (१) "हस्तप्रावर्तिम' अर्थात् हाथ के द्वारा (२) "स्कान्ध प्रावर्तिम" अर्थात् कन्धों पर पानी ले जाकर ( ३ ) "स्रोतयंत्रप्रावत्तिम" अर्थात् यंत्रके द्वारा ( ४ ) "नदीसरस्तटाकूपोद्घाटम्" अर्थात् नदियों, तालाबों और कूपों के द्वारा, सिंचाई के पानी का महसूल क्रम से पैदावार का पंचमांश, चतुर्थाश और ततीयांश होता था । अर्थशास्त्र में कुल्या का नाम भी आता है । जिसका अर्थ "कृत्रिमासरित" अथवा नहर है । इससे विदित होता है कि उन दिनों भारतवर्ष में नहरें बनाई जाती थीं । और उनके द्वारा खेत सींचे जाते थे । पानी जमा करने के लिये सेतु या बान्धा भी बान्धे जाते थे और तालाब या कूप इत्यादि की मरम्मत हमेशा हुआ करती थी। इस बात की भरपूर देख-रेख रवखी जाती थी कि यथा समय हर एक मनुष्य को आवश्यकतानुसार जल मिलता है या नहीं । जहां नदी सरोवर तलाव इत्यादि नहीं थे वहाँ राजा की ओर से तालाब बगैरह खुदवाये जाते थे । गिरनार में (जो काठियावाड़ प्रांत में है) एक चट्टान पर क्षत्रपाल रुद्रायम का एक लेख खुदा हुआ है । उससे विदित होता है दूरस्थित प्रान्तों में भी सिंचाई के प्रश्न पर मौर्यसम्राट कितना ध्यान देते थे। यह लेख ई० सन १५० के बाद ही लिखा गया था । इसमें लिखा है कि पुष्यगुप्त वैश्य ने जो चन्द्रगुप्त की ओर से पश्चिमी प्रान्तों का शासक था गिरनार की पहाड़ी पर एक छोटी नदी के एक ओर बन्धा बनावाया जिससे एक मील सी बन गई । इस मील का नाम 'सुदर्शन' रक्खा गया और इससे खेतों की सिंचाई होने लगी । बाद सम्राट अशोक ने उसमें से नहरें भी निकलवाई। नहरें अशोक के प्रतिनिधि राजा "तुषस्फ" की देख भाल में बनवाई गई थी ! .... मौर्य सम्राटों की बनवाई हुई मील तथा बान्ध दोनों ४०० वर्ष तक कायम रहे । उसके बाद सन् १५० में बड़ा भारी तूफन आने से झील और बन्ध दोनों नष्ट हो गये तब शक क्षत्रप रुद्रदामन Arriam-marwarrar २६७ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ने बन्धा को फिर से बनबाया और इस बन्धा तथा मील का संक्षिप्त इतिहास उसने एक शिलालेख में लिख दिया जो गिरनार की चट्टान पर खुदा हुआ है। चाणक्य के कथन से यह भी ज्ञात होता है । कि कृषि विभाग के साथ साथ "अन्तरिक्षविद्या विभाग" ( Beteorological Department ) भी था। यह विभाग एक प्रकार के यन्त्र के द्वारा इस बात का निश्चय करता था कि कितना पानी बरस चुका है । बादलों की रंगत से भी इस बात का पता लगाया जाता था कि पानी बरसेगा या नहीं और बरसेगा तो कितना । सूर्य, शुक्र और वृहस्पति की स्थिति और चाल से भी यह निश्चय किया जाता था कि कितना पानी बरसने वाला है । साम्राज्य की सड़कें-सुव्यवस्थित दशा में रखी जाती थीं । श्राध कोस पर पथ-प्रदर्शक पत्थर ( माइलस्टोन ) गड़े रहते थे। एक बड़ी सड़क आजकल की प्राण्डट्रक रोड (कलकत्ते से पेशावर वाली सड़क ) के समान पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त में तक्षशिला से लगाकर सीधे मौर्य साम्राज्य की राजधानी अर्थात् पाटलिपुत्र तक जाती था। यह सड़क लगभग १००० मील लम्बी थी। अर्थशास्त्र से पता लगता है कि मोर्यसाम्राज्य में सड़कें सब दिशाओं को जाती थीं, जिस दिशा में यात्रियों और व्यापारियों का आना जाना अधिक रहता था उसी दिशा में अधिकतर सड़कें बनवाई जाती थीं। उन दिनों जो दक्षिण की ओर सड़कें जाती थीं वे अधिक महत्व की गिनी जाती थीं। क्योंकि वहाँ ब्यापार अधिक होता था और वहीं से हीरा, जवाहिर, मोती, सोना इत्यादि बहुमूल्य वस्तुएं आती थीं । सड़कें कई किस्म की होती थी । भिन्न २ प्रकार के मनुष्यों और पशुओं के लिए भिन्न २ सड़कें थीं । जिस सड़क पर राजा का जुलूस वगैरह निकलता था वह “राजमार्ग" कहलाता था जिस सड़क पर रथ चलते थे, वह 'रथपथ' कहलाता था, जिस सड़क पर खच्चर और ऊंट चलते थे, वह "खरौष्ट्रपथ" कहलाता था; जिस सड़क पर पशु चलते थे वह 'पशुपथ' कहलाता था। और जिस सड़क पर पैदल मनुष्य चलते थे वह “मनुष्य पथ" कहलाता था। इसी तरह से कुछ सड़के ऐसी थीं जिन का नाम उन देशों या स्थानों के नाम पर पड़ा हुआ था, जिन देशों और स्थानों को वे जाती थीं इसी तरह की एक सड़क राष्ट्र-पथ की छोटे-छोटे जिलों को जाती थी। विविध पथ' नामक सड़क चरागाहों को जाती थी जो सड़क सेना के रहने स्थानों जाती थी, वह “ब्यूहपथ" के नामसे पुकारी जाती थी। और जो सड़क स्मशान को जाती थी वह स्मशान-पथ कहलाती थी । बन की ओर जाने वाला मार्ग 'बन-पथ' के नाम से पुकारा जाता और जो मार्ग पुलों तथा बान्धों की ओर जाता था वह सेतु-पथ कहलाता था। राज्य के सभी काम राज-कोष पर निर्भर रहते हैं। इसलिये कर लगाना राजा के लिये बहुत आवश्यक है। अर्थ शास्त्र में एक स्थान पर मौर्यसाम्राज्य के श्राय के द्वार निम्न रूप से लिखे गये हैं:(१) राजधानी (२) ग्राम और प्रांत (३) खाने (४) सरकारी बाग (५) जंगलात (६) जानवर और चरागाह तथा (७) 'वणिक पथ' । ___ चन्द्रगुप्त की शासन-व्यवस्था का उल्लेख कौटिलीय अर्थशास्त्र और मेगास्थानीज के भ्रमण वृतान्त में विस्तार पूर्वक मिलता है । उसी वृतान्त को अत्यन्त संक्षेप में गुरुकुल-विश्वविद्यलय काङ्गड़ी के इतिहास लेखक एवं प्रोफेसर श्रीसत्य-केतु विद्यालंकार ने अपने मौर्यसाम्राज्य के इतिहास में उल्लिखित किया है । यहाँ उक्त पुस्तक से अत्यन्त अवश्य-कीय, ज्ञातव्य, और रुचिकर अंश उद्धृत किया जाता है Jain Education Hernational Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ न्याय-व्यवस्था – “सम्राट् चन्द्रगुप्त के विस्तृत साम्राज्य में न्याय के लिये एक ही न्यायालय पर्याप्त नहीं हो सकता था । इसलिये पाटलिपुत्र के बड़े न्यायालय के सिवाय अन्य अनेक छोटे बड़े न्यायालय साम्राज्य में विद्यमान थे । सब से छोटा न्यायालय 'ग्राम-संघ' का होता था, ग्राम की सभा भी अपनी ग्राम सम्बन्धी बातों का फैसला स्वयं किया करती थी । इस के ऊपर 'संग्रहरण' का न्यायालय होता था, इसके ऊपर 'द्रोणमुख' का और 'द्रोणमुख' के उपर 'जनपदसन्धि' का । जनपदसन्धि न्यायालय के ऊपर राजा का अपना न्यायालय होता था, इसमें राजा स्वयं उपस्थित होता था और उस की सहायता के लिये अन्य अनेक न्यायाधीश होते थे । ग्राम संघ और सम्राट् के न्यायालयों के सिवाय शेष पाँच श्रेणियों के न्यायालय दो भागों में विभक्त थे | दोनों की रचना और कार्य सर्वथा भिन्न २ थे । एक नाम था 'धर्मस्थीय' और दूसरे का 'कण्टक-शोधन' । धर्मस्थीय न्यायालयों में तीन ३ न्यायाधीश होते थे, इन्हें 'धर्मस्थीय' या 'व्यवहारिक' कहा जाता था । इसी प्रकार ' कण्टकशोधन' न्यायालयों में भी तीन ३ न्यायाधीश होते थे, परन्तु इन्हें 'प्रदेष्टा' कहा जाता था । अनेक विद्वानों के धर्मस्थीय को Civil और कण्टकशोधन को Criminal न्यायालय कहा है । इन न्यायालयों में किन किन विषय पर विचार होता था, न्याय किस कानून के आधार पर होता था, न्यायालयों में मुकदमे किस प्रकार किये जाते थे, अपराधी को विविध प्रकार के दण्ड किस प्रकार दिये जाते थे, गवाहों और न्यायाधीश का कर्तव्य उनके अधिकार आदि का रोचक वर्णन कौटिल्य अर्थशास्त्र में अत्यन्त विस्तार से दिया गया ।" शिक्षा विभाग - "मौर्यकाल में शिक्षा पद्धति क्या थी, यह कह सकना बहुत कठिन है । हमें मालूम है कि उस काल में तक्षशिला जैसे स्थानों पर विश्वविद्यालय विद्यमान थे। जिन में बहुत से विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त किया करते थे। साथ ही बनों में वानप्रस्थी आचार्य लोग बहुत से शिष्यों को साथ में रख कर विद्या पढ़ाया करते थे । राज्य इनको सहायता देता था । प्रायः यह रीति थी कि आचार्यों को अपने शिक्षणालय के अनुरूप भूमि दे दी जाती थी । इसकी सम्पूर्ण आमदनी शिक्षणालय के लिये ही खर्च होती थी। बहुत से शिक्षणालय सीधे तौर पर राज्य के आधीन थे। इन शिक्षकों को राज्य की ओर से वेतन मिलता था ।" इत्यादि शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध था । इन दान विभाग - " चन्द्रगुप्त-कालीन राष्ट्रीय व्यय का 'दान' भी बहुत महत्व पूर्ण भाग था ।... बाल, वृद्ध, ब्याधि - पीड़ित, आपत्तिग्रस्त आदि व्यक्तियों का पालन-पोषण सब राज्य की तरफ से होता था । मौर्यकाल में इन असहाय व्यक्तियों के पालन के लिये व्यवस्थित रूप से प्रबन्ध होता था । असहायों से ऐसे कार्य (चर्खा कातना आदि) कराये जाते थे जिन्हें कि ये आसानी के साथ कर सकें । और उनको परिश्रमानुसार मजदूरी अतिरिक्ति राज-कोष से भी आवश्यकतानुसार उचित सहायता दी जाती थी । इससे प्रतीत होता है कि उन दिनों आजकल जिस तरह भिखमंगों की भरमार है उन दिनों में मंगते ढूंढने पर भी न मिलते होंगे । इसके अतिरिक्त कारीगरों, कृषकों, सार्वजनिक कार्यकताओं, संस्थाओं और अन्य संगठन कार्य वगैरह के लिये राज्य की ओर से सहायता मिलती थी । देश हित बी परोपकारी मनुष्यों पर राजा की कृपादृष्टि रहती थी ।" चिकित्सालय और स्वास्थ्य-रक्षा --- "प्राचीन भारत में चिकित्सा शास्त्र ने जो उन्नति की थी, उसका विस्तार से वर्णन करने की आवश्यकता नहीं ।...... "चंद्रगुप्त के समय में चिकित्सा शास्त्र बहुत उन्नति २६९ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को प्राप्त था।........"चंद्रगुप्त के समय में राज्य की ओर से अनेक चिकित्सा होते थे। उनके साथ भैषज्यागार ( Store-Rooms ) भी होते थे। ... 'मानव चिकित्सा के अलावा पशु चिकित्सा का भी प्रबंध था।... "सम्राट चंद्रगुप्त के समय में इस बात के लिये विशेष प्रयत्न किया जाता था कि रोग होने ही न पावें । असावधानी उपेक्षा आदि रखने पर चिकित्सकों को भी दण्ड दिया जाता था।" किंतु आज हम उक्त कथन के बिलकुल विपरीत देखते हैं । जितने अधिक चिकित्सालय खुलते जा रहे हैं उतने ही अधिक दिनदूने रात चौगुने--रोगी बढ़ते जा रहे हैं । नये २ रोग उत्पन्न हो रहे हैं। चिकित्सालयों में रोगियों की संख्या घटने के बजाय प्रतिवर्ष बढ़ती रही है । इसका कारण केवल यही है कि राज्य की ओर से “रोग होने ही न पावें" जैसा चन्द्रगुप्त के शासनकाल में प्रवन्ध था वैसा इस समय कोई नियम ही नहीं है। जब पाड़ स्थिर है तब पत्तों के पतझड़ होने से लाभ क्या ? व्यापारी वर्ग नकली, हानिकारक, मिलावटी, खराब वस्तु नहीं बेच सकते थे। सफ़ाई का पूरा ध्यान रखा जाता था । बाजार, गली, मोहल्लों में कूड़ा, पेशाब पास्त्राना, मरे हुये साँप, चूहे तथा बड़े जानवरों को डाल देने पर दण्ड मिलता था। सार्वजनिक संकटों का निवारण-सम्राट् चन्द्रगुप्त के शासनकाल में दुर्भिक्ष, अग्नि, बाढ़ आदि सार्वजनिक संकटों के निवारण के लिये अनेक प्रकार से उपाय किया जाता था।" आवागमन के साधन-"चन्द्रगुप्त का साम्राज्य बहुत विस्तृत था । इसलिये आवागमन के लिये उत्तम साधनों और मार्गों की बहुत आवश्यकता थी। मार्गों का प्रबन्ध सरकार ने एक पृथक विभाग के सुपुर्द रक्खा था । जलमार्ग और स्थलमार्ग दोनों का उत्तम प्रबन्ध था। जलमार्ग-मौर्य चन्द्रगुप्त के शासनकाल में नौकाओं और जहाजों का बहुत अधिक चलन था। नौकानयन-शास्त्र की बहुत उन्नति हो चुकी थी। उस समय कितने ही प्रकार के जहाज़ होते थे। समुद्र से मोती, शंख आदि एकत्रित करने वाले जहाज़ भी थे। समुद्र में आई हुई विपत्तियों और डाकुओं के आक्रमण आदि से रक्षा के भी अच्छे अच्छे उपाय थे। स्थल मार्ग--सड़कों का उत्तमोत्तम प्रबन्ध था जो ऊपर लिख आये हैं। रीति-रिवाज, स्वभाव, सभ्यता--' मौर्य-कालीन भारतीयों के रीति, रिवाजों के सम्बन्ध में यूनानी लेखकों के कुछ विवरण उद्धृत करना भी आवश्यक प्रतीत होता है: 'भारतीय लोग किफायत के साथ रहते विशेषतः जब कि वे कैम्प में हों।" "भारतीय लोग अपने चालचलन में सीधे और मितव्ययी होने के कारण बड़े सुखी रहते हैं।" "उनके कानून और व्यवहार की सरलता इससे अच्छी तरह प्रमाणित होती है कि वे न्यायालय में बहुत कम जाते हैं। उनमें गिरवी और धरोहर के अभियोग नहीं होते और न वे मुहर व गवाह की ज़रूरत रखते हैं। वे एक दूसरे के पास धरोहर रखकर आपस में विश्वास करते हैं । अपने घर व सम्पत्ति, वे प्रायः अरक्षित अवस्था में ही छोड़ देते हैं" ये बातें सूचित करती हैं कि उनके भाव उदार थे। "अपने चाल की साधारण सादगी के प्रतिकूल वे बारीकी और नफासत के प्रेमी होते हैं। उनके www.arwaranwwwwwraaner Jain Edusenternational Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ वस्त्रों पर सोने का काम किया हुआ होता है। वे वस्त्र मूल्यवान रत्नों से विभूषित रहते हैं । वे लोग अत्यन्त सुन्दर मलमल के बने हुये फूलदार कपड़े पहनते हैं। सेवक लोग उनके पीछे पीछे छाता लगाये चलते हैं । वे सौन्दर्य का बड़ा ध्यान रखते हैं और अपने स्वरूप को संवारने में कोई उपाय उठा नहीं रखते।" ___"सचाई और सदाचारी दोनों की वे समान रूप से प्रतिष्ठा करते हैं।' 'भारतवासी मृतक के लिये कोई स्मारक नहीं बनाते, वरन् उस सत्यशीलता को जिसे मनुष्यों ने अपने जीवन में दिखलाया है तथा उन गीतों को जिनमें उनकी प्रशंशा वर्णित रहती है मरने के बाद उनके स्मारक को चिरस्थायी रखने के लिये पर्याप्त समझते हैं।" ___ "चोरी बहुत कम होती हैं । मेगस्थनीज़ कहता है कि उन लोगों ने जो सेण्ड्रोकोटश ( चन्द्रगुप्त ) के डेरे में थे, जिसके भीतर ४०००६० मनुष्य पड़े थे, देखा कि चोरी जिसकी इत्तला किसी एक दिन होती थी, और वह ऐसे लोगों के बीच जिनके पास लिपि बद्ध कानून नहीं, वरन् जो लिखने से अनभिज्ञ हैं और जिन्हें जीवन के समस्त कार्यों में स्मृति पर ही भरोसा करना पड़ता है।" 'भारतवासियों में विदेशियों तक के लिये कर्मचारी नियुक्त होते हैं, जिनका काम यह देखने का रहता है कि किसी विदेशी को हानि न पहुँचने पावे । यदि उन विदेशियों में से कोई रोगग्रस्त हो जाता है तो वे उसकी चिकित्सा के निमित्त वैद्य भेजते हैं तथा और दूसरे प्रकार से भी उसकी रक्षा करते हैं। यदि वह मर जाता है, तो उसे गाढ़ देते हैं और जो सम्पत्ति वह छोड़ जाता है उसे उसके सम्बन्धियों के हवाले कर देते हैं । न्यायाधीश लोग भी उन मामलों का जो विदेशियों से सम्बन्ध रखते हैं, बड़े ध्यानपूर्वक फैसला करते हैं और उन लोगों पर बड़ी कड़ाई करते हैं, जो उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं।" "भूमि जोतने बाले, यद्यपि उनके पड़ोस में युद्ध हो रहा हो, तो भी किसी प्रकार के भय की आशंका से विचलित नहीं होते । दोनों पक्ष के लड़ने वाले युद्ध के समय एक दूसरे का संहार करते हैं, परंतु जो खेती में लगे हुये हैं उन्हें पूर्णतया निर्विघ्न पड़ा रहने देते हैं । इसके सिवाय न तो वे शत्रु के देश का अग्नि से सत्त्यानाश करते हैं और न उनके पेड़ काटते हैं। डाक प्रबन्ध-"मौर्यकाल में डाक का प्रबंध कबूतरों और तेज़ चलने वाले घोड़ों द्वारा होता था।" अत्यन्त संक्षेप में दिये हुये उक्त अवतरणों के पढ़ने से प्रत्येक मनुष्य स्वयं बिचार कर सकता है कि चंद्रगुप्त कैसा प्रतापी और विलक्षण राजा था। जिसने केवल २४ वर्ष के अल्प समय में ही अपने हाथों से स्थापित किये नवीन राज्य को ऐसी उन्नत दशा पर पहुंचा दिया कि आज से २२ सौ वर्ष पूर्व के इसके राज्य-प्रबंध का वर्णन पढ़कर हमारे पूर्वजों को मूर्ख समझने वाली आजकल की सभ्यता भिवानी जातियाँ भी आश्चर्य चकित होती हैं । इच्छा थी कि इस प्राचीन काल के प्रबन्ध सभ्यता का तुलनात्मक विवेचन वर्तमान शासन की सभ्यता, नीति आदि से किया जाय किंतु विस्तार-भय से विचार स्थगित करने पड़ते हैं। सम्राट की वीरता-मौर्य मुकटमणि सम्राट चन्द्रगुप्त की वीरता के लिये अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसने नंद वंशीय राजाओं को पराजय कर मगध का राजतंत्र अपने हस्तगत किया था और जब वह अपने साम्राज्य के संगठन में लगा हुआ था उसी समय सेल्यूकस ने जो सिकन्दर का सेनापति था, सिकन्दर के जीते हुये भारतीय प्रदेशों को फिर से अपने अधिकार में करने के लिये, २७१ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भारतवर्ष पर चढाई कर दी। सिन्धु नदी पार करके जब युद्धभूमि में दोनों सेनाओं का सामना हुआ, तब चन्द्रगुप्त की सेना के मुकाबिले में सेल्यूकस की सेना न ठहर सकी। सेल्यूकस को लाचार होकर पीछे हटना पड़ा और चन्द्रगुप्त के साथ उसी की शर्तों के मुत्राफिक सन्धि कर लेनी पड़ी। जिसके अनुसार ५०० हाथियों के बदले चन्द्रगुप्त को सेल्यूकस से परोपनिसदै, एरिया और अरचोजिया नाम के तीन प्रान्त मिले, जिनकी राजधानी क्रम से आज कल के काबुल, हिरात और कन्धार तीन नगर हैं । सन्धि को दृढ़ करने के लिये सेल्यूकस ने अपनी बेटी 'हेलेन' भी चन्द्रगुप्त को दी। इस प्रकार हिन्दुकुश पहाड़ तक उत्तरी भारत चन्द्रगुप्त के हाथ में आ गया। जब विदेशियों के साथ भी उनकी यह वीरता है तो भारत के लिये तो कहना ही क्या है ? भारत के सम्राट होने का सर्व प्रथम महत्व चन्द्रगुप्त को ही मिला है। सम्राट चन्द्रगुप्त का धार्मिक जीवन मंत्री चाणक्य के लिये आप पहिले ही पढ़ चुके हैं कि इसका घराना जैन था। इसके माता पिता दृढ़तापूर्वक जैनधर्म पालन करते थे अतः चाणक्य जैन था इसमें किसी प्रकार का सन्देह हो ही नहीं सकता है। जब चाणक्य ने राजा चन्द्रगुप्त को पाटलीपुत्र का राजा बना दिया था तो उसकी इच्छा हुई कि चन्द्रगुप्त भी जैनधर्म को स्वीकार कर इस धर्म का विश्व में खूब जोरों से प्रचार करके स्वात्मा के साथ अनेक आत्माओं का कल्याण कर सकें इस हेतु से राजा चन्द्रगुप्त को धर्म का तत्व सुनाने के लिये प्रत्येक धर्म के साधुओं को आमन्त्रण किया। जब वे साधु आते थे तो उनके लिये एक स्थान मुकर्रर कर दिया था वहां उनको ठहरा देता था, तथा उनकी परीक्षा के निमित्त बारीक रेता डाल रक्खा था। जब राजा के पाने में देर होती तो वे साधु राजा के महल, जाली झरोकों दासिया स्त्रियां आदि पदार्थ देखने के लिये इधर उधर घूमते रहते थे। इससे मंत्री चाणक्य तथा राजा चन्द्रगुप्त समझ गया कि ये केवल नाम के ही साधु हैं। जब क्रमशः जैन मुनि भी आये तो वे जब तक राजा सभा में नहीं आये तब तक स्वाध्याय ध्यान ज्ञान में ही अपना समय व्यतीत करते थे। अतः राजा की श्रद्धा जैन मुनियों की ओर झुक गई । बाद जैन मुनियों से धर्म का स्वरूप सुन कर राजा चन्द्रगुप्त ने सकुटुम्ब जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और इसी धर्म के आराधन में संलग्न हो गया। पुरे प्रघोष चाणक्यस्ततश्चैवमकारयत, धर्म श्रोष्यति सर्वेषामपि पाखण्डिनां नृपः ॥ ततश्चाहूय तान्सर्वान् शुद्धान्त स्याद वीयसि देशे निवेशयामास स विविक्ते विविक्तधीः ॥ शुद्धान्ता सन्नदिग्भागे, चाणक्येनाग्रतोऽपिहि, अक्षेप्य लक्षं श्लक्ष्णं च लष्ट चूर्णं महीतले ॥ तत्रोपदेशनार्थ ते चाणक्येन प्रवेशिताः, ज्ञात्वा विविक्तं स्थानं तच्छुद्धान्तभिमुख ययुः ॥ स्त्री लोलास्ते स्वभावेन नृप स्त्रैणमसंयताः, गवाक्षे विवरैद्रष्ठुमुपचक्र मिरे ततः ॥ ते राजपत्नीः पश्यन्त स्तावदस्थुर्दुराशयाः, नयावदाययौ राजा निषेदुस्तुत दागमे । ततश्च चन्द्रगुप्ताय धर्म माख्याय ते ययुः, पुनरागम मिच्छान्तोऽन्तःपुर स्त्री दिदृक्षया ॥ गतेषु तेषु चाणक्यश्चन्द्रगुप्तम भाषत, पश्य स्त्री लोलताचिह्न वत्स पाखण्डि नामिह ॥ यावत्वदगनंतैर्हित्वदन्तःपुरमीक्षितम्, गवाक्ष विवरक्षिप्त लोचनैरजितेन्द्रयैः ।। ~ ~ - ~ Jain Edu Ruternational Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैनाचार्य से जैनधर्म स्यीकार करने के बाद जैनधर्म की सेवा करने में कुछ भी उठा नहीं रक्खा था । इतना ही क्यों पर सम्राट ने जैनधर्म का भारत में ही नहीं पर भारत के बाहर विदेशों में भी खूब प्रचूरता से प्रचार किया था । चन्द्रगुप्त ने जैसे कुएँ तालाब मुसाफिर खाने आदि सर्व साधारण के आराम के लिये बनवाये थे, इसी प्रकार जनता की धर्म भावना बढ़ाने के लिये एवं आत्म कल्याण के लिए अनेकों मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी करवाई थी। वे भी केवल पूर्व प्रान्त में ही नहीं परन्तु उनके बनाये मन्दिर भारत और भारत के बाहर भी जनता का कल्याण कर रहे थे। ___ मारवाड़ में एक गांगांणि नाम का ग्राम है जो कि जोधपुर से १८ मील के फासले पर पहला बढ़ा नगर था । वहाँ पर एक पार्श्वनाथ का बहुत प्राचीन मंदिर जो सम्राट् सम्प्रति का बनाया हुआ मालूम होता है वि. सं. १६६२ का जेष्ठ भास में वहां के तालाब के पास भूगर्भ से कई मूर्तियां मिली थीं। उस समय के कई आठ मास के पश्चात् कविवर समयसुन्दर गणि यात्रार्थ गांगांणी गये और उन मूर्तियों का दर्शन एवं निरीक्षण किया और वहां का सब हाल उसी समय एक स्तवन में लिपिवद्ध कर दिया । वह स्तवन अभी हाल में अहमदाबाद निवासी वकील केशवलाल प्रेमचन्द जो पुरातत्व एवं इतिहास के अच्छे प्रेमी हैं द्वारा प्राप्त हुअ है जिसकी तीसरी ढाल में लिखा है :"मूलनायक बीजोबली, सकल सुकोमल देहो जी। मतिमा श्वेत सोना तणी, मोटो अचरज ये होजी॥१॥ अरजुन पास जुहारिया, अरजुन पुरी शृंगारोजी । तीर्थङ्कर तेवीस मो, मुक्ति तणो दातारोजी ॥२॥ चन्द्रगुप्त राजा भयो, चाणक्य दिरायों राजो जी । तिण यह बिंब भरवियो, साध्या आत्म काजो जी ॥१॥ अर्थात्-समाद् चन्द्रगुप्त ने भगवान पार्श्वनाथ की सफेद स्वर्णमय मर्ति बनाई भी जिसकी प्रतिष्ठा के लिये कविवर ने लिखा है कि सम्राट् सम्प्रति ने अपने गुरु आचार्य सुहस्ति सूरि से वी० सं० २७३ माष शुक्ला अष्ठमी रविवार के दिन करवाई थी ऐसी मूर्ति के पीखे खुदी हुई लिपि ( शिलालेख ) को कविवर ने अपनी नजर से देखी हैं जैसे कविवर ने अपने स्तवन में भी लिखा है। पदपङ्क्तिमिमातेषां सुव्यक्तं मतिबिंबताम् , गवाक्षविवराधस्ता दृष्ट्व प्रत्ययमुद्वह ॥ सञ्जात प्रत्यये साज्ञि द्वितीयेऽहनि सद्गुरुः धर्म भाख्यातु माह्नास्त तत्र जैनमुनि नपि । निषेदुस्ते प्रथमतोऽप्यासनेष्वे व साधवाः स्वाध्यायायवश्य के नाथ नृपागममपालयन् ॥ ततश्च धर्म माख्याय साधवो वसतिं ययुः, इर्या समिति लीनत्वात्पश्यन्तोमुवमेवते ।। गवाक्षविवराधस्ताल्लोष्ठ चूर्ण समीक्षतम् , चाणक्यश्चन्द्रगुप्ताय तद्यथास्थम दर्शयत् ।। ऊचे च नैते मुनयः पापण्डि वदिहाययुः, तत्पाद प्रतिबिंबानी न दशान्ते कुतो अन्यथा । उत्पन्न प्रत्ययः साधून गुरून्मेनेऽथपार्थिवः, पापण्डिषु विरक्तोऽभूद्विषयेष्विवयोगवित् ।। परिशिष्ट पर्व स्वर्ग ८ श्लोक ४२० से ४३५ x जैसा साहित्यसंशोधक त्रिमासिक पत्र वर्ष ५ अंक २ पृष्ट पर एक तपगच्छ पहावली मुद्रित हुई है इसमें भी इस बात का उल्लेख किया है कि सम्राट् सम्प्रति ने गांगणा में जिनमन्दिर करवाया था। ३५ २७३ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इस मर्ति के बनाने से पाया जाता है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त की जैनधर्म एवं जैनमर्तियों पर अटूट श्रद्धा एवं भक्ति थी और उन्होंने सफेद सोने की मूर्ति बनाई थी इनके अलावा एक प्रमाण कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है कि सम्राट ने देवस्थानों के लिये एक ऐसी कठोर श्राज्ञा निकाली थी कि । "आक्रोशाद्देवचैत्याना मुत्तमं दंड मर्हति" मतलब कि यदि कोई चैत्य ( मन्दिर ) के विषय में यद्वा तद्वा अपशब्द कह कर आशातना करेगा वह व्यक्ति भारी दंड का भागी होगा । ऐसा जिनशासन का भक्त यदि सफेद सोने की मति बनावे तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है ? अन्य २ साधनों से यह भी पता मिलता है कि इस मर्ति की प्रतिष्ठा सम्राट चन्द्रगुप्त ने श्रुतकेवली आचार्य भद्रवाहु से करवाई थी। सम्राट चन्द्रगुप्त का महत्व पूर्ण जीवन जैन श्वेताम्बर एवं दिगम्बर समुदाय के लेखकों ने खूब ही विस्तारपूर्वक लिखा है । पर मैंने मेरा उद्देश्यानुसार यहाँ पर संक्षिप्त से ही लिखा है पर इसको पढ़ने से पाठकों को भली भांति ज्ञात हो जायगा कि सत्राट् चन्द्रगुप्त जैसे एक अद्वितीय राजकर्ता था कि केवल २४ वर्ष के राजत्व कालमें इसने अपने सम्राज्य की नहीं पर संसार भर की अच्छ उन्नति कर बतलाई थी इनके पूर्व सम्राज्य की इस प्रकार की सुन्दर व्यवस्था शायद ही किसी ने की हो इतना ही क्यों पर आज कहलानेवाली सभ्यता एवं सत्ता भी उन सम्राट् की राज व्यवस्था देख कर अपना गौरव भरा शिर उनके चरणों में नवाती है। ___जब हम धर्म की ओर देखते है तो सम्राट् ने अपना जीवन में अधिकत्तर धर्म को ही स्थान दिया था जैन धर्म का प्रचार के लिये तो आपने अधिक से अधिक प्रयत्न किया था आप पढ़ चुके हो कि सम्राट ने जैन धर्म को केवल भारत में ही नहीं पर पाश्चात्त्य प्रदेशों में भी जैन धर्म का प्रचार किया था और आप अपनी अन्तिमावस्था में तो राज कार्य को हय समम आत्म कल्याण में लग गये थे हाँ चन्द्रगुप्त ने अपने जीवन के अन्तिमावस्था में दीक्षा ली या नहीं ली इस बात का श्वेताम्बर दिगम्बर में मत भेद अवश्य है पर चन्द्रगुप्त ने अन्तिमावस्था में श्रारम कल्याण करने में सलग्न था इसमें दोनों समुदायों एकमत्त है। सम्राट चन्द्रगुप्त का समय के विषय विद्वानों का कापी मतभेद है जिसके लिये हम सम्राट् सम्प्रति के जीवन के अन्त में यथा साध्य निर्णय करेंगे। यहाँ पर इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने मंत्री चाणक्या की सहायता से मगद का राज प्राप्त कर २४ वर्ष तक मगद की गादी पर निष्कटक राज किया था और अन्त में जैनधर्म की आराधना पर्वक स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। उजैनी नगरी धणी, ते थयो सम्पति राय । जातिस्मरण जाणियों, ये ऋद्धि गुरु पसाय । बली तिण गुरु प्रतिवेधियो, थयो श्रावक सुविचर । मुनिवर रूप कराविया, अनार्य देश विहार । पुण्य उदय प्रगटियो घणो, साध्या भारत त्रिखंड । जिन पृथ्वी जिनमंदिरे, मण्डित करी अखंड । बी सय तीडोत्तर वीर थी, संवत् सवल पंडूर । पद्मप्रभ प्रतिष्ठिया, आर्य सुहस्ती सूर । महा तणी शुक्ल अष्ठमी, शुभ मुहूर्त रविवार लिपि प्रतिमा पूठे लिखी, ते वाची सुविचार । तवन की डाल दूसरी गाथा ४से: Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त जैनधर्मावलम्बी था, इस विषय में विद्वानो की सम्मतियाँ सम्राट् चन्द्रगुप्त का सच्चा ऐतिहासिक वर्णन कई वर्षों तक गुप्त रहा। यही कारण था कि कई लोग चन्द्रगुप्त को जैनी मानने में संकोच किया करते थे। और कई तो साफ इन्कार करते थे कि चन्द्रगुप्त जैनी नहीं था । पर अब यूरोपीय और भारतीय पुरातत्वज्ञों की शोध और खोज से तथा ऐतिहासिक साधनों से सर्वथा सिद्ध तथा निश्चय हो चुका है कि चन्द्रगुप्त मोर्य जैनी था । कतिपय विद्वानों की सम्मतियों का यहां लिखा जाना युक्तियुक्त और न्यायसंगत होगा। चन्द्रगुप्त के जैनी होने के विशद प्रमाण राय बहादुर डाक्टर नरसिंहाचार्य ने अपने "श्रवण वेलगोल" नामक पुस्तक में संग्रह किये हैं । यह पुस्तक अग्रेजी भाषा में लिखी गई है । जैन गजट आफिस, ८ अस्मन कुवेल स्ट्रीट, मदरास के पते से मंगाने पर मिल सकती है इस पुस्तक में चंद्रगुप्त का जैनी होना प्रमा णित है। अशोक भी अपनी तरुण व्यय में जैनी होना सिद्ध है । इन सब का वर्णन श्रवण वेलगोल के शिलालेखों (Lariy faith of Ashok Jainism by Dr. Thomas South Indian Jainism I[ page 39). एवं राजतरंगणी और आइनई अकबरी में मिल सकता है। पाठकों को चाहिए कि उपरोक्त पुस्तकें मंगा कर इन बातों से जरूरी जान कारी प्राप्त करें। आगे और भी देखिये, भिन्न भिन्न विद्वानों का क्या मत है ? डाक्टर ल्यूमन Vienna Oriental Journal VII 382 में श्रुतकेवलीभद्रबाहुस्वामी और चन्द्रगुप्त की दक्षिण की यात्रा को स्वीकार करते हैं। डाक्टर हनिले Indian Antio!!uary XXI 5960 में तथा डाक्टर टामस साहब अपनी पुस्तक Jainism of the Dariy Filt of Asoka page 23 में लिखते हैं कि “चन्द्रगुप्त एक जैन समाज का योग्य व्यक्ति था । जैन ग्रंथकारों ने एक स्वयं सिद्व और सर्वत्र विख्यात बात का वर्णन करते हुए उपरोक्त कथन को भी लिखा है जिसके लिए किसी भी प्रकार के अनुमान का प्रमाण देने की आवश्यकता ज्ञात नहीं होती है । इस विषय में लेखों के प्रमाग बहुत प्राचीन हैं तथा साधारण तया संदेह रहित हैं। मैगस्थनीज ( जो चन्द्रगुप्त की सभा में विदेशी दूत था ) के कथनों से भी यह बात मलकती है कि चन्द्रगुप्त ब्राह्मणों के सिद्धान्तों के विपक्ष में और श्रमणों (जैनमुनियों) के धर्मोपदेश को ही स्वीकार करता था।" डॉ० टामस साब अपने लेखों में यह सिद्ध करते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और बिन्दुसार और पौत्र अशोक भी जैन धर्मावलम्बी ही थे। इस बात को पुष्ट करने के लिये डाँ० साहब ने जगह जगह मुद्राराक्षस, राज तरं। गिणी और श्राइनई अकबरी के प्रमाण दिये हैं । श्रीयत का प्र० जायसवाल महोदय Journal or the Beher and Orissa Research Socicty Vollime !!! में लिखते हैं--- "प्राचीन जैन ग्रंथ और शिलालेख चन्द्रगुप्त मोर्य को जैन राजर्षि प्रमाणित करते हैं। मेरे अध्ययन ने मुझे जैन प्रन्थों की ऐतिहासिक वार्तात्रों का आदर करना अनिवार्य कर दिया है । कोई कारण नहीं कि हम जैनियों के इन कथनों को कि चन्द्रगुप्त ने अपनी प्रौढ़ा अवस्था में राज्य को त्याग कर जैन दीक्षा ले मुनिवृति में ही मृत्यु को प्राप्त हुए, न माने इस बात को मानने वाला मैं २७५ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ही पहला व्यक्ति नहीं हूँ।" मि: राईस कि जिन्होंने श्रवण वेलगोल के शिलालेखों का अध्ययन किया है पूर्ण रूप से अपनी राय इसी पक्ष में देते हैं कि मौर्य चन्द्रगुप्त जैनी था डाक्टर स्मिथ अपनी (Oxford History of India नामक पुस्तक के ७५, ७६ पृष्ठ में लिखते हैं कि "चन्द्रगुप्त मौर्य की घटना-पूर्ण राज्यकाल किस प्रकार समाप्त हुआ इस बात का उचित विवेचन एक मात्र जैन कथाओं से ही जाना जा सकता है । जैनियों ने सदैव उक्त मोर्य सम्राट को विम्बसार (अणिक) के सदृश जैन धर्मावलम्बी माना है और उनके इस कथन को असत्य समझने के लिए कोई उपयुक्त कारण नहीं है। यह बात भी सर्वथा सत्य है कि शैशुनाग, नंद और मौर्यवंश के राजाओं के समय मगध देश में जैन धर्म का प्रचार प्रचुरता से था। चन्द्रगुप्त यह राजगाद्दी एक चतुर ब्राह्मण की सहायता से प्राप्त की थी। यह बात इस बात में बाधक नहीं होती कि चन्द्रगुप्त जैनी था मुद्राराक्षस नामक नाटक में एक जैन साधु का भी उल्लेख है । यह साधु नंदवंशीय एवम् पीछे से मौर्यवंशीय राजाओं के राक्षस मंत्री का खास मित्र था।" Mo. H. L. O. Garrett M. A. L. E. S in his ensay "Chandragupta Maurya" says --"Chandragupta who was said to have been a Jain by religion, went on a pilgrimage to the South of India at the time of a great Finnc. There he is said to have starved himself to death. At any rate he coased to reigo about 293 B.C." १-सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ मि विन्सेण्ट ए. स्मिथ भारत का प्राचीन इतिहास' (ilistory of India) की तृतीयावृत्ति पृष्ठ १४६ में लिखते हैं कि :- 'जैन कथाओं में उल्लेख मिलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैन था । जब बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा तब चन्द्रगुप्त अन्तिमश्रुतिकेबली भद्रबाहु के साथ दक्षिण की ओर चला गया और मैसूर के अन्तर्गत श्रवणबेलगोला में-जहां अब तक उसके नाम की यादगार है-मुनि ने गिरि पर रह कर और अन्त में वहीं पर उसने उपवास पूर्वक प्राण त्याग दिये । मैंने अपनी पुस्तक की द्वितियावृत्ति में इस कथा को रद्द कर दिया था और बिलकुल कल्पित खयाल किया था, परन्तु इस कथा की सत्यता के विरुद्ध में जो शंकायें हैं, उस पर पूर्णरूप से विचार करने से अब मुझे विश्वास होता है कि यह कथा सम्भव तया सच्ची हैं । चन्द्रगुप्त ने वास्तव में राजपाट छोड़ दिया होगा और वह जैन साधु हो गया होगा । निस्संदेह इस प्रकार की कथायें बहुत कुछ समालोचना के योग्य हैं और लिखित साक्षी से ठीक २ पता नहीं लगता, तथापि मेरा वर्तमान में यह विश्वास है कि यह कथा सत्य पर निर्धारित है और इसमें सचाई है । 'राइस साहब' ने इस कथा की सत्यता का अनेक स्थलों पर बड़े जोर से समर्थन किया है। हाल में "शिला-लेखों से मैसूर तथा कुर्ल" नामक पुस्तक में इसका जिक्र किया है।" २-मेगस्थनीज ने जो सेल्युकस की ओर से चन्द्रगुप्त के दरबार में राजदूत था, राज्यस्थान की बहुत सी बातें जानकर अपने इतिहास में उसका बड़ा विस्तृत वर्णन किया है । उस वर्णन में जहाँ भारतीय ऋषियों का उल्लेख किया गया है वहाँ श्रमणों का भी वर्णन आया है । दूसरी जगह जहाँ उन्होंने भारतीय दार्शनिकों की चर्चा की है वहाँ श्रमणों का भी उल्लेख किया है। उनका कथन है कि ये श्रमण, ब्राह्मणों तथा बोद्धों से भिन्न थे । इनका घनिष्ठ सम्बन्ध महाराज चन्द्रगुप्त से था। वे अपने राजनीतिक विषय में जहाँ तहाँ दूतों को भेज कर उन श्रमणों की सम्मति लिया करते थे । वे स्वयं अथवा दूसरों द्वारा बड़ी विनय और २७६ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ भक्ति के साथ उन श्रमणों की पूजा किया करते थे ! उन्हें बड़े प्रभावशाली एवं प्रखर ज्ञानी जानकर महाराज चन्द्रगुप्त सदा उनके कृपाभिलाषी रहा करते थे और उन्हें बड़ी पूज्य दृष्टि से सम्मानित कर प्रायः देवताओं की पूजा और आराधना उन्हीं से कराया करते थे।" ३-मि० ई. थॉमस कहते हैं कि:-"महाराज चन्द्रगुप्त जैनधर्म के नेता थे। जैनियों ने कई शास्त्रीय ओर ऐतिहासिक प्रमाण द्वारा इस बात को प्रमाणित किया है । और आपका यह भी कथन है कि मौर्य चन्द्रगुप्त के जैन होने में शंकोपशंका करना ही व्यर्थ है, क्योंकि इस बात की साक्षी कई प्राचीन प्रमाणपत्रों में मिलती है और वे प्रमाणपत्र (शिलालेख ) निस्संशय प्राचीन हैं। महाराज चन्द्रगुप्त का पौत्र जो एक प्रबल सार्वभौम नपति था। वह यदि अपने पितामह के धर्म का परिवर्तन नहीं करता अर्थात् बोद्धधर्म अङ्गीकार नहीं करता तो उसको जैनधर्म का आश्रयदाता कहने में किसी प्रकार की अत्युक्ति न होती। मेगस्थनीज का कथन है कि "ब्राह्मणों के विरुद्ध जो जैनमत प्रचलित था उसी को चन्द्रगुप्त ने स्वीकार किया था।" ४-मि० विल्सन साहब कहते हैं कि:--"यदि मुझे जैनधर्मावलम्बियों की समालोचना करनी होगी तो भारतवर्ष पर आक्रमणकर्ता मसीडोनियन अलेकजेण्डर तक की ऐतिहासिक बातें की खोज करनी पड़ेंगी। अर्थात् मेगस्थनीज ने जैनियों का वर्णन किया है “एरियन" 'स्बों' इन प्रसिद्ध प्रन्थकारों ने भी पूर्ण उल्लेख किया है । और मेगस्थनीज लगभग उसी समय में (अलेकजेण्डर के समय में ) भारतवर्ष में आया था।" ५-प्रसिद्ध इतिहासज्ञ और पुरातत्ववेत्ता मि० बी. लुइसराइस साहब कहते हैं किः-- "चन्द्रगुप्त के जैन होने में कोई सन्देह नहीं है और यह भी कहते हैं कि "निस्संदेह चन्द्रगुप्त भद्रबाहु के समकालीन थे।" ६--एन्सोयक्लोपीडिया आफ रिलीजन में लिखा हुआ है कि:--"वि० पू० सं. २९७ में संसार से विरक्त होकर चन्द्रगुप्त ने मैसूर प्रान्तस्थ श्रवणबैलगुल में बारह वर्ष तक जैनदौक्षा से दीक्षित होकर तपस्या की और अन्त में तप करते हुए स्वर्गधाम को सिधारे ।' ७-मि० जार्ज सी० एम० बर्डवुड लिखते हैं कि:-"चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार ये दोनों बौद्धधर्मावलन्बी नहीं थे। किन्तु जैनधर्मोपासक थे, हाँ चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक ने जैनधर्म को छोड़ कर बौद्धधर्म स्वीकार किया था ।। The venerable Ascetic Mahavira's Parents were worshipers of Parsya and Followers of the Sraimanas. S. B. E. Vol 22 Kalpa sutra. B. K. II Lc 15. P. 191. अर्थात्-- भगवान महावीर के मातापिता पार्श्वनाथ के उपासक थे और श्रमणों के अनुयायी थे। उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि मौर्य सम्राट्चन्द्रगुप्त जैनधर्मोपासक था यों तो सम्राट हमेशा आत्म भावना के साथ जैनधर्म की आराधना करता ही था पर अपनी पिछली अवस्था में तो दूसरी दूसरी खटपटें छोड़कर निर्वृत्ति पथ का पथिक बन गया था L. २७७ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्षे ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास महाराजा बिन्दुसार - चन्द्रगुप्त के राज्य का उत्तराधिकारी उनका पुत्र बिन्दुसार हुआ । यह भी बड़ां पराक्रमी और नीतिज्ञ राजा था । यह जैन धर्म का उपासक एवं प्रचारक भी था। इसके शासनकाल में भी जैनधर्म उत्थान के उच्च शिखर पर था । बौद्ध और वेदान्तियों का जोर मिटता जा रहा था । उनके दिन घर नहीं थे । जो राजा का धर्म होता है वही प्रायः प्रजा का होता है यह एक साधारण बात है । इसी नियमानुसार जैनधर्म का क्षेत्र बहुत ही बढ़ गया था। बिन्दुसार राजा शान्ति प्रिय एवम् संतोषी था । इसका राज्यकाल निर्विघ्नतया बीत रहा था। इसके शासन के समय में ऐसी कोई भी महत्व की घटना नहीं घटित हुई जिसका कि इस जगह विशेष उल्लेख किया जाय । 1 राजा अपनी प्रजा को पुत्र तुल्य समझता था तथा प्रजा भी अपने राजा की पूर्ण भक्त थी जैनधर्म का एक उद्देश्य शांति भी है जिसका अमल बिन्दुसार के साम्राज्य समय में विशेष था । इसने कई यात्राएं की। कुमारी कुमार तीर्थ पर तो यह राजा निर्वृत्ति भाव में कई बार संलग्न रहता था । लोकोपकारी कार्यों में राजा की अधिक रुचि थी । प्रजा के सुभीते के लिए जगह-जगह कुएं, तालाब सड़के और बगीचे बनाने में इसने विपुल सम्पत्ति व्यय की । श्रनेक विद्यालय एवं जिनालय इनके हाथ से प्रतिष्ठित हुए । कृषि, व्यापार और शिल्प की उन्नति के लिए भी बिदुसार ने विशेष प्रयत्त किया था । 1 सम्राट बिन्दुसार के समय में भारतवर्ष का व्यापारिक विकास बहुत हुआ । पश्चिमीय देशों के साथ चन्द्रगुप्त के समय में भारत का जितना व्यापारिक सम्बन्ध था, बिन्दुसार के समय में वह उससे बहुत अधिक बढ़ गया था | व्यापार के लिए बहुत से नये-नये मार्ग खुल गये थे । और दूसरे देशों साथ आपस में दूतों का दल बदल हुआ करता था । अर्थात् यहां के राजदूत दूसरे देशों की राज सभाओं में और दूसरे देशों के राजदूत यहां की राजसभा में उपस्थित रहा करते थे । मेगास्थनीज के चले जाने के पश्चात् सेल्यूकस नेकटार पुत्र "एटीओक्स" ने अपना नवीन दूत समूह सम्राट् बिन्दुसार के राजदरबार में भेजा। उसके पश्चात् मिश्रदेश के तत्कालीन राजा " टाल्मीकी डोलफस" ने भी 'डेश्रोनी सेकस' नाक राजदूत की प्रधानता में अपना एक दूत समूह भेजा। इससे प्रगट होता है कि उस समय भारत वर्ष का दूसरे देशों साथ बहुत गहरा सम्बन्ध था। इतना होते हुए भी इन देशों के ऊँची श्रेणी के विद्वान दूसरे देशों में कम आते जाते थे । इस विषय में सम्राट् बिन्दुसार के शासन की एक घटना प्रसिद्ध है एक बार सम्राट् बिन्दुसार ने यूनानी नरेश एण्टोक्स को लिखा था कि आप अपने देश का एक ऊँचा दार्शनिक हमारे देश में भेज दें। उसके बदले में हम आपको बहुरसी मूल्यवान वस्तुएं भेंट में प्रदान करेंगे । इसके उत्तर में एण्टीओक्स ने मृदुहास्य के साथ यह उत्तर दिया कि, "यूनान के तत्त्वज्ञानी मुद्राओं के मूल्य में नहीं बिका करते ।" इस उत्तर से साथ जाहिर होता है कि उस समय के सभ्य देश अपने विद्वानों की कितनी इज्जत किया करते थे । कुछ विद्वानों का मत है कि बिंदुसार ने अपने शासनकाल में दक्षिण प्रांत को जीत कर अपने पिता के साम्राज्य में मिला दिया परन्तु कुच्छ विद्वानों की राय है कि दक्षिण प्रान्त को चन्द्रगुप्त ने ही अपने साम्राज्य में मिला लिया था । कुछ भी हो बिन्दुसार ने अपने २५ वर्ष के शासनकाल में चन्द्रगुप्त के द्वारा जमाई हुई नींव को बिल्कुल ढीली न होने दिया बल्कि उसको और भी मजबूत बनाने की चेष्टा करते रहे । २७८ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ सम्राट बिन्दुसार २५ वर्ष तक शान्तिपूर्वक शासन करके समाधि पूर्वक स्वर्गवासी हुये । उनके पश्चात उनके कनिष्ठ पुत्र " अशोक" राज्यसिंहासनारूढ़ हुये ! सम्राट अशोक- यह अपने पिता विन्दुसार का उत्तराधिकारी था। इतिहास काल में भारत सम्राटों में आपका नम्बर दूसरा है । यद्यपि सबसे प्रथम सम्राट् का यश चन्द्रगुप्त को ही है परन्तु अशोक भी उससे कम नही था किन्तु किसी अपेक्षा उसकी उदारता और भी विशाल थी जो कि आगे चलकर श्राप इसके जीवन को पढ़ेंगे तो स्वयं ज्ञात हो जायगा । अशोक का जन्म -- बौद्धों के प्राचीन साहित्य में " अशोकावदान" नामक एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । यह प्रन्थ प्रायः अशोक की जीवनी से ही अधिक सम्बन्ध रखता है । इसमें अशोक के जन्म से सम्बन्ध रखने वाली एक विचित्र घटना का उल्लेख किया गया है। उसमें लिखा है। " चम्पानगरी में एक ब्राह्मण के घर पर एक सुन्दर कन्या का जन्म हुआ। एक ज्योतिषी ने उस कन्या के सब लक्षण देख कर कहा कि यह कुमारी अवश्य किसी चक्रवर्ती की माता होगी। यह सुनकर वह ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ, और जब यह कन्या युवती हुई तो उसे सम्राट् बिन्दुसार के पास ले गया, एवं योतिषी के द्वारा कही हुई भविष्यवाणी भी उन्हें कह सुनाई । उस कन्या के अलौकिक रूप को देखते ही सम्राट् बिन्दुसार उस पर मोहित हो गये और तुरंत ही उन्होंने उसे अपने रनवास में भेज दिया । रनवास की दूसरी रानियां इस कन्या के रूप को देखकर मन ही मन कुढ़ने लगीं। उसके मन में यह सन्देह होने लगा कि कहीं सम्राट् इस कन्या के रूप पर मोहित होकर हमारी उपेक्षा न करने लग जांय । इस आपत्ति से बचने के लिए उन्होंने एक युक्ति सोची । वे सब उस कन्या को "नापितानी" कह कर ज़ाहिर करने लगीं और उससे उन्होंने दासी की तरह काम लेना प्रारम्भ कर दिया। कुछ समय के पश्चात् एक दिन सम्राट् बिन्दुसार ने उसे देखा, वे उस पर फिर दुबारा मोहित हो गये । वे उससे कहने लगे कि, “तुम्हारी अपूर्व रूप राशि ने मेरे हृदय पर अधिकार कर लिया है, बताओ तुम्हारी क्या कामना है ? हम तुम्हारी सब कामनाओं को पूर्ण करेंगे" यह सुनकर उस ब्राह्म कन्या ने लज्जा से नीचा मुँह कर लिया । राजा के दूसरी वार प्रश्न करने पर उसने कहा कि मैं तो आपको चाहती हूँ । यह सुनकर राजा ने हंस कर कहा कि तो एक नापित कन्या हो और मैं भारतवर्ष का साट् हूँ, भला यह सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? इस तुम ब्राह्मण कन्या हूँ । आपकी पत्नी पर ब्राह्मण कन्या ने कहा,“भगवान ! मैं नापित कन्या नहीं प्रत्युत एक बनने का सोभाग्य मुझे प्राप्त हो, इसी उद्देश्य से मेरे पिता मुझे आपके सुपुर्द कर गये थे ।" यह सुनते ही राजा को तत्काल पूर्व घटना की स्मृति हो आई और उन्होंने उस ब्राह्मण कन्या को पटरानी बना दिया । इस कन्या के गर्भ से दो पुत्रों का जन्म हुआ । पहिला अशोक और दूसरा वीताशोक ।" अशोक के पहिले सम्राट् विन्दुसार के पूर्व पट्टरानी से उत्पन्न "सुसीम" नामक एक और पुत्र था । एक बार सम्राट् विन्दुसार ने अशोक पर नाराज होकर उसे तक्षशिला के वलवाइयो को (एक बार तक्षशिला के लोगों ने बिन्दुसार के विरुद्ध बलवा किया था ) दबाने के लिये भेज दिया । अशोक सेना वग़ैरह से सुसज्जित होकर तक्षशिला पर चड़ गया और बिना युद्ध किये हुए अपने कौशल से उस बलवे को दबा दिया | इसके पश्चात् कितने ही दिनों तक वह तक्षशिला का राज्य प्रतिनिधि रहा । तक्षशिला के राज्य में २७९ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उस समय कश्मीर, नैपाल, हिन्दुकुश पर्वत तक का सारा अफगानिस्तान बलुचिस्तान, और पंजाब मिले हुए थे। तक्षशिला का विश्वविद्यालय आयुर्वेदीय शिक्षा के लिए उस समय जगत् प्रसिद्ध था । अशोक ने बहुत उद्योग करके उस विश्वविद्यालय की बहुत उन्नति की उस समय सारे भारतवर्ष के धनी मानी लोगों के लड़के और विद्याप्रेमी लोग विद्या प्राप्त करने के लिए तक्षशीला जाते थे । वीर राजा अशोक ने तक्षशिला में रद्द कर एक होनहार राजा की तरह शासन को सुचारु रूप से चलाया। बैरियों पर अशोक की बड़ी भारी छाप पड़ गई कि वे किसी प्रकार से शिर ऊँचा न कर पाते थे। जब सम्राट् बिन्दुसार ने अशोक का राज प्रबन्ध अच्छा जान कर उसको उज्जैन भेज दिया तो वहाँ भी उसने अपनी कार्य कुशलता से राजतन्त्र सुव्यवस्थित रूप से चलाया । C जब बिन्दुसार का देहान्त हो गया तो राजतन्त्र अशोक के हस्तगत हो गया ४ वर्ष तक राज्याभिषेक नहीं हुआ। उसने अपने भाइयों को समझाने में चार व सार के एक रानी का पुत्र सुसीम था उसने अशोक पर चढ़ाई की थी परन्तु उस युद्ध tart में यह भी लिखा मिलता है कि अशोक ने अपने ९९ भाई बहिनों को मार डाला था पर यह बात प्रमाणित नहीं होती है। कारण, अशोक के राज्यरोहण होने के बाद कई भाई और बहिन जीवित थे । शायद् पहिली अवस्था में अशोक जैन था अतः बौद्धों ने जैनत्वकाल में अशोक को क्रूर प्रकृतिवाला चित्रित कर दिया हो । वास्तव में बात ऐसी नहीं थी । अशोक ने ४ वर्ष तक अपना राज्याभिषेक करवाया इसका मुख्य कारण अपने भाइयों को समझाने का ही था तो फिर यह कैसे समझा जाय कि अशोक ने अपने सब भाई बहिनों को मारडाला था । फिर भी अशोक का व्यतीत किये । विन्दुमें वह मारा गया | जब सम्राट् अशोक का मगध की राजधानी पाटलीपुत्र में राज्याभिषेक हुआ इसके पश्चात् अशोक ने अपनी राजसीमा को भारत के बाहर के प्रदेश तक प्रसारित करदी थी । सम्राट अशोक जैसा वीर था वैसा उदार भी था । वह अपनी प्रजा को सब तरह से आराम पहुँचाना चाहता था पर साथ में जनता में अन्याय और अत्याचार को रोकने का भी पूरा पूरा प्रवन्ध रखता था। कहा जाता है कि अशोक ने दंडविधान में एक जैन शास्त्रों के अनुसार नरकवास भी बनाया था। उस नरकवास की सजा उसको ही दी जाती थी कि जिसका बड़े से बड़ा अपराध हो । हां, कभी कभी निरपराधी लोग भी इस नरकवास का दंड सहन करते हुए अपने प्राणों की बलि दे देते थे । जब सम्राट् को इस नरकवास की क्रूरता मालूम हुई तो फौरन उसने उसको तोड़ दिया । कुछ भी हो पर अशोक ने अपनी प्रजा के अन्दर सदाचार के ऐसे प्रबन्ध कर रक्खा था कि इसके दीर्घकाल के शासन में ऐसी कोई घटना नहीं पुकार कह सकें । २८० यह तो पहिले ही लिखा जा चुका है कि अशोक ने प्राय: भारत और भारत के अलावा कई प्रान्त पर भी अपनी विजय ध्वजा फहरा दी थी पर मगध के निकटवर्ती कलिंग देश के राजाओं ने अशोक की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। यह बात अशोक को खटकती थी । वस समय पाकर अशोक ने कलिंग पर धावा बोल दिया । संस्कार डाल दिये थे तथा ऐसा घटी कि जिसको प्रजा की Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ कहा जाता है कि जिस समय अशोक ने कलिंक पर चढ़ाई की थी उस समय कलिंग निवासी क्या राजा और क्या प्रजा सब के सब जैन धर्मोपासक थे। इसके लिये प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। कारण वेदान्ती लोगों ने तो कलिंगवासियों को "वेदविनाशक" कहा है तथा ब्राह्मणों ने तो यहाँ तक भी लिख दिया था किः ~~ “गत्वैतान् कामतो देशात् कलिंगाश्च पतित् द्विजा" अतः वेदान्तियों ने तो कलिंग में जैन रहने के कारण उस देश को ही अनार्य भूमि कह कर ब्राह्मणों को कलिंग में जाने की सख्त मनाही कर दी थी। इतना ही क्यों पर कलिंग में जाने वाले ब्राह्मणों को पतित कह दिया है । दूसरे अशोक के युद्ध के पूर्व वहाँ बौद्धधर्म का नाम निशान तक भी नहीं था। अतः अशोक के युद्ध के पूर्व कलिंग देश के निवासी सब के सब जैनधर्मावलम्बी थे। अशोक की सेना के साथ कलिंग के वीरों ने खूब युद्ध किया जहाँ तक अपनी चली वहाँ तक सामना किया पर आखिर अशोक की सेना के सामने कलिंग की सेना ठहर नहीं सकी । इस युद्ध में अशोक की विजय तो हो गई पर लड़ाई में इतने लोगों का संहार हुआ कि जिसको देख अशोक के दिल में युद्ध के प्रति घृणा के भाव उत्पन्न हो गये और उसने मन ही मन यह प्रतिज्ञा भी करली कि अब मैं ऐसा युद्ध कभी नहीं करूंगा। यहां तक अशोक जैन ही था एवं जैन संस्कारों से ही उसे युद्ध से घृणा आई थी। ___ एक तरफ तो अशोक को उस घोर हिंसा प्रति घृणा हो रही थी तब दूसरी ओर बौद्ध भिक्षुओं का उसी समय आगमन हुआ। बस, उस समय थोड़े से उपदेश की ही जरूरत थी। बौद्ध भिक्षुओं ने ज्योंही अशोक को उपदेश दिया त्योंही उसने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। फिर भी अशोक के पिता पितामह से चले आये जैनधर्म का संस्कार उनके हृदय से सर्वथा दूर नहीं हुआ था। इस बात की साबूती स्वयं अशोक की धर्म लिपियें दे रही हैं । जिन लिपियों को सम्राट अशोक की बतलाई जारही हैं उनमें भी कहीं २ जैनत्व की झलक आती है जैसे तक्षशिला की आज्ञा के मंगलाचरण में भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। खैर, इसके विषय तो हम आगे चल कर लिखेंगे पर इतना तो निर्विवाद सिद्ध है कि अशोक का घराना शुरू से जैनधर्मोपासक था और जन तक अशोक ने बौद्धधर्म स्वीकार नहीं किया था तब तक स्वयं अशोक भी जैन ही था। कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने अपना शेष जीवन धर्म करनी में एवं धर्म प्रचार में ही व्यतीत किया था । जनता के हित के लिये उसने कुँवाँ, तालाब, सड़कें, मुसाफिरखाने तथा साधु सन्यासियों के लिये मठ संघाराम वगैरह अनेक पुण्य कार्य किया था। सम्राट अशोक समय समय पर अपनी आज्ञायेंपत्थर की बड़ी बड़ी चट्टानों पर खुदवा कर जनता के दिल में सदाचार एवं धार्मिक संस्कारों को खूब दृढ़ करता था । अशोक यों तो बौद्धधर्मी कहलाता था पर किसी धर्म के खिलाफ उसने न तो कभी एक शब्द भी उच्चारण किया था और न उनकी खुदाई हुई धर्म आज्ञायें में एक अक्षर भी दीखता है यही कारण हैं कि अशोक के दीर्घकाल के शासन में किसी प्रकार का धर्म युद्ध हुआ दृष्टिगोचर नहीं होता है। सम्राट अशोक का शासन विभाग--हम पहले लिख आये हैं कि समाट् अशोक का जीवन प्राय: धर्म-प्रचार में ही अधिक व्यतीत हुआ । पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि उनके समय की शासन Jain Education national www. library.org Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नीति कमजोर थी। सम्राट् चन्द्रगुप्त और विन्दुसार की नीति के आधार पर सम्राट अशोक ने अपनी नीति बनाई थी। दीवानी और फौजदारी की अदालतें भी उसी प्रकार चलती थीं । दण्ड विधान भी उतना ही करड़ा था ! जो कि भविष्य में अत्याचारियों के अत्याचार को रोकने में समर्थ कहा जा सकता। ___सम्राट अशोक ने अपने तमाम कर्मचारियों, अफसरों भौर जिले के मजिस्ट्रेटों का एक प्रधान कर्तव्य यह ठहराया था, कि वे अपने दौरों में कभी २ भिन्न २ स्थानों पर सभाएं करके जनता को धर्म नीति और चरित्र की शिक्षा दें। उन्हें हमेशा इस बात के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिये कि जिससे जनता के अपराधों की संख्या न बढ़ । एक नीति विशारदों का दल भी उसने इस लिए नियुक्त किया था कि वह विशेष रूप से जीवों की रक्षा के लिए कानून बनावे और गुरुजनों के सम्मान और पूजन के लिए जो ब्यवस्था राज्य की ओर से की गई है उसका पालन यत्न-पूर्वक जनता से करवावे । इस दल के अफसरों को यह श्राज्ञा दी थी कि सभी लोगों और सभी सम्प्रदायों पर यहां तक कि राज परिवार पर भी वह दृष्ठि रक्खे । इससे मालूम होता है कि अशोक ने अपराधों की संख्या घटाने के लिए कितना अधिक प्रयत्न किया था । और इसमें भी सन्देह नहीं कि वह अपने प्रयत्नों में सफलीभूत भी हुआ । अशोक के शासन में अप. राधों की संख्या बहुत घट गई थी। ____उसकी शासन नीति की सफलता का एक सुदृढ़ प्रमाण यह भी है कि उसके इकतालीस वर्ष के विस्तीण काल में साम्राज्य के अन्दर कहीं भी बलवा या विद्रोह नहीं हुआ । इतने बड़े विशाल राज्य का इतने दीर्घ काल तक बिना किसी विद्रोह के रहना इस बात को प्रमाणित करता है कि उसकी शासन नीति बहुत ही उत्तम थी । और उसके शासन में प्रजा बहुत सुखी और समृद्ध थी। आयुर्वेदीय विभाग-चन्द्रगुप्त के समय के औषधालय-विभाग की प्रशंसा हम पहले कर पाए हैं। पर सम्राट अशोक ने इस विभाग में उससे मी अधिक उदारता दिखलाई । सम्राट् चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य के ही अन्दर औषधालयों का आयोजन किया था। पर अशोक ने न केवल अपने साम्राज्य में ही प्रत्युत दक्षिण भारत और यूनानी एशिया के प्रान्तों में भी औषधालय खुलवाये ये। सारे संसार के इतिहास में शायद् यही पहला सम्राट् था जिसने इतनी उदारता का परिचय दिया। पथिकों के विभाग का प्रबन्ध–सम्राट अशोक के समय में स्थान २ पर सड़कों पर व्यवस्थित प्रबन्ध था। सड़कों पर बड़े २ पीपल के वृक्ष, आमों की बाड़िया, और कई प्रकार के ऐसे विशाल वृक्ष लगाये जाते थे जिनकी सघन छाया सड़कों पर पड़ती रहे । जिसके कारण पथिकों को मार्ग में कष्ट न हो। प्रति माइल पर कुए भी खुदवाये जाते थे। धर्मशालाएँ और सराएँ भी स्थान २ पर बनवाई जाती थीं। ललित कलाओं की उन्नति-प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डा. विन्सेण्ट स्मिथ ने अशोक के समय की ललित कलाओं का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि "अशोक के समय में भारत की ललित कलाओं ने उन्नति की चरम सीमा देखी थी । गजकीय इन्जिनियर और स्थपित पत्थर, ईट और लकड़ी के अत्यन्त विशाल और महत्तायुक्त निर्माण करते थे । इनमें भिन्न भिन्न और उचित अवसरों पर पानी के आने और जाने के लिए द्वार बने हुए रहते थे । वे कठिन से कठिन चट्टानों को बहुत ही सुंदर, सीधे और बड़े २ स्तम्भ बनाते एवं Jain Edua temational Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १९२ सुसज्जित कमरे खोद देते थे । आलेख्यवस्तु विद्या का एक अंग समझा जाता था। तमाम महत्वपूर्ण इमारतों लेख्य और चित्र बड़ी कारीगरी से बनाए जाते थे।" वास्तव में सम्राट् अशोक संसार के उन सम्राटों में से एक थे । जिन्होंने बड़े २ विशाल भवनों का निर्माण करवाया । गुप्त साम्राज्य के द्वितीय चंद्रगुप्त के समय में जब प्रसिद्ध चीनी यात्रि फाहियान आया था तब सम्राट् अशोक का विशाल राजप्रासाद मौजूद था । उसे देख कर चीनी यात्री दङ्ग रह गया । उसने अपनी यात्रा के वर्णन में लिखा है कि, "यह राजभवन इतना विशाल था और उसके अन्दर मीनाकारी और पत्थर का ऐसा आश्चर्यजनक काम देखा था कि उसे देख कर कोई भी मनुष्य उसको मनुष्य निर्मित नहीं कह सकता । वास्तव में ये प्रासाद देवनिर्मित मालूम होते हैं । राजप्रासाद की ही तरह अशोक ने बहुत से विशाल बौद्ध मन्दिर और बिहार भी बनाए थे। ये मन्दिर भी उस समय की वास्तु विद्या की उच्चता को प्रकट करते हैं ! अशोक के समय के बहुत से ऐसे पाषाण के स्तम्भ मिले हैं, जिनकी ऊँचाई लगभग पचास-फीट और वज़न करीब पचास टन हैं। उनकी पालिश इतनी सुन्दर है कि अब तक नहीं मिटी और आधुनिक इन्जिनियर लोग भी यह नहीं बतला सकते कि वह पालिश किस प्रकार की जाती प्रकार सारनाथ के अशोक के सिंहाकृति वाले सिरों को जिन्होंने देखा है, वे उस समय की उत्तमता का अनुमान कर सकते हैं । 1 अब हम उस मुख्य विषय की ओर झुकते हैं जो सम्राट् अशोक के जीवन का प्रधान विषय रहा था । हम पहले ही लिख आए हैं कि सम्राट् अशोक की प्रधान रुचि धर्मप्रचार की ओर ही थी । सिंहासनारूढ़ होने के पूर्व वे किस धर्म के अनुयायी थे । यह विषय भी विवादास्पद है । कुछ लोगों का अनुमान है कि सम्राट् अशोक सिंहासन पर बैठने के पूर्व जैनधर्माधुयायी थे। इसका प्रमाण देते हुए वे कहते हैं कि, यह बात निर्विवाद सिद्ध हो चुकी है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार जैनी थे, और पुत्र का पिता और पितामह के स्वीकृत किये हुए धर्म का अनुयायी होना अधिक स्वाभाविक है । यदि उसका मत बद लता भी है तो पूर्ण अध्ययन के पश्चात् । अतएव सम्राट् अशोक का प्रारम्भ में जैनी होना ही अधिक उपयुक्त मालूम होता है X | कुछ लोग उन्हें वेदमता लम्बी सिद्ध करने की कोशिश करते हैं । वे कहते हैं कि पहिले उसकी पाकशाला में सहस्त्रों जीव मारे जाते थे । बौद्धधर्म ग्रहण करने पर भी दो मोर और एक हिरण उसके लिये मारा जाता था । जो कुछ भी हो पर इस बात के सत्य होने में सन्देह नहीं ही सकता कि सम्राट् अशोक अपने पूर्वकाल में बुद्धानुयायी नहीं थे । इसका एक प्रमाण यह भी हो सकता है कि उस समय तक बौद्धधर्म भारतवर्ष में भले प्रकार प्रतिष्ठित भी न हो सका था । जब जैनधर्म प्राचीन समय से चला आ रहा है और खूब प्रतिष्ठा पा चुका था यद्यपि बौद्ध और जैन धर्म के प्रचारकों ने लोगों के हृदय में वेदधर्म के विरुद्ध बहुत से भाव फैला दिये थे तथापि जनता के हृदय में अभी तक बौद्ध जैसे नवीन धर्मो की जड़ मजबूती से नहीं जमने पाई थी वास्तव में सम्राट् अशोक ने बुद्धधर्मानुयायी हुए पश्चात् ही बौद्धधर्म की अधिक उन्नति हुई । ज्योंही उन्होंने बौद्धधर्म स्वीकार किया त्योंही तन, मन, धन से उन्होंने इस धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया। जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही समय में + देखो -- जैनधर्म का प्राचीन इतिहास ३० ६० हो० मामनगर थी । इसी कारीगरी की २८३ www.netbrary.org Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पश्चिमी एशिया के कुछ भाग को छोड़ कर सारे एशिया में बौद्ध धर्म का प्रचार हो गया । सिंहासन पर आरूढ़ होते ही सम्राट् ने वौद्धधर्म की दीक्षा ली और उसके पश्चात् करीब ढाई वर्ष तक वे स्वयं भिक्षुक के वेश में रहे | उन्होंने स्थान २ पर प्रचारकों को भेज कर बौद्धधर्म का प्रचार करवाया । उन्होंने न केवल भारत में वरन् पश्चिमी देशों में भी प्रचारक भेजे । एक इतिहास लेखक लिखते हैं कि “सम्राट् अशोक संसार में पहिले शासक थे, जिन्होंने अपनी राजकीय सम्पत्ति को धर्म प्रचार में लगाया और जिसने इस धर्मप्रचार से अपने लिए, अपने उत्तराधिकारियों के लिए और अपनी जाति के लिए किसी प्रकार के लाभ की इच्छा न रक्खी | सारे संसार के इतिहास में धर्मप्रचार का यह उदाहरण द्वितीय और अनुपम है । दूसरे धर्मों में धर्मप्रचार के साथ २ देशों को जीता गया, दूसरे धर्म के मन्दिरों को गिराया गया; लूटपाट मचाई गई, जैसा कि अब भी लोगों का विश्वास है कि, अञ्जील का प्रचार यूरोपीय जातियों की सेना का अगामी होता है । कई इतिहासज्ञ अशोक की तुलना ईसाई राजा कांस्टण्टाइन से करते हैं परन्तु कांस्ट एटाइन और अशोक की प्रचार नीति में बहुत अधिक अन्तर है । न्याय यह चाहता है कि अशोक को अपने डन का एक अकेला ऐसा शासक समझा जाय, जिसके ढङ्ग का आज तक मनुष्य जाति ने उत्पन्न नहीं किया | हाँ कान्स्टण्टाइन के समय में ईसाई धर्म कुछ बहुत फैल चुका था ।” 1 सम्राट् अशोक ने मिश्र, शाम, सायरीन, मकदूनिया, लंका और दक्षिण भारत के स्वतंत्र राष्ट्रों में भी अपने धर्मप्रचारक भेजे थे । इसके अतिरिक्त तिब्बत, हिमालय के प्रान्त, हिंदूकुश के प्रांत, काबुल उपत्यका गान्धार और यवन देशों में भी उन्होंने बौद्धधर्म का प्रचार किया । प्रसिद्ध इतिहास लेखक अलबेरूनी लिखता है कि "मुसलमान धर्म के प्रारम्भ के पूर्व सारे मध्य एशिया में बौद्धधर्म फैला हुआ था । ईरान, ईराक, रूम, अजम, शाम आदि देशों में मी बौद्धधर्म का गहरा असर पड़ रहा था ।" लङ्का मै बौद्धधर्म का प्रचार करने के लिये स्वयं अशोक का भाई महेन्द्र गया था और उसके साथ अशोक की पुत्री संघमित्रा भी गई थी उसने वहां के तत्कालीन राजा को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी और सारे लङ्का द्वीप में बौद्धधर्म का प्रचार किया । तब से आज तक लङ्का द्वीप बौद्धधर्म का उपासक है । महेन्द्र ने अपना सारा जीवन लङ्का मे ं धर्म प्रचार करते हुए व्यतीत किया। आज भी लङ्का में बौद्ध लोग महेन्द्र की पूजा करते हैं | उसके स्मारक स्वरूप वहां पर एक स्तूप बनाया गया था। इस समय भी वह स्तूप लंका में दर्शनीय गिना जाता है। हाल ही में पुरातत्त्व वेत्ताओं के परिश्रम से लंका में अनुराधपुर नामक नगर के कुछ खण्डहर मिले हैं। यह अनुराधपुर संसार में बौद्धधर्म का एक उज्वल स्मारक है । एक अंग्रेज लेखक ने इस नगर की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "इसके सन्मुख रोम और यूनान तुच्छ जान पड़ते हैं । " अस्तु ! सम्राट अशोक ने पेगू — जिसे उस काल में स्वर्णभूमि कहते थे - वहां भी बौद्धधर्म का प्रचार करवाया था । इसके अतिरिक्त चोल, पाण्ड्य, करेलपु सतियपुत्र इन चार स्वतंत्र दक्षिण प्रांतों में भी उसने बौद्ध धर्म के अनेक विहार और मंदिर बनवाये थे । मतलब यह है कि, बौद्धधर्म का प्रचार करने के लिए सम्राट अशोक ने कोई भी बात उठा न रक्खी। यदि सम्राट् अशोक, और महाराज कनिष्क न होते तो आज महात्मा बुद्ध के बावन करोड़ अनुयायी दिखलाई पड़ते या नहीं, यह कौन कह सकता है ? उस समय बौद्धधर्म का प्रभाव प्रायः सारी ज्ञात दुनिया पर पड़ रहा था । यूनानी तत्त्वज्ञान और ईसाई धर्म पर भी बौद्धधर्म का बहुत प्रभाव पड़ा । Jain Educaternational Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ कहा जाता है कि, अशोक ने अपने जीवन काल में बौद्ध भिक्षओं की एक विशाल सभा की थी । जिसमें उपगुप्ताचार्य आदि बौद्धधर्म के कई महान् भिक्षुक सम्मिलित हुये थे । उनमें उत्तम और चरित्रवान भिक्षुओं को चुन २ कर प्रचार के लिये भेजा गया था। शेष दुरंगे और पाखण्डी भिक्षुओं से भिक्षुक वेष atra लिया गया था । यह बात कहां तक सत्य है इसके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता । सम्राट् अशोक का व्यक्तित्व -- सम्राट् अशोक के व्यक्तित्व के विषय में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाना है | इतने बड़े साम्राज्य का इतना उत्तम ढंग से संचालन करना ही उनके महान् व्यक्तित्व का सूचक है । वे एक अद्भुत कर्मशील, उच्च चरित्र और शांत मनुष्य थे । उनके वचन और कर्म में आश्चर्यजनक एकता पाई जाती है । सम्राट् अशोक के सिद्धान्त - अशोक के शिलालेखों और उनकी धर्म लीपियों में उनके सिद्धान्तों का पूर्ण परिचय मिलता है । उनके मुख्य सिद्धान्त अहिंसा, सत्य, पवित्र जीवन, बड़ों और श्रमण ब्राह्मणों का सम्मान आदि विषयों से सम्बन्ध रखते हैं । अहिंसा, और जीवरक्षा तो भविष्य में जाकर अशोक के जीवन का मूलमन्त्र हो गइ थी। पहले उनकी पाकशाला में प्रति दिन सहस्त्रों जीवों की हत्या होती थी, बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात भी उनके भोजन के लिए दो मोर और एक हिरण मारे जाते थे । पर अपने शासन के सोलहवें वर्ष में उन्होंने अपनी पाकशाला में जीवहिंसा बिलकुल बन्द कर दी और उसके दो वर्ष पश्चात् शिकार खेलना भी बन्द कर दिया। शासन के ३० वें वर्ष में उन्होंने अपने राज्य में जीवों का वध एक दम बन्द करवा दिया। हिंसा के पश्चात् सम्राट् का दूसरा सिद्धान्त सत्य-प्रेम' था । प्रत्येक मनुष्य का सत्य वक्ता होना उनकी दृष्टि में श्रावश्यक था । इसके अतिरिक्त उस समय जो बौद्ध लोग दूसरे धर्मों को निगाह से देखने लग गये थे, उनके लिए भी उन्होंने एक कानून बनाया था । उस कानून द्वारा उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य ठहराया कि, वह दूसरों के धर्म विश्वास और उपासना की रीति में बाधक न हो । और प्रत्येक धर्म के साथ सहानुभूति और प्रेम का व्यवहार करे। किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि, वह दूसरे धर्म के लिए अपमान सूचक शब्दों का व्यवहार करे | क्योंकि, सभी धर्मों के मूल सिद्धान्त जीवन को पवित्रता की ओर ले जाने वाले होते हैं। अशोक का तीसरा सिद्धान्त बड़ों का सम्मान, ब्राह्मणों और श्रमणों के प्रति श्रद्धा और छोटों पर दया करने का था । उनके साम्राज्य में प्रत्येक व्यक्ति का यह अनिवार्य कर्तव्य ठहराया गया था कि वह अपने गुरुजनों के साथ सम्मान पूर्वक आचरण करे। यदि कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार अपमान करता तो वह दण्ड का भागी होता था । इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति को राज्य की ओर से आदेश था कि, वह अपने अधीनस्थ लोगों साथ दया और अनुकम्पा का व्यवहार करे । एक धर्मलिपि में अशोक ने दान की बड़ी प्रशंसा की है । उन्होंने कहा है कि, औषधालय मनुष्यों की शरीर-रक्षा के लिए है । एवम् मन्दिर पुण्य के लिए ही बनाए जाते हैं परन्तु वास्तविक दान तो धर्म का दान है जो मनुष्य को आध्यात्मिक भोजन देता है । अशोक का साम्राज्य - अशोक के साम्राज्य का विस्तार जितना अधिक हुआ था उतना शायद अभी तक किसी सम्राट् के समय हुआ हो । उनका राज्य उत्तर में हिमालय और हिन्दूकुश पर्वत तक था । सारा अफगानिस्तान, बलुचिस्थान, और सिन्ध उनके साम्राज्यान्तर्गत था । कश्मीर, नेपाल, स्वात और २८५ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष 1 [ भगवान पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास बाजौर प्रान्त भी इनके साम्राज्य में मिले हुए थे। काश्मीर की राजधानी "श्रीनगर" को स्वयं सम्राट् ने ही बसाया था । नेपाल में भी उन्होंने "ललितपुर" नामक एक नवीन राजधानी बसाई थी । जो कि काटमाण्डू से दो तीन मील दक्षिण-पूर्व में है । समाट की लड़की चारुमति ने भी नैपाल में अपने पति देवपाल के स्भारक स्वरूप देवपाटन नामक एक नगर बसाया था । यह तो साम्राज्य की उत्तर सीमा हुई । पूर्व में सारा बङ्गाल अशोक के साम्राज्य में सम्मिलित था । दक्षिण में कलिगु, आन्ध्र और पूर्वी किनारे का सारा दक्षिण प्रान्त अशोक के अधीन था ।। केवल चौल पाण्ढय; करेलपुत्र ओर सतीयपुत्र अशोक साम्राज्य से बाहिर थे ! इस सारे साम्राज्य को अशोक ने कई भागों में विभक्त कर दिया था । इनमें भिन्न २ भागों में एक एक राजप्रतिनिधि राज्य करता था। एक राजप्रतिनिधि तक्षशिला में, दूसरा कलिंग के अन्तगत तोसली में, तीसरा उज्जैन में और चौथा दक्षिण देश में रहता था । इन प्रतिनिधियों में राज्य घराने के अथवा सम्राट के पूर्ण विश्वास पात्र लोग ही रहा करते थे। सम्राट अशोक की तीर्थयात्रा-जेब कि सम्राट अशोक ने अपने तमाम बौध तीर्थों की यात्रा करना प्रारम्भ किया। सबसे पहले वे मुजफ्फरपुर (आधुनिक) और चम्पारन के जिलों में होते हुए नैपाल गये । मार्ग में उक्त स्थानों पर उन्होंने पांच बड़े २ स्तम्भ खड़े करवाये । वहां से चलकर वे महात्मा बुध के जन्मस्थान लुम्बिनि कानन में पहुँचे । भगवान बुद्ध की माता मायादेवी को नैहर जाते समय रास्ते में इसी स्थान पर प्रसव वेदना हुई थी, और यहाँ पर सिद्धार्थ कुमार का जन्म हुआ था। इस स्थान सम्राट ने एक स्तम्भ खड़ा करवाया वहां से चलकर सम्राट् बुद्धदेव के पिता शुद्धोद्धन की राजधानी कपिल वस्तु गये । इसके पश्चात् वे सारनाथ, जहां पर कि, भगवान् बुद्ध ने सर्व प्रथम उपदेश किया था, गये। सारनाथ से श्रवति होते हुए वे बुद्ध गया पहुँचे । इस स्थान पर भगवान् बुद्ध को बोधी ज्ञान प्राप्त हुआ था। वहां से कुशिनगर लौटते हुए वे पुनः अपनी राजधानी लौट गये । सम्राट अशोक के खुदाये हुए शिलालेख--पुरातत्त्व विभाग के शोध खोज द्वारा भगवान महावीर के ८४ वर्ष बाद का तथा एक लेख महात्मा बुद्ध का इन प्राचीन दो लेखों के बाद मौर्य राजाओं का नम्बर आता है और इनके शिलालेखों में कलिंग के दो शिलालेख, सात बड़े स्तम्भ लेख, तराइ के दो शिलालेख, चट्टानों के दो शिलालेख, चौदह पहाड़ियों के शिलालेख, गुफाओं के तीन लेख, छोटे स्तम्भ लेख, सारनाथ, गिरनार, गया वगैरह स्थानों से जो शिलालेख मिले हैं इन सब शिलालेखों की एक पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है कई विद्वानों का मत है कि यह शिलालेख सम्राट अशोक के खुदवाये हुए हैं तथा कई विद्वानों का मत है कि सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति के खुदवाये हुए हैं। इस मत भेद का कारण यह है कि प्रस्तुत शिलालेखों में न तो शिलालेख खुदाने वाले राजा का नाम है और न उसमें संवत् मिती भी है कि जिसके जरिये स्पष्ट निर्णय किया जाय । उन शिलालेखों में नाम के स्थान पर प्रियदर्शी एवं देवानुप्रिय और संवत् के स्थान मेरे राज के इतने वर्ष के बाद में यह शिलालेख खुदवाये गये हैं। इससे कई लोगों में प्रियदर्शी एवं देवानुप्रिय अशोक का विशेषण मान लिया है तब कई लोगों ने सम्प्रति का विशेषण समझ लिया है । सम्राट अशोक पहली अवस्था में जैन था पर बाद में बौद्ध बन कर बौद्धधर्म का प्रचार किया था तब सम्राट् सम्प्रति शुरू से आखिर तक जैनधर्मो ही था । और उसने जैनधर्म का प्रचुरता से प्रचार भी किया Jain Ed 2 nternational Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ पत्रोक्त शिलालेख एवं आज्ञापत्रों से अधिक सम्भव सम्प्रति का हो हो सकता है कारण इन शिलालेखों में जिन जिन शब्दों का प्रयोग किया है वे प्रायःजैनधर्म से ही अधिक सम्बंध रखता है इस विषय में डा० त्रि. ले० बड़ौदा वाला तथा सूर्यनारायणजी व्यास उज्जन वाले और बंगाल का इतिहासज्ञ बाबु नागेंद्र वसु ने अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि पूर्वोक्त शिलालेख धर्मलिपियें और आज्ञापत्र सम्राट् सम्प्रति के ही हैं। पाठकों को चाहिए कि संस्था से प्रकाशित प्राचीन जैन इतिहास संग्रह भाग ५ वाँ मंगवाकर आद्योपांत पढ़ ले कि जिससे इस विषय का ठीक निर्णय हो जाय। सम्राट अशोक का इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखने काबिल है । सम्राट ने बोद्धधर्म का खूब ही प्रचार किया था । अपनी अंतिमावस्था तक उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं को दान दिया था । सम्राट ने ४१ वर्ष राज कर इस मनुष्यलोक से विदा ली। महाराजा कुणाल--यह सम्राट अशोक के पुत्र थे इनके विषय में जैन और बौद्ध ग्रंथकारों ने अपने २ ग्रंथों में खूब विस्तार से लिखा है जैसे बौद्ध प्रथ दिव्यावदान और अवदानकल्पल्ला में लिखा है जिसका सारांश यह है कि राजकुमार कुणाल की अांखें बड़ी सुंदर थीं उस पर अशोक की तिष्यरक्षिता नामक रानी ने मोहित हो कर कुणाल से अनुचित प्रार्थना की परंतु कुणाल बड़ा ही सुशील एवं सदाचारी था उसने रानी को अपनी विमाता समझ कर उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की इससे वह नाराज हो गई और अवसर मिलने पर इसका बदला लेने का निश्चय कर लिया। ___ एक समय राजा अशोक बीमार हो गया था और उसने अनेक वैद्यों से इलाज भी करवाया परंतु उसकी बीमारी गई नहीं । उस समय रानी तिष्यरक्षिता ने अपनी कार्य कुशलता से ऐसा उपचार किया कि राजा की बीमारी चली गई और शरीर आरोग्य हो गया । राजा ने खुश होकर रानी के माँगने पर ७ दिन का राज दे दिया। बस फिर तो था ही क्या ? रानी ने कुणाल से अपना बैर लेने के लिए राजा अशोक के नाम से एक आज्ञापत्र लिखकर तक्षशिला के अधिकारियों पर भेजा कि कुणाल हमारे कुल में कलंकरूप है इसलिये उसकी आंखें निकाल दी जायं । बस; पत्र पहुँचते ही अधिकारी लोगों ने उस पत्र को कुणाल को सुनाया और कुणाल ने उसको स्वीकार भी कर लिया। चांडालों को बुलाया परन्तु इस अनुचित कार्य में किसी ने साहस नहीं किया। इस पर कुणाल ने स्वयं अपनी आँखें निकाल कर अपने पिता के नाम से आये हुए पत्र की आज्ञा का पालन किया। जैन लेखकों ने लिखा है कि महाराज अशोक ने अपनी रानी की खटपट से अपना कुंवर कुणाल को सकशल रहने के लिए विचार करके उज्जैन भेज दिया था । बाद एक समय सम्राट ने उज्जैन के अधिकारियों को एक पत्र लिखा कि अब कुवर विद्याध्ययन करे "अधीयउ कुमारों' उस समय अशोक की रानी तिष्यरक्षिता पाम में बैठी थी । राजा के कहीं जाने पर उसने पत्र को पढ़ा और सोचा कि कुणाल पढ़ जायगा तो राज का मालिक हो जायगा इस इरादे से अपनी आंखों के कज्जल से एक शलाका भर अकार के ऊपर विंदी लगा दी की वह “अंधीयउ कुमारो" हो गया। राजा वापिस आया और बिना ही पढ़े कागज पर मुहर कर उसको उज्जैन भेज दिया और पत्र पहुँचते ही वहाँ के अधिकारियों ने कुणाल को सूचित किया । कुणाल ने प्रसन्नता पूर्वक अपने नेत्र निकाल डाले । २८७ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इन दोनों लेखकों का एक ही मत है केवल स्थान का अंतर । बौद्ध तक्षशिला बतलाते हैं तब जैन उज्जैन कहते हैं परंतु यह तक्षशिला उज्जैन का ही नाम है । वैजयंती कोष पृष्ट १५९ पर " अवन्तिस्यातक्षशिला' अर्थात् अवंती का नाम ही तक्षशिला था । कुणाल के उज्जैन में रहते हुये एक पुत्र हुआ । कुणाल स्वयं अंधा था अतः राजगद्दी के अयोग्य था परन्तु जब उसके पुत्र हो गया तो उसकी इच्छा हुई कि मैं पुत्र को राजगद्दी बैठाऊं ! कुणाल गायनविद्या में बड़ा ही प्रवीण था अतः नवजात पुत्र को साथ लेकर क्रमश: पाटलीपुत्र पहुँचा और गाने के कारण उसकी सम्पूर्ण नगर में प्रसिद्धि होगई एवं सर्वत्र धूम मच गई अतः राजा को मालूम होने पर उसको राजसभा में बुलाया गया और एक कनात डलवा दी गई एवं कुणाल राजसभा में आया। कनात के अन्तर में बैठकर राजा को गायन से खुश किया। इस पर राजा ने कहा कि मैं तुझे क्या दूं ? कनात के अन्दर बैठा कुणाल कहता है । तो चन्द्रगुप्तस्स विन्दुसारस्स नतुओ, अशोगसिरीणो पुत्तो अन्धो जायइ कांगिणी १ ॥ इन शब्दों को सुन कर अपना आज्ञापालक पुत्र कुणाल समझ कर राजा चौंक उठा । परदा दूर करवा के कुणाल को गले से लगाकर मिला क्योंकि कुणाल सरीखे विनीत पुत्र का चिरकाल से मिलने से अशोक को हर्ष होना स्वाभाविक ही था । बाद अशोक ने पूछा कि पुत्र तुमने काकाणी का क्या मांगा। पास में बैठे हुए मंत्रियों ने कहा कि यह राज परिभाषा है और इसका अर्थ होता है राज्य । अशोक ने पुनः पूजा कि जब तूं आंखों से अंधा है फिर राज को लेकर क्या करेगा। कुणाल ने उत्तर दिया कि आपके पौत्र का जन्म हुआ है | अशोक ने कहा कि कन ? कुणाल ने कहा कि 'सम्प्रति' । बस, अशोक ने सम्प्रति को गोद में लेकर उसको युवराज पद अर्पण कर उज्जैन का शासनकर्ता नियुक्त कर दिया । वहां से लौट कर कुणाल सम्प्रति को लेकर उज्जैन आगया । प्रपौत्रचन्द्रगुप्तस्य, विन्दुसारस्यनप्तृकः एपोऽशोकश्रियः सुनूरन्धो मार्गतिकाकिणीम् पद्यप्रबन्धमन्धेन, गीयमानंमहिपतिः श्रुत्वापमच्छ को नाम त्वमस्याख्याहि गायन ॥ १ ॥ X X X क्रमेण साधयामास भरतार्धसदक्षिणम्, प्रचण्डशासनश्चभूत्पाक शासनसन्निभः " परिशिष्ठपयं खर्ग ९ श्लोक ४-४३-५४" "किं काहि सि अंधओ रज्जेणं, कुणालो भणति मम पुत्तोत्थित, संपति नाम कुमारो, दिन्नं, रजं" वृहत्कल्प चूर्णि २२ तस्यसुत: कुणालस्तन्नंदनस्त्रिखंडभोक्ता संप्रतिनामाभूपति भूत्स च जाता मात्र एव पितामहदत्तराज्य:" किराणावली १६५ Jain Ed२८ International Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] सम्राट् सम्मति सम्राट् सम्पति - मारत के सम्राटों में आपका तीसरा नम्बर है । ऐतिहासिक लेखों जैसा चन्द्रगुप्त और अशोक का हाल मिलता है इतना सम्प्रति का नहीं मिलता है फिर भी इस विषय के कुछ उल्लेख यत्र-तत्र अवश्य मिलते हैं । परंतु जैन लेखकों ने तो इसको त्रिखंड भोक्ता के नाम से लिखा हैं । शायद राजा सम्प्रति जैनधर्म उपासक एवं प्रचारक होने से ही समुदाय पक्षपात के कारण इसकी प्रसिद्धि के जितने चाहिए उतने उल्लेख नहीं किये हों तो यह स्वाभाविक ही है फिर भी वेदांतियों के पुराणों बौद्धों के दानों में सम्प्रति को स्थान अवश्य मिला है। वे लिखते हैं कि सम्प्रति अशोक का पौत्र एवं उत्तराधिकारी था । अशोक की अन्तिम बीमारी के समय सम्प्रति अशोक की सेवा में था, अशोक के. देहांत के बाद पाटलीपुत्र के सिंहासन पर सम्प्रति का राज्याभिषेक हुआ था । बौद्धों के दिव्यावदान ग्रन्थ के २९ वें अवदान में इस प्रकार लिखा है कि "राजा अशोक को बौद्ध संघ को सौ करोड़ सुवर्ण का दान देने की इच्छा हुई, और उसने दान देना शुरू किया । ३६ वर्षों में उसने ९६ करोड़ सुवर्ण तो दे दिया पर अभी ४ करोड़ देना बाकी था जब अशोक बीमार पड़ गया, और उसने सोचा की जिन्दगी का क्या भरोसा है ऐसा समझ कर उसने ४ करोड़ का दान पूरा करने के लिए खजाने से बोद्धों के कुर्कुटाराम संघ में भिक्षुत्रों के लिए द्रव्य भेजना शुरू कर दिया । [ ओसवाल संवत् १९२ उस समय अशोक के पुत्र कुनाल और कुनाल का पुत्र 'सम्पदी' (सम्प्रति ) नामक राजकुमार युवराज पद पर था । अशोक की दान प्रवृति की बात सम्पदी को कह कर मंत्रियों ने कहा- राजा अशोक थोड़ी देर का महमान है, वह जो द्रव्य कुर्कुटाराम भेजा जा रहा है, जिससे उसे रोकना चाहिये क्योंकि खजाना ही राजाओं का बल है। मंत्रियों के कहने पर युवराज सम्पदी ने खजानची को धन देने से रोक दिया । इस पर अशोक अपने स्वर्णमय भोजन पात्र ही कुर्कुटाराम को भेजने लगा, तब अशोक के भोजन के लिए क्रमशः रौप्य लोह और मार्तिक पात्र भेजे गये, जिनका भी उसने दान कर दिया । उस समय राजा अशोक के हाथ में सिर्फ आधा आंवला (फल) बाकी रहा था। राजा बहुत विरक्त हुआ, मंत्रीगण और प्रजागरणों को इकट्ठा करके वह बोला"बोलो इस समय पृथ्वी में सत्ताधारी कौन है ? मंत्रियों ने कहा- 'आप ही पृथ्वी में ईश्वरसत्ताधारी राजा हैं।” आंखों से आंसू बहाते हुए अशोक ने कहा- तुम दाक्षिण्यता से झूठ क्यों बोलते हो ? हम तो राज्यभ्रष्ट हैं। इस समय हमारा प्रभुत्व मात्र इस श्रधमला पर है। पास में खड़े आदमी को बुला कर अशोक ने यह श्रार्द्धामलक उसे दिया और कहा - "भद्र ! मेरा यह थोड़ा सा काम कर कुर्कुटाराम जाकर मेरे वन्दन के स्वाथ यह अर्द्धामलक संघ को भेंट कर दें । उस आदमी ने अशोक के हुक्म से आराम में जाकर वह आधा आमला भिक्षुओं को दे दिया इस पर भिक्षु संघ ने अशोक का वह इच्छा के अनुसार दूसरे पदार्थ में मिला करके सारे संघ में बांट दिया । आखरी दान उसकी "पद् त्रिंशत्तु समा राजा, भविताऽशोक एव च । सप्तति (संप्रति) दशवर्षाणि तस्य नप्ता भविष्यति ॥ २३ ॥ ३७ मत्स्यपुराण अध्याय २७२ २८९ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास राजाने अमात्य राधगुप्र को बुलाकर कहा--"शेल राधगुप्त ! इस समय पृथ्वी में ईश्वर कौन है ?" विनय के साथ उत्तर देते हुए राधगुप्त ने कहा-'आप ही तो पृथिवी में ईश्वर हैं' यह सुनकर अशोक किसी तरह उठा और चारों ओर नजर दौरा कर आया हुआ भिक्षु संघ को नमस्कार कर बोला-'महकोश को छोड़ कर इस समुद्रपर्यंत महापृथिवी को संघ के लिए अर्पण करता हूँ' इस प्रकार पृथिवी का दान करके राजा काल शरण हो गया बाद अमात्यों आदि ने जलसे के साथ अशोक के शरीर का अग्निसंस्कार किया और वे मगध के सिंहासन पर संपदी को बिठाने की तैयारी करने लगे, तब राधगुप्त ने कहाचार करोड़ स्वर्ण के बदले यह पृथिवी अशोक ने संघ को दान करदी है, इस वास्ते जब तक संघ से यह पृथिवी छोड़ाई नहीं जाय, तब तक इस पर दूसरा राजा नहीं हो सकता । अमात्यों ने पूछा कि क्या अशोक ने संघ को पृथिवी दान में दी ? उन्होंने कहा हाँ तब अमात्यों ने राज खजाना से ४ करोड़ सुवर्ण बोधसंघ को दे कर पृथिवी को छुड़ाया और बाद में संपदी का राज्याभिषेक किया। "अपिच राधगुप्त,अयंमेमनोरथोवभूवकोटीशतंभगवच्छासनेदानंदास्यामीति, स च मेऽभिप्रावो न परिपूर्णः ततोराज्ञाऽशोकेनचत्वारःकोटयःपरिपूरयिष्यामीतिहिरण्यसुवर्ण कुर्कुटारामं प्रेषयितु मारब्धः तस्मिंश्चसमयेकुनालस्यसंपदीनामपुत्रोयुवराज्येप्रवर्तते । तस्यामात्यैरभिहितं- कुमारअशोककोराजास्वल्पकालावस्थायीइद्रं चद्रव्वंकुक्कुटारामंप्रेषयतेकोशबलिनश्च राजानो निवारयितव्यः । यावत्कुमारेणभांडागारिकः प्रतिषिद्धाः तस्यसुवर्णभाजने आहार। मुपनाम्यते, भुक्त्वातानिसुवर्णभाजननानिकुक्कुटारामंप्रेषयतितस्यसुवर्णभाजनप्रतिषिद्धं रूप्यभाजनेआहारमुपनाम्यते, तान्यपिकुक्कु टारामंप्रेषयति । ततोरुप्यभाजनमपिप्रतिषद्भ या वल्लीहभाजनआहारमुपनाप्यते । तान्यपिराजाअशोकःकुक्कुटारामंप्रेषयति । तस्ययावन्मृद् भाजनआहारमुपनाम्यते । तस्मिश्चसमयेराज्ञोऽशोकस्याद्धोंमलकंकरांतर्गतम् । अथाराजाऽशोकः संविग्नोऽयात्यान् पौरांश्चसंनिपात्यकथयतिकःसाम्भतंपृथिव्यामीश्वरः । ततोऽमात्यउत्थायाऽऽसनाद् येनराजाशोकस्तेनांजलिं प्रणम्योवाच-देवः पृथिव्यामीश्वरः अथराजाऽशोकः साश्रुर्दुर्दिननयनवदनोऽमात्यानुवाच --- दाक्षिण्यात् अनृतं हि किं कथयथ, भ्रष्टाधिराज्या वयम्, शेपं त्वामपकार्धमित्यवसितं यत्र प्रभुतं मम् । ऐश्वर्च धिगनार्य मुद्धत नदीतोय प्रवेशोपमम्, मयंन्द्रस्य ममापि यत् प्रति भयं दारिद्रय मभ्यागतम ॥ ततो राजाऽशोकः समीपगतं पुरुषमाहूयोवाच-भद्रमुख ! पूर्वगुणानुरागाद् भ्रष्टैश्वर्यस्यापि मम इमं तावद पश्चिमं व्यापारं कुरु-इदं ममार्धामलकं ग्रहाय कुकुटारामं गत्वा संघे निर्यातय, Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ पूर्वोक्त बौद्ध प्रन्थ से यह स्पष्ट सिद्ध है कि अशोक के मृत्यु समय सम्प्रति पाटलीपुत्र एवं अशोक की सेवा में हाजिर था तथा अशोक की मृत्यु के समय पाटलीपुत्र में ही सम्प्रति का राज्याभिषेक हो गया इतना ही क्यों पर अशोक की मौजूदगी में ही सम्प्रति ने राजसत्ता अपने हस्तगत करली थी जब ही तो उनके मना करने से राज खचावी दान के निमित्त द्रव्य देने से रुक गये थे अतः इससे अधिक सम्प्रति का मगध के राज सिंहासन पर अभिषिक होने में और क्या प्रमाण हो सकता है ? कई लोग अशोक के बाद मगध की राजगद्दी पर दशरथ का राज होना कहते हैं तथा दशरथ के राज समर्थन के विषय में कई शिलालेख भी मिलते हैं। शायद मगध के प्रदेश में कुछ समय के लिये दशरथ का राज रहा भी हो। पर बौद्धों के उपरोक्त अवदान के प्रमाण से अशोक की मृत्यु के समय ही सम्प्रति का मगध के सिंहासन पर राज्याभिषेक होना पाया जाता है। इतना ही क्यों पर जब सम्प्रति केवल दस मास का बालक था तभी अशोक ने उसको युवराज पद से भूषित कर उसके पिता कुनाल के साथ उज्जैन भेज दिया था और उज्जैन का राजतंत्र कुनाल ने अपने अधिकार में कर दिया था। सम्प्रति बड़ा होकर राजतंत्र को अपने हाथ में लिया और उसको बड़ी वीरता से चलाया । जैन ग्रंथों में यह भी उल्लेख मिलता है कि सम्प्रति ने सौराष्ट्र + ( काठियावाड़ ) और दक्षिण भारत के को तो युवराज अवस्था में ही विजय कर लिया था। इस हालत में मद्वचनाच संघस्य पादाभिवन्दनं कृत्वा वक्तव्यं जम्बूद्वीपेश्वमस्य राज्ञ एव सांपतं विभव इति । इदं तावद् अपश्रियं दानं तथा प्रति भोक्तवं यथा मे संघगता दक्षिणा विस्तीर्णा स्यादिति । X X X X यावत्तदर्धामलकं चूर्णयित्वा यूषे प्रक्षिप्य संघे चरितम् । ततो राजाऽशोको राधगुप्तमुवाच -- कथय राधगुप्त ! कः साम्प्रतं पृथिव्यामीश्वरः अथ राधगुप्तोऽशोकस्य पादयोनिर्पत्य कृतांजलिरुवाच देवः पृथिव्यमीश्वरः ! अथ राजाऽशोकः कथंचिदुत्थाय चतुर्दिशमवलोक्य संघायांजलिंकृत्या 'एप इदानीं महत्कोशंस्थापयित्वा इमां समुद्रपर्यन्तां महापृथिवीं भगवच्छ्रावकसंघे निर्यातयामि' । यावत्पत्राभिलिखित कृत्वा दत्तं मद्रया मुद्रितम् । ततो राजामहापृथिवीं संघे दत्वा कालगतः यावदमात्यैर्नीलपीतामिः शिविकाभिर्तिर्हरित्वा शरीर पूजां कृत्वा राजानं प्रतिष्ठा - पयिष्याम इति यावद राधगुप्तेनाभिहितं राज्ञाऽशोकेन महापृथिवी संधे निर्यातिता इति । तेपामा - त्यैरीभहितं किमर्थमिति राधगुप्त उवाचएप राज्ञोऽशोकस्य मनोरथो बभूव कोटिशतं भगवच्छासने दानं दास्यामीति तेन षण्णवतिकोट्योदत्तायावद्राज्ञाप्रतिषिद्धाः तदभिप्रायेणराज्ञा पृथिवी संघेदत्ता यावदमात्यैश्चतस्रःकोट्यो भगवच्छासनेदत्वा पृथिवीं निष्कीय संपदी राज्ये प्रतिष्ठापित ।" "दिव्यावदान श्र० २६" +- "ते सुरट्ठविसयो अन्धा दमिला य ओयविया" इसी विषय में रूप चूर्णिका का मत इस प्रकार का हैः +- "ताहे तेण संपइणा उज्जेणीआई काउ' दक्खिणावहो सव्वो तत्थ ठिण्ण वि अज्जावितो" । कठियावाड़ और दक्षिणा प्रान्त को जीतने से सम्मति के सम्बन्ध में यह अनुमान हो सकता है कि सौराष्ट्र और दक्षिण हिन्दुस्तान में उसने युवराज अवस्था में ही अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापन कर दी होगी । निशीथ चूर्ण २९१ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास मगध के सिंहासन पर सम्प्रति का राज्याभिषेक अशोक की मृत्यु के बाद तत्काल ही हुआ हो तो इसमें संदेह को स्थान नहीं मिल सकता है । सम्राट् सम्प्रति के शासन में राज के प्रबन्ध एवं व्यवस्था सम्राट चन्द्रगुप्त एवं अशोक से कम नहीं पर किसी अपेक्षा चढ़ बढ़ के थी क्योंकि इसमें जैसी वीरता थी वैसी ही उदारता भी एक नम्बर की थी। जनता के हित के लिये इसने अनेक प्रकार की सुविधायें कर दी थीं । इतना ही क्यों पर इस बात के लिये सम्राट ने अपने जीवन का ध्येय ही बना लिया था। यही कारण था कि जनता इस भूपति को खूब चाहती थी और वह सब के लिये बहुत प्रिय भी बन चुका था यही कारण है कि श्राप प्रियदर्शी नाम से प्रसिद्ध थे। अतः इनके राज प्रबन्ध एवं व्यवस्था के लिये दुहराने की आवश्यकता नहीं हैं। कई लोगों का यह मत है कि सम्राट अशोक के बाद मौर्य राज में शिथिलता आ गई थी। राज की नींव कमजोर पड़ गई थी कई राजाओं ने स्वतन्त्र हो कर अपने २ राज्य पर फिर से अधिकार जमाना शुरु कर दिया था इत्यादि । परन्तु यह कथन सम्राट् सम्प्रति के समय का नहीं पर वृहद्रथ के शासन काथा जिसको हम आगे चल कर बतावेंगे । सम्प्रति के समय भारत का राजतन्त्र सुव्यवस्थित एवं एक झंडे के नीचे था। __ यह केवल मेरा ही अनुमान नहीं है परन्तु सम्प्रति के शिलालेखों में भी इस विषय का विस्तृत वर्णन मिलता है जिसको मैं आगे चल कर लिखूगा तथा डाक्टर त्रिभुवनदास लेहरचन्द अपने प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास नामक ग्रन्थ में इस विषय को अच्छी तरह से प्रमाणित कर दिया है कि सम्राट् सम्प्रति ने अपने राज का विस्तार केवल भारत ही नहीं पर भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी किया था जो कि चन्द्रगुप्त और अशोक भी नहीं कर पाये थे। सम्राट् सम्प्रति के विषय में सम्राट ने अपनी युवराजावस्था में भारत के समस्त गजाओं को करदाता बना दिया; और अष्ठक के निकट आकर सिन्ध नदी पार करने के बाद अफगानिस्तान के मार्ग से ईरान, अरब और मिस्र आदि देशों पर अधिकार किया और उनसे 'कर' लिया जिस प्रकार अजातशत्रु राजा के आधीन १६००० करद राज्य थे, उसी प्रकार इनकी संख्या भी उतनी ही थी। इस प्रकार जब वे दिग्विजय कर स्वदेश वापस लौटे तब सम्राट अशोक के मुंह से ये उद्गार निकले कि "मेरे पितामह चन्द्रगुप्त तो केवल भारत के ही सम्राट थे, किन्तु मेरा पौत्र सम्प्रति तो संसार भर का सम्राट् है।" । ___ इन शब्दों से चन्द्रगुप्त, अशोक और प्रियदर्शिन (सम्प्रति) इन तीनों के राज विस्तार को अलग २ गिनने के साधन मिल सकता है। सम्राट सम्प्रति की राजधानी-यह तो आप पहिले ही पढ़ चुके हैं कि सम्राट अशोक ने अपने पुत्र कुनाल को उज्जैन भेजा था । सम्प्रति का जन्म उज्जैन में ही हुआ और सम्प्रति को युवराज पद देकर उज्जैन भेजा था और सम्प्रति ने युवराज पद में सोराष्ट्र और दक्षिणादि प्रान्तों को विजय भी उज्जैन में रह कर ही किया । अतः उज्जैन की भूमि सम्प्रति को वल्लभ होना स्वाभाविक ही था परन्तु अशोक के अन्त समय सम्प्रति पाटलीपुत्र में था और अशोक के मृत्यु के बाद उनका राज्याभिषेक मगध की गदी पर पाटली Jain Edu a temational Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ पुत्र में ही हुआ था फिर भी उसने अपनी जननी जन्म भूमि को नहीं भूला अतः राज्य सिंहासन पर बैठने के बाद उसे अपनी राजधानी बनाया। साथ ही राजनीतिक दृष्टि से विचार करने पर भी वे कुछ दीर्घ-दृष्टि वाले माने जा सकते हैं। क्योंकि इतने बड़े साम्राज्य की व्यवस्था ठेठ पाटलीपुत्र या राजगृह जैसे एक कोने में पड़े हुये मगध देश के एक नगर में रह कर चलाने की अपेक्षा भारतवर्ष के हृदय रूप मध्यस्थल अवंति से शासन सूत्र चलाना श्रेयस्कर और अधिक उचित कहा जा सकता है । श्री सत्यकेतु विद्यालंकार मौर्य साम्राज्य के इतिहास में लिखते हैं कि : मौर्य इतिहास में सम्राट् सम्प्रति बड़ा महत्वपूर्ण व्यक्ति है । दशरथ की मृत्यु के बाद वह स्वयं राज-सिंहासन पर बैठा । इससे पूर्व बहुत काल तक वह शासन का संचालन करता रहा था । अशोक के समय वह युवराज था और उसी ने अपने अधिकार से अशोक को राज्य कोष में से बौद्ध संघ को दान करने का निषेध कर दिया था । सम्राट् कुनाल के शासन में भी शासन-सूत्र उसी के हाथ में था । दशरथ के समय में भी वही वास्तविक शासक रहा । यही कारण है कि बहुत से प्रन्थों में सम्प्रति को ही अशोक का उत्तराधिकारी लिख दिया है। जैन साहित्य में भी अशोक के बाद सम्प्रति के ही राजा बनने का उल्लेख है ।...... ""जैन साहित्य में सम्प्रति का वही स्थान है, जो बौद्ध साहित्य में अशोक का । जैन- अनुश्रुति के अनुसार सम्राट् सम्प्रति जैन धर्म का अनुयाई था । और उसने अपने प्रिय धर्म को फैलाने के लिए बहुत प्रयत्न किया था । परिशिष्ट१ पर्व में लिखा है कि एक बार रात्रि के समय सम्प्रति को यह विचार पैदा हुआ कि अनार्य देशों में भी जैन-धर्म का प्रचार हो और जैन साधु स्वतन्त्र रीति से विचर सकें । इसके लिये उसने इन देशों में जैन साधुओं को धर्म प्रचार के लिए भेजा । साधु लोगों ने राजकीय प्रभाव से शीघ्र ही जनता को जैन-धर्म और आचार का अनुगामी बना लिया। इस कार्य के लिए सम्प्रति ने बहुत से लोको पकारी कार्य भी किये । ग़रीबों कों मुफ्त भोजन बांटने के लिए दान शालायें खुलवाईं। इन लोकोपकारी कार्यों से भी जैन धर्म के प्रचार में बहुत सहायता मिली। सम्प्रति द्वारा अनार्य देशों में प्रचारक भेजे गये, इसके प्रमाण अन्य ग्रन्थों में भी मिलते हैं। अनेक जैनमन्थों में लिखा है कि इस कार्य के लिए सम्प्रति ने अपनी लेना के योद्धाओं को साधुओं का वेष पहनाकर प्रचार के लिए भेजा था । एक ग्रन्थ में उन देशों में से कतिपय नाम दिए हैं, जिनमें सम्प्रति ने जैन धर्म का प्रचार किया था। ये नाम प्रान्ध्र, द्रविड़, महाराष्ट्र, कुडुक आदि हैं। जिनप्रभा सूरि के मत्त अनुसार सम्राट् सम्प्रति ने बहुत से विहारों का निर्माण भी कराया था । ये बिहार अनार्य देश में भी बनवाये गये थे । " सम्प्रति-द्वारा बनाये गये अनेक जैन मन्दिरों में से एक का उल्लेख राजपूताने का भ्रमण करते हुए महात्मा टाँडसाहब ने इस प्रकार किया है: " कमलमेर का शेष शिखर समुद्रतल से ३३५३ फीट ऊँचा है। यहाँ से मैंने मरु-क्षेत्र बहुदूरवत्ति स्थानों का प्रान्त निश्चय कर लिया। यहां ऐसे कितने ही दृश्य विद्यमान हैं, जिनका चित्र अंकित करने में लगभग एक मास का समय लगने की सम्भावना है । किन्तु हमने केवल उक्त दुर्ग और एक बहुत पुराने १ - देखो आचार्य हेमचन्द्रसूरि कृत परिशिष्ट पर्व नामक ग्रन्थ । २- देखो तपागच्छ पट्टावली, आवश्यक चूर्णि, और कल्पसूत्र । २९३ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि० पृ० २८८ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जैन-मन्दिर का चित्रांक समाप्त करने का समय पाया था। इस मन्दिर की गठनप्रणाली सब प्रकार से बहुत प्राचीन काल के समान है । मन्दिर के बीच में केवल खिलानयुक्त ऊँची चोटी का विग्रह कक्ष ( कमरा) है और उसके चारों ओर स्तम्भावलि शोभित गोल बरामदा है यह निश्चय ही जैन-मन्दिर है, कारण कि जैन-धर्म के संग हिन्दु-धर्म का जैसा प्रभेद है, हिन्दु मन्दिर के संग इस मन्दिर की विभिन्नता भी वैसी ही विद्यमान है । भारतवर्ष के बहुत से देवार्चक और शैव लोगों की अधिकाई से कारीगरी की हुई मन्दिरावलि के संग इस जन-मंदिर की तुलना करने से अधिक विभिन्नता और इस मन्दिर का सरल गठन तथा अना. डम्बरता दृष्टिगोचर होती है मन्दिर के बहुत प्राचीन होने का उसकी कारीगरी की न्यूनता से ही प्रकट होता है। और इसी सूत्र से हम स्थिर कर सकते हैं कि जिस समय चन्द्रगुप्त के वंशधर सम्प्रति इस प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ राजा थे; (क्राइस्ट के जन्म के दो-सौ वर्ष पहले ) उस समय यह मंदिर बनाया गया है। किंबदन्ति से ज्ञात होता है कि रजवाड़े और सौराष्ट्र में जितने प्राचीन मन्दिर आज तक विद्यमान हैं, वही उन सब के निर्माता हैं । मन्दिर के स्तम्भों का आकार और परिमाण दूसरे मन्दिरों की स्तम्भश्रेणी के समान नहीं हैं, परन् बिल्कुल अलग है । हिन्दू देवमन्दिरों के स्तम्न जिस प्रकार से गठित और स्थूल होते हैं, यह वैसे न होकर पतले तथा नीचे से ऊपर का भाग सूक्ष्म हो गया है। पाठकों के सामने जो जैन-मंदिर उपस्थित हैं वह प्रीक शिल्पकारों के द्वारा बनाया गया है, अथवा राजपूतना के शिल्पकारों ने प्रीक-शल्पिकारों के आदर्श पर इसे बनाया है । इो सत्य व संभव कह कर अनुमान करने से कौतुहल उपस्थित होता है । .... जैनियों के इस मन्दिर में हिंदुओं द्वारा “जीव पितृ" का कृष्ण पाषाण निर्मित खण्ड अन्याय से ही स्थापित कर दिया गया है । यह मन्दिर पर्वत के ऊपर बना हुआ है और वह पर्वत पृष्ठ ही इसका भीत्तिस्वरूप होने से यह काल के कराल दांतों से चूर चूर न होकर अब तक खड़ा है । इसके पास ही जैनियों का एक और पवित्र देवालय दिखाई देता है, किन्तु बिल्कुल दूसरी रीति से बनाया गया है । यह तिमन्जिला बना हुआ है, प्रत्येक मंजिल छोटे २ असंख्य स्थूल स्थम्भों से शोभायमान है, वह सब स्तम्भ खोदे हुए प्राकार के ऊपर स्थापित हैं और स्तम्भों के ऊपर इस प्रकार की छत है कि सूर्य की किरणें उसके भीतर जाकर अन्धकार दूर करने में समर्थ हैं।" सम्राट सम्प्रति का धार्मिक जीवन--- जैन साहित्य में विस्तृत रूप से उल्लेख मिलता है कि एक समय आर्य सुहस्ती उज्जैन नगरी जीवित स्वामी की मूर्ति का दर्शन करने पधारे थे। जब वहां के श्रीसंघ रथयात्रा का वरघोड़ा (जलूम) निकाला तो आर्य सुहस्ती अपने शिष्य मण्डल के साथ जलूस में पधारे चलते चलते राजमहलों के पास आये तो मरोखा में राजा सम्प्रति बैठा था । जलूस को देखते देखते उसकी नजर दिव्य तेजस्वी एवं शान्तमूर्ति आर्य सुहस्तीसूरि की ओर पड़ी राजा ने ज्योंही आचार्यश्री को ध्यान लगा कर देखा त्यों ही उनके हृदय में उन महात्मा के प्रति एकदम भक्ति के भाव पैदा हुये जब उसने विशेष स्मृति की तो जातिस्मरण ज्ञान हो आया और राजा सूरिजी को महान् उपकारी समझ महल से उतर कर नीचे आया और सूरिजी के चरण कमलों में वन्दन कर पूछा क्यों भगवान् ! आप मुझे पहचानते हो ? सूरिजी ने पहिले तो कहा कि राजन् ! आप आवंतिधीश हैं आपको कौन नहीं जानता है। राजा ने १-हिन्दी टाँड राज थान पहला भाग द्वि० ख० अ० २६ पृ. ७२१-२३ । शायद यह मन्दिर राणकपुर का हो जो कमलमेर के किले से नजर आता है। Jain Edu 29 8ternational Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ओसवाल संवत् ११२ आचार्य ककसूर का जीवन ] पुनः पूछा इस पर सूरिजी ने अपने श्रुतज्ञान में उपयोग लगा कर देखा तो अपना शिष्य जान कर कहा कि राजन् ! आपने अपने पूर्व जन्म में जैन दीक्षा ली थी। वास्तव में बात यह बनी थी कि: OVER “आर्य सुहस्तीसूरि के समय एक भयंकर दुष्काल पड़ा था जिसमें जनता को अन्न मिलना दुष्कर हो गया था । एक समय आर्य सुहस्ती के साधु भिक्षा के निमित्त किसी गृहस्थ घर गये थे । साधुओं गृहस्थ के मकान में प्रवेश किया बाद बाहर एक भिक्षुक भी वहाँ आ गया था जब गृहस्थ ने उन साधुत्रों को मष्टान्नादि आहार दिया तो बाहर खड़ा हुआ भिक्षुक देखना था। जब साधु भिक्षा लेकर जाने लगे तो भेक्षुक भी पीछे हो गया और कहने लगा कि हे मुने ! इस भिक्षा में से थोड़ी सी मुझे भी दें कि मैं कई दिनों का भूखा हूँ । इस पर मुनि ने कहा यह कार्य मेरे अधिकार का नहीं है पर मेरे गुरु महाराज के अधिकार का है। बस, वह भिक्षु मुनि के साथ श्रार्य सुहस्ती के पास आया और वही याचना की इस पर सूरिजी ने ऐसे मधुर बचनों से समझाया कि भिक्षुक ने सूरिजी के पास दीक्षा ले ली बस फिर तो था ही क्या नवदीक्षित भिक्षुक के सामने गोचरी के पात्र रख दिये और उसने बहुत दिनों की क्षुधा को भगा देने के इरादे से इतना अधिक भोजन कर लिया कि पूरा पाचन न हो सका । रात्रि में पेट में दर्द इस कदर का हुआ कि जीने की आशा तक छूट गई। जब नूतन साधु की बीमारी की मालूम हुई तो बड़े २ कोटाधीश श्रावक वर्ग तथा साधु और स्वयं आचार्यश्री उसकी व्यावच्च के लिये उपस्थित हुये और उसकी खूब सार संभाल की इस पर उस नवदीक्षित साधु ने सोचा कि अहा ! जैनधर्म कि मेरे जैसे रंक ने केवल जैनधर्म की दीक्षा के नाम से शिर मुंडा कर वेश मात्र धारण किया है जिसमें ही इतने बड़े धनाड्य एवं खुद आचार्य महाराज मेरी इतनी व्यावच्च करते हैं इत्यादि शुद्ध भावना से काल कर मौर्यवंश के राजा कुनाल की कांचनमाला रानी की कुक्ष में जन्म लिया जिसका ही नाम राजा सम्प्रति है । राजा ने कहा भगवान् ! सत्य है मैं आपकी एक दिन की दिक्षा वाला शिष्य हूँ। यह सब राजादि ऋद्धि आपकी कृपा से मिली है । इसको आप स्वीकार कर मुझे कृतार्थ बनावें सूरिजी ने कहा राजन् ! हम forget निर्मन्थों को राज ऋद्धि से कुछ भी प्रयोजन नहीं है जिस जैनधर्म की स्वल्प समय की आराधना से आप इस प्रकार की सुख सम्पत्ति को प्राप्त हुये हैं तो इसको धर्मप्रचार में उपयोग करें कि आपका भविष्य ओर भी कल्याणकारी हो । सूरिजी महाराज के निस्पृही वचन सुन कर राजा का दिल जैनधर्म की ओर विशेष मुक गया और उसी समय राजा सम्प्रति ने सूरिजी के चरण कमलों में वन्दन कर जैनधर्म को स्वीकार कर लिया । पर कई स्थानों पर यह भी लिखा है कि राजा ने आचार्य श्री के स्थान पर जाकर * इतोय अज्जसुहत्थी उज्जेणि जियसामिं वंदओ आगओ रहाणुज्जाणे य हिंडतो राउगणपदेसे रन्ना आलोयण गतेण दिट्टो, ताहे रन्नो ईहपोहं करें तरस जातं (जाइसरणंजातं तहातेण मणुस्सा भणिता-पडिचरह आयरिए कहिं ठितत्ति तेहिं पडिचरिउ कहतं सिरे घिरे ठिता । ताहे तत्थ गंतुं धम्मो णेण सुओ, पुच्छितं धम्मस्स किं फलं ? भणितं "अव्यक्तस्य तु सामाइयस्य राजाति फलं" सो संमंतो हानि (होती ? ) सच्चं भणसि अहं भे कहिं चिट्टि ल्लओ, आयरिएहिं उवउज्जितं दिट्ठेल्लओ ति ताहे सो साबओ जाओ पंचाणुव्वयधारी तसजोव पडिक्कमओ पभावओ समणसंधस्स । "कल्प चूर्णी” www.brary.org २९५ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जैन धर्म स्वीकार किया इसमें ऐसा कोई मतभेद नहीं है । राजा सम्प्रति ने श्राचार्य सुहस्तीसूरि के समीप जैनधर्म स्वीकार किया इसमें सब का एकमत ही हैं । अब हमें यह देखना है कि सम्राट् सम्प्रति ने जैनधर्म स्वीकार करने के बाद संसार में जैनधर्म का किस तरह एवं कहाँ तक प्रचार किया था ? यह बात सम्प्रति से छिपी हुई न थी कि सम्राट् अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर उसका भारत और भारत के बाहर किस प्रकार प्रचार किया था । सम्राट् सम्प्रति यह भी जानता था कि मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त से ही हमारा घराना जैनधर्म का उपासक ही नहीं पर कट्टर प्रचारक रहा है केवल अशोक ने ही बौधधर्म स्वीकार कर उसका प्रचार जोरों से किया था । और बौद्ध धर्म का थोड़े समय में इतना प्रचार हो जाने में दो कारण मुख्य थे एक तो महात्मा बुद्ध का घराना जैनधर्मोपासक था अलावा स्वयं बुद्ध कई अस तक जैनदीक्षित होकर जैनदीक्षा पाली थी । अतः अहिंसा के लिये उनके संस्कार पहिले से ही जमे हुए थे दूसरे वेदान्तियों की यज्ञ सम्बन्धी हिंसा से लोगों को घृणा हो रही थी । श्रतः बुद्ध को नूतन मत का जल्दी ही प्रचार हो गया । फिर भी जैनों के आचरण में जितना अहिंसा का श्रादर्श था उतना बौद्धों का नहीं था क्योंकि आप पहिले अशोक के जीवन में पढ़ चुके हो कि अशोक के बौद्धधर्म स्वीकार कर लेने के बाद भी खुद के लिए दो मयूर और एक मृग की हिंसा प्रतिदिन होती थी जब जैनधर्मोपाशक गृहस्थों के लिये इस बात की सख्त मुमानियत थी । जब हम सम्प्रति के जीवन को देखते हैं उनके जीवन में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है कि उनके लिये कभी किसी जीव की हिंसा हुई हो । कारण, सबसे पहले तो सम्प्रति के पिता कुनाल और माता कांचनदेवी कट्टर जैनधर्म के उपासक थे कि सम्प्रति के जन्म से ही अहिंसा के संस्कार थे और बाद तो आचार्य सुहस्तीसूरि का समागम से उसने जैनधर्म श्रद्धा पूर्वक स्वीकार कर उसका पालन किया । अतः सम्राट् अशोक की अपेक्षा सम्राट् सम्प्रति अहिंसा के लिये खूब चढ़ा बढ़ा हो तो इसमें अतिशयोक्ति एवं आश्चर्य जैसा कुछ भी नहीं है । सम्राट् सम्पति द्वारा जैनधर्म का प्रचार — जैन लेखकों ने अपने ग्रन्थों में राजा सम्प्रति के विषय में खूब ही विस्तार से उल्लेख किया है कि सम्प्रति ने जैनधर्म का प्रचुरता से प्रचार किया था जैन अनुदिवस बहुनि प्राणासत सहस्रानि आरभिसु सुपाथाय सो अज वि यदा अयं थंम लिपी लिखिता ती एवं प्राणा आरमे रे सुपथ यदो मोर एको मिगे से पि च मिगे नो धुवे" संस्कृतानुवाद - देवानं प्रियस्स प्रियदर्शिनः राज्ञः अनुदिवसं बहुनि प्राण शत सहस्राणि आलसत सूपार्थाय तत् इदानिं यदा इयं धर्मलिपिः लिखिता तदा त्रयः एव प्राणा: आलभ्यन्ते द्वौ मयूरौ एकः मृगः सः अपि च मृगः न ध्रुवः हिन्दी अनुवाद - पहिले देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा की पाकशाला में प्रतिदिन कई सौ एवं सहस्र जीव सूप ( शोखा - साक) बनाने के लिये मोरे जाते थे पर अब से जब कि यह धर्मं लेख लिखा जा रहा है केवल तीन जीव मारे जाते हैं अर्थात् दो मोर और एक मृग पर मृग का " अशोक के धर्मलेख गिरनार के लेख से कुछ अंश पृष्ट १०८" मारा जाना नियत नहीं है । Jain Ed२ ९६nternational Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ मंदिरों से मेदनी मंडित कर दी थी । कहा जाता है कि सवा लक्ष नये मन्दिर और सवा करोड़ जिन प्रतिमायें बनवा कर प्रतिष्टा करवाई थी जिसमें ८५००० प्रतिमायें तो सर्वधात की थीं। साठ हजार जीर्ण मन्दिरों का जीर्णोद्धार भी करवाया था । जैनमन्दिरों के अन्दर एक विभाग में तथा मंदिरों के आस पास के प्रदेश में जैन श्रमणों के ठहरने को उपाश्रय भी बनवाये थे; इतना ही क्यों पर सर्व साधारण जनता के हितार्थ तालाब कुए बाग बगीचे सड़के तथा मुसाफिर ठहरने के लिये अनेक मकान भी बनवाये थे । इन के अलावा मनुष्यों के एवं पशुओं की चिकित्सा के लिये औषधालय भी स्थान स्थान पर स्थापित करवा दिये थे विद्या प्रचार के निमित्त विद्यालयों का सर्बत्र प्रचार करवा दिया था। सदाचार एवं धर्म की भावना वृद्धि के लिये राजा की ओर से उपदेशक सब स्थानों पर घूम २ कर उपदेश दिया करते थे। जैन ग्रन्थों में यह भी उल्लेख मिलता है कि सम्राट सम्प्रति ने उज्जैन से एक शत्रुजय तीर्थ का बड़ा भारी संघ निकाला था जिसमें आर्य सुहस्ती आदि ५००० जैनश्रमण श्रमणियें थी। सोना चांदी मणि माणिक की मूर्तियों के साथ कई देरासर भी संघ में थे। इस संघ में कई पांच लक्ष भावुक नरनारियों की संख्या कही जाती है संघ के साथ चलते २ रास्ते में भी सम्राट् ने कई स्थानों पर मन्दिरों की नींव डलवा कर कार्य प्रारम्भ करवा दिया था। इस प्रकार श्री शत्रुजय गिरनारादि तीर्थो की यात्रा कर अन्य लाखों भावुकों कों तीर्थ यात्रा का लाभ दिया था। सम्राट् सम्प्रति ने श्रीशत्रुजय गिरनार आदि का यह एक ही संघ निकाल कर यात्रा की हो, ऐसी बात नहीं है पर उसने अनेक बार इस पुनीत तीर्थ की यात्रा की थी। ऐसा जैनसाहित्य में उल्लेख मिलता है। यही कारण है कि सौराष्ट्र प्रदेश आपको बहुत प्रिय हो गया था । गिरनार की तलेटी में एक सुदर्शन नाम का तालाव जो सम्राट चन्द्रगुप्त ने खुदवाया तया उसका घाट अशोक ने बंधवाया था उसका उद्धार भी सम्राट् सम्प्रति ने करवाया था । देखो वहाँ का शिलालेख ।। सम्राट् सम्प्रति भारत विजय कर लेने के पश्चात् राजकार्यों से निश्चित हो जैनधर्म के प्रचार के लिये सदैव संलग्न रहता था और आप यह भी सोचता रहता था कि भगवान महावीर के समय अनार्य देशो में भी जैनधर्म का प्रचार था। सम्राट् श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार के उद्योग से आद्रकपुर नगर के राजपुत्र पाककुमार ने भगवान महावीर के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा ली थी इत्यादि । सुना जाता है सम्प्रति नामा ऽभूत । स च जात मात्र एव पितामहदत्तराज्ये रथयात्रा प्रवृत श्री आर्य सुहस्ति दर्शनाज्जात जातिस्मृतिः सपादलक्षजिनालयसपादकोटीनवीनर्विवपट्त्रिंशतजीर्णोद्धारपंचनवति सहस्रपित्तलमय प्रतिमाऽनेक शतसहस्रसत्रशालादिभिर्विभूषिता त्रिखंडाम पिमहोमकरोत् । कल्पसूत्र की टीका डाक्टर थोम्स लिखते हैं कि: The multitudinous images of the Maury:s, which were so easily reproduced in the absolute repetitive identity and so largely distributed as part and parcel of the creed itself. The people in Jambudvipa, who had remained unassociated with the Gods, became associated with the Gods. ३८ २५७ For Private & Personali Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कि मेरे प्रपितामह सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी अनार्य देशों में जैनधर्म की जागृति की थी तो मैं इस पवित्र कार्य के लिये चुपचाप बैठ जाऊँ ? यह मेरे लिये उचित नहीं है । अतः मुझे भी इस बात का उद्योग अवश्य करना चाहिये । परन्तु यह कार्य केवल मेरे अकेले के उद्योग से पूर्णतया सफल होना मुश्किल है अतः इसमें जैन साधु भी शामिल किये जायें कि वे अनार्य देशों में जा जा कर जैन धर्म का उपदेश करें इत्यादि । सम्राट् सम्प्रति ने अपने विचारों को अपने गुरु आचार्य सुहस्तीसूरि की सेवा में जाकर निवेदन किया । इस पर आचार्यश्री ने बड़ी खुशी के साथ अपनी सम्मति दे दी और कहा कि यदि आप इस प्रकार जैनधर्म का प्रचार करना चाहते हो तो हम कब पीछे रहने वाले हैं ! हम यथा साध्य सब प्रकार से संयोग देने को तैयार हैं । बस, सूरीश्वर और सम्राट् एक मत हो उज्जैन नगरी में एक श्रमण सभा करने की तैयार की और तत्काल ही उसको कार्य रूप में परिणित करनेको तमाम श्रमणों एवं संघ को आमन्त्रण के लिए सम्राट ने अपने मनुष्यों को भेज दिये जिस आमन्त्रण को पाकर नजदीक ही नहीं पर बहुत दूर दूर से श्रमण संघ और श्राद्ववर्ग भी गहरी तादाद में उज्जैन नगरी में पधार गये । क्यों न आवे एक तो जीवित स्वामी की यात्रा, दूसरे प्राचार्य सुहस्ती जैसे धर्म-धुरंधरों का दर्शन,तीसरे राजा सम्प्रति का आमन्त्रण, चतुर्थ जैनधर्म के प्रचार निमित्त सभा का होना और उसमें यथासाध्य सहायता कर लाभ हासिल करना । जब श्रमणसंघ एवं श्राद्धवर्ग एकत्र होगये तो आचार्य सुहस्तीसूरि की अध्यक्षत्व में सभा हुई श्राचार्यश्री ने भगवान महावीर के धर्म की महत्ता बतलाते हुये राजा श्रेणिक, कोणिक, उदाई, नौनंद मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त, विन्दुसार और अशोक के राजत्वकाल का वर्णन और जैनधर्म के प्रचार के लिए अपनी ओजस्वी बाणी द्वारा इस प्रकार उपदेश दिया कि धर्मप्रचार में मुख्य राजसत्ता की आवश्यकता रहती है कहा भी है कि “यथाराजास्तथाप्रजा" मैं उम्मेद करता हूँ कि सम्राट् सम्प्रति इस कार्य को हाथ में ले तो निस्सन्देह सफलता प्राप्त कर सकते हैं जैसे अशोक ने बोद्धधर्म के प्रचार में सफलता पाई थी। इत्यादि सूरीश्वरजी के उपदेश ने उपस्थित चतुर्विध श्रीसंघ पर इतना जोरदार प्रभाव डाला कि उनकी अन्तरात्मा में धर्म प्रचार निमित्त एक दम बिजली चमक उठी और कहा कि पूज्यवर! आपका कहना सोलह आना सत्य है । कारण इस कार्य के लिये सम्राट सम्प्रति ही भाग्यशाली हैं और वे यदि इस कार्य को अपने हाथों में ले तो आसानी से सफलता प्राप्त कर सकेंगे और हम सब लोग इस पुनीत कार्य में यथा , साध्य सहायता करने को कटिबद्ध तैयार हैं । इत्यादि । सम्राट् सम्प्रति ने खड़े हो कर आचार्यश्री को नमस्कार करके नम्रतापूर्वक अर्ज की कि हे प्रभो ! आपश्री की और चतुर्विध श्रीसंघ की मेरे पर महान कृपा है कि इस कार्य का लाभ मुझे देना चाहते हो जिसको मैं अपना अहो भाग्य समझता हूँ पर इस वृहद् कार्य को सम्पादन करने के लिये केवल मैं अकेला ही समर्थ नहीं हो सकता हूँ। पर इसमें श्रीसंघ एवं विशेष कर आप पूज्य पुरुषों की भी जरूरत है । कारण, उन आनाय देशों में आखिर तो आप श्रमण संघ को पधार कर उपदेश देना पड़ेगा। सूरिजी ने कहा, राजन । श्रापका कहना सत्य है और वहाँ जाने के लिये हम तैयार भी हैं पर सब से पहला यह कार्य आपका है कि पहिले साधुओं के जाने योग्य क्षेत्र तैयार करने का उद्योग करें फिर हम अपने साधुओं को भी भेज देंगे। सूरीश्वरजी के उत्साहवर्धक शब्द सुन कर सम्राट् का उत्साह और भी बढ़ गया और उसने अपने २९८ national Jain Education Yernational Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ सेवकों में से योग्य पुरुषों को जैन धर्म एवं जैन साधुओं के प्राचार विचार क्रिया कांड का ठीक अभ्यास करवा कर उनको साधु के वेश पहना कर अनार्य देशों में भेज दिये और साथ में उनकी सहायता के लिये ऐसे पुरुषों को भी भेज दिये कि उन नकली साधुओं के आवश्यक कार्यों की ठीक व्यवस्था कर सकें। इस प्रकार व्यवस्था करने से उन नकली साधुओं ने अनार्य देश में जाकर उन लोगों को जैनधर्म का प्रतिबोध करना शुरू किया । साथ साथ में जैन साधुओं का आचार व्यवहार भी समझाते रहे कि जैन साधु इस प्रकार से आहार पानी लेते हैं इस प्रकार उनका व्यवहार है इत्यादि । नकली साधुओं के उपदेश से उन अनार्य पुरुषों पर इतना प्रभाव पड़ा कि उनका मानस जैनधर्म की ओर जल्दी से ही मुक गया। कारण, एक तो जैनधर्म के तत्त्व ही हृदयग्राही थे दूसरे जैन साधुओं का श्राचार व्यवहार क्रिया काण्ड रहन सहन और निस्पृहता भी ऐसी थी कि जनता को सहज ही में अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। जब वे अनार्य लोग जैनधर्म के साधुओं के आचार व्यवहार समझने लगे और उनके खानपान में भी बहुत सुधार हो गया तो वे नकली साधु लौटकर सम्राट के पास आये और वहाँ का सब हाल कह सुनाया इस पर सम्राट ने जाकर सूरिजी से प्रार्थना की कि भगवान् ! अनार्य प्रदेश जैनश्रमणों के बिहार करने योग्य बन गया है । कृपा कर आप अपने साधुओं को उस प्रदेश में धर्म प्रचार करने के लिये विहार करने की आज्ञा दीलावे । सूरीश्वरजी ने सम्राट् के वचन सुनकर बड़ी प्रसन्नता पूर्वक अपने साधुओं को अनार्य देशों में विहार करने की आज्ञा देदी । पर वे साधु आजकल के एक प्रान्त में रहने वाले साधुओं जैसे नहीं थे कि अनेक ललकारें फटकारें लगते हुये भी एक ही प्रदेश में अपना अपमानित जीवन गुजार रहे हैं। किन्तु उस समय के साधु जैनधर्म का प्रचार करने में अपना जीवन अर्पण करने वाले थे कि सूरीश्वरजी की आज्ञा होते ही जैसे शेर के बच्चे गर्जना कर गुफा से निकलते हैं उसी भांति बड़े ही उत्साह एवं खुशी के साथ अनार्य देश की ओर विहार कर दिया । हाँ एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में जाने में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। तो अनार्य प्रदेश में जाना तो उन्होंने जानबूझ के ही आपत्तियों को अपना मेहमान बना लिया था । जैसे इस समय सुलभ और परिचित क्षेत्र में भी विहार में नौकर-चाकर एवं रसोइया साथ रहते हैं वैसे उन्होंने नहीं किया था। यदि वे भी ऐसा करते तो जैसा आज के सूरियों का पग पग पर अपमान एवं अनादर होता है, इससे अधिक फायदा वे भी नहीं उठा सकते थे पर उन्होंने तो सब कठिनाइयों को सहन करते हुए अनार्य देशों में जाकर भगवान महावीर के स्याद्वाद एवं अहिंसापरमोधर्मः का सन्देश अनार्यों के घर घर में नहीं पर कान कान तक पहुँचा दिया था। इस कार्य में उन्होंने जैसे अधिक संकटों को सहन किया वैसे लाभ भी अधिकाधिक प्राप्त कर लिया। जब वे अनार्य जैनधर्म के उपासक बन जैनधर्म पालन करने लगे तो वे आर्यों से भी दो कदम आगे बढ़ गये । प्रमाण रूप में जब अनार्य देश में विचरने वाले साधुओं में से कई वापिस सूरिजी के पास आते तब थे वहाँ के अनार्यों के भक्ति भाव का इस प्रकार वर्णन करते थे कि प्रवर्तयामिसाधूनां । सुविहारविधित्सया अन्ध्राधनार्यदेशेषु । यति वेषधारान्भटान् ॥ १५८ ॥ येन व्रत समाचारः । वासना वासितोजनः । अनार्योत्पन्नदानादौ । साधूनां वर्तते सुखम्।। १५९ ॥ चिन्तयित्वेत्थमाकार्याना-नेवमभाषत । भो यथा मद्भटायुष्मान् याचन्ते मामकं करम् ॥ १६० ॥ २९९ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तथा दद्यात तेऽप्यूचुः । कुर्मएवंततोनृपः । तुष्टस्तान् प्रेषयामास । स्वस्थानं स्वभटानपि ॥ १६१ ॥ सत्तपस्त्रि समाचार । दक्षान्कृत्व यथाविधि । प्राहिणोन्नृपतिस्तत्र । बहूँस्तद्वेषधारिणः ॥ १६२ ॥ ते च तत्र गतास्तेषाँ । वदन्त्येवं पुरःस्थिताः । अस्माकमन्नपानादि । प्रदेयंविधिनामुना ॥ १६३ ॥ द्वि चत्वारि शता दोपौर्विशुद्धंयद्भवेपहि । तथैवकल्पतेऽस्माकंवस्त्रपात्रादिकिञ्चन ॥ १६४ ॥ आधाकर्मादयश्चामी, दोषा इत्थं भवन्ति भोः । तच्छुद्धमेव नः सर्वे, प्रदेय सर्व देव हि ॥ १६५॥ न चात्रार्थे वयं भूयो,भण्णिंष्यामः किमप्यहो । स्वबुद्धयास्वत एवोचैर्यतध्वं स्वामी तुष्टये ॥ १६६ ।। इत्यादिभिवचोमस्ते,तथा तासितादृढ़म् । कालेन जज्ञिरेऽनार्य, अप्पार्येभ्यो यथाधिकाः ॥ १६७ ॥ अन्येद्यश्च ततोराज्ञा, सूरयो भणितो यथा । साधवोऽन्ध्रादि देशेषु, किं न वो विहरन्त्यमी ॥ १६८॥ सूरिराह न ते साधु, समाचारं विजानते । राज्ञा चे दृश्यते तावत्, को दृशीतत् प्रतिक्रिया ॥ १६९ ॥ ततो राजापरोधेन, सूरिभिः केऽपि साधवः । प्रेषितो तस्तेषु ते पूर्व, वासानासितत्त्वतः ॥ १७० ॥ साधूनामन्नपान्नादि, सर्वदयी थोचितम् । नीत्या संपादयन्तिस्म, दर्शयन्तोऽति संभ्रमम् ॥ १७१ ॥ सूरीणमन्तिकेऽन्ये, घः साधव समुपागताः । उक्तवन्तो यथानायें, नाममात्रेण केवलम् ॥ १७२ ॥ वस्त्रान्नपानदानादि,व्यवहारेण ते पुनः ! आर्येभ्योऽभ्यधिका एव, प्रतिभान्ति सदैव नः ॥१७३ ॥ तस्मात् सम्पति राजेनाऽनायेदेशा अपिप्रभोः। विहारे योग्यताँ याता सर्वतोऽपि तस्वेिनाम् ॥ १७४ ॥ श्रुत्वैवं साधु वचन, माचार्य सुहस्तिनः । भूयोऽपि प्रेपयामासुर । न्यानन्याँ तपस्विनः ॥ १७५ ॥ ततस्ते भद्रका जातः, साधूना देशनाश्रुतेः । तत् प्रभृत्येव ते सर्वे, निशीथेऽपि यथोहितम् ॥ १७६ ॥ एवं सम्पति राजेन, यतिनाँ संप्रवर्तितः । विहारेऽनायदेशेषु, शासनोन्नतिमिच्छता ॥१७७ ॥ "नक्तत्वभाष्ये" समण भउ भाविएसु तेसुं देसेसुएसणा इहिं । सोहु सुहं विहारियाँ तेणते भद्दया जाया ॥ १७८ ॥ (निशीयचूर्णि) सारांश यह है कि अनार्य देशों में जैन धर्म का प्रचारार्थ सूरिजी के साधु गये थे वे अपने कार्य में अच्छी सफलता पा कर वापिस सुरिजी महाराज के चरणों में आये और वहां का सब हाल सूरिजी से निवेदन करते हुए कहते हैं कि पूज्यवर ! आप के यहां के आर्य तो केवल नाम मात्र के ही जैन एवं श्रावक हैं जब अनार्य देश वासियों की धर्म पर श्रद्धा और साधुओं प्रति भक्ति देखी जाय तो आपके आर्य किसी गिनती में भी नहीं आ सकते हैं । इत्यादि बात भी ठीक है कि नये मनुष्यों का उत्साह ऐसा ही होता है। इनके अलावा आचार्य हेमचन्द्रसरि अपने परिशिष्ट पर्व नामक ग्रन्थ में भी सम्राट सम्प्रति और आचार्य सुहस्तीसूरि का विस्तार से वर्णन किया है जिसको मैं यहां थोड़े से श्लोक उद्धृत कर देता हूँ कि "इतश्च सम्पतिनृपो ययावुज्जयिनी पुरीम्, कदापि क्कापितिष्टन्ति स्वभूमोहिमहीभुजः ॥२३॥ जीवंतस्वामिप्रतिमा रथयात्रों निरीक्षितुम् , आयातावन्यदावन्त्यां महागिरि सुहस्तिनो ॥२४॥ x Jain Edo Onternational Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ गते राजकुलद्वारंरथेऽथपृथिवीपतिः, वातायनस्थितो दूराद् दर्शार्य सुहस्तिनम् ॥२८॥ दध्यौचैमुनीन्द्रोऽयं मन्मनः कुमुदोडुपः, कापिदृष्टइवाभाति न स्मरामितुकिंह्यदः ॥२९॥ एवंविमषकुर्वाणो मूच्छितोन्यपतन्नृपः, आः किमेतदिति वदन्दधावेच परिच्छदः ॥३०॥ व्यजनैर्वीज्यमानश्चसिच्यमानश्चचन्दनैः, जातिस्मरणमासाद्योदस्थादवनिशासनः ॥३१॥ सप्राग्जन्मगुरुं ज्ञात्वा, जातिस्मृत्या सुस्तिनम् , तदैव वन्दितुमगाद्रिस्मृतान्य प्रयोजन ॥३२॥ पञ्जाँगस्पृष्ठ भूपीठः सनत्वार्य सुहस्तिनम् , पप्रच्छ जिनधर्मस्य भगवन्की दशं फलम् ॥३३॥ इनके आगे भिक्षुक के भव में दीक्षा लेना और वहाँ से मर कर कुनाल के पुत्र सम्पति होने का वर्णन है। त्वया प्रब्राजितो न स्याँ तदाहंभगवन्यदि, भगवंस्त्व लसादेन प्राप्तोऽहं पदवी भिमान ॥५॥ पुनविज्ञपयामास सुहस्तिन मिलापतिः, अस्पृष्ट जिनधर्मस्य का गतिः स्यातनोमम ॥५६॥ तदादिशत में किंचित्प्रसीदत करोमि किम्, भवामि नानृणो ऽहं वः पूर्व जन्मोपकारिणम् ॥५७॥ जन्मन्यत्रापि गुरखोयूयं मे पूर्वजन्मवत्, अनुगृह्णीत मा धर्मपुत्रं कर्त्तव्य शिक्षया ॥५८॥ कृपालुरादि देशार्य सुहस्ति भगवान्नृपम् , जिनधर्मं प्रपद्यस्व परत्रेह च शर्मणो ५९॥ स्वर्गः स्याद पवर्गो बामुत्रर्हिददर्मशालिनाम् इह हस्त्यश्व काशादि सम्पदश्चोतरोत्तराः ॥६॥ अभ्यग्रही दथनृपस्तदग्रेतदनुज्ञया, अहेन्देवो मुरुःसाधुः प्रमाणं महतो वचः ॥६१॥ अणुव्रतगुणव्रत शिक्षाव्रतं पवित्रतः । प्रधान श्रावको-जज्ञे सम्बतिस्तत्प्रभृत्यपि ॥६२॥ त्रिसन्ध्यमप्प वन्ध्यर्थी जिना_मर्चति, स्मसः साधर्मिकेषु वात्सल्यं वन्धुष्विवचकार व ॥६३॥ स सर्वदाजीवदया तरङ्गितमनाः सुधीः, अवदानरतोदानं दानेभ्योऽभ्यधिकंददो ॥६४॥ आवैताड्य प्रतापाड्यः स चकारा विकारधी, त्रिखंण्डं भरतक्षेत्रं जिनायतान मण्डितम् ॥६५॥ ___ इसके आगे सम्राट सम्प्रति ने जैन धर्म की प्रभावना की जिसका विस्तृत विवरण है। सम्प्रतिश्चिन्तयामास निशीथ समये ऽन्यदा, अनार्येष्वपि साधूनां बिहारं वतर्याम्यहम् ॥८९॥ इत्यनार्यानादि देशराजा दध्वं कर मम, तथा तथास्मत्पुरुषा मार्गयन्ति यथा यथा ॥६॥ ततः प्रेषीदनार्येषु साधुवेषधरान्नरान्, से सम्प्रत्याज्ञयानार्यानेवमन्वशिषन्भृशम् ॥१॥ सम्राट ने अनार्य देश में अपने सुभट्टों को भेजकर साधुओं के विहार योग्य क्षेत्र तैयार करके साधुओं को भेजे । एवं सम्प्रति राजेन स्वशक्तया बुद्धिगर्भर्या, देशाः साधु बिहाराही अनार्यऽपि चक्ररे ॥१०२॥ राज्ञा प्रग्जन्मरकुलं वीभत्सं स्मरतानिजम्, महासत्राण्य कार्यन्तपूरेषुचतुर्वपि ॥१०॥ सम्प्रति ने नगर के चारों दरवाजे भोजनशाला खुला दी इतना ही क्यों पर नगर के तब व्यापारियों को भी कह दिया कि साधुओं को जिस वस्तु की जरूरत हो तुम दिया करो और उसकी कीमत राज के खजाने से ले जाया करो महा-हा यह कैसी उद्धारता? यह कैसी भक्ति पर यह था जैननिया के आचार से खिलाफ । यही कारण था कि आगे चल कर इसका फल यह हुआ, कि भाय महागिरि और आर्य सुस्तो के आपस में संभोग तुट गया । X x X ३०१ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पार्थिवः सम्प्रतिरपि पालयज श्रावक व्रग्म्, पूर्णायुर्देव्य भूसिर्किं क्रमेणचगमिष्यति ॥१२७॥ "परिशिष्ट पर्व वर्ग ११ वाँ" अहा हा ! धन्य है सम्राट् सम्प्रति और धन्य है उनके गुरु आचार्य सुहस्ती सूरि को कि जिन्हों के हृदय में जैन धर्म प्रचार की इतनी गहरी लग्न थी कि सम्राट ने किस प्रकार से प्राणपण से अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया कि जैनधर्म के प्रचारार्थ अपना तन मन और धन सब लगा दिया तथा उस समय के श्रमणगण किसी प्रकार की आपत्तियों एवं कठिनाइयों की परवाह नहीं करते हुये और अपने प्राणों की बाजी लगा के भी जैन धर्म का प्रचार किया पर परिसहों से डर कर तनिक भी पीछे क़दम नहीं रक्खे एवं जैनधर्म के प्रचार निमित प्राणों को अर्पण कर दिया। जब भारत से लगा कर अबिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, ईरान, यूनान, मिश्र, तिब्बत, चीन, ब्रह्मा, आसाम, लंका, अफ्रीका और अमेरिका तक के प्रदेशों में जैनधर्म का प्रचार हो गया तो इसको चिरस्थायी बना रखने के लिये सम्राट् सम्प्रति ने वहाँ कई जैनमंदिरों का भी निर्माण करवा दिया कि जिससे वहाँ के निवासियों की धर्म पर श्रद्धा सदैव के लिये बनी रहे। __आज उन प्रदेशों में भले ही जैनधर्मापासक न रहे हों पर सम्राट सम्प्रति के बनाये हये मन्दिर मतियों का अस्तित्व तो आज भी विद्यमान है जो खोद काम करते समय भूगर्भ से कई जैन मूर्तियां वगैरह स्मारक चिन्ह उपलब्ध होते हैं जैसे कि: १-आस्ट्रिया-हंगरी प्रान्त के बुडापेस्ट ग्राम के एक किसान के खेत में खोद काम करते समय भूमि से भगवान महावीर की भूर्ति निकली वह आज भी वहाँ के म्यूजियम में सुरक्षित रक्खी हुई है । २-अमेरिका के एक भूभाग से ताम्रमय बड़ा सिद्धचक्रजी का गटा निकला है। ३-मंगोलिया प्रान्त में तो भूगर्भ से इतने जनस्मारक निकले हैं कि एक भारतीय पुरातत्व विद्वान् ने पाश्चात्त्यदेशों की यात्रा की थी और उसने अपनी आंखों से देखा है उसके विषय में एक लेख 'बम्बई समाचार' नामक प्रसिद्ध दैनिक अखबार ता० ४ अगस्त १९३४ के अंक में जैन चर्च शीर्षक से मुद्रित करवाया था जिसमें श्राप लिखते हैं कि एक समय इस प्रान्त में जैनों की घनी बस्ती थी और जैनों के अनेक मंदिर भी वहां थे जिनके कि आज वहाँ कई भग्न मूर्तियों के खण्डहर एवं तौरण वगैरह भूगर्भ से निकलते हैं। मेरा तो यहाँ तक खयाल है कि जैन ग्रन्थों में महाविदेह क्षेत्र का उल्लेख किया है । शायद जैनों का महाविदेह यही हो कि किसी समय यहां जैनों की घन वस्ती थी । इससे भी यही सिद्ध होता है कि आर्यसुहस्तीसूरि और सम्राट् सम्प्रति के समय भारत और भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में भी जैनधर्म का प्रचुरता से प्रचार था । यही कारण है कि आज कल के इतिहासकर कहते हैं एवं अपने ग्रन्थों में लिखते हैं कि एक समय जैन जनता की संख्या ४०८००००. ०० चालीस करोड़ थी। 8 "भारत में पहिले १००.०००००जैन थे। इसी मत से निकल कर लोग अन्य मतों में प्रविष्ट होने लगे। इसी कारण से इनकी संख्या घट गई है। यह धर्म अति प्राचीन है। इस धर्म के नियम सब उत्तम हैं जिनमें देश को असीम लाभ पहुंचा है।" -बाबू कृष्णलाल बनर्जा ३०२ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 29 आष्ट्रीया के अन्तर्गत हींगरी प्रान्त के बुढ़पेस्त नगर के एक गृहस्थ के बगीचा का खुदाई काम करते हुए भूमि से निकली-महावीर की प्राचीन मूर्ति । इतिहास के प्राचीन साधन Jain Education information ADIVATE Parmonalise onld www.lainelibrary.org Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ सम्राट् सम्प्रति ने अपने धर्म प्रचार के हित कितना प्रयता किया होगा, पाठक उपरोक्त लेख से अच्छी तरह समझ गये होंगे । फिर भी वह इतना करके चुप नहीं बैठ गया पर उसने कई पाषाण की चट्टानों पर अपनी आज्ञाओं को अंकित भी करवा दी थीं कि जिससे एक तो जनता हमेशा उसको पढ़ती रहे और अपना जीवन धर्ममय बनाले। दूसरे धर्मलिपियें खुदवाने का मतलब है कि यह चिरकाल रहें जिससे भविष्य की प्रजा भी अपना जीवन धार्मिक कार्यों में व्यतीत करे। सम्राट सम्प्रति ने उन लिपियों में किसी धर्म का नाम न लिखवा कर ऐसे धर्म नियमों को पालन करने का निर्देश किया है कि जिसमें सब धर्मों का समावेश हो सकता है । कारण, जीव हिंसा न करना, झूठ न बोलना, चोरी न करना, सदाचार रखना अपनी मान्यता के अलावा दूसरे के धर्म की निन्दा नहीं करना श्रादि आदि जिसमें किसी धर्मवालों का विरोध हो ही नहीं सकता । यही कारण है कि सम्राट् सम्प्रति के धर्म का जनता पर जल्दी और गहरी तादाद में असर हो गया। सम्राट् सम्प्रति की लिपियां उस जमाने की पाली आदि भाषाओं में हैं कि जिसको साधारण मनुष्य पढ़ कर उसके भाव को नहीं समझ सकता है अतः कई हिन्दी भाषा भाषी सज्जनों ने उन लिपियों का हिन्दी अनुवाद कर दिया है जो अशोक के धर्म लेख के नाम से पुस्तक के रूप में मुद्रित हो चुकी है, उसके अन्दर से कतिपय लेख नमूने के तौर पर यहाँ उद्धृत कर दिये जाते हैं । १-पंचम स्तम्भलेख-देवताओं के प्रिय, प्रियदर्शी राजा ऐसा कहते हैं कि राज्याभिषेक के २६ वें वर्ष बाद मैंने इन प्राणियों का वध करना सब के लिये सर्वदा मना कर दिया है यथा-सुग्गा, मैना, अरुण, चकोर हंस, नान्दीमुख, गेलाट, जतुका (चमगीदड़) अम्बाकर्प लिका, दुडि (कछुवी) बे हड्डी मछली, वेदवेयक ( जीवंजीवक ) गंगापुटक, संकुजमत्स्य, कछुआ, साही, पर्णशश, बारह सिंहा, सांड़, ओकपिण्ड मृग सफेद कबूतर, गाँव के कबूतर और सब तरह के सब चौपाये जो न तो किसी प्रकार उपभोग में आते हैं और न खाये जाते हैं । गाभिन या दूध पिलाती हुई बकरी, भेड़ और सुअरी तथा इनके बच्चों को जो ६ महीने तक के हों न मारना चाहिये । मुर्गों को बधिया न करना चाहिये । जीवित प्राणियों के साथ भूसी को न जलाना चाहिये। अनर्थ करने के लिये या प्राणियों की हिंसा करने के लिये वन में आग न लगानी चाहिये । एक जीव को मार कर दूसरे जीव को न खिलाना चाहिये । प्रति चार चार महीने की तीन ऋतुओं की तीन पूर्णमासी के दिन, पौष मास की पूर्णिमा के दिन, अष्टमि, चतुर्दशी, अमावस्या और प्रतिपदा के दिन तथा प्रत्येक उपवास के दिन मछली न मारना चाहिये न बेचना चाहिये । इन सब दिनों में हाथियों के वन में तथा तालाब में कोई भी दूसरे प्रकार के प्राणी न मारे जाने चाहिये । प्रत्येक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावश्या वा पूर्णिमा तथा पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र के दिन, और प्रत्येक चार चार महीने के त्योहारों के दिन बैल को न दागना चाहिये तथा बकरा, भेड़ा, सुअर और इसी तरह के दूसरे प्राणियों की, जो दागे जाते हैं न दागना चाहिये । पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र के दिन, प्रत्येक चातुर्मास्या की पूर्णिमा के दिन और प्रत्येक चातुर्मास्य के शुक्लपक्ष में घोड़े और बैल को न दागना चाहिये । राज्याभिषेक के बाद २६ वर्ष के अन्दर मैने २५ बार कारागार से लोगों को मुक्त किया है। इस लेख को पढ़ने से इतना तो निश्चय सहज ही में हो सकता है कि इस लेख के लिखाने वाला ३०३ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष | [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चूस्त जैन होना चाहिये । कारण जीवदया के लिये इस प्रकार की आज्ञा देना जैनधर्म का ही सिद्धान्त है दूसरा अष्टमी चतुर्दशी पूर्णिमा और अमावश्या वगैरह तिथियों का उल्लेख किया हैं इन तिथियों को जैन धर्म मे मुख्य मानी है और इन तिथियों में जन लोग पापारंभ से बच कर पौषधादि विशेष धर्माराधन करते है अतः यह कहना न्याय संगत है कि प्रस्तुत लेख सम्राट सम्प्रति की आज्ञा रूप ही समझना चाहिये । हाँ कई लोग इन लेखों को सम्राट् अशोक के भी कहते हैं जो बोद्ध धर्मोपासक था पर सम्राट् अशोक जो बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया था बाद भी उनके खुद के भोजन के लिये दो मयूर और एक मृग तो हमेशा मारे जाते थे उनसे यह आशा कब रखी जासकती है कि इस प्रकार जीवदया के लिये उसने श्राज्ञायें खुदाई हो अतः पूर्वोक्त आज्ञा लेख जैन धर्मोपासक अहिंसा व्रत के पालक एवं प्रचारक सम्राट् सम्प्रति कही है। २ - ब्रह्मगिरिका द्वितीय लघुशिलालेख "धमें" के सिद्धान्त---देवताओं के प्रिय, इस तरह कहते हैं-माता और पिता की सेवा करनी चाहिये । प्राणियों के प्राणों का आदर दृढ़ता के साथ करना चाहिये (अर्थात जीव-हिंसा न करनी चाहिये । सत्य बोलना चाहिये, “धम्म” (धर्म) के गुणों का प्रचार करना चाहिये | इसी प्रकार विद्यार्थी को आचार्य की सेवा करनी चाहिये और अपने जाति भाइयों के प्रति उचित बर्ताव करना चाहिये यही प्राचीन धर्म की रीति है । इससे आयु बढ़ती है और इसी के अनुसार मनुष्य को चलना चाहिये । पड नामक लिपिकार (लेखक) ने यह लेख लिखा है । ३—–देवताओं के प्रियदर्शी सम्राट् कहते हैं: -- प्राचीन काल में हर समय में और गुप्तचरों के समाचारों को सुनने की प्रथा न थी । मैंने इस प्रकार का नियम कर जिस समय में - खाने के समय, विश्राम के समय, शयनागार में, एकान्त में अथवा चारी लोग जिनके ऊपर प्रजा विषयक काय्यों का भार है मुझ से मिल सकते हैं। मैं अपनी प्रजा के सम्बन्ध की सब बातें उन से जान लेता हूँ। मेरी कही हुई शिक्षाओं को मेरे धर्म महामात्र लोग प्रजा से कहते हैं । इस प्रकार मैंने यह आज्ञा दी है कि, जहाँ कहीं धर्मोपदेशकों की सभाओं में मतभेद अथवा मगड़ा हो, उसकी सूचना मुझे सदा मिल जानी चाहिए। क्योंकि, न्याय के प्रबन्ध में जितना भी उद्योग किया जाय कम है । मेरा यह कर्तव्य है कि शिक्षा द्वारा लोगों का उपकार करूं । निरन्तर उद्योग और न्याय का उचित प्रबन्ध ही सर्व साधारण के हित की जड़ है । और इससे अधिक फलदायक कुछ नहीं है । मेरे सब यत्नों का मुख्य उद्देश्य है कि, मैं सर्व साधारण के ऋण मुक्त हो जाऊं । जहाँ तक मुझसे हो सकता है मैं उन्हें सुखी रखने का प्रयत्न करता हूँ। और इस बात का भी प्रयत्न करता हूँ कि, भविष्य में भी स्वर्गसुख प्राप्त करें । भविष्य में मेरे पुत्र और पौत्र भी सर्व साधारण के हित में रत रहें । इसी उद्देश्य से मैंने यह लिपि खुदवाई है । राजकार्य, प्रजाकीय दिया है कि, चाहे बाटिका में वे कर्म - ४ - देवताओं के प्रिय राजाप्रियदर्शी की यह बड़ी इच्छा है कि, सब स्थानों में सब जातियां सुखी रहें | सब लोग समान रीति से इन्द्रियों का दमन करें। और आत्मा को पवित्र बनावें । मनुष्य संसार की बातों में अधीर है । संसारचक्र के कारण वह जितनी बातें कहता है उतनी कर नहीं सकता । फिर भी आंशिक रूप से उसे कर्त्तव्य पालन में रत रहना चाहिए । दान एक श्रेष्ठ धर्म है । लेकिन जो लोग आर्थिक I ३०४ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ हीनता के कारण दान नहीं कर सकते उन्हें संयम चित्तशुद्धि, कृतज्ञता, दृढ़ चिन्तवना आदि गुणों का एकान्त पालन करना चाहिए। ५-देवताओं का प्रिय, प्रियदर्शी सम्राट् कहता है कि प्राचीन समय के राजा लोग अहेरिया के लिए जाया करते थे । अपना जी बहलाने के लिए वे जानवरों का शिकार तथा अन्य इसी प्रकार के खेल किया करते थे । मैं देवताओं का प्रियदर्शी सम्राट अपने राज्य के दशवें वर्ष में इस प्रकार मनोरंजन को बन्द करता हूँ। अब मुझे सत्यज्ञान प्राप्त हो गया है। आज से ब्राह्मणों और श्रमणों की भेंट करना उनको दान देना, वृद्धों से परामर्श करना, द्रव्य बांटना, राज्य में प्रजा से भेंट करना, प्रजाजनों को धार्मिक शिक्षा देना आदि कार्य ही मेरे मनोरञ्जन की सामग्री होगी। इस प्रकार देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी सम्राट अपने भले कामों से उत्पन्न हुए सुखों को भोगता है। ६-देवताओं के प्रिय-प्रियदशी सम्राट् इस के अतिरिक्त और किसी प्रकार की कीर्ति अथवा यशः को पूर्ण नहीं समझता कि, उसकी प्रजा वर्तमान में अथवा भविष्य में उसके धर्म को माने और उसके अनुसार कार्य करे । इसी एक मात्र यश को देवताओं का प्रियदर्शी सम्राट् चाहता है। प्रियदर्शी सम्राट् के सब उद्योग आगामी जीवन में मिलने वाले सुखों तथा जीवन मरण के बन्धनों से मुक्त होने के लिए हैं । क्योंकि जीवन मरण दुख ही सब से बड़ा दुःख है । लेकिन इस दुःख से छुटकारा पाना छोटे और बड़े दोनों ही के लिए कठिन है तब तक कठिन जब तक कि, वे अपने को सब वस्तुओं से अलग करने का दृढ़ उद्योग न करेंगे । खास कर बड़े लोगों के लिए इसका उद्योग करना बड़ा ही कठिन है । (बोधमत में आत्मा को क्षणक माना है अतः परभव का तो वहां आस्तित्व ही नहीं है अतः इस लेख के खुदवाने वाला कट्टर आस्तिक एवं जैन होना चाहिये जो सम्राट सम्प्रति था ) ७-देवताओं केप्रिय, प्रियदर्शीसम्राट् कहते हैं:-धर्म की मित्रता के समान मित्रता, धर्म की भिक्षा के समान भिक्षा,धर्म के सम्बन्ध और धर्म के दान के बराबर दान दुनिया में कोई नहीं है । इसलिए अपने दास और साधारण भृत्यों के प्रति सदय व्यवहार, माता पिता की शुश्रूषा, मित्र, परिचित और जाती का सम्मान, ब्राह्मण और श्रमण लोगों को दान, प्राणियों के प्रति अहिंसाभाव, आदि सत्कार्यों को सम्पन्न करते रहना चाहिये । माता पिता, पुत्र, भ्राता, मित्र, परिचित और जाति के लोगों को यह उपदेश देते रहना चाहिए कि, ये कार्य सत्कार्य हैं-ये मनुष्य के कर्तव्य हैं । जो लोग हमेशा इस प्रकार का आचरण अथवा धर्मदान किया करते हैं वे इस लोक में पूजित एवं परलोक में अनन्त सुख भोगी होते हैं। ८-देवताओं का प्रिय, प्रियदर्शी सम्राट् सब धर्म के लोगों का क्या सन्यासी और क्या गृहस्थउचित सत्कार करता है । वह उन्हें भिक्षा और दूसरे प्रकार के दान देकर सन्तुष्ट करता है । लेकिन प्रियदर्शी सम्राट् इस प्रकार के दानों को उनके धर्माचरणों की उन्नति के सम्मुख कुछ भी नहीं समझता । यद्यपि यह सत्य है कि, मिन्न २ धर्मों में भिन्न २ प्रकार के पुण्य समझे जाते हैं तथापि उन सब का आधार एक ही है। वह श्राधार सुशीलता और सम्भाषण में शान्ति होना है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह कभी अपने धर्म की व्यर्थ प्रशंसा और दूसरों के धर्म की निन्दा न करे। किसी भी व्यक्ति का यह फर्तव्य नहीं है कि वह दूसरों के धर्म को बिना कारण हलका समझे । इसके विपरीत सब लोगों का यह Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ....wwwwwwwwwwwwwwwwwww कर्तव्य होना चाहिए कि दूसरे धर्मों का भी सब अवसरों पर उचित सत्कार करें । इस प्रकार का यत्न करने से मनुष्य दूसरों की सेवा करते हुए भी अपने धर्म की उन्नति कर सकता है । इसके विरुद्ध कार्य करने से मनुष्य न तो अपनी ही भलाई कर सकता है न दूसरों की ही । इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति अपने धर्म की वृद्धि करने के लिए दूसरे धर्मों की निन्दा करता है वह अपने ही हाथों अपने धर्म पर कुठाराघात करता है । सहयोग ही सब से उत्तम वस्तु है । इसी के कारण सब लोग एक दूसरे के मतों को सहन करते हुए प्रेम-पूर्वक समाज में रह सकते हैं । देवताओं के प्रियदर्शी की यह इच्छा है कि सब लोगों को इस ढङ्ग की शिक्षा दी जाय जिससे कि, उनके सिद्धान्त शुद्ध हो । सब धर्म के लोगों को यह बतला देना चाहिये कि देवताओं काप्रियदर्शी सम्राट् दान और बाहरी विधानों की अपेक्षा वास्तविक धर्माचरण की उन्नति और सब धर्मों के पारस्परिक प्रेम को अधिक महत्व देता है । इसी उद्देश्य से धर्म का प्रबंध करने वाले कर्मचारी, निरीक्षक और अन्यान्य कर्मचारी लोग काम करते हैं । इसी का फल मेरे धर्म की उन्नति और धार्मिक दृष्टि से उसका प्रचार है। ९-देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी सम्राट् कहते हैं:- धर्म उत्तम है पर यह पूछा जा सकता है कि धर्म है क्या पदार्थ ? धर्म थोड़ी से थोड़ी बुराई और अधिक से अधिक भलाई करने में है। धर्म दया, दान, सत्य और पवित्र जीवन में है। इसलिए मैंने मनुष्यों, चौपायों, पक्षियों और जल-जन्तुओं के निमित्त सब प्रकार के दान दिये हैं। मैंने उनके हित के लिए बहुत से कार्य किये हैं। यहाँ तक कि उनके पीने के लिए जल का भी प्रबन्ध किया है। मैंने इस उद्देश्य से इस सूचना को खुदवाई है कि जिससे लोग उसके अनुसार चलें और सत्य पथ को ग्रहण करें। यह कार्य बहुत ही उत्तम और प्रशंसनीय है। इनके अलावा भी बहुत-से शिलालेख एवं आज्ञापत्र खुदे हुए भिन्न भिन्न स्थानों में मिले हैं पर स्थानाभाव से उन सबका इहाँ उल्लेख नहीं किया है तथापि पाठक उपरोक्त लेखों से अनुमान कर सकेंगे कि प्रस्तुत धर्म लेखों के खुदाने वाला सम्राट सम्प्रति जैनधर्म का कट्टर अनुयायी था । विशेष विस्तार के लिये डा. त्रि० ले० बड़ोदा वाले का लिखा 'प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास' नामक ग्रंथ पढ़ कर इस विषय की ठीक जानकारी हासिल करें कि प्रस्तुत लेख किस सम्राट् के हैं ? सम्राट सम्प्रति का जीवन जैन ग्रंथकारों ने बहुत विस्तारपूर्वक लिखा है । सम्राट ने अपने जीवन में जैनधर्म का इतना अभ्युदय किया था कि इनके बाद इस प्रकार का किसी ने भी नहीं किया । हां, कुमारपालादि कई राजाओं ने जैनधर्म की समय समय पर उन्नति की, पर वे सम्राट् सम्प्रति की बराबरी नहीं कर पाये थे । सम्राट् सम्प्रति के बाद मौर्य वंश में ऐसा कोई राजा नहीं हुआ कि सम्राट् चन्द्रगुप्त, अशोक और सम्प्रति के राज विस्तार का पूर्णतया रक्षण कर सके । हाँ, सम्प्रति के बाद मगध के सिंहासन पर कुल १९ वर्ष में शलिशुक देववर्मा शतधनु और वृहद्रथ नाम के चार राजा हुए । अन्तिम वृहद्रथ नाम का राजा हुआ जिसके सेनापति पुष्पमित्र ने विश्वासघात से राजा को मार कर आप स्वयं मगध का राजा बन गया था। पुष्पमित्र वैदिक धर्मानुयायी था। इसके हाथ में राज की सत्ता आते ही जैन और बोद्धों के दिन बदल गये । परन्तु कलिंगपति महामेघबहान चक्रवर्ती राजा खारबेल जो कट्टर जैन था, मगध पर आक्रमण कर उनके शिर को अपने पैरों में मुका दिया था जिसका हाल आगे के प्रकरणों में लिखा जायगा। Jain Education 3 fional Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ मौर्य साम्राज्य का समय मोर्य साम्राज्य का समय निश्चित करना एक प्रकार की विकट समीक्षा बन गयी है। इतिहासकारों का इस विषय में एक मत नहीं पर पृथक २ मत है । जैन काल गणना में भी इस विषय का काफी मतभेद है । कई लोगों का मत है कि भगवान महावीर के पश्चात् १५५ वें वर्ष में चन्द्रगुप्त मगध के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। तब कई एकों का मत है कि महावीर निर्वाण के बाद २१० वें वर्ष चन्द्रगुप्त मगध के राजा हुऐ। और कई लोगों का इन दोनों से अलग ही मत है । अतः इन सबों का उल्लेख यहां पर दर्ज कर दिया जाता है । - आचार्य मेरुतुंगसूरि कृत विचारणी पूर्वाचार्य निर्मित तित्थोगाली पइन्नो वीर निव्वाण रयणीओ चंडपज्जोय राय पट्टम्मि । जरयणि सिद्धि गओ, अरहा तित्थंकरो महावीरो । उज्जेणीए जात्रो पालय नामा महाराया ॥ तरयणिमवंतीए अभिसित्तो पालो राया ।। ६२० सट्ठी पालगरायो, पणवन्न संयं तु होइ नन्दाणं । पालग रगणे सट्ठी पुण पणासयं वियाणि णंदाणाम् असयं मुरियाणं तीसञ्चिया पूसमित्तस्स ॥ मुरियाणं सट्ठिसयं पणतीसा पूस भित्ताणाम् ।।३२१ बलमित्त भाणुभित्राण सठ्ठि वरिमाणी चत नहवहणे । बलभित्त भाणुमित्ता सठ्ठा चताय होती नहासणे। तह गद्दभिल्लस्स रज्जं तरेस वासे सगस्स चउ ॥ गद्दभसयमेगं पुण पडिवन्नो तो सगो राया ॥६२२ विक्रम रज्जाणंतर सतरस वासेहिं बच्छर पविती। | पंचयमासा पंचयवासा छच्चेव होति बास सया । सउँपुण पणतीस सय विक्कम कालम्मिय पविट्ठ ।। | परिनिव्वुअस्सऽरिहंतो उपन्नो सगो गया ॥ ६२३ अर्थात उपरोक्त गाथाओं का भाव अर्थात उपरोक्त गाथाओं का भाव पालग का राज ६० वर्ष पालग का राज नौ नंदो का राज नौ नंदो का राज मौर्य वंश का गज मोर्य वंशियों का राज पुष्पमित्र का राज पुष्पमित्र का राज बलमित्र भानुमित्र का राज बलमित्र भानुमित्र का राज नभबाहन का राज नभसैन का राज गर्दभभिल्ल का राज शाकों का राज शाकों का राज विक्रम संवत्-४७० शाक संवत्-६०५ विक्रमादित्य का राज इस तित्थोगाली पाइन्ना की गाथाओं में केवल धर्मादित्य का , शाक संवत् का ही उल्लेख है । पर विक्रम संवत् का भाइल का कहीं पर न जिक्र है और न गणना से ही हिसाब मिलता नाइल का है। हाँ नभसैन के राज का ५ वां वर्ष जाने के बाद विक्रम नाहाड़ का | संवत् माना जाय तो वी०नि० सं० ४७० आ सकता है । पर इसके मानने के लिये कोई भी कारण नहीं शाक संवत-६०५ | पाया जाता है कि संवत् किसने एवं क्यों चलाया। ४० , १४ , ३०७ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ___ ऊपर दी हुई तालिका का यह साराँश है कि 'विचारश्रेणीकार' के मत से नवनंदों का राज १५५ वर्ष का, और पुष्पमित्र का राज ३० वर्ष का है । तव तित्थोगाली पइन्ना का मत से नंदों का राज १५० वर्ष और पुष्पमित्र का राज ३५ वर्ष माना है । इसमें ५ वर्ष का रहोबदल अन्तर होने पर भी हिसाब में फरक नहीं आता है। आगे विचारश्रेणीकार मौर्यवंश का राज १०८ और शकों का १५२ वर्ष बतला कर दोनों का मिला कर २६० वर्ष पुरा किया हैं। तव तित्थोगाली पइन्ना में मोर्यवंश को १६० वर्ष और शकों का १०० वर्ष मान कर २६० वर्ष का हिसाब मिलाया गया है । अतः वी०नि० सं० से शाक संवत् का प्रारम्भ होने में दोनों प्रन्थकारों का एक ही मत है जो ६०५ वर्ष बतलाते हैं । ___ उपरोक्त गणना में खास अन्तर तो मोर्यवंश के राजाओं का ही है । जो विचारश्रेणीकार १०८ वर्ष बताते हैं जब पइन्ना १६० वर्ष का प्रतिपादन करता है । अतः मोर्य राज में ५२ वर्ष का अन्तर पड़ता है। जब मौर्य राजाओं के राज काल की गणना लगाई जाय तो १६० वर्ष का मानना ठीक बैठता है। क्योंकि मौर्य चन्द्रगुप्त ने २४, विन्दुसार ने २५,अशोक ने ४१,सम्प्रति ने ५४ और उनके बाद शालीशुक से वृहद्रथ ने १९ वर्ष राज किया बतलाया जाता है । इन सब की जोडलगाई जाय तो १६३ वर्ष आता है। जो पइन्नो के मत से मिलता जुलता है फिर विचार-श्रेणीकरों ने ५२ वर्ष का अन्तर क्यों डाला होगा। वास्तव में यह भूल मौर्यवंश के राजाओं की नहीं, पर यह भूल नंद वंश के राजाओं के समय की पाई जाती है । कारण आचाय हेमचन्द्रसूरि ने अपने परिशिष्ट पर्व नामक ऐतिहासिक ग्रंथ में लिखा है किः अनन्तरं वद्ध मानस्वामिनिर्वाणवासरात् । गतायाँ पष्ठिवत्सर्यामेष नन्दोऽभवन्नृपः ।। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद ६० वर्ष व्यतीत होने पर मगध के सिंहासन पर नंदवंशीय राजा का राज स्थापित हुआ अर्थात् ६० वर्ष तक शिशुनागवंशी राजा कोणिक और उदाई का राज रहा । बाद में नंद का राज हुआ। अब नन्दों का राजा कहां तक रहा इसके लिये कहते हैं कि एवं च श्रीमहावीर मुक्तर्वर्षशते गते । पञ्चपञ्चाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः ॥ जब १५५ वें वर्ष में मगध के सिंहासन पर चन्द्रगुप्त मोय का राज प्रारम्भ होता है तो ६०-१५५ बीच में ९५ वर्ष रहे । इससे नंदों का राज ९५ वर्ष रहा, जिसको १५० या १५५ वर्ष का मान लेना ही इस अंतर का मूल कारण हो सकता है। इस विषय में कई विद्वान अपनी शोध एवं खोज के बाद इस निर्णय पर आये हैं कि मगध की गद्दी पर नंदों का राज ९५-१०० वर्षों से अधिक नहीं रहा था । उदाहरण यहां पर दर्ज कर दिया जाता है । (१) डा० त्रिभुवनदास लहेरचन्द ने अपने 'प्राचीनभारतवर्ष' नामक पुस्तक में मौर्यवंश के राजा चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक समय इ० स० पू० ३७२ का लिखा है । अतः वी० नि० सं० १५५ का आता है। (२) बंगाल का इतिहासज्ञ बा० नागेन्द्र बसु ने अपने 'वैश्यकाण्ड' नामक पुस्तक में लिखा है कि चन्द्रगुप्त का समय इ० स० पू० ३७५ से शुरु होता है । अर्थात् वीर निर्माण से १५२ वर्ष आता है । (३) श्रीमान् सूर्यनारायणजी व्यास उज्जैनवाले ने एक विस्तृत लेख नागरी प्रचारणी त्रिमासिक पत्रिका वर्ष १६ अंक १ में मुद्रित करवाया है, जिसमें उन्होंने चन्द्रगुप्त का राज समय इ० सं० पू० ३७२ का जैसे हा०त्रिलेल्ने सिद्ध किया है । इससे वि० १५५ वर्ष चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण समय स्थिर होता है। ३०८ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ (४) सिंहली इतिहास के अनुसार सम्राट अशोक का राज्याभिषेक बुद्ध निर्वाण के २१८ वे वर्ष बाद हुआ और सिंहली लोगों की गणना बुद्ध निर्वाण (बोधप्राप्त) ई० पू० ५४३ है इस तरह ५४३ --२१८ = ई० पू० ३२५ में अशोक का राज्याभिषेक मानना पड़ेगा जिससे २४ चन्द्रगुप्त के २५ विन्दुसार के एवं ४९ वर्षों को निकाल दिया जाता है तो ३७४ आता जो वी० नि० सं० १५३ वर्ष कहा जाता है। (५) सुदर्शन विभाश जो चीनी प्रन्थ है, उसमें लिखा है कि अशोक बुद्ध सं० २१८ में राजा हुआ था। चीनी लोग भी सिंहाली गणना के अनुसार ही अपनी संवत् गणना करते हैं। अतः उसका काल ई० पू० ३२५ ही माना जायगा । पूर्ववत् वी० नि० स० १५३ वर्ष आता है। (६) डा० फ्लीट भी अशोक का राज्याभिषेक बुद्ध संवत् २१८ में उपरोक्त प्रगाणों से मानते हैं पूर्ववत् वी०नि० स०१५३ वर्ष आता है। (७) जनरल सर कनिंगहम अपनी पुस्तक ( काँप्से इन्स्क्रोशन्स इन्डीकरम ) की प्रस्तावना पृ० ९ में लिखते हैं कि अशोक का राज्य काल बुद्ध सं० २१५ से २५६ तक ४१ वर्ष तक रहा है । (५४४२१५= ई० पू० ३२९ से ई० पू० २८८ तक ) पूर्ववत् वी० नि० सं० १४९ आता है। (८) ब्राह्मणों के पुराणों में भी नंदों का राजा १०० वर्ष का हो लिखा है अतः पर्व प्रमाणों से नंदों का गज्य ९५ - १०० तक रहा है । ऐसा सिद्ध होता है इनके अलावा एक और भी प्रमाण मिलता है जो कि उपरोक्त मान्यता को परिपुष्ट करता है। अन्तिम नन्द राजा के मन्त्री शकडाल था । जैसे कहा है कि:ततस्त्रिखण्डपृथिवीपतिः पतिरि व श्रियः। समुत्खातद्विषत्कन्दो नन्दोऽभून्नवमो नृपः ।। विशङ्कटः श्रियाँ वासोऽसङ्कटःशकटोधियाम् । शकटाल इति तस्य मन्त्र्यभूत्कल्पकान्वयः ।। इसमें लिखा है कि नौवा नन्द राजा का मन्त्री शकडाल था । उस शकडाल के दो पुत्र थे । स्थुलभद्र और श्रीयक। शकडाल के रहस्य मय हाल कहने से श्रीयक ने शकडाल को मार डाला। नन्द राजाने स्थुलभद्र को मन्त्री पद देने का निश्चय किया पर स्थुलभद्र इस प्रकार मन्त्री पद ग्रहण कर राज के अनेक झगड़ों में पड़ने की अपेक्षा दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करना अच्छा समझा । अतः स्थूलभद्र ने आचार्य संभूतिविजय के पास दीक्षा स्वीकार करली थी। प्राचार्य संभूतिविजय का स्वर्गवास वी० स० १५६ वर्ष में हुआ है । अतः स्थूलभद्र की दीक्षा का समय १५६ वर्ष पूर्व का ही था। और जिस समय स्थलिभद्र की दीक्षा हुई उस समय मगद के सिंहासन पर अन्तिम नंद का राज था अतः आचार्य हेमचन्द्रसूरि का लिखना ठीक साबित होता है । कि वि० १५५ वें वर्ष नंदों का राज समाप्त और मौर्य का राज्य प्रारम्भ हुआ। और यह बात ऊपर के प्रमाणों से सत्य भी कही जा सकती है । एक दूसरा प्रमाण यह भी है कि हम चन्द्रगुप्त का राजरोहण समय २१० का मान लेते हैं । तो हमारे सामने एक बड़ी भारी आफत यह खड़ी हो जाती है कि आर्य सुहस्तीसूरि का युगप्रधान पद वीर निर्वाण से २४५ वर्ष से प्रारम्भ होता है । और ४६ वर्ष युगप्रधान पद पर रह कर वीर नि० सं० २९१ वें * स्थूलभद्रोऽपि गत्वा श्रीसम्भूतिविजयान्ति के । दीक्षाँ सामाषिकोच्चारपूर्विकाँ प्रत्यपाद्यता । ३०९ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ व] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वर्ष में वे स्वर्गवासी हूये थे। आगे हम सम्प्रति का समय को देखते हैं तो आर्य सुहस्तीसूरि के समय सम्प्रति का राजा होना भी भालूम नहीं देता है कारण वि०नि० सं० २१० वर्ष चन्द्रगुप्त का गज प्रारम्भ होता है। सव २४ चन्द्रगुप्त के २५ विन्दुसार के ४१ अशोक के एवं ९० वर्ष मिलाने पर वि०नि०सं० ३०० के बाद सम्पत्ति का राज प्रारम्भ होता है इससे तो आर्यसुहस्तीसूरि ने सम्प्रति को देखा भी न होगा । जो यह बात बिलकुल असम्भव सी प्रतीत होती है कारण राजा सम्प्रति को जैनधर्म की दीक्षा आचार्यसुहस्तीसूरिने ही दी थी और उनके द्वारा कई अनार्य देशों में जैनधर्म का प्रचार भी कराया था। अर्थात् आर्य सुहातीसूरि अपने ४६ वर्ष के युगप्रधान काल में राजा सम्प्रति से जैनधर्म का प्रचार करवाया था । क्योंकि आर्यसुहस्ती सूरि का युगप्रधान समय वीर निर्वाण सं० २४५ का है । तब सम्राट् सम्प्रति का राज्याभिषेक वीर निर्वाण संवत २४५ में हुआ था। इससे २४, २५, ४१ एवं ९० वर्षों के बाद करदें तो भी वीर निर्वाण सं० १५५ नंदों के राज का समय कहा जा सकता है । और प्राचार्य सुहस्ती का स्वर्गवास वी. नि० सं० २९१ में हुआ था। तब सम्राट सम्प्रति का स्वर्गवास वी. नि. सं. : ९९ में हुवा एवं आर्यसुहस्तीसूरि के स्वर्गवास के बाद ८ वर्ष तक सम्राट् सम्प्रति जीवित रहा था। अतः इन प्रमाणों से चन्द्रगुप्त का राज वी० नि० सं० २१० की बजाय १५५ मानना अधिक उपयोगी समझा जा सकता है । उपरोक्त काल गणना से मौर्यवंशी राजाओं के समय तक तो हम ठीक पहुँच सकते हैं कि मौर्यवंशीय राजाओं का राज वी० नि० सं० ३२३ में समाप्त होता है और आगे चल कर मगद के राज का समय गिना जायतो ३० वर्ष पुष्पमित्र का मिला दिया जायतो वी० नि० सं ३५३ वर्ष का श्राता है इसके बाद मगद के सिंहासन पर किस का राज रहा इसको जानने के लिये हमारे पास कोई भी साधन इस समय विद्यमान नहीं है। जब भगवान महावीर के निवार्ण के बाद विक्रम संवत् का प्रारम्भ के लिये हमे चलमित्र भानुमित्र का समय देखना पड़ता है जिसका राज भरूच्छ और उज्जैन में रहा था और ६० वर्ष उन्होंने राज किया था बलमित्र भानुभित्र के समय कालकाचार्य और आपकी बहेन सरस्वती साध्वी की घटना बनी थी जिसका समय जैनपट्टावलियों के आधार पर ४५३ का है यदि इस समय को बलमित्र भानुमित्र के राज का अन्तिम समय भी मान लिया जाय तो उनका राज वी नि० सं० ३९३ से प्रारम्भ होता है जब मगद के पुष्पमित्र का राज वी०नि० ३५३ वर्ष में समाप्त हो चुका था अतः इसमें कम से कम ४० वर्ष का अन्तर तो रही जाता है यदि यह कल्पना की जाय कि बलमित्र भनुमित्र के राज के बाद नभसैनका ४० वर्ष राज रहा था यह बल० भानु० के पूर्व हुआ होतो काल गणना मिल सकती है जैसे ३५३ मगद के राजाओं का ४० नमसैन ६० वर्ष बल० भानु० और १७ वर्ष शाकों का सब मिल कर ४७० वर्ष के बाद विक्रम संवत् प्रारम्भ हुआ है । और आचार्य भेरूँ तुंगसूरि की विचारश्रेणी के मत से '३५ वर्ष शाकों का राज मान लिया जाय तो वी० नि० सं० ६०५ वर्ष से शाक संवत् प्रारम्भ हुआ भी मिल सकता हैं।। परन्तु यहाँ एक बात और भी विचारणीय है कि मगद के सिंहासन पर अन्तिम राजा पुष्पमित्र हुआ उनके बाद मगद की राजधानी पर किसका राज रहा ? इसके लिए तो हमारे पास कोई भी साधन नहीं है कि हम इसका निर्णय कर सकते । तब महावीर के बाद विक्रम संवत् का समय मिलाने के लिये ३१० Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूर का जीवन ] भरुच्छ और उज्जैन के राजा बलमित्र भानुमिश्र का समय मगद के राजाओं के साथ जोड़ दिया जाता है पर बलमित्र भानुमित्र को कहीं परभी मगद के राजा होना नहीं लिखा है खैर यह भी ज्ञात नहीं होता है कि जिस समय मगद के राजा पुष्पमित्र का मृत्यु हुआ उसी समय भरुच्छ में बलमित्र भानुमित्र का राज प्रारम्भ हुआ है। इसका भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता है । अब हम बल मित्र भानुमित्र की और देखते हैं कि इसके पूर्व भरुच्छ में किस राजा का राज था एवं बल० ago किस के उतराधिकारी थे। और मगद के साथ इनका क्या सम्बन्ध था ? कि मगद के राजाओं के साथ इनके राजत्व को जड़ दिया गया था इन बातों के लिये अभी तक कोई भी विश्वासनीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है अतः जब तक इन उलझनों को सुलझाने वाला प्रमाण नहीं मिले वहां तक हम यहाँ पर मगद के राजाओं का ही समय जो उपरोक्त प्रमाणों से स्थिर होता हैं उसको ही यहां पर लिख देते हैं। राजाओं के नाम वीर निर्वाण संवत् ६० वर्ष १०० ११ २४ " " - शिशु नाग वंशी : कोणिक, और उदाई का राज २ - नन्द वंशी नोनन्दों का :- १६, २८, ३, २, २, २, २, २, ४३ ५ ६ ७ र्यवंशी चन्द्रगुप्त का राज " विन्दुसार का राज 22 " 21 " "" "" "2 [ओसवाल संव अशोक का राज सम्प्रति का राज ( कुन्नाल, दशरथ इसके शामिल है ) शालीशुक से - वृहद्रथ तक ४ राजा " इति मौर्यवंशी राजाओं का समय निर्णय " २५, ४१ " ५४ " १९, ३२३ योयोगविद्यया मृत्यु ज्ञात्वा सिद्धाचलंनगम् गत्वाऽनशनात्तत्र, जहौदेहं समाधिना ॥ नेदुदुन्दुभयःरखेच ननृतुश्चाप्सरेगणाः प्रोचुर्जयतदादेवा गुनौतस्मिन देवंगतं ॥ तत्पट्टे श्रीदेवगुप्त सूरयगुणभूरयः, जज्ञिरेयद्यशः शौक्ल्य दूषितोऽगान्नभः शशी ॥ देवगुप्तस्ततः सूरिर्देशं पाञ्चालकं गतः संबोध्यसिद्धपुत्रंच स्वीयंशिष्य चकारसः ॥ , " उपकेशगक्छ चरित्र" ११२ ३११ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्षे ] रण प्रा चार्य देवसूरिजी महाराज एक महान प्रतिभाशाली दया के अवतार क्षमा के सागर जैनधर्म के अद्वितीय प्रचारक महान आचार्य हुये । आपके विषय में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है । कारण आप आचार्य कक्कसूरी के जीवन में पढ़ चुके हैं कि आप श्रीमान् कच्छभूमि के सुपुत्र थे । अर्थात भद्रावती नगरी के राजा शिवदत्त के प्यारे लघु पुत्र थे । आपकी कान्ति की प्रभा मध्यान्ह के सूर्य के समान चारों ओर चमकती थी । आप प्रबल प्रतापी एवं पुरुषार्थी थे आप युवकवय में पदार्पण करने पर भी व्रत पालन करने में मेरू की भांति डग थे । आपके जीवन की परीक्षा एक दिन देवी के द्वार ति लोगों द्वारा हो रही थी पर न जाने आपके पुण्य ने ही श्राचार्य श्री कक्कसूरिजी को मार्ग की करवा कर ह्मचर्यं क M चलाये थे । सूरिजी ने उन घातकी लोगों को उपदेश दे कर देवगुप्त को मरणान्त संकट से बचा कर नूतन जीवन प्रदान किया था। जिस उपकार को कृतज्ञ मनुष्य एक भव में तो क्या पर भवोंभव में भी नहीं भूल सकता यही कारण था कि देवगुप्त ने उसी समय अपना जीवन सूरिजी के चरण कमलों में अर्पण कर दिया था । इतना ही क्यों पर देवगुप्त ने जिस घातकी कुरुढ़िका का अनुभव किया था उसको जड़मूल से नष्ट करदेने का भी दृढ़ संकल्प कर लिया था । क्योंकि जिस प्रकार श्राज "मैं मेरे जीवन से हाथ धो बैठा था उसी प्रकार इन घातकी लोगों ने दूसरे लोगों का प्राण हरण किया होगा । जब मनुष्य की ही यह दशा है तो विचारे निरपराधी मूक पशुओं का तो कहना ही क्या ? एक मनुष्य स्वल्प सुखों के लिए एवं मौज शौक या खाना पीना और भोग-विलास में अपना जीवन नष्ट कर देता है । इसकी बजाय तो ऐसी कुरुड़ियों का उन्मूलन कर अपने भाइयों का संकट दूर करने में जीवन व्यतीत किया जाय तो स्व-पर आत्मा का उद्धार एवं महान् उपकार हो सकता है । अतः मैं यदि मनुष्य हूँ और अपने कर्तव्य को समझता हूँ तो सब से पहिला मेरा कर्तव्य इसी घातक प्रवृति को देश निकाला कर देना ही है और अपनी जननी जन्मभूमि को महान संकट से बचाकर इसका उद्धार करूँ, और अपने भाइयों को पूर्णतः सुखी बनाने में सफल हो जाऊ ं । इस प्रकार की अनेक प्रतिज्ञायें राजकुंवर देवगुप्त ने की और उसी प्रकार से पहिले तो अपनी राज सत्ता से और बाद में तप, संयम, और आत्मसत्ता एवं उपदेश द्वारा कच्छ भूमि का उद्धार किया । अर्थात कच्छ भूमि को अहिंसा एवं जैनधर्म मय बना दिया । वे ही देवगुप्त श्राज आचार्य पद विभूषित हो हजारों साधु साध्वियों के साथ भूमण्डल पर जैनधर्म का प्रचार करते हुये विहार कर रहे हैं । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३१२ - ग्राचार्य देवगुप्तसूरि आचार्योऽथ च देवगुप्त नवमो राजात्मजो विज्ञराट् । कुर्वन् जैनमत प्रचार मनिशं पाञ्चाल देशं गतः || आचार्याय सिद्ध पुत्र विजयी शिष्येभ्य आज्ञां ददौ । यूयं यात मनस्विनः सुकुशलाः सर्वत्र धर्मेच्छया ॥ कार्य इस प्रकार से धर्म के नाम पर चिरकाल से जमी हुई कुप्रथाओं को एक दम उखेड़ फेंकना कोई साधा'न था, यही कारण थाकि सूरिजी के इन भागीरथ कार्यों में उन धर्म के ठेकेदार पाखण्डियों ने अने Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास Me भगवान पार्श्वनाथ के १० वाँ पट्टधर आचार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वरजी महाराज Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ कोनेक विघ्न उपस्थित किये थे। जिनको सूरिजी ने अपनी सहन शीलता से सहन किया । सूरिजी की सहन शीलता पृथ्वी से भी विशेष थी। क्योंकि कभी कभी पृथ्वी भी अपने धैर्यता को छोड़ कर क्षोभ को प्राप्त हो जाती है। परन्तु सूरिजी अपने पथ से कभी चलायमान नहीं होते थे। हां समुद्र हमेशा अपने गाम्भिर्यादि गुणों से प्रसिद्ध है परन्तु उसके अन्दर भी कभी २ उच्छृङ्खलता आ जाती है । पर सूरिजी के गाम्भिर्यादि गुणों के सामने पाखण्ड सदैव नतमस्तक हो जाते थे । यही कारण है कि सूरिजी महाराज अपने अलौकिक गुणों से या पूर्ण परिश्रम से अपने कृत कार्य में खूब गहरी सफलता प्राप्त कर ली थी। अर्थात् मनुष्य एवं पशु जैसे प्राणियों की बलि को सर्वत्र बन्द करवा कर अहिंसा भगवती का सर्वत्र साम्राज्य स्थापित करवा दिया था । जैसे सूरिजी ने अनेक आचार-पतित लोगों को जैन धर्म की शिक्षा-दीक्षा देकर जैन उपासकों की संख्या में वृद्धी की इसी प्रकार जैन-श्रमण संघ की भी खूब ही वृद्धि की। और उन श्रमणों को पृथक्-पृथक् प्रान्त प्राम एवं नगरों में विहार करवा के जैनधर्म की नाव को मजबूत बना दी थी और आपका प्रचार कार्य हमेशा बढ़ता ही रहता था अत: जिन्हों के हृदय में जैनधर्म का गौरव है उनके लिए ऐसा होना स्वभाविक ही था। ___ एक समय सूरिजी महाराज ने अपने शिष्यों के सहित सिन्ध की ओर विहार किया। जब आपके चरणाविन्द सिन्ध भूमि की ओर हुए तो वहां की जनता में उत्साह का समुद्र उमड़ उठा । जहाँ जहाँ सूरिजी महाराज का पदार्पण होता था वहाँ २ भक्त लोगों का समूह एकत्रित हो जाता था। आपका व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं तत्व-ज्ञानमय होता था कि जिसको सुन कर जनता की आत्मा कल्याण की ओर विशेष जागृत हो जाती थी। एक समय का जिक्र है कि पांचाल देश का एक कर्मशाह नाम का व्यापारी व्यापारार्थ सिन्ध प्रान्त में आया था। जब उसने सुना कि यहां पर जैनाचार्य देवगुप्तसूरिजी अपने विस्तृत शिष्यों के साथ विराजते हैं और हमेशा धर्मोपदेश भी देते हैं अतः वह भी चल कर सूरिजी के व्याख्यान में आया। उस समय व्याख्यान “अहिंसा परमोधर्मः" पर हो रहा था। सूरिजी ने इस प्रकार का व्याख्यान दिया कि कितना ही हिंसक एवं मांस-भक्षी क्यों न हो परन्तु एक वार सूरिजी का व्याख्यान श्रवण कर लिया है उस मनुष्य के हृदय में दया के अंकुर उत्पन्न हुए बिना कभी नहीं रहता था। इसी प्रकार जब कर्माशाह ने सूरिजी का व्याख्यान श्रवण किया और व्याख्यान की समाप्ति के बाद उसने सूरिजी से प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! आपश्री का हमारे देश की ओर पधारना हो तो बहुत उपकार हो सकता है कारण यहां के लोग विशेष मांसाहारी हैं । और उन लोगों को उपदेश भी इसी प्रकार का मिलता है कि हर समय यज्ञ करना और उन यज्ञों में हजारों जीवों की बलि देना । इतना ही क्यों पर अभी कुछ अर्सा से एक सिद्धपुत्र नामक यज्ञाचार्य हमारे यह भ्रमण कर यज्ञ का खूब जोरों से प्रचार कर रहे हैं । और प्रायः राजा, प्रजादि सब लोग उनका मत के अनुयायी भी बन चुके हैं। अब यह भी सुना गया है कि सिद्धपुत्राचार्य सिंध की तरफ भी भ्रमण करने वाले हैं। क्योंकि उसने सुना है कि सिंध में जैनाचार्य यज्ञ प्रथा को बन्द करवा कर जैनधर्म का खूब जोरों से प्रचार कर रहे हैं। इसलिये मेरी आप से यह सविनय प्रार्थना है कि आप एक बार अवश्य पांचाल देश की तरफ विहार करने की कृपा करें। सूरिजी ने कर्माशाह की प्रार्थना को सुन कर कहा ठीक है । देवानुप्रिय ! यदि इस प्रकार का मौका है तो हम लोग भी उनका स्वागत करने को तत्पर हैं । सूरिजी ने अपने श्रमण संघ को बुला कर कर्माशाह ३१३ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष | [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के कथानुसार पंचाल देश के सत्र हाल पूर्णतय सुना दिया। मुनियों ने सूरिजी से कहा पूज्यवर ? सिद्धपुत्राचार्य का स्वागत यहाँ आने पर किया जाय इसकी बजाय तो वहाँ जाकर ही करना अति उत्तम रहेगा । क्योंकि एक तो हम लोग नये क्षेत्र की स्पर्शना करेंगे। दूसरे साथ २ हमको यह भी विदित हो जायेगा कि हिंसक लोग वहाँ की भोली भाली जनता को किस प्रकार कुमार्ग की तरफ ले जा रहा है । इत्यादि बाद सूरिजी ने सकलसंघ की सम्मति ली और सूरिजी ने अपने शेष साधुओं को सिन्ध में धर्म प्रचार करने की आज्ञा दे दी और आप ५०० शिष्यों को साथ में लेकर पंचाल देश की तरफ विहार करना आरम्भ कर दिया । पूथपती की भांति सूरिजी ने बिहार करते हुए एवं धर्मोपदेश देते हुए क्रमश पंचाल देश में पदार्पण कर 'अहिंसा' का खूब जौरों से उपदेश एवं प्रचार कर रहे थे और आप श्री के प्रभावशाली उपदेश का जनता पर अच्छा असर भी हो रहा था कारण जनता पहले से ही हिंसा से घृणा कर चूकी थी फिर सूरिजी महाराज के उपदेश ने तो और भी कमाल कर दिया । इधर सिद्धपुत्राचार्य ने सुना कि सिन्ध की ओर से एक जैनावार्य हिंसा का प्रचार एवं यज्ञ का निषेध करता हुआ पंचाल की ओर आ रहा हैं अतः यह बात उन से सहन नही हुई अतः वे अपने शिष्यों साथ भ्रमण करते हुए क्रमशः सावत्थी नगरी में आ पहुँचे जो उस समय पंचाल की मुख्य राजधानी थी । इधर आचार्य देवगुप्तसूरि भी अपने ५०० शिष्यों के साथ विहार करते हुए क्रमशः सात्वी नगरी में पधार गये । और अपना व्यख्यान देना शुरू कर दिया । पाठक समझ सकते है कि एक ही स्थान में दो विरोध धर्मवाले प्राचार्य एकत्र हो जाय तो धर्मवाद खड़ा हो जाना एक स्वाभाविक बात है कारण एक ओर तो हिंसामय यज्ञ की पुष्ठी का उपदेश जब दूसरी और अहिंसामय सर्व चराचरजीवों की रक्षा का उपदेश | यही कारण है कि जनता में खासी हलचल मच गई और कई जिज्ञासु इस बात का निर्णय करने के लिये भी उत्सुक बन रहे थे पर यह कार्य साधारण नही था कि सामना व्यक्ति कर सके । धर्मवाद यहां तक बढ़ गया कि जिसकी खबर यहां के राजा के कांनों तक पहुँच गई यद्यपि राजा यज्ञ अनुयायी था पर वह था सत्य का उपासक । राजा ने सोचा की धर्म का विवाद सहज ही में बढ़ जाता है और इस कारण भद्रीक लोग आपस में लड़ घड़ कर अपनी शक्ति का दुरूपयोग कर बैठते है अतः मेरा कर्तव्य है कि मैं दोनों आचार्यों को आमन्त्रण दे कर सन्मानपूर्वक बुलाऊँ और धर्म के विषय में निर्णय के लिये प्रार्थना करू और राजा ने ऐसा ही किया एवं राजा की प्रार्थना को दोनों आचार्यों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया बस । वायु की भांति नगर में सर्वत्र यह बात फैलगई कि कल राजसभा में दोनों धर्म के आचार्यों का शास्त्रार्थ होगा इत्यादि । ठीक समय दोनों आचार्य अपने २ विद्वान् शिष्यों साथ राजसभा में प्रवेश किया और राजा की आज्ञासे योग्य स्थान पर आसन लगाकर बैठ गये । शास्त्रार्थ सुनने के लिए लोग तो पहले से ही उपस्थित हो गये थे और राजा राजमंत्री एवं कर्मचारी लोग यथा स्थान बैठ गये । साधारण जनता से सभा हॉल खचाखच भर गया सब लोग यही उत्कण्ठा कर रहे थे कि देखें क्या शास्त्रार्थ होता है । सर्व शान्तिका साम्राज्य था जनता दोनों श्राचार्यों के सामने टकटकी लगा कर देख रही थी । अतः राजाका श्रादेश होने पर पहला श्राचार्य देवगुप्तसूरि ने अपनी मधुर ध्वनी और गम्भीरतापूर्वक कहा कि संसार में धर्म ही सार है धर्म से ही जीव उच्च पद को एवं सर्व सुख प्राप्त कर सकता है इतना ही Jain Edinternational Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ क्यों पर जन्म मरण के महान् दुःखों से मुक्त होकर अक्षय सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेता है पर पहला धर्म का स्वरूप समझ लेने की परमावश्यकता है। धर्मका मुख्य और प्रधान लक्षण है 'अहिंसा' जहां अहिंसा है वहीं धर्म है और जहां हिंसा है वहां अधर्म है उस अहिंसा का पालन दो प्रकार से हो सकता है १-साधु जो सर्वथा प्रकार से अहिंसा का पालन करते है मन वचन काया से हिंसा नहीं करते दूसरे से करवाते नहीं और हिंसा करने वाले को अच्छा भी नहीं समझते अर्थात् अनुमोदन तक भी नहीं करते है उनका उपदेश भी अहिंसामय होता है । २-दूसरे गृहस्थ जो वे भी सर्वथा अहिंसा के पालक होते हैं पर वे गृहस्थ होने से मर्यादित अहिंसा पालन करते हैं इसमें भी अर्थादडं और अनर्थादंड के भेदों को समझ कर अनर्थादंड हिंसासे सदैव बचते रहता है जब गृहस्थ पने में अनिवार्य कार्यों में जलअग्नि श्रादि कि हिंसा होती है उसको भी वे कम करना या रोकना चाहते हैं तो धर्म के नाम पर हजारों लाखो पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा करना कितना अन्याय है। क्या इस घोर हिंसा से स्वर्ग मोक्ष की आशा रखी जा सकती है ? कदापि नहीं । इस प्रकार की हिंसा तो बिना किसी रोक-टोक के सीधी नरक ले जाती है । इत्यादि अनेक प्रमाण एवं युक्ति द्वारा हिंसा का खण्डन और अहिंसा का प्रतिपादन किया ! जिसको राजा प्रजा ने ध्यान लगा कर सुना ! इस प्रकार सूरिजी के निडरतापूर्वक वचन सुन कर राजाप्रजा सूरिजी के सामने देखने लगे क्योंकि उन्होंने पूर्व ऐसे वचन नहीं सुने थे । अब सिद्धपुत्राचार्य की ओर जयता का ध्यान लग रहा कि वे इसके प्रतिबाद में क्या कहेगा ? - सिद्धपुत्राचार्य ने कहा महात्माजी ? अहिंसा के लिये कोई धर्म इन्कार नहीं करता है अर्थात् 'अहिंसापरमोधर्मः' को सब धर्मवाले मानते है जिसमें भी वेद शास्त्र तो पुकार पुकार कर कहता है कि 'अहिंसा ही परमोधर्मः है पर वेद विहत यज्ञ का आप निषेध करते हो यह ठीक नहीं है कारण यज्ञ यह एक धर्म का मुख्य अंग है इससे विश्व की शान्ति जनता का कल्याण और जिन जीवों की बली दी जाती है उनको स्वर्ग पहुँचा कर सुखी बनाते हैं अतः यज्ञ की हिंसा, हिंसा नहीं पर अहिंसा ही है इत्यादि । देवगुप्तसूरि-जब आपके वेदादि शास्त्र अहिंसा की पुकार करते हैं तब आप उनका पालन क्यों नहीं करते हैं ? अब रहा यज्ञ करना इसके लिये हमारा तो क्या पर किसी धर्मज्ञ पुरुषों का विरोध हो ही नहीं सकता है पर विरोध खास हिंसा का ही है यदि बली देने वाले जीवों को स्वर्ग पहुचाने का ही आपका इष्ट है तो आप स्वयं बली हो स्वर्ग के सुखों का अनुभव क्यो नहीं करते हो बली को तो दूर रहने दीजिये आपके शरीर से एक दो बुन्द खून की बहा कर बली दीजिये फिर आपको ज्ञात होगा कि बलि होने वाले जीव स्वर्ग में जाते हैं या नरक में ? महानुभाव ! स्वर्ग में जाता है समाधिमरण से तब बली दी जीने वाले जीव समाधि से मरते हैं या तड़फ २ कर मरते है ? इस पर आप जरा विचार कीजिये ? सिद्धाचार्य-खैर कुछ भी हो यज्ञ करना तो आप स्वीकार करते हैं और यज्ञ की आहूती में पशुओं की बली देना जरूरी भी है पर ऐसा कौनसा यज्ञ है कि बिना बली दिये यज्ञ हो सकता हो ? देवगुप्तसूरि-क्या अपके महार्षियों के वाक्य आपकी स्मृति में नहीं है कि उन्होंने यज्ञ किस प्रकार से करना कहा है यथा-सत्ययूप. तपअग्नि, कर्मपशु, अहिंसात्राहूति, पुनः जीव रूपी कुण्ड ध्यानरूपी अग्नि पांचों इन्द्रियों के विकार रूपी पशु, तपरूपी तृपण, और अहिंसा रूपी अाहूति से कर्मपुंज को जला कर 394 wwwRewrary.org Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भस्म करना यह शुद्ध पवित्र और भाव यज्ञ है इसके करने से जीवात्मा शुद्ध पवित्र होकर स्वर्गमोक्ष का अधि कारी बन सकता है । इत्यादि ऐसे प्रमाणिक प्रमाणों द्वारा भाव यज्ञ का प्रतिपादन किया कि राजा प्रजा तो क्या पर स्वयं सिद्धपुत्राचार्य सूरिजी के वचन सुन कर विचार करने लगा कि महात्माजी का कहना तो सोलह आना सत्य है जब शास्त्रों में अहिंसा को उच्चासन दिया गया है और साथ में यज्ञ का विधान भी है तो यह दोनों का मेल कैसे खाता है पर महात्माजी के कहने से दोनों का पालन हो सकता है बस ! सत्य के उपासकों के समझ में आने पर असत्य त्यागने में और सत्यग्रहन करने में क्या देर लगती हैं । सिद्धपुत्राचार्य ने अपने अंगीकार किया हुआ मत को असत्य समझ लिया तो सर्प जैसे निर्माल्य कंचूक का त्याग कर देता है वैसे ही सिद्धापुत्रावार्य ने मत्त रूपी ममत्व की फाँस को तोड़ कर कहने लगा कि:महात्माजी ! आप का कहना सत्य है इतना दिन मेरी व्यर्थ भ्रान्ति थी कि पशु बद्ध रूपी यज्ञ करना स्वर्ग एवं मोक्ष का कारण है पर वह भ्रान्ति आज दूर हो गई है यह कदापि नहीं हो सकता है कि घोर हिंसा से कभी किसी की मुक्ति हुई हो या होगी पर आपके कथनानुसार ध्यान एवं तप द्वारा कर्म एवं विषकषाय का नाश करने से ही मोक्ष होती है और यह बात अनुभव सिद्ध भी है । देवगुप्तसूरि-यदि आपकी भ्रान्ति दूर हो गई हो तो आप मत्त एवं वेश वन्धन का त्याग कर अहिंसा धर्म के प्रचारक बन जाइये और जिस प्रकार जनता को उन्मार्ग पर लगाया इसी प्रकार उनको सद्मार्ग पर लाकर अहिंसा के उपासक बनाइये । और इस प्रकार सत्य ग्रहन करने में आत्मार्थी मुमुक्षुओं को न तो दक्षिण्यता रखनी चाहिये और देर ही करनी चाहिए महात्माजी यह अवसर केवल एक आप के लिये ही नहीं है पर पहले भी ऐसे कुछ उदाहरण बन चुके है जैसे इन्द्रभूति, अग्निभूति आदि एकदश यज्ञ नेताओं ने भगवान् महावीर के पास अपने मन की शंकाए का निवारण कर ४४०० ब्राह्मणों के साथ जैनदीक्षा स्वीकार की थी एवं यज्ञ अध्यक्ष शय्यंभव भट्ट जैसे कट्टर यज्ञ बादी ने निर्णय पूर्वक यज्ञ हिंसा को अर्थ का हेतु समझ कर आचार्य प्रभवसूरि के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा को धारण की अतः आप जैसे विद्वान एवं सत्य के उपासक को सोच लेना चाहिये कि धर्म से हो सकता है इत्यादिः - आत्मा का कल्याण किस बस ! इतना कहने की ही देरी थी साहसिक सिद्धपुत्राचार्य ने उसी राज सभा में राजा एवं पूजा के समक्ष मत्त एवं वेश का त्याग कर अपने पांच सौ शिष्यों के साथ सूरिजी के चरण कमलों ने भगवती जैन दीक्षाको अंगीकार करने को तैयार हो गये । आचार्य श्री ने भी उन मुमुक्षुओं को जैनदीक्षा देकर अपने शिष्य बना लिये और कहा कि आप इन उपस्थित जनता को कुछ धर्मोपदेश दें । सिद्धपुत्राचार्य ने सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्य करके राजा और प्रजाको कहा महानुभावों ! आप सब लोगों ने पूज्य सूरीश्वरजी महाराज का उपदेश श्रवण कर ही लिया है इनसे अधिक मैं क्या कह सकता हूँ तथापि मैं मेरे अनुभव की थोड़ी सी बात आप से सुना देता हूँ कि संसार में सच्चा धर्म कहा जाय तो एक अहिंसा परमोधर्मः ही है मैंने जो मत्त एवं वेश का परिवर्तन किया है वह किसी दक्षण्यता एवं स्वार्थ के बस नहीं किया है पर सच्चाई के नाते एवं श्रम कल्याणार्थ ही किया है आप लोग भी समझ सकते हैं कि दूसरे जीवों को कष्ट पहुँचाना भी महापाप है तो हजारों लाखों प्राणियों के प्राणों को नष्ट कर देना में तो धर्म की गन्ध ही कहाँ है हाँ जब लग जीवों के अज्ञान के पड़ल लगे हुए रहते हैं उसको हिताहित Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १९१२ का भान नहीं रहता है जसे थोड़ी दूर पहला मेरा हाल था पर मैं यह तो दावा के साथ कह सकता हूँ कि प्राणवच रूप यज्ञ ईश्वर के वचन नहीं पर किसी मांस भक्षी लोगों ने चलाया है क्योंकि ईश्वर के लिये तो चराचरप्राणि एक से हैं तब वह कैसे हो सकता है कि वे दयालु ईश्वर अनेक जीवों की हिंसा में धर्म बतलावें ? इत्यादि अन्त में आपने फरमाया कि आप अपना कल्याण चाहें तो तत्काल ही अहिंसा रूप धर्म को स्वीकार कर लें। जैसे मैंने किया है. - बस ! फिर तो देरी ही क्या थी कारण जनता पहले से सूरिजी द्वारा प्रमाण एवं युक्तियों सुनकर समझ लिया था एवं घोर हिंसा और पाखण्डियों के अत्याचार से घृणा कर चुकी थी फिर सिद्धपुत्राचार्य जैसे विद्वान ने अहिंसा धर्म को स्वीकार कर लिया । अतः उपस्थित राजा प्रजा आचार्य देवतुप्तसूरि के चरणों में शिर भूका दिया और सूरिजी ने वासक्षेप के एवं मंत्रों के विधि विधान से उन सब की शुद्धि कर जैन धर्म में दीक्षित किये । मुनि सिद्धपुत्र पहले से ही विद्वान था फिर सूरिजी के चरण कमलों में रहकर जैनागमों का खूब श्रध्ययन कर लिया और पंचाल की भूमि में भ्रमन कर अहिंसा एवं जैनधर्म का खूब प्रचार किया । आचार्य देवगुप्तसूरि ने सिद्धपुत्रकों सर्वगुण सम्पन्न जानकर श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक आचार्य पद पर स्थापन कर उनका नाम सिद्धसूरि रक्ख दिया और उनके साथ ५०० साधुत्रों को देकर पंचालादि देशों में विहार करने की आशा दे दी और आप अपने शिष्यों के साथ हस्तनापुर शोरीपुर माथुरादि कल्याणक भूमियों की यात्रा करते हुए मरुधर की और बिहार कर दिया । जब घरवासियों को इस बात की खबर मिली कि आचार्य देवगुप्तसूरी मरूधर की और पधार इस बात की खुशियें मनाई जा रही थी लग गई। रहे है तो उन्हों का उत्साह खूब बढ़ गया सम्पूर्ण मण्डल में और प्रत्येक प्राम नगर में सूरिजी की स्वागत की तैयारियें अहाहा - उस जमाना में जनता की धर्म पर कितनी श्रद्धा रूची और उत्साह था और आत्म कल्याण करने की कैसी लग्न थी ? जिसका अनुमान इन बातों से लगाया जा सकता हैं कि वे लोग बड़े उत्साह एवं धर्मप्रेमी एवं मुनियों की पूर्ण भक्ति करते थे । आचार्यदेवगुप्तसूरिजी अपने शिष्य मण्डल के साथ मरूभूमि को पवित्र बनाते हुए भव्य जीवों का उद्धार करते हुए क्रमशः मरूधर के भूषण रूप उपकेशपुर नगर के समीप पधार गये सूरिजी के दर्शन के लिये कोशों तक मनुष्यों का तांता सा लग गया और वहाँ का राजा सारंगदेव आदि श्रीसंघ ने सूरिजीमहाराज का आलीशान स्वागत किया सूरिजी चतुर्विध श्रीसंघ के साथ भगवान महावीर एवं प्रभु पार्श्वनाथ और आचार्य रत्नप्रभसूरि की यात्रा करके उपाश्रय में पधारे और वहाँ मंगलाचारण के पश्चात् थोड़ी पर सारगर्भितनदेशना देते हुए फरमाया कि वास्तव में उपकेशपुर के लोग बड़े ही भाग्यशाली है कि यहाँ आचार्यरत्नप्रभसूरि का शुभागमन हुआ और उन महापुरुषों के उपदेश से राजा उत्पलदेव मंत्री ऊहड़ादि लाखों वीर क्षत्रियों ने मांस मदिरादि दुर्व्यसन को त्याग जैन धर्म स्वीकार किया अत: आज मुझे भी इस तीर्थ रूप क्षेत्र की स्पर्शना का शोभाग्य प्राप्त हुआ हैं इत्यादि: राजा सारंगदेव ने श्री संघ की और से सूरीजी का अभिवादन करते हुए कहा है कि आचार्य रत्नप्रसूरि का तो इस प्रदेश पर महान उपकार हुआ ही है । पर आप श्रीमान हम लोगों पर कृपा कर समय www.janshwary.org ३१ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्षे ] । भगवान् पाश्र्वनाथ को परम्परा का इतिहास समय इस क्षेत्र को पावन करते रहे हैं कि उन महा पुरुषों का लगाया हुआ वृक्ष आज फलाफूला है। भविष्य के लिये भी आशा की जाती है कि आप श्री तथा आपके शिष्यगण इस क्षेत्र को ध्यान में रखते रहेंगे जैसे कि आज आपश्री की शुभ दृष्टि हुई है इत्यादि समय हो जाने से भगवान महावीर और आचार्य रत्नप्रभसूरि की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई । प्राचार्य देवगुप्त सूरि का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं तात्विक विषय पर होता था और श्रोताजन वीर वाणि रूपी सुधारस का पान कर अपनी आत्मा को पावन बनाने में सलग्न थे कारण उपकेशपुर के श्रद्धा सम्पन्न लोग ऐसा सुअवसर हाथों से कब जाने देने वाले थे सूरिजी के विराजने से उपकेशपुर और आस पास के प्रदेश में धर्म की खूब प्रभावना एवं जागृति हुई कई नर नारियों ने संसार त्याग कर सूरीजी के पास दीक्षा ग्रहण की कई मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ भी करवाई इत्यादि । जब सूरिजी महाराज विहार का विचार किया तो राजा सारंगदेव आदि श्रीसंघ ने सूरिजी से चतुर्मास की साग्रह विनती करते हुए प्रार्थना की कि भगवान् । आपश्री के विराजने से यहाँ बहुत लाभ होगा। इस पर सूरीजी महाराज ने लाभालाभ का कारण जान कर श्रीसंव की प्रार्थना को स्वीकार करली बाद सूरिजी उपकेशपुर के आस पास के गाँवों में बिहार कर वहां की जनता को धर्मोपदेश सुनाया तथा अन्यान्य प्रामों में थोड़े थोड़े साधुओं को चतुर्मास करने की आज्ञा दे दी और आप यथा समय उपकेशपुर पधार कर वहां चतुर्मास कर दिया । उपकेशपुर में आज घर घर खुशियां मनाई जा रही हैं क्यों नहीं सूरिजी महाराज का चतुर्मास हो गया। सूरिजी का व्याख्यान जैनागमों का तात्विक दार्शनिक एवं त्याग वैराग्य पर इस प्रकार होता था कि श्रवण करने वालों को बड़ा ही श्रानन्द आता था इतना ही क्यों पर कई लोगों को तो इतना वैराग्य हो आया कि ये संसार के बन्धनों को छोड़ सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेकर अपना कल्याण करने को भी तैयार हो गये । हाँ जिनके शेष थोड़े ही कर्म रहे हो उनके लिये ऐसा होना स्वभाविक ही है। राजा सारंगदेव ने जिनमन्दिरों में आष्टान्हिका महोत्सव करवाये चतुर्मास के चारो मास में अमरी पहड़ा वजवादिया कि कोई भी व्यक्ति जीव हिंसा शिकारादि नहीं कर सके तथा नागरिक लोगों ने भी अनेक प्रकार से सूरिजी के उपदेश से धर्म कार्य साधन कर अपना कल्याण किया बहुत से जैनेत्तर लोगों ने सूरिजी का सत्योपदेश श्रवण कर मिथ्या मत का त्याग कर जैनधर्म को स्वीकार किया इत्यादि जैनधर्म की खूब उन्नति हुई । जब चतुर्मास समाप्त हो गया तो कई ५० नरनारियों ने सूरिजी के पास भगवती जैन दीक्षा स्वीकार की जिसका महोत्सव राजा सारंगदेवादि श्री संघ ने बड़े ही ठाठ से किया : जनता यह नहीं चाहती थी कि सूरिजी महाराज हमसे पृथक् हो यहां से विहार करे पर साधु धर्म के नियमों के अनुसार सूरिजी महाराज उपकेशपुर से बिहार कर मारवाड़ के प्रत्येक प्रामों में बिहार करते हुए माडव्यपुर बागपुर. मेदनीपुर, रत्नपुर, हर्षपुर, पालिकापुर होते हुए कोरण्टपुर के नजदीक पधारे यों तो आप जहां पधारे वहां श्री संघ ने आपका समारोह से स्वागत किया ही था पर जब इस बात की खबर कोरंटपुर और आसपास के ग्रामों में हुई तो जनता सूरिजी के दर्शनार्थ बहुत दूर दूर तक सामने गई और राजा प्रजा की ओर से आपका आलीशान स्वागत हुआ कोरंटस्थित भगवान महावीर के दर्शन किये और श्रीसंघ को धर्मोपदेश दिया। पाठक पहले पृष्ठों में पढ़ आये हैं कि प्राचार्य रत्नप्रसूरि के लघु गुरु भ्राता कनकप्रभसूरि से Jain Edu 36 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ औसवाल संवत् ११२ एक कोरंटगच्छ रूपी शाखा का जन्म हुआ था कनकप्रभसूरि के पट्टधर प्राचार्य सोमप्रभसूरि थे और आपके पट्टधर आचार्य नन्नप्रभसूरि हुए वे चन्द्रावती के आस पास बिहार करते थे उन्होंने सुना कि कोरंटपुर में आचार्य देवगुप्तसूरि का पधारना हुआ है तो वे भी अपने शिष्यों के परिवार से कोरंटपुर पधारे प्राचार्यदेवगुप्त सूरि अपने शिष्यों के साथ तथा कोरंटपुर का सकल श्रीसंघ सूरिजी के स्वागत के लिये सामने गये और बड़े ही धामधूम से नगर प्रवेश का महोत्सव किया जब व्याख्यान के समय दोनों आचार्य एक तख्तपर विराजमान हुए तो सूर्य और चन्द्र की भांति शोभ रहे थे जिनको देख श्रीसंघ बड़ा ही हर्षित हो रहा था । आहा हा पूर्व जमाने के आचार्यों की कैसी उदारता कितना वात्सल्यभाव और कैसा धर्म स्नेह इसका प्रभाव जनता पर कितना सुन्दर हो रहा था और इस एक दिली से वे शासन का कितना कार्य कर सकते थे उन दोनों के नाम मात्र के ही गच्छ नाम अलग थे पर अन्दर में वे सब एक ही थे और उन्हों का ध्येय एक शामन की उन्नति करने का ही था। दोनों आचार्य कई अर्से तक कोरंटपुर में रहे और जैनधर्म की विशेष वृद्धि एवं उन्नति के लिये कई योजनाएं तैयार की और दोनों ओर के मुनियों को प्रत्येक प्रत्येक प्रांत में बिहार करने की आज्ञाए दी और उन विनयवान मुनियों ने उन आज्ञाओं को शिरोधार्य कर कई कच्छ में कई पंचाल में तो कई सिंध प्रांत की ओर विहार कर जैनधर्म का प्रचार करने में लग गये। उस समय के आचार्य केवल अपनी जमात बढ़ने को ही गृहस्थों को दीक्षा नहीं देते थे पर उनकी लग्न जैनधर्म का सर्वत्र प्रचार करना करवाने की ही थी। कोरंटपुर से बिहार कर सूरिजी चन्द्रावती की ओर पधारे वहां का श्री संघ भी आपका खूब स्वागत किया। जिनवाणि के पीपासु मुमुक्षुओं को सूरिजी महाराज हमेशा धर्मोपदेश देकर उनको मोक्ष मार्ग की ओर खेचते थे कई नरनारियों ने सूरिजी के पास दीक्षा भी ली थी । ___ एक दिन सूरिजी ने पवित्र तीर्थ श्री शत्रुजय का वर्णन करते हुए कहा कि मोक्षमार्ग की साधना में तीर्थ यात्रा भी एक है । जिसमें भी तीर्थों का संघ निकाल चतुर्विध श्रीसंघ को यात्रा करवाना तो महान् लाभ का ही कारण है पूर्व जमाने में बड़े बड़े संघपतियों ने संघ निकाल यात्रा की है इस पुनीत कार्य से कई भव्यों ने तीर्थङ्कर गौत्र भी उपार्जन किये हैं इत्यादि । सूरिजी का प्रभावशाली व्याख्यान सुन कर वहां के संघ में एक जिनदेव नामक श्रद्धासम्पन्न श्रावक उसी व्याख्यान में खड़ा होकर प्रार्थना की कि सूरिजी महाराज के उपदेश से मेरी इच्छा है कि मैं श्री शत्रुञ्जयादितीर्थों की यात्रा के लिये संघ निकालं श्रीसंघ की ओर से मुझे आज्ञा मिलनी चाहिये उस समय और भी कई श्रद्धालुओं की भावना संघ निकालने की थी पर पहली प्रार्थना जिनदेव की थी अतः श्रीसंघ ने उनको ही आदेश दिया बस, फिर तो था ही क्या जिनदेव ने खुले दिल से द्रव्य द्वारा संघ की तैयारी करना प्रारम्भ कर दिया देश विदेश में आमन्त्रण पत्रिकाए भेजवादी आचार्य साधु साध्वियों को विनती की इत्यादि बस । दूर दूर से कई आचार्य एवं साधु साध्वियाँ विहार करके चन्द्रावती की ओर आने लग गये । ___इधर पंचाल की ओर विहार करने वाले आचार्य सिद्धसूरिजी महाराज गुरुवर्य देवगुप्तसूरि के दर्शनार्थ मरूधर में आ रहे थे उन्होंने सुना कि चन्द्रावती से तीर्थों का संघ निकलने वाले हैं और सूरिजी महाराज भी चन्द्रावती में विराजमान हैं अतः वे मी चल कर चन्द्रावती पधार गये। इस प्रकार चन्द्रावती में विशाल संख्या में संघ एकत्र हो गया सूरिजी महाराज का दिया हुआ शुभमुहूर्त फाल्गुण कृष्णा ७ को 390 www.jandiary.org Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० वर्ष २८८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जिनदेव के संघपतित्व में और आचार्य देवगुप्तसूरि के नायकत्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया संघ में ५००० साधु साध्वियों और एक लक्ष भावुक गृहस्थ लोग थे ऐसा पट्टावलियों में लिखा हुआ मिलता है । संघ चलता हुश्रा प्रामोग्राम में पूजा प्रभावना स्वामि वात्सल्य ध्वजरोहण जीर्णोद्धार तथा नये मन्दिरों का निर्माण अभरी पहड़ा और गरीबों को सहायता करता हुआ क्रमशः तीर्थधिराज को नजर से देखते हुए ही हीग पन्ना माणक और मोतियों से बधाया जब संघ सिद्धाचल पहुंचा तो सबका दिल में दादा का दर्शन की उत्कण्ठा लगी हुई थी सूरिजी के साथ चतुर्विध श्रीसंघ ने दर्शन स्पर्शन कर अपना अहोभाग समझा । अहा हा-पूर्व जमाना में लोगों की धर्म पर कैसी अटल श्रद्धा थी जीवन भर में किये हुए पापों को एक यात्रा में भी धो डालते थे विशेषता यह थी कि वे लोग तीर्थों जा कर वापिस आते थे तो फिर पाप नहीं करते थे अर्थात् अपना जीवन साधु की मुवाफिक ही व्यतीत करते थे और ऐसा करने से ही यात्रा सफल और आत्मा का कल्याण होता है ।। श्रीसंघ कई अ6 तक तीर्थ पर रहकर अनेक प्रकार से सुकृत्य कार्य कर लाभ उठाया । आचार्यदेव गुप्रसूरि की भावना तो यहा तक हो गई कि अब शेष जीवन तीर्थधिराज की शीतल छाया में ही गुजारना अच्छा है यह केवल भावना ही नही थी पर आप श्रीसंघ को कह भी दिया कि मेरी इच्छा अभी यहाँ ठहरने की है हाँ जिसकी इच्छा हो वह तीर्थ सेवा कर लाभ उठावे इत्यादि इस पर प्राचार्य सिद्धसूरि वगैरह बहुत से साधु साध्वियें तथा कई भावुक भक्त लोग भी वह ठहरगये और शेष संर वहाँ से रवाना होकर पुनः अपने स्थान पर आगये। आचार्य देवगुप्तसूरि जब अपना अन्त समय नजदीक जाना तो चतुर्विध श्रीसंघ के समीक्ष अपने गच्छ का सर्व अधिकार आचार्य सिद्धसूरि को देकर उनको चतुर्विध श्रीसंघ का नायक बना दिया और आप सलेखना ( तपश्चर्य ) में सलग्न हो गये और अन्तमें २१ दिन का अनशन पूर्वक समाधि के साथ अन्तिम श्वासोश्वस और नाशमान शरीर का त्याग कर अक्षय तृत्तीय के दिन स्वर्ग सिद्धाय । उस समय श्रीसंघ के अन्दर बड़ाभारी रंज हुआ पर इस बात का उपाय भी तो क्या था । आखिर वहाँ उपस्थित आचार्य सिद्धसूरि आदि चतुर्विध श्रीसंघ ने परि निर्वाण काउस्सग्गदि क्रिया की ओर श्रीसंघ ने आप की स्मृति रूप आपका एक विशाल स्तूप भी वहाँ करवाया। आचार्य देवगुप्तसूरि जैन शासन में एक महा प्रभाविक आचार्य हुए आप एक राजा के पुत्र आजीवन ब्रह्मचारी थे कच्छ सिन्ध पांचलादि क्षेत्रों में विहार कर लाखों मांस मदिरा आहारी जीवों की शुद्धि कर उन को जैन धर्म में दीक्षित किये कई मन्दिर मूर्तियों की आपने प्रतिष्टा करवाई कई नरनारियों को दीक्षा देकर उनका उद्धार किया सिद्धपुत्राचार्य जैले यज्ञ प्रचारक को प्रतिबोध कर सिद्धसूरि बनाये इत्यादि आपके उपकार के लिए जैन समाज सदैव के लिए ऋणी है पर इस लोहा की लेखने में इतनी शक्ति कहाँ है कि जिससे आचार्य श्री का सम्पूर्ण जीवन लिखा जाय तथापि कृतज्ञ मनुष्य का खास कर्तव्य है कि जहाँ तक हो सके वहाँ तक उपकारी पुरुषों का उपकार को सदैव स्मरण में रखे । और उनकी वन्दन भक्ति से कृतार्थ बने। बली होते की रक्षा करके सूरि जिसको बनाये थे, देतगुप्त पट्ट नव में होकर झण्डे खूब फहराये थे । कच्छ सोरठ लाट मरुधर पांचाल पावन कराया था, सिद्ध पुत्र को जीतबाद में अपना शिष्य बनाया था। Jain Educa Roternational Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ ७-भगवान महावीर के सातवें पट्ट पर-आचार्य स्थूलभद्रसूरि हुए आप बड़े ही प्रभावशाली थे आपका आदर्श जीवन अनुकरणीय था जैन साहित्य में तो क्या पर संसार भर का साहित्य में आपका श्रासन सर्वोपरि एवं अपूर्व समझा जाता है आपश्री के विषय में पाठक पिच्छले प्रकरणों में पढ़ आये हैं कि पटलीपुत्र नगर में नंदवंशी प्रथम नन्द-नन्दवर्धन राजा के कल्पक नाम का मंत्री था + और वह ब्राह्मण होने पर भी कट्टर जैनधर्मोपासक था आपकी सन्तान परम्परा में शकडाल नामक एक बड़ा भारी बुद्धिमान पुरुष पैदा हुआ वह भी अन्तिम नन्दवंशी राजा पद्मानन्द का मन्त्री था शकडाल मंत्री के स्थूलभद्र और श्रीयक नाम के दो पुत्र और यक्षादि सात पुत्रिये थी आप सकुटुम्ब जैनधर्म पालन करते थे मंत्री शकडाल ने अपने दोनों पुत्रों को और सातों पुत्रियों को विद्याध्ययन करवा कर विद्वान बना दिये थे जिसमें आपकी पुत्रियों ने तो पूर्व जन्म में इस प्रकार ज्ञान का क्षयोपशम किया था कि कोई भी गद्य एवं पद्य पहली पुत्री एक बार सुन लेने पर उसे कण्ठस्थ कर लेती थी एवं दूसरी दो बार तीसरी तीन बार यावत् सातवीं सात बार सुनने पर कोई भी ज्ञान हो शीघ्र ही कण्ठस्थ कर लेती थी अहा-हा उस जमाना में पिता अपने पुत्र पुत्रियों को विद्याध्ययन करवाने में किस प्रकार प्रयत्न करते थे जिसका यह एक ज्वलंत उदाहरण है। मन्त्री शकडाल का बड़ा पुत्र स्थूलभद्र एक रूप लावण्य एवं युवति कैशा नाम की वैश्या का प्रेम में इस प्रकार फंस गया था कि बारह वर्षों में लाखों करोड़ों द्रव्य उसे दे दिया फिर भी वह उस वैश्या से पृथक् होना नहीं चाहता था यह भी एक पूर्व संचित मोहनीय कर्म का प्रबल्योदय ही कहा जा सकता है। राजा नन्द की सभा में एक वररूची नाम का पण्डित आया करता था और वह अपने को शीघ्र +कल्पकः पुनरुत्पन्नानेक पुत्रो धियाँ निधिः । सुचिरं नन्दराजस्य मुद्रा व्यापार मन्वशात । १ । नन्दस्य वंशे कालेन नन्दाः सप्ताभवन्नृपाः । तेषां च मन्त्रणो ऽभूवन्भूयांसः कल्पकान्वयाः । २ । ततस्त्रिरखण्डं पृथिवी पतिः पतिरिव श्रियः । समुत्खात द्विपत्कन्दोनन्दोऽभून्नवमो नृपः। ३ । विशङ्कटः श्रियां वासोऽसङ्कटः शकटो धियाम् । शकटाल इति तस्य मन्व्य भत्कल्पकान्वयः । ४ । तस्य लक्ष्मीवतीनाम लक्ष्मीरिव व पुष्मती । सधर्मचारिण्य भवत्थीलालङ्कार धारिणी । ५ । तयोश्चज्येष्ठतनयो विनयालङ्कतोऽ भवत् । अस्थूलधीः स्थूलभद्रो भद्राकार निशाकरः। ६। भक्ति निष्ठः कनिष्ठोऽभूच्छीयकोनन्दनस्तयोः नन्दराहृदयामन्दानन्द गोशीर्षचन्दनः ।७। पुरेऽभत्तत्रकोशेतिवेश्यारूप श्रियोर्वशी। वशीकृतजगच्चेता बभूव जीवनौषधिः।८ । भुञ्जानोविविधान्भोगान्स्थूलभद्रोदिवानिशम् । उवासवसथे तस्याद्वादशा वब्दानि तन्मनाः । ९ । श्रीयकस्त्वङ्गरक्षोऽभूद्धरिविश्रम्भभाजनम् । द्वितीयमिवहृदयनन्दस्य पृथिवीपतेः । १० । तत्र चासीद्वररुचिर्नामद्विजवराग्रणीः । कवीनांवादिना वैयाकरणनांशिरोमणिः । ११ । स्वयंकृतैर्नव नवैरष्टोत्तरशतेनसः । वृत्तैः प्रवृत्तोऽनुदिनंनृपावलगने सुधीः । १२ । मिथ्यागिति तं मन्त्री प्रशशंस न जातुचित् । तुष्टोऽप्यस्मैतुष्टिदानं नददौ नृपतिस्ततः ।१३ । ज्ञात्वा वररुचिस्तत्रदानापापण कारणम् । आराधयीतुमारेभेगृहिणीं तस्य मन्त्रिणः । १४ । आगे वर रूची का विस्तार से सम्बन्ध लिखा है श्लोक ४८ तक है। Jain Education national www.३२%ary.org Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कवि होना भी बतलाता था प्रतिदिन राज सभा में १०८ नये काव्य बना कर राजा को सुनाया करता था जिससे खुश हो कर राजा उसको पुष्कल द्रव्य भी देता था और सबलोग उसकी प्रशंसा भी किया करते थे पर शकडाल उसको मिथ्यात्वी समझ कर उसकी प्रशंसा नहीं करता था । मंत्री शकडाल को यह भी ज्ञात हो गया कि वररुची की कविता मौलीक नहीं है पर यह कविताएं किसी अन्य विद्वानों की बनाई हुई है । वररुची तो केवल उनका छायावाद एवं अनुकरण करके राजा की अनभिज्ञता का लाभ उठाता है पर मैं राजा का नमक खाता हूँ तो मेरा कर्तव्य है कि मैं राजा को इस बात से जानकार कर दूं । एक समय शकडाल ने राजा नन्द से कहा कि वररुची की कविताएँ नयी एवं मौलीक नहीं पर विद्वानों का अनुकरण है विश्वास के लिये मंत्री ने अपनी पुत्रियों को राजा के पास बुलवा कर वे ही कविताएँ राजा को विश्वास हो गया कि मन्त्री का कहना सत्य है इस कारण राजा ने कर दिया । इस पर वररुची समझ तो गया कि यह सब कारस्तानी मन्त्री शकडाल फुसलाने के लिये वररुची ने एक नयी युक्ति निकाली कि वह गंगा के अन्दर गुप्त सुवर्ण मुद्रिका दाट दिया करता था और बाद जनता के सामने गंगा को अपनी कविता सुना कर द्रश्य की याचना कर पानी में जाकर वे दाटी हुए मुद्रिकाएँ ले आता और लोगों को कहता कि यदि राजा ने मुझे द्रव्य देना बन्ध कर दिया तो क्या हुष्प्रा मुझे तो गङ्गा माता देती है । कडाल इस बात का भी पता लगा लिया जब वररुची मुद्रिकाए गंगा में दाट आया तो शकडाल ने किसी चतुर मनुष्य द्वारा वे मुद्रिका वररुची के ये पहला ही मंगवा ली बाद वररुची आकर गंगा को कविता सुना दी एवं प्रार्थना कर पानी में गया पर मुद्रिका नहीं मिली अतः जनता को वररूची पर अविश्वास होने लगा । इस हालत में वररुची का मंत्री पर अधिक द्वेष बढ़ गया और वह ऐसे अवसर की ताक में फिरता था कि मंत्री शकडाल से मैं मेरा बदला लुं । पर शकडाल के लिये ऐसा कोई मौका ही नहीं मिला । रीति से जाकर ५०० मंत्री शकडाल के पुत्र श्रीयक के विवाह के दिन नजदीक आ रहे थे तो मंत्री ने विचार किया कि इस अवसर पर दरबार को अपने मकान पर बुलाकर राजाओं के योग्य शस्त्र एवं अस्त्र की भेट की जाय तो यह अच्छा मौका है अतः मंत्री ने बहुत बढ़िया २ शस्त्र अस्त्र तैयार करवाये । इस बात का पता वररुची को लगा तो उसने अपना बदला लेने का अच्छा मौका समझ लिया उसने सोचा कि यदि मैं दरबार के पास जाकर कहूँगा तो दरबार मेरी बात को नहीं मानेगा क्योंकि मुझे मंत्री का द्वेषी समझ लेगा अतः उसने पाठशाला के विद्यार्थियों को + एकत्र कर उन्हें खूब मिष्टानादि पदार्थ खीला कर कहा कि विद्यार्थियों तुम जानते हो कि मंत्री शकडाल तुमारे नगर के राजा नंद को मार कर अपने पुत्र श्रीयक जो उसको तुम अच्छी तरह से जानते हो' को राजा बनाना चाहते हैं यदि तुम अपने राजा के हितैषी एवं शुभचिंतक हो तो इस बात को सम्पूर्ण नगर के कौने कौन में शीघ्र ही फैला दो कि राजा का प्राण बच जाय जिससे तुमको इनाम भी मिलेगा ? पर मेरा नाम नहीं लेना नहीं तो मंत्री मुझे भी मार डालेगा ? राजा को सुना दी अतः वररुची को द्रव्य देना बन्द की है पर राजा को + समासाद्य बलज्ञस्तक्षलंवररुचिस्ततः । चणकादि प्रदायेति डिम्भरुपाण्य पाठयत् ॥ ४९ ॥ न वेतिराजा यदसौ शकटालः करिष्यति । व्यापाद्यनन्दं तद्राज्ये श्रीयकंस्थापयिष्यति ॥ ५० ॥ स्थानेस्थाने पठन्तिस्स डिम्भा एवं दिने दिने । जनश्रु त्यातदश्रौषीदिति चाचिन्तयन्नृपः ॥ ५१ ॥ 1 Jain Educatic national Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ParasurANAVRANVANATAPATRAWAT TATARAMIRRIVINATANTRA Ramayanmummy स्थुलिभद्र कैसा वैश्या के साथ सुख से रहता है। . पृष्ठ ३२१ स्थुलिभद्र वैश्या और मंत्री पद को ठुकरा कर दीक्षा ली और वैश्या के वहां चतुर्मास कर उसको प्रतिबोध दिया राजानन्द की सभा में श्रियक अपने पिता शकडाल को तलवार से मारडाला पृष्ठ ३२३ रथिक ने अंबलं तोड़ना और वैश्या का सरसप पर नत्य करना पृष्ठ ३२७ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ बस ! उन अबोध लड़कों ने वररूची का कहना स्वीकार कर लिया और उस बात को नगर में फैला दी । जब यह बात राजा के कानों तक पहुंची तो राजा को मंत्री पर बड़ा भारी गुस्सा आया । दूसरे दिन जब मंत्री सभा में आया तो राजा ने आंख उठाकर उसके सामने भी नहीं देखा मंत्री चतुर था वह समझ गया कि आज राजा नाराज है खैर सभा विसर्जन हुई । मंत्री अपने घर पर जाकर सोचने लगा कि राजा की नाराजी का कारण क्या है मैंने कोई अपराध तो किया ही नहीं है इत्यादि । इधर वररूची ने सभा का हाल सुन कर विचार किया कि ठीक हुआ राजा शकडाल पर नाराज है और वह क्रोध के मारा अन्ध बन कर अपना भांन भुल गया है अतः अब राजा के पास चलना चाहिये । वररुची राजा के पास गया और इधर उधर की बातें करते हुए मंत्री की बात भी निकाली। पररूची ने कहा राजन् ! केवल अफवाह पर विश्वास नहीं करना चाहिये ? आप अपने गुप्ताचरों को भेजकर निर्णय करवा लीजिये १ राजा ने अपने गुप्ताचरों को भेजे और वे जाकर नये बने हुए रास्त्र देख आये और राजा से सब हाल कह दिये । इस पर राजा ने सोचा कि आखिर मंत्री तो बड़ा ही कपटी एवं नमक हरामी ही निकला । अच्छा हुआ कि वररुची ने मुझे ठीक सावधान कर दिया वरना मैं राकडाल के हाथों से एक दिन जरूर मारा जाता। अब तो राजा का द्वष मंत्री पर और भी अधिक हो गया। और मंत्री ने भी इस बात को जान ली कि राजा मेरे पर सख्त नाराज है कभी ऐसा समय न आ जाय के मेरे सब कुटम्ब का ही नाश कर दे इस विचार से मंत्री अपने पुत्र श्रीयक से कहा कि कल मैं राज सभा में जाकर तलपुट नामक विष भक्षण करूँगा उस समय तू राज सभा में आकर तलवार से मेरा शिर उड़ा ना । श्रीयक ने कहा कि पिताजी! आप क्या बात करते हो क्या पुत्र ही अपने पिता का शिर काट सक्ता है? मंत्री ने कहा कि हाँ ऐसा मौका आता है तो पुत्र पिता का भी शिर काट सकता है और इसमें ही सब कुटम्ब का भला है अर्थात् मंत्री ने अपने पुत्र को सब बात ठीक तौर पर समझा दी और वह बात श्रीयक के समझ हालका यच भाषन्ते भाषन्ते यच्च योषितः । उत्पातकी च या भाषा सा भवत्यन्यथानहि ॥५२॥ त्प्रत्ययार्थ राज्ञाथ प्रेषितोमन्त्रिवेश्मनि । पुरुषः सर्व मागत्य यथा दृष्टं व्यजिज्ञपत् ॥५३॥ तश्च सेवावसरे मन्त्रिणः समुपेयुषः । प्रणामं कुवेतो राजा कोपात्तस्थौ पराङ्मुखः ॥५४॥ द्भावज्ञोऽथ वेश्मैत्यामात्यः श्रीयकमब्रवीत् । राज्ञोऽस्मि शोपितः केनाप्य भक्तो विद्विपन्निव ॥५५॥ सावकस्माद स्माकं कुलक्षय उपस्थितः । रक्ष्यते वत्स कुरूपे यद्यादेशमिमं मम ॥५६॥ मियामियदाराज्ञ शिरश्चिन्धास्त दासिना । अभक्तः स्वामिनो वध्यः पितापीति वदेस्ततः ॥७॥ येयासौ मयि जरसाप्येवं याते परासुताम् । त्वं मत्कुल गृहस्तम्भोभविष्यसिचिरंततः ॥५८॥ यकोऽपिरुदन्ने वमवदद्गद्गदस्वरम् । तातघारैमिदंकर्म श्वपचोऽपि करोति किम् ।। ५९॥ मात्योऽप्यब्रवी देवमेवं कुर्वन्विचारणम् । मनोरथान्पूरयसि वैरिणामेव केवलम् ॥६०॥ राजा यम इवोदण्डः सकुटुम्बं निहन्तिमाम् । यावत्ता वन्ममैकस्य क्षयारक्ष कुटुम्बकम् ॥६१॥ खेत्रिपंतालपुटं न्यस्य नस्यामि भूपतिम् । शिरः परासोमछिन्द्याः पितृहत्यानते ततः ॥६२॥ त्रैवं बोधितस्तत्स प्रतिपेदे चकारच । शुभोदायधीमन्तः कुर्वन्त्यापातदारुणम् ॥६३।। ३२३ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास में भी आ गई बस । मंत्री राज सभा में जाकर विष भक्षण कर लिया बाद थोड़े समय से श्रीयक आया और तलवार निकाल कर अपने पिता शकडाल का भरी सभा में शिर उड़ा दिया इस पर राजा ने पूछा श्रीयक यह तुम ने क्या किया ?x श्रीयक ने कहा कि ऐसा पिता जीवित रहने में क्या लाभ कि जो अपने स्वामी का अहित एवं मृत्यु चाहता हो ? इस वचन को सुनकर राजा श्रीयक पर बहुत संतुष्ट होकर कहा कि खैर यह तुम्हारे घराना का मंत्री पद है जिसको तुम पहन कर मन्त्री पदको शोभाइये। श्रीयक ने कहा मेरा बड़ा भाई स्थूलभद्र है जो आज १२ वर्षों से कैशा वैश्या के वहाँ रहता है यदि आप मन्त्री पद देना चाहें तो उनको बुला कर दीजिये क्योंकि वृद्ध भ्राता के होते हुए मुझे मन्त्री पद शोभा नहीं देता है इत्यादिः राजा ने स्थूलभद्र को बुला कर मंत्री पद ग्रहण करने के लिये कहा उत्तर में स्थूलभद्र ने कहा कि मैं कुछ विचार कर उत्तर दूंगा राजा ने कहा । ठीक ! स्थूलभद्र नगर के बाहर अशोक बगीचा में जाकर विचार करने लगा कि जैसे मैं मंत्री बन कर सब राज की खटपट करने में उद्योग करू वैसे यदि आत्मकल्याण के लिये दीक्षा ले कर पुरुषार्थ करूं तो मेरे किये हुए पापों का नाश हो और मैं सद्गति का अधिकारी बन सकता हूँ इस मंत्री पद के कारण ही तो मेरे पिता अकाल में काल कवलित बन चुके हैं। अतः मैं अब राजसभा में जाकर धर्मलाभ ही दूँ । बस, वहीं पर पंचमुष्ठी लोच कर रत्नकम्बल का रजोहरण बना कर साधु के वेश से राजसभा में गया और वहाँ जाकर 'धर्मलाभ' दिया जिसको देख कर राजा और राजकर्मचारी आश्चर्य में मंत्र मुग्ध बन गये कारण जिस स्थूलभद्र को मंत्री देखने की प्रतिक्षा कर रहे xभवता किमिदं वत्स विहितं कर्म दुष्करणम् । ससम्भ्रममिति प्रोक्तो नृपेण श्रयिकोऽवदत् ॥६४॥ यदैव स्वामिना ज्ञातो द्रोह्ययं निहतस्तदा । भत चित्तानुसारेण भृत्यानां हि प्रवर्तनम् ॥६५॥ भृत्यानां युज्यते दोषे स्वयं ज्ञाते विचारणा । स्वामिज्ञाते प्रतीकारो युज्यते न विचारणा ॥६६॥ कृतौ देहिकंनन्दस्ततः श्रीयकमब्रवीत । सर्व व्यापार सहिता मुद्रयं गृह्यतामिति ॥६७॥ अथ विज्ञपयामास प्रणम्य श्रीयको नृपम् । स्थूलभद्राभिधानोऽस्तिपितृतुल्यो ममाग्रजः ॥६८॥ पितृप्रसादानिधिकोशायास्तुनिकेतने । भोगानुपभुञानस्यतस्याब्दा द्वादशागमन् ॥६९॥ आहूयाथस्थूलभद्रस्तमर्थ भभुजोदितः । पर्यालोच्यामुमथं तु करिष्यामीत्यभाषत् ॥७॥ अद्यैवालोचयेत्युक्तः स्थूलभद्रोमहीभुजा। अशोकवनिकांगत्वा विममर्शेति चेतसा ॥७१॥ शयनं भोजनं स्नानमन्येऽपि सुखहेतवः । कालेऽपि नानु भूयन्ते रोरै खि नियोगिभिः ॥७२॥ नियोगिनां स्वान्यराष्ट्र चिन्ता व्यग्रे च चेतसि । प्रेयसीनां नावकाशः पूर्णकुम्भेऽम्भसामिव ॥७३॥ त्यक्त्वा सर्वमपि स्वार्थ राजार्थं कुर्वतामपि । उपद्रवन्ति पिशुना उद्घद्धानामिवद्विकाः ॥७४॥ यथा स्वदेह द्रविणव्यये नापि प्रयत्यते । राजार्थे तद्वदात्मा यत्यते किनधीमता ॥७५॥ विचिन्त्यैवं व्यधात्केशोत्पाटनं पञ्चमुष्टिभिः । रत्नकम्बल दशाभी रजोहरणमप्यथः ॥७६॥ ततश्च स महाभागो गत्वा सदसि पार्थिवं, आलोचितमिदं 'धर्मलाभः' स्तादित्य वोचत ॥७७॥ स्थुलभद्रोऽपिगत्वा श्रीसंभूतिविजयान्तिके, दीक्षां सामायिकोच्चारपूर्वकांप्रत्य पद्यत" ॥८२॥ "परिशिष्ट पर्व आठवाँ स्वर्ग" Jain Educa३२४mational Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ११२ थे वो साधु के रूप में दिखाई दिया अतः उन त्याग के अवतार को राजा प्रजा की ओर से कोटीश धन्यवाद दिया गया कि जिस स्थूलभद्र ने १२ वर्ष वैश्या के वहाँ रह कर भोग विलास किया उस वैश्या को तथा राजा के देने पर मंत्रीपद को ठुकरा कर यकायक मुनिव्रत स्वीकार कर लिया यह कोई साधारण बात नहीं है पर धन्य है इस त्यागी वैरागी स्थूलभद्र को कि जिस संसार में हस्ती की भाँति खुचा हुआ था जिसका त्याग करने में क्षणमात्र भी नहीं लगी। ___ स्थूलिभद्र वहाँ से चल कर आचार्य सँभूतिविजय के पास आया और आचार्यश्री के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा स्वीकार कर ली तत्पश्चात् सूरिजी का विनय भक्ति कर एकादशाङ्ग का अभ्यास कर तप संयम की आराधन करने में लग गया। ____एक समय का जिक्र है कि स्थूलभद्रादि चार मुनि श्राचार्यश्री के पास आकर + अर्ज की कि हे प्रभो ! हम लोग अभिग्रह पूर्वक एकल प्रतिमा को स्वीकार कर चतुर्मास करना चाहते हैं । एक ने कहा कि मैं सिंह की गुफा पर जाकर चतुर्मास करूंगा तब दूसरे ने कहा मैं सर्प की बांबी पर---तीसरा ने कहा मैं श्मशान एवं कूप के तट पर और स्थूलभद्र ने कहा मैं कोश्या वैश्या की चित्रशाला में चतुर्मास करूंगा ? सूरिजी ने अपने ज्ञान द्वारा लाभालाभ का कारण जान कर चारों मुनियों को उनकी इच्छानुसार चतुर्मास करने की आज्ञा दे दी और वे चारों मुनि अपने निर्णयानुसार यथा स्थान पर जाकर चतुर्मास कर भी दिया। तीनों मुनियों ने तो घोर परिश्रम को सहन करते हुए चतुर्मास बिताने लगे पर स्थूलभद्र तो पूर्व १२ वर्ष की परिचित वैश्या कि जिसके साथ हावभाव एवं भोग विलास किया था उनकी चित्रशाला में चतुर्मास किया था और विविध प्रकार के षट्रसयुक्त आहार पानी लेकर चतुर्मास बिताने लगे। वैश्या ने हावभाव करने में + स्थूलभद्रोऽपि सम्भूतिविजयाचार्य सन्निधौ । प्रव्रज्याँ पालयामास पार दृश्वा श्रुताम्बुधेः ॥१०९॥ वर्षा कालंऽन्यदायाते सम्भृतिविजयं गुरुम् । प्रणम्प मूर्नामुनय इत्यगृहन्नभिग्रहाम् ॥११०॥ अहं सिंह गुहाद्वारं कृतोत्सर्ग उपाषितः । अवस्थास्य चतुर्मासीमेकः प्रत्यशृणोदिदम् ॥१११॥ दग्विषाहि बिलद्वारे चतुर्मासी मुपोषितः । स्थास्यामि कायोत्सर्गेण द्वितियोऽभिग्रहीदिदम् ।।११२॥ उत्सगों कूपगण्डूकासने मास चतुष्टयम् । स्थास्याम्युपोषित इति तृतीयः प्रति पद्यतः ॥११३॥ योग्यान्मत्वा गुरुः साधून्यावत्ता न्वमन्यत । स्थूलभद्रः पुरोभूयनत्वैवतावद ब्रवीत् ॥११४॥ कोशाभिधाया वैश्याया ग्रहेया चित्रशातिकः । विचित्रकामशास्त्रोक्तकरणा लेखशालिनी ॥११५॥ तत्र कृत तपः कर्म विशेषः षड्साशनः स्थास्यामि चतुरोमासानितिमेऽअभिग्रहः प्रभो ॥११६॥ ज्ञात्वोपयोगायोग्यं तं गुरुस्तत्रान्वमन्यात । साधवश्चययुः सर्वे स्वस्वं स्थानं प्रतिश्रुतम् ॥११७॥ शान्त्यम् स्तीव्रतयोनिष्टान्दृष्ट्वा तागमुनिसतमान् । त्रयोऽमीभेजिरे शांतिसिंहसर्परिधट्टकाः ॥११८॥ स्थूलभद्रोऽपि सम्प्राप कोशा वैश्या निकेतनम् । अभ्युत्तस्यै तथा कोशाप्याहिताञ्जलिरग्रतः ॥११६।। “परिशिष्ट पर्व स्वर्ग आठवां " आगे सिंह गुफावासी साधु वैश्या के वहां चतुर्मास करता है और वैश्या के हाव-भाव से चलित हो नेपाल देश में जाकर बड़े ही कष्ट से रत्नकम्बल लाता है जिसको वैश्या पैर लूछ कर गटर में डालती है। ३२५ www.janelibrary.org Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कुछ भी उठा नहीं रखा परन्तु परम वैरागी मुनि स्थूलभद्र ने हमेशा वैश्या को जैनधर्म की शिक्षारूप इस प्रकार का उपदेश दिया करता था कि जिससे वैश्या ने वैश्यावृति का त्याग कर जैनधर्म की सुश्राविका बन गई अहा हा मुनि स्थूलभद्र का धैर्य कि परिचित वैश्या के हावभाव से मोहित न होकर उस वैश्या को भी प्रतिबोध दे कर श्राविका बना दी। ___जब चतुर्मास समाप्त हुआ तो चारों मुनि सूरिजी के पास आये और अपना अपना वितिकार कह सुनाया सूरिजी ने तीनों साधुओं को कहा कि तुमने बहुत दुश्कर काम किया है कि सिंहगुफा, सर्प की बॉबी और कूप तट एवं श्मशानों में परिश्रम सहन कर चतुर्मास व्यतीत किया तब स्थूलभद्र को कहा कि तुमने दुक्कर दुक्कर काम किया है जो साधारण साधु से नहीं बन सकता है इत्यादि । सूरिजी के वचन सुन कर सिंह गुफा वासी साधु ने सोचा कि इस पक्षपात की भी सीमा है कि हम लोगों ने हथेली में जान लेकर मरणांत कष्ट के स्थान में चतुर्मास करके आये हैं जिसको तो केवल दुक्कर ही कहा जब पूर्व परिचित वैश्या की चित्रशाला में रह कर उनके हावभाव में चतुर्मास करने वाले स्थलभद्र को दुक्कर दुक्कर कहा पर ठीक है आगामी चतुर्मास में मैं भी वैश्या के वहाँ चतुर्मास करने की आज्ञा माँगूंगा और स्थूलभद्र की भांति दुक्कर दुक्कर उपाधि को प्राप्त करूंगा जब शीत और उष्ण काल व्यतीत हुआ तो सिंह गुफा वासी साधु ने सूरिजी से आज्ञा माँगी कि मैं वैश्या के वहाँ जाकर चतुर्मास करूंगा। सूरिजी ने उसको समझाया पर उसकी अत्याग्रह होने से आज्ञा दे दी और वह साधु जाकर वैश्या की चित्रशाला में चतुर्मास कर दिया। जब वैश्या का अधिक परिचय होने लगा तो मुनि अपने धैर्य को कब्जे में रख नहीं सका वैश्या के हावभाव में मोहित हो गया और आखिर उसने वैश्या से प्रार्थना की इस पर वैश्या ने जवाब दिया कि हे मुने! यहाँ केवल धर्मलाभ से काम नहीं चलता है पर यहाँ तो अर्थलाभ होना चाहिये अतः आप पहला अर्थोपार्जन करें बाद मेरे यहाँ रह सकते हो । अब तो मुनिजी अर्थ प्राप्ती के लिये विचार सागर में गोते लगाने लगे पर उसके लिये आपको एक ही मार्ग नहीं मिला । तब जाकर वैश्या से सलाह पुच्छी तो उसने कहा कि नेपाल देश का राजा साधुओं को रत्न कम्बल देता है आप वहाँ जाकर रत्नकम्बल ले आ तो आपकी इच्छा पूर्ण हो सकती है बस। विषय पिपासु क्या नहीं कर सकता है मुनि नेपाल देश में गया और साधु के वेश में रत्नकम्बल प्राप्त कर वापिस आ रहा था रास्ते में चोर मिल गये खैर ज्यों त्यों अनेक कष्ट सहन कर रत्नकम्बल लेकर वैश्या के पास आये और कम्बल वैश्या को देकर जिस विषय के लिये कष्ट सहन किया था उसकी याचना की तो वेश्या ने कहा आप जरा ठहरिये मैं स्नान मजन करके आती हूँ वैश्या स्नान कर उस रत्नकम्बल से पैर पुच्छ कर उसको गटर में फेंक दी जिसको देखकर मुनि ने कहा कि अरे कौशा ! मैं बड़े ही कष्ट सहन कर कम्बल लाया हूँ जिसको कीचड़ में x स समागत्य कौशाये प्रददौ रत्नकम्बम् । चिक्षेपसागृह नेत पंकेनिःशंक मेवतम् ॥१६॥ अजल्पन्मुनिरप्येवमक्षोपशूचि कर्दमे । महामूल्योह्यसौ रत्नकम्बलः कम्बुकण्डिाकम् ॥१६२॥ अथ कोशाप्युवा चैवं कंबलं मूढ़ शोचसि । गुण रत्नमयंश्वभ्रपतन्तं स्वं न शोचसि ॥१६३॥ तच्छुत्वा जात संवेगो मुनिस्तामित्य वोचत । वोधितोऽस्मित्वया साधुसंसारात्साधरक्षिता ॥१६४॥ "परिशिष्ट पर्ष स्वर्ग आठवां" MAA.NA Jain Edu a temational Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ डाल कर खराव क्यों कर रही है ? इसके उत्तर में वैश्या ने कहा कि हे मुनि ? मैंने तो इस मूल्यवान कम्बल को ही खराब की है पर आप तो अमूल्य पंच महाव्रत को ही खराब कर रहे हो जरा अपनी ओर तो लक्ष्य दीजिये । बस । वैश्या के इन शब्दों को सुनकर मुनि ने विचार किया कि अहो । कहाँ धैर्यवान स्थूलभद्र मुनि कि जिस वैश्या के साथ पूर्व भोग विलासिता में रहे थे उसके साथ चारमास रहने पर भी चलायमान नहीं हुआ और कहां मेरे जैसा अल्प सत्व वाला कि वही वैश्या मुझे उपदेश देकर स्थिर कर रही है जैसे भग्न चित्त वाला रहनेमि को सतीराजमति ने स्थिर किया था इत्यादि मुनि ने वैश्या का परमोपकार मानकर आचार्य श्री के पास आया और अपना सब वितिकार कह कर अपने व्रत में जो अतिचार लगा था उसकी शुद्ध भावों से आलोचना की और कहा कि हे प्रभो ! मैंने स्थूलभद्र की बराबरी करने को मिथ्या प्रयत्न किया था पर स्थूलभद्र महाभाग्यशाली जितेद्रिय है मैं उनकी बराबरी कदापि नहीं कर सकता हूँ। इस प्रकार मुनि के भावों को सुनकर आचार्यश्री ने उस मुनि को योग्य आलोचना एवं यथावत् प्रायश्चित देकर शुद्ध बनाया और वह मुनि तप संयम में लग्न होगया । मुनि स्थुलभद्र द्वारा प्रतिबोध पाने वाली कौशा वैश्या ने एक सिंहगुफावासी मुनि को ही स्थिर नहीं किया पर इस प्रकार अनेकों को स्थिर किया था एक समय का जिक्र है कि एक रथिक वैश्या के यहाँ आया था और वैश्या से उसने प्रार्थना की कितना ही द्रव्य का लालच दिया और अपनी एक ऐसी कला बताई कि नगर के बगीचा में एक आम्र का माड़ था उसके अपूर्व फल लगा हुआ था रथिक वैश्या के महल में रहा हुआ आम्र फल के बाण लगाया और दूसरा बाण पहला घाण के लगाया इस प्रकार एक एक बाण को जोड़ता हुआ वैश्या के मकान तक बाणों का तांता लगाकर उस फल को लेकर वैश्या को बतलाया । इस पर वैश्या ने अपने महल में सरसव का ढेर लगाकर उस पर एक सुई रखी सुई पर एक पुष्प रखा और उस पुष्प की एक कली पर नृत्य किया जिसको देखकर रथिक का गर्व गल गया। वैश्या ने अपने नृत्य के अन्दर एक गाथा कही कि: न दुकरं अंबय ढुंब तोडणं, न दुकरं सिखिय नचियाण, तं दुकरं तं च महाणुभावो, जंसोमुणीपमय वणग्गि बुझो । न तो आम्रलुब तोड़ने में अधिकाई है और न सरसव के ढेर पर नाचने में विशेषता है कारण यह कार्य तो अभ्यास का है और हर कोई कर सकता है पर अधिकताई तो उन महानुभाव मुनि स्थूलभद्र की है कि जिसने दुर्जय मोह रूपी पिशाचकों जीत लिया है कि जिसके लिये पामर प्राणी दर दर के भिखारी बन कर भटक रहे हैं और अपना अमूल्य जीवन खो रहे हैं पर उन महानुभाव स्थूलभद्र ने विषय विकार को सर्प की कचूक की भांति छोड़ दिया है संसार में एक स्थूलभद्र ही दुक्कर दुक्कर कार्य करने वाला है इत्यादि । वैश्या के बचनों से प्रतिबोध पाकर रथिक ने कहा कैश्या ! वह महासत्वधारी स्थूलभद्र कौन है और इस समय वह कहां रहता है क्योंकि मैं उन महापुरुष ना दर्शन करना चाहता हूँ ? वैश्या ने स्थूलभद्र मुनि का चरित्र सुनाकर जहाँ वे मुनि के रूप में भ्रमन करते थे उनका पता बताया रथिक भ्रमन करता मुनि स्थूलभद्र के पास आया और दर्शन स्पर्शन कर अपने जीवन को सफल बनाया मुनि स्थलभद्र ने उक्त रथिक को ऐसा उपदेश दिया कि उसने असार संसार को त्यागकर मुनि स्थूलभद्र के चरणकमलों में भगवती जैन दीक्षा स्वीकर कर ली और अपना कल्याण का मार्ग की आराधना में लग गया । ३२७ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बि० पू० २४७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अहा-हा मुनि स्थूलभद्र कि जिनका नाम मात्र श्रवण करने से पापियों का पाप नष्ट हो जाता है इस असंख्य वर्षों की अवसर्पिणी काल में यह एक ही उदाहरण मिलता है कि इस प्रकार के त्यागी वैरागी और ब्रह्मचारी एक स्थूलभद्र ही हुआ है । मुनि स्थूलभद्र का शेष जीवन पाठक आचार्य भद्रबाहु के जीवन में पढ़ चुके हैं कि उस समय बारह वर्षीय महान् दुष्काल पड़ा था आचार्य भद्रबाहु श्रपने ५०० शिष्यों के साथ नैपाल की ओर पधार गये थे । दुष्काल के बाद जब सुकाल हुए तो पाटलीपुत्र नगर में श्रमण संघ की एक सभा हुई और उसमें दीर्घदुकाल के कारण साधुओं आगमों को कंठस्थ नहीं रख सके अर्थात् कई आगम विस्मृत हो गये थे परन्तु उस सभा में उपस्थित साधुओं को जो जो श्रागम याद थे उनको ठीक सिलसिलेवार करने से एकादशांग तो व्यवस्थित हो गया पर बारहवां दृष्टिबादाङ्ग किसी को भी याद नहीं रहा श्रतः स्थूलभद्रादि कई साधुओं ने आचार्य भद्रबाहु के पास जाकर अध्ययन किया तो केवल एक स्थूलिभद्र ही दशपूर्व सार्थ और चार पूर्व मूल एवं चतुर्दश पूर्वघर हुए इत्यादि । आचार्य भद्रबाहु अपने अन्तिम समय मुनि स्थलिभद्र को अपने पट्ट पर प्राचार्य बना कर वीरात् १७० वर्ष में स्वर्ग सिधार गये । पहले हम लिख आये थे कि मंत्री शकडाल के स्थूलभद्र एवं श्रीयक दो पुत्रों के साथ सात पुत्रियें भी थी उन्होंने भी जैन दीक्षा ली थी जिनके नाम इस प्रकार थे-जक्खा य जक्खदिण्णा भूया तह चैव भूयदिण्णा य । सेणा वेणा रेणा भगिणी ओ थूलभदस्स || यक्षा यज्ञादिना भूता भूतदिन्ना सेणा वेणा और रेखा एवं सातों बहनों ने भी जैन दीक्षा ली थी और यथा साध्य तपसंयमादि आराधना कर स्वर्ग सुखों को प्राप्त किया था। आचार्य लिभद्रसूरि ने शासन संचालन का कार्य अपने अधिकार में लिया तो आपने जैनधर्म प्रचार निमित्त खूब जोरदार प्रयत्न किया । आपने अनेकों को मिथ्या जाल से बचा कर जैनधर्म में दीक्षित किये और कई एकों को जैन धर्म की दीक्षा देकर श्रमण संघ में भी आशातीत वृद्धि की जिसमें आपके दो शिष्य मुख्य थे, X १ श्रर्यमहागिरि जिसका एलापात्य गौत्र था, २ आर्य सुहस्ती आपका वासिष्ठ गौत्र था इन दोनों ने आचार्य स्थूलभद्र के चरण कमलों की सेवा करके दश पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर लिया था कहा है कि:इत्यादि आचार्य स्थूलभद्रसूरि का जीवन जनकल्याण के लिए महान् उपयोगी है अन्त में आप श्रीमान् श्रपने पट्ट पर आचार्य महागिरि एवं आचार्य सुहस्ती को स्थापन कर आप परम शान्ति एवं समाधि के साथ अनशन पूर्वक विरात् २१५ वें वर्ष में स्वर्गधाम को पधारे । 1 X स्वामिना स्थूलभद्रेण, शिष्यो द्वावपि दीक्षितौ । श्रार्य महागिरिवार्य सुहस्ती चाभिधानतः || ३६ || तौ हि यक्षार्ययावाल्यादपि मात्रेव पालितौ । इत्यार्योपपदो जातौ महागिरि सुहस्ती नौ ||३७|| खङ्ग धारेव तीव्रं तावतीचार विवजितम्, परिसहेभ्यो निर्भीको पालयामास तुव्रतम् ॥ ३८ ॥ तौ स्थूलभद्रपादाब्जसेवा मधु करावभौ, साङ्गानि दर्शपूर्वाणि महाप्रज्ञावधीयतुः ॥ ३९ ॥ शान्तौ दान्तौ लब्धिमन्ता वधीतावायुष्मन्तौ वाग्मिनौदष्टभक्ति । आचार्यत्वे न्यास्य तौ स्थूलभद्रः कालं कृत्व देवं भूयं प्रपेदे ॥ ४० ॥ इतिश्री आचार्य स्थलिभद्रसूरि का पवित्र जीवन की रूप रेखा " ३२८ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास SROPIOISSEUTER भगवान् पार्श्वनाथ के ९ वाँ पटधर प्राचार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] ४२ [ ओसवाल संवत् १५३ १० - प्राचार्य श्रीसिद्धसूरि । आचार्यस्य सुसिद्धसूरि विदुषः पाण्डित्यमाख्या तृकः । पाञ्चाले भ्रमणं विधाय बहुधा जैनीय देवालयान् ॥ यः संस्थाप्य तु भासमान बहुलां कोर्ति दधौ सुस्थिराम् । धन्योऽयं कमनीय कार्य कुशलो वन्दे च बन्द्य' प्रभुः ॥ चार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज बड़े ही प्रभाविक आचार्य हुये आप श्रीमान् चन्द्रपुरी नगरी के राजा कनकसेन के लघुपुत्र थे कीशोरवय में हो सिद्धार्थ नामक वेदान्ती आचार्य के पास दिक्षित हुए थे आप बाल ब्रह्मचारी और अनेक विद्याओं के ज्ञाता थे, सत्य के संशोधक थे. धर्म के जिज्ञासु थे, मोक्ष के अभिलाषी थे, ज्ञान के प्रेमी थे, सरस्वती और लक्ष्मी दोनों देवियां परस्पर स्पर्द्धा करती हुई सदैव आपको वरदाई थी जैन दिक्षा स्वीकार करने के बाद आचार्य देवगुप्तसूरि की सेवा भक्ति से स्याद्वाद सिद्धान्त में भी आप बड़े ही प्रवीण हो गये थे धर्म प्रचार करने में तो आप बड़े ही समर्थ थे पाखण्डियों के पैर उखाड़ने में आप अद्वितीय वीर थे । आपश्री की वचनलब्धि से मनुष्य तो क्या पर देवता भी मुग्ध बन जाते थे। जैसे आप तेजस्वी थे वैसे ही यशस्वी भी थे आपश्री ने पंचाल देश में विहार कर अनेक भव्यात्माओं का उद्धार किया इतना ही नहीं पर जैन धर्म का बड़ा भारी डा फहरा दिया था । वादी लोग आप से इतने घबराते थे जैसे कि सिंह गर्जना सुन हस्ती पलायन हो जाते है इसी भांति सिद्धिसूरि का नाम सुनते ही वे कम्प उठते थे अभिमानियों के मद गल जाते थे । आपश्री ने अनेक लोगों को दीक्षा दे श्रमण संघ में खूब वृद्धि की थी। सैकड़ों जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा और ज्ञानाभ्यास के लिये अनेक पाठशालाएं स्थापित करवाई थी आपश्री ने प्रन्थ निर्माण करने में भी कमी नहीं रक्खी थी, इत्यादि । सद्कार्यों से स्वपरात्मा का कल्याण कर अपना नाम इतिहास पट्ट पर अमर बना दिया था । पाठक वर्ग ! आप सज्जन इस बात को तो भली भान्ति समझ गये होंगे कि उस जमाने के जैनाचार्यों ने जैन धर्म के प्रचार के लिए किस किस विकट भूमि अर्थात् देश विदेश में विहार गा, कैसे कैसे संकट और परिश्रम उठाए, वादि प्रतिवादियों के साथ किस कदर शास्त्रार्थ कर " श्रहिंसा परमोधर्मः” का विजय डंका बजाया; जैनधर्म को विश्वव्यापी बनाने की उन महापुरुषों के हृदय में किस कदर बिजली चमक उठी थी, कारण उस समय मरूस्थल, कच्छ सिन्ध सौराष्ट्रादि प्रान्तों में व्यभिचारी वाममार्गियों का एवं यज्ञ वादियों का साम्राज्य वरत रहा था। पंचाल प्रान्त में असंख्य निरपराधी मूकप्राणियों की रौद्र हिंसामय यज्ञादि का प्रचार करने में वेदान्ती लोग अपना प्राबल्य जमा रहे थे, अंग बंग मगध वगैरह प्रान्तों में बौध लोग अपने धर्म का प्रचार नदी के पूर की भान्ति बढ़ा रहे थे, अगर उस विकट समय में जैनाचार्य एक ही प्रान्त में रह कर अपने उपासकों को ही मंगलिक सुनाया करते तो उनके लिए वह समय निकट ही था कि संसार भर में जैनधर्म का नाम निशान भी रहना मुश्किल हो जाता; पर जिनकी नसों में जैनधर्म का खून बहता हो वे ऐसी दशा को गुप चुप बैठकर कैसे देख सके ? हरगिज नहीं, कारण अधर्म को हटाने के लिए ३२९ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २४७] । भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पाखण्डियों का पराजय करने के लिए उन महात्मा ओं के शरीर में जैनधर्म की पवित्रता की बड़ी भारी ताकत थी अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, निस्पृहीता, परोपकार परायणता, और स्याद्वादरूपी अनेक शस्त्रों से सजधजके वे सदैव तैयार रहते थे और उन्हीं शस्त्रों द्वारा आप श्रीमानोंने पास्खण्डियों का पराजय कर उनके मिथ्यात्व अज्ञान यज्ञ की घोर हिंसा और दुशीलरूपी किल्ले को समूल नष्ट कर विश्व में जैन धर्म का खूब झण्डा फहरा दिया अगर उन आचार्यों की सन्तान ने अपने पूर्वजों का अनुकरण कर प्रत्येक प्रान्त में विहार किया होता तो आज कितनीक प्रान्तों जैनधर्म विहीन न बन जाते तथापि आज उन प्रान्तों में पूर्व जमाने की जाहोजलाली के स्मृति चिन्दरूप जैन तीर्थ मन्दिर और थोड़े बहुत प्रमाण में जैन धर्मोपासक अस्तित्व. रूप में दिखाई दे रहे हैं वह उन पूर्वाचार्यों की अनुग्रह-कृपा का सुन्दर फल है।। हमारे पूर्वाचार्यों की यह भी एक सुन्दर पद्धति थी कि वे देश विदेश में विहार करते थे पर किसी प्रान्त को साधुविहीन नहीं रखते थे अर्थात् प्रत्येक प्रान्त में योग्य पद्वी भूषित विद्वान मुनिवरों की अध्यक्षता में हजारों मुनियों को विहार की आज्ञा फरमा दिया करते थे कि जैन जनता सदैव के लिए उन्नति क्षेत्र में अपने पैर आगे बढ़ाती रहे । बात भी ठीक है कि जहां जैन मुनियों का सदैव विहार होता रहे वहां मिथ्यात्व अज्ञान और दुराचार को अवकाश ही नहीं मिलता है विद्वानों की अपेक्षा मध्यम कोटी के लोग सदैव अधिक होते हैं और उनका जीवन उपदेश पर निर्भर है जैसा-जैसा उपदेश मिलता रहे वैसा वैसा संस्कार पड़ जाता है अतएव प्रत्येक प्रान्त में मुनि विहार की आवश्यकता उस समय में भी स्वीकारी जाती थी। अपने पूर्वजों की पद्धत्यानुसार आचार्य श्रीसिद्धसूरिजी महाराज ने पंचाल देश में विहार करनेवाले मुनियों के लिए अच्छी व्यवस्था कर आपश्री ५०० मुनियों के साथ विहार कर हस्तिनापुर मथुरा, शोरीपुर वगैरह तीर्थों की यात्रा के पश्चात आप श्रीमानों ने अपने चरण कमलों से मरूभूमि को पवित्र बनाई और शासनाधीश मगवान् महावीर की यात्रा के लिए उपकेशपुर की तरफ विहार किया। मरूस्थल में यह शुभ समाचार पहुँचते ही मानों वसन्त के आगमन से वनराजी नवपल्लव बन जाती है इसी भान्ति मरूस्थल की जैन जनता में बड़े ही हर्षोत्साह की लहरें उठ रही थी, सूरिजीमहाराज क्रमशः विहार करते हुए उपकेशपुर पधारे श्रीसंघ ने आपश्री का बड़ा भारी स्वागत किया देवगुरु की यात्रा कर धर्म पिपासु लोगों को धर्मदेशना दी जिसका प्रभाव जैन जैनेत्तर जनता पर बहुत ही अच्छा पड़ा उधर उपकेशगच्छ कोरंटगच्छ के साधु साध्वियों के झुण्ड के मुण्ड आपश्री के दर्शनार्थ आ रहे थे श्राद्धवर्ग की तो संख्या ही नहीं गिनी जाती थी मानों उपकेशपुर एक यात्रा का पवित्र स्थान ही बन गया था। आप श्रीमानों के विराजने से उपकेशपुर और आसपास में अनेक सद्कार्यों द्वारा जैनधर्म का प्रचार, शासनौन्नति, और जैन जनता में धर्म जागृति के साथ कई गुणा उत्साह बढ़ गया श्री संघ के अत्याग्रह से आपश्री का चातुर्मास उपकेशपुर में हुआ तब आसपास के ग्राम नगरों की विनत्ती से अन्योअन्य साधुओं को वहां चतुर्मासा करवा दिया। नए जैन बनाना वहां जैन मंदिरों और विद्यालयों की स्थापना करवाना तो आपश्री के पूर्वजों से ही एक प्रचलित कार्य था और आपश्री ने भी उनका ही अनुकरण किया और आपश्री ने इस पवित्र कार्य में अच्छी सफलता भी प्राप्त की थी इनके सिवाय आपश्री का मधुर और रोचक उपदेश पान करते हुए बहुत से नर नारियों ने संसार का त्याग कर आपके चरण कमलों में दीक्षा भी धारण की थी। चातुर्मास के पश्चात् आचार्य श्री ने मरूभूमि के चारों ओर खूब परिभ्रमण किया और पाहलीका ३३० Jain Edusalon International Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १५३ नगरी में एक विराट् सभा की जिसमें हजारों साधु साध्वियों और लाखों श्रावक उपस्थित हुए आचार्यश्री ने पूर्वाचार्यों का परमोपकार, महाजन संघ की महत्वता, और देशोदेश में विहार करने का लाभ खूब ही श्रोजस्वी भाषा से विवेचन कर समझाया अन्त में आचार्यश्री ने यह फरमाया कि इस समय जैन धर्म पर दृढ़ श्रद्धा के लिये जैन मंदिर और तत्त्वज्ञान फैलाने के लिये विद्यालयों की जरूरत है और जैन मुनियों को देशोदेश में विहार कर, जैन धर्म का प्रचार करने की भी आवश्यकता है अतएव चतुर्विध श्रीसंघ यथाशक्ति इन कार्यों के लिए प्रयत्नशील बने और इन पवित्र कार्यों के लिए अपना सर्वस्त्र अर्पण कर भाग्यशाली बन, इत्यादि । आचार्यश्री के उपदेश का असर जनता पर अच्छा पड़ा कि वह अपने अपने कर्तव्य कार्य पर कमर कस के तैयार हो गए बड़ी खुशी की बात है कि उस जमाने में जैले आचार्यश्री धर्म प्रचार करने में कुशल थे वैसे ही उनके आज्ञावृत्ति चतुर्विध श्रीसंघ उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करने को तैयार रहते थे इसी एक दीली के कारण से ही वे मनोच्छित कार्य कर सकते थे । एक समय की जिक्र है कि एक शिवाचार्य अपने शिष्यों के साथ यज्ञ धर्म के प्रचार निमित्त चन्द्राती नगरी में आया । कि वहाँ राजा प्रजा सब जैनधर्मोपासक थे । पाठक पहले पढ़ चुके हैं कि श्रीमाल नगर के राजा जयसेन के पुत्र चन्द्रसेन ने इस नगरी को आबाद की थी और क्रमशः चन्द्रसेन-गुनसेन- अर्जुनसेन नभसेन का पुत्र रूपसेन उस समय वहाँ का राजा था। शिवाचार्य ने राजसभा में आकर कहा कि निकट भविष्य में इस नगरी पर बड़ी भारी आफत आने वाली है । अतः खास तौर पर राजा का कर्त्तव्य है कि जनता की शान्ति के लिये यज्ञ द्वारा देवताओं को बली देकर खुश करे इसके अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है । मैं राजा प्रजा का शुभचिंतक हूँ कि आप लोगों को सावचेत कर दिया है, इत्यादि । मंत्री जिनदास ने कहा कि महात्माजी यह शान्ति का नहीं पर आफत बढ़ाने का उपाय है । हम लोग कर्म सिद्धान्त को मानने वाले जैन हैं। यज्ञ करवाना तो दूर रहा, पर बिना अपराध किसी जीव को तकलीफ़ देने में भी पाप समझते हैं, इत्यादि सुन कर शिवाचार्य अपने स्थान पर चला गया और अपनी विद्या द्वारा नगरी में कुछ उपद्रव करना शुरू किया कि जिससे कई भद्रिकों को क्षोभ होने लगा । राजा और मंत्री ने एक आमन्त्रण-पत्र लिखकर अपने योग्य पुरुषों को आचार्य सिद्धसूरि के पास भेजा उन्होंने सूरिजी के पास जाकर सब हाल निवेदन किया । बस, फिर तो देरी ही क्या थी, सूरिजी शीघ्र विहार कर चन्द्रावती पधारे। राजा प्रजा ने सूरिजी के नगर प्रवेश का खूब समारोह से महोत्सव किया । सूरिजी ने पधारते ही जिन मन्दिरों में स्नात्र महोत्सव करवाया जिसके प्रक्षालन का जल से सर्वत्र शान्ति हो गई। इतना ही क्यों, पर शिवाचार्य ने अपनी विद्याओं के अनेक प्रयोग किये पर उसमें वे निःसफल ही हुए । अतः शिवाचार्य चलकर आचार्यसिद्धसूरि के पास आया और कहने लगा कि महात्माजी ! आपके पास ऐसी कौन सी विद्या है कि मेरी कोई भी विद्या काम नहीं देती है ? अतः कृपा कर आपकी विद्या मुझे दीजिये बदले में मैं आपको अच्छी २ विद्या दूँगा सूरिजी ने कहा- महानुभाव ! ऐसी विद्याओं से आत्मा का कल्याण नहीं है, यदि आप जन्म मरण से मुक्त होना चाहते हो तो वीतराग प्रणित धर्म की शरण लेकर उसकी ही आराधना करो । इत्यादि इस प्रकार समझाया कि शिवाचार्य ने अपने शिष्यों के साथ सूरिजी के पास जैन-दीक्षा स्वीकार करली। इस प्रकार तो सूरिजी ने अनेक भव्यों का कल्याण किया था । 339 www.jamnerbrary.org Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २१७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य श्री सिद्धसूरि मरुभूमि में विहार करने वाले मुनियों का उत्साह बढ़ाते हुए योग्य विद्वान मुनियों को पदवियों से विभूषित बना कर उनको अन्य प्रान्तों में विहार करने की आज्ञा दे दी बाद आप श्रीमान् ने पूर्वाचार्यों की स्मृति रूप कई स्थानोंकी यात्रा करते हुए अनेक साधु साध्वीयों और श्राद्ध वर्ग के साथ श्री सिद्धगिरि की यात्रा की सौराष्ट्र में परिभ्रमण कर कच्छ की ओर पधारे कुछ समय तक कच्छ में विहार किया पश्चात् आपने सिंध प्रान्त में पदार्पण किया अर्थात् आपश्री बड़े ही दूरदर्शी थे जैसे आप नए जैन बनाने का प्रयत्न करते थे वैसे ही पहिले बनाए हुए श्रावकों और साधु साध्वियों की सारसंभार करना भी आप एक परमावश्यक कार्य समझते थे । इसलिए आपश्री ने कई अर्सा तक सिन्ध प्रान्त में विहार कर अपने श्रमण संघ के किए हुए कार्य पर प्रसन्न चित्त से धन्यवाद दिया और पारितोषिक रूप में कई योग्य मुनिवरों को पदवियों प्रदानकी बाद वहां से विहार कर पंचाल देश में पधार गए इस परिभ्रमण के दरम्यान आपने जैन शासन की अत्युत्तम सेवा की, यों तो आपने अपना जीवन ही धर्म प्रचार में व्यतीत कर दिया था । अन्त में आप विहार करते हुए उपकेशपुर पधार कर मुनिरत्न को अपने पद पर नियुक्त कर उनका नाम रत्नप्रभसूरि रख दिया तत्पश्चात आप श्रीमान् उपकेशपुर नगर में १५ दिन का अनशन कर समाधिपूर्वक स्वर्ग में अवतीर्ण हुए | भगवान पार्श्वनाथ की सन्तान परम्परा में उपकेशगच्छ के प्रारम्भ समय से आचार्यश्रीरत्नप्रभसूरि, आचार्यश्रीयक्षदेवसूरि, आचार्य श्रीकक्कसूरि आचार्यश्री देवगुप्तसूरि और आचार्यश्रीसिद्धसूरि एवं पांचों आचार्य महा प्रभाविक हुए और इन पांचों आचार्यों के नाम से ही आज पर्यन्त उपकेशगच्छ अविछन्नपने चल रहा है। १-मरूस्थल में आचार्य रत्नप्रभसूरि का नाम अमर है । आपका सरि पद समय वी० स० ५२-८४ २-मगधदेश में , यक्षदेवसूरि का नाम अचल है । , , , , ८४ -१२८ ३-सिन्धप्रान्तमें , कक्कसूरि का नाम अक्षय है। ,, ,,,,, १२८--१८२ ४-कच्छप्रांत में ,, देवगुप्तसूरि का नाम अटल है। ,, ,, ,, १८२-२२३ ५-पंचाल प्रांतमें ,, सिद्धसूरि का नाम अपार है। ,, इन महापुरुषों की बदौलत उनकी सन्तान ने पूर्वोक्त प्रान्तों में चिरकाल तक जैन धर्म को गष्ट्रीय धर्म बना रक्खा था, आज जो जैन जातियों जैनधर्म पालन कर स्वर्ग मोक्ष की अधिकारी बन रही है वह सब उन महान् प्रभावशाली आचार्यों के उपकार का ही सुंदर फल है । अतएव जैन समाज एवं जैन जातियों का कर्तव्य है कि अपने पर महान उपकार करने वाले पूज्याचार्यों के प्रति सेवा भक्ति प्रदर्शित करते रहें। सिद्ध वचन थे लब्धि उनके दशवाँ पाट दीपाया था । सिद्धसूरीश्वर नाम श्रापका बादी सुन घबराया था । लाखो जन को माँस छुड़ाकर अहिंसा धर्म चमकाया था ।। मरु आदि भू भ्रमण करके जैन झण्ड फहराया था। इति श्री भगवानपार्श्वनाथ के दशव पाटपर आचार्यश्री सिद्धसुरीश्वरजी महाराज प्रभाविकाचार्य हुए। + एक पट्टावला में सिद्धसूरि का स्वर्गवास लोहाकट में होना लिला है पर वे सिद्धसूरि अन्य थे जिन के लिए आगे-- तस्यपट्ट सिद्धसूरीगुरु रासिद् धियांनिधिः वीक्ष्ययात्सूक्ष्मःदर्शित्वं कविःस्वक्षिरुषाऽकृषत् ॥ नामभिःपञ्चभिर्गच्छः पञ्चननइवाऽऽनवे, भासमानोऽभिनत् वादि कुम्भिकुम्भस्थलान्ययम् ॥ 3३२ Jain Education national Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यरत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १८३ ११ प्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि ( द्वितीय ) तत्पट्टे तु गुणग्रणी स्थिति करो रत्नप्रभो नामधृक् । पञ्चाम्बी बहु सौरसेने मरुवत्मान्तेष्वभ्राम्यत्सुधीः॥ तुल्यस्तेन स एव केवल मिहासीद्धर्मो निष्टो महान् । आ पाञ्चालमसौ चकार भ्रमणं बंगं च पूर्व प्रति ॥ (प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज बड़े भारी धर्म प्रचारक एवं महान तपस्वी प्राचार्य हुए। आप श्रीमान् उपकेशपुर के राजा उत्पलदेव की वंश परम्परा के एक वीर क्षत्री थे " आप अपनी तारुण्यावस्था में राज लक्ष्मी का त्याग कर आत्मीय वैराग्य के साथ श्राचार्य 9 सिद्धसूरीश्वरजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा ग्रहण की थी। आचार्य श्री ने दीक्षा देकर आपका नाम मुनि रत्न रक्खा था । दीक्षा लेने के पश्चात् आप सूरिजी की खूब भक्ति एवं विनय करके जैनागमों के स्याद्वाद सिद्धानादि का अभ्यास किया इतना ही क्यों पर उस समय स्वमत परमत के सामयिक साहित्य का भी आपने अध्ययन कर लिया था यही कारण था कि आप विद्वानों की पंक्ति में सर्वोपरी समझे जाते थे आप यह भी समझते थे कि पूर्व संचित कर्म बिना तप के क्षय होना असंभव है अतः श्राप श्री ने कठोर तपश्चर्य करना प्रारम्भ कर दिया कभी कभी तो आप मासखामण के भी पारण करते थे पर छट छट तप करने की तो आपने अपने जीवन पर्यन्त प्रतिज्ञा करली थी और इन कठोर तपश्चर्य से आपके अन्दर आत्मीय गुणों का इस प्रकार प्रादुर्भाव हुए कि अनेक लब्धियें और सरस्वती एवं लक्ष्मी देवियों स्वयं वरदायी बन आपकी आज्ञा का पालन करती थी यही कारण था कि अनेक राजा महाराजा ही क्यों पर कई देवी देवता भी आपके चरण कमलों की सेवा में उपस्थित रहते थे। आपश्री न्याय व्याकरण तक छन्द काव्यादि साहित्य के इतने भारी विद्वान थे कि आपकी तर्क एवं युक्तियों के सामने वादी सदैव नत मस्तक रहते थे इतना ही क्यों पर आप का नाम सुनकर ये दूर दूर भागते थे आपश्री का तप तेज और प्रखर प्रभाव को देख जनता प्रथम रत्नप्रभसूरि को ही हर समय याद करती थी। श्राचार्य सिद्धसूरि एक समय यह विचार कर रहे थे कि अब मेरी वृद्धावस्था है तो मझे चाहिये कि मैं मेरे अधिकार को किसी योग्य साधु को देकर गच्छ नायक बनाऊं। ठीक उसी समय सच्चायिक देवी पाकर प्रार्थना की कि प्रभो ! आप विचार क्या करते हो आपके हस्त दीक्षित मुनि रत्न सर्व गुण सम्पन्न और आप श्री के पद के लिये सब तरह से योग्य है । अतः श्राप उपकेशपुर पधारें और मुनिरन को अपने उत्तराधिकारी बनावें । इस पर सूरिजी ने कहा ठीक है देवीजी ! मेरी भी यही इच्छा है और समय आने पर मुनिरत्न को ही सूरि बनाया जायगा । देवी सूरिजी को बन्दन कर चली गई। सूरिजी क्रमशः विहार करते हुए उपकेशपुर की ओर पधारे । आचार्य श्री के शुभागमन से उपकेशपुर के राजा प्रजा ही क्यों पर आस पास के लोगों में भी खूब ३३३ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २१७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उत्साह फैल गया बड़े समारोह से सूरिजी का नगर प्रवेश करवाया था भगवान महावीर की यात्रा कर सूरिजी ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा धर्म देशना दी जिसका जनता पर खूब ही प्रभाव हुआ विशेषतयः वहाँ के राजा सारंगदेव ने अपनी वृद्धावस्था में सूरिजी महाराज के समागम मिल जाने से बहुत हर्ष मनाया और अपने आत्मकल्याण के लिये तत्पर हो गया। एक समय राजा सारंगदेव सूरिजी के पास आया और अपने कल्याण के लिये पूछा ? इस पर सूरिजी महाराज ने फरमाया कि नरेश ! यदि आप अपना कल्याण चाहते हो तो सबसे पहले इस राज सम्बन्धी सब झगड़ों को छोड़कर निवृति पथ के पन्थिक बन जाइये यह सबसे उत्तम रास्ता है। क्योंकि इस गज से किसी को तृप्ती न तो आई है और न आने की है । जब तक आप राज खटपट में रहेंगे वहाँ तक निवृत्ति का समय मिलना मुश्किल है और निर्वृति बिना कल्याण नहीं है । मैं खुद भी अब इसी मार्ग का अनुकरण करना चाहता हूँ और मेरा अधिकार मैं मुनि रत्न को देने का निश्चय भी कर लिया है । सूरिजी के बचन सुनकर महाराजा सारंगदेव समझ गया कि जब यह त्यागी महात्मा धर्म कार्य एवं गच्छ को निर्वाहने को प्रवृति समझ कर इनसे अलग होना चाहते हैं तो मैं इस राजरूपी अनेक कर्म बन्ध के कारणों में कर्दम में हस्ती की भाँति खूचा हुआ हूँ अतः इस राज खटपट में रहकर कल्याण की आशा ही क्यों रक्खू । फिर भी आखिर यह राजऋद्धि मेरे साथ चलने वाली नहीं है तो सूरिजी के साथ मैं भी अपना राज अधिकार योग्य पुत्र को देकर यदि वृद्धावस्था के कारण दीक्षा न ले सकें तो भी कम से कम एकान्त में रहकर आत्म कल्याण करने में तो लग जाऊं । इत्यादि राजा सारंगदेव ने सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो ! आपका कहना सोलह आना सत्य है और आपकी कृपा से मैंने यह निश्चय भी कर लिया है कि आप जिस शुभ दिन अपना अधिकार मुनिरत्न को दें उसी शुभ दिन में मैं मेर। बड़ा पुत्र धर्मदेव को मेरा उत्तराधिकारी बना दूंगा और आवश्री के चरण कमलों में रह कर अपना कल्याण करुंगा । ___इस पर सूरिजी ने कहाँ राजेश्वर ? मुमुक्षुओं का यही कर्त्तव्य है जो आप ने निश्चय किया है पर अब इस शुभ कार्य में बिलम्ब करना अच्छा नहीं है क्योंकि शुभ कार्यों में कोई विघ्न उपस्थितहो जातेहैं । राजा सारंगदेव ने कहा पूज्ववर मेरी ओर से किसी प्रकार का विलम्ब नही है आप जिस शुभ दिन को निश्चय करें मैं सूरि पद का महोत्सव का लाभ के साथ मेरे पुत्र को राज देकर निवृति पाने को तैयार हूँ। सूरिजी ने बसन्त पंचमि" जो भगवान् महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा का शुभ दिन था वह दिन निर्धारित कर दिया जिसको राजा सारंगदेव ने खूब हर्ष के साथ वधा लिया। बस ! उपकेशपुर नगर में इस बात की खबर मिलते ही जनता का उत्साह कई गुना बढ़ गया और वे लोग अपने घरों के काम छोड़कर इस पवित्र कार्य के महोत्सव में लगगये इस एक कार्य के साथ तीन कार्य शामिल थे । जैसे सूरिपद का महोत्सव, महावीर मन्दिर में अष्टान्दिका महोत्सव और राजरोहण महोत्सव बस फिर तो कहना ही क्या था सब लोग इन शुभ कार्य का यथा साध्य लाभ लेने को कटिबद्ध हो गये। सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य और निर्वृति पर होता था जिसका प्रभाव जनता पर इस कदर का हुआ कि कोई ६४ नरनारियाँ सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेने को भी तैयार Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १८३ हो गये क्यों न हो उस समय के जीवों कर्म ही लघु थे क्षयोपशम विशेष था और निकट भविष्य में उनको मोक्ष होने वाली थी अतः थोड़ासा उपदेश भी उन पर विशेष असर कर जाता था । ठीक समय पर इधर सूरिजी महाराज महावीर मन्दिर में चतुर्विध श्री संघ की सम्मति लेकर मुनिरत्न को आचार्य पद से विभूषित करके आपका नाम रत्नप्रभसूरि रक्ख दिया था साथ ही साथ मुक्ति रमणी की इच्छावाले ६४ नरनारियों को भगवती जैनदीक्षा दी । तब उधर राजा सारंगदेव ने अपने जेष्ठ पुत्र धर्मदेव को राजपद अर्पण कर दिया इस सुअवसर पर कई पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य हुए और साधर्मी भाइयों को पेरामणी आदि से सत्कार किया तथा याचकों को पुष्कल दान भी दिया राजा धर्मदेव तख्तनिशान होते ही सब से पहली यह आज्ञा फरमायी कि हमारे पूर्वजों से ही हमारे राज में जीव हिंसा बन्द है तथापि में उसकी दृढ़ता से लिये इस समय और भी कहता हूँ कि यदि हमारे पूर्वजों की आज्ञा का अंग कर कोई भी व्यक्ति बिना कारण किसी भी जीवको मारेगा उस जीव के बदले अपना जीवन देना पड़ेगा इत्यादि । मनाई जा रही हैं और आचार्य विशेष हर्ष था कि मुनिरन इसी आचार्य सिद्धसूरि के कारकमलों अहाहा ! आज उपक्रेशपुर के घर घर में बड़ी भारी खुशियें सिद्धसूरि की भूरि भूरि प्रशंसा हो रही है दूसरे राजाप्रजा को इस बातका उपकेशपुर का वीर क्षत्री एवं चमकता सितारा है आज वही उपकेशपुर में से आचार्यपद पर आरूढ़ हुआ है भला ऐसा कौन मनुष्य होगा कि जिसको अपने देश एवं नगर का गौरव न हौ ? मनुष्यों को तो क्या पर इस कार्य से देवी सच्चायिका को भी बड़ा ही हर्ष था क्योंकि आज उनके मन धारा कार्य सफल हुआ है जिस रत्नप्रभसूरि ने देवी को प्रतिबोध देकर जैन शासन की अधिष्ठात्री एवं उपकेश गच्छोपासिका बनाई थी जिनके नाम के आचार्य को देखने का शोभाग्य मिला है। राजा सारंगदेवादि श्रीसंघ का अत्याग्रह से सूरिजी ने वह चतुर्मास उपकेशपुर में ही करना निश्चय कर लिया श्रतः आसपास के क्षेत्रों में विहार कर जैन जनता को धर्मोपदेश सुनाया और जहाँ आवश्यकता देखी वहाँ अपने साधुत्रों को चतुर्मास करने की आज्ञा भी प्रदान करदी और आप श्रीमान् यथा समय उपकेशपुर में पधार कर वहाँ चतुर्मास कर दिया । यों तो अनेक महानुभावों ने सूरिजी के चतुर्मास से लाभ उठाया ही था पर विशेष लाभ राजा सारंगदेव प्राप्त किया। आप पहले पढ़ चुके हैं कि राजा सारंगदेव राज खटपट से अलग हो अपना श्रात्म कल्याण करने की उत्कृष्ट भावना रखता था इस पर भी सूरिजी की कृपा होगई तथा चतुर्मास कर दिया फिर तो कहना ही क्या था राजा रात्रि दिन इसी कार्य में व्यतित करता था एवं कई लोग भी राजा के साथ रहकर उनका अनुकरण किया करते थे इत्यादि । सूरिजी के विराजने से उपकेशपुर के लोगों ने यथा रूवि खूब ही लाभ उठाया । सूरिजी की अवस्था वृद्ध थी तथापि चतुर्मास के बाद विहार करने की इच्छा रखते थे पर कई भावुकों ने जैन मन्दिर बनवाये उनकी प्रतिष्ठा करवानी थी और कई मुमुक्षु दीक्षा लेने की भावना वाले थे श्रतः सूरिजी से साग्रह प्रार्थना की जिसको स्वीकार कर सूरिजी आस पास के ग्रामों में विहार कर पुनः उपकेशपुर पधार कर भद्रपुरुषों को दीक्षा दी और मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी करवाई पर अशुभ कर्म ने सूरिजी पर ऐसा आक्र मण किया कि आपके शरीर में व्याधि उत्पन्न हो गई इस हालत में राजा सारंगदेवादि श्रीसंघ ने सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो आपने अपने उपकारी जीवन में अनेक भव्यों का उद्धार किया है और शासन की खूब उन्नति की है। आप की वृद्धावस्था है अतः आप हम लोगों पर कृपा कर यहीं विराजें कि आपकी सेवादि ३३५ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २१७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास से हम लोगों का भी कल्याण हो । सूरिजी ने कहा कि आपकी भक्ति एवं भावना बहुत अच्छी है पर जहाँ तक विहार हो सके वहां तक तो साधुओं को विहार करना ही चाहिये विहार से नये नये क्षेत्रों की स्पर्शता होती है जनता को नया २ उपदेश मिलता है चारित्र की विशुद्धता रहती है और पुरुषार्थ एवं उत्साह बढ़ता है इत्यादि । एक तो आपकी अवस्था ऐसी थी कि सुख पूर्वक विहार नहीं होता था दूसरा वहां के श्रीसंघ का आग्रह भी बहुत तीसरा राजा सारंगदेव के साथ अनेक भव्यों की कल्याण भावना ने भी सूरिजी पर काफी प्रभाव डाला अतः लाभालाभा का कारण जान कर सूरिजी ने फरमाया कि ठीक है फिलहाल मैं कुछ अर्सा तक यहाँ ठहरूंगा । आगे जैसी क्षेत्र स्पर्शना । आचार्यश्री ने नूतनाचार्य रत्नभसूरि को ५०० मुनियों के साथ विहार करने की आज्ञा फरमादी और कहा कि आप स्वयं विचार है अब आप पर गच्छ की जुम्मेवारी है अतः मरूधर सौरठ कच्छ सिन्धु पांचालादि क्षेत्रों में विहार कर सर्वत्र श्रीसंघ को उपदेश का लाभ देना तथा पूर्वोक्त प्रदेशों में विहार करने वाले साधु साध्वियों की सार संभार करते हुए जिनशासन की सेवा करना इत्यादि सूरिजी ने मानो एक शुभ आशीर्वाद ही दिया था। प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने 'तथास्तु' कहकर कहा पूज्यवर ! आपश्री की आज्ञा तो मैं शिरोधार्य करता है परन्तु मेरा दिल आपश्री की सेवा से अलग रहना नहीं चाहता है फिर भी आपश्री की इस वृद्धावस्था में मैं दूर कैसे रह सकता हूँ ? इस पर सूरिजी ने फरमाया कि तुमारा कहना ठीक है पर सब साधु एक ही स्थान में रहने में क्या लाभ है साधुओं को तो विचरते रहना चाहिये जिसमें भी आप अब सूरिपद को शोभितकर रहे है आप पर सब गच्छ एवं शासन का भार है प्रत्येक प्रान्तों में विहार करने वाले साधुओं की सार संभाल भी करना जरूरी बात है । अतः मेरी आज्ञा है कि आप बिना विलम्ब आनन्द से विहार करे और मेरी आज्ञा का पालन करना यही मेरी सेवा है इत्यादि। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने सूरिजी की आज्ञा से ५०० साधुओं के साथ उपके शपुर से बिहार किया और मरूधर में घूम कर अहिंसाधो का खूब प्रचार कर रहे थे आचार्यश्री सिद्धसूरि उपकेशपुर में परनिर्वृितिमें अन्तिम सलेखना कर रहे थे आचार्य रत्नप्रभसूरि मरूधर में विहार करते थे परन्तु श्रापका चित्त गुरुदेव के चरणों में था अतः वे चलकर पुनः उपकेशपुर पधारे और आप भाग्यशाली भी थे कि पूज्य गुरुदेव की अन्तिम सेवा का लाभ हासिल किया क्यों कि आचार्यश्री ने आप के आने के पूर्व ही अनशन ब्रत कर लिया था इस समय आपका पधारना हो गया आपश्रीने सूरिजी की अन्तिम सेवा एवं खूब सहाज दिया और १५ दिन का अनशन पूर्वक परम समाधि के साथ आचार्यश्री सिद्धसूरि स्वर्ग पधार गये इस दुःखद घटना से श्री संघ को बहुत रंज हुआ पर वे करते क्या ? आखिर परिनिव्वाण का काउस्सागादि क्रिया की तत्पश्चात् प्राचार्य रत्नप्रभसूरि की विद्यमानतामें केवल १५ दिनों में ही राजा सारंगदेव ने असार संसार से विदा लेली। - आचार्य रत्नप्रभसूरि अपने शिष्य भण्डल के साथ अभी मरुधर की धरा पर विहार कर रहे थे उसी समय का जिक्र है कि पूर्व प्रान्त की ओर भयंकर दुष्काल वर्त रहा था अतः पूर्व में विहार करने वाले आचार्य एवं मुनिगण पश्चिम की ओर आ रहे थे उसमें आर्य सुहस्तिसूरि भी थे और वे जीविनस्वामी की यात्रार्थ श्रावती प्रदेश में पधारे जब आप उज्जैन नगरी पधार कर भगवान महावीर की मौजूदगी में स्थापित मूर्ति अर्थात् जीवित स्वामी के दर्शन किये उस समय श्रीसंघ ने रथयात्रा का वरघोड़ा (जलूस) निकाला था वहां के राजा सम्प्रति अपने महलों में बैठा हुआ जलूस के साथ सूरिजी को देखा उपयोग लगाने से उनको जाति ३३६ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उज्जैन नगरी में सम्राट् सम्प्रति व आर्य सुहस्तिसूरि और प्राचार्य रत्नप्रभसूरि (दूसरे) का मिलाप सम्राट् सम्प्रति के माता पिता व पितामहा आदि Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ औसवाल संवत् १८७ स्मरण ज्ञानोत्पन्न हो गया इस विषय में हम पहिले विस्तार से लिख आये हैं कि आर्य सुहस्ति ने राजा सम्प्रति को जैन धर्म में दीक्षित किया और सम्राट ने जैनधर्म का प्रचार निमित्त उज्जैन नगरी में एक जैन सभा की आयोजन किया था और इसके लिए बहुत दूर दूर तक अपने आदमियों के साथ आमन्त्रण भी भिजवाया था जिसमें एक आमन्त्रण मरुधर प्रान्त में विहार करने वाले आचार्य रत्नप्रभसूरि को भी भेजा था आचार्य रत्नप्रभसूरि उस आमन्त्रण को पढ़ कर बड़े ही हर्ष के साथ आवंती की ओर विहार कर दिया क्यों न करें जैनधर्म के प्रचार हित कौन पीछे रह सकते हैं जिसमें भी आप के तो पूर्वजों से ही क्रमशः यह प्रवृति चली आ रही थी। अतः ऐसे सुअवसर में वे कब पीछे रहने वाले थे । आचार्य रत्नप्रभसूरि अपने विद्वान शिष्यों के साथ क्रमशः विहार करते हुए उज्जैन नगरी के नजदीक पधार रहे थे तो राजा सम्प्रति और आर्य सुहस्तिसूरि को मालूम हुआ कि मरू प्रदेश की ओर से आचार्य रत्नप्रभसूरि पधार रहे हैं अतः राजा ही क्यों पर नगरी भर में बड़ी खुशियें मनाई जाने लगी और श्राचार्य सुहस्तिसूरि ने विचार किया कि पार्श्वनाथ के सन्तानिये मरुधर पंचालसिंध कच्छ वगैरः बहुत से प्रांतों में तंत्रिको एवं नास्तिको और मांसाहारियों के प्रदेशों में अहिंसा एवं जैनधर्म का जोरों से प्रचार किया है पूर्व जमाने में गणधर गौतमस्वामी भी केशीश्रमणाचार्य की स्वागत के लिये चलकर गये थे तो ऐसे जैनधर्म के प्रचारकों का स्वागत करना मेरा भी खास कर्तव्य है अतः राजा प्रजा के साथ सूरिजी भी अपने शिष्यों के साथ सामने गये और बड़े ही महोत्सव के साथ सूरिजी का नगर प्रवेश करवाया सकल श्रीसंघ के साथ जीवित स्वामी के दर्शन कर जहां श्राचार्य सुहस्तिसूरि ठहरे हुए थे वहाँ पधार कर दोनों आचार्य एक तख्त पर विराजमान हो मंगलाचरण के साथ थोड़ी पर सारगर्भित देशना दी जिससे राजा प्रजा पर बहुत अच्छा प्रभाव हुआ अन्त में भगवान महावीर की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। जब निवृति के समय दोनों आचार्य आपस में वार्तालाप करने के लिये विराज मान थे उस समय राजा सम्प्रति सूरिजी को वन्दन तथा नये पधारे हुए आचार्यरत्नप्रभसूरि के दर्शनार्थ आये थे । वन्दन किया और विहार की सुख सात पुछका बैठ गया । आचार्य सुहस्तिसूरि ने राजा सम्प्रति को सम्बोधन करके कहा कि यह आचार्य रत्नप्रभसूरि भगवान पार्श्वनाथ के सन्तानिये हैं इनके पूर्वजों ने मरुधरादि प्रदेशों जहाँ यज्ञ बादी तांत्रिकों एवं नास्तिकों का साम्राज्य था वहां अनेक परिसहों एवं कठिनाइयों को सहन करके तथा चार चार मास तक भूखे प्यासे रह कर वहां के राजा प्रजा को धर्मोपदेश देकर जैनधर्म में दीक्षित कर महाजन संघ की स्थापना रूप एक कल्पवृक्ष लगा दिया है और पीछले आचार्यों ने उनका सींचन एवं पोषण किया जिसका ही फल है कि मरू सिन्ध कच्छ सोरष्ट्र लाट और पंचाल देश में श्राज लाखों मनुष्य जैनधर्म की आराधना कर रहे हैं जैसे आचार्य रत्नप्रभसूरि यज्ञदेवसूरि कक्कसूरि देव गुप्तसूरि और सिद्धसूरि नाम के महान प्रभाविक जिनशासन के स्तम्भ और जैनधर्म के प्रचारक हुए हैं इसी प्रकार यह रत्नप्रभसूरि (द्वितीय) भी एक प्रभाविक आचार्य हैं उन प्राचार्यों के उपकार से जैन समाज कभी उऋण नहीं हो सकता है इतना ही क्यों पर इन महात्मात्रों ने पूर्वोक्त प्रान्तों में हजारों मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैन धर्म को चिरस्थायी बना दिया है अतः आपको जितना धन्यवाद दिया जाय एवं प्रशंसा की जाय उतना ही थोड़ा है। फिर भी अधिक हर्ष इस बात का है कि आपका आमन्त्रण पा कर इन महात्माओं का यहां पधारना ४३ ३३७ www.alinelibrary.org Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २१३ वर्ष [ भगवाज् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हो गया है अतः सम्भव ही नहीं पर दृढ़ विश्वास है कि ऐसे धर्म प्रचारकों के सहयोग से आपको कार्य अवश्य सफल होगा इत्यादि । प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने कहा सूरिजी महागज मैं इतनी प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ। हां आचार्य स्वयंप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि आदि ने इन प्रान्तों में आकर कई राजाओं को जैन बनाकर एक वृक्ष लगा दिया जिसके सुन्दर एवं स्वादिष्ट फल हम चख रहे हैं अतः कृतज्ञ पुरुषों का खास कर्तव्य है कि उन महान उपकारी पुरुषों का उपकार माने और इस प्रकार उपकार मानने से ही धर्म की वृद्धि एवं प्रचार होता है । रत्नप्रभसूरि ने कहा पूज्याचार्य महाराज, इस समय आप भी तोबड़े ही भाग्यशाली हैं कि इस प्रकार जैनधर्म के प्रचार के लिए प्रयत्न कर रहे हैं जिसको सुन व देखकर जैनसमाज को बड़ा ही हर्ष होता है । राजा सम्प्रति ने कहा कि पूज्यवर ! आपकी और आपके पूर्वजों की हम कहां तक प्रशंसा करें भले आज वे प्रान्तों सुलभ हो गई हों पर जब पहले पहले उन आचार्यों को कितना कष्ट सहन करना पड़ा होगा मैं तो समझता हूं कि उस समय वे क्षेत्र अनार्यों के सदृश ही होगा जिसमें इस प्रकार धर्म का प्रचार करना कोई साधारण सी बात नहीं कही जाती है अतः उन पूज्याचार्यों का जितना उपकार माना जाय वह थोड़ा ही है इत्यादि खूब तारीफ की। ___ आचार्यरत्नप्रभसूरि ने कहा राजन् ! आप भी बड़े ही भाग्यशाली हैं कि आपको आचार्यसुहस्तिसूरिजैसे प्रतिभाशाली आचार्य का सहयोग मिला है और विशेषता में आपने जैनधर्म प्रचार के हित सभा करने का निश्चय किया यह भी एक शासन के अभ्युदय का ही कारण है पूर्व जमाना में भी समय-समय इस प्रकार सभाए हुआ करती थी सुना जाता है कि आपके पूर्वज सम्राट चन्द्रगुप्त के शासन में पाटली त्र नगर में भी एक श्रमण सभा हुई थी और उसमें जैनागमों की ठीक व्यवस्था ही की गई थी। आचार्य यक्षदेवसूरि आदि आचार्यों ने भी कई स्थानों पर इस प्रकार सभाएँ कर जैनधर्म का प्रचार किया था और आपके पितामहा सम्राट अशोक ने भी एक बोध भिक्षुओं की सभा की थी और उन भिक्षुओं को अपने धर्म का प्रचार करने के लिये साहसिक बना कर अनेक प्रान्तों में उपदेश के लिये भेजे थे अतः राजाओं का यह खास कर्त्तव्य है कि इस प्रकार सभाओं कर जनता में धर्म का प्रचार करे और उसी मार्ग का आपने अनुकरण किया यह खास प्रशंसनीय है और जहाँ हम लोगों का काम हो हम करने को कटिबद्ध तैयार हैं इतना ही क्यों पर जैनधर्म के प्रचार के लिये कितने ही परिसह एवं कठिनाइयां क्यों न उपस्थित हो जाय पर उसकी परवाह न कर हम प्राण प्रण के साथ धर्म प्रचार के लिये हर समय तैयार हैं इत्यादि :--- आचार्य सुहस्तिसूरि और राजा सम्प्रति सूरिजी के वीरतामय वचन सुन कर मन्त्र मुग्ध बन गये और राजा ने कहा पूज्यवर ! आपके अमृतमय वचन सुन मुझे निश्चय हो गया है कि मेरा धारा हुआ कार्य अवश्य सफल होगा कारण आप जैसे सूरीश्वरों का शुभागमन हो गया है और आपके केवल हृदय में ही नहीं पर नस-नस एवं रोम रोम में जैन धर्म का प्रचार की भावना ठुसठुस कर भरी हुई है रही कारण है कि इस भावना से ही आप मरुधर और सिन्ध जैसे मांसाहारी पाखण्डियों के प्रदेश में भी जैनधर्म का काफी प्रचार कर दिया है दूसरे श्रापकी विनय प्रवृति और वात्सल्यता ने भी मेरे हृदय पर कम प्रभाव नहीं डाला है जिसका मैंने प्रत्यक्ष में अनुभव कर लिया है इत्यादि । वार्तालाप के बाद राजा सम्प्रति सूरियों एवं मुनिवरों को वन्दन कर विदा ली। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १८७ जैसे आचार्यों के आपस में धर्म स्नेह एवं वात्सल्यता थी वैसे ही दोनों ओर के मुनिवर्ग में भी खूब धर्म प्रेम था एक दूसरों के गुणों का अनुमोदन कर रहे थे 'तप संयम ज्ञान ध्यान विनय व्यावच्च एवं धर्म प्रचार की बातें हो रही थी पर कोई किसी को यह नहीं पुच्छता था कि आप किस गच्छ कुल शाखा एवं समुदाय के हैं एवं आप कौन कौनसी क्रियाए-समाचारी करते हैं कारण मोक्षाभिलाषियों को इन बातों से क्या प्रयोजन था क्योंकि जिसका जैसा क्षयोपशम है वह वैसा ही करता है कारण एक कार्य के अनेक कारण हो सकता है और जैसी जैसी जिनकी रुची है वह उसी माफिक करता है पर सब का ध्येय तो एक ही था कि जन्ममरण के दुःखों से मुक्त हो अक्षय सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना । आज उज्जैन नगरी एक तीर्थ धाम बन गया है हजारों मुनि महात्मा नजदीक एवं दूर-दूर से चल कर उज्जैन नगरी की ओर आ रहे हैं राजा की उदार भावना ऐसी थी कि बिना किसी पक्षपात सब महात्माओं का यथोचित सन्मान एवं सत्कार किया जाता था। पहले से जो समय निश्चित किया था वहाँ तक विशाल संख्या में श्रीसंघ एकत्र हो गया था अतः सम्राट् सम्प्रति की ओर से सभा के लिये सब को सन्मान पूर्वक श्रामन्त्रण भेजा गया और बड़े ही उत्साह के साथ श्रीसंघ एकत्र हुआ आचार्य सुहस्तिसूरि उस सभा के प्रमुख थे-मंगलाचरण के पश्चात् प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने सभाका उद्देश्य कह सुनाया और प्राचार्यसुहस्तिसूरिने अपनी ओजस्वो वाणि द्वारा इस प्रकार का उपदेश दिया कि उपस्थित लोगों के मन मन्दिर में जैनधर्म प्रचार की बिजली चमक उठी पुनः सूरिजी ने कहा कि जैनधर्म एक विश्वव्यापि धर्म है और एक समय वह था कि विश्वमात्र जैनधर्मोपासक था पर काल की कूटल प्रभा से एक ही धर्म से अनेक पन्थ पैदा होकर भद्रिक जनता को अपने-अपने मत पन्थ में जकड़ कर समार्ग भूला दिया और उन्मार्ग के पथिक बना दिये । इसमें थोड़ा बहुत प्रमाद साधुओं का भी कहा जा सकता है कि उनका कम भ्रमण होने से ही अधर्म का जोर बढ़ गया है यदि साधु प्रत्येक प्रान्त में घूम-घूम कर उपदेश देते रहे तो न तो धर्म में शिथिलता आती है और न अधर्म का प्रचार ही होता है। उदाहरण की तौर पर देखिये भगवान पारवनाथ के संतानिये आचार्य स्वयंप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि इधर मरूधर की ओर पधारे थे उन्होंने कहाँ तक जैनधर्म का प्रचार किया कि आज मरूधर सिन्ध कच्छ सौराष्ट्र लाट एवं पंचालादि प्रान्तों में जैनधर्म का काफी प्रचार हो गया है इसी प्रकार आर्य भूमि तो क्या पर अनार्य भूमि में भी जैन श्रमणों का विहार होता रहे तो मुझे आशा ही नहीं पर दृढ़ विश्वास है कि जैनधर्म का सतारा फिर से चमकने लग जाय पर इस कार्य में केवल एक श्रमणगण ही पर्याप्त नहीं है पर इसमें गृहस्थों एवं राजाओं की भी आवश्यकता है अतः रथ चलता है वह दो पइयां से ही चलता है मेरा विश्वास है कि उपस्थित श्रमणसंघ इसके लिये तैयार हो और राजा सम्प्रति इस कार्य को अपने हाथ में ले तो यह कार्य आसानी से सफल हो सकता है इत्यादि इस सभा एवं धर्म प्रचार का विवरण हम सम्राट् सम्पति के जीवत में लिख आये हैं अर्थात् सूरिजी एवं सम्राट् के प्रयत्न से भारत और भारत के अतिरक्त पाश्चात्य प्रदेशों में जैनधर्म का खूब जोरों से प्रचार हुआ था। प्राचार्यरत्नप्रभसूरि कई अर्सा तक वहां ही विराजे बाद आर्य सुहस्तिसूरि से कहा कि यदि हमारी एवं हमारे साधुओं की जब कभी आवश्यकता हो एवं आप सूचना करावे कि हम जहाँ फरमावे वहाँ जाने Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २१३ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को तैयार है। इस पर प्राचार्य सुहस्तिसूरि ने कहा महात्माजी श्राप तो यों ही धर्म प्रचार में ही लगे हुए हैं फिर भी ऐसा मौका होगा तो आप क्या और मैं क्या सब इस कार्य के लिये तैयार ही हैं। आचार्य रत्नप्रभसूरि कई अर्मा तक आवंति प्रदेश में भ्रमन कर जनता को धर्मोपदेश सुनाया बाद में लाट सौराष्ट्र की ओर विहार किये और वहां जो पहले से आपके साधु साध्वियों विहार करते थे उनकी सार संभार कर तथा तीर्थधिराज की यात्रा भी की बाद कन्छभूमि में पधारे कई वर्ष वहां धर्म प्रचार किया तत्पश्चात सिन्ध प्रदेश में पदार्पण किया आपके पधारने से वहां की जनता में खूब ही धर्मोत्साह बढ़ गया वहां भी आपके साधु साध्वियें विस्तृत संख्या में विहार करते थे जब उन्हों को मालुम हुआ कि हमारे पूज्य आचार्य रत्नप्रभसूरि का पधारना सिन्ध में हो रहा है वे लोग मुड के अँड सूरिजी के दर्शनार्थ आने लगे जहां सूरिजी का पधारना होता था वहां एक प्रकार का मेला ही लग जाता था आचार्यश्री का व्याख्यान इतना तो प्रभावोत्पादक एवं रोचक पाचक था कि अनेक भव्यों ने मिथ्यामत को त्याग कर जैनधर्म को स्वीकार कर लेते थे कई भव्यों ने सूरिजी के पास जैनधर्म की दीक्षा भी ली थी सिन्ध भूमि के सुपुत्रों ने व पर कल्याणार्थ जैन मंदिरों के निर्माण भी करवाये थे जिसकी प्रतिष्ठा भी सूरिजी के कर कमलों से हुई इसी प्रकार सूरिजी महाराज कई अर्सा तक सिन्ध भूमि में परिभ्रमण कर जैन धर्म की खूब ही जागृति एवं उन्नति की तत्पश्चात सूरिजी महाराज पंचाल को पावन बनाने की गरज से उस तरफ विहार किया। अहा-हा पूर्व जमाने के आचार्यों की क्या ही सुन्दर प्रवृति थी कि वे एक ग्राम नगर या एक प्रांत में न रहकर हर समय घूमते ही रहते थे वे नये जैन बनाते थे पर पूर्व बने हुए जैनों को भी नहीं भूलते थे उनकी भी सार संभार का पूरा प्रयत्न रखते थे इस प्रकार भ्रमन करने से साधुओं को भी बड़ा भारी लाभ था उनका चरित्र सदैव निर्मल रहता था ममता तो उनके नजदीक भी नहीं फटकती थी उपकार करने में उत्साह बढ़ता रहता था इत्यादि अनेक फायदे थे और इसी प्रकार नये २ मुनियों के पधारने से श्रावक लोगों के भी भाव बढ़ते रहते थे यही कारण है कि दिन ब दिन जैन धर्म उन्नति दशा को पहुँचता जा रहा था। सूरिजी महाराज जब पंचाल में पदार्पण किया तो वहां की समाज में हर्ष का पार नहीं रहा प्राम नगर में आपका अपूर्व स्वागत होता था व्याख्यानों की तो सर्वत्र धूम मच जाती थी वहां विहार करने वाले साधु साध्वियें आपश्री के दर्शनार्थी आया करते थे आपश्री ने कई अर्सा तक पंचाल में विहार कर वहां की जनता का जीवन धर्म मय बना दिया। जब से सृरिजी आचार्य पदारुढ़ हुए तब से ही आप अपना जीवन जैनधर्म के अभ्युदय के हित व्यतीत कर रहे थे आप चाहे किसी प्रान्त में विहार क्यों न करें पर कोई भी प्रान्त साधुओं से शून्य नहीं रखते थे इतना ही क्यों पर समयानुसार योग्य साधुओं का सत्कार करने को कई को उपाध्याय कई को पण्डित कई को वाचक कई को गणि आदि पदवियों से भूषित कर उनको प्रत्येक प्रान्तों में प्रचार निमित भेज दिया करते थे वह भी हमेशा के लिये एक ही प्रान्त में नहीं पर समय समय पर रहो. बदल भी किया करते थे कि उन साधुओं के क्षेत्र एवं उपासकों के प्रति राग द्वेष एवं ममत्व भी नहीं बढ़ सके तब ही तो वे एक आचार्य इतनी प्रान्तों को संभाल सकते थे और आपका एवं साधुओं का शांतिमय जीवन बना कर कल्याण साधन करते हुए जन धर्म का प्रचार कर पाये थे। एक समय आप लोहाकोट नगर में चतुर्मास किया और हमेशा जैनागामों का व्याख्यान फरमाते थे राजा मंत्री एवं नागरिक लोग भ्रमर मक्रन्द की भांति वाणि सुधा रस पान कर रहे थे एक दिन के व्या Jain Ed international Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १८७ ख्यान में तीर्थङ्करों के निर्वाण भूमिका वर्णन हो रहा था अतः आपश्री ने फरमाया कि अष्टापद और गिरनार के अलावे बीस तीर्थङ्करों की निर्वाण भूमि पूर्व देश ही है जिसमें भी चम्पापुरी पावापुरी के अलावे बीस तीर्थङ्करों की निर्वाण मूमि सम्मेतशिखर है जिस भूमिपर तीर्थंकरों की मोक्ष हुई है वहाँ की भूमि महान् पवित्र समझी जाति है जिस तीर्थकर गणधर मुनिराजों ने अपने अन्तिम शुभ अध्यवसायों के परमाणु वहां छोड़े थे वहां जाने वालों के अध्यवसायों को स्वच्छ बना देते है यही कारण है कि मोक्षमार्ग की साधनामें तीर्थयात्रा भी एक बतलाई है पूर्व जमाने में बड़े राजा महाराजा आलीशान संघ लेकर तीर्थयात्रा निमित दोदो चार चार मास घूम घूम कर यात्रा करते थे और जिस दिन यात्रार्थ संघ प्रस्थान करते थे उस दिन से घरके झगड़ों से निर्वृति, रास्ता में कम से कम एकासनाका तप, ब्रह्मचार्यव्रत का पालन, गुरुदेवों की सेवा, स्वाधर्मी भाइयों का समागम, नये नये तीर्थों की यात्रा, एवं पूर्व संचित पापों को धो डालना, इत्यादि बहुत लाभ हैं इतना ही क्यों पर तीथों के संघ निकालने वाले महानुभाव संघपति पद को प्राप्त कर पूजनीक बन जाता है इत्यादि। सूरिजी के उपदेश का प्रभाव उपस्थित जनता पर इस कदर हुआ कि उनकी अन्तरात्मा तीर्थ यात्रा करने के लिये उत्सुक बन गया उसी समय उसी सभामें बैठा हुआ वहां के राजा सहसकरण का प्रधान मंत्री पृथुसेन खडा होकर प्रार्थना की कि पूज्याचार्य देव के उपदेश ने हम लोगों पर खूब ही प्रभाव डाला है अतः मेरी भावना है कि मैं सम्मेतशिखरजी आदि तीर्थों के लिये संघ निकालू अतः श्रीसंघ मुझे आज्ञा दिरावे । सब लोग सूरिजी महाराज की ओर टकटकी लगा कर देख रहे थे सूरिजी महाराज ने फरमाया कि जब एक भाग्यशाली इस प्रकार की प्रार्थना कर रहा है तो श्रीसंघ का कर्तव्य है कि उन की भावना को सफल बनाने की आज्ञा देकर उनके उत्साह को बढ़ावे । संघ अप्रेश्वरों ने कहाँ पूज्य महाराज संघ के नायक तो आपही हैं हमतो सब आपश्री की आज्ञा को पालन करने वाले हैं फिर भी इतनी अर्ज तो हम आपश्री से भी करलेते हैं कि मंत्रेश्वरजी को तो श्री संघ श्राज्ञा दे देगा पर आप श्रीमानों को अपने शिष्य मंडल के साथ संघ में पधारना अवश्य पड़ेगा? तब ही हम मन्त्रेश्वर को पूर्णतय आज्ञा देंगे ? सूरिजी ने लाभालाभ का कारण जान अपनी ओर से स्वीकृति देदी बस भगवान महावीरदेव की जयध्वनि के साथ श्रीसंघ ने मन्त्रेश्वर को श्राज्ञा प्रदान करदी जिसको मन्त्रेश्वर ने बड़े ही हर्ष के साथ शिरोधार्य कर अपना अहोभग्य समझा। मन्त्रेश्वर बड़ा ही भाग्यशाली था उनकी उदारता की बराबरी कुबेर भी नहीं कर सकता था फिर संघपति बनने का सौभाग्य मिल गाया अतः श्राप का उत्साह और भी बढ़गया । राजा सहसकरण ने भी मन्त्री को कहा कि मन्त्री तुं वास्तव में पुन्यशाली है और यह महान लाभ तेरे ही तकदीर में लिखा हुआ था संघ निकालने वाले मेरे नगर में बहुत है पर उस समय किसी से न कहा गया खैर अब संघ के लिये जो कुछ भी सामग्री चाहिये वह बिना पुछे ही ले जाया करो, मैं आजसे ही इजाजत देता हूँ मन्त्री ने राजा का हुक्म को शिरोधार्य कर लिया। ___ मंत्री ने नजदीक एवं दूर दूर विहार करने वाले सब साधु साध्वियों को आमन्त्रण के लिये अपने खास आदमियों को भेज दिये और आमन्त्रण पत्रिकाएं भी सब ग्राम नगर एवं प्रान्तों में भिजवादी । घर आप सकुटुम्ब संघ सामग्री एकत्र करने में लग गये। और सब कामों को कई विभाग में विभक्त करके अलग ३४१ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २१३ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अलग मनुष्यों को मुकर्रर कर दिये राज तंत्र चल ने वाले मंत्री के लिये इस संघ का कितनाक काम था उसने ऐसी सुव्यवस्था करदी कि थोड़ा ही समय में सब साधन तैयार कर लिया। ___लोहाकोटनगर आज एक यात्रा का धाम बन गया हजारों साधु साध्वी और लाखों स्वधर्मी भाई आज मंत्री पृथुसेन के ग्रह भूमि को पवित्र बना रहे हैं सूरिजी ने संघ प्रस्थान का शुभ दिन मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी का निश्चित कर दिया था उस शुभ दिन में मंत्री पृथुसेन के संघपतिपने का तिलक एवं वासक्षेर कर के आचार्य श्री की अध्यक्षत्व में संघ प्रस्थान किया साथ में भगवान का देरासर और हस्त अश्व रथ पालकिये गाडा उठ पोठ नकारा निशान वगैरह जो सामग्री चाहिये वह सब ले ली थी द्रव्य की मंत्री की ओर से खूब उदारता थी और संघ की सुंदर व्यवस्था थी तथा आप स्वयं साधु साध्वियां वगैरह चतुर्विध श्री संघ की सार संभाल रखता था श्रीसंघ प्रस्थान करने के बाद रास्ता में सब तीर्थों की यात्रा सेव पूजा भक्ति ध्वजरोहण जीर्णोद्धार करता हुश्रा तीर्थधिराज श्रीसम्मेतशिखरजी पहुँच गया तीर्थ दर्शन स्पर्शन से सब का चित प्रसन्न था दूसरे दिन सुबह होते ही आचार्यश्री एवं संघपति के साथ चतुर्विध श्रीसंघ पहाड़ पर जाकर बीस तीर्थंकरों के चरण कमलों की स्पर्शना की सेवापूजा करने वाले सेशपूजा की इस प्रकार कई दिन तीर्थ सेवा का खूब लाभ लूटा पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि अनेक शुभ कार्य कर पुन्योपार्जन किया। ___ आचार्य रत्नप्रभसूरि ने विचार किया कि अब मेरी अवस्था वृद्ध हो गई है तो मैं मेरा अधिकार योग्य शिष्य को देकर इस पवित्र भूमि में निवृति के साथ आत्म कल्यान करूं यह केवल विचार ही नहीं था पर सूरिजी ने श्रीसंघ को बुला कर अपने विचारों को सुना दिया परन्तु श्रीसंघ यह कब चाहता था कि संघ के साथ पधारे हुए सूरिजी महाराज यहां ही ठहर जाय । संघपति पृथुसेनादि श्रीसंघ ने कहा कि पूज्यवर ! आपके विचार के सहमत हम कैसे हो सकते हैं कृपा कर जैसे श्रीमान संघ लेकर पधारे हैं वैसे ही संघ को वाविस यथा स्थान पहुँचादे । सूरिजी--- आपका कहना भले ठीक हो पर आप जानते हो कि अब मेरी अवस्था वृद्ध हो गई है फिर का इस तीर्थ पर आने का मौका बनता है और यह बीस तीर्थङ्करों की निर्वाण भूमि निर्वृति का स्थान है अतः मेरा दिल चाहता है कि अब मैं गच्छ सम्बन्धी कार्यों से निवृति पाकर विशेष आत्म अल्याण सम्पादन करूँ । दुसरे वहाँ चलकर भी आप लोगों को धर्मोपदेश सुनाना है यदि मेरी आयुष्य अधिक होगा तो इस कार्य की यहाँ भी आवश्यकता कम नहीं है । श्राप रास्ता में देखते आये हो कि बौद्ध धर्म के भिक्षु उपदेश देकर अपने धर्म का किस प्रकार प्रचार कर रहे हैं यदि इस प्रान्त में योग्य साधुओं का विहार न हुआ तो जैन धर्म को बड़ी भारी हानि पहुँचने की संभावना है इत्यादि :-- ___ संघपति आदि श्रीसंघ ने कहा पूज्यवर । आपका फरमाना तो सत्य है इसके सामने तो हम क्या कह सकते हैं अतः हम लोग तो आपकी आज्ञा का पालन करना ही अपना कर्त्तव्य समझते हैं। सूरिजी-संघपतिजी आप बड़े ही भाग्यशाली हैं आपने तीर्थ यात्रा का संघ निकाल कर लाभ हाँसिल किया सो तो किया ही है पर मैं इस समय आपके सुपुत्र मुनि धर्मसैन को मेरा अधिकार देकर आचार्य पद देने का निश्चय कर लिया है यह भी आपके लिये बड़े ही गौरव की बात है कि आपके कुल में एक ऐसा रत्न उत्पन्न हुआ है 300 Jain Education Ternational Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १८७ संघपति-~-बड़ा ही खुशी होकर कहाँ पूज्यवर ! आप श्रीमानों की हमारे देश और विशेष हमारे पर कृपा है अब कृपाकर इस सूरिषद के महोत्सव का आदेश मुझे ही मिलना चाहिये ? पास में बैठे हुए कई सज्जनों ने प्रार्थना की कि पूज्य गुरुदेव ! संघपतिजी ने तो संघ निकालकर बहुत लाभ उठाया है और मुनि धर्मसेन को सूरि पद देना यह भी तो मंत्रीजी को ही लाभ है तब इसका महोत्सव का लाभ तो हम लोगों को मिलना चाहिये इत्यादि बड़े ही धर्म वात्सलता के साथ उन्होंने महोत्सव किया और सूरिजी ने अपने योग्य शिष्य मुनि धर्मसेन जो मंत्री पृथुसैन का पुत्र था उसको सूरि मंत्र और वासक्षेप के विधि विधान से तीर्थराज पर आचार्य पद र विभूषीत बना कर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया और अपना सर्वाधिकार नूननाचार्य को सुप्रत कर दिया बस श्रीसंघ नूतनाचार्य यक्षदेवसूरि की अध्यक्षता में वापिस लौट कर अपने नगर को आये मंत्रेश्वर ने सकल श्रीसंघ को वस्त्रभूषण की फहरामणी और एक एक सुवर्ण मुद्रिका की प्रभावना देकर उनका सत्कार किया। अहा-हा-पूर्व जमाने में जनता की धर्म पर कैसी दृढ़ मजबूत श्रद्धा एवं भावना थी वे जो कुछ सार समझते थे वे धर्म को ही समझते थे और इस शुभ भावना से वे हमेशा सुख शांति एवं समृद्ध शाली रहते थे जिसका यह एक मंत्री पृथुसेन जैसे धमात्मा पुरुषों के संघ का प्रत्यक्ष उदाहरण है। आचार्य रत्नप्रभसूरि के पास वे ही साधु रहे कि जिनको सूरिजी की सेवा में रहना था सूरिजी महाराज कई अर्सा तक पूर्व बंगाल और कलिंग प्रान्त में विहार किया कलिंग की कुमार कुमारी पहाड़ियों की गुफाओं में ध्यान लगाते रहे तत्पश्चात् सम्मेतशिखर के आसपास में भी आप ने कई अर्सा तक भ्रमन कर कई मांसाहारी जीवों को प्रतिबोध, देकर जैन धर्म के उपासक बनाये आज सराक जाति जो उस तरफ विद्यमान है वह भी उन आचार्यों के बनाये हुए श्रावक ही थे हाँ चिरकाल होने से श्रावक का अपभ्रंश सराक हो गया है पर वास्तव में वे जैनधर्म पालन करने वाले श्रावक ही थे। पूज्य आचार्यश्री जब अपना अन्तिम समय नजदीक जाना तो पुनः तीर्थश्री सम्मेतशिखरजी पधार गये और अन्तिम सलेखना में सलग्न हो गये वहाँ भी आपभी के दर्शनार्थी हजारों भावुक लोग आये करते थे सरिजी महाराज २७ दिनों का अनशन और समाधिपूर्वक स्वर्ग धाम को सिद्धा गये । धन्य है ऐसे सूरीश्वरों को कि आपने अपने जीवन समय में जैनधर्म का खूब ही अभ्युदय किया अनेक मांसाहारियों को प्रतिबोध देकर उनकों जैनधर्म में दीक्षित किये अनेक मुमुक्षुओं को जैनधर्म की दीक्षा देकर उनका उद्धार किया अनेक मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैनधर्म को चिरस्थायी बनाया इत्यादि आपके महान उपकार के लिये जैनसमाज सदैव के लिये ऋणी है आपके प्रति हम जितनी भक्ति भाव प्रदर्शित करे उतना ही थोड़ा है। जंगम कल्पतरू सम शोभित चिन्तामणि कहलाते थे । रत्नप्रभसूरी एकादश पट्टको आप दीपाते थे ।। द्रुतगति से मशीन शुद्धि की आपने खूब चलाई थी। ___कठिन परिसह सहन करके शासन सेवा बजाई थी। ॥ इति भगवान पार्श्वनाथ के ग्यारवें पट्ट पर आचार्यरत्नप्रभसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुए । ३४३ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० वर्ष २१३ [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भगवान् महावीर प्रभु की परम्परा भगवान महावीरकेअष्टम पट्टपर दो आचार्य हुए १-आचार्य महागिरि २-आचार्य सुइस्ती इनके विषय श्राप आचार्य स्थूलभद्र के जीवन में पढ़ चुके हैं कि इन दोनों की दीक्षा आचर्य श्री स्थूलभद्र के करकमलों से हुई थी और आचार्यस्थूलभद्र इन दोनों को अपने पट्टपर प्राचार्य बनाये थे दोनों आचार्य दशपूर्व धर थे तथा आचार्य महागिरि गच्छ नायक थे तब श्राचार्य सुहस्ति गच्छ के साधुओं की सारसंभाल किया करते थे। ___ श्राप पिछले प्रकरण में पढ़ पाये हैं कि प्राचार्य सुहस्तिसूरि एक समय अपने शिष्य मण्डल के साथ जीवितस्वाति की यात्रार्थ उज्जैन पधारे थे वहां के श्रीसंघ ने बड़ेही समारोह के साथ रथ यात्रा का वरघोड़ा निकाला था जिसमें सूरिजी भी शामिल थे जब वरघोड़ा राज महल के पास आया तो वहां का राजा सम्प्रति झरोखे में बैठा हुआ वरघोड़ा के साथ आचार्य सुहस्तिसूरि को देखा और खूब ध्यानपूर्वक विचार किया तो उनको जातिस्मरण ज्ञान हो आया और राजासम्प्रति महल से उतर कर सूरिजी के चरणकमलों में वन्दन कर कहाँ भगवान् । श्राप मुझे पहचानते हो ? सूरिजी ने उपयोग लगा कर ज्ञानद्वारा राजा का पूर्वभव कहा कि आप पूर्वभव में एक भिक्षु थे मेरे पास दीक्षाली थी जिस एक दिन की दीक्षा से ही आपको इस प्रकार की ऋद्धि मिली है इत्यादि । इस पर राजा सम्प्रति ने कहा कि प्रभो ! आपका कहना सत्य है श्रय श्राप कृपाकर इस मेरा राज ऋद्धि को स्वीकार करावे कारण यह सब आपकी कृपा से हो मिला है। सूरिजी ने कहा कि हम निम्रन्थों एवं निस्पृहियों को राज एवं ऋद्धि से क्या प्रयोजन है यदि आपकी ऐसी ही भावना है तो इस राजऋद्धि का प्रयोग जैनधर्म का प्रचार के लिये करे कि जिस जैन धर्म के प्रभव से मिला है और भविष्य में भी आपका कल्याण हो इत्यादि । राजने सूरि का कहना शिरोधार्य कर उसी समय सूरिजी के पास जैनधर्म स्वीकार लिया और उसी समय से वह जैनधर्म का प्रचार करने में सलग्न हो गया जिसको हम सम्राट् सम्प्रति के जीवनमें विस्तार से लिख आये हैं और उज्जैन में श्रमण सभा का हाल इसी प्रकरण में ऊपर लिख आये है। राजा सम्प्रति-सूरिजी का ही नहीं पर जैन साधुओं का परम भक्त बन गया और जातिस्मरण ज्ञान द्वारा अपने पूर्वभव की स्मृति करने से उसने यह भी जान लिया कि भिक्षुओं का जीवन किस दुखमय व्यतीत होता है वे अपनी उदर पूर्ति कैसी मुश्किल से करते हैं अतः उन लोगों के सुविधा के लिये राजा ने अपने नगर के चारों दरवाजों पर दानशालाएं एवं भोजनशालाऐं खुलवादी कि कोई भी भिक्षार्थी आवे उनको भोजन वगैरह दिया करो । जब साधारण भिक्षुओं के लिए भी राजा की इतनी उदारता थी तो जैन श्रमणों के लिये तो कहना ही क्या था राजा ने नगर के सब व्यापारियों को कहला दिया कि कोई भी श्रमण किसी प्रकार के पदार्थों की इच्छा करे, तुम बड़ी खुशी से दिया करो और उसका मूल्य राज खजाने से ले जाया करो इत्यादि । यही कारण था जैन श्रमणों को प्रत्येक पदार्थ बड़ी सुलभता से मिलने लगा वह भी प्रचूरता से । फिर साघू लाने में एवं उपभोग करने में कमी क्यों रखें। एवंस'प्रतिराजेन स्वशक्तयाधुद्धिगर्भया । देशाः साधु विहारार्हा अनार्या अपि चक्रिरे ॥१०२॥ राझाप्राग्जन्मरकत्वं बीभत्संस्मरतानिजम् । महासत्राण्यकार्यन्त पूरेषुचतुर्वपि ॥१०३॥ ३४४ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १८३ इस प्रकार से साधुओं को आहार पानी वस्त्र पात्रादि प्रचूरता से मिलता देख एक समय आ महागिरि ने आर्य सुहस्ति से कहा कि आर्य क्या कारण है कि इस प्रकार आहार उपधि प्रचरता से मिल रही है इसमें क्रिय विक्रयादि दोष का संभव तो नहीं है न ? आर्य सुहस्ति ने कहा पूज्यवर ! इसमें दोष की क्या संभावना हो सकती है कारण यथा राजास्तथाप्रजा ? जब राजा भक्तिवान है तो प्रजा भी उसका 1 अयं निजःपरोवायमित्यपेक्षाविवर्जितम् । तत्रानिवारितं प्रापुर्भोजनं भोजनेच्छवः ॥ १०४ ॥ • यदवाशिष्यतान्नादि भुक्तवत्सुबुभुक्षुषु । तद्विभज्योपाददिरे महान सनियोगिनः || १०५ ॥ hat गृहात्यवशिष्टानमिति पृष्टा महीभुजा । आख्यन्महानसायुक्ताः स्वामिन्नादद्महे वयम् ॥ १०६ ॥ आदिदेशचतान्राजा यदन्नमवशिष्यते । अकृताकारितार्थिभ्यः साधुभ्योदेयमेवतत् ॥ १०७॥ द्रव्यं दास्यामिवस्तेन सनिर्वाहाभविष्यथ । नहिकेष्वपिकार्येषु सीदतिद्रव्यवाञ्जनः ॥ १०८॥ तेऽवशिष्टान्नपानादि तदाद्यपितदाज्ञया । साधुभ्योददिरेतेऽपि स्त्रीचक्रुः शुद्धिदर्शनात् ॥ १०९॥ श्रमणोपासकोराजा कान्दविकानथादिशत् । तैलाज्यदधिविक्रे तृन्वस्त्रविक्रयकानपि ॥ ११० ॥ यत्किंचिदुपकुरुते साधूनांदेयमेवतत् । तन्मूल्यं वः प्रदास्यामि मास्मशङ्कध्वमन्यथा ॥ १११ ॥ ते तथारेभिरेकर्तुं जातहर्षाविशेषतः । विक्रीयमाणेपण्येहि वाणिजामुत्सवो महान् ॥ ११२ ॥ तत्तथार्यमुहस्तीतु दोषयुक्तंविदन्नपि । सेहे शिष्यानुरागेण लिप्त चित्तोबलीयसा ।। ११३ ॥ सुहस्तिनमितश्चर्य महागिरिरभाषत । अनेषणीयंराजान्नं किमादत्से विन्नपि ॥ ११४॥ सुहस्त्युवाच भगवन्यथा राजा तथा प्रजाः । राजानुवर्तनपराः पौरा विश्राणयन्त्यदः ॥ ११५ ॥ मायेयमिति कुपितो जगादार्यमहागिरीः । शान्तं पापं विसम्भोगः खल्वतः परमावेयो ॥ ११६॥ सामाचारीसमानैर्हि साधुभिः साधु सङ्गतम् । सामाचारी विभिन्नस्य भिन्नोऽध्वातः परं तव ॥ ११७ ॥ वेपमानो भियावाल इव भक्तः सुहस्त्यपि । आर्य महागिरिपादान्वन्दि त्वोचे कृताञ्जलिः ॥ ११८ ॥ सापराधोऽस्मि भगवन्मिथ्यादुः कृतमस्तुमे । क्षम्यतामपराधोऽयं करिष्येनेदृश पुनः ॥ ११९ ॥ ऊचे महागिरिरथ दोषः को नामतेऽथवा । पुराभगवता वीरस्वामिनैतद्विभाषितम् ॥ १२०॥ मदीये शिष्यसन्ताने स्थूलभद्रमुनेः परम् । पतत्प्रकर्षासाधूनां सामाचारी भविष्यति ॥ १२१ ॥ स्थूलभद्रमुनेः पश्चादावां तीर्थ प्रवर्तकौं । अभूवतदिदंस्वामिवचः सत्यापित्वया ॥ १२२ ॥ स्थापयित्वेत्य सम्भोगि कल्पमार्य महागिरिः । जीवन्तस्वामि प्रतिमां नत्वावन्त्या विनिर्ययौ ।। १२३ ।। पूर्वंहिसमवसृतौ श्रीमतश्चरमर्हितः । दशार्णभद्र सम्बोधसमये यानि जज्ञिरे || १२४॥ गजेन्द्रस्याग्रपदानि समायाते दिवस्पतौ । तथैवास्थुश्च तत्रागात्तीर्थे चार्य महागिरिः । १२५।। ख्याते तत्रमहातीर्थे गजेन्द्र पद नामनि । त्यक्त देहोऽनशनेन ययौ स्वर्गं महागिरिः || १२६ || पार्थिवः सम्पतिरपि पालयञ्श्रावकवतम् । पृर्णायुर्देव्य भूत्सिद्धिक्रमेण च गमिष्यति ।। १२७॥ " परिशिष्ट पर्दस्वर्ग ११ वॉ" કાઢ ३४५ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २१७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अनुकरण करे यह स्वभाविक बात है इस पर आर्य महागिरि को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि तुम शिष्य ममत्व के कारण ही ऐसा अनुमान करते हो या तलाश भी की है फिर भी कार्य सुहस्ति ने इस पर इतना लक्ष्य नहीं दिया । जब आर्य महागिरि ने इस बात का निर्णय किया तो निश्चय हुआ कि इस आहार उपधि में क्रिय-विक्रय का दोष अवश्य है और राजा ने भक्ति वश हो कर ऐसा किया है बस फिर तो क्या था आर्य महागिरि ने कहा आर्य सुहस्ति में आज तुम्हारे साथ का सब संभोग X अलग कर देता हूँ इत्यादि वीरशासन में यह पहला ही अवसर था कि आचार्यों में संभोग अलग हो जाना । आचार्य हस्ति ने आर्य महागिरि के शब्द सुना तो उनकी आंखें खुली और वे ध्यान पूर्वक इसबात की शोध की तो वास्तव में श्रार्य महागिरि का कहना सत्य निकला आर्य सुहस्ति चलकर आर्य महागिरि के पास ये और अपनी भूल के लिए क्षमा मांग कर 'भिच्छमिदुक्कडं' दिया हाँ आत्मार्थी मुमुक्षुओं का यही कर्तव्य है कि यदि प्रमाद से दोष लग भी जाय पर जब उस दोष को स्वयं जान ले तो अपनी भूल स्वीकार कर उस प्रमाद का 'मिच्छमिदुक्कडं ' देना ही चाहिये । श्रात्मार्थी मुमुक्षुओं के दीर्घ काल की कषाय नहीं हुआ करती है कारण पाकर नाम मात्र कषाय हो भी जाय तो उसकी सफाई कर लेने के वाद बह क्षण भर भी रह नहीं सकती है । यही हाल आर्य महागिरि और हरि का हुआ पर उन दोनों के शिष्य सन्तान भी तो थे और इस बात का उन पर भी तो असर हुआ था। बस उस सर के कारण ही जैन शासन में सब से पहला समुदायिक भेद का जन्म हुआ और इन दोनों की दो सम्प्रदायें हो गई और इन समुदायों का आस्तिव वाचक देवऋद्धि गरिणक्षमाश्रमण तक बराबर चला आया था । जिसको हम आगे के प्रकरणों में इन दोनों की सन्तान परम्परा के नामों के साथ बतलावेंगे । आर्यमहागिरि यो तो वे युग प्रधान एवं गच्छ नायक श्राचार्य थे पर विशेषतय आपश्री जंगलों में रह कर कठोर तपश्चर्य एवं जिनकल्पी की तुल्यना करते थे प्रायः वे नग्नत्व रह कर दुष्कर तप किया करते थे x पं० मुनि श्रीकल्याणविजयजी महाराज का मत है कि यह घटना राजा सम्प्रति के समय की नहीं पर राजा विन्दुसार के समय की है कारण आपने सम्प्रति का राजरोहण काल वी० नि० सं० २९५ का बतलाया है पर पट्टावलियों के मत से आर्य सुहस्ती का स्वर्गवास वी० नि० सं० २९१ में ही हो चुका था यदि सम्प्रति का राजरोहण समय वी० नि० सं० २९५ का मान लिया जाय तो साथ में यहमी मानना पड़ेगा कि भायं सुहस्ती और सम्राट सम्प्रति का मिलापही नही हुआ था ? पर इतनातो आप मंजूर करते हैं कि सम्प्रति राजा को उज्जैनी में भार्य सुहस्ती ने जैन बनाया तथा आचार हेमचंद्रसूरि के मत से सम्राट ने भारत और भारत के बाहर अनार्य देशों में धर्मप्रचार करवाया था इसमें दो बातें हो सकती हैं एक तो राजा सम्प्रति का राजाभिषेक वी० नि० सं० २९५ पूर्व हुआ होगा या आर्य सुहस्ती का स्वर्ग वास वो० नि० सं० २९१ में न होकर वी०नि० सं० तीनसौ के बाद हुआ होगा खैर पन्यासजी महाराज का यह मतभेद केवल सम्प्रति समय का ही नहीं है पर सम्राट् चन्द्रगुप्त के समय से ही चला आ रहा है कारण भाचार्य हेमचन्द्रसूरि के मतले चन्द्रगु का राजरोहण समय वी० नि० सं० १५५ का है तब पन्यासजी उस समय को वी० नि० सं० २१० का बतलाते हैं इ विषय में मैंने राज प्रकरण के अन्त में अर्थात् इसी ग्रन्थ के पृष्ट ३११ पर स्पष्टीकरण कर दिया हैं जिसमें राजमार्ग आचा हेमचन्द्रसूरि का मत मानना मैंने ठीक समझा है कारण इस मत के पोषक कई प्रमाण डा० त्रिभुवनदान लहेरचन्द वढोर वाले ने प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास नामक वृहद्मन्य में दिया है जिससे आचार्य हेमचन्द्रसूरि का ही मत पुष्ठ होत है हाँ इस प्रकार समय के लिए इतिहास में बहुतसी गड़बड़ हैं जिसकी गवेषणा करना खास जरूरी है अतः यहाँ प नि यत्मक न कह कर " महाजनो येनगतःस पन्थाः " कह देना ही पर्याप्त होगा । निर्णय फिर भविष्य में । Jain Ed३४६ International Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १८३ उस हालत में गच्छ का सब भार श्राचार्य सुहस्ति पर ही रहता था पट्ठावल्यादि ग्रन्थों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है जैसे किः"तत्र वीआर्यमहागिरिजिनकल्पिक तुलनामारूढो जिनकल्पिक कल्पः" "पट्टावलि सं० पृष्ट ४५ अन्त में आर्यमहागिरि गजाग्रपद तीर्थ अर्थात् गजेन्द्र स्थान जो दर्शनपुर नगर के नजदीक था में अनशन कर समाधि पूर्व नाशवान शरीर का त्याग कर वी नि० २४५ वें वर्षे स्वर्ग में अवतीर्ण हुए। इन महापुरुष के अनशन व्रत करने के कारण वह गजाप्रपद जैनों में विशेष तीर्थभूमि कहलाने लगा और अनेक भव्यात्मानों ने वहां की यात्रा दर्शन स्पर्शन कर अपना कल्याण किया-आपके पट्टधर आर्यबलिस्सह आचार्य हुए। आर्यमहागिरि के स्वर्गवास के पश्चात गच्छ नायक आर्य सुहस्तिसूरि हुए-आर्य सुहस्तिसूरि अपने जीवन में आप स्वयं एवं सम्राट् सम्प्रति द्वारा जैनधर्म का प्रचार भारत और भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में भी प्रचूरता से करवाया था जिन देशों को लोग अनार्य कहते थे पर समाट् एवं सूरिजी के उद्योग से वे आर्य कहलाने लग गये जिनका विशेष वर्णन सम्राट् सम्प्रति के जीवन में लिख पाये हैं। आर्यसुहस्तिसूरि एक समय पुनः उज्जैन नगरीमें पधारे और नगरीके बाहर एक उद्यान ठहर गये तत्सश्चात कई साधु नगर में मन्दिरों के दर्शनार्थ गये और दर्शन करने के बाद मकान की याचनार्थ वे भद्रासेठानी के मकान पर चले गये । भद्रा ने साधुओं का सत्कार किया और पधारने का कारण पूछा? साधुओंने मकान की याचना की सेठानी ने बड़े ही हर्ष के साथ अपना मकान देने को स्वीकार कर लिया अतः सूरिजी एवं सब साधु उद्योन से चल कर सेठानी भद्रा के मकान में आ गये वहाँ सूरिजी का व्याख्यान भी होता था। ___ एक समय सूरिजी शास्त्रों की स्वाध्याय करते थे उसमें नलिनीगुल्म नामक वैमान का अधिकार वार वार श्राया करता था। सेठानी भद्रा के एक पुत्र था जिसका नाम था 'आवन्तिसुकुमाल जो सुकुमारता में शालभद्र की स्पर्द्ध करता हुआ अपने सात भूमिवाले रंगमहल में ३२ सुरसुन्दरियों सदृश स्त्रियों के साथ स्वर्ग सदृश सुख भोग रहा था उसने अपने महल के अन्दर बैठा हुआ सूरिजी की स्वाध्याय सुनी और नलिनीगुल्म वैमान का नाम सुनकर उपयोग लगाया तो उसको जातिस्मरण ज्ञानोत्पन्न हो गया अतः वह अपने महल से उतर कर सूरिजी के पास आया और पूछा कि भगवान् । आप जिस नलिनीगुल्म वमान का वर्णन कर रहे हैं वह मैंने देखा है वहां के सम्पूर्ण सुखोंको मैंने अनुभव किया है और अभी भी मैं उस सुखों को चाहता हूँ कृपा कर यह बतलावें कि ऐसा कोई उपाय है कि मैं पुनः नलिनीगुल्म वैमान में जा सकू। सूरिजी ने उत्तर दिया कि देवानुप्रिय ! नलिनीगुल्म वैमान कौनसी बड़ी बात है मैं सुमको ऐसा रास्ता बतला देता हूँ कि उस वैमान से भी अनंत गुणे सुखों के स्थान को प्राप्त कर सकते है ? कुवर ने कहा कि वह कौनसा उपाय है ? सूरिजी ने कहा जैनदीक्षा लेकर उसको सम्पूर्ण आराधना करने से स्वर्ग व परम्परा से मोक्ष मिल सकता है। बस । मुक्ति रमणी का रसिया भावन्ति सुकुमाल का दिल दीक्षा से ललचा गया । इस पर सूरिजी ने कहाकि कुंवरजी ! आप दीक्षा लेने को तो तैयार हुए है पर पहले आप इस बात का विचार कर लेना कि इस सुकुमाल शरीर से दीक्षा पलेगी या नहीं ? कारण दीक्षा में रमणता करने में आत्मिक सुख तो इतना है कि जिसका जबान द्वारा वर्णन ही नही किया जा सकता है पर शरीर के लिये दीक्षा में अनेक परिसह सहन करने पड़ते है यहां मैणके दान्तों से लोहा के चन्ना चबाने है तथा खड्गधारा पर चलना है वेलु की भांति निरस और अग्नि तुल्य स्पादि अनेक कठिनाइयां है इत्यादि । सूरिजी ने आवंतिसुकुमाल की परीक्षा की। ३४७ www.jamesrary.org Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २१३ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आतिसुकुमाल ने कहां । प्रभों । मैंने पूर्व जन्म में भी दीक्ष ली एवं पाली है और इसभव में भी मैंने निश्चय कर लिया है कि दीक्षा अवश्य लेनी है यदि परिसह सहन न होगा तो मैं दीक्षा लेकर अनशन कर दूंगा, इत्यादि । सूरिजी ने कहा कि, 'जहां सुखम् देवानुप्रिय । यदि इतनी मजबूती है तो शीघ्रता कीजिये क्योकि धर्मकार्य में विलम्ब करना ठीक नहीं है । 'श्रेयसेबहुविघ्नानि ' अवन्तिसुकुमाल सूरिजी को वन्दन कर वहाँ से चलकर अपने मकान पर श्राया और अपनी माता और स्त्रियों से दीक्षा की अनुमति मांगी परन्तु वे कब चाहाती थी कि प्यारा आवन्तिसुकुमाल सदैव के लिये हमको छोड़कर चला जाय उन्होंने बहुत समझाया पर जिन्होंने अपने ज्ञान द्वारा संसार को एक काराग्रह समझ लिया है वे माता और स्त्रियों की पास में कब तक बन्धा हुआ रह सकता है । आवन्तिसुकुमाल ने तो वेराग्य की धून में अपने शरीर पर से गृहस्थ के कपड़े उत्तार कर स्वयं साधु का वैष पहन लिया और तत्काल ही सूरिजी के पास आया अतः सूरिजी ने आवन्ति कुँवर की माता और स्त्रियाँ को समझा कर विधि विधान के साथ अवन्तिसुकुमाल को दीक्षा दे दी । नवन्तिसुकुमालने तो पहले ही निश्चय कर लिया था कि दीक्षा लेकर अधिक कष्ट न सहन कर के मैं अनशन व्रत कर दूंगा और वैसा ही उसने किया। सूरिजी की आज्ञा लेकर जंगल में जा रहे थे परन्तु उनके सुकुमाल पैरों में कांटा कंकर लगने से रुधर की धारा बहने लग गई । पर मुनिजी उसकी परवाह न करते हुए एक जंगल में जाकर ध्यान लगा दिया एवं शिप्रा नदी के उपकाण्टे पर आत्माध्यन में मग्न हो गये रात्रि समय एक सियालनी (भृगली) उस बनमें भ्रमन करती हुई रुधर की वासना से चलती चलती मुनि श्रावन्ति के पास आई और उसके पैरों पर लगा हुआ रक्त के कारण वह पैरों को काट काट कर खाना शुरू कर दिया क्रमशः रात्रि भर में उस मुनि का तमाम मांस भक्षण कर गई अतः मुनि शुभध्यान में काल कर नलिनीगुल्म वैमान में उत्पन्न हो गया वहाँ देवताओं ने जल पुष्प वरसाया । सुवह होते ही भद्रासेठानीजो कि अपनी ३२ पुत्र वधूओं के अन्दर एक तो गर्भवती थी शेष ३ १ पुत्र वधूओं को साथ लेकर अपने पुत्र श्रावन्तिमुनि के दर्शनार्थ सूरिजी के पास आई सूरिजी को बन्दना कर पुत्रके लिये पूछा तो सूरिजी ने कहा कि वहतो जंगल में जाकर अनशन व्रत कर लिया है अतः माता अपनी पुत्र वधूत्रों को लेकर वहाँ पहुंची कि जहां मुनिने अनशन किया था पर वहां जाकर माता क्या देखती है कि मुनि का कलेवर पड़ा हुआ था माताने बहुत अफसोस किया बाद सूरिजी के पास आइ सूरिजी ने उनको शरीर की अनित्यता एवं संसार की असारता का उपदेश दिया कि सेठानीभद्रा अपनी ३१ पुत्र बधूत्रों के साथ सूरिजी के चरण कमलों से भगवती जैन दीक्षा ग्रहन कर अपना आत्म कल्याण किया । अवन्तिसुकुमाल की एक स्त्री जो गर्भवति थी उसके पुत्र हुआ जिसका नाम 'महाकाल' रख गया था उसने अपने पिता के देहत्याग के स्थान भगवान पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई और अपने पिता के नाम की स्मृति के लिये उस मन्दिर का नाम 'श्रवन्ति पार्श्वनाथ' रख दिया था कई र्सा तक तो चतुर्विध श्रीसंघ उस मन्दिर की सेवा पूजा उपासना कर आत्म कल्याण किया पर किसी समय वहाँ ब्राह्मणों का जौर बढ़ जाने से उन्होंने भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति को नीचे दबाकर ऊपर महादेव का लिंग स्थापित कर उसका नाम महाकाल महादेव रख दिया पर जब राजा विक्रमादित्य को प्रतिबोध देने वाले आचार्य सिद्धसेनदिवाकर हुए उस समय उन्होंने राजा विमादित्य की श्राग्रह से कल्याणमन्दिर नामक स्तोत्र Jain Educ3ternational Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् १८७ की रचना की जिसके पढ़ने से महादेव का लिंग स्वयं फाट कर आवन्तिपार्श्वनाथ की मूर्ति प्रकट हुई जिसका वर्णन मैं आचार्य सिद्धसेनदिवाकर के जीवन में विस्तार पूर्वक लिलूँगा। शामली विहार-आचार्य सुहस्तिसूरि अपने शिष्य मण्डल के साथ भूभ्रमन करते हुए एक समय तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत की यात्रार्थ भरोच नगर में पधारे वहाँ के श्रीसंघ ने सूरिजी महाराज का बड़े ही उत्साह एवं समारोह से स्वागत किया सूरिजी ने शामली विहार का दर्शन कर उसकी उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार कहा जाता है कि इसी भरोच नगर के पास सदैव बहने वाली नर्मदा नदी के कन्नारे एक बन के अन्दर सघन छाया और फल फूलों से सम्रद्ध वृक्ष था जिस पर एक शामली अपने बच्चों के साथ रहती थी और उस बन के फल फूलों से अपने बच्चों का पोषण करती थी वहाँ एक शिकारी खटीक भी श्राया करता था जो पशुओं को मार कर मांस लेजाकर उसको बेचकर अपनी आजीविका करता था जब खटीक मांस तैयार करता था तब कभी कभी वह शामली पक्षी उस पर भ्रष्टा कर दिया करती थी इससे खटीक गुस्से होकर एक बान शामली को ऐसा मारा कि वह घायल होकर भूमि पर गिर पड़ी। भाग्यवशात् उस समय एक श्रावक उस वन में आ निकला और उसने गिरी हुई शामली की त्रास को देखकर उसके पास जाकर नवकार मन्त्र सुनाया शामली के भाग्य था कि उसने मरती मरती भी नवकार मन्त्र को सुनकर श्रद्धा सम्पन्न होगई । यही कारण है कि शामली मर कर एक सिंहल देश का राजा श्रीचन्द की रानी चन्द्रावती की कुक्ष में पुत्रीपने उत्पन्न हुई जब पुत्री का जन्म हुआ तो अनेक महोत्सवों के साथ उसका नाम श्रीमती रख दिया श्रीमती अनेक लालन पालन से राजा के घर पर वृद्धि पा रही थी राजा का किसी पूर्व भव संस्कारों से उस पर इतना प्रेम था कि वह जहाँ जाता था अपनी पुत्री श्रीमती को साथ ले जाता था। एक समय किसी कार्यवशात राजा श्रीचन्द भरोच नगर गया था वहाँ भी अपनी पुत्री श्रीमती को साथ लेगया भरोचनगर एक व्यापार का केन्द्र था राजा बाजार में गया तो किसी वस्तु खरीदने के लिये एक ऋषभदत्त श्रेष्टि की दुकान पर जा निकला उस समय ऋषभदत्त निर्वृति म बैठा नवकार मन्त्र का जाप कर रहा था जब राजकन्या श्रीमती ने सेठ के मुह से नवकार मन्त्र सुना तो उसको प्रिय लगा इतना ही क्यों पर राजकन्या उस शब्द पर इतनी मोहित होगई कि सेठजी से प्रार्थना की कि सेठजी आप क्या जाप कर रहे हो ? सेठ ने कहा कि मैं नवकार मन्त्र का जाप कर रहा हूँ जो सब शास्त्रों एवं सब धर्मों का सार है और इसके जाप से मनुष्य सर्व सम्मति एवं स्वर्ग मोक्ष प्राप्त कर सकता है इत्यादि सेठ ने नवकारमन्त्र का महात्म्य कहा जिसको सुनकर राजकन्या ने पुनः प्रार्थना की कि सेठजी यह मन्त्र आप मुझे सिखा दें तो मैं श्रापका बड़ा ही अहसान मानूंगी सेठजी ने कहा इसमें अहसान की क्या बात है मैं आपको मेरी स्वीधर्मी बेहन समझ कर खुशी के साथ सिखा दूंगा बस सेठजी ने दो चार वार कहा और श्रीमती ने बड़े ही प्रेम से उसे कण्ठस्थ कर लिया श्रीमती ज्यों ज्यों श्रद्धा पूर्वक निर्मल दिल से नवकार मन्त्र का जाप करने लगी त्यों त्यों उनको आनन्द आता गया आखिर उस नवकार मन्त्र के जाप से श्रीमती को जातिस्मरण ज्ञान हो आया और उसने अपना पूर्वभव देखा कि मैं इस नगर के उपवन में रहने वाली शामली पाक्षी थी खटीक के हाथों से मारी गई पर सेठजी के नवकार मन्त्र सुनाने से मैंने राजा के घर पर जन्म लिया है और आज मैं सुख साहबी भोग रही हूँ यह सब नवकार महामन्त्र का ही प्रभाव है आज मैं चाहूँ तो उस खटीक का बदला ले सकती हूँ पर ऐसा करने से और भी कर्म बन्ध का कारण होगा जीव सब कर्माधिन है । virwwwv 30 www.amerary.org Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८३ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास __ श्रीमती ने अपने पिता को कह कर जिस वृक्ष पर से शामली भूमि पर गिरी थी उस भूमि पर तीर्थकर मुनिसुव्रतदेव का एक बावन देहरियों संयुक्त भव्य देवालय बना दिया जो शामली की स्मृति करवाने के कारण उस मन्दिर का नाम 'शामलीबिहार' रख दिया। यह विहार एक तीर्थ स्वरूप में माने जाने लगा इत्यादि वर्णन है उस मन्दिर का समय समय जीर्णोद्धार भी हुआ शायद् आचार्य सुहस्ति के समय तक वह मन्दिर मौजूद भी होगा । और उस तीर्थ की यात्राथ सूरिजी भरोच पधारे हों। पर आज तो वह मन्दिर दृष्टिगोचर नहीं होता है हाँ वर्तमान में भरूच्छ नगर में एक मुनिसुव्रतदेव का प्राचीन मन्दिर विद्यमान जरूर है शायद यह शामलों विहार ही हो जिसके दर्शन इस किताब के लेखक ने वि० सं० १९७४ में किये थे । आचार्य महागिरि और आचार्य सुहस्तिसूरि जैन समाज में बहुत ही प्रसिद्ध है आपने जैन धर्म के प्रचार एवं उन्नति के ऐसे ऐसे चोखे और अनोखे कार्य किये हैं कि जैन समाज उनको कभी भूल ही नहीं सकती है इतना ही क्यों पर जैन समाज आप के उपकारों से आज भी आपकी ऋणी है और भविष्य में रहेगी । इन युगलाचार्यों के समय पूर्व हम केवल एक गोदासगच्छ और उनकी चार शाखाएँ के दर्शन कर आये है पर इन दोनों आचार्यों की शिष्य परम्परा से तो अनेक गच्छ कुल और शाखाएँ के दर्शन करते हैं जिसका संक्षिप्त से पाठकों को दिग्दर्शन करवा देते हैं कि भगवान महावीर की एक ही समुदाय में अलग अलग कितने गच्छ कुल और शाखाएँ का प्रादुर्भाव होकर समुदायिक शक्ति को किस प्रकार कमजोर बना दी थी शायद् जैनधर्म उन्नति के उच्चेशिखर पर पहुँच गया था यह कलिकाल की कुटिल गति से सहन नहीं हुआ हो अतः उसके प्रकोप से ही इस प्रकार गच्छों के द्वारा जैनधर्म अनेक विभागों में विभक्त हो गया हो ? __ आर्य महागिरि के मुख्य आठ शिष्य थे:-१-उत्तर २ बलिस्सह ३ धनाड्य ४ श्रीभद्र ५ कौडिन्य ६ नाग ७ नागमित्र और ८ रोहगुप्त एवं आठ शिष्य थे जिसमें रोहगुप्त द्वारा त्रिराशिक मत की उत्पत्ति हुई जिसको हम आगे चल कर निन्हवों के अधिकार में सात निन्हवों के साथ लिखेंगे। आर्य महागिरि के शिष्य से उत्तर बलिस्सह नामक शिष्य से उत्तरबलिस्सह नाम का गच्छ निकला और इस गच्छ की चार शाखाएँ भी हो गई १-कौशंबिका २ सौरितका ३ कौकुंबीनी ४ चन्दनागरी । आर्य सुहस्तिसूरि के मुख्य बारह शिष्य हुए:-१-रोहण २-भद्रयश ३-मेघ ४-कामद्धि ५-सुस्थि ६सुप्रतिबुद्ध ७-रक्षित ८-रोहगुप्त ९-ऋषिगुप्त १०-श्रीगुप्त ११-ब्रह्मा और १२-सोम । इन बारह शिष्यों से कितने गच्छ एवं शाखाएँ निकली । जिस गच्छ कुल और शाखाएँ के नाम इस प्रकार हैं । १-उद्देहगच्छ-आर्य रोहण से उदेहगच्छ निकला इस गच्छ से छ कुल और चार शाखाएं भी निकली जो कुलों के नाम :-१ नादभूत २ सोमभून ३ उल्लगच्छ ४ हस्तलिप्त ५ नंदिम और ६ पारिहासक और चार शाखाएं जिसके नाम :-१ उडुंबरिका २ मासपूरिका ३ मतिपत्रका ४ पूर्णपत्रका । २-चारणगच्छ-आर्य श्रीगुप्त से चारणगच्छ निकला इससे सातकुल और चार शाखाए निकली जिसमें कुलों के नाम :-१वत्सलिज्ज २ प्रीतिधर्मिक ३ हालिम ४ पुष्पमित्रिक ५ मालिम ६ आर्य वेड़क ७ कृष्णसेख तथा चार शाखाओं के नाम १ हारित मालागारी २ संकासीका ३ गवेधुका ४ ब्रजनागरी Jain Educ e rnational Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१७ ३-उडुवाटिकागच्छ-आर्य भद्रयश से उडुवाटिका गच्छ निकला जिसके तीनकुल और चार शाखाएं। कुलों के नाम :-१ भद्रयशिका २ भद्रगुप्तिका ३ यशोभद्रिक और शाखाओं के नाम :-१ चंपिज्जिया २ मदिज्जिया ३ काकंदिया ४ मेघहलिज्जिया ।। ४-वेसवाटिकागच्छ-आर्य कामर्द्धि से वेसवाटिक नामक गच्छ पैदा हुआ जिसके चार कुल और चार शाखा-कुल १ गणिक २ मेधिक ३ कामाद्धिक ४ इन्द्रपरक तथा शाखाएं:-१ श्रावस्तिका राज्यपालिका ३ अन्तरिज्जिया और ४ क्षेमलिज्जया। ५-मानवगच्छ-आर्य ऋषिगुप्त कार्कदिक से मानवगच्छ निकाला इस गच्छ के तीन कुल और चार शाखा-यथा कुलों केनाम :-१ऋषिगुप्तक २ ऋषिदतिका ३ अभिजयन्त,-शाखाएं:-१काश्यपिका २ गोतमिका ३ वाशिष्टका ४ सौराष्टिका । ६-कोटिकगच्छ-आर्य सुस्थी और सुप्रतिबुद्ध से कोटिक गच्छ निकला इसके भी चार कुल और चार शाखाएं जिसके नाम :-२ बंभलिप्त २ वस्त्रलिप्त ३ वाणिज्य ४ प्रश्नवाहन तथा चार शाखाएं जिसके नाम :-१ उच्चनागरी २ विद्याधरी ३ ३ वनी ४ मध्यमिका। इस प्रकार इन आचार्यों से ही गच्छों की सृष्टि प्रारम्भ होती है आगे चलकर इन गच्छ कुल और शाखाएँ से भी प्रतिशाखाएँ रूप कई भेद हुए है उसको भी यथा स्थान लिखा जायगा । पर इसमें एक बड़ी भारी विशेषता यह थी कि इस प्रकार के गच्छ कूल शाखा प्रतिशाखाएँ निकलने पर भी जैनागमों की श्रद्दा प्ररूपना में किसी प्रकार का मतभेद नही पाया जाता है जैसे एक पिताके अनेक पुत्र होने पर ग्राम एवं व्यापार के नामसे अलग अलग विशेषणों से पहचाने जाते हो और पिता का हुकम सब एकसा एवं एकमत से मानता हो तो पिताको किसी प्रकार का रंज एवं दुःख नही होता है । हाँ समुदायक शक्ति का छिन्न भिन्न हो जाना जरूर उपेक्षणीय कहा जा सकता है इसी प्रकार इन गच्छ कुल शाखाओं को भा समझ लेना चाहिये । और न्यूनाधिक प्ररूपना करने वाले को निन्हव करार देते थे। पूर्वोक्त दोनों प्राचार्यों के स्वर्गवास का समय इस प्रकार पट्टावलियों में प्रतिपादन किया है आर्य महागिरि गृहवास ३० वर्ष, सामान दीक्षा व्रत ४० वर्ष, युग प्रधान पदाधिकार ४० वर्ष, एवं १०० का सर्व आयुष्य पूर्णकर वीरात् २४५ वें वर्ष में आप श्रीमान् स्वर्ग वासी हुए। आर्य सुहस्तिसूरि-गृहवास में ३० वर्ष, सामान दीक्षाव्रत २४ वर्ष, और युगप्रधान पदाधिकार ४६ वर्ष, एवं सर्व आयुष्य १०० वर्ष पूर्णकर वीरात् २९१ वर्ष में स्वर्ग वासी हुए । आर्य महागिरि के पट्टपर आर्य बलिस्सह आचार्य हुए इनके बाद क्रमशः आर्य उमास्वाति तत्वार्थादि ५०० प्रन्थों के निर्माण कर्ता,-आर्य श्यामाचार्य पन्नवणासूत्र की संकलना करने वाले संडिल-समुद्र माँगू-नंदिल-नागहस्ति-रेवति-सिंह-खन्दिल-हेमवान्-नागाजुन-गोविन्द-भूतदिन-लोहित्य दुष्पगणि और देवद्धिगणि ( इस प्रकार के नाम पट्टावलियों में लिखे मिलते है ) और इन की शाखा सदैव के लिए अलग होगई जिसकों हम आगे चलकर लिखेंगे। आर्य सुहस्ति के पट्टपर दो आचार्य हुए १-आर्य सुस्थी २-आर्य सुप्रतिबुद्ध-इनकी परम्परा भी सदैव के लिये अलग हो गई थी। जिसको हम यथा क्रम से लिखते जायेंगे इति भगवान् महावीर के आठवें पट्टधर आर्य महागिरि और आर्य सुहस्तिसूरि : wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. ३५१ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८७ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १२-प्राचार्य श्री यक्षदेवसूरि (द्वितीय) पट्टे द्वादश यक्षदेव पद युक् सूरेः पदं लब्धवान् । बंगाना मुपदेश दानकरणान्मांसादने सक्त ताम् ।। पाने तत्परतां निवार्य सहसा यात्वोपकेशे पुरे । देशे वै मरु नामके नृप कुलं जैन चकार स्वयम् ।। HTML चार्य यतदेवसूरि बड़े प्रतापशाली आचार्य हुए। आप लोहाकोट नगर के सचिब प्रथुसेन के होनहार सुपुत्र (धर्मसेन ) थे। आपने तरुणवय में कोड़ रुपैयों की सम्पदा एवं सोलह " स्त्रियों को त्याग कर आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के पास दीक्षा ली । आपका त्याग अनु करणीय और तपस्या अलौकिक थी। आप लघुवय से ही पूरे बुद्धिवान थे । और दीक्षा लेने के पश्चात् आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि की संरक्षता में रहकर आपने पूर्वो एवं अंगों का अध्ययन रुचिपूर्वक किया करते थे । आप अपनी विचक्षण बुद्धि के कारण अपने पाठ को शीघ्र सीख जाते थे। दूर दूर से लोग आपसे शंकाए निवृत करने के लिये आते थे । आपश्रीकी व्याख्यानशैली तुली हुई और मनोहर थी। आप का उपदेश आबाल वृद्ध सब ही को रोचक प्रतीत होता था । यही कारण था कि नर नरेन्द्र, एवं देव देवेन्द्र, और विद्याधर आदि आपका व्याख्यान सुनने को सदा लालायित रहते थे। आप की वाक्पटुता के कारण अहिंसा का प्रचार बहुत अधिक हुआ आप बड़े निर्भीक वक्ता थे। आप गुणों के आगार और ज्ञान के सागर थे। आपके गुणों का वर्णन करने में बृहस्पति भी असमर्थ थे। ___ उपरोक्त गुणों के कारण ही आप को यकायक श्री सम्मेतशिखर तीर्थराज की पवित्र भूमिमें आचार्य पदवी मिली थी । आप आचार्यपद के छत्तीसों गुणों को प्राप्त करलिये थे तथा शुद्ध पंचाचारको पालने का प्रबल प्रयत्न करने में संलग्न रहते थे और आप सदा इस बात का ध्यान रखते थे कि मेरे श्रमण संघ भी इस प्रकार के गुणों को सम्पदित करे । आप सब प्रन्तों में विचरण कर संघ को अमृतोपदेश का पान कराते थे। सारण वारण चोयण और परिचोयण ऐसी चार पद्धति की शिक्षा देने में श्राप अनवरत परिश्रम करते थे । आप का प्रयत्न सदैव सफलीभूत होता था । जिन प्रान्तों में आप विचरते थे यज्ञायागदि वेदान्तियाँ, वामामार्गियाँ एवं नास्तिकों को सभमा समझा कर सत्पथ पर चलने का सिद्धान्त सतर्क बताते थे । जिस प्रकार भानु के उदय होने से प्रगाढ़ तिमिर का नाश हो जाता है उसी प्रकार आपके संसर्ग से कई प्राणियों का भ्रम दूर हुआ। उधर पूर्व बङ्गाल में जहाँ कि आप दूसरीवार नहीं पधारे थे बोद्धधर्म का विस्तृत प्रचार हो रहा था, अतएव जैन धर्म की रक्षा तथा प्रचार के लिये अपने सुयोग्य शिष्यों के साथ बंगाल की ओर जाना पड़ा था। उस प्रान्त में बौद्धों के साथ कई शास्त्रार्थकर आपने स्याद्वाद धर्म को विजय का टीका प्रदान किया । बोद्ध लोग जगह जगह पर पराजित हुए ! पूर्व बंगाल में जो दूसरे साधु विहार करते थे उन्होंने भी आप को पूर्ण सहयोग दिया क्योंकि वे वहाँ की वस्तुस्थिति से खूब परिचित थे। ३५२ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ औसवाल संवत् २१८ पाठकगण ! श्राप को पहिले बताया जा चुका है कि आचार्य स्वयंप्रभसूरि से दीक्षा लेते समय विद्याभर रमचूड़ के पास जो नीलीपन्नामय चिन्तामगि पार्श्वनाथ की मूर्ति थी, वह मूर्ति दर्शनार्थ रत्नचूडमुनि ने अपने पास रख ली थी। आगे चलकर वही रत्नचूड़ मुनि रत्नप्रभसूरि हुए । प्रस्तुतः मूर्ति रत्नप्रभसूरि के पट्टपरम्परा से अब यक्षदेवसूरि के पास मौजूद थी। जिस समय यक्षदेवसूरि प्रतिमा के सम्मुख उपासना के लिए विराजते थे । उस समय सच्चायिका देवी और अन्य देव-देवियाँ भी दर्शनार्थ उपस्थित हो जाते थे। एक बार सच्चायिका देवी ने प्राचार्य श्री से विनती की कि आप एक बार मरुस्थल की ओर विहार करिये । मरुस्थल में आपश्री के पधारने की नितान्त आवश्यक्ता है । आचार्यश्री ने देवी से पूछा कि देवीजी! मरूस्थल में हमारे कई मुनि विहार कर रहे हैं । फिर मेरी ही वहां ऐसी क्या आवश्यक्ता है ? देवी ने उत्तर दिया कि पूज्यवर!आपश्री का कार्य तो आपही कर सकेंगे दूसरा नहीं । आप श्रीमान् एक बार मेरी प्रार्थना स्वीकार कर अवश्यमेव मरुधर की ओर पधारिये। देवी का इतना आग्रह देखकर आपने मरूस्थल की ओर विहार करने का निर्णय कर लिया और थोड़े समय में मरुधर की ओर विहार भी कर दिया । उधर मरूस्थल प्रान्त में उपकेशपुर के महाराव क्षेत्रसिंह ( खेतसी ) को रात्रि में एक स्वप्न आया कि वह अपने लोतासा पुत्र को लिये हुए राजमहल में सोता हुआ था। यकायक चारों ओर से अग्नि की ज्वालाएँ आती हुई दिखाई दी। राजाने स्वप्न ही में खूब प्रयत्न किया पर अग्नि से बचने का कोई उपाय नहीं मिला । अन्त में राजा ने यह भी निश्चय कर लिया कि यदि मैं स्वयं अग्नि में जलकर भस्म हो जाऊं वो कुछ परवाह नहीं; किन्तु मेरा लड़का किसी प्रकार बच जाय । राजा की ऐसी भावना होते ही एक महात्मा सामने से आता हुआ दृष्टिगोचर हुआ । उस महात्मा ने उन दोनों को जलती हुई आग से बचा लिया। इस के बाद राजा की आंख खुली तो उसको विस्मय हुआ कि यह क्या घटना घटित हुई हैं ? राजा विचारसागर में निमग्न हो गया । उसने अपने मंत्री को भी यह वर्णन कह सुनाया। रात्रि को राजा ने अपने स्वप्न की बात अपनी रानी को भी सुनाई । रानी ने उत्तर दिया कि स्वप्न की बातें असार हैं। इस पर इतना विचार करना व्यर्थ है । अतः राजा ने अपनी स्वप्न की दशा पर इतना ध्यान नहीं दिया । आचार्यश्री यक्षदेवसूरि विहार करते हुए मरूस्थल प्रान्त में पधारे। जब यह समाचार लोगों ने सुना तो प्रान्तभर में आनन्द छा गया। ठीक है धर्मज्ञ लोगों को इससे बढ़कर हर्ष ही किस बात का होता है देवी की अत्याग्रह के कारण आप श्री क्रमशः विहार करते हुए उपकेशपुर पधारे। श्रीसंघ ने आपका सुन्दर स्वागत किया चतुर्विध श्रीसंघ के साथ आप श्री ने भगवान् पार्श्वनाथ एवं महावीर की यात्रा की और मङ्गलाचरण के पश्चात् देशना दी । बाद भीआपका व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर होता था आपने फरमाया कि संसार में जन्म जरा मृत्यु रूपी अलीता पलीता अर्थात् अग्नि लग रही है और उसमें अनन्त जीव जल रहे हैं । विषय और कषाय रूपी ईंधन से वह अग्नि सदैव नजल्यमान रहती है यदि कोई भव्यात्मा उस अग्नि से बचना चाहे तो उनके लिए एक उपाय जैनधर्म की आराधना करना है और बड़े-बड़े राजा महाराज एवं चक्रवर्ति भी स्वाधीन सुख-सम्पति का त्याग कर जैन-दीक्षा धारण कर इस अग्नि से छुटकारा पाया और अक्षय शान्तिप्राप्त की है यदि आप लोग भी इसी मार्ग का अनुकरण करे तो संसाररूपी दावानल से बच सकते हैं। इत्यादि । सूरिजी महाराज ने अपनी ओजस्वी गिरा द्वारा खूब समझाये । राव खेतसी ने ज्यों ही सुरिजी का व्याख्यान सुना त्यों ही उसको अपने स्वप्न की स्मृति हो आई। ३५३ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उसने सोचा कि वास्तव में मुझे स्वप्न में जिस अग्नि से बचाया वे यही महात्मा हैं जब मैं द्रव्याग्नि से बच गया तो क्या हुआ भावाग्नि में तो मैं अभी जल ही रहा हूँ अतः मैं इन महात्माजी की शरण लेकर भावाग्नि से बच जाऊँ । इस भावना से सूरिजी से अर्ज की हे पूज्यवर ! जैसे आपश्री ने मुझे स्वप्न में द्रव्याग्नि से बचाया है वैसे ही अब भावाग्नि से बचाइये मैं मेरे पुत्र लाखण के साथ दीक्षा लेने को तैयार हूँ। _ आचार्य श्री ने फरमाया कि 'जहाँ सुखम्' यदि आपकी यही भावना है तो इस संसार रूपो अग्नि से बचने के लिए अब विलम्ब नहीं करना चाहिये । इस बातों को सुनकर सभा मंत्रमुग्ध बन गई। इतना ही क्यों पर राजा और राजपुत्र के तत्कालीन वैराग्य और सूरिजी का वैराग्यमय उपदेश सुनकर कई भव्यों ने ने राजा का अनुकरण करने के लिए तैयारी कर ली। देवी सच्चायिक ने सूरिजी के पास आकर कहा क्यों पूज्यवर ! मरुधर में पधारने से आपको लाभ हुआ है न ? सूरिजी ने कहा हाँ हाँ देवीजी ! आपका कहना सत्य ही हुआ। इसी कारण तो आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि ने आपका नाम सच्चायिका रक्खा है। शुभ मुहूर्त में राजा क्षेत्रसिंह ने अपने बड़े पुत्र जैतसिंह को राजरोहण कर आप अपने पुत्र लाखणसी और नागरिक लोगों के साथ महामहोत्सव पूर्वक सूरिजीमहाराज के चरण कमलों से भगवती जैनदीक्षा स्वीकार करली । तत्पश्चात् सूरिजी मरुधरादि अनेक प्रान्तों में विहार कर जैनधर्म की खूब ही उन्नति एवं प्रभावना की। यों तो आप श्री के अनेक शिष्य थे, परन्तु लाखण्यमुनि की योग्यता कुछ और ही थी । ये और शिष्यों से कई बातों में बढे चढे हए थे इनकी विशेष अभिरुचि शास्त्रों की ओर थी। सरस्वती की दया से आपने स्वल्प समय में सारे श्रावश्यक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। प्रथम तो आप दूसरों के अनुभवों का अध्ययन किया पर पश्चात् आपने अपने ज्ञान को भी स्थायी रूप में दूसरों के लिये रख छोड़ने के परम पवित्र उदेश्य से आपने प्रन्थ निर्माण करना भी प्रारम्भ किया । धैर्यता, गंभीरता, उदारता, समता, क्षमता, श्रादि गुणों के कारण आप सर्व प्रिय हो गये थे । इन गुणों के अतिरिक्त वाक्पटुता और भाषण माधुर्यता के कारण आपके व्याख्यान बहुत सरस और श्रवणप्रिय होते थे। उन दिनों में यक्षदेवसूरिजी के पास एक आप ही ऐसे सुयोग्य शिष्य थे जो आचार्य पदके लिये सर्व प्रकार से योग्य थे । इन्हीं अलौकिक और उपयोगी गुणों के कारण यक्षदेवसूरि ने उपकेश नगर में राव जैत्रसिंह के महा महोत्सव पूर्वक श्री संघ के समक्ष मंत्रों एवं वासक्षेप की विधि विधान से आपको श्राचार्य पद पर सुशोभित किया। प्राचार्य बनाकर इनका नाम ककसूरि रक्खा । यक्षदेवसूरी संघ की बागडोर अपने सुयोग्य शिष्य को सौंप सिद्धगिरि की यात्रार्थ प्रस्थान कर दिया। वहाँ पहुँचकर परम निर्वृति का सेवन करने में आप सदा प्रयत्नशील रहते थे। अन्त में आप श्री ने अनशन व्रत धारण करजिया और २७ दिन पूर्ण समाधि एवं ध्यान में बिताये तत्पश्चात इस नाशमान शरीर का त्याग कर परम समाधि के साथ स्वर्ग सिधाये । इति पट्ट बारहवें यक्षदेव की सेवा विबुध जन करते थे । बादी मानी और पाखण्डी देख देख कर जरते थे । उद्योत किया शासन का भारी नये जैन बनाते थे । वीर प्रभु के शुभ संदेश को घूम घूम सुनाते थे । इति श्री भगवान् पार्श्वनाथ के बारहवें पट्टपर प्राचार्य यक्षदेवसूरि हुए । _Jain Educati३५४National Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ भगवान महावीर की परम्परा के नौवें पट्टधर श्राचार्यसुस्थी और आचार्य प्रतिबुद्ध नामके दो श्राचार्य हुए आप गत प्रकरण में पढ़ आये हैं कि आचार्य सुहस्तिसूरि के मुख्य बारह शिष्यों में आप दो थे । जब तक आचार्य सुस्थीसूरि गच्छनायक रहे वहाँ तक आचार्य प्रतिबुद्धसूरि गच्छ की सार संभाल करते थे । यह पद्धति श्राचार्य संभूतिविजयसूरि और श्राचार्य भद्रबाहु स्वामिसे ही चली आ रही थी। आप दोनों सूरिवर दशपूर्वधर थे, आपने जैनधर्मके प्रचार हित बहुत प्रयत्न किया और आपने अपना कार्य में अच्छी सफलता भी पाई थी तथा का विहार क्षेत्र भी बहुत विशाल था पर आपका विशेष भ्रमण कलिंग देशकी श्रोर होता था, कलिंगकी खंडगिरि और उदयगिरि पहाड़ियोंको कुमारीकुमार पर्वत कहते थे और वे जैनोंके तीर्थरूप होने से उस समय शत्रुंजय गिरनार अवतार भी कहलाते थे। जैन निर्प्रन्थों के ध्यान करने योग्य वहाँ अनेक गुफाएं भी थीं इन आचार्यों ने भी वहाँ रह कर योगाभ्यास किया था इतना ही क्यों पर आप वहाँ रह कर सूरि मंत्र का जप भी निरंतर किया करते थे | आपने थोड़ा ही नहीं पर कोटीवार सूरि मंत्र का जाप किया था यही कारण है कि पका गच्छ जो पहले निर्मन्थगच्छ के नाम से कहा जाता था पर आपके समय वह कोटीगण के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो कोटीवार सूरि मंत्र का जाप करने की स्मृति स्वरूप था । जैसे आचार्य हस्तिरि के भक्त राजा सम्प्रति थे इसी प्रकार आपके भक्त महामेघबहान चक्रवर्त महाराजा खारवेल (भिक्षुराज थे । श्रापश्री ने समय समय राजा खारबेल को उपदेश दे कर जैनधर्म का प्रचार करवाया था और जैसे राजा सम्प्रति ने जैनधर्म का प्रचार के हित आर्य सुहस्तिसूरि की अध्यक्षत्व में सभा की थी इसी प्रकार राजा खारबेल ने आर्य सुस्थीसूरि के अध्यक्षत्व में कुमार कुमारी पर्वत पर एक विराट सभा की थी और उसमें जैनधर्म का प्रचार के अजावा जैनागमा (दृष्टवादादि) जो कई विस्मृत हो गये थे, उनकी आचार्य सुहस्थी सूरि के नायकता में ठीक व्यवस्था करवाकर ताड़पत्रादि पर लिपिबद्ध करवाये । T मगध का आठवां राजानन्द ने कलिंग पर आक्रमण कर वहाँ के रत्नादि के साथ कलिंग जिनमूर्ति ले गया था, राजा खारबेल ने मगध पर चढ़ाई कर अपना बदला लिया और वह मूर्ति पुनः कलिंग में ले आया और आर्य सुस्थीर के कर कमलों से उसी मन्दिर में पुनः प्रतिष्ठा करवाई। इन सब बातों का उल्लेख हेमवन्त स्थविरावलि और हस्ती गुफा के शिलालेख में मिलते हैं । जिसको मैं आगे के पृष्ठ में उद्धृत करूँगा । आर्य सुस्थी एवं प्रतिबुद्ध बड़े ही प्रभावशाली हुए आपके समय जैनधर्म एक राष्ट्रीय धर्म बन चुका था, आपके कर कमलों से अनेकों मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएं एवं मुमुक्षुत्रों की दीक्षा भी हुई। आर्य सुस्थी सूरि की समुदाय कोटीक गच्छ के नाम से कहलाई जाती थी उस कोटीक गच्छ चार शाखाएँ निकली । १ - उच्चनागोरी २ - विद्यधरी ३ - बज्री और ४ - मध्यमिका और इस गच्छ से चार कुल भी निकले थे जैसे १ - बंभलिप्त २ - वस्त्रलिप्त ४ -- वारणज्य ४ - प्रश्नबाहनक यों तो इन युगलाचार्यों ने अनेकों को दीक्षा दे अपने शिष्य बनाये थे पर उनमें पांच स्थविर मुख्य थे । १ - आर्य दिन्न २ - आर्यत्रियप्रन्थ ३ - आर्य विद्याधर गोपाल ४ - आर्य ऋषिदत्त और ५ श्रर्य अर्हदत्त । इन पांचों स्थविरों में एक प्रियग्रन्थ का संक्षिप्त उल्लेख प्रन्थकारों ने इस प्रकार किया है कि मरूधर प्रांत में उस समय हर्षपुर नाम का नगर जो अजयमेरू के नजदीक था (शायद यह मारवाड़का वर्तमान हर साल ग्राम ही हो ) उस नगर में शुभटपाल नाम का राजा राज करता था नगर में ३०० जैन मन्दिर, ४०० ३५५ www.jamelbbary.org Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अन्य दर्शनियों के मन्दिर, १९०० ब्राह्मणों के घर, ३००० व्यापारियों के घर (महाजनों) के, ९०० बगेचा ७०० वापियें २०० कुंए और ७०० दानशालाएं वगैरह थे एवं नगर अच्छा आबाद था। उस समय ब्राह्मणोंने वहाँ पर एकयज्ञ का प्रारम्भ किया और एक बकरे को होम (बली) के लिए लाये ठीक उसी समय यहाँ पर प्रियप्रन्थाचार्य का शुभ आगमन हुआ श्रावकों के कहने पर सूरिजी ने वासक्षेप मंत्र दिया कि जाओ इस वासक्षेप को बकरा पर डाल दो बस श्रावकों ने ऐसा ही किया। अंबिक अभ्यष्टित वासक्षेप के प्रभाव से बकरा स्वयं उड़कर आकाशमें चला गया और वह स्थित रह कर कहने लगा अरे निर्दय ब्राह्मणों तुम लोग अपना स्वल्प स्वार्थ के लिए अनेक प्राणियों के प्राणों को नष्ट कर रहे हो इस समय मारने की नियत से मुझे भी लाये हो यदि मैं भी तुम्हारी तरह निर्दयपना धारण कर लू तो जैसे हनुमान ने लंका एवं राक्षसों को विध्वंस किया था वैसे ही मैं तुम सब को यमद्वारे पहुँचा सकता हूँ। अरे मूढ़ ब्राह्मणों जिन्हों को तुम अवतार मानते हो उनके वाक्यों को तो याद करो कि उन्होंने क्या कहा है : यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषुभारता । तावद् वर्ष सहस्राणि पच्चन्ते पशु घातकाः ॥ जिस पशु की हिंसा की जाती है उसके शरीर पर जितने रोम हैं उतने हजार वर्ष तक पशु मारने वाले को नरक में घोर दुःखों का अनुभव करना पड़ता है और भी देखिये। योदद्यात् कांचनं मेरुः कृत्स्ना चैव वसुन्धरा । एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्य युधिष्ठिरः ॥ एक दानेश्वरी सुवर्ण का मेरुः दान करता है तब दूसरा एक मरता हुआ प्राणी को बचा कर प्राण दान करता है अतः प्राण दान के सामने सुवर्ण के मेरू का दान कोई गिनती में नहीं आ सकता है । इत्यादि इस पर यज्ञ करने वाले एवं देखने वाले भयभ्राँत हो कर पूछने लगे कि श्राप कौन हैं ? इस पर आकाश में रहा हुआ बकरा कहने लगा कि मैं अग्नि देव हूँ और यह पशु मेरा बहान रूप है अतः तुम अपना भला चाहते हो तो इस यज्ञ कर्म को छोड़ दो और इस नगर में प्राचार्य प्रियप्रन्थ सूरि आये हुए हैं तुम सब लोग वहाँ जाकर धर्म का स्वरूप पूछो वे तुमको ठीक रास्ता बतलावेंगे उसी मार्ग पर चल कर शुद्ध धर्म का पालन करो कि तुम्हारा कल्याण हो । अरे विनों जैसे नरेन्द्रों में चक्रवर्ती, धनुर्धरों में धनुजय है इसी प्रकार सत्यवादियों में प्रियग्रन्थ सूरि है इत्यादि । बाद ब्राह्मण मिल कर आचार्य प्रियग्रन्थसूरि के पास आये और धर्म का स्वरूप सुन कर मिथ्या धर्म का त्याग कर शुद्ध जैन धर्म को स्वीकार किया और उसकी ही आराधना की। प्रियग्रंथसूरि बड़े ही प्रभाविक श्राचार्य हुये आपकी संतान मध्यमिका शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी प्रकार विद्याधर गोपाल से विद्याधरी शाखा निकली। आर्य सुस्थी एवं सुप्रतिबुद्ध ने जैन धर्म की आराधन पूर्वक अन्त समय अपने पट्ट पर आर्य दिन्न को नियुक्त कर आप वीरात् ३५४ वर्षे स्वर्ग सिधाये । Jain Educaue Fernational Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ कलिंग देश का इतिहास मगध देश का निकटवर्ती प्रदेश कलिंग भी जैनों का एक बड़ा केन्द्र था। इस देश का इतिहास बहुत प्राचीन है। भगवान आदि तीर्थंकर श्रीऋषभदेव स्वामी ने अपने १०० पुत्रों को जब अपना राज्य बाँटा था तो कलिंग नामक एक पुत्र के हिस्से में यह प्रदेश आया था। उसके नाम के पीछे यह प्रदेश भी कलिंग कहलाने लगा। चिरकाल तक इस प्रदेश का यही नाम चलता रहा । वेद, स्मृति, महाभारत, रामायण और पुराणों में भी इस देश का जहाँ तहाँ कलिंग नाम से ही उल्लेख हुआ है । बौद्ध ग्रन्थों में भी इस प्रदेश का नाम कलिंग ही लिखा मिलता है । भगवान महावीर स्वामी के शासन तक इसका नाम कलिंग ही कहा जाता था । श्रीपन्नवणासूत्र में जहाँ साढ़े पच्चीस आर्य क्षेत्रों का उल्लेख है उन में से एक का नाम कलिंग लिखा हुआ है । यथा"राजगिहमगह चंपाअंगा, तह तामलितिबंगाय । कंचणपुरंकलिंगा बणारसी चैव कासीय ।" उस समय कलिंग की राजधानी कांचनपुर थी । इस देश पर कई राजाओं का अधिकार रहा है। तथा कई महर्षियों ने इस पवित्र भूमि पर विहार किया है तेवीस तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथ प्रभु ने भी अपने चरणकमलों से इस प्रदेश को पावन किया था । तत्पश्चात् आप के शिष्य समुदाय का इस प्रान्त में विशेष विचरण हुआ था । महावीर प्रभु ने पधार कर इस प्रान्त को पवित्र किया था। इस प्रान्त में कुमारगिरि ( उदयगिरि ) तथा कुमारी ( खण्डगिरि ) नामक दो पहाड़ियाँ हैं जिन पर कई जैनमंदिर तथा श्रमण समाज के लिए कन्दराऐं हैं इस कारण से यह देश जैनियों का परम पवित्र तीर्थ रहा है। कलिंग, अंग, बंग और मगध में ये दोनों पहाड़ियाँ शत्रुजय गिरनार अवतार नाम से भी प्रसिद्ध थीं। अतएव इस तीर्थ पर दूर दूर से कई संघ यात्रा करने के हित श्राया करते थे । ब्राह्मणों ने अपने प्रथों में कलिंग वासियों को 'वेदधर्मविनाशक' बतलाया है । इससे मालूम होता है कि कलिंग निवासी सब एक ही धर्म के उपासक थे। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि वे सब के सब जैनी थे । ब्राह्मण लोग कहीं कहीं अपने ग्रन्थों में बौद्धों को भी 'वेदधर्म विनाशक' की उपाधि से उल्लेख किया है पर कलिंग में पहले बौद्धों का नाम-निशान तक भी नहीं था। महाराजा अशोक ने कलिंग देश पर आक्रमण किया था उसी के बाद कलिंग देश में बौद्धों का प्रवेश हुआ था। ब्राह्मणों ने अपने आदित्य पुराण एवं पद्मपुराण में यहां तक लिख दिया है कि कलिंग देश अनार्य लोगों के रहने की भूमि है । जो ब्राह्मण कलिंग में प्रवेश करेगा वह पतित समझा जावेगा । यथा--- “गत्वैतान्कामतोदेशात्कलिंङ्गाश्च पतेत् द्विजः ।" यह भी बहुत सम्भव है कि शायद ब्राह्मणों ने कलिंग देश में पहुँच कर जैनधर्म स्वीकार कर लिया हो । इसी हेतु उन्होंने ब्राह्मणों को कलिंग में जाने तक को भी निषेध कर दिया हो। उस समय एक बार जैनों का कलिंग देश में पूरा साम्राज्य होगया पर आज वहाँ जैनियों की विशेष बसती नहीं है। इसका कारण विधम्मियों का अत्याचार के सिवाय और क्या हो सकता है। तथापि दूरदर्शी जैनियों ने अपने धर्म की स्मृति के चिन्हरूप कलिंग देश में कुछ न कुछ तो कार्य अवश्य किया। वे सर्वथा वंचित नहीं रहे । इतिहास साफ-साफ बतला रहा है कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी तक तो कलिंग ३५७ www.hindhiorary.org Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास देश में जैनियों की पूर्ण जाहोजलाली थी। इतना ही नहीं पर विक्रम की सोलहवीं शताब्दि में सूर्यवंशी महाराजा प्रतापरूद्र वहाँ का जैनी राजा था। उस समय तक तो कलिंग देश में जैन धर्म का अस्तित्व थोड़ा बहुत प्रमाण में अवश्य ही रहा था । पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सर्वथा जैनधर्म यकायक कलिंग में से कैसे चला गया । इस पर विद्वानों का मत है कि जैनों पर किसी विधर्मी राजसत्ता पूर्वक निर्दयता से ऐसे प्रत्याचार हुए होंगे कि उन्हें कलिंग देश का परित्यागन करना पड़ा। यदि इस प्रकार की कोई आपत्ति नहीं आती तो कदापि जैनी इस देश को सर्वथा प्रकार से नहीं छोड़ते । केवल इसी देश में जैनों पर विधर्मियों के अत्याचार हुए हो ऐसी बात नहीं है, पर विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी में महाराष्ट्र में भी जैनों को इसी प्रकार की मुसीबत से सामना करना पड़ा था क्योंकि विधर्मी नरेशों से जैनियों की उन्नति देखी नहीं जाती थी । वे तो जैनियों को दुःख पहुँचाना अपना धर्म समझते थे । कई जैन साधु शूली पर लटका दिये गये । वे जीते जी कोल्हू में पेरे गये । उन्हें जमीन में धा गाड़ कर काग और कुत्तों से नुचवाया गया इसके कई प्रमाण मी उपस्थित हैं । “हालस्य महात्म्य" नामक ग्रन्थ, जो तामिली भाषा है, उसके ६८ वें प्रकारण में इन अत्याचारों का रोमांचकारी विस्तृत न मौजूद है, किन्तु जैनियों ने अपने राजत्व में किसी विधर्मी को नहीं सताया था यही जैनियों की विशेषता है। यह कम गौरव की बात नहीं है कि जैनी अपने शत्रु से बदला लेने का विचार तक भी नहीं करते थे । यदि जैनियों की नीति कुटल होती तो क्या वे सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य या सम्प्रति एवं कुमारपाला नरेश के राज्य में विधर्मियों को सताने से चूकते, कदापि नहीं । पर जैनी किसी को सताना तो प्रति कभी अस विचार तक भी नहीं करते हैं । में रहा, दूसरे जीव के जैन शास्त्रकारों का यह खास मन्तव्य है कि अपने प्रकाश द्वारा दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करना तथा सदुपदेश द्वारा भूले भटकों को राह बताना और सबके प्रति मैत्रीभाव रखना चाहिए यह जैनियों का साधारण आचार है। जो थोड़ा भी जैनधर्म से परिचित होगा उपरोक्त बात का अवश्यमेव समर्थन करेगा | परन्तु विधर्मियों ने अपनी सत्ता के मद में जैनियों पर ऐसे-ऐसे कष्टप्रद अत्याचार किये कि जिनका वर्णन याद आते ही रोमांच खड़े हो जाते हैं तथा सुनने वालों का हृदय थर-थर काँपने लग जाता है । जिस मात्रा में जैनियों में दया का संचार था विधर्मी उसी मात्रा में निर्दयता का वर्ताव कर जैनियों को इस दया के लिए चिढ़ाते थे । पर जैनी इस भयावनी अवस्था में भी अपने न्यायपथ से तनिक भी विचलित नहीं हुए । यही कारण है कि आज तक जैनी अपने पैरों पर खड़े हैं और न्याय पथ पर पूर्णरूप से आरूढ़ हैं । धर्म का प्रेम जैनियों की रग-रग में रमा हुआ है जैनों के स्याद्वाद सिद्धान्तों का आज भी सारा संसार में लोहा माना जाता है । स्याद्वाद के प्रचंड शस्त्र के सामने मिध्यात्वियों का कुतर्क टिक नहीं सकता । स्याद्वाद की नीतिद्वारा आज भी जैनी विधर्मियों का मुँह बन्द कर सकने में समर्थ हैं। कलिंग देश में जैनियों का नाम निशान तक जो आज नहीं मिलता है इसका वास्तविक कारण यही है कि विधर्मियों ने जैनियों के साथ धर्म द्वेष के कारण अन्यायपूर्वक अत्याचारों से महान् दुखी किये कि उन लोगों को कलिंग का त्याग करना पड़ा अतः कलिंग प्रदेश जैनियों से निर्वासित हो गया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । और यह केवल मेरी ही मान्यता नहीं है पर आधुनिक संशोधकों एवं इतिहासकारों का भी यही मत है कि विधर्मियों द्वारा जैनों पर बहुत जुल्म गुजरा गया था इत्यादि । Jain Edu international Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ जैनाचार्यों ने अन्यान्य विषयों पर बड़े बड़े प्रन्थों का निर्माण किया पर जिस कलिंग के साथ चिरकाल तक जैनों का घनिष्ठ संबंध रहा था उसके लिए शायद ही किसी ने दो चार पंक्ति लिखी हो । क्या श्वेताम्बर और क्या दिगम्बर आज इस बात के लिए दोनों ने बिल्कुल मौनव्रत का ही सेवन किया है । यदि किसी ने थोड़ा बहुत लिखा भी होगा तो शायद वे मुसलमानों के अत्याचारों से बच नहीं सके होंगे । फिर भी बड़ी खुशी की बात है कि थोड़े अर्से पूर्व पुराने भंडार की संभाल करते समय एक 'हेमवंत पट्टावली' (थेरावजी ) उपलब्ध हुई है और उसमें कलिंग के इतिहास की थोड़ी बहुत सामग्री है । हेमवंतपट्टावली के निर्माण कर्त्ता आचार्य हेमवंतसूरि जो प्रसिद्ध अनुयोगधार एवं माथुरी वाचना के नायक आचार्य स्कंदिल सूरि के शिष्य एवं पट्टधर थे । श्रापका समय विक्रम की चौथी शताब्दी का है । नंदीसूत्र में भी आपके नाम का उल्लेख पाया जाता है । जैन पट्टावलियों में सब से प्राचीन एवं महत्व वाली यह हेमवंत पट्टावली है । इसमें वर्णित घटनाएं प्रायः ऐतिहासिक घटना कही जा सकती हैं । प्रस्तुत पट्टावली पद्य एवं गद्य में लिखी गई है। इस पट्टावली का सारांश गुर्जरगिरा में पं० हीरालाल हंसराज जामनगर वाले ने अपनी अंचलगच्छ बड़ी पट्टावली में तथा इतिहासवेत्ता पन्यासजी श्री कल्याणविजयजी महाराज ने 'वीर निर्वाण सम्वत् और जैनकालगणना' नामक पुस्तक के परिशिष्ट के रूप में उद्धृत किया है और वह हिन्दी भाषा में होने से मैं पाठकों की जानकारी के लिये केवल कलिंग के साथ संबंध रखने वाली घटना को ही यहाँ उद्धत कर देता हूँ । पाटलिपुत्री के मौर्य राज्य शाखा को पुष्यमित्र तक लिखने के बाद थेरावली कारने कलिंगदेश के राजवंश का वर्णन दिया है । हाथीगुंफा के लेख से कलिंगचक्रवर्ती महाराजा खारबेल का तो थोड़ा बहुत परिचय विद्वानों को अवश्य है, पर उसके वंश और उसकी संतति के विषय में अभी तक कुछभी प्रमाणिक निर्णय नहीं हुआ था। हाथीगुंफा के शिलालेख के 'चेतवसवघनस' इस उल्लेख से कई कई विद्वान खारबेल को 'चैत्रवंशीय' समझते हैं, तब कोई उसे 'चेदिवंश' का राजा कहते थे । हमारे प्रस्तुत थेरावलीकारने इस विषय को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है । थेरावली के लेखानुसार खारवेल न तो चैत्रवंशी था और न चेदि वंशी पर वह तो चेटकवंशीय था । क्योंकि वह वैशाली के प्रसिद्ध राजा चेटक के पुत्र कलिंगराज शोभनराय की वंश परंपरा में जन्मा था । अजातशत्रु के साथ की लड़ाई में चेटक राजा के मरने पर उसका पुत्र शोभनराय वहाँ से भाग कर किस प्रकार कलिंग राज के पास गया और कलिंग का राजा हुआ इत्यादि वृतांत थेरावली के शब्दों में ही नीचे लिख देते हैं । विद्वान लोग देखेंगे कि कैसी अपूर्व घटना है । "वैशाली का राजाचेटक तीर्थंकर महावीर का उत्कृष्ट श्रमणोपासक था | चंपानगरी का अधिपति राजा कोणिक, जो कि चेटक का भानजा था, ( अन्य श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के ग्रन्थों में कोणिक को चेट का दोहिता लिखा है ) वैशाली पर चढ़ आया और उसने लड़ाई में हरा दिया । लड़ाई में हराने बाद अन्न जल का त्याग कर राजा चेटक स्वर्गवासी हुआ । चेटक के शोभनराय नाम का एक पुत्र वहाँ से ( वैशाली नगरी से ) भाग कर अपने श्वसुर कलिंगाधिपति सुलोचन की शरण में गया । सुलोचन के पुत्र नहीं था इसलिये अपने दामाद शोभनराय को कलिंग देश का राज्यासन देकर वह परलोक वासी हुश्रा । भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद १८ वर्ष बीतने पर शोभनराय का कलिंग की राजधानी ३५९ www.jainaticalry.org Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कनकपुर में राज्याभिषेक हुआ। शोभनराय जैनधर्म का उपासक था। वह कलिंग देश में तीर्थ स्वरूप कुमार पर्वत पर यात्रा कर के उत्कृष्ट श्रावक बन गया । ___ शोभनराय के वंश में पाँचवी पीढ़ी में चंडराय नामक राजा हुआ जो महावीर के निर्वाण से १४९ वर्ष बीतने पर कलिंग के राज्यासन पर बैठा था। चंडराय के समय में पाटलीपुत्र नगर में श्राठवाँ नंद राजा राज्य करता था, जो अभिमानी और अति लोभी था। वह कलिंग देश को नष्ट भ्रष्ट करके तीर्थ स्वरूप कुमारगिरी पर राजा श्रीणिक के बनवाये हुये जिनमन्दिरों को तोड़ उसमें रखी हुई ऋषभदेव की सुवर्णमयी प्रतिमा को उठा कर पाटलीपुत्र में ले आया। इसके बाद शोभनराय की आठवीं पीढी में क्षेमराज नामक कलिंग का राजा हुआ । वीर निर्वाण के बाद जब २२७ वर्ष पूरे हुए तब कलिंग के राज्यासन पर क्षेमराज का अभिषेक हुआ और निर्वाण से २३९ वर्ष बीतने पर मगधाधिपति अशोक ने कलिंग पर चढ़ाई कीर और वहां के राजा क्षेमराज को अपनी आज्ञा मनाकर वहां पर उसने अपना गुप्त संवत्सर चलाया। महावीर निर्वाण से २७५ वर्ष के बाद क्षेमराज का पुत्र वुड ढराज३ कलिंगदेश का राजा हुआ। वुड ढराज जैनधर्म का परम उपासक था । उसने कुमारगिरि और कुमारीगिरि नाम के दो पर्वतों पर श्रमण और निम्रन्थियों के चातुर्मास्य करने योग्य ११ गुफाएं खुदवाई थीं। भगवान महावीर के निर्वाण को जब ३०० वर्ष पूरे हुए तब वुड्ढराय का पुत्र भिक्खुराय कलिंग का राजा हुआ। भिक्खुराय के नीचे लिखे अनुसार तीन नाम कहे जाते हैं: निर्मन्थ-भिक्षुओं की भक्ति करनेवाला होने से उसका एक नाम 'भिक्खुगय' था । पूर्व परंपरागत 'महामेघ' नामक हाथी उसका वाहन होने से उसका दूसरानाम 'महामेघवाहन' था। उसकी राजधानी समुद्र के किनारे पर होने से उसका तीसरा नाम 'खारवेलाधिपति' था। भिक्षुराज अतिशय पराक्रमी और अपनी हाथी आदि की सेना से पृथ्विीमंडल का विजेता था। पन्यासजी ने मूल पट्टावली का अनुवाद के साथ अपनी ओर से फुट नोट भी दिये हैं वे भी यहां पर ज्यों के त्यों दे दिये जाते हैं कि आपके भाव ज्यों के स्यों जान लिये जाय । (१) हाथीगुफा वाल खारबेल के शिलालेख में भी पंक्ति १६ वीं में 'खेमराजा' इस प्रकार बारबेल के पूर्वज के तौर से क्षेमराज का नामोल्लेख किया है। (२) कलिंग पर चढ़ाई करने का जिक्र अशोक के शिलालेख मे' भी है । पर वहां पर अशोक के राज्याभिषेक के आठवें वर्ष के बाद कलिंग विजय का उल्लेख है । राज्य प्राप्ति के बाद ३ अथवा ४ वर्ष पीछे अशोक का राज्याभिषेक हुआ मान लेने पर कलिंग का युद्ध भ्रशोक के राज्य के १२-१३ वर्ष में भायगा। थेरावली में अशोक की राज्य प्राप्ति निर्वाण से २०९ वर्ष के बाद लिम्बी है अर्थात २१० में इसे राज्याधिकार मिला और २३९ में उसने कलिंग विजय किया । इस हिसाब से कलिंग विजय वाली घटना अशोक के राज्य के ३० ३ वर्ष के अंत में आती है, जो कि शिलालेख से मेल नहीं खाती। (क) अशोक के गुप्त संवत्सर चलाने की बात ठीक नहीं जंचती । मालग होता है कि थेराबली लेखक ने अपने समय में प्रवलित गुप्त साजानों के चलाये गुप्त संवत् को अशोक चलाया हुआ मान लेने का धोखा खाय है। इसी उल्लेख से इसकी अति प्राचीनता के सम्बन्ध में भी शंका उत्पन्न होती है। (३) वुड्ढराज का नाम भी स्वारबेल के हाथीं गुंफा वाले लेख में 'वुड्ढराना का इस प्रकार उल्लेख है। Jain Education international Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ उसने मगध देश के राजा पुष्पमित्र को २ धार पराजित करके अपनी आज्ञा मनवाई । पहले नंदराजा ऋषभदेव की जिस प्रतिमा को उठा ले गया था उसे वह पाटलिपुत्र नगर से वापिस अपनी राजधानी में लेगया और कुमारगिरि तीर्थ में श्रेणिक के बनवाये हुए जिनमंदिर का पुनरुद्धार कराके आर्य सुहस्ती के शिष्य सुस्थी-सुप्रति बुद्ध नाम के स्थविरों के हाथों से उसे फिर प्रतिष्ठित कराकर उसमें स्थापित किया। पहले जो बारहवर्ष तक दुष्काल पड़ा था उसमें आर्यमहागिरि और आर्यसुहस्तीजी के अनेक शिष्य शुद्ध आहार न मिलने के कारण कुमारगिरि नामक तीर्थ में अनशन करके शरीर छोड़ चुके थे। उसी दुष्काल के प्रभाव से तीर्थकरों के गणधरों द्वारा प्ररूपित बहुतेरे सिद्धान्त भी नष्ट प्राय हो गये थे। यह जानकर भिक्खुराय ने जैन सिद्धान्तों का संग्रह और जैनधर्म का विस्तार करने के लिये संप्रतिराजा की नाई श्रमण निग्रंथ तथा निर्गथियों की एक सभा वहाँ कुमारी पर्वत नामक तीर्थ पर इकट्ठी की, जिसमें आर्य महागिरिजी की परंपरा के बलिस्सह, बोधिलिंग, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य, नक्षत्राचार्य, आदिक दो सौ जिनकल्प की तुलना करने वाले जिनकल्पी साधु, तथा आर्यसुस्थित, आर्यसुप्रतिबुद्ध, उमास्वाति, श्यामानार्य प्रभृति तीन सौ स्थविरकल्पी निग्रंथ आये । आर्या पोइणी श्रादि तीन सौ निम्रन्थी साध्वियों भी वहाँ इकट्ठी हुई थीं । भिक्खुराय, सीवंद, चूर्णक, सेलक श्रादि सातसौ श्रमणोपासक और भिक्खुराय की स्त्री पूर्णमित्रा श्रादि सात सौ श्राविकाए भी उस सभा में उपस्थिति थीं। पुत्र, पौत्र और रानियों के परिवार से सुशोभित भिक्खुराय ने सब निग्रंथों और निप्रैथियों को नमस्कार करके कहा-'हे महानुभावो ! अब आप बर्धमान तीर्थकर प्ररूपित जैनधर्म की उन्नति और विस्तार करने के लिये सर्वशक्ति से उद्यमवंत हो जायँ ।' भिक्खुराय के उपर्युक्त प्रस्ताव पर सर्व निर्मथ और निथियों ने अपनी सम्मति प्रकट भी और भिखुराय से पूजित सत्कृत और सम्मानित निर्मथ और निमंथियाँ मगध, मथुरा, वंग आदि देशों में तीर्थकर प्रणीत धर्म की उन्नति के लिये निकल पड़े। ___ उसके बाद भिक्खुराय ने कुमारगिरि और कुमारीगिरि नामक पर्वतों पर जिन प्रतिमाओं से शोभित अनेक गुफाएँ खुदवाई, वहाँ जिनकल्प की तुलना करने वाले निग्रंथ वर्षा काल में कुमारीपर्वत की गुफाओं में रहते और जो स्थविरकल्पी निर्पथ होते वे कुमारपर्वत की गुफाओं में वर्षा काल में रहते । इस प्रकार भिक्खुराय ने निग्रन्थों के लिये विभिन्न व्यवस्था कर दी थी। उपर्युक्त सर्व व्यवस्था से कृतार्थ हुए भिक्खुराय ने बलिस्सह, उमास्वाति, श्यामाचार्यादिक स्थविरों को नमस्कार करके जिनागमों में मुकुट तुल्य दृष्टिवाद अंग का संग्रह करने की प्रार्थना की। __भिक्खुराय की प्रेरणा से पूर्वोक्त स्थविर आचार्यों ने अवशिष्ट दृष्टिवाद को श्रमण समुदाय से थोड़ा ( हाथी गुफा के शिलालेख में भी मिथुराजा, महामेघवाहन, और स्वारघेलसिरि इन तीनों नामों का प्रयोग खारवेल के लिए हुआ है। (२) खारवेल के शिलालेख में भी मगध के राजा हस्पितमित्र (पुष्पमित्र का पर्याप)को मोतने का सरलेख है (३) नंदराज द्वारा लेजाई गई जिन मूर्ति को कलिंग में वापिस ले जाने का हाथीगुंफा में इस प्रकार स्पष्ट उल्लेख है:"नंदराजनीतं च कालिगं जिनं सनिवेस' गृहरतनान पडिहारे हि भंग मागध-वसुंध नेयाति [1]? ( हाथी गुंफा लेख पंक्ति १२, बिहार ओरिसा जर्नल, वॉल्युम ४ भाग ४ ) ३६१ www.dinelibrary.org Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गोड़ा ज्ञान एकत्र कर भोजपत्र, ताड़पत्र, और वल्कल पर अक्षरों से लिपि बद्ध करके भिक्खुराय का मनोरथ किया और इस प्रकार वे आर्य सुधर्म रचित द्वादशांगी के संरक्षक हुए | १ - उसी प्रसंग पर श्यामाचार्य ने निर्बंध साधु साध्वियों के सुखबोधार्थ 'पन्नवणासूत्र' की रचना की || २- स्थविर श्रीउमास्वातिजी ने उसी उद्देश्य से नियुक्ति सहित 'तत्वार्थ सूत्र' की रचना की २ ३ - स्थविर आर्य बलिस्सह ने विद्याप्रवाद पूर्व में से 'अंगविद्या' आदि शास्त्रों की रचना की ३ | इस प्रकार जिन शासन की उन्नति करने वाला भिक्खुराय अनेक विधि धर्म कार्य करके महावीर निर्वाण से ३३० वर्षो के बाद स्वर्गवासी हुआ । भिक्खुराय के बाद उसका पुत्र वक्रराय कलिंग का अधि पति हुआ । वक्रराय भी जैनधर्म का अनुयायी और उन्नति करने वाला था । धर्माराधन और समाधि के साथ यह वीर निर्वाण से ३६२ वर्ष के बाद स्वर्गबासी हुआ । वक्रराय के बाद उसका पुत्र 'विदुहराय'५ कलिंग देश का अधिपति हुआ । विदुहराय ने भी एकाम चित्त से जैनधर्म की आराधना की निर्मथ समूह से प्रशंसित यह राजा महावीर निर्वाण से ३९५ वर्ष के बाद स्वर्गवासी हुआ ।" 1 "वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना पृष्ट १६६-७५” आरम्भ होता है जो पंचवी पर चण्डराय का और मगद का मूर्ति ले आना एवं उपरोक्त पट्टावली में कलिंग का राजवंश राजा चेटक के पुत्र शोभनराय से कलिंग पति सुलोचन ने अपने दमाद को कलिग पति बनाया था उस शोभनराय के आगे खेमराज बुद्धराज और भिक्षुराज ( खारवेल ) तथा इसके पुत्र विक्रराय बदुहराय नन्दराजा कलिंग से जिनमूर्ति ले जाना और पुष्पमित्र के समय खारबेल वापिस मगद से श्रार्य सुम्थी और सुप्रतिबुद्ध की अध्यक्षता में कुमार कुमारी पर्वत पर श्रमण एवं चतुर्विध दृष्टिवाद अंग का उद्धार करवाना आदि आदि वर्णन आता है यह सब वर्णन हस्ती गुफा का खारबल का शिलालेख से बराबर मिलता हुआ है अतः इस पट्टावली की घटना ऐतिहासिक घटना होने में संदेह करने को थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता है। अब आगे चलकर हम कलिंग प्रदेश की शोध खोज से जो ऐतिहासिक घटनाएं मिली हैं उसका उल्लेख करेंगे । संघ एकत्र होना (१) श्यामचार्य कृत 'पन्नवण सूत्र' अब तक विद्यमान है । ( २ ) उमास्वातिकृत 'तत्वार्थ सूत्र' और इसका स्वोपज्ञ भाष्य अभी तक विद्यमान है। यहाँ पर उल्लिखित 'निर्युक्ति' शब्द संभवतः इस भाष्य के हो भर्थ में प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है । ( ३ ) अङ्गविद्या प्रकीर्णक भी हाल तक मौजूद है । कोई नौ हजार श्लोक प्रमाण का यह प्राकृत गद्य पद्य में लिखा हुआ 'सामुद्रिक विद्या' का ग्रन्थ है । ( ४ ) कलिंग देश के उदयगिरि पर्वत की मानिकपुर गुफा के एक द्वार पर खुदा हुआ वक्रदेव के नाम का शिलालेख मिला है जो इसी वक्रराय का है । लेख नीचे दिया जाता है : "वेरस महाराज कलिंगाधिपतिनो महामेघवाहन वक्रदेव सिरिनो लेणं ।” ( जिनविजय सं० प्राचीन जैनलेख पृ० ४६ ) (५) उदयगिरि की मचपुरी गुफा के सातवें कमरे में विदुराय के नाम का एक छोटा लेख है । उसमें लिखा है कि यह लयन (गुफा) 'कुमार विदुराय' की हैं। देख के मूल शब्द नीचे दिये जाते हैं: "कुमार बदुश्वस लेनं" ( एपिग्राफिका इंडिका जिल्द १३ ) ३६२ Jain Education international Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ विद्वानों की शोध खोज और कलिंग का इतिहास-आज विज्ञानिक युग एवं शोध खोज का जमाना है ! जिस शोध खोज ने कमाल कर दिया है, सोये हुए भारतीयों को जगा दिया है। जिन बातों को हम स्वप्न में भी नहीं जानते थे इतना ही क्यों पर हम हमारे पूर्वजों का उज्जवल गौरव को भी भूल बैठे थे । उनका नाम निशान तक भी हमारे लक्ष में नहीं थे; पर संशोधकों के पूर्ण परिश्रम से आज अनेक प्राचीन शिलालेख ताम्रपत्र दानपत्र सिक्के वगैरह उपलब्ध हुए हैं कि जिन्हों के आधार पर आज हम प्राचीन इतिहास की भींत ज्यों त्यों खड़ी कर सकते हैं। यों तो भारत के कई विभागों के इतिहास की सामग्री मिली हैं परन्तु उसमें से यहां पर मैं कलिंग देश के विषय ही कुछ लिखने का प्रयत्न करूंगा। कलिंग--जिसको आज उड़ीसा कहते हैं प्राचीन समय में इसका बहुत विस्तार था। यह देश बड़ा ही सम्पत्तिशाली था, इस देशवासियों की वीरता जगत्प्रसिद्ध थी। साधारणतया यह तीन विभागों में विभक्त था जैसे दक्षिणकलिंग, मध्यकलिंग और उत्तरकलिंग। उत्तर कलिंग को उत्कल भी कहते थे, इसका उड़ीसा नाम तो केवल उड़ जाति के नाम पर ही हुआ है। पुराणों में--भी इस देश का उल्लेख मिलता है कि राजा सुद्योमन के तीन पुत्र थे-गया, उत्कल और विनिताश्व । इनके अधिकारकी भूमि क्रमशः बिहार, उत्कल और पश्चिमाचल थी तथा ये तीनों देश कलिंग के शामिल ही समझे जाते थे। यही कारण है कि कलिंग के राजाओं को विकलिंगाधिपति को उपाधि थी। रामायण से--पता चलता है कि कलिंग की भूमि भगवान् रामचन्द्रजी के चरण कमलों से भी पवित्र हो चुकी थी। जिस समय भगवान् रामचन्द्र ने वन-प्रस्थान किया था उस समय वे उत्कल, गोदावरी होते हुए पंचवटी पधारे थे। महाभारत--से भी पाया जाता है कि कलिंग की कुशल सैन्य युद्ध में बड़ी बीरता रखती थी । जब कौरव और पांडवों के आपस में युद्ध हुआ था तब कलिंग की सेना कौरवों की मदद पर थी और उसने बड़ी वीरता से युद्ध किया था। कलिंग का व्यापार--व्यापार व्यवसाय में भी कलिंग सर्वोपरि था। उस समय भारत का व्यापार केवल आज के जैसा कमीशनी व्यापार नहीं था पर व्यापार में हिम्मत, दूरदर्शिता, बुद्धि आदि जो गुण चाहिये वे कलिंगवासियों में विद्यमान थे । कलिंगवासियों का व्यापार केवल भारत में ही नहीं परन्तु अन्य देशवासियों के साथ भी कलिंग के व्यापार का विस्तार था । वे बंगाल समुद्र अरबसागर और हिंदमहासागर को पार कर जहाजों द्वारा जावा, बालिद्वीप, चीन, जापान, लंका, सुमात्रा, सिंगापुर, मारीशत और ब्रह्मद्वीप आदि पाश्चात्य व पौरवात्य देशों में भी आते जाते थे और बढ़िया बढ़िया वस्त्र एवं जवाहिरात का व्यापार किया करते थे। इसी कारण कलिंग उस समय बड़ा ही समृद्धिशाली और सभ्यता का आदर्श कहलाता था । कलिंग के राजा--कलिंग देश पर यों तो समय समय अनेक राजाओं ने राज किया है पर इतिहास की कसौटी पर विशेष महत्वशाली राजा खारबेल का नाम अधिक प्रसिद्ध है। जिसका एक विस्तृत शिलालेख अभी थोड़ा अर्सा पूर्व मिला है वह शिलालेख क्या है एक खारबोल के जीवन का पूरा इतिहास है उस शिलालेख से उस समय की राजनीतिदशा, सामाजिकव्यवस्था और धार्मिक प्रवृतियों का सहज ही में पता मिल जाता है प्रस्तुत शिलालेख किस कठिनाइयों के साथ मिला और उसके भाव को किस प्रकार ३६३ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२६६] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जाना । पाठकों की जानकारी के लिये थोड़ा हाल यहां लिख देता हूँ कि पुरातत्व के प्रेमियों ने इस प्रकार के प्रीचीन पदार्थों के लिये किस किस प्रकार के परिश्रम किया और करते हैं। खारबेल का यह महत्वपूर्ण शिलालेख खण्डगिरि उदयगिरि पहाड़ी की हस्तीगुफा से मिला है। इस लेख को सब से प्रथम पादरी स्टर्लिंग ने ई० सन् १८६० में देखा था। पर पादरी साहब उस लेख को साफ तौर से पढ़ नहीं सके। इसके कई कारण थे। प्रथम तो वह लेख २००० वर्ष से भी अधिक पुराना होने के कारण जर्जर अवस्था में था। यह शिलालेख इतने वर्षों तक सुरक्षित न रहने के कारण घिस भी गया था। कई अक्षर मिटने लग गये थे और कई अक्षर तो बिल्कुल नष्ट भी हो चुके थे। इस पर भी लेख पाली भाषा से मिलता हुआ शास्त्रों की शैली से लिखा हुआ था। इस कारण पादरी साहब लेख का सार नहीं समझ सके । तथापि पादरी साहब भारतीयों की तरह हताश नहीं हुए। वे इस लेख के पीछे चित्त लगा कर पड़ गये। उन्होंने इस शिलालेख के सम्बन्ध में अंग्रेजी पत्रों में खासी चर्चा प्रारम्भ कर दी। अतः सारे पुरातत्वियों का ध्यान इस शिलालेख की ओर सहज ही में आकर्षित हो गया। इस शिलालेख के विषय में कई तरह का पत्र व्यवहार पुरातत्वज्ञों के आपस में चला। अन्त में इस लेख को देखने की इच्छा से सबने मिलकर एक तिथि निश्चित् की । उस तिथि पर इस शिलालेख को पढ़ने के लिए अनेकों यूरोपियन एकत्रित हुए। कई तरह से प्रयत्न करके उन्होंने उसका मतलब जानना चाहा पर वे अन्त में असफल हुए । इतने पर भी उन्होंने प्रयत्न जारी रखा। इस शिलालेस्त्र के कई फोटू लिये गये । कागज लगा-लगा कर कई चित्र लिखे गये । यह शिलालेख चित्र के रूप में समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ । इस शिलालेख पर कई पुस्तकें निकली। इस प्रयत्न में विशेष भाग निम्नलिखित यूरोपियनों ने लिया । डॉ० टामस, मेजर, कीट्ट, जनरल, कनिंगहाम, प्रसिद्ध इतिहासकार विन्सटेंट, डा. स्मिथ, बिहार गवर्नर सर एडवर्ड आदि आदि ___ जब इसका पूरा पता नहीं चला तो उस खोज के आन्दोलन को भारत सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। शिलालेख की नकल यहाँ से इंगलैण्ड भेजी गयी । वहाँ के विज्ञानिकों ने उसकी विचित्र तरह से फोटु ली । भारतीय पुरातत्वज्ञ भी निंद्रा नहीं ले रहे थे इन्होंने भी कम प्रयत्न नहीं किया। महाशय जायसवाल, मिस्टर राखलदास बनर्जी श्रीयुत भगवानदास इन्दर्जी और अन्त में सफलता प्राप्त करने वाले श्रीमान् केशव लाल हर्षदराय ध्रुव थे । श्री० केशवलाल ने अविरल प्रयत्न से इस लेख का पता निकाला । तब से सन १९१८ अर्थात् करीब सौ वर्ष के प्रयत्न से अन्त में यह निश्चित हुआ कि यह शिलालेख कलिंगाधिपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल का है। सचमुच बड़े शोक की बात है कि जिस धर्म से यह शिलालेख सम्बन्ध रखता है, जिस धर्म की महत्ता को बतानेवाला यह लेख है, जिस धर्म के गौरव के प्रदर्शन करनेवाला यह शिलालेख है उस जैन धर्म वालों ने आज तक कुछ भी नहीं किया। जिस महत्वपूर्ण विषय की ओर ध्यान देने की अत्यन्त आवश्यकता थी वह विषय उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया । वास्तव में जैनियों ने इस विषय की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं ? क्या वे अपनी ओर से कृतज्ञता प्रकट करना भूल ही गये ? जहाँ चन्द्रगुप्त सम्राट और सम्प्रति राजा के लिए जैन प्रन्थकारों ने पोथे के पोथे लिख डाले वहाँ क्या श्वेताम्बर और क्या दिगम्बर २ . Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ किसी भी आचार्य ने इस नरेश के चरित्र की ओर प्रायः कलम तक नहीं उठाई कि जिसके आधार से आज हम जनता के सामने खारवेल का कुछ वर्णन रख सकें । क्या यह बात कम शोचनीय है । ___उधर श्राज जैनेतर देशी और विदेशी पुरातत्त्वज्ञ तथा इतिहास प्रेमियों ने साहित्य संसार में प्रस्तुत लेख के सम्बन्ध में धूम मचादी है । उन्होंने इसके लिए हजारों रुपयों को खर्चा | अनेक तरह से परिश्रम कर पता लगाया। पर जैनी इतने बेपरवाह निकले कि उन्हें इस बात का भान तक नहीं । श्राज अधिकांश जैनी ऐसे हैं जिन्होंने कान से खारवेल का नाम तक नहीं सुना है । कई अज्ञानी तो यहाँ तक कह गुजरते हैं कि गई गुजरी बातों के लिए इतनी सरपच्ची स्था मगज़मारी करना व्यर्थ है । बलिहारी इनकी बुद्धि की ! वे कहते हैं कि इस लेख से जैनियों को मुक्ति थोड़े ही मिल जायगी। इसे सुनें तो क्या और पढ़ें तो क्या ? और न पढ़ें तो क्या होना-हवाना ! अर्वाचीन समय में हमें अपने धर्म का कितना गौरव रह गया है इस बात की जाँच ऐसी लच्चर दलीलों से अपने आप हो जाती है । जिस धर्म का इतिहास नहीं उस धर्म में जान नहीं । क्या यह मर्म कभी भूला जा सकता है ? कदापि नहीं। सज्जनो ! महाराज खारवेल का लेख जो अति प्राचीन है तथा प्रत्यक्ष प्रमाण भूत है जैन धर्म के सिद्धान्तों को पुष्ट करता है । यह जैन धर्म पर अपूर्व प्रभाव डालता है। यह लेख भारत के इतिहास के लिये भी अच्छा प्रमाण स्वरूप है । कई बार लोग यह आक्षेप किया करते हैं कि जिस प्रकार बौद्ध और बेदान्त मत राजाओं से सहायता प्राप्त करता था तथा अपनाया जाना था उसी प्रकार जैन धर्म किसी राजा की सहायता नहीं पाई थी न यह अपनाया जाता था या जैन धर्म सारे राष्ट्र का धर्म नहीं था, उनको इस शिला लेख से प्रत्यक्षरूप से पूरा उत्तर मिल जाता है और उनको बोलने का अवसर ही नहीं मिल सकता है । ___ भगवान महावीर के अहिंसा धर्म के प्रचारको में शिलालेख में सबसे प्रथम खारवेल का ही नाम उपस्थित करते हैं । महाराजा खारवेल कट्टर जैनी था। उसने जैन धर्म का प्रचुरता से प्रचार किया। इस शिलालेख से ज्ञात होता है कि आप चैत्र ( चेटक ) वंशी थे । आपके पूर्वजों को महामेघवाहन की उपाधि मिली हुई थी । आपके पिता का नाम बुद्धराज तथा पितामह का नाम खेमराज था । महाराजा खारवेल का जन्म १९७ ई० पूर्व सन् में हुआ। पंद्रह वर्ष तक आपने बालवय आनन्द पूर्वक बिताते हुए आवश्यक विद्याध्ययन भी कर लिया तथा नौ वर्ष तक युवराज रह कर आपने राज्य का प्रबन्ध अच्छा किया था । इस प्रकार २४ वर्ष की आयु में आपका राज्याभिषेक हुआ । १३ वर्ष पर्यन्त आपने कलिंगाधिपति रह कर सुचारु रूप से शासन किया । अन्त में अपने राज्य काल में दक्षिण से लेकर उत्तर लों राज्य का विस्तार कर आपने सम्राट् एवं चक्रवर्ति की उपाधि भी प्राप्त की थी आपने अपना जीवन धार्मिक कार्य करते हुए बिताया। अन्त में आपने समाधि मरण द्वारा उच्च गति प्राप्त की । ऐसा शिलालेख से मालूम होता है। ___ यह शिलालेख कलिंग देश, जिसे अब उड़ीसा कह कर पुकारते हैं, के खण्डगिरि (कुमार पर्वत ) की हस्ती नाम्नी गुफा से मिला था यह शिला लेख १५ फुट के लगभग लम्बा तथा ५ फीट से अधिक चौड़ा है। यह शिलालेख १७ पंक्ति में लिखा हुआ है । इस शिलालेख की भाषा पाली भाषा सं मिलती है । यह शिलालेख कई व्यक्तियों के हाथ से खुदवाया हुआ है । पूरे सौवर्ष के परिश्रम के पश्चात् इसका समय समय पर संशोधन भी किया है। जिसकी मूल नकल के साथ अनुवाद यहाँ दे दिया जाता है । ३६५ www.amelibrary.org Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्षे । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हस्तिगुफा का शिलालेख और उसका भाषानुकाद १--नमो अराहंतानं []] नमो सवधिधानं [1] ऐरेन महाराजेन महामेघवाहनेन चेतिराज वसवधनेन पसथसुभलखनेन चतुरंतलुठितगुनोपहितेन कलिंगाधिपतिना सिरि खारवेलेन । अनुवाद - अरिहन्तों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, ऐर (ऐल) महाराजा महामेघवाहन (मरेन्द्र) चेदिराजवंशवर्धन, प्रशस्त, शुभ लक्षण युक्त, चतुरन्त व्यापि गुण युक्त कलिंगाधिपति श्री खारवेल ने २--पंदरसवसानि सिरि-कडार-सरीरवता कीडिता कुमारकीडिका [I] ततो लेखरूपगणनाववहार-विधिविसारदेन सबविजावदातेन नववसानि योवरजं पसासितं [ संपुण-चतु-वीसति-बसो तदानि वधमान-सेसवो वेनाभिवि-जयोततिये अनुवाद-पन्द्रह वर्ष पर्यन्त श्री कडार (गौर वर्ण युक्त) शारीरिक स्वरूप वाले ने बाल्यावस्था की क्रीडाएं की । इसके पीछे लेख्य ( सरकारी फरियाद नामा श्रादि ) रूप ( टंकशाल ) गणित ( राज्य की आय व्यय तथा हिसाब ) व्यवहार (नियमोपनियम ) और विधि (धर्म शास्त्र आदि ) विषयों में विशारद हो सर्व विद्यावदात ( सर्व विद्याओं में प्रबुद्ध) ऐसे ( उन्होंने ) नौ वर्ष पर्यन्त युवराज पद पर रह कर शासन का कार्य किया । उस समय पूर्ण चौबीस वर्ष की आयु में जोकि बालवय से वधमान और जो अभिविजय में वेन (राज ) है ऐसे वह तीसरे ३- कलिंगराजवंस-पुरिसयुगे महाराजाभिसेचनं पापुनाति [0] अभिसितमतो च पधमे वसे यात-विहतगोपुर-पाकार-निवेसनं पटिसंखारयति [1] कलिंगनगरि [f] खबीर-इसि-ताल-तडागपाडि यो च बंधापयति [1] सवुयानपटिसंठपनं च अनुवाद-पुरुष युग में ( तीसरी पुश्त में ) कलिंग के राज्यवंश में राज्याभिषेक पाये । अभिषेक होने के पश्चात प्रथम वर्ष में प्रबल वायु उपद्रव से टूटे हुए दरवाजे वाले किले का जीर्णोद्धार कराया । राजधानी कलिंगनगर में ऋषि खिबीर के तालाब और किनारे बँधवाए । सब बगीचों की मरम्मत ४--कारयति [u] पनतीसाहि सतसहसेहि पकतियो च रंजयति [0] दुतिये च वसे अचितयिता सातकणि पछिमदिसं हय-गज-नर-रथ-बहुलं दंडं पठापयति [1] कन्हवेंनां गताय च सेनाय वितासितं मुसिकनगरं [0] ततिये पुन वसे अनुवाद-करवाई । पैंतीस लाख प्रकृति (प्रजा) का रंजन किया। दूसरे वर्ष में सातकणि (सातकणि) की किचिंत भी परवाह न करके पश्चिम दिशा में चढ़ाई करने को घोड़े हाथी, रथ और पैदल सहित बड़ी सेना भेजी। कन्हवेनों ( कृष्णवेणा ) नदी पर पहुँची हुई सेना से मुसिकभूषिका नगर को त्रास पहुँचाया । और तीसरे वर्ष में गंधर्व वेद के पंडित ऐसे ( उन्होंने ) दंप ( डफ ? ) नृत्य, गीत, वादित्र के संदर्शन ( तमाशे ) आदि से उत्सव समाज ( नाटक, कुश्ती आदि ) करवा कर नगर को खेलाया; और चौथे वर्ष में विद्याधराधिवासे को केगिस को कलिङ्ग के पूर्ववर्ती राजाओं ने बनवाया था और जो पहिले कभी भी Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्ययक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ पड़ा नहीं था । अहंत पूर्व का अर्थ नया चढ़ा कर यह भी होता है........ जिसके मुकुट व्यर्थ हो गये हैं । जिनके कवच बख्तर श्रादि काट कर दो टुकड़े कर दिये गये हैं, जिनके छत्र काट कर उड़ा दिये गये हैं ५--गंधव-वेदबुधो दंप-नत-गीतवादित संदसनाहि उसव-समाज कारापनाहि च कीडापयति नगरिं [1] तथा चबुथे वसे विजाधराधिवासं अहत-पुवं कालिंग पुवराजनिवेसितं. वितध मकुटसविलमढिते च निखित छत अनुवाद-और जिनके श्रृंगार (राजकीय चिन्ह, सोने चांदी के लोटे मारी) फेंक दिये गए हैं, जिनके रत्न और स्वापतेय ( धन ) छीन लिया गया है ऐसे सब राष्ट्रीय भोजकों को अपने चरणों में झुकाया, अब पांचवें वर्ष में नन्दराज्य के एक सौ और तीसरे वर्ष ( संवत् ) में खुदी हुई नहर को तनसुलिय के रस्ते राजधानी के अन्दर ले आए । अभिषेक छटवें वर्ष राजसूय यज्ञ के उजवते हुए। महसूल के सब रुपये । ६-भिंगारे हित-रतन-सापतेये सवरठिक भोजके पादे वंदापयति [I] पंचमे च दानी वसे नंदराज-तिबस-सत-ओघाटित तनसुलिय-वाटा पनाडि नगरं पवेस [ति] [I] सो भिसितो च राजसुय [0] संदश-यंतोसव-कर-वणं अनुवाद-माफ किये वैसे ही अनेक लाखों अनुग्रहों पौर जनपद को बक्सीष किए । सातवें वर्ष में राज्य करते आपकी महारानी बनधर वाली धूषिता ( Demetrios) ने मातृपदे को प्राप्त किया (१) ( कुमार १)......आठवें वर्ष में महा + + + सेना . . . 'गोरधगिरि ७--अनुग्रह अनेकानि सतसहसानि विसजति पोरं जानपदं [1] सतमं च वसं पसासतो वजि-रघरव [ ] तिघुसित-घरिनीस [-मतुकपद-पुंना [ ति? कुमार ] ... [1] अठमे च वसे-महता x सेना गोरधगिरि। अनुवाद-को तोड़ करके राजगृह (नगर) को घेर लिया जिसके कार्यों से अवदात ( वीर कथाओं का संनाद से युनानी राजा (यवन राजा) डिमित (..... 'अपनी सेना और छकड़े एकत्र कर मथुरा में छोड़ के पीछा लौट गया.... 'नौवें वर्ष में ( वह श्री खारवेलने ) दिये हैं.... पल्लव पूर्ण ८-वीं तपाघा ) यिता राजगह उपपीडापयति [0] एतिनं च कंमापदान-संनादेन संवितसेन-वाहनो विपमुचितु मधुरं अपयातो यवनराज डि मित[ मो ? ] यछति [वि.] 'पलव''.. ___अनुवाद-कल्पवृक्षो! अश्व हस्ती रथों (उनको) चलाने वालों के साथ वैसे ही मकानों और शालाओं अग्निकुण्डों के साथ यह सब स्वीकार करने के लिए ब्राह्मणों को जो जागीरें भी दी अहत का ..... ९-कपरुखे हय-गज-रध-सह-यंते सवघरावास-परिवसने स-अगिणठिया [0] सव-गहनं च कारयितुं बम्हणानं जाति परिहारं ददाति [ अरहतो. 'व""नगिय अनुवाद-राजभवन रूप महाविजय (नाम का) प्रासाद उसने अड़तीस लाख (पण) से बनवाया। दसवें वर्ष में दंड, संधी साम प्रधान ( उसने ) भूमि विजय करने के लिये भारतवर्ष में प्रस्थान किया'... "जिन्हों के ऊपर ( आपने ) चढ़ाई करी उन से मणिरत्न वगैरह प्राप्त किये। ३६७ www.janelibrary.org Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १.--.[का. . मान ! ति ] * राज -संनिवासं महाविजयं पासादं कार (ति] अठतिसाय सतसहसेहि ।। दसगे च वसे दंड-संधी-साम मयो भरध-बस-पठानं महि-जयनं ति कारा पयति ....निरितय उयातानं च मनिरतना [ नि ] उपलभते [।। अनुवाद . . . . . . . .( ग्यारहवें वर्ष में ) ( किसी ) बुगराजा ने बनवाया मेड ( मडिलाबाजार ) को बड़े गदहों से हलसे खुदवा दिया, लोगों को धोखाबाजी से ठगने वाले ११३ वर्ष के तमर का देहसंधान को तोड़ दिया। बारहवें वर्ष में ... री उत्तरापथ में राजाओं को बहुत दुःख दिया। ११........ 'मंडं च अवराजनिवेसितं पीथुड गदभ-नंगलेन कासयति [f] जनस दंभावनं च नेसवससतिक [] तु भिदाति तमरदेह-संघातं ।। ] वारसमे च बसे 'हस' के.ज. सबसेहि वितासयति उतरापथ-राजानो.. अनुवाद--... और मगध वासियों को बड़ा भारी भय उत्पन्न करते हुए हस्तियों को सुगंग (प्रासाद ) तक ले गया और मगधाधिपति बृहस्पति को अपने चरणों में मुकाया तथा राजानन्द दास ले गई कलिंग जिन मूर्ति को और गृहरत्नों को लेकर प्रतिहारों द्वारा अंग मगध का धन ले आया। १२......... ' 'मगधानं च विपुलं भयं जनेतो हथी सुगंगीय ] पाययति [ । ] मागधं च राजानं वहसतिमितं पादे वंदापयति [I] नंदराज-नीतं च कालिंगजिनं संनिवेसं.... 'गह-रतनान पडिहारेहि अंगमागध-वसुं च नेयाति [।। अनुवाद-.... 'अन्दर से लिखा हुआ (खुदे हुये ) सुन्दर शिखरों को बनवाया और साथ में सौ कारीगरों को जागीरें दी अद्भुत और आश्चर्य (हो ऐसी रीति से) हाथियों के भरे हुए जहाज नजराना हो । इस्ती रत्न माणिक्य, पाडयराज के यहाँ से इस समय अनेक मोती मानिक रत्न लूट करके लाये ऐसे वह सक्त ( लायक महाराजा)। १३.........."तु। जठर लिखिल-बरानि सिहरानि नीवेसयति सत-वेसिकनं परिहारेन । अभुतमछरियं च हाथि-नावन परीपुरं सव-देन हय-हथी-रतना [मा) निकं पंडराजा चेदानि अनेकानि मुतमणिरतनानि अहरापयति इध सतो अनुवाद-..... 'सब को वश किये। तेरहवें वर्ष में पवित्र कुमारी पर्वत के ऊपर जहाँ (जैन धर्म का) विजयधर्म चक्र सुप्रवृत्तमान है। प्रक्षीण संसृति (जन्म मरणों को नष्ट किये) काय निषीदी (स्तूप) ऊपर ( रहने वाले ) पाप को बताने वाले ( पाप ज्ञापकों ) के लिये व्रत पूरे हो गये पश्चात् मिलने वाले राज ( विभूतियाँ कायम कर दी । ( शासनो बन्ध दिये ) पूजा में रक्त उपासक खारवेल ने जीव और शरीर की-श्री की परीक्षा करली ( जीव और शरीर परीक्षा कर ली है। १४......... 'सिनो वसीकरोति [|| तेरसमे च वसे मुपवत-विजयचक-कुमारीपवते अरहिते य [?] प-खीण-ससितेहि कायनिसीदीयाय याप-जावकेहि राजभितिनि चिनवतानि वसासितानि [1] पूजाय रत-उवास-खारवेल-सिरिना जीवदेह-सिरिका परिखिता [1] ३६८ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ अनुवाद-..... 'सब को वश किये । तेरहवें वर्ष में पवित्र कुमारी पर्वत के ऊपर जहां (जैन धर्म का ) विजय धर्म चक्र सुप्रवृत्तमान है । प्रक्षीण संसृति (जन्म मरणों को नष्ट किये ) कायनिषिदी (स्तूप) ऊपर ( रहने वाले ) पाप को बताने वाले ( पाप ज्ञापकों ) के लिये व्रत पूरे हो गये पश्चात् मिलने वाले राज (विभूतियों कायम कर दी । (शासनो बन्ध दिये ) पूजा में रक्त उपासक खारवेल ने जीव और शरीर की श्री की परीक्षा करली ( जीव और शरीर परीक्षा कर ली है। १५........ [सु] कतिसमणसुविहितानं [नु-?] च सत-दिसानं [नु-१] भानिनं तपसिइसिनं संघियनं [ नु?][; अरहत-निसीदिया समीपे पभारे वराकर-समुथपिताहि अनेक योजनाहिताहि प. सि. ओ"सिलाह सिंहपथ-रानिसि [] धुडाय निसयानि अनुवाद-सुकृति श्रमणे सुविहित शत दिशाओं के ज्ञानी-तपस्वी ऋषि संघ के लोगों को..... अरिहंत के निषीद्दीका पास पहाड़ के ऊपर उम्दा खानों के अन्दर से निकाल के लाये हुए-अनेक योजनों से लाये हुए' "सिंह प्रस्थवाली रानी सिन्धुला के लिए निःश्रय ..... १६........ घंटालक्तो x चतरे व वेरियगभे थंभे पतिठापयति, [ , ] पान-तरिया सत सहसेहि [1] मुरिय-काल वोर्छिनं च चोयठिअंग-सतिकं तुरियं उपादयति [I] खेमराजा स बढ राजा स भिखुराजा धमराजा पसंतो सुनंतो अनुभवंतो कलाणानि ____ अनुवाद-घंटा संयुक्त (') वैडुर्य रत्न वाले चार स्तम्भ स्थापित किये । पचहत्तर लाख के व्यय से मौर्यकाल में उच्छेदित हुए चौसठ ( चौसठ अध्याय वाले ) अंग सप्तिकों का गैथा भाग पुनः तैयार कर. वाया । यह खेमराज वृद्धराज भिक्षुराज धर्मराज कल्यान को देखते और अनुभव करते १७...."गुण-विसेस-कुसलो सव-पांसडपृजको सव-देवायतनसंकारकारको [अ] पतिहत चकिवाहिनिबलो चकधुरो गुतचको पवत-चको राजसि-वस-कुलविनिश्रितो महा-विजयो राजा खारवेल-सिरि अनुवाद-छ गुण विशेष कुशल मर्व पंथो का श्रादर करने वाला सर्व ( प्रकार के ) मन्दिरों की मरम्मत करने वाला अस्खलित रथ और सेता वाला चक्र ( राज्य ) के धुरा ( नेता ) गुप्त ( रक्षित ) चक्र पाला प्रवृतचक्रवाला राजर्षि वश विनिःसृत राजा खारवेल उपरोक्त शिलालेख का विशेषार्थ--चैत्र ( चेटक ) वंशीय राजाओं में खारवेल सबसे श्रेष्ट और पराक्रमी राजा हुए। वंश परम्परानुसार खारवेल भी 'ऐर महामेघ वाहन' की उपाधि से भूषित हुए थे, सन ईस्वी १९७ वर्ष पूर्व में इनका जन्म हुआ था। पन्द्रह वर्ष तक इनका बाल्य जीवन केवल क्रीड़ा में व्यतीत हुश्रा । सन् ईस्वी से १८२ वर्ष पूर्व याने अपने १५ वर्ष में खारवेल युवराज पद पर नियुक्त हुये अनुमान होता है कि इनके पिता वृद्ध अथवा रोग प्रस्त होने के कारण राज्य चलाने में अक्षम थे इसी कारण खारवेल को उन्होंने युवराज पद देकर संपूर्ण राज्य भार उनके हाथ में सौंपा और तब से ही राज्य भार खारवेल के हाथ में न्यस्त हुआ । युवरान होने के बाद राजा खारवेल को राजधर्म की शिक्षा दी गई । २४ वर्ष की अवस्था में संपूर्ण राज-विद्या में उत्तीर्ण हुए और विशेषत ज्ञान और धर्म में उनकी प्रवीणता प्रशंसनीय हुई। राज्याभिषेक-खारवेल की २४ वर्ष की अवस्था में अर्थात् सन् ईस्वी से १७३ वर्ष पूर्व में उनके ३६९ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पिता स्वर्गवासी हुए। और तब वे कलिंग राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। वंश परम्पग से यद्यपि वे जैन धर्मावलंबी थे तथापि उनका राज्याभिषेक ब्राह्मण धर्मानुसार हुआ था। जिस वर्ष खारवेल राजा हुए उसी वर्ष प्रचंड तूफान होने से राजधानी तोसाली नगरी की बाहरी दीवाले बुजे मय दरवाजे के टूट गई थीं। राजा खारवेल ने इसे फिर से मजबूती के साथ तैयार करवाया । देशविजय-उड़ीसा की हाथीगुफा में पाली भाषा में खोदित एक बृहत् शिलालेख है । जो ऊपर दिया गया है उसमें खारवेल के राजत्व के प्रथम वर्ष से १३ वाँ वर्ष तक की घटनाएँ वर्णित हैं । उससे यह मालूम होता हैं कि राजा खारवेल अपने राजत्व के प्रथम वर्ष में राजधानी की मरम्मत का काम करवाकर द्वितीय वर्ष से द्वादश वर्ष तक देश विजय करने के लिये युद्धयात्रा में बाहर ही घूमते रहे । मूषिकदेश विजय-कौशल ( दक्षिण कौशल ) के पश्चिम में मूषिक नामक एक देश कलिंग से लगा हुश्रा उत्तर पश्चिम की ओर अर्थात् वर्तमान काना हाँडी संबल इत्यादि स्थानों में व्याप्तमान था। वर्तमान धुमसर इत्यादि स्थान और गंजाम जिला के पश्चिमीय विभाग में भंजवंशीय क्षत्रिय राज्य करते थे। मूषिक गजा इन काश्यप क्षत्रियों पर बारम्बार आक्रमण कर भारी अत्याचार करते थे। काश्यप देश कलिंग के अन्तर्गत था, इस लिये राजा खारवेल ने काश्यपों की रक्षा करने के निमित्त मृषिक देश पर चढ़ाई की। वे इस समय आन्ध्र देश में होते हुए गये थे। इसी से आन्ध्र राजा सातकर्णि ने उनका गतिरोध किया था किन्तु वे ससैन्य परास्त हो कर मार्ग छोड़ने के लिये वाध्य हुए। श्रान्ध्र राजा सातकर्णि को परास्त कर खारवेल ने मषिक राजा की राजधानी पर हमला कर समस्त मषिक लोगों को परास्त किया और इसी युद्ध से ईस्वी पूर्व १७१ संन् के समन मषिक देश कलिंग के अन्तर्गत होगया। भोजक और राष्ट्रि राज्य आक्रमण-अपने राजत्व के चतुर्थ वर्ष में (स्त्री० पू० १६९ अब्द में) राजा खारवेल भोजक सौर राष्ट्रिक राजाओं से युद्ध करने चले । ये दोनों देश आन्ध्र देश के समीप पश्चिम और उत्तर पश्चिम में थे। वर्तमान महाराष्ट्र देश का राष्ट्रिक और बरार का भोजक राज्य होना अनुमान किया जा सकता है । इन राजाओं ने खारवेल के विरुद्ध आन्ध्र राजा सातकर्णि की सहायता की थी। इसी से राजा खारवेल ने प्रथम प्रान्ध्र और मूषिक देशवासियों को दबा कर अनन्तर राष्ट्रिक और भोजक राज्यों पर आक्रमण किया। अंत में इन दोनों राज्यों को विजय कर खारवेल ने उन्हें कलिंग के अन्तर्गत किया किन्तु इन राज्यों को दूर होने के कारण अपने अधिकार में न ला, केवल उन्हीं राजाओं को वापिस कर उन्हें अपना आधीन राजा बनाये । इन राजाओं ने भी राजा खारवेल को अपना राजाधिराज माना और यथोचित सम्मान किया । तब से वे लोग स्वाधीन राजा न रह कर खारवेल के श्राधीन गजा हो गये। विवाह:-राजा खारवेल का विवाह उनके राजत्व के सप्तम वर्ष में याने २२ वर्ष की अवस्था में हुआ था। खंडगिरिस्थ मंचपुरी गुफा में जो शिलालेख है, उसमें लिखा है कि यह गुमा चक्रवर्ती राजा खारवेल की मुख्य पटरानी द्वारा बनवाई गई है, जो राजा लालकस की पुत्री थी। यह लालकस हाथीसहस के पौत्र थे किंतु राजा खारवेल की पटरानी का नाम यहाँ नहीं लिखा है और न यह स्पष्ट है कि ये राजा लालकस किस देश के राजा थे। पं० श्री नीलकंठदास ने खारवेल के विवाह सम्बन्ध में एक उड़िया भाषा में काव्य पुस्तक लिखी है, इसमें खारवेल की पटरानी का नाम धूसी लिखा है। उसका सारांश नीचे दिया जाता है। Jain Educe semnational Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्ययक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ "राजा खारवेल : पांड्य देश को विजय कर और उस देश के गजा से मित्रता स्थापन कर वहाँ से व्यापारियों के संग में जावा, बालिद्वीप आदि द्वीपों की ओर घूम आये । अनंतर उनको यह मालूम हुआ कि फारस देश में जाने वाले कलिंग व्यापारी लोग सिंधु देश के किनारे से पश्चिम की ओर सुख से व्यापार नहीं कर सकते और उन्हें बहुत धन दंड स्वरूप देना पड़ता है तथा उन्हें बहुत कष्ट भी उठाना पड़ता है, कलिंग व्यापारियों को इस कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिये राजा स्वारबेल बहुत कुछ कलिंग, उत्कल, ड्र तथा पाण्डय सैन्यों को साथ में लेकर युद्ध करने के लिये सिंधु देश की ओर रवाना हुए। "उस वक्त अफगानिस्तान के पूर्व प्रदेश" "विजिर" तथा बिलोचिस्तान का पूर्व प्रदेश “पुर" नाम से प्रसिद्ध था। विजिरराज्य उस समय सिंधु देश के पश्चिम तक व्याप्तमान था। सिन्धु देश में पाताल (पटल ) नामक एक वणिक नगरी थी ! इसके पश्चिम में जो देश था उसमें बहुत काल से द्राविड़ लोग कृषक रूप में निवास करते थे। इस वक्त भी इन द्राविड़ों के वंशधर लोग दक्षिण बिलोचिस्तान में पाये जाते हैं। यह लोग पूर्व काल में विजिर गज के अधिकार में रहकर द्राविड़ रीति नीति छोड़ भार्यों की रीति नीति के अनुसार चलते थे । उक्त कृषक देश का राजा प्रामीण जो विजिर राजा का बड़ा मित्र और आत्मीय था। "सिकंदर के चले जाने के बाद" उनके कुछ सेनापति लोगों ने अफगानिस्तान और फारस के कुछ अंशों को लेकर 'बेक्ट्रिया' नामक राज्य स्थापित किया था, वहाँ खारवेल के राजत्व काल में डेमिट्रिअस ( दीत्तम ) नामक एक बलवान राजा राज्य करता था। उसने विजिर पुर इत्यादि स्थानों को कूट युद्ध से जीतकर अपने अधिकार में कर लिया, और वहाँ पर या वहाँ से जाने वाले विदेशी व्यापारियों के ऊपर अन्यायपूर्वक कर लगाकर उन्हें हैरान करता था। उस समय विजिर राज्य की राजधानी सिंह पथ थी। डेमिट्रअस के विजिर राज्य पर अधिकार कर लेने पर विजिर राजा और युवराज अपनी राजधानी सिंहपथ को छोड़कर अन्य किसी मित्र राजा के आश्रय में चले गये और विजिर राजकन्या धूसी को उनके मित्र कृषक देश का राजा (प्रामीण ) अपने यहाँ पालन करने के लिये ले आया। तब से विजिर राजकन्या धूसी उसी के यहाँ रहती थी। राजा खारवेल ने कलिंग व्यापारियों के दुःखमोचन करने के लिये कुछ सैन्यों के साथ सिंधु नदी के मुहाने के पास पाताल नामक नगरी में जाकर अपनी छावनी डालदी। और कृषकदेश के राजा को इस युद्ध में सम्मिलित होने के लिये श्राह्वान किया। ऐसे ही समय में एक दिन राजा खारवेल अपने घोड़े पर सवार होकर सिंधु नदी के पश्चिम की ओर घूमने निकले, किन्तु लौटते समय रास्ता भूल गये । आते वक्त उसने देखा कि नदी के किनारे कुछ कृषक बालिकाए खेल रही हैं और धूसी एक पत्थर पर बैठी हुई थी। राजा खारवेल धूसी के समीप जाकर उससे रास्ता पूछने लगे और उत्तर पाकर अपनी छावनी में वापस चले आये। धूसी एक राजकन्या थी और इस राजा का रूप यौवन देख कर मोहित हो गई और स्वयं गजा खारवेल भी मोहित होगये । इस राजा को फिर एक बार देखने के लिये धूसी इसी तरह लगातार कई दिनों तक वहीं उस पत्थर पर बैठी रहती थी; किंतु फिर ऐसा सौभाग्य प्राप्त न हुआ । एक दिन जब कृषकराजा खारवेल को इस युद्ध में सम्मिलित होने के लिये कृषक सेना देने का वचन देकर यह विचार कर रहा था कि कौन सेना नायक होकर सेना को चलावे । इसी समय धूसी कुछ कृषक बालिकाओं के साथ में वहाँ पहुँची। कषक राजा ३७१ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष [भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास स्वयं बुड्ढा हो गया था और उसे कोई उपयुक्त सेना नायक नहीं दीखा, इससे चिंतित था और वचनपूर्ति करने की लालसा बलवती होती जा रही थी। . "धूसी अपनी बाल्यावस्था में वाण विद्या में निपुण हो गई थी और राजा खारवेल को देख कर भी वह मोहित हो गई थी और साथ ही पिता का ऋण से उऋण होने के लिये यवन राजा से बदला लेना भी चाहती थी इसी से उसने बूढे कृषक राजा से कहा कि 'मैं ही सेना नायक होकर गुप्त रीति से सैना नायकोचित कार्य करूगी ।" वृद्ध कृषक पति भी इसकी इस बात से सहमत हो गयें और धूसी ने मर्द का वेष धारण कर विजिर युवकों का एक संगठन किया और स्वयं सेनापति का भार ग्रहण किया । अल्य समय में ही इस सेनापति के सुचारु और विश्वास ज नक कार्य को देख कर खारवेल का प्रेम उस पर अधिक परिमाण में बढ़ने लगा और राजा उसे हितेषी तथा आत्मीय मानने लगे। एक समय जब युद्ध का भारी प्रायोजन हो रहा था एक सुगत ने खारवेल के पास आकर युद्ध बन्द करने का उपदेश दिया और स्वयं दतिम को समझाने के लिये वेक्टिया की ओर चला । इस सुगत के समझाने पर दत्तिम चालाकी से परस्पर समाधान करने के लिए राजी हुआ और खारवेल प्रभृतियों को विजिर राजा के साथ विजिर देश में मिलने को कहा। धुसी जिसने कि सेनापति का पद ग्रहण किया था इस कूट नीति को पहले से ही जानती थी और उसे इस समय में भी मूल से शंका बनी हुई थी, तथापि जन्म भूमि को एक बार देखने की इच्छा से इस विषय में सहमत होकर राजा खारवेल के साथ ससैन्य विजिर राजधानी सिंहपथ में आई। इस समाचार को सुन दत्तिम ने रात्रि के समय ही सिंहपथ पर ससैन्य आक्रमण किया । धूसी यह सब आगे से ही जानती थी अतः उसने कुछ कृषक और उत्कल सेनाओं को लेकर बाहर की ओर से दत्तिम को घेर लिया, इस प्रकार दोनों ओर से घिर जाने के कारण दत्तिम परास्त हुा । और उसकी कूट नीति विफल हुई। किंतु इस युद्ध में राजा खारवेल आहत होकर मृतवत् हो गये थे, उनकी यह अवस्था देख कर वीरता पूर्वक युद्ध करते हुए धूसी ने राजा खारवेल को बचा लिया और उनकी भारी सुश्र षा कर एक प्रकार प्राण दान दिया । राजा खारवेल उसका इस प्रकार साहस का काम देख उसके भारी कृतज्ञ हुए और इसका प्रत्योपकार करने का विचार उनके हृदय में स्थान पा चुका था। __ "व्यापारियों के समस्त दुःख निवारण कर स्वास्थ्य हो जाने के अनंतर राजा खारवेल पातालपुरी को वापिस आये और वहीं धूसी के असली रूप को पहिचान लिया। राजकन्या धूसी को पहिचान लेने पर और उसके साहसपूर्ण कार्य को देख कर उस पर प्रेमासक्त हुए और अपना विवाह उस राजकन्या धूसी से कर लिया । यहाँ से विजिरदेश को धूसी के पिता पूर्वराजा) को अर्पण कर खारवेल राजधानी की ओर लौटे।" मगध आक्रमण दक्षिण और पश्चिम में अपना प्रभुत्त्व विस्तार कर गजा खारवेल ने उत्तर भारत में अपना अधिकार जमाना निश्चय किया। पहले कहा गया है कि नंदराजा कलिंग में अधिकार जमा लेने पर ऋषभदेव की मर्ति तथा अन्यान्य कितनी ही जैनमतियों को खंडगिरी से अपनी राजधानी में ले गये थे। राजा खारवेल जैन थे। इसलिए उनने उन मर्तियों को फिर से वापिस लाकर खंडगिरि में यथास्थान स्थापित करने का विचार किया। अपने राजत्व के अष्टम वर्ष में यानी ईस्वी सन पूर्व १६५ अन्द में खारवेल मगध की ओर रवाना हुए । इस वक्त राजमहल को घेर लेना उनका उद्देश्य था। उस ३७२ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य यक्षदेवरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ वक्त गया से पाटलिपुत्र एक राज पथ था। इसी के निकट गोरखगिरि नामक स्थान था । छोटे नागपुर होते हुए खारवेल ने गोरखगिरि ( बडवर ) पर धावाकिया । गोरखगिरि वर्तमान रामागया के समीप एक प्रसिद्ध दुर्ग था। राजधानी पाटलीपुत्र को दक्षिण दिशा में संरक्षित करने के लिये यह दुर्ग बनाया गया था। उस समय पाटलिपुत्र में पुष्यमित्र या बृहस्पति मित्र मगध साम्राज्य के सम्राट् थे, उस समय मगध विपुल बलशाली था। तिस पर उसमें पुष्यमित्र सरीखे पराक्रमी योद्धा सम्राट् थे, जिनने कि अश्वमेध यज्ञ कर समग्र आर्यावर्त में अपने को चक्रवर्ती राजा बनाया था । उनने प्रीक सम्राट् डेमिटूिअस तथा मेनेडर को ससैन्य परास्त कर ग्रीक लोगों को आर्यावत से निकाल बाहर किया था। इस प्रकार एक प्रतापी सम्राट से युद्ध करना कोई सहज काम न था। किंतु खारवेल एक साहसी राजा थे । जैसेही पुष्यमित्र ने सुना कि खारवेल ने गोरखगिरि दुर्ग को घेर लिया है वे पाटलिपुत्र छोड़ मथुरा में सैन्य सजाकर उनकी राह देखने लगे। किंतु खारवेल इस वक्त गोरखगिरि से ही कलिंग वापिस चले आये । राजा खारवेल भारत में एक प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजा होना चाहते थे। किंतु मगध सम्राट् पुष्य मित्र को जीते बिना वे अपनी इच्छा की पूर्ति नहीं कर सकते थे। इसी उद्देश्य से खारवेल ने एक मरतबे फिर भी भारी सैन्य संगठन और लड़ाई की तय्यारी कर अपने राजस्व के द्वादश वर्ष में ( १६१ स. ई. पू.) युद्ध करने चले । अपने राजत्त्व के दशम वर्ष में भी ये एक बार इसी उद्देश्य से युद्ध करने निकले थे, किन्तु इस समय की यात्रा ही ऐतिहासिक घटना में सर्व प्रधान है। इस बार ये पहले के समान छोटे नागपुर की तरफ से न जाकर महानदी के रास्ते से उत्तर पश्चिम की ओर रवाना हुए। खारवेल ने सीधे मगध को न जाकर उत्तरापथ राज्यों पर ( उत्तर पश्चिम सीमांत राज्य ) धावा किया । और उन राज्यों को जीतते गये ( अनुमान होता है कि वे पाटलिपुत्र आते तक भी गंगा नदी पार नहीं हुए थे ) वे मध्यभारत होते हुए भी पंजाब तक अग्रसर हुए। उत्तरापथ के किसी भी राजा ने इनका सामना नहीं किया । और वे इन समस्त देशों को अपने प्राधीन कर मगध की ओर रवाना हुए । रास्ते में गंगा नदी पार होकर हिमालय पर्वत के नीचे नीचे आते हुए गंगा के उत्तर किनारे मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पहुँचे । पाटलिपुत्र के समीप हाथियों से गंगा नदी पार कर प्रबल प्रतापी पुष्यमित्र को राजधानी में घेर लिया। इस वक्त वीर कलिंग सेनाओं के विपुल पराक्रम को देखकर पाटलिपुत्र ही नहीं समप्र मगध देश भयभीत होगया। उस समय मगध भारत में सर्व प्रधान और बलवान राज्य था। राजधानी घेरने की तो बात ही दूर इस समय तक मगध पर किसी ने अाक्रमण भी नहीं किया था । खारवेल का यह आक्रमण ही सर्व प्रथम था, इससे मगध निवासियों का भयभीत होना कोई आश्चर्य जनक बात नहीं है । राजा खारवेल ने इस युद्ध में पुष्यमित्र को पराश्त कर पाटलिपुत्र को अपने अधिकार में कर लिया और अंग व मगध देश से विपुल धन अपने हस्तगत किया। और उत्कल (कलिंग) देश से जिन जैनमूर्तियों को नंदराजा मगध में ले गया था, राजा खारवेल उन मूर्तियों को अपनी राजधानी में वापस ले आये । पुष्यमित्र के पराजय होने पर भारतवर्ष में मगध के बदले कलिंग साम्राज्य विस्तार हुआ । एक ही वर्ष में खारवेल समप्र भारतवर्ष को विजय कर पंजाब से हिमालय के नीचे नीचे आकर मगध देश को जीतकर और उसे लटते हुए अपनी राजधानी में वापिस आये । राजा खारवेल के अदम्य उत्साह बल तथा साहस को देखकर ही उनकी तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से की जाती है। ३७३ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मगध सम्राट् को परास्त कर राजा खारवेल भारतवर्ष में एक मात्र चक्रवर्ती राजा हुए । इसलिये फिर वे देश विजय करने के लिये बाहर नहीं निकले । इसी वर्ष दक्षणीय पांड्य देशीय राजा के बहुत से हाथी व जहाजों पर उत्कलीय लोगों ने अधिकार किया था चक्रवर्ती राजा खारवेल ने इसी वर्ष पांड्य राजा से बहुत से मूल्य. वान् रत्न, अश्व, हाथी और मनुष्य उपहार में लिये थे। इस तरह से उत्तर और दक्षिण के समस्त राजा लोग राजा खारवेल को अपना चक्रवर्ती राज मानने लगे। दान-धर्म और देशहित कार्य:-चक्रवर्ति महाराज खारवेल केवल युद्ध लिप्सु और प्रशंसाभिलाषी राजा न थे । किन्तु नानाप्रकार के देश हितकारक सुंदर कार्य और प्राणियों की रक्षा एवं दानधर्म करने में भी वे सदैव तत्पर रहते थे। जिससे उनका गौरव मय जीवन और भी आदरणीय हुआ था । यद्यपि वे स्वयं जैन धर्मावलंबी थे तथापि वैदिक धर्म के अनुसार उनके युवराज्याभिषेक के कार्य हुए थे। इससे यह परिचय मिलता है कि वे समस्त धर्म मतों को समान दृष्टि से देखते थे । इतना ही नहीं पर यह भी प्रमाणित होता है कि वे अपने शासन काल में अपना स्वाधीन मत प्रतिष्ठित न कर प्रजा संघ के हेतु शास्त्रीय नियमों के अनुसार राज्य कार्य चलाते थे और अन्य धर्मियों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने से उनका जीवन और भी अधिक गौरव मय बनगया था। तथा उनके राजोचित गुण सर्वथा प्रशंसनीय थे । राजा खारवेल ने अपने राजस्व के प्रथम वर्ष में अपनी पुरानी राजधानी की मरम्मत कराई थी। कृषि तथा जलपान की सुविधा के लिये बहुत से तालाब खुदवाये थे तथा जगह २ मनोरंजन करने के लिये प्रमोद उद्यान बनवाये थे। मूषिक राज्य को जीतकर स्वदेश में वापिस आने पर उनने अपने देश में विजय उत्सव किया था। वे स्वयं गांधर्व विद्या के धुरन्धर ज्ञाता थे । उनके विनिर्मित प्रमोद उद्यानों में वे नित्य नाटक अभिनय, संगीत तथा प्रीति भोज्य की व्यवस्था रख कर प्रजागणों के साथ निरंतर प्रफुल्लचित से रहते थे। उसने अपने राजस्व के चतुर्थ वर्ष में राष्ट्रक राज्य विजय करने से पूर्व विद्याधरदास नामक कितने ही धर्म मंदिर और मठनिर्माण कराये थे। ३०० वर्ष पूर्व नंद राजाओं ने राजधानी के समीप 'सनसुलिया' नामक स्थान तक जो अधूरी नहर खुदवाई थी महाराजा खारवेल ने उसे आगे खुदवा कर अपनी राजधानी तक लाने का प्रयत्न किया और इसमें सफल मनोरथ भी हुए । इस नहर के खुद जाने के कारण वाणिज्य और कृषि में विशेष सुविधा हुई । राजत्व के छठे वर्ष में वे शहर और मुफस्सिलवासी व्यापार और शिल्प व्यवसायियों के लिये वाणिज्य सुविधा के उचित प्रबंध कर धन्यवाद के पात्र हुए थे । राजत्व के सप्तम वर्ष में इनका विवाह हुआ था किन्तु नीलकंठदासजी नवम वर्ष में यानी २४ वर्ष की अवस्था में विवाह होना अपने धूसी चरित्र द्योतक काव्य में लिखते हैं) नवम वर्ष में विपुल धन ब्राह्मणों को दान दिया था। उसी वर्ष सोने का एक शाखा पत्र संयुक्त कल्प वृक्ष सय्यार करवा कर हाथी घोड़ा रथ वगैरह और सारथि सहित ब्राह्मणों को दान में अर्पण किया और उन्हें भोजन भी करवाया था। जिन ब्राह्मणों ने दान ग्रहण किया उन्हें घर जमीन, सम्पत्ति इत्यादिक देकर अपने राज्य में रक्खा। ये सब उत्सव और दान राजगृह विजय के उपलक्ष में किये गये थे। इसी विजय के स्मारक स्वरूप 'महा विजय प्रासाद' नामक एक राजभवन प्राचीन नदी के किनारे ३८००००० मुद्रा व्यय कर बनवाया था । दसवें वर्ष में भारतवर्ष विजय कर वापिस आने पर कलिंग के प्रथम राजवंशीय राजा केतुभद्र की उपासना करने के लिए एक विग्रह संस्थापन किया तथा उस विग्रह की पूजा उपलक्ष्य में एक यात्रा का आरम्भ किया था । केतुभद्र की मूर्ति की पूजा कलिंग के प्राचीन राजा लोग करते आये थे इसी Jain Educa g national Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ से महाराजा खारवेल ने जैन रहने पर भी प्राचीन प्रथा के उद्धार के हेतु इस शुभ यात्रा का अनुष्टान किया था । पुरातन प्रथाओं के प्रति महाराजा खारवेल की इस तरह भक्ति देखकर देशवासी लोग अत्यंत संतुष्ट हुए । बारहवें वर्ष में उत्तरा पथ और मगध विजय के उपलक्ष में तथा पांड्य राजा से जो विपुल धन रत्न श्रादि प्राप्त हुए थे उनकी रक्षा करने लिये अपनी राजधानी में अनेक अट्टालिकाओं का निर्माण कराया था। ये सब अट्टालिकाएं नाना विचित्र कारुकाओं से मंडित थीं । महाराजा खारवेल:5:- उत्तरापथ से पांड्य राज्य पर्यन्त अर्थात हिमालय से कन्या कुमारी अंतरीय तक भारतवर्ष में अपने राज्य और प्रभुत्व विस्तार कर राजाधिराज हुए थे। इससे उनकी उच्च अभिलाषाओं की पूर्ति यथेष्ट परिमाण मे हुई। इसी से १२ वें वर्ष के अनंतर उनने और लड़ाई कर राज्य विजय करने की इच्छा त्याग कर एक तरह से संन्यास धर्म का अवलंबन किया और पवित्रता मय जीवन व्यतीत करने लगे । उदयगिरि में अर्हन्त और जैन लोगों के लिये बहुत से मंदिर निर्माण और स्वयं आत्म ध्यान धरने के लिये वहीं पर एक सुन्दर अट्टालिका बनवाई | संभव है कि उदयगिरिस्थित रानी हंसपुर की वहीं अट्टालिका हो । हाथीगुफा भी उन्हीं का बनवाया हुआ है । चक्रवर्ती राजा होने पर वे संन्यास जीवन धारण कर इस प्रकार के नाना धर्म कार्य करते हुए भिक्षु राजा और धर्मराजा के नाम से प्रख्यात हुए । चैत्रवंश का अवसान: - - हाथीगुफा के शिलालेख में महाराजा खारवेल के राजस्व के १३ वर्ष की घटनाओं का वर्णन है । उस समय उनकी श्रायु ३७ वर्ष की थी, उसके अनंतर अपने जीवन के शेष काल में उनने क्या २ कार्य किये थे, इसका कोई हाल विदित नहीं होता । चक्रवर्ती राजा होने के पश्चात् इन्होंने धर्म राजा कहला कर राजविरक्त धर्म धारण कर लिया था । अवश्य उन्होंने कुछ वर्ष तक शांति से नाना प्रकार के देश हितकार्य करके राज्य चलाया होगा और अपना शेष जीवन निर्वृतियां से उदयगिरिस्थित रानीहंसपुर गुफा में बिताया होगा । उनके प्रबल प्रताप से कलिंग राज्य का विस्तार समग्र भारत में हो गया और वह राज्य एक बलवान राज्य हो गया । उस समय कलिंग देश की सीमा उत्तर में गंगा नदी और बिहार प्रदेश, पश्चिम में बरार गोंडवानाराज्य महाराष्ट्र प्रदेश और दक्षिण में पांडय राज्य तक थीं, यही नहीं, बल्कि सीमांतवर्ती राजा लोग यद्यपि कलिंग के अंतर्गत नहीं थे तथापि महाराजा खारवेल को चक्रवर्ती राजा स्वीकार कर उनके प्रति राजोचित सम्मान प्रदर्शित करते थे । कलिंग देश के इतिहास में महाराजा खारवेल के अनंतर इस विशाल राज्य में चैत्रवंश (चटकवंश) के और कौन २ राजा हुए, वह अब तक नहीं जाना जा सका | खंडगिरि के एक शिलालेख से यह बात मालूम होती है कि महाराजा खारवेल के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी स्वरूप 'महामेघ वाहन' उपाधिधारी विक्रराय और विक्रराय के वदुहराय नाम के दो राजा हुए, पर इसका चाहिये जितना इतिहास नहीं मिलता है । कलिंग की पहाड़ियों में केवल यह एक खारवेल का ही शिलालेख नहीं मिला है पर पृथक् पृथक् गुफाओं में भिन्न भिन्न शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं उनकों भी यहाँ उद्धृत कर दिये जाते हैं । तोसाली -- धौली पहाड़ियों तथा कोयकहाई, गुगुंभ और दया नदी के संगम के मध्य ពី एक बड़ा नगर रहा है— जिसका बाम तोसाली है और खण्डगिरि एवं भुवनेश्वर से कुछ दूर है । १ - - खण्डगिरि - खुरा जिले में एक पहाड़ी भुवनेश्वर से ३ मील उत्तर में है । यह पर्वत तीन विभागों में ३७५ www.jarnelibrary.org Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विभाजित है अर्थात् खण्डगिरि, उदयगिरि और नीलगिरि : संस्कृत में इसकोखण्डाचल भी कहते हैं खण्डगिरि १२३ फुट ऊंचा तथा उदयगिरि ११० फुट ऊंचा है । मुख्य गुफायें उदयगिरि में ४४, खण्डगिरि में १९ तथा नीलगिरि में ३ हैं। इनके अलावा छोटी छोटी गुफाए तो सैकड़ों हैं । २--उदयगिरि--की जितनी गुफायें हैं। उनमें से सब से बड़ी और सब से उत्तम चित्रकारी से चत्रित "रानी हन्सपुरी गुफा" है। इस गुफा में बहुत से दृश्य अङ्कित है वह दृश्य, यद्यपि बिगड़ गये हैं तथापि साफ साफ एक साधु की यात्रा को दिखलाते हैं जो धार्मिक उत्सव में नगर के भीतर चल रहे हैं लोग अपने घरों से उनका दर्शन ले रहे हैं। घोड़े जा रहे हैं, हाथी चल रहे हैं, प्यादे जा रहे हैं तथा स्त्री पुरुष हाथ जोड़े हुए साधु के पीछे जारहे हैं। कहीं २ खड़े हुए लोग मुक जाते हैं और फलादि चढ़ाते हैं तथा आशीर्वाद ले रहे हैं। इस पर्वत में श्रीपार्श्वनाथस्वामी बहुत अधिक प्रतिष्ठित हैं और इसी लिये यह अनुमान किया जाता है कि यह उत्सव या तो भगवान पार्श्वनाथस्वामी का हो या उनके किसी एक शिष्य का हो । और दूसरे भी कई दृश्य हैं जो शायद श्री पार्श्वनाथ के जीवन से मिलते मालूम देते हैं। दूसरी गुफाओं के नाम ये हैं- जयविजयगुफा, छोटीहाथीगुफा, अलकापुरीगुफा मञ्चपुरीगुफा, पनसगुफा, पातालपुरीगुफा । ३-मञ्चपुरी गुफा के-५ दरवाजे हैं-चौथे द्वार पर एक लाइन का शिलालेख है जो इस भांति है --- "खरस महाराजस कलिङ्गाधिपतिनो महामेघवाहन सकूड़े पसीरिनोघलेनम्" भावार्थ:-चतुर महाराज कलिंग देश के स्वामी महामेघवाहन या कूड़े पसीरी की गुफा । ४-इस गुफा के सातवें कमरे में दूसरा लेख है जो इस भांति है : "कुभार वदुरवस लेनम्" ( यह लेख पहले से प्राचीन है ) अर्थात् कुमार वदुरष की गुफाशायद यह कुमार राजा खारवेल के पुत्र हों । गेजेटियर वाले ने पहले शिलालेख में वाक द्वीप भी पढ़ा है तथा बड़ी गुफा के लेख में यह नाम आया है जो कि राजा खारवेल का एक पद था । ५-इस पञ्चपुरी गफा में ऊपर के खाने में तीसरा लेख है सो इस तरह का है १--अरहन्त पसादायम् कलिङ्गानम् समनानम्लेनं कारितम् राज्ञोलालकस । २--हथी साहस पपोतस् धुतुनाकलिंग चक्रवर्तितो श्री खारबेलस । ३--अग महिसिना कारितम् ( यह लेख हाथी गुफा के लेख से कुछ ही पीछे का है ) भावार्थ-यह है कि श्रीअरहन्त के प्रासाद या मन्दिर रूप गुफा कलिंग देश के श्रमणों के लिये बनाई गई है-यह गुफा कलिंग चक्रवर्ती राजा खारबेल की मुख्य पटरानी द्वारा कराई गई जो गजा लालकस की पुत्री थी। यह लालकस, राजा हथीसहस के पौत्र थे । इस खन को स्वर्गपुरी गुफा भी कहते हैं । ६--गणेशगुफा–यहां भी कुछ दृश्य हैं शायद ये श्री पार्श्वनाथ के चरित्र से सम्बन्ध रखते हो । ७--धानघर और हाथीगुफा-हाथी गुफा ५० फुट से २८ फुट है मुख ११। फुट उंचा है-भीतों पर - कुछ शब्द अंकित हैं । प्रगट रूप से साधुओं या यतियों के नाम हैं। छत की चट्टान पर १७ लाइन का लेख Jain International Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जोवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ है १५ फुट से ६ फुट की माप है । यही प्रसिद्ध खारबेल का लेख है। (यह लेख पहले दे दिया गया है। :--सपेंगुफा-इसके द्वार की बाई ओर पहली शताब्दी पूर्व का एक शिलालेख है ये दो लाइन का है । १-कम्मस हलरिन । २--णय च पसादो। अर्थात्-कम्म और हलरिवन का प्रासाद । इसी सर्पगुफा द्वार पर बड़ी हाथीगुफा के पास एक शलालेख है-"चूलसमय को था जे याय" चूल कर्मन् का अजेय कोठा । २--वाघगुफा--इस पर भी दूसरी शताब्दी का शिलालेख है जो दो पक्तिये इस भांति है :-- १--नगरअरंबदस २--सभूतनोलेनम -- अर्थात् नगरज जसभूति की गुफा । १०-हरिदासगुफा--इस पर एक शिलालेख इस भांति है और इ० संः पहली शताब्दी पूर्व का "चूलकुमसपसातोकथाजेयाच ।" अर्थात्-चूलकुम का प्रासाद और अजेय कोठा । ११-जंबेश्वरगुफा--- यहां एक शिलालेख मञ्चपुरी गुफा के समय का जो लेख ब्राह्मी अक्षरों में है। "महामदास वारियाय ना कियस लेनम्" अर्धात्-महामद की स्त्री नाकियस की गुफा । १२-छोटीहाथीगुफा-इस पर भी एक अपूर्व लेख हैं। "अगरिच.............. 'सलेनम्"। श्रागे खंड गिरि की कुछ गुफाओं का वर्णन है और वह उत्तर से शुरू करते हैं :१३--तत्त्वगुफा नं० १-- इसमें चित्र है तथा इस पर शिलालेख हैं-- यह पहली शताब्दी पूर्व का है। १४--तत्त्वगुफा नं० २-इसपर भी लेख है-"पद मुलिकस कुसु मास लेनम्" कुसुम सेवक की गुफा___ यह सब से प्राचीन लेख है। खंडगिरि के लेखों में (Oldest of all inscriptions in Khandgiri) १५--नवमुनिगुफा - इसके भीतर १० वौं शताब्दी का लेख है जो इस भांति हैं: १-" ॐ श्रीमत् उद्योतकेशरीदेवस्य प्रवर्द्धमाने विजय राज्ये संवत् १८ २-- श्रीआय्यंसंघप्रतिबद्ध ग्रहगुलविनिर्गतदेशीगणाचार्यश्रीकुलचन्द्र ३-भट्टारकस्थतस्यशिष्यशुभचन्द्रस्य । इस लेख में स्पष्ट लिखा है कि उद्योतकेशरीदेव के उन्नतिशीलराज्य के १८ वें वर्ष में श्री शुभचन्द्र भावार्य यहाँ विराजित थे जो श्री आर्यसंघगृहकुलदेशीगण के प्राचार्यकुलचन्द्रभट्टारक के शिष्य थे । १६--इसी गुफा में--टूटी हुई भीत पर दूसरा शिलालेख इसी समय का है, जिसके वाक्य ये हैं १--श्रीधर क्षात्र--यह एक भाग पर है और दूसरे भाग में है कि ऊं श्री आचार्य कुलचन्द्रस्य तस्य शिष्यरवल्लशुभचन्द्रस्य'... 'छात्र विजो इसले भी शुभचन्द्र प्राचार्य का नाम प्रगट है-इस गुफा के दाहने कमरे में एक एक फुट ऊँची दश तीर्थंकरों की मूर्तियाँ है उनमें शासनदेवी बनी हुई है। श्रीपार्श्वनाथजी की दो मूर्तियें हैं। जिनके ऊपर सफणमण्डप किये हुए हैं-उनकी विशेष मान्यता प्रगट है । और इस गुफा के आगे १७-बारह जागुफा इसका नाम बारह भुजा इसलिये है कि बरामदे की दीवार के बाई तरफ एक देवी की मूर्ति है जिसके बाहर भुजाये हैं। (नोट :-यह जिनशासन की प्रति मूर्ति मालूम होती है क्योंकि जिनवाणी में आचारङ्ग आदि बारह अङ्ग होते हैं) ३७७ Jain Education 8emnational www.anefbrary.org Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बरामदे से हो कर तीन द्वार वाले लम्बे कमरे में जाना होता है ये द्वार अब गिर गये हैं छत की रक्षा अब दो नये स्तम्भ दे कर की गई है । भीतों पर पद्मासन तीर्थंकर की मूर्तियाँ देवी सहित अंकित हैं। पीछे की तरफ श्रीपार्श्वनाथ की बड़ी खड़गासन मूर्ति है। जिस पर ७ फन का मण्डप है इस पर देवी का चिन्ह अंकित नहीं है-इन सब मूर्तियों के भिन्न २ चिन्ह दिये हुए हैं तथा ये ८ से ७॥ इंच तक की ऊँची हैं जब कि श्री पार्श्वनाथजी की मूर्ति २ फुट ७॥ इंच ऊंची है । इसी के पास दक्षिण में - १८-त्रिशूलगुफा है-जिसका कमरा २२ फुट लम्बा ७ फुट चौड़ा व ८ फुट ऊंचा है । इसमें भी २४ तीर्थङ्करों की मूर्तियां अंकित हैं। इन्हीं में ७ फण मण्डप सहित श्रीपार्श्वनाथजी की खड़गासन मूर्ति तथा प्रान्त में श्री महावीर स्वामी की मूर्ति है । इन २४ तीर्थङ्करों के समुदाय में भी श्रीपार्श्वनाथ जी को श्री महावीरस्वामी के पहले न देकर मध्य में विराजित किया है । ( अर्थात् - इससे यह सिद्ध होता है कि श्री पार्श्वनाथजी की विशेष भक्ति को दरशाने वाली यह गुफा है सम्भव है कि ये मूर्तियाँ श्रीपार्श्वनाथजी के मुक्ति पधारने के बाद और महावीर स्वामी के निर्वाण के पहले विराजमान की गई हों। पन्द्रहवें तीर्थङ्कर का श्रासन एक वेदी से ढका हुआ है जिस पर तीन पद्मासन सुन्दर मूर्तियाँ श्री पार्श्वनाथ भगवान की है इस गुफा की मूर्तियों का आकार पहले की गुफाओं की मूर्तियों के आकार से सुन्दर है । फिर बाई तरफ आने से ५० या ६० फुट ऊँचा देखने से वहाँ जैन मूर्तियाँ अंकित हैं१९--फिर आगे पश्चिम की तरफ २ खन्ड की गुफा है-इसको सिंहगुफा या ललतेन्दुकेसरीगुफा कहते हैं-पहले खण्ड के कमरे में जैन तीर्थङ्कर की मूर्तियाँ अंकित हैं--जिनमें सब से मुख्य श्री पार्श्वनाथ की है उसमेंएक शिला लेख भी अंकित है१-ऊँ-श्रीउद्योतकेसरीविजयराज्य संवत् ५ । २-श्रीकुमारपर्वत स्थाने जीर्ण वापि जीर्ण इसान। ३-उद्योतित तस्मित् थाने चतुर्विंशति तीर्थङ्कर। ४-स्थापिता प्रतिष्ठा काले हरि ओप जसनंदिकं । ५-क्ष...'हु..."ति'"''दुथा'.......। ६-श्री पार्श्वनाथस्य कर्मक्षयाय (नोट-इस लेख में राजा उद्योतकेशरी कोनाम व संवत् ५ आया है तथा खण्डगिरि का नाम कुमार पर्वत लिखा है-यहां जीर्ण मन्दिर व बापी पहले थे ऐसा प्रकट है-वहीं २४ तीर्थकर स्थापित किये गये । प्रतिष्टा के समय में यहां श्री यसनन्दिआचार्य मौजूद थे।) इसके आगे एक झील है जिसको आकाश गंगा करते हैं२०-अनन्तगुफा-खंडगिरि की दाहिनी तरफ एक लम्बा कमरा है, जो २३ फुट चौड़ा व २४ फुटल म्बा व ६ फुट ऊंचा है, चार द्वार हैं । पीछे की भीत पर ७ पवित्र चित्र अंकित हैं। उनमें स्वस्तिक, त्रिशून, आदि हैं-पहले स्वस्तिक के नीचे एक छोटी खड़गासन मूर्ति है जो अब बहुतविस गई है यह मूर्ति शायद भीपार्श्वनाथजी की होगी। इसमें कुछ दृश्य भी बने हैं-यहां लेख सन् ई० से पहले के हैं। "दोहद समनानम् लेनम्" दोहद के साधुओं की गुफा तथा "दंडाचार" अर्थ समझ में नहीं पाया। २१-एक दूसरी गुफा में ५ पक्ति का लेख है। १-श्रीशान्तिकर सौराज्याद आचन्द्रार्कम् । २-गुहे गुहे खदि ? संझे पुनः अंगे-भाग । ३-जास्य विरजे जने इज्या गर्भ समुद्। ४-भूतो नन्न तस्य सुतो भिषक भीमतो। ५-याचते वान्य प्रस्थम् सम्वत् सरात् पुनः।। Jain Edi n ternational Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ औसवाल संवत् २१८ ___नोट- इस लेख में जो शिलालेखों की नकल दी गई है वह एपिग्रेफिका इन्डिया की जिल्द तेरहवीं सन् १९१५-१६ सफा १५९ से १६६ तक से ली गई है। उपरोक्त शिलालेखों से इतना पता तो सहज ही में लग जाता है कि खण्डगिरि उदयगिरि का नाम १० वीं तथा ११ वीं शताब्दी तक कुमारकुमारोपर्वत प्रसिद्ध था । त्रिशून गुफा के ऊपर एक सफेद पुता हुआ जिनमन्दिर हैं जिसकी मिति निश्चित नहीं है-यहां से दक्षिण की तरफ पत्थर की चट्टान ऊपर जैन तीर्थङ्करों की कई मूर्तियां अंकित है जो इधर-उधर पत्थरों के गिरने से साफ एवं प्रगट मालूम नहीं होती हैंयहां पर भीत को एक गुफा थी जिसमें भी जैनतीर्थंकरों की मूर्तियां थीं --पर्वत की चट्टान के मध्य में एक जैन मन्दिर है जिसमें पांच जैन मतियां हैं। खंडगिरि के दक्षिण पश्चिम में नीलगिरि है-यहां राधाकुंड और श्यामकुंड हैं। इन गुफाओं में से हाथीगुफा की मिती सन् ई. से १५८ या १५३ वर्ष पहले की है-तथा उदयगिरि की स्वर्गपुरी, मञ्चपुरी, सर्पगुफा, वाघगुफा, जाम्बेश्वर, हरिदास, ऐसी ६ गुफात्रों में तथा खण्डगिरि की तत्वगुफा दो और अनंतगुफा इस तरह ९ गुफाओं में शिलालेख ब्राह्मी अक्षरों में हैं और खारबेल राजा के समय के अक्षरों से मिलते हुए हैं । क्योंकि इन ब्राह्मी अक्षरों का परिवर्तन सन ईस्वी के पहली शताब्दी से पीछे हुआ है इसलिए इन लेखों को नियमानुसार इस समय के पीछे का नहीं रखा जा सकता है । ये नौ गुफाएं हाथीगुफा के निकट ही समय में खोदी गई थी अर्थात सन ईस्वी से दूसरी शताब्दी से पहले नहीं खोदी गई थीं-तो भी सम्भव है, उनमें से कुछ यह या और दूसरी गुफाएं हाथीगुफा से भी पहले की हों क्योंकि राजा खारवेल ने अपने बड़े लेख के अंकित करने को यह पहाड़ी इसीलिए चुनी होगी कि यह पहाड़ी जैनसाधुओं के विराजने से पवित्र हो चुकी है। यहाँ की स्वाभाविक या कृत्रिम गुफात्रों में जैन साधु अवश्य पहले से ही विराजते होंगे। कम से कम आधी शताब्दी तो अवश्य लेना चाहए कि जब यह पहाड़ी मुनियों के विराजने से इतनी पवित्र हो गई थी कि जिसको पवित्र जानकर राज-कुटुम्ब ने यहां खुदाई में बहुत सा रुपया खर्च किया था। यहां अवश्य सन् ईस्वी से तीसरी शताब्दी के पहले लेने ( गुफायें ) मौजूद थीं। जो कुछ यह प्रमाण मिलते हैं उनसे यह बात अनमिलती नहीं है। क्योंकि हाथी गुफा के लेख के १०० वर्ष पहले यह उड़ीसा देश वृहत-मौर्य राज्य का एक भाग हो गया था और तब जिस निग्रंथ मत का वर्णन अशोक के शिलालेखों में है उसका प्रभाव अवश्य यहां पर हुआ ही होगा। दूसरी शताब्दी में महायान भाग के बौद्धों के बड़े उपदेशक ने कहा जाता है कि उड़ीसा के राजा को और उसकी बहुत सी प्रजा को बौद्ध कर लिया। और तब यह मानना ठीक ही है कि इस समय के पीछे जैन मत का प्रभाव मंद हो गया और जन गुफाओं का खोदना बन्द हो गया-इन सबका सार यह होना चाहिए कि यहां की बहुत सी गुफाओं के खोदने का समय सन् ईस्वी की तीसरी शताब्दी के पहले से लेकर प्रथम शताब्दी पहले तक है। ___ सबसे बड़ी गुफा रानी की गुफा है । यह अभाग्य की बात है कि इस गुफा पर कोई शिलालेख नहीं है जिससे इसकी मिती का पता चले । परन्तु इसके लम्बे कमरे की श्रेणी या स्तम्भों की बड़ी लाइन तथा चित्रकारी आदि प्रगट करती हैं कि यह रचना किसी धनाढ्य दातार द्वारा हुई है। शायद किसी बलवान ३७९ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष । [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास राजा से और यह भी संभव है कि राजा खारवेल स्वयं ही हों । जिस खारवेल ने शिलालेख के अनुसार पातालिका चेटक और वैडूर्य गर्भ में अर्हन्तों के स्थान के निकट पर्वत की चोटी पर स्तम्भ और गुफायें चतुर कारीगरों से बनवाई-(नोट-ये पातालिक आदि कौन स्थान हैं इनका पता लगाना उचित है । ) । इस समय से पीछे की बनावट के चिह्न कुछ गुफाओं में हैं जैसे नवमुनिगुफा छोटी हाथीगुफा व गणेश गुफा के शिलालेख और संभव है कि खंडगिरि की कुछ तीर्थंकरों की मूर्तियां भी (सिवाय अनंत गुफा के ) ऐसी ही हों ___ आठवीं से ११ वीं शताब्दी तक दक्षिण में जैनी बहुत प्रभावशाली थे (देखो भंडारकर का पूर्व इतिहास दक्षिण का सन् १८९६ का सफा ५९) और इन लेखों के अक्षर इस समय के अक्षरों से मिलते हैं । यह जाना नहीं गया कि किस तरह जैनियों ने अपना अधिकार खोया परन्तु यह मालूम होता है कि वैष्णवों की उन्नति होने से जैनियों पर उनका अन्याय एवं अत्याचार हुआ होगा।। तथा ताड़पत्रों के लेखोंसे प्रगट है कि ब्राह्मणों की प्रेरणा से गंगराजा ने भी जैनियों को बहुत सताया । अंग्रेजी राज्य में कटक के जैन परवारों ने खंडगिरि के ऊपर एकमंदिर बनवाया तथा बारह भुजा और त्रिशुल गुफा के बरामदों को दुरुस्त कराया और इन दोनों गुफाओं के सामने एक छोटा मंदिर बनवाया । ( देखो एम० ५.च० चक्रवती नीट गुफा यो पर सन् १९०२) यदि इस प्रकार पूर्व प्रान्तीय गुफाएँ वगैरह जैन स्मारकों को लिखा जाय तो एक बृहद् प्रन्थ बन जाता है । तथा पूर्व के अलावा दक्षिण वगैरह में भी जैन श्रमणों के लिये इस प्रकार अनेक गुफाए का पता मिला है तथा प्राचीन जैन मन्दिर मूर्तियों के भी काफी तादाद में उल्लेख एवं भग्न खण्डहर मिला है तथापि मैंने तो यहां केवल नमूना के तौर पर प्राचीनता का थोड़ा सा दिग्दर्शन करवाया है कि इसको पढ़ कर जैनोपासकों के नशों में अपने पूर्वजों का एवं पूर्व जमाना में जैनधर्म की जाहोजलाली का खून बहने लग जाय और वे अपने कर्त्तव्य पर कमर कस कर कटिवद्ध हो जाय । अस्तु । Jain Educat३८mational Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ मगद देश का राजा पुष्पमित्र या कल्की अवतार मगध का राजा पुष्यमित्र - पाठक पहले पढ़ आये हैं कि मगध के सिंहासन पर मौर्य वंशी अंतिम राजा वृहद्रथ राज करता था। उसके मंत्री पुष्यमित्र था जोकि अपने स्वामी को विश्वासघात से मार कर स्वयं मगद का राजा बन गया था । जब से मगध की राजसत्ता पुष्यमित्र के हाथ में आई तब से ही वहां के जैन एवं बौद्धों के दिन बदल गये । कारण पुष्यमित्र कट्टर वेदानुयायी था । पर गत तीन चार शताब्दियों में शिशुनागवंशी, नंदवंशी और मौर्यवंशी जितने राजा हुए वे सब के सब जैन एवं बौद्ध धर्मोपासक थे और उन्होंने यज्ञ हिंसा के विरुद्ध उपदेश कर जनता को 'अहिंसा परमोधर्म' के परम उपासक बना दिये थे अतः ब्राह्मण धर्म कमजोर होकर मृत्यु शय्या पर अंतिम श्वासोच्छवास ले रहा था। ऐसी अवस्था में पुष्यमित्र ने मृत प्राय ब्राह्मण धर्म में पुनः जान डालकर उसे पैरों पर खड़ा किया | जैनों ने अपनी सत्ता के समय में किसी दूसरे धर्म पर अत्याचार नहीं किया पर राजोचित सभी धर्मों का सकार किया था एवं अशोक के समय बौद्ध धर्म की प्रबलता होने पर भी श्रमणों एवं ब्राह्मणों का सरकार होता था । पर पुष्यमित्र ने धर्मांधता के कारण अपने हाथ में राजसत्ता आते ही जैनों एवं बौद्धों पर जुल्म गुजारना शुरू कर दिया, यहां तक कि जैन मंदिरोपाश्रय, बौद्ध मंदिर मठ आदि तोड़ फोड़कर नष्ट भ्रष्ट कर डाले, जैन एवं बौद्ध साधुओं को कत्ल करा दिये, कईयों को कारागृह में ठूंस दिये, कइयों के भेष छीन लिये गये, कई भिक्षा लाते थे उनकी भिक्षा से भी कर लेने के लिये उनको तंग करता था, कर न देने से उनको कैद कर उनकी बुरी हालत करता था जिसका रोमांचकारी वर्णन जैन और बौद्ध ग्रंथों में अद्यावधि विद्यमान है । यही कारण है कि कई जैन श्रमणों और बौद्ध भिक्षुओं ने मगध देश का त्याग कर एवं अन्य प्रांतों में जाकर अपने प्राण बचाये । कई विद्वानों का मत है कि शास्त्रों में कल्कि की कथा लिखी गई है शायद वह कल्कि राजा पुष्यमित्र ही हो। क्योंकि इनके जीवन की बहुत सी घटनाएं कल्कि से मिलती हुई हैं । जैन, बौद्ध और पुराणकारों ने अपने २ ग्रंथों में कल्कि का वर्णन किया है। यदि लक्ष देकर देखा जाय तो उन तीनों धर्म के लेखकों की प्राय: सब घटनाएं मिली जुलती हैं जिसको मैं यहां संक्षिप्त से लिख देता हूँ । ( १ ) कल्कि के विषय में जैन ग्रंथ कारों का मत कि— वीर जिणागुणवीसं सरहिं पणमास बारवरिसेहिं । चंडाल कु होही, पाडलपुरि समण पडिकूलो || ४४ ॥ चित्तमि विभिवो, ककी १ रुद्धो२ चउमुह३ ति नामा ॥ 'वीर निर्वाण से १९९२ वर्ष और ५ मास बीतने पर पाटलिपुत्र नगर में चंडाल के कुल में चैत्र कोटमी के दिन श्रमणों ( साधुओं) का विरोधी जन्मेगा जिसके तीन नाम होंगे - १कल्की, २ रुद्र, ३ चतुर्मुख । - धर्मघोषसूरिकृत कालसप्ततिका । ३८१ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 'मनिट्टतेगतेष्वब्द-शतेष्वेकोनविंशतौ । चतुर्दशसु चाब्देषु, चैत्र शुक्लाष्टमी दिने ॥ २३१॥ विष्टौम्लेच्छाकुले कल्की, पाटलीपुरपत्तेन । रुद्रश्चतुर्मुखश्चेति धृताऽपराह्ययद्वयः ॥ २३२ ॥ पशोगृहे यशोदायाः कुक्षौस्थित्वा त्रयोदश। मासान् मधौ सिताष्टम्यां,जयश्री वासरे निशि ॥२३३॥ षष्ठेमकरलग्नांशे, वह माने महीसुते । वारे कर्क स्थिते चंद्रे, चंद्रयोगे शुभा वहे ॥ २३४ ॥ प्रथमे पादेऽ श्लेषायाः, कल्कि जन्म भविष्यति ।' ___ वीर निर्वाण के १९१४ वर्ष व्यतीत होंगे तब पाटलिपुत्र में म्लेच्छ कुल में यश की स्त्री यशोदा की इक्षि से चैत्र शुक्ल ८ की रात में कल्कि का जन्म होगा।'xxआगे लिखा है कि वीरात २००० वर्षे न्द्र के हाथों से कल्की ८६ वर्ष की आयु में मर कर नरक में जायगा-इत्यादि । जिनसुन्दरसरि कृत दीपालिकल्प पणच्छस्सयवस्स पणमास जुदंगमिय वीरणिव्वुइदो ।। सग राजो तो कक्की, तिच दुण वति महिय सग मासं : 'वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष और पांच मास बीतने पर 'शक राजा' होगा और उसके बाद ३९४ वर्ष पौर सात मास में अर्थात निर्वाण संवत १००० में कल्की होगा।' दि०.- नेमिचंद्रीय त्रिलोक सार तित्थोगाली पइन्ना में तो इस विषय का विस्तृत वर्णन मिलता है। 'शक से १३२३ ( वीर निर्वाण १९२८ ) वर्ष व्यतीत होंगे तब कुसुमपुर ( पाटलिपुत्र ) में दुष्ट बुद्धि वाले कल्की का जन्म होगा।'xx 'कल्की का जन्म होगा तब मथुरा में राम और कृष्ण के मंदिर गिरेंगे और विष्णु के उत्थान कार्तिक सुदी ११ ) के दिन वहां जन संहारक घटना होगी।xx इस जगत्प्रसिद्ध पाटलिपुत्र नगर में ही चतुर्मुख' नाम का राजा होगा। वह इतना अभिमानी होगा कि दूसरे राजात्रों को तृण समान लिनेगा । नगरचर्या में निकला हुआ वह नंदों के पांच स्तूपों को देखेगा और उनके संबंध में पूछताछ करेगा, तब उसे उत्तर में कहा जायगा कि यहां पर बल, रूप, धन और यश से समृद्ध नंद राजा बहुत समय तक राज कर गया है, उसी के बनवाए हुए ये स्तूप हैं। इसमें उन्होंने सुवर्ण गाड़ा है जिसे दूसरा कोई राजा प्रहण नहीं कर सकता । यह सुन कल्की उन स्तूपों को खुदवाएगा और उनमें का समाम सुवर्ण ग्रहण कर लेगा । ( देखो पृष्ट २५६ के श्लोक इस द्रव्य प्राप्ति से उसकी लालच बढ़ेगी और द्रव्य प्राप्ति की आशा से वह सारे नगर को खुदवा देगा । तब जमीन में से एक पत्थर की गौ निकलेगी जो 'लाणदेवी' कहलाएगी।xx लोणदेवी श्राम रास्ते पर खड़ी रहेगी और भिक्षा निमित्त आते जाते साधुओं को मार गिरावेगी, जिससे उनके भिक्षा पात्र टूट जावेंगे, तथा हाथ पैर और सिर भी फूटेंगे और उनको नगर में चलना फिरना मुश्किल हो जावेगा।x तब महत्तर ( साधुओं के मुखिया) कहेंगे---श्रमणों ! यह अनागत दोष की-जिसे भगवान बर्द्धमान स्वामी ने अपने ज्ञान से पहले ही देखा था-अग्र सूचना है। साधुओ ! यह गौ वास्तव में अपनी हितचिंतिका है । भावी संकट की सूचना करती है, इस वास्ते चलिये, जल्दी हम दूसरे देशों में चले जायं ।xगो के उपसर्ग से जिन्होंने जिन-वचन सत्य होने की संभावना की वे पाटलिपुत्र को छोड़कर अन्य देश को चले Jain Ed i nternational Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ ये । पर बहुतेरे नहीं भी गये। गंगाशोण के उपद्रव विषयक जिन-वचन को जिन्होंने सुना वे वहां से अन्य श को चले गए और कई एक नहीं भी गए। ४ भिक्षा यथेच्छ मिल रही है, फिर हमें भागने की क्या जरूरत है ? यह कहते हुए कई साधु वहां से नहीं गए Ixx वह दुर्मुख और अधर्म्य मुख राजा चतुर्मुख ( कल्की ) साधुओं को इकट्ठा करके उनसे कर मांगेगा और न देने पर श्रमण संघ तथा अन्य मत के साधुओं को कैद करेगा। तब जो सोना चांदी आदि परिप्रह रखने वाले साधु होंगे वे सब 'कर' देकर छूटेंगे । कल्की उन पाखंडियों का जबरन वेष छिनवा लेगा।xx 'लोभग्रस्त होकर वह साधुओं को भी तंग करेगा। तब साधुओं का मुखिया कहेगा-'हे राजन् ! हम अकिंचन हैं, हमारे पास क्या चीज है जो तुझे कर स्वरूप दी जाय ? इस पर भी कल्की उन्हें नहीं छोड़ेगा और श्रमण संघ कई दिनों तक वैसे ही रोका हुआ रहेगा। तब नगर देवता आकर कहेगा-अरे निर्दय राजन् ! तू श्रमण संघ को हैरान कर क्यों मरने की जल्दी तय्यारी करता है, जरा सबर कर । तेरी इस अनीति का आखरी परिणाम तय्यार है। नगर देवता की इस धमकी से कल्की घबरा जायगा और आई. वन पहिन कर श्रमण संघ के पैरों में पड़कर कहेगा 'हे भगवन् ! कोप देख लिया अब प्रसाद चाहता हूँ। इस प्रकार कल्की का उत्पात मिट जाने पर भी अधिकतर साधु वहां रहना नहीं चाहेंगे, क्योंकि उन्हें मालूम हो जायगा कि यहां पर निरंतर घोर वृष्टि से जल प्रलय होने वाला है। तब वहां नगर के नाश की सूचना करने वाले दिव्य आंतरिक्ष और भौम उत्पात होने शुरू होंगे कि जिनसे साधु साध्वियों को पीड़ा होगी। इन उत्पातों से और अतिशायी ज्ञान से यह जानकर कि 'सांवत्सरिक पारणा के दिन भयंकर उपद्रव होने वाला है'-साधु वहाँ से विहार कर चले जायेंगे । पर उपकरण मकानों और भावकों का प्रतिबंध रखने वाले तथा भविष्य पर भरोसा रखने वाले साधु वहां से जा नहीं सकेंगे। तब सत्रह रात दिन तक निरंतर वृष्टि होगी जिससे गंगा और शोण में बाढ़ आएगी । गंगा की बाढ़ और शोण के दुर्धर वेग से यह रमणीय पाटलिपुत्र नगर चारों ओर से बह जायगा। साधु जो धीर होंगे वे आलोचना प्रायश्चित करते हुए और जो श्रावक तथा वसति के मोह में फंसे हुए होंगे वे सकरुण दृष्टि से देखते हुए मकानों के साथ ही गंगा के प्रवाह में बह जायंगे। जल में बहते हुए वे कहेंगे-'हे स्वामी सनत्कुमार ! तू श्रमण संघ का शरण हो, यह वैयावृत्य करने का समय है।' इसी प्रकार साध्वियां भी सनत्कुमार की सहायता मांगती हुई मकानों के साथ बह जायँगी । इनमें कोई कोई आचार्य और साधु साध्वियां फलक आदि के सहारे तैरते हुए गंगा के दूसरे तट पर उतर जायेंगे । यही दशा नगर निवासियों की भी होगी। जिनको नाव फलक आदि की मदद मिलेगी वे बच जायंगे, बाकी मर जायंगे । राजा का खजाना पाडिवत आचार्य और कल्की राजा आदि किसी तरह बचेंगे पर अधिकतर बह जायेंगे । अन्य दर्शन के साधु भी इस प्रलय में बह कर मर जायँगे । बहुत कम मनुष्य ही इस प्रलय से बचने पायेंगे। इस प्रकार पाटलिपुत्र के बह जाने पर धन और कीर्ति का लोभी कल्की दूसरा नगर बसाएगा और बाग बगीचे लगवा कर उसे देवनगर तुल्य रमणीय बना देगा। फिर वहां देव मंदिर बनेंगे और साधुओं का विहार शुरू होगा। अनुकूल वृष्टि होगी और अनाज वगैरह इतना उपजेंगा कि उसे खरीदने वाला नहीं मिलेगा। इस प्रकार ५० वर्ष सुभिक्ष से प्रजा अमनपैन में रहेगी। Freedawurwww ३८३ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इसके बाद फिर कल्कि उत्पात मचाएगा, पाखंडियों के वेष छिनवा लेगा और श्रमणों पर भी अत्याचार करेगा । उस समय कल्प व्यवहार धारी तपस्वी युग प्रधान आचार्य पाडिवत तथा दूसरे साधु छ? अट्ठम का तप करेंगे। तब कुछ समय के बाद नगर देवता कल्की से कहेगा -- अरे निर्दयी ! तू श्रमण संघ को तकलीफ देकर क्यों जल्दी मरने की तैयारी कर रहा है ? जरा सबर कर, तेरे पापों का घड़ा भर गया है ।' नगर देवता की इस धमकी की कुछ भी परवाह न करता हुआ वह साधुओं से भिक्षा का षष्ठांश वसूल करने के लिये उन्हें बाड़े में कैद करेगा। साधु गण सहायतार्थ इन्द्र का ध्यान करेंगे, तब अंबा और यज्ञ कल्की को चेताएँगे, पर वह किसी की नहीं सुनेगा। आखिर में संघ के कायोत्सर्ग ध्यान के प्रभाव से इन्द्र का आसन कॅपेगा और वह ज्ञान से संघ का उपसर्ग देखकर जल्दी वहां आएगा । धर्म की बुद्धि वाला और अधर्म का विरोधी वह दक्षिण लोक पति (इन्द्र ) जिन प्रवचन के विरोधी कल्कि का तत्काल नाश करेगा। उग्रकर्मा कल्की उग्रनीति से राज करके ८६ वर्ष की उमर में निर्वाण से २००० वर्ष बीतने पर इंद्र के हाथ से मृत्यू पाएगा । तब इंद्र कल्कि के पुत्र दत्त को हित शिक्षा दे श्रमणसंघ की पूजा करके अपने स्थान पर चला जाएगा।' इत्यादि (तित्थोगाली पइन्ना का अनुवाद) 'गौतम-भगवन् ! श्रीप्रभनामक अनगार किस समय होगा ?' महावीर -- 'हे गौतम ! जिस वक्त निकृष्ट लक्षणवाला, अद्रष्टव्य, रौद्र, उप्र और क्रोधी प्रकृति वाला, उपदंड देनेवाला, मर्यादा और दया हीन अति क्रूर और पाप बुद्धिवाला, अनार्य, मिथ्या दृष्टि ऐसा कल्की नाम का राजा होगा; जो पापी श्रमणसंघ की भिक्षा के निमित्त कदर्थना करेगा, और उस वक्त जो शील समृद्ध और सत्यवंत साधु होंगे उनकी ऐरावतगामी वज्रपाणि इंद्र आकर सहायता करेगा । उस समय श्रीप्रभ नामक अनगार होगा।' महानिशीध, पाँचवाँ अध्ययन इनके अलावा भी कई प्रन्यों में कल्की का अधिकार लिखा मिलता है पर सब का सारांश एक ही है कि कल्की एक महा अत्याचारी धर्मान्ध धर्म द्वेषी होगा और वह साधुओं को कष्ट देगा और इंद्र के हाथों से मारा जायगा । इत्यादि (२) बोद्ध ग्रन्थकारों का मत है कि बौद्धों के प्रन्थों में भी पुष्यमित्र के विषय में लिखा है कि पुष्यधर्मा के पुत्र पुष्यमित्र ने अपने मंत्रियों से पूछा-ऐसा कौन उपाय है जिससे हमारा नाम हो ? मंत्रियों ने कहा-महाराज आपके वंश में राजा अशोक हुआ जिसने ८४००० धर्मराजिका स्थापित करके अपनी कीर्ति अचल की जो जहां तक भगवान (बुद्ध) का शासन रहेगा वहां तक रहेगी ! आप भी ऐसा कीजिये ताकि आपका नाम अमर हो जाय । पुष्यमित्र ने कहा-राजा अशोक तो बड़ा था हमारे लिए कोई दूसरा उपाय है ? यह सुनकर उसके एक अश्रद्धावान् ब्राह्मण ने कहा -- देव ! दो कारणों से नाम अमर होगा। x x x गजा पुष्यमित्र चतुरंग सेना को सज्जित न करके भगवच्छासन का नाश करने की बुद्धि से कुकुटाराम की ओर गया, पर द्वार पर जाते ही घोर सिंहनाद हुआ जिससे भयभीत होकर राजा वापिस पाटलीपुत्र को चला आया ।दूसरी और तीसरी बार भी यही बात हुई । आखिर में राजा ने भिक्षु और संघ को बुला ३८४ Jain Education international Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचार्य यक्षदेवमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ कर कहा-मैं बुद्ध शासन का नाश करूंगा। बतलाओ तुम क्या चाहते हो,स्तूप या संघाराम? इस पर भिक्षुओं ने स्तूपों को ग्रहण किया । पुष्यमित्र संघाराम और भिक्षुओं का नाश करता हुआ शाकल तक पहुँच गया। उसने यह घोषणा करदी कि जो कोई भी मुझे श्रमण (साधु) का मस्तक लाकर देगा उसे मैं सोने की सौ मुहरें दूंगा xx अतः लोगों ने बड़ी २ संख्या में सिर देना प्रारंभ कियाxxसुन कर वह अहेत ( अहंत प्रतिमा) की धात करने लगा। पर वहाँ उसका कोई प्रयत्न सफल नहीं हुआ । सब प्रयत्न छोड़ कर वह कोष्टक में गया । उस समय दंष्ट्राविनाशी यक्ष सोचता है कि यहाँ भगवच्छासन का नाश हो रहा है, पर मैंने यह शिक्षा ग्रहण की हुई है कि मैं किसी का अप्रिय नहीं करूंगा।' उस यक्ष की पुत्री कृमीसेनयक्ष याचना करता था पर उसे पापकर्मी समम कर वह अपनी पुत्री को नहीं देता था, पर उस समय उसने भगवच्छासन की रक्षा के निमित्त अपनी पुत्री कृमीसेनयक्ष को देदी।। पुष्यमित्र को एक बड़े थक्ष की मदद थी, जिससे वह किसी से मारा नहीं जाता था। दंष्ट्राविनाशी यक्ष पुष्यमित्र संबंधी यक्ष को लेकर पहाड़ों में फिरने को चला गया। उधर कमीसेन यक्ष ने एक बड़ा पहाड़ लाकर सेना सहित पुष्यमित्र को रोक लिया । उस पुष्यमित्र का 'मुनिहत' ऐसा नाम स्थापित किया। जब पुष्यमित्र मारा गया तब मगद में मोर्यवंश का अंत हुआ। "दिव्यावदान के २१ वें अवदान से कुछ श्लोकों का सारांश ( ३ ) वेदान्तिक एवं पुराणकारों का मत है कि 'जब कलियुग पूरा होने लगेगा तब धर्म रक्षण के लिये शंभलगाम के मुखिया विष्णुयश प्रामण के यहाँ भगवान् विष्णु कल्की के रूप में अवतार लेंगे' ___'कल्की देवदत्त नामक तेज घोड़े पर सवार हो के खड़ग से दुष्टों और राजवेश में रहते हुए सब लुटेरों का नाश करेगा । जो म्लेच्छ हैं, जो अधार्मिक और पाखंडी हैं वे सब कल्की द्वारा नाश किये जायेंगे । -श्री मद्भागवत स्कंध १२ वां, अध्याय २ उपरोक्त तीनों धर्म वालों के शास्त्र प्रमाणों से इतना तो सहज ही में जाना जा सकता है कि कस्की ब्राह्मणों के पक्ष में और जैन एवं बौद्धों के विपक्ष में होगा । यही कारण है कि ब्राह्मण उसको विष्णु का अवतार लिखते हैं जब कि जैन एवं वौद्ध उसको धर्म विध्वंसक, अन्यायी एवं अत्याचारी लिखते हैं । यदि कल्की पुष्पमित्र ही है तो यह सब घटनाए सब तरह से उसके लिये मिलती हुई है। जैन शास्त्रकारों का यह कथन है कि कल्की धर्म का धंस करेगा और जब उसका अन्याय चरम सीमा तक पहुँच जायगा तब इंद्र आवेगा और उसे दंड देगा अर्थात् जान से मार डालेगा और उसके पुत्र दत्त को राज्य देगा इत्यादि । यही बात राजा पुष्पमित्र के लिये ठीक घटित होती है कारण उड़ीसा की हाथीगुंफा के शिलालेख में लिखा है कि मगद का राजा पुष्पमित्र के अन्याय के कारण महामेघवाहन चक्रवर्ती कलिंगपति राजा खारवेल को मगध पर दो बार चढ़ाई करनी पड़ी और पुष्पमित्र को ऐसा दंड दिया कि उसका सिर भपने चरणों में मुका दिया । खारवेल कट्टर जैन था अतः जब उनसे पुष्पमित्र का अन्याय देखा न गया तब ही इसने मगध पर चढ़ाई कर उसे इस प्रकार दंड दिया हो तो यह असंभव भी नहीं है। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १८२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इस विषय में श्रीमान् पन्यासजी कल्याणविजयजी महाराज ने अपने 'वीरनिर्वाणसंवत और जैनकाल गणना' नामक पुस्तक में अनेक प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया है कि जिस कल्की राजा का जैन, बौद्ध और पुराणकारों ने वर्णन किया है वह कल्की पुष्पमित्र ही हो सकता है। इत्यादि : पन्यासजी महाराज के प्रमाण और युत्तियाँ बहुत महत्व पूर्ण हैं। यदि धर्म द्रोही पुष्पमित्र को ही कल्की मान लिया जाय तो असंगत कुछ भी नहीं है । कारण तीनों धर्म वालों की लिखी हुई कल्की की घटनाएं पुष्पमित्र के जीवन के साथ घटित होती हैं अब रहा कल्की होने के समय की बात अतः इस विषय में-हाँ जैन, बौद्ध और ब्राह्मणों ने कल्की के होने का समय पृथक पृथक् लिखा है परन्तु जैनों का मत है कि वर्तमान समय के पूर्व कल्की हो चुका है क्योंकि जैन लेखकों ने कल्कि का समय वीर निर्वाण संवत् १००० से २००० तक का लिखा है । जब हम वीर निर्वाण से २००० वर्ष का समय देखते हैं तो इसमें पुष्पमित्र के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति ऐसा नजर नहीं आता कि जिसने धर्माधता के वशीभूत हो साधुओं को कत्ल किया हो या साधुओं की भिक्षा पर टैक्स लगाया हो जैसा कि पुष्पमित्र ने किया था अतः पुष्पमित्र को ही कल्की मान लेना न्याय संगत ही कहा जा सकता है। अब रहा पुराणकारों द्वारा लिखित कल्की का समय जो वे कल्की को कलियुग का अन्त में होना बतलाया है जब कि राजा कल्की के विषय में जैन बौद्ध और पुराणकारों की लिखित घटनाएं सब सदृश ही हैं और वे प्रायः एक ही पुरुष के लिये ही हैं तो कोई कारण नहीं कि हम इस घटनाओं को ऊपर लिखे अनुसार पुष्पमित्र के लिये न मार्ने । खैर इस विषय को तो मैं इतना ही कह कर विद्वानों पर छोड़ देता हूँ कि मगध के सिंहासन पर पमित्र एक ऐसा भारत में कलंक स्वरूप राजा हुआ है कि भारत के इतिहास में ऐसा धर्मान्ध कोई में राजा नहीं हुआ था। जैसे पुष्पमित्र ब्राह्मण धर्म को मानने वाला मगध का राजा हुआ वैसे ही उस समय कलिंग के सिंहा सन पर खारवेलराजा जैन धर्म को मानने वाला चक्रवर्ति राजा हुआ पर कहाँ पुष्पमित्र की धर्मान्धता श्री कहाँ खारवेल की सम्यग् दृष्टि वह जैन होता हुआ भी अपना राज्याभिषेक ब्राह्मण धर्मानुसार करवाया थ और उस समय के तीनों धर्मो ( जैन बोद्ध, वेदान्तिक ) को यथावत् सन्मान की दृष्टि से देखता था । इति कलिंग का संक्षिप्त इतिहास । Jain Educat national Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन | [ ओसवाल संवत् २६४ १३-प्राचार्यश्री कक्कसरि (द्वितीय) आचार्यस्तु स कक्कमरिविह यो नैष्ठीक आसीन्महान् , दीक्षानंतर मेव सोऽवगतवान सर्वाणि शास्त्राणि वै । वीरस्तापस एक एव विदितः शक्त्या प्रतापेन च, सिद्धीना मखिलो गणो व्यरमतां तत्पाद छाया तले ॥ पश्चात्सोऽप्युपकेश नाम नगरे मृर्त्याः सुवीरस्य च, ग्रन्थी नामव छेद कारण तया विघ्नस्तु जातो महान् । शान्तः सोऽप्यमुना निजेन विहितः सामर्थ्य भारेण वै, नव्यान् जैनमत प्रभावित तमान् कृत्वा प्रसिद्धिर्गता ॥ artचार्यश्री ककसूरीश्वरजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली, विद्वान् , तपस्वी और लब्धि संपन्न आचार्य हुए थे । पाठक गत प्रकरण में पढ़ चुके हैं कि उपकेशपुर के राजा क्षेत्रसिंह ने • अपने लघु पुत्र लखणसिंह के साथ आचार्यश्री यक्षदेवसूरि के चरण कमलों में भगवती दीक्षा प्रहण की थी । दीक्षा लेने के बाद लखणसिंह का नाम मुनि लक्ष्मीप्रधान रखा गया था। मुनि लक्ष्मीप्रधान ने श्राचार्यश्री को विनय भक्ति करते हुए जैन साहित्य का खुब अध्ययन किया । इतना हो नहीं बल्कि मुनिजी ने जैनेतर साहित्य एवं दार्शनिक तथा व्याकरण, न्याय, काव्य, तर्क, छंद, अलंकार, और ज्योतिषादि अष्टांग महानिमित्त का भी अच्छा अभ्यास कर लिया था। आपकी युक्ति एवं तर्क शक्ति इतनी जबर्दस्त थी कि आपने कई राजा महाराजा त्रों को सभाओं में वादियों को परास्त कर जैनधर्म को विजय पताका चारों ओर फहरा दी थी। यही कारण था कि वादी प्रतिवादी आपके सामने सदैव नत मस्तक रहते थे, इतना ही नहीं पर वे आपके नाम मात्र से काँप उठते थे। एक बार तो बौ द्वाचार्य धम दित्य के साथ आपका शास्त्रार्थ हुभा था उसमें भी विजय माला श्रापके ही कण्ठ में शोभित हुई थी ! यज्ञ हिला का तो श्रापश्री सख्त विरोध करते थे और जहाँ तहाँ भ्रमण कर आपने 'अहिसा परमोधर्मः' का विजय डंका बजव दिया था। आप तप करने में बड़े ही शरवीर थे। छठ, अठम, अठाइयों एवं मास खामण के तप तथा कई प्रकार के अभिप्रह कर कठोर तपश्चर्या भी किया करते थे और उस कठोर तपश्चर्या के प्रभाव से अनेक राजा महाराजा तो क्या पर कई देवी देवता आपके चरण कमलों की सेवा करते थे। सरस्वती और लक्ष्मी देवियाँ तो आपके प्रति सदेव वरदाई रहती थीं। श्राप जैसे तेजस्वी व यशस्वी थे वैसे वचःस्वी भी थे। आपका व्याख्यान इतना रोचक एवं मधुर होता था कि बड़े बड़े राजा महाराजा सुनने के लिये लालायित रहते थे। धर्म प्रचार करने में तो आप इतने कट्टर थे कि जहाँ पधारते वहाँ अनेक जनेतरों को जैन बनाने में सिद्धहस्त थे । इतना ही क्यों पर आपने अनेकों नर-नारियों को जैन दीक्षा देकर श्रमण संघ में भी आशातीत वृद्धि की थी। इन सब आप .............. ... ......... ३८७ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १३६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के आदर्श गुणों से प्रसन्न हो कर प्राचार्य यक्षदेवसूरि ने अपनी अन्तिमावस्वा में आपको आचार्य पद से विभूषित कर आपका नाम कक्कसूरि रक्खा था । जब आप प्राचार्य बन गये तो अखिल गच्छ की जुम्मेवारी आपके सिर श्रा पड़ी पर इस कार्य में आप पहले से ही अच्छे निपुण एवं कुशल थे बाद आपश्री ने एक समय चन्द्रावती नगरी में पधार कर वहाँ के राजा त्रिभुवनसेन को ऐसा उपदेश दिया कि उसने मरुधरादि प्रान्तों में विहार करने वाले साधुओं की एक श्रमण सभा की जिसमें उपकेशगच्छ एवं कोरंटगच्छ के प्रायः सब साधु साध्वियों को आमंत्रण देकर बुलवाये । इसमें कोरंटगच्छ के आचार्य सोमप्रभसूरि ( द्वितीय ) अपने शिष्य समुदाय के साथ पधारे। दोनों गच्छों के करीब ३००० साधु साध्वियाँ तथा आवन्ति प्रदेश में विचरने वाले कई साधु भी इस सभा में एकत्र हुये थे । उस समय श्राद्ध वर्ग भी बहुत संख्या में आये थे कारण कि ऐसा कल्याण कारी अवसर उन लोगों को फिर कब मिलने वाला था। इस प्रकार चतुर्विध श्री संघ चन्द्रावती में एकत्र हुआ। ठीक समय पर सभा हुई । उसमें आचार्य कक्कसूरिजी महाराज ने अपनी ओजस्विनी वाणी द्वारा साधु साध्वियों को संबोधन करके कहा:-महानुभावों! आपने संसार को असार जान कर सब भौतिक सुख साहबी त्याग कर दीक्षा ली है अतः आप अपना कल्याण करें इसमें कोई विशेषता की बात नहीं है पर अपने कल्याण के साथ अन्य भूले भटके भाइयों को सन्मार्ग पर लाकर उनका कल्याण करना यही आपके जीवन की विशेषता है । आप जानते हैं कि इस समय मुनियों को प्रत्येक प्रांत में घूम घूम कर जैनधर्म का प्रचार करने की कितनी आवश्यकता है । अपने पूर्वज-महात्माओं ने किस प्रकार की कठिनाइयों और परिसहों को सहन कर अपने लिये विहार के कैसे सुगम रास्ते बना गये है कि आज आप किसी भी प्रांत में जावें अपने को कहीं भी कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं रहती है । मरुधर, लाट, सौराष्ट्र, कच्छ, सिध और पांचाल तक तो जैनधर्म का प्रचार हो गया है पर अभी दक्षिण की ओर किसी का भी बिहार नहीं हुआ है । हां प्राचीन जमाने में लोहित्याचार्य ने दक्षिण में जाकर जैनधर्म का प्रचार अवश्य किया था पर इस समय वहां का क्या हाल है ? अतः आप लोगों को दक्षिण की ओर बिहार करना चाहिये और यही आपकी परीक्षा का समय है। जैसे मनुष्य स्वयं मरना चाहे तो एक सुई भी काफी है तब ये जो बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र रक्खे जाते हैं वे किसके लिये हैं ? अन्यायी को सजा देने के लिये । इसी प्रकार आप अपना कल्याण एक नवकार मंत्र मात्र से कर सकते हैं फिर इतने शास्त्रों का अध्ययन किया है वह किस लिये ? उपरोक्त न्याय से यह भूले भटके प्राणियों के लिये ही है कि इन शास्त्रों द्वारा उनको समझाया जाय इत्यादि । सूरिजी ने इस प्रकार का उपदेश दिया कि उपस्थित मुनियो के हृदयों में जैनधर्म प्रचार के लिये मानो एक प्रकार की बिजली ही चमक उठी हो, विशेषता यह थी कि उन मुनियों की भावना दक्षिण में विहार करने की हो गई । उसी सभा में कई मुनियों ने सूरिजी से प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! यदि आप आज्ञा फरमावे तो हम लोग दक्षिण की ओर विहार करने को तैयार हैं। बस सूरिजी यही चाहते थे । आचार्यश्री ने योग्य मुनियों को पदवियों से विभूषित कर पाँच पदस्थों के साथ पाँचसौ साधुओं को देकर अर्थात् एक एक पदवीधर के साथ सौ-सौ साधु देकर पाँच जत्थे बना दिये और क्रमशः सौ-सौ साधुओं को एक-एक रास्ते जाने की आज्ञा दे दी। और मुनिवर्ग ने बड़े उत्साह के साथ विहार करने के लिये प्रस्थान भी कर दिया। बलिहारी है उन सूरीश्वरजी एवं आपश्री के शिष्यों की Jain Educac national Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १६४ कि उन्होंके हृदय में धर्म प्रचार की कैसी भावना थी कि दुःख सुख की परवाह न करते हुए सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्य कर शीघ्र ही दक्षिण की ओर धर्मप्रचार के निमित्त प्रस्थान कर दिया। शेष साधुओं को भी जहाँ जैसी आवश्यकता थी उसके अनुसार पृथक् २ प्रांतों में विहार की आज्ञा दे दी । तत्पश्चात् आचार्य सोमप्रभसूरि ने कहा:--पूज्य ! हम भी आपकी आज्ञा चाहते हैं, कृपा कर फरमा जैसी आपकी आज्ञा हो हम भी विहार करने को तैयार हैं। आचार्य कक्कसूरिजी ने कहा:-सूरिजी ! श्राप और हम दो नहीं पर एक ही हैं चाहे गच्छ का नाम अलग हो एवं आचार्य अलग होते हों पर जैनधर्म का प्रचार करने में तो अपन सब एक ही हैं और सब का ध्येय एक स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण करते हुए जैनधर्म का प्रचार करना ही है इत्यादि पुनः प्राचार्य ककसरि ने फरमाया कि आप और आपके साधु अभी मरुधर के अलावा अन्य प्रांतों में नहीं पधारे हैं अतः आपको एक प्रांत में न रह कर अनेक प्रांतों में विहार करना चाहिये । अगर आपकी इच्छा हो तो श्री सिद्धगिरि की यात्रा करते हुए कच्छ, सिंध पांचाल होते हुये पूर्व प्रान्त तक पधारें और वहां सम्मेतशिखर आदि की यात्रा का लाभ हासिल कर लें। आचार्यश्री की आज्ञा शिरोधार्य कर आचार्य सोमप्रभसूरि अपने कई विद्वान शिष्यों के साथ विहार करके श्रीशत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर सौराष्ट्र कच्छ में भ्रमण करते सिंध में पधार गये। सूरिजी ने चंद्रावती के राजा त्रिभुवनसेन आदि को भी उपदेश दिया कि हे राजन् ! मुनि तो प्रत्येक प्रांतों में घूम घूम कर धर्म का प्रचार करते ही हैं पर आप लोगों को भी इस कार्य में भाग लेना चाहिये । आपके पूर्वजों ने जैनधर्म के प्रचार के लिये बहुत प्रयत्न किया था उसी का ही यह सुन्दर फल है कि आज जैनधर्म का सर्वत्र सूर्य की भांति प्रकाश हो रहा है इत्यादि । राजादि सब लोगों ने कहाः-पूज्यवर ! आपका फर• माना सत्य है और आप जैसे प्रेरक महात्मानों ने इस घोर मिथ्यात्व और दुराचारियों के पाखंड को हटा कर जैनधर्म का साम्राज्य स्थापित किया है पर हम लोग गृहस्थ एवं संसार में हस्ती की भांति खूच रहे हैं फिर भी आप श्रीमान् हुक्म फरमा वह शिरोधार्य करने को हम तय्यार हैं इत्यादि । सूरिजी के उपदेश का जनता पर बड़ा भारी असर हुआ । और वे जैन धर्म का प्रचार के लिये तैयार हो गये। _आचार्यश्री ककसूरिजी महाराज ने अपने जीवन में प्रत्येक प्रांत में घूम घूम कर जैनधर्म का खूब प्रचार किया, साधु समाज को उत्तेजित कर उनके द्वारा जैन समाज को जागृत कर धर्म की खूब उन्नति करवाई। आचार्य ककसूरि जैसे धर्म प्रचारक थे वैसे ही पिछली अवस्था में आप योगसाधना करते हुए समाधि को विशेष चाहते थे । यही कारण है कि आप परम निर्वृत्ति के स्थान आबू एवं गिरनार की भीमकाय गुफाओं में रह कर ध्यान किया करते थे। आप श्री की योग साधना को देख कर कई जैन एवं जैनेतर लोग भी श्राप श्री के पास योगाभ्यास करने को आया करते थे और आप श्री ने अपनी उदारतापूर्वक बिना किसी भेदभाव उनको योग एवं ध्यान अभ्यास कराया करते थे। एक समय का जिक्र है कि उपकेशपुर में श्रीस्वयंभू महावीर के मंदिर में अष्टाझिका महोत्सव हो रहा था, वहाँ वृद्धों के साथ कई नवयुवक भी पूजा अर्चा किया करते थे। एक दिन कई नवयुवक मूर्ति को प्रक्षाल करवा कर अंगलूणे करते थे तो मूर्ति के हृदयस्थल पर नींबू के फल सहश दो गांठे देख उनके दिल में यह भाव * स्वयंभूश्रीमहावीरस्नात्रविधिकाले, कोसौविधिः कदाकिमर्थसंजातःइत्युच्यन्तेतस्मिन्नेव देवगृहेअष्टान्हिकादिकमहोत्सवंकुर्वतास्तेषांमध्ये अपरिणतवयसाकेषांचित्चित्तेइयंदुर्बुद्धिःसंजाताः । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १३६ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उत्पन्न हुए कि इतनी चमत्कारी एवं सुंदर प्राकृतिवाली मूर्ति होने पर भी इसके हृदय पर दो ये ग्रंथियें शोभा नहीं देती हैं हरस के मुवाफिक खराब लगती हैं। किसी ने कहा कि स्त्रियों के स्तन की भाँति ये गांठे अच्छी नहीं दिखती हैं, किसी ने कहा कि अब काल गिरता एवं खराब आता है । यदि अंगलूणे करते समय किसी की भावना खराब होजायगी तो महान आशातना का कारण होगा इत्यादि जिसके जैसा जीमें आया वैसे ही कहा । इस पर नवयुवकों ने विचार किया कि इन ग्रंथियों को कटाकर दूर क्यों न करवादी जाय । इस इरादे से उन्होंने बुजुर्गों से प्रार्थना की कि मूर्ति के हृदय पर जो दो प्रथिये हैं उनको कटा दी जाय तो क्या हानि है ? इस पर दुखी हृदय से वृद्धों ने कहा:-अरे मूखों ! तुमने बिना विचारे यह सवाल क्यों किया है ? खैर, आज तो हमने सुन लिया है पर आईदे से कभी ऐसा शब्द न निकालना । क्या तुम लोगों को यह मालूम नहीं है कि यह प्रभावशाली मूर्ति देवी सच्चायिका ने बनाई है और महा प्रतिभाशाली श्राचार्यश्री रत्नप्रभ सूरि ने इसकी शुभ-लग्न में प्रतिष्ठा करवाई है । उस समय ये दोनों ग्रंथियें मौजूद थीं, यदि ये इन पंथिये को ठीक नहीं समझते तो क्या उस समय सुथार नहीं था, या क्या टॉकी नहीं थी, वे स्वयं हटा देते पर उन्होंने सोच समझ कर इन प्रथियों को रहने दिया है। ये श्रीसंघ की भलाई के लिये ही हैं और इस मूर्ति की प्रतिष्ठा होने के बाद श्रीसंघ की सब तरह से वृद्धि हुई है अतः तुम लोग जवानी के मद में कहीं मूल प्रतिष्ठा का भंग कर अनर्थ न कर डालना इत्यादि खूब समझाया । उस समय तो नवयुवकों ने वृद्धो का कहना मान लिया पर उनके दिल में यह बात हर दम खटकती जरूर थी और वे लोग ऐसे समय की राह देख रहे थे कि मौका मिलने पर दोनों गाठे हटा कर अपना दिल चाहा करलें। यदुत भगवन् महावीरस्यहृदयग्रन्थीद्वयं पूजांकुर्वतांकुशोभाकरोति अतःमशकरोगवत्छेदयितां को दोषां? वृद्धः कथितं अयं अघटितः टंकिना घातो नअर्ह विशेषतो अस्मिन् स्वयंभूश्रीमहावीर विवं । वृद्धवाक्यमवगण्यप्रच्छन्नंसूत्रधारस्यद्रव्यं दत्वाग्रन्थिद्वयंछेदितं तत्क्षणादेवसूत्रधारोमृतःप्रन्थिच्छेदप्रदेशेतु रक्तधाराछुटिता । तत् उपद्रवोजातः। तदा उपकेशगच्छाधिपति आचार्यश्रीकक्कमरिभिःपायम्दिःचतुर्विधसंघेनाहूता । वृत्तांतंकथितं आचार्य चतुर्विधसंघसहितेनउपवासत्रयंकृतं । तृतीयउपवासप्रान्तेरात्रिसमयेशासनदेवीप्रत्यक्षी भूयआचार्यायप्रोक्तं-- हे प्रभो न युक्तंकृतंबालश्रावकै मद्घटितंबिंबंआशातितंकलानी शकृतंअतोनंतरंउपकेशनगरंशनैः २ उपभ्रशंभविष्यति । गच्छेविरोधीभविप्यति । श्रावकाणां कलहोभविष्यति गोष्ठिकानगरात् दिशेदिशयास्यति । आचार्यःप्रोक्तंपरमेश्वरि ! भवितव्यपरं त्वंश्रवतुरुधिरंनिवारय ? देव्याप्रोक्तंघृतघटेनदधिघटेनइक्षुर घटेनदुग्धघटेनजलघटेन कृतोपवासत्रययदा भविष्यति तदा अष्टादशागोत्रमेलंकुरु तेमी तातहडगोत्रं, बापणागोत्रं, कर्णाटगोत्रं, चलहगोत्रं, मोराक्षगोत्रं, कुलहटगोत्रं, विरहटगोत्रं, श्री श्रीमालगोत्रं, श्रेष्ठिगोत्रं, एतेदक्षिणबाहु, सुचंतीगोत्रं, आइचणागगोत्रं, भूरिंगोत्रं, भाद्रगोत्रं, चींचटगोत्रं, कुंभटगोत्रं, कनउजयागोत्रं, डिंडभगोत्रं, लघुष्ठिगोत्रं, एतेवामवाहुस्नात्रंकर्तव्यं नान्यथाऽशिवो, शान्तिर्भविष्यति । मूल प्रतिष्ठानंतरं वीरप्रतिष्ठादिविसातीते शतत्रये ३०३ अनेहसि ग्रंथियुगस्य वीरोरस्थस्य भेदोऽजनि दैवयोगात् । -'उपकेशगच्छ पट्टावली" २०० Jain Em o n International Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास an Education International उपकेशपुर स्थित स्वयंभू महावीर की मूर्ति के वक्ष स्थल पर दो ग्रन्थियों थी उसको कई खुलक श्रावकों ने सुत्रधार को बुलाकर टाँकी लगाई कि उस स्थान में रक्त की धारा बहने लगी। पृष्ठ ३८९ आचार्य कक्कसूरि के अध्यक्षत्व में शान्ति स्नात्र पढाइ जिसमें अठारह गौत्र वाले स्नात्रिये बने थे । अतः सब नगर में शीघ्र शान्ति हो गई। पृष्ठ ३१२ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २६४ एक समय किसी सामाजिक कार्य के लिये वृद्ध लोग किसी एक स्थान पर एकत्र हुए थे, बस युवकों ने मौका देख कर एक सुधार को द्रव्य का लोभ देकर बुलाया और प्रस्तुत मूर्ति की पंथियां काट ने को कहा । बिचारे अबोध सुधार ने द्रव्य के लालच में आकर ज्यों ही उन प्रथियों को तोड़ने के लिये टाँकी लगाई त्यों ही टाँकी के लगते ही मूर्ति के उस स्थान से रक्त की धारा बढ़ने लगी । बस सुधारतो वहीं गिर पड़ा और गिरते हो उसके प्राण छूट गये । देखते २ मूल गम्भारा रक्त से भर गया । इस दुर्घटना को देखते ही भयभीत होकर नवयुवक वहां से पलायन कर गये । जब इस बात का पता नगर में एवं बुजुगों को लगा तो उन लोगों ने बड़ा ही अफसोस किया कि उन नादान नवयुवकों को इतने समझाये पर आखिर उन ज्ञानियों ने गाठे तोड़ा कर मूल प्रतिष्ठा का भंग करके अनर्थ कर ही डाला । 1 मूर्ति के टॉकी लगने से वहां की अधिष्ठात्री देवी सच्चायिका को बड़ा भारी गुस्सा आया और वह नगर वासियों पर कुपित हो गई। बस फिर क्या था नगर भर हाहाकार मच गया, दिशायें भयंकर दिखने लगों, नगरवासियों के चेहरे फीके पड़ गये। मंदिर में जा के देखा तो ज्ञात हुआ कि मूर्ति में से रक्त की धारा निरंतर बह रही है, अनेकों प्रयत्न करने पर भी रक्त धारा रुकने का कोई उपाय सफल नहीं हुआ । एक पट्टावली में यह भी लिखा मिलता है कि उस समय उपवेशपुर में कई मुनिराज ठहरे हुए संघ अमेश्वर चलकर मुनियों के पास गये और वंदन करके वहाँ के सब हाल कहकर मुनिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! नादान नवयुवकों ने मूर्खता के कारण ऐसा जघन्य कार्य कर डाला है पर अब आप कृपा करके ऐसा उपाय बतलावें कि यह रक्त धारा बन्द हो जाय । मुनियों ने उत्तर दिया कि यह कार्य हमारी शक्ति के TET का है इसके लिये हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं। यदि आपको कार्य करना ही है तो हमारे पूज्य आचार्य श्रीककसूरिजी महाप्रभाविक व चमत्कारी हैं उनको शीघ्नातिशीघ्र बुलाओ । वरना यह कार्य दूसरे किसी से बन नहीं सकेगा । पर यह क्या खबर कि आचार्यजी कहाँ विराजते होंगे ? मुनियों ने कहा कि मांडव्यपुर, श्राबू या गिरिनार की गुफाओं में कहीं ध्यान करते होगे । इस पर राजा जैत्रसिंह आदि श्रीसंघ ने एक विनती पत्र लिखा जिसमें वहां का सब हाल लिख कर शीघ्र पधारने की प्रार्थना की थी । तथा इस विषय में उनके गच्छ चरित्र में भी उल्लेख मिलता है 1 + + एवं व्यतीतमनिषुगच्छेऽस्मिन्सूरिषुक्रमात् । कक्कमूरिगुरुर्जज्ञे विज्ञवर्ण्यगुणाश्रयः ॥ तत्रावतिगणेशत्वं, केचनश्राव कानवाः । वीरोरसिग्रंथियुग्मं वीक्ष्यासन् दून मानसाः ॥ स्थविराणं पुरः प्रोचुर्गन्थियुग्मं प्रभु रसः । कुशोभाकारिपूजायां, कथंभो ! नापसार्येते ॥ माहुर्न पुनर्वाच्य, मिदंवाचाऽपिबालिशः । तदारत्नप्रभाचार्यै र्नोत्सारितमिदंयतः ॥ किं सूत्रधारा न तदा, सम्पत्तिर्नधनस्य वा । विचिन्त्य पूज्यैर्यद्येतत्, स्थापितं स्थापितं च तत् ॥ देवता निर्मितं विम्बं टङ्कघातं किमर्हति । मूलप्रतिष्ठाभङ्गश्च स्यादेवंविहितेजड़ाः || शिक्षिता अपि तैरेव, छन्नं सूत्रभृतं धनैः । प्रलोम्यभोजनोर्द्धते, तंलात्वाऽगुर्जिनालये || टंकै सन्तक्षितं यावत्, ग्रन्थि युग्मं ततोद्वयात् । निःसृते रक्तधारेद्राक्, सूत्रधारोममार च ॥ न तिष्ठति ततोक्तं, निःसरत्कथमप्यथ । विज्ञायोपासकाः सर्वेऽमिलन्नत्यन्तदुःखिताः || ३९१ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १३६ वर्ष । [ भगवान पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास एक आदमी को पत्र देकर शीघ्रगामिनी औष्ट्री ( ऊँट ) द्वारा भेज दिया और कह दिया कि पहले मांडव्यपुर तलाश करना, न मिलने पर पाबू जाना इत्यादि । सवार रवाना होकर मांडव्यपुर पहुँचा, तलाश करने पर भाग्यवशात् सूरिजी वहीं मिल गये । श्रीसंघ का विनती पत्र पढ़कर बड़ा ही अफसोस किया पर भवितव्यता को कौन मिटा सकता है ? तब सूरिजी भाकाश गामिनी विद्या से केवल एक मुहूर्तमात्र में उपकेशपुर पधार गये । वहाँ के हाल देख सूरिजी ने संघ अग्रेश्वरों के साथ अष्टम तप किया। तीसरे दिन की रात्रि में देवी सूरिजी के पास आई पर उस समय उसके कोप का पार नहीं था, यही कारण था कि सूरिजी नगर में आये पर देवीजी को इतना भी भान नहीं रहा कि वह तीन दिनों में सूरिजी महाराज की सेवा में नहीं आ सकी । जिस समय देवी आई है उस समय क्रोध के कारण विनय व्यवहार को भी भूल गई । सूरिजी ने कहा :--"देवीजी ! जो भवितव्यता थी वह बन चुकी, अब प्रकोप करने में क्या लाभ है अब तो इसके लिये शान्ति का प्रयत्न करना ही अच्छा है।" देवी क्रोधातुर होकर बोली:--प्रभो ! इस नगर के लोग बड़े ही मूर्ख हैं कि पूज्याचार्य रत्नप्रभसूरि की कराई हुई प्रतिष्ठा का भंग कर दिया । यदि यह मूर्ति थी वैसी ही रहती तो इस महाजनसंघ का खूब अभ्युदय होता, पर इनकी तकदीर ही ऐसी थी । मूर्ति के टॉकी लगाने से भविष्य में इस महाजनसंघ में फूट पड़ेगी, कोई भी कार्य शांति एवं मिल जुल के नहीं होंगे क्लेश कदामह का तो यह घर हो बन जायगा, तन धन से भी हानि होगी, इधर-उधर ये भ्रमण करते रहेंगे, इनका भविष्य अच्छा नहीं रहेगा।" सूरिजी:-'देवीजी ! ज्ञानियों ने जो जैसा भाव देखा है वैसा ही होगा, परन्तु अब आप पहले रक्तचारा बन्द करें और इसकी शान्ति का उपाय बतलावें।" इसमें ही सबका कल्याण है। देवी:-"पूज्यवर ! आप तो शांति की कहते हैं पर मैं इन दुष्ट पापियों का मुंह तक देखना नहीं चाहती हूँ। ये लोग यहां से अपना मुँह लेकर चले जॉय तो भी अच्छा हो।" सूरिजी:-- "देवी ! जरा शांत होकर विचार करें कि यदि यह संघ इस नगर को छोड़ कर चला जायगा तो पीछे रहेगा क्या ? और ये जो इतने मंदिर मूर्तियां हैं इनकी सेवा पूजा कौन करेगा ? दूसरा तो क्या पर आपकी भी सेवा पूजा कौन करेगा ? हाँ मनुष्य तो अज्ञानी हैं क्रोध के मारे अपना मान भूल जाते है पर आश्चर्य है कि देवता भी क्रोध के वश अपना मान भूल जाते हैं । भला देवीजी ! जरा सोचिये कि यह अपगध चंद व्यक्तियों ने किया है या सब नगर ने ? यदि चंद व्यक्तियों ने किया है तो सब नगर पर इतना कोप क्यों ?" इत्यादि नरम गरम वचनों से सूरिजी ने देवी को उपदेश दिया। उपायान् विविधांश्चक्रूरक्तावष्टम्भ हेतवे । नोपरेमे परं श्राद्धा, स्ततोव्याकुलतांगताः ॥ श्री माण्डव्यपुरे प्रेषीत्सविज्ञप्तिकमौष्ट्रिकम् । सङ्घश्रीककसूरीण, माकारण कृतेरयात् ॥ सूरयोऽपि समाजग्मुः, कृतवन्तोऽष्टमंतपः । आविर्भूयगरुनूचे, साक्षाच्छासनदेवता ॥ प्रभो न भव्यं विदधे, श्रावकैमूहबुद्धिभिः । भङ्गोमूलप्रतिष्ठाया, यदयंसमजायत ॥ परस्परं तत्पौराणं, विरोधोभविताऽधुना । दिशोदिशं प्रयोस्यन्ति, लोका दारिद्रय पीड़िताः ।। पुर भुङ्गोऽपि सम्भावी, कि यद्भिर्वासरै रिति । नाभविष्यत्तदभङ्ग, मभविष्यदिदंसदा ॥ सूरि प्रोवाच यद्भाव्यं, कर्मयोगेनदेहिनाम । तदन्यथाविधातुंनो, शक्तादेवासुराअपि ॥ २० Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ औसवाल संवत् २६४ ___ इस पर देवी कुछ शांत होकर कहने लगी:-पूज्यवर ! आपका कहना तो ठीक है पर इस प्रकार की मूर्खता पर मुझे बहुत गुस्सा आ गया। यदि आप इस प्रकार कहते हैं तो आपश्री के वचन मुझे स्वीकार करने ही पड़ेंगे । अब मैं आप से इसकी शांति विधि बतलाती हूँ। + "दूध, दही, घृत, जल, चंदन, कुंकुंम, श्रीफल, पुंगीफल-खारक बादाम औषधी वगैरह १०८, १०८ प्रमाण में लेकर स्नात्र की विधि और बलबाकुल एवं मंत्रों द्वारा मूर्ति का स्नात्र महोत्सव करावें और श्रीसंघ चौवीहार अष्टम तप इस करे, विधि को करने से रक्त धारा बंद हो जायगी और नगर में पुनः शांति भी हो जायगी, परंतु इस प्रकार की विधि पहले अन्य स्थानों में न कर महावीरमंदिर में ही करवाई जाय । हाँ बाद में काम पड़ने पर तो दूसरे मंदिरों में भी करवाई जा सकती है।" इत्यादि कह कर देवी तो अदृश्य हो गई। ___ सुबह सूरिजी महाराज ने सकल श्रीसंघ के सामने जो खास तौर पर कहने योग्य बातें थीं वे कहदी और श्रीसंघ ने अष्ठम तप का पारण करके स्नात्र की सब सामग्री एकत्र की और सूरिजी के साथ सकल श्रीसंघ ने पुनः अष्टमतप कर देवी की बतलाई हुई विधि अनुसार सब सामग्री लेकर सूरिजी के साथ सकल श्रीसंघ भगवान महावीर के मंदिर में आये वहाँ पर उपकेशवंश के अठारह गोत्र वाले स्नान करके स्नात्रिये बने । जैसे ( १) तातेड़गोत्र ( २) बाफणागोत्र ( ३) कर्णाटगोत्र ( ४ ) क्लहागोत्र (५) मोरक्षगोत्र (६) कुलहटगोत्र (७ ) विरहटगोत्र ( ८ ) श्रीश्रीमालगोत्र (९) श्रेष्ठिगोत्र-इन नौ गोत्रों वाले स्वात्रिय प्रभु के दक्षिण की ओर पूजा सामग्री हाथ में लिये खड़े थे। (१) संचेतीगोत्र (२) आदित्यनागगोत्र (३) भूरिगोत्र (४) भाद्रगोत्र (५) चिंचटगोत्र (६) कुंभटगोत्र (७) कनौजियेगोत्र (८) डीडूगोत्र (९) लघुश्रेष्ठिगोत्र । इन नौ गोत्रों वाले स्नात्रिय प्रभु के बाँ ई ओर जल, पुष्प, फल चंदन आदि पूजा की सामग्री लिये खड़े थे । आचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराज ने जैसे जैसे मंत्राक्षर उचारण करते गये वैसे वैसे वीरप्रभु की प्रतिमा का अभिषेक होता गया तथा जैसे जैसे पूजा होती गई वैसे वैसे अनुपात से रक्त धारा बंद होती गई। पूजा संपूर्ण हो गई तो रक्तधारा बिलकुल बन्द हो गई अतः उपकेशपुर के घर घर में धवल मंगल एवं हर्षध्वनि उद्घोषित होने लगी । आचार्यश्री की अनुप्रह कृपा से देवी का कोप भी शांत हो गया। तत्प्रसद्यस्रवद्रक्त, शक्तयादेवि निवीरय । तथाऽऽदिश यथा किंचित्, शुभं भवति सम्प्रति ॥ देवीजगादभगवन्नतः परमयंविधिः । श्रीवीरस्नपने कार्यो, न कार्यस्नात्रमन्यथा ॥ द्रोणएकोबकुलानां, विधेयोबलिहेतवे दधिदुग्धाज्य खण्डानां, सर्वोषध्याघटैभृतैः ।। चतुर्विधेनसंघेन, कृत्वाशुद्धाष्टमंतपः । अष्टादशैवसंमील्य, गोत्राणां मुख्यपूरुषान् ॥ विधिनाऽनेनवीरस्य, स्नानं कारयताऽधुना । संतिष्टते यथारक्त, भविष्यति शुभंपुनः॥ पश्चादपिप्रभोऽनेन, विधिना स्नपनोत्सवः । विधातव्योऽस्य वीरस्य,न कदाऽपि यथा तथा ॥ इत्युक्त्वासातिरोधत्त, तत्क्षणाच्छासनामरी | गुरवोऽपिसमाकार्य, संघसर्वमचीकथन् ।। स्नानं तथैव देव्युक्त- विधिना समचीकरोत् । रहितस्म ततो रक्त, शुभंचाऽभवदुच्चकैः ।। + पट्टावली नं. ४ में लिखा है कि देवी ने श्री सीमंघर स्वामि के पास जाकर शांति विधि पूच्छी थी और जिसका उत्तर में श्रीतीर्थकर देव ने जो शांति विधि के लिए फरमाया तदानुसार देवी ने सूरिजी को कहा। ww38Zorary.org Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० पू० १३६ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास __ इस घटना का समय मूल प्रतिष्ठा ( वीरात् ७० वर्ष ) से तीन सौ तीन वर्ष का अर्थात वीरात् ३७३ वर्ष का था। भवितव्यता टारी नहीं टरती है कि महाजनसंघ के अभ्युदय में इस प्रकार का रोड़ा आ खड़ा हुआ। परन्तु इसका उपाय ही क्या था, कारण ज्ञानियों ने यही भाव देखा था । महाजनसंघ का जैसा उदय ३०३ वर्षों में हुआ था वैसा बाद में नहीं हुआ। प्राचार्य ककसूरिजी महाराज ने कई दिन वहाँ विराजमान रह कर जनता को धर्मोपदेश सुनाया। यद्यपि उपकेशपुर नगर में उपद्रव की शान्ति तो गई थी पर फिर भी राजा प्रजा की इच्छा थी कि सूरिजी महाराज चातुर्मास यही करें, तो अच्छा रहेगा इत्यादि अतः श्री संघ ने सूरिजी महाराज से साग्रह विनती की और लाभा लाभ का कारण जान कर सूरिजी महाराज ने श्रीसंघ की विनति स्वीकार करली अतः वह चातुर्मास उपकेशपुर में ही किया । __ आपश्री के विराजने से वहाँ की जनता ने यथा शक्ति बहुत लाभ प्राप्त किया। कई भावुकों ने सूरिजी के पास जैन दीक्षा भी ली । चातुर्मास के बाद सूरिजी के प्रभावशाली उपदेश से उपकेशपुर के श्रादित्य नाग गोत्रीय स्वनामधन्य शाह आशल ने श्रीशजय का संघ निकाला। सूरिजी महाराज भी संघ में पधारे वहाँ की यात्रा कर सूरिजी ने अपने योग्य शिष्य मुनि देवसिंह को अपने पद पर सूरि बना कर उनका तदादिमज्जनविधि, रेवं प्रववृते सदा । देव्यादेशो गुरुक्तंच, कथंस्यादन्यथाकिचित् ॥ वीरस्यदक्षिणो बाहौ, नववामे नवक्रमात् । अष्टादशापि गोत्राणि, तिष्ठन्त्यत्र क्रमोघम ॥ तप्तभटो बप्पनाग, स्ततः कर्णाट गौत्रजः । तुर्यो बालम्य नामापि, श्रीमालः पंचमस्तथा ॥ कुलभद्रो मोरिषश्च, भिरिहिद्याह्ययोऽष्टमः । श्रेष्ठीगोत्राण्य मून्यासन, पक्षे दक्षिण संज्ञके ॥ सुचिंतिताऽऽदित्य नागौ, भोरो भाद्राथ चिंचिटिः । कुभटः कन्यकुब्जोथ, डिंडुभाख्योऽष्टि मोपि च ॥ तथान्यः श्रेष्ठि गोत्रीयो, महावीरस्य नामतः । नव तिष्ठन्ति गोत्राणि, पंचामृत महोत्सवे ॥ वीर प्रतिष्ठा दिवसादतीते, शतत्रयेऽनेहसि वत्साराणाम् ॥ त्रिभिर्युते गन्थि युगस्य वीरो, रः स्थस्य भेदोऽजनि दैव योगात् ।। ___इन १८ गोत्रों के अलावा उपकेशपुर में कितने गोत्र वाले बसते थे क्यों कि इतना दीर्घ समय अर्थात् ३०० वर्ष में और भी कई गोत्र अवश्य बन गये होंगे तथा उपकेशपुर के अलावा अन्य प्रदेशों में भी लाखों जैनी बसते थे, उनके भी कई गोत्र बन गये होंगे पर इन बातों को जानने के लिये हमारे पास इस समय कोई भी साधन नहीं है। हाँ इस समय के बाद कई गौत्रों का पता अवश्य मिलता है जिनको हम आगे के पृष्ठों में लिखेंगे। __"कई लोग कहते हैं कि ओसियाँ में ओसवाल रात्रि में नहीं रह सकते हैं इसका यही कारण है कि देवी का कोप हुआ था । पर यह बात बिल्कुल निराधार है कारग उपद्रव का समय वि० पू० ९७ वर्ष का है तब विक्रम की बारहवीं शताब्दी तक तो ओसियाँ में महाजनों की घनी बस्ती थी जिसके प्रमाण हम पहले लिख आये हैं तथा विक्रम की तेरहवीं बताब्दी में ओसियाँ पर यवनों का आक्रमण हुआ था उस समय बहुत से लोग ओसियाँ को त्याग कर अन्य स्थानों में जा बसे थे तथापि विक्रम की चौदहवीं पन्द्रहवीं शताब्दि में वह थोड़े बहुत प्रमाण में महाजनों की बस्ती होने के प्रमाण मिल सकते हैं । अतः यह बात गलत है कि ओसियाँ में ओसवाल नहीं रह सकते हैं । यदि कोई रहना चाहे तो वे आज भी खुशी से रह सकते हैं। लेखक Jain Educe international Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३२१ नाम देवगुप्रसूरि रख दिया। श्रीसंघ यात्रा कर वापिस लौट आया। आचार्य कक्कसूरिजी महाराज श्रीसेद्धाचल की शीतल छाया में रह कर अन्तिम सलेखना करने में सलग्न हो गये । आचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराज महान प्रतिभाशाली एवं लब्ध सम्पन्न होने से अपने जीवन में जैनधर्म की खूब उन्नति की। और अन्त में आप श्रीमान आबू गिरिराज की यात्रार्थ पधारे और वहाँ की गेहन केन्द्राएं में रह कर परमनिर्वृति में ध्यान कर रहे थे। जब आप अपने योग बल से शेष आयुष्य को जान लिया तो अपने सेवा करने वाले साधुओं को कह दिया कि अब मेरा आयुष्य केवल १८ दिन का है मुझे अनशन ब्रत करवा दें बस । सूरिजी अनशन व्रत धारण कर लिया इस बात की खबर होते है चन्द्रावती शिव पुरादि अनेक नगरों के लोग सूरिजी के अन्तिम दर्शनार्थ आये और अनेक प्रकार के त्याग वैराग्य भी किये अन्त में वीर संवत् ३९१ अक्षय तृतीय के दिन आप परम समाधि पूर्वक काल कर स्वर्ग में अवतीर्ण हुए । उपस्थित श्री संघ ने बड़े ही रंज के साथ आपका निर्वाण महोत्सव किया और परिनिर्वाणार्थ का योस्सर्गादि विधिविधान कर आपश्री के जीवन के शुभ कार्यों का अनुमोदन किया। पट्ट तेरहवें लब्धि सम्पन्न ककसू रि शुभ नाम था । जैन बनाना शान्ति करवाना यही आपको काम था । उपकेश में उपद्रव हुआ जब संघने इन्हें बुलाया था। अष्टम तप करने से देवी आ कर शीश झुकाया था । पूज्यवर ! इन मूर्ख लोगों ने शुभ प्रतिष्ठा भंग किया। टाँकी लगा कर ग्रन्थी छेदाई जिसका ही ये फल लिया । भवितव्यता टारी नहीं टरती रक्त धारा अब बन्द करो। विधि बतलाई वृहद् शान्ति की सब मिल उसे जल्दीकरो ॥ तातड़े बाफना बलह कर्णावट श्रीमाल कुल मोरख थे। विरहट श्रेष्टि गौत्र ये नव दक्षण दिश में सुरक्षक थे ॥ संचेती आदित्यनाग भूरि भाद्र चिंचट कुमट कनोजिये थे। डिडू लघुश्रीष्टि ये नव वामेदिश पंचामृत लिये थे । मंत्राक्षर और क्रिया विधि से शान्ति स्नात्र पढ़ाई थी। कृपा थी गुरुवर की जिसमें शान्ति सर्वत्र छाई थी। ऐसे सद्गुरु के भक्तजन शुद्ध मन ध्यान लगाता है। इस लोक और परलोक में मन वाच्छित फल पाता है । इति भगवान पार्श्वनाथ के तेरहवें पट्टधर आचार्य श्रीकक्कसूरिजी शासन के उद्योतक हुए। ३९५ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ७९ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १४ - - याचार्य श्री देवगुप्त सूरि ( द्वितीय ) आचार्यस्तु स देव गुप्त सूरिरभवद्गेत्रस्य भूषा सुधीः । श्रेष्टी श्रेष्ट गुणान्वितो बहुतरैः कान्ति प्रतानैवृर्तः || भ्रमं भ्रामक देश विषये निर्माय जैनेत्तरन् । जैनान् जनमतस्य वर्धन परो वन्द्यौ विभूतिः सदा || प्राचार्य देवगुप्त सूरि- - आपका गृहस्थ जीवन बड़ा ही चमत्कारी घटनापूर्ण था। पट्टावलीकारों ने लिखा है कि उपशपुर के राजा उत्पलदेव की सन्तान परस्परा में धर्मवात्सल्य लक्ष्मी मे कुबेर की स्पर्द्धा करने वाला श्रेष्ट गौत्रीय राव करत्था था । आपका संसार जीवन एक राजस्वी ठाठ वाला था, आपके ११ पुत्र होने पर भी कोई पुत्री नहीं थी जिसकी रावजी सदैव प्रतीक्षा कर रहे थे। इतना ही क्यों पर केवल एक पुत्री की गरज से रावजी ने अपनी दूसरी शादी बाप्पनागगोत्रीय राव देपाल की सुशील कन्या कुमारदेवी के साथ कर ली, पर लिखित लेखों को कौन मिटा सकता है ? एक दिन कुमारदेवी ने स्वप्न के अन्दर रत्नादि से चमकता हुआ देवविमान देखा, तदानुसार कुमारदेवी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया और उसका शुभ नाम देवसिंह रखा गया । माता पिता ने देवसिंह का भली भांति लालन पालन किया। बच्चों के अच्छे या बुरे संस्कार पड़ना उनके माता पिताओं पर निर्भर है। बचपन के संस्कार तमाम जिन्दगी भर स्थिर रहते हैं। इतना ही क्यों पर माता पिता के आचरणों की भी उनके बाल बच्चों पर गहरी छाप पड़ जाती है । राव करत्था और उनकी भार्या दोनों सदाचारी एवं धर्मज्ञ एवं देव गुरु के पूर्ण भक्त थे । जब वे मन्दिर उपाश्रय जाते थे तब अक्सर देवसिंह को भी साथ ले जाते थे । अतः देवसिंह के बचपन से ही धर्म के सुन्दर संस्कार जम गये। जब देवसिंह आठ वर्ष की उम्र को अति क्रमण कर गया तो उनके माता पिता ने उनके विद्याध्ययन का अच्छा प्रबन्ध कर दिया। राब करत्था अच्छी तरह से जानता था कि मनुष्य का जीवन व्यवहारिक ज्ञान के साथ साथ धार्मिक ज्ञान से ही सुखमय बनता | अतः अपने पुत्र को व्यवहारिक ज्ञान के साथ धार्मिक अभ्यास भी करवाया करता था । देवसिंह ने पूर्व में ज्ञान पद की आराधना खूब भक्ति के साथ की होगा कि अपने सहपाठियों से हमेशा अप्रेश्वर रहता यों कहा जाय तो देवसिंह ने थोड़े ही समय में अच्छा ज्ञान हासिल कर लिया । देवसिंह अपने माता पिता तो क्या पर एकादश वृद्ध भ्राताओं का भी विनय करने में अपनी योग्यता का ठीक परिचय करवा देता था । उसी समय का जिक्र है कि श्रीसंघ के प्रबल पुन्योदय से महा भाविक एवं अनेक लब्धियों से परिपूर्ण श्राचार्य कक्कसूरिजी महाराज का शुभागमन उपकेशपुर में हुआ जिनकी जनता कई अर्से से प्रतीक्षा कर रही थी । राजा एवं प्रजा ने मिल कर सूरिजी महाराज का नगर प्रवेश बड़ी ही धूमधाम एवं समारोह से करवाया। सूरिजी भगवान् महावीर की यात्रा कर उपाश्रय में पधारे और धर्म जिज्ञासुओं को थोड़ी पर सारगर्भित धर्म देशना इस प्रकार से दी कि उपस्थित जनता पर खूब ही प्रभाव पड़ा । है जन्म था, ३९६ Jain Education international Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३२१ ___ सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर हुआ करता था और जनता आपके उपदेशामृत का बड़े ही उत्साह से पान कर आनन्द को प्राप्त होती थी। राव करत्था तथा आपकी पत्नी कुमारदेवी और देवसिंह बेना नागा निरन्तर सूरिजी की सेवा उपासना करते एवं व्याख्यान सुनाते थे। देवसिंह की तत्त्वज्ञान की ओर अधिक अभिरुचि होने से वह व्याख्यान के सिवाय अन्य टाइम में भी सूरिजी के पास आया करता था और आत्म कल्याण की भावना से ज्ञानास्यास भी किया करता था । सूरिजी ने देवसिंह के उत्तम लक्षणों एवं हस्तरेखा वगैरह से यह अनुमान लगाया कि यदि ऐसा होनहार भव्यात्मा यदि दीक्षा ले तो स्वकल्याण के साथ अनेकों का कल्याण कर शासन की प्रभावना एवं उन्नति कर सकता है। ____ एक दिन सूरिजी ने मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री का व्याख्यान करते हुए फरमाया कि अव्वल तो इस प्रकार शुभ सामग्री मिलना ही मुश्किल है यदि किसी भव में किये हुए शुभकर्म के उदय मिल भी जाय तो उसका सदुपयोग कर आत्म कल्याण करना तो और भी कठिन है। श्रोताओ ! मनुष्य की तीनावस्थाएं होती हैं जसमें मुख्य बालावस्था ही हैं इस अवस्था में प्रारम्भ किया हुआ धर्म कार्य विशेष कल्याणकारी होता है उदाहरण के तौर पर लीजिये यदि कोई उदार पुरुष अपने अमूल्य रत्नादि खजाना के लिए ऐसा ऑर्डर करदे कि एक घंटा भर के लिये जितना द्रव्य लेना हो ले लीजिये ? क्या समझदार इस सुअवसर को हाथों से जाने देगा ? नहीं। पर कोई व्यक्ति यह विचार करें कि मैं कुछ देर से जाकर द्रव्य ले आऊंगा। पर उस प्रमादी के लिये टाइम निकल जाने के बाद द्रव्य हाथ आ सकता है ? नहीं हर्गिज नहीं। सूरिजी ने इस उदाहरण से यह बतलाया कि रत्रों के खजाने सदृश तो बाल्यावस्था है, क्यों कि बाल्यावस्था से धर्माराधन में लग जाय तो तप संयम ब्रह्मचर्य्य ज्ञान ध्यानादि की वह पूर्णतया अाराधन कर सकता है। दूसरी मध्यम अवस्था में भी संसार से विरक्त हो मोक्ष मार्ग की साधना करे तो रत्न नहीं पर स्वर्ण के खजाने के तुल्य कहा जा सकता है और वृद्धावस्था तो चांदी के खजाने के सदृश्य ही रह जाता है, पर इस प्रकार की सामग्री प्राप्त होने पर भी आलस्य प्रमाद एवं विषय विकार में जिन्दगी समाप्त कर देता है उसको न तो धर्म की आराधना का लाभ मिलता है और न वह भविष्य में ऐसी सामग्री ही पा सकता है। अतः बुद्धिमानों का क्या कर्त्तव्य है उसको खूब गहरी दृष्टि से आप स्वयं को सोचना चाहिये इत्यादि । बस, जिन जीवों का उपादान कारण सुधरा हुआ होता है तो उनके लिये थोड़ा सा निमित्त कारण भी महान प्रभावकारी हो जाता है । देवसिंह ने सूरिजी के वचनों को सुनकर निश्चय कर लिया कि सूरिजी महाराज का कहना सोलह आना सत्य है । जीव ने अनन्त बार जन्म लिया और मर भी गया पर धर्म की आराधना नहीं की जिससे ही संसार में परिभ्रमण कर रहा है आत्म कल्याण के लिये सामग्री की आवश्यकता है वह इस समय सबकी सब प्राप्त हो गई है अब इसमें प्रमाद करना एक प्रकार की बड़ी से बड़ी भूल है इत्यादि देवसिंह के हृदय में अनेक लहरें एवं तरंगें उठने लगी खैर, व्याख्यान खतम होने पर देवसिंह अपने मकान पर आगया और अपनी माता से कहा क्यों माता आज आपने प्राचार्यजी का व्याख्यान सना है न ? माता-हाँ बेटा, आज क्या मैं तो हमेशा ही व्याख्यान सुनती हूँ। बेटा-फिर आपने व्याख्यान का क्या सार ग्रहण किया ? माता-बेटा सार क्या, सामयिक पौषध उपवासादि धर्म कार्य करते रहना । बेटाहाँ, यह तो ठीक है पर इससे जल्दी कल्याण नहीं होता है । जैसे किसी व्यापारी के दस रुपये का हमेशा .३९७ www.jainerbrary.org Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ७९ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास खर्चा है और वह एक दो रुपये कमा भी ले तो उसका घाटा पूरा नहीं होता है । उस खर्च के लिये तो उसको दो रास्ते सोधने होंगे या तो खर्च बिल्कुल बन्द करदे या पैदास को बढ़ावे । माता- बेटा ! मैं तेरी इन बातों को नहीं समझ पाई हूँ कि तू क्या कह रहा है ? बेटा - माता ! मैं कह रहा हूँ कि जीव के अनादिकाल के कर्म लगे हुये हैं और पाप रूपी कार्य करने से और भी कमों का संचय हो रहा है अतः पापारंभ करता हुआ थोड़ा बहुत धर्म कार्य साधन कर भी ले तो उससे वह घाटा पूरा नहीं हो सकता है। बल्कि घाटा और बढ़ता जा रहा है। माता ने | मुसकरा कर कहा- बेटा संसार में पापारंभ तो होता ही है और जब तक घर में बैठे रहे। वहाँ तक इससे बच भी तो नहीं सकते हैं । यदि तू कुछ उपाय जानता हो तो बता । बेटा- - माता यदि पापारंभ से नहीं बच सके तो इस जीव का कल्याण कैसे हो सकेगा ? और केवल घर का ही कारण है तो ऐसे घर को छोड़ क्यों नहीं दिया जाय कि कर्म बन्धन का हेतु जो पापारंभ है उससे बच कर कल्याण साधन कर सके । माता घर तो अनंतोवार किया और छोड़ा पर धर्म की आराधना एक बार भी नहीं की अतः घर की परवाह न कर धर्माराधना करना ही अच्छा है जिससे घाटा से बच सके । माता - वाह बेटा ! यह तो अच्छी बात कही, क्या तू पागल तो नहीं हो गया है ? व्याख्यान तो सब नगर के लोग सुनते हैं और सब लोग तेरी तरह घर छोड़ दें तो यह नगर ही शून्य हो जायगा ? बेटा - माता ! मैं नगर की बात नहीं करता हूँ। और ऐसा बनना भी असम्भव है । मानो कि सब लोग चाहते हैं कि हम कोटाधीश बन जायें, पर सब लोग कोटाधीश बन नहीं सकते हैं। पर जिसके शुभ कमों का उदय होता है वही कोटाधीश बन सकता है । माता- - तो क्या एक तेरे ही शुभ कर्म हैं कि तु घर छोड़ने की बातें कर रहा हैं ? बेटा - हाँ माता ! यदि मेरे ऐसे शुभ कर्म उदय हो जांय तो मैं बड़ी खुशी मनाऊँगा । माता और पुत्र हँसी खुशी में बात कर रहे थे कि इतने में देवसिंह का पिता राव करत्या घर पर आ गया । देवसिंह की माता ने अपने पतिदेव से कहा आप अपने प्यारे पुत्र की बातें तो सुनिये यह क्या कह रहा है ? कारण आज आप ने भी व्याख्यान सुना है और यह भी व्याख्यान सुन श्राया है । पिता- क्यों बेटा ! तेरी मां क्या कहती है और तू क्या बातें करता है ? Jain EdQ बेटा - पिताजी ! व्याख्यान की बातें कर रहा हूँ । w पिता - व्याख्यान की क्या बातें हैं ? व्याख्यान तो सब लोग सुनते ही हैं । बेटा - - व्याख्यान सुनने पर अमल करने की बातें मैं माँ को सुना रहा हूँ । पिता - तू व्याख्यान की बातों पर क्या अमल करना कराना चाहता है ? माता -- हँस कर कहा कि आपका बेटा घर छोड़ना चाहता है और मुझे भी उपदेश देता है । पिता - क्यों बेटा ! क्या तेरी माँ जो कह रही है यह बात सत्य है ? बेटा - हाँ पिताजी, मेरी माँ का कपना सोलह आने सत्य है । पिता - तो क्या तू घर छोड़ के दिसावर जायगा या साधुओं के साथ ? बेटा - पिताजी साधुओं के साथ जाना भी तो एक प्रकार से दिसावर ही है । पिता- - पर अपनी मां को तो पूंछ ले कि यह तेरे साथ चलेगी या नहीं ? ०३९८ International Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तम्ररि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३२१ Annnnnny माता-पहिले आप तो अपने बेटे के साथ हो जाइये फिर मुझे पूछिये । पिता-लो मैं तो अपने बेटे के साथ हूँ अब तुम तो मेरे साथ रहोगी न ? माता-यदि आप अपने पुत्र के साथ हैं तो मैं आपके साथ होने में कब पिच्छे रहूँगी।। क्षयोपसम इसका ही नाम है । बात ही बात में तीनों जने घर छोड़ने को तैयार हो गये । पाठकों को इस बात का आश्चर्य होगा पर जिन जीवों का कल्याण होने का समय आता है तब साधारण कारण भी सफल हो जाता है । यहाँ तो माता पिता और पुत्र के वार्तालाप भी हुआ है पर ऐसे भी जीव होते हैं कि केवल एक एक वस्तु को देख कर भी वैरागी बन जाते है । देखिये जम्बु कुँवरादि का उदाहरण । जब तीनों घर छोड़ने को तैयार हो गये और इस बात का पता सूरिजी को मिला तो उन्होंने सोचा कि मेरी धारणा ठीक ही निकली । तया नगर में खबर होने पर सब नागरिकों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और कई लोग उस निमित कारण को पाकर उनका अनुकरण करने को भी तैयार हो गये। उपके रापुर के घर घर में यही बातें हो रही थी कि धन्य है देवसिंह को कि अपने १६ वर्ष की किशोर वय में संसार त्याग कर दीक्षा लेने को तैयार हुआ है इतना ही क्यों पर उसने तो अपने माता एवं पिता को भी दीक्षा के लिये तैयार कर दिये हैं विशेष धन्यवाद है श्राचार्य कक्कसूरिजी महाराज को कि आपका उपदेश हो ऐसा मधुर एवं प्रभावशाली है । जिससे अनेक भव्यात्माओं का कल्याण होता है । देवसिंह के इस वैराग्यमय कार्य को देख कर ३५ पुरुष ओर ६० महिलाएँ दीक्षा लेने को तैयार हो गये थे । राव करत्था ने अपना सर्वाधिकार अपने ज्येष्ठ पुत्र देपाल को सुपुर्द कर दिया और देपालादि भाइयों ने अपने माता पिता एवं लघु भ्राता की दीक्षा के निमित्त जिनमन्दिरों में अष्टान्हिकादि अनेक प्रकार से महोत्सव-पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि किये तथा वहाँ के राजा जैत्रसिंह आदि श्रीसंघ ने भी इस पवित्र कार्य में सहयोग देकर जिन शासन की उन्नति एवं प्रभावना में वृद्धि की । आचार्यश्री ने देवसिंह आदि मुमुक्षुत्रों को बड़े ही समारोह के साथ दीक्षा दे दी। अहा-हा उस समय उन भव्य जीवों के कैसे लघुकर्म थे कि थोड़ा सा उपदेश से ही वे अपने आत्मकल्याण की ओर अग्रेश्वर बन जाते थे और सुख सम्पति को तृण सदृश समझ कर त्याग कर देते थे और एक को देख कर अनेकात्माएँ बिना ही उपदेश उनका अनुकरण करने को तैयार हो जाते थे । अतः देवसिंह का प्रत्येक्ष उदाहरण देख लीजिये। मुनि देवसिंह पर सूरिजी महाराज की पहले से ही पूर्ण कृपा थी और उन के शुभलक्षणों से वे जान भी गये थे कि भविष्य में यह देवसिंह बड़ा ही प्रभावशाली होगा । देवसिंह की बुद्धि तो पहले ही कुशाग्र थी फिर सूरिजी की कृपा तब तो कहना ही क्या था मुनि देवसिंह सूरिजी का विनय भक्ति करता हुश्रा स्वल्प समय में सामायिक साहित्य का पूर्ण ज्ञान हासिल कर लिया और धुंरधर विद्वान बन गया तर्क युक्ति और व्याख्यान शैली तो आप की तुली हुई थी यही कारण है कि आप की बाणी रूप सुधापान करने को अनेक राजा महाराज भी हमेशा लालायत रहते थे बादी मानी पाखण्डी तो श्राप का नाम सुन ने मात्र से घबराते थे एवं मुंह छिपा कर दूर दूर भागते रहते थे इत्यादि मुनि देवसिंह के धैर्य गांभिर्य और शान्त प्रकृति आदि गुणों के ही कारण आचार्य कक्कसूरिजी ने पुनीत तीर्थ श्री सिद्धगिरि पर चिंचट गोत्रिय शाहनाथ समर्थ के महामहोत्सव के साथ देवसिंह को अपने पद पर प्राचार्य बना कर आप का नाम देवगुप्त सूरि रख दिया। ३९९ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ७९ वर्ष । [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य देवगुप्तसूरि महा प्रतिभाशाली एवं धर्म प्रचार आचार्य हुए । आप सूरि पद प्राप्त करने के पश्चात् आपने विशाल समुदाय का संचालन बड़ी कुशलता से किया और श्राप स्वयं अपने शिष्यों के साथ प्रत्येक प्रान्त में भ्रमण कर जैनधर्म का काफी प्रचार किया आप श्रीमान् एक बार दक्षिण की ओर विहार कर वहाँ की जनता को जैनधर्म का इस प्रक र उपदेश दिया कि हजारों लोग मांस मदिरादि र्दुव्यसनों को त्याग कर भगवान् महावीर के अहिंसा के झंडे की शरण ले अपना कल्याण किया। आचार्य कक्कसूरि के समय जो मुनि दक्षिण की ओर विहार किया था उन्होंने भी वहाँ जैनधर्म का खूब प्रचार किया और वे भी आवार्य देवगुप्तसूरि दक्षिण में पधारे है सुन कर सूरिजी को वन्दन करने को आये उन्हों के धर्मप्रचार को देख सूरिजी ने अपनी ओर से प्रसन्नता प्रकट की और योग्य साधुओं को पदवीयों से भूषित कर उनका योग्य सत्कार किया सूरिजी महाराष्ट्रीय एवं तिलंगादिक प्रान्तों में भ्रमण कर कई राजा महाराजाओं को जैनधर्म के उपासक बनाये । सूरिजी यह भी जानते थे कि जिस प्रान्त का उद्धार करना उसी प्रान्त के जन्मे हुए साधुओं पर निर्भर रहता है अतः सूरिजी ने जिस-जिस प्रतों के भावुकों को दीक्षा देते थे उन्हीं को उसी-उसी प्रान्तों में विहार की आज्ञा दे देते थे कि वे वहाँ की जनता का उद्धार आसानी से कर सकें। सूरिजी महाराज दक्षिण प्रान्त में भ्रमण करने के पश्चात आवंति प्रदेश में पधारे वहाँ की जनता को धर्मोपदेश सुना कर जैनधर्म में स्थिर करते हुए मेदपाट की ओर पधारे आप श्री का स्थान स्थान पर सुन्दर स्वागत एवं सत्कार होता था और आप की अमृतमय देशन सुन अपना कल्याण की भावना से वे लोग धर्माराधना में विशेष प्रयत्नशील बन जाते थे। तत्पश्चात् आप पुनः मरुधर में पदार्पण किया जननी जन्मभूमि की एवं उपकेशपुर स्थित भगवान् महावीर की यात्रा की और वहाँ कि धर्म पीपासु जनता को धर्मोपदेश सुनाया आप श्रीमानों के पधारने से मरुधरवासियों में धर्मोत्साह खूब बढ़ गया था कई भावुकों ने आपश्री के चरणकमलों में भगवती दीक्षा ग्रहण की और कई मन्दिर मूर्तियों की आपश्रीने प्रतिष्ठा भी करवाई । कहने की आवश्यकता नहीं है कि आपश्रीमानों तथा आपश्री के पूर्वजों ने मरुधर के बड़े-बड़े नगर ही नहीं पर छोटे २ गावड़ों में भ्रमण करने से जैनधर्म का काफी प्रचार हो गया था प्रत्येकग्रामों में जैनमन्दिर एवं जैनपाठशालों स्थापित होगये थे पर एक श्रीमालनगर ही ऐसा रह गया था कि वहाँ अभी वाममार्गियों की ही विशेष प्रबाल्यता थी आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने श्रीमालनगर के वासी राजा जयसेनारि ९०:०० घरवालों को जैनधर्म की दीक्षा दी थी पर बाद में धर्मद्वेष के कारण राजकुँवर चन्द्र सेन ने चन्द्रावतीनगरी बासा कर अपनी राजधानी कायम की थी और श्रीमालनगर का राजा भीमसेन ने धर्मान्धता के कारण जैनों को इतना कष्ट दिया कि श्रीमाल से सब के सब नगरवासी जैन श्रीमाल का त्याग कर नूतनबसी चन्द्रावतीनगरी में जा बसे । अतः श्रीमाल नगर के राजा प्रजादि सब लोग वाममार्गियों के ही उपासक रहे । बाद राजा भीमसेन का पुत्र उत्पलदेव ने उपकेश नगर बसा कर अपना नया राज स्थापन किया आचार्य रत्नप्रभसूरि के उपदेश से वह भी जैनधर्मोपासक बन गये पर श्रीमालनगर तो वाममगियों का केन्द्रही बना रहा। फिर भी उन लोगों के तकदीर ही ऐसे थे कि किसी जैनाचार्यों ने श्रीमाल नगर में जाने का साहस नहीं किया। __आचार्य देवगुप्तसूरि ने सुना कि भीनामाल नगर में एक वृहद यज्ञ का अयोजन हो रहा है और लाखों प्राणियों की बली भी दी जायगी इत्यादि । सूरिजी का हृदय उन प्राणियों की करुणा से इस कदर ४०० Jain Education international Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३२१ भर आया कि आपने श्रीमालनगर की ओर विहार करने का निश्चय कर लिया। यह केवल निश्चय ही नहीं था पर आपश्री ने तो कम्मरकस कर विहार ही कर दिया और क्रमशः चल कर भीनमाल पधार गये । जब इस बात की मालुम वहाँ के राजा तथा यज्ञाध्यक्षकों को हुई तो उन लोगों में बड़ी खलबली मच गई कारण मरुधर में यही एक नगर था कि जहाँ पर वे लोग अपनी मनमानी करने में स्वतन्त्र थे उन लोगों ने सूरिजी को कष्ट पहुँचाने में कुछ भी उठा नहीं रखा पर कितना ही वायु चले इससे मरू कभी क्षोभ पाने वाला नहीं था। सूरिजी महाराज ने अपने पूर्व आचार्य स्वयंप्रभसूरि श्रीरत्नप्रभसूरि और श्री यक्षदेवसूरि के कष्टों को स्मरण कर विचार किया कि धन्य है उन महापुरुषों को कि जिन्होंने सैकड़ों आफतों को सहन कर अनेक प्रांतों में जैनधर्म का मण्डा फहरा दिया था तो यह कष्ट तो कौनसी गिनती में गिना जाता है। खैर उन पाखण्डियों ने राजसत्ता द्वारा यहां तक तजबीज करली कि नगर में गोचरी जाने पर आहार पानी तक नहीं मिला । सूरिजी ने अपने साधुओं के साथ तपस्या करना शुरु कर दिया और प्रतिदिन श्राम मैदान में व्याख्यान देना प्रारम्भ कर दिया पर पाखण्डियों ने अपनी सत्ता द्वारा जनता को व्याख्यान में जाना मना करवा दिया इस हालत में सूरिजी राज सभा में जाकर व्याख्यान देने लगे। आखिर तो वहां मनुष्य बसते थे बहुत से लोगों ने जाकर राजा को कहा कि दरबार ! बात क्या है आपको निर्णय करना चाहिये ? पर गजा तो उन पाखण्डियों के हाथ का कठपुतला बना हुआ था। राजा ने उन कहने वालों की ओर कुछ भी लक्ष नहीं दिया अतः वे अपना अपमान समझ कर राजा और यज्ञबादियों से खिलाफ हो सूरिजी के पास में आये और सूरिजी से पूछने लगे कि महात्माजी ! धर्म के विषय में क्या बात है और आप क्या कहना चाहते हो ? सूरिजी ने कहा महानुभावो ! आप जानते हो कि साधु हमेशा निस्पृही होते हैं और बिना कुछ लिये दिये केवल जनता का कल्याण के लिये धर्मोपदेश दिया करते हैं। हम लोग घूमते २ यहाँ आय गये हैं और श्रीमालनगर से हमें कुछ लेना देना भी नहीं है केवल अज्ञान के वश जनता उन्मार्ग पर चल कर कर्मबन्ध करके दुर्गति में जाने योग्य दुष्कर्म कर रही है उनको सद्मार्ग पर लगा कर सुखी बनाने के लिये ही हमारा उपदेश एवं प्रयत्न है । आप स्वयं समझ सकते हो कि इस प्रकार असंख्य प्राणियों की घेर हिंसा करना कभी धर्म पुण्य एवं स्वर्ग का कारण हो सकता है ? इसमें भी इस प्रकार के दुष्कर्म को ईश्वर कथित बतलाना यह कितना अज्ञान । कितना पाखण्ड ।। कितना अत्याचार ।। इस पर भी आप जैसे समझदार लोग हाँ में हाँ मिला कर इन निरापाध मूक प्राणियों की दुराशीष में शामिल रहते हो पर याद रखिये किसी भव में वे मूक प्राणी सबल हो जायगे और आप निर्बल होंगे तो वे अपना बदला लेने में कभी नहीं चूकेंगे इत्यादि सूरिजी ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा इस प्रकार निडरता पूर्वक उपदेश दिया कि उन सुनने वालों के अज्ञान पटल दूर हो गये जैसे प्रचण्ड सूर्य के प्रकाश से बदल दर हट जाते हैं। पृच्छक लोगों ने सूरिजी के निस्पृही निडर निर्भयऔर सत्य वचन सुन कर दाँतों के तले अंगुली दबाते हुए विचार करने लगे कि महात्माजी का कहना तो सत्य है और पूर्व जमाना में एवं महाराजा जयसेन के समय भी इस यज्ञकर्म का विरोध हुआ था और आखिर राज यज्ञ करना बन्द कर अहिंसाधोपासक बन गया था अतः अपने को भी इस बात का निर्णय अवश्य करना चाहिये । बिना ही कारण लाखों जीवों की हिंसा हो रही है इत्यादि । खैर ! वे लोग सूरिजी को नमस्कार कर वहाँ से चले गये । पर सूरिजी का उपदेश से धर्म के विषय निर्णय करने के लिये उन लोगों के हृदय में उत्कण्ठा पैदा हो गई । ५१ ४०१ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ७९ वर्ष | [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उन लोगों ने इस बात का प्रयत्न करना शुरू किया और कई लोगों को इसके लिए समझा बुझा कर अपने पक्षकार भी बना लिये इतना ही क्यों यह राजा खास प्रधान मंत्री यज्ञदत्त था उसका लक्ष भी धर्म के निर्णय की ओर आकर्षित कर लिया। मंत्री ने राजा को समझाया कि जब अपन धर्म के लिये इतना बड़ा कार्य कर रहे हैं तो इसका निर्णय तो अवश्य होना ही चाहिये इत्यादि । मंत्री पर राजा का पूर्ण विश्वास था राजा ने मंत्री का कहना मान कर एक दिन मुकर्रर किया कि राजा की ओर से धर्म के विषय में सभा कर निर्णय करवाया जाय । अतः राजा की ओर से एक आमन्त्रण सूरिजी को दिया और दूसरा यज्ञाध्यक्ष ब्राह्मणों एवं पण्डितों को भी दिया गया । जब सूरिजी ने बड़े ही हर्ष के साथ राजा के आमन्त्रण को स्वीकार कर लिया तब ब्राह्मणों ने राजा को समझाया कि नरेश । यह जैन सेवड़े नास्तिक हैं वेद एवं ईश्वर को तो यह मानते ही नहीं हैं आप क्या धर्म का निर्णय करना चाहते हो जिस धर्म को आपके पूर्वज मानते आय हैं वही धर्म सच्चा है फिर निर्णय क्या करना है क्या आपके पूर्वज नहीं समझते थे ? महाराजा भीमसेन ने बड़ेही कसौटी करके जिस धर्म को स्वीकार किया है उस पर ही आपको स्थिर रहना चाहिये इत्यादि बहुत समझाया । पर राजा ने कह दिया कि ठीक है मैं मेरे पूर्वजों का धर्म छोड़ना नहीं चाहता हूँ पर निर्णय करने में क्या हर्ज मैंने जैनाचार्य को श्रामन्त्रण भेजवा दिया है अतः आप सभा में पधार कर अपनी सच्चाई के प्रमाणों से जनता को बतला दें कि यज्ञ करना ईश्वर की आज्ञा एवं ईश्वर के वाक्य सत्य हैं । इस पर ब्राह्मणों को लाचार हो राजा का कहना मानना ही पड़ा । ठीक समय पर इधर तो श्राचार्य श्री देवगुप्तसूरि अपने विद्वान शिष्यों के साथ राज सभा में पधारे उधर से ब्राह्मण समाज अपने पण्डितों को लेकर हाजर हुए। राजा, मंत्री, राजकर्मचारी एवं नागरिकों से सभा हॉल खचाखच भर गया । आचार्य देवगुप्तसूरि ने अहिंसा परमोधर्मः के विषय में जैनागमों के, महात्मा बुद्ध के और वेदान्तियों के वेद एवं पुराणों के इतने प्रमाण सभा के समक्ष रख दिया कि राजा और प्रजा सुन कर मंत्रमुग्ध बन गये । मानो उनके मनमन्दिर में श्रहिंसा महादेवी की प्राण प्रतिष्ठा तक भी हो गई इसके उत्तर में ब्राह्मणों ने इस प्रकार लच्चर दलीलें पेश की कि जिसका जनता के हृदय पटल पर कुछ भी असर न हुआ इतना ही क्या पर उन लोगों की क्रूरहिंसा की ओर सब की घृणा होने लग गई । वास्तव में यज्ञ एक निष्ठुर कर्म है किसी मांसाहारी पाखण्डियों की चलाई हुई कुप्रथा है जिससे घृणा बजाना एक स्वभाविक वात थी इस पर भी आचार्य श्री का जबर्दस्त उपदेश फिर तो कहना ही क्या था । भगवान् महावीर की ध्वनी के साथ राजा प्रजा अहिंस भगवती के परमोपासक बन गये अर्थात् जन धर्म स्वीकार कर सूरिजी के शिष्य बन गये। इसी हालत में उन यज्ञवादियों के चेहरे फीके पड़ गये और वे हताश होकर हाँ हो का हुल्लड़ मचा कर वहाँ से चले गये । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा हो रहा था जिस यज्ञ के लिये लाखों मूक् प्राणियों को एकत्र किये गये थे उन सबको छोड़वा दिये गये अतः वे अपने दुःखित हृदय को शान्त करके सूरिजी महाराज को आशीबद देते हुए निर्भयता के साथ अपने बाल बच्चों से जाकर मिले | सूरिजी महाराज कई अर्सा तक भीनमाल में स्थिरता कर उन नूतन श्रावकों को जन धर्म की क्रिया काण्ड आचार व्यवहार का अभ्यास करवाया जब सूरिजी वहाँ से बिहार करने लगे तो भक्त लोगों ने अर्ज Jain Educoternational Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३२१ की कि प्रभो । आप यह चातुर्मास यहां ही करावें कि हम लोग जैन धर्म के तत्वों को ठीक समझलें इत्यादि । सूरिजी ने लाभालाभ का विचार कर उन भक्त जनों की विनती स्वीकार करली और अपने साधुओं को वहां ठहराकर आप आसपास में बिहार कर यथा समय भीनमाल पधार कर चतुर्मास किया | सूरिजी के विराजने से बहुत ही लाभ हुआ आपके उपदेश से महावीर का मन्दिर 'बनवाया गया इत्यादि । इस प्रकार सूरिजी महाराज ने जैनधर्म का खूब प्रचार किया आपने देशाटन भी बहुत किया मरुधर लाट सौराष्ट्र कच्छ सिन्धु पंचाल अंग बंग कलिंग आवंति मेदपाट और दक्षिणदि प्रान्तों में अनेकवार बिहार किया आप श्री ने जैसे जैनतों को जैन बनाकर जैन संख्या में वृद्धि की वैसे ही अनेक मुमुक्षुओं को संसार के बन्धनों से मुक्तकर जैन धर्म की दीक्षा देकर श्रमण संघ में भी खूब ही वृद्धि की । पट्टावलीकार लिखते हैं कि आपश्री की आज्ञावृत्ति ५००० साधु साध्वियों पृथक् पृथक् प्रान्तों में विहार करते थे खूबी यह थी कि एक आचार्य इतनी विशाल समुदाय को सभाल सकते थे ! क्योंकि भगवान् पार्श्वनाथ के पट्टधरों में एक ही आचार्य होते आये हैं यही कारण है कि भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानियें एक ही आचार्य की आज्ञा में व्यवस्थित रूप में रहते थे। हां योग्य मुनियों को उपाध्याय गणि वाचक पण्डित पद दिया जाता था पर गच्छ नायक शासन करने वाले आचार्य एक ही होते थे और इसमें भी विशेषता यह थी कि देवी सच्चापिका की सम्मति से वे प्राचार्य अपने पट्टधर बनाते थे । श्राचार्य देवगुप्त सूरि जैनसमाज में बड़े ही विद्वान प्रभावशाली और धर्म प्रचारक श्राचार्य हुये हैं आप अपनी न्तिमावस्था में अपने शिष्य एवं सर्वगुण सम्पन्न मुनि धनदेव को भीनमाल नगर के शा पेथा भारमल भद्रगौत्रीय के महामहोत्सव पूर्वक श्राचार्य पद प्रतिष्ठित कर आप अनशन एवं समाधिपूर्वक भीनमाल नगर में वीदान ४५८ वें वर्ष में स्वर्गवासी हुए । पट्टावलियों और वंशावलियों में उल्लेख मिलता है कि श्राचार्य श्री देवगुप्तसूरिजी ने अपने जीवन में ऐसे ऐसे चोखे और अनोखे कार्य किये थे कि जिससे जैनशासन की अच्छी प्रभावना हुई जैसे भीनमाल नगर के प्राट नारायण के संघपतित्व में श्रीसिद्धगिरि आदि तीर्थों का विराट् संघ निकाला जिसमें ५०० साधु साध्वियों और करीब पांच लक्षयात्री गए थे इस संघ के हित नारायण ने नौलक्ष द्रव्य व्यय किया । चन्द्रवती के श्रीमाल रामा शार्दूल ने चन्द्रवाती में भगवान महावीर का बावनदेहरीवाला विशाल मन्दिर बनाया जिसकी प्रतिष्टा में करीब नौ लक्ष द्रव्य व्यय किया। कोरंटपुर के बाधनाग गौत्र के शाह हरदास काल्हरणादि ५४ नर नारियों ने सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैनदरीक्षा स्वीकार की थी उनकेशपुर के दिय नाग गौत्रीय राव गोसलादि चार भाइयों ने सूरिजी के पास दीक्षा ली जिसके महोत्सव में पांच लक्ष रुपये शुभ कार्यों में व्यय किये इत्यादि यहां तो केवल संक्षिप्त में ही लिखा है पर इस प्रकार सेकड़ों ऐसे अनोखे कार्य हुए श्रतः सूरिजी के उपकार के लिये जैनसमाज सदैव के लिये आभारी है-चौदहवें पट्टपर देव हुए सरोवर यशः धारी थे जिनके गुणों का पार न पया आप बडे उपकारी थे अजैनों को जैन बना कर महाजन संघ बढ़ाया था मन्दिरों की प्रतिष्ठा करके जीवन कलस चढ़ाया था इति भगवान् पार्श्वनाथ के चौदहवें पट्टधर आचार्य देयगुप्तसूरि महा प्रभाविक हुए ४०३ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] ग्रा [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चार्यश्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज मरुधर के एक चमकते हुए सितारे थे। जैसे भगवान् नेमिनाथ के द्वारामति और प्रभु महावीर के राजगृह था वैसे ही उपकेशगच्छाचार्यों के लिए उपकेशपुर नगर था जब जब आचार्य महाराज उपकेशपुर पधारते थे तब तब उनको कुछ न कुछ अपूर्व लाभ हो ही जाता था यही कारण था कि उपकेशगच्छ के आचार्य उपकेशपुर में विशेष पधारते थे । एक तो इन श्राचार्यों का विहार क्षेत्र प्रायः मरुधरादि प्रदेश था, दूसरा भगवान् महावीर की यात्रा, तीसरा इस नगर में सबसे प्रथम आचार्य श्री रत्नप्रभ 典 सूरीश्वरजी ने महाजनसंघ की स्थापना की थी । अतः उपकेशपुर की भूमि एक तीर्थ स्वरूप समझी जाती थी । और चतुर्थ देवी सच्चायिका उपकेशगच्छ की अधिष्ठात्री भी थी १५-- श्राचार्य श्री सिद्धसूरि [ द्वितीय ] आचार्यस्तु स सिद्ध सूरिर भवद्वंशेस्तु ते चिंचटे, नाना मन्दिर पंक्ति कारण पटुः शत्रुरंजयस्य प्रियः । वल्लम्भी नगरी गतं जनपतिं नाम्ना शिलादित्यकं, बोधत्वा व्यदधातु भक्त मिहयो शत्रु जयोद्धारकः ॥ श्राचार्य देवगुप्तसूरिजी एक समय अपने शिष्यों के परिवार सहित विहार करते हुए उपकेशपुर की र पधार रहे थे । यह समाचार मिलते ही जनता में उत्साह का एक समुद्र ही उमड़ उठा कारण आप इसी उपकेशपुर के चमकते हुए सितारे थे अतः लोगों को देश एवं नगर का गौरव था। राजा प्रजा की ओर से आपका सुन्दर स्वागत हुआ । श्राचार्य श्री का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं तात्त्विक विषय पर होता था जिसका जनता पर काफी प्रभाव पड़ता था । उपकेशपुर में चिंचट गौत्रीय शाह रूपणसिंह धनकुबेर के नाम से मशहूर था । आपकी धर्म परायण गृहदेवी का नाम जाल्हा देवी था। आपके यों तो कई संतान थीं पर एक भोपाल नाम का पुत्र बड़ा ही होनहार एवं कुल में प्रदीप समान था । रूपणसिंह हमेशा सकुटुम्ब सूरिजी का व्याख्यान सुन कर सेवा भक्ति उपासना किया करते थे । उन लोगों के संस्कार ही ऐसे थे कि वे धर्म को ही सार समझते थे । एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में संसार की असारता का वर्णन करते हुए मनुष्य भव की सफलता का एक ऐसा उपाय बतलाया कि संसार में क्षण मात्र के सुख और बहुतकाल दुःखा अर्थात् पौद् गलिक सुख क्षण मात्र के हैं और इसमें रत हो कर धर्माराधन नहीं करते हैं वे जीव दीर्घ काल तक नारक के दुखों का अनुभव करते हैं । श्रपश्री ने जब नरक के कुम्भीपाक के दुःखों का वर्णन किया तो श्रोता जनों के रोमांच खड़े हो आये और सहसा उनका दिल संसार से विरक्त हो गया । ४०४ Jain Educonternational शाह रूप सिंह का लघु पुत्र जो भोपाल अभी किशोर वय में एवं खेल कूद रमत गमत किया करता था उसके कोमल हृदय पर व्याख्यान का ऐसा प्रभाव पड़ा जैसा ताप का प्रचाण्डप्रभाव मोम पर पड़ता है। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन [ ओसवाल संवत् ३८८ सूरिजी ने पूछा कि श्रोताओं ! मेरे उपदेश का आप लोगों पर कुच्छ असर हुआ; हैं क्या कोई भव्य अपना आत्म कल्याण करने के लिये तय्यार है ? क्योंकि ऐसा सुअवसर बार बार मिलना मुश्किल है। सभा में से सब से पहले बालकुमार भोपाल ने उठ कर कहा 'पूज्यवर ! मैं अपना कल्याण करने के लिये और तो क्या पर आपश्री के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा लेने को भी तैयार हूँ । मैं यह बात निश्चयपूर्वक कहता हूँ। इस बालकुमार का वैराग्यमय वचन सुन कर और भी कई भव्य आपका अनुकरण करने को तैयार हो गये । पर शाह रूपणसिंह और जाल्हण देवी को यह बात कब अच्छी लगने वाली थी उन्होंने अपने प्यारेपुत्र के इस प्रकार के शब्द सुन कर एक दम दुखी हृदय से कहा कि महाराज ! भोपाल अन समम बालक है इसकी बात पर विश्वास न किया जाय अभी यह दीक्षा में क्या समझता है ? और अभी हम ऐसे बच्चे को दीक्षा लेने भी कैसे देंगे ? अभी तो इसकी शादी भी करनी है इत्यादि । सूरिजी महाराज ने फरमाया कि रूपणसिंह । आप संतोष रक्खे ? जैन साधुओं का आचार है कि बिना माता पिता की आज्ञा किसी को भी दीक्षा नहीं देते हैं पर भोपाल की भावना का तो सभी को अनु मोदन करना ही चाहिये । भले ! भुक्त भोगी लोग जो कि परभव की तय्यारी में हैं ऐसे वृद्ध लोग इन्द्रियों के गुलाम एवं विषय विकार के कीड़े होते हुए संसार के दास बन रहे हैं तब यह बच्चा संसार त्यागने की इच्छा कर रहा है इस हालत में आपको अन्तराय देने की बजाय तो यदि पुत्र से सच्चा प्रेम है तो पुत्र के साथ दीक्षा लेकर स्वपर का कल्याण करे यही आपके लिये सुअवसर है । बस सूरिजी का उपदेश क्या था एक जादू ही था। रूपणसिंह ने सूरिजी के हुक्म को शिरोधार्य कर लिया। सभा विसर्जन होने के पश्चात् रूपणसिंह अपने मकान पर आया और भोपाल की माता जाल्हण देवी को पूछा कि तुम्हारा पुत्र भोपाल गुरु महाराज के पास दीक्षा लेता है । कहो तुम्हारी क्या मरजी है ? जाल्हण देवी ने कहा कि पुत्र ही क्यों पर श्राप भी तो दीक्षा लेने को तय्यार हुए हो फिर मुझे क्या पूछते हो ? "मैं पूछता हूँ कि तुम अपने पुत्र का साथ करोगी या घर में रहोगी?' जाल्हण देवी ने जवाब दिया कि जब आपकी इच्छा ही मुझे दीक्षा दिलाने की है तो मैं संसार में रह कर क्या करूंगी। अतः जाल्हणदेवी भी अपने पिती एवं पुत्र का अनुकरण किया । इस प्रकार नगर में कोई ३७ नरनारियाँ दीक्षा लेने को तैयार हो गये। अहा-ह कैसे लघु कम जीव थे कि जिनको केवल व्याख्यान से ही वैराग्य हो आया और इस प्रकार संसार के सुख सम्पति पर लात मार कर दीक्षा लेने को तयार हो गये । वस ! क्षयोपशम इसी को ही कहते हैं। ___ उपकेशपुर में आज सर्वत्र आनन्द मंगल हो रहा है दीक्षा का बाजा चारों ओर बज रहा है । मुक्ति रमणि के वर बंदोले खा रहे हैं । उपकेशपुर नरेश पुण्यपालादि श्रीसंघ ने दीक्षा महोत्सव के निमित्त जैन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव और पूजा प्रभावना करवा रहे हैं । इस दीक्षा का प्रभाव आस पास के प्रामों में भी इतना पड़ा कि वे लोग भी झुण्ड के मुण्ड आने लगे। शाह रूपणसिंह के ज्येष्ठ पुत्र क्षेमराज ने अपने माता पिता एवं लघु भ्राता की दीक्षा का खूब महोत्सव मनाया । बाहर से आने वाले स्वधर्मी भाइयों का अच्छी तरह स्वागत किया। इस महोत्सव में शाह क्षेमराज ने सवा लक्ष द्रव्य व्यय किया। शुभ मुहूर्त में सूरीश्वरजी महाराज ने भोपालादि ३७ नरनारियों को बड़े ही समारोह एवं जैन शास्त्रों के विधि विधान से दीक्षा दी और बालकुमार भोपाल का नाम धनदेव रख दिया । यों तो सूरिजी महाराज की सब साधुओं पर पूर्ण कृपा थी पर मुनिधनदेव एक तो बाल श्रमण था तथा Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. पू. १२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दूसग यह भविष्य में होनहार भी था और उसका विनय भक्ति भी अलौकिक था अतः मुनिधनदेव पर विशेष कृपा थी। सबसे पहले मुनिधनदेव को शास्त्रों का अध्ययन करवाना प्रारम्भ किया । मुनि धनदेव पर जैसे सूरिजी की अनुग्रह थी वैसे ही सरस्वती की भी पूर्णकृपा थी अतः मुनिधनदेव ने स्वल्प समयमें ही हस्तामलकी भांति सबशास्त्र कंठस्थ कर लिए साथ में व्याकरण न्याय तक छंद अलङ्क र काव्य आदि का भी अध्ययन कर लिया इतना ही क्यों पर आपने स्वमत के साथ परमत के तमाम साहित्य का अभ्यास भी कर लिया। ज्ञान के साथ साथ और भी तर्क वाद शास्त्रार्थ में भी निपुण हो गये और आपके धैर्यता, गम्भीर्यता, सहनशीलता, सौभ्यता क्षमता और उदारतादि गुण तो इस प्रकार के थे कि आपके गुणों का वर्णन करने में बृहस्पति भी असमर्थ था यही कारण है कि आपनेआचार्य देवगुप्तसूरि के दिल को सहज ही में अपनी ओर श्राकर्षित कर लिया जिसमे सूरिजी ने अपनी अन्तिमावस्था में चन्द्रावती के प्राग्वट नोढ़ा के महोत्सव पूर्वक अपना सर्व अधिकार मुनिधनदेव को देकर उसको सूरि पद से विभूषित कर आपका नाम सिद्धसूरि रखदिया। आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज महान् प्रभावशाली हुए आपका विहारक्षेत्र इतना विशाल था कि मरुधर लाट सौराष्ट्र कच्छ सिंध पचाल और पूर्व प्रान्त तक घूम घूमकर जैन धर्म का प्रचार किया करते थे ! यह बात तो स्वभाविक है कि जिस धर्म के उपदेशक जितने अधिक प्रदेश में विहार करेंगे उनका धर्म उतना ही अधिक क्षेत्र में प्रसरित हो जायगा । यदि वे प्राचार्य एकाध प्रांत में ही बैठ जातें नो वे इतने विशाल प्रदेश में जैनधर्म का प्रचार नहीं कर पाते। हाँ अनूकूलक्षेत्रों में सुख से रहना कौन नहीं चाहते हैं पर इस प्रकार साधु पौद्गलिक सुखों से मोहित हो जाते हैं तो उनका धर्म संसार में चिरकाल तक जीवित नहीं रहता है। जिस को आज हम प्रत्यक्ष में देख रहे हैं कि जिन सूरीश्वरों पर शासन की जुम्मेवारी है इतना ही क्यों पर वे खुद शासन सम्राट् जैनधर्म उद्धारक आदि उपाधियों से मान एवं सम्मान पाने को पुकार करते हैं पर में एक प्रान्त को छोड़ कर किसी अन्य प्रान्तों में विहार नहीं करने से ही धर्म का पतन हो रहा है। नये जैन बनाना तो दर किनार रहे पर पूर्वाचार्यों के बनाये हुए जैनों का रक्षण ही नहीं कर सकते है। दीक्षा के समय प्रत्येक साधु को रोहिनी आदि चार बहनों का उदाहरण सुनाया जाता है पर उसका अमल कौन करता है ? यही कारण है कि वर्तमान सूरीश्वर जैनधर्म के वर्द्धक पोषक ओर रक्षक नहीं पर भक्षक बन रहे हैं । हमारे पूर्वजो ने करोड़ों की तादाद में जैनों को इस विश्वास पर छोड़ गये थे कि हमारी संतान इनका पोषण कर वृद्धि करेगी पर हम ऐसे सपूत निकले कि करोड़ों की संख्या को घटा कर आज लाखों पर ले आये हैं । भविष्य के लिये ज्ञानी ही जानते हैं कि जैनधर्म का क्या हाल होगा ? प्राचार्य श्री सिद्धसूरिजी महाराज अपने पूर्वजों की भाँति प्रत्येक प्रान्त में घूमते रहते थे और अपने साधु साध्वियों को भी प्रत्येक प्रान्त में विहार की आज्ञा दे दिया करते थे अतः श्रापश्री के शासन समय जैनधर्म का प्रचुरता से प्रचार हो रहा था। एक समय आपश्री लाट प्रान्त में भ्रमण करते हुए सौराष्ट्र प्रान्त में पधार रहे थे। जब आपका शुभागमन वल्लभीपुरी की ओर हुआ तो वहाँ की जैन जनता में खूब हर्षानंद होने लगा। श्रीसंघ ने सूरिजी महाराज का सुंदर स्वागत किया । सूरिजी का प्रभावोत्पादक व्याख्यान इतना रोचक पाचक और असरकारी था कि जिसकी प्रशंसा सुनकर वहाँ का नरपति राजा शिलादित्य भी एक समय अपने मंत्री व कर्मचारियों के साथ सूरिजी के व्याख्यान में उपस्थित हुए। सूरिजी को वन्दन कर योग्य स्थान पर बैठ गया । Jain E cato International Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ सूरिजी ने अपनी प्रोजस्वी भाषा द्वारा राजाओं की नीति और धर्म के विषय में खूब विवेचन के साथ उपदेश दिया । तत्पश्चात सौराष्ट्र की पवित्र भूमि पर आये हुए तीर्थों का वर्णन करते हुए फरमाया कि तीर्थाधिराज श्रीशत्रुजय एक महान् तीर्थ है प्रायः यह तीर्थशाश्वता है इस तीर्थ की सेवा उपासना आदि से लाखों करड़ों नहीं पर भूतकाल में अनन्त जीवों ने जन्ममरण के दुख मिटा कर अपना कल्याण किया है। और इस वल्लभी के लोग तो और भी भाग्यशाली है कि यह की भूमि शत्रुजय तीर्थ की तलेटी का धाम रहा था। कई मुनियों एवं संघपतियोंसे यह भूमि पवित्र हुई है । वल्लभी के लोगों के लिये श्रीशत्रुजय की भक्ति कर पुण्य संचय करना बिलकुल आसान भी है इत्यादि उपदेश दिया । जिसका प्रभाव यों तो सब लोगों पर हुआ ही या पर विशेष असर राजा शिलादित्य पर हुआ कि आपके हृदय में तीर्थ की सेवा भक्ति करने की भावना प्रबल हो आई । राजा ने किसी अन्य समय सूरिजी के पास आकर धर्म के विषय में अपने दिल की शंकाओं का समाधान कर सृरिजी महाराज के चरण कमल में जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। ___ जब सूरिजी ने वहां से सिद्ध गिरी की यात्रा के निमित्त जाने का विचार किया तो और लोगों के साथ राजा शिलादित्य भी श्रीशत्रुजय की यात्रार्थ सूरिजी के साथ होगया सूरिजी ने यात्रा निमित्त छ री'का उपदेश दिया जिसको समझ कर राजा बहुत हर्ष एवं आनन्द में मग्न हो गया और सूरिजी के साथ पैदल 'छ री' पालता हुआ तीर्थधिराज श्री सिद्धगिरि पहुँच कर भगवान् श्रादीश्वर की यात्रा की । राजा को तीर्थयात्रा का इतना रंग लग गया कि सूरीजी के उपदेश से प्रतिज्ञा करली कि कार्तिक फाल्गुन और आसाद एवं तीन चातुर्मासि के और पर्युषणों के दिनों में यहां आकर मैं अष्टान्हिका महोत्सव करूँगा। तथा तीर्थ सेवा के लिये कुछ ग्राम भी भेंट किये । इतना ही क्यों पर सूरिजी के उपदेश से राजाशिलादित्य ने तीर्थ शत्रुजय का उद्धार भी करवाया । जो पांचवा आरा में यह पहला ही उद्धार था। आचार्य श्री के उपदेश से राजा शिलादित्य जैनधर्म का परमोपासक बन गया । तीर्थयात्रा के पाश्चात् सूरिजी को विनति कर पुनः वल्लभी ले आये और श्रीसंघ के साथ राजा ने अत्याग्रह से चतुर्मास की विनती की इस पर सूरिजी ने भी लाभालाभ का कारण जान चतुर्मास वहीं कर दिया फिर तो था ही क्या यथा राजस्तथाप्रजा' राजा के साथ प्रजा ने भी यथासाध्य धर्माराधन कर अपना कल्याण किया। राजा शिलादित्य ने वल्लभी नगरी में भगवान आदीश्वर का एक विशाल मन्दिर बनाना प्रारम्भ कर दिया । सूरिजी महाराज के त्याग वैराग्यमय व्याख्यान ने जनता पर खूब ही प्रभाव डाला ! राजा के कुटम्ब में एक बूढ़ि राजपूत स्त्रि के एक लड़का था उसका भाव सूरिजी के पास दीक्षा लेने का हो गया पर बुढ़िया निराधार थी अतः पुत्र को आज्ञा देनी नहीं चाहती थी पर पुत्र को ऐसा तैसा वैराग्य नहीं था कि वह माता का मोह एवं रोकने से संसार में रह सके । अतः बुढिया ने राजा शिलादित्य के पास जा कर अपना दुःख निवेदन किया कि मेरे एकाएक पुत्र को बहका कर साधु लोग दीक्षा दे रहे हैं अतः आप साधुओं को समझा दें वरन् मैं आपधात कर मर जाऊंगी इत्यादि । २ तेषां श्री ककसरीणां, शिष्याः श्रीसिद्धसूरयः । वल्लभी नगरेजग्मुर्विहरन्तो मही तले ॥ नृपस्तत्र शिल्यादित्यः सूरिभिः प्रतिबोधितः । श्री शत्रुजयतीर्थेश उद्धारान् विदधे बहुन्। प्रति वर्ष पपणो, सचतुर्मासकत्रये । श्री शत्रुजयतीर्थ गात् यात्रायै नृप उत्तमः ॥ तत्रस्थैः सूरिभिः पौराः स्थापिता केऽपि सत्यथे। यत्तादृशानां निर्माणं लोकोपकृति हेतवे ॥ www.aneliterary.org ४०७ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास राना सूरिजी के पास आया और विनय के साथ सब हाल निवेदन किया इस पर सूरिजी ने कहा कि हे राजन हम लोगों का यह आचार नहीं है कि हम किसी को बहकावें एवं भ्रम में डाल कर दीक्षा दें। यदि इसप्रकार से कोई दीक्षा ले भी ले तो वह दीक्षा पाल भी कैसे सकेगा है ? भले ! बहकाने से ही कोई दीक्षा लेता हो तो हम आपको एवं सबको ही बहका देते हैं सब दीक्षा लेने को तैयार होजाइये ? नरेश ! जैनदीक्षा कोई बच्चों का खेल नहीं है कि बिना वैराग्य बिना आत्म ज्ञान कोई लेकर उसका पालन कर सकें। खैर कोई महानुभाव ! सच्चा दिल से दीक्षा लेना भी चाहता हो तो उसको अन्तराय देना भी तो महान् पाप है यदि बुढ़िया कुछ कहती हो तो उस को समझना चाहिये कि किस की माता और किस के पुत्र यह तो एक मुसाफिर वाला मेला मिला है न जाने काल के मुँह में माता पहले जायेगी या पुत्र ? अगर किसी माता का पुत्र दीक्षा लेता हो तो उस माता को बड़ी खुशी मनानी चाहिये कि जिसकी कुक्ष में जन्म लेकर स्व पर का कल्याण करने वाला पुत्र अपनी माता की कुक्ष को रत्नकुक्ष बना देता है और वह माता सर्वत्र धन्यवाद के योग्य कहलाई जाती है । राजन् ! आप जानते हो कि हम लोगों को इस में क्या स्वार्थ है ? हम लोग तो केवल जनता का कल्याण के लिये ही उपदेश एवं दीक्षा देते हैं फिर भी हमारा कोई आग्रह नहीं है जैसे जिनको अच्छा लगे वह वैसा ही करे इत्यादि । राजा सूरिजी का वचन सुन कर समझ गया कि सूरिजी परोपकारी हैं अतः राजा ने बुढ़िया को सममा बुझा कर आज्ञा दीलादी और खुद राजा ने दीक्षा का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया। सूरिजी ने क्षत्री वीर शोभा को दीक्षा देकर उसको शोभा यसुंदर बना लिया। मुनि शोभाग्यसुन्दर पर सूरिजी की पूर्ण कृपा थी उसने शास्त्रों का अध्ययन के पश्चात् छट अट्ठमादि विविध प्रकार की तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया इतना ही क्यों पर तपस्या के पारणा के दिन कई प्रकार के अभिग्रह भी किया करता था और वे भी ऐसे कठिन अभिग्रह थे कि जिसके पूर्ण होने में कई दिन नहीं पर कोई मास तक भी पारणा नहीं होता था। एक वख्त आपने तपस्या के पारणा के लिए अभिग्रह कर उसकी यादी एक कागज पर लिख उसको बन्द कर गुरु महाराज को दे दी थी और पारणा के लिए शहरों में ही नहीं पर पात्र लेकर जंगलों में भी भ्रमण किया करते थे शायद इस अभिग्रह का सम्बन्ध जंगल से भी होगा। इस प्रकार तपोवृद्धि करता हा मुनिजी पुनः वल्लभी नगरी में आये आपकी तपस्या के कारण नगरी में सर्वत्र प्रशंसा फैल गई पर वहाँ एक सन्यासी आया हुआ था उसने समझा कि यह सब जैनियों का ढोंग है वह तपसी मुनि के पीछे गुप्त रूप से फरने लगा । एक समय इधर तो मुनि जंगल में भ्रमन करता था उधर से एक सिंहनी आई उसके पंजा में कुछ पदार्थ था मुनि ने अपना पात्र सामने कर कहा माता कुछ भिक्षा देगी ? सिंहनी ने शान्तभाव से उस पदार्थ को मुनि के पात्र में डाल दिया प्रच्छनपने रहा हुआ सन्यासी सब हाल देख रहा था मुनि भिक्षा ले कर सूरिजी के पास आया और जिस पत्र को बन्ध कर सूरिजी को दिया था उसको खोलाया तो बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि मुनि ने कैसा कठिन अभिग्रह किया है। उसी समय सन्यासी भी सूरिजी महाराज के पास आया और तपस्वी मुनि की खूब प्रशंसा करता हुआ कहाँ पूज्यवर ! जैन मुनि की तपस्या एवं अभिग्रह को मैं ढोंग समझता था पर यह मेरी भूल थी वास्तव में आप लोगों की सच्ची तपस्या है जिसका मनुष्य पर तो क्या पर क्रूरि वृति वाले तिर्यचों पर भी प्रभाव पड़ता है जो मैंने मेरी नजरों से देखा है कि एक सिंहनी ने तपस्वी मुति को शान्त वृति से भिक्षा दी है।। Jain Educado Cernational Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ सूरिजी ने तप का महत्व बतलाते हुये कहा कि महात्माजी ! तप कोई साधारण व्रत नहीं है । पर पूर्व संचित कई भवों के कर्मों को नष्ट करने के लिये सर्वोत्कृष्ट व्रत तप ही है। तप से आत्मा का विकास होता है अनेक चमत्कारपूर्ण लब्धियें तप से उत्पन्न होती हैं। इतना ही क्यों पर संसार में जन्म मरण का महान दुःख है जिसको समूल नष्ट करने में तथा आत्मा से परमात्मा बनने में मुख्य कारण तप ही है। पूर्व जमाने में बड़े बड़े ऋषियों ने सैकड़ों हजारों वर्ष तक तपस्या की थी जिसका उल्लेख शास्त्रों में मिलता है और इस तप के भी अनेक भेद हैं जैसे-१-बाह्यतप २-आभ्यान्तर तप बाह्यतप उसे कहते हैं कि जिस तप को लोग जान सकते हैं । जैसे १----अनशन तप-उपवासादि अनेक प्रकार के तप किये जाते हैं। २-- उणोदरी-जो खाने पीने की खूराक है जिसमें कुछ कम खाना तथा कषाय को मंद करना । ३-भिक्षाचरी तप-आहार पानी की शुद्धता और अनेक प्रकार के अभिग्रहादि करना यह भी एक तप है। ४ -- रसत्याग-दूध, दही घृत, मिष्टान्न आदि रस का त्याग करना । ५-कायाक्लेश तप-योग के ८४ श्रासन, तथा अवापना लेना, लोच करना इत्यादि । ६-प्रतिसलेखना तप-पशु, नपुंसक, स्त्रीमुक्त स्थान में रहना इन्द्रियों का दमन करना इत्यादि । इन छः प्रकार के तप को बाह्य तप कहते हैं तथा आभ्यान्तर तप निम्न प्रकार है। १-प्रायश्चित तप-अपने व्रतों में दूषण लगा हो, उसकी गुरु के पास में आलोचना करनी और गुरुदत्त प्रायश्चित का तप करना इसके शास्त्रों में ५० भेद बतलाये हैं। २- विनयतप-गुरु आदि वृद्ध एवं गुणीजनों का विनय करना इसके १३४ भेद कहे हैं। ३-- व्यावञ्चतप-वृद्ध ग्लानी तपस्वी ज्ञानी और नवदीक्षित की व्यावच्च करना इसके १० भेद हैं। ४-स्वाध्याय तप-पठन पाठन मनन निधिध्यासनादि करना इसके. ५ भेद हैं। ५-ध्यान तप-आर्त रौद्रध्यान से बचना, धर्म व शुक्लध्यान का चिन्तवन आसन, समाधि, योग श्राध्यात्म विचारणा को ध्यान कहते है । ६-विउस्सग्ग तप-कर्म कषाय संसारादि का त्याग रूप प्रयत्न करना इसके भी अनेक भेद हैं। इन छः प्रकार के तप को आभ्यान्तर तप कहा जाता है । सन्यासीजी ! इस तप के साथ एक वस्तु की और भी खास जरूरत रहती है। जैसे औषधि के साथ अनुपान होता है और अनुकूल अनुपान से दवाई विशेष गुण देती है। इसी प्रकार तप के साथ सम्यग्दर्शन की जरूरत रहा करती है । सम्यग्दर्शन के साथ तप किया जाय तो कर्म को शीघ्र ही नष्ट कर आत्मा से परमात्मा बन सकता है । सन्यासीजी ने कहा, पूज्यवर ! मैं आपकी परिभाषा में नहीं समझता हूँ। कि सम्यग्दर्शन किसको कहते हैं । कृपा कर इसका खुलासा करके समझा। सूरिजी ने कहा कि सम्यग्दर्शन, उसे कहते हैं कि-सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर श्रद्धा रखना । १-देव-सर्वज्ञ, वीतराग, अष्टादश दूषण रहित और द्वादशगुण सहित विश्वोपकारी हो जिनका अलौकिक जीवन और मुद्रा में त्याग शान्ति और परोपकार भरा हो । उनको देव समझना चाहिये । ५२ २०९ www.janelibrary.org Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २ - गुरु- कनक कामिनी के त्यागी पंच महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पालक जनकल्याण के लिये जिन्होंने अपना जीवन अर्पण कर दिया हो उनको गुरु मानना चाहिये । ३- धर्म - देव की आज्ञा जैसे 'अहिंसा परमोधर्मः' को धर्म समझना । इन तीनों तत्वों को व्यवहार से सम्यग्दर्शन कहते हैं तथा मिध्यात्वमोहनिय ( कुदेव कुगुरु, कुधर्म की श्रद्धा रखना ) मिश्रमोहनीय ( असत्य सत्य को एक सा ही मानना ) सम्यक्त्वमोहनिय और अन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ एवं इन सात प्रकृति का क्षय करना इसको निश्चय सम्यग्दर्शन कहा जाता है. इसके साथ तप करने से सम्पूर्ण फल मिलता है । सन्यासीजी ने अपने जीवन में इस प्रकार के शब्द पहिले पहिल सूरिजी से ही सुने थे । अतः कुछ समय विचार कर बोला पूज्यवर ! मेरी इच्छा है कि मैं आपके चरण कमलों में रहकर सम्यग्दर्शन के साथ तप कर आत्मा से परमात्मा बनूं । सूरिजी ने कहा 'जहां सुखम् ' देवानुप्रिय ! केवल आप ही क्यों पर पूर्व जमानों में शिवराजर्षि, पोग्गल सन्यासी और खंदक वगैरह बहुत भव्यों ने इसी मार्ग का अनुकरण किया है और आत्मार्थी मुमुक्षुओं का यह कर्तव्य भी है कि सत्य मार्ग को स्वीकार कर अपना आत्मकल्याण करे | सन्यासीजी ने अपने भंडोपकरण एक तरफ रखकर सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा स्वीकार करली । सूरिजी ने दीक्षा देकर आपका नाम 'कल्याणमूर्त्ति' रख दिया । नूतन मुनि कल्याणमूर्ति ज्यों ज्यों जैनधर्म की क्रिया और ज्ञानाभ्यास करते गये त्यों २ आपको बड़ा भारी आनन्द आता गया । आपने सोचा कि मेरे जैसी अनेक आत्मायें अज्ञानसागर में गोता खा रही हैं । अतः मेरा कर्तव्य है कि मैं उन्हें समझा बुझा कर जैन धर्म की राह पर लाकर उनका उद्धार करूं । अतः सूरिजी से आज्ञा लेकर कई साधुओं के साथ आप विहार कर जैनधर्म के प्रचार में लग गये ! इस प्रकार सूरिजी ने अनेक मुमुक्षुओं को दीक्षा देकर जैनधर्म के प्रचार में लगा दिया । आचार्य सिद्धसूरि अनेक प्रान्तों में विहार करते हुये एक समय उपकेशपुर नगर की ओर पधार रहे मिला तो उनके हर्ष का पार नहीं । सूरिजी ने चतुर्विध श्री संघ के अहोभाग्य समझा । सूरिजी थे। इस बात का पता वहाँ के राजा रत्नसी श्रादि वहाँ के श्री संघ को रहा। उन्होंने सूरिजी का नगर प्रवेश बड़े ही समारोह के साथ करवाया साथ भगवान महावीर और गुरु रत्नप्रभसूरिजी के दर्शन स्पर्शन कर अपना का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर होता था । राजा प्रजा को बड़ा ही आनन्द आ रहा था । श्रीसंघ ने सूरिजी से चर्तुमास की आग्रह से विनती की और सूरिजी ने लाभ लाभ का कारण जान चर्तुमास उपकेश कर दिया । में पुर एक दिन सूरिजी ने आचार्य रत्नप्रभसूरि और राजा उत्पलदेव व मंत्री ऊहड़ादि का उदाहरण बतलाते हुये समझाया कि उन महापुरुषों ने जैनधर्म के प्रचार के लिए कितना भागीरथ प्रयत्न किया था कि जिसकी बदौलत आज जैनधर्म का चारों ओर सितारा चमक रहा है। अतः आप लोगों को भी उन उपकारी महात्माओं का अनुकरण करना चाहिये इत्यादि । सूरिजी का उपदेश सुनकर राजा रत्नसी ने अपने विचारों को कई तरफ दौड़ाते हुये अन्त में इस निर्णय पर स्थिर किया कि उपकेशपुर में एक विराट् सभा का आयोजन किया जाय और उसमें धर्मप्रचार Jain Educatio४१oha national Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ का प्रस्ताव रखा जाय तो उम्मेद है कि इस कार्य में सफलता मिल सके। राजा ने अपना विचार सूरिजी के सामने उपस्थिति किया तो सूरिजी ने प्रसन्नतापूर्वक राजा के कार्य पर अपनी अनुमति देदी। पर त्रिशेपता यह थी कि सूरिजी ने कहा कि यह सभा केवल मरुधरवासियों के लिये ही न हो पर जहाँ उपकेशगच्छ एवं वंश के साधु एवं श्रावक हों उन सबके लिये की जाय अर्थात् मरुधरलाट, सौराष्ट्र, कच्छ, सेन्ध, पांचाल, आवन्ती और मेदपाट वगैरह सब प्रान्तों के लिये हो कि तमाम लोग इसमें भाग ले सकें । यह बात राजा के जँचगई और उसने कहा इसके लिये समय निर्णय करना चाहिये । सूरिजी ने कहा कि शुक्ल पूर्णिमा जो कि आचार्य रत्नप्रभसूरिजी के स्वर्गारोहण का दिन हैं मुकर्रर किया जाय तो अच्छा है । राजादि श्रीसंघ ने सब प्रकार से ठीक समय निश्चित कर लिया । बस, सकल श्रीसंघ की सम्मति लेकर राजा ने यथा समय अपने मनुष्यों द्वारा प्रत्येक प्रान्त में आमंत्रण पत्रिकायें भिजवा दीं। और आप स्वागत के लिये तैयार करने में जुट गया । उपकेशपुर की जनता में इतना उत्साह बढ़ गया कि वे अपने घरों के कामों को छोड़कर इस धर्म कार्य में संलग्न होगये । वह समय इतना संतोषवृत्ति का था कि जनता में न तो इतनी तृष्णा थी और न इतनी आवश्यकतायें ही थीं । कारण एक तो देवी का वरदान था कि "उपकेशे बहुलं द्रव्यं" उपकेशवंशियों के पास द्रव्य बहुत था। दूसरे उस जमाने में सब लोग सादा और सरल जीवन गुजारते थे । अतः उनको दो-दो चारचार और छ: छः मास जितने समय की फुरसत मिल सकती थी । राजा रत्नसी आदि उपकेशपुर श्रीसंघ की ओर से आमंत्रण मिलने से प्रत्येक प्रान्त चहल-पहल मच गई और सब लोगों की सूरत उपकेशपुर की ओर लग गई। कई लोग तो साधुओं के साथ तीर्थ यात्रा की भांति छरी पाली संघ लेकर उपकेशपुर की ओर प्रस्थान कर दिया था तब कई लोग अपनी सवारियों के जरिये आ रहे थे ! उपकेशपुर एक यात्रा का धाम वन गया था । वास्तव में था भी तीर्थ स्वरूप जहाँ शासनाधीश भगवान् महावीर और महाजनसंघ संस्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरिजी की यात्रा हो फिर इससे अधिक क्या हो सकता है कि जहाँ देव गुरु की यात्रा तथा स्थावर तीर्थ के साथ जंगमतीर्थ की यात्रा का भी लाभ मिले। उपकेशगच्छ, कोरंटगच्छ के साधुओं के अलावा लाट सौराष्ट्र एवं आवन्ति प्रदेश में भ्रमण करने वाले वीर सन्तानिये भी गहरी तादाद में पधारे थे। सब का स्वागत बड़े ही समारोह के साथ हुआ विशेषता यह थी कि पृथक २ गच्छों के श्रमण होने पर भी एक ही स्वरूप में दीखते थे। सब का आहार पानी वन्दन व्यवहार शामिल था। इस प्रकार श्रमण संघ की वात्सल्यता का प्रभाव जनता पर कम नहीं पड़ा था। वे देख कर मंत्र मुग्ध बन गये थे और यह श्रमर वात्सल्यता भाव प्रारम्भ कार्य की भावी सफलता की सूचना दे रहा था । जिस प्रकार श्रमण संघ के झुण्ड के झुण्ड आ रहे थे । इसी प्रकार श्राद्धवर्ग भी विस्तृत संख्या में ये थे । और वे भी केवल साधारण लोग ही नहीं थे पर कोरंटपुर का राव, चन्द्रावती का राजा, भीम माल का राव, कच्छ का नरेश, सिन्ध का शव वगैरह २ जैन धर्मापासक नरेश एवं बड़े २ श्रावक लोग एकत्र हुये थे । आगन्तुकों के स्वागत का इन्तजाम पहले से ही हो रहा था । कारण मरुधरवासियों की 1 ४११ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कार्यकुशलता जगत विख्यात ही थी। दूसरे धर्म प्रचार के उद्देश्य से श्राये हुओं के लिये स्वागत की इतनी आवश्यकता ही नहीं थी कारण वे सब लोग कार्य करने वाले ही थे । सभा मण्डप खुल्ला मैदान में इतना विशाल बनाया गया था कि जिसमें हजारों नहीं पर लाखों मनुष्य सुखपूर्वक बैठ सकें। जिसमें भी महिलाओं के लिये खास प्रबन्ध था ठीक माघशुक्ला पूर्णिमा के दिन श्राचार्य सिद्धसूरिजी महाराज की अध्यक्षता में सभा हुई । मंगलाचरण के पश्चात कई सज्जनों के भाषण हुये तदनन्तर आचार्य सिद्धसूरि के धर्मप्रचार के विषय में व्याख्यान हुआ । श्राचार्य रत्नप्रभसूरि के समय की कठिनाइयों, तपश्चर्या और सहनशीलता तथा उन्होने मरुधर में किस प्रकार जैन धर्म की नीव डाल कर महाजनसंघ की स्थापना की उनके सहायक राव उत्पलदेव मंत्री ऊहड़ का स्वार्थ त्याग और धर्मप्रचार का इतिहास बड़ी ओजस्वी वाणी द्वारा सुनाया कि सुनने वालों के हृदय में एक नयी शक्ति उत्पन्न हो गई। साथ में बौद्ध और वेदान्तियों के धर्म प्रचार का दिग्दर्शन भी करवाया तथा बतलाया कि जिस धर्म में राजसत्ता काम करती हो वही धर्म राष्ट्रधर्म बन जाता है । सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के और पुष्पमित्र ने वेद धर्म के अन्दर जान डाल कर उसका प्रचार किया था क्रमशः उसका पगपसारा आपके प्रदेशों में भी होने लगा अतः आप लोगों को भी कमर कस कर तैयार रहना चाहिये । धर्म प्रचार के लिये एक श्रमण संघ ही पर्याप्त नहीं पर इसमें श्राद्ध वर्ग की भी आवश्यकता है। रथ चलता है वह दो पहियों से चलता है जिसमें भी राजाओं का तो यह कर्त्तव्य ही है कि वह अपनी तमाम शक्ति धर्म प्रचार में लगा दें। देखिये पूर्व जमाने का इतिहास ! १ -- आचार्य रत्नप्रभसूरि के धर्म प्रचार में राजा उत्पलदेव ने सहयोग दिया था । २ - श्राचार्य यक्षदेवसूरि के धर्म प्रचार में राव रुद्राट और कुंवर कक्क सहायक थे ३ - आचार्य कक्कसूरि के धर्म प्रचार में राजा शिव की सहायता थी । धर्म प्रचार में सम्राट चन्द्रगुप्त ने सहयोग दिया था। धर्म प्रचार में सम्राट सम्प्रति की सहायता थी । ४ - आचार्य भद्रबाहु के ५- आचार्य सुहस्थी ६ - आचार्य सुस्थीसूरि के धर्म प्रचार में चक्रवर्त्ति महाराज खारवेल की मदद थी । इत्यादि अनेक उदाहरण विद्यमान हैं । अतः आप लोगों को भी चाहिये कि धर्म प्रचार में साधुओं का हाथ बटावे । अर्थात् यथा साध्य सहायता पहुँचावे -- सूरिजी महाराज के प्रभावशाली उपदेश का उपस्थित चतुर्विध श्रीसंघ पर काफी प्रभाव पड़ा और उसी सभा अन्दर कई लोग बोल उठे कि पूज्यवर ! जैसे आप श्रज्ञा फरमावें हम लोग पालन करने को तैयार हैं एवं कटिवद्ध हैं। इससे सूरिजी महाराज ने अपने परिश्रम को सफल हुआ समझा । तत्पश्चात् भगवान महावीर और गुरुवर्य्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी की जय ध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। रात्रि समय राव रत्नसी ने एक सभा की जिसमें संघ श्रमेश्वर नरेश एवं क्षत्रिय और व्यापारी सब लोग शामिल थे। मुख्य बात सूरिजी के उपदेश को कार्य में परिणित करने की थी जिसको सब लोगों ने सहर्ष स्वीकार करली | उस समय उपकेशगच्छ एवं कोरटगच्छ में नायक श्राचार्य एक-एक ही हुआ करते थे । यही कारण था कि उस समय का संगठन बल अच्छा व्यवस्थित था और एक ही आचार्य की नायकता में चतुर्विध Jain Educati४ १२mational Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ श्रीसंघ का आत्म कल्याण हो रहा था फिर भी आचार्य समयज्ञ थे अपने अाज्ञावृति साधुओं को दूर २ प्रदेश में विहार करवाया करते थे । अतः उन साधुओं में पदवीधरों की भी आवश्यकता थी। अतः सूरिजी ने अपने योग्य साधुओं को पदवियां प्रदान करने का भी निश्चय कर लिया था। यही कारण था कि दूसरे दिन पुनः सभा करके उपकेशगच्छ, कोरंटगच्छ और वीरसंतानियों में जो पदवियों के योग्य साधु थे उनको पदवियों से विभूषित किया। जैसे-१५ साधुओं को उपाध्यायपद २७ साधुओं को पण्डित पद १९ साधुओं को वाचनाचार्य १६ साधुओं को गणिपद ११ साधुओं को अनुयोग आचार्य पद इत्यादि योग्य मुनियों को पदवियां देकर इनके उत्साह में खूब बृद्धि की बाद उन मुनियों की नायकत्व में प्रत्येक २ प्रान्तों में बिहार करने की आज्ञा देदी । और सूरिजी स्वयं ५०० साधुओं के साथ बिहार करने को तत्पर हो गये। इसके अलावा कोरन्टगच्छाचार्या सर्वदेवसूरि के शिष्यों के लिये भी भिन्न २ प्रान्तों में बिहार करने की सलाह देदी और उन्होंने भी धर्मप्रचार निमित्त विहार कर दिया ___ सूरिजी ने इस बात को ठीक समझ ली थी कि जिन साधुओं का जितना विशाल क्षेत्र में विहार होगा उतना ही धर्म प्रचार अधिक बढ़ेगा । कारण जनता झुकती है पर झुकानेवाला होना चाहिये इत्यादि उपकेशपुर में सभा करने से जैनों में खूब अच्छी जागृति हुई इसका सबश्रेय हमारे चरित्रनायक सूरीश्वरजी ही को है । साथ में उपकेशपुर नरेश का कार्य भी प्रशंसा का पात्र बन गया था। श्राचार्य सिद्धसूरिजी ने अपनी छत्तीस वर्ष की आयु में गच्छ का भार अपने शिर पर लिया था और ६४ वर्ष तक आपने शासन चलाया जिसमें आपने प्रत्येक प्रान्त में अनेक २ बार भ्रमन कर अनेक भूलेभटके मांसाहारियों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर उनका उद्धार कर महाजनसंघ में वृद्धि की । कई प्रान्तों से तीर्थों के संघ निकलवा कर उनको तीर्थयात्रा का लाभ दिया । कई मंदिर मूर्तियों एवं विद्यालयों की प्रतिष्ठा करवाई। कई मुमुक्षुओं को संसार से मुक्त कर जैनधर्म की दीक्षा देकर श्रमणसंघ की संख्या बढ़ाई । कई स्थानों पर बौद्ध और वेदान्तियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजय पताका फहराई । कहने की आवश्यकता नहीं है कि उस विकट परिस्थिति में आप जैसे शासन हितैषी सूरीश्वरजी ने ही जैनधर्म को जीवित रक्खा था । उस समय पृथक २ आचार्य होने पर भी संघ में छेद-भेद कोई नहीं डालते थे। संघ भी सबका यथायोग्य सत्कार करता था । यही कारण था कि उस समय का संघ संगठित व्यवस्थित एवं मजबूत था। कोई भी जाति वर्ण का क्यों न हो पर जिसने जैनधर्म स्वीकार कर लिया उसके साथ रोटी बेटी व्यवहार बड़ी खुशी के साथ कर लिया जाता था और उनको सब तरह की सहायता पहुँचा कर अपने बराबर का भाई बनालिया जाता था। धर्म के साथ इस प्रकार की सुविधाओं के कारण ही जैनों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी। उस समय धार्मिक कार्यों में जैनाचार्य का प्रभुत्व था। उनकी आज्ञा का सर्वत्र बहुमान पूर्वक पालन किया जाता था धर्माचार्य और श्रमणसंघ में आपसी प्रमस्नेह वात्सल्यता इस प्रकार थी कि वे पृथक् २ गच्छ के होने पर भी एक रूप में दीखते थे । एक दूसरे के कार्यों का अनुमोदन करते थे ! इतना ही क्यों बल्कि एक दूसरे के कार्य में मदद कर उसको सफल बनाने की कोशिश भी किया करते थे इतना वृहद कार्य करने पर भी मान अहंकार या अहं पद तो उनके नजदीक तक भी नहीं फटकता था । आडम्बर के स्थान वे कार्य करने में अपना गौरव समझते थे । ४१३ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ___इत्यादि कारणों से ही उन्होंने जैनधर्म का ठोस कार्य करने में सफलता प्राप्त की थी। आचार्य सिद्धसूरिने अपने दीर्घशासन में प्रत्येक प्रान्त में अनेक वार विहार कर जैन जनता को अपने उपदेशामृत का लाभ दिया था तथा लाखों मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित कर उनका उद्धार कर जैन संख्या में आशातीत वृद्धि की थी। अन्त में सूरिजी महाराज ने उपकेशपुर पधार कर अपने योग्य शिष्य उपाध्याय गुणचन्द्र को उपकेशपुर के श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक सूरिपद से विभूषित कर दिया और अन्य योग्य मुनियों को भी पदवियाँ प्रदान कर उनके उत्साह में वृद्धि की। प्राचार्य सिद्धसूरीश्वरजी ने उपकेशपुर की लुणाद्री पहाड़ी पर अनशनव्रत धारण कर अपना शेष आयुष्य पूर्ण समाधि में विताया और वि० सं०५२ में नवकार महामंत्र का ध्यान करते हुये स्वर्ग सिधाये। पट्टावलियों वंशावलीयों और कई चरित्र ग्रंथों में बहुत से उल्लेख मिलते हैं । आपकी जानकारी के लिये कतिपय उदाहरण नमूने के तौर पर यहां बतला दिये जाते हैं। १-आचार्य सिद्धसूरि के उपदेश से भद्रगोत्रिय शाह पेथा ने उपकेशपुर से श्रीशत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला जिसमें सवालक्ष द्रव्य व्यय किया । स्वाधर्मी भाइयों का सत्कार पहरामणी दी । २-सूरिजी के उपदेश से माडव्यपुर के डिडूगोत्रिय शाह मलुक नेणसी ने श्री सम्मेतशिखरजी का विराट् संघ निकाला। ३. मेदनीपुरा के बलाह गोत्रिय शाह साहरण ने शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला जिसमें कई ३००० साधु साध्वीयां थीं। ४-पाली के नगर से तातेड़ गोत्रिय शाह जगमल ने शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला। ५-नागपुर के आदित्य नाग गोत्रिय शाह चतरा खेमा ने श्रीशत्रुजय का संघ निकाला। ६-कोरंटपुर के प्राग्वटवंशी रूपणसी ने श्री सम्मेतशिखरजी का विराट संघ निकाला जिसमें उसने नौ लक्ष द्रव्य व्यय किया । ७-मालपुर के प्राग्वट मंत्री रणवीर ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला जिसमें सोना मोहरों की लेन और पहरामणी दी। ८-चन्द्रावती के प्राग्वट शाह देपाल करमण ने श्री शत्रुजय गिरनार का संघ निकाला। ९-शिवपुरी के प्राग्वट नाथा भगा ने उपकेशपुर महावीर यात्रार्थ संघ निकाला जिसमें एक लक्ष द्रव्य व्यय किया। १०--भीनमाल के श्रीमालवंशी शाह भासड़ ने शत्रुजय का संघ निकाला जिसमें तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया। ११-सिंध शिवनगर से मंत्री कल्हण ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला। ५२-सिंध अमरेल नगर से श्रेष्ठि गोत्रिय मंत्री यसोदेव ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला। स्वा. धर्मियों को सोना मोहर की पहरावनी दी। १३-कच्छ राजपुर से श्रीमाल वंशीय धन्नाशाह ने शत्रुजय का विराट संघ निकाला। १४- पंचाल के लोटाकोट से मंत्री हरदेव ने शत्रुजय का संघ निकाला। १५–मेदपाट आहेड़ नगर से मंत्री राजपाल ने शत्रुजय का संघ निकाला। ४१४ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ १६ -- विजयपुर नगर के बालनाग गोत्रिय शाहसारंग ने श्रीउ र केशपुर का संघ निकाल यात्रा करवाई। इनके अलावा सिन्ध पंचालादि प्रान्तों से श्राप तथा आपके योग्य मुनियों के उपदेश एवं अध्यमें कई तीर्थों के संघ निकले । सूरीश्वरजी उपदेश से अनेक महानुभावों ने संसार का त्याग कर आत्मकल्याण के हेतु भगती जैन दीक्षा स्वीकार की । थोड़े से नाम यहां दर्ज कर दिये जाते हैं जिनके उल्लेख पट्टावलियों बगैरह में ता से मिलते हैं। १ -- उपकेशपुर के राव वीरदेव ने अपने पुत्र रामदेवादि के साथ सूरीश्वरजी के चरण कमलों में दीक्षा ग्रहण की। २ -- नागपुर के बापनाग गोत्रिय सुखा ने दीक्षा ग्रहण की। ३ - मेदनीपुर के कर्णाट गोत्रिय शा० गोरा ने अपनी स्त्री और दो पुत्रियों के साथ दीक्षा ली । ४ - आशिक नगरी के भद्रगोत्रिय शाह नारायण ने अपने ८ साथियों के साथ दीक्षा ली । ५ - फेफावती नगरी के भूरि गोत्रिय गोशल ने नौ लक्ष द्रव्य तथा छः मास की वरणी स्त्री के सहित दीक्षा ली जिसके महोत्सव में आपके पिता करत्था ने एक लक्ष द्रव्य व्यय कर जैन शासन की खूब प्रभावना की । ६ - नारदपुरी के श्रेष्ट गोत्रिय शाह हरपाल देवपाल ने महामहोत्सव पूर्वक दीक्षा ली । ७- पद्मावती नगरी के पोरवाल वंशीय शाह माना करना ने ११ नरनारियों के साथ दीक्षा ली जिसके महोत्सव में तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया । ८- सत्यपुर नगर के प्राग्वट मंत्री विजयदेव ने अपनी स्त्री कुमारदेवी १७ नरनारियों के साथ दीक्षा इस महोत्सव में मंत्री के पुत्र सोमदेव ने पांच लक्ष द्रव्य व्यय किया था । ९- चन्द्रावती नगरी के श्रीमाल वंशीय मंत्री धर्मसी ने सूरिजी के चरण कमलों में बड़े ही समारोह के साथ दीक्षा ली । १०- कोरंटपुर के आदित्यनाग गोत्रिय शाह रूपणासी ने अपने पुत्र जेतसी के साथ दीक्षा ली । ११ - नरवर के सुचेती महीपाल ने दीक्षा ली । १२ - रूप नगर के क्षत्रिय त्रिभुवनपाल ने दीक्षा ली । १५ -- बेनातट के जगदेवादि सात ब्राह्मणों ने सूरिजी के उपदेश से भगवती जैनदीक्षा ग्रहण की । १४ -- उपकेशपुर के चिंचट गोत्रिय शा० सारंग बिमल ने सूरिजी के उपदेश से दीक्षा ली । १५ -- रतनपुर के आदित्यनाग गोत्रिय सुलतान ने दीक्षा ली । १६ --- कछोलिया गांव के राव विशल ने दीक्षा ली । इनके अलावा और भी अनेक प्रान्तों एवं अनेक छोटे बड़े प्रामों के अनेक भव्यों ने सूरिजी के शासन में जैन दीक्षा ग्रहण कर स्वपर का कल्याण किया। क्योंकि पहिले जमाने के जीत्र ही हलकर्मी थे कि उनपर थोड़ा उपदेश भी अधिक असर कर जाता था। सूरिजी ने अपने दीर्घशासन में कई १५०० नरनारियों को दीक्षा दी थी ऐसा पट्टावलियों से ज्ञात होता है । सूरीश्वरजी ने अपने शासन काल में कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठायें भी करवाई थीं । कतिपय ४१५ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ur उदाहरण यहाँ दर्ज कर दिये जाते हैं जो वंशावलियों एवं पट्टावलियों में आज भी उपलब्ध हैं जैसे कि : १-उपकेशपुर में श्रेष्ठि गोत्रिय शाह देदा के बनाये आदीश्वर भगवान् के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई जिस महोत्सव में श्रेष्टिवर्य ने एक लक्ष मुद्रा व्यय कर शासन की प्रभावना की। २- भाभोनी में कुमट गोत्रिय शाह बीरम के बनाये भगवान महावीर के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। २-चंदेलिया ग्राम में मोरक्षा गोत्रिय शाह भमण के बनाये पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रा। ४-नाबानी नगरी में आदित्यनाग गोत्रिय शाह पेथा चुनड़े के बनाये महावीर के मंदिर की प्र० ५-चन्द्रावती नगरी में मंत्री राजवीर के बनाये महावीर के मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। ६-नन्दपुर में प्राग्वट वेसट के बनाये पाश्वनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। ७-कीराट कुम्प में प्राग्वट पेथा के बनाये पार्श्वनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। ८-पटकूप में कुलहट गोत्रिय रामदेव के बनाये वीर के मंदिर की प्रतिष्ठा कगई। ९-- मुग्धपुर ततभट्ट गोत्रिय शा. तोला के श्रादीश्वर के मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। १०- नरवर के कर्णाट गोत्रिय खुमाण के बनाये महावीर के मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। ११- नेबलग्राम के सुचेति हरदेव के बनाये महावीर के मंदिर की प्रतिष्ठा कराई । १२-- चाटोड के भद्रगोत्रिय शा. सगरा के बनाये पार्श्वनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। १३- पद्मावती के प्राग्वट रत्लादेदा के बनाये महावीर मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई । १४-- बल्लभी बलह गोत्रिय मंत्री कल्हण के बनाये ऋषभदेव के म०प्र०। १५- कठी के श्रीमालवंशी रावण के बनाये शान्तिनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा कराई । १६-सलखणपुर के राव पोमल के बनाये महावीर के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। १७-- जावलीपुर के श्रेष्ठि भुवड़ के बनाये महावीर के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। १८-भिन्नमाल के प्राग्वट पेथा के बनाये पार्श्वनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। १९--- हर्षपुर के वापनाग गोत्रिय शाह लुने महावीर के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। २०-कोरंटपुर के श्रीमाल श्रादू के भगवान पार्श्वनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। २१–सत्यपुर के प्राग्वट संघपति करमल के बनाये श्रीशान्तिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई। २२--सारंगपुर श्रेष्ठिवर्य रत्नश्री के बनाये महाव र मन्दिर की प्रतिष्टा करवाई। २३- चन्द्रपुरी बाप्पनाग गौत्रीय शाह कानों के बनाये पार्श्वनाथ मन्दिर की प्र० इनके अ सूरिजी ने लाखों मांसभक्षी क्षत्रियों को जैन धर्म में दीक्षित किये अतः जैन समाज पर आपका उपकार हुआ है जिसको समाज भूल नहीं सकता है। पट्ट पन्द्रहवें सिद्ध सूरीश्वर, चिंचट गौत्र कहलाते थे । आगम ज्ञानवल विद्या पूर्ण, जैन झण्ड फहराते थे । वल्लभी का भूप शिलादित्य, चरणे शीश झुकाते थे । सिद्धाचल का भक्त बनाया, जैनधर्म यश गाते थे । ॥ इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के १५ वें पट्टपर प्राचार्य सिद्धसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुये। Jain Education inten४१६ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ३८८ भगवान महाकीर की परम्पराआचार्य उमास्वाति-आपका जन्म न्यग्रोधिका प्राम के ब्राह्मण स्वाति की भार्या उमा की कुक्ष से हुआ था । आर्य महागिरि के शिष्य बलिसिंह के आप शिष्य थे जैसे पद्दावली में लिखा है कि ___"श्री आर्य महागिरेस्तु शिष्यौ बहुल-वलिस्सहौ यमल भ्रातरौ तस्य बलिस्सह स्य शिष्यः स्वाति, तत्त्वार्थादयो ग्रन्थास्तु तत्कृता एव संभाव्यते" पट्टावली समुच्य पृष्ठ ४६ __ आचार्य उमास्वाति ने केवल एक तत्त्वार्थ सूत्र ही नहीं बनाया पर आप श्री ने ५०० ग्रन्थों की रचना की थी आचार्यवादीदेवसूरि अपने स्याद्वाद रत्नाकर में लिखते हैं कि-- ___ "पंचशती प्रकरण प्रणयन प्रवीणौस्त्र भवदभरुमा स्वाति वाचक मुख्यै” आर्य उमास्वाति के समय के विषय कुछ मतभेद है । कारण, तत्त्वार्थ के भाष्य में स्वयं उमास्वाति महाराज लिखते हैं कि मैं उच्चनागोरी शाखा का हूँ। तब कल्प स्थविरावली में प्रार्यदिन्न के शिष्यशान्तिश्रेणिक से उन्चनागोरी शाखा का प्रादुर्भाव हुआ लिखा है । जब आर्य दिन्न का समय वी. नि. ४५१ के आस पास है तो उसके बाद उमास्वाति हुये होंगे । तब प्रज्ञापन्नासूत्र की टीका में लिखा है कि आर्य उमास्वाति के शिष्य श्यामाचार्य ने प्रज्ञापन्ना सूत्र की रचना की और आपका समय वी.नि. ३३५ से ३७६ का बतलाया है। इससे यही मानना युक्तियुक्त है कि उमास्वति महाराज आर्यबलिस्सह के शिष्य और श्यामाचार्य के गुरु थे और आपका समय वी. नि० की चतुर्थ शताब्दी का ही था । श्यामाचाये-आप वाचक उमास्वाति के शिष्य थे और प्रज्ञापन्नासूत्र की संकलना की थी वह आज भी पैंतालीस आगमों के अन्दर उपांग सूत्र में विद्यमान है । प्रस्तुत प्रज्ञापन्ना सूत्र में जो प्रश्नोत्तर किये गये हैं वह सब गौतम स्वामी ने प्रश्न पूछे हैं और भगवान महावीर ने उत्तर दिये हैं। इससे पाया जाता है कि यह सूत्र तो पूर्व का ही होगा परन्तु इसकी संकलना श्यामाचार्य ने की होगी। प्रज्ञापन्नासूत्र- छत्तीस पदों से विभूषित है । प्रत्येक पद तात्विक एवं वैज्ञानिक विषय से ओत प्रोत है जिसका संक्षिप्त से दिग्दर्शन मात्र यहाँ करवा दिया जाता है । १--पहले पद में-जीव अजीव की प्ररूपणा है जिसमें जीव की प्ररूपना विस्तार से है २-दूसरे पद में-चौबीस दंडक के स्थानाधिकार हैं । यह पद भी खूब विवरण के साथ लिखा है ३-तीसरे पद में-महादंडक तमाम जीवों की अल्पाबहुत करके समझाया है। ४ - चौथे पद में तमाम जीवों के पर्याप्ता अपर्याप्ता की जघन्य उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन है। ५ -पाँचवें पद में-जीव अजीव पर्याय का वर्णन है इसमें संसार भर का विज्ञान है । ६-छट्टे पद में-चराचर जीवों की गति एवं आगति का वर्णन है । ७-सातवां पद में-श्वासोश्वास का अधिकार है। ८-पाठवां पद में-दश प्रकार की संज्ञा का वर्णन है । ९-नौवा पद में-सांसारिक जीवों की योनि का विस्तार है । ५३ ४१७ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १०-दशवां पद में-चरम अचरम का वर्णन है । ११-ग्यारहवां पद में--भाषा का विवरण विस्तार से लिखा है। १२-वारहवां पद में-पांच शरीर के बँधेलगा मुकेलगादि का विस्तार से वर्णन है। १३-तेरहवां पद में - परिणाम अर्थात् जीव परिणाम अजीव परिणाम का वर्णन है । १४-चौदहवें पद में --क्रोधादि चार कषाय के ५२०० भंगों का वर्णन है । १५-पन्द्रहवाँ पद में-पांच भाव इन्द्रियें और आठ द्रव्येन्द्रियों का वर्णन है। १६-सोलहवें पद में-प्रयोग योगों की विचित्रता का अधिकार है। १७-सतरवें पद में-लेश्या छः उद्देश्यों में लेश्याओं का विस्तार है । १८-अठारहवें पद में-कायस्थिति जो एक काया में जीव कहां तक रह सके । १९-उन्नीसवां पद में-दर्शन-दर्शन कितने प्रकार के और उनके लक्षण । २०-वीसवां पद में-अन्तः क्रिया--- कौन सा जीव किस प्रकार अन्त क्रिया करते हैं । २१- इकवीसवां पद में--शरीर अवगाहना का विस्तार से वर्णन किया है । २२-बावीसवां पद में-काइयादि क्रियाओं का वर्णन है। २३.-- तेवीसवां पद में- कर्मों का आबादाकाल कौनसा कर्मबँधने के बाद कितना काल से उदय आवे। २४ - चौवीसवां पद में-कर्म बान्धता हुआ कितना कर्म साथ में बंध सकता है । २५-पंचवीसवां पद में-कर्म बन्धता हुआ कितना कर्मों को वेद सकता है। २६-छबीसवां पद में-कर्म वेदता हुआ जीव कितना कर्म बन्ध करता है। २७-सताबीसवां पद में-कर्म वेदता हुआ कितना कर्म वेदे। २८-अठाबीसवाँ पद में-चौबीस दंडक के जीव आहार किस पुद्गलों का लेते हैं । ६९-गुणतीसवाँ पद में--उपयोग साकार-अनाकार दो प्रकार के उपयोग होते हैं । ३०-तीसवाँ पद में-पासनीया-इसमें साकार उपयोग का अधिकार है । ३१-इकतीसवाँ पद में-संज्ञी-जीव संज्ञी असंज्ञी दो प्रकार के होते हैं । ३२-बत्तीसवां पद में--संयति-संयति असंयति संयतासंयति आदि का वर्णन है । ३३-तेतीसवाँ पद में-अवधि-अवधिज्ञान कितने प्रकार का है। ३४-चोतीसवाँ पद में प्रचारना-प्रचारना कहाँ तक किस प्रकार की है। ३५-पैतीसवाँ पद में वेदना-चौबीस दंडक के जीवों को वेदना किस प्रकार से होती है । ३६-छतीसवाँ पद में-समुद्घात्-सात समुद्घात का विस्तार से वर्णन है । इस प्रज्ञापन्नसूत्र के मूलश्लोक करीब ७७८७ हैं। आचार्य विमलसरि-आप नागिल शाखा के राहु नामक प्राचार्य के शिष्य विजयसूरि के शिष्य थे । आपने प्राकृत भाषा में 'पउमचरियम्' अर्थात् पद्मचरित्र ( जनरामायण ) नामक ग्रन्थ की रचना की जिसके समय के लिये कहा है किपंचेव य वाससया दुसमाए तीस वरिस संजुत्ता । वीरे सिद्धिमुवगए तओणिबध्धं इयं चरियं ॥ ४१८ --श्री वीर परम्परा Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ वीरात् ५३० अर्थात विक्रम सं० ६० में विमलसूरि ने पद्मचरित्र ( जैनरामायण ) की रचना की जिसको लोग बड़ी रुचि के साथ सुनते और आनन्द को प्राप्त होते थे। यों तो पद्म नामक बलदेव ( रामचन्द्रजी ) का नाम समवायाङ्ग सूत्र वगैरह जैन मूल आगमों में आता है। पर इस प्रकार विस्तार पूर्वक सब से पहला विमलसूरि का 'पउमचरिय' ग्रन्थ ही है। नागोर के बड़े मन्दिर में एक सर्वधातु की मूर्ति है जिसके पीछे एक लेख खुदा हुआ है। उसमें वि० सं० ३२ के लेख में भी विमलसूरि का नाम है । शायद यह विमलसूरि 'पउमचरिय' ग्रन्थ के लेखक ही हों। आर्य इन्द्रदिन्न-श्रार्य सुस्थी और श्रार्य सुप्रतिबुद्ध के पट्ट पर आचार्य इन्द्र दिन्न हुये और आचार्य इन्द्रदिन्न के पट्टधर आचार्य दिन्न हुये । इन दशवें और ग्यारहवें पट्टधरों के लिये पट्टावलीकारों ने विशेष वर्णन नहीं किया है । हाँ, स्थविरावलीकार ने आर्य दिन्न के मुख्य दो स्थविर बतलाये हैं १-आर्य शान्तिसेनिक २-आय सिंहगिरि । जिसमें आचार्य शान्ति सेनिक से उच्चनागोरी शाखा का प्रादुर्भाव हुआ और आर्य्य शान्तिसेनिक के प्रधान चार शिष्य हुये और वे चारों शिष्य इतने प्रभाविक थे कि उन चारों शिष्यों के नाम से चार शाखायें प्रचलित हुई जैसे १-आर्य सेनिक से सकिन शाखा चली। ३-आर्य कुवेर से कुवेरी शाखा चली । २- आर्य तोपस से तापस शाखा चली। ४-आर्य ऋषि पालित से ऋषि पालित शाखा चली। दूसरे आर्यसिंहगिरि नामक स्थविर के भी मुख्य चार शिष्य थे जैसे १-आर्य धनगिरि २आर्य वज्र ३-आर्य समित ४-आर्य अर्हबलि । जिसमें आर्य व्रज से बज्री शाखा और आर्य समित से ब्रह्मद्वीपका शाखा चली जिन्हों का वर्णन आगे आर्य वज्र के अधिकार में किया जायगा । इनके अलावा पूर्व बतलाये हुए गण कुल शाखाओं में बड़े बड़े धुरन्धर युगप्रवर्तक महान प्रभाविक आचार्य हुए जिन्हों का अधिकार पृथक् २ ग्रन्थों में किया गया है । परन्तु पाठकों की सुविधा के लिए यहां पर संग्रह कर दिया जाता है । युगप्रधानाचार्यों में कालकाचार्य का नाम जैन संसार में बहुत प्रसिद्ध है पर कालकाचार्य नाम के कई आचार्य हो गये हैं और उन्हों के साथ कई घटनायें भी घटित हुई हैं परन्तु नाम की साम्यता होने से यह बतलाना कठिन हो गया है कि कौन सी घटना किस आचार्य के साथ घटी। इसके लिए कुछ विस्तार से शोध खोज की जरूरत रहती है, अतः पहले तो यह बतला देना ठीक होगा कि कौन से कालकाचार्य किस समय हुए जैसे कि --- सिरिवीराओ गएसु, पणतीसहिएसु तिसय (३३५) वरिसेसु । पढमो कालगसूरी, जाओ सामज्जनामुत्ति ॥ ५५ ॥ चउसयतिपन्न (४५३ ) वरिसे, कालगगुरुण सरस्सरी गहिआ । चउसयसत्तरि वरिसे, वीराओ विकमो जाओ ॥ ५६ ॥ पंचेव य वरिससए, सिद्धसेणे दिवायरो जाओ । सत्तसयवीस (७२०) अहिए, कलिग गुरू, सक्कसंथुणिओ॥५७ ॥ श्री कालकाचार्य ४१९ Jain Education in Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नवसयतेणउएहिं (९९३), समइक्कतेहिं वद्धमाणाओ । पज्जोसवणचउत्थी, कालिकमरीहिंतो ठविआ ॥ ५८ ॥ रत्न संच्य प्रकरण से १-प्रथम कालकाचार्य वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ में २-द्वितीय कालकाचार्य वीरात् ४५३ से ४६५ तक ३-तृतीय कालकाचार्य वीर नि० सं० ७२० में ४-चतुर्थ कालकाचार्य वीरात् ९९३ वर्ष में । कालकाचार्य के साथ घटित घटनाएं १-- राजादत्त को यज्ञफल बतलाकर प्रतिबोध करना । आवश्यक चूर्णी में २- प्रज्ञापन्ना सूत्र की रचना करना । प्रज्ञापन्ना सूत्र में ३-इन्द्र को निगोद * का स्वरूप बतलाना । उत्तराध्ययन नियुक्ति में ४-आजीविकों से निमित्त पढ़ना । पंचकल्प चूर्णी में । ५-अनुयोग का निर्माण करना + | पंचकल्पचूर्णी में ६-गर्दभिल्ल का उच्छेद और साध्वी सरस्वती की रक्षा । निशीथचूर्णी व्यवहार चूर्णी में । ७–साँवत्सारिक पर्व भाद्रपद शुक्ल पंचमी का चतुर्थी को करना । निशीथ चूर्णी में । 28 इन्द्र ने निगोद के जीवों का स्वरूप पूछा इस घटना के लिए शास्त्रकारों ने तीन आचार्यों के लिए घटित की है :-प्रथम कालकाचार्य (श्यामाचार्य) के साथ २-दूसरा कालकाचार्य जिनको निगोद व्याख्याता के नाम से बतलाया है ३-और तीसरे आर्यरक्षित सूरि के साथ जैसे इतश्चस्ति विदेहेषु श्री सीमंधर तीर्थकृत । तदुपास्त्यै ययौ शक्रोऽश्रौषीह्याख्यां च तमन्नाः ॥ निगोदाख्यान माख्याच्च केवली तस्य तत्त्वतः । इन्द्रः पप्रच्छ भरते को ऽन्यस्तेषां विचारकृत् ॥ अथाहत्याह मथुरानगर्यामार्यरक्षितः । निगोदान्मद्वदाचष्ट ततो ऽ सौ विस्मयं ययौ ॥ प्रतीतोऽपि च चित्रार्थ वृद्धब्राह्मणरूपभृत् । आययौ गुरुपार्थे स शीघ्र हस्तौ च धूनयन् ।। काशप्रसूनसंकाशकेशो यष्टि श्रिताङ्गकः । सश्वासप्रसरो विष्वग्गलच्चक्षुर्जलप्लवः ॥ एवंरूपः स पप्रच्छ निगोदानां विचारणम् । यथावस्थं गुरुाख्यात्सोऽथ तेन चमत्कृतः ॥ जिज्ञासुनिमहात्म्यं पप्रच्छ निजजीवितम् । ततः श्रुतोपयोगेन व्यचिन्तयदिदं गुरुः ॥ तदायुर्दिवसैःपझैमासैः संवत्सरैरपि। तेषां शतैः सहस्त्रैश्चातुतैरपि न मीयते ॥ लक्षाभिः कोटिभिः पूर्वैः पल्यैः पल्यशतैरपि । तल्लक्षकोटिभिनैव सागरेणापि नान्तभृत् ॥ सागरोपमयुग्मे च पूर्णेशाते तदायुषि । भवान् सौधर्म सुत्रामा परीक्षा किं म ईक्ष से ॥ प्रभावक चरित आयरक्षित प्रबन्ध पृ० २६ यह एक ही घटना तीन आचार्यों के साथ लिखी गई है या एक घटना तीन बार बनी है । सम्बन्ध देखने से पाया जाता है कि यह घटना द्वितीय कालकाचार्य ( सरस्वती का भाई) के साथ घटी है। आगे उपरोक्त गाथा में वी. नि० सं ७२० में जो कालकाचार्य हुये लिखाहैं उनके साथ भी सक्कसंथुणिओं' लिखा है । शायद इसका अर्थ भी वही हो कि इन्द्र ने स्तुति की है परन्तु किस विषय के लिये इनका वर्णन दृष्टिगोचर नहीं होता है + पढमणुओगे कासी जिण-वक्कि-दसार चारिय पुन्वभवे । कालगसूरी बहुयं लोगणुओगे निमितं च ॥ Jain Educat४२०national श्री वीरपरम्परा oraly.org Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ ८. शक्रेन्द्र आकर स्तुति की थी। रत्न संचय ग्रन्थादि । ९-बल्लभी में आगम पुस्तकों पर लिखते समय शामिल थे-श्रावश्यक चूर्णी आदि में । ___ उपरोक्त घटनायें किस समय और किस कालकाचार्य के साथ घटी थी। ___A पहिली घटना के नायक कालकाचार्य उपरोक्त चार कालकाचार्य से अलग हैं, कारण इस घटना का समय वीर नि० सं० ३०० के आस पास का बतलाया है। ____B. दूसरी तीसरी घटना के नायक उपरोक्त चार कालक से पहिले + कालकाचार्य हैं जिन्हों का नाम श्यामाचार्य भी था और आपका समय वी० ३३५-३७६ है । * पर मेरुतुंगसूरि ने आपका समय ३२० का लिखा है शायद् यह समय दीक्षा को लक्ष में रख लिखा हो। __C चौथी, पांचवीं, छट्टी और सातवीं घटना के नायक दूसरे कालकाचार्य हैं जिन्हों का समय वीरात् ४५३ से ४६५ तक है ।। _D आठवीं घटना के स्वामि तीसरे कालकाचार्य हैं जिन्हों का समय वीरात् ७२० का है पर यह अप्रसिद्ध है। E नौवीं घटना के नायक चतुर्थ कालकाचार्य हैं श्रापका समय वी० नि० ९९३ वर्ष का है । पूर्वोक्त गाथाओं में सांवत्सरिक चतुर्थी के करने वाले चतुर्थ कालकाचार्य को लिखा है पर वास्तविक चौथ की सांवत्सरी के कर्ता द्वितीय कालकाचार्य ही हैं जिसके लिये आगे चल कर लिखेंगे। उपरोक्त चार एवं पांच कालकाचार्यों में धर्म एवं राज में क्रान्ति पैदा करने वाले दूसरे कालकाचार्य हुये उनका ही जीवन यहाँ लिखा जा रहा है। धारावास नगर में राजा वैरसिंह राज करता था आपकी रानी का नाम सुरसुन्दरी था । आपके दो संतान पैदा हुई जिसमें कुवर का नाम कालका और कन्या का नाम सरस्वती था कालककुँवर के सब ____ + एक कथा में ऐसा भी लिखा मिलता है कि स्वर्ग से एक ब्राह्मण का रूप धारण करके इन्द्र कालकाचार्य को बन्दन करने को आया था तो ब्राह्मण ने अपना हाथ कालकाचार्य को दिखलाया कि मेरी आयुष्य कितनी है ? सूरिजी ने रेखा पर लक्ष देकर सौ दो सौ और तीन सौ वर्ष तक का अनुमान किया पर आयुष्यरेखा तो उससे भी बढ़ती गई तब जाकर उपयोग लगाया कि इस पंचमारे में इससे अधिक आयुष्य हो नहीं सकती है तो यह कौन होगा ? विशेष उपयोग लगाने से मालूम हुआ कि यह तो पहिले स्वर्ग का इन्द्र है। सूरिजा ने कहा आपकी आयुष्य दो सागरोपम की है जिसको सुनकर इन्द्र ने सोचा कि कालकाचार्य बड़े ही ज्ञानी हैं। इससे यह भी पाया जाता है कि जम्बुद्वीप्रज्ञाप्तीसूत्रादिशास्त्रों में पंचमारा में उत्कृष्टि ६२० वर्ष की आयुष्य बतलाई है। यह मुख्यता से कहां है पर गौणता से इससे अधिक आयु भी हो सकती है जैसे कालकाचार्य ने ३०० वर्ष तक का अनुमान किया था। आज पाश्चात्य प्रदेशों में १५०-२०० वर्षों के आयुष्य वाले मनुष्य मौजूद हैं जिसको देख भद्रिक लोग शंका करने लग जाते हैं कि अपने सूत्रों में तो पंचमारा में १२० वर्ष की ही आयु कही है तो १५०-२०० वर्षों की आयु कैसे हो सकती है इसका समाधान उपरोक्त घटना से हो सकता है कि १२० वर्ष का आयुष्य मौख्यतासे कहा है तब गौणतासे पंचमारे में ३०० वर्ष तक की आयुष्य हो सकती है। १ सिरिवीर जिणिदाओ, वरिससया तिन्निवीस (३२०) अहियाओ । कालायसूरी जाओ, सक्को पडिबोहिओ जेण ॥ मेरुतुगसूरि की 'विचारश्रेणी' १ कालको काल कोदण्ड खण्डितारिः (?) सुतोऽभवत् । सुता सरस्वती नाम्ना ब्रह्मभूविश्वपावना ॥ ७ ॥ कालकाचार्य ४२१ Jain Education international Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लक्षण क्षत्रियवंशोचित थे । यों तो आप पुरुषकी ७२ कला में निपुण थे पर वाणविद्या और अश्वपरीक्षा ये दो गुण आपमें असाधारण थे। राजकन्या सरस्वती भी महिलाओं की ६४ कला में प्रवीण थी। आपका घराना जैनधर्म का परमोपासक था अतः कुंवर कालक और राजकन्या सरस्वती के धार्मिक संस्कार बचपन से ही जम गये थे और वे दोनों धार्मिक अभ्यास भी किया करते थे। एक समय आचार्य गुणाकरसूरि जो विद्याधर शाखा के प्राचार्य थे अपने शिष्य समुदाय के साथ भ्रमण करते हुये धारावासनगर के उद्यान में पधार गये । राजा प्रजा ने सूरिजी का सुन्दर सत्कार किया और धर्मोपदेश श्रवण करने को उद्यान में गये । अतः सूरिजी ने भी आये हुये धर्म-पिपासुओं को देशनामृत का पान कराना शुरू किया। ठीक उसी समय राजकुंवर कालक अश्व खिलाता हुआ उस उद्यान के एक भाग में आ ठहरा, इससे सूरिजी की वाणी उसको कर्णप्रिय हो गई। कालक ने सूरिजी का सम्पूर्ण व्याख्यान सुना और बाद में प्राचार्यश्री के पास जाकर वन्दन किया । सूरिजी ने राजकुमार के शुभलक्षण देख संसार की असारता राज ऋद्धि एवं लक्ष्मी की चंचलता और विषय कषाय के कटुक फलों को इस कदर समझाया कि उसका दिल संसार से विरक्त हो गया । साथ में सूरिजी ने तप संयम की आराधना से अक्षय सुखों की प्राप्ति के लिये भी गम्भीरता पूर्वक समझाया कि जिससे कालकने निश्चय कर लिया कि माता पिता की आज्ञा लेकर मैं सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा ग्रहण कर लंगा । जब कुमार ने माता पिता के पास आकर अपने दिल की बात कही तो वे कब चाहते थे कि कालक जसा पुत्र हमारे से सदैव के लिये अलग हो जाय । उन्होंने बहुत कहा पर जिनके हृदय पर सच्चा वैराग्य का रंग लग जाता है उन्हें संसार कारागृह के सदृश्य दीखने लग जाता है। विशेषता यह हुई कि कालक की बातें सुनकर राजकन्या सरस्वती भी संसार से विरक्त हो दीक्षा लेने को तैयार हो गई । आखिर राजा ने दीक्षा-महोत्सव किया और कालक एवं सरस्वती ने सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा ग्रहण कर ली । मुनि कालक ने ज्ञानाभ्यास कर सर्व गुणों को सम्पादित कर लिया। जिन्होंने संसार में राजपद योग्य सर्व गुण हासिल कर लिया तो मुनिपने में सूरिपद योग्य गुण प्राप्त करले इसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है । आचार्य गुणाकर सूरि ने मुनि कालक को सर्वगुण सम्पन्न जान कर सूरि पद से विभूषित कर कई साधुओं के साथ अलग विहार करने की आज्ञा दे दी। कालकाचार्य विहार करते एक समय उज्जैनकनगरी के उद्यान में पधारे, इधर से साध्वियों के साथ २ प्रव्रज्यादायि तैस्तस्य तया युक्तस्य च स्वयम् । अधीती सर्वशास्त्राणि स प्रज्ञातिशयादभूत् ॥२४॥ * स्वपट्टे कालकं योग्यं प्रतिष्ठाप्य गुरुस्ततः । श्रीमान् गुणाकरः सूरिः प्रेत्यकार्याण्यसाधयन् ॥ २५॥ 28 अथ श्री कालकाचार्यो विहरन्नन्यदा ययौ । पुरीमुज्जयिनी वाह्यारामेऽस्याः समवासरत् ॥ २६ ॥ मोहान्धतमसे तत्र मनानं भव्यजन्मिनाम् । सम्यगर्थप्रकाशेऽभूत्प्रभूष्णुमणि दीपवत् ॥ २७ ॥ तत्र श्रीगर्दभिल्लाख्यः पुर्यां राजा महाबलः । कदाचित्पुरवाहो| कुर्बाणो राजपाटिकाम् ॥ २८ ॥ कर्मसंयोगतस्तत्र ब्रजन्तीमैक्षत स्वयम् । जामि कालकसूरीणां काको दधिघटीमिव ॥ २९ ॥ हा रक्ष रक्ष सोदर्य क्रन्दन्ती करुणं स्वरम् । अपाजीहर दत्युग्रकर्मभिः पुरुषः स ताम् ॥ ३० ॥ साध्वीभ्यस्तत्परिज्ञाय कालक प्रभुरप्यथ । स्वयं राजसमज्यायां गत्वावादीत्तदग्रतः ॥३१॥ ४२२ श्री वीरपरम्परा Jain Education international Magainelibrary.org Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाय सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ३८८ आर्या सरस्वती ने भी उज्जैन में पदार्पण किया । उस समय उज्जैन में गर्दभिल्ल नाम का राजा राज करता था, वह अन्यायी तो था ही पर साथ में व्यभिचारी भी था । एक समय राजा की दृष्टि बालब्रह्मचारिणी सती परस्वती साध्वी पर पड़ी जिसके रूप योवन और लावण्य पर मुग्ध बनकर राजा ने अपने अनुचरों से साध्वी को बलात्कार अपने राजमहलों में बुलाली । साध्वी विचारी बहुत रुदन करती हुई खूब चिल्लाई पर जब राजा ही अन्याय कर रहा हो तो सुने भी कौन । साथ की साध्वियों ने आकर सब हाल कालका चार्य को कहा तो कालकाचार्य को बड़ा ही अफसोस हुआ और उन्होंने गजा के पास जाकर राजा को बहुत समझाया पर वह तो था कामान्ध, उसने सूरिजी की एक भी नहीं सुनी । वे निराश होकर वापिस लौट पाये । तदनन्तर उज्जैन के संघ अग्रेश्वर अनेक प्रकार से भेंट लेकर राजा के पास गये और साध्वी को छोड़ने की प्रार्थना की पर उस पापिष्ट व्यभिचारी ने किसी की भी नहीं सुनी। इस हालत में कालकाचार्य ने भीषण प्रतिज्ञा कर ली कि मैं इस व्यभिचारी राजा को सकुटुम्ब पदभ्रष्ट नहीं कर दूँ तो मेरा नाम कालकाचार्य नहीं है। सूरिजी कई दिन तो नगर में पागल की भांति फिरे पर इससे होने वाला क्या था । उस समय भरोंच नगर में बल मित्र भानु मत्र नाम के राजा राज करते थे और वे कालकाचार्यके भानजे थे । कालकाचार्य उनके पास गये पर वे भी गर्दभिल्ल का दमन करने में असमर्थ थे। दूसरे भी कई राजाओं के पास गये पर सूरिजी के दर्द की बात किसी ने भी नहीं सुनी । इस हालत में लाचार हो श्राप सिन्धु नदी को पार कर पार्श्वकुल अर्थात पार्श्व की खाड़ी के पास के प्रदेश (ईरान) में गये जिसको शाकद्वीप भी कहते हैं । वहाँ के राजाओं ॐ जैन लेखकों का कथन है कि जिस राजा ने कालकाचार्य की बहिन सरस्वती का उपहरण किया था उसका नाम 'दप्पण' (दर्पण) था और किसी योगी की तरफ से गर्दभी विद्या प्राप्त करने से वह 'गर्दभिल्ल' कहलाता था। बृहत्कल्प भाष्य और चूर्णि में भी राजा गर्दभ सम्बन्धी कुछ बातें हैं, जिनका सार यह है कि उज्जयिनी नगरी में अनिलपुत्र श्रव नामक राजा और उसका पुत्र गर्दभ युवराज था। गर्दभ के आडोलिया नाम की बहिन थी। यौवनप्राप्त अडौलिया का रूप सौन्दर्य देख कर युवराज गर्दभ उस पर मोहित हो गया। उसके मंत्री दीर्घपृष्ट को यह मालूम हुई और उसने अडौलिया को सातवें भूमिघर में रख दिया और गर्दभ उसके पास आने जाने लगा।' चूर्णि का मूल लेख इस प्रकार है "उज्जैणी णगरी, तत्थ अणिलसुतो जवो नाम राया, तस्स पुत्तो गद्दभोणाम जुवराया, तस्स रण्णो धूआ गद्दभस्स भइणी अडोलिया णाम, सा य रूपवती तस्स य जुवरणो दीहपट्ठो णाम सचिवो (अमात्य इत्यर्थः) ताहे सो जुवराखा तं अडोलियं भइणि पासित्ता अज्झोववरणों दवली भवइ । अमच्चेण पुच्छितो णिबंधे सिट्ठां अमच्चेण भण्णाइ सागारियं भविस्सति तो सत्तभूमीवरे छुभउ तत्थ भुंजाहि ताए समं फोए लोगों जागिस्सइ सा कहिं पिणटा एवं होउत्ति कतं ।" संभव है, साध्वी सरस्वती का अपहारक गर्दभिल और अडेलिया का कामी यह गर्दभ दोनों एक ही हों। जब अपनी बहिन का ही विवेक नहीं था तो दूसरे का तो कहना ही क्या। x शाखिदेशश्च तत्रास्ति राजानस्तत्र शाखयः । शकापराभिधाः सन्ति नवतिः षड्रिमरर्गला ॥ ४४ ॥ तेषामेकोधिराजोस्ति सप्तलक्ष तुरङमाः । तुरङ्गायुत मानाश्चापरेपि स्युनश्चराः ॥ ४५ ॥ एको माण्डलिकस्तेषां प्रैषी कालकसूरिणा । अनेक कौतुक प्रेक्षाहुतचित्तः कृतोऽथ सः ॥ ४६ ॥ x Jain Edu सरस्वती का अपहरण ४२३ www.ainetbrary.org Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को शाही यानि शाह की उपाधि थी अतः जैन ग्रन्थकारों ने उनको शाही राजा के नाम से लिखा है पर मैं तो यहाँ उनको शक नाम से ही लिलूँगा, कारण वे भारत में आने पर शक ही कहलाते थे और आगे चल. कर उन्होंने शक संवत् चलाया वह आज भी चलता है। उस समय उस शक प्रदेश में ९६ मण्डलीक राजा और उन पर एक सत्ताधीश राजा राज करता था उनके पास सात लक्ष घोड़ों की सैना थी । कालकाचार्य किसी एक मण्डलीक राजा के पास गये और कई दिन वहाँ ठहर कर आपने अात्मिक ज्ञान एवं निमित्तादि अनेक विद्याओं से शक राजा को वश में कर उसका चित्त अपनी ओर आकर्षित कर लिया। शक राजा को भी विश्वास हो गया कि यह कोई निस्पृही महात्मा हैं अतः वह सूरिजी का पक्का भक्त बन गया । हमेशा दोनों की ज्ञानगोष्टी हुआ करती थी। एक समय ९६ मण्डलिकों के मालिक राजा ने एक कटोरा एक छुरा और एक पत्र उस मण्डलीक शक राजा के पास भेजा जहाँ कालकाचार्य रहता था। उस पत्र को पढ़ कर शक शोकातुर हो गया। कालकाचार्य ने कहा कि आपको भेंट आई है, यह हर्ष का विषय है आप उदास क्यों हैं ? उसने कहा कि यह इनाम नहीं पर काल की निशानी है । पत्र में लिखा है कि इस छुरे से तुम अपना शिर काट कर इस कटोरे में रख कर भेज दो बरना तुम्हारे बाल बच्चादि सब कुटुम्ब का नाश कर डालूंगा और यह हुकुम केवल एक मेरे पर ही नहीं पर इस छुरे पर ९६ का नम्बर है अतः ९६ मण्डलिकों पर भेजा होगा। कालकाचार्य ने अपने कार्य की सिद्धि का सुअवसर समझ कर कहा कि आप घबराते क्यों हो ? ९५ मण्डलिकों को यहाँ बुला लीजिये अतः आप ९६ मण्डलीक मिल कर मेरे साथ चलें मैं आपका बचाव ही नहीं पर आपको भारत की मुख्य राजधानी उज्जैन का राज दिलवा दूंगा । मृत्यु के सामने इन्सान क्या नहीं करता है । शक राजा ने ९५ मण्डलिकों को गुप्तरीति से बुला लिया और ९६ मण्डलीक वहाँ से चल कर भारत में आ गये पर सौराष्ट्र प्रदेश में आये कि चतुर्मास के कारण बरसात शुरू हो गई अतः उन ९६ मण्डलिकों ने अपना पड़ाव सौराष्ट्र में ही डाल दिया इतना ही क्यों पर कुछ सौराष्ट्र का प्रदेश भी अपने अधिकार में कर लिया बाद जब चतुर्मास व्यतीत हो गया तो कालकाचार्य ने चलने की प्रेरणा की पर शकों ने कहा कि हम खर्चा से तंग हो गये हैं और द्रव्य बिना काम चल नहीं सकता है इस पर कालकाचार्य ने कुम्हार के कजावे पर एक ऐसी रसायन डाली कि वह सब सोने का हो गया। तब आकर शकों को कहा लो तुमको कितना द्रव्य चाहिये जरूरत हो उतना ही सुवर्ण ले लीजिये । इस चमत्कार को देख शक तो आश्चर्य में डूब गये और उनका उत्साह खूब ही बढ़ गया। फिर तो था ही क्या ? उन्होंने इच्छित द्रव्य ग्रहण कर वहाँ से प्रस्थान कर दिया और रास्ता में भरोंच के बलमित्र भानुमित्र वगैरह राजाओं को +: पृष्टश्चित्रान्मुनीन्द्रेण प्रसादे स्वामिनः स्फुट । आयाते प्रामृते हर्षस्थाने किं विपरीतता ॥ ५२ ॥ तेनीचे मित्र कोपोऽयं न प्रसादःप्रभोनन । प्रेष्यं मया शिरश्ठित्वा स्वीयं शस्त्रिकयानया ॥ ५३ ॥ 8 सर्वेपि गुप्तमाह्वाय्य सूरिभिस्तत्र मेलिताः । तरीभिः सिन्धुमुत्तीर्य सुराष्ट्रान्ते समाययुः ॥ ५६ ॥ + सूरिणाथ सुहृद्रजा प्रयाणेऽजलप्यत स्फुटम् । स प्राह शंबलं नास्ति येन नो भावि शंबलम् ॥ ६२ ॥ श्रुत्वेतिं कुम्भकारस्य गृह ऐकत्र जग्मिवान् । वह्निना पच्यमानं चेष्टकापाकं ददर्श च ॥ ६३ ॥ कनिष्ठिकानखं पूर्ण चूर्णयोगस्य कस्यचित् । आक्षेपात्तन्त्र चिक्षेपाक्षेप्य शक्तिस्तदा गुरुः ॥ ६४ ॥ विध्यातेऽत्र ययावने राज्ञः प्रोवाच पत्सखे। विभज्य हेम गृहीत यात्रा संवाह हेतवे ॥ ६५ ॥ श्री वीर परम्परा Jain Educa r national Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ साथ में लेकर उज्जैन की ओर चलधरे । गर्दभिल्ल : को इस बात का पता लग गया कि उज्जैन पर शकों की सैना आ रही है पर उसने न तो लड़ाई का सामान तैयार किया न सैना को सजाया और न किल्ला एवं नगर का द्वार ही बन्द किया । इसका कारण यह था कि उसके पास गर्दभिविद्या थी। उसकी साधना करने पर वह गदभि के रूप में आती थी और किले पर खड़ी रह कर इस प्रकार का शब्दोचारण करती थी कि पाँच-पाँच मील पर जो कोई मनुष्य होता तो मर ही जाता था। इस गर्व में उसने किसी प्रकार की तैयारी नहीं की पर गर्दभिल्ल के विद्या अष्टमी चतुर्दशी को ही सिद्ध होती थी। शक राजा पहिले ही पहुँच गये थे अतः संग्राम शुरू हो गया पर गर्दभिल्ल की सैना भाग कर किले में चली गई। तब गर्दभिल्ल संग्राम बन्द कर विद्या साधने में लग गया ! वातावरण सर्वत्र शान्त देख शकों ने कालकाचार्य से पूछा कि इस शान्ति का क्या कारण है ? सूरिजी ने कहा गर्दभिल्ल गर्दभि विद्या साध रहा है । आप सब लोग अपनी-अपनी सेना लेकर पांच मील से दूर चले जाओ केवल १०८ विश्वासपात्र एवं होशियार बाणधारी सुभट मेरे पास रख दो शकों x ने ऐसा ही किया । सूरिजी ने उन वाणधारियों को समझा दिया कि आप अपना बाण साधकर तैयार रहो कि किल्ले पर जिस समय गर्दभि शब्दोचारण करने को मुँह फाड़े उस समय सब ही एक साथ में गर्दभि के फटे हुए मुँह में बाण फेंक कर उसका मुँह भर दो, बस । आपकी विजय हो जायगी। फिर तो था ही क्या, उन विजयाकांक्षियों ने ऐसा ही किया अर्थात् ज्यों ही गर्दभि ने मुंह फाड़ा त्यों ही उन वाणधारियों ने बाण चलाये और गर्दभि का मुंह वाणों से भर दिया, वह एक शब्द भी उच्चारण नहीं कर सकी। अतः गर्दभि को बहुत गुस्सा आया और वह गर्दभिल्ल पर नाराज हो उसके शिर पर भृष्टा और पेशाव करके एवं पदाघात कर चली गई। इस हालत में शकों ने धावा बोल दिया वस लीला मात्र में गर्दभिल्ल को पकड़ कर कालकाचार्य के पास लाये । गर्दभिल्ल ने लज्जा के मारे मुँह नीचा कर लिया। कालकाचार्य ने कहा "अरे दुष्ट ! एक सती साध्वी पर अत्याचार करने का यह तो नाम मात्र फल मिला है पर इसका पूरा फल तो नरकादि गति में ही मिलेगा इत्यादि । शक लोग गर्दभिल्ल को जान से मार डालना चाहते थे पर कालकसूरि ने दया लाकर उसको जीवित छुड़ा दिया । गर्दमिल्ल वहाँ से मुँह लेकर जंगल में चला गया वहाँ एक शेर ने उसे मार डाला अतः वह मर कर नरक में गया । कालकाचार्य सरस्वती साध्वी को छुड़ाकर लाये और पराधीनता में साध्वी को जो कुछ अतिचार लगा उसकी आलोचना२ देकर उसे पुनः साध्वियों में शामिल करदी तथा स्वयं सूरिजी ने जैन धर्म की रक्षा के लिये सावध कार्यों में प्रवृति की उसकी आलोचना करके शुद्ध हुये और पुनः गच्छ का भार अपने शिर पर लिया। ___ जैनधर्म में उत्सर्गोपवाद दो मार्ग बतलाये हैं । जब आपत्ति आजाती है तब अपवाद मार्ग को ग्रहण कर जैन धर्म की रक्षा करनी पड़ती है जैसे ब्रष्णुकुमार ने महामिथ्या दृष्टि जिन शासन के कट्टर द्वेषी निमूची को सजा * श्रुत्वापि बलमागच्छन् विद्यासामर्थ्यगर्वितः । गर्दभिल्लनरेन्द्रो न पुरीदुर्गमसज्जयत् ॥६॥ ___ अथाप शाखिसैन्यं च विशालातलभेदिनीम् । पतङ्गसैन्यवत्सर्व प्राणिवर्गभयंकरम् ॥६९॥ x इत्यायं कृते तत्र देशे कालक सदगतः। सभटानां शतं साष्टं प्रार्थयच्छन्दवेधिनाम् ॥७॥ स्थापिताः स्वसमीपे ते लब्ध लक्षाः सुरक्षिताः । स्वरकाले मुखं तस्या बभ्रु (भौ) | (बा) णैर्निपङ्गवत् ॥७॥ ५४ -गर्दभिल्ल का उच्छेद ४२५ Jain Education Internatio Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष 1 [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दी थी इसी प्रकार कालकाचार्य ने भी गर्दभिल्ल को उसके अन्याय की सजा दिलवाई थी । अतः श्राज जैनसाध्वियां निर्भयता पूर्वक तपसंयम की आराधना करती हैं, यह कालकाचार्य के प्रकाण्ड प्रभाव का ही फल है कि गर्दभिल्ल के बाद आज पर्यन्त ऐसी कोई दुर्घटना नहीं बनी है। गर्दभिल्ल के चले जाने पर शकों ने उज्जैन पर अपना अधिकार जमा लिया। जिसके यहाँ कालकाचार्य ठहरे थे उसको उज्जैन का राजा तथा दूसरे ९५ मण्डलिकों को छोटे बड़े ९५ प्रदेशों के राजा बना दिये । उस दिन से भारत में शकों का राज जम गया पर शक ६ भागों में विभाजित होने से उनका बल कमजोर पड़ गया वे केवल ४ वर्ष ही उज्जैन में राज कर सके बाद भरोंच के बलमित्र और भानुमित्र ने शकों से उज्जैन का राज छीन कर अपने अधिकार में कर लिया, फिर भी शक भारत से निकल नहीं गये पर उनका जोर दक्षिण भारत की ओर बढ़ता गया, यहाँ तक कि उन्होंने विक्रम के बाद ५३५ वर्ष व्यतीत होने पर अपना संवत् चलाया जिसका आज पर्यन्त दक्षिण भारत की ओर अधिक प्रचार है । एक समय कालकाचार्य भ्रमण करते अपने शिष्यों के साथ भरोंच नगर के उद्यान में पधारे । वहाँ पर बलमित्र भानुमित्र राजा राज करते थे जो कालकाचार्य के भानजे लगते थे । उन्होंने बड़े ही महोत्सव के साथ सूरिजी का नगर प्रबेश करवाया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था, श्रोताजन उपदेशामृत का पान कर अपनी आत्मा का कल्याण करते थे राजा के एक पुरोहित था वह महा मिथ्या दृष्टि और जैनधर्म का कट्टर शत्रु था पर कालकाचार्य ने वाद-विवाद में उसको पराजित कर दिया था अतः वह अन्दर से द्वेषी पर ऊपर से आचार्य श्री का भक्त बनकर रहता था । राजा के आग्रह से कालकाचार्य ने वहाँ चतुर्मास कर दिया था पर यह बात पुरोहित को अच्छी नहीं लगती थी, उसने एक दिन राजा से कहा कि अपने आचार्य परमपूजनीय हैं इनकी पादुका अपने शिर पर रहनी चाहिये पर जब आचार्यश्री नगर में गमनागमन करते हैं तब इनके पैरों के प्रतिबिंब पर हलके से हलका आदमी पैर रखकर चलता है, यह बड़ा भारी पाप है । राजा ने सरल स्वभाव के कारण पुरोहित की बात को मान लिया पर चतुर्मास में आचार्य श्री को कैसे निकाल दिया जाय यह बड़ा भारी सवाल पैदा हो गया। इसके लिए पुरोहित ने कहा कि इसका सीधा उपाय है कि सब नगर में कहला दिया जाय कि आचार्य को मिष्टान्नादि भोजन करके बहराया करें अतः अनेषनीक आहार के कारण आचार्य स्वयं चले जायगे तो अपन, आशातना से बच जायगे। बस, राजा ने आर्डर दे दिया और पुरोहित ने नागरिकों से कह दिया । जब साधु भिक्षा को जाय तो सर्वत्र मिष्टान्नादि आहार मिलने लगा। प्राचार्यश्री को मालूम हुआ तो उन्होंने आधाकर्मी दोष जानकर वहां से बिहार करने का निश्चय कर लिया। अतः दो साधुओं को प्रतिष्ठनपुर भेजकर राजा को कहला दिया, राजा ने खुश होकर स्वीकार कर लिया। जब कालकाचार्य प्रतिष्ठनपुर पधारे तो वहाँ के राजा प्रजा ने आपका खूब ही सत्कार किया। -सा मूर्ध्नि गई भिल्लस्य कृत्वा विषमूत्र मीय॑या । हत्वा च पादघातेन रोषेणान्तर्दधे खरी ॥७९॥ अवलोयमिति ख्यापयित्वा तेषां पुरो गुरुः । समग्रसैन्यमानीयमानीता दुर्गमाविशत् ॥१०॥ पातयित्वा तो बद्धा प्रपात्य च गुरोः पुर । गर्दभिल्लो भटैमुक्तः प्राह तं कालको गुरुः ॥८॥ २-~-आरोपिता व्रते साध्बी गुरुणाथ सरस्वती। आलोचित प्रतिक्रान्ता गुणश्रेणिमवाप च ॥८७॥ Jain Ed 8? ternational श्री वीर परम्पराmonary.org Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ ___ आचार्यश्री का व्याख्यान हमेशा होता था जिसमें मनुष्य जन्म की दुर्लभता राज ऋद्धि की चंचलता आयुष्य की अस्थिरतादि समझा कर धर्माराधन की ओर जनता का चित्त आकर्षित किया जाता था। आपके व्याख्यान का प्रभाव पेवल साधारण जनता पर ही नहीं पर वहां के राजा सातबाहन पर भी खूब अच्छा पड़ता था । यही कारण था कि राजा जैनधर्म का अनुयायी बन गया। जब पर्वपर्युषण के दिन नजदीक आये तो राजा ने पूछा कि प्रभो ! खास पर्युषण का दिन कौन सा है कि जिस दिन धर्म कार्य किया जाय ? सूरिजी ने कहा कि भाद्रपद शुक्ल पंचमी को सांवत्सरिक पर्व है उस दिन पौषध प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये । इस पर राजा ने कहा कि भाद्रपद शुक्ल पंचमी का हमारे यहां इन्द्र महोत्सव होता है और राजनीति के अनुसार मुझे वहां उपस्थित होना भी जरूरी है । अतः आप सांवत्सरिक पर्व को एक दिन पहिले या पीछे रख दें कि मेरे धर्म करनी बन सके । इस पर सूरिजी ने सोचा कि शास्त्रों में एक दिन पहिले तो पर्वाराधन हो सकता है पर बाद में नहीं होता है अतः लाभालाभ का विचार करके भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी२ को सांवत्सरिक पर्वाराधन का निश्चय कर दिया इससे राजा प्रजा सबको सुविधा हो गई । भविष्य के लिए सूरिजी ने सोचा कि राजा के इन्द्र-महोत्सव तो वर्षा वर्षी होता है और इस कारण जैसे राजा को समय नहीं मिलेगा वैसे गजकर्मचारी एवं नागरिकों को भी समय नहीं मिलेगा । यही बात दूसरे नगरों के राजा प्रजा के लिए होगी, तो यह सब लोग पर्वाराधन से वंचित रह जायेंगे । अतः हमेशा के लिए सांवत्सरिक की चतुर्थी की जाय तो अच्छा है। अनुमान लगाया जा सकता है कि कालकाचार्य का उस समय समाज पर कितना प्रभाव था कि उन्होंने एक बिलकुल नया विधान करके सम्पूर्ण समाज से मंजूर करवा लिया । यह कोई साधारण बात नहीं थी। उस समय का समाज दो विभागों में विभक्त था। एक आर्य महागिरि की शाखा में तब दूसरा आर्य सुहस्ती की शाखा में पर कालकाचार्य का विधान ( चतुर्थी के सांवत्सरी ) सबने शिरोधार्य कर लिया था और वह विधान कई ११००-१२ : ० वर्षों तक एक ही रूप में चलता रहा था। प्रबन्धकारने कालकाचार्य का चतुर्मास भरोंच में लिखा है तब निशीथ चूर्णी में उज्जैन में लिखा है और उज्जैन से ही प्रतिष्ठनपुर जाकर पंचमी के बदले चतुर्थी की सांवत्सरी की थी। शायद इसका कारण यह हो कि बलमित्र और भानुमित्र भरोंच के राजा थे और उन्होंने ५२ वर्ष तक भरोंच में राज किया था तथा पिछली अवस्था में केवल ८ वर्ष उज्जैन में राज किया था इस कारण वे भरोंच के राजा के नाम से ही प्रसिद्ध थे अतः प्रबन्धकार ने भरोंच में चतुर्मास करना लिम्ब दिया होगा पर वास्तव में कालकाचार्य का चतुर्मास उज्जैन में ही था और वहाँ से चतुर्मास में प्रतिष्ठनपुर जाकर पंचमी के बदले चतुर्थी की सांवत्सरी की थी। . कालकाचार्य के साथ एक अविनीत शिष्यों की घटना ऐसी घटी थी। कि कालदोष से कालकाचार्य के शिष्य अविनीत एवं प्राचार में शिथिल हो गये थे । बार बार शिक्षा देने पर भी उन्होंने अपने प्रमाद का त्याग नहीं किया इस पर प्राचार्यश्री ने सोचा कि ऐसे अविनीत साधुओं के साथ रहना केवल कर्मबन्ध का कारण है । अतः आपने शय्यातर१ को कह दिया कि मैं इन शिष्यों के अविनीतपने के कारण यहाँ से जा १-नगरे डिण्डिमो वाद्यः सर्वत्र स्वामिपूजिताः । प्रतिलान्या वराहारगुरवो राजशासनात् ॥ १०९॥ २-राजावदच्चतुर्थ्यां तत्पर्वपर्युषणं ततः । इस्थमस्तु गुरुः प्राह पूर्वरप्यास्तं ह्यदः ॥१२॥ चतुर्थी की संवत्सरी ४२७ Jain Education Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रहा हूँ । बन सकेतो तू इनको हितशिक्षा देना । वस, इतना कहकर सूरिजी तो विहार करके प्रबन्धकार के मत से कालकाचार्य विशाला अर्थात् उज्जैन गये थे पर गये किस प्राम से यह नहीं बतलाया परन्तु निशीथ चूर्णीकार लिखते हैं कि "उज्जैणी कालखमणा सागर खमणा सुवर्ण भूमिसु" अर्थात् उज्जैन नगरी में कालकाचार्य रहते थे और वहां से चल कर सुवर्णभूमि में रहने वाले सागरसूरि के उपाश्रय गये थे। सागरसूरि कालकाचार्य के शिष्य का शिष्य था। कालकाचार्य सुवर्णभूमि में सागरसूरि२ के उपाश्रय गये, उस समय सागरसूरि व्याख्यान पीठ पर बैठा था, कालकाचार्य को नहीं पहिचाना अतः वन्दन व्यवहारादि भी नहीं किया । इस हालत में उपाश्रय के एक जीर्ण विभाग में जाकर कालकाचार्य परमेष्ठी का ध्यान लगा कर बैठ गये। जब व्याख्यान समाप्त हुआ तो सागरसूरि ने कालकाचार्य के पास आकर कहा कि हे तपोनिधि! आपको कुछ पूछना हो तो पूछो,मैंआपके मनके संशय को दूर करूंगा इस पर सूरि ने कहा कि मैं वृद्धावस्था के कारण आपके कहने को ठीक समझ नहीं पाया हूँ तथापि मैं आपसे पूछता हूँ कि अष्ट पुष्पी का क्या अर्थ होता है ? सागरसूरि ने गर्व में आकर यथार्थ तो नहीं पर कुछ अटम् पटम् अर्थ कह सुनाया जिससे कालकाचार्य ने सागर सूरि की परीक्षा कर ली इधर उज्जैन में सुबह गुरू को नहीं देखने से अविनीत शिष्य घबराये कि अपने कारण गुरू अकेले ही चले गये जब उन्होंने शय्यातर को पूछा तो उन्होंने सब हाल कह दिया । इस हालत में वे शिष्य भी वहाँ से विहार कर सुवर्णभूमि की ओर आये जब उन्होंने सागरचन्द्रसूरि के उपाश्रय जाकर पूछा कि क्या यहाँ गुरू महाराज पधारे हैं ? उसने कहा कि एक वृद्ध तपस्वी के अलावा यहाँ कोई नहीं आया है । साधुओं ने कहा अरे वह वृद्ध तपस्वी ही गुरुदेव हैं । सब साधुओं ने आकर सूरिजी को वन्दन किया जिसको देखकर सागरचन्द्रसूरि लज्जित हो गया और दादागुरु को वन्दन कर अपने अपराध की क्षमा मांगी। कालकाचार्य ने सागरचन्द्रसूरि से कहा कि तुमको ज्ञान का इतना घमंड किस लिये है । कारण तीर्थङ्करों का ज्ञान अनंत है जिसके अनन्तवें भाग गणधरों ने प्रन्थित किया है जिसका क्रमशः षट्स्थान न्यून जम्बु प्रभव शय्यंभव आदि आचार्यों को ज्ञान रहा । इतना ही क्यों पर जितना ज्ञान मुझे है उतना मेरे शिष्यों में नहीं और उनमें है उतना तेरे में नहीं और तेरे में है उतना तेरे शिष्यों में न होगा, तो तू इतना गर्व क्यों रखता है ? जब तुमको अष्ट पुष्पी का भी पूर्ण ज्ञान नहीं है तो गर्व किस बात का है । ले मैं तुमको अष्ट पुष्पी२ का अर्थ बतलाता हूँ "अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह रागद्वेषत्याग १- अन्येधुः कर्मदोषेण सूरीणां तादृशामपि । आसन्न विनयाः शिष्या दुर्गतौ दोहदप्रदा ॥१२९॥ अथ शय्यातरं प्राडुः सूरयो वितथं वचः । कर्मबन्ध निषेधाय यास्यामो वयमन्यतः ॥१३॥ त्वया कथ्यममीषां च प्रियकर्कश वाग्भरै । शिक्षयित्वा विशालायां प्रशिष्यान्ते ययौ गुरुः ॥१३॥ २–प्रशिष्यः सागरः सूरिस्तत्र व्याख्याति चागमम् । तेन नो विनयः सूरेरम्युत्थानादि को दधे ॥१३॥ तत ईयां प्रतिक्रम्य कोणे कुत्रापि निर्जने । परमेष्टिपरावत कुर्वस्तस्थावसङ्ग धीः ॥१३९॥ १-श्रीसुधर्मा ततो जम्बूः श्रुतकेवलिनस्ततः । षटस्थाने पतितास्ते च श्रुते हीनत्वमाययुः ॥१४७॥ २-अष्टपुष्पी च तत्पृष्टः प्रभुाख्यानयत्तदा । अहिंसासूनृतास्तेय ब्रह्माकिंचनता तथा ॥१५०॥ रागद्वषापरित्यागो धर्मध्यानं च सप्तमम् । शुक्लध्याज्ञानमष्टमं च पुष्पैरात्मार्चनाच्छिवम् ॥१५॥ प्रभाविक चरित्र Jain E 8 ? international श्री वीर परम्पराmary.org Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ धर्मयान और शुल्कध्यान इन अष्ठ पुष्पों से भावपूजा करने से जीव का कल्याण होता है इत्यादि" । सागरचन्द्रसूरि का गर्व गलगया और अविनीत शिष्यादि को सुशिक्षा देते हुये कालकाचार्य अनशन समाधि पूर्वक स्वर्ग पधार गये । जैनशासन में कालकाचार्य एक महान प्रभाविक आचार्य हुये हैं । आचार्य पादलिप्तसूरी- - आप पाँचवी शताब्दी के एक प्रभाविक श्राचार्य थे । आपके प्रभावोंस्वादक जीवन के लिये बहुत से विद्वानों ने विस्तार से वर्णन किया है पर मैं तों यहां अपने उद्देश्यानुसार केवल सारांश मात्र ही लिखता हूँ । कोशलानगरी के अन्दर राजा विजयब्रह्म राज करते थे । वहाँ पर एक बड़ा ही धानाव्य फुल्ल नाम का सेठ बसता था जिसके प्रतिमा नामकी सेठानी थी दम्पत्ति सर्व प्रकार से सुखी होने पर भी उनके कोई सन्तान न होने से वे हमेशा चिन्तातुर रहते थे । अनेक देव देवियों की आराधनादि कई उपाय किये पर उसमें वे सफल नहीं हुये फिर भी उन्होंने अपना उद्यम करना नहीं छोड़ा। एक समय सेठानी ने पार्श्वनाथ की अधिष्ठात्री नागजात की देवी वैरोट्या का महोत्सव पूर्वक तथा अष्टम तप करके आराधन किया अन्तिम रात्रि में देवी ने कहा कि विद्याधर गच्छ के कालकाचार्य की संतान में आचार्य नागहस्ति १ चरण प्रक्षालन के जल का पान कर, तेरे पुत्र होगा। सेठानी देवी के वरदान को तथाऽस्तु कह कर सुबह होते ही वहाँ से चल कर आचार्य श्री के उपाश्रय आई भाग्यवसात् उस समय आचार्य श्री बाहर जाकर आये थे । उनके पैरों का प्रक्षालन कर एक साधु उस पानी को परठने के लिये जा रहा था । सेठानी ने उस पानी से थोड़ा पानी लेकर आचार्य श्री से दशहाथ दूर ठहर कर जलपान कर लिया बाद सूरीजी के पास आकर वन्दन के साथ सब हाल निवेदन कर दिया । इस निमित्त को सुन कर सूरिजी ने कहा श्राविका ! तेरे पुत्र तो होगा पर तू ने मेरे से दश हाथ दूर रह कर जलपान किया है, इस से तेरा पुत्र तेरे से दश योजन दूर मथुरा नगरी में रह कर बड़ा होगा तथा इस पुत्र के बाद नौ पुत्र और भी होंगे। इस पर सेठानी ने कहा कि हे पूज्य ! मैं अपने पहिले पुत्र को आपके अर्पण करती हूँ । क्योंकि मेरे से दूर रहे उससे तो आपके पास रहना अच्छा है। सूरिजी ने कहा भद्रे ! तेरापुत्र बड़ा ही प्रतिभाशाली होगा और जगत का उद्धार करेगा इत्यादि । सेठानी ने नागेन्द्र का स्वप्न सूचित गर्भ धारण कर यथा समय पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम नागेन्द्र रख दिया तथा अपनी प्रतिज्ञानुसार सेठानी ने अपने पुत्र को सूरिजी के अर्पण कर दिया । सूरिजी ने कहा कि श्राविका ! हमारी तरफ से इस बालक का तुम पालन पोषण करो । प्रतिमा सेठानी ने गुरु वचन को शिरोधार्य्य करके लड़के का अच्छी तरह से पालन पोषण किया जब नागेन्द्र ८ वर्ष का हुआ तो सूरिजी ने उसको ज्ञानाभ्यास करवा दिया । १ – आसीत्कालिकसूरिः श्रीश्रुताम्भोनिधिपारगः । गच्छे विद्याधराख्यस्यायनागहस्ति सूरयः ॥ १५ ॥ खेलादिलब्धिसम्पन्नाः सन्ति त्रिभुवनार्चिताः । पुत्रमिच्छसि चेतेषां पादशौच जलं पिबेः ॥१६॥ २ - साहाथ प्रथमः पुत्रो भवतामर्पितो मया । अस्तु श्रीपूज्यपार्श्वस्थो दूरस्थस्यास्य को गुणः ॥ २२ ॥ ३ - नागेन्द्रास्यां ददौ तस्मै फुल्ल उत्फुल्ललोचनः । आत्तो गुरुभिरागत्य सगर्भाष्टमवार्षिकः ॥ २९ ॥ ४- प्रव्रज्यां प्रददुस्तस्य शुभे लग्ने स्वरोदये । उपादानं गुरोर्हस्तं शिष्यस्य प्राभवे न तु ॥ ३१ ॥ ५ - श्रुस्वेतिगुरुभिः प्रोक्तः शब्देन प्राकृतेन सः । पाकित्तो इति शृङ्गाराग्निप्रदीप्तामिधायिना ॥ ३९ ॥ आचार्य पादलिप्तसू ४२९ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्यश्री के गुरुभाई संग्रामसिंहसूरि थे उनको आज्ञा दी अतः उन्होंने नागेन्द्रकुमार को दीक्षा दी और मण्डन नाम के मुनि को उसकी सेवा शुश्रूषा एवं पढ़ाई का कार्य सोपा आखिर नागेन्द्रमुनि थोड़े ही समय में ज्ञानाभ्यास करके धुरन्धर विद्वान हो गया । एक समय आचार्यश्री ने नागेन्द्र को कांजी का पानी लाने के लिए भेजा । वह पानी लेकर वापिस आया तो एक गाथा कह कर पानी देने वाली का वर्णन किया। "अंबं तंवच्छीए अपुफियं फुप्फ दंत पंतीय नय सालकंजियं नव बहूईकुडूराणनेदिन्तं" अर्थ- लाल वस्त्रवाली अभी ऋतु न हुई पुष्प सदृश्य दंत पंक्ति वाली ऐसी नव वधू ने बड़े ही प्रमोद से मुझे नये चावलों की कांजी का दान दिया है। इस श्रृंगार रस गर्भित गाथा को सुन कर गुरु ने कहा पलित्तओ" तू राग अग्नि में प्रदीत है इस पर मुनि नागेन्द्र ने कहा कि गुरुवर्य । एक मात्रा की और कृपा करें कि मैं “पालित्तो " हो जाऊँ। इसका भाव यह है कि:---"गगन गमनोपायभता पादलेप विद्यां मेदत् येनाहं पादलिप्तक, इतिभिदिये ततो गुरुभि पादलेप विद्या दता अर्थात् गुरु ने नागेन्द्र को पादलेप विद्या प्रदान कर दी कि जिससे वह पैरों पर लेप करके आकाश में जहाँ इच्छा करे वहाँ ही चला जावे। जब मुनि नागेन्द्र दसवर्ष के का हो गया तो उनको सर्वगुण सम्पन्न्न समझकर आचार्य पद से विभूषित कर दिया और उनका नाम पादलिप्तसूरि रख दिया। गुरु आज्ञा से बालाचार्य पादलिप्त सूरि विहार कर मथुरा पधारे । वहां की जनता को अपने ज्ञान से रंजित बनाकर आप पाटलीपुत्र नगर में पधारे । उस समय पाटलीपुत्र नगर में मुरंड नाम का राजा राज करता था । पादलिप्तसूरि के चमत्कार एवं उपदेश से राजा जैन धर्म को स्वीकार कर आचार्यश्री का परम भक्त बन गया। ___एक समय राजा मुरंड ने सुरिजी से पूछा कि पूज्यवर ! हम लोग प्रधान वगैरह को अच्छा वेतन देते हैं फिर भी वे बराबर काम नहीं करते हैं तो आपके साधु बिना वेतन आपका कार्य कैसे करते होंगे ? सूरिजी ने कहा तुम्हारे प्राधानादि स्वार्थ के वश नौकरी करते हैं पर हमारे शिष्य परमार्थ के लिए हमारी आज्ञा का पालन करते हैं । फिर एक नवदीक्षित शिष्य की परीक्षा की और इस परीक्षा के लिए राजा ने अपने मुख्य प्रधान बुला के कहा कि गंगा की धार किस ओर मुंह करके बहती है इसकी पक्की निगाह कर खबर लाओ। प्रधान ने सोचा कि बालाचार्य की संगत करने से राजा भी बाल भाव को प्राप्त होकर व्यर्थ ही कष्ट दे रहा है। यह बात तो बालक भी जानता है कि गंगा पूर्व की ओर बह रही है। बस प्रधान अपने भोग विलासादि कार्य में लग गया, राजा ने अपने गुप्तचरों को प्रधान के पीछे भेज दिया । वाद २-४ घंटा से आकर राजा को कह दिया कि मैंने पूरी निगाह करली है कि गंगा पूर्व मुंह कर बहती है। राजा के गुप्तचर ने मंत्री का सब हाल राजा से कह दिया। बाद सूरिजी ने अपने एक शिष्य को भेजा कि निगाह करो कि गंगा किस ओर बहती है ? शिष्य ने गुरु आज्ञा पालन करने को गंगा पर जाकर २-४ आदमियों से पूछ कर तपास की तथा आप स्वयं गंगा में दंडा रख निर्णय किया और गुरु के पास आकर कहा कि गंगा इत्यसौ दशमे वर्षे गुरुभिगुरुगौरवात् । प्रत्यष्ठाप्यत पट्टे स्वे कषपट्ट' प्रभावताम् ॥४२॥ +दिनानि कतिचित्तत्र स्थित्वासौ पाटलीपुरे । जगाम तत्र राजास्ति मुरन्डो नाम विश्रु तः॥४४॥ श्री वीर पररपरा Jain E४३० International ww.jainelibrary.org Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ पूर्व की ओर बहती है । इसके पीछे भी राजा का गुप्तचर गया था जिससे राजा ने दोनों का हाल जान लिया और सूरिजी के कहने पर दृढ़ विश्वास हो गया । पादलिप्तसूरि एक समय मथुरा में सुपार्श्वनाथ के दर्शन कर कारपुर पधारे वहाँ के राजा भीम ने सूरिजी का अच्छा सत्कार किया । सूरिजी के उपदेश से वहाँ का राजा भी जैनधर्मी बन गया। श्राचार्य श्री शत्रुजय की यात्रा कर मानखेटपुर x पधारे वहाँ के राजा कृष्णराज को उपदेश देकर जैनधर्मोप.सक बनाया और राजा के आग्रह से श्राप वहाँ ही विराजते थे। वहाँ पर प्रांशुपुर से एक रुद्रदेवसूरि नामक आचार्य पधारे थे वे योनिप्रभृत शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे एक समय अपने शिष्यों को उस शास्त्र की वाचना दे रहे थे उसको बाहर रहा हुआ धीवर ( मच्छीमार ) सुन रहा था। उसने उस विद्या एवं विधि को अच्छी तरह धारण कर ली कि जिससे माच्छला उत्पन्न कर सके। बाद दुकाल पड़ा, पानी के अभाव माच्छला नहीं मिले तो उस धीवर ने योनिप्रभृत विद्या से माच्छला पैदा कर दुकाल में अपने कुटुम्ब का पालन किया । बाद फिर गुरू के दर्शन किये धीवर ने अपनी सारी बात कह कर उपकार माना । इस पर प्राचार्य श्री को बड़ा भारी पश्चाताप करना पड़ा कि मैने उपयोग नहीं रखा जिससे इतने जीवों की हिंसा हुई : फिर धीवर को उपदेश दिया कि मैं तुझे रत्न बनाने की विद्या बता सकता हूँ पर माच्छला बनाना या मांस खाने का त्याग करना पड़ेगा । धीवर ने कहा पूज्य ! जब मेरा गुजारा हो जाय तो इस लोक और परलोक में निन्दनीय कार्य मैं कदापि नहीं करूंगा । आचार्य महाराज ने उस धीवर को रन बनाने की विद्या सिखा कर उसको पाप से बचाया। श्रमणसिंहमूरि-विलास १ पुर नगर में प्रजापति राजा राज करता था उस समय श्रमणसिंहसूरि वहां पधारे। राजा ने कहा कि आप ज्ञानी हैं कुछ चमत्कार बतलावें। इस पर सूरिजी ने कई प्रकार के चमत्कार बतला कर राजा को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा दी जिससे जैनधर्म की अच्छी प्रभावना हुई। __आचार्य खपटसरि-आप विद्या निपुण जैनशासन के एक चमकते सितारे थे। आपका चरित्र अलौकिक एवं चमत्कारों से ओतप्रोत है और पढ़ने वाले भव्यों को आनन्द का देनेवाला है। आपने एक विशुद्ध राजवंश में उत्पन्न हो जैनधर्म की दीक्षा ग्रहण कर अनेक शास्त्रों का अभ्यास किया अतएव श्राप तात्विक दार्शनिक एवं विद्या मंत्रादि शास्त्रों में बड़े ही धुरन्धर विद्वान थे। अपनी अलौकिक प्रभा का प्रभाव कई राजा महाराजा एवं वादी प्रतिवादियों पर डालते हुए भूमि पर भ्रमण करते थे। एक समय आप भरोंच नगर में विराजमान थे जहां बीसवें तीर्थङ्कर भगवान मुनि सुत्रत का तीर्थ था और कालकाचार्य का भानेज वलमित्र गजा राज करता था वह कट्टर जैन और आचार्यश्री का परम भक्त था । आचार्य खपटसूरि के एक शिष्य भुवनमुनिर जो आपके संसार पक्ष में भानेज लगते थे वह भी * ततोऽसौ लाटदेशांतश्चोङ्काराख्यपुरे प्रभुः। आगतः स्वागतान्यस्य तत्राधानीमभूपतिः ॥ ९ ॥ ४ मानखेटपुरं प्राप्ताः कृष्णाभूपालरक्षितम् । प्रभवः पादलिताख्य राज्ञाभ्यच्यंत भक्तितः ॥११॥ तत्र प्रांशुपुरात्प्राप्ताः श्रीरुद्रदेवसूरयः । ते चावबुद्धतत्वार्थाः श्रीयोनिप्राभूते श्रुते ॥११५॥ अन्यद्य निजाशिष्याणां परस्तस्माच शास्त्रतः । व्याख्याता शफरोत्पत्तिः पाप सन्तापसाधिका ॥११६॥ १-विलास नगरे पूर्व प्रजापतिरभूत्ततः । ततः श्रमणसिंहाण्याः सूरयश्च समाययुः ॥१२९॥ Jain Eduआचार्य खपट सूरि Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शास्त्रों के मर्मज्ञ एवं अनेक विद्याओं से विभूषित थे। उनकी बुद्धि इतनी प्रबल थी कि कोई भी ज्ञान एक बार सुन लेते तो वह सदैव के लिये कण्ठस्थ ही हो जाता । गुडशस्त्र नगर से चल कर एक बोधाचार्य भरोंच नगर में आया था उसके साथ मुनि भुवन का धर्म के विषय शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें बोधाचार्य को पराजित कर शासन की खूब ही प्रभावना की । बोधाचार्य इतना लज्जित हो गया कि वह कहीं पर जाकर मुंह दिखाने काबिल ही नहीं रहा । अतः उसने भरोंच में भन्न जल का त्याग कर दिया, आखिर वह मर कर यक्ष योनि में उत्पन्न हुआ और गुडशस्त्र नगर में अकार लोगों को उपद्रव करने लगा अतः लोगों ने उसकी मूर्ति स्थापित की जब जाकर यक्ष शान्त हुआ। बाद पूर्व द्वष के कारण यक्ष जैनश्रमणों को उपसर्ग करने लगा इससे दुःखी हुये संध ने दो मुनियों को भेज कर श्राचार्य खपटसूरि से कहलाया कि यहां का यक्ष जैन संघ को बहुत दुःख देता है अतः श्राप जल्दी से यहां पधार कर श्रीसंघ के दुःख को दूर कर शांति करावें । इस पर प्राचार्य श्री ने मुनि भुवन को बुला कर कहा कि मैं गुडशस्त्र नगर जाता हूँ पीछे तुम इस खोपड़ी को भूल चूक कर भी उघाड़ कर नहीं देखना । इतना कहकर प्राचार्यश्री तो विहार कर गुडशस्त्र नगर में पधार गये और सीधे ही यक्ष के मंदिर में जाकर यक्ष के कान पर पैर रख कपड़ा से शरीर आच्छादित कर सो गये। जब पुजारी यक्ष की पूजा करने को आया तो आचार्य को सोता हुआ देख दूर हटने के लिये बहुत कहा पर उसने एक भी नहीं सुनी । तब पुजारी ने राजा के पास जाकर सब हाल निवेदन किया तो राजा ने क्रोधित हो हुक्म दिया कि लकड़ी लाठी एवं पत्थरों से मार कर सेबड़ा को हटा दो। पुजारी ने ऐसा ही किया पर प्राचार्य को तो इस बात की परवाह ही नहीं । इसका नतीजा यह हुआ कि पुजारी ने जितने लाठी लकड़ी पत्थर चलाये वे सब राजा के अन्तेवर की रानियों पर ही मार पड़ने लगी अतः अन्तेवर गृह में हाहाकार मच गया और रानियों ने पुकार की कि हमारी रक्षा करो ! रक्षा करो इत्यादि यह समाचार राजा के पास आया तब जाकर राजा ने सोचा कि यक्षालय में सोने वाला कोई सिद्ध पुरुष होगा ऐसा सोचकर राजा अपने सब परिवार को लेकर यक्ष मंदिर में आया और भक्तिपूर्वक आचार्य देव को वन्दन कर शान्त होने की प्रार्थना की तथा नगर में पधारने के लिए आग्रह किया इस पर आचार्य श्री ने यक्ष को कहा चलो मेरे साथ तथा और भी देव मूर्तियां सूरिजी के साथ हो गई इतना ही क्यों पर वहाँ दो पत्थर की बड़ी कुड़ियें थीं वह भी सूरिजी के पीछे चल रही थी इस तरह से सुरिजी ने नगर प्रवेश किया जिसको देखकर राजा एवं प्रजा जनधर्म के एवं सूरिजी २-तत्रार्य खपटा नाम सूरयो विद्यतो (यो) दिताः । तेषां च भागिनेयोऽस्ति विनेयो भवनाभिधाः ॥१४६॥ कर्णश्रुत्याप्यसौ प्राज्ञो विद्यां जग्राह सर्वतः । बौद्धान्वादे पराजित्य यैस्तीर्थ संघ साक्षिकम् ॥१४॥ तदा च सौगताचार्य एको बहुकराभिधः । गुडशस्त्रपुरात्प्राप्तो जिगीपुर्जेनशासनम् ॥१५०॥ सर्वानित्य प्रवादी स चतुरंग सभापुरः । जैनाचार्यस्य शिष्येण जितः स्याद्वादधदिना ॥१५॥ -तैराख्याते पुनः क्रुद्धो नृपस्तं लेष्टुयष्टिभिः । अधातयत्स घातानां प्रवृत्तिमपि वेत्ति नः ॥ ५९॥ क्षणेन तुमुलो जज्ञे पुरेऽप्यन्तः पुरेऽपि च । पुत्कुर्वन्तः समाजग्मुः सौविदाअवदंस्तथा ॥१६॥ रक्ष रक्ष प्रभो न्यक्षः शुद्धान्तो लेष्टुयष्टिभिः । अदृष्टविहितें : कैश्चित् प्रहारैर्जर्जरीकृतः ॥१६॥ -चाल्यं नरसहस्रेण तत्र द्रोणीद्वयं तथा । चालितं कौतुकेनेत्थं तत्प्रवेशोत्सवो ऽभवत् ॥१६६॥ तत्प्रभावामृतं वीक्ष्य जनेशोऽपि जनोपि च । जिनशासनभक्तोऽभून्महिमानं च निर्ममे ॥१६७॥ प्रभाविक चरित्र Jain E४३ International श्री वीर परम्पराamelibrary.org. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ४५२ के परमभक्त बन गये। बाद यक्ष एवं मूर्तियों को अपने स्थान जाने की प्राचार्यश्री ने आज्ञा दे दी और दो कुडियें वहां ही पड़ी रहीं। इस चमत्कार से नगर में जैन धर्म की खूब प्रशंसा होने लगी और जनता पर जैनधर्म का अच्छा प्रभाव पड़ा । राजा और प्रजा जैनधर्म के परमोपासक बन गये । आचार्य खपटसूरि गुडशस्त्र नगर में विराजते थे उस समय भरोंच से दो मुनियों ने आकर निवे. दन किया कि आप श्री तो यहां पधार गये पीछे मना करते हुये भुवनमुनि ने खोपरी उघाड़ कर पत्र पढ़ लया और उस विद्या से सरस आहार लाकर रसगृद्धी बन गया है। स्थविरों ने उपालम्भ दिया तो वह जाकर बोद्धों x में मिल गया और विद्या प्रयोग से श्रावकों के घरों से सरस आहार लाकर खा रहा है जिससे जैनधर्म की निन्दा हो रही है। श्री संघ ने आपको बुलाने के लिये हम दोनों साधुओं को भेजा है अतः आप शीघ्र भरोंच पधारें । यह सुनकर सूरिजो भरोंच पधारे। जब भुवन ने पात्र को आज्ञा दी कि श्रावकों के घरों से मिष्टान्न आहार लाओ। तब पात्र आकाश में जा रहा था प्राचार्यश्री ने एक शिला + विक्रबी जिससे पात्र फूट टूट चकनाचूर हो गया। इसकी खबर भुवन को हुई तो वह भय भ्रान्त होकर वहां से भाग गया। बाद आचार्यश्री बौद्ध मंदिर में गये । बौद्धों ने कहा कि आप बुद्ध मूर्ति को नमस्कार करो । पर प्राचार्य श्री के विद्याबल के प्रभाव से बोद्ध मूर्ति तथा द्वार पर एक बुद्ध श्रावक की मूर्ति ने आकर सूरिजी के चरणों में नमस्कार किया बाद गुरू ने कहा अपने स्थान जाओ पर वे उठते समय कुछ अवनत रहे जिससे अद्यावधि वह बोध मंदिर निग्रन्थ नमित' नाम से प्रसिद्ध है। महेन्द्रोपाध्याय-आप आचार्य खपटसूरि के शिष्य और महाविद्याभूषित थे एक समय पाटलीपुत्र नगर में दाहिड़ नामक राजा सत्यधर्म का नाश करता हुआ एक हुक्म निकाला कि सब धर्म वाले ब्राह्मणों के चरणों में नमस्कार करें अगर मेरी इस आज्ञा का कोई भी उल्लंघन करेगा तो उसको प्राणदण्ड दिया जायगा इस पर बहुत से लोग प्राण और धन की रक्षा के लिये ब्राह्मणों को नमस्कार करने लग गये पर जैन श्रमणों ने अपने धर्म की रक्षा के लिये प्राणों की कुछ भी परवाह नहीं की और कहने लगे कि राजा का कितना अन्याय -कितनी धर्मान्धता कि त्यागियों का अपमान करवाने के लिये ही यह आज्ञा निकाली है कि तुम सभी ब्राह्मणों को नमस्कार करो । खैर, जैनों ने राजा से कुछ दिन की मुद्दत ले ली और दो विद्वान मुनियों को भरोंच नगर भेज कर श्राचार्य खपटसूरी को सब हाल कहला दिया और कहलाया कि महेन्द्रोपाध्याय को जल्दी से भिजवावें कि यहाँ के श्रीसंघ का संकट को दूर कर जैनधर्म की विजयपताका फहरावें। दोनों मुनि चलकर भरोंच आये और सूरिजी को सब हाल निवेदन कर दिया। सूरिजी ने अपने शिष्य महेन्द्र को दो कन्नर की कायें जो एक लाल दूसरी श्वेत थी अभिमंत्रित कर देदी और पाटलीपुत्र जाने के लिये रवाना कर दिया । क्रमशः महेन्द्रर्पि पाटलीपुत्र पधारे और राजसभा में जाकर इतर व श्रीक्षेत्रात विद्वितयसागमत् । तेन सोचे प्रमो प्रेषीत्संघो नौ भवदन्ति के॥१६॥ x--तत्प्रभावेण पात्राणि गणानि गगनाचना । भोज्य पूर्णान्युपायान्ति बौद्धोपासक वेश्मनः ॥१७३॥ +-पूर्णानि तानि भोज्या मायन्ति गगनाध्यना । गुरभि, कृतयादश्यशिलया योनि पुस्फुटुः ॥१७७॥ + नगरी पाटलीपुत्र वृत्रारिपुरसप्रभम् । दालडो नाम गजास्ति मिथ्याष्टिनिकृष्टधीः ॥ १८४॥ विमृश्य गुरुभिः प्रोचे श्रीभार्यखपटप्रभोः । शिप्यानगीमहेन्द्रोऽस्ति सिद्धप्राभृतसंभृतः ॥१९२॥ प्र० च. आचार्य खपट सूरि ) ४३३ Jain Educ International Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 1 कहा कि प्राप की आज्ञापालन करने को हम सब लोग तैयार हैं पर यह एक नया कार्य्य है | अतः इसके लिये आप अपने ज्योतिषियों से कह दें कि शुभ मुहूर्त देखकर सब ब्राह्मण राजसभा में एकत्र हो जाये और हम सब लोग भी राजसभा में श्रावेंगे। इससे राजा ने खुश होकर वैसा ही किया। दिन मुकर्र किया । उस दिन सब ब्राह्मण गले में जनेऊ और कपाल पर तिलक करके राजसभा में श्राकर उच्चासन पर बैठ गये । राजा राजकर्मचारी और नागरिक लोग भी एकत्र हुये । इधर से महेन्द्रर्षि जैन साधुओं को लेकर राजसभा में आये | सभा का दृश्य देख कर राजा से पूछा कि क्या पूर्व सन्मुख बैठे हुये ब्राह्मणों को नमस्कार करें या पश्चिम बैठ हुओं को ? ऐसा कहते ही सामने बैठे हुये ब्राह्मणों की पीठ पर लाल कन्नेर की कांब फेरी कि वे तत्काल मृत्युवत मूर्छित हो गये। इस घटना को देख सभा आचार्य मुग्ध और भयभ्रान्त हो गई। राजा ने सोचा कि इसमें अपराध तो मेरा ही है कहीं मेरी भी यह हालत न हो जाय । राजा ने चट से सिंहासन से उठ कर महेन्द्रर्षि के चरणों में गिर कर प्रार्थना की कि हे विद्याशाली ! हमारी अज्ञानता के लिये क्षमा करावें । मुनि ने कहा राजा तुमने बहुत अन्याय किया है । पहिले भी बहुत एक गृहस्थ ब्राह्मण को त्यागी नमस्कार करे ऐसा आग्रह किसी ने भी नहीं किया इत्यादि । ने कहा कि यह हमारी अज्ञानता थी पर अप महात्मा हैं अब इन ब्राह्मणों को सचेत करो । कारण इनके सब कुटुम्ब वाले रुदन एवं करुण आक्रन्दन कर रहे हैं इस पर मुनि ने कहा कि मैं देव देवियों राजा हो गये पर राजा कोशिश करूंगा । ऐसा कह कर आकाश की ओर मुँह करके देवताओं से कहा कि तुम इन ब्राह्मणों को अच्छा कर दो। देवों ने कहा कि यदि यह ब्राह्मण जैन दीक्षा स्वीकार करें तो सचेत हो सकते हैं नहीं तो सब मर जायंगे । जीवन की इच्छा वाले क्या नहीं करते हैं सब ने स्वीकार कर लिया अतः महेन्द्रर्षि ने कन्नेर की दूसरी श्वेत कांब फेरी तो वे सब सचेत हो गये । इससे जैन धर्म की महान प्रभावना हुई । राजा प्रजा ने जैनधर्म स्वीकार कर बड़े ही गाजे बाजे एवं महोत्सव पूर्वक महेन्द्रर्षि को अपने उपाश्रय पहुँचाया । ब्राह्मण दीक्षा लेने को तैयार हुये पर महेन्द्रर्षि ने कहा कि यह कार्य्यं हमारे आचार्य महाराज का है और वे इस समय भरोंच नगर में विराजते हैं। अतः श्रीसंघ की अनुमति से महेन्द्रर्षि ब्राह्मणों को लेकर भरोंच आये और श्रीसंघ के महोत्सव पूर्वक सब ब्राह्मणों को सूरिजी ने दीक्षा प्रदान की । आचार्य पादलिप्तसूरि जिनका वर्णन पूर्व आ चुका है उन्होंने आचार्य खपटसूरि के पास में रहकर अनेक आगमों का एवं चमत्कारी विद्याओं का अभ्यास किया था और पादलिप्तसूरि ने एक पादलिप्त नाम की भाषा का भी निर्माण किया था कि दूसरा कोई समझ ही नहीं सके । हाँ जिसको पादलिप्तसूरि बतलाते वे जरूर समझ सकते थे । आचार्य पर अधिक समय भरोंच नगर में रहे थे और उन्होंने जैनधर्म की बहुत उन्नति की + ऊचे तेन क्षितेर्नाथ यदपूर्वमिदं हि नः । पूर्वं पूर्वा मुखान् किंवा नमामः पश्चिमामुखान् ॥२०५॥ जलपति निकरेणासौ करवीरलतां किल । संमुखानां परावृत्य पृष्ठे चाभ्रामयत्ततः ॥ २०२॥ आलुचितशीपास्ते निश्चेष्टा मृतसंनिभाः । अभूच्चभूपतेवर्क विच्छायं शशिवद्दिने ॥ २०३ ॥ x पुनवी ढं पः प्राह त्वमेव शरणं मम । देवो गुरुः पिता माता कि मन्यैर्लल्लिभाषितैः ॥ २१४॥ प्र० च० ४३४ [ श्री वीर परम्परा Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ आखिर वहाँ पर अनशन और समाधिपूर्वक स्वर्गवास किया । आपके पट्ट पर श्री संघ ने महेन्द्रोपाध्याय को आचार्य पद पर स्थापित किया । महेन्द्रसूरि बड़े ही विद्यावली एवं चमत्कारी पुरुष थे उन्होंने सर्वत्र विहार कर जैनधर्म की अच्छी उन्नति एवं प्रभावना की । सिद्धनागार्जुन आप वीर क्षत्रिय संग्रामसिंह को सुशीलभार्या सुत्रता के पुत्र रत्न थे । तीन वर्ष की शिशु अवस्था में ही आप इतने वीर थे कि एक सिंह के बच्चे को मार डाला था । नागार्जुन बनस्पति जड़ी बूटी एवं सिद्ध रसायन का बड़ा ही प्रेमी था । कई महात्माओं की कृपा से उसको अनेक औषधियों की प्राप्ती भी हुई थी। सुवर्णरस विद्या तो उसके हाथ का एक भूषण ही बन चुकी थी । नागार्जुन अधिक समय जंगल में ही व्यतीत करता था। एक समय औषधियों और विद्या से समृद्ध बना हुआ नागार्जुन अपने घर पर आया जैसे कोई व्यापारी धन कमा कर घर पर आता है । एक नगर में आने के बाद उसने सुना कि यहाँ एक पादलिप्तसूरि आचार्य पधारे हैं और वे पादलेप से आकाश में गमन करते हैं । नागार्जुन ने आकाशगामिनी एवं पादलेप विद्या की प्राप्ती की गरज पात्र (बी) में कुछ सुवर्ण सिद्धि रस भर कर अपने शिष्य के साथ पादलिप्तसूरि के पास भेजा । शिष्य जाकर तुंबी सूरिजी को दी और सब हाल भी कह दिया । निस्पृही सूरिजी ने उसे बेकार समझ कर पात्र के साथ एक ओर फेंक दी। इस पर उस शिष्य ने बड़ा ही अफसोस किया । तब सूरिजी ने कहा तू फिक क्यों करता है तुझे पात्र एवं भोजन मिल जायगा । किसी श्रावक को सूचित करा दिया। जब वह शिष्य ने दे दिया कि इसे नागार्जुन साथ मित्रता कर क्या लाभ उसने सूंघा तो पेशाब जाने लगा तो सूरिजी ने एक कांच का पात्र (शीशी) में पेशाब भर कर उसको को दे देना | शिष्यधिक दुःख कर विचारने लगा कि नागार्जुन ऐसे मूखों उठाना चाहता है ? खैर, शिष्य ने ज्यों की त्यों आकर शीशी नागार्जुन को दे दी । की बदबू आने लगी । उसने शीशी को एक पत्थर पर डाल दिया । शीशी फूट गई और पेशाब उस पत्थर पर गिर गया। बाद जब औषधी बनाने के लिए अग्नि लगाई और अग्नि का स्पर्श उस पत्थर पर लगा तो वह पत्थर ही सब सोना बन गया । तब तो नागार्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसका सब गर्व गल कर पानी हो गया । उसने सोचा कि मैंने तो इतने वर्ष परिश्रम कर बड़ी मुश्किल से इस रसायन को प्राप्त की है तब इन महात्मा के सब शरीर एवं मलमूत्र भी सुवर्ण सिद्धि हैं इत्यादि । - विद्यादेव्यः षोडशापि चतुर्विंशतिसंख्यया । जैना यक्षास्तथा यक्षिणण्यश्च वोऽभिदधाम्यहम् ॥ २१६ ॥ इत्युक्त तेन दैवी वाक् प्रादुरासीद्ददुरासदा । एषां प्रव्रज्यया मोक्षोऽन्यथा नास्त्यपि जीवितम् ॥२१८॥ अभिषेकेण तेषां गीमुत्कला च व्यधीयतः (त) । पृष्टा अङ्गीकृतं तैश्च को हि प्राणान्न वछति ॥ २१९ ॥ उत्तिष्टतेति तेनोक्ता भ्राम्यताथापरालता । सज्जीबभूवुः प्राग्वत्त े जैना ह्यमितशक्तयः ॥ २२० ॥ संघेन सह रोमांचकुरकन्दलितात्मान । राज्ञा कृतोत्सवेनाथ स्वं विवेशाश्रयं मुनिः ॥ २२१ ॥ अवावबोधतीथ श्रीभृगुकच्छपुरे हि यैः । श्रीभार्यखपटाख्यानां प्रभूणां महिमाद्भुतम् ॥ २२५॥ इत्यार्थ खपटश्चक्रे शासनस्य प्रभावनाम् । उपाध्यायो महेंद्रश्व प्रसिद्धिं प्रापुरद्वयताम् ॥ २२८॥ अथार्थ पटः सूरिः कृतभूरिप्रभावनः । अन्तेऽनशनमाधाय दैवीभुवमशिश्रियत् ॥ २३३॥ श्रीमहेन्द्रस्ततस्तेषां पट्टे सूरिपदेऽभवत् । तीर्थयात्रां प्रचक्राम शनैः संयमयात्रया ॥ २३४॥ ये पाटलीपुत्रे द्विजाः प्रव्रजिता बलात । जातिवैरेणतेनात्र ते मत्सरमधारयन् ॥ २३५ ॥ प्र० च० आचार्य पादलिप्तसूर] Jain Educatio ४३५ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नागार्जुन-आचार्य पादलिप्त के पास जाकर उनकी स्तुति करता हुआ उनका अनुरागी बन गया। बाद सूरिजी पैरों पर लेप कर आकाश मार्ग से शत्रुजय, गिरनार, अष्टापद शिखर और आवंदाचल की यात्रा कर के वापिस आये । नागार्जुन ने लेप पहिचान ने की गरज से आचार्य श्री के पैरों का प्रक्षालन किया जिसमें सुगन्ध से स्पर्श से और अन्य प्रकार से १०७ औषधियों को जान गया। जब वह जंगलों से औषधियां लाकर अपने पैरों पर लेप कर आकाश में गमन करने लगा। थेड़ा थोड़ा उड़ता पर एक औषधी की न्यूनता के कारण वह वापिस गिर जाता था जिससे उसके घुटने से रुधिर बहने लग गया। जिसको देख सूरिजी ने कहा बिना गुरु से विद्या फलीभूत नहीं होती है। नागार्जुन ने कहा कि मैंने अपनी बुद्धि की परीक्षा की है । आचार्य श्री ने कहा कि यदि मैं तुझे आकाशगामनी विद्या बतलाऊं तो बदले में तू मुझे क्या देगा ? नागार्जुन ने कहा जो आप फरमावें वही दूंगा। गुरु-मैं दूसरा कुछ भी नहीं चाहता । तू पवित्र जैनधर्म स्वीकार कर और उसका ही पालन कर । कारण इन भौतिक विद्याओं से आत्म कल्याण नहीं पर आत्मकल्याण जैनधर्म की आराधना से ही होगा। नागार्जुन ने स्वीकार कर लिया। सब सूरिजी ने कहा कि जो मसाल १०७ औषधियों द्वारा एकत्र किया है उसको कांजी और चावलों के जल के साथ मिलाले जिससे आकाश में गमन कर सकेगा। नागार्जुन ने ऐसा ही किया और वह आकाश में गमन करने में सफल हो गया। &-तत्र नागार्जुनो नाम रससिद्धिविदांवरः । भाविशिष्यो गुरोस्तस्य तद्वत्तमपि कथ्यते ॥२४९॥ तृणरत्नमये पात्रे सिद्ध रसमढौकयत् । छात्रो नागार्जुनस्य श्री पादलिप्तप्रभो पुरः ॥२६२॥ स प्राह रससिद्धयं ढौकने कृतवान् रसम् । स्वान्तद्धनमहोस्नेहस्तस्येत्येवं स्मितो व्यधात् ॥२६३॥ पात्रं हस्ते गृहीत्वा च भित्तावास्फाल्य खण्डशः । चक्रे च तन्नरों दृष्ट्वा व्यवीदद्वक्र वक्रभृत् ॥२६४॥ मा विषीद तब आद्धपवतो भोजनं वरम् । प्रदापयिष्यते चैव मुवत्वा संमान्य भोजितः ॥२६५॥ तस्मै चापृच्छयूमानाय काच पात्रं प्रपूर्य सः । प्रश्रावस्य ददौ तस्मै प्राभृतं रसवादिने ॥२६६॥ नृनमस्मद्गुरुर्मूखः यो ऽनेन स्नेहमिच्छति । विमृशन्निति स स्वामिसमीपं जन्मिवांस्ततः ॥२६७॥ पूज्यैः सहाद्भता मैत्री तस्येतिस्मितपूर्वकम् । सम्यगविज्ञप्य वृत्तान्तं तदमन्त्रं समार्पयत् ॥२६॥ द्वारमुन्मुद्य यावत्स सन्निधत्त दृशोः पुरः । आजिघ्रति ततः क्षारविस्रगन्धं स बुद्धवान् ॥२६९॥ अहो निर्लोभतामेष मूढ़तां वा स्पृशेदथ । विमृश्येति विषादेन बभंजाश्मनि सोऽपि तत् ॥२७॥ देवसंयोगतस्तकेन वह्निः प्रदीपितः । भक्ष्यपाकनिमित्तं च क्षुत्सिद्धस्यापि दुःसहः ॥२७१॥ पक्वानृजलवेधेन ववियोगेसुवर्णकम् । सुवर्णसिद्विमुत्प्रेक्ष्य सिद्धशिष्यो विसिमिये ॥२०२॥ सूरयश्च मुनिव्राते गते विचरितु तदा । प्रागुक्तपंचतीर्थान्ते गत्वा व्योन्ना प्रणम्य च ॥२८३॥ समायान्ति मुहूर्तस्य मध्ये नियमपूर्वकम् । विद्याचारणलब्धीनां समानास्ते कलौ युगे ॥२८॥ आयातानामथैतेषां चरणक्षालनं ध्रुवम् । जिज्ञासुरौषधानीह निर्विकारञ्चकार सः ॥२८५॥ स जिघ्रन् विशन् पश्यन् स्वादयम् संस्पृशन्नपि । प्रज्ञावलादौषधीनां जज्ञे सप्ताधिकं शतम् ॥२८६॥ कृतज्ञेन ततस्तेन विमलादूरुपत्यकाम् । गत्वा समृद्धिभाक् चक्रे पादलिप्ताभिधं पुरम ॥२९९॥ अधित्यकायां श्रीवीरप्रतिमाधिष्ठितं पुरा। चैत्य विधापयामास स सिद्धः साहसीश्वरः ॥३७०॥ प्र.च. [ श्री वीरपरम्परा Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ नागार्जुन पादलिप्तसूरि का इतना श्रद्धा सम्पन्न परमभक्त बन गया कि सिद्धगिरि तीर्थ की तलेटी में एक नगर बसा कर उसका नाम गुरु की स्मृति के लिए पादलिप्तपुर रख दिया जो आज पालीताना के नाम से प्रसिद्ध है और शत्रुजय तीर्थ पर एक महावीर का मंदिर बनाया तथा एक गुरु पादलिप्तसूरि की मूर्ति बनाई जिसकी प्रतिष्ठा पादलिप्त सूर ने करवाई तथा सूरिजी ने महावीर प्रभु की स्तुति रूप दो गाथा बनाई जिसमें सुवर्ण सिद्धि और आकाश गामिनी विद्यायें गुप्तपने रही पर वे किसी भाग्याशली को प्राप्त हो सकती है। कलियुगियों के लिये नहीं। एक समय प्रतिष्ठनपुर के राजा सातबाहन ने भरोंच के राजा बलमित्र पर आक्रमण किया जिसको १२ वर्ष हो गये परन्तु किसी को भी सफलता नहीं मिली। उस समय नागार्जुन योगी वहाँ पाया और उसकी बुद्धि चातुर्य से सातबाहन को सफलता मिली अतः सातबाहन विजयी होकर अपने नगर को लौट गया। ____एक वक्त राजा सातबाहन की सभा में शास्त्रों का संक्षिप्त सार बतलाने वाले चार कवि आये और उन्होंने कहा कि हे राजन् ! १-जीर्णे भोजनात्रियः--आत्रेयर्षि ने कहा है कि वैद्यकशास्त्र का सार यह है कि पूर्व किया हुआ भोजन पचने पर नया भोजन करना। २- कपिलः-प्राणिनांदया-कपिलर्षि ने कहा है कि धर्म शास्त्र का सार है कि प्राणियों की दया करना। ३-वृहस्पतिरविश्वासः-वृहस्पतिर्षि ने कहा है कि नीति शास्त्र का सार है कि किसी का भी विश्वास नहीं करना। ४-पांचालः स्त्रीषु मार्दवम्-पांचाल कवि ने कहा है कि काम शास्त्र का सार है कि स्त्रियों से मृदुता रखना। इसको सुनकर राजा ने प्रसन्न हो उनको महादान दिया, पर कवियों ने कहा कि राजन् ! यह क्या बात है कि तुम्हारा परिवार हमारे शास्त्र की कोई तारीफ नहीं करता है। इस पर राजा ने अपनी भोगवती वारांगना से कहा कि तू इन कवियों की तारीफ कर । उसने जवाब दिया क मैं सिवाय पादलिप्तसूरि के किसी की तारीफ नहीं करती हूँ और इस जगत में पादलिप्तसूरि के अलावा कोई तारीफ योग्य है भी नहीं। इस पर किसी शंकर नामक मत्सरी ने कहा कि यदि किसी मृत्यु पाये हुये को जीवित कर दें तो मैं पादलिप्त को चमत्कारी समझू वरना केवल आकाश में फिरने से क्या लाभ है ? क्योंकि ऐसे तो बहुत से पक्षी आकाश में गमनागमन करते हैं । भोगवती ने कहा कि यह भी कोई बड़ी बात नहीं है, पादलिप्तसूरि के पास यह विद्या भी होगी ही। आचार्य पादलिप्तसूरि उस समय राजाकृष्ण के आग्रह से मानखेट: नगर में रहता था। अतः राजा 28 इतः पृथ्वीप्रतिष्ठाने नगरे सातवाहनः । सार्वभौमोपमः श्रीमान्नृप आसीदगुणावनिः ॥३०७॥ तथा श्रीकालकावार्य स्वस्रीयोः श्रीयशोनिधिः । भृगुकच्छपुरं पाति बलमित्राभिधोनृपः ॥३०८॥ अन्येद्युः पुरमेतच्च रुरुधे सातवाहनः । द्वादशाष्टानि तत्रास्थाद्वहिनं व्याहतंभवत् ॥३०९॥ । जीर्णे भोजनमात्रेयः कपिलः प्राणिनांदया। बृहस्पतिरविश्वासः पांचालस्वापु मार्दवम् ॥६२०॥ * मानखेटपुरात् कृष्णमापृच्छय्य स भूपतिः । श्रीपादलिप्तमाह्रासीदेतस्मादेव कौतुकात् ॥३२७॥ प्र० च० सिद्ध नागार्जुन ] Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सातवाहन 'ने मानखेट के राजा कृष्ण को कहला कर पादलिप्तसूरि को प्रतिष्ठनपुर बुलाया। सूरिजी आकर उद्यान में ठहर गये इसकी खबर मिलते ही एक वृहस्पति कवि ने सूरिजी की परीक्षा के लिए ठसा हुआ घृत एक चांदी की कटोरी में डाल कर किसी चालाक आदमी के साथ सूरिजी के पास भेजा। सूरिजी अपनी विद्या से जान गये और उसमें सुइयें खड़ी करके वापिस लौटा दिया इसका भाव यह था कि पंडितों ने सा हुआ घृत भेज कर संकेत किया था कि यहाँ सब पंडित विद्या से पूर्ण रहते हैं यदि आप पंडित हों तो इस नगर में पधारें इस पर सूरिजी ने घृत में सुइयें खड़ी करके संकेत किया कि यहाँ घृत को भेदने वाले पंडित विद्वान हैं । अतः मैं नगर में प्रवेश करूँगा । जिसको देख वृहस्पति मुग्ध हो गया इतना ही क्यों पर राजा भी सूरिजी के प्रति श्रद्धासम्पन्न हो गया और बड़ी धूमधाम से सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव करवाया और सूरिजी के ठहरने को एक मकान भी खोल दिया । चार्य श्री का इस प्रकार का सत्कार एक पांचल नामक कवि जो राज सभा में हमेशा तारंगलोला नाम की कथा सुनाया करता था देख नहीं सका । अतः वह ईर्ष्या रूपी अग्नि में जलता था । एक समय प्रसंगोपात् राजा ने कवि की तारंगलोला कथा की प्रशंसा की इस पर सूरिजी ने कहा कि यह तो मेरी वारंगलोला कथा का अर्थ विन्दु लेकर कथा नहीं पर कंथा बनाई है। अतः कवि राजसभा में लज्जित हो गया । एक समय पादलिप्तसूरि मायावी मृत्युवत बन गये इससे नगर में हाहाकार मच गया । श्राखिर बड़ी सेविका में सूरिजी के शरीर को स्थापन करके स्मशान में ले जा रहे थे जब पांचाल कवि के मकान के पास आये तो कवि घर से निकल कर बड़े ही दुःख के साथ कहने लगा कि हाय ! हाय !! महासिद्ध विद्या के पात्र पादलिप्त सूरि ने स्वर्गवास किया । श्ररे मेरे जैसे मत्सर भाव रखने वालों की क्या गति होगी कि मैंने ऐसे सत्पात्रसूरिजी के साथ व्यर्थ मत्सर भाव रक्खा । इस प्रकार पश्चाताप करते हुए कवि ने एक गाथा कही । "सीसं कहवि न फुङ्कं जमस्स पालित्त यं हरं तस्य । १ ॥ | " जस्स मुह निज्झराओं तारंगलोला नई बूढ़ा ॥ अर्थात् पादलिप्त जैसे महान आचार्य का हरन करने वाले यम का शिर क्यों न फूट गया जिस सुरि के मुखरूपी द्रह से तारंगलोला रूप महानदी निर्गमन हुई । पांचाल के शब्द सुनते ही सूरिजी ने सेविका में खड़े होकर कहा कि "पांचाल' के सत्य वचन से मैं पुनः जीवित हुआ हूँ ।" इस प्रकार कहते हुए सब लोगों के साथ बाजा गाजा एवं हर्षनाद होते हुए सूरिजी अपने उपाश्रय पधारे । सूरिजी ने मुनियों की दीक्षा, श्रावकों के व्रत और मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा के विधि विधान के लिये "निर्वाण | कलिका" नामक ग्रन्थ का निर्माण किया इसके अलावा प्रश्नप्रकाश ज्योतिष का ग्रन्थ वग़रह कई प्रन्थों की रचना की । शिasive: साधु क्षिपत्वा यावत्समाययौ । वादित्रैर्वाद्य मानैश्च पंचालभवनाग्रतः ॥ ३३७ ॥ †' पंचालसत्यबचनाज्जीवितोहमिति ब्रुवन् । उत्तस्थौ जनताहपरावेण सह सूरिराट् ॥ ३४२ ॥ 1. श्रावण यतीनां च प्रतिष्ठा दक्षिया सह । उत्थापना प्रतिष्ठार्हद्विम्बनां सदाममि ॥ ३४५॥ यदुक्तविधितो बुद्धा विधीयेतात्र सूरिभिः । निर्वाणकलिकाशास्त्रं प्रभुश्चक्रे कृपावशात् ॥ ३४६॥ प्र० च० ४३८ [ श्री वीरपरम्परा Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ एक समय पादलिप्तसूरि अपने आयुष्य को नजदीक जानकर अपने गृहस्थ शिष्य नागार्जुन के साथ विमलाचल पधारे वहाँ युगादीश्वर को बन्दन कर आलोचना पूर्वक अनशनत्रत किया । ३२ दिन तक समाधि के अन्दर रह कर अन्त में नाशवान शरीर का त्याग कर सूरिजी महाराज स्वर्ग पधार गये । इस पादलिप्तसूरि के प्रबन्ध में जितने आचायों का वर्णन आता है उसके अन्दर कई प्रकार के चमत्कार आये हैं जबकि जैनशास्त्रों में साधुओं के लिए इस प्रकार के चमत्कार दिखाने की मनाही है फिर उन विद्वानाचार्यों ने ऐसा क्यों किया होगा ? जैनागमों में द्रव्य क्षेत्र काल भाव को लक्ष्य में रखकर उत्सर्गोपवाद दो प्रकार का मार्ग बतलाया है । जब इन आचार्यों के समय की परिस्थिति को देखा जाय तो उन चमत्कारों की जरूरत थी । कारण एक तरफ बोद्धाचार्य्यं दूसरी और वेदान्ताचार्य इस प्रकार के चमत्कार बतला कर भद्रिक जनता को सत्पथ से पतित बनाकर अपने जाल में फंसाने का प्रयत्न कर रहे थे उस हालत में जैनाचाय्यों को उनके सामने खड़े कदम रहकर जैन जनता एवं जैनधर्म की रक्षा करना जरूरी बात थी । उन्होंने जो कुछ किया था वह जैनधर्म की रक्षा के लिए ही किया था न कि निजी स्वार्थ के लिए । अतः उन्होंने जो किया वह शासन के हित के लिये ही किया था और ऐसा करने से ही जैनधर्म जीवित रह सका है। ऐसी कुतर्क करने वाले महाशयों को पहिले उस समय का इतिहास उस समय की परिस्थिति का ज्ञान करना चाहिये ताकि अपनी तर्क का स्वयं समाधान हो सके । आचार्य वृद्धवादी और सिद्धसेन दिवाकर- - आप दोनों श्राचार्य महाप्रतिभाशाली एवं जिनशासन की प्रभावना करने वाले हुये हैं जिसमें पहिले वृद्धवादी का सम्बन्ध लिखा जा रहा है । गौड़ देश के कोशला ग्राम में एक मुकन्द नामका वृद्ध ब्राह्मण बसता था । उस समय विद्याधर शाखा के आचार्य पादलिप्त सूरि की परम्परा सन्तान में स्कन्दिलाचार्य्यं विहार करते हुए कोशल ग्राम में पधारे | आपका व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं आत्म कल्याण पर हुआ करता था एक दिन व्याख्यान में सूरिजी ने फरमाया कि “पच्छवि ते पयाया, खिप्पं गच्छति अमर भवणाई । जेसिं पियो तवो संजमो य, खंतीय बंभचेरं च ॥ " 1 अर्थात् मनुष्य अपनी पिछली अवस्था में भी जिनेन्द्र दीक्षा ग्रहण कर ले तो उसके लिए विमानीक देवों के सुख तो सहज में ही मिल सकते हैं क्योंकि वृद्धावस्था में एक तो ब्रह्मचर्य व्रत सुख से पल सकता है दूसरे कषाय की मंदता होने से क्षमा गुण बढ़ जाता है । इनके अलावा सूरिजी ने कहा कि संसार के तत्रास्ति कोशलाग्रामसंवासा विप्रपुङ्गवः । मुकुन्दाभिधया साक्षान्मुकुन्द इव सत्त्वतः ॥ ७॥ अपरेद्य ुविहारेण लाटमंडलमंडनम् । प्रापुः श्रीभृगुकच्छं ते रेवासेवापवित्रितम् ॥ १३॥ श्रुतपाटमहाघोषैरंबरं प्रतिशब्दयन् । मुकुन्दर्पिः समुद्रोम्मिध्वानसापत्न्यदुःखदः ॥१४॥ भृशं स्वाध्यायमभ्यस्थन्नयं निद्राप्रमादिनः । विनिद्रयति वृद्धत्वादाग्रही सन्नहर्निशम् ॥ १५ ॥ तारुण्योचितया सूक्तया करणासूयया ततः । अनगारेः खरां वाचमाददे नादरार्दितः ॥ १९ ॥ अजानन्वसतं यदुग्रपाठादरार्दितः । फुल्लयिष्यसि तन्मल्लीवल्लोवन मुशलं कथम् ॥२०॥ तत आराधयिष्यामि भारतीदेवतामहम् । अथोग्रतपसा सत्यं यथा सूयावचो भवेत् ॥२२॥ समुत्तिष्ठ प्रसन्नास्मि पूर्यन्तां ते मनोरथाः । स्खलना न तवेच्छास्तु तद्विधेहि निजेहितम् ॥२७॥ प्र० च० आचार्य वृद्धवादीसूरि ] ४३९ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास Viral अन्दर एक चारित्र ही ऐसा निर्भय है कि जिसकी आराधना करने से निर्भय स्थान को प्राप्त कर सकता है "भोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तऽग्निभभृद्भयं, दास्ये स्वामिभयं गुणे खलभयं वंशे कुयोषिद्भयम । स्नेहे वैरभयं नयेऽनयभयं काये कृतान्ताद्भयं, सर्व नाम भयंभवे यदि परं वैराग्यमेवाभयम् ॥" इत्यादि । आपके व्याख्यान का प्रभाव यों तो जनता पर पड़ा ही था पर वृद्ध ब्राह्मण मुकन्द पर तो इतना असर हुआ कि उसने सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा लेली । आपको ज्ञान पढ़ने की खूब रुचि थी पर बुद्धि इतनी जड़ थी कि परिश्रम करने पर भी सफलता नहीं मिलती थी। खूब जोर-जोर से घोखाघाख करता था दिन को तो आस पास के गृहस्थ लोगों के कान कम्प उठते थे और रात्रि में पास में रहने वाले साधुओं की निद्रा भंग हो जाती थी अतः वे कहने लगे कि हे मुनि ! रात्रि समय इस प्रकार शब्दोच्चारण से हिंसक जीव जाग कर आरम्भ कर बैठेगा पर मुनि मुकन्द को तो पढ़ना था ज्ञान, उसने अपना अभ्यास चालू रक्खा । इस पर एक समय मुनियों ने गुस्से में होकर कहा रे मुनि ! तू इस वृद्धावस्था में पढ़ कर क्या मूसल फूलावेगा ? मुकन्द ने कहा कि आत्मा में अनन्त शक्ति है तो मूसल फूलाना कौन सी बड़ी बात है। समय आने पर मूसल भी नवपल्लवित हो सकता है । प्राचार्य श्री के साथ मुनि मुकन्द विहार करते हुये भरोंच नगर में आये वहाँ पर “ नालिकेरवसांत" नाम के जिन चैत्य में जाकर सरस्वती देवी की आराधना करनी प्रारम्भ की। चारों आहार का त्याग कर मूर्ति के सन्मुख एकाग्र चित्त से देवी भारती की आराधना में २१ दिन व्यतीत हो गये । तब जाकर देवी प्रसन्न हो कर बोली कि मुनि मैं तुमको बरदाई हो गई हूँ अब तेरा मनोरथ सफल होगा । मुकन्द ने कहा तथास्तु । देबी अजेयज्ञान का वर देकर अदृश्य हो गई । सुबह मुनि ने आकर गुरुदेव को वंदन नमस्कार किया और आज्ञा लेकर पारणा के लिये नगर में गया । जिस घर में मुनि भिक्षा के लिये गये उस घर में एक मूसल पड़ा हुआ देखा जिससे मुकन्द को युवक मुनि का वचन स्मरण हो आया । मुनि ने मूसल को अचित जल का सिंचन कर सरस्वती से प्रार्थना की कि यह मूसल फूलों से नव प्लावित हो जाय । बस, फिर तो देरी ही क्या थी उसी समय जैसे ताराओं से आकाश शोभित है वैसे ही पुष्प पत्तों से मूसल शोभने लगा। इस चमत्कार को देख सब लोगों को आश्चर्य हुआ। कहने वाले युवक मुनि का जवानी एवं विद्या का गर्व गल गया और उसने अपने अपराध की क्षमा मांग कर वृद्ध मुनि की प्रशंसा की। अब तो मुनि मुकन्द सरस्वती देवी की कृपा से बड़ी बड़ी राज सभा में पण्डितों के साथ वाद विवाद कर सर्वत्र विजय प्राप्त करने लग गये । यही कारण है कि आप बृद्ध वादी के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हो गये । आचार्य रकन्दिलसूरि मुनि वृद्धवादी को सर्वगुण सम्पन्न जान कर अपने पट्ट पर आचार्य बना कर आप समाधि पूर्वक स्वर्ग गये। श्राचार्य वृद्धवादीसूरिंगच्छनायक होकर धरा पर विहार करते हुये एक समय उज्जैन नगरी की ओर आ रहे थे उस समय रज्जैन में राजा विक्रमादित्य राज्य कर रहा था उसी नगरी में देवीर्षि नामक ब्राह्मण राजा का मंत्री था जिसके स्त्री का नाम देवश्री था और इनका पुत्र सिद्ध सेन + जो चार वेद अठारह पुराणादि वाह्मण धर्म के सर्व शास्त्रों का पारगामी था। विद्या का उसको इतना गर्व था कि मेरा जैसा दुनिया भर में कोई +श्रीकात्यायनगोत्रीयो देवर्षिब्राह्मणांगजः । देवश्रीकुक्षिभूविद्वान् सिद्धसेन इति श्रुतः ॥३९॥ प्र. च. ४४० [ श्री वीर परम्परा ary.org Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ पण्ठित ही नहीं है । कई कई कथाओं में तो यहाँ तक भी लिखा मिलता है कि सिद्धसेन अपने पेट पर एक पाटा बांधा हुआ रखता था। पूछने पर कहता था कि मुझे डर है कि कहीं विद्या से मेरा पेट फट न जाय । पंडित जी एक हाथ में कुदाल और एक हाथ में निसरणी भी रखते थे पूछने पर कहते थे कि यदि कोई वादी आकाश में चला जाय तो इस निसरणी से उसकी टांग पकड़ ले पाऊँ और पाताल में चला जाय तो इस कुदाल से पृथ्वी खोद कर उसकी चोटी पकड़ कर खींच लाऊँ । यह गर्व की चर्म सीमा थी इतना होने पर भी एक प्रतिज्ञा उसने ऐसी भी कर ली थी कि जिसके साथ मैं शास्त्रार्थ करूँ और मध्यस्थ लोग कह दें कि सिद्धसेन हार गया तो मैं जीतने वाले का शिष्य बन जाऊँगा इत्यादि - ___एक समय जंगल में इधर से तो आचार्य वृद्धवादी आ रहे थे उधर सिद्धसेन जा रहा था दोनों की आपस में भेंट हुई । सिद्धसेन ने कहा जैन सेबड़ा ! मेरे साथ शास्त्रार्थ करेगा ? वृद्धवादीसूरि ने कहा हाँ। सिद्धसेन ने कहा तब कीजिये शास्त्रार्थ वृद्धवादीसूरि ने कहा यहाँ जंगल में कैसे शास्त्रार्थ किया जाय । कारण यहाँ हार जीत का निर्णय करने वाला मध्यस्थ नहीं है अतः किसी राज सभा में चलो कि वहाँ राजा एवं पगिडतों के समक्ष शास्त्रार्थ किया जाय जिससे जय पराजय का फैसला मिले । सिद्धसेन ने कहा मेरा तो पेट फटा जाता है आप यहाँ ही शास्त्रार्थ करें। यह जंगल के गोपाल हैं इनको मध्यस्थ रख लीजिये ये अपन दोनों के संवाद सुन कर हार जीत का निर्णय कर देंगे। सिद्धसेन का आग्रह देख आचार्य वृद्धवादी ने स्वीकार कर लिया और गोपालों को बुला कर मध्यस्थ मुकर्रर कर दिये । ___ पहिले सिद्धसेन ने अपनी पण्डिताई का परिचय करवाता हुआ संस्कृत में इस प्रकार का कथन किया किनिसको श्रवण कर देवता भी प्रसन्न हो जाय पर मध्यस्थ तो थे गोपाल । वे विचारे संस्कृत भाषा में क्या समझे उनको तो उल्टा खराब ही लगा । गोपालों ने कहा कि तुम ठहर जाओ, कुछ पढ़े तो नहीं और ध्यर्थ ही बकवाद करते हो। अब इन बूढे बाबा को बोलने दो । अतः समय के जानकार प्राचार्य वृद्धवादी बोलने लगे। उनके ओघा तो कमर पर बँधा हुआ ही था और शरीर को घुमाते हुए गोपालों की भाषा में गोपालों के गीत की राग में उच्चेस्वर से गाने लगे किः "नवि मारीई नवि चोरीइं परदारा गमन न कीजीई थोड़ास्युथोडु दीजई, तउटगि मगि सग्गि जाइई ॥१॥ गाय भैसि जिम निलुचरइ तिमतिम दूध दुणो भरई तिमतिम गोवला मनि ठरई, छाछि देयतां तेड करई ॥२॥ गुलस्यु चावइ तील तंडुली, बड़े बजाइ बाँसली पहिरण ओढणि हुई धावली गोवाला मन पुगी रली ॥३॥ मोटा जोटा मिल्या पिंढार, माहो माहि करिये विचार महीपी दूझणी सरजी भली, दीइ दाबोटा पुगी रली ॥४॥ बन माहि गोवला राज, इन्द तणि घरि परवा न आज भमर मिस दूझीवली सोल, सुखि समाधि हुई रंगरोल ॥५॥ आचार्य वृद्धवादी सूरि ] ४४१ Jain Educatie International Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वाउ भरी दहीने घोल, जीमणो कर लेइ वेसि बोल । इणि परेइ ं मुँडो मैलावर करई, स्वर्ग तणी वातज बिसरहूं || ६ || serica विक्री जेवणु मर्म्म न बोली जे कहे तणु कुडी साखी न दीजे आल, ए तुम्ह धर्म कहुँ गोवाल ||७|| अरडस विच्छु नवि मारई मारतओ पण उघारइ कुडकपट थी मन बारी इणि परई आप कारज सारई ||८|| वचन नव कीजइ कही तणु यह बात साची अणु कीजई जीव दयानु जतन, सावय कुल चिंतमणि रतन ॥ ६ ॥ वृद्धवादी के इस गीत (उपदेश) को सुन कर गोपाल बराबर समझ गये और उन को बड़ी भारी खुशी हुई तब वे गोपाल ताली देकर कहने लगे । गोवालिया उठ्या गहगही, हरखित ताली देता सही भो यही ज गरडो डोकरउं, नही भणियों येहीज छोकरउ ॥१॥ भट्ट जे बोल्यो भूत पल्लाप, फोड्या कान विधोयो आप । गरड़ो हरयो तु हल्ल, पाये लागी करइ ए गुरमल्ल ॥२॥ बन्धकार लिखता है कि गोपालों के सामने सिद्धसेन ने कहा कि संसार में कोई सर्वज्ञ नहीं है । उत्तर में आचार्य वृद्धवादी ने गोपालों से पूछा कि तुमने सर्वज्ञ देखा है ? गोपालों ने उत्तर दिया कि नगर के मंदिर में सर्वज्ञ वीतराग बैठा है । जिसको हम लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है और सब लोग उसको सर्वज्ञ वीतराग ईश्वर कहते हैं । यह बात सत्य है फिर यह पण्डित झूठ क्यों बोलता है इत्यादि गोपालों ने वृद्धवादी को सच्चा और सिद्धसेन को झूठा कह कर फैसला दे दिया । बस, फिर तो था ही क्या ! सत्यवादी सिद्धसेन ने गुरु महाराज के चरणों में शिर झुका कर कहा कि हे पूज्यवर ! आप कृपा करके मुझे अपना शिष्य बनाइये कारण मैंने पहिले से ही ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि मैं जिससे हार जाऊं उसका शिष्य बन जाऊ ं । सूरीजी ने कहा सिद्धसेन तू वास्तव में पंडित है पर कमी है तो समयज्ञपने की है । यदि तू जैन दीक्षा लेनी चाहता है तो बहुत अच्छा है पर यदि तेरी इच्छा हो तो अभी किसी राज सभा में चल कर विद्वान पण्डितों के समक्ष शास्त्रार्थ कर फिर वहां जय पराजय का निर्णय हो जायगा । सिद्धसेन ने कहा नहीं प्रभो ! निर्णय तो यहां हो गया है और मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि आपके सामने मैं कुछ भी नहीं हूँ । अतः आप मेरी प्रतिज्ञा को पूर्ण कर के अपना शिष्य बनालें । सूरिजी ने विधि विधान से सिद्ध सेन को दीक्षा देकर उसका नाम कुमुदचन्द्र रख दिया। मुनि कुमुदचन्द्र ने जैन दीक्षा लेने के बाद वर्त्तमान जैन साहित्य का अध्ययन कर लिया । श्राचार्य वृद्धवादी ने सर्वगुण सम्पन्न जान कुमुदचन्द्र को आचार्य पद से विभूषित कर उनका प्रसिद्ध नाम सिद्धसैनसूरि रख दिया और अन्य साधुओं को साथ देकर अलग विहार करवा दिया । आचार्य सिद्धसैनसूरि की ज्ञानप्रभा यहां तक फैल गई कि वे सर्वज्ञ पुत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गये । ४४२ [ श्री वीर परम्परा Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ आचार्य सिद्धसेनसूरि उज्जैन नगर में विराजते थे । एक समय थडिले जाकर वापिस आरहे थे। राजा विक्रमादित्य हस्ती पर आरुढ़ होकर आचार्य के पास से निकल रहा था। उसने सर्वज्ञपुत्र की परीक्षा के लिये हस्ती पर बैठे हुये मन में ही सूरिजी की वंदन किया उस चेष्टा को देख कर सूरिजी ने उच्चस्वर से कहा 'धर्मलाभ' राजा ने कहा कि बिना वन्दन किये हो आप धर्मलाभ किसको दे रहे हैं ? सूरिजी ने कहा कि हे नरेश ! आपने मुझे मन से वंदन किया जिसके बदले में मैंने धर्मलाभ दिया है । राजा ने हस्ती से उतर कर सूरिजी को वन्दन कर कहा कि मेरे दिल में शंका थी कि लोग आपको सर्वज्ञपुत्र कहते हैं यह केवल शब्द मात्र की प्रशंसा है पर आज मैंने प्रत्यक्ष में देख लिया है कि आप वास्तव में सर्वज्ञ पुत्र हैं इस गुण से प्रसन्न होकर मैं करोड़ सुवर्ण मुद्रा आपको भेंट करता हूँ आप स्वीकार करावें । सूरिजी ने कहा कि हे राजन् ! हम निस्पृही निर्ग्रन्थों को इन सुवर्ण मुद्रकाओं से क्या प्रयोजन है हम तो केवल भिक्षा वृत्ति पर गुजारा करते हुये जनता को धर्मोपदेश करते हैं । राजा ने कहा कि मैंने मन से जिस धन को अर्पण कर दिया है उसको रख नही सकता हूँ । सूरिजी ने कहा कि इसके लिये अनेक रास्ते हैं । दुखी मनुष्यों को सुखी बना सकते हो, मन्दिरादि धर्मस्थानों के जीर्णोद्धारादि कार्यों में लगा कर पुन्योपार्जन कर सकते हों। इत्यादि राजा ने जनमुनियों की निस्पृहता की प्रशंसा की और अर्पण किया हुआ द्रव्य सूरिजी की आज्ञानुसार अच्छे कामों में लगा दिया। ___ आचार्य सिद्धसेनसूरि एक समय भ्रमण करते हुए चित्रकुटा नगर में पधारे वहां एक स्तम्भ श्रापको दृष्टिगत हुआ। वह स्तम्भ न पत्थर न मिट्टी न काष्ट का था पर किसी औषधिों के लेप से बना हुआ था। सूरिजी ने प्रतिकूल औषधियों से स्तम्भ का एक विभाग खोला तो उसमें कई हजारों पुस्तकें भरी हुई थी जिसमें से एक पुस्तक लेकर उसका एक श्लोक पढ़ा तो उसमें सुवर्ण सिद्धि विद्या थी फिर दूसरे श्लोक को पढ़ा तो उसमें सरसब के दानों से सुभट बनाने की विद्या थी उन दोनों श्लोक को याद कर आगे तीसरे रलोक को पढ़ना चाहते थे कि पुस्तक स्तम्भ में चली गई और स्तम्भ लेपमय था वैसा ही बन गया । केवल दो विद्या आचार्य श्री के हाथ लग गई उसको स्मृति पूर्वक याद रखली। आचार्य श्री विहार करते हुए पूर्व देश के कुंरि नगर पधारे वहां देवपाल नामक राजा था । सूरिजी 8 श्री सिद्धसेनसूरिश्चान्यदा बाह्य भुवि व्रजन् । दृष्टः श्रीविक्रमार्केण राज्ञा राजाध्वगेन सः ॥६॥ अलक्ष्यं भप्रणामं स भपस्तस्मै च चक्रिवान । तं धर्मलाभयामास गुरुरुच्चतरस्वरः ॥६२॥ तस्य दक्षतया तुष्टाः प्रीतिदाने ददौनृपः । कोटि हाटकटंकानां लेखकं पत्रकेऽलिखत् ॥६३॥ धर्मलाभ इति प्रोक्त दूरादुद्ध तपाणये । सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटिं नराधिपः ॥६॥ + अन्यदा चित्रकूटाद्रौ विजहार मुनीश्वरः । गिरे नितंब एकत्र स्तंभमेकं ददर्शच ॥६७॥ नैव काष्टमयो ग्रावमयो न नचमृण्मयः । विमृशन्नौषध क्षोदमयं निरचनोच्च तम् ॥६८॥ तद्रसस्पर्शगंधादि निरीक्षाभिर्मतिबलात् । औषधानि परिज्ञाय तत्प्रत्यर्थीन्यमीमिलन् ॥६९॥ पुनः पुननिघृष्याथ स स्तंभे छिद्र मातनोत् । पुस्तकानां सहस्त्राणि तन्मध्ये च समैक्षत ॥७॥ एकं पुस्तक मादाय पत्रमेकं ततः प्रभुः । विवृत्य वाचयामास तदीयामोलिमेककाम् ॥७॥ सुवर्ण सिद्धियोगं स तत्र प्रेक्षत विस्मितः सर्सपैः सुभटानां च निष्पत्ति श्लोक एकके ॥७२॥ सावधानः पुरो यावद्वाचयत्येण हर्षभूः। तत्पत्रं पुस्तकं चाथ जह्व श्रीशासनामरी ॥७३॥ तारकपूर्वगतग्रन्थवाचने नास्ति योग्यता । सत्वहानिर्यतः कालदौस्थ्यादेतादृशामपि ॥७॥ प्र० च० आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ] ४४३ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के उपदेश से वह जैन धर्म स्वीकार कर सूरिजी का परम भक्त बन गया और बहुत आग्रह कर सूरिजी को अपने यहां रख हमेशा ज्ञानगोष्टी किया करता था । एक समय विजयवर्मा राजा सेना लेकर देवपाल पर चढ़ आया । राजा घत्रराया और सूरिजी के पास आकर अपनी दुःखगाथा कह सुनाई । सूरिजी ने सुबर्णविद्या से सोना और सरसप विद्या से असंख्य सुभट बना दिये जिससे देवपाल ने विजयवर्मा को भगा दिया। इससे देवपाल ने सूरिजी को दिवाकर उपाधि से विभूषित किया । इतना ही नहीं पर राजा ने भक्तिवश होकर सूरिजी को छत्र, चँवर, पालकी और हस्ती तक देकर एक बादशाही ठाट सा बना दिया और आचार्य श्री अपने चारित्र को विस्मृत हो कर उन सब डाट के साधनों को उपभोग में भी लेने लग गये । आचार्य वृद्धवादी ने यह बात सुनी कि सिद्धसेन चारित्र से शिथिल होकर पालकी एवं हस्ती पर चढ़कर छत्र चँवरादि राजसी ठाट भोग रहा है तो सूरिजी को बड़ा भारी अफसोस हुआ कि सिद्धसेन जैसों का यह हाल है तो दूसरों का तो कहना ही क्या है । अतः अपने योग्य शिष्य का उद्धार करने के लिये स्त्रयं सूरिजी वेश बदल कर कुंर्मार नगर में श्राये और जिस समय सिद्धसेन सुखासन पर बैठ के बहुत लोगों के परिवार से राजमार्ग से निकल रहा था उस समय वृद्धवादीसूरि ने उसके पास जाकर एक गाथा कही । अहुल्ली फूल्ल म तोड़हु मन आराम म मोड हूं । मण कुसुमेहिं अचि निरंजणु हिंडह कांई वणेण वणु ॥ इस गाथा के अर्थ के लिये सिद्धसेन ने बहुत उपयोग लगाया पर गाथा के भाव को नहीं समझ सका टम् परम् अर्थ कहा पर बुढ़ े ने मंजूर नहीं किया तब सिद्धसेन ने बूढ़ े से कहा कि तुम इस गाथा का भाव कहो । बूढ़े ने गाथा का भाव कहते ही सिद्धसेन की सुरत ठिकाने आई और सोचा कि सिवाय मेरे गुरु के ऐसा विद्वान नहीं कि इस प्रकार की गाथा कह सके । तुरंत ही पालकी से उतर कर गुरू के चरणों में गिर पड़ा और अपने अपराध की क्षमा मांगी। गुरू महाराज ने सिद्धसेन को यथायोग्य प्रायश्चित देकर स्थिर किया और गच्छ का भार सिद्धसेन को सौंप कर आप अनशन एवं समाधि के साथ स्वर्ग धाम को पधार गये । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर शुरू से संस्कृत के अभ्यासी एवं अनुभवी थे । शायद प्राकृत एवं मागवी भाषा उनको अच्छी नहीं लगी हो या इनके गूढ़ रहस्य को समझने में कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ा हो या उस जमाने की जनता पर विशेष उपकार की भावना हो एवं किसी भी कारण से प्राकृत भाषा को ग्रामीण भाषा समझ कर जैनागमों को संस्कृत में बना देने के इरादे से श्रीसंघ को एकत्र कर अपने मनोगत भाव श्रीसंघ के सामने प्रदर्शित किये कि श्राप सम्मति दें तो मैं इन सब श्रागमों को संस्कृत में ॐ स पूर्वदेशपर्यन्ते व्यहार्षीच्च परेद्यवि । १ कर्मारनगरं प्राप विद्यायुगयुतः सुधीः ॥७५॥ देवपाल नरेन्द्रोऽस्ति तत्र विख्यात विक्रमः । श्रीसिद्धसेनसूरिं स नं तुमभ्याययौ रयात् ॥ ७६ ॥ ततो दिवाकर इति ख्याताख्या भवतु प्रभोः । ततः प्रभृति गीतः श्री सिद्धसेन दिवाकरः ॥ ८५॥ तस्य राज्ञो दृढं मान्यः सुखासन गजादिषु । बलादारोपितो भक्तया गच्छति क्षितिपाकयम ॥ ८६ ॥ इति ज्ञात्वा गुरुर्वृद्धवादी सूरिर्जनश्रुतेः । शिप्यस्य राजसत्कार दर्पं भ्रान्त मतिस्थितेः ॥८७॥ हुल्ली फुल्ल मतोडहु मन आरामा ममोडहु । मगकुसुमेहिं अच्चि निरंजणु हिंहकाई वणेण वणु ॥ १२ ॥ ४४४ [ श्री वीर परम्परा Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ४५२ ना । सूरिजी के वचन सुनकर श्री संघ सख्त नाराज हुआ और कहा कि तीर्थकर सर्वज्ञ थे और गणधर नी जिनतुल्प ही थे उन्होंने चौदह पूर्व का ज्ञान संस्कृत में और एकादशांग का ज्ञान प्राकृत भाषा में बनाया है इसमें उन्हों की जन कल्याण की भावना ही मुख्य थी जैसे कहा है किः बालस्त्रीमृढमूर्खादि जनानुगहणाय सः । प्राकृतां तामिहाकादिनास्थात्र कथंहिवः ॥ ___ अतः तीर्थकर गणधरों के रचे हुए भागमों का अनादर रूप महान् आशातना का प्रायश्चित लेना चाहिये । कारण इस प्रकार मूलअंग सूत्रों को बदल दिए जाय तो फिर जिन वचनों पर विश्वास ही क्या रहेगा इत्यादि। सत्पक्षी सिद्धसेन दिवाकर जी की समझ में आ गया कि मेरी ओर से आशातता अवश्य हुई है। श्रीसंघ से कहा कि जो दंड संघ दे वह मुझे मंजूर है । श्रीसंघ ने विनय के साथ कहा कि दंड देने का हमें क्या अधिकार है। हम तो आपकी आज्ञा के पालन करने वाले हैं । हाँ, दंड स्थविर भगवान दे सकते हैं । स्थविरों से याचना करने पर उन्होंने विचारणापूर्वक दशवा पारंचिक प्रायश्चित दिया कि इस प्रायश्चित की अवधि बारह वर्ष तक है परन्तु आप किसी बड़े राजादि को प्रतिबोध कर जैन धर्म की प्रभावना करें सो श्रीसंघ को अधिकार है कि इसमें रियायत भी कर सके । आत्मकल्याण की भावना वाले सूरिजी ने उस प्रायश्चित को स्वीकार कर लिया और गच्छ का भार अन्य योग्य स्थविर को सौंप कर आप गच्छ से अलग हो गये और ओषा मुँहपति गुप्त रख अवधूत के वेष में संयम की रक्षा करते हुये भ्रमण करने लग गये । ___ इस भ्रमण में दिवाकरजी ने ७ वर्ष व्यतीत कर दिये बाद एक समय उज्जैनी नगर में गये । राजा के द्वारपाल को कहा कि तू राजा के पास जाकर निवेदन कर कि एक अवधूत हाथ में चार श्लोक लेकर आया है और वह आपसे मिलना चाहता है अतः श्रापकी आज्ञा हो तो अन्दर आने दिया जाय । राजा ने आज्ञा देदी। दिवाकर जी राजा के पास आये और निम्न लिखित श्लोकों द्वारा राजा की स्तुति की। अपूर्वेय धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः । मार्गणौधः समभ्येति गुणो याति दिगन्तरम् ॥१॥ सरस्वती स्थिता वक्त्रे लक्ष्मीः करसरोरुहे । कीर्तिः किं कुपिता राजन् ! येन देशान्तरं गता ॥२॥ कीर्तिस्ते जात जाड्य व चतुरम्भोधि मज्जनात। आतपाय धरानाथ ! गता मार्तण्डमण्डलम् ॥३॥ सर्वदा सवेदोऽसीति मिथ्या संस्तूयसे जनैः । नारयो लेभिरे पृष्ठं न वक्षः परयोषितः ॥४॥ इन श्लोकों को सुनकर राजा मंत्रमुग्ध बन गया और बड़े ही सम्मान के साथ अपनी सभा में रक्षा और हमेशा ज्ञानगोष्टि करता रहा । सब पण्डितों में सिद्धसेन का आसन ऊंचा समझा जाता था। अभी पानकुरंकामाः सप्तापि जलराशयः । यद्यशो राजहंसस्य पंजरं भुवनत्रयम् ॥१॥ भयमेकमनेकेभ्यः शत्रुभ्यो विधिवरसदा । ददासि तच्चते नास्ति राजश्चित्रमिदमहत् ॥२॥ & अन्यदा लोकवाक्येन जातिप्रत्ययतस्तथा । आबाल्यात्संस्कृताभ्यासी कर्मदोषात्प्रबोधितः ॥१०९॥ सिद्धान्तं संस्कृतं कर्तुमिच्छरसंघ व्यजिज्ञपत् । प्राकृते केवलज्ञानिभाषितेऽपि निरादरः ॥११०॥ बालस्त्रीमूढमूर्खादिजनानुग्रहणाय सः । प्राकृतां तामिहाकार्षीदनास्थात्र कथं हि वः ॥ १६॥ इति राज्ञा स सन्मानमुक्तोऽभ्यणे स्थितो यदा । तेन साकं ययौ दक्षः स कुडंगेश्वरे कृती ॥१३॥ अरवेति पुनरासीनः शिव लिङ्गस्य स प्रभुः । उदाजद्वे स्तुतिश्लोकान् तार स्वर करस्तदा ॥ ३॥ प्र० च० आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ] ४४५ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एक समय राजा विक्रमादित्य कुंडगेश्वर महादेव के दर्शनार्थ जा रहा था । दिवाकरजी को भी साथ चलने को कहा, इसपर दिवाकरजी भी साथ हो गये । राजा ने महादेव को नमस्कार किया पर दिवाकरजी बिना नमस्कार किये ही खड़े रहे । राजा ने कहा कि आप जाति के ब्राह्मण और इतने विद्वान होते ये भी देव को नमस्कार नहीं करते हो इसका क्या कारण है ? दिवाकरजी- मेरे नमस्कार को सहन करने वाला देव दूसरा ही है । यह देव मेरे नमस्कार को सहन नहीं कर सकेगा । राजा ने इसका कारण धर्म भेद समझ कर पुनः कहा कि हम देखते हैं श्राप नमस्कार करें फिर यह देव कैसे सहन नहीं करेगा ? दिवाकरजी - राजन् ! आप हठ न करें मैं ठीक कहता हूँ । यदि मैं नमस्कार करूंगा तो आपके दिल को भी आघात पहुँचेगा ? राजा - खैर | कुछ भी हो आपतो महादेव को नमस्कार कीजिये ? दिवाकरजी राजा के आग्रह से न्यायावतार सूत्र की स्तुति और कल्याण मन्दिर स्तोत्र बनाकर देव की स्तुति करने लगे तो महादेव के लिंग के अन्दर से धुंआ निकलना शुरु हुआ जिसको देख लोग कहने लगे कि शिवजी का तीसरा नेत्र प्रगट हुआ है । शायद् शिवजी का अपमान करनेवाले को जलाकर भस्म कर डालेगा । जब कल्याण मन्दिर का तेरहवां श्लोक उच्चारण किया कि धरणेन्द्र साक्षात् श्राया और महादेव के लिंग की नींबू की भांति चार फांके होकर अन्दर से आवन्ति पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट होगई जिसको देख राजा प्रजा उपस्थित लोगों को बड़ा ही आचार्य हुआ। राजा ने इसका कारण पूछा तो दिवाकरजी ने कहा कि भद्रासेठानी के पुत्र श्रावन्ति कुमार ने बत्तीस रमणिये और करोंड़ों द्रव्य त्याग कर जैन दीक्षा और उसके पुत्र ने इस स्थान पर पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की जिसको आवन्तिपार्श्वनाथ कहते थे पर ब्राह्मणों की प्रबलता में पर्श्वनाथ की मूर्ति दवा कर ऊपर लिंग स्थापित कर दिया वही आज पके आग्रह से प्रगट हुआ है इस चमत्कारी घटना को देख कर राजा ने जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और कट्टर जैन बन गया । 'यथा राजास्तथा प्रजा' और भी बहुत से लोगों ने जैनधर्म को स्वीकार किया जिससे जैनधर्म की खूब ही प्रभावना हुई । इस प्रभाव के कारण श्रीसंघ ने शेष ५ वर्ष माफकर दिवाकर जी को श्रीसंघ में लेकर पुनः गच्छ का भार उनके सुपुर्द कर दिया । राजा विक्रम ने सूरिजी के उपदेश से श्री शत्रु जय तीर्थ का एक विराट् संघ निकाला जिसमें हजारों साधु साध्वियाँ और लाखों गृहस्थ संघ में साथ थे। इस संघ का जैनप्रन्थो में बड़े विस्तार से वर्णन किया है । न्यायावतार सूत्रच श्रीं वीरस्तुति मध्यथ । द्वात्रिंशच्छूलोकमानाश्च त्रिंशदन्याः स्तुतीरपि ॥ १४३ ॥ ततश्चतुश्चत्वारिंशद्धद्दतां स्तुतिमसौ जगौ । कल्याणमन्दिरेत्यादि विख्यातां जिनशासने ॥ १४४॥ अस्य चैकादशं वृत्तं पठतोऽस्य समाययौ । धरणेंद्रो दृढा भक्तिर्न साध्यं तादृशां किमु ॥ १४५ ॥ शिवलिंगात्ततो धूमस्तत्प्रभावेण निर्ययौ । यथांधतमसस्तोमैर्मध्याह्नपि निशाभवत् ॥ १४६ ॥ यथाविह्वलितो लोको नंष्टुमिच्छन् दिशो नहि । अज्ञासीदाश्मनस्तंभभितिवास्फालितो भृशम् ॥ १४७ ॥ ततस्तस्कृपयेवास्माद् ज्वालामाला विनिर्ययौ ! मध्येसमुद्रमावर्त्तवृत्ति संवत कोपमा ॥ १४८ ॥ ततश्च कौस्तुभस्येव पुरुषोत्तम हृस्थिते । प्रभोः श्रीपार्श्वनाथस्य प्रतिमा प्रकटाभवत् ॥ १४९ ॥ प्र० ॥ ४४६ [ श्री वीरपरम्परा,yog Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ आचार्य दिवाकरजी एक समय ॐकार नगर में पधारे वहाँ के श्री संघ ने आपका बड़ा ही समारोह के साथ स्वागत किया। एक समय वहां के श्रीसंघ ने सूरिजी से अर्ज की कि हे प्रभो! हमारी इच्छा एवं भक्ति होने पर भी मिथ्यात्वी लोग हमको जैन मंदिर नहीं बनाने देते । पूज्यवर ! आपकी मौजूदगी में हम लोगों की श्राशा सफल न हो यह एक अफसोस की बात है । सूरिजी ने कहा ठीक मैं प्रयत्न करूंगा। सूरिजी वहां से चल कर पुनः उज्जैन पधारे । राजा विक्रम को अपने ज्ञान से इतना प्रसन्न किया कि उसने कहा कि पूज्यवर ! आज्ञा फरमाओं कि मैं आपकी क्या सेवा करू ? सूरिजी ने कहा हमारी क्या सेवा करनी है यदि आपकी इच्छा हो तो ऊँकार नगर में शिवमन्दिर से उचाई में एक जैन मन्दिर बना कर पुन्योपार्जन करावें । राजा ने सूरिजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर बिना बिलम्ब तत्काल ही जैन मन्दिर बना दिया और सूरिजी के करकमलों से उस मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई अतः ऊकारपुर के श्रीसंघ के मनोरथ सफल हुए। सूरिजी महाराज वहां से विहार कर भरोंच नगर की ओर जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने कई गोपालों को धर्म उपदेश दिये जैसे कि वृद्धवादी भाचार्यों ने गवालों की भाषा में उपदेश दिया था। उसकी स्मृति के लिये गोपालों ने वहां पर तालारसिक नामका ग्राम बसा दिया इस प्रकार धर्मोन्नति करते हुये सूरिजी महाराज भरोंच पधारे । उस समय भरोंच में राजा वलमित्र का पुत्र धनंजय राज करता था। सूरिजी महाराज का परम भक्त था और सूरिजी महाराज का नगर प्रवेश महोत्सव बड़े ही समारोह से किया। ___ एक समय भरोंच पर किसी दुश्मन राजा की सेना ने आक्रमण किया दुश्मनों की सेना इतनी विशाल संख्या में थी कि धनंजय राजा घबरा गया। उस ने आकर सूरिजी से सब हाल निवेदन किया। सूरिजी थे विद्यावली उन्होंने सरसव प्रयोग से इतने सुभट बना दिये कि उन्होंने क्षण भर में ही दुश्मनों की सेना को भगा दिया तदनन्तर राजा धनंजय ने सूरिजी के पास में दीक्षा लेली । इसप्रकार शासन की प्रभा. वना करते हुये दक्षिण प्रान्त के प्रतिष्ठनपुर नगर में पधारे वहां के राजा प्रजा ने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया। वहां धर्मोपदेश देते हुये सूरिजी को ज्ञात हुआ कि मेरा आयुष्य अल्प है। अतः आपने अपने योग्य शिष्य को सूरिपद पर प्रतिष्ठित कर आप अनशन एवं समाधिपूर्वक स्वर्गवास किया । वहां का वैतालिक नाम का चारण फिरता हुआ उज्जन नगरी में आया वहां पर सिद्धसेनदिवाकर की बहिन सिद्ध श्री साध्वी ने उस वैतालिक चारण से अपने भाई सिद्धसेनदिवाकरजी के समाचार पूछे । इसके जवाब में निरानन्द होकर चरण ने श्लोक का पूर्वार्द्ध कहा । ___ 'स्फुरन्ति बादि खद्योताः साम्प्रतं दक्षिणापथे' अर्थात् इस समय दक्षिण देश में वादीरूपी खद्योत स्फुरायमान हो रहे हैं। इस पर साध्वी सिद्धी श्री ने अपने अनुमान से श्लोक का उत्तरार्द्ध कहा कि । "नूनमस्तंगतो वादी, सिद्धसेनो दिवाकरः" अर्थात् सिद्धसेन दिवाकर सूरि का स्वर्गवास हो गया होगा तभी तो वादी स्फुरायमान हो रहे हैं। वैतालिक को पूछने से साध्वी का अनुमान ठीक निकला । साध्वी ने उसी दिन से अनशन कर दिया और रतनत्रिय की आराधना करती हुई स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ] ४४७ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष | [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इस प्रकार विद्याधर वंश में पादलिप्तसूरि, वृद्धवादीसूरि एवं सिद्धसेन दिवाकर सूरि प्रभाविक आचार्य हुये । प्रबन्धकार फरमाते हैं कि - विक्रम सं० १५० के बाद श्रावक मिलकर बिहार तथा गिरनार पर्वत मुकट समान श्रीनेमिनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार कराते हुये बरसात के कारण नष्ट हुआ एकमठ के अंदर मिली हुई प्रशस्ति या कई प्राचीन विद्वानों के प्रन्थों से संग्रह करके इन महापुरुषों का चारित्र लिखा । इति श्री श्राचार्य श्री वृद्धवादी एवं सिद्धसेन दिवाकर सूरि का सम्बन्ध | श्राचार्य श्री जीवदेवसूरि लाटदेश के भूषण समान वायट नाम का एक प्राचीन नगर था। यों तो वह नगर ही धन धान्य से परिपूर्ण था पर उस नगर में एक धर्मदेव नामक श्रेष्ठ तो अपार सम्पत्ति का ही मालिक था तथा आपकी गृहगार स्त्री का नाम शीलवंती था और आपके महीधर एवं महीपाल नामक दो होनहार पुत्र रत्न भी थे फिर तो श्रेष्ठ की बराबरी कौन कर सकता था । महीधर पिता की सेवा में रहता था तब महीपाल बचपन से ही देशाटन किया करता था । वाट नगर में एक जिनदत्तसूरि नामक महाप्रभाविक आचार्य विराजते थे । श्रेष्ठिपुत्र महीधर सूरिजी के पास आया जाया करता था और कुछ ज्ञानाभ्यास भी किया करता था । जिनदत्तसूरि ने महीधर को होनहार जान कर धर्मोपदेश दिया और संसार की असारता बतला कर उनके माता पिता की आज्ञा से उसे जैन दीक्षा दे दी। शास्त्रों का अध्ययन करवा कर जब महीधर सर्वगुण सम्पन्न हुआ तो उनको आचार्यपद अर्पण कर आपका नाम रसीलसूरि रख दिया । महीपाल ने राजगृह नगर में श्रुतकीर्ति दिगम्बराचार्य के पास दीक्षा धारण कर ज्ञानाभ्यास किया । श्रुतकीर्ति आचार्य ने महीपाल को योग्य जानकर प्रतिचक्रा और परकायप्रवेश नाम की दो विद्यायें देकर अपने पट्ट पर आचार्य बनाकर उसका नाम सुवर्णकीर्ति रख दिया । सेठानी शीलवंती ने व्यापारियों द्वारा सुना कि महीपाल ने दीक्षा ले ली और राजगृह नगर की ओर विचरता है । अतः माता पुत्र के स्नेह के कारण राजगृह की ओर गई । पुत्र को दिगम्बर अवस्था में देखकर माता ने कहा मुनि श्राप दो भाई दो मत में दीक्षित हुए तो अब मुझे कौनसा धर्म पालन करना चाहिये ? अतः आप वायट की तरफ पधार कर दोनों भाई एक निर्णय कर लो कि हम लोग भी उसी धर्म का अनुसरण करें । सुवर्णकीर्ति ने माता का कहना स्वीकार कर वायट की तरफ विहार किया और क्रमशः वाटनगर पधार कर रसीलसूरि से मिले और वार्तालाप एवं ज्ञानगोष्ठी करने से श्वेताम्बर धर्म प्राचीन एवं शास्त्रविहित होने से सुवर्णकीर्ति ने दिगम्बर मत का त्याग कर श्वेताम्बर धर्म स्वीकार कर लिया । रसीलसूरि ने सुवर्णकीत को श्वेताम्बरीय दीक्षा देकर अपने पट्ट पर श्राचार्य बना कर आपका नाम जीवदेवसूरि रख दिया । एक समय जीवदेवसूरि का साधु व्याख्यान दे रहा था । उस सभा में एक योगी आया और आसन लगाकर व्याख्यान में बैठ गया। योगी ने अपनी विद्या से व्याख्यानदाता मुनि की जबान बन्द करदी | जब ४४८ [ श्री वीर परम्परा www.airbnbrary.org Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ आचार्य जीवदेवसूरि को मालूम हुआ तो आपने ऐसी विद्या चलाई कि साधु तो व्याख्यान देता ही रहा किंतु उस योगी का आसन भूमि से चिपट गया । श्रतः वह उठने के लिये समरथ नहीं हुआ । उसने आचार्य श्री से क्षमा की याचना की अतः सूरिजी ने उसे मुक्त कर दिया | जीवदेवसूरि ने अपने साधु साध्वियों को उत्तर दिशा की ओर जाने की मनाई कर दी तथापि एक दिन दो साध्वियां उत्तर दिशा में थडिला के कारण चली गई। जब वे वापिस आ रही थी उस समय योगी तालाब की पाल पर बैठा हुआ था। उस दुष्ट चित्ताले योगी ने लघु साध्वी पर लम्बा हाथ कर ऐसा चूर्ण डाला कि साध्वी योगी के वश होकर वहां ही बैठ गई । वृद्ध साध्वी ने बहुत समझाई पर वह तो चूर्ण के कारण परवश थी । आखिर वृद्ध साध्वी ने जाकर जीवदेवसूरि से कहा । उन्होंने चार श्रावकों को बुला कर घास का एक पुतला बना कर दे दिया और उसका सब हाल कह सुनाया । श्रावकों ने उस घास धर्मदेवः श्रियां धर्मश्रेष्ठ तत्रास्ति विश्रुतः । साक्षादर्म इव न्यायार्जित द्रव्य प्रदानतः ॥ १० ॥ शीलभूस्तस्य कान्तास्ति नाम्ना शीलवतो यथा । आनन्दिवचसा नित्यं जीयन्ते चन्द्रचन्दनाः ॥ ११ ॥ तयोः पुत्रावुभावास्तां श्रेयः कर्मसु कर्मठौ । महीधर महीपालाभिवाभ्यां विश्रुताविति ॥ १२ ॥ तत्रास्ति जंगमं तीर्थं जिनदत्तः प्रभुः पुराः । संसार वारिधेः सेतुः केतुः कामाद्यरित्रजे ॥ ११ ॥ अन्यदा तं प्रभु नला भवोद्विमो महीवरः । बंधोविरह वैराग्यात् प्रार्थयज्जैन संगमम् ॥१६॥ योग्यं विज्ञाय तं तस्य पितरौ परिच्य च । प्रव्रज्यां प्रददौ सूरिरभाग्या लभ्यसेवनः ॥१७॥ महीपालस्तथा तस्य वन्धू राजगृहे पुरे । प्रापदिगम्बराचार्य ध्रुतकीर्तिमिति श्रुतम् ॥२१॥ प्रतिबोध्य व्रतं तस्य ददौ नाम च स प्रभुः । सुवर्गकीर्तिरिति तं निजांचा शिक्षयत्क्रियाम् ॥२२॥ श्रुतकीर्ति गुरुस्तस्यान्यदा विपदं ददौ । श्रीमत्प्रतिचकाया विद्यां च धरणाच्चिताम् ॥ २३ ॥ परकायाप्रवेशस्य कलां चासुलभां कलौ । भाग्यसिद्धां प्रभुः प्रदात्तादग्योगो हि तादृशः ॥ २४ ॥ आचार्यों किल सौयों श्वेताम्बर दिगम्बरौ । स्वस्वाचारं तथा तत्वविचारं प्रोचतुः स्फुटम् ॥३३॥ श्रीरासीलप्रभोः पारवें दीक्षाशिक्षाकमोदयः | जैनागमरहस्यानि जानन् गीतार्थतां ययौ ॥ ४५ ॥ अन्या योग्यं वन्धु पट्टे न्यवीविशत् । श्रीजीवदेव इत्याख्याविख्यातः सद्गुरुर्बभौ ॥४६॥ वाचकस्य रसज्ञां चास्तभ्यन् मौनवान् स च । अभूत्तदं (दि) गितैज्ञतं गुरुणा योगिकर्म तत् ॥ ५२ ॥ स्वशक्त्या वाचने शक स्वं विनेयं विधाय च । अमुंचसमये व्याख्यामव्याकुलमनाः प्रभुः ॥५३॥ पर्यस्तिका भूमावासन वज्रपत् । तस्थौ यथा तथा तस्य प्रस्तरेणेव निर्मितम् ॥ ५४ ॥ aalsarai कृत्वा करसंपुटयोजनम् । अलोकप्रणिपातेन महाशक्त े विमुंच माम् ॥ ५५ ॥ अपि श्रद्धाभिः कैश्चिद्विज्ञप्तः कृपया प्रभुः । मुक्तोऽगात्तन कः शक्तः कु'जरेणेक्षुभक्षणे ॥ ५६ ॥ प्रभुपेधयत्तत्र साधुसाध्वीकदम्बकम् । उदीच्यां दिशि गच्छन्तं स्वीकृतायां कुयोगिना ॥ ५७ ॥ धर्मकर्मनियोगेन साध्वीयुगमगात्ततः । तत्र कासारसेतौ च तिष्ठन् अब सन्मुखमागत्य लाघवाहाववाश्रयः । एकस्या मूर्ध्नि चूर्णच किंचिच्चिक्षेप तस्य सा पृष्ठतो गया पार्श्वे निविविशे त (त) तः । वृद्धयोक्ता न चायाति विक्कष्टं पूज्यलंघनम् ॥ ६० ॥ ततः कुशमयं तत्र पुत्रकं ते समार्पयत् । चतुर्णां श्रावकाणां च शिक्षित्वा तेप्यथो यथुः ||६२ || निर्गत्य च वहिचैत्याच्छिया तस्य कनिष्टकाम् । तत्पार्श्वगाः करं तस्य दहशुस्ते निरङ्गुलिम् ॥ ६३ ॥ तस्य योगी ददर्श च साधी न चेपा छेत्स्यामस्तव मस्तकम् । न जानासि परे स्वे वा शक्त्यंतरमचेतन् ॥ ६७ ॥ प्र०च० आचार्य जीवदेवरि ! तत् ॥ ५८ ॥ निष्कृपः ॥ ५९ ॥ ४४९ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के पुतले की कनिष्ठका अंगुली काटी तो योगी की अंगुली कट गई जब श्रावकों ने योगी के पास जाकर उसकी कटी हुई अंगुली का हाल पूछा तब उसने कहा कि यह तो अकस्मात् हुआ है । श्रावकों ने कहा कि अरे दुष्ट ! इस सती साध्वी को जल्दी छोड़ दे वरना तेरी कुशलता नहीं है । योगी ने न माना तब पुतले की दूसरी भंगुली काट डाली, तुरत ही योगी की दूसरी अंगुली कट गई। श्रावकों ने कहा कि अभी समय हे मान जा नहीं तो इस पुतले का मस्तक काट दिया जायगा । योगी ने डर कर कहा कि साध्वी के सिर पर पानी छिटको । बस, पानी छिड़कते ही साध्वी सावधान हो अपनी गुरुणी के पास आ गई और योगी वहां से भाग कर देशान्तर में चला गया। साध्वी को प्रायश्चित दे शुद्ध कर समुदाय में ले ली। इस प्रकार जीवदेवसूरि ने अनेक बादियों को अपने आत्मिक चमत्कार बतला कर जैनधर्म की प्रभावना की। राजा विक्रम उज्जैन में राज करवा था। उस समय पृथ्वी का ऋण चुकाने के लिए राजा ने अपने आदमियों को प्रत्येक ग्राम नगर में भेजा था उसमें एक लींबा नामक श्रेष्टि को वायट नगर में भेजा। लिंबा वायट में आया तो वहां श्रीमहावीर का मंदिर जीर्ण हुआ देखा । लिंबा ने उस मंदिर का जीर्णोद्धार करवा कर विक्रम संवत् के सातवें वर्ष में सुवर्ण कलश एवं ध्वज दंड सहित महावीर मंदिर की प्रतिष्ठा प्राचार्य जीवदेवसरि से करवाई । प्रन्थकार लिखते हैं कि वह मंदिर प्राज भी ( वि० सं० १६३. ) विद्यमान है। ___ महास्थान वायट नगर में अपार धन का धनी एक लल्ल नामक सेठ रहता था। उसने सूर्यप्रहण में एक लक्ष मुद्राऐं धर्मार्थ निकाली थी अतः ब्राह्मणों को आमंत्रण कर एक विशाल यज्ञ करना प्रारंभ किया। अग्नि का कुण्ड जल रहा था । ब्राह्मण वेद के पाठोच्चारण कर रहे थे। ऊपर एक वृक्ष पर महाकाया वाला कृष्ण सर्प था । धूम्र से चक्र खाकर नीचे गिरा तो ब्राहाणों ने कहा कि बलि के लिये स्वयं नागेन्द्र श्रा गया है । इस प्रकार कह कर उस सर्प को अग्निकुण्ड में डाल दिया जिसको तड़फड़ाता देख कर लल्ल सेठ ने कहा अरे यह कैसा दुष्कर्म कि जीते हुये पंचेन्द्रिय जीव को अग्नि में डाल दिया ! ब्राह्मणों ने कहा सेठ चिन्ता न करो मंत्रों द्वारा इसको स्वर्ग पहुँचा देंगे यदि तुमको करना है तो एक सोने का सर्प बना कर ब्राह्मणों को भेंट कर दो। लल्ल ने कहा कि एक तो सर्प मर गया है और इसके लिए सोने का सर्प बना कर मारू तो फिर उसके लिए और सर्प बनाना पड़ेगा ये तो महान् दुष्कर्म है। अत: सेठ ने यज्ञ स्तम्भ को उखेड़ दिया, कुण्ड को मिट्टी से पुरा दिया, ब्राह्मणों को विसर्जन क दिया और सच्चे धर्म की शोध में संलग्न हो गया। इतः श्री विक्रमादित्यः शास्यवती नराधिपः । अनृणां पृथिवीं कुर्वन् प्रवर्तयति वरसरम् ॥७॥ वापटे प्रेपितोऽमात्यो लिम्याग्यस्तेन भूजा । जनानुण्याय जीणं चापश्यच्छीवीरधाम तत् ॥७२॥ उधार स्ववंशेन नितेन सह मन्दिरम् । अर्हतस्तत्र सौवर्णकुम्भदण्डध्वजालिमृत् ॥७३॥ संवत्सरे प्रवृत्त स पटसु वर्षेषु पूर्वत्: । गतेषु सप्तमस्थानतः प्रतिष्टां ध्यजकुम्भयोः ॥७॥ श्री जीवदेवसूरिभ्यस्तेभ्यस्तत्र व्यावापयन् । अद्याप्यभङ्गं ततथिममूग्भिः प्रतिष्ठितम् ॥७५॥ इतश्चास्ति महास्थाने प्रधानो नैगमबजे। दारिद्यारिजये मला श्रेष्टी ललः कलानिधिः ॥७६॥ तत्र कुण्डोपकण्टेहिस्तदूर्वस्थाग्लिका दमात् । धूमाकुलाक्षि युग्मोसौ फटस्फटिति चापतत् ॥ ८ ॥ आदातुमेप भोगीन्द्रः स्वयमागत आतीः। वाचालेपु द्विजेप्देवं कोपि यही तमक्षिपत् ॥ ८१ ॥ जाज्वंयमानाद्वीक्ष्य यजमानः सुधीरचता । कृपया कापमानाङ्गः प्राह किं दुष्कृतं कृतम् ॥ ८२ ॥ जीवन् पंचेन्द्रियो जीया स्पुटं दृश्यः सवेतनः । सहसैव बलहह्नौ क्षिप्यते धर्म एप कः ॥ ८३ ॥ चह्निर्विध्यापितः कुण्डमदत पिता द्विजाः। सात रोयमाहाल्ये न कोऽन्यसरशं चरेत् ॥ ९॥प्र०च० Jain E84 International [ श्री वीर परम्परा Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ एक दिन लल्ल के घर पर दो जैनमुनि भिक्षा के लिये आयेईतो सेठ ने अपने अनुचरों को कहा कि इन मुनियों के लिये अच्छा भोजन बनाकर प्रतिलाम करो। मुनियों ने कहा सेठ हमारे लिये पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि की हिंसा कर भोजन बनाया जाय वह भोजन हमारे काम में नहीं आता है इत्यादि । सेठ ने सोचा अहो ये तो साक्षात् दया के अवतार ही दीखते हैं। अत: प्रार्थना की कि पूज्यवर ! मैं धर्म का स्वरूप समझना चाहता हूँ कृपया आप मुझे धर्म का स्वरूप समझाइये ? मुनियों ने कहा कि यदि आपको धर्म सुनना हो तो गुरु महाराज के पास आकर सुनो इत्यादि । लल्ल सेठ प्राचार्य जीवदेवसूरि के पास आया और शरिजी ने जैनधर्म का स्वरूप इस प्रकार सुनाया कि सेठने बड़ी खुशी के साथ जैनधर्म स्वीकार कर बारहनत धारण कर लिये। सेठ ने कहा कि हे प्रभो ! मैंने सूर्यग्रहण में एक लक्ष भुद्रिका दान में निकाली जिसमें आधा द्रव्य तो यज्ञ में व्यय कर डाला शेष पचास हजार रहा है वह आप भहन करे। सूरिजी ने कहा हम अकिंचत (निस्पृही) है द्रव्य को छूते भी नहीं सो लेने की तो बात ही कहां रही । अगर तुम्हारा ऐसा ही आग्रह हो तो कल शाम को तेरे पास कोई भेट आवे तो मुझे कहना मैं तुझे रास्ता बतला दूंगा । वस, सेठ अपने घर पर आया। दूसरे दिन शाम को एक सुथार अपूर्व पलंग लेकर आया जिसके पायों पर सुन्दर वृषच कोरे हुए थे। सेठ गुरु बचन याद कर उसको गुरु महाराज के उपाश्रय ले गया। सूरिजी ने उसके दो वृषभों पर वासक्षेप डालकर कहा कि जहाँ ये वृषभ ठहर जांय वहां जिनमन्दिर बना देना वृषभ ठीक 'पीपलातक' स्थान में ठहरे। सेठ ने वहां जिन मंदिर बनाना शुरू कर दिया। जब मन्दिर का काम चल रहा था वहां एक अबधूत आया और उसने कहा कि यहां शल्य यानि स्त्री की हड्डिये हैं अतः उसे निकालने के बाद मन्दिर बनाना अच्छा है। हड्डिये निकालने का विचार किया तो रात्रि में सूरिजी के पास एक देवी ने आकर कहा कि मैं कन्या कुब्ज राजा की राजकन्या थी । म्लेच्छों के भय एवं शील की रक्षा के लिये धुंवा में पड़ कर मरगई थी अतः मेरी हड्डिये उस स्थान पर हैं जहां रेठ मन्दिर बना रहा है । पर उन हड्डियों को मैं निकालने नहीं दूंगी। हाँ, मेरे पास द्रव्य बहुत हैं चाहिये उतना द्रव्य मैं आपको दूगी । सूरिजी ने उस देवी को मन्दिर में देवी के रूप में स्थापना करने की शर्त से संतुष्ट कर मन्दिर तैयार करवाया और श्रेष्टि लल्ल ने उस मन्दिर की खूब a ततः प्रभृत्यसौ धर्मदर्शनानि समीक्षते । भिक्षाये तद्गृहे प्राप्तं श्वेताम्बर मुनिद्वयम् ॥ ९२ ॥ असं संस्कृत्य चारित्रपात्राणां यच्छत ध्रुवम् । अमीषां ते ततः प्रोक्षुनास्माकं कल्पते हितत् ॥ १३ ॥ पृथिव्यापस्तथा वह्निायुः सर्यो वनस्पतिः । साश्च यत्र हन्यन्ते कार्ये नस्तत्र गृह्यते ॥ ९४ ॥ अथ चिन्तयाति श्रेष्ठी वितृष्णत्वादही अमी । निर्ममा निरहङ्काराः सदा शीतल चेतसः ॥ ९५॥ ततोऽवददसौ धर्म निवेदयत मे स्फुटम् । ऊचतुस्तौ प्रभुश्चैत्ये स्थितस्तं कथयिप्यति ॥ १६ ॥ इत्युक्त्वा गतयोः स्थानं स्वं तयोरपरेऽहनि । ययौ लल्लः प्रभोः पश्च चके धर्मानुयोजनम् ॥ ९७ ॥ श्रुत्धेति स प्रपेदेऽथ स सम्यक्तां व्रतावलीम् । धर्म चतुर्विधं ज्ञात्वा समाचरदहर्निशम् ॥१०॥ + आह चैष प्रभो किंचिदबधार यताधुना । द्रव्यलक्षस्य संकल्यो विहितः सूर्य पर्वणि ॥१०२॥ तदध व्ययितं धमाभासे वेदस्मृतीक्षिते। कथमद्ध मया शेष व्यपनीयं तदादिश ॥१०३॥ मम चेतसि पूज्यानां दत्तं बहुफलं भवेत् । तद्गृहीत प्रभो यूयं यथेच्छं दत्त वादरात् ।।१०४॥ अथाहगुरखो निष्किंचनानां नो धनादिके । स्पशॉपि नोचितो यस्माद्वक्तव्यं किन्नु संग्रह।१०५० प्र०च. आचार्य जीवदेवसूरि] ४५१ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० [सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास धामधूम से सूरिजी से प्रतिष्ठा करवाई। सूरिजी ने शर्त के अनुसार उस देवी को उस मन्दिर में भुवनदेवी के रूप में स्थापना करवा दी । जब से लल्ल सेठ ब्राह्मणधर्म को त्याग कर जैनधर्म में प्रविष्ट हुआ तब से ब्राह्मण जैनधर्म से द्वेष रखने लग गये थे एक समय कई नादान ब्राह्मणों ने द्वेष के कारण एक कृश एवं मरण शरण हुई गाय को घसीट कर महावीर चैत्य में लाकर गिरादी और बड़ी खुशी मनाई कि कल श्वेताम्बर जैनों की बड़ी भारी निन्दा और हँसी होगी । ठीक सुबह साधुओं ने देखा और गुरुजी से निवेदन किया । गुरूजी ने साधुत्रों को अंग रक्षक के तौर पर रख कर आप एकान्त में ध्यान किया । परकाया प्रवेश विद्या आपको पहिले से वरदायी थी । श्रतः गाय पैरों से चलकर मन्दिर के बाहर आई जिसको सब लोगों ने देखा और गाय तो चलती २ ब्रह्मभवन की ओर जाने लगी पुजारी मंदिर का द्वार खोलता ही था कि गाय ने अपने सींगों से पुजारी को गिरा कर ब्रह्मभवन के मूलगम्भार में जाकर पड़ गई जिसको देख सब ब्राह्मण भयभीत हो गए और विचार करने लगे कि यह क्या आफत आ गड़ी | कई एक ने कहा कि यह नादान ब्राह्मणों ने जैनचैत्य में गाय डाली थी उसका बदला है। कई एकों ने कहा कि अब क्या करना चाहिये ? कई एक ने कहा कि वीर चैत्य में श्वेताम्बरसूरि हैं उनकी शरण लो। कई एक ने कहा कि ब्राह्मणों ने उन पर कई उपद्रव किये हैं क्या अब वे तुम्हारी सुनेंगे ? कई एको ने कहा 'कि अगर तुम खुशामद करोगे तो वे दया के अवतार तुम्हारी श्रवश्य सुनेंगे इत्यादि । ब्राह्मण मिलकर सूरीश्वरजी के पास आये और खूब नम्रता एवं दीन स्वर से प्रार्थना की उस समय लल्ल सेठ भी वहाँ बैठा था उसने ब्राह्मणों को जो उपालम्भ देना था दिया और बाद में आपस में द्वेष न रख कर प्रेम भाव रखना इत्यादि ब्राह्मणों से कई शर्तें करवा कर गुरु महाराज से प्रार्थना की । अतः गुरु महाराज ने अपने ध्यान बल से उस गाय को ब्रह्म मंदिर से बाहर निकाली । वह ग्राम के बाहर जाकर भूमि पर गिर गई तत्र जाकर ब्राह्मणों ने बड़ी खुशी के साथ सूरिजी की जयध्वनि से गगन को गुंजा दिया और जैन तथा ब्राह्मणों के बीच जो भेदभाव था वह मिटकर भ्रातृभाव उत्पन्न हो गया । इतना ही क्यों पर वे ब्राह्मण जैनधर्म को श्रद्धापूर्वक मानने लगे । इत्यादि जीवदेवसूरि जैनशासन में महा प्रभाविक श्राचार्य हुए है। जब आपने अपना आयुष्य नजदीक समझा तो अपने पट्ट पर योग्य साधू को आचार्य बनाकर कहा कि मेरो मृत्यु के साथ ही मेरी खोपड़ी अथ लल्लं द्विजा दृष्ट्वा जिनधम्मैकसादरम् | स्वभावं स्वमजानाना दधुर्जेनेषु मत्सरम् ॥ १२८ ॥ अन्यदा बटचः पापपटवः कटवो गिरा । आलोच्य सुरभि कांचिदंचन्मृत्युदशास्थिताम् ॥ १३१ ॥ उत्पाद्योत्पाद्य चरणान्निशायां तां भृशं कृशाम् । श्रीमहावीरचैत्यांतस्तदा प्रावेशयन् हठात् ॥ १३२ ॥ गतप्राणां च तां मत्वा बहिः स्थित्वातिहर्पतः । ते प्राहुस्त्र विज्ञेयं जैनानां वैभवं महत् ॥ १३३ ॥ वीक्ष्यः प्रातर्विनोदोऽयं श्वेतांबर विषकः । इत्थं च कौतुकाविष्टास्तस्थुर्देवकुलादिके ॥ १३४ ॥ मुनीन् मुक्त्वां रक्षार्थ मठांतः पटुसन्निधौ । अमानुषप्रचारेऽत्र ध्यानं भेजुः स्वयं शुभम् ॥ १३७ ॥ अन्तर्मुहूर्तमात्रेण सा धेनुः स्वयमुत्थिता । चेतना केतना चित्रहेतुश्चेत्याद्वहिर्ययौ ॥ १३८ ॥ यावत्तरपूजकः प्रातरमुद्धात्यसौ । उत्सुका सुरभिर्ब्रह्मभवने तावदाविशत् ॥ १४२ ॥ प्र०च० ४५२ [ श्री वीर परम्परा Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ का चूर्ण चूर्ण कर डालना , कारण, मेरे से पराजित हुए जो योगी है उसके पास एक खोपड़ी तो है और दूसरी मेरी खोपड़ी मिल गई तो वह बड़ा-बड़ा अनर्थ कर डालेगा। अतः मेरी खोपड़ी उसके हाथ नहीं लगनी चाहिये। तुम यह भी विचार नहीं करना कि गुरु महाराज के मृत शरीर की पाशातना कैसे करें ? कारण इसमें जैनशासन का भावी नुकसान है अतः मेरा कहना ध्यान में रखना। आचार्य श्री अनशन और आराधना कर स्वर्गवासी हुये तो शिष्यों ने उनकी खोपड़ी का चूर्ण कर डाला। बाद श्रीसंघ ने महोत्सव पूर्वक सूरिजी के शरीर को सेविका में बैठा कर स्मशान की ओर ले जा रहे थे तो योगी ने पूछा कि आज किस मुनि का स्वर्गवास हुआ है ? किसी ब्राह्मण ने कहा जीवदेवसूरि का। इस पर योगी ने कृत्रिम शोक दर्शाते हुए गुरु महाराज के मुख देखने के लिये सेविका नीचे रखाई पर खोपड़ी का चरा चरा हुआ देख कर योगी ने निराश हो कर कहा कि राजा विक्रय की खोपड़ी मेरे पास है पर मैं अभागा हूँ कि जीवदेवसूरि की खोपड़ी मेरे हाथ नहीं लगी । बाद योगी ने अपने विद्याबल से मलियागिरि का सरस चन्दन ला कर गुरु महाराज के निर्जीव कलेवर का अग्नि-संस्कार किया। आचार्य जीवदेवसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुए और आपने अन्तिम आराधना कर वैमानिक देवताओं में जाकर देवता सम्बन्धी सुखों का अनुभव किया। आचार्य जीवदेवसूरि के साथ घटी हुई गाय की घटना को आधुनिक खरतरों ने अपने आचार्य जिनदत्तसूरि के साथ घटित कर जिनदत्तसूरि को चमत्कारिक बतलाने की व्यर्थी कल्पना की है । पर कहाँ खेटयन्तं बहिः शृङ्गन्युगेग्राम प्रपात्य च । गर्भागारे प्रविश्यासौ ब्रह्ममतेः पुरोऽपतत् ॥ १४३ ॥ अपरे प्राहुरेको न उपायो व्यसने गुरौ । मृगेंद्रविक्रम श्वेतांबरं चैत्यान्तरस्थितम् ॥ १५० ॥ सृरो श्रुत्वेति तूष्णी के लल्लः फुलयशा जगौ । मद्विज्ञप्ति द्विजा यूयमेकां शृणुत सूनृताम् ॥ १६१ ॥ विरक्तोऽहं भवद्धर्मादृष्ट्वा जीववदं सतः । अस्मिन् धम्मै दयामूले लग्नो ज्ञातात्स्वकान्ननु ॥ १६२ ॥ जैनेष्वसूयया यूयमुपद्रवपरंपराम् । विधत्त प्रतिमल्लः, कस्तत्र वः स्वल्पशत्रवः ॥ १६३ ॥ मर्यादामिह कांचिश्चेत् यूयं दर्शयत स्थिराम् । तदहं पूज्यपादेभ्यः किंचित्प्रतिविधापये ॥ १६४ ॥ अथ प्रोचुः प्रधानास्ते त्यं युक्त प्रोक्तवानसि । समः कः क्षमयामीषां द्रवारेऽस्मदुपद्रवे ॥ १६५ ॥ स्वरुध्या सांप्रतं जैनधर्मे सततमुत्सवान् । कुर्वतां धार्मिकाणां न कोपि विघ्ना करिष्यति ॥ १६६ ॥ अस्तु च प्रथमो बूढः श्रीवीरबतिनां तथा। सदान्तरं न कर्त्तव्यं भूमिदेवैरतः परम् ॥ १६७ ॥ प्रतिष्ठितो न वाचार्यः सौवणमुपवीतकम् । परिधाज्याभिषेक्तव्यो ब्राह्मणैर्बह्ममन्दिरे ॥ १६८ ॥ इत्यभ्युपगते तैश्च लल्लः समुरुपादयोः। निर्वेश्य मौलिमाचख्यौ महास्थानं समुद्धर ॥ १६९ ॥ श्री जीवदेव सूरिश्च प्राहोपसमवम्मितः । कालत्रयेपि नास्माकं रोपतोथौ जनद्विषौ ॥ १७० ॥ तस्थुर्मुहूर्त मात्रेण तावद्गौब्रह्मवेश्मतः । उत्थाय चरणमागं कुर्वती निर्जगाम सा ॥ १७३ ॥ आस्थानं पुनराजग्मुर्गुरवो गुरवो गुणैः । वेदोदिताभिराशीभिर्विप्रैश्चक्रे जयध्वनिः ॥ १७५ ॥ ततः प्रभृति सौदर्यसंबंधादिव वायट । स्थापितस्तैरिह स्नेहो जैनैरद्यापि वर्तते ॥ १७६ ॥ x ततः स्नेहं परित्यज्य निर्जीवेऽस्मत्कलेघरे । कपालं चूर्णयध्वं चेत्तत्र स्यान्निरूपद्रवम् ॥ १८२ ॥ इहार्थे मामकीनाज्ञापालनं ते कुलीनता । एतत्कार्य ध्रुवं कार्य जिनशासनरक्षणे ॥ १८३ ॥ इति शिक्षा प्रदायास्मै प्रत्याख्यानविधि व्युधुःविधायाराधनां वध्युः परमेष्ठिनमस्कृताः ॥ १८४ ॥ निरुध्य पवनं मूर्ना मुक्त्वा प्राणान् गुणाब्धयः । वैमानिकसुरावसं तेऽतिनियमशिश्रियन् ॥१८५॥ प्र० च० आचार्य जीवदेवमूरि] Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तो जीवदत्तसूरि का समय प्रबन्धानुसार विक्रम के समकालीन और कहाँ जिनदत्तसूरि का समय विक्रम की बारहवीं शताब्दी का । फिर समझ में नहीं आता है कि खरतरों ने यह जघन्य कार्य क्यों किया ? शायद कई व्यक्ति यह कल्पना कर लें कि जीवदेवसूरि के साथ जैसे गाय की घटना घटित हुई वैसे ही जिनदत्तसूरि के साथ घटित हुई होगी। तभी तो जिनदत्तसूरि के भक्तों ने उनके साथ भी गाय की घटना का उल्लेख किया है। जिनदत्तसरि के जीवन विषय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में गणधरसार्द्धशतक की वृहद्वृति में जिनपतिसूरि के शिष्य सुतिगरिण ने छोटी २ बातों तक का उल्लेख किया पर गाय वाली घटना की गन्ध तक उसमें नहीं है तथा और भी कई व्यक्तियों ने जिनदत्तसूरि के लिये बहुत कुछ लिखा है पर गाय की घटना का जिक्र मात्र भी नहीं किया इतना ही क्यों पर विक्रम की सोलहवीं शताब्दी तक तो किसी की भी मान्यता नहीं थी कि जिनदत्तसरि के साथ गाय वाली घटना घटित हुई फिर सतरहवीं शताब्दी में यह स्वप्न क्यों आया होगा ? वास्तव में आधुनिक खरतरों ने इधर उधर के प्रभाविक आचार्यों के साथ घटी हुई घटनाओं को जिनदत्तसूरि के साथ जोड़ जिनदत्तसूरि को चमत्कारी ठहाराने की कोशीश की है पर इस प्रकार मात्र कल्पनाए करने से चमत्कारी सिद्ध नहीं होते हैं । " इति जीवदेवसूरि का जीवन" प्राचार्य स्कान्दलसूरि और श्रागमकाचना आचार्य स्कन्दिलसरि-जैन संसार में माथुरी वाचना के नाम से स्कन्दिलाचार्य बहुत ही प्रसिद्ध हैं परन्तु स्कन्दिलाचार्य के समय के लिये बड़ी भारी गड़बड़ है। कारण, चार स्थानों पर भिन्न २ समय स्कन्दिलाचार्य का वर्णन आता है जैसे १-युगप्रधान पट्टावली में स्कन्दिलाचार्य को श्यामाचार्य के बाद युग प्रधान कहा है । श्यामाचार्य का स्वर्गवास वीर वि० सं० ३७६ के आस पास का बतलाया है तदन्तर स्कन्दिलाचार्य युग प्रधान हुये और वे ३८ वर्ष युग प्रधान पद पर रहे तो वीरात् ४१४ वे वर्ष आपका स्वर्गवास हुभा। २-प्रभाविक चरित्र वृद्धवादी प्रबन्ध में वृद्धवादी को दीक्षा देने वाले स्कन्दिलाचार्य थे जैसे कि"पारिजातोऽपारिजातो, जैनशासननन्दने । सर्वश्रतानुयोगाहे कन्दुकन्दलनाम्बुदः॥ विद्याधरवराम्नाये, चिन्तामणिरिवेष्टदः । आसोच्छी स्कन्दिलाचार्यः, पादलिप्तप्रभोः कुले । इन स्कन्दिलाचार्य को अनुयोगधार कहा है परन्तु आपका सत्ता समय नहीं बतलाया है तथापि अनुमान किया जा सकता है कि आप विक्रम संवत के पूर्व हुये होंगे । कारण, स्कन्दिलाचार्य ने वृद्धवादी को दीक्षा दी और वृद्धवादी के शिष्य सिद्धसैनदिवाकर हुये जो विक्रम के समसामयिक थे अतः इस लेख से स्कन्दिलाचार्य का समय विक्रम संवत् पूर्व का ही मानना चाहिये । [ श्री वीर परम्परा ४५४ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] ३ - हेमवंत पट्टावली में लिखा है कि "मधुरानिवासी ओसवंशशिरोमणि श्रावकपोलाक ने गन्धहस्ती विवरणसहित उन सर्वसूत्रों को तड़पत्रादि पर लिखाकर पठनपाठन के लिये निर्मन्थों को अर्पण किया । इस प्रकार जैनशासन की उन्नति करके स्थविर आर्यस्कन्दिल विक्रम संवत् २०२ मथुरा में ही अनशन करके स्वर्गवासी हुये " [ ओसवाल संवत् ४५२ ४ --पन्यासजी श्री कल्याण विजयजी महाराज स्वरचित वीर निर्वाण संवत् और जैनकाल गणना नामक प्रन्थ के पृष्ट १८० पर लिखते हैं कि श्रार्य स्कन्दिल के नायकत्व में माथुरी वाचना वीर वि० सं० ८२७ से ८४ ० के बीच में हुई । उपरोक्त चार स्कन्दिलाचार्यों के अन्दर पहिले नम्बर के स्कन्दिलाचार्य युगप्रधान पट्टावली के हैं । आपका समय संवत् वी० नि० संवत ३०६ से ४१४ का है अतः न तो बृद्धबादी की दीक्षा आपके हाथों से हुई और न माथुरी वाचना का सम्बन्ध आपके साथ है 1 अब रहे शेष तीन स्कन्दिलाचार्य - इन तीनों के साथ माथुरी वाचना का सम्बन्ध होने पर भी समय पृथक २ बतलाया है। जिसमें पन्यासजी श्री कल्याणविजयजी महाराज ने स्कन्दिलाचार्य द्वारा माथुरी वाचना का समय वी० नि० सं० ८२७ से ८४० का स्थिर किया है और इस विषय की पुष्टि करने में आपने युक्ति एवं प्रमाण भी महत्त्व के दिये हैं। अब हम पन्यासजी के कथनानुसार आर्य स्कन्दिल का समय विक्रम की चौथी शताब्दी का मान लें तो वृद्धवादी की दीक्षा स्कन्दिलाचार्य के हाथों से नहीं हुई हो या वृद्धवादी को दीक्षा देने वाले स्कन्दिलाचार्य माधुरी बाचना के स्कन्दिलाचार्य से पृथक हों। अगर स्कन्दिलाचार्य और वद्धवादी इन दोनों आचार्यों को विक्रम की चौथी शताब्दी के आचार्य मानलें तो वृद्धवादी के हरत दीक्षित शिष्य सिद्धसैन दिवाकर का समय नहीं मिलता है। कारण सिद्धसेनदिवाकर को संवत्सर प्रवर्तक विक्रम के समकालीन बतलाया है। सिद्धसेनदिवाकर ने विक्रम को जैन बनाया तथा श्रावंती पार्श्वनाथ को प्रगट किया आदि अनेक घटनायें विक्रम के साथ घटी यह सबकी सब कल्पित ठहरेंगी । जिस विक्रम के साथ सिद्धसेनदिवाकर का सम्बन्ध बतलाया गया है उस विक्रम को संवत्सर प्रवर्तक विक्रम नहीं पर विक्रम की चौथी शताब्दी का एक दूसरा ही विक्रम मानलें तब जाकर इन सबका समाधान हो सके पर ऐसा करने से हमारे पूर्वाचार्यों के बनाये चरित्र प्रबन्ध और पट्टावलिये सबके सब कल्पित हो जायेंगे । कारण, आय स्कन्दिल, वृद्धवादी, सिद्धसैन दिवाकर और राजा विक्रम को वीर निर्वाण के बाद पांचवीं शताब्दी के माने हैं वे सब नौवीं शताब्दी के मानने पड़ेंगे । अतः इनके समाधान के लिये विशेष शोध खोज की आवश्यकता है । ३- तीसरे स्कन्दिलाचार्य का वर्णन हेमवन्त पट्टावली में आया है। आपके समय के लिये लिखा है कि वि० सं० २०२ में स्कन्दिलाचार्य का स्वर्गवास मथुरा में हुआ अतः आप विक्रम की दूसरी शताब्दी के आचार्य थे । विशेषता में पट्टावलीकार लिखते हैं कि मथुरा में ओसवंशीय पोलाक श्रावक ने गन्धहस्ती विवरण सहित आगम लिखा कर जैन श्रमणों को पठन पाठन के लिये अर्पण किये। इससे यह भी पाया जाता है कि उस समय पूर्व श्रमणों को आगम वाचना मिल गई थी इतना ही क्यों पर उस समय दिल ] Jain Edu ४५५ www.janelibrary.org Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० [सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आगम ठीक व्यवस्थित रूप में हो गये थे कि जिसको लिखा कर श्रावक लोग साधुओं को पठन पाठन के लिये भेंट करते थे । पट्टावल्यादि प्रन्थों से यह स्पष्ट सिद्ध हो चुका है कि आर्य वज्रसूरि के समय बारह वर्षीय महा भयंकर दुष्काल पड़ा था और उस दुष्काल में बहुत से जैनश्रमण अनशन कर स्वर्ग पहुँच गये थे शेष रहे साधुओं को आहार पानी के लिये बड़ी मुसीबतें उठानी पड़ती थीं। इधर उधर भटकना पड़ता था । अतः आगमों का पठन पाठन बन्द सा हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थीं । आर्यवज्र का स्वर्गवास वि० सं० ११४ में हो गया था थोड़े ही समय में एक दुकाल और पड़ गया । उसकी भयंकरता ने तो जैसे जनसंहार किया वैसे श्रमण संहार भी कर दिया। दुकाल के अन्त में आचार्य यक्ष देवसूरि ने बचे हुए साधु साध्वियों को एकत्र किये तो केवल ५०० साधु और ७०० साध्वियां ही उस दुकाल से बच पाये थे । यक्षदेवसूरि ने उन साधु साध्वियों की फिर से व्यवस्था की । उस समय आर्य वज्रसैन ने चन्द्र नागेन्द्रादि को दीक्षा देकर उनको पढ़ाने के लिये श्राचार्य यक्षदेवसूरि के पास आये । चारों शिष्यों का ज्ञानाभ्यास चल ही रहा था कि बीच में ही वज्रसेनसूरि का स्वर्गवास होगया उनके शिष्यों की व्यवस्था का कार्य भी यक्ष देवसूरि के सिर पर आ पड़ा इत्यादि । इस कथन से पाया जाता है कि उस समय जैन श्रमण संघ को आगम वाचना की अत्यधिक जरूरत थी और उस समय बाचना भी अवश्य हुई थी यदि उस समय वाचना नहीं हुई होती तो उस समय से करीब २०० वर्ष बाद स्कन्दिलाचार्य का समय आता है वहां तक जैन श्रमणों को न तो ज्ञान रहता न दुकाल में ज्ञान भूलता और न स्कन्दिलाचार्य के समय वाचना की ही जरूरत रहती । कई स्थानों पर स्कन्दिलसूरि के समय भी बारहवर्षीय दुष्काल पड़ना लिखा है । यदि आर्य स्कन्दल व के समसामयिक होने के कारण ही स्कन्दिलाचार्य के समय बारह वर्षीय दुर्भिक्ष का उल्लेख किया हो तब तो कुछ मत भेद नहीं है पर जब वज्रसैनसूरि के बाद दौसौ वर्ष में स्कन्दिलाये हुये माने जाय तब तो स्कन्दिलाचार्य के समय का दुकाल वज्रसेनाचार्य के समय के दुकाल से पृथक मानना होगा और दुकाल में २०० वर्ष का अन्तर है तो आगम वाचना भी पृथक माननी पड़ेगी तथा वाचना पृथक हुई तो उन वाचनाओं के देने वाले आचार्य भिन्न २ मानन स्वभाविक है। स्कन्दिलाचार्य के समय का दुकाल के अन्त में स्कन्दिलाचार्य ने वाचना दी वैसे ही वज्रसेनाचार्य के समय का दुकाल के अन्त में श्राचार्य यदेवसूरि ने वाचना दी थी कारण, उस समय एक यक्षदेवसूरि ही अनुयोगधर थे और यह बात प्राचीन प्रत्थों से साबित भी ठहरती है। कारण, उस समय के दुकाल के अन्त में बचे हुये ५०० साधु ७०० साध्वियों की व्यवस्था आप श्री ने ही की थी। जब व्यवस्था की तो वाचना भी अवश्य दी होगी। साथ में यक्षदेवसूरी ने बज्रसेनाचार्य के शिष्य चन्द्रनागेन्द्रादि को वाचना देने का भी उल्लेख मिलता है अतः वज्रसेनाचार्य के समय वाचना अवश्य हुई थी और उस वाचना के नायक आचार्य यक्ष देवसूरि ही थे । जब स्वल्प समय में दो दर्फे भयंकर दुकाल पड़ा उसमें साधुओं का पठन पाठन बन्द एवं ज्ञान विस्मृत होजाना स्वभाविक बात है । इस हालत में उन साधुओं को २०० वर्ष तक वाचना नहीं मिलना यह बिल्कुल असम्भव सा प्रतीत होता है । ४- चौथा स्कन्दिलाचार्य --- प्रभाविक चरित्र वृद्धवादी प्रवन्ध से स्कन्दिलाचार्य को विद्याधर कुल [ श्री वीर परम्पराary.org ४५६ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ४५२ (शाखा ) के पादलिप्तसूरि के परम्परा का प्राचार्य कहा जा सकता हैं । नंदी सूत्र की टीका में प्राचार्य मलयागिरि ने स्कन्दिलाचार्य को सिंहवाचक सूरि के शिष्य कहा है जैसे "ताम् स्कन्दिलाचार्यान् सिंहवाचक सूरि शिष्यान्" पर आगे चल कर उसी टीका में सिंहवाचक को ब्रह्मद्वीपिका शाखा के आचार्य लिखा है । तब स्कन्दिलाचार्य थे विद्याधर शाखा के आचार्य । शायद् युगप्रधान पट्टावली में सिंहवाचक के बाद नागार्जुन का नाम आता है और स्कन्दिलाचार्य नागार्जुन के समकालीन होने से टीका कारने स्कन्दिलाचार्य को सिंहवाचक के शिष्य लिखा दिया होगा । पर वास्तव में स्कन्दिलाचार्य विद्याधर शाखा के आचार्य हैं स्कन्दिलाचार्य के समय के लिये पट्टावलियों में लिखा है कि वि० सं० ११४ में आर्यवज्र का स्वर्गवास बाद १३ वर्ष आयंरक्षित २० पुष्पमित्र ३ वज्रसेन ६९ आर्य नागहस्ती ५९ रेवतीमित्र ७८ ब्रह्मद्वीप सिंह एवं कुल ३५६ वर्ष व्यतीत होने पर आर्य स्कन्दिल युगप्रधान पद पर आरूढ़ हुये और १४ वर्ष तक युगप्रधान पद पर रहे। इस समय के बीच माथुरी वाचना हुई। ऐसी पन्यासजी की मान्यता है पर ब्रह्मद्वीपसिंह के बाद तो नागार्जुन का नाम आता है और वे ७८ वर्ष युगप्रधान पद परहै पर स्कन्दिलाचार्य का नाम युगप्रधान पट्टावली में नहीं हैं शायद नागार्जुन के समकालीन कोई स्कन्दिलाचार्य हुए होंगे ? माथुरी वाचना के साथ ही साथ वल्लभी नगरी में वल्लभी वाचना भी हुई थी माथुरी वाचना के नायक स्कन्दिलाचाय थे तब वल्लभी वाचना के नायक थे नागार्जुनाचार्य । यह दोनों प्राचार्य समकालीन थे और इनके समय वड़ा भारी दुकाल भी पड़ा था जैसे आर्यभद्रवाहु और आर्यवत्रसेन के समय में दुर्भिक्ष पड़ा था और जैसे उन दोनों दुर्भिक्षों के अन्त में आगम वाचना हुई थी उसी प्रकार इस समय भी आगम वाचना हुई। श्राचार्य भद्रेश्वरसूरि ने अपने कथावली प्रन्थ में लिखा है : "अस्थि महूराउरीए सुयसमिद्धो खंदिलो नाम सूरि, तहा बलहिनयरीए नामज्जुणो नाम सूरि । तेहि य जाए वरिसिए दुक्काले निव्वउ भावंओवि फुल्ठिं (१) काऊण पेसिया दिसोदिसिं सावो गमिउ च कहवि दुत्थं ते पुणो मिलिया सुगाले, जाव सज्झायंति ताव खंड्डु खुरुडीहूयं पुव्वाहियं । तओ मा सुयवोच्छिती होइ (उ) ति पारद्धो सूरीहिं सिद्धंतुधारो। तत्थवि जं न वीसरियं तं तहेव संठवियं । पम्हुट्ठट्ठाणे उण पुव्यावरावांतसुत्तत्थाणुसारओ कया संघउणा ।" आचार्य हेमचन्द्रसूरि अपने योगशास्त्र की टीका में लिखते हैं : "जिन वचनं च दुष्पमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्यप्रमृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् ।" श्राचार्य मलयागिरिजी अपने ज्योतिषकरण्डक टीका में लिखते है : "इह हि स्कन्दिलाचार्यप्रवृतौ दुष्पमानुभावतो दुर्भिक्ष प्रवृत्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत् । ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत् तद्यथा-एको बलभ्यांभेको मथुरायाम् । तत्र च सूत्रार्थसंघटने पारस्परवाचनाभेदो जातः विस्मृतयोहि क्षार्थयोः स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः । आचार्य स्कन्दिलसरि ] ४५७ Jain Education internatio www.ainelibrary.org Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ___ तात्पर्य यह है कि महाभयंकर दुकाल के समय साधुओं के पठन पाठन बंधसा हो गया था जब दुर्भिक्ष के अन्त में सुकाल हुआ तो आचार्य स्कन्दिलसूरि के अध्यक्षत्र में मथुरा नगरी और आर्य नागार्जुनसूरि की नायकता में वल्लभी नगरी में श्रमण संघ को आगमों की वाचना दी गई तथा सूत्रों कों पुस्तकों पर लिखा गया । अतः आचार्य स्कन्दिल एवं नागार्जुन के समय दोनों स्थानों में आगम वाचना हुई । इसम किसी प्रकार का संदेह नहीं है। इतिहास ज्ञान की पूरी शोध खोज नहीं करने के कारण हमारे अन्दर यह भ्रान्ति फैली हुई है कि वल्लभी नगरी में श्री देवद्ध गणीक्षमाश्रमण के अध्यक्षत्व में आगम बाचना हुई थी और कई २ तो देवऋद्धि. गणिक्षमाश्रमणजी को आर्य स्कन्दिल के समसामयिक भी मानते हैं और प्रमाण के लिए उपाध्यायजी विनय विजयजी के लोक प्रकाश के श्लोक बताते हैं । "दुर्भिक्षे स्कन्दिलाचार्यदेवर्द्धिगणिवार के । गणनाभावतः साधु साध्वीना विस्मृतं श्रुतम। ततः सुभिक्षे संजाते संघस्य मेलगोऽभवत् । वलभ्यां मथुरायां च सूत्रार्थ घटनाकृते ।। वलभ्यां संगते संघे देवर्सिगणिरग्रणीः । मथुरायां संगते च स्कंदिलार्योऽग्रणीरभूत् ।। ततश्च वाचनाभेदस्तत्र जातः कचित् क्वचित् । विस्मृतस्मरणो भेदो जातु स्यादुभयोरपि । तत्तैस्ततोऽर्वाचीननैश्च गीताथैः पापभीरुभिः । मतद्वयं तुल्यतया कक्षीकृतमनिणयात् ॥ -लोकप्रकाश उपाध्यायजी महाराज ने उपरोक्त बात जनश्रुति सुन कर या अनुमान से लिखी है । कारण, हम ऊपर लिख पाए हैं कि मथुरा में स्कन्दिचार्य और वल्लभी में नागार्जुनाचार्य के नायकत्व में आगम बांचना हुई थी तब इन दोनों प्राचार्य के बाद कई १५० वर्ष के देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण हुए हैं वे स्कन्दिलाचार्य के समसामयिक कैसे हो सकते हैं ? देवद्धिगणिक्षमाश्रमणजी के समय भी वल्लभी में जैन संघ एकत्र हुए थे पर उस समय आगम वाचना नहीं हुई थी पर दोनों वाचनाओं में पठान्तर वाचान्तर रह गया था उनको ठीक कर आगम पुस्तकों पर लिखे गये थे। जैसे कहा है कि"वलहि पुरम्मि नयरे देवहिपमुह समण संघेण पुत्थइ अगमु सिहिओ, नवसय असी आओ वीराओ" क्षमाश्रमणजी ने आगमों को पुस्तकों पर लिखने में मुख्य स्थान माथुरी वाचना को ही दिया था और वल्लभी वाचना जो माथुरी वाचना के सदृश्य थी उसे तो माथुरी वाचना के अन्तरगत कर दिया और जो पाठ माथुरी वाचना से नहीं मिलता उसे नागार्जुन के नाम से पाठान्तर रूप में रख दिया जैसे "नागार्जुनीयास्तु पठंति-एवं खलु." । आचारांग टीका । "नागार्जुनीयास्तु पठंति-समरण भविस्सामो. " आचारांग टीका । "नागार्जुनीयास्तु पठंति-जे खलु०" । आचारांग टीका । "नागार्जुनीयास्तु पठति-पुठ्ठो वा०" । आचारांग टीका । "अत्रांतरे नागार्जुनीयास्तु पठंति-सौ उण तयं उवठ्ठियं०' । सूत्रकृतांग टीका । "नागार्जुनीयास्तु पठंति--पलिमंथमहं वियाणिया०" । सूत्रकृतांग टीका। "तो विवरणकारेहिं पि नागजुणीया उण एवं पढतित्ति समुल्लिगिया तहेवायाराइसु"। कथावली [ श्री वीर परम्परा Jain Education international Educ४५८ ww.jainelibrary.org Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ४५२ अतः क्षमाश्रमण जी का इष्ट माथुरी वाचना पर ही विशेष था। यही कारण है कि क्षमाश्रमणजी ने संदीसूत्र की स्थविरावली की गाथा में कहा है कि --- "जेसि इमो अणुओगो, पयरइ अज्जावि अढ्ढभरहम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे, ते वंदे स्वंदिलायरिए । क्षमाश्रमणजी किस वंश शाखा के थे इसके लिये देवद्धिंगणिक्षमाश्रमणजी के जीवन प्रसंग में लिखेंगे । उपरोक्त वाचना के अन्दर हमारे एक संदिग्ध प्रश्न का समाधान सहज ही में हो आता है । जो इमारी मान्यता थी कि सब से पहिले देवद्धिगणिक्षमाश्रमणजी ने ही आगमों को पुस्तकों में लिखवाये ये वास्तव में यह बात ऐसी नहीं है किन्तु क्षमाश्रमणजी के पूर्व भी आगम पुस्तकों पर लिखे गये थे । इसके लए कई प्रमाण भी मिलते हैं। १-पाटलीपुत्र की वाचना के समय आगमों को पुस्तक पर लिखे गये थे या नहीं इसके लिये तो कोई प्रमाण नहीं मिलता है। २-महामेघवाहन चक्रवर्ति खारवेल के हस्तीगुफावाले शिलालेख से पाया जाता है कि उस समय अंगसप्तति का कुछ भाग नष्ट हो गया था जिसको खारवेल ने पुनः लिखाया। ३-आचार्य सिद्धसैनदिवाकरजी चित्तौड़ गये थे और वहाँ के स्तम्भ में आपने हजारों पुस्तकें देखी जिसमें से एक पुस्तक ले कर आपने पढ़ी भी थी । अतः पहिले ज्ञान पुस्तकों पर लिखा हुआ अवश्य था। ४-माथुरी वाचना एवं वल्लभी वाचना के समय पुस्तकों पर आगम लिखने का उल्लेख मिलता है। जिसको हम ऊपर लिख आये हैं । ५-- अनुयोग द्वार सूत्र में पुस्तकों को द्रव्य श्रुत (ज्ञान) कहा जैसे “से किं तं जाणयसरीरभधिअसरीखइरित्तं दव्यसु ? पत्तयपोत्थय लिहिअं" ६-निशंथसूत्र के बारहवाँ उदेशा की चूर्णी में भी लिखा है कि -- "सेहउग्गहणधारणादिपरिहाणि जाणिऊण कालियसुयट्टा, कालियसुपणिज्जुत्तिमिमित्त वा पोत्थगपणगं घेप्पति"। ७-योगशास्त्र की टीका में आचार्य हेमचन्द्रसूरि लिखते हैं कि --- "जिनवचनं च दुष्पमाकालवशादुच्छिन्नभायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुन स्कन्दिलाचार्य प्रमृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम्"। इन प्रमाणों से स्पष्ट पाया जाता है कि देवद्धिंगणिक्षमाश्रमण के पूर्व भी जैनाआगम पुस्तकों पर लिखे हुये थे। इतना ही क्यों पर क्षमाश्रमणजी के पूर्व कई ज्ञान प्रेमी श्रापकों ने आगमों को लिखा कर वे पुस्तकों जैन साधुओं को पठन पाठन के लिये अर्पण करते थे बाद में क्षमाश्रमणजी ने भी वल्लभी नगरी में आगमों के पुस्तकों पर लिखाया और वे विस्तृत रूप में होने से जैन समाज में विशेष प्रसिद्ध है। आचार्य स्कन्दिल सरि] Jain Education Internatio २५९ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] जैनागमों की वाचना जैनधर्म में यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि गुरु महाराज अपने शिष्यों को जैनागमों की वाचना देते हैं और शिष्य भी गुरु महाराज का विनय व्यवहार कर वाचना लेता है और उसको ही सम्यक्ज्ञान कहा जाता है । यदि कोई शिष्य गुरु महाराज के वाचना दिये विना ही आगम पढ़ लेते हैं तो उसको चतुर्मासिक प्रायश्चित बतलाया है X। कारण, जैनागम अर्द्ध मागधी एवं प्राकृत भाषा में है और उसमें भी कई सूत्र एवं शब्द तो ऐसे हैं कि जिनका यथार्थ अर्थ गुरुगम से ही जान सकते हैं। जिन लोगों ने जैनधर्म से पृथक् होकर नये नये मत पन्थ निकाले हैं इसका मुख्य कारण यही है कि उन्होंने जैनागम गुरु गम्यता से नहीं बाचे किंतु अपनी बुद्धि से शास्त्रों के वास्तविक अर्थ को न जानकर मनः कल्पना से अर्थ का अनर्य कर डाला है और बाद अभिनिवेश के कारण पकड़ी बात को नहीं छोड़ने से नये नये मत निकाल दिये हैं आज भी हम देखते हैं कि एक ही मान्यता वाले एक ही शब्द के पृथक् २ अर्थ कर आपस में लड़ते गड़ते हैं और आगे चलकर वे ही नये २ पंथ और मत स्थापन कर डालते हैं । अतः जैनधर्म की यह पक्की मर्याद है कि गुरु महाराज के दी हुई वाचना से ही शिष्य आगम बांचे । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास में प्रत्येक तीर्थङ्कर अपने शासन समय गणधर स्थापन करते हैं इसका मतलब भी यही है कि वे गएधर अपने शिष्यों को आगमों की वाचना दें और यही मतलव गणिपद का है । उपाध्याय पद की तो और भी विशेषता है कि वह चतुर्विध श्रीसंघ को सूत्र अर्थ की वाचना दे । साधुयों की सात मंडली में भी वाचना का विधान है जैसे सूत्र वाचना अर्थ वाचना अर्थात् साधु शामिल होकर एक मंडली में बैठकर गुरु महाराज से सूत्र काल सूत्र वांचना और अर्थ काल में अर्थ वाचना ले। ऐसी वाचनायें तो प्रत्येक गच्छ में प्रत्येक दिन होती ही रहती हैं । पर जब काल दुकाल में प्रचलित वाचना बन्द हो जाती है तब एक विशेष वाचना की आवश्यकता रहती है यहाँ पर उस विशेष वाचना का ही प्रसंग है । और ऐसी वाचनाए निम्नलिखित हुई हैं। १--- आचार्य भद्रवाहु के समय पाटलीपुत्र नगर में पहिली वाचना हुई । उस समय गणधर रचित द्वादशांग में एकादशांग ठीक व्यवस्थित किये और बारहवां अंग के लिए आर्य स्थूलभद्र को दशपूर्व सार्थ और चार पूर्व मूल का अभ्यास करवाया। इस वाचना में गणधर रचित अंग सूत्र ज्यों के त्यों तों नहीं रहे थे । कारण, बारहवर्षीय दुकाल के कारण मुनिजन यथावत् श्रागमों को याद नहीं रख सके परन्तु जितना ज्ञान जिस जिस साधुओं को याद रहा उसको ही संकलना कर पुनः एकादशांग व्यवस्था किया इसके लिये देखो तिरयोगलिपइन्ना का पाठ ते दाईं एकमेकं मयमयसेसा चिरंस दटुणम् । परलोगगमणपच्चागय व्व मण्णंति अप्पाणम् ॥२०॥ ते विर्ति एकमेकं, सज्झाओ कहस कित्तिओ धरति । दि हु उकालेणं अहं नट्ठो हु सज्ज्ञातो ॥ २१ ॥ जं जस्स धरह कंठे, तं परियडिकण सव्वेसिम् । तो रोहिं पिंडिताई, तहियं कक्कारसंगाइम् ||२२|| जे भिक्खू आयरिय- उज्याएहिं अविदिन गिरं आइयइ x X आवज्जइ चाउम्मासिगं परिहार-ठाणं उग्धाइयं । निशीथ सूत्र उद्देशा १६ वां ४६० [ श्री वीर परम्परा Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ४५२ इनके अलावा कालकाचार्य अपने प्रशिष्य सागरचन्द्रसूरि से कहता है कि 'षट्स्थान आगम की हानी होती आई है। अतः गणधर रचित पागम भद्रबाहु के समय ज्यों के त्यों नहीं रहे थे तो दुकाल के अन्त में तो रहते ही कहां से ? फिर भी उस समय एकादशांग एवं पूर्वो के अलावा उपांगादि सूत्रों की रचना नहीं हुई थी। हाँ, आर्य शत्र्यंभवसूरि ने अपने शिष्य (पुत्र माणक के लिए पूर्षों से उद्धार कर दशवैकालिकसूत्र की रचना की थी। तदनन्तर आर्य भद्रबाहु ने तीन छेदसूत्र तथा नियुक्तियों की रचना की और बाद में स्थविरों ने उपांगादि कालिक उत्कालिक सूत्रों की रचना की थी। २--कार्य्यरक्षितसूरि के समय तक, जैनागमों के एक ही सूत्र एवं शब्द से चारों अनुयोग की व्याख्या होती थी पर आर्यरक्षित सूरिने भविष्य में मंद बुद्धिवालों की सुविधा के लिए, चारों अनुयोग पृथक् २ कर दिये। उस समय भी मूल आगमों को न जाने कितनी हानि पहुँची होगी। और कितने संक्षिप्त करने पड़े होगे ? ___ आर्य्यरक्षितसूरि ने चारों अनुयोग पृथक् २ कर दिये तो क्या ८४ आगमों की संकलना आपके ही समय में हो गई थी या बाद में हुई इसके जानने के लिए कोई भी साधन इस समय मेरे पास नहीं है । पर संभव होता है कि यह कार्य आर्यरक्षित के समय ही हुआ था। ३--आर्य्यबजू और आर्य्यबजसैन इन दोनों प्राचार्यों के समय भी दो भयंकर दुकाल पड़े और उस समय भी साधुगण का पठन-पाठन बन्द-सा होगया अतः दुकाल के अन्त में आगम वाचना की परमावश्यकता थी। उस समय श्रायंबन दशपूर्वधर थे परन्तु आर्य्यबज्र और बज्रसैन का स्वर्गवास हो गया था। आचार्य यक्षदेवसूरि दशपूर्वधर आर्य थे। वज्र और ब्रसैन के साधु साधियों को एकत्र कर उनकी व्यवस्था आपने ही की थी अतः उस समय आगम वाचना आपने ही दी थी। इस वाचना का स्थान शायद सोपारपट्टन ही होगा। कारण, पट्टावली में उल्लेख मिलता है कि चन्द्र नागेन्द्रादि मुनियों को यक्षदेवसूरि ने सोपारपट्टन में आगमों को वाचना दी थी। अतः आर्यबज्र और बज्रसैन के समय के दुकाल के बाद की आगम वाचना आचार्य यक्षदेवसूरि के नायकत्व में सौपारपट्टन में ही हुई होगी। ४ार्य स्कन्दिल के समय के दुकाल के अन्त में श्रागम वाचना दो स्थानों में हुई। यह प्रसिद्ध ही है कि मथुरा में प्रार्य स्कन्दिल और वल्लभी में आर्य नागार्जुन के नायकत्व में वाचना हुई । साथ में यह भी निश्चय है कि आर्य स्कन्दिल की वाचना में जितने आगम एवं सूत्रों की वाचना हुई उतने ही आगमों को उस समय तथा बाद में देवद्धिगणि क्षमाश्रमणजी ने वल्लभी नगरी में लिखे थे। उन सब की संख्या ८४ आगयों के नाम से जैन शासन में खूब प्रसिद्ध है। गणधर रचित आगम बहुत विस्तार वाले थे। कहा जाता है कि एक आचारांग सूत्र के १८००० पद थे और एक पद के श्लोकों का हिसाब इस प्रकार बतलाया है कि एक पद के अक्षर १८३४८३०७८८९ होते हैं इनको ३२ अक्षरों का एक श्लोक के हिसाब से बनावे जाय तो ५१८८४६२१॥ श्लोक होते हैं + + एगवन्न कोड़ी लक्खा, अढे व सहस्स चुलासीय, सय छक्कं नायन्वं, सड्डा एगवीस समयम्मि । रत्नसंचय प्रकरण गाथा ३०६ जैन आगम वाचना ] Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यह तो हुआ एक पद, जव श्राचारोग सूत्र के १८००० पद के श्लोक गिने जाय तो ५१९५९२३१८७००० श्लोक तो एक आचारांगसूत्र के होते हैं तब आगे के अंगसूत्र द्विगुणित बतलाये हैं परन्तु उनसे कम होतेहोते श्राज आचारांग सूत्र के कुल २५२५ श्लोक रहे हैं। जिसको हम मूलपद और पदों के श्लोक तथा वर्तमान में रहे हुए श्लोकों के साथ कोष्टक में दे देते हैं नं० आगम नामावली पदसंख्या पद के श्लोकों की संख्या वर्तमान श्लोक १८००० २५२५ २१०० १५७५२ १ श्री आचारांग , सूत्रकृतांग , स्थानायांग ., समवायांग विवाह प्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मका यांग उपासक दशांग अंतगढ़दशांग अनुत्तरोबाई ,, प्रश्नव्याकरण ,, विपाकसूत्र १४४००० २८८००० ५७६५०० ११५२००० २३०४.०० ४६०८००० ९२१६००० १८४३२००० ९१९५९२३१८७००० १८३९१८४६३७४००० ३६७८३६९२७४८००० ७३५६७३८५४९६००० १४७१३४७७०९९२००० २९४२६९५४१९८४००० ५८८५३९०८३९६८००० 91७७०७८१६७९३६००० २३५४१५६३३५८७२००० ४७.८३१२६७१७४४००० ९.१६६२५३४३४८०००९ १९२ १२५६ १२१७ उपरोक्त कोष्टक से पाठक जान सकते हैं कि मूल द्वादशांग कितने विस्तार वाले थे और वाचना के समय कितने रह गये फिर भी विशेषता यह है कि सूत्रों के अध्ययन उद्देश था उतना ही रहा है। जैसे आचारांग सूत्र के १६ अध्ययन थे तो आज भी १६ ही हैं। उपासक दशांग सूत्र के दशाध्ययन और दश श्रावकों का वर्णन था आज भी दशाध्ययन में दश प्रावकों का वर्णन है पर श्लोक संख्या कम हो गई। इस श्लोक संख्या कम होने के कारण आर्य्यरक्षित सूरि ने चारों अनुयोग अलग २ किये थे उस समय मूल आगमों की सूरत बदल गई थी और उस समय श्लोक संख्या भी कम कर दी गई थी। । दूसरा आर्यस्कन्दिल का समय था परन्तु आर्यस्कन्दिल के समय वल्लभी में नागर्जुन द्वारा भी वाचना हुई थी तो इन दोनों की वाचना प्रायः मिलती जुलती थी केवल थोड़ा सा पाठान्तर वाचनान्तर रहा वह टीकाकारों ने वाचनान्तर के नाम से टीका में रख दिया। अतः आर्य स्कन्दिल के समय आगमों को कम किया जाना संभव नहीं होता है । पर यह कार्य आर्यरक्षितसूरि द्वारा ही हुश्रा संभव होता है। जब तक इसका पूरा प्रमाण नहीं मिल जाय वहाँ तक निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है । इसमें सन्देह नहीं कि मूल आगमों का संक्षिप्त अवश्य हुआ है। एकादशांग तीर्थङ्कर कथित और गणधर प्रथित होने में किसी प्रकार का संदेह नहीं है। आर्यस्कन्दिलसूरि के समय जो आगमों की वाचना हुई और वे श्रागम पुस्तकों पर लिखे गये जिस आगमों की संख्या ८४ को कही जाती है और उनके नामों का निर्देश प्रार्थ देवद्धिगणि खमासमणजी ने अपने नन्दीसूत्र में कालिक उत्कालिक सूत्रों के नाम से किया है उनको यहाँ उदृत कर देते हैं। [ श्री वीर परम्परा Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] ( १ ) श्री उत्तराध्ययनजी सूत्र ( २ ) श्री दशाश्रुतस्कन्धजी सूत्र ( ३ ) श्री वृहत्कल्षजी सूत्र (४) श्री व्यवहारजी सूत्र (५) श्री निशिथजी सूत्र (६) श्री महा निशिथजी सूत्र (७) श्री ऋषिभाषित सूत्र (८) श्री जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ( ९ ) श्री द्वीपसागर प्रज्ञप्ति सूत्र (१०) श्री चन्द्र प्रज्ञप्ति सूत्र (११) श्री क्षुलकवैमान प्रवृति (१२) श्री महावैमान प्रवृति ( 23 ) श्री अंगचूलिका सूत्र (१) श्री दशवैकालिक सूत्र (२) श्री कल्पकल्प सूत्र (३) श्री चूलकल्प सूत्र (४) श्री महाकल्प सूत्र (५) श्री उत्पातिक सूत्र (६) श्री राजप्रश्नी सूत्र (७) श्री जीवाभिगम सूत्र (८) श्री प्रज्ञापनासूत्र (९) श्री महाप्रज्ञापनासूत्र (१०) श्री प्रमादाप्रमादसूत्र (१) श्री श्राचार दशा (२) श्री बन्ध दशा जैनागम चाचना ] कालिक सूत्रों के नाम (१४) श्री बंगचूलिका सूत्र (१५) श्री विवाहा चूलिका सूत्र (१६) श्री आरूणोत्पतिक सूत्र (१७) श्री वारुणोत्पातिक सूत्र (१८) श्री गारूड़ो स्पातिक सूत्र (१९) श्री धरणोत्पातिक सूत्र (२०) श्री वैश्रमणोत्पातिक सूत्र (२१) श्री वैलंधरोत्पातिक सत्र (२२) श्री देवीन्द्रोस्पातिक सूत्र (२३) श्री उस्थान सूत्र (२४) श्री समुस्थान सूत्र (२५) श्री नागपरिश्रावलिका सूत्र उत्कालिक सूत्रों के नाम (११) श्री नन्दीसूत्र (१२) श्री अनुयोगद्वारसूत्र (१३) श्री देवीन्द्रस्तुतिसूत्र (१४) श्री तंदुलन्याली सूत्र (३) श्री दोंगिद्धिदशा (४) श्री दीर्घदशा [ ओसवाल संवत् ४५२ (१५) श्री चन्द्रविजय सूत्र (१६) श्री सूर्यप्रज्ञप्ति | सूत्र (१७) श्री पौरसी मंडल सूत्र (१८) श्री मंडलप्रवेश सूत्र (१९) श्री विद्याचारण सूत्र (२०) श्री विमिच्छओसूत्र प्रसंगोपात श्री स्थानायांग सूत्र में दशदशांग से 7 (२६) श्री निश्यावलिका सत्र (२७) श्री कप्पयाजी सूत्र (२८) श्री कप्पवडिंसिया सूत्र (२९) श्री फुप्फीयाजी सूत्र (३०) श्री पुप्फचूलियाजी सूत्र (३१) श्री वणियाजी सूत्र (२२) श्री विन्ही दशा सूत्र (३३) श्री श्रीविप भावना सूत्र (३४) श्री दृष्टिविष भावना सूत्र (३५) श्री चरणसुमिण भावना सूत्र (३६) श्री महासुमिण भावना सूत्र (३७) श्री तेजस निसर्ग सत्र ܘ (२१) श्री गणि विजय सूत्र (२२) श्रीध्यानविभूति सूत्र (२३) श्री मरणविभूतिसूत्र (२४) श्री आत्मविशुद्धि सूत्र (२५) श्री वीतराग सूत्र (२६) श्री संलेखणासूत्र (२७) श्री व्यवहार कल्प सूत्र (२८) श्री चरणविधिसूत्र (२९) श्री श्राउर प्रत्यख्यानसूत्र (३०) श्री महाप्रत्याखान सूत्र (५) श्री संखेवित्तदशा ( शेष पांच के नाम ऊपर श्रागये हैं ।) ४६३ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बारह अंगों के नाम १) श्री श्राचारांगसूत्र । (५) श्री भगवतीजीसूत्र (९) श्री अनुत्तरोपपातिक सूत्र २) श्री सूत्रकृतांगसूत्र (६) श्री ज्ञाताधर्मकांगसूत्र (१०) श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र ३) श्रीस्थानायांगसूत्र (७) श्री उपासक दशांगसूत्र | (११) श्री विपाकसूत्र ४) श्री समवायांगसूत्र । (८) श्री अंतगढ़ दशांगसूत्र । (१२) श्री दृष्टिवाद सूत्र इस प्रकार ८४ श्रागमों की व्यवस्था एवं संकलना करके पुस्तकों पर लिखे गये और यह बात प्राचीन समय से प्रसिद्ध भी है कि जैनों में ८४ भागमों की मान्यता है । ___ जब जैनियों में ८४ श्रागमों की मान्यता है तब ये क्यों कहा जाता है कि हम ४५. आगम मानते हैं ? इसके कई कारण है । एक कारण तो यह है कि वे ८४ आगम ज्यों का त्यों नहीं रहा। दूसरा कारण ८४ आगमों में ऐसे भी आगम है कि जिसको पढ़ने से साक्षात् देवता आकर खड़े हो जाते थे जैसे आरुणवारुण, धरण, वे श्रमण उत्पातिक सूत्र थे । उन्हों को समय को देख कर भंडार कर दिये । तीसरा कारण गुरु महाराज शिष्य को जिस आगम की वाचना देते हैं उसके योगोद्वाहन (तप) कराये जाते है उसके लिये वर्तमान साधुओं के शरीर शक्ति वगैरह देखके ४५ श्रांगमों की मान्यता रक्खी है कि वर्तमान साधु ४५ आगमों के योगाद्वाहन कर सकते हैं परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि ४५ आगमों के अलावा कोई आगम न माना जाय, आगम ही क्यों पर पूर्वाचार्यों के निर्माण किये ग्रन्थ भी प्रमाणिक माने जाते हैं। इसके अलावा पूर्वाचार्यों के निर्माण किये कई ग्रन्थ भी लिखे गये होंगे । जैसे आगमवादियों की मान्यता आगमों की थी वैसे ही निगमवादियों की मान्यतानिगमों की थी। निगमवादियों का आस्तित्व किस समय से प्रारंभ होता है और उनके निगम ग्रन्थ कब और किसने बनाये इसके निणय के लिये तो अभी शोध खोज की जरूरत है पर एक समय निगमवादियों का खूब जोर शोर था इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है क्योंकि शिला लेखों वगैरह में निगमवादियों के उल्लेख मिलते हैं। जैन शासन में दो प्रकार के मार्ग बतलाते हैं १-निर्वृति २-प्रवृति जिसमें आगमवादी निर्वृति मार्ग के पोषक थे वे आगगों का पठन पाठन एवं धर्मोपदेश देकर स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण करते थे अर्थात् वे पांच महाव्रतधारी होने से जिस किसी धार्मिक कार्य में आरंभ सारंभ होता हो उसमें प्रवृति तो क्या पर अनुमति तक भी नहीं देते थे। दूसरे निगमवादी प्रवृति मार्ग के प्रचारक थे। मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाऐं संघ विधान संघपूजा धर्म कार्य तथा गृहस्थों के सोलह संस्कार आदि जितने प्रवृति मार्ग के कार्य थे वे सब निगमवादी करवाया करते थे। परन्तु जैसे चैत्यवादियों में विकार पैदा होने से समाज उनसे खिलाफ हो गया था वैसे ही निगमवादियों का हाल हुआ पर उस समय उनको सुधारने की किसी को नहीं सूझी उलटे उन के पैर उखेड़ कर नष्ट करने का प्रयत्न किया गया जिसका नतीजा यह हुआ कि शासन का एक अंग नष्ट होगया और यह समस्या खड़ी होगई कि जो निगमवादियों के कार्य थे उसे अब कौन करे ? ४६४ [ श्री वीर परम्परा Jain Education international M.jainelibrary.org Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पूजा प्रभावना प्रतिष्ठा संघ विधान वगैरह कि जिसमें धर्म का मिश्रण था वे कार्य तो आगमवादियों के शिर पर आ पड़े कि जिन कार्यों में वे पहले अनुमोदन के अलावा आदेश नहीं दिया करते थे वे स्वयं करने लगे और गृहस्थों के संस्कार वगैरह कार्य विधर्मी ब्राह्मणों के हाथ में देने पड़े । यही कारण है कि आज जैनों के घरों में संस्कार विधान एवं पर्व व्रत वगैरह होते वे प्रायः सब विधर्मियों के ही होते हैं अर्थात् वे सब कार्य उन विधर्मियों की ही विधि विधान से होते हैं। निगमवादियों को नष्ट करने से जैन समाज को बड़ा भारी नुकसान उठा । पड़ा है । एक तरफ तो आगमवादियों को निगमवादी बनकर अपने संयम से हाथ धो बैठना पड़ा है क्योंकि जिन्होंने तीन करण तीन योग से प्रारंभ का त्याग किया था अब वे केवल उपदेश ही नहीं पर आदेश तक भी देने लग गये । दूसरी ओर जैन गृहस्थ लोग अपने धर्म से पतित बनकर सब कार्य विधर्मियों के विधि विधान से करने लग गये इतना ही क्यों पर उनके संस्कार ही विर्गियों के पड़ गये हैं। निगमवादी जिन निगमशास्त्रों को मानते थे वे उपनिषद् के नाम से श्रोलखाये जाते थे और उन उपनिषदों में संसार मार्ग के साथ मोक्ष मार्ग का भी निर्देश किया हुआ है। जिसको मैं यहां दर्ज कर देता हूँ। १-उत्तरारण्यक नाम प्रथमोपनिषद्-इसमें दर्शन के भेदों का निरूपण किया है । २-पंचाध्याय नाम द्वितीयोपनिषद्-इसके अलग अलग पांव अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में विविध प्रकार के विषयों का वर्णन है। ३ - बहुऋचनाप तृतीयोपनिषद्-इसमें चक्रवर्ती भरतमहाराज के निर्माण किये चार वेदों की श्रुतियों को असली रूप में दर्ज किया है। ४-विज्ञानघनार्णवनाम चतुर्थोपनिषद्-इसमें विविध प्रकार से ज्ञान का स्वरूप बतलाया है । ५-विज्ञानेश्वराख्य पंचमोपनिषद - इसमें ज्ञानी पुरुषों का विस्तार से वर्णन किया है। ६-विज्ञानगुणार्णवनाम षष्ठोपनिषद-- इसमें भिन्न २ प्रकार से ज्ञान के गुणों का अधिकार है। ७-नवतत्त्वनिदाननिर्णयाख्य सप्तमोपनिषद-इसमें नौ तत्व का विस्तार है। ८-- तत्वार्थनिधिरत्नाकरराभिधाष्टमोपनिषद-इसमें विविध प्रकार से तस्वों का स्वरूप है। ९- विशुद्धात्म गुण गंभिराख्य नवमोपनिषद्-इसमें शुद्ध आत्मा के ज्ञानादि गुणों का वर्णन है । १०-अर्हद्धर्मागमनिर्णयाख्य दशमोपनिषद् - इसमें तीर्थङ्कर भगवान के आगमों का अधिकार है । ११-उत्सर्गापवादवचनानैकाताभिधानकांदशमोपनिषद-इसमें उत्सर्गोपवाद एवं अनेकान्त मत है। १२-अस्तिनास्तिविवेक निगम निर्णयाख्य द्वादशमोपनिषद् -- इसमें सप्त भंभी का विस्तार है। १३--निज मनोनयनाहलादाख्यत्रयोदशमोपनिषद्-इसमें मन और चक्षु को आनंद देने वाला १४-रत्नत्रयनिदाननिर्णयनामचतुर्दशमोपनिषद्-इसमें ज्ञान दर्शन और चरित्र रूप रत्नत्रिय का० १५-सिद्धागमसंकेतस्तबकारख्यपंचदशमोपनिषद्-इसमें आगमों में आये हुये सांकेतिक शब्दों का विस्तार से खुल्लासा किया है। १६-भव्यजनभयापहारकनामषोडशोपनिषद्-इसमें भव्य जीवों के भय का नाश करने वाला वि० १७-- रागिजननिर्वेदजनकाख्य सप्तदशमोपनिपद्-इसमें रागीपुरुपों को वैराग्योत्पन्न होनेवाले वि० १८-स्त्रीमुक्तिनिदाननिर्णयाख्याष्टादशभोपनिषद् -इसमें स्त्रियां भी मोक्ष प्राप्त कर सकें-तर्णन है । निगमवादियों के निगम ] Jain ww3 library.org Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ १९-कविजनकल्पद्रुमोपमाख्यैकोनविंशतितमोपनिषद्-इसमें कवियों को कल्पवृक्ष बतलाने का वि० २० - सकलप्रपंचपथ निदाननामविंशतितमोपनिषद् - इसमें जितने प्रपंची मार्ग हैं उनका वर्णन है । २१-श्राद्धधर्मसाध्यापवर्गनामैकविंशतितमोपनिषद्-३समें गृहस्थ धर्म से भी मुक्तिमार्ग की वि० २२-समनयनिदाननाम द्वाविंशतितमोपनिषद्-इसमें सात नय का स्वरूप विस्तार से बतलाया है। २३-बंधमोक्षापगमनाम त्रयोंविंशतितमोपनिषद्-इसमें बंध मोक्ष का स्वरूप है। २४-इष्टकमनीयसिद्धनामत्रयोविंशतितमोपनिषद्-इसमें मनोइच्छित सिद्धियां प्राप्त करने का वि. २५-ब्रह्मकमनीयसिद्धयभिधाननाम पंचीवंशतितमोपनिषद-इसमें योगमार्ग से मोक्ष प्राप्त करने की वि. २६-नैः कर्मकमनीयाख्य षड्विंशतितमवेदांत-इसमें कर्म काण्ड से रहित वेदांतं स्वरूप निरूपण है २७-चतुर्वर्गचिंतामणिनाम सप्तविंशतितमवेदांत-इसमें काम अर्थ धर्म और मोक्ष चारपुरुषार्थ का वि० २८-पंचज्ञानस्वरूपवेदनारख्यमष्टाविंशतितमवेदांतं-इसमें पांच ज्ञान का विस्तार से वर्णन है। २९-पंचदर्शनस्वरूपरहस्याभिधानकोनत्रिंशतमोपनिषद्-इसमें पांच प्रकार के दर्शन का सरूप है । ३०-पंचचारित्रस्वरूपरहस्याभिधान त्रिंशत्तमोपनिषद्-इसमें पांच प्रकार के चारित्र का वर्णन है। ३१-निगमागमवाक्यविवरणख्यकत्रिंशत्तमोपनिषद-इसमें निगम और आगम का विषय हैं। ३२-व्यवहारसाध्यापवर्गनामद्वात्रिंशत्तमवेदांत-इसमें व्यवहार मार्ग से मोक्ष की साधना का विर ३३-निश्चयैकसाध्यापवर्गभिधान त्रयस्त्रिंशत्तमोपनिषद-इसमें निश्चयमार्ग से मोक्ष प्राप्तो का वर्णन है ३४-प्रायश्चित्तैकसाध्यापवर्गाख्यचतुत्रिंशत्तमोपनिषद-इसमें लगे हुए पाप का प्रायश्चित करने का वि. ३५-दर्शनैकसाध्यापवर्गनाम पंचत्रिंशत्तमवेदांत-दर्शन से मोक्ष साधन का वर्णन है । ३६-विरताविरतसमानापवर्गाह्न षट्त्रिंशत्तमवेदांत-समभाव रखने से ही मोक्ष प्राप्त होता है 'जैनधर्म का माचीन इतिहास भाग दूसरा पृ० १८२' इन उपनिषदों की विषय सूची से पाया जाता है कि इनमें गृहस्थ धर्म के अलावा जैनधर्म का तात्विक आगमिक और दर्शनिक ज्ञान का भी प्रतिपादन किया है । अतः उपनिषद प्राचीन निगम शास्त्र हैं र वर्तमान में इन उपनिषदों का आस्तित्व कहाँ भी पाया नहीं जाता है । शायद निगमवादियों के साथ उनके नेगम शास्त्र भी लोप हो गये हों खैर इन नामों से इतना तो जाना जा सकता है कि पूर्व जमाने में निगमवादी प्रौर उनके निगमशास्त्र थे। Be & International [श्री वीर परम्परा Jain E n International brary.org Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२ वर्ष । [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास राजा विक्रमादित्य आपका कुछ वर्णन तो आचार्य सिद्धसेनदिवाकर और आचार्य जेवदेवसूरि के अधिकार में आ गया है इनके अलावा कई जैनाचार्यों ने राजा विक्रमादित्य के जीवन के विषय बड़े-बड़े प्रन्थों का निर्माण भी किया है और उनमें से बहुत से प्रन्थ अद्याववि विद्यमान भी हैं। यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है कि राजा विक्रमादित्य ने पृथ्वी निऋण करके अपने नाम का संवत् चलाया और वह संवत् अद्यावधि चल भी रहा है। अतः राजा विक्रमादीत्य भारत में एक सम्राट राजा हुआ, ऐसी मान्यता चिरकाल से चली आ रही है परन्तु वर्तमान युग में इतिहास की शोध खोज से कई विद्वान इस निर्णय पर आये हैं कि संवत चलाने वाले विक्रमादित्य नाम का कोई राजा नहीं हुआ है । परन्तु 'विक्रम' यह एक किसी शक्तिशाली वीर भूपति का विशेषण है और जो विक्रम संवत् चल रहा है यह वास्तव में कृतसंवत् मालव संवत् एवं मालवगणसवत् था जो मालव प्रजा की विजय का द्योतक है । उसी मालव सवत् के साथ आगे चलकर विक्रम की नौबी शताब्दी में संवत् के साथ विक्रम नाम लग जाने से विक्रम संवत् बन गया है और इस बात की साबूति के लिये निम्न लिखित शिलालेख बतलाये जाते हैं: - "श्रीलिवगणाम्नाते, प्रशस्ते कृतसंज्ञिते । एक षष्ठ्यधिके प्राप्त, समाशतचतुष्टये [1] पायका (ट्का) ले शुभे प्राप्ते ।" मंदसौर से मिले हुये नरवर्मन् के समय के लेख में "कोषु चतुर्पु वर्षशतेष्वेकाशीत्युतरेष्वस्यां मालवपूर्वायां । ४.०] ८.१ कार्तिक शुक्लपंचम्याम" । राजपूताना म्यूजियम (अजमेर में रखे हुये नगरी (मध्यमिका, उदयपुर राज्य में) के शिल लेख में। ___"मालवानां गणस्थित्या याते शत चतुष्टये । त्रिनवत्यधिकेन्दानाम्रि (मृ) तौ सेव्यधनस्त (स्व) ने ॥ सहस्यमासशुक्लस्य प्रशस्तेह्नि त्रयोदशे ॥" मंदसौर से मिले हुये कुमारगुप्त [प्रथम) के समय के शिल लेख में "पंचसु शतेष शरदां यातेष्वेकानवति सहितेषु मालवगणस्थितिवशात्कालज्ञानाय लिखितेष।" मंदसौर से मिले हुये यशोधर्मन (विष्णु वर्दन के समय के शिलालेख में "संवत्सरशतैर्यातः सपश्चनवत्यर्गलैः, [0] सप्तभिमार्यालवेशानां"। भारतीय प्रा. लिपिमाला १६६ कोटा के पास कणस्वा के शिवमंदिर में लगे हुये शिलालेखों में"कृतेपु चतुघुवर्षशतेष्वष्टाविंशेषु ४००-२०८ फाल्गुण (न) बहुलस्यापंचदश्यामेतस्यां पूर्वाया।" फ्ली; गु० इं, पृ० २५३ यातेषु चतुपु क्रि (क) तेष शतेष सौस्ये (म्यै) वा ष्टा) शीतसोत्तरपदेष्विह वत्स रेप ___ शुक्ले त्रयोदशदिने भुवि कार्तिकस्य मासस्य सर्वजनचितसुखावहस्य ।" फली, गु० इ० पृ ४७० उपरोक्त शिलालेखों में कृत-मालव-मालवगण संवत् का प्रयोग हुआ है। परन्तु संवत् के साथ विक्रम का नाम निर्देश तक कहीं पर भी नहीं हुआ है यदि इस संवत को राजा विक्रम ने ही चलाया होगा तो संवत् के प्रारम्भ में ही विक्रम का नाम अवश्य होता अतः विद्वानों का मत है कि प्रस्तुत संवत् किसी विक्रम राजा विक्रमादित्य ] Jain Educa Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ राजा का चलाया नहीं है हाँ विक्रम की नौवी शताब्दी के एक शिलालेख में सब से पहला संवत् के साथ विक्रम का नाम लिखा हुआ मिलता है जैसे कि -- "वसु नव (अ) टौ वर्षागतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य । वैशाखस्य सियाता (यां) रविवार युत द्वितीयायाम् ।" यह शिलालेख धोलपुरा से मिला है राज चण्डमहासन के समय वि० सं० ८९८ का है इसमें पहला पहल संवत् के साथ विक्रम नाम जुड़ा हुआ है _कही-कहीं जैन विद्वानों ने उज्जैन के राजा बलमित्र को विक्रम की उपाधि से भूपित किया है । राजा बलमित्र था भी प्राक्रमी एवं विक्रम। उसका राज भरोंच में था परन्तु उसने उज्जैन पर चढ़ाई कर शकों को पराजित कर उज्जैन का गज अपने अधिकार में कर लिया उस विजय के उपलक्ष में उसने नया संवत् चलाया इत्यादि । परन्तु इसमें भी वह सवाल तो ज्यों का त्यों खड़ा ही रहता है कि राजा बलमित्र ने अपनी विजय के उपलक्ष में नया संवत् चलाया तो उस समय से ही संवत् के साथ बल एवं विक्रम शब्द क्यों नहीं चलाया ? इसके लिए यह कहा जा सकता है कि राजा बलमित्र ने माला प्रान्त को विजय करके आपना नाम की अपेक्षा मालवा शब्द को संवत् के साथ जोड़ देना विशेष गौरव समझा होगा और संवत के साथ मालव शब्द को जोड़ दिया हो तो यह ठीक समझा जा सकता है। अब हम समय को देखते हैं तो संवत् प्रारम्भ और बलमित्र का समय ठीक मिलता-जुलता है अतः जैन लेखकों का लिखना सत्य प्रतीत होता है कि विक्रम यह राजा बलमित्र का विशेषण है और मालव संवत् को राजा बलमित्र ने अपने मालव विजय के उपलक्ष में ही चलाया था। जैनाचार्यों ने राजा विक्रम के लिये बड़े बड़े ग्रन्थों का निर्माण किये हैं और राजा विक्रम को जैनधर्म का प्रचारक लिखा है तथा राजा विक्रम ने उज्जैन से तीर्थ शत्रुजय का विराट् संघ निकाला और कई मन्दिर भी बनाया इत्यादि यदि राजा बलमित्र को ही विक्रम समझ लिया जाय तो यह बात सर्वथा मिलती हुई है कारण राजा बलमित्र जैन धर्म का परमोपासक था उसने ५२ वर्ष भरोंच नगर में राज किया था बाद उज्जैन का राज अपने अधिकार में करके ८ वर्ष तक रज्जैन में भी राज किया यदि उसने उज्जैन से शत्रुजय का संघ निकाला हो तो यह असंभव भी नहीं है । राजा बल मित्र कालकावार्य के भाने न लगते थे भाचार्य खपटसरि आचार्य पादलिप्तसूरि उपाध्याय महेन्द्र वगैरह राजा बलमित्र की प्राग्रह से चिरकाल तक भरोंच में ठहरे थे और कई वादियों को वहां पराजय भी किये थे अतः उनके जैन होने में किसी प्रकार का संदेह भी नहीं हो सकता है। __ कई लोग यह भी कहते हैं कि मालव संवत् के कई वर्षों के बाद गुप्तवंशी चन्द्रगुप्त (द्वितीय ) राजा हुआ विक्रम उस राजा की उपाधि थी और उसको माल व संवत् के साथ जोड़ देने से ही मालव संवत् का नाम विक्रम र वत हुआ है परन्तु इस कथन के लिये कोई भी पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता है जैसे राजा चलमित्र के लिये मिलता है । विशेष निर्णय विद्वानों की विचार श्रेणी पर ही छोड़ दिया जाता है । -रामचन्द्रसूरिकृत विक्रमचरित्र २-शुभशील गणीकृत विक्रमादित्य चरित्र ३-देवमूर्तिकृत वि० च० (स० १४६.) (स० १९४९) ४६८ [श्री वीर परम्परा Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १६--प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ( तृतीय ) आचार्यः स हि सूरि सूर्य विदितो नाम्ना तु रत्नपभः । शोभा तप्तभट्टीय वंश जनता वर्गस्य दीक्षां गतः ॥ त्यक्त्वा मास विवाहितां निजवधू कोटिंच वित्तंयुधः । ज्ञात्वा पूर्वग रत्नभूरि-वरित शिक्षां-व तस्मादधौ ॥ चार्य रत्नप्रभसूरि-इन तीसरे रत्नप्रभसूरि का यश एवं प्रभाव की पताका तीनों लोक में । फहरा रही थी। आप ॐकार नगर के तप्तभट्ट गोत्रिय शाह पेथा की भार्या कुल्ली के जो राजसी नाम के होनहार पुत्र रत्न थे। आपकी बालक्रीडायों का वर्णन पट्टावलीकारों ने बहुत विस्तार से किया है । एक दो उशहर यहां बतला दिये जाते हैं कि बालकों की ___ क्रीडा किस प्रकार भविष्य सूचक होती हैं । शाह पेथा का घराना पुश्तों से जैनधर्म का परमोपासक था जिसमें आपकी धर्मपत्नी कुल्ली तो अपना जीवन ही धर्म करने में व्यतीत करती थी। जिन बालकों के माता पिता धर्मज्ञ होते हैं उन्हों का असर बालबच्चों पर अवश्य पड़ ही जाता है। शाह पेथा धनकुबेर एवं करोड़ाधीश था और उनके सात पुत्रियों पर राजशी एक ही पुत्र था अतएव माता पिता का उस पर अधिक से अधिक स्नेह होना एक स्वभाविक ही बा। राजशी छः वर्ष का हुआ तो कई मिष्टान्नादि पदार्थ देकर बहुत से लड़कों को अपना सहचारी बना लिया और उन साथियों के साथ क्रीडा करता था कभी २ अपनी माता के साथ गुरु महाराज के उपाश्रय व्याख्यान सुनने को भी जाया करता था। जैसे मुनिजन पाट पर बैठकर श्रोताओं को व्याख्यान सुनाते थे राजशी भी लड़कों को एकत्र कर उनको व्याख्यान सुनाने की चेष्टा किया करता था और जैसे मुनिराज अपने व्याख्यान में संसार की असारता बतलाते थे जिसको राजशी सुनता था उसी प्रकार अपने सहचरों के बीच बैठकर उन बालकों को संसार की असारता बतलाया करता था इत्यादि । ____ हा हा ! पूर्व जन्म के यह कैसे सुन्दर संस्कार होंगे। राजशी को इन बातों में बहुत आनन्द श्राता था । एक दिन राजशी गुरु महाराज के उपाश्रय गया था उस समय साधु भिक्षार्थ नगर में गये थे । राजशी व्याख्यान के पाटा पर बैठकर व्याख्यान देने लग गया । जब साधुओं ने श्राकर देखा और राजशी को पूछा कि तू क्या कर रहा है ? राजशी ने उत्तर दिया कि मैं व्याख्यान दे रहा हूँ इत्यादि उस बच्चे की चेष्टा देख कर मुनियों ने सोचा कि यदि यह बालक दीक्षा लेगा तो जिनशासन की बड़ी भारी प्रभावना करेगा । एक समय भुनियों ने गोचरी जाने के लिये पात्रों का प्रतिलेखन कर रखा था। इतने में बालक राजशी पाया और भोली सहित पात्र लेकर सीधा ही अपने घर पर आ गया एवं माता के पास जाकर धर्म लाभ दिया । माता ने इस प्रकार राजशी को देख कर उसे आलम्भ दिया कि बेटा ! साधुओं के पात्रं कभी नहीं लेना । बेटा ने कहा, माता पाने मुझे अच्छे लगते हैं इत्यादि । इतने में पीछे मुनि आये और उसके हाथों से पात्र ले लिया इत्यादि धर्म चेष्टा के कई उदाहरण राजशी की बालावस्था के बन चुके थे । बालकुँवर राजसी की बाल क्रीड़ा ] ४६९ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५ शाह पेथा ने राजशी की उम्र ८ वर्ष की हुई तो अध्यापक के पास पढ़ने को भेज दिया । दूसरे विद्यार्थियों से राजशी में विनयगुण अधिक था। यही कारण था कि अध्यापक महोदय की राजशी पर विशेष कृपा रहती थी और राजशी पढ़ाई में अपने सहपाठियों से हमेशा आगे बढ़ता जाता था। एक दिन आचार्य सिद्धसूरि ॐ कार नगर में पधारे अतः श्रीसंघ ने आपका सुन्दर सत्कार किया सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था । एक दिन माता कुल्ली ने विनय के साथ अपने पुत्र राज सिंह की धर्म चेष्ठा के लिये सूरिजी से पूछा कि पूज्यवर ! राजसिंह बाल्यावस्था में ही साधु उचित कार्य करता है इसका क्या कारण है ? सूरिजी ने अपने निमित्त ज्ञान से कहा माता राजसिंह ने पूर्व जन्म में दीक्षा की आराधना की है। अतः इसको दीक्षा पर अनुराग है। माता तू भी धन्य है कि तेरी कुक्षी से राजसी जैसा पुत्र पैदा हुआ है जो कभी राजसी दीक्षा लेगा तो जैनधर्म की प्रभावना के साथ जगत का उद्धार करने वाला होगा इत्यादि। सूरिजी के वचन सुनकर माता के दिल में आया कि यह राजसी कहीं दीक्षा न ले ले अतः इसकी शादी जल्दी से कर देनी चाहिये । बस फिर तो देरी ही क्या थी पहिले से ही राजसी की शादी के लिये कई प्रस्ताव आये हुये थे। शाह पेथा ने एक लिखी पढ़ी श्रोष्ठि कन्या के साथ राजसी का सम्बन्ध ( सगाई ) करदी । इस बात की खबर जब राजर्स को हुई तो उसने अपनी माता से कहा कि माता! पिताजी मुझे जाल में फंसाना चाहते हैं पर मैं हर्गिज इस संसार रूपी जाल में न फंसूगा | माता ने कहा बेटा क्या विवाह करना जाल है ? पुत्र ने कहा हां माता मैं समझता हूँ कि-विवाह करना जाल है ? माता-यदि संसार में कोई विवाह न करे तो फिर संसार चले ही कैसे ? पुत्र-माता मैं संसार की बात नहीं करता हूँ मैं तो अपनी बात करता हूँ। माता-तू शादी नहीं करेगा तो क्या साधु बनेगा ? पुत्र-हां माता मैं तो दीक्षा लूंगा। माता-खैर दीक्षा ले तो दम्पति दोनों साथ में ही लेना शादी तो कर ले वरना हमारी मांग जाने में अच्छा नहीं लगेगा। मां बेटा में बातें हो ही रही थीं कि इतने में पेथाशाह घरपर आ गया और पूछा कि आज मां बेटा क्या बातें कर रहे हो । माता बोली आपका पुत्र कहता है कि मुझे शादी नहीं करनी है मुझे तो दीक्षा लेनी है ? शाह पेथा ने कहा कि दीक्षा लेनी है तो भी शादी तो करले फिर सब घर वालों के साथ में ही दीक्षा लेना। राजसी ने सोचा कि जो कमों की रेखा है वह तो किसी के भी टाली टल ही नहीं सकती है और इस निमित्त कारण से ही सबका कल्याण होने वाला हो वो भी कौन कह सकता है ? जब माता पिता का इतना आग्रह है तो होने दो शादी अगर मेरे दीक्षा का योग है तो शादी से रुक भी नहीं सकेगा जिसके लिये जम्बुकुंवर बनकुंवर आदि अनेक महापुरुषों के उदाहरण विद्यमान है। राजशी के माता पिता ने बड़े ही समारोह के साथ राजसी का विवाह कर दिया। इधर तो राजशी के लग्न को पूरा एक मास भी नहीं हुआ था कि उधर से आचार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज भ्रमण करते हुए पुनः ॐकार नगर में पधार गये । सूरिजी का उपदेश हमेशा त्याग वैराग्य पर होता था और आप यह भी फरमाया करते थे कि संसार में जीव मोह एवं ममत्व से दुखी बनता है तष्ण तो ऐसी वैतरणी है कि मनुष्य समम जाने पर भी तृष्णा के वशीभूत बना हुआ इस प्रकार विचार करता है कि । ४७० 1 [माता बेटा का संवाद Teubraryorg Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अजं कलं परं पुरारी, पुरिस चिंतंति अत्थी संपति । अंजलि गई भो तुअं,गल्लतमायुः न पिच्छति।। अरे भव्य ! तू आज कल परसों भौर वर्षान्तर में धर्म करने का विचार करता है पर अंजली के जल की भांति तेरा आयु क्षीण होता जारहा है इसका भी कभी विचार किया है तीर्थक्कर देवों ने सो स्पष्ट पानि खुले शब्दों में फरमाया है कि । मनुष्य का आयुष्य अस्थिर है जैसे कि दुमपत्तए पंडुयए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमाए ॥१॥ कुसगो जह ओसबिंदुए, थोवं चिट्टइ लंवमाणए ।। एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! भा पमाए ॥२॥ अर्थात आयुष्य का क्षण भर का भी विश्वास नहीं है अतः धर्म करने में क्षणमात्र की भी देर न करनी चाहिये न जाने क्षणान्तर क्या होता है कहा है कि-"धम्मस्यत्वरता गतिः" इत्यादि सूरिजी का वैराग्यमय उपदेश सुन कर जैसे कोई सिंह निद्रा से जागकर सावधान हो जाता है वैसे ही राजसी सावधान हो गया और अपने माता पिता के पास जाकर दीक्षा की अनुमति मांगी। पर माता पिता और एक मास की परणी नववधू वगैरह कब चाहते थे कि राजसी इस १६ वर्ष की युवक वय में हमको छोड़ कर दीक्षा लेले परन्तु राजसी का हृदय तो बाल्यावस्था से ही दीक्षा के रंग से रंगा हुआ था वह इस संसार रूप कारागृह में कब रहने वाला था। राजसी ने अपनी स्त्री को इस कदर युक्ति से समझाई कि वह दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गई इस हालत में राजसी के माता पिता संसार में कब रहने वाले थे अतः उन्होंने राजसी को पूछा कि घर में करोड़ों रुपये की लक्ष्मी है उस का क्या करना चाहिये ? राजसी ने कहा पिताजी ! शास्त्रों में सातक्षेत्र कहे है उसमें लगाकर पुन्योपार्जन कीजिये दूसरा तो इसका हो ही क्या सकता है। शाह पेथा ने एक एक कोटी द्रव्य तो अपनी सातों पुत्रियों को दे दिया कुछ दीक्षा के महोत्सव के लिए रख लिया। शेष द्रव्य सातों क्षेत्र में जहां जैसी आवश्यकता थी लगा दिया इस प्रकार सूरिजी का उपदेश और राजसी का त्याग वैराग्य देख और भी २३ नरनारी दीक्षा लेने को तैयार हो गये । इस सुअवसर पर जिन मंदिरों में अठाई महोत्सव पूजा प्रभावना म्वामिबात्सल्य और साधर्मी भाइयों को पहरामणी याचकों को दान दीन दुखियों का उद्धार वगैरह कार्यों में पांच करोड़ द्रव्य व्यय किया । तदनन्तर शुभमुहूर्त में राजसी आदि २७ नरनारियों ने सूरिजी के शुभ हस्तविन्द से भगवती जैनदीक्षा ग्रहण करली । शुभ कार्य से जैनधर्म को खूब ही प्रभावना हुई और घर-घर में जैनधर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी। सूरिजी ने राजसी का नाम 'गुणचन्द्र' रख दिया जो “अथानाम तथा गुण" वाली कहावत को चरितार्थ करता था। कारण राजसी में सब गुण चन्द्र के समान निर्मल थे। मुनि गुणचन्द्र सूरिजो के विनयवान शिष्यों में एक था । गुरुकुल वास में रह कर सूरिजी की आज्ञा का भली भांति आराधन किया करता था । मुनिजी ने पूर्वभव में सरस्वती देवी की अच्छी आराधना की थी कि इस भव में भी वह वरदाई हो गई अल्प समय में वर्तमान जैनागमों का अध्ययन कर लिया। इतना ही क्यों पर व्याकरण, न्याय, तर्क, काव्य अंलकार छन्द वगैरह के भी धुरंधर विद्वान हो गये तथा स्वमत के hain E सरिजी का उपदेश-] ४७१ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ लावा परमत के साहित्य का भी आपने ठीक अध्ययन कर लिया था । शास्त्रार्थ और वादविवाद में आपका तर्क एवं युक्तिवाद इतना प्रबल था कि प्रतिवादी आपके सामने सदैव नत मस्तक ही रहते थे । जब सुनि गुणचन्द्र की २४ वर्ष की आयु अर्थात् ८ वर्ष की दीक्षा पर्याय हुई तो आचार्य सिद्धसूरि ने अपना पुष्यनजदीक जाकर तथा मुनगुराचन्द्र को सर्वगुण सम्पन्न देख कर सूरिमंत्र की आराधना पूर्वक उपकेश पुर के श्रीसंघ के महोत्सव के साथ चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष देवी सच्चायिका की सम्मतिपूर्वक मुनिगुणचन्द्र को सूपद से विभूषित कर आपका नाम आचार्य रत्नप्रभसूरि रख दिया जो इस गच्छ में क्रमशः रिनामावली चली आरही थी । एक समय आप श्री ने प्रथम रत्नप्रभसूरि का जीवन पढ़ा तो आपकी आत्मा पर काफी प्रभाव पड़ा और आपने अपना ध्येय शासन उन्नति का बना लिया । श्राचार्य रत्नप्रभसूरि महान प्रतिभाशाली विद्वान और शासन की प्रभावना करने वाले थे न जाने इस नाम में ही ऐसा चमत्कार रहा हुआ था कि गच्छनायक होते ही आपका सितारा अधिक से अधिक चमकने लग जाता था । सूरिजी ने मरुधर के प्रत्येक ग्रामों में विहार कर सर्वत्र जनता को धर्मोपदेशरूपी सुधारस का पान कराया । उपकेशपुर, विजयपट्टन, माडब्यपुर, नागपुर, मेदनीपुर, शंखपुर, कुर्चपुरा, हर्षपुरा, मुग्धपुर, खटकूपपुर, वैराटपुर, दाबावती, पालिकापुरी, कोरंटपुर, भिन्नमाल, शिवगढ़, सत्यपुरी. जावलीपुर, चन्द्रावती, शिवपुरी, और पद्मावती वगैरह छोटे बड़े ग्रामों में भ्रमण किया इस विहार के अन्दर कई मुमुक्षुओं को दीक्षा दी, कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। कई जीर्ण मन्दिरों का उद्धार करवाया इत्यादि धर्म प्रचार बढ़ाते हुये क्रमश: आपने पद्मावती नगरी में चतुर्मास करके जनता को खूब उपदेश दिया एक समय आपने तीर्थाधिराज श्रीशत्रु जय के विषय खूब प्रभावशाली व्याख्यान देते हुये फरमाया कि पूर्व जमाने में कई राजा महाराजा एवं सेठ साहूकारों ने इस तीर्थ की यात्रा निमित्त बड़े २ संघ निकाल कर एवं संघपति बनकर अनेक साधर्मी भाइयों को यात्रा करवा कर अनन्त सुन्योपार्जन किये थे । संघपति पद कोई साधारण पद नहीं पर इस पद को तीर्थङ्करदेव ने भी नमस्कार किया है इत्यादि । आपके उपदेश का प्रभाव जनता पर इस कदर हुआ कि सब की भावना तीर्थयात्रा की ओर झुक गई । उसी सभा में प्राग्ववंशीय मन्त्री राणक भी था उसने खड़े होकर अर्ज की कि हे पूज्यवर । मेरी इच्छा है कि मैं पुनीत तीर्थ श्रीशत्रु जय गिरनारादि तीर्थों की यात्रा निमित्त संघ निकालूं अतः मुझे श्रीसंघ आज्ञा प्रदान करावे सूरिजी ने कहा राणक तू बड़ा ही भाग्यशाली है । ज्ञानियों ने फरमाया है कि मनुष्य का आयुष्य अस्थिर है, लक्ष्मी का स्वभाव चंचल है। इसमें जो कुछ सुकृत कार्य बन जाय वही अच्छा है इत्यादि । उस सभा में और भी कई भाइयों की भावना संघ निकालने की थी पर सब से पहिले मंत्री राणा ने अर्ज की श्रतः श्रीसंघ की तरफ से मंत्री राणा को हो आदेश मिला । मन्त्री राणा ने अपना महोभाग्य समझकर सूरिजी को वन्दन कर अपने मकान पर आया । मन्त्री राणा के पाण्डवों के सदृश्य पांच पुत्र थे उनको बुलाकर संघ निकालने के लिये पूछा तो उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ कहा कि पिताजी । आप के उपार्जन किया हुआ द्रव्यपर हमारा कुछ भी अधिकार नही है और आप अपना द्रव्य को इस प्रकार सुकृत में लगावें इस में हम लोगोंको बड़ी भारी खुशी है और संघ के लिये सामग्री एकत्र करने के लिये आप जो हुकुम फरमायें उसे करने के लिये हम सब भाई कटिवद्ध तैयार है। अतः मंत्री राणा ने खुश होकर पुत्रों को अलग-अलग काम का जिम्मा दे दिया अतः वे अपने काम को सफल ४७२ [ श्री मंत्री राणा का संघ www.janeibrary.org Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ बनाने में लग गये। मंत्री राणा उस समय वृद्धावस्था में था राज का काम पुत्र को सोंप कर आप निर्वृति से धर्माराधना करता था तथापि मन्त्री चलकर राजा के पास गया और राजा ने मंत्रेश्वर की बहुत प्रशंसा की और कहा कि राणा तू बड़ा ही भाग्यशाली है । इस पुन्य कार्य को करके तूने अपने जीवन को सफल बना लिया है । अब इस संघ के लिये जो कुछ सामान की आवश्यकता हो वह बिना संकोच राज से लेजाना ताकि इतना लाभ तो मुझे भी मिले । मन्त्री ने कहा राजन् ! यह सब गुरुदेव की पूर्ण कृपा का ही फल है और आपकी मेहरबानी एवं उदारता के लिये मैं आपका उपकार समझता हूँ और आप श्रीमानों की कृपा से ही मेरा प्रारंभ किया कार्य सफल होगा पर एक खास मेरी प्रार्थना है कि हुजूर खुद इस संघ में पधारें क्योंकि धर्म सबका एक है देव सब का एक है और तीर्थ सबका एक है । पूर्व जमाने में बड़े-बड़े नरेशों ने संघ सहित इस महान तीर्थ की यात्रा की है । अतः मेरी प्रार्थना पर मंजूरी हुक्म फरमाना चाहिये । इस पर राजा ने कहा राणा मैं सब धर्मों को सक ही समझता हूँ फिर भी जैनधर्म पर मेरा अधिक अनुराग है । श्रापके आचार्य एवं साधु बड़े ही त्यागी वैरागी हैं। इनके उपदेश जनकल्याण के लिये होता हैं। अतः मैं धर्म में किसी कार का भेद कहीं सामता हूँ जिसमें भी तीर्थों के लिये तो भेद हो ही नहीं सकता है। जैसे हमारे गंगातीर्थ है वैसे आपके शत्रुजयतीर्थ है पर कहा है कि 'राजेश्वरी नरकेश्वरी'। मेरे जैसों की तकदीर में ऐसे तीर्थ की यात्रा कहाँ लिखी है । हमतों चौरासी के कीड़े चौरासी में ही भ्रमण करेंगे यथार्थ संघ में चलने के लिये अभी तो मैं कुछ नहीं कहता हूँ समय पर बन सका तो मैं विचार अवश्य करूंगा इत्यादि । मन्त्री ने कहा राजन् ! धर्म तो खास राजाओं का ही है और 'यथा राजा तथा प्रजा' । राजा के पीछे ही प्रजा में धर्म का उत्साह बढ़ता है। अगर आप इस संघ में पधारेंगे तो जनता में कितना उत्साह बढ़ जायगा जिसकी कल्पना अभी नहीं की जा सकती है परन्तु इसका लाभ तो आपको ही मिलेगा। जब आप समझते हो कि 'राजेश्वरी सो नरकेश्वरी' तब तो इस नर्क के द्वार बन्द करने के लिये आपको इस धर्म कार्य में अधिक उत्साह से भाग लेना चाहिये । आप खुद ही समझदार हैं मैं आपको अधिक क्या कहूँ। यदि आप मेरी प्रार्थना को स्वीकार करलें तो मेरा उत्साह और भी बढ़ जायगा । इसको भी आप सोच लीजिये। राजा ने कहा ठीक है राणा में इस बात का विचार अवश्य करूंगा। मंत्री ने कहा विचार करना तो पराधीनों के लिये है आप स्वाधीन हैं। मुझे तो पूर्ण विश्वास है कि आप मेरी प्रार्थना को अवश्य स्वीकार करेंगे । राजा-जब तुझे विश्वास है तो अधिक कहने की जरूरत ही क्या है । इत्यादि वार्तालाप हुआ। बाद मंत्री राजा को प्रणाम कर अपने स्थान आगया तथा समय पाकर सूरिजी से भी निवेदन कर दिया कि कभी राजा व्याख्यान में आवे तो आप भी इस बात का उपदेश करें क्योंकि राजा संघ के साथ चलने से जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। मंत्रीश्वर के कुशलता पूर्वक कार्य करने वाले पांच पुत्र थे। पास में पुष्कल द्रव्य था और राजा की पूरी मदद फिर तो कहना ही क्या था मंत्री ने अलग-अलग काम सब के सुपुर्द कर दिया और वे लोग संघ के लिए सामग्री जुटाने में लग गये। मंत्री राणा के पुत्रों ने जहां-जहां साधु साध्वियां विराजमान थे वहां-वहां अपने योग्य मनुष्यों को विनती के लिये भेज दिये तथा श्रीसंघ के लिये प्रत्येक ग्राम नगर में आमंत्रण पत्र भिजवा दिये। उस मंत्री का राजा को उपदेश । ४७३ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास समय जनता की धर्मप्रति कैसी भावना थी वह इस शुभ कार्य से ज्ञात हो जायगी कि आमंत्रण पत्र से हजारों नहीं पर लाखों भावुक जनों ने पद्मावती नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया। शुभमुहूर्त मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी के दिन मंत्री राणा के संघपतित्व में और आचार्य सिद्धसूरि के नायकत्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया। संघ का ठाठ देख राजा जैत्रसिंह के मन में इतना उत्साह बढ़ गया कि वह अपनी रानी को लेकर संघ में शामिल हो गया। फिर तो कहना ही क्या था तीर्थ पर पहुंचे वहाँ तक तो इस संघ में ५००० साधु साध्वियां और पांच लक्ष मनुष्यों की संख्या होगई थी। छ० री० पाली संघ में कितना अानन्द आता है इस बात का अनुभव तो उन्हीं लोगों को होता है कि जो यात्रा को यात्रा समझ कर निवृत्ति भाव से दो-दो चार-चार मास साधुओं की भांति भ्रमण कर आनन्द लूटते हैं क्योंकि यात्रा में इन्द्रियों का दमन, कषायों पर विजय, आरम्भ से निति, ब्रह्मचर्या का पालना, गुरु सेवा, प्रभु पूजा, स्वर्मियों का समागम, और ज्ञान ध्यान का करना इत्यादि अनेक लाभ मिलता है। यही कारण है कि तीर्थ यात्रा धर्म का एक खास अंग समझा गया है । उस जमाने में संघ बिना यात्रा होनी कठिन थी और ऐसे संघ कभी-कभी भाग्यशाली ही निकालते थे । अतः जनता में उत्साह की तरंगे उछल रही थीं। आज कल तो यात्रा नाम मात्र की रह गई है। पूर्वोक्त गुण खोजने पर भी शायद ही मिलते होंगे ? यद्यपि सब लोग एक से नहीं । होते हैं पर जो पूर्व जमाना में लोगों की धर्म पर श्रद्धा और आत्म-कल्याण की रुची थी वह बहुत कम रह गई है इसमें कर्मों की बहुल्यता के अलावा क्या हो सकता है फिर भी यह रास्ता इतना उत्तम है कि कभी-कभी आत्म विकास की लहर आय ही जाति है । ___उस जमाने के अन्दर जैनों के घरों में ऐसा पैसा ही नहीं आता था कि कुक्षेत्र में लगा सके । यात्रार्थ जो पैसे खर्च किये जाते थे वे साधर्मी भाइयों के तथा देश भाइयों के ही काम में आते थे। श्राज हजारों लाखों रुपये रेल्वे को दिये जाते हैं वे विदेशों में तो जाते ही हैं पर उसका वहां भी दुरुपयोग ही होता है । जो भाव और आनन्द गुरु महाराज के साथ छरी पाली यात्रा में आता है वह रेलवे से यात्रा करने में नहीं आता है । भला पहिले जमाने में जीवन भर में एक ही यात्रा करते होंगे पर वे एक बार की यात्रा में इतने पाक एवं पवित्र बन जाते थे कि किये हुए कर्मो का प्रक्षालन कर फिर पाप नहीं करते थे। पर आज सालोसाल यात्रा करने वाले न तो वहां जाकर पाप धोते हैं और न वापिस आकर पाप से डरते हैं । आज की यात्रा को तो एक व्यसन एवं मुसाफिरी ही कही जाती है । हाँ सब सरीखे नहीं होते हैं पर मुख्यता में आज कल का हाल ऐसा ही है । पर कई लोग आत्म भावना वाले भी होते हैं । संघ क्रमशः गांव नगर एवं तीर्थो के दर्शन पूजन ध्वज महोत्सव जीर्णोद्धार एवं दीन दुखियों का उद्धार करता जा रहा था। रास्ता में अनेक राजा महाराजा एवं श्रीसंघ की ओर से अच्छा स्वागत हो रहा था । क्रमशः श्रीसिद्धगिरि के दूर से दर्शन करते ही भावुकों के हृदय कमल विकासायमान होगये । चतुर्विध श्रीसंघ ने मिल द्रव्य भाव से तीर्थ वन्दन पूजन किया। तत्पश्चात् तीर्थ पर जाकर भगवान आदीश्वर के दर्शन स्पर्शन कर चिरकाल के मनोरथों को सफल किया। इस तीर्थ को सुन कर आस पास के छोटे बड़े अनेक संघ वहां आये और पाठ दिन तक अष्टन्हिका महोत्सव पूजा प्रभावना स्वाभिवात्सल्यादि विविध प्रकार से भक्ति की और भी करने योग्य सव विधान किया तत्पश्चात् गिरनारादि क्षेत्रों की स्पर्शना की। सूरिजी महाराज ने अपने पाई साधुओं के साथ लाट सौराष्ट्र प्रदेश में विहार करने के कारण वहां ही रह गये और For Private & Personal use only [ श्री संघ श जय तीर्थ पर .org ५७४ Jain Education international Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ दूसरे साधु एवं संघ लौट कर पुनः पद्मावती आये। मंत्रीराणा ने संघ को स्वामिवात्सल्य के साथ एक एक सोना मोहर और पांच पांच सेर लड्डू की प्रभावना दी और संघ के चरणों की रज अपने सिर पर लगा कर अपने जीवन को सफल बनाया । धन्य है इस प्रकार शासन की प्रभावना करने वाले नररत्नों को। यह तो एक संघ का हाल यहां लिखा है । पर इस प्रकार तो अनेक प्रान्तों एवं नगरों से कई आचार्य एवं मुनिवरों के उपदेश से छोटे बड़े कई संघ निकाला करते थे। कारण उस समय एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में एक दो मनुष्यों से आना जाना मुश्किल था । लूट पाट का भय रहता था। तथा यात्रार्थ अथवा व्यापारार्थ आना जाना होता तो इसी प्रकार हजारों लाखों आदमियों के संग से ही जाना थाना बनता था । दूसरे उस समय लोगों में धर्मभावना भी बहुत थी तीसरे वह लोग थे भी हलुकर्मी चतुर्थ उनके व्यापारादि सब कार्य न्याय एवं नीति पूर्वक थे कि लक्ष्मी तो उनके घर में दासी होकर रहती थी। उनका जीवन सादा एवं सरल था कि वे दूसरे कामों की अपेक्षा धर्मकार्य में द्रव्य व्यय करना अधिक पसन्द करते थे। इन शुभ अध्यवसायों के कारण वे संसार में खूब फले फूले रहते थे और धर्मकार्यों में सदैव अप्रभाग लेते थे । ___ अस्तु । आचार्य रत्नप्रभसूरि ने लाट सौराष्ट्र में विहार कर सर्वत्र जैन धर्म की जागृति एवं प्रभा. वना करते हुये कच्छ प्रदेश में पदार्पण किया । सूरिजी के पधारने से सर्वत्र चहल-पहल मच गई। उपकेशवंशियों की संख्या सर्वत्र प्रसरित थी, वे लोग रत्नप्रभसूरि का नाम सुन कर प्रथम रत्नप्रभसूरि की स्मृति कर रहे थे। सूरिजी महाराज के उपदेश से कच्छ ठीक जागृत होकर अपने आत्म-कल्याण में लग गया । बाद वहां से आपने सिन्ध को पवित्र बनाया । सिन्ध में बहुत से साधु भी विहार करते थे। जब सूरिजी महाराज देवपुर, आलोट, डबरेल, खखोटी, नरवर होते हुये शिवनगर में पधारे। वहां का राजा कुंतलादि श्रीसंघ ने सूरिजी का खूब ही समारोह के साथ स्वागत किया । सूरिजी के पधारने से जनता में एक प्रकार की नयी चेतनता प्रगट हुई और उत्साह बढ़ गया। एक दिन सूरिजी व्याख्यान दे रहे थे, किसी अन्य धर्मी ने प्रश्न किया कि सूरिजी महाराज आप निश्चय को मानते हो या व्यवहार को ? सूरिजी ने उत्तर दिया कि हम निश्चय और व्यवहार दोनों को युगपात समय मानते हैं क्योंकि व्यवहार बिना निश्चय प्रगट नहीं होता है. तब निश्चय बिना व्यवहार चल नहीं सकता है। अतः निश्चय और व्यवहार दोनों को मानना ही सम्यक् मार्ग है। पृच्छक-पूज्य ! यह तो मिश्र मार्ग है। मैंने तो सुना है कि एक मार्ग पर निश्चय किये बिना कल्याण नहीं होता है तो फिर आप जैसे विद्वान मिश्र मार्ग की शरण क्यों लेते हो ? सूरिजी-एकान्तवाद से कल्याण नहीं, पर कल्याण स्याद्वाद से होता है । अर्थात अकेले निश्चय से कुछ नहीं होता है तब अकेले व्यवहार से भी कार्य की सिद्धि नहीं है । हां, निश्चय के अनुसार व्यवहार चलता है पर व्यवहार को छोड़ देने पर अकेला निश्चय भी कुछ नहीं कर सकता है । निश्चय में तो आपके व्याख्यान सुनना था, पर यहां आने का व्यवहार एवं उद्यम किया तब व्याख्यान सुन सके हो । पृच्छक्-महाराज ! मैं एक निश्चय को ही मानने वाला हूँ। चाहे व्यवहार न करे, पर निश्चय में जो होने वाला होता है वही होकर रहता है । जैसे एक मनुष्य निश्चयवादी था और जंगल गया था। वहाँ भूमि खोदते उसे खजाना मिना, पर उसने lain Ed निश्चय और व्यवहार ] www४७५rary.org Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सोचा कि इसको उठा कर ले जाने का व्यवहार (उद्यम) क्यों किया जाय । निश्चय में लिखा होगा तो आपसे ही घर पर आ जायगा। बस उस खजाने को छोड़ के आ गया। रात्रि में अपनी औरत से सब हाल सुनाया। उस समय गुप्त रहा हुश्रा एक चोर भी सुनता था। उसने सेठजी के बतलाये हुये स्थान पर जा कर देखा तो वहाँ एक चरू था। खजाना निकालने की गरज से उसमें हाथ डाला तो उस खजाने में साँप बिच्छू के रूप में चोर को काट खाया । चोर ने सोचा कि सेठ ने मुझे मारने का उपाय किया तो इसको लेजा कर संठ पर डाला जाय कि वह स्वयं मर जाय । बस, चोर ने उस खजाने को लेजा कर सोते हुये सेठ पर डाल दिया कि वह पुनः खजाना हो गया अर्थात् निश्चय रखा तो निधान घर पर आ गया। अतः निश्चय ही को मानना ठीक है । यदि निश्चय में नहीं है तो व्यवहार उल्टा नुकसान का कारण बन जाता है । जैसे एक मूषक ने व्यवहारिक उद्यम कर एक छबड़े को काटा अन्दर था सर्प । मूषक को भक्षण कर गया । अतः मेरी मान्यता के अनुसार एक निश्चय ही प्रधान है। सूरिजी ने कहा कि ऐसे तो व्यवहार की प्रधानता के भी अनेकों उदाहरण मिल सकते हैं। जैसे आप यहाँ से जाने का उद्यम न करें, फिर कैसे मकान पर पहुँच सकते हैं । रसोई की सब सामग्री होने पर भी बनाने का उद्यम न करें फिर कैसे रसोई बन सकती है। भोजन का ग्रास मुह में डाला है पर उसे गले उतारने का उद्यम न करें फिर वह कैसे क्षुधा को शान्त कर सकता है । इत्यादि अनेक उदाहरण विद्यमान हैं कि व्यवहार बिना निश्चय काम नहीं देता है। हां, निश्चय से ही व्यवहार चलता है। जैसे निश्चय कार्य है तब व्यवहार कारण है पर कारण विना कार्य बन नहीं सकता है जैसे एक भाई निश्चय को प्रधान मान कर व्यवहार का अनादर करता था तब दूसरा भाई व्यवहार को प्रधान समझ कर निश्चय को नहीं मानता था। इन दोनों में इस विषय पर काफी वाद-विवाद हो गया । अतः वे राजा के पास इंसाफ करवाने के लिए गये । दोनों की बातें सुन कर राजा विचार में पड़ गया कि अब मैं किसको सच्चा और किसको झूठा कहूँ । राजा ने इस कार्य को प्रधान पर छोड़ दिया जो स्याद्वाद सिद्धान्त को मानने वाला था । प्रधान ने एक मास की तारीख डाल दी । इतने समय में एक छोटा-सा कमरा बनाया, उसकी दीवार में एक छोटा-सा आला रक्खा,उसमें एक छावमें चार लड्डू और जल का एक कोराघड़ा भरकररख दिया और उस पर पत्थर चुना ऐसा लगा दिया कि किसी को मालूम न पड़े । जब एक मास के अन्त में उन दोनों की पेशी हुई और वे दोनों हाजिर हुये तो उन दोनों को उस कमरे में डाल कर कपाट बन्द कर दिये । उनकी वार्तालाप सुनने को एक गुप्त श्रादमी को रख दिया। निश्चयवादी तो चुपचाप सो गया पर व्यवहारवादी ने कहा-भाई सोने से क्या होगा कुछ उद्यम ( व्यवहार ) करिये । निश्चयवादी ने कहा-व्यवहार में क्या धरा है। आखिर तो निश्चय होगा वही होगा । खैर व्यवहारवादी ने दो दिन उद्यम किया कुछ प्राप्ती नहीं हुई पर तीसरे दिन कमरे के भीतर एक दीवार पर मुक्का मारने पर मालूम हुआ कि यहाँ पोलार है। उसने हाथ से या लोहे की चाबी से भींत को खोदा और चुना एवं पत्थर को हटाया तो अन्दर लड्डू और जल पाया । तब निश्चयवादी को कहा भाई तेरा निश्चय तो मर जाने के अलावा कोई फल नहीं देता है, पर देख मेरे व्यवहार से लड्डू और जल मिल गया है । उठ इसे खा कर प्राण बचा ले ! बस चार लड्डू में से दो निश्चयवादी को दे दिये और दो अपने ले लिये । निश्चयवादी लड्डू तोड़ कर खाने लगा तो लड्डू के अन्दर एक बहुमूल्य रत्न निकला जिसको गुप्त रूपेण अंटी में दबा लिया । चौथे दिन उन दोनों को कचहरी में Jain EVO & International For Private & Personal use only [प्रधान के इन्साफ की युक्ति.org Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ बुलाया और पूछा कि तुम्हारा इंसाफ हो गया ? दोनों ने कहा कि अच्छी तरह से यानी व्यवहारवादी बोला कि मेरा व्यवहार ही प्रधान है कि दोनों के प्राण बचाये । निश्चयवादी ने कहा मेरा निश्चय ही प्रधान है कि अमूल्य रत्न हाथ लग गया। इस पर प्रधान ने कहा कि तुम दोनों मिलकर चलोगे तो ही फल प्राप्त होगा । यदि उधम न करता तो भोजन एवं रत्न कहां से मिलता, फिर भी व्यवहार का फल केवल लड्डू और जल जितना ही था, पर निश्चय का फल रत्न तुल्य है । अतः निश्चय को प्रगट करने के लिये व्यवहार को उपादेय माना करो। दोनों मंजूर कर अपने में स्थान चले गये। सूरिजी महाराज के उदाहरण ने पृच्छक पर ही नहीं पर आम सभा पर भी बड़ा भारी प्रभाव डाला और स्याद्वाद पर जनता की विशेष श्रद्धा अम गई । समय परिवर्तनशील है। पूर्व जमाने में निश्चय को मुख्य और व्यवहार को गौण समझा जाता था । उस समय दुनियां को इतना सोच फिक्र एवं आर्तध्यान नहीं था । अर्थात् कुछ भी हानि लाभ होता तो भी इतना हर्ष शोक नहीं होता था कारण वे जान जाते थे कि निश्चय से ऐसा ही होने वाला था पर जब से निश्चय को गौण और व्यवहार को मुख्य माना जाने लगा तब से जनता में सोच फिक्र और आर्तध्यान बढ़ने लग गया । कारण जिस सुख दुख का कारण कर्म समझा जाता था उसके बदले व्यक्ति को समझा जाने लगा । इससे ही आपसी राग-द्वेष वैर-विरोध को वृद्धि हुई है अतः जैनधर्म के सिद्धान्त के जानने बालों को निश्चय को प्रधान और व्यवहार को गौण की मान्यता रखनी चाहिये संचित कर्म समझ समभाव से भोग लेवे । अतः निश्चय पर अडिग रहना चाहिये । सुख दुख को पूर्व आचार्य रत्नप्रभसूरि ने प्रथम रत्नप्रभसूरि की तरह कई मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित किये। कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई। कई बार तीर्थों की यात्रा निमित्त संघ निकलवाये । कई बादी प्रतिवादियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजय वैजंती ध्वजा फहराई और अनेक मुमुक्षुत्रों को दीक्षा दे श्रमण संघ में वृद्धि की । सिन्ध भूमि उस समय उपकेशगच्छजचार्यों की एक बिहार भूमि थी । वहां से पंजाब भूमि में पधार कर अपने साधुओं की सार-संभाल की और दीर्घ समय से वहां जैनधर्म के प्रचारार्थ किये हुये कार्यों की सराहना कर उनके उत्साह को बढ़ाया। सावत्थनगरी में महामहोत्सवपूर्वक कई योग्य मुनियों को पदस्थ बनाये वहां से तक्षिलादि नगरों में बिहार किया और शालीपुर के मंत्री महादेव के संघ के साथ सम्मेतशिखरजी की तीर्थों की यात्रा की और राजगृह चम्पा भद्दलपुर पावापुरी काकंदी विशालादि पूर्व की यात्रा करते हुए कलिंग में पधारे कुँवार कुँवारी वगैरह क्षेत्रों की स्पर्शनाकर श्रावंती मेदपाट में धर्मोपदेश करते हुये पुनः मरुधर की ओर पधारे। आचार्य रत्नप्रभसूरि मरुधर में विहार करते हुए एक समय वीरपुर नगर की ओर पधारे वीरपुर में नास्तिक वाममार्गियों का खूब अड्डा जमा हुआ था वहां का राजा वीरधवल उन नास्तिकों को मानने वाला था यथा राजास्तथा प्रजा १ इस युक्ति अनुसार नगर के बहुत लोग उन पाखण्डियों के भक्त थे । श्राचार्य रत्नप्रभसूरि ( प्रथम ) श्रादि श्राचार्यों ने वाममार्गियों के मिथ्या धर्म का उन्मूलन कर दिया था पर फिर भी ऐसे श्रज्ञात नगरों में उन लोगों के अखाड़े थोड़ा बहुत प्रमाण में रह भी गये थे पर उनके लिए भी जैनाचाय का खूब जोरों से प्रयत्न था । और इस लिये ही सूरिजी का पधारना हुआ था । वीरपुर के राजा का कुँवर वीरसेन की शादी उपकेशपुर की राजकन्या सोनलदेवी के साथ हुई थी Jain E सूरिजी बीरपुर नगर में ] www.grary.org Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सोनलदेवी जैनधर्म की पक्की श्राविका थी उसने अपने श्वसुराल में जैनधर्म का प्रभाव को अच्छी तरह से कैला दिया था आचार्य रत्नप्रभसूरिजी उस सोनलदेवी की विनती से ही पधारे थे जब सोनलदेवी कों मालूम हुआ कि आचार्य रत्नप्रभसूरि पधार रहे हैं तो उसने गुरु महाराज के स्वागत की अच्छी तैयारी की तथा वहां के श्रीसंघ ने भी सूरि जी महाराज का सुन्दर स्वागत किया और सूरिजी को नगर प्रवेश करवाये। सरिजी का व्याख्यान सदा हुआ करता था आपका उपदेश में न जाने ऐसा कोई जादू था कि वहां के राजकुँवार वीरसेनादि बहुत से नर नारियों को जैनधर्म की दीक्षा देकर उन सब का उद्धार किया। राज. कुँवार वीरसेन को दीक्षा देकर सूरिजी ने उनका नाम मुनि सोमकलास रखा था मुनि शोमकलस दीक्षा लेते ही ज्ञानाभ्यास करने में लग गया मुनि सोमकलस ने पूर्व जन्म में उम्वल भावों से ज्ञानपद एवं सरस्वती की आराधना की थी कि थोड़ा ही समय में विद्वान बन गया अतः सूरिजी ने सोमकलस को उपाध्याय पद से विभूषित कर दिया। उपाध्याय सोमकलस का व्याख्यान बड़ा ही मधुर रोचक और युक्ति पुरसर था कि सुनने वालों पर बड़ा ही प्रभाव पड़ता था इतना होने पर भी उपाध्यायजी गुरुकुलवास से दूर रहना नहीं चाहते थे एक समय सूरिजी ने सिन्ध प्रान्त में विहार किया रास्ता में छोटे छोटे गांव आने के कारण उपाध्याय सोमकलस को कई साधुओं के साथ अलग बिहार करवाया अतः उपाध्यायनी एक दिन विहार कर पड़सोली ग्राम जा रहे थे परन्तु ग्राम में नहीं पहुँचने पहले ही सूर्य अस्त हो गया अतः साधु वृक्षों के नीचे ठहर गये उपाध्याय जी पास ही में निर्जीव भूमिका देखी तो वहां ठहर गये परन्तु वहां थे श्मशान रात्रि समय जब आप ध्यानास्थित थे तो एक देवी महा भयंकर रूप बना कर उपाध्यायजी के पास आई और मारी क्रोध के कई उपद्रव करने शुरू किये पर उपाध्यायजी थे वीर क्षत्री वे अपने ध्यान से तनक भी क्षोभ न पाये-अतः देवी हताश होकर एक सुन्दर देवांगना का रूप बना कर अनुकूल उपसर्ग देने लगी फिर भी आप तो मेरु पर्वत की भांति अडिग ही रहे आखिर देवी अपने जितने उपाय थे सब के सब आजमाइश कर लिये पर वीर उपाध्यायकी मनसा से भी चलायमान नहीं हुए। इस सहनशीलता को देख देवी प्रसन्न होकर अर्ज की कि हे प्रभो ! मैंने अज्ञानवश आपको कई प्रकार से उपसर्ग किया उसकी तो आप क्षमा करें और मैं आज से आपकी किंकरी हूँ जिस समय आप याद फरमावे उसी समय मैं सेवा में हाजिर होकरश्रापका कार्य करने की प्रतिज्ञा करती हूँ। कृपा कर मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार करावे उपाध्यायजी ने अपना ध्यान पार कर कहा देवी हम साधु लोग तो उपसर्ग एवं परिसह सहन करने के लिए ही साधु हुए हैं इससे मेरी दृष्टि से तो आपका कोई अपराध नहीं हुआ है कि जिसकी मैं आपको माफी दू दूसरा आपने प्रतिज्ञा की यह अच्छी ही है पर हम साधु लोगों के क्या काम होता है कि आपसे करावें हाँ, शासन कार्य के लिये क्या आप और क्या मैं अपना कर्तव्य ही समझते हैं पूर्व जमाना में आचार्य रत्नप्रभसूरि के कार्य में साच्चायिका देवी और श्राचार्य यक्षदेवसूरि के कार्य में मातुलादेवी सहायक पन शासन के कार्य में मदद पहुँचाई है अाप भी उनका अनुकरण कीजिये । देवी ने तयाऽस्तु कह कर उपाध्यायजी को 'वादविजयता' वरदान देकर उपाध्यायजी को वन्दन कर अपने स्थान पर चली गई। सुबह उपाध्यायजी अपने मुनियों के साथ विहार कर पाड़सोला होकर तीतरपुर पधारे वहां जैनों की काफी पसती होने पर भी किसी जैन को नहीं देखा नगर में जाने पर उपाध्यायनी महाराज को मारम हुमा कि Jain Edgecenternational For Private & Personal use only [ वीर उपाध्यायजी और देवी ... sarv.org Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ यहां उपकेशगच्छ के साधु हैं और किसी कृष्णाचार्य के साथ राज सभा में वाद विवाद करने को गये हैं और सबजैन लोग भी मुनियों के साथ राज सभा में गये हैं अतः कोई भी जैन सेवा में हाजिर नहीं हो सका बस फिर तो देरी ही क्या थी पाध्यायजी बिना आहारपानी किये और बिना बिलम्ब राज सभा में गये मुनियों ने उपाध्यायजी का स्वागत कर आसन दिया उपाध्यायजी ने शास्त्रार्थ की विषय अपने हाथ में ली तो क्षण भर में ही वादी को पराजय कर उस सभा के अन्दर जैनधर्म को विजय पताका फहरा दी इतना ही क्यों पर वहां के राजा प्रजा को जैनधर्म की दीक्षा शिक्षा देकर उन सब को जैन बनाया जिससे वहां का श्रीसंघ बड़ा ही प्रसन्न चित्त हो गाजा बाजा और जिनशासन की जयध्वनि के साथ उपाध्यायजी महाराज को उपाश्रय पहुँचाये-उपाध्यायजी महाराज की यह पहला पहल ही विजय थी। ___ उपाध्यायजी क्रमशः विहार करते हुए सूरिजी महाराज के पास आये और सब हाल कहने पर सूरिश्वरजी महाराज बड़े ही प्रसन्न हुए सूरिजी महाराज सर्वत्र विहार कर पुनः मरूधर मैं पधारे और उपाध्याय सोमकलस की इच्छा वीरपुर की स्पर्शना करने की हुइ अतः सूरिजी विहार कर वीरपुर पधारे बस फिरतो कहना ही क्या था एक तो सूरीश्वरजी का पधारना दूसरा उपाध्यायजी इस नगर के राजकुवार थे और लेख पढ़कर एवं विद्वता प्राप्त कर पुनः पधारे अतः जनता के दिल में बड़ा भारी उत्साह था वहां का राजा देवसेनादि श्रीसंघ ने सूरिजी के नगर प्रवेश का अच्छा महोत्सव किया और श्रीसंघ की अाग्रह विनति से सूरिजी एवं उपाध्यायजी महाराज ने वह चतुर्मास वीरपुर में करने का निश्चय करलिया आपके चतुर्मास से वहां की जनता को बहुत लाभ हुआ आचार्यरत्नप्रभसूरिने उपाध्याय सोमकलस को सूरिमंत्र की आराधना करवा कर राजा देवसेन के बड़ाभारी महोत्सव के साथ उपाध्याय सोमकलस को सूरि पद से भूषीत कर आपका नाम यक्षदेवसूरि रक्ख दिया इन के अलावा भी कई योग्य मुनियों को पदवियों प्रदान की। उपकेशगच्छाचार्यों की यह तो एक पद्धति ही बनगई कि जब वे गच्छ नायकसा का भार अपने सिर पर लेते थे तब कम से कम एक बार तो इन सब प्रदेशों में उनका विहार होता ही था। कारण इन प्रदेशों में महाजन संघ-उपकेशवंश के लोग खूब गहरी तादाद में बसते थे और उनके उपदेश के लिये इस गच्छ के अनेकों मुनि एवं साध्विये विहार भी करते थे। फिर भी आचार्यश्री के पधार ने से श्रादवर्ग में उत्साह बढ़ जाता था और मुनिवर्ग की सारसँभाल हो जाती थी । दीर्घकाल सूरिपद पर रहने वाले आचार्य तो इन प्रान्तों में कई बार भ्रमण किया करते थे । पट्टावलियों में तो आचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी के भ्रमण का हाल बहुत विस्तार से लिखा है पर ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से मैंने यहाँ संक्षिप्त से ही लिख दिया है कि आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाप्रभाविक जिनशासन के स्थम्भ एक प्रतिभाशाली प्राचार्य हुये हैं। श्राप अपने ६३ वर्ष के सुदीर्घ शासन में अनेक प्रकार से जैनधर्म की उन्नति कर अपनी धवल कीर्ति को अमर बना गये। और हम लोगों पर इतना उपकार कर गये हैं कि जिसको हम क्षण भर भी नहीं भूल सकते । कोरंटगच्छ के प्राचार्य सर्वदेवसूरि जैनधर्म के प्रखर प्रचारक थे । एक समय विहार करते कोरंटपुर पधारे। वहां पर देवी चक्रेश्वरी ने एक समय रात्रि में सूरिजी से अर्ज की हे प्रभों ! आपका आयुष्य अब बहुत कम है श्राप किसी योग्य शिष्य को सूरिपद देकर अपने पहपर प्राचार्य बना दीजिये । सूरिजी ने कहा देवीजी ठीक है मैं समय पाकर ऐसा ही करूंगा। प्राचार्य श्री ने विचार ही विचार में कई अर्सा निकाल दिया और अकस्मात एक ही दिन में आपका शरीर छुट गया कि वे अपने हाथों से प्राचार्य नहीं कोरंटपुर में आचार्य पद ] For Private & Personal use only wwwww.४७९y.org Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बना सके । कोरंटसंघ ने सूरिजी की मृत्यु क्रिया करने के पश्चात् चतुर्विध श्रीसंघ एकत्र होकर विचार किया कि सूरिजी अपने हाथों से अपने पट्टधर बना नहीं सके पर आचार्य बिना गच्छ का संचालन कौन करेगा ? अतः वे लोग चलकर आचार्य रत्नप्रभसूरि के पास गये और प्रार्थना की कि प्रभो ! कोरंटगच्छ इतना बड़ा गच्छ है पर इस समय कोई आचार्य नहीं है अतः आप कोरंटपुर पधार कर योग्य मुनि को आचार्य बनावें इत्यादि इस पर आचार्य रत्नप्रभसूरि कोरंटपुर पधारे और कोरंटगच्छ में एक सोमहंस नाम का अच्छा विद्वान एवं योग्य मुनि था जिसको सूरि मन्त्र की आराधना करवा कर शुभ मुहुर्त में श्रीसंघ के समक्ष प्राचार्य पर से विभूषित किया और आपका नाम कनकप्रभसूरि रक्खा इस पद महोत्सव में कोरंटसंघ ने सवा लक्ष द्रव्य व्यय कर जिनशासन की अच्छी प्रभावना की । पूर्व जमाने में गच्छ अलग २ होने पर भी आपस में कितना प्रेम स्नेह और एक दूसरे की उन्नति में किस प्रकार सहायक बनते थे जिसका यह एक उज्ज्वल उदाहरण है । इस प्रकार का धर्म प्रेम से ही जैनधर्म उन्नति के शिखर पर पहुँच गया था। इस प्रकार आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने अपने शासन में जैनधर्म का खूब प्रचार बढ़ाया जहां-जहां आप पधारे वहां वहां जैनधर्म की प्रभावना के साथ महाजन संघ की खूब वृद्धि की कई भवुकों को दीक्षा प्रदान कर श्रमण संघ की संख्या बढ़ा कर प्रत्येक प्रान्तों में साधुओं को विहार की आज्ञा दी और चतुर्विध श्री संघ के ज्ञानवृद्धि के निमित्त अनेक ग्रन्थों की रचना भी की अन्त में आप उपकेशपुर पधारे और अपना आयुष्य नजदीक समझ कर चतुर्विध श्रीसंघ के समीक्ष आलोचना कर अनशनव्रत धारण कर लिया और ३२ दिन परम समाधि में बिता कर स्वर्गधाम पधार गये। प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के ६३ वर्ष के दीर्घशासन में शासनोन्नति के अनेक कार्य हुए जिसका वर्णन पट्टावलियों वंशावलियों आदि अनेक ग्रन्थों में विस्तार से मिलते हैं पर ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से उन सब को मैं यहाँ पर नहीं लिख सकता हूँ तथापि नमूना के तौर पर कतिपय नामोल्लेख कर देता हूँ। प्राचार्य श्री के उपदेश से भावुकों ने दीक्षा ग्रहण की १--उपकेशपुर के कुमट गोत्रिय गणधर ने सूरिजी के पास दीक्षा ग्रहण की। २-- उपकेशपुर के भद्रगोत्रिय सलखणादि ने दीक्षा ली।। ३...-नागपुर के आदित्यनाग गोत्रीय शा पुनड़ ने दीक्षा ली। ४-संखपुर के सुचंती गोत्रिय १६ साथियों के साथ हरदेव ने दीक्षा ली । ५-मुग्धपुर के बापनाग गोत्रिय देवपाल ने सपत्नी दीक्षा ली। ६-काकंदड़ा के कुलभद्रगोत्रिय शाहा नेना ने चार मित्रों के साथ दीक्षा ली। ७-पद्मावती के क्षत्रिय वीरमदेव ने दीक्षा ली। ८-- चन्द्रावती के लुंग गोत्रिय मघवा ने ११ भावुकों के साथ दीक्षा ली। ९-भद्रावती के ब्राह्मण जयदेव ने अपने तीन मित्रों के साथ दीक्षा ली। १०-कोरंटपुर प्राग्वट वंश के शाह पोपा ने सपत्नी दीक्षा ली। ११-भोपाणी के प्राग्वटवंश के शाह कुरा ने दीक्षा ली। १२ -विद्यापुर के श्रीमाल रामदेव ने १९ साथियों के साथ दीक्षा ली । Jain Ed86 international For Private & Personal use Only [ सूरिजी के करकमलों से दीक्षाएँ - For Private & Personal Use On frary.org Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ १३- चंदेरी बापनाग गोत्रिय शाह रांगा अपने पुत्र के साथ सूरिजी के पास दीक्षा ली । १४ - विलासपुर के सुचंति गोत्रिय शाह नागा ने १५ - जालौन० आदित्यनाग गोत्रिय शाह देवा ने सू‍ १६ - रत्नपुरः श्रोष्टिगोत्रिय शादूल ने १७- खोखर - प्राग्वट वंशीय देपाल ने १८ - नलिया - श्रीमाल रेखाने १९ - करणावती - श्रीमाल साहब सेवा ने २० - सीपार - श्रेष्टिगोत्रिय चाड मन्त्री ने २१ - सालीपुर - प्राग्वट० पेथा ने अपनी स्त्री और दो लड़कियों के साथ २२ - लोहरा - - ब्राह्मण सदाशिव ने २३ - धामाणी -- डिडूगौत्रिय नागादि ९ मनुष्यों ने २४ - रामपुर - भूरगोत्रिय हरदेव ने २५ - चोलीग्राम- बलाहगोत्रिय नागदेव ने २६ -- जासोलिया - कुलभन्द्र गौत्रिय हेमा नेमा ने २७ - वैणीपुर -- विरहट गोत्रिय काना ने 19 "" सूरिजी के शासन में धर्म कार्य } "" 59 "" 99 "" 39 "" 13 "2 "" ," दी० 33 93 "" "" "" "" ," "" "" "" यह तो केवल उपकेश वंश वालों के ही नाम लिखा है इनके अलावा महाराष्ट्रीय सिन्ध पंजाब are देशों के सैकड़ों नर-नारियों की सूरिजी एवं आपके शिष्यों के कर कमलों से दीक्षा हुई थी पर वंशावलियों में उनके नाम दर्ज नहीं हैं खैर इस प्रकार दीक्षा लेने से ही इस गच्छ में हजारों की संख्या में मुनि भूमण्डल पर विहार कर जनकल्याण के साथ शासन की प्रभावना करते थे । आचार्य श्री के शासन समय तीर्थों के संघ 39 "" १ - चन्द्रावती के प्राग्वटवंशीय वीरम ने तीर्थराज श्री शत्रुंजयादि का संघ निकाला जिसमें सात लक्ष द्रव्य व्यय किया सोना मोहरों की लेन एवं पेहरामणि दी । २ -- मेदनीपुर के सुघड़ गोत्रिय शाह लुगा ने श्री शत्रुंजय का संघ निकाला जिसमें सवा लक्ष द्रव्य व्यय किया संघ को पहरामणी दी और सात यज्ञ ( जीमणवार ) किये | ३ - उपकेशपुर के श्रेष्टि गोत्रिय मन्त्री दहेल ने श्री सम्मेत शिखरादि पूर्व के तीर्थों का संघ निकाला जिसमे' नौ लक्ष द्रव्य व्यय किया । साधर्मी भाइयों को पांच सेर का लड्डू के अन्दर पांच पांच सोना मोहरों की पहरामणी दी और सात यज्ञ (स्त्राधार्मिक वात्सल्य ) किये । 39 ४ -- डाबरेल नगर के मन्त्री हनुमत्त ने श्री शत्रुंजय का संघ निकाला तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया ५- पद्मावती के मन्त्री राणा ने शत्रुरंजय का संघ निकाल पुष्कल द्रव्य व्यय किया । ६ - आलोट के प्राग्वट नोढा नोधण ने शत्रुरंजय का संघ निकाल पांच लक्ष द्रव्य व्यय किया । ७ - स्थम्मनपुर के प्राग्वट हरपाल ने शत्रु जय का संघ निकाला जिसमें एक लक्ष द्रव्य व्यय किया । ८ - मथुरा के आदित्यनाग गोत्रीय कल्हण ने सम्मेत शिखर का संघ निकाला । ४८१ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ९-शकम्भरी के चिंचट गोत्रीय भूरा राजा ने शत्रुजय का संघ निकाला। १०--वैराट नगर के बलाह गोत्रिय शाह राजल ने शत्रुजय का संघ निकाला । ११-जावलीपुर के श्रीमाला नाथा ने शत्रुजय का संघ निकाला। इनके अलावा आपश्री के शिष्यों प्रशिष्यों के उपदेश से भी कई प्रान्तों से अनेक बार संघ प्रस्थान कर तीर्थों की यात्रा की ओर जीवन को पावन बनाया था। प्राचार्य श्री के उपदेश से मन्दिरों की प्रतिष्ठा हुई १-मापाणी ग्राम में सुचेती गोत्रीय शाह नांधण के बनाये पार्श्वनाथ मंदिर की प्र० कराई २-विजयपुर में तप्तभट गोत्रीय सुगाल के बनाये विमलदेव के मं० की प्र० कराई। ३-पीतलिया ग्राम में भद्र गोत्रिय स्ग्राम के बनाये शान्तिनाथ मं० की प्र० कराई । ४- ब्रह्मपुरा ग्राम के भूरि गोत्रीय कल्हण के बनाये महावीर मं० की प्र० कराई। ५-गगनपुर में ब्राह्मण जगदेव के बनाये महावीर मं की प्र० कराई। ६-चन्द्रवती बनमाली सरूप के बनाये महावीर मँ० की प्र० कराई। ७-दान्तीपुर श्री श्रीमाल भीखा के बनाये पार्श्वनाथ मं० की प्र० कराई। ८- श्राघाट नगरे चिंचट गोत्रीय शा० भूरा के बनाये महावीर म० की प्र० कराई। ९-दशपुर नगरे बाप्पनाग गोत्रीय हणमत के बनाये महावीर मं० की प्र. कराई । १०-पालोट नगरे मोरक्षा गोत्रिय चोखा शाह के बनाये महावीर म० की प्र० कराई। ११ - लोहाकोट कर्णाटगोत्रीय धनपाल के बनाये महावीर मं० की प्र० कराई। १२-हर्षपुरे श्रेष्ठि गोत्रीय करणा के बनाये पार्श्व० म० की प्र० कराई। १३--- कन्नौज नगरे वीरहट गोत्रीय भाणा के बनाये महावीर म० की प्र० कराई। १४-डिडुनगरे डिडुगोत्रीय शा० जोगा के बनायें महावीर म० की प्र० कराई। यह तो केवल नमूने के तौर पर लिखा है पर इतने सुदीर्घकाल में स्वयं प्राचार्यश्री तथा आपश्री के आज्ञावृति मुनियों के उपदेश से तीर्थों के संघ भावुकों की दीक्षा और मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाओं के विषय में तथा एक एक प्राचार्यों ने जो शासन का कार्य किया है उसको लिखा जाय तो एक स्वतंत्र ग्रन्थ बन जाता है । आचार्यश्री के उपदेश से लाखों मांस मदिरा सेवियों ने जैनधर्म स्वीकार किया था । यही कारण था कि उस समय जैनों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी। इस प्रकार उन आचार्य देवों का जैन समाज पर इतना उपकार हुआ है कि जिसको हम एक क्षण भी नहीं भूल सकते। पट्ट सोलहवें अतिशय धारी, रत्नमम सूरीश्वर थे। प्रतिभाशाली उपविहारी, अज्ञ हरण दिनेश्वर थे॥ प्रथम पूज्य का पढ़ कर जीवन, ज्योति पुनः जगाई थी। करके नत मस्तक वादी का, धर्म की प्रभा बढ़ाई थी। ॥ इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के १६ वें पट्ट पर आचार्य रत्नप्रभसूरि महाप्रभावी हुये ।। Jain Ed 8 Rnternational For Private & Personal use only [ आचार्य रत्नप्रभसूरि any.org Atarv.oro Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५ भगवान् महाकीर की परम्परा आर्य ब्रजस्वामि-आचार्यश्री बज्रस्वामि जैनसंसार में खूब प्रतिष्ठित हैं भाप अनेक लब्धियें विद्याओं और अतिशय चमत्कारों से जैन धर्म की बड़ी भारी उन्नति की थी आपके नाम की स्मृति रूप वज्री शाखा चली थी जिसके प्रतिशाखा रूप अनेक गच्छ हुए थे आपश्री का अनुकरणीय जीवन संक्षिप्त से यहाँ लिखा जाता है। उस समय मालवा नामक देश बड़ा ही उन्नत समृद्धिशाली और धन-धान्य पूर्ण था उसमें एक तुंबवन नामक ग्राम था वहां वैश्यकुल में सिंहगिरि नाम का बड़ा ही धनाढ्य श्रेष्ठि वसता था । उसके धनगिरि नाम का पुत्र था और उसी नगर में धनपाल नाम का सेठ था जिसके सुनंदा नाम की पुत्री थी जिसकी शादी धनगिरि के साथ कर दी थी । बाद धनगिरि का पिता सिहगिरि ने आचार्यश्री दिन्न के पास दीक्षा ग्रहण करली थी । जब धनगिरि के सुनन्दा स्त्री गर्भवती थी उस समय धनगिरि ने भी वैराग्य की धुन में संसार को असार जानकर आचार्य सिंहगिरि के पास दीक्षा लेली बाद सुनन्दा के पुत्र हुभा पर उसको बाल्यावस्था में ऐसा ज्ञान (जातिस्मरण) उत्पन्न हुआ कि उसकी भावना दीक्षा लेने की होगई किन्तु उस वाल्यावस्था में दीशा किस तरह लीजाय उसने अपनी दीक्षा का एक ऐसा उपाय सोचा कि रात्रि दिन रुदन करना प्रारंभ कर दिया जिससे उसकी माता सुनन्दा घबरा गई और बार-बार कहने लगी कि इस पुत्र के पिता ने दीक्षा लेली और यह पुत्र की आफत मेरे शिर पर छोड़ गये सुनन्दा अपनी सखियों को कहा करती थी कि यदि इस लड़का का पिता कभी यहाँ आ जाय तो मैं इस पुत्र को उनको सोंप वर सुखी बन जाऊँ इत्यादि ! भाग्यवसात् आर्यधनगिरि अपने गुरु के साथ विहार करते हुए उसी तुंबधन ग्राम में आ गये। गुरु महाराज ने निमित्त ज्ञान से जानकर धनगिरि को कहा कि है मुनि ! आज तुमको जो सचित अचित एवं मिश्र कुच्छ भी पदार्थ मिले वह ले आना। मुनि । समित के साथ धनगिरि भिक्षार्थ ग्राम में गया । फिरता फिरता सुनन्दा के घर पर आ निकला। सुनंदा पहिले से ही पुत्र के रुदन से केटाल गई थी ! मुनि धनगिरि को श्राया देख उसकी सखियों ने कहा कि हे सखी ! इस बालक का पिता मुनि आगया है। इस बालक को देकर तू सुखी बन जा जो तु पहला कहा करती थी। यह तेरे लिये सुअवसर है । बस सुनन्दा ने मुनि धनगिरि से कहा कि आप अपने पुत्र को ले जाइये मैं तो इसके रुदन से घबरा गई हूँ । मुनि ने कहा x ममापि भवनिस्तारः संभवी संयमादि । अत्रोपायं व्यमृक्षच्च रोदनं शैशवोचितम् ॥ ५१ ॥ x तत्र गोचरचर्यायां विशन्धनगिरिमुनिः । गुरुणा दिदिशे पक्षिशब्दज्ञाननिमित्ततः ॥ १३ ॥ + अद्य यद्रव्यमानोषि सचित्ताचित्तमिश्रकम् । ग्राह्यमेव त्वया सर्व तद्विचारं विना मुने ॥ ५७ ॥ तथेति प्रतिपदानस्तदार्यसमितान्वितः । सुनन्दासदनं पूर्वमेवागच्छदतुच्छधीः ॥ ५८ ॥ तदर्भलाभ श्रवणादुपायातः सखी जनः । सुनन्द प्राह देहि त्वं पुत्रं धनगिरेरिति ॥ ५९ ॥ सापि निवेदिता बाडं पुत्रं संगृह्य वक्षसा । नत्वा जगाद पुत्रेण रुदता खेदितास्मिते ॥ ६ ॥ गृहागैनं ततः स्वस्य पार्वे स्थापय चेत्सुखी। भवत्यसौ प्रमोदो मे भवत्त्वेतावतापि यत् ॥ ६ ॥ स्फुटं धनगिरिः प्राह ग्रहीये नन्दनं निजम् । परं स्त्रियो वचः पंगुवन्न याति पदात्पदम् ॥ ६२ ॥ क्रियन्तां साक्षिणस्तत्र विवादहतिहेतवे । अद्यप्रभति पुत्रार्थे न जलप्यं किमपि त्वया ॥ ६३ ॥ आचार्य बज्रसूरी की दीक्षा] ४८३ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्षे ] [भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कि स्त्रियों के कहने पर विश्वास नहीं किया जाता है अभी तो दुख के मारी तू पुत्र को मुझे देती है पर फिर बाद में कभी मांगा तो पुत्र तुमको नहीं दिया जायगा । सुनन्दा ने कहा मैं कभी पुत्र को नहीं मांगूंगी। इसके लिये मुनि समित एवं मेरी सखियां साक्षी देंगी। बस ! धनगिरि छः मास का पुत्र को मोली में डाल कर गुरु महाराज के पास ले आया और गुरु ने मोली को हाथ में ली तो उसमें वजन बहुत था । गुरु ने कहा कि हे मुनि ! तू क्या आज वज्र लाया है। यही कारण था कि उस बालक का नाम वज्र रख दिया । वज्र बालक होने के कारण शय्यात्तर एवं गृहस्थों को सौंप दिया कि वे पालन पोषण करें। तथा उनके संस्कारों के लिये साध्वियों के उपाश्रय रखने की भी आज्ञा दे दी थी सुनन्दा भी वहाँ आया करती थी। कभी कभी साध्वियों से पुत्र वापिस देने की प्रार्थना भी किया करती थी पर साध्धियां कह देती थीं कि बेहराया हुआ बालक वापिस नहीं दिया जाता है, इस पर भी तुमको पुत्र की जरूरत हो तो गुरु महाराज के पास जाओ और वे जैसी आज्ञा दें बैसा करो इत्यादि । जब साध्वियां सूत्र की स्वाध्याय करती थी तो बालक बज्र ने सुनने मात्र से एकादशांग का अध्ययन कर लिया। इस प्रकार बज्र ३ वर्ष का हो गया। अब तो सुनंदा को पुत्र प्रति पूरा मोह लग गया और बार २ पुत्र की याचना करने लगी पर मुनि धनगिरि ऐसा शासन का भावि प्रभाविक पुत्र को कब देने वाला था। आखिर सुनन्दा राज में गई राजा ने दोनों के बयान लिये और कहा कि अपनी-अपनी कोशिश करो। बच्चे का दिल होगा उसको दिया जायगा । एक तरफ तो साधुओं ने ओघा पात्रे रख दिये और दूसरी ओर सुनन्दा ने सांसारिक मोहक पदार्थ रख दिये और राज. सभा में बन को बुलाया । राजा ने कहा तुमको प्रिय हो वही लेलो बन्न ने मोहक पदार्थों को छोड़ श्रोधा पात्रा लेलिये । बस राजा ने बज को मुनियों के सुपुर्द कर दिया। उस समय बज की केवल ३ वर्ष की आयु थी। जब गुरु महाराज ने बजू को दीक्षा देने का निश्चय किया तो सुनंदा ने सोचा कि मेरे पति ने दीक्षा ली मेरा पुत्र दीक्षा लेने को तैयार होगया तो अब मैं संसार में रह कर क्या करूंगी मुझे भी दीक्षा लेना ही हितकारी है अतः बज्र और बन की माता ने गुरु महाराज के पास दीक्षा लेली युगप्रधान पट्टावली में बन का गृहस्थावास ८ वर्ष का बतलाया है शायद् सुनन्दा अपने पुत्र के लिये फिर कहीं तकरार न करे इसलिये वन को तीन वर्ष की आयु में साधु वेष दे दिया हो और बाद ८ वर्ष का होने पर दीक्षा दी हो तो यह संभव भी हो सकता है । दूसरे आगम व्यवहारियों के लिये कल्प भी तो नहीं होता है वे ज्ञान के जरिये भविष्य का लाभालाभ देखे वैसा ही कर सकते हैं जब तक बज्र मुनि आठ वर्ष के नहीं हुये वहाँ तक साध्वियों के पास रहा । तत्पश्चात बन कों दीक्षा देदी और मुनि वज्र गुरु महाराज के साथ विहार कर दिया। एक समय गुरु महाराज के साथ मुनि बज्र विहार करता हुआ एक जंगल में पहाड़ के पास जा रहा था । उस समय एक जम्भकदेव ने बन की परीक्षा के निमित्त वैक्रय से इतनी वर्षा की कि पृथ्वी जलमय हो गई । बा ने एक पर्वत की गुफा में जाकर ध्यान लगा दिया। तीन दिन तक पानी के जीवों की दया के * अतिखिन्ना च सावादीदवार्यसमितो मुनिः । साक्षी सख्यश्च साक्षिण्यो भाषे नातः किमप्यहम् ॥ ६४ ॥ वज्रोपमं किमानीतं त्वयेदं मम हस्तयोः । भारकृन्मुमुचे हस्तान्मयासौ निजकासने ॥ ६८॥ गुरुश्च वज्र इत्याख्यां तस्य कृत्वा समा (म) पयत् । साध्वीपाश्र्वाच्छाविकाणां व्यहार्षीदन्यतस्ततः ॥ ७० ॥ सतो विशेषिताकारं तदीयपरिचर्यया । तत्रायाता सुनन्दापि तं निरीक्ष्य दधौ स्पृहाम् ॥ ७४ ॥ प्र. च. ४८४ For Private & Personal use Only [भगवान् महावीर की परम्परा दावीर की परम्पराary.org 1 गाय ग.7.1 1. । Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ लेये मुनि बत्र एक गुफा में ठहर गया । देवता ने वर्षा बन्द कर वणिक का रूप धारण कर बज्र को गोचरी के लए आमंत्रण किया । बालमुनि गुरु श्राज्ञा लेकर गोचरी गया पर उपयोग से जान लिया कि यह देव पिण्ड है इसलिये भिक्षा नहीं ली । अतः देवता ने प्रसन्न हो बन्न के चरणों में वन्दना कर प्रशंसा की। दूसरी बार देवता ने गेवर बना कर बज्र की परीक्षा की पर बन ने अपने उपयोग से गेवर भी नहीं लिए । अतः देवता ने प्रसन्न हो कर बज्र को आकाशगामनी विद्या प्रदान की। एक समय सब साधु गौचरी गये थे । बन अकेलाही था उसने सब साधुओंकी उपाधी क्रमशः रखकर आप आगम की वाचना देनी शुरू की । इतने में आर्य सिंहगिरि बाहर जाकर आ रहे थे उन्होंने आगम के पाठ सुन कर विचार किया कि भिक्षा के समय मुनियों को आगमों की बाचना कौन दे रहा है ? जब उन्होंने उपयोग से मुनि बज्र को जाना तो बड़ा ही हर्ष हुआ। वे निशीही पूर्वक मकान में आये तो बन ने साधुओं की उपधि यथा स्थान रख दी। बाद दूसरे दिन आर्य सिंहगिरि बिहार करने लगे तो मुनियों ने कहा कि हमको बाचना कौन देगा ? इस पर प्राचार्यश्री ने कहा कि तुमको वाचना बज्र मुनि देगा। मुनियों ने स्वीकार कर लिया । अतः बज्र मुनि सब मुनियों को इस कदर की वाचना देने लगे कि साधारण बुद्धि वाले भी सुख पूर्वक समझने लग गये । अतः साधुओं कों वाचना के लिए अच्छा संतोष हो रहा था। कई दिन बाद गुरु महाराज वापिस आये और मुनियों को वाचना के लिये पूछा तो उन्होंने कहा कि हमको अच्छी वाचना मिलती है और सदैव के लिये हमारे वाचनाचार्य मुनि बज्र ही हों । आचार्यश्री ने कहा कि मैं इस लिये ही बाहर गया था। बाद प्रसन्नता पूर्वक आचार्यश्री दशपुर नगर आये और मुनि बत्र को आवन्ती नगरी की ओर भद्रगुप्त सूरि के पास शेष ज्ञान पढ़ने के लिये भेजा दिया । बत्र मुनि क्रमशः आवंति पहुँच गया पर समय हो जाने पर उस रात्रि में नगर के बाहर ही ठहर गये। तत्राप्य मानयन्ती सा गता राज्ञः पुरस्तदा । यतयश्च समाहूगाः संधेन सह भूभता ॥८॥ ततो माता प्रथमतोऽनुज्ञाता तत्र भूभृता । क्रीडनैर्भक्ष्यभोज्यैश्च मधुरैः सा न्यमंत्रयत् ॥४५॥ सते तथारिस्थिते राज्ञानुज्ञातो जनको मुनिः । रजोहरणनुद्यस्य जगादानपवादगीः ॥८६॥ ततो जयजयारावो मङ्गलध्वनिपूर्वकम् । समस्ततूर्यनादोर्जि सद्यः समनि स्फुटः ॥ एषणात्रितेयचेग्ययुक्तो भुक्तावनादतः तत्रबजोययोप्राप्य गुरोरनुमतिं ततः ॥१०३॥ द्रव्य क्षेत्र काल भावैरूपयोगं ददौचसः । द्रव्य कुष्माण्ड पाकादि क्षेत्र देशश्चामालवा ॥ १०४॥ कालोग्रीष्मस्तथाभावे विचार्ये निमिषा अमी, अस्पृष्ट भूक्रमान्यासा अम्लान कुसमस्रज ॥१०५॥ चरित्रिणां ततो देवपिण्डो न कलप्यते नहि । निषिद्धा उपयोगेन तस्य हर्ष परं ययुः ॥६०६॥ X - अन्यत्र विहरंतश्चान्यदा गीष्मतु मध्यतः । प्राग्वदेव सुरास्तेऽमुघृतपूरैन्य॑मन्त्रयन् ॥१०॥ वज्र तत्रापि नियूंढे विद्यां ते व्योमगामिनीम् । ददुर्न दुर्लभं किंचित्सद्भग्यानां हि तादृशाम् ॥ १०९॥ बाह्यभूमौ प्रयतिषु पूज्येष्वथ परेद्यवि । सदेषणोपमुक्त पु गीतार्थेषु च गोचरम् ॥११०॥ अवकाशं च बाल्यस्य ददच्चापलतस्तदा । सर्वेषामुपधी मग्राहं भूमौ निवेश्य च ॥११॥ वाचनां प्रददौ वज्रः श्रुतस्कन्धवजस्य सः । प्रत्येकं गुरुवक्रेण कथितस्यमहोद्यमात् ॥१२॥ श्रीमान्सिहगिरिश्चात्रान्तरे वसतिसन्निधौ । आययौ गर्जितौर्जित्यं शब्दं तस्याश्र्णोच्च सः ॥११३॥ दध्यौ किं यतयः प्राप्ताः स्वाध्यायैः पालयन्ति माम् ।निश्चित्यैकस्य शब्दं ते सोषतो बभुः ॥११॥ प्र० च० X dain Ed आचार्य बज्रसूरि का ज्ञानाभ्यास-] For Private & Personal use Only www४८५ary.org Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य भद्रगुप्त को रात्रि में एक स्वप्न आया । + वह सुबह अपने शिष्य को सुना रहे थे कि मेरा दूध भरा हुआ पात्र कोई मुनि आकर सब पी गया । इतने में ही वज्रमुनि आकर सूरिजी को वन्दन कर सामने खड़ा हुआ | सूरिजी ने सोचा कि यही मुनि मेरा दूध पीने वाला है। बस ! फिर तो देर ही क्या थी भद्रगुप्त सूरि ने पत्र को सब ज्ञान पढ़ा कर अपने गुरू के पास भेज दिया। पूर्व भव के मित्र देवता ने बड़ा भारी महोत्सव किया और गुरुराज ने मुनिबज्र को संघ समक्ष आचार्य पद पर स्थापन कर दिया । आचार्य बज्रसूरि विहार करते हुए पाटलीपुत्र नगर के उद्यान में पधारे। X पहिले दिन आपने विद्या सेना कुरूप बनाकर देशना दी तब दूसरे दिन असली रूप से उपदेश दिया । अतः आपकी महिमा नगर भर में फैल गई। उस नगर में एक धना नामक श्रेष्टि सप्तकोटि धन का मालिक रहता था उसके एक रुखमणि नामक पुत्री थी । रुखमणिने साध्वियों से बज्रसूरि की महिमा सुनकर प्रतिज्ञा करली कि मैं वर करूंगी तो सूरि को ही करूंगी वरना अग्नि की ही शरण लुंगी । सेठ अपनी रूप योवन और लावण्यादि गुण वाली पुत्री रुखमण को लेकर बज्रसूरि के पास आया और कहा कि हे मुनि ! मेरी पुत्री ने प्रतिज्ञा करली है | अतः मेरा सब धन लेकर मेरी पुत्री के साथ आप विवाह करो इत्यादि । + गत्वा दशपुरे वज्रमयन्त्यां मैपुरादृताः अध्येतु श्रुतशेषं श्रीभद्रगुप्तस्य संनिधौ ॥ १२७ ॥ स ययौ तत्र रात्रौ च पूर्वहिर्वासमातनोत् । गुरुरच स्वप्नमाचख्यौ निजशिष्याग्रतो मुदा ॥ १२८ ॥ पात्रं मे पयसा पूर्णमतिथिः कोऽपि पीतवान् । दशपूर्व्याः समग्रायाः कोऽप्यध्येत । समेष्यति ॥ १२९ ॥ इत्येवं वदतस्तस्य वज्र आगात्पुरस्ततः । गुरुश्चाध्यापयामास श्रुतं स्वाधीतमाश्रुतम् ॥ १३० ॥ x गुरौ प्रायादिवं प्राप्ते वज्रस्वामिप्रभुर्ययौ । पुरुं पाटलिपुत्राख्य मुद्याने समवासरत् ॥ ३४ ॥ अन्यदा स कुरूपः सन् धर्मं व्याख्यानयद्विभुः । गुणानुरूपं न रूपमिति तत्र जनोऽवदत् ॥ १३५ ॥ अन्ये चारुरूपेण धर्मख्याने कृते सति । पुरक्षोभभयात्सूरिः कुरूपोऽभूज्जनोऽब्रवीत् ॥ १३६ ॥ प्रागेव सद्गुणग्रामगानात्साध्वीभ्य आहता । धनस्य श्र ेष्ठिनः कन्या रुक्मिण्यत्रान्वरज्यता ॥ १३७ ॥ बभाषे जनकं स्वीयं सत्यं मद्भाषितं शृणु । श्रीमद्वज्राय मां यच्छ शरणं मेऽन्यथानलः ॥ १३८ ॥ तदाग्रहात्ततः कोटिशतसंख्यवनैर्युताम् । सुतामादाय निर्मन्थनाथाभ्यर्णे ययौ च सः ॥ १३९ ॥ व्याजिज्ञपत्र नाथंयां नायते में सुता ह्यसौ रूपयो वन सम्पन्ना तदेवा प्रति गृह्यताम् ॥ १४ ॥ यथेच्छ दानभोगाभ्यामधिकंजी विता विधि, द्रविणगृह्यतामें तत्पादौ प्रक्षाल्यामिते ॥ १४१ ॥ महापरिज्ञाध्ययनादाचाराङ्गान्तरस्थितात् । श्रीवजेणोद्ध ताविद्या तदा गगनगामिनी ॥ १४४ ॥ अवृष्टेरन्यदा तन्त्राभूद्दुर्भिक्षमतिशयम् । सचराचरजीवानां कुर्वदुर्बीतलेऽधिकम् ॥ १४१ ॥ सीदन् संत्रः प्रभोः पार्श्वमाययौ रक्ष रक्ष नः । वदन्निति ततो वज्रप्रभुस्तन्निदधे हृदि ॥ १५० ॥ परं विस्तार्थं तत्रोपवेश्य संघ तदा मुदा । विद्ययाकाशगामिन्याचलद्वयोम्ना सुपर्णवत् ॥ १५१ ॥ तत्रशय्यातरोदू (दृ) रं गतस्तृणगवेषणे । अन्वागतो वदन्दीनः सोऽपि न्यस्तारिसूरिणा ॥ १५२ ॥ आयौ सुस्थ देशस्थामचिरेण महापुरीम् । बौद्धशासनपक्षीय नृपली कैरधिष्टिताम् ॥ १५३ ॥ सुखं तिष्ठति संत्रे च सुभिक्षाद्राजसौस्थ्यतः । सर्वपर्वोत्तमं पर्वाययौ पर्युषणाभिधम् ॥ १५४ ॥ राजा च प्रत्यनीकत्वास्कुसुमानि न्यषेधयत् । संघो व्यजिज्ञपद्वज्रं जिनाचचिन्तयार्दितः ॥ १५५ ॥ उत्पत्य तत आकाशे काशसंकाशकीर्तिभृत् । माहेश्वर्याः उपय' गान्नगर्याः कोविदार्यमा ॥ १५६ ॥ आरामस्थः पितुर्मित्रमारामिकगुणाग्रणीः । वज्रं च कुलसिंहाख्यो वीक्ष्य नत्वा च संजगौ ॥ १५७ ॥ प्र० च ४८६ [ भगवान् माहवार की परम्परा Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ बज्रसूरि ने इस प्रकार उपदेश दिया कि रुखमणि ने दीक्षा ग्रहण करली । उस समय बज्रस्वामी ने आचारांग सूत्र के महाप्रज्ञाध्यन१ से आकाशगामनी विद्या का उद्धार किया। तथा पहले भी देवता ने दी थी। ___ एक समय अनावृष्टि के कारण दुनिया का संहार करने वाला द्वादशवर्षीय दुकाल पड़ा । श्री संघ मिलकर वज्रस्वामि के पास आया और कहा पूज्यवर ! इस सकट से जैनसंघ का उद्धार करो। सूरिजी ने एक कपड़े का पट मंगाओं और तुम सब उस पर बैठ जाओ । बस सब बैठ गये। इतने में शय्यातर घास के लिये गया था वह आया उसने प्रार्थना की तो उसको भी बैठा दिया और विद्या बल से सबको आकाश मार्ग से लेकर महापुरी नगरी में जहां सुकाल वरत रहा था वहां ले आये पर वहां का राजा वोध धर्मोपासक होने से जैन मन्दिरों के लिये पुष्प नहीं लाने देता था। श्री संघ ने आकर अर्ज की कि हे प्रभो ! पर्युषण नजदीक श्रा रहा है और वोध राजा हमको पूजा के लिये पुष्प नहीं लाने देता है। अतः हमारी भक्ति में भंग होता है। अतः आर जैसे समर्थ होते हुये भी हमारा कार्य क्यों नहीं होता है । इस पर वज्रसूरि श्रीसंघ को संतोष करवा कर आप आकाशगामनी विद्या से गमन कर महेश्वरी नगरी के उद्यान में आये वहां एक माली मिला जो कि सूरिजी के पिता का मंत्री था। उसने सूरिजी को वन्दन कर कहा कि कोई कार्य हो तो फरमावें । सूरिजी ने पुष्पों के लिये कहा । माली ने कहा ठीक है आप वापिस जाते हुये पुष्प ले जाना । वहां से वज्रसूरि चूलहेववन्त पर्वत पर गये। और लक्ष्मीदेवी को धर्मलाभ दिया। देवी ने सहस्त्र कली वाला कमल दिया वहां से लौटते समय माली के पास आये | उसने बीस लक्ष पुष्प दिये । बज्रसूरि वैक्रय तब्धि से विमान बना कर पुष्प लेकर आ रहे थे तो देवताओं ने आकाश में बाजे बजाये। वोधों ने सोचा कि देवता हमारे मन्दिरों में महोत्सव करने को आये हैं पर वे तो सीधे ही जिनमन्दिरों में गये और भक्ति करने को लग गये ! तथा बज्रसूरि बीस लक्ष पुष्प लेकर आये इस चमत्कार का प्रभाव वोध राजा प्रजा पर बड़ा भारी हुआ। अतः राजा प्रजा बोध धर्म को छोड़कर जैनधर्म स्वीकार लिया एवं सूरिजी के परमभक्त बन गये । ___आर्य वज्रसूरि के समय मूर्तिबाद अपनी चरमसीमातक पहुँच गया था कि बज्रसूरि जैसे दश पूर्ष धर जिन पूजा के लिये वीसलक्ष पुष्प लाकर श्रावकों को दिया था जो साधु सचित पुष्पों का स्पर्श तक नहीं कर सकता हैं शायद वह कहा जाय की बज्रसूरि दशपूर्वधर होने से वे कल्पातितथे और जैनधर्म का अपमान दूर करने की गरज से तथा भविष्य का लाभ जानाहो तथा बोधराजा और प्रजा इसी कारण से जैनधर्म स्वीकार करेंगे अतः उन्होंने स्वयं पुष्प लाना अच्छा एवं लाभ का कारण समझा होगा परन्तु इससे इतना अनुमान तो सहज में ही हो सकता है कि उस समय मूर्ति पूजा पर जनता की श्रद्धा एवं रुचि अधिक झुकी हुई थी इसी समय आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने साधुओं को मूर्तियों को सिर पर उठा कर अन्यत्र ले जाने की आज्ञा दी थी कि म्लेच्छ लोग मूर्तियों को तोड़ फोड़कर नष्ट नहीं कर सके । पूर्व जमाने में नवकार मंत्र एक स्वतंत्र ग्रन्थ था और आचार्यों ने इस नवकार मंत्र पर स्वतंत्र नियुक्ति आदि विवरण किया था पर बज्रसूरि ने उस नवकार मंत्र को सूत्रों की आदि में मंगलाचरण के रूप में कर दिया और वह आज भी कई सूत्रों के मंगलाचरण के रूप में विद्यमान है। आचार्य वज्रसूरि महा प्रभाविक प्राचार्य होगये हैं । आपके जीवन में एक नहीं पर अनेक घटनायें ऐसी घटी कि जिससे जैनधर्म की वहुत उन्नति हुई । एक समय आप विहार करते दक्षिण की ओर जा रहे थे। उस वक्त श्लेष्म हो जाने से सोंठ लाये थे जितनी जरूरत थी खाई शेष कान पर रखदी परन्तु विस्मृति Jain EducTaTTTT ATT zit via 3219 ]or Private & Personal Use Only www.४८७ry.org Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास होने से प्रतिलेखन के समय सोठ कान से नीचे गिरी। जब जाकर मालूम हुआ कि अब मेरा आयुष्य नजदीक ही है । अतः मुनि बज्रसेन को सूरिपद देकर आप कई मुनियों के साथ एक पर्वत पर जाकर अनशन कर समाधि के साथ स्वर्गवास किया । जब इन्द्र ने इस बात को जाना तो वह विमान लेकर आया। उस पर्वत को विमान सहित प्रदक्षिणा दी जिससे उस पर्वत का नाम रथावर्तन' हो गया। इति वन स्वामि का संक्षिप्त जीवन आर्य्य बज्रसूरि के जीवन की दो महत्वपूर्ण बातें-१-जिस पर्वत पर आर्य वज्र का देह त्याग हुआ वहां इन्द्र आकर रथ सहित प्रदक्षिणा देने के कारण उस पर्वत का नाम 'रथावर्तन हुआ परन्तु आचार्य भद्रबाहु कृत आचारांगसूत्र की नियुक्ति में 'रथावर्तन' का उल्लेख मिलता है इससे पाया जाता है कि उस पर्वत का नाम 'रथावर्तन' पहिले ही से था या नियुक्ति वाला रथावर्तन अलग हो और बज्रस्वामी के देह त्याग वाला रथावर्तन अलग हो । २-दूसरे बनसूरि के पूर्व नवकारमंत्र एक स्वतंत्र सूत्र था और इस सूत्र पर नियुक्ति वगैरह भी स्वतंत्र रची गई थीं परन्तु वज्रसूरि ने उस स्वतंत्र नवकार मंत्र को सूत्रों के आदि में मंगलाचरण के रूप में संकलित कर दिया था। आर्य वज्रसूरि का आयुष्य ८ वर्ष गृहस्थवास, ४४ वर्ष सामन दीक्षा पर्याय, और ३६ वर्ष युगप्रधान पद एवं कुल ८८ वर्ष का आयुष्य अर्थात् वी० नि० सं० ४९६ (वि० सं० २६ ) जन्म, वो० नि० ५०४ (वि० सं० ३४ ) दीक्षा, वी० नि० ५४८ (वि० सं० ७८) युगप्रधान और वी. नि० ५८४ ( वि० सं० ११४ ) में स्वर्गवास हुआ था। आर्य समितमूरि-- और ब्रह्मद्वीपिका शाखा-अाभीर देश में एक अचलपुर नामका नगर था। उसके नजदीक कन्ना और बेन्ना नदियों के बीच में ब्रह्मद्वीप नाम का द्वीप था उस द्वीप में ५०० तापस तपस्या करते थे जिसमें एक तापस ऐसा भी था कि पैरों पर औषधी का लेप कर जल पर चल कर नगर में पारणा ( भोजन ) करने को आया जाया करता था जिसको देख लोग कहते थे कि तपसी की तपस्या का कैसा चमत्कार है कि जल पर चल सकता है। साथ में यह भी कहते थे कि क्या जैनमत में भी ऐसा चमत्कारी महात्मा है ? इस प्रकार अपमानित शब्द सुन कर जैन श्रावकों ने आर्यवज्रसूरि के मामा आर्या समितसूरि को साग्रह आमंत्रण किया। जैनधर्म की उन्नति के लिये सूरिजी शीघ्र पधार गये श्रीसंघ ने सुन्दर किमप्यादिश मे नाथ कार्य सूरिरतोऽवदत । सुमनः सुमनोभिर्ये कार्यमार्य कुरुष्व तत् ॥१५८॥ पूज्यव्य वृत्तिबेलायां ग्राद्यागीति निशम्य सः। ययौ देव्याः श्रियः पार्वे तं क्षुद्रहिमवद्विरिम ॥१५९॥ धर्मलाभाशिषानन्य तां देवी कार्यमादिशत् । ददौ सहस्रपत्रं सा देवाएंथ करस्थितम् ॥१६०॥ तदादाय प्रभुर्वजः पित्रमित्रस्य संनिधौ । आययौ विंशतिर्लक्षाः पुष्पाणां तेन ढौकिताः ॥१६॥ विमानवैक्रिये तांश्वावस्थाप्यागात्रिजे पुरे । जम्भकैः कृतसंगीतोत्सवे गगनमण्डले ॥१६२॥ ध्वनत्सु देवतूर्येषु शब्दाद्वैत विजृम्भिते । तं तदूर्ध्व समायान्तं दृष्ट्वा बौद्धाश्चमत्कृताः ॥१६३॥ ऊचुर्धर्मस्य माहात्म्यमहो नः शासने सुराः । आयान्ति पश्यतां तेषां ते ययुर्जिनमन्दिरे ॥१६४॥ श्राद्धसंघः प्रमुदितः पूजां कृत्वा जिनेशितुः । तत्र धर्मदिने धर्ममश्रौपीद्वसद्गुरौः ॥५६५॥ प्रातिहार्येण चानेन राजा तुष्टोऽभ्युयागमत् । प्रत्यबोधि च वज्रेण बौद्धाश्चासन्नधो मुखाः ॥१६६॥ द्रव्यसंपदि सत्यामप्यन्नदौस्थ्यान्मृतिर्ध वम । ततोऽत्र पायसे पक्वे निक्षेप्यं विषमं विषम् ॥१६७॥ तदत्रावसरे पूज्यदर्शनं पुण्यतोऽभवत् । कृतार्थाः सांप्रतं पारत्रिक कार्यमिहादधे ॥१६८॥ प्र. च० [ भगवान् महावीर की परम्परा ४८८ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ स्वागत किया। जब श्रावकों ने तापस का सब हाल कहा तो सूरिजी ने फरमाया कि इसमें सिद्धाई और चमत्कार कुछ भी नहीं है । यह तो एक औषधि का प्रभाव है यदि पैर या पावडियों को धो दीजाय तो रोष कुछ भी चमत्कार नहीं रहता है । इस पर किसी एक श्रावक ने तपस्वी को भोजन के लिये आमंत्रण करके अपने मकान पर ले आया और उसके पैर एवं पादुका का प्रक्षालन कर भोजन करवाया । बाद कई लोग उसको नदी तक पहुँचाने को गये । पर तपस्वी पानी पर चल नहीं सके । कारण जो औषधी पैरों एवं पादुकाओं पर लगी हुई थी वह श्रावक ने धो डाली थी इससे तपस्वी की पोल खुल गई और वह लज्जित हो गया । उसी समय वहां पर आर्य समितसूरि भी आये और भी बहुत से जैन जैनेतर लोग एकत्र हो गये । उन सबके सामने जैनाचार्य ने एक ऐसा मंत्र पढ़ कर दोनों नदियों से प्रार्थना की कि मुझे जाना है तुम दोनों एक होकर मुझे रास्ता दे दो। बस इतना कहते ही दोनों नदियों ने एक होकर सूरिजी को रास्ता दे दिया । अतः सूरिजी ने ब्रह्मद्वीप में जाकर उन ५०० तापसों को सत्वज्ञान सुना कर प्रतिबोध दिया । अतः उन ५०० तापसों ने आत्म कल्याण की उज्जल भावना से सूरिजी के पास भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करली अतः उन तापसों से बने हुए मुनियों की संतान ब्रह्मद्वीप शाखा के नाम से पहचानी जाने लगी। इस प्रकार जैन शासन में अनेक विद्वानों ने आत्मशक्ति द्वारा चमत्कार एवं उपदेश देकर जैनेतरों को जैन बना कर जैनधर्म की उन्नति एवं प्रभावना की उनके चरण कमलों में कोटि कोटि नमस्कार हो । इनके अलावा भी कई युगप्रधान आचार्य हुये हैं। जिन्हों की नामावली प्रागे चल कर यथा स्थान दी जायगी। आर्यरक्षितहरि---अावंती प्रान्त में अमरापुरी के सदृश्य दशपुर नाम का नगर था वहां उदायन नाम का राजा राज करता था। उसके राज में एक सोमदेव नाम का पुरोहित था । वे थे वेद धर्मानुयायी और उसके रुद्रसोमानाम की स्त्री थी और वह थी जैनधर्मोगासिका और जीवादि नौ तत्व वगैरह जैनधर्म के अनेक शास्त्रों की जानकर भी थी । उसके दो पुत्र थे एक आर्य रक्षित दूसरा फालगुरक्षित । सोमदेव ने आर्य्यरक्षित तेन लेपापहारेण तापसो दुर्मनायितः। नावेदीभोजनास्वादं विगोपागमशङ्कया ॥ ८८ ॥ तापसो भोजनं कृत्वा सरित्तीरं पुनर्ययौ । लोकैर्वृतो जलस्तम्भकुतूहलदिरक्षया ॥ ८९ ॥ लेपाश्रयः स्यादद्यापि कोऽपीत्यल्पमतिः स तु । अलीकसाहसं कृत्वा प्राग्वत्प्राविशदम्भसि ॥ १० ॥ + + + + ततः कमण्डलुरिव कुर्वन्बुडबुडारयम् । ब्रुति स्म सरित्तीरे स तापसकुमारकः ॥ ९१ ॥ वयं मायाविनानेन मोहिताः स्मः कियञ्चिरम् । मलिन्यभूदिति मनस्तदा मिथ्यादृशामपि ॥ १२ ॥ दत्तताले च तत्कालं जने तुमुलकारिणि । आचार्या अपि तत्रागुः श्रुतस्कन्धधुरन्धराः ॥ ९३ ॥ + + तटद्वये ततस्तस्याः सरितो मिलिते सति । आचार्यः सपरीवारः परतीरभुवं ययौ ॥ ९६ ॥ आचार्यैदर्शितं तं चातिशयं प्रेक्ष्य तापसाः । सर्वेऽपि संविविजिरे तद्भक्तश्चाखिलो जनः ॥ ९७ ॥ + + + + आचार्यस्यार्यशमितस्यान्तिके प्रावजन्नथ। सर्वे मधितमिथ्यात्वास्यापसा एकचेतसः ॥ १८ ॥ ते ब्रह्मद्वीपवास्तव्या इति जातास्तदन्वये । ब्रह्मद्वीपिकनामानः श्रमणा आगमोदिताः ॥ ९९ ॥ "परिशिष्टपर्व” आचार्य समितमूरि का चमत्कार ४८९ Jain Education internation Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को पढ़ने के लिए काशी भेजा वहां पढ़ कर अधिक ज्ञान की प्राप्ती के लिये पाटलीपुत्र भी गया । वेद वेदांग सब शास्त्रों का पारगामी होकर वापिस दशपुर अाया। जब नगर के राजादि सब लोगों ने बड़े ही स्वागत के साथ नगर प्रवेश करवाया । जब आर्यरक्षित अपनी माता के पास आया तो उस समय माता रुद्रसोमा सामायिक कर रही थी । अतः आर्य्यरक्षित के नमस्कार करने पर भी उसने कुछ भी सत्कार नहीं किया बाद आर्य्यरक्षित ने पूछा कि माता मेरी पढ़ाई से राजा प्रजा सब लोग खुश हुए एक तुमको ही उदासीनता क्यों ? इस पर माता ने कहा बेटा ! जिस पढ़ाई से संसार की वृद्धि हो उससे खुशी कैसे हो ? यदि तू सम्यक् ज्ञान पढ़ के आता तो मुझे जरूर खुशी होती विनयवान पुत्र ने पूछा कि माता बतला कौनसा ग्रंथ किसके पास पढ़ा जाय और वे पढ़ाने वाले कहाँ पर हैं ? मैं पढ़ कर आपको संतोष करवा दूं। माता ने कहा बेटा ! वह है दृष्टिवाद ग्रंथ, और पढ़ाने वाले हैं तोसलीपुत्र नामक प्राचार्य और वे इस समय इक्षुवाडी में विद्यमान हैं । तू जाकर दृष्टिवाद पढ़ कि तेरा कल्याण हो। रात्रि व्यतीत करने के वाद ज्ञान की उत्कंठा वाला आर्य्यरक्षित घर से चल कर पढ़ने को जा रहा था। रास्ते में एक इक्षुरस वाला साठा लेकर आया और आर्य्यरक्षित को कहा कि हे मित्र ! मैं तेरे लिथे सांठा लाया हूँ । अतः तुम वापिस घर पर चलो। आयरक्षित ने कहा मैं ज्ञानाभ्यास के लिये जा रहा हूँ फिर उसने सोचा कि ९॥ सांठा का अर्थ यही हो सकता है कि मैं जिस दृष्टिवाद का अध्यन करने को जा रहा हूँ उसके ९॥ अध्याय प्राप्त करूंगा। आर्य्यरक्षित चलता २ वहां आया कि जहां तोसलीपुत्र आचार्य विराजते थे पर रज्जा के कारण वह उपाश्रय के बाहर बैठ गया ।इतने में एक ढदुर नामक श्रावक आया उसके साथ उपाश्रय में जाकर प्राचार्य को वंदन किया और दृष्टिवाद पढ़ाने की याचना की पर दृष्टिवाद का अध्ययन तो साधुही कर सकते हैं अत: श्रार्यरक्षित ज्ञान पढ़ने के लिये जैनदीक्षा स्वीकार करने को तैयार हो गया परन्तु आर्यरक्षित ने सूरिजी से अर्ज की कि हे प्रभो । हमारा कुल ब्राह्मण है । अतः मुझे दीक्षा देकर यहाँ ठहरना अच्छा नहीं हैं। अतः श्राप शीघ्र विहार कर अन्य स्थान पधार जावें गुरु ने इसको ठीक समझ आर्यरक्षित को जैन दीक्षा दे दी और वहां से अन्यत्र चले गये और आर्यरक्षित को पढ़ाना शुरू किया। अंगोपांग सूत्र और कई पूर्व पढ़ा दिये जितना कि वे जानते थे शेष के लिये कहा कि तुम आर्य बज्रसूरि के पास जागो जो उज्जैन नगरी में विराजते हैं । अतः आर्यरक्षित अन्य साधुओं के साथ विहार कर वज्रसूरि के पास जा रहे थे। रास्ते में एक भद्रगुप्ताचार्य का उपाश्रय आया । वहाँ आय्यरक्षित गये । अायंरक्षित को देख भद्रगुप्त बहुत खुश हुआ और कहा कि आर्य ! मेरा अन्तिम समय है तुम मुझे मदद एवं साज दो। आर्य्यरक्षित ने मंजूर कर लिया और उनकी व्यावच्च में लग गये । एक समय आर्य भद्रगुप्त ने आर्यरक्षित से कहा कि तू बनसूरि के पास पूर्व ज्ञान पढ़ने को जाता है यह तो अच्छा है पर तू अलग उपाश्रय में ठहर कर अाहार पानी एवं शयन भी अलग ही करना । इसको रक्षित ने स्वीकार कर लिया बाद भद्रगुप्त का स्वर्गवास हो गया और आर्य्यरक्षित चल कर बनस्वामी के पास आ रहा था। बज्रसूरि को रात्रि में स्वप्न भाया कि मेरे दूध का पात्र भरा हुआ था उसमें से बहुत सा दूध एक अतिथि पी गया। जैन संसार में बिना माता पिता की आज्ञा के दीक्षा देना आर्यरक्षित का पहिला ही उदाहरण है और इस दीक्षा दे वह शिष्य निस्फेटा (चोरी) कहा गया है इससे स्पष्ट पाया जाता है कि बिना कुटुम्चियों की आज्ञा जैन साधु किसी को दीक्षा दे नहीं देते हैं। आचारांगसूत्र में सचित अचित मिश्र कोई भी पदार्थ बिना आज्ञा के लेने से तीसरे महावत का भंग है। Jain Edi Dolnternational For Private & Personal use Only भगवान महावीर की परम्प y.org Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] | ओसवाल संवत् ५१५ ___ यह स्वप्न की बात अपने शिष्य को सुनारहे थे कि इतने में आर्य्यरक्षित ने आकर नमस्कार किया। वज्रसूरि ने पूछा क्या तेरा नाम आर्य्यरक्षित है और पूर्वाध्ययन के लिये आया है ? आर्यरक्षित ने कहा, हाँ। फिर बत्रसूरि ने पूछा तुम्हारे भंडोपकरण कहाँ हैं ? आर्य्यरक्षित ने कहा मैं अलग उपाश्रय याचकर भंडोपकरण वहाँ रख आया हूँ तथा आहार पानी शयन वहाँ ही करूंगा और पूर्वो का अध्ययन आपके पास करता रहूँगा। आर्य्यबज्र ने कहा अलग रहने से ज्ञान कम होगा। इस पर आय॑रक्षित ने भद्रगुप्ताचार्य का आदेश कह सुनाया इसपर वज्रसूरि ने श्रुतज्ञान में उपयोग लगा कर देखा तो भद्रगुप्ता वार्य का कहना यथार्थ मालूम हुआ। अतः आर्यरक्षित अलग रह कर आर्यबज्रसूरि से पूर्व ज्ञान का अध्ययन करने लगा और बड़ी मुश्किल से साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान किया आगे उनको पढ़ने में थकावट आने लगी। ___ इधर रुद्रसोमा ने सोचा कि मैंने बड़ी भारी भूल की कि आयंरक्षित को दूर भेज दिया। अतः दूसरे पुत्र फाल्गुरक्षित को बुलाकर आयंरक्षित को लाने के लिये भेजा । वह फिरता-फिरता बज्रसूरि के पास आकर अपने भाई से मिला और माता के समाचार सुनाये । इस पर अयंरक्षित ने लघुबन्धु को संसार की असारता बतलाते हुये ऐसा उपदेश दिया कि फाल्गुरक्षित ने जैनदीक्षा स्वीकार करल । श्रार्य्यरक्षित को एक ओर तो माता से मिलने की उत्कंठा और दूसरी ओर अभ्यास के परिश्रम से थकावट आरही थी । अतः एक दिन बज्रसूरि से पूछा कि प्रभो ! अब कितना ज्ञान पढ़ना रहा है ? सूरिजी ने कहा अभी तो सरसप जितना पढ़ा और मेरु जितना पढ़ना है । आर्य्य तुम उत्साह को कम मत करो पढ़ाई करते रहो । गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर अभ्यास करने लगा पर उसका दिल एवं अभ्यास शिथिल पड़ गया । अतः बसूरि से श्राज्ञा मांगी कि मैं दशपुर की ओर विहार करूं । बज्रस्वामी ने ज्ञानोपयोग से जान लिया कि इनके लिये ९॥ पूर्व का ज्ञान ही पर्याप्त है । दशवां पूर्व तो मेरे साथ ही चलेगा। अतः आर्य्यरक्षित को आज्ञा देदी । बस, आर्य्यरक्षित अपने भाई फाल्गुरक्षित मुनि को साथ लेकर वहाँ से विहार कर दिया और क्रमश पाटलीपुत्र आये । साढ़े नौ पूर्व पढ़के आये हुये शिष्य का गुरु तोसलीपुत्राचार्य आदि श्रीसंघ ने अच्छा बहुमान किया और आर्य्यरक्षित को सर्वगुण सम्पन्न जानकर अपने पट्टपर आचार्य बनाकर तोसलीपुत्राचार्य अनशन एवं समाधि से स्वंग पधार गये । तदनन्तर आर्यरक्षितसूरि विहार कर दशपुर नगर पधारे । आर्य फाल्गुरक्षित ने आगे जाकर अपनी माता को बधाई दी कि आपका पुत्र जैनधर्म का आचार्य बन कर आया है। इतने में तो आर्य्यरक्षितसूरि अपनी माता के सामने आगये जिसको साधुवेश में देख माता बहुत खुशी हुई । बाद पिता सोमदेव भी आया उसने कहा पुत्र तू पढ़ के आया है अतः उद्यान में ठहरना था कि राजा प्रजा की ओर से महोत्सव करवा के तुमको नगर प्रवेश कराया जाता । खैर, माता के स्नेह के लिये नगर में आ भी गया तो अब भी उद्यान में चला जा कि राजा की ओर से महोत्सवपूर्वक तुम्हारा नगरप्रवेश करवाया जाय । बाद इस साधुवेश को त्याग कर तुम्हारे लिये अनेक कन्याओं के प्रस्ताव आये हुये हैं जैसी इच्छा हो उसके साथ तुम्हारा विवाह कर दिया जाय धन तो अपने घर में इतना है कि कई पुश्त तक खाये और खर्च तो भी अन्त नहीं आवे । अतः तुम अपने घर का भार शिर पर लेकर संसार के अन्दर सुख एवं भोग विलास भोगते रहो। आर्य रक्षित सूरि ने अपने पिता के मोह गर्भित वचन सुन कर इस प्रकार उपदेश दिया कि माता पिता और कुटुम्ब दीक्षा लेने को तैयार होगये परन्तु सोमदेव ने कई शर्ते ऐसी रक्खी कि एक तो मेरे से Jain Ea आर्य रक्षितमूरि का जीवन ] ४९१ www.janelinary.org Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] । भगवान् पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास नग्न नहीं रहा जायगा जो कई जैनश्रमण रहते हैं और दूसरे उपानह (पादुका) कमंडल, छत्र और जनेऊ इन उपकरणों के साथ तुम्हारी दीक्षा ले सकता हूँ। आर्य रक्षितसूरि ने भविष्य का लाभालाभ जानकर उनका कहना स्वीकार कर लिया । और सोमदेव रुद्रसोमा आदि सब कुटुम्ब को दीक्षा देदी।। मुनि सोमदेव ज्यों ज्यों जैनधर्म का ज्ञान एवं क्रिया का अभ्यास करता गया तथा जैसे जैसे कारगा उपस्थित होते गये वैसे वैसे पूर्व पदार्थों का त्याग करता गया और शुद्ध संयम की आराधना करता रहा तत्पश्चात् दीक्षा लेते समय पूर्व संस्कारों से जो शर्ते कि थी वे सब छूट गई और जैन मुनियों का आचरण अनुसार वर्तने लगा। आर्य रक्षितसूरि के शासन में अनेक मुनि तपस्वी एवं अभिग्रहधारी तथा लब्धि सम्पन्न थे जैसे १-धृतपुष्पमित्र २-वस्त्रपुष्पमित्र ३-दुर्बलिकापुष्पमित्र नामके साधु थे और अपनी २ लब्धिपूर्वक कार्य करते थे । दुर्बलिकापुष्पमित्र कई बोधलोगों को प्रतिबोध कर सन्मार्ग पर लाये थे। इनके अलावा आपके गच्छ में चार प्राज्ञावानमुनिवर भी थे १-दुर्बलपुष्पमित्र २-विद्यामुनि ३-फाल्गुनरक्षित और शुक्राचार्य के धर्मशास्त्र को जीतने वाला ४-गोष्टापाहिल नाम के मुनि विख्यात थे जिसमें विद्यामुनि के आग्रह से आर्थरक्षित सूरिने आगमों के चार अनुयोग अलग अलग कर दिये जो पहिले एक ही सूत्र में चारों अनुयोग की व्याख्या की जाती थी। एक समय आर्य रक्षितसूरि विहार करते हुये मथुरानगरी में पधारे और अधिष्ठायक ध्यान्तर के मन्दिर में ठहरे थे। उस समय इन्द्र श्रीसीमंधर तीर्थङ्कर + को वन्दन करने को महाविदेह क्षेत्र में गया था और वहाँ प्रभु के मुख से निगोद का स्वरूप सुन कर पूछा कि प्रभो क्या भरतक्षेत्र में भी इस प्रकार निगोद की व्याख्या करनेवाले कोई आचार्य हैं ? प्रभो ने कहा हाँ भरतक्षेत्र में श्रार्यरक्षितसूरि नामक पूर्वधर आचार्य हैं । वह निगोद की व्याख्या अच्छी करते हैं । इन्द्रवृद्ध : ब्राह्मण का रूप बनाकर आचार्य रक्षितसूरि के पास आया और निगोद + इतश्चास्ति विदेहेषु श्रीसीमंधरतीर्थकृत् । तदुपास्त्यै ययौ शकोऽौषीयाख्यां च तन्मनाः ॥ २४६ ॥ निगोदाख्यानमाख्याच केवली तस्य तत्त्वतः । इन्द्रः पप्रच्छ भरते कोऽन्यस्तेषां विचारकृत ॥ २४ ॥ अथाह माह मथुरानगर्यामार्यरक्षितः । निगोदान्मद्वदाचष्ट ततोऽसौविस्मयं ययौ ॥ २४८ ॥ :: प्रतीतोऽपि च चिनार्थ वृद्धब्राह्मणरूपभृत् । आययौ गुरुपायें स शीघ्रं हस्तौ च धूनयन् ॥ २४९ ॥ काशप्रसूनसंकाशकेशो यष्टिश्रिताङ्गकः । सश्वासप्रसरो विश्वग्गलञ्चक्षुर्जलप्लवः ॥ २५० ॥ एवंरुपः स पप्रच्छ निगोदानां विचारणम् । यथावस्थं गुरुाख्यात्सोऽथ तेन चमकृतः ॥ २५१ ॥ जिज्ञासुनिमाहात्म्यं पप्रच्छ निजजीवितम् । ततः श्रतोपयोगेन व्यचिन्तयदिदं गुरुः ॥ २५२ ॥ तदायुर्दिवसैः पौर्मासैः संवत्सरैरपि । तेषां शतैः सहस्रश्वायुतैरपि न मीयते ॥ २५३ ॥ लक्षाभिः काटिभः पूर्वैः पल्यैः पल्यशतैरपि । तल्लक्षकोटिभि व सागरेणापि नान्तभृत ॥ २५ ॥ सागरोपमयुग्मे च पूर्णे ज्ञाते तदायुपि । भवान सौधर्म सुत्रामा परीक्षां कि म ईक्षसे ॥ २५५ ॥ प्रकाश्याथ निजं रूयं मनुष्य प्रेक्षणक्षमम् । यथावृत्त समाख्याते शक्रः स्थाने निजेऽचलत् ॥ २५६ ॥ प्रतीक्षिणेऽर्थिते किंचिद्यावयतिसमागमम् । रुपद्धिदर्शनैः साधुनिंदानेन न्यवेधयत् ॥ २५७ ॥ तथापि किंचिदाधेहि चिह्नमित्यथ सोऽतनोत् । वेश्म तद्विपरीतद्वाः प्रययौ त्रिदिवं ततः ॥ २५८ ॥ आयाते मुनिभिद्वारे नाप्ते गुरुरुदैरयत् । विपरीतपथायाताजग्मुस्ते चातिविस्मृताः ॥ २५९ ॥ प्र० च० इन्द्र के पूछे हए निगोद के स्वरूप की घटना कालकाचार्य के साथ घटी जिसका वर्णन पहिले ही दे दिया गया है। क्या आर्य रक्षित सूरि के साथ यह घटना दुबारा घटी है यही वही घटना दो आचार्यों के साथ जोड़ दी है ? Jain Edge international For Private & Personal use Only [ भगवान् महावीर की परम्पराry.org Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ का स्वरूप पूछा । इस प्रकार आचार्यश्री ने यथावत स्वरूप कह सुनाया जिससे इन्द्र बहुत हर्षित हुआ बाद इन्द्र ने अपना हाथ आगे कर अपना श्रायुष्य पूछा । आचार्यश्री ने हस्त रेखा देख कर सौ दोसौ एवं तीन सौ वर्ष तक रेखा देखी पर रेखा तो उससे भी आगे हजार लाख करोड़ वर्ष से भी अधिक पस्योपम सागरोपम तक बढ़ती जारही थी । अतः सूरिजी ने श्रुतोपयोग लगाया तो ज्ञात हुआ कि यह तो पहिले देवलोक का इन्द्र है और इसकी दो सागरोपम की आयुष्य है । यह बात इन्द्र को कहीतो इन्द्र ने सूरिजी की बहुत प्रशंसा की और कहा की श्री सीमंधर तीर्थङ्कर ने जैसे आपकी तारीफ की वैसे ही आप हैं । आज्ञा फरमावें कि में क्या करू ? आचार्य ने कहा कि अपने आने का चिन्हस्वरूप कुछ करके बतलाओ कि भिक्षार्थ गये ये साधु को मालूम होजाय कि इन्द्र आया था । अतः इन्द्र ने उपाश्रय का दरवाजा पूर्व में था उसे पश्चिम में कर दिया और सूरिजी को वंदन कर अपने स्थान चला गया । बाद साधु भिक्षा लेकर आये तो पूर्व में दरवाजा नहीं देखा तो उनको बड़ा भारी श्राचर्य हुआ तब गुरु ने कहा मुनियों उपाश्रय का दरवाजा पश्चिम में है अतः तुम उधर से चले आओ शिष्यों ने आचार्य से सब हाल सुना जिससे बड़ा ही आश्चर्य हुआ बाद श्राचार्यश्री ने वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया । आचार्यश्री के जाने के बाद नास्तिक बोधों का मथुरा में आगमन हुआ पर उस समय गोष्टामाद्दिल नामक मुनि ने शास्त्रार्थ कर बाघों को पराजित कर दिया । चार्य रक्षितसूर ने अपनी अन्तिमावस्था जान अपने पट्ट पर किसको स्थापित किया जाय इसके लिये सूरिजी ने दुर्बलपुष्पमित्र को योग्य समझा पर सूरिजी के सम्बन्धियों ने फाल्गुरक्षित के लिये आम्ह किया जो आर्यरक्षित के भाई था और कई एकों ने गोष्टामहिल को सूरि बनाने का विचार प्रगट किया । खिर परीक्षा पूर्वक सूरि पद दुर्बलपुष्पमित्र मुनि को ही दिया गया । रक्षितसूरि ने दुर्बलपुष्प मित्र को कहा कि मेरा पिता एवं मामा वगैरह मुनि हैं उन प्रति मेरे जैसा भाव रखना तथा मुनि सोमदेव वगैरह को भी कह दिया कि तुम जैसे मुझे समझते हो वैसे ही दुर्बलपुष्पमित्र को समझना । श्राचार्य रक्षितसूरि ने गच्छ का सुप्रबन्ध करके अनशन एवं समाधि पूर्वक स्वर्ग को ओर प्रस्थान किया । श्राचार्य दुर्बलपुष्पमित्र गच्छ को अच्छी तरह से चलाते हुये एवं सबको समाधि पहुँचाते हुये गच्छ की उन्नति एवं वृद्धि की । परन्तु गोष्टामहिल मुनि ने ईर्षा एवं द्वेष भाव के कारण अपना मत अलग निकाल कर सातवां निन्हव की पंक्ति में अपना नाम लिखाया । Jain Edu रुसोमा पुनस्तत्र श्रमणोपासका तदा । विज्ञातजीवाजीवादि नवतत्त्वार्थं विस्तरा ॥ १६ ॥ कृत सामायिका पुत्रमुत्कण्ठाकुलितं चिरात् । इलातलमिलनमौलिं वीक्ष्यापि प्रणतं भृशम् ॥ १७ ॥ अस्य ग्रन्थस्य वेत्तारस्तेऽधुना स्वेक्षुवाटके । सन्ति तोसलिपुत्राख्याः सूरयो ज्ञानभूरयः ॥ २८ ॥ किंकर्तव्यजस्तत्राजानत् जैनपरिश्रमम् । दट्टरश्रावकं सूरिवन्दकं प्रेक्षदागतम् ॥ ३७ ॥ ध्यात्वा तं सूरयोsवोचन् जैनप्रव्रज्यया विना । न दीयते दृष्टिवादो विधिः सर्वत्र सुंदरः ॥ ४७ ॥ गुरुवः शेषपूर्वाणां पाठायोज्जयिनिपुरि । तमार्यरक्षितं प्रैष: श्रीस्वामिनोन्तिके ॥ ५८ ॥ गीतायैर्मुनिभिः सत्रा तत्रागादार्यरक्षितः । श्रीभद्रगुप्तसूरीणामाश्रये प्राविशत्तदा ॥ ५९ ॥ श्री वज्रस्वामि पादान्ते त्वया पिपठिषानृता । भोक्तव्यं शयनीयं च नित्यं पृथगुपाश्रये ॥ ६५ ॥ तदा च दडशे स्वतः श्रीवत्रेणाप्यजलप्यत । विनेयाग्रेऽय संपूर्णः पायसेन पतन्द्रग्रहः ॥ ७० ॥ वत्स कच्छाभिसंबद्ध' ममास्तु परिधानकम् । नग्नैः शक्यं किमु स्थातुं स्वीयात्मजसुतापुरः ॥ उपानहौ मम स्यातां तथा करक पात्रिका | छत्रिकाथोपवीतं च यथा कुर्वे तव व्रतम् ॥ १५८ ॥ १५५ ॥ आरक्षित का जीवन ] प्र० च० www.j४९३ry.org. Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य रक्षितसूरि जैनशासन में बड़े भारी प्रभाविक एवं युग प्रवर्तक आचार्य हुये आपके शासन में दो बातें जानने काबिल हुई १-- पूर्व जमाने में एक ही सूत्र से चारों अनुयोग का अर्थ किया जाता था पर भविष्य में साधुओं की बुद्धि का विचार कर चारों अनुयोग पृथक २ कर दिये वे अद्यावधि उसी रूप में चले आ रहे हैं २-पूर्व जमाने में साध्वियां अपनी आलोचना साध्वियों के पास करती और साध्वियां ही यथायोग्य प्रायश्चित दे दिया करती थी परन्तु आर्य रक्षितसूरि ने उस प्रवृति को बन्द कर साध्वियां अपनी आलोचना साध्वियों के पास न करके साधुओं के पास करे और साधु ही प्रायश्चित दें ऐसा नियम बना दिया। आर्य रक्षित ५॥ पूर्व ज्ञान के पारगामी थे। इनके बाद इतना ज्ञान किसी आचार्य को नहीं हुआ था युगप्रधान पट्टावली अनुसार आप १९ वें युगप्रधान थे । आपका जन्म वी० नि सं० ५२२ में हुआ था २२ वर्ष की आयुष्य में दीक्षा ली ४४ वर्षसामान्य दीक्षा पर्याय और १३ वर्ष युगप्रधान पद पर रहकर शासन की खूब उन्नति की । वी०नि० सं०५९७ वें वर्ष में अर्थात् ७५ वर्ष का सर्व आयुष्य भोग कर स्वर्गवासी हुये। आचार्य नंदिलमूरि-आप साढ़े नौ पूर्वधर महान प्रभावशाली आचार्य हुए हैं । प्रभाविक चरित्र में आपके विषय में बहुत वर्णन किया है । आपके चरित्रान्तरगत वैराट्या देवी का भी चरित्र वर्णन किया है। जिसमें पद्मनीखंडनगर, पद्मप्रभराजा, पद्मावतीरानी, पद्मदत्तश्रेष्ठि, पद्मयशास्त्री, पद्मपुत्र, जिसका वरदत्त को पुत्री वैराट्या के साथ विवाह हुआ था। इत्यादि विस्तृत वर्णन किया है। आगे लिखा है कि दुकाल के कारण वरदत्त देशान्तर जाता है और वैराट्य को सासु खूब कष्ट देती है नागेन्द्र का स्वप्ना सूचित वैराट्या गर्भ धारण करती है। आचार्य नंदिलसूरि उद्यान में पधारते हैं । वैराट्या सूरि को वन्दन करने को जाती है और अपनी दुःख गाथा सुनाकर पूर्वभव में किये हुए कर्मों को सुनना चाहती है। सूरिजी कर्म सिद्धान्त का रहस्य बतला कर वैराट्या को शान्त करते हैं । वैराट्या को पयसान्न (दूधपकादि ) का दोहला उत्पन्न होता है । तप के उद्यापनार्थ दूधपाक तैयार होता है। वैराट्या बचा हुआ पयसान्न घट में डाल पानी के बहाने जलाशय पर जाती है। वहां नाग देव की देवी पयसान्न का भक्षण कर जाती है और वैराट्या की क्षमा शान्ति को देख प्रसन्न होती है । वैराट्या पुत्र को जन्म देती है और उसका नाम नागेन्द्र रखा जाता है। समयान्तर नागदेव की सहायता से पद्मदत्त पद्मयशा और वैराट्यादिसूरिजी के पास दीक्षा लेते हैं। वैराच्या साध्वि जीवन में कालकर भगवान पार्श्वनाथ के सेविका नागकुमार की जाति में वैराट था देवी पने उत्पन्न होती है इत्यादि विस्तार से वर्णन किया है आर्य नंदिल किस वंश परम्परा के थे? इसके लिए चरित्रकार अायं रक्षित के वंश में हुये लिखते हैं पर नंदी स्थविरावली में प्रार्य मंगू के बाद और नागहस्ति के पूर्व के युगप्रधान बतलाया है परन्तु प्रार्य मंगू का युगप्रधान समय वी. नि. सं० ४५१ से ४७७ का है तब अार्य रक्षित का समय ५४४ से ५९७ का है यदि नंदिल आर्य मंगू के बाद माना जाय तो करीब १०० वर्ष पूर्व का समय आता है । अतः वे आर्य मंगू के वंश धर सिद्ध नहीं होते हैं। अतः आर्य नंदिल को आर्य रक्षित के बाद एवं इनके वंशज मानना यथार्थ ही है । आर्य नन्दिल का नाम प्रबन्ध कर एवं युग प्रधान पट्टावली करने आर्यनंदिल लिखा है पर श्रापका वास्तविक नाम आनंदिल था ऐसा पं० कल्याण विजयजी महाराज अपनी प्रबन्धपर्यालोचना में प्रमाणित करते हैं । जो यथार्थ ही समझा जा सकता है। Jain Edgg ternational For Private & Personal use Only [ भगवान् महावीर की परम्परा ww.jainelibrary.org Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५ ___ कालकाचार्य-इसी किताब के पृष्ठ ४०९ पर चार कालकाचार्य का नामोल्लेख किया जिसमें दत्तकों यज्ञ फल कहने वाले का भी नाम आया है जिसके लिये ऐसी घटना बनी थी कि तुरिमिणी नगरी के उद्यान में एक समय कालकाचार्य पधारे थे वहां पर कालकाचार्य के बहन का पुत्र दत्त नाम पुरोहित था उसने अपना स्वामि राजा को छल कपट से कारागर में डाल कर आप स्वयं राज को अपने अधिकार में कर लिया था और आप वहां का राजा बन गया था राजा दत्त अपनी माता के कहने से एक दिन कालकाचार्य के पास आया उसके हृदय में पहले से ही धर्म द्वेष था अतः उन्मत की भाँति क्रोध युक्त हो कर कालकाचार्य को यज्ञ के विषय में प्रश्न पूछा कि यज्ञ का क्या फल होता है ? आचार्यश्री ने कहा कि यज्ञ में जो पशुओं की हिंसा की जाती है और हिंसा का फल होता है नरक अर्थात् हिंसा करने वाले नरक में जाकर अनन्त दुःखों को भोगता है । यह बात दत्त को बहुत बुरी लगी खैर उसने पुनः पूछा कि हमारा और आपका शेष आयुष्य कितना रहा है और किस कारण मृत्यु होगा एवं मर कर कहाँ जावेंगे ? कालकाचार्य ने कहा दत्त तेरा श्रायुष्य सात दिन का रहा है तू कुभी में पच कर मरेगा कुत्तं तेरी लाश को खायंगे और तू मर कर नरक में जावेगा फिर मैं यह कह देता हूँ कि तेरे मुंह में वृष्टा पड़ेगा तब जान लेना कि मेरी मृत्यु आ गई है और मैं समाधि के साथ मर कर स्वर्ग में जाऊँगा। इस जवाब से दत्त को और भी विशेष गुस्सा आया और आचार्य श्री के लिये गुप्ताचर को रख दिया कि ये सातदिनों के अन्दर कहीं विहार न कर जाय बाद दत्त अपने स्थान को चला गया ओर ऐसे स्थान में बैठ गया कि वहाँ न तो मुह में वृष्टा पड़ सके और न मृत्यु ही आ सके ? पर भवित व्यता को कौन मिटा सकता है दत्त अपने गुप्त स्थान में रह कर दिन गिनता था परन्तु भ्रांति से सातवां दिन को आठवां दिन समझ कर आचार्यश्री के वचन को मिथ्या साबित करने की गर्ज से अश्वारूढ़ हो कर राज मार्ग से जा रहा था राज मार्ग में क्या हुआ था कि एक मालन पुष्पों की छाब लेकर जा रही थी उसके उदर में ऐसी तकलीफ हुई कि वह राज मार्ग में ही टट्टी बैठ गई और पास में पुष्प थे वे वृष्टा पर डाल दिया उसी रास्ते से दत्त पा रहा था घोड़ा का पैर उस पृष्टा पर लगा कि वृष्टा उछल कर थोड़ासा दत्त के मुह में जा पड़ा जिसका स्वाद आते ही दत्त विचार कर वापिस लौट रहा था परन्तु दत्त का अत्याचार से मंत्री वगैरह सब असन्तुष्ट थे उन्होंने किसी जितशत्रु राजा को ला कर राज गादी बैठा दिया उसने दत्त को पकड़ पिंजरा में डाल दिया । बाद दत्त को कुभी में डाल कर भठ्ठी पर चढ़ाया और नीचे अग्नि लगादी और बाद में उसकी लाश कुत्तों ने खाई एवं कदर्थना की और वह मर कर नरक में गया। तत्पश्चात् कालकाचार्य वहां से विहार किया कई अ6 तक भव्य जीवों का उद्धार कर अन्त में समाधिपूर्वक काल कर स्वर्ग पधार गये इस प्रकार कालका चार्य महा प्रभाविक भाचार्य हुए हैं। श्रीशत्रुजयतीर्थ का उद्धार जैन संसार में तीर्थश्रीशत्रुजय का बड़ा भारी महात्म्य एवं प्रभाव है । इतना ही क्यों पर शत्रु जय तीर्थ को प्रायः शाश्वता तीर्थ बतलाया है । जैनांगोपांग सूत्र में श्री शत्रुजय के विषय प्रचुरता से उल्लेख मिलता है । श्रीज्ञातसूत्र तथा अंतगढ़दशांग सूत्र में उल्लेख मिलता है कि हजारों मुनिराज शत्रुजय तीर्थ पर जाकर अन्तसमय केवल ज्ञान प्राप्ता कर मोक्ष गये हैं । जैसे यह तीर्थ प्राचीन है वैसे इस तीर्थ के उद्धार भी बहुत हुए हैं और जैसे मनुष्यों ने इस तीर्थ के उद्धार करवाये है वैसे देवताओं के इन्द्रों ने भी तीर्थोद्धार dain Edu कालकाचार्य और पु० दत्त ] For Private & Personal use Only www.j४९५y.org Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास करवाया था । कलिकाल की कुटिल गति से इस तीर्थ पर कई प्रकार आक्रमण भी हुए थे । जिस समय बौद्धों और जैनों के शास्त्रार्थ हुआ था और बौद्धों की विजय में सौराष्ट्र प्रांत बौद्धों के हाथ में चला गया था इस हालत में शत्रु जय तीर्थ पर भी बौद्धों का अधिकार गया था। इनके अलावा असुरदेवों का भी शत्रु जय पर अधिकार रहा था अतः कई वर्षों तक जैनों को शत्रु जय तीर्थ की यात्रा से वंचित रहना पड़ा था और इस अंतराय कर्म को हटाने वाले महाप्रभाविक श्राचार्य बज्रस्वामी और धर्मवीर जावड़ शाह हुये कि इन्होंने दुष्ट सुर के पंजे में गये हुये शत्रु जय तीर्थ को पुनः दूध एवं शत्रु जी नदी के निर्मल अल से धोकर एवं शुद्ध बना कर पुनः उद्धार करवाया । तब से जाकर चतुर्विध श्रीसंघ ने श्रीशत्रु जय तीर्थ की यात्रा की। जावड़ शाह – आचार्य श्रीस्वयंप्रभसूरि ने पद्मावती नगरी के राजा पद्मसेनादि ४५००० जन समूह को जैनधर्म में दीक्षित किये । श्रागे चलकर उस समूह का प्राग्वटवंश नाम संस्करण हुआ । वंशावलियों से पता मिलता है कि पद्मावती में प्राग्वट वंशीय शाह देवड़ रहता था। देवड़ के ११ पुत्र थे जिसमें भागड़ भी एक था। भाइयों की अनबन के कारण भावड़ पद्मावती छोड़ सौराष्ट्र मे चला गया और कपीलपुर में जाकर बस गया और व्यापार में भावड़ ने बहुत द्रव्य भी पैदा किया पर कर्मों की गति विचित्र होती एक ही भव में मनुष्य अनेक दशाओं को देख लेता है यही हाल भावड़ का हुआ था । नगर भावला था और वह धर्मकरनी में कारण धन कम हो गया परन्तु दृढ़ व्रत वाली श्राविका थी । धर्म की तो वृद्धि होती गई कहा भावड़ शाह की गृहणी का नाम भावड़ शाह के पूर्व जन्म की अन्तराय है कि 'सत्य की बांधी लक्ष्मी फिर मिलेगी आय ।' एक समय भावला के मकान पर दो मुनि भिक्षार्थ आ निकले। भावला ने अपना अहोभाग्य समझ कर गुरु भक्ति की और उनको सादर आहार पानी दिया । उस समय भावला गर्भवती थी । मुनियों ने निमित्त ज्ञान के बल से कहा कि माता तुम्हारे पुत्र होगा । यह जैन शासन का उद्धार करने वाला भाग्यशाली होगा पुनः मुनियों ने कहा कि कल एक घोड़ी बिकेगी उसे खरीद कर लेना कि जिससे आपको बहुत लाभ होगा । बस इतना कह कर मुनि तो चले गये । भावला ने सब बात अपने पतिदेव को कह दीं जिससे दोनों ने शुभ शकुन मान कर मंगलीक गांठ लगादी। दूसरे दिन एक सोदागर घोड़ी बेचने को आया उसको भावड़शाह ने खरीद कर ली जिसके दो शुभ लक्षण वाले बच्चे पैदा हुए एक तो तीन लक्ष द्रव्य में एक राजा को बेच दिया, दूसरा राजा बिक्रम को भेंट में दे दिया। विक्रम ने खुश हो भावड़शाह को मधुमति आदि १२ ग्राम इनाम में दे दिये । बस, भावड़ व्यापारी नही पर मधुमती का राजा बन गया । बाद उसके एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम जावड़ रक्खा । जावड़ जब जवान हुआ तब उसकों एक श्रेष्ठि कन्या सुशीला के साथ उसका लग्न कर दिया । तदनन्तर भाबड़ का स्वर्गवास हुआ तो राजलक्ष्मी का मालिक जावड़ हुआ। शाह जावड़ राज्य के साथ व्यापार भी करता था । एक समय जावड़शाह ने बहुत सा माल जहाजों में भर कर विदेश में भेजा था । यह बात पादलिप्तसूरि के अधिकार में लिखी गई है कि पादलिप्त सूरि महान् प्रभाविक आचार्य हो गये हैं । आपके गृहस्थ शिष्य नागार्जुन ने शत्रु जय की तलेटी में पादलितपुर नाम का नगर बसाया था । विक्रम की मृत्यु के बाद अरब समुद्र को पार कर लाट में एक म्लेच्छों की सेना आई और उन्होंने लाट सौराष्ट्र के ग्रामों में लूट करनी शुरू कर दी । उसमें शत्रु जय को भी बहुत सी हानि पहुँचाई तथा पाद Jain Ed४९ ६ International [ भगवान् महावीर की परम्परा www.jaimembrary.org Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ लिप्तपुर और मधुमती लूटकर जाबड़शाह को भी पकड़ लिया और जाते समय वे जाबड़ को भी अनार्य देश म साथ ले गये । जाबड़ एक पक्का मुत्सद्दी था अपने चातुर्य एवं कुशलता से मलेच्छों को प्रसन्न कर वहाँ भी अपना करना शुरू कर दिया । जिससे पुष्कल द्रव्योपार्जन कर लिया और वहाँ आने वाले भारतीयों को अनेक प्रकार की सहायता पहुँचाने लगा। । इतना ही क्यों पर जाबड़ ने तो अपने सेवा पूजा दर्शन के लिए वहाँ जैनमंदिर और उपाश्रय भी बनवा लियाथा । उस समय जनमुनियों का बिहार भी उस तरफ हुआ करता थाइधर बिहार करते हुये मुनियों का एक मण्डल अनार्य देश में आया । जावड़शाह ने उनका स्वागत किया। मुनियों ने जावड़ की धर्म भावना देख वहां स्थिरता करदी और धर्मोपदेश देने लगे जिससे अनार्यो पर भी जैन धर्म का अच्छा प्रभाव हुआ। एक समय प्रसंगोपात श्री सिद्धाचल का वर्णन करते हुए कहा कि कदर्पि यक्षद्वारा तीर्थ की बड़ी भारी आशातना हो रही है । श्रीसंघ कई अर्सा से यात्रा से वंचित है । हे श्र ेष्टिवर्ण्य ! यह पुन्य कार्य तुम्हारे हाथ से होने वाला है । तुम इस कार्य के लिये उद्यम करो। इस का में द्रव्य की अपेक्षा राजसत्ता की अधिक जरूरत है यहां की साता के अलावा तक्षिला के राजा जगन्मल के पास प्रभु आदीश्वर की मूर्ति है। उसे प्राप्त कर शत्रु जय पर स्थापित कर अनंत पुन्योपार्जन करो इत्यादि । वड़ का दिल देश एवं मातृभूमि तथा तीर्थ की ओर आकर्षित हुआ । अतः वहां से चल कर तक्षिला आया । बहुमूल्य भेंट देकर राजा को प्रसन्न किया । राजा ने पूजा कहो सेठजी आपको किस बात की जरूरत है जावड़ ने मूर्ति मांगी और राजा ने जावड़ को मूर्ति देदी इतना ही क्यों पर राजा ने तो जावड़ को सौराष्ट्र तक इंतजाम कर मधुमति नगरी तक क्षेमकुशल से पहुँचा दिया । जब मनुष्य के पुन्योदय होता है तब चारों ओर से लाभ ही लाभ मिलता है । जावड़ ने जो माल जहाजों द्वारा विदेश में भेजा था उसके लिए इतने वर्ष हो गये कुछ भी समाचार नहीं मिले थे पर इधर तो जावड़ मधुमति आता है और उधर से वे जहाजों भी मधुमति श्र पहुँचती है । अहाहा धर्म एक कैसा मित्र एवं कैसा सहायक होता है कि जिसका फल अवश्य मिलता है भले थोड़ा दिन की अन्तराय आ भी जाय पर उस अवस्था में मनुष्य अपने धर्म पर पावन्दी रखता है तो शीघ्र ही आपत्ति से मुक्त हो सुखों का अनुभव करने लग जाता है एक समय जावड़ म्लेच्छों द्वारा पकड़ा गया था तब आज जावड़ शाह अपार सम्पति का धनी बनकर शत्रुंजय का उद्धार की भावना वाला बन गया है । उस समय आर्यसूरि विहार करते हुए मधुमति आये । जाबड़शाह सूरिजी को वन्दन करने को गया उस समय लक्षदेवों का अधिपति एक देव भी, सूरिजी को वन्दन करने के लिये आया था। सूरिजी ने धर्मलाभ देकर जावड़ के कार्य में मदद कर तीर्थोद्धार करने का उपदेश दिया देवता ने सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्ण्य करली | बड़ ने कहा प्रभो ! इस महान तीर्थं का उद्धार करना कोई साधारण सी बात नहीं है । इसमें पुष्कल द्रव्य की आवश्यकता है। सूरिजी ने कहा तुम्हारे जो जहाज आये हैं उनमें रेती सी दीखती है वास्तव में वह रेती नहीं पर तेजमतुरी है जिससे लोहे का सुवर्ण बन जाता है । बस, फिर तो कहना ही क्या था ? एक तरफ तो देव की सहायता और दूसरी तरफ द्रव्य की प्रचु रता । जाबड़ का उत्साह बढ़ गया । जाबड़ सब साधन सामग्री एवं तक्षिला से लाई हुई मूर्ति लेकर श्रीसंघ + उस समय तक्षिला ५०० जैनमन्दिरों से सुशोभित जैनियों का एक केन्द्र था । बड़शाह का उद्धार | Jain Education Internatio ४९७ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तथा आर्यबज्रसूरि के साथ शत्रुजय आया। पर वहां के यक्ष ने २१ दिन तक खूब उपद्रव किया । आखिर उसको परास्त होकर वहां से भागना पड़ा। ____ बस, फिर तो था ही क्या । जाबड़शाह ने शत्रुजय पर्वत को दूध और शत्रुजी नदी के निर्मलनीर से धुलवाया और वहां का सब काम करवा कर तक्षशिला से लाई हुई भगवान आदीश्वर की मूर्ति की प्रतिष्ठा आचार्य बन सूरि के कर कमलों से करवाई। आचार्य श्री ने द्रव्य क्षेत्र काल भाव को जान कर कबड़देव और चक्रेश्वरीदेवी को वहां के अधिष्ठाता के रूप में स्थापन किया । आचार्य बज्रसूरि और जाबड़ शाह के प्रभावशाली प्रयत्न से चतुर्विध श्रीसंघ को फिर से पुनीत तीर्थ की यात्रा करने का शौभाग्य मिला है । जैन संसार में जाबड़शाह खूब प्रसिद्ध पुरुष है और इनके द्वारा फराया हुआ तीर्थधिराज श्रीशत्रुजय का उद्वार भी महत्वपूर्ण कार्य है जिसको जैन समाज कभी भूल नहीं सकता है आज पर्यन्त चतुर्विध श्रीसंघ तीर्थराज की यात्रा सेवा भक्ति कर अपना कल्याण कर रहा है जिसका सर्व श्रेय स्वानामधन्य प्राग्वट वंश भूषण श्रीमान् जावड़शाह को ही है । यद्यपि इनके बाद श्रीमाल एवं ओसवालों ने भी इस पुनीत तीर्थ का उद्धार करवाया है पर पंचमारा में उस विकट परिस्थिति में उद्धार करवाने वाले गुरु वज्रस्वामि और जावड़शाह विशेष धन्यवाद के पात्र कहा जा सकते हैं। श्री शत्रुजय का संघ---आचार्य जज्जगसूरि विहार करते हुए पालिकापुरी में पधारे श्री संघ ने आपका अच्छा स्वागत किया सूरिजी का प्रभावोत्पादक व्याख्यान हमेशा होता था एक समय आपने श्रीरात्रुञ्जय तीर्थ का महात्म्य बतलाते हुए तीर्थ यात्रा से शासन की प्रभावना और भविष्य में कल्याणकारी फल का विस्तार से बर्णन किया जिससे जनता की रुची तीर्थयात्रा की हो आई कारण कई अर्सा से श्री शत्रुजय की यात्रा बन्द थी पर श्रार्य बनसूरि और जावड़शाह के प्रयत्न से पुनः तीर्थ का उद्धार हुआ था अतः सबका दिल पुनीत तीर्थ की यात्रा करने का हो जाना एक स्वाभाविक ही था उसी सभा में बैठा हुआ अपार सम्पत्ति का मालिक प्राग्वट वंशीय शाह जोधड़ा ने सूरिजी एवं श्रीसंघ से अर्ज की कि श्रीसंघ मुझे आदेश दिरावे मैं श्रीशत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाल् ? सूरिजी ने कहा जोघड़ा तु बड़ा ही भाग्यशाली है श्री संघ ने भी अनुमोदन के साथ आदेश दे दिया । बस फिर तो कहना ही क्या था शाह जोघड़ा ने बड़ी भारी तैयारियां करनी शुरू कर दी । सर्वत्र आमंत्रण पत्रिकाएँ भेज दी । इस संघ में एक लक्ष से भी अधिक भावुक और तीन हजार साधु साध्वियां थे जिसमें अधिक साधु साध्यिां उपकेश एवं कारंटगच्छ के ही थे उस समय आचार्य रत्नप्रभसूरि चन्द्रावती नगरी में विराजते थे अतः संघपति जोपड़ा ने स्वयं जाकर विनती की अतः सूरिजी ने जोपड़ा की प्रार्थना स्वीकार कर संघ में शामिल होने की मंजूरी फरमादी जब संघ पालिकपुरी से प्रस्थान कर चन्द्रावती आया तो सूरिजी अपने शिष्यों के साथ शामिल हो गये फिर तो था ही क्या सबका उत्साह द्विगुणित हो गया आचार्य जज्जगसूरि ने भी सूरिजी का यथायोग्य विनय किया ! शत्रुजय की यात्रा खुल्ली होने के बाद यह पहला ही संघ का अतः जनता एक दम उलट पड़ी थी जब संघ शत्रुजय पहुँचा उस समय शत्रुजय पर छोटा बड़ा तेरह संघ आये थे पर सब से बड़ा संघ मरूधर का ही था। सब लोगों ने परमात्मा युगाधीश्वर की यात्रा कर पूर्व संचित पाप का प्रक्षालन कर डाला आठ दिन अष्टान्हिका एवं ध्वज महोत्सवादि और स्वामि वात्सल्यादि किये अनेक महानुभावों ने संघ को पेहरामणि वगैरह दी शाह जोघड़ ने इस संघ में एक करोड़ द्रव्य शुभ क्षेत्र में लगाया Jain E०४९८international [ भगवान् महावीर की परम्परा intry.org Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] १७ - ग्राचार्य यक्षदेव सूरि (तृतीय) [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ आचार्यस्तु देव पदयुक् सूरिर्नृपस्य सुतः । विद्या ज्ञान कलाधरो न विजहौ धर्म स्वकीयं च यः ॥ दुष्कालेऽपि च वज्रसेन विदुषः सूरेः सुशिष्यान् सुधीः । जज्ञौ ये तु निवृत्ति विद्याधर पुङ् नागेन्द्र चान्द्रान्वयाः ॥ जाता: जैन समाज लोक विषये कर्त्तापकारस्य ये । भूरेः सूरियं कदापि न हि किं विस्मार्य कार्योऽस्ति वा ॥ किन्त्वेकं करवा बद्ध करता युक्त सदाभ्यर्थयन् । कल्याणं कुरुतां जनस्य भगवन् प्र ेम्णा कटाक्षं तव ॥ DINE आचार्यश्री यज्ञदेवसूरीश्वरजी महान प्रभाविक आचार्य हुए हैं। के महान प्रतापी राजा वीरधवल की विदुषी पट्टराज्ञी हुआ था और आपका शुभ नाम वीरसेन रक्खा था। और शरीर में रहे हुए शुभ लक्षण आपके भावी होनहार की शुभ सूचना कर रहे थे | आपका पालन पोषण सब क्षत्रियोचित हो रहा था। आप वर्ण में क्षत्री थे पर विद्या में तो ब्राह्मण वर्ण के सदृश्य ही थे कि बालभात्र मुक्त होते ही आपके पिताश्री ने महोत्सवपूर्वक विद्यालय में प्रविष्ट किया पर आपकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि अपने सहपाठियों में सदैव अमेश्वर ही रहते थे । कहा भी है कि 'बुद्धि कर्मानुसारणी' जिन जीवों ने पूर्व जन्म में ज्ञान पद की एवं देवी सरस्वती की आराधना की हो उनके लिये इस प्रकार शीघ्र ज्ञान प्राप्त कर लेना कोई मुश्किल की बात नहीं है । राजकुँवर वीरसेन आठ वर्ष की पढ़ाई में पुरुष की ७२ कलाओं में एवं राजतंत्र चलाने में विज्ञ बन गया । Jain Education international जब राज कुँवर वीरसेन सोलह वर्ष का हुआ तो उसकी शादी के लिये अनेक प्रस्ताव मय चित्रों के आये उसमें उपकेशपुर नगर के राव नरसिंह की सुशीला पुत्री सोनलदेवी के साथ वीरसेन का सम्बन्ध (सगाई) कर दी समयान्तर बड़े ही समारोह के साथ विवाह कर दिया । राजकन्या सोनलदेवी के माता पिता जैनधर्मोपासक थे अतः सोनलदेवी जैनधर्मापासिका हो यह तो एक स्वभाविक बात है। इतना ही क्यों पर सोनलदेवी को बचपन से ही धार्मिक ज्ञान की अच्छी शिक्षा दी गई थी कि अपना षट्कर्म एवं क्रिया विशेष में सदैव रत रहती थी। जैनमुनि एवं साध्वियों से सोनल ने जैनधर्म के दार्शनिक एवं तात्विक ज्ञान का भी अच्छा अभ्यास कर लिया था जिसमें भी कर्म सिद्धान्त पर तो उसकी अटल श्रद्धा एवं विशेष रुचि थी । उपशपुर की राजकन्या सोनलदेवी ] आपका जन्म वीरपुर नगर गुनसेना की पवित्र कुक्ष से आपके हाथ पैरों की रेखा विवाह होने पर सोनलदेवी अपनी सुसराल जाती है और वहां उसकी कसौटी का समय उपस्थित होता है । वाममार्गियों ने एक ऐसा भी रिवाज कर रक्खा था कि कोई भी व्यक्ति परण के आवे तो नगर में या नगर के बाहर जितने देवी देव हों उन सब की जात दें । तदनुसार वीरसेन और सोनलदेवी को भी ४९९ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जात देना जरूरी था पर सोनलदेवी थी जैनधर्मोपासिका उसने साफ शब्दों में कह दिया कि मैं तो एक सर्वज्ञ एवं वीतराग को ही देव मानती हूँ और उनको ही अपना शिर मुकाती हूँ। अतः मेरी प्रतिज्ञा का निर्वाह करना आपके हाथों में है। वीरसेन के माता पिता आदि कुटुम्बी नववधु के बचन सुन कर विचार में पड़ गये कि यह क्या धर्म है कि शुभ मंगलीक के लिये देवी देवताओं की जात दी जाती है जिसके लिये लाडीजी आज ही इन्कार करती है तो भविष्य में इसका क्या नतीजा होगा ? साथ में यह पहले पहल मौका है। बहू को नाराज भी नहीं करनी चाहिये । अतः सासु ने आकर मधुर एवं प्रेम बचनों से सोनलदेवी से कहा वीनणी जी ! मेरे तो तू एक ही लाड़ली बहू है तेरे सिवाय मेरे राज में और क्या प्रिय वस्तु हो सकती है। मैं तेरे नियम प्रतिज्ञा एवं धर्म में दखल करना नहीं चाहती हूँ पर यह पब्लिक का काम है आज तो आप मेरे कहने से ही यहाँ के रिवाज के अनुसार देवी देवताओं की जात दे श्राओ। बाद जैसा तू कहेगी वैसा ही मैं करूँगी। सोनलदेवी बड़ी समझदार थी। उसने सोचा कि इस समय मेरी सासुजी इतना प्रेम दिखा रही हैं तो मेरा कर्तव्य है कि मैं इनके सामने विनय करूँ और मेरे इस विनय का भविष्य में इन पर अवश्य प्रभाव पड़ेगा अर्थात् इनसे मुझे कई प्रकार से काम लेना है। दूसरे सम्यक्त्व में ६ आगार भी कहा हैं अतः सोनलदेवी अपनी सासुजी का कहना शिरोधार्य कर इच्छा न होने पर भी अपने पतिदेव के साथ जाकर देवी देवता की जात दे आई । सासु को बहू यों ही प्यारी लगती है जिसमें सोनलदेवी जैसी विनयशील बहू का तो कहना ही क्या था । फिर तो सासुजी का प्रेम इतना बढ़ गया कि वह दिन तो लाडकोड में निकल गया। शाम के समय सोनलदेवी स्थापनाजी रख कर प्रतिक्रमण करने लगी तो जैसे तमाशा देखने को जनता एकत्र होती हैं वैसे सासु वगैरह बहुत औरत एकत्र हो गई। एक घंटा भर उसकी प्रतिक्रमण क्रिया देखी तो वे सब आश्चर्य करने लगी कि इतने इतने वर्षों में हम कुछ धर्म क्रिया नहीं जानती तब वह बालका इस रंग राग के समय भी अपना षटकम कर रही है। जब सोनलदेवी की प्रतिक्रमण क्रिया समाप्त हुई तो सासु वगैरह सबने पूछा कि बहूजी आपने यह क्या किया है ? सोनल देवी ने शुरू से लेकर आखिर तक प्रतिक्रमण का भावार्थ कह सुनाया जिसको सुन कर सासुजी आदि ने बड़ी खुशी मनाई कि मेरे अहो भाग्य हैं कि मेरे घर में ऐसी लाड़ी आई है । सासुजी ने कहा क्यों लाड़ी जी! आप मुझे भी इस प्रकार की क्रिया करावेंगी ? सोनलदेवी ने कहा कि क्यों नहीं यह तो मेरा कर्तव्य है ही कि पूज्य माता पिता एवं सासु सुसरा की विनय व्यावच करना उनका हुक्म उठाना और धर्म कार्य में सहायता देना । सासजी आप सुबह जल्दी उठ जाइये कि मैं आपको प्रतिक्रमण करवा दूंगी इत्यादि । सासुजी ने कहा अच्छा लाडीजी मैं सुबह जल्दी आऊँगी । और तुम्हारे साथ मैं भी प्रतिक्रमण करूँगी। सुबह जल्दी उठकर सासु बहू ने प्रतिक्रमण किया तो सासु को इतना आनन्द आया कि जिसको वह कह भी नहीं सकी । यह बात राजअन्तेवर में सर्वत्र फैल गई। यहाँ तक कि राजगुरु के कानों तक पहुँच गई। उन्होंने सोचा कि जब उपकेशपुर राजा के साथ सम्बन्ध हुआ था तब से ही शंका थी कि उन नास्तिकों के यहाँ की राजकन्या आवेगी तो यहाँ कुछ न कुछ भ्रम फैला ही देंगी। वास्तव में यह बात सत्य हो गई। अतः इसका इलाज जल्दी करना अच्छा है। वरना रोग बढ़ने पर बात हाथ में नहीं रहेगी। अतः वे लोग चल कर राजअन्तेवर में आये और रानी को कहा लाओ लाड़ीजी को कि गुरुमंत्र सुना कर कंठी बन्धवादी जाय श्राज Jain Ed५००nternational For Private & Personal use only . [ सोनलदेवी और सा.सु.nary.org Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्ष देवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ का दिन अच्छा है। सासुजी ने कहा लाडीजी ! आइये अपने गुरु आये हैं इनसे गुरुमंत्र सुनकर कंठी बन्धवा लीजिये। सोनलदेवी ने सोचा यह क्या पाखंड है। इनके गले में सोने की जनेऊ पड़ी हुई है पैरों में खड़ाऊं पहिने हुए हैं मुँह में तंबोल-पान है और स्त्रियों को भी छूते हैं यह कैसे गुरु हैं ! विनय के साथ सासुजी से कहा आपका कहना ठीक है कि गुरु बिना ज्ञान नहीं, गुरु बिना कल्याण नहीं । श्रतः मनुष्यमात्र का कर्त्तव्य है कि गुरु अवश्य करना चाहिये पर गुरु ऐसा करना चाहिये कि वह अपने कल्याण के साथ दूसरे का कल्याण कर सके । यदि सारंभी सपरिग्रही भी गुरु कहलाते हों तो फिर अपने और गुरु में फरक ही क्या है ? सासुजी -लाड़ीजी ! आप ही बतलाइये फिर गुरु कैसे होते हैं ? लाडीजी ने कहा - सासुजी ! कनक कामिनी के त्यागी पंच महाव्रतधारी केवल संयम और शरीर के निर्वाह के लिये स्वल्प वस्त्र पात्र एवं शुद्ध सात्विक आहार पानी वह भी मधुकरी भिक्षा से अपना निर्वाह करते हों तथा उनके न मठ मकान होते हैं। न किसी पदार्थ का संचय एवं संग्रह रखते हैं परन्तु केवल जनकल्याण की भावना के लिये शीतोष्णकाल के लिये एक मास और चतुर्मास में चार मास के अलावा कहीं अधिक नहीं ठहरते हैं। सासुजी ! ऐसे निस्पृही मुनियों को गुरु कहा जाता है । पास में बैठे हुए बाबाजी बोल उठे कि माजी साहब आपके लाड़ीजी तो नास्तिक हैं । इनकी तो मंत्रों द्वारा शुद्धि करनी पड़ेगी। सोनलदेवी ने पूछा कि पूज्य सासुजी ! आपकी आज्ञा हो तो मैं बाबाजी से शुद्धि के बारे में कुछ पूछ ? सासुजी ने कहा नहीं लाड़ीजी ! यह तो अपने गुरु हैं। गुरु के सामने बोलना महान पाप है । गुरु कहें सो मंजूर कर लेना ही अपना धर्म है। सोनलदेवी ने सोचा कि यहाँ तो जेट की जेट ही कच्ची है । अन्धविश्वास शायद इसका ही नाम होगा । परन्तु उतावल करने से काम नहीं बनेगा । अतः धीरे-धीरे ही काम लेना चाहिये । लाड़ीजी ने कहा ठीक है सासुजी मैंने गुरु तो आठ वर्ष की अवस्था में ही कर लिया था अब दुबारा गुरु करने की आवश्यकता नहीं है । सासु ने कहा ठीक है लाड़ीजी । बाबाजी भी समझ गये कि यहाँ अपनी दाल गलने की नहीं है। अतः उठकर नौ दो ग्यारह हो गये । दिन भर तो सासूजी के लाड़ लड़ाने में व्यतीत कर दिया। शाम को जब प्रतिक्रमण का समय हुआ तो कौतूहल देखने को बहुत औरते आगई । उनको भी प्रतिक्रमण में शामिल बैठा ली। उठ बैठादि क्रिया करना तो उनके लिए कठिन था पर उन्होंने मजाक-मजाक में घंटा भर सब क्रिया की। सोनलदेवी कई-कई शब्दों के अर्थ भी समझाया करती थी जिसमें गृहस्थ धर्म के व्रत और अतिचारों की उनको जानकारी होने लगी । प्रतिक्रमण क्रिया समाप्त हो गई तो भी औरतें लाड़ीजी से दूर नहीं हुई । अतः वह देवगुरु और धर्म का थोड़ा-थोड़ा स्वरूप समझाने लगी। साथ में पाखंडियों के माने हुए देवगुरु धर्म के ऐसे दोष बतलाये कि जिससे उनको घृणा होने लग गई । केवल उन औरतों में ही नहीं परन्तु सोनलदेवी ने तो अपने पतिदेव पर भी अपने धर्म का इतना प्रभाव डाला कि मांस और मदिरा से उनको घृणा आने लगी । सोनलदेवी केवल दश ही दिन सुसराल में रही थी पर अपने धर्म की सुगन्ध सर्वत्र फैला दी । आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर के क्षत्रियों की शुद्धिकर जैनधर्म में दीक्षित किये थे उस समय अन्य क्षत्रियों से बेटी व्यवहार खुला रखने का यही कारण था कि उनकी पुत्री को जैन क्षत्रिय अपने यहाँ लावेंगे तो उनका उद्धार करेंगे और जैन क्षत्रियों की पुत्री उनके घर जावेंगी तो उनके घर का भी उद्धार Jain Educपाखण्डियों का पराजय ] ५०१ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कर डालेंगी । इसके लिये सोनलदेवी का उदाहरण प्रमाणभूत है पर इसमें मुख्य कारण बालकों को धार्मिक शिक्षा अच्छी तरह से देना ही है। जैसे सोनलदेवी को दी गई थी सोनलदेवी जब उपकेशपुर आई तो अपने गुरु महाराज से प्रार्थना की कि गुरुवयं आपके एवं आपके पूर्वजों के प्रयत्न से बहुत प्राम नगरों का सुधार हो गया परन्तु अभी ऐसे बहुत प्राम नगर पड़े हैं कि वहाँ आप जैसों के विहार की परमावश्यकता है । गुरु महाराज ने कहा सोनल तेरे सुसराल वाले तो सब वाममार्गी बतलाते हैं ? हाँ गुरुदेव ! जब ही तो मैं अर्ज कर रही हूँ कि आप उधर पधारे आपको बहुत लाभ होंगे । वहाँ के लोग बड़े ही सरल स्वभाव के एवं भद्रिक परिणामी हैं। गुरु महाराज ने फरमाया ठीक है सोनल ! अवसर देखा जायगा जब तेरा जाना होगा तब हम भी अवसर देखेंगे। सोनेलदेवी कुछ अ6 तक उपकेशपुर में रही बाद अपनी सुसराल चली गई उसी समय आचार्य रत्नप्रभसूरि भ्रमण करते हुए वीरपुर नगर में पधार गये । वहाँ के संघ ने सूरिजी का सुन्दर स्वागत किया। इतना ही क्यों पर राजकन्या सोनल ने भी अपने सुसराल वालों को प्रेरणा करके सूरिजी का स्वागत कर वाया और सोनलदेवी हमेशा व्याख्यान सुनने के लिए भी कोशिश किया करती थी। सूरिजी का व्याख्यान बड़ा ही मधुर रोचक और प्रभावोत्पादक था। नगर भर में जहां देखो वहाँ सूरिजी एवं जैनधर्म की प्रशंसा हो रही थी । यही कारण था कि वहाँ के पाखण्डियों के आसन हिलने लगे। उन्होंने राजा एवं राज कुँवर तथा राज अन्तेवर में जा-जा कर बहुत कहना सुनना किया पर उनकी एक न चली। इस हालत में वे लोग जैनधर्म को नास्तिक धर्म बतला कर खूप पेट भर निन्दा करने लगे । आखिर राजा वीरधवल ने कहा कि मैं इस प्रकार एक त्यागी महात्मा की निन्दा सुनने को तैयार नहीं हूँ यदि आप अपनी सच्चाई बतलाना चाहते हो तो राजसभा में पण्डितों के सामने जैनाचार्य के साथ शास्त्रार्थ करने को तैयार हो जाइये । उन्होंने राजा का कहना स्वीकार कर लिय । अतः राजा ने सूरिजी से भी कहा पर सूरिजी तो शास्त्रार्थ के लिए पहिले से ही तैयार थे। राजा ने एक दिन मुकर्रर कर दोनों पक्षवालों को आमंत्रण पूर्वक राजसभा में बुलाये और जिस समय दोनों का शास्त्रार्थ श्रारम्भ हुआ उस समय राजसभा श्रोताओं से खचाखच भर गई थी तथा अच्छे २ निष्पक्ष एवं मध्यस्थ पण्डित भी उपस्थित थे । एक तरफ राज अन्तेवर एवं महिला समाज के लिए इन्तजाम कर रक्खा था जिससे सोनलदेवी आदि राज अन्तेवर एवं नगर की महिलायें बैठ गई थीं। ___ वाममागियों के पास केवल एक ही शब्द था कि जैनधर्म नास्तिक धर्म है क्योंकि यह वेद एवं वेद कथित ईश्वर और ईश्वर कथित यज्ञ को नहीं मानते हैं ? आचार्य रत्नप्रभसूरि के पास एक पण्डित निधानमूर्ति नामक विद्वानमुनि थे उसने सूरिश्री की आज्ञा लेकर उन वादियों से पूछा कि आप नास्तिक आस्तिक का क्या अर्थ करते हैं ? इस विषय में खूब वादविवाद चला । पं० निधानमूर्ति युवकावस्था में होने पर भी उनके शब्द बड़े ही धैर्य गांभीर्य माधुर्य और प्रमाण एवं युक्ति मय निकलते थे कि जिसका प्रभाव सभा पर तो हुआ ही था पर उन वाममार्गियों पर भी इस कदर हुआ कि वे मिथ्या पंथ का त्याग कर सूरिजी के पास दीक्षा लेने को तैयार हो गये और सूरिजी ने उन लोगों को दीक्षा दे अपने शिष्य बना लिये । फिर राजा प्रजा का तो कहना ही क्या था वे सबके सब जैनधर्म में दीक्षित हो जैन श्रावक बन गये और साथ में सूरिजी से चतुर्मास की विनती बड़े ही आग्रह से की और लाभालाभ का कारण जानकर सूरिजी ने चतुर्मास वहां ही कर दिया । Jain Ella International For Private & Personal use [ राजसभा में पाखण्डियों का पराजय ary.org Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ परम श्रावका सोनलदेवी के उत्साह का पार नहीं था उसने केवल राजघराने का ही उद्धार नहीं किया पर सब नगर का ही उद्धार कर दिया । लिखी पढ़ी महिलाएं क्या नहीं कर सकती हैं ? अब तो सोनलदेवी ज्ञान ध्यान एवं धर्म कार्य में इस प्रकार जुट गई कि उसका दिल संसार से विरक्त होने लग गया । साथ में आचार्यश्री का त्याग वैराग्य मय व्याख्यान फिर तो कहना ही क्या था? सोनलदेवी अपने पतिदेव को इस प्रकार समझाती थी कि संसार असार है विषय भोग किंपाक फल के समान कटुक फल के दाता हैं इससे ही जीव अनादि काल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है । इस समय सब सामग्री अनुकूल मिली है। यदि इसमें कल्शण साधन किया जाय तो जन्म मरण के दुःखों से छुटकारा मिल सकता है इत्यादि । वीरसेन अपनी पन्नी के भावों को जान गया और कहा कि क्या आपकी इच्छा विषय भोग एवं संसार त्याग देने की है ? देवी ने कहा हां! वीरसेन ने कहा यदि ऐसा ही है तो कीजिये तैयारी मैं भी आपके साथ हूँ। फिर तो कहना ही क्या था? दम्पति चलकर सूरिजी के पास आये और अपने मनोगत भाव प्रकाशित कर दिये। सूरिजी ने कहा राजकुबर आप बड़े ही भाग्यशाली हैं फिर सोनलदेवी का संयोग यह तो सोने में सुगन्ध है। पूर्व जमाने में बड़े २ चक्रवर्तियों ने जिनेन्द्र दीक्षा की शरण ली है। राज पाट भोग विलास जीव को अनंत वार मिला पर इससे कल्याण नहीं हुआ। कल्याण तो इसका त्याग करने में ही है। अतः श्राप शीघ्रता कीजिये कहा है कि 'समयंगोयमामपमाए' । क्योंकि गया हुआ समय फिर नहीं आता है इस बात का पता जब राजा वीरधवल और रानी गुनसेना को मिला तो पहिले तो वे दुःखी हुए पर जब सोनलदेवी ने अपनी सासू को इस प्रकार समझाया कि उनकी भावना दीक्षा लेने की हो गई । इस हालत में एक राजा ही पीछे क्यों रहे । उसने अपने लौतासा कुँवर देवसेन को राज देकर दीक्षा लेने का विवार कर लिया । जब नगर के लोगों ने इस प्रकार राजा रानी और कुँवर कुँवरानी का यकायक दीक्षा लेने का समाचार सुना तो मंत्र मुग्ध बन गये और कई नरनारी तो उनका अनुकरण करने को भी तैयार हो गये । इधर सूरिजी का उपदेश हमेशा त्याग वैराग्य पर होता ही था । बस, चतुर्मास समाप्त होने तक तो कई ४५ नरनारी दीक्षा लेने को तैयार हो गये । राजा वीरधवल ने अपने पुत्र देवसेन को तख्तनशी न कर राजा बनादिया और उसने तथा श्रीसंघ ने दीक्षा का महोत्सव बड़ा ही शानदार किया। कारण एक तो खास राजा रानी और कुँवर कुँवरानी आदि ४५ नरनारियों की दीक्षा। दूसरे इस नगर में इस प्रकार दीक्षा का लेना पहले पहल ही था तीसरे सूरिजी महाराज का अतिशय प्रभाव ही इतना जबरदस्त था कि सब का उत्साह बढ़ रहा था । उधर उपके शपुर आदि बाहर प्रामों से भी बहुत से लोग आये हुए थे। जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य श्रादि धर्मकृत्य महोत्सव पूर्वक हो रहे थे। स्थिर लग्न एवं शुभ मुहूर्त में सूरीश्वरजी महाराज ने राजा वीरधवलादि मुमुक्षुओं को विधि विधान के साथ दीक्षा देकर उन सब का उद्धार किया । वीरसेन का नाम सोमकलस रक्खा गया था । मुनी सोमकलश बड़ा ही भाग्यशाली था। बुद्धि में तो वृहस्पति भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता था फिर भी सूरीजी महाराज की पूर्ण कृपा होने से स्वल्प समय में वर्तमान सकल साहित्य का एवं दशपूर्व तक का अध्ययन कर लिया था। यही कारण था कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने अपनी अन्तिमावस्था में वीरपुर नगर के राजा देवसेनादि सकल श्रीसंघ के महोत्सव पूर्वक मुनी सोमकलस को सूरि मंत्र की आराधना करवा कर प्राचार्य पद से विभूषित कर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया साथ में मुनि राजसुन्दर श्रादि ५ साधुओं को Jain Edue राजा राजकुँवरादि ४५ जनों की दीक्षा ] Private & Personal use Only www.५०३ary.org Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष। [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उपाध्याय, क्षमाकलसा आदि सप्त साधुओं को बाचनाचार्य मुनि पद्मविशाल आदि ७ साधुओं को पण्डित पद आदि पदवियां प्रदान कर उनके उत्साह में वृद्धि की उस समय एक तो साधुओं की संख्या अधिक थी दूसरे साधुओं को पृथक २ प्रान्तों में विहार करना पड़ता था अतः उन साधुओं की सार संभाल एवं आलोचना देने वगैरह के लिये पदवीधरों की आवश्यकता भी थी। प्राचार्य यक्षदेवसूरि महान् प्रभावशाली एवं जैनधर्म के प्रचारक एक वीर प्राचार्य थे । आपने अपने पूर्वजों की भाँति प्रत्येक प्रान्त में विहार कर जैनधर्म का काफी प्रचार किया। कई मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म की शिक्षा-दीक्षा दी एवं कई मुमुक्षु प्रों को जैनधर्म की मुनि दीक्षा दी। कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठायें करवाई। कई नगरों से बड़े २ संघ निकलवा कर तीर्थों की यात्रा की कई स्थानों में राजसभात्रों में बोध एवं वेदान्तियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजय पताका फहराई । कई दुष्कालों में देशवासी भाइयों की रक्षा का उपदेश देकर उनको सहायता पहुँचाई कई स्थानों में असंख्य मूक प्राणियों की बली रूप यज्ञप्रथा को उन्मूलन कर उन जीवों को अभयदान दिलवाया और कई जनोपयोगी प्रन्थों का निर्माण कर जैन धर्म को चिरस्थायी बनाया इत्यादि जैन समाज पर ही नहीं पर अखिल भारत पर आपका महान उपकार हुआ है । आर्य बत्रसूरि के जीवन में लिखा गया है कि आपके समय बारह वर्षीय दुकाल के कारण जैनश्रमणों के पठन पाठन स्वाध्याय ध्यान एवं आगम वाचना बन्द सी हो गई थी और साधुओं की दशा भी छिन्न भिन्न हो गई थी। और बाद थोड़ा ही अर्सा में आर्या बन्न सेन के समय दूसरा जन संहार बारह काली दुकाल पड़ गया जब दुकाल के अन्त में पुनः सुकाल हुआ तो आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने साधु साध्वियों के अलावा आर्य बत्रस्वामी के साधु साविय को भी एकत्र कर उन श्रमण संघ की सर्व प्रकार की व्यवस्था कर पुनः संगठन किया था। इसका उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों के में मिलता है। जिसका भागर्थ तदन्वये यक्षदेवसूरिरासीद्धियाँ निधि । दशपूर्वधरोबस्वामी भुव्यभवद्यदा दुर्भिक्षे द्वादशाब्दीये, जनसंहारकारिण । वर्तमानेऽनाशकेन, स्वोऽगुबहुसाधवः ॥ ततो व्यतीते दुर्भिक्षेऽवशिष्टान् मिलितान् मुनीन् । अमेलयन्यक्षदेवाचार्या चन्द्रगणे तथा ॥ तदादि चन्द्रगच्छस्य, शिष्य प्रव्राजनाविधौ । श्राद्धाना वास निक्षेपे, चन्द्रगच्छः प्रकीर्त्यते ॥ गणः कोटिक नामापि, वज्रशाखाऽपि संमता। चान्द्रं कुलं च गच्छेऽस्मिन, साम्प्रतं कथ्यते ततः ॥ शतानि पंच साधूनां, पुनगच्छेऽपिमिलन्निह । शतानि सप्त साध्वीनां, तथोपाध्याय सप्तकम् ॥ दशद्वौवाचनाचार्या, रचत्वारो गुरवस्तथा । प्रवर्तकौ द्वावभूतां, तथैवोभे महत्तरे ॥ द्वादशस्युः प्रवर्तिन्यः, सुमीति द्वौ महसरौ । मिलितौ चन्द्रगच्छा तः सङ्खयेयं कथ्यते गणे ॥ उपके शगच्छ चरित्र "एवं अनुक्रमणे वीवीरात् ५८५ वर्ष श्री यक्षदेवसूरिविभूव महाप्रभावकत, द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष नध्ये वनस्वामि शिष्य वनसेनस्यगुरौ परलोक्र प्राप्ते यक्षदेवसूरिणा चतस्त्र शाखा स्थापिता चान्द्र शाखा नागेन्द्र शाखा निवृत्ति शाखा विद्या घर शाखा इत्यादि "उपकेशगच्छ पट्टावली" ___“तथा श्रीपार्थ नाथजी से सतरवें सट्ठ उपर श्रीयक्षदेवसूरि हुये हैं वीरात् ५८५ वर्षे जिन्होंने बारह वर्षीय दुकाल में वज्रस्वामि के शिष्य वज्रसेन के परलोक हुये पिच्छे तिनके चार मुख्य शिष्य जिनको वज्रसेनजी ने सोपारक पट्टन में दीक्षा दींनी थी तिनके नाम से चार शाखा कुल स्थापन कर वाये हैं १ नागेन्द्र २ चान्द्र ३ निर्वृति ४ विद्याधर ये चारों कुल जैनमत में प्रसिद्ध है इत्यादि" "आचार्य विजयानन्दसूरि कृत-जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर पुस्तक पृष्ठ ७७" Jain Edu५०४ternational [ 31914 st FT HETE SYFIT. y.org Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परपम्रा का इतिहास 5 HAVELI मलेच्छों का आक्रमणसमय सूरीजीकैद में व साधु श्रावक मूर्तियाँ शिरपर उठाकर सुरक्षितस्थानमें लेजा रहे हैं सूरीजी को एकेले देख, खटकूप नगर के श्रावकों ने अपने पुत्रों को दीक्षा दिला रहे हैं। wate & Personal Use Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५–५५७ यह है कि दशपूर्वधर आचार्य श्री बज्रसूरि के सदृश्य अनेक गुणनिधि महाप्रभाविक श्राचार्य यक्षदेवसूरि भूमण्डल पर विहार करते थे, उससमय बारहवर्षीय जनसंहार करने वाला भीषण दुष्काल पड़ा था। जब धनिक लोगों के लिये मोतियों के बराबर ज्वार के दाने मिलने मुश्किल हो गये थे तो साधुओं के लिए भिक्षा का तो कहना ही क्या था ? यदि कहीं थोड़ी बहुत भिक्षा मिल भी जाय तो सुख से खाने कौन देता था ? उस भयंकर दुष्काल में यदि कोई व्यक्ति अपने घर से भोजन कर तत्काल ही बाहर निकल जावे तो भिक्षुक उसका उदर चीर कर अन्दर से भोजन निकाल कर खा जाते थे । इस हालत में कितने ही जैनमुनि अनशन पूर्वक स्वर्ग को चले गये। शेष रहे हुए मुनियों ने ज्यों त्यों कर उस अकाल रूपी अटवी का उल्लंघन किया जब दुकाल के अन्त में सुकाल हुआ तो उस समय एक आचार्य यक्षदेवसूरि ही अनुयोगधर एवं मुख्याचार्य रहे थे कि दुकाल से बचे हुए साधु साध्वियों को एकत्र कर पुनः संगठन कर सके अतः उन शासन शुभचिन्तक आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने साधु साध्वियों के साथ ही साथ आर्य बज्रसूरि के साधु साध्वियों को भी एकत्र किये तो ५०० साधु ७०० साध्वियां ७ उपाध्याय १२ वाचनाचार्य ४ गुरु पदधर २ प्रवृतक २ महत्तर (पद विशेष ) १२ प्रवर्तनी २ महत्तरिका इत्यादि । परन्तु दुकाल की भीषण भार से इन सब का पठन पाठन बन्ध सा हो गया था पूर्व पढ़ा हुआ ज्ञान भी प्रायः विस्मृत सा हो गया। उस समय अनुयोगधार केवल एक प्राचार्य यक्षदेव सूरि ही रह गये थे अतः उन साधुओं को आगमों की वाचना के लिये सोपार पट्टन नगर योग्य समझ कर श्रीसंघ की अत्याग्रह से सब साधु साध्वियों सोपारपट्टन की ओर पधार रहे थे। आर्य बज्रसेनसूरि सोपारपट्टन पधार कर जिनदास सेठ की ईश्वरी सेठानी के चन्द्र नागेन्द्र निवृति और विद्याधर नाम के चार पुत्रों की दीक्षा दी थी और आप भी अपने शिष्यों के साथ वहीं विराजते थे। जिस समय आचार्य यक्षदेवसरि सोपारपट्टन पधारे उस समय आर्य बनसेन अपने शिष्यों के साथ तथा वहाँ का श्रीसंघ ने सूरिजी का खूब उत्साह पूर्वक स्वागत किया। जब आचार्य यक्षदेवसूरि श्रमणसंघ को वाचना देना प्रारम्भ किया तो बज्र सेनसूरि के शिष्य चन्द्र नागेन्द्र निति और विद्याधर भी आगम वाचना लेने में शामिल हो गये थे सब मुनियों की वाचना चलती ही थी बीच में ही आर्य बज्रसैनसूरि का आकस्मात् स्वर्गवास हो गया । इस प्रकार गुरु महाराज का वियोग सब के लिये दुःख प्रद था पर उन नूतन शिष्यों के लिये तो और भी बड़ा भारी रञ्ज का करण हुआ पर आचार्य यक्षदेवसूरि ने उनको धैर्य दिलाया और कहा कि इस बात का तो मुझे भी बड़ा भारी रंज है पर इसका उपाय ही क्या है । जैसे ज्ञानियों ने भाव देखा वह ही हुआ है । तुम किसी प्रकार से घबराना नहीं मैं तुमको ज्ञान दूंगा और शिष्य समुदाय बना कर पदवी प्रदान कर दूंगा कि आप अपने शासन का संचालन करने में समर्थ बन जाओगे इत्यादि । जब साधुओं के आगम बाचना समाप्त हुई तो सूरिजी का महान उपकार मानते हुए साधु सूरिजी की आज्ञा लेकर विहार किया। और चन्द्रादि चारों मुनि सूरिजी की सेवा में ही रहे । इस वाचना के पूर्व जैनागम पुस्तकों पर प्रायः नहीं लिखे गये थे यदि थोड़ा बहुत लिखा भी होगा तो दुष्काल के कारण नष्ट भ्रष्ट हो गया होगा अतः सूरिजी ने भविष्य का विचार कर के श्रावकों को उपदेश दिया कि कई श्रावकों ने द्रव्य व्यय कर के जितने आगमों की वाचना हुई थी उन सबकों पुस्तकों अर्थात् ताड़पत्रादि पर लिखवा लिया कि भविष्य में ज्ञान विच्छेद नहीं हो सके । उस समय जो कोई दीक्षा लेने Jan Ea आयं बनसेन और पट्टन] For Private & Personal use Only ५०५ www.janelibrary.org Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वाला आता था तो उनको चन्द्रादि मुनियों के ही शिष्य बना दिये जाते थे। अतः चारों मुनियों के शिष्य भी गहरी तादाद में हो गये। अतः यक्षदेवसूरि ने उन चारों मुनियों को योग्य समझ कर सूरि पद से विभूषित किया । तदन्तर उन चारों सूरियों ने प्राचार्य यक्षदेवसूरि का महान उपकार मानते हुये सूरिजी की आज्ञा लेकर विहार किया। प्राचार्य यक्षदेवसूरि का प्रभाव ही ऐसा था कि आपके दिये हुए ज्ञान और सूरि पद से वे चारों सूरि महान प्रभाविक हुये। और उन चारों के नाम से चार कुल प्रसिद्ध हुये जैसे चन्द्र. कुल, नागेन्द्रकुल, निर्वृतिकुल और विद्याधर कुल । ___ कल्पसूत्र की स्थविरावली में श्रार्यबज्रसैन के चार शिष्यों से चार शाखायें निकली जैसे-- १-आर्य नागल से नागली शाखा निकली २-~आर्य पौमिल से पौमिली शाखा निकली ३-आय्य जयन्त से जयन्ति शाखा निकली ४-आर्य तापस से तापसी शाखा निकली इन चार शाखाओं के अलावा चन्द्र, नागेन्द्र, निर्वृति और विद्याधर का नाम कल्पसूत्र की स्थवि. रावली में नहीं आया है । शायद इसका यह कारण हो सकता है कि आर्य्य बज्रसैन के पहिले नागलादि चार शिष्य मुख्य होंगे कि जिन्हों का उल्लेख कल्पसूत्र में कर दिया। बाद में दुष्काल के अन्त में चन्द्रादि चार मुनियों को दीक्षा दी और बज्रसैन का तुरत ही स्वर्गवास हो गया और वाद में यक्षदेवसूरि के करकमलों से इनको सूरि बनाये थे । अतः कल्पसूत्र में इनका नामोल्लेख नहीं किया हो तो कोई विरोध की बात नहीं है । कारण विक्रम की दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी के प्रन्थों में इन चन्द्रादि चारों कुनों के प्रमाण मिलते हैं । और इन कुलों की परम्परा संतान में महान प्रभाविक आचार्य हुए हैं जैसे कि १-चन्द्रकुल में-अभय देवसूरि, हेमचन्द्रसूरि, शान्तिसूरि, जगचन्द्रसूरि आदि आचार्य २-नागेन्द्रफुल में-आचार्य उदयप्रभसूरि, मल्लीषणसूरि आदि आचार्य ३-निवृति कुल में-दुणाचार्य, सूराचाय, गर्षि, दुर्गषि, सिद्धर्षि आदि आचार्य ५- विद्याधर कुल में-जिनदत्तसूरि और आपके शिष्य १४४४ ग्रन्थों के कर्ता हरिभद्रसूरि इत्यादि उल्लेख मिलते हैं। हाँ, पहिले ये चारों कुलों के गम से प्रसिद्ध थे पर बाद में इन कुलों ने गच्छों का रूप धारण कर लिया। अतः शिलालेखों एवं ग्रन्थ प्रशस्तियों में चन्द्रगच्छादि के नाम से भी उल्लेख दृष्टि गोचर होते हैं जिसको हम आगे चल कर यथा समय लिखेंगे। आचार्य यक्षदेवसूरि का जैन समाज पर अर्थात् आज जितने गच्छ विद्यमान हैं उन सब पर बड़ा भारी उपकार है । कारण, जैन संसार में जितने गच्छ पैदा हुये थे उन चार कुलों से ही हुये है और चार कुलों के संस्थापक आचार्य यक्षदेव सूरि ही थे। ___इनके अलावा उस समय बार-बार दुकाल का पड़ना, विधर्मियों के संगठित हुमले होना जिससे विस्तृत क्षेत्र में फैले हुये जैन समाज का रक्षण करना कोई साधारण बात नहीं थी । पर उन शासन रक्षक वीर आचार्यों ने हजारों मुसीबतों को सहन कर जैनधर्म को जीवित रक्खा । यदि उन महान् उपकारी महात्माओं का हम क्षण भर भी उपकार भूल जावें तो हमारे जैसा कृतघ्नी संसार में कौन होगा ? इतिहास पढ़ने से ज्ञात होता है कि विक्रम पूर्व दो तीन शताब्दियों से विदेशियों के भारत पर आक्रमण होने शुरू हुये थे और वे क्रमशः विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक चालू ही रहे थे। आचार्य यक्षदेव सूरि के समय भी विदेशियों के आक्रमण खूब जोरों से हो रहे थे उन अनार्यों ने धनमाल लूटने में भार• Jain E 10 nternational For Private & Personal use only [ चन्द्रादि चार कुल के प्राचार्य org Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५–५१७ तीयों को बहुत सताया। इतना ही क्यों पर उन लोभान्धों ने देवस्थानों पर भी हमले कर खूब धन लूटा । और धन लुटने के साथ उन्होंने तो धर्मान्धता के कारण देवस्थानों की मूर्तियों वगैरह कीमती पदार्थों को भी तोड़ फोड़कर नष्ट भ्रष्ट कर डाला था। एक समय आचार्य यक्षदेवसूरि अपने ५०० शिष्यों के साथ मुग्धपुर नगर में विराजते थे । आपने सुना कि आस पास में ग्लेच्छ लोग ग्रामों को लूट रहे हैं। मन्दिर मूर्तियां तोड़ फोड़ कर नष्ट कर रहे हैं । इस हालत में श्री संघ को एकत्र किया और मन्दिरजी के रक्षण के लिये कहा पर विचारे श्रावक क्या कर सकते थे वे अपने धन जन की रक्षा करने में ही असमर्थ थे। आचार्य श्री ने एक देवी को बुला कर कहा कि तुम म्लेच्छों की खबर लाओ कि वे कहां पर हैं और यहां कब तक आवेंगे इत्यादि । देवी म्लेच्छों के पास गई पर कर्म योग से म्लेच्छों के देवों ने उस देवी को पकड़ कर अपने कब्जे में करली अतः देवी वापिस न आ सकी इधर म्लेच्छों के देव सूरिजी के पास आकर कहने लगे कि म्लेच्छ मन्दिर में आ पहुँचे हैं । सूरिजी अपने साधुओं को लेकर मन्दिर में गये तो वहां कोई भी म्लेच्छ नहीं पाये । इस प्रकार म्लेच्छ देव हर समय यही कहते रहे कि म्लेच्छ मन्दिर में आ गये हैं२ । प्राचार्य ने सोचा कि म्लेच्छों के आने पर मूर्तियों का रक्षण होना मुश्किल है अतः पहिले से ही इन्तजाम करना जरूरी है अतः श्रावकों को बुलाकर कहा कि अपने प्राण चले जाय तो परवाह नहीं पर त्रिजगपूजनीय परमात्मा की मूर्तियों की रक्षा करना अपना खास कर्त्तव्य है इत्यादि उपदेश दिया जिससे श्रावक तैयार हो गये । पट्टावली में लिखा है कि बहुत से श्रावक और कई साधु रात्रि समय मूर्तियों को सिर पर उठा कर किसी सुरक्षित स्थान में चले गये . इधर देवी म्लेच्छों से छुटकर सूरिजी के पास आई और कहने लगी कि पूज्यवर ! अब म्लेच्छ आ रहे हैं । सूरिजी ने देवी को उपालम्भ दिया कि तू इतनी देर से कैसे आई ! देवी ने कहा पूज्य ! इसमें मेरा कसूर नहीं है । कारण, मेरी असावधानी से म्लेच्छदेवों ने मुझे पकड़ लिया था अतः मैं छुटते ही आपके पास इत्तला देने को आई हूँ। खैर दो साधुओं को पहरायत रख सूरिजी ने शेष साधुओं के साथ ध्यान लगा दिया इतने में म्लेच्छ मन्दिर में गये तो वहाँ मूर्तियाँ नहीं पाई । अतः वे गुस्से में लाल बबूल होकर सूरिजी के पास आये। और कहा कि बतलाओ मूर्तियाँ वरन् तुम सब को जान से मार डाला जायगा ? पर सूरिजी तो थे ध्यान में उत्तर नहीं दिया अतः म्लेन्छों ने कई साधुओं को जान से मार डाला, कई को घायल किया, कई को मार पीट कर कष्ट पहुँचाया और सूरिजी को पकड़ कर कैद कर लिया। इतना कष्ट सहन करते हुये भी सूरिजो अपने कर्तव्य से विचलित नहीं हुए और मूर्तियों की रक्षा कर ही ली । आहाहा ! उस समय जैन जनता की मूर्तियों पर कैसी श्रद्धा थी कि वे प्राणों की न्योछावर भी करने को तैयार रहते थे , रात्रि में चलना या मूर्ति सिर पर उठाना साधुओं को कल्पता नहीं है पर "आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति" इस सूत्रानुसार साधु ऐसा कार्य भी कर सकते हैं ।सूरिजी को कैद कर लिया था पर उनकी निगरानी के लिए जिस सिपाही को रक्खा था वह पहिले जैन था उसे म्लेच्छोंने जबरन पतित बना लिया था उसने अपना कर्तव्य समझ कर सूरिजी को छोड़ दिया और अपने खानगी एक आदमी को साथ में दे कर सूरिजी को सकुशल खटकूप नगर पहुँचा दिया। सूरिजी कुशलता पूर्वक खटकूपनगर पहुँच गये पर थे आप अकेले ही जिन्हों को देख कर संघ के लोगों ने बड़ा ही आश्चर्य किया कि पांचसौ मुनियों के साथ विहार करने वाले गच्छनायकसूरिजी म्लेच्छों से मूर्तियों का रक्षण-] For Private & Personal use Only ५०७ www.janeiorary.org Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ – १५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आज केले कैसे आये । श्रावकों ने विनय के साथ पूछा और सूरिजी ने सब हाल कहा। इस पर संघ अश्वरों ने सुरजी को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया कि जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह न कर के जैन शासन के आधार रूप प्रभुप्रतिमा की रक्षा की है इत्यादि । उपस्थित लोगों में से किसी ने कहा कि केवल धन्यवाद देने से ही आपकी भक्ति नहीं हो जाती है पर अपने श्राचार्य अकेले शोभा नहीं देते हैं अतः अपने २ पुत्रों को सूरिजी के शिष्य बना कर शासन की शोभा को बढ़ाइये । सच्ची भक्ति तब ही कही जायगी । शासन-शुभचिन्तकों ने उसी बैठक पर एक चिट्ठा (टीप) लिखा । और कहा कि कौन कितने पुत्र देंगे ? इस पर किसी ने एक लिखाया, किसी ने दो लिखाया इस प्रकार एकादश, नवयुवकों को लाकर सूरिजी की सेवा में भेंट कर दिया जिन्हों को सूरिजी ने दीक्षा देकर अपने शिष्य बना लिये शिष्यों का चिट्ठा अभि चालुही था । न जाने इस चिट्ठा में कितने भावुकों के नाम लिखे गये होंगे अहाहा ! धन्य है उस समय के श्रावकों को कि धर्म रक्षा के निमित्त पैसों की भांति चिट्ठा मांड कर अपने प्यारे पुत्रों को सूरिजी के चरणों में अर्पण कर दिये जिससे सूरिजी का कितना उत्साह बढ़ा होगा ? इधर एकादस युवकों को सूरिजी ने दीक्षा दी और उधर से मूर्तियां लेकर जानेवाले सब मुनि गा तथा म्लेच्छों ने पकड़ लिये थे वे मुनि भी लौट कर सूरिजी के पास आकर शामिल हो गये । आचार्य यक्ष देवर का समय दशपूर्वघरों का समय था । उस समय मूर्त्तिवाद अपनी उत्कृष्ट हद पर पहुँचा हुआ था । आचार्य बज्रसूरि बीस लक्ष पुष्प पूजा के लिये लाये थे । आचार्य यक्षदेवसूरि के साधु रात्रि में सिर पर मूर्त्तियें उठा कर स्थानानन्तर जाकर मूर्तियों की रक्षा की। उस समम रत्न और सुवर्ण मय मूर्त्तियां बनाई जाती थीं । एक एक मन्दिर तथा एक एक संघ में करोड़ों द्रव्य व्यय किया जाता था और उन पुन्य काय्यों से उनके पास लक्ष्मी भी अखूट हो रहती थी । इस प्रकार जैनधर्म का रक्षण करते हुये सूरिजी महाराज क्रमशः विहार करके श्राघाट नगर में पधारे वहां भी सूरिजी के उपदेश से बहुत भावुकों ने सूरिजी के पास दीक्षा धारण की । ततः पुनर्यक्षदेव सूरयः केचनाभवन् । विहरन्तः क्रमेणेयु, स्ते श्रीमुग्धपुरे वरे ॥ जाते म्लेच्छ भये तस्मि, न्नुदन्ताधिगमायते । प्राहैपुः शासनसुरी, साधृता म्लेच्छदेवतैः ॥ तेचागत्यान्वहं प्रोचु, म्लेच्छः सन्ति स्वमंदिरे | तद्वचः प्रत्ययात् पूज्या, स्तदेवा कथयन् जने ॥ देवकांड इवाकस्मा, न्म्लेच्छ सैन्ये समागते । एत्य शासनदेवीद्रा, गूचे म्लेच्छा समागताः ॥ विश्वासे तव संनद्ध, स्त्वं चिरादागता कथम् । किं करोमि प्रभो ! तैस्तु, बद्वाहं व्यंतरेर्यतः ॥ सम्प्रत्येव विमुक्तास्मि तत्किं मे दूषणं प्रभो । इत्याख्यायगता देवी, सूरिर्देवगृहेगमत् ॥ देवताऽवसरं दत्वा, प्रैषीत् साधु द्वयं प्रभुः । मुनि पंचशतीयुक्तः, कार्यों सर्गे स्वयं स्थितः ॥ प्रतिमास्था धृताः केऽपि, मारिता केऽपि साधवः । सूरिं बंदिस्थितः श्राद्धो, म्लेच्छी भूतोन्नृप्यमोचयत् ॥ दत्वा सह स्वपुरुषानू, खट्टकूपपुरे प्रभुम् । प्रापयच्च सुखेनैव, भाग्यं जागर्तियन्तृणाम् ॥ श्रावस्तत्र वास्तव्यै, ददिरे निज नंदनाः । दीक्षयामास भगवां, स्तानेकादश संमितान् ॥ द्वावण्यागत्य मिलितौ, गृहीत्वा देवतास्मरम् । तत अघाट नगरे, गात् प्रभुः सपरिच्छदः ॥ तत्राऽपि श्रात्रकाः पुत्रान्, गच्छीद्धति कृते ददुः । केऽपि संसार वैराग्याद्, दीक्षामाददिरे स्वयम् ॥ श्री वीक्रमादेकशते, किंचदभ्यधिके गते । तेऽजायन्त यक्षदेवा, चार्या वर्य्यं चरित्रिणः ॥ स्तम्भतीर्थे पुरे संघ, कारितः पितलामयः । श्री पार्श्वस्थापितो येन, मंदिरेय मुनीश्वरेः ॥ [ श्रावक वर्ग की उदारता Jain Edinternational उप० च० Inellibrary.org Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्यश्रीयादेवसूरि ( समय वि० सं० ११५) सोपार पट्टन में श्रमण संघ को आगम वाचना दे रहे हैं। कृष्णार्षि की मूित ( पृष्ट ५३० ) A NTYANAXKOToLAJXE 11.08 ISixka 40 मथुरा के कंकाली टील का खोद काम करते समय करीब २० ० वर्ष जितनी प्राचीन एकमुनि Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास,9 सोपार वहन में आचार्य यक्ष देवसूरि चन्द्रादि चारों मुनियों को आगम बाचना दे रहे हैं परिचय पृष्ट ५०५ आचार्य देवगुप्तसूरि से आर्य देवर्द्धि का ज्ञानाभ्यास Education Intemational परिचय पृष्ट ८८९ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५–५५७ चरित्रकार ने इस घटना का समय विक्रम संवतके एकसौ से कुछ अधिक वर्ष व्यतीत होजाने के बाद का बतलाया है । जो ठीक मिलता हुआ है तदनन्तर सरिजीमहागज विहार करते हुते स्थम्भणपुर नगरमें पधारे । वहां के श्रीसंघ ने भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया और सर्व धातुमय (पीतल ) भगवान पार्श्वनाथ की विशाल प्रतिमा तैयार कराई थी । श्रीसंघ के आग्रह से सूरिजी ने उस मूर्ति की अंजनसिलाका की एवं प्रतिष्ठा करवाई जिसमें श्रीसंघ ने बहुत द्रव्य व्यय कर जैनधर्म की प्रभावना की। ___ उस समय की विकट परिस्थिति के अन्दरभी आपने अपने दीर्घकालीन शासनमें अनेक प्रान्तों में घूम घूम कर अनेक भव्यों को दीक्षा देकर जैनश्रमण संघ की वृद्धि की क्योंकि आप जानते थे कि धर्म का रक्षण करने वाला श्रमणसंघ ही है। जितनी अधिक संख्या में साधु होंगे उतनेही विशालक्षेत्र में बिहार हो सकेगा। अतः श्रमण संघ में वृद्धि करना खास जरूरी था । दूसरे उस दुष्काल की भयंकरता के कारण सुकाल हो जाने पर भी एक दो एवं थोड़े आदमी एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में जा नहीं सकते थे । अतः इच्छा के होते हुये भी वे दूर प्रदेश में रहे हुये तीर्थों की यात्रा नहीं कर सकते थे। यही कारण था कि सूरिजी महाराज के उपदेश से कई भाग्यशालियों ने बड़े २ संघ निकाल कर तीर्थों की यात्रा की और धर्म को चिरस्थाई बनाने के लिये सूरिजी के उपदेश से कई दानवीरों ने अपनी चंचल लक्ष्मी को अचल बनाने के लिये बड़े २ मंदिरों का निर्माण करवा कर उनकी प्रतिष्ठायें भी सूरिजी से करवाई। इनके अलावा अजैनों को जैन बनाना तो आपके पूर्वजों से ही चला आया था और उस मशीन को भी आपने द्रुतगति से चलाई कि लाखों मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म की दीक्षा शिक्षा देकर जैन बनाये । कई दुष्कालों में जैन धनाढ्यों ने अर्को खबों द्रव्य व्यय कर के दानशालायें खुलवा दी थीं और जहाँ तक अन्न मिला वहाँ तक सुंघामुघा मंगाकर दान दिया इत्यादि आचार्य श्री के शासन में अनेक शुभ कार्य हुये कि जिससे जैनधर्म की प्रभावना एवं वृद्धि हुई। ___ पट्टावलियों वंशावलियों आदि ग्रन्थों में जो आपके शासन समय कार्य हुये शुभ कार्य कि जिन्हों का बहुत उल्लेख मिलता है यदि उन सबको लिखा जाय तो एक स्वतंत्र महाभारत सा ग्रन्थ बन जाता है परन्तु मैं यहां स्थानाभाव के कारण थोड़े से नामों का उल्लेख कर देता हूँ। १ --उपकेशपुर में संचेती गोत्रिय शाह नारायणादि कई मुमुक्षुओं ने दीक्षा ली । २-धनपुर के प्राग्वट सेणा ने सूरिजी के चरणों में दीक्षा ली। ३-मुग्धपुर के तप्तभट गोत्रिय शाह राजा ने सपत्नीक दीक्षा ली। ४-नागपुर के श्रादित्यनाग गोत्रिय मंत्री लाखण ने १८ नरनारियों के साथ दीक्षा ली। ५-कोरंटपुर के श्रीमाल सुजा रामा ने सूरिजी के पास दीक्षा ली। ६-वामनपुर के भाद्रगोत्रीय देवा ने दो पुत्रों के साथ दीक्षा ली। ७-मथुरा के ब्राह्मण शंकरादि २४ ब्राह्मणों ने सूरिजी के पास दीक्षा ली। ८-अरणी ग्राम के कुमट खेमा ने सूरिजी के पास दीक्षा ली। ९-पालाट के क्षत्री बीजल ने सूरिजी पास दीक्षा ली। १०-गाखला ग्राम के बलाह गोत्रिय शाह हंसादि ने दीक्षा ली। ११-माहली ग्राम के चिंचट गोत्रिय मुकन्दादि ९ नरों ने दीक्षा ली। १२-चन्द्रावती के राव संगण ने १८ नरनारियों के साथ दीक्षा ली। Jain Eआचार्य श्री के शासन में ] ५०९ www.jarelitnary.org Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५–१५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १३-- चोपणी के मोरख गोत्रिय शाह भैंसा ने दीक्षा ली । ११- विराट नगरे श्रोष्टि गोत्रिय मत्री रणधीर ने दीक्षा ली । १५-- संखपुर के श्रीश्रीमाल नाथा हरषण ने सूरिजी के पास दीक्षा ली। इत्यादि अनेक उदाहरण हैं । आपके शासन समय केवल एक उपकेशगच्छ में ३००० साधु साध्वियां भूमण्डल पर बिहार करते थे पर यह संख्या पहिले से बहुत कम थी। कारण, बारबार दुकाल के कारण साधु संख्या बहुत कम हो गई थी। फिर भी आपश्री ने अनेक प्रान्तों में विहार कर पुनः श्रमण संख्या में खूब वृद्धि की थी अब थोड़े से तीर्थों की यात्रा निमित्त संघ निकालने वालों की भी संख्या लिख देता हूँ। १-चोपावती नगरी से कर्णाट गोत्रिय शाह मालु ने श्रीशत्रुञ्जय का संघ निकाल कर पांच लक्ष द्रव्य व्यय किया आपकी संतान मालु नाम से कहलाई जाने लगी। २-दसारी ग्राम से आदित्यनाग देपाल रामा ने श्रीशत्रुजय गिरनारादि तीर्थों का संघ निकला। स्वर्मियों को सोना मुहर की पहरामणी दी जिसमें ९ लक्ष्य द्रव्य व्यय किया। ३--फेफावती नगरी से श्रेष्ठि गोत्रिय अरजुन ने श्री श@जय का संघ निकाला। ४-भिन्नमाल नगर रो प्राग्वट श्रादू ने श्रीशिखरजी का संघ निकालकर चतुर्विध श्री संघ को पूर्व की तमाम यात्रायें करवाई । स्वधर्मी भाइयों को पहरामणी में एक एक मोतियों की माला दी । इस संघ में सवा करोड़ द्रव्य व्यय किया। ५-सत्यपुरी के श्रीमाल लाखण ने शत्रुञ्जय का संघ निकाल कर यात्रा की। ६-डबरेलपुर के श्रेष्टिगोत्रिय मंत्री नागड़ ने श्रीशिखरजी का संघ निकाला सब तीर्थों की यात्रा की साधर्मी भाइयों को पहरामणी दी जिसमें १९ लक्ष रुपये खर्च किये। ७- उपकेशपुर से सुचंती गोत्रिय शाह जिनदेव ने श्रीशत्रुञ्जयादि तीर्थों का इंध निकाल चतुर्विध श्रीसंघ को यात्रा कराई जिसमें सवा लक्ष द्रव्य व्यय किया। ८-उज्जैन नगरी से आदित्यनाग गोत्रिय शाह सलखण वीरमदें ने श्री शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला जिसमें तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया । ९-वराडी ग्राम से चरड गोत्रिय शा० लुंबा ने श्रीशत्रुजय का संघ निकाला। १०---खटकुंप नगर से सुघड़ गोत्रिय शाह पीरा ने शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला। ११- विजोड़ा से लुंग गोत्रिय शाह भीमा ने श्री शिखरजी का संघ निकाला। १२-उपकेशपुर के भूरि गोत्रिय शाह लिंगा ने श्रीशत्रुजय का संघ निकाला। यह तो केवल नाम मात्र की सूची दी है पर इस प्रकार सूरिजी तथा आपके पदवीधर शिष्यों के उपदेश से पृथक् २ प्रान्तों से अनेक संघ निकलवाकर तीयों की यात्रा कर अनंत पुन्योपार्जन किया है । इसके अलावा सूरिजी ने जैन-मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैन धर्म को चिरस्थायी बनाया। १-मेदनीपुर के बलाह गोत्रिय शाह मेधा के कराये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई । २-हर्षपुर के तप्तभट गोत्रिय शाह धना के बनाये पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। ३-वल्लभी के प्राग्वटवंशीय शाह गोखला के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई । ४-नागर नगरे सुघड़ गोत्रिय शाह देवा के बनाये आदीश्वर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। . Jain Eclip International For Private & Personal use only [ आचार्य श्री यक्षदेव के शासन में... Mehrary.org Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ ५-- फोफला प्राम में मल्ल गोत्रिय शा० हाणा के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। ६-कीराटपुर के श्रीमाल हणमन्त के बनाये शान्तिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई । ७-हंसावली आदित्यनागगोत्रिय हरदेव के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई । ८-चन्द्रावती नगरी के श्रेष्ठि गोत्रिय मन्त्री भुवन के बनाये पार्श्वनाथ महावीर की प्रतिष्ठः कराई। ९- पद्मावती के बापनागगोत्रिय शाह चुडा के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। १०-उच नगर का राव मालदे के बनाये पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई । ११-मरुनगर के मन्त्री सारंग के बनाये पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। १२-राजपुर के श्रेष्टिगोनिय शाह नोधण के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। १३-देवली के बाप्पनागगोत्रिय शाह खेमा के बनाये आदिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई । १४-~-पुनेटी के चिंचट गोत्रिय शाह हरदेव के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। १५-चन्द्रपुर के चरडगोत्रिय शाह अंबड के बनाये शान्तिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। १६---अर्जुनपुरी के आदित्यनाग गोत्रिय शाह बाना के बनाये विमलदेव की मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। १७–पालिकापुरी के बलहा गोत्रिय शाह खेतड़ के बनाये नेमिनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। १८-उपकेशपुर के भाद्रगोत्रिय शाह नोढा के बनाये मल्लिनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। १९-खेलचीपुर के कुमटगोत्रिय शाह जीवण के वनाये शीतलनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। २० -विजयपुर के प्राग्वट वंशीय शाह धरमशी के बनाये पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई । इनके अलावा भी संख्यावद्ध मन्दिरों की प्रतिष्ठायें सूरिजी एवं आपके मुनियों ने करवाई थी। इससे पाया जाता है कि उस समय जैन जनता की मन्दिर मूर्तियों पर अटूट श्रद्धा थी। और इस पुनीत कार्य में द्रव्य लगाने में वे अपने द्रव्यकी सफलता भी समझते थे तभी तो एक एक धर्म कार्य में वे लाखों रुपये व्यय कर डालते थे और इन पुन्य कार्यों के कारण ही उनके अनाप शनाप द्रव्य बढ़ता था। उस समय महाजन संघ का खूब ही अभ्युदय था । उनका पुन्य रूपी सूर्य मध्याह्न में तप रहा था वे बड़े ही हलुकर्मी थे कि उनको थोड़ा भी उपदेश विशेष असरकारी हो जाता था उनकी देवगुरु और धर्म पर अटूट श्रद्धा थी। आचार्य यक्षदेवसूरि ने ४२ वर्ष तक अपने शासन में अनेक प्रकार से जैनधर्म की उन्नति की और में वी. नि० सं० ६२७ में पुनीत तीर्थ श्री तक्षिला में २७ दिन का अनशन एवं समाधिपूर्वक स्वर्ग पधार गये। सप्तदश श्री यक्षदेवमूरि, दशपूर्व ज्ञान के धारी थे । बज्रसेन के शिष्यों को दिना, ज्ञान बड़े दातारी थे । चन्द्र नागेन्द्र निति निद्याधर, कुल चारों के विधाता थे । उपकार जिनका है अतिभारी, भूला कभी नहीं जाता है ॥ इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के सतरहवें पट्ट पर प्राचार्य यक्षदेवसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुये। ... . ...... आचार्य श्री के शासन में J Jain E आचार्य For Private & Personal use Only www.jainebrary.org Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ -- १५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भगवान महावीर की परम्परा भगवान महावीर की परम्परा - श्राय्र्य्यबज्रसूरि के यों तो हजारों साधु थे परन्तु उनमें ३ साधु मुख्य थे १ - आर्य्यवज्रसैन २ - श्रार्य पद्म ३- आर्य रथ । ये बज्रसैन से नागली शाखा, आर्य पद्म से पद्म शाखा, और आर्य रथ से जयन्ति शाखा निकली। इस शाखा की पट्टावली कल्पसूत्र मे दी है जिसको हम आगे प्रसंगोपात देंगे । यहाँ पर तो केवल आर्य्यबज्रसैन का ही सम्बन्ध लिखा जा रहा है । सैन जैन संसार में जैनधर्म को जीवित रखने वाले थे । आपने अपने जीवन में दो भयंकर बारहवर्षीय दुकाल देखे थे । एक बारहवर्षीय दुकाल आर्य्यम स्वामी के समय पड़ा था । उस समय बस्वामी ने श्रीसंघ को पट्ट पर बैठा के जहाँ सुकाल बरतता था वहाँ ले गये और दूसरा १२ वर्षीय दुकाल स्वयं बज्रसैन के समय पड़ा। जिसकी भविष्यवाणी आर्य्य वज्र ने बज्रसैन को पहिले ही कर दी थी कि जब एक लक्ष मुद्राओ के मूल्य से एक वक्त का भोजन बनेगा उसके बाद तत्काल ( तीन दिन ) ही सुकाल हो जायगा । उस दुकाल के विकट समय में जैनाचाय्यों ने किस प्रकार जैनधर्म को जीवित रक्खा | इसका अनुभव तो भुक्तभोगी ही कर सकता है। वह दुकाल एक दो वर्ष का नहीं पर लगातार १२ वर्ष तक दुष्काल पड़ता ही रहा था। उस समय बड़े-बड़े धनाढ्यों को धन के बदले धान मिलना दुष्कर होगया तो बिचारे निर्धन लोगों की तो बात ही कौन पूछता था ? जब गृहस्थों का यह हाल था तो केवल भिक्षावृति पर अपना जीवन गुजारने वाले साधुओं का निर्वाह तो होना कितना मुश्किल हो गया था । अतः बहुत से साधु शुद्ध आहार पानी के अभाव अनशन कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर गये। कई साधु कठोर तपश्चर्या में लग गये तथा बहुत से साधु इधर उधर कई प्रान्तों में चले गये कि जहाँ अपना गुजारा हो सके । दुष्काल की भयंकरता ने जनता में त्राहि-त्राहि मचा दी थी। धनाढ्यों को मोतियों के बदले ज्वार नहीं मिलती थी । अतः कई लोगों ने विष भक्षण कर दुकाल से अपना पीछा छुड़ाया था। समय ऐसा श्रा गया था कि कोई व्यक्ति अपने यहाँ से भोजन कर तत्काल घर बाहर निकल जाता तो भिक्षुक लोग (मंगता) उनका उदर चीर के भोजन निकाल कर खा जाता था। इससे अधिक भयंकरता क्या हो सकती है । यह दुकाल एक दो प्रान्तों में ही नहीं था पर प्रायः सब भारत में फैला हुआ था। हाँ कई कई प्रान्तों में सुकाल भी बर्तता था पर वह प्रान्त भी दुकाल की कूर दृष्टि से सर्वथा वंचित नहीं रहे थे । स्वामी एक टपर संघ को बैठाकर महापुरी ( जगन्नाथपुरी ) में ले गये वहाँ सुकाल बर्तता था पर ऐसे प्रान्त बहुत कम थे । एक समय का जिक्र है कि आचार्य बज्रसैनसूरि सोपारपट्टन में पधारथे आपके शिष्य भिक्षा के लिये नगर में गये । उस समय भिक्षाका काम बड़ाही कठिन था तथापि श्रावक लोगों की इतनी भक्ति थी कि उनको थोड़ा बहुत भोजन मिलता तो वे पहिले साधुओं को भिक्षा देकर ही भोजन करते थे । उस नगर में जिनदास नाम का एकश्रावक बड़ा ही धनाढ्य था। आपके ईश्वरी नामकी स्त्री और कई पुत्र वगैरह बहुत सा कुदु भी था परन्तु दुष्काल के कारण घर में धन होने पर भी धान नहीं मिलता था मोतियों के बराबर ज्वार मिली वहाँ तक तो उन्होंने अपना गुजारा किया परन्तु यह आखिर का दिन था। सेठानी विष पीस रही थी कि आज जो कुछ धान पकाया जा रहा है उसमें विष ढालकर सब खा पी कर सो जावेंगे कि जिससे सुविधा से मृत्यु हो जायगी । इनके अलावा दूसरा कोई उपाय ही नहीं था ; [ भगवान् महावीर की परम्परा brary.org Jain Edan International Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ उसी समय दो साधुओं ने सेठानी ईश्वरी के घर पर आकर धर्मलाभ दिया । पर शर्म के मारी सेठानी ने अपना मुंह नीचा कर लिया । कारण मुनियों को दान देने के लिये उसके पास कुछ भी नहीं था । सेठानी बैठी विष पीस रही थी । मुनियों ने पूछा कि सेठानीजी क्या कर रही हो ? सेठानी ने कुछ भी जबाव नहीं दिया पर उसकी आंखों से जल की धारा बहने लगी । इस पर मुनियों ने रुदन का कारण पूंछा तो सेठानी ने कहा पूज्यवर ! आप जैसे कल्पवृक्ष मेरे घर पर पधारे पर दुःख है कि आज मेरे पास दान देने को कुछ भी पदार्थ नहीं है और मैं यह विष पीस रही हूँ कि अंन के साथ मिलाकर हम सबके साथ खा पी कर इस दुष्काल से पीछा छुड़ावें । मुनियों ने उस श्राविका की करुण कथा सुनकर कहा माता ! हम अपने गुरु के पास जाकर वापिस वें वहाँ तक आप धैर्य रखना । इतना कह कर मुनि सरिजी के पास आये और सब हाल सुनाया तो निमित्त के जानकार सूरिजी ने अपने गुरु बज्रसूरि की बात को याद की और अपने शिष्यों को कहा तुम जाकर श्राविका को कह दो कि जैसे बने वैसे तीन दिन तुम निकाल दो । तीन दिनों के बाद सुकाल हो जायगा श्रर्थात् जहाजों द्वारा पुष्कल धान आ जायगा । बस, साधु पुनः सेठानी के वहाँ गये और सेठानी को कहा कि यदि हम के सब कुटुम्ब को बचा दें तो आप हमें क्या देंगे ? सेठानी ने कहा पूज्यवर ! हम सब लोग आपके ही हैं आप जो फरभावें हम देने को तैयार हैं। इस पर मुनियों ने कहा कि तुम्हारे इतने पुत्र हैं उनमें से चन्द्रनागेन्द्र, निर्वृति और विद्याधर एवं चार पुत्रों को हमे दे देना । श्राविका ! इसमें हमारा कुछ भी स्वार्थ नही है पर यह तुम्हारे पुत्र जगत का उद्धार करेंगे जिसका सुयश तुमको भी मिलेगा इत्यादि सेठानी ने कहा पूज्यवर ! हम लोगों का ऐसा भाग्य हो कहाँ है ? इस दुकाल में हजारों लाखों मनुष्य अन्न वगैर त्राहि-त्राहि करके यों ही मृत्यु के मुँह में जा पड़े हैं। यदि पूर्वोक्त चारों पुत्र श्रापके चरण कमलों में दीक्षा लें तो मैं बढ़ी खुशी के साथ आज्ञा दे दूंगी | यदि और भी कोई हुक्म हो तो फरमाइये मैं शिरोधार्य करने के लिये तैयार हूँ | मुनियों ने कहा श्राविका और हमारा क्या हुक्म हो सकता है । गुरु महाराज ने फरमाया है कि जैसे बन सके आप तीन दिन निकाल दीजिये । बाद, अन्न के इतने जहाज आवेंगे कि इस दुकाल का शिर फोड़ कर गहरा सुकाल कर देंगे । जैनियों के लिए तीन दिन उपवास करना कोई बड़ी बात नहीं है। कारण इस बात का तो जैनियों के पूरा अभ्यास ही होता है। सेठानी ने मुनियों के वचन को तथास्तु कह कर बधा लिया और विष को दूर रख दिया । पकाये हुये भोजन से मुनियों को भी आमन्त्रण किया पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव जावकार सेठानी की प्रार्थना को अस्वीकार कर चल घरे । एक ऐसी वस्तु है कि मनुष्य आशा ही आशा में कितना ही समय व्यतीत कर देता है । यह अनुभवसिद्ध बात है कि जिस मुसाफिर के पास भोजन तैयार है वह दो चार आठ दस मील पर भी चला जाता है क्योंकि उसको आशा है कि मेरे पास भोजन है आगे चल कर करलूंगा परन्तु भोजन की आशा नहीं है उससे एक दो मील भी चलना मुश्किल हो जाता है । अतएव सेठानी सकुटम्ब ज्यों त्यों कर तीन दिन निकाल दिये । बस, चौथे दिन तो समुद्रमार्ग से बहुत सी अनाज की जहाजें आ पहुँची जिससे प्रचुरता के साथ अनाज मिलने लग गया और सब लोगों ने अपने प्राण बचा लिये । इधर मुनियों ने सेठानी के पास जाकर धर्मलाभ दिया। सेठानी ने बड़े ही हर्ष के साथ मुनियों दुष्काल की भयंकरता ] ५१३ www.ahebrary.org Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को वन्दन किया और कहा कि पूज्यवर ! आपने हम सब लोगों को जीवन प्रदान किया है और जिन चार पुत्रों के लिये फरमाये वे चारों पुत्र हाजिर है कृपा कर उनको दीक्षा देकर हमारे कुल का उद्धार करावे । चन्द्रादि चार पुत्रों को सेठानी ने पहले ही समझा दिये थे अतः वे चारों पुत्र दीक्षा लेने को तैयार हो गये । मुनियों ने सेठानी के दिये हुए चारों नवयुवकों को लेकर आर्य बञसेनसूरि के पास आये और सूरिजी ने उनको दीक्षा का स्वरूप सममा कर विधि विधान से दीक्षा दे दी। उस दुकाल के अन्दर बहुत से मुनियों ने स्वर्गवास कर दिये थे और बचे हुए मुनियों में केवल एक यक्षदेवसूरि ही अनुयोगघर रहे थे और वे भ्रमण करते सोपारपदन में पधारे थे आचार्य यक्षदेवसूरि के जीवन में पाठक पढ़ आये थे कि यक्षदेवसरि ने अपने साधु साध्वियों के अलावा आचार्य बज्रसूरि के शिष्य समुदाय से ५०० साधु ७०० साध्वियों वगैरह बचे हुए साधुओं को आगमों की वाचना देने के लिये सोपारपट्टन को ही पसन्द किया था कारण ऐसे बड़े नगर बिना इतने साधु साध्वियों का निर्वाह भी तो नहीं हो सकता था । ठीक उसी समय आर्य बज्रसेनसूरि चार शिष्यों को दीक्षा देकर प्राचार्य यक्षदेवसूरि के पास आकर प्रार्थना की कि इन चारों नूतन साधुओं को भी आप आगमों की वाचना देने की कृपा करावे यह महान् उपकार का कार्य है यक्षदेवसूरि ने कहा कि इतना कहने की आवश्यकता ही क्या है यह तो हमारा खास कर्तव्य ही है हम और श्राप पृथक् पृथक् नहीं पर शासन की सेवा करने में एक ही हैं । अतः सब साधु साध्वियों को आगमों की वाचना देना सूरिजी ने प्रारम्भ कर दिया परन्तु भवितव्यता ने ऐसा दृश्य बतलाया कि वाचना का कार्य तो चलता ही था बीच में ही आर्य बज्रसेनसूरि का स्वर्गवास हो गया । युग-प्रधान पट्टावली में आर्य बनसेनसूरि के लिये कहा है कि ९ वर्ष गृहस्थावास ११६ वर्ष सामान ब्रत और ३ वर्ष युग-प्रधान पर रहकर १२८ वर्ष का सर्व आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गवास पधार गये थे । अतः चन्द्रादि चार मुनियों को तथा दुकाल में बचे हुए साधुओं को श्रागमों की वाचना आचार्य यक्षदेवसूरि ने ही दी थी इतना ही क्यों पर चन्द्रादि चार मुनियों के शिष्य समुदाय बनवा कर उन चारों को सूरि पद भी श्राचार्य यक्षदेवसूरि ने ही दिया था तत्पश्चात् प्राचार्य चन्द्रसूरि आदि ने सूरिजी का परमोपकार मानते हुए सूरिजी की आज्ञा लेकर अन्यत्र विहार किया अतः दुकाल से बचे साधु साध्वियों तथा चन्द्रादि चारों सूरियों पर आचार्य यक्षदेवसूरि का महान उपकार हुआ है तथा उन चारों सूरीश्वरों से ही चल कर ८४ तथा ८४ से भी अधिक गच्छ हुए वे सबके सब उपकेशगच्छ एवं आचार्य यत्तदेवसूरि का अागे महान उपकार समझ कर उन्हों का पूज्य भाव से आदर सत्कार किया करते थे । इति बज्रसेन संबन्ध । इत्याकर्म्य मुनिः प्राह गुरुशिक्षा चमकृतः । धर्मशीलेशृणु श्रीमद्वज्रस्वामिनिवेदितम् ॥ १९०॥ स्थालीपाके किलैकत्र लक्षम्ले समीक्षिते । सुभिक्षं भावि सविषं पार्क मा कुरु तथा ॥१९॥ सापि प्रायः प्रसादं नः कृत्यैतत्प्रतिगृह्यताम् । इत्युक्तवा पानपूरेण प्रत्यलाभि तया मुनिः ॥१९२॥ एवं जातेऽथ संध्यायां वहिब्राणि समाययुः । प्रशस्यशस्यपूर्णानि जलदेशान्तराध्वना ॥१९३॥ सुभिक्षं तत्क्षणं जज्ञे ततः स सपरिच्छदा। अचिन्तयदहो मृत्युरभविष्यदरीतितः ॥१९॥ जीवितव्यफलं किं न गृह्यते संयमग्रहात् । वज्रसेन मुनेः पावें जिनवीजस्य सद्गुरोः ॥१९५।। ध्यात्वेति सा सपुत्राथ व्रतं जग्राह साग्रहा। नागेन्द्रो निर्वृतिश्चन्द्रहः श्रीमान् विद्याधरस्तथा ॥१९६॥ अभूवंस्ते किंचिदूनदर्शपूर्वविदस्ततः । चत्वारोऽपि जिनाधीशमतोद्वा (दा) रधुरंधरा ॥१९७॥ प्र० च० Jain Edu lygternational [ 777914 HETENT AT TATULY.org Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेव का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ जैन शासन के निन्हव निन्हव-निन्हव दो प्रकार के होते हैं। एक देश निन्हव, दूसरे सर्व निन्हव, जैनधर्मी कहलाता हुआ जैनधर्म की श्रद्धा रखता हुआ भी कभी मिथ्यात्व मोहनीय कर्मोदय वीतराग प्रणित आगमों को नहीं मानना या अन्यथा मानकर जैनधर्म से खिलाफ मत निकालना जैसे महात्मा बुद्ध और गोसाला, इन्होंने जैनधर्म की दीक्षा ली एवं पाली भी थी पर बाद में आपने अपने नाम से नया एवं अलग मत निकाले यह सर्वथा निन्हव कहलाये जाते हैं । दूसरा जैनागमों को मानता हुआ कुछ सूत्र श्रुतियों और शब्दों को नहीं मानना और इस प्रकार तीर्थङ्करों के मत में रहकर अलग मत निकालने वाले को देश निन्हव कहा जाता है । जैसे जमाली आदि और इस प्रकार के अलग मत स्थापन करने वाले शासन के सात निन्हव हुये हैं जिन्हों का उल्लेख उत्तरा. ध्ययन सूत्र उत्पतिकसूत्र आवश्यक सूत्रादि अनेक स्थानों पर उपलब्ध होता है। पाठकों की जानकारी के लिये उन निन्हवों का हाल यहां पर संक्षिप्त से लिख दिया जाता है । १- प्रवचन का पहिला निन्हव जमाली हुआ-जमाली भगवान महावीर का भानेज था तथा दूसरी ओर भगवान की पुत्री प्रियदर्शना जमाली को ब्याही थी । अतः जमाली भगवान का जमाई भी लगता था। भगवान महावीर को कैवल्यज्ञान हो गया था। वे चलते हुये महान कुण्डनगर के उद्यान में पधारे । जमाली आदि ने भगवान का व्याख्यान सुना और संसार को असार जानकर ५०० साथियों के साथ तथा जमीली की स्त्री ने १८०० महिलाओं के साथ भगवान् के पास दीक्षा ली। जमाली ने एकादशांग का ज्ञान पढ़ा बाद भगवान से श्राज्ञा मांगी कि यदि आपकी इच्छा हो तो मैं ५०० साधुत्रों को साथ लेकर अन्य प्रदेश में विहार करूं । प्रभुने न इन्कार किया और न आज्ञा दी पर मौन रहे । जमाली ने इस प्रकार दो तीन बार पूछा पर उत्तर न मिलने से 'मौनसम्मतिलक्षणं' समझ कर जमाली ने ५०० साधुओं के साथ विहार कर दिया और चलता २ सावत्यी नगरी में आया और कोष्टक उद्यान में ठहरा । उस समय उसके शरीर में दाह जल की बड़ी भारी बीमारी हो गई थी। साधुओं को कहा कि बैठने की मेरी शक्ति नहीं है । तुम मेरे लिये शीघ्र संस्तारा तैयार करो मुनियों ने घास लाकर संस्तारा करना शुरू किया। वेदना को सहन न करते हुये जमाली ने पूछा कि क्या संस्तारा तैयार हो गया ? साधुओं ने कहा कि संस्तारा अभी किया जा रहा है । इस पर जमाली को शंका हुई कि भगवान ने कहा है कि 'चलमाणे चलिये--कड माणे कडे' यह निरर्थक है । “चलमाणे अचलिये" कडमाणे अकडे" कहना चाहिये अतः भगवान के वचन असत्य हैं पर मैं कहता हूँ यह सत्य है । बस इस कदाग्रह के बस जमाली अपनी वेदना को तो भूल गया और साधुओं को बुला कर कहा कि देखो भगवान के वचन प्रत्यक्ष में असत्य हैं और मैं कहता हूँ वह सत्य है क्योंकि वे कहते हैं कि 'कडमाणे कडे' अर्थात करना आरम्भ किया उसे किया ही कहा जा पर प्रत्यक्ष देखिये तुमने संस्तारा करना प्रारम्भ किया जब तक पूरा न हो वहां तक उसे किया कैसे कहा जा सकता है अतः मैं कहता हूँ कि 'कड. माणे अकडे' यह प्रत्यक्ष सत्य है इत्यादि । इस पर कई साधु जमाली के वचनों को स्वीकार कर जमाली के पास रह गये पर कई साधुओं ने सोचा कि भगवान का कहना नैगम नय का है तब जमाली कर रहा है एवं भूत नय की बात । अतः जमाली की मति में भ्रम है । भगवान् के वचन सोलह आना सत्य हैं, वह जमाली को छोड़ भगवान के पास चले गये। बाद जमाली आरोग्य हुआ तो स्वयं या साधुओं की प्रेरणा से भगवान Jain E प्रवचन के निम्हव ] www.५१५ary.org Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [भगवान् पाश्यनाथ की परम्परा का इतिहास के पास आया और भगवान को वन्दना न करता हु प्रा बोला कि आपके बहुत से साधु आपके पास से छदमस्थ जाते हैं और छदमस्थ आते हैं पर मैं केवली होकर गया और केवली होकर आया हूँ । इस पर भगवान ने कहा जमाली यदि तू केवली है तो बतला जीव शाश्वता है या अशाश्वता ? लोक शाश्वता हैं या अशाश्वता ? । बस इसके उत्तर देने में जमाली के दांत जुड़ गये। भगवान ने कहा कि इस प्रश्न के उत्तर तो मेरे सामान्य साधु भी दे सकते हैं तो क्या तू केवली होता हुआ भी इन साधारण प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता है । आखिर जमाली ने अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा और अपना अलग मत चला दिया । अतः भगवान को केवल ज्ञान होने के बाद १४ वां वर्ष में जमाली नाम का प्रथम निन्हव हुआ। ___जब जमाली ने अपना अलग मत निकाल दिया तो उसकी औरत जो भगवान की पुत्री और साध्वी के रूप में थी उसने भी जमाली का मत स्वीकार कर लिया था । साध्वियें घूमती हुई सावत्थी नगरी में आई और एक ढंक नाम के श्रावक के मकान में ठहरी । ढंक था भगवान महावीर का श्रावक, जब साध्वियां भिक्षा लेकर आई भौर एक चदर बांध कर अन्दर गोचरी कर रही थी डंक ने साध्वो को समझाने के लिये चहर के एक किनारे अग्नि लगा दी जिसको देख साध्वी चिल्लाने लगी कि मेरी चादर जल गई २ इतने में ढंक ने कहा साध्वी मृषा क्यों बोलती है क्योंकि तुम्हारा मत है कि सम्पूर्ण चादर जल जाने से ही जली कहना । यह सुनते ही साध्वी की अफु ठिकाने आ गई कि जमाली का कहना मिथ्या है और भगवान महा. वीर का कहना सत्य है। उसने भगवान महावीर के पास में जाकर उनकी आज्ञा को स्वीकार किया। इस प्रकार जमाली के कई साधु भगवान के पास आगये हों तो आश्चर्य की बात नहीं है । क्योंकि जमाली का मत अधिक नहीं चला था। ___२-- दूसरा निन्हव तिष्यगुप्त - भगवान महावीर की मौजूदगी में एक वसु नामक आचार्य चौदहपूर्व के ज्ञाता राजगृहनगर के उद्यान में पधारे । अपने शिष्यों को आत्म प्रबोध पूर्व की वाचना दे रहे थे। उसमें तिष्यगुप्तमुनि भी शामिल था । वाचना के अन्दर एक स्थान पर ऐसा वर्णन आया कि "एगे भंते जीव पएसे जीवेतिवत्तव्वंसिया?णोयणटे समठ्ठ।” अर्थात् आत्मा के एक प्रदेश को जीव कहा जाय ? नहीं। तो क्या दो तीन चार यावत् संख्याता असंख्याता एवं आत्मा के सब प्रदेशों से एक प्रदेश न्यून को जीव कहा जाय ? नहीं । हे शिष्य ! सम्पूर्ण जीव प्रदेशों को ही जीव कहा जाता है। यहाँ पर एवंभूतनय का विषय था पर तिष्य गुप्त ने उसको न समझकर यह निश्चय कर लिया कि एक दो तीन यावत् एक न्यून असंख्याता प्रदेशों में जीव नहीं है पर एक प्रदेश मिला देने से जीव कहा जाता है तो जीव अन्तिम प्रदेश में ही है । इससे उसने उत्सूत्र प्ररूपना कर डाली कि एक अन्तिम प्रदेश में ही जीव है अतः कर्मों का बन्धन भी एक ही प्रदेश पर होता है । तिष्यगुप्त अपनी मान्यता का प्रचार करता हुआ अमलकम्पा नगरी में लाया । वहाँ श्रीमंत्र नामक श्रद्धासम्पन्न श्रावक था। उसके यहां साधु भिक्षार्थ गये । उसने मोदकादि जितने पदार्थ थे उनका अन्तिम एक एक दाना मुनि को बेहगया । मुनि ने कहा श्रावक यह क्या आपकी उदारता है ? श्रावक ने कहा कि यह मेरी उदारता नहीं पर आपकी मान्यता है, कारण आप असंख्याता प्रदेशी जीवात्मा है उसको एक अन्तिम प्रदेश में ही जीव मानते हो । तदनुसार सम्पूर्ण मोदक की सत्ता एक दाने में ही माननी चाहिये । अतः साधु समझ गये, जिन्होंके क्षयोपशम था वे वीर प्रभु के Jain Educate Titernational For Private & Personal use only [ भगवान् महावीर की परम्परा.... (म्परा inendrary.org Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेव का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५-५५७ पास चले गये, जिन्होंके मिथ्यात्व मोहनीय का उदय था उन्होंने अपने कदाग्रह को नहीं छोड़ा । यह तिष्यगुप्त मुनि से दूसरे निन्हव का दूसरा मत महावीर के केवल ज्ञान होने के १६ वर्षों के बाद चला। १-तीसरा निन्हव अव्यक्तवादी-आचार्य आसाढ़भूति अपने शिष्यों को आगमों की वाचना दे रहे थे एक समय रात्रि में किसी को खबर न हुई कि वे अकस्मात् काल कर देवयोनि में चले गये । पर वहाँ जाकर तत्कालिक उपभोग लगा कर अपना साधु भव देखा तो शिष्यों के प्रति दया भाव आया कि इन विचारों को वाचना कौन देगा। वे देवशक्ति से अपने मृत कलेवर में प्रवेश हो गये और शिष्यों को ज्यों की त्यों वाचना देने लगे। किसी शिष्य को इसका भान न रहा । जब शिष्यों को वाचना दे चुके तो आप अपने देव. पना का स्वरूप बतला कर चले गये इस हालत में शिष्यों ने विचार किया कि जैसे गुरु महाराज मृत शरीर में रहकर अपने से वंदन करवाया करते थे इस प्रकार और भी साधुओं के शरीर में देव होगा तो कौन जाने, अतः देव अवृति अपच्चारवानी होते हैं,उको हम बन्दन कैसे करें ? एवं वे सबके सब साधुओं ने आपस में वन्दन व्यवहार बन्द कर दिया और स्वच्छन्दचारी बन गये । वे साधु कभी भ्रमण करते थे राजगृह नगर में आये । वहाँ के किसी बलभद्रराजा ने अपने अनुचरों द्वारा उन साधुओं को चोरों के तौर पर पकड़वा मंगवाया और चोरों की भांति उन्हें मारने लगा। तब साधु बोले कि हे राजन् ! तुम श्रावक होकर हम साधुओं को क्यों पिटवाते हो ? राजा ने रहा कि मुझे क्या मालूम कि आप साधु हैं या आपके शरीर में कोई चोर पाकर घुस गया है और मैं न जाने श्रावक हूँ या कोई देव मेरे शरीर में अवतीर्ण हो गया हो । जैसे आपकी मान्यता है कि साधुओं के शरीर में देवता होगा । इत्यादि बहुत युक्तियों से समझाये । राजा के कहने से उन साधुओं के अन्दर से बहुत से साधु 'मिच्छामि दुक्कडं' देकर वीर शासन में शामिल होगये और जिन्होंके विशेष मिथ्यात्वोदय था उन्होंने अपने हठ कदाग्रह को नहीं छोड़ा। यह वीरात् २१४ वर्ष के बाद अव्यक्त नाम का तीसरा निन्हव हुआ । ४. चोथा निन्हव क्षणकवादी अश्वमित्र-आर्य महागिरि के कोंटीन नामक शिष्य था और उसके एक अश्वमित्र शिव्य था। वे विहार करते हुए मथुरा नगरी में आये वहाँ पर आगमों की वाचना होती थी जिसमें शवा पूर्व की वाचना में पर्याय के विषय में आया था कि "सव्वे पडुप्पन्ननेरइया वोच्छिज्जिस्संति, एवं जाव विमाणियात्ति" इस पाठ का अर्थ गुरु महागज ने ठीक समझाने पर भी अश्वमित्र ने विपरीत समझ लिया कि पहिले समय नरकादि जो पदार्थ हैं वह दूसरे समय नष्ट हो जाते हैं और दूसरे समय पुनः नये पदार्थ उत्पन्न होते हैं एवं सब पदार्थ क्षण भंगुर है और समय-समय बदलते रहते हैं । अतः जिस जीव ने पहिले क्षण में पाप एवं पुन्य किया है वह दूसरे सारय नष्ट हो जाता है इस मान्यता के कारण उसने अपना अलग मत निकाल दिया और इस प्रकार प्ररूपना करता हुआ राजगृह नगर में पाया वहाँ पर एक हासिल के महकमा में श्रावक रहता था उसने साधुओं को समझाने के लिये उनको पकड़ कर पीटवाना शुरू किया। साधुओं ने कहा हम साधु तुम श्रावक फिर हमें क्यों पीटवाते हो ? इस पर डानीजी ने कहा कि भापकी मान्यतानुसार अब क्षगान्तर पर्याय पलट गई है अतः आप साधु नहीं मैं श्रावक नहीं इसको सुन प्रवचन के निन्हव ] ५१७ Jain Education there Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कर बहुत से साधु समझ गये परन्तु जिन लोगों के मिथ्यात्व कर्म का उदय था उन्होंने अपना हठ नहीं छोड़ा । यह चतुर्थ निन्हव महावीर निर्वाण के बाद २२० वर्ष में हुआ। ५-पांचवां गंग नामक निन्हव-आचार्य महागिरि के धनगुप्त नाम का शिष्य और धनगुप्त के गंगदेव नाम का शिष्य था और वह एक बार उलगातीर नदी उतरता था उस समय ऊपर से ताप नीचे से पानी की शीतलता का अनुभव करता हुआ सोचने लगा कि शास्त्रों में कहा है कि एक समय दो क्रिया नहीं होती हैं यह गलत है क्यों कि मैं एक समय दो क्रिया प्रत्यक्ष में अनुभव कर रहा हूँ। इस प्रकार से विचार करता हुआ मुनि गंगदेव ने आचार्य श्री के पास आकर अपने दिल के विचार कहे तो गुरु ने समझाया कि गंगदेव ! शास्त्र में कहाँ वह सत्य हैं एक समय में जीव दो क्रिया नहीं कर सकता एवं वेद नहीं सकता है और तू जो नदी उतरते समय शीत और उष्ण दोनों का अनुभव किया वह एक समय का नहीं पर असंख्षात समय का अनुभव है उसको एक समय समझना बड़ा भारी भूल है । छदमस्थ को अमुभव करने में उपयोग लगने में असंख्यात समय का काल लगता है इत्यादि बहुत समझाया पर गंगदेव नहीं समझा इत्यादि वीर निर्वाण के बाद २२८ वर्षे गंगदेव नामक पंचवाँ निन्हवा हुआ । ६-छद्रा निन्हव- अन्तरंजिया नगरी में बलश्री नाम का राजा राज करता था वहाँ पर श्रीगुप्त नाम का अचार्य अपने शिष्यों के साथ विराजते थे उसमें रोहगुप्त नाम का शिष्य भी एक था और वह उत्पातिकादि बुद्धि वाला भी था एक समय वहाँ एक परिव्राजक आया था वह विद्या का इतना घमंडी था कि पेट पर लोहे का पाटा लगाया हुआ रखता था और हाथ में एक जम्बू वृक्ष की शाखा लेकर फिरता या किसी ने पूछा कि पंडितजी पेट पर पाटा क्यों बांधा है ? उत्तर में कहा कि मुझे शंका है कि विद्या से मेरा पेट फट नहीं जाय । जम्बू शाखा के लिए कहा कि मुझे जीतने वाला जम्बूद्वीप में भी कोई नहीं है । एक दिन उस परिव्राजक ने नगर में शास्त्रार्थ के लिए उद्घोषणा कराई जिसको आचार्य श्रीगुप्त के शिष्य रोहगुप्त ने स्वीकार करली । बाद वह गुरु महाराज के पास आया और कहा कि मैं परिव्राजक से बाद करूँगा । गुरु महाराज ने इन्कार कर दिया कि इस प्रकार का वितंडावाद करना अच्छा नहीं है। क्योंकि परिव्राजक तात्विक ज्ञान का पंडित नहीं है परन्तु विद्यावली है । वह विच्छू सर्प मूषक वाराह श्रादि विद्या में कुशल है। शिष्य ने कहा कि मैंने कह दिया है अतः शास्त्रार्थ तो करूँगा ही। तब गुरू ने उसको प्रतिपक्ष मयूर, नकुल, बिल्ली, सिंह आदि विद्याएँ दी और रजोहरण भी मंत्र दिया कि जिससे इन्द्र भी जीतने में समर्थ न हो सकेगा। उस विद्या को ग्रहण करके रोहगुप्त राजसभा में गया । उधर से परिव्राजक भी राजसभा में आया! रोहगुप्त ने कहा कि तुम पूर्वपक्ष ग्रहण करोगे या उत्तरपक्ष । परिव्राजक ने सोचा कि मैं पूर्वपक्ष ग्रहण करके इसके ही शास्त्र की बात कहूँ कि जिसको यह खंडन नहीं कर सके । बस, परिव्राजक ने पूर्वपक्ष ग्रहन करके कहा कि राशि दो प्रकार की है। जीव राशि अजीव राशि १ रोहगुप्त ने सोचा कि यह तो हमारा ही सिद्धान्त है परन्तु यहाँ तो था वाद-विवाद । परिव्राजक के पक्ष को खंडन करना था उसने कह दिया कि राशि दो प्रकार की नहीं पर तीन प्रकार की होती है । जीव राशि, अजीव राशि, नौजीवराशि । और जैसे जीवराशि संसार के जीव २-अजीव-राशी घट पटादिक पदार्थ ३--नौजीव-घरोली की काटी हुई पूछ तथा कई स्थानों पर ऐसा भी लिखा है कि रोहगुप्त ने एक सूत का डोरा को गहरा बट लगा कर सभा में रक्खा तो डोरा इधर-उधर चलने लगा। इससे नो जीव राशि साबित करदी । परिव्राजक लाजवाब हो गया कि गुस्से के मारे उसने Jain Educenternational [ HITATE HETORIT o esperary.org Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५-५५७ बिच्छू छोड़े रोहगुप्त ने मयूर छोड़े कि बिच्छुओं को उठा कर ले गये । परिव्राजक ने सांप बनाये तो रोहगुप्त ने नकुल बनाये। परिव्राजक ने मूषक बनाये मुनि ने मंजारि बना दी। उसने मृग बनाया तो मुनि ने बाघ बनाये उसने सुअर बनाया और मुनि ने सिंह बना दिया इस प्रकार परिव्राजक की एक भी न चली तब उसने गर्दभि वेद्या छोड़ी तो मुनि ने रजोहरण से वश में कर ली । इस प्रकार परिव्राजक को पराजित करने से जैनधर्म की खूब प्रभावना हुई फिर रोहगुप्त खूब बाजागाजा एवं आडम्बर से गुरु महाराज के पास आया और सब हाल कहा । इस पर गुरु ने कहा कि जैनधर्म की प्रभावना करना तो अच्छा है परन्तु तीन राशि स्थापन करी यह ठीक नहीं क्योंकि तीर्थङ्करों ने दो राशि कही हैं। अतः तुम राजसभा में जाकर इस बात का मिच्छामि दुकड़ा दो परन्तु रोहगुप्त ने गुरु के वचन को स्वीकार न किया । और तीन राशी नाम का अपना एक नया मत खड़ा कर दिया यह छट्ठा तिराशि निन्हव भगवान महावीर निर्वाण से ५४४ वर्ष में हुआ। ७-गोष्ठामाहिल नामक सातवाँ निन्हव-मालवा देश में दर्शनपुर नगर के वासी एक ब्राह्मण ने आर्य रक्षित के पास दीक्षा ली थी आपका नाम 'गोष्टामाहिल' था । एक समय आर्य दुर्बलिकापुष्य पूर्वाग की वाचना दे रहे थे । अन्य साधुओं के साथ गोष्टामाहिल भी वाचना ले रहा था। आठवें पूर्व में कर्मों का विषय आया कि जीवात्मा के कर्म खीर नीर तथा लोहाग्नि की भांति जीव प्रदेशों में मिल जाते हैं। पर गोष्टामाहिल इस बात को विपरीत समझ कर कहने लगा कि जीव के कर्म स्त्री कंचुक एवं पुरुष जामा और बालक के टोपी की भाँति जीव प्रदेशों के ऊपर लगते हैं अन्दर नहीं । दूसरे नौवें पूर्व में प्रत्यखान के अधिकार में साधुओं को यावत् जीव की सामायिक एवं प्रत्याखान कराया जाता है पर गोष्टामाहिल ने कहा कि जावत्जीव के प्रत्याखान करने पर वांच्छा दोष लगता है। कारण, जीवन के अन्त में भोग की वांच्छा के भाव आ जाते हैं इत्यादि । गोष्टामाहिल के कदाग्रह को दुर्बलिकापुष्या चार्य ने श्री संघ को कहा। तब श्रीसंघ ने अष्टम तप कर देवी की आराधना कर देवी को महाविदेह क्षेत्र में सीमंधर तीर्थङ्कर के पास भेजी। देवी ने जाकर तीर्थङ्कर से पूंछा तो उन्होंने कहा कि दुर्बलिकाचार्य का कहना सत्य है । देवों ने आकर श्रीसंघ को कहा । पर गोष्टामाहिल ने कहा कि देवी झूठी है तीर्थङ्कर ऐसा कभी नहीं कहते इत्यादि गोष्टामाहिल ने अपने कदाग्रह को नहीं छोड़ा। अतः श्रीसंघ ने संघ बाहर कर दिया । एवं गोष्टामाहिल नामक सातवां निन्हव वीरात ५८४ वर्ष में हुआ। इस प्रकार शासन में सात निन्हव हुए इस समय के बाद भी कई निन्हव हुए कइएकों ने साधुओं को वस्त्र पात्र नही रखने का आग्रह किया कइएकों ने भगवान महावीर का गर्भापहार कल्याणक मानने का हट किया, कइएकों ने स्त्रियों को जिनपूजा करने का निषेध किया। कइएकों ने श्रावक को सामायिक पौषध के समय चरवाला का निषेध किया । कइएक ने मूर्तिपूजा का इन्कार किया कइ रकों ने इस समय साधु है ही नही ऐसा आग्रह किया, कइएकों ने मूर्तिपूजा में मिश्र ( पुन्य-पाप ) मानना ठहराया । कइएकों ने स्त्रयों को सामायिक पौषध का निषेध किया। कइएकों ने धानमें जीव मानने से इन्कार किया और कइएकोने मरते जीवों को बचाने में तथा दान देने में पाप बतलाया इत्यादि कलिकाल के प्रभाव से जीवों के मिथ्यात्वोदय होने से जिसके दिल में आई वहीं उत्सूत्र प्ररूपना कर अपना मत निकाल शासनमें छेदभेद डाल टुकड़े २ कर डाले जिसकों हम क्रमशः समय वार यथास्थान लिखेंगे जिसमें यहाँ पर पहला श्राचार्य कृष्णार्षि का शिष्य शिवभूति नामक साधु ने दिगम्बर नाम का मत निकाला जिसको ही लिख दिया जाता है-- JainEdu प्रव प्रवचन के निन्हव ] ५१० www.janesbrary.org Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दिगम्बर मत्तोत्पत्तिदिगम्बरमत—जैसे सात निन्हवों का हाल ऊपर लिखा है वैसे दिगम्बर भी एक निन्हव की पंक्ति में है इस मत की उत्पति खास तौर तो साधु वस्त्र नहीं रखने के एकान्त श्राग्रह से हुई है तत्पश्चात् उन्होंने अनेक बातों का रद्दोबदल कर डाला जैन शास्त्रों में दिगम्बर मत की उत्पत्ति निम्न लिखित प्रकार से हुई है। रथवीरपुर नामक नगर के देवगणोद्यान में एक कृष्णार्षि नामक जैनाचार्य पधारे थे उस नगर में एक शिवभूति नामक ब्राह्मण बसता था और कुछ राज सम्बन्धी काम भी किया करता था परन्तु रात्रि के समय बहुत देरी से घर पर आने की उसकी आदत पड़ गई थी जिससे शिवभूति की स्त्री और माता घबरा गई थीं । एक दिन शिवभूति रात्रि में बहुत देरी से घर पर आया और द्वार खोलने के लिये बहुन पुकारें की परन्तु सब लोग निद्रा देवी की गोद में सो रहे थे जब शिवभूति की माता जागी तो उसने क्रोध के वश होकर वह दिया कि इस समय जिसके द्वार खुले हों वहां चला जा । बस शिवभूति माता के वचन सुनकर वहां से चला गया पर दूसरारात्रि समय अपने द्वार कौन खुला रक्खे । वह फिरता फिरता कृष्णाचार्य के मकान पर पहुँचा तो वहां द्वार खुल्ला था । शिवभूति मकान के अन्दर प्रवेश करके क्या देखताहै कि साधु जन आत्म ध्यान में संलग्न थे जिन्हों को देखकर शिवभूति ने सोचा कि माता की अशा तो हो ही गई है इनके पास दीक्षा ले लें । सुबह प्राचार्यश्री से प्रार्थना की और स्वयं लोचनी कर लिया अतः आचार्य श्री ने परोपकार की गरज से शिवभूति को दीक्षा दे दी । एक समय वहां के राजा ने जैन मुनियों के त्योग वैराग्य एवं शिवभूति के पूर्व परिचय के कारण उसको रत्न कंबल बेहराई ( अर्पण की ) जिसको लेकर शिवभूति ने आचार्य श्री के पास आकर उनके सामने वह रत्नकंवल रख दी । उसको देखकर सूरिजी ने कहा मुनि ! यह बहुमूल्य रत्नकंवल क्यों ली है ? कारण साधुओं को तो सादा जीवन गुजारना चाहिये । केवल लज्जा एवं शित निवारणार्थ जीर्ण प्रायः शल्प मूल्य के वस्त्र से निर्वाह करना चाहिये इत्यादि कह कर उस रत्न कंवल के टुकड़े २ करके सब साधुओं को रजोहरण पर लगाने के लिये निशिथिये करके दे दिये । इस पर शिवभूति के दिल में तो बहुत आई पर गुरू के सामने वह कर क्या सकता था ! दूसरे वैराग्य एवं आत्मार्थीपना उसमें था नहीं उसने तो केवल माता के तिरस्कार से ही दीक्षा ली थी। एक समय प्राचार्य श्री साधुओं को आगम वाचना दे रहे थे उसमें जिनकल्पी मुनियों का वर्णन आया। "जिणकप्पिया य दुविहा, पाणीपाया पडिगाह धराप । पाउरणमपाउरणा एकेकते भाव दुविहा" इत्यादि । शिवभूति ने गुरुमुख से जिन कल्पी का वर्णन सुना और कहा कि जब श्रागमों में जिनकल्पी का विधान बतलाया है तब यह वस्त्र पात्र रूप परिग्रह क्यों रखा जाता है । साधु को एकान्त नग्न रहकर जिनकल्पीपना अर्थात् बिलकुल नग्न रहकर संयम पालन एवं आराधन करना चाहिये इत्यादि । __ आचार्य श्री ने मधुर वचन और आगमों का गम्भीर आशय को समझाया कि इस समय जैसे केवल ज्ञानादि अनेक बातें विच्छेद हो गई हैं इसी प्रकार जिनकल्पीपना भी विच्छेद हो गया है कारण जिनकल्पी धर्मपालन करने के लिये सबसे पहला बन ऋषभनाराचसंहनन की आवश्यकता है बह इस समय बिच्छेद हो गया है शिवभूति केवल नग्न रहने से ही जिनकल्पी नहीं कहा जाता है पर सबसे पहले तो दीक्षा लेकर गुरुJain Ed LR international For Private & Personal use only [ भगवान् महावीर की परम्परा ary.org Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्ष देवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ कुलवास में बीस वर्ष रहकर कम से कम साधिक नौ पूर्व का ज्ञान हासिल करना चाहिये पश्चात् गुरु आज्ञा ही जिनकल्पीपना धारण किया जाता है अतः न तो इस समय बज्रऋषभनाराच संहनन है और न सब साधु साधिक नौ पूर्व का ज्ञान ही पढ़ सकते हैं इस हालत में जिनकली साधु कैसे हो सकते हैं और कैसे जिनकल्पी मुनि पना का आचार पालन ही कर सकते हैं इत्यादि । शिवभूति के जिनकल्लीपना का तो एक वायना था उसके हृदय में तो रत्न कॉबल खट रही थी कि उसने अपने कदाग्रह को नहीं छोड़ता हुआ कहा कि थोड़ा रखे तो भी परिग्रह है और अधिक रखे तो भी परिग्रह | फिर इस पाप का मूल परिग्रह को रखा ही क्यों जाय अर्थात् साधुओं को एकान्त-नग्न ही रहना चाहिये | और जिनकरुपीपना को विच्छेद बतलाना यह केवल वस्त्र पात्र पर ममत्व एवं कायरताका ही कारण है कि अपनी कमजोरी से उस परिग्रह को छोड़ा नहीं जाता है। यदि मनुष्य चाहे तो अभी भी जिनकल्पीत्व पालन कर सकता है इतना ही क्यों पर मैं इस काल में भी जिनकल्पी रह सकता हूँ ? १ ॥ २ ॥ सूरिजी ने पुनः शिवभूति को समझाने की कोशिश करते हुए कहा शिवभूति ! " धर्मोपकरणमेवैतत् नहु परिहः" अर्थात् धर्मोपकरण को परिग्रह नहीं कहा जाता है और शास्त्रों में भी कहा है कि :जन्तवो बहवः सन्तिदुर्दर्शा मासचक्षुषाम् । तेभ्यः स्मृतं दयार्थंतु रजोहरणधारणम् ॥ आसने शयने स्थानेनिक्षेपे ग्रहणे तथा । गात्रसंकोचने चेष्टं तेन पूर्वं प्रमार्जनम् ॥ संति संपतिमाः सच्चाः सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे । तेषां रक्षानिमित्तं च, विज्ञेया मुखवत्रिका ॥ भवन्ति जन्तवो यस्माद्भक्तपानेषु केषुचित् । तस्मात्त पां पीरक्षार्थं, पात्रग्रहणमिष्यते ॥ ४ ॥ 1 सम्यक्त्वज्ञानशीलानि, तपती सिद्धये । तेषामुपग्रहार्थीदें, स्मृतं चीवरधारणम् ॥ ५ ॥ शीतवातातपैर्दशै-र्मशकैश्चापि खेदितः । मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं, न सम्यक् संविधास्यति ॥ ६॥ तस्य त्वग्रहणे यत्स्यात्, क्षुद्रप्राणिविनाशनम् । ज्ञान ध्यानोपधातो वा, महान दोषैस्तदैव तत् ॥ ७ ॥ यः पुनरतिसहिष्णुतयैतदन्तरेणापि न धर्मवाधकस्तस्य नैतदस्ति । 1 ३ ॥ य एतान् वर्जयेोपान्, धर्मोपकरणाद्यते । तस्य त्वग्रहणं युक्तं यः स्याजिन इव प्रभुः ॥ ८ ॥ , इत्यादि बहुत समझाया परन्तु प्रबल मोहनीय कर्मोदय से शिवभूति ने गुरु के वचनों को नहीं माना और वस्त्र छोड़ कर एवं नग्न हो कर उद्यान के एक भाग में जाकर बैठ गया । शिवभूति की बहन ने भी दीक्षा ली थी वह अपने भाई शिवभूति मुनि को वन्दन करने को उद्यान में गई थी। शिवभूति ने उसको ऐसा विपरीत उपदेश दिया कि वह भी कपड़े छोड़ कर नग्न हो गई। जब वह का ( साध्वी ) नगर में भिक्षार्थं गई तो उसको नग्न देख लोग अवहेलना एवं निन्दा करने लगे क्योंकि पुरुष तो अन्य मत में भी परम हँसादि नग्न रह सकता है पर स्त्री को नग्न किसी ने नहीं देखी थी । श्रतः शिवभूति की बहिन साध्वी को नग्न देख लोग निन्दा करें यह बात स्वभाविक ही थी । साध्वी को नग्न फिरती देख एक वैश्या को लज्जा आ गई। उसने एक लाल शाटिका ( वस्त्र ) अपने मकान से उस नम साध्वी पर डाला । साध्वी ने उस वस्त्र को लेजा कर अपने भाई शिवभूति (नग्न) मुनि के पास जाकर रख कर सब हाल कह सुनाया । आखिर तो शिवभूति भी मनुष्य ही था । उसने सोचा कि स्त्रियों को नग्न रहना श्रज भी अच्छा नहीं है। दिगम्बर मतोत्पत्ति ] Jain Education Intercional ६६ ५२१ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और भविष्य में तो यह और भी अधिक नुकसान का कारण है । अतः वस्त्र साध्वी को वापिस दे दिया और कहा कि यह वस्त्र तुमको देवता ने दिया है अतः तुम इसको पहिनो और यह वस्त्र फट भी जाय तो दूसरा वस्त्र लेकर हमेशा के लिये वस्त्र पहिनती ही रहना । अतः शिवभूति ने साधु नम्र रहें और साध्वी लाल वस्त्र पहने ऐसा दुरंगा वेश बना कर एक नया मत निकाल दिया जिसको दिगम्बर मत कहते हैं । जैनधर्म में भगवान् महावीर को निर्वाण के बाद यह पहले ही पहिल इस प्रकार मतभेद खड़ा हुआ और इस मतभेद का समय निम्नलिखित गाथा में बतलाया है कि : 'छव्वास सएहिं नगोत्तेरहिं तझ्या सिद्धि गयस्स वीरस्स । तो बोडियाण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पन्ना ||" वीर निर्वाण के पश्चात् ६०९ वर्ष जाने के बाद रथपुर नगर में 'बोडिय' यानि शिवभूति ने एकान्त पक्ष को खींच कर नग्न रहने का नया मत निकाला। जिस को दिगम्बर मत भी कहते हैं । शिवभूति के दो शिष्य हुये १ कौडिन्य २ कोष्ठ वीर बाद उनका परिवार बढ़ने लगा । इस प्रकार प्राचीन ग्रन्थों में पूर्वाचार्यों ने दिगम्बरमतोत्पत्ति बतलाई है और भगवान् हरिभद्रसूरि ने आवश्यक सूत्र की वृत्ति में एवं उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में तथा और भी जहाँ दिगम्बरोत्पत्ति लिखी है वहीँ सर्वत्र यही बात लिखी है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् ६०९ वर्षे रथवीरपुर नगर में कृष्णाचार्य के शिष्य शिवभूति द्वारा दिगम्बर मत की उत्पत्ति हुई । कोई भी व्यक्ति लड़ गड़ कर नया पन्थ चलाता है वह स्वयं सच्चा एवं प्राचीन बन कर दूसरों को झूठा एवं अर्वाचीन बतलाते हैं, तदनुसार दिगम्बरों ने भी लिख मारा है कि वीर नि० सं० १६० पाटली पुत्र नगर में श्वेताम्बर मत निकला इसका कारण बतलाते हैं कि भद्रबाहु के समय बारहवर्षीय दुकाल पड़ा था उस समय साधुओं ने शिथलाचारी होकर वस्त्र पात्र रखने शुरू कर दिये और उन साधुओं ने अपना श्वेताम्बर नामक मत चला दिया इत्यादि । कई दिगम्बर २ विक्रम सं० १३६ वल्लभपुरी में श्वेताम्बर मत निकला बतलाते हैं पर यह सब कल्पना मात्र है या अपने पर श्रागम उत्थापक एवं निन्हवता का जो कलंक है उसको छिपाने का एक मात्र मिथ्या उपाय है । जैन सिद्धान्तों में तो दोनों प्रकार के साधुओं को स्थान दिया है १ - जिन कल्पी २ - स्थविर कल्प पर जिनकल्पी वही हो सकता है कि जिसके बॠषमनारच संहनन हों जब पंचम आरा में बज्रऋषभनारच संहनन विच्छेद होगया तब जिनकल्पी भी विच्छेद होजाना स्वभाविक ही है। दूसरे केवल नग्नत्व को ही जिनकल्पी नहीं कहा जाता है पर जिनकल्पी के लिये और भी कई प्रकार की कठिनाइयां सहन करनी पड़ती हैं। जो मंद संहनन वाले नग्न रहते हुये भी सहन नहीं कर सकते हैं। तथा जिनकल्पी मुनि को कम से कम नौ पूर्वका ज्ञान होना चाहिये इत्यादि वह शिवभूति में नहीं था। दिगम्बरों ने केवल नग्न रहने का हठ पकड़ लिया है और उस हठ से दिगम्बरों को कितना नुकसान हुआ है। जरा निम्न लिखित बातों पर लक्ष दीजिये१ - अव्वल तो दिगम्बर शास्त्रों का कथन है । कि पंचम आरे के अंत तक चतुर्विधि श्रीसंघ रहेगा तब दिग १ भद्रबाहु चरित्र - दिगम्बर समुदाय में दो भद्रबाहु हुए हैं एक वीर निर्वाण के बाद दूसरी शताब्दी में तब दूसरा विक्रय की दूसरी शताब्दी में अतः चरित्रकार ने दूसरा भद्रबाहु की घटना पहले भद्रबाहु के साथ जोड़ते की भूल कर दी मालूम होती है । २ देखो बामदेव कृत भावसंग्रह की ठीक तथा देवसेनकृत दर्शनसार नामक ग्रन्थ- ५२२ [ भगवान् महावीर की परम्परा Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ मब्रों में त्रिविध संघ ही रहा । कारण साध्वी नग्न नहीं रह सके और वस्त्र धारण करने पर वे उसमें संयम नहीं मानते हैं अतः त्रिविध संघ ही रहा । इतना ही क्यों पर भूतकाल में अनन्त तीर्थङ्करों के शासन में अनंत सती साध्वियां मोक्षगई उनके लिये भी दिगम्बरों को इन्कार करना पड़ा। यह एक बड़ा भारी उत्सूत्र है : 23 २-दिगम्बरों के नग्नत्व के एकान्त हठ पकड़ने से दिगम्बर साधुओं की आज क्या दशा हुई है जो मुनि पृथ्व्यादि छः काया के जीवों का आरंभ करन करावन और अनुमोदन का त्याग कर पंच महावत धारी बने थे और मधुकरी मिक्षा से अपना निर्वाह करते थे ( जैन साधु आज भी मधुकरी भिक्षा से निर्वाह करते हैं ) वही दिगम्बर बन कर पात्र न होने से एक ही घर में भिक्षा करते हैं अतः वे पूर्वोक्त नियम का पालन नहीं कर सकते हैं । जब इन साधुओं को भिक्षा करते हुए को देखा जाय तो देखने वाले को घृणा आये बिना भी नहीं रहती है और उनका बिहार तो बिना गाड़ी और बिना रसोइये के हो ही नहीं सकता है बस दिगम्बरों में नग्नत्व रहता हुआ भी संयम कूच कर गया है। ३-वृद्ध ग्लानी तपस्वी साधु की व्यावच्च करना दिगम्बरों के शास्त्रों में भी लिखा है पर जब वस्त्र पात्र ही नहीं रखा जाय तो आहार पानी कैसे लाकर दे सकते हैं ? ४-नग्न रहने का मुख्य कारण परिसह सहन करना और ममत्व भाव से बचना है परन्तु दिगम्बर साधु नग्न रहने में न तो परिसह को सहन करते हैं और न ममत्व भाव से बच ही सकते हैं। शीत काल में नग्न साधु शीत से बचने के लिये मकान के अन्दर उसमें भी घास बिछाना ओड़ना चारों ओर पर्दे लगवाने और अग्नि की अंगीठियें जलाना आदि ये सब सावद्य कार्य शरीर के ममत्व से ही किये जाते हैं इसमें कई दिगम्बर मुनि श्रग्नि शरण भी हो गये फिर केवल एक नग्नत्व का हठ पकड़ने में क्या लाभ हैं । ५-दिगम्बराचार्यों ने अपने ग्रन्थों में स्त्री पुरुष और नपुसक एवं तीनों वेद वालों की मोक्ष होनालिखा है परन्तु स्वयं वस्त्र नहीं रखने के कारण स्त्रियों के लिये मोक्ष का निषेध करना पड़ा है पर इस कल्पना को दिगम्घराचार्य ने ही असत्य ठहरा दी है । दिगम्बर मत में कई संघ स्थापित हुए थे उसमें यापनीय संघ भी एक है उस यापनीय संघ में एक शकटायन नाम का आचार्य हुआ उन शकटायनाचार्य ने स्त्रियों को मोक्ष होना और केवली को आहार करने के विषय दो प्रकरण बनाया है वे मूल प्रकरण वहां दर्ज करदिये जाते हैं। स्त्री-मुक्तिप्रकरण प्रणिपत्य भुक्तिमुक्तिप्रदममलं धर्ममहतो दिशतः । वक्ष्ये स्त्रीनिर्वाणं केवलिभुक्तिं च संक्षेपात् ॥१॥ अस्ति स्त्रीनिर्वाणं पुंवत्, यदविकलहेतुकं स्त्रीषु । न विरुध्यति हिरत्नत्रयसंपद् नि तेहेतुः ॥२॥ रत्नत्रयं विरुद्धं स्त्रीत्वेन यथाऽमरादि भावेन । इति वाङ मात्रं नात्र प्रमाणमाप्ताऽऽगमोऽन्यदवा ॥३॥ जानीतेजिनवचनं श्रद्धत्ते,चरति चाऽऽर्यिका शवलम् । नाऽस्याऽसत्यसंभवोऽस्यां नाऽदृष्ट विरोध गतिरस्ति सप्तमपृथिवीगमनाद्यभावमव्याप्तनेव मन्यन्ते । निर्वाणाऽभावेनाऽपश्चिमतनवो न तां यान्ति ॥५।। दिगम्बर पुराणों में तीर्थकरों के चतुर्विधि संघ की संख्या दी है, जिसमें ६-७ गुणस्थान वाली साध्वीयों की संख्या भी स्पष्ट है। दिगम्बर मतोत्पत्ति ] ५२३ www.jamelibrary.org Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विषमगतयोऽप्यधस्ताद् उपरिष्टात तुल्यमासहस्रारम् । गच्छन्ति च तिर्यचस्तदधोगत्यूनताऽहेतुः॥६॥ वाद-विकुर्वणत्वादिलब्धिविरहे श्रुते कनीयसि च ।जिनकल्प-मनः पर्यवविरहेऽपि न सिद्धिविरहो-ऽस्ति वादादिलब्ध्यभाववद् अभविष्यद् यदि च सिद्धयभावोऽपि । तासामवारयिष्याद् यथैव जम्धूयुगादारात्।।८। 'स्त्रीति च धर्म विरोधे प्रवज्यादोपविंशतौ 'स्त्री'ति । वालादिवद् वदेथुन 'गर्भिणी बालवत्से ति ॥९॥ यदि वस्त्राद् अविमुक्तिः, त्यजेत तद्, अथ न कल्पते हातुम । उत्सङप्रतिलेखनवद्, अन्यथा देश को दृष्येत् त्यागे सर्वत्यागो ग्रहणेऽल्तो दोष इत्युपादेशि । वस्त्रं गुरुणाऽऽर्याणां परिग्रहोऽपीति चुत्यादौ ॥११॥ यत् संयकोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुहकरणम् । धर्मस्यहितत् साधनमतोन्यअधिकरणमाहाऽर्हन्॥१२॥ अस्तैन्यबाहिर व्युत्सर्गविवेकैपणादिसमितीनाम् । उपदेशनमुपदेशो छु पधेरपरिग्रहत्वस्य ॥१३॥ निग्रन्था""''शास्त्रे सर्वत्र नैव युज्येत । उपधेग्रन्थत्वेऽस्याः पुमानपि तथा न निग्रन्थः ॥१४॥ संसक्तौ सत्यामपि चोदितयत्नेन परिहरन्त्यार्या । हिंसावती पुमानिव न जन्तुमालाकुले लोके ॥१५॥ वस्त्रं विना न चरणं स्त्रीणामित्यहतीच्यत, विनाऽपि । पुंसामिति न्यवायेत तत्र स्थविरादिवद् मुक्तिम् अर्शो-भगंदरादिपु गृहीतचीरो यतिन मुच्येत । उपसर्गेवा चीरे ग्दादिः संन्यस्यते चात्ते ॥१७॥ उत्सङ्गगमचेलत्वं नोच्येत तदन्यथा नरस्यापि । आचेलक्या (क्यं योग्यायोग्यासिद्धरदीक्ष्य इव॥१८॥ इति जिनकल्पादीनां युक्त्यङ्गानाम योग्य इति सिद्धेः । स्याद् अष्टवर्पजातादिरयोग्यो ऽदीक्षणीय इव॥१९॥ संवर-निर्झररूपो बहुमकारस्तपोविधिः शस्त्रे । योगचिकित्साविधिरिव कस्याऽपि कथंचिदुपकारी॥२०॥ वस्त्राद् न मुक्तिविरहो भवतीत्युक्तं, रामग्रमन्यच्च । रत्नत्रयाद् न वाऽन्यद् युक्त्यङ्गं शिष्यते सद्भिः॥२१॥ प्रबाजना निषिद्धा क्वचित्तु रत्नत्रयस्य योगेऽपि । धर्मस्य हानि-वृद्धी निरूपयद्भिविवृद्ध्यर्थम् ॥२२॥ अप्रतिवन्धत्वात् चेत् संयतवर्गेण नाऽऽर्यिकासिद्धिः । वन्द्यतां ता यदिते, नोनत्वं कल्प्यते तासाम्॥२३॥ सन्त्यूनापुरुपेभ्यस्ताःस्मारण चारणादिकारिभ्यः।तीर्थकराऽऽकारिभ्यो न च जिनकल्पादिरिति गणधरादी अहन न वन्दते न तावताऽसिद्धिरङ्गगतेः । माताऽन्यथा विमुक्तिः,स्थानं स्त्री-पुंसयोस्तुल्यम् [नाम् आकृष्यते श्रिया स्त्री पुंसः सर्वत्र किं न नन्मक्तौ । इत्यमुना क्षेप्यस्त्री-पुंसां सिद्धिः सममरुक्त्वम् मायादिः पुरुषाणामपि देशाधि (उपादि) प्रसिद्धभावश्च । पण्णां संस्थानानां तुल्यो वर्णत्रयस्यापि ॥२७॥ 'स्त्री' नाम मन्दसत्या उत्सङ्गसमग्रता न तेनाऽत्र । तत् कथमनल्पवृत्तयः सन्ति हि शीलाम्बुधेलाः ॥२८॥ ब्राह्मी सुन्दयोऽऽयो राजीमती चन्दना गणधराऽन्या। अपि देव-मनुज-महिताःविख्याताःशील-सचाभ्याम् गार्हस्थ्येऽपि सुसत्त्वा विख्याता शीलवतितमा जगति । सीतादयः कथं तास्तपसि विसत्त्वा विशीलाश्च संत्यज्य राज्यलक्ष्मी पति-पुत्र-भ्रातृ-बन्धुसम्बन्धम् । पारिव्रज्यवहायाः किमसत्वं सत्यभामादेः ? महता पापेन स्त्री-मिथ्यात्वसहायकेन न सुदृष्टिम् । स्त्रीत्वं चिनोति, तद् न, तदङ्ग क्षपणेऽपि निर्मानम् अन्तः कोटी कोटीस्थितिकानि भवन्ति सर्व-कर्माणि । सम्यक्त्वलाभ एवाऽशेषोऽप्यक्षयकरो मार्गः ॥ अष्टशतमेकसमये पुरुषाणामादिरागमः सिद्धि । स्त्रीणां न मनुष्ययोगे गौणार्थो मुख्यहानिर्वा ॥३४॥ Jain Educato International ५२४ For Private & Personal use on [ भगवान् महावीर की परम्परा - Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ शब्दनिवेशनमः प्रत्यासत्या क्वचित् कयाचिदतः । तदयोगे योगे सति शब्दस्याऽन्यः कथं कल्प्य: स्तन-जधनादिव्यङग्ये 'स्त्री' शब्दोऽर्थे, न तं विहायैव । पृष्टः क्वचिदन्यत्र त्वग्निर्माणवकवद् गौणः आपष्ठया स्त्रीत्यादौ स्तनादिभिस्त्री स्त्रियाइति च वेदा स्त्रीवेद स्व्यनुबन्धास्तुल्यानां शतपृथकत्वोक्तिः न च पुंदेहे स्त्रीवेदोदयभावे प्रमाणमङ्गं च। भावः सिद्धौ पुंवत् घुमा अपि (पुंसोऽपि)न सिध्यतो वेदः क्षपकश्रेण्यारोहे वेदनोच्येत भूतपूर्वण । 'स्त्री' ति नितराममख्ये मख्येऽर्थ युज्यते नेतराम् ॥३६॥ मनुपीपु मनुष्येषु च चतुर्दशगुणोक्तिराणि (बि) कासिद्धौ । भावस्तवोपरिक्षप्य 'नवस्थो नियतउपचारः पुंसि स्त्रियां, स्त्रियां पुंसि-अतश्च तथा भवेद् विवाहादिः । यतिपु न संवासादिः स्यादगतौ निष्प्रमाणेष्टिः अनडुह्याऽनड्वाही दृष्ट्वाऽनड्वाहमनडुहाऽऽरूढम् । स्त्रीपुंसेतरवेदो वेद्यो ना ऽनियमतो वृतेः ॥४२॥ नाम-तदिन्द्रियलब्धेरिन्द्रियनिवृत्तिमिव प्रमाद्यङ्गम् । वेदोदयाद् विरचयेद् इत्यतदङ्गेन तद्वेदः ॥४३॥ या पुंसि च प्रवृत्तिः,पुंसि स्त्रीवत,स्त्रिया स्त्रियां च स्यात् । सा स्वकवेदात तिर्यगवदलामे मत्तकामिन्याः विगतानुवादनीतौ सुरकोपादिषु चतुर्दश गुणाः स्युः । नव मार्गणान्तर इति प्रोक्तं वेदेऽन्यथा नीतिः न च बाधकं विमुक्तेः स्त्रीणामनुशासकं प्रवचनं च । संभवति च मुख्येऽर्थ न गौणइत्यार्यिका सिद्धिः * इति स्त्री निर्वाण प्रकरणं समाप्तम् ॥ इसके अलावा दिगम्बर समुदाय का परम माननीय ग्रन्थ गोमटसार तथा त्रिलोक्यसार नाम के ग्रन्थों में भी स्त्रियों की मुक्ति हीना स्पष्ट शब्दों में उल्लेख मिलता है पर मत्ताग्रह के कारण हमारे दिगम्बर श्राई उस ओर लक्ष नहीं देते हैं खैर मैं उस दिगम्बर ग्रन्थ की एक गाथा यहाँ उद्धृत कर देता हूँ"वोस नपुंसक वेआ, इत्थीवेयाय हुँति चालीसा। पुं वेआ अडयाला, सिद्धा एकमि समय स्मि ॥" अर्थात् एक समय १०८ सिद्ध होते हैं जिसमें २० नपुंसक ४० स्त्रियों और ४८ पुरुष इस प्रकार १०८ की संख्या दिगम्बराचार्यों ने ही बतलाई है इतना ही क्यों पर उन्होंने तो स्त्रियों को चौदहवां अयोग गुणस्थान होना भी लिखा है । गौमटसार जीव कांड की गाथा ७१४ में भी अयोगी स्त्री का जिक्र है एवं स्त्री को १४ वां गुणस्थान बताया है। ६--दिगम्बरों ने एक नग्नत्व के आग्रह करने में और भी अनेक मिथ्या प्ररूपना करदी है जैसे दिगम्बर कहते हैं कि केवली कवल आहार नहीं करते हैं जो कि यह कथन खास दिगम्बरों के प्रन्थों से ही मिथ्या साबित होता है । कारण गोमटसार, दिगम्बरीय तत्वार्थ सूत्र, तत्वार्थसार आदि ग्रन्थों में केवली के ग्यारह परिसह बतलाये हैं जिसमें क्षुधा और पिपासा परिसह भी हैं इनके अलावा दिगम्बराचार्य शकटायन ने भी केवली के आहार करने की सिद्धि में एक ग्रंथ निर्माण किया है । वह यहाँ उद्धृत कर दिया जाता है । ॥ केवलिभुक्तिप्रकरणम् ॥ अस्ति च केवलिभुक्तिः समग्रहेतुर्यथा पुरा भुक्तेः । पर्याप्ति-वेद्य-तैजस-दीर्घायुष्कोदयो हेतुः ॥१॥ नष्टानि न कर्माणि क्षुधो निमित्त विरोधिनो न गुणाः । ज्ञानादयो जिने किं सा संसारस्थिति स्ति दिगम्बर मतोत्पत्ति-] ५२५ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तम इव भासो वृद्धौ ज्ञानादीनां न तारतम्येन । क्षुध हीयतेऽत्र न च तद् ज्ञानादीनां विरोधगतिः अविकलकारणभावे तदन्यभावे भवेदभावेन । इदमस्य विरोधीति ज्ञाने न तदस्ति केवलिनि ॥४॥ क्षुद् दुःखमनन्तसुखं विरोधे तस्येति चेत् कुतस्त्यंतत् । ज्ञानादिवन्न तज्जं विरोधि न परं ततो दृष्टम् आहारविषयकाङ्क्षारूपा क्षुद् भवति भगवति विमोहे ! कथास्न्यरूपताऽस्या न लक्ष्यते येन जायेत॥६॥ न क्षुद् बिमोहपाको यत् प्रतिसंख्यानभावननिवा । न भवति विमोहपाकः सर्वोऽपि हि तेन विनिवर्त्यः शीतोष्णवाततुल्या क्षुत् तत् तत्पतिविधान काङ्क्षा तु । मूढस्य भवति मोहात् तथा भृशं बाध्यमानस्य तैजससमूहकृतस्य द्रव्यस्याऽभ्यवहृतस्य पर्याप्त्या । अनुत्तरपरिणामे क्षुत् क्रमेण भगवति च तत् सर्वम् ज्ञानावरणीयादेर्शानावरणादि कर्मणः कार्यम् । क्षुत् तद्विलक्षणऽस्यां न तस्य सहकारिभावोऽपि॥१०॥ क्षुद्बाधिते 'न जाने, न चेक्ष' इत्यस्ति न तु विपर्यासः । तद्यं सहकारि तु; तस्य न तद् वेद्यसहकारि ज्ञानावरणादीनामशेषविगमे क्षुधि प्रजातायाम् । अपि तद् ज्ञानादीनां हानिः स्यादितरवत् तत्र ॥१२॥ नष्टविपाका क्षुदिति प्रतिपत्तौ भवति चागमविरोधः। शीतोष्ण-क्षुद्-उदन्याऽऽदयो हि ननु वेदनोय इति उदये फलं न तस्मिन् उदीरणेत्यफलता न वेद्यस्य । नोदीरणा फलात्मा तथा भवेदायुरप्यफलम्॥१४॥ अनुदीर्णवेद्य इति चेद् न क्षुद् वीर्य किमत्र नहि वीर्यम् । क्षुदभावे क्षुदभावेन स्थित्यै क्षधि तनोविलयः अपवर्तते कृतार्थ नायुर्ज्ञानादयो न हीयन्ते । जगदुपकृतावनन्तं वीर्य किं गततृषो भुक्तिः ॥१६॥ ज्ञानाद्यलयेऽपि जिने मोहेऽपि स्याद् क्षुद् उद्भवेद् भुक्तिः। वचन-गमनादिवच्च प्रयोजनं स्व-परसिद्धिःस्यात् ध्यानस्य समुच्छिन्नक्रियस्य चरमक्षण गते सिद्धिः। सा नेदानीमस्ति स्वस्य परेषां च कर्तव्या॥१८॥ रत्नत्रयेण मुक्तिन विना तेनाऽस्ति चरमदेहस्य । भुक्त्या तथा तनोः स्थितिरायुपि न त्वनपवाऽपि आयुरिवाऽभ्यवहारो जीवनहेतुर्विनाऽभ्यवहृतेः । चेत् तिष्ठत्वनन्तवीर्ये विनाऽयुषा कालमपि तिष्ठेन न ज्ञानवदुपयोगो वीर्ये कर्मक्षयेण लब्धिस्तु । तत्राऽऽयुरिवाऽऽहारोऽपेक्ष्येत न तत्र बाधाऽस्ति॥२१॥ मासं वर्ष वाऽपि च तानि शरीराणि तेन भुक्तेन । तिष्ठन्ति न चाऽऽकालं नान्यथा पूर्वमपि भुक्तिः असति क्षुब्दाधेऽङ्गे लये न शक्तिक्षयो न संक्लेशः । आयुश्चानपवत्यै बाध-लयौ प्राग्वदधुनाऽपि देशोनपूर्वकोटीविहरणमेवं सतीह केवलिनः । सूत्रोक्तमुपापादि न, मुक्तिश्च न नियतकाला स्यात्॥२४॥ अपवतेहेत्वभावेऽनपर्वतनिमितसंपदायुष्कः । स्याद् अनपवर्त इति तत् केवलिभुक्तिं समर्थयते ॥२५ः। कायस्तथाविधोऽसौ जिनस्य यदभोजनस्थितिरितदिम् । वाङ्मात्र नाबार्थे प्रमाणमाप्तागमोऽन्यद्वा अस्वेदादि प्रागपि सर्वाभिमुखादि तीर्थकरपुण्यात् । स्थितनखतादि सुरेभ्यो न क्षु देहान्यता वाऽस्ति भुक्तिर्दोषो यदुपोष्यते, न दोषश्च भवति निर्दोषै, इति निगदतो निषद्याऽर्हति न स्थान-योगादेः॥२८॥ रोगादिवत् क्षुधो न व्यभिचारो वेदनीयजन्मायाः। प्राणिनि “एकादशजिन" इतिजिन सामान्यविषयंच तद्हेतुकर्मभावात् परीषहोक्तिर्न जिन उपस्कार्यः नश्वाऽभावासिद्धरित्यादेनं क्षुदादिगति ॥ ३०॥ तैलक्षये न दीपो न जलागममन्तरेण जलधारा । तिष्ठति तथा तनोः स्थितिरपि न विनाऽऽहारयोगेन [ भगवान् महावीर की परम्परा Jain Education Thternational Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ परमावधेर्युस्थ छद्मस्थस्येव नान्तरायोऽपि । सर्वार्थदर्शनेऽपि स्याद् न चान्यथा पूर्वमपि भुक्तिः॥३२ इन्द्रियविषयप्राप्तौ यदभिनियोधप्रसंजनं भुक्तौ । तच्छब्द-गन्ध-रूप-स्पर्शप्राप्त्या प्रतिव्यूढम् ।।३३॥ छद्मस्थे तीर्थकरे विष्वणनानन्तरं च केवलिनि ! चित्तामलप्रवृत्तौ व्यासैवाऽत्रापि भुक्तवति ॥३४।। विग्रहगतिमापनाद्यागमवचनं च सर्वमेतस्मिन् । मुक्तिं ब्रवीति तस्माद् द्रष्टव्या केवलिनि भुक्तिः नाऽनाभोगाहारः सोऽपि विशेषितो नाऽभूत । युक्त्याऽभेदे नाङ्गस्थिति-पुष्टि-क्षुच्छमास्तेन तस्य विशिष्टस्य स्थितिरभविष्यत् तेन सा विशिष्टेन । यद्यभविष्यदिहैषां शाली-तरभोजनेनेव॥३७|| ॥ इति केवलीभुक्ति प्रकरणं ॥ पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि आचार्य शकटायन एक दिगम्बर मत के प्रसिद्ध आचार्य हैं और आप अपने श्रन्थ में युक्ति पूर्वक केवली को केवल आहार करना सिद्ध कर बतलाते हैं फिर दूसरे प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है अतः केवली कवल श्राहार करते हैं यह श्वेताम्बरों की मान्यता शास्त्रोक्त ठीक है ___ इनके अलावा दिगम्बरों ने जैन शास्त्रों में क्या-क्या रद्दोबदल किया है उसके लिये महोपाध्याय जी श्रीयशोविजयजी महाराज का बनाया हुआ दिग्पट्ट ८१ बोल और उपाध्याय श्रीमघेविजयजी महाराज कृत युक्ति प्रबोध नामक ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। मनुष्य जब आग्रह पर सवार होता है तब इतना हैवान बन जाता है कि वह अपने हिताहित को भी भूल जाता है । यही हाल हमारे दिगम्बर भाइयों का हुआ है। ___अब हम प्राचीन साहित्य की ओर दृष्टिपात कर देखते हैं तो श्वेताम्बरों के पास तीर्थङ्कर कथित एवं गणधररचित द्वादशांग से एक दृष्टिवाद को छोड़ एकादशांग विद्यमान हैं तब दिगम्बरों के पास द्वादशांग से एक भी अंग नहीं है । दिगम्बरों के पास जो साहित्य है वह दिगम्बर मत ( वी०नि० सं०६०९) निकलने के बाद में दिगम्बराचार्यों का निर्माण किया हुआ ही है और उसके आदि निर्माणकर्त्ता दिगम्बर आचार्य भूतबली और पुष्पदत्त बतलाये जाते हैं जिन्हों का समय वीरनिर्वाण की सातवीं शताब्दी का है।। दिगम्बर भाई कहते हैं कि तीर्थङ्कर कथित एवं गणधर रचित सबके सब आगम अर्थात् द्वादशांग विच्छेद होगये थे और श्वेताम्बरों के पास वर्तमान में जो अंगसूत्र बतलाये जाते हैं वे पीछे से मनः कल्पित नये बनाये हैं और उनके नाम अंग रख दिये हैं । इत्यादि ? __पहिला सवाल तो यही उठता है कि जब तीर्थङ्करप्रणीत सब आगम विन्छेद होगये थे तब दिगम्बराचार्यो ने जिन-जिन ग्रन्थों की रचना की वे किन २ शास्त्रों के आधार से की होगी ? कारण, दिगम्बरों की मान्यतानुसार तीर्थङ्करप्रणीत श्रागम तो सबके सब विच्छेद होगये थे। इससे साबित होता है कि दिगम्बरों ने सब ग्रन्थ मनः कल्पित ही बनाये थे ? या श्वेताम्बराचार्यों के ग्रन्थों से मसाल लेकर अपनी मान्यतानुसार नये ग्रन्थों का निर्माण किया है ? दिगम्बर लोग कहते हैं कि मुनिधारसेन बड़े ही ज्ञानी एवं दो पूर्वधर थे और उन्होंने अपनी अन्तिमा. वस्था में यह सोचा कि मैं अपना ज्ञान किसी योग्य मुनि को दे जाऊँ अतः उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्त नाम के मुनियों को बुलाकर ज्ञान पढ़ाया और मुनि भूतबलि ने उस ज्ञान को सबसे पहिले पुस्तक पर दिगम्बर मतोत्पत्ति । ५२७ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लिखा जिसको राजा और श्रीसंघ ने हाथी पर स्थापन करके बड़े महोत्सव के साथ जुलूस निकाला। वह दिन था ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी का जिसको आज भी दिगम्बर भाई ज्ञानाराधना में मुख्य मानते हैं । __अब सोचने का विषय यह है कि मूल संघ की पट्टावली में मुनि धारसेन का समय वीरात् ६१४ से ६३५ का माना है । जब भूतबलि का समय वीरात् ६६३ से ६८३ बतलाया है। और पुष्पदन्त का समय वीरात् ६३३ से ६६३ फहा है । पाठक सोच सकते हैं कि मुनि धारसेन के समय भूतबलि की दीक्षा ही नहीं हुई थी तो मुनि धारसेन ज्ञान दिया किसको ? जिस भूतबलि और पुष्पदन्त को समकालीन बताते हैं और मुनि धारसेन दोनों को ज्ञान दिया लिखते हैं तब दिगम्बर पट्टावलियां पुष्पदन्त का देहान्त के वर्ष भतबलि की दीक्षा हुई लिखते हैं फिर वे दोनों समकालीन कैसे हो सकते हैं ? इसप्ले दिगम्बरों की बात कल्पित पाई जाती है। न तो धारसेन मुनि दो पूर्व के ज्ञानी थे न उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि को ज्ञान ही दिया था और न पूर्वो के ज्ञान में ऐसा खंडन मंडन या पक्षपात ही है जैसा कि भूतबलि ने अपने ग्रंथों में लिखा है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि भूतबनि या पुष्पदन्त ने जो ग्रंथा लिखा है वह किसी पूर्व मुनियों के ज्ञान के आधार पर नहीं लिखा है प्रत्युत अपनी मनः कल्पना से लिखा है और न उन्होंने अपने ग्रन्थ में कहीं पर ऐसा उल्लेख ही किया है कि हमने अमुक पूर्व या अंग के आधार पर लिखा है । एक खास मजे की बात तो यह है कि श्वेताम्बरों के लिये तो दिगम्बरभाई कहते हैं कि भद्रबाहु स्वामी के समय बारहवर्षीय दुकाल में तीर्थङ्करकथित सब आगम विच्छेद होगये। जब वीरात् सातवीं शताब्दी में धारसेन मुनि को दो पूर्व का ज्ञान बतलाते हैं । अब सवाल यह होता है कि वे दो पूर्व जो धारसेन मुनिको याद थे वे तीर्थकर कथित थे या अन्यकथित ? यदि तीर्थकर कथित थे तब तो दिगम्बरों के पक्षपात की हद ही हो गई है क्योंकि श्वेताम्बरों के लिये तो लिखना कि भद्रवाहु के समय ( वी० नि० स० १६०) ही सब आगम विच्छेद होगये थे और दिगम्बरों के लिये ( वीर नि० की सातवी शताब्दी) धारसेनमुनि दो पूर्व का ज्ञान रह गया । इससे अधिक पक्षपात ही क्या हो सकता है ? श्वेताम्बरों के प्राचीन प्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि आचार्य भद्रबाहु के समय बारहबर्पोय दुकाल के अन्त में पाटलीपुत्र में श्रमणसंघ ने एकत्र होकर एकादशांग की ठीक व्यवस्था की और स्थूलभद्रमुनि ने भद्रबाहु से चौदह पूर्व का अध्ययन किया और यह बात वास्तव में सत्य भी है । कारण, वीर निर्वाण के पश्चात् १६० वर्ष बहुत नजदीक का समय था वहाँ तक चौदह पूर्वधर विद्यमान हों तो कोई आश्चर्य की बात ही नहीं हैं। बाद आर्यबनके समय द्वादशवर्षीय दुकाल पड़ा और दुकाल के अन्त में सुकाल हुआ तब सोपार पट्टन में प्राचार्य यक्षदेवसूरि के अध्यक्षत्व में पुनः आगम वाचना हुई उस समय तक दशपूर्व का ज्ञान सुरक्षित था तथा आर्य रक्षितसूरि ने उसी समय चारों अनुयोग पृथक् २ किये उस समय आर्य बज्रसूरि दशपूर्वधारी विद्यमान थे। तत्पश्चात् आर्थ स्कन्दिल के समय फिर बारह वर्षीय दुकाल पड़ा और दुकाल के अन्त में सुकाल हुआ तो आर्य स्कन्दिलसूरि की अध्यक्षस्व में मथुरा में संघ एकत्र हुए और उस समय भी एकादशांग की वाचना हुई वे एकादशांग अद्यावधि विद्यमान हैं आर्य यक्षदेव एवं आर्य स्कन्दिल के समय कई आगमपस्तकारूढ़ किये गये थे पर वी. नि० दशवीं शताब्दी में पुनः वल्लभी नगरी में आर्यदेवऋद्धिगणि के नेतृत्व में संघ एकत्र होकर अंगसूत्रों के साथ प्रायः वर्तमान में जितने सूत्र थे उन सबको पुस्तकारूढ़ करवाया वे सब सूत्र आज श्वेताम्बर समाज के पास मौजूद हैं। Jain Ede international [ सोनलदेवी और सासु Panelibrary.org Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ अब खास दिगम्बरों की पट्टावलियों को देखिये वे क्या कह रही हैं : "जैनसिद्धान्त भवन आरा" ऐतिहासिक मुख पत्र जिसके सम्पादक पद्मराज रानीवाल कलकत्ता वाले हैं जिसके प्रथम वर्ष किरण ४ पृष्ठ ७१ से ८० तक में नन्दीसंघ बलातगण और सरस्वतीगच्छ की पट्टावली दी है जिसमें लिखा है कि :-- "महावीर के बाद ३ मुनि केवली, ५ मुनि श्रुत केवली, और ११ मुनि दशपूर्वधर रहे यहाँ तक वीरात ३४३ वर्ष बतलाया है उसके बाद वीरात् ४५६ वर्ष तक एकादशांग धारी रहे । इसके बाद कई वर्ष एक अंगधारी रहे इत्यादि ।” अब पाठक स्वयं सो व सकते हैं कि भगवान महावीर के पश्चात् ४५६ वर्ष तक एकादशांगधारी मुनि विद्यमान थे तब यह क्यों कहा जाता है कि भद्रवाहु के समय ( वीरात् १६० ) में ही आगम विच्छेद हो गये । इससे इतना तो स्पष्ट कह देना चाहिये कि हाल जो श्वेताम्बरों के पास अंगसूत्र हैं वे तीर्थङ्कर कथित ही हैं। हाँ, उनकी सूरत असली न रही हो याने संख्या कम हो गई हो पर वे हैं तीर्थङ्करवर्णित इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। जब दिगम्बरों के मतानुसार वीरात् ४५६ वर्ष तक अंगसूत्र का ज्ञान विद्यमान था फिर श्वेताम्बरों सं अलग होने के बाद दिगम्बरों के पास तीर्थङ्करप्रणीत थोड़ा बहुत ज्ञान नहीं रहा इसका क्या कारण ? क्योंकि धारसेनमुनि दो पूर्वधर थे और उनके शिष्य भूतबली और पुष्पदन्त ने सबसे पहिले ग्रंथ लिखे तो उन्होंने पूर्व एवं अंगों को क्यों नहीं लिखा जैसे श्वेताम्बरों ने लिखा था परन्तु दिगम्बरों ने अपनी मत. कल्पना से नये ग्रन्थ बना डाले, इसका कारण ? शायद तीर्थङ्कर कथित आगमों में साधुओं को वस्त्र रखने का विधान होने से दिगम्बरों ने उनको नहीं माना हो और श्वेताम्बरों की निंदा करने की गर्ज से नये मन कल्पित ग्रन्थ बना डाले हों, इनके अलावा और क्या कारण हो सकता है ? दूसरे एक यह भी प्रमाण मिलता है कि श्वेताम्बरों के अंगोपांग आगमों में कहीं पर भी दिगम्बरों का नाम निशान तक भी नहीं है। इससे यह निश्चय हो जाता है कि श्वेताम्बरों के अंगोपांग बहुत प्राचीन हैं अर्थात् दिगम्बरों के मत निकलने के पूर्व के हैं कि जिनमें दिगम्बरों का खंडन मंडन नहीं है । तब दिग. म्बरों के ग्रन्थों में स्थान २ पर श्वेताम्बरों की निन्दा लिखी मिलती है । इससे भी यही साबित होता है कि दिगम्बरों के प्रन्थ दिगम्बर मत निकलने के बाद रचे गये हैं। दिगम्बरों के पास प्राचीन कोई भी अंगोपांग आगम नहीं है । अतः दिगम्बरगत अर्वाचीन समूर्छिम पैदा हुआ एक नया मत है। पुनः एक यह भी प्रमाण मिलता है कि भगवान महावीर के शिष्यों में गोसाला नाम का शिष्य था और उसने भगवान महावीर से खिलाफ होकर अपना नया मत स्थापन किया था जिसका नाम भाजी. वका मत था । इस विषय का उल्लेख बौद्धों के पिटक ग्रन्थों में भी मिलता है और आज इतिहास के संशोधक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध के समय एक आजीवका नाम का मत प्रचलित था और उसका उत्पादक गोसाला था । श्वेताम्बरीय शास्त्र श्रीभगवतीसूत्र शतक १५ वां में गोसाला का विस्तार से वर्णन है परन्तु दिगम्बर शास्त्रों में किसी स्थान पर गोसाला का वर्णन नहीं है । इससे स्पष्ट होजाता है कि दिगम्बरों के पास कोई भी तीर्थङ्कर कथित श्रागम नहीं है। उन्होंने जो दिगम्बर मतोत्पत्ति ] ५२९ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५---१५७ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कुछ लिखा है वह मनः कल्पित ही लिखा है। अतः दिगम्बरमत प्राचीन नहीं है । पर श्वेताम्बरों के अन्दर से निकला हुआ एक अर्वाचीन मत है । कल्पसूत्र की स्थविरावली में जैनधर्म के प्राचार्य उनके गण कुल शाखा का वर्णन किया है। उसी आचार्य एवं गण कुल शाखा के नाम मथुरा के कंकाली टीले से मिली हुई मूर्तियों के शिलालेखों में मिलते हैं देखियेः संवत्सरे ६........." ...... "स्य कुटुंबनिय दानस्य ( बोधुय ) कोट्टियातोगणतो, प्रश्नवाहनकुलतो, मज्जमातोशाखातो सनिकायभतिगालाऐ, थवानि ...... यह लेख सम्वत् ६० का एक खण्डित मूर्ति पर का है। "सं . ४७ ग्र. २ दि २० एतस्य पूर्वाये चारणेगणोयतिधसिक कुलवाचकस्य रोहनदिस्य शिष्यस्य सेनस्य निर्वतक सावन.........''इत्यादि । यह लेख सम्वत् ४७ का एक पत्थर खण्ड पर है। "सिद्ध, नमोअरिहंतो महावीरस्य देवस्य, राज्ञावसुदेवस्य, संवत्सरे ९८ वर्ष मासे ४ दिवसे ११ एतस्य पूर्वा वे आर्य रोहतियतोगणतो परिहासककुलतो पोनपत्ति कातो शाखातो गणस्य आर्यदेवदत्तस्य'..............." 'इत्यादि। "सिद्धं सं० ९ हे. ३ दिन १० गहमित्रस्य धितुशीवशिरिस्य वधु एकडलस्य कोट्टियातोगणतो, आर्य तरिकस्य कुटुविनिये, ठानियातो कुलतो वैरातो शाखातो निवर्तना गहपलायें दिति" __ इन शिलालेखों से स्पष्ट पाया जाता है कि भगवान महावीर की परम्परा के प्राचार्य, गण, कुल, शाखा जो पूर्वोक्त शिलालेखों में लिखा हैं वह श्वेताम्बर समुदाय के पूर्वज ही थे एवं कल्पसूत्र की स्थविरावली में उपरोक्त गण कुल शाखाओं का विस्तार से उल्लेख मिलता है: इनके अलावा डा० जेकोबी लिखते हैं कि: Additions and alterations may have been made in the sacred texts after that time; but as our argument is not based on a single passage or even apart of the Dhammpada, but on the metrical laws of a variety of metres in this and other Pali Books, the admission of alterations and additions will not materially influence our conclusion, viz; that the whole of the jain siddhanta wils compose after the fourth century B. C. इनके अलावा आप आगे चलकर हिन्दूधर्म के शास्त्रों को देखिये जैन मुनियों के लिये क्या कहते हैं"मुण्डं मलिनं वस्त्रंच कुण्डिपात्रसमन्वितम् । दधानं पुंजिका हस्ते चालयन्त पदे पदे ।। १ ॥ वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं क्षिप्यमाण मुखे सदा । धर्मेति व्याहरन्तं तं नमस्कृत्य स्थितं हरेः" ।। २ ।। शिवपुराण अध्याय २१ हस्ते पात्रं दधानश्च तुण्डे वस्त्रस्य धारक : मलिनान्येव वासांसि धारयन्तोऽल्ल भापिणाः ।। २५ ।। धर्मोलाभः परं तत्त्वं वदन्तस्ते तथा स्वयम् । मार्जनी धार्यमाणास्ते वस्त्रखण्ड विनिर्मिताम् ।। २६ ॥ श्रीमालपुराण ५३० Jain Educaton International For Private & Personal use only [ भगवान महावीर की परम्परा Singnary.org Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, 9 . E भामहर एप 19 HOLYROPAHIY Voice मथुरा के कंकाली टीला के खोद काम करते समय भू गर्भ से मिली हुई प्राचीन खण्डित जैन मूर्तियाँ । HALISA मथुरा का कंकाली टीला के भूगर्भ से मिला हुआ प्राचीन अयगपट जो दो हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। ain Education International Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ इन पुराणों के श्लोकों में जैन साधुओं का वर्णन किया है जिसमें वस्त्र रजोहरणऔर मुखस्त्रिका वाले साधुओं को जैनसाधु कहा है। अतः निर्विवाद सिद्ध होता है कि जैनसाधु प्राचीन समय से ही वस्त्र रजोहरण और मुखवस्त्रिका रखते थे। अब आप जरा बौद्धग्रन्थों की ओर दृष्टि डालकर देखिये वे क्या लिखते हैं : "बौद्धग्रन्थ धम्मपद पर बुद्धघोषाचार्य ने टीका रची है उसमें आप लिखते हैं कि निर्गन्थ ( जैनसाधु ) नीति मर्यादा के लिये वस्त्र रखते हैं। इससे पाया जाता है कि भगवान् महावीर के समय जैन साधु वस्त्र रखते थे ! ___ इनके अलावा अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने जैन साहित्य का अवलोकन कर अपना मत प्रकट किया है कि भगवान पार्श्वनाथ के साधु पांचवर्ण के वस्त्र रखते थे तब भगवान महावीर के साधु एक श्वेतवर्ण के वस्त्र रखते थे जिसके लिये सावत्थी नगरी में भगवान् पार्श्वनाथ के संतानिये केशीश्रमणाचार्य और गौतमस्वामी के आपस में चर्चा हुई जिसका वर्णन उत्तराध्ययनसूत्र के २३ वें अध्ययन में विस्तार से लिखा है। अब जरा खास दिगम्बराचार्यों के प्रमाणों को ही देखिये कि ये अपने ग्रन्थों में क्या लिखते हैं :शय्यासनोपधानानि शास्त्रोपकरणानि च । पूर्व सम्यक समालोच्य प्रतिलिख्य पुनः पुनः ।। १२ ।। गृहणतोऽस्य प्रयत्नेन क्षिपतो वा धरातले । भवत्यविकला साधोरादानसमितिः स्फुटम् ॥ १३ ।। __श्री शुभचन्द्राचार्य फरमाते हैं कि :- शानार्णव अठारहवां अध्याय "पिण्डं तथोपधिं शय्यामुद्गमोत्पादनादिना । साधो शोधयतः शुद्धा ह्येपणासमिति भवेत् "।।५।। श्री अमृतचन्द्रसूरि तत्त्वार्थसार में लिखते हैं कि :- ( संवरतत्त्व ) "णाणुवहिं संजमुबहिं तव्वुववहिमण्णमवि उवहिं वा । पयदं गहणिक्खेवो समिड्डी आदाननिक्खेवा" ।। कुन्दकुन्दाचार्य मूलाचार में कहते हैं: -- राजवार्तिकाकार क्या फरमाते हैं: - “परमोपेक्षासंयमाभावे तु वीतरागशुद्धात्मानुभूतिभावसंयमरक्षणार्थ विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपितपः पर्यायशरीरसहकारीभूतमन्नपानसंयमशौचज्ञानोपकरण तृणमयप्रावरणादिक किमपि गृह्णाति तथापि ममत्वं न करोतीति" इन दिगम्बराचार्यों के कथनानुसार साधु संयम के रक्षार्थ आवश्यक उपधि रख सकते हैं यदि उस उपकरण उपधि पर ममत्व भाव रखते हों तो परिग्रह का कारण कहा जा सकता है । यही बात श्वेताम्बर शास्त्र कहता है कि "मुच्छापरिगहोवुत्तो' किसी भी उपाधि वगैर पर ममत्व भाव रखना परिग्रह है दूसरा नहीं पर कमण्डलु मोरपिच्छा और घास का संस्तारा तो दिगम्बर मुनि भी रखते हैं। यदि ममत्व का तांता नहीं छुटा हो तो इन पर भी मुर्छा आसकती है इतना ही क्यों पर शरीर पर मुर्छा एवं ममत्व अा जाय तो वह भी परिग्रह ही है--यदि जिसके ममत्व का तांता ही टूट गया है तो मरुदेवी जैसों को वस्त्राभूषण पहने हुई को भी केवल ज्ञान होगया था । तो साधुओं के उपधि की तो बात ही क्या है ? इत्यादि उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है कि दिगम्बरों ने नग्न रहने का केवल एक हठ पकड़ दिगम्बर मतोत्पत्ति ] ५३१ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ – १५७ वर्ष ] | भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रक्खा है | और इस हठ के कारण ही जैन शासन में फूट डालकर अपना कल्पित मत चलाया है। वास्तव में श्वेताम्बर समुदाय भगवान महावीर की सन्तान परम्परा प्राचीन है और दिगम्बर स्वच्छन्दचारी अर्वाचीन मत है। इसके लिये अब विशेष प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है । जैसे श्वेताम्बर समुदाय में गण कुल शाखा गच्छ वगैरह भेद प्रभेद हैं वैसे दिगम्बर समुदाय में भी संघ गच्छ और इनके भेद प्रभेद है परन्तु विशेषता यह है कि श्वेताम्बर समुदाय में जितने गच्छ हुए हैं उसमें एक दो गच्छ को छोड़कर सबकी मान्यता- श्रद्धा प्ररूपना एक ही है जब दिगम्बरों में मूलमनोत्पत्ति के बाद में जितने भेद प्रभेद हुए उन सबकी श्रद्धा प्ररूपना पृथक-पृथक है वह भी एक दूसरे से खिलाफ अर्थात् एक दूसरे को मिध्यात्व बतलाते हैं ठीक है जिसकी मूल मान्यता ही मिथ्यात्व से उत्पन्न हुई हो उनका यही हाल होता है पाठकों के अवलोकनार्थ दिगम्बर समुदाय के भेद प्रभेद का थोड़ा हाल यहां लिख दिया जाता है :१ -- मूलसंघ — इस संघ की स्थापना आचार्य श्रर्हब्दली द्वारा हुई और इस संघ के कई भेद प्रभेद जैसे a- सिंहसंघ-सिंह की गुफा में चतुर्मास करके आने वाले मुनियों का सिंह संघ हुआ इस संघ से नूगा ओर चन्द्रकपाट गच्छ निकला b -- नंदिसंघ - नंदिवृक्ष के नीचे चतुर्मास करके आने वाले मुनियों का नंदि संघ हुआ और इस संघ से बलात्कारगण तथा सरस्वती एवं पराजीत गच्छ निकला - सेनसंघ - सेनवृक्ष के नीचे वर्षाकाल व्यतीत करके आने वाले मुनियों का सेन संघ हुआ इस संघ को वृषभ संघ भी कहते हैं और सुरथगण और पुष्कर गच्छ इस संघ की शाखाए हैं - देवसंघ - देवदत्ता वैश्या के वहां चतुर्मास करके आने वाले मुनियों का नाम देवसंघ हुआ इस संघ से देशीयगण और पुस्तकगच्छ निकला इन चार संघों की स्थापना का कारण के लिये श्रुतावतार प्रन्थ के करता निखता है कि एक समय श्रदली आचार्य ने सोचा कि अब केवल उदासीनता से ही धर्म नहीं चलेगा पर संघ ममत्व से ही धर्म चलेगा अतः उन्होंने संघों की स्थापना करके धर्म को चलाया इन संघों के स्थापन का समय श्रुतावतार तथा दर्शनसार ग्रन्थों के अनुसार वीर निर्वाण से ७३३ वर्ष का है तब कवि मेघराज के मतानुसार इन संघों का समय आचार्य कलंकदेव के स्वर्गवास के बाद का है ऐसा एक शिलालेख से सिद्ध होता है क्योंकि अकलंकदेव के पूर्व बने हुए भगवती आराधना पद्मपुराण जिनशतकादि किसी भी ग्रन्थ में इन संघों का उल्लेख नहीं मिलता है और आचार्य अकलंकदेव के समकालीन आचार्य विद्यानन्दी प्रभाचन्द्र माणक्यनंदि आदि आचार्यों के भी अनेक ग्रंथ हैं पर उनमें भी इन संघों का कही भी उल्लेख नहीं हुआ है अगर इन आचार्यों के समय प्रस्तुत संघ होते तो कहीं न कहीं उल्लेख अवश्य किया जाता ? हाँ आचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण में सबसे पहला सेनसंघ का उल्लेख हुआ है और गुणभद्र आचार्य अकलंकदेव के समसमायिक थे अतः यह मानना ठीक होगा कि इन संघों की स्थापना का समय आचार्य कलंक देव के बाद अर्थात् विक्रम की नौवीं शताब्दी के आस पास का ही है २ - द्राविड़ संघ - जैनेन्द्र व्याकरण के कर्त्ता पूज्यपाद तथा देवानंदि के शिष्य वज्रनंदि द्वारा इस संघ की स्थापना हुई वनन्दि बड़े भारी विद्वान थे । देवसेनसूरि ने आपको 'पाहुड़वेदी महसतो कहा है' तथा ५३२ [ भगवान् महावीर की परम्परा Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५–५५७ श्रवण वेलगुल की मल्लिषण प्रशस्ति में वज्रनन्दि के नव स्तोत्रनामक ग्रंथ का उल्लेख कर बहुत प्रशंसा करते हुए प्रशस्तिकर "सकलाईत्प्रवचनप्रपञ्चान्तर्भाव प्रवणवर सन्दर्भसुभगम" का विशेषण से भूषीत किया है । दक्षिण प्रान्त की मथुरा (मदुग) नगरी में इस संघ की स्थापना हुई मथुरा द्राविड़ देश में होने से इस संघ का नाम 'द्राविड़' संघ हुआ हैं तथा द्रमिल संघ इसका दूसरा नाम है तथा पुन्नाटसंघ कि जिसमें हरिवंश पुराग के कर्ता जिनसेनाचार्य हुए हैं वह भी द्राविड़ संघ का नामान्तर हैं। इस संघ में भी कई अंतर्भेद है क्योंकि बादीराजसूरि को द्राविड़ संघ के अन्तर्गत नंदि संघ की अरंगलि शाखा के आचार्य बतलाये हैं। इस संघ में कवि एवं तार्किक और शाब्दिक प्रसिद्ध बादिराजसूरि त्रैविद्य विद्येश्वर, श्रीपालदेव, रूपसिद्धि व्याकरण के कर्ता दयापाल मुनि जिनसेन वगैरह कई विद्वान हुए यह भी कहा जाता है कि तामील एवं कनड़ी साहित्य में इस संघ के बहुत ग्रन्थ मिलते हैं। दर्शनसार ग्रंथ के कर्ता इस संघ की उत्पत्ति वि. सं. ५३५ में बतलाई है और पांच जैनाभासों में इस संघ की भी गणना की है। इस संघ को श्रद्धा और प्ररूपना मूलसंघ से नहीं मिलती हैं अतः कतिपय बातें यहां दर्ज करदी जाती हैं जो विद्यानन्दिने अपने ग्रन्थों में लिखी हैं । १-- अप्राशुक चना खाने में मुनि को दोष नहीं लगता है । २–प्रायश्चित वगैरह के कई शास्त्रों को रद्दोबदल कर नये बना दिये हैं। ३-बीज मात्र में जीव नहीं होते हैं ! ४-मुनियों को खड़े रह कर आहार करने की जरूरत नहीं है । ५-मुनियों के लिये प्रासुक अप्रासुक की कैद क्यों होनी चाहिये । ६-मुनियों के लिये सावद्य और गृहकल्पित दोष नहीं मानना चाहिये। ७-उसने लोगों से खेती वसति वाणज्यादि करवाने का उपदेश देने अदोष बतला दिया था तथा कचा जल में भी जीव नहीं मान कर उसका उपयोग करने लग गया था इत्यादि तथा दिगम्बर ग्रन्थ कारों ने भी कई प्रन्थों में इस विषय के लेख भी लिख दिया है + उपरोक्त बातों के लिए निश्चयात्मिक तो जब ही कहा जा सकता है कि इस संघ वालों का बनाया हुआ यतिप्राचार या श्रावकाचार वगैरह ग्रन्थ उपलब्ध हो सकें और उन ग्रन्थों के अन्दर उपरोक्त बातों का प्रतिपादन किया हुआ मिले ३-यापनीय संघ-इस संघ की स्थापना कल्याण नगर से विक्रम सं० ७०३ में हुई है कहा जाता है कि श्वेताम्बराचार्य श्रीकलस द्वारा इस संघ का प्रार्दुभाव हुआ है। "कल्लाणे वर नयरे सत्तसए पंच उतरे जादे । जवनिय संघ भट्टो सिरि कलसादो हु सेवड़ दो ॥" शकटायन व्याकरण कर्ता श्रुतकेवली देशीयाचार्य शकटायन तथा पाल्यकीर्ति वगैरह इस संघ के + पाषाण स्फोटितं तोयं धटीयंत्रेण ताडितं । सद्यसन्तप्तवापीनं प्रासुकं जल मुच्यते ॥३॥ 'भा० शिवकोटी कृत रत्नमाला' मुहर्त गालितं तोयं प्रासुकं प्राहर द्वयं । उष्णादेवामहोरात्र मात समुछितं तभवेत् ॥११६॥ "वृक्ष पर्णोपरी पतित्व यज्जलं मुन्यु परिपतितितत्प्रासुकं” (प्रा० कुदकुद कृत पट प्राभृत की टीका ) विलोडितं यत्र तत्र विक्षिप्तं वस्त्रादिगलिनं जलं ॥ (अभूतसागर कृत तत्त्वार्थ सूत्र की टीका) दिगम्बर मत के संघ ] ५३३ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५–१५७ वर्ष ] | भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विद्वानाचार्य थे । इस संघ के शकटायान नामक आचार्य ने स्त्रियों को मोक्ष और केवली आहार करने की सिद्धि में छोटे-छोटे दो ग्रन्थों का निर्माण किया जिनको इस लेख के अन्दर उद्धृत कर दिये हैं। ४- काष्टासंघ–इस संघ की स्थापना - आदि पुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य के गुरुभाई विनयसेन और विनयसेन का शिष्य कुमारसेन द्वारा हुई है कुमारसेन ने नन्दि तट नामक नगर में सन्यास धारण किया पर बाद में सन्यास पद से भ्रष्ट होकर दूसरे किसी के पास पुनः दीक्षा न लेकर उसने अपना अलग संघ स्थापन कर काष्टा संघ नाम रख दिया । और कुमारसेन के समय में ही यह संघ वागड़ प्रान्त में फैल गया था दर्शनसारग्रन्थ के कर्ता देवसेनाचार्य ने इस संघ की उत्पति का समय विक्रम सं० ७५३ का बतलाया है और इसको भी पांच जैनाभासों में गिना है-और कुमारसेनको मिथ्यात्वी तथा उन्मार्ग प्रवृतक बतलाया है। इस संघ की मान्यता दिगम्बर मत्त से भिन्न है उसका योड़ा सा नमूना (१)-- स्त्रियों को मुनि दीक्षा देने का विधान कर दिया। (२)-क्षुल्लक यानि छोटे साधुओं को वीरचर्चा ( अतापनायोग ) की आज्ञा देदो । (३)-मयूर पिच्छी के स्थान गाय के वालों की पिच्छी रखने का विधान किया। (४)-रात्रि भोजन पहलावत की भावना माना जाता था जिसको छट्ठा अणुव्रत नाम का पृथक व्रत मानकर छट्ठा व्रत स्थापना किया। (५)-भागम शास्त्र और प्रायश्चितादि नये ग्रन्थ बनाकर मिथ्यात्व फैलाया इस संघ में नन्दितट माथुर वागड़ और लाडवागड आदि कई भेद हैं पर कई लोग माथुर संघ को अलग भी मानते हैं । ५-माथुर संघ-इसका दूसरा नाम निः पिच्छी संघ भी है इस संघ के मुनि मयूर पिच्छी तथा गाय के पुच्छ के बालों की पिच्छी नहीं रखते हैं कई लोग इस संघ को काष्ठा संघ की एक शाखा बतलाते हैं पर काष्ठा संघ गाय के पुच्छ के बाल की पिच्छी रखते हैं अतः यह संघ अलग ही माना जाता है दर्शनसार के कर्ता देवसेन लिखते हैं कि काष्ठा संघ के बाद २०० वर्षों से माथुर संघ की उत्पति हुई है और आचार्य रामसेन ने मथुरा में उस संघ की स्थापना की थी इस संघ की मान्यता है कि आपने संघ के प्राचार्य की कराई प्रतिष्ठा वाली मूर्ति को वन्दन करना दूसरों के कराई मूर्ति को वन्दन नहीं करना इसी प्रकार अपने संघ के मुनियों को वन्दन करना दूसरों को नहीं यह एक ममत्व भाव का ही कारण है इस संध में धर्म परीक्षा सुभाषित रत्नसंदोह आदि प्रन्थों के कर्ता अमितगति प्राचार्य हुए हैं। दिगम्बर समुदाय में उपरोक्त संघ प्राचीन समय में उत्पन्न हुए पर यह प्रथा वहाँ तक ही नहीं रूक गई थी परन्तु अर्वाचीन समय में भी उनका प्रभाव जाहिर रहा है जैसे .....। १-तारणपंथ-इस पन्थ के स्थापक एक तारण स्वामि नाम का साधु विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में हुए । जैसे श्वेताम्बर समुदाय में लोकाशाह ने मूर्ति पूजा का निषेध कर अपना पन्थ चलाया था वैसे ही दिगम्बरमत में तारणस्वामि ने मूर्तिपूजा का विरोध कर नया पन्थ चलाया परन्तु तारणपन्थ में श्रुत सिद्धान्त की पुष्पादि द्रव्यों से पूजा करते हैं जिसमें भी तारणस्वामि के बनाये हुए ५४ ग्रन्थ हैं उसकी पूजा भक्ति विशेष किया करते हैं। २- तेरहपन्थी - जब दिगम्बर समुदाय में भट्टारकों का जोर जुल्म बढ़ने लगा अर्थात् चरम सीमा तक पहुँच गया उस हालत में वि० सं० १६८३ के आस पास तेरहपन्थ नाम का एक नया पन्थ का प्रादुर्भाव Jain Ed 4 8 nternational For Private & Personal use only [ भगवान् महावीर की परम्परा ... परम्परा jainelibrary.org Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ - ५५७ हुआ इस पन्थ में भट्टरकों का थोड़ा भी मान सन्मान नहीं है इतना कि क्यों पर परमेश्वर की मूर्तिकों प्रश्चाल केसर चन्दन की पूजा तथा पुष्पफल आदि का भी निषेध है । ३ - वीस पन्थी - जो लोग भट्टारकों की पक्ष में रहे वह वीसपन्थी कहलाये इस पन्थ में परमेश्वर की मूर्ति का पूजन प्रक्षाल जल चन्द्रन धूप दीप पुष्पफल से पूजा करते हैं । ४ - गुमान पन्थी - इस पन्थ की उत्पति 'मोक्ष मार्ग प्रकाश' ग्रन्थ के कर्ता पं० टोडरमलजी के पुत्र गुमानीरामजी द्वारा हुई है इस पन्थ में जिनमन्दिरों में रात्रि में दीपक करने की तथा प्रक्षलादि करने की बिलकुल मनाई करते हैं अर्थात मूर्ति के दर्शन करते हैं इस मत की उत्पति का समय वि० सं० १८१८ के आसपास का बतलाया जाता है । ५ - तोतापन्थी - दिगम्बर श्रनय में एक तोतापन्थ नाम का भी पंथ है । ६ - साढ़ सोलह पन्थी वीसपन्थी और तेरहपन्थी दोनों मिल कर एक साढ़ा सोलह पन्थ का पन्थ निकाला है पर यह अभी नागोर से आगे नहीं बढ़ सका इनके अलावा वर्तमान में भी कई मत भेद हैं परन्तु उनको संघ पन्थ न कहकर दल एवं पार्टियें कहते हैं शास्त्र छपाने के विषय में एक छपाने वाला दल दूसरा नहीं छपाने वाला दल । पुराणी रूढ़ियों को मानने वाली बाबू पार्टी और नया जमाना के सुधारक पंडित पार्टी इत्यादि । जैसे श्वेताम्बर समुदाय में सवाल पोरवाल श्रीमालादि बहुत सी जातियाँ हैं इसी तरह दिगम्बर समुदाय में भी खंडेलवाल, बघेरवाल, नरसिंहपुरादि कई जातियें हैं जिनमें मुख्य जाति खंडेलवाल है। इसको सरावगी भी कहते है प्रसंगोपात दिगम्बर जातियों की उत्पति संक्षिप्त यहाँ लिख दी जाती है । मत्सदेश में खंडेला नाम का एक नगर था वहाँ पर सूर्यवंशी खंडेलगिर राजा राज करता था एक समय देश भर में मरकी का भयंकर रोग उत्पन्न हुआ जिससे कई आदमी मर गये कई बीमार हो गये जिसको देख राजा को बहुत फिक्र हुआ अतः राजा ने बहुत से उपाय किये पर शान्ति नहीं हुई । तब राजा ने ब्राह्मणों को बुला कर पूछा कि भूदेवों ! देश भर में रोग बढ़ता जा रहा है मनुष्य एवं पशु मर रहे हैं अतः इसकी शान्ति के लिये कुछ उपाय करना चाहिये” यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि ब्राह्मण लोग कोई भी छोटा बड़ा कार्य क्यों न हो सिवाय यज्ञ के उनके पास कोई उपाय ही नहीं था अतः भूर्षियों ने राजा को कहा कि हे राजन् ! नास्तिक जैनों ने यज्ञ करना निषेध करने से नगर एवं ग्राम रक्षक देव को पायमान होने से ही रोगोत्पति हुई हैं इसलिए यदि आप जनता की शान्ति करनी चाहें तो एक वृहद् यज्ञ करवा कर बत्तीस लक्षण संयुक्त पुरुष की बली देकर सब देवताओं को संतुष्ट करें ताकि वह शान्त हो कर दुनिया में शान्ति कर देगा । हे नरेन्द्र ! केवल एक आप ही यज्ञ नहीं करवाते हो पर पूर्व जमाना में बहुत से गजा महाराजाओं ने यज्ञ करवा कर जनता की शान्ति की है शास्त्रों में अनेक प्रकार के यज्ञों का विधान है जैसे गोमेधयज्ञ गजमेधयज्ञ श्रश्वमेधयज्ञ अजामेधयज्ञ नरमेधयज्ञ इत्यादि आप अपनी एवं जनता की शान्ति चाहते हो तो बिना विलम्ब नरमेधयज्ञ करवाइये ? राजा अपने भद्रिक परिणामों एवं जनता की शान्ति के लिए ब्राह्मणों के कहने को स्वीकार कर नरमेधयज्ञ करवाने का निश्चय कर लिया बस फिर तो था ही क्या ब्राह्मणों के घर-घर में खुशियें मनाई जाने लगी कारण इस कार्य में ब्राह्मणों का खूब स्वार्थ एवं जिन्दगी की अजीविका थी । Jain Eduदिगम्बर मत के संघ भेद ] ५३५ www.jain Prary.org Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास . शुभ मुहूर्त में ब्राह्मणों ने यज्ञ प्रारम्भ कर दिया बहुत से निरापराधि मूक् प्राणियों को बली के लिए एकत्र किये पर यह तो था नरमेध यज्ञ इसके लिए तो किसी लक्षण संयुक्त मनुष्य की आवश्यकता थी राजा के आज्ञाकारी आदमी एक ऐसे पुरुष की तलाश में सर्वत्र घूम रहे थे फिरते २ वे स्मशानों की ओर चले गये वहाँ एक दिगम्बर जैन मुनि ध्यान में खड़ा था उसको योग्य समझ कर वे आदमी उस मुनि को ही पकड़ कर यज्ञ शाला में ले आये जिसको देख कर ब्राह्मणों ने बड़ी खुशी मनाई कारण यज्ञ के नेपेध करने वाले का ही यज्ञ में बली दी जाय इससे बढ़ कर ब्राह्मणों को और क्या खुशी होती है। जैन मुनि ने वहाँ का रंग ढंग देख कर जान लिया कि इस यज्ञ में मेरी बली होने वाली है पर उस ब्राह्मणों के साम्राज्य में विचारा वह मुनि कर भी तो क्या सकता था कारण धर्म के रक्षक राजा होता है तब खुद राजा ही इस प्रकार का अत्याचार करे तो फिर रक्षा करने वाला ही कौन ? मुनि ने विचार किया कि केवल मेरे लिये ही यह कार्य नहीं है पर पूर्व जमाने में ऐसे अनेक कार्य बन चुके हैं जैसे गजसुखमाल मुनि के सिर पर अग्नि के अंगारे ब्राह्मण ने ही रखा था स्वंदक मुनि की खाल भी ब्राह्मणों ने उत्तरी थी खंदकाचार्य के पांच सौ मुनियों को ब्राह्मणों ने चानी में डालकर पिला दिये थे और निमूची ब्राह्मण ने जैन मुनियों को देश पार हो जाने की आज्ञा दे दी थी इत्यादि । पर इस प्रकार के अत्याचारों के सामने भी जैनमुनियों ने समभाव रखकर अपनी सहन शीलता का परिचय दिया था आज मेरी कसोटी का समय है उन महापुरुषों का अनुसरण मुझे भी करना चाहिये बस ! मुनि अपनी आलोचना प्रतिक्रमण कर कर्मों से युद्ध करने को केसरिया करके तैयार हो गया । बाद, उन निर्दय दैत्यों यानी ब्राह्मणों ने उन महर्षि मुनि को बली के नाम पर ज्वाजल्यमान अग्नि में डाल कर भस्म भूत कर डाला परन्तु लोही का खरड़ा हुआ कपड़ा लोही से धोने से साफ थोड़ा ही होता है वह तो डबल रक्त रंजित हो जाता है यही हाल ब्राह्मणों का हुआ क्योंकि पापोदय से तो भयंकर रोग पैदा हुआ था और उसकी शान्ति के लिये एक महान तपस्वी जो जगत का उद्धार करने वाले मुनि को बुरी हालत से मार डालना यह तो महा घातकी पातक था इससे तो रोग ने और भी भयंकर रूप धारण कर जनता में त्राहि २ मचादी राजा से उस त्रास हालत को देखी नहीं गई जब ब्राह्मणों को बुलाकर राजा ने कहा तो ब्राह्मणों का तो स्वार्थ सिद्ध होने से उनके तो शान्ति हो ही गई थी ब्राह्मणों ने कहा 'हरेच्छ' ईश्वर की यही इच्छा है इनके अलावा बिचारे ब्राह्मण कह भी तो क्या सकते भाग्यवशात वे ब्राह्मण तथा उनका कुटुम्ब भी तो रोग के कवलिये बन रहे थे। एक दिन राजा खड़गसेन मुनिहिंसा की फिक्र करता हुआ रात्रि में सो रहा था अर्द्ध निद्रावस्था में राजा क्या देखता है कि वह नग्न मुनि राजा के पास आया और कहा कि राजन् ! तूने बड़ा भारी अन्याय किया है इस अन्याय का फल तुमको और ब्राह्मणों को नरक में भोगना पड़ेगा चल मैं तुझे नरक दिखा देता हूँ राजा को नरक में ले गया तो वहां अग्नि के कुण्ड जल रहे हैं यम लोग पापीष्ट जीवों को जबरन अग्नि में डाल रहे हैं इत्यादि घोर वेदना को देख राजा थरथर कांपने लग गया । फिर वापिस अपने स्थान पर आया तो राजा ने मुनि से दीन स्वर से प्रार्थना की कि हे मुनि ! मैंने ब्राह्मणों के चक्र में पड़ हर अज्ञानता से महान पातक कर डाला है इसका फल सिवाय नरक के हो ही नहीं सकता है पर आप परोपकारी महात्मा हैं कृपाकर मुझे ऐसा गस्ता बतला कि मैं इस पाप से मुक्त होकर अच्छे स्थान जाने जैसा कार्य कर सकू ? इस पर मुनि ने कहा राजन् ! यदि मैं चाहता तो उसी समय ब्राह्मणों सहित नगर को नष्ट कर डालता पर ५३६ [ भगवान् महावीर की परम्परा Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ मेरा साधुधर्म की आराधना के कारण स्वयं मरना स्वीकार कर लिया उस धर्म के प्रभाव से ही मैं स्वर्ग में देव यानि को प्राप्त हुआ हूँ यदि आप उस पाप से मुक्त होना चाहते हो तो कल आपके वहां जिनसेन नामक आचार्य ५०० साधुओंके साथ पधारेंगे । आप सब लोग उनका सन्मान एवं सत्कार कर तथा व्याख्यान सुन जैनधर्म एवं अहिंसापरमोधर्म को स्वीकार कर लेना हिंसासे किये हुए कर्म अहिंसा से ही छूटते हैं। हे राजन् ! जैनधर्म पवित्र एवं पतितों को पावन और अधम्मों का उद्धार करने वाला धर्म है इत्यादि कह कर देवता तो अदृश्य हो गया बाद राजा की श्रांखें खुल गई सावचेत हो कर राजा सोचने लगा कि आज यह कैसा स्वप्न आया है क्या मैंने स्वप्न में देखा वह सब सत्य है ? यदि सत्य ही है तो मेरी क्या गति होगी ? वास्तव में मैंने बड़ा भारी अनर्थ किया है एक साधारण जीव को मारना भी पाप है तो मैंने एक जगउद्धारक महात्मा को मरवा डाला है इससे सिवाय नरक के और मेरी क्या गति हो सकेगी ? राजा ने सोचा कि पहले तो मुझे रोग की शान्ति का उपाय करना चाहिये । अतः राजा ने ८४ ग्रामों के लोगों को आमन्त्रण करके खंडेला नगर में बुलाये और शान्ति के इच्छुक लोग तत्काल श्रा भी गये। इधर से आचार्य जनसेन अपने ५०० शिष्यों के साथ भ्रमण करते हुए खंडेला नगर की ओर पधार गये । जब राजा ने सुना कि जैनाचार्य उद्यान में पधार गये हैं तब उसको स्वप्ने की बात याद आ गई जो मुनिने कही थी राजा इसको हो शान्ति का कारण समझ कर आये हुए ८४ ग्रामों के लोगों के साथ चल कर आचार्य श्री के पास जा कर वन्दन के पश्चात् प्रार्थना की कि हे प्रभो ! मैंने अज्ञान के वश परमार्थ को न समझ कर एक निम्रन्थ मुनि की हिंसा करवा डाली है उसका कूटक फल परभव में तो मिलेगा ही पर इस भव में तो हाथोंहाथ मिल रहा है रोग में खूब वृद्धि हो रही है एक मेरे कारण यह ८४ ग्रामों के लोग दुःख पा रहे हैं पूज्यवर ! श्राप दया के अवतार, करुणा के समुद्र और सब जीवों के प्रति वात्सल्य भाव रखने वाले हैं अतः आप कृपा कर हम सब लोगों को जीवन दान दिलावे इत्यादि । आचार्य श्री ने राजादि उपस्थित जनता को उपदेश दिया कि हे भव्यो ! जीव मात्र का कर्तव्य है कि बड़ा से लगा कर छोटा जीवों की रक्षा करे क्योंकि जीव के धन माल राजपाटादि सब सामान छीन लेने पर जितना दुःख नहीं होता है इतना दुःख प्राण हरण में होता है जिसमें संयमी मुनि के प्राण हरण करना इससे तो सिवाय नरक के और क्या गति हो सकती है इत्यादि विस्तार से उपदेश दिया और अन्त में फरमाया कि अब आप इस पाप से तथा रोग से मुक्त होना चाहते हो तो आपके लिये एक ही उपाय है कि आप पवित्र जैनधर्म को स्वीकार कर इसकी ही आराधना एवं प्रचार करो । बस, फिर तो देरी ही क्या थी राजा खंडेलगिरी के साथ ८४ प्रामों के लोग जो वहां उपस्थित थे सबने बड़ी खुशी से जैनधर्म स्वीकार कर लिया। बाद आचार्य श्री ने उनको धर्म की विधि विधान बतलाते हुए तीर्थकर भगवान की मूर्ति का स्नात्र वगैरह का उपदेश दिया उन लोगों ने जैन मंदिरों में जाकर स्नात्र कर प्रक्षाल का जल अपने अपने घरों में तथा ८४ ग्रामों वाले उस जल को अपने ग्रामों में ले जाकर सर्वत्र छांटने से रोग की शान्ति हो गई जिससे उन लोगों को धर्म पर और भी दृढ़ विश्वास हो गया। ____ उस समय ८४ प्रामों के लोगों ने जैनधर्म को स्वीकार किया था अतः उन समूह की चौरासी जातियें बन गई इसमें कई तो प्रामों के नाम से कई प्रसिद्ध पुरुषों के नाम से जिसमें जो ग्राम का मुख्या था उसका नाम अग्रेश्वर रखा गया था उन ८४ ग्राम से ८४ जातिय बन गई जिन्हों का नाम इस प्रकार है-- खंडेलवालों की ८४ जातियें ] ५३७ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] सं० ग्राम १ खंडेला नगर से २ पाटणी ग्राम से ३ भैसाणी ग्राम से ४ पहाडी ग्राम से ५ मामरी ग्राम से ६ गंगवाली ग्राम से गंगवाल ७ पापड़ी ग्राम से ८ दोसा ग्राम से ९ सोठा ग्राम से १० गोधाणी ग्राम से ११ चंदला ग्राम से १२ मिठड़िया, १३ दरड़ा १४ गोद 33 २० पादणी २१ सोनी "" १५ भूचड़ा,” १६ वजाणी १७ वजवासी १८ राहोली १९ पाटड़ी ... י "" "" "" "" 4 "" 35 जाति खंडेलवाल शाह पाटणी जाति ३० भंडशाली भैसा जाति पहाड्या जाति काफरिया " "" Jain Educademnational "" 35 " पापड़ीवाल, दोसी गढ़इया भूंच वज बोर खेड़िया,, कुलभाणिया,, गोत्री टुकड़ा निरपालिया लाटीवाल " "" बेदोलिया पाटोला ६९ जलवाण जलवाणिया,, ७० भूताल गोड़िया निगोतिया,” ७१ राजभदारा, ७२ क्षेत्रपाल नोपिया साखिया ७३ लोहट ७४ भांगड़ 693 पांगलिया भूसाणिया, पितलिया वनमाला " ७७ अहंकारा," ७३ भसवाड़ा 33 २२ विलाला अरड़क ७८ हंसावली," रावलिया २३ विनायकी,, २४ वाकली २५ कांसली मौदी कोकणजा, २६ वरली जुग राज्या २७ पीपली पापला मूल राज्या सोंगाणी 3: २८. सागांणी, छाहड्या इस प्रकार नामावली की मेरे पास तीन प्रतियें है जिनमें कुछ नाम रहो बदल भी हैं और उत्तारा से उत्तरा किया जाता है उसमें रद्दोबदल हो ही जाता है पर यह बात प्रमाणिक है कि दिगम्बराचार्य ने खंडेला में राजपूतों को प्रतिबोध कर जैन बनाये थे इसके अलावा पीसांगण के एक सरावगी की जूनी [ भगवान् महावीर की परम्परा org 59 "" "" सेठी गौधा चांदूवाल मिठड़िया दरster ४१ पाटोल ४० चौर ४२ गोदड़ा "3 पु" "" 33 "" 59 55 "" "" " 39 सं० प्राम २९ दरडो ग्राम से " ३१ लुहार ३२ लिंगीया " 5, ३५ बाहुली ३६ टीगाणी ३७ वैदिया ३८ कटोतिया ३९ भारी ३३ छबड़ा ३४ कुलवाड़ी,,, "3 ४३ निगोता ४४ अनोपडी ४५ साखोनी वरलाला ५४ जुगड़ी ५५ मूलौटी ५६ छाहड़ 73 2" "3 " "" जवासिया, राहुका ४६ पासुंका पाटोदा ४७ भूतड़ा ४८ पातोली ४९ वनमाली ५० आकोडी पादोड़ा सोनियाण," विलाला विनायक्या, ५१ रावती वाकलीवाल ५२ मादोती कासलीवाल ५३ कोकणोत,” 23 159 "3 " 22 92 "" 25 " 33 27 "" 23 "" 19 55 "" 35 [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास " जाति सं० ग्राम दरडावत भंडशाली,” लुहारा लिंगिया 13 " " " छबड़ा काला बोहरा टीगा वैद कटोतिया फांकरी ६७ लटवाड़ा " चौधरी ६८ बेदला "" "" "" ,” 59 " 33 "" "" " "" 37 "" 33 " 33 जाति ५७ सरवाड़ी ग्राम से सवडिया, ५८ निरपाल निरपोलिया, ५९ निरगोदा निरगोदा चडकिया सरपतिया 19 י, ६० चरड ६१ सरपति 33 ६२ बोरा खेड़ी,, ६३ कुलभारणी, ६४ गोदड़ा "" 33 मोभासर ७९ चौर ८० वाली ८१ सौमोद 13 ८२ कड़वड ८३ हालोद ८४ सामना ६५ टुकड़ा," ६६ निरपाति, "" " 23 "; "2 " "" "" 57 39 17 " " 59 11 33 भूताला राजभद्रा 19 " 99 " "1 " "" क्षेत्रपालिया," लोहटिया " भांगड़िया भोलसरा 23 35 भूसालिया " अहंकारिया, राजहंस " चीबाणिया बंका सौभगला " }: कड़वड़ा हलोदिया " समान्या , 39 " Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेव सूरि का जोवन ] [ओसवाल संवत् ५१५-५५७ पुस्तक में इन ८४ जाति के नाम छन्दवद्ध कविता में दिया है कविता में छन्द भंग हैं पर मैं यहाँ ज्यों का त्यों दे देता हूँ "चोधरी फीरोड़िया भंशाली बनमाली बंबा जुगराज्य गौतवंशी मोदी अजमेरा है । पाटणिया अनुपड़िया भीमडिया भैसा बडिया राजेंद्रा सरवालिया यूँच ऊकारा है । पिंगुलिया पितलिया भूतलिया अरड़क आवरिया सुरपतिया हरदिया मालसरा है। साखुणिया दादडिया क्षेत्रपाला कोकराज हुकड़िया कुलभाजा पीवा अरु संगारा है । शाह पाटशी दोसी सेठी वैद कटारिया वज गंगवाल । भैसा भोरिया मोहनिया मादिया सोनी अरु दाकलीवाल ॥ सांगाणी गोदा लोवडिया दर दोदा अरु फिर कासलीवाल । पाटोदी पहाड़िया विनायकिया लोहडिया टुंगिया चाडवाल ॥ संवका झोजरी पांडिया बेनडिया काला अरु वलाल । चरकियां छावड़ा निगादिया निपोलियारु पापड़ीवाल । करवागर नरपतिया निगद्या नागड़िया रारारु लाटीवाल । वरखोदा छाहड़ जलवाना राजहंस लोवटारु भूवाल । मूलसजारु बोहरागोत्र, जाति चौरासी कहाय, श्रावक श्री जिनसेन के किये देश खंडाला जाय । उपर दी हुई तालिका और इस कविता के नामों में कई नाम रहो बदल हैं शायद इसका कारण कवित अर्वाचीन होने से कई गौओं की शाखा प्रशाखा के नाम दर्ज कर कवि ने चौरासी नामों की संख्या मिलादी हो। खंडेलवाल जाति का उत्पति समय कई स्थानों पर विक्रम संवत् एक माघ शुक्ल पंचमि का बतलाया है और साथ में इस जाति के प्रतिबोधक दिगम्बर आचार्य जिनसेन को लिखा है यह विचारणीय है कारण श्वेताम्बर शास्त्रानुसार दिगम्बरमत की उत्पत्ति वि० सं० १३९ में तब दिगम्बर मतानुसार वि० सं० १३६ में बतलाई जाती है अतः विक्रम संवत, एक में दिगम्बरमत का जन्म ही नहीं हुआ था दूसरे दि० आचार्य जिनसेन के समय के लिये हम देखते हैं कि विक्रम संवत् एक में दिगम्बर मत का जन्मही नहीं हुआ था अर्थात् दि० प्राचार्य जिनसेन का समय विक्रमकी नौवों शताब्दी का है यदि खंडेलवाल जाति आचार्य जिनसेन प्रतिबोधित है तो इस जातिका उत्पत्ति समय विक्रमकी नौवीं शताब्दी का मानने में कोई भी आपति नहीं है दूसरा नौवीं शताब्दी पूर्व इस जाति के अस्तित्व का कोई प्रमाण भी नहीं मिलता है इससे भी वही मानना ठीक है कि खंडेलवाल जाति विक्रम के नौवीं शताब्दी में प्रायः राजपूतों से बनी है मूल में यह जाति दिगम्बरमत को मानने वाली थी पर बाद में इस जाति के कुछ लोग श्वेताम्बर साधुओं के उपदे रा से श्वेताम्बर धर्म को मानने लग गये थे-जो मारवाड़ के कई ग्रामों में आज भी विद्यमान हैं। दिगम्बरमतोपासक जैसे खंडेलवाल जाति हैं वैसे वघेरवाल जाति भी दिगम्बर मतोपासक हैं और इस जाति के प्रतिबोधक भी आचार्य जिनसेन ही बतलाये जाते हैं इस जाति की उत्पत्ति भी यज्ञ की घोर हिंसा से अरूची के कारण ही हुई हैं यद्यपि जैनाचार्य एवं बोधाचार्य के उपदेश से यज्ञ प्रथा बन्द सी हो गई थी पर खंडेलवालों की ८४ जातियें ] ५३९ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्षे ] | भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विक्रम संवत के आसपास राजा रतिदेव ने अन्तिम अश्वमेघ यज्ञ किया था इसके बाद अश्वमेध जैसा यज्ञ नहीं हुआ था विक्रम की नौवीं शताब्दी में कुमारिलभट्ट और आद्य शंकराचार्य हुए उन्होंने सोचा कि एक ओर तो जैनों और बौद्धों का जोर बढ़ता जा रहा है दूसरी ओर जनता हिंसा ले घृणा कर वेदिक धर्म से परङ्गमुख होकर जैन एवं बौध मत में जा रही है अतः उन्होंने फरमान निकाला कि कलियुग में यज्ञ करने की मनाई है तथापि जहां ब्राह्मणों की प्रबल्यता और वाममार्गियों का जोर था वहां छाने छुपके छोटा बड़ा साधारण यज्ञ करवा देते थे कारण उन्हों की आजीविका ही इस प्रकार यज्ञयाग और क्रियाकाण्ड से ही थी अतः समय मिलने पर वे कब चूकने वाले थे। वघेरा नगर में राजा व्याघ्रसिंह राज करता था किसी बहाने से ब्राह्मणों ने राजा को उपदेश देकर यज्ञ प्रारम्भ करवाया था यज्ञ में जितने लोग अधिक एकत्र होते थे उतना ही ब्राह्मणों को अधिक लाभ था अतः ५६ ग्रामों के लोग यज्ञ के अन्दर शामिल हुए। धर दिगम्बराचार्य जिनसेन अपने शिष्यों के साथ वघेरा नगर के उद्यान में पधारे प्राचार्य जिनसेन ने पहले खंडेला के यज्ञ के समय सफलता प्राप्त की हुई थी वे चलकर सीधे ही राज सभा में आये और राजा व्यावसिंह को उपदेश देते हुए कहा । राजन् ! इस घोर हिंसा रूपी यज्ञ से न तो किसी को लाभ हुआ है और न होनेवाला है हिंसा का फल तो भवान्तर में नरक ही होता है केवल एक हम ही नहीं कहते हैं पर वैदिक धर्म को मानने वालों ने भी हिंसा का बड़े ही जोरों से तिरस्कार किया है-पर बड़े ही दुःख की बात है कि आज भारत के कौने २ में अहिंसा का प्रचार हो रहा है इतना ही क्यों पर कहलाने वाल अनार्य भी अहिंसा भगवती का आदर कर रहे हैं तब आप जैसे आर्य वीर क्षत्री इस प्रकार की रौद्र हिंसा करवा कर देश द्रोह के साथ आत्मद्रोह कर रहे हो इत्यादि इस प्रकार का उपदेश दिया कि राजा को उस निर्दय कार्य से घृणा आ गई बस फिर तो देरी ही क्या थी राजा ने यज्ञ स्तम्भ उखेड़ दिया कुण्ड मिट्टी से पूर दिया ब्राह्मणों को विसर्जन कर दिये और राजा स्वयं बावन ग्रामों वालों के साथ आचार्य जिनसेन के पास जैनधर्म स्वीकार कर लिया उन बावन प्रामों वालों के बावन गोत्र बन गये वे निम्? लिखित हैं। ___अंगोरिया आहिडारे उंकारा३ उदपाडा कोटिया५ कावरिया६ कुचालिया७ कुनडा८ खडवाट९ खसोरा. खरड़िया ११ गुगाला३२ घणोता१३ चुन्दलिया१४ चकोरा५ छाजा छाबडा ७ चमोरा १८ चमारा१९ जाठाणी २:: तालहडा२१ दीवडा२२ दोगरचा२३ दोहताडा ४ धनोत्या२५ धौल्या२६ गर्बल २७ सीलोसो२८ सौरया६९ सुरलाया३० बहरिया३१ ठागा३२ लुंगरवाल३३ पापला३४ सांभारिवा३५ सडिया३६ मादलिया३७ डाइया३८ निगोलिया३९ अवेपुरा४ माथुरिया४। जोगिया २ लावावास४३ साखुणिया४४ सवघरा४५ सिवड४६ सोढ़ा४७ वाघडिया४८ भाडारिया४९ वडमुढ़ा५० जोगिया५१ डाइया५२ इनके अलावा इन जातियों की कई शाखा प्रतिशाखा भी हुई हैं, पीसांगण के एक सरावगी भाई के पास पुरानी हस्तलिखित पुस्तक से इस प्रकार ५२ जातियों के नाम उतारे हैं उसके कहने से वघेरवाल की १०५ गोत हैं। इसी प्रकार दिगम्बर समुदाय में नरसिंघपुरा जाति है यह भी नरसिंहपुर में यज्ञ के कारण दिगम्बराचार्य ने प्रतिबोध कर जैनधर्म में दीक्षित किये जिसके कई गौत्र हैं पीसांगण वाली पुस्तक में इस जाति के ३६ गोत्र लिखे हुये हैं। ५४० Jain Educaton International [ भगवान् महावीर की परम्परा ... Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] 10 अरड़ा मरड़ार करड़ा३ फटोतिया ४ छहाडवाल ५ चेनावासह वसोहरा७ पंचालोट सापडिया ९ सौनावत् 1० वौरडेच: : वागड : २ ककुचा १३ फलसधर १४ मनोहरा १५ मंगोतिया १६ फूलपगर १७ खडनेरा ॥ ८ मिलणा रत्नपरखा २० अत्रोतिया २३ लुद्रा २ चामडिया २३ पामेला ४ तेलिया २५ बलोला २६ हरसोला २७ खेमण२८ खामाणिया २३ नागर३० साखिया । जसोहरा ३२ जडपडा ३३ बोकडा २४ कथौटिया ३५ मोकरवाड३३ परवार जाति यह भी दिगम्बर जाति है इस जाति के १८ गोत्र हैं जैसे कि १ नागणा, २ पुलकिया, ३ देवड़ा, ४ डोंगरें, ५ दोरादा, ६ जीलवाण, ७ जोसिया, ८ मीनाकर, दाकलिया, १० कुकुरणा, ११ जाणिजा, १२ मा कोरा, १३ चादीवाल, ४ मोदिया, १५ नाथाणी, १६ पुरा, १७ घोषण, १८ साजोरा गौरारा -- यह भी दिगम्बर जाति है इस जाति के २३ गोत्र है जैसे कि - १ पावइ, २ गपेली, ३ पेरिया, ४ वेद, ५ नरवेद, ६ सिमरइया, ७ कौसाडिया, ८ सौहाना, ९ जमसरिया १० चौधरी ११ जासुधा १२ चौधरी १३ कौलसा १४ वोरइया १५ दन १६ साइया १७ अवइया १८ सारक १९ चौधरी २० चौधरीडघा २९ तासटिया २२ बडसइया २३ तेतगुरा । इनके अलावा दिगम्बर डिरेक्टरी में कई जातियों का नाम लिखा है वे सब जातियां दिगम्बर तो नहीं हैं पर शायद कहीं पर कई व्यक्ति दिगम्बर धर्म पालते होंगे उनको दिगम्बरों ने दिगम्बर जातियों में गणना कर डाली है । जैसे कि 1 66 १ पल्लीवाल, २ खंडेलवाल, ३ परवार, ४ पं० परवार, ५ अग्रवाल, ६ जैसवाल, ७ खैरया, ८ लमेगु, ९ गोलालार, १० फतेहपुरिया, ११ लोहिया, १२ बुदेला, १३ ओसवाल, १४ बुरले, १५ मंदिर, १६ गोलापूर्व, १७ गोलसिघड़े, १८ बुंदेला, १९ सैतवाल, २० वघेरवाल, २१ कासार २२ वदनोरा, २३ भासारी, २४ धाकड़, २५ चरनोगर, २६ चौसके, २७ कुक्करी, २८ समेवा, २९ पद्मावतीपरव, ६० अयोध्या, ३१ गंगेरवाल, ३२ विनायकिया, ३३ लाड, ३४ चौरा के परवार, ३५ जंघडापोरवार ३६ नेया, ३७ पंचवीसे, ३८ कटनेरे, ३९ परवार दशा, ४० नूतन जैन, ४१ वेरले ४२ दि० जैन, ४३ पोरवार, ४४ गोला पूर्व, ४ कृष्णपक्षा, ४६ दसा हुमड़, ४९ पलड़ीवाल, ५० भावसागर, ५१ नेया, ५२ नरसिंहपुरा दशा, दश, ५६ वीसा, ५७ नागदा दश ५८ वीसा, ५९ चितोड़ा दशा, ६२ बीसा, ३३ सेलावर, ६४ श्रावक, ६५ सादरा, ६६ वोगरा, ६७ वैश्य, ६८ इन्द्र, ६९ पुरोहित, ७० क्षत्रीय, ७१ नागर, ७२ चौघेले, ७३ मिश्र, ७४ शंखवाल, ७५ खुरशाले, ७६ हरदर, ७७ उपाध्याय, ७८ ठागर, ७९ बोगर, ८० ब्राह्मण, ८१ गान्धी, ८२ नाई, ८३ बड़ई, ८४ मोकर, ८५ सुकर, ८६ महेश्री ८७ इत्यादि । खंडेलवालों की ८४ जातियें ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ ग उपर जिस जाति के नीचे - -लाइन लगाई हुई है वे जातियां श्वेताम्बराचार्यों के प्रतिबोधित हैं यदि कोई व्यक्ति किसी कारण से दिगम्बरोपासक होगया हो पर वह जाति तो श्वेताम्बर ही कहलाई जायगी कई दिगम्बर जातियां भी श्वेताम्बर धर्म पालन करती हैं पर उसको हमने दिगम्बर जाति ही लिखी है । इति दिगम्बर सम्बन्धी इतिहास | ४७ वीसा हुमड़, ५३ बीसा, ५४ ६० चित्तोड़वीसा, ४८ पंचमा चतुर्थ, गुजर, ५ मेवाड़ा ६१ श्रीमाल दशा, ५ ५४१ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष [ भगवान् पाश्र्थनाथ की परम्परा का इतिहास पल्लीवाल जाति इस जाति की उत्पति का मूल स्थान पाली शहर है जो मारवाड़ प्रान्त के अन्दर व्यापार का एक मुख्य नगर था इस जाति में दो तरह के पल्लीवाल है १.-वैश्य पल्लीवाल,२-ब्राह्मण पल्लीवाल और इस प्रकार नगरके नाम से औरभी अनेक जाति पैदा हुई थी जैसे श्रीमाल नगर से श्रीमाल जाति,खंडे ला शहर से खंडेलवाल, महेश्वरी नगरी से महेश्वरी जाति, उपकेशपुर से उपकेश जाति, कोरट नगर से कोरटवाल जाति, और सिरोही नगर से सिरोहिया जाति इत्यादि नगरों के नाम से अनेक जातियों उत्पन्न हुई थी इसी प्रकार पाली नगर से पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति हुई है वैश्यों के साथ ब्राह्मणों का भी सम्बन्ध था कारण ब्राह्मणों की श्राजीविका वैश्यों पर ही थी अतः जहाँ यजमान जाते हैं वहां उनके गुरु ब्राह्मण भी जाया करते हैं जैसे श्रीमाल नगर के वैश्य लोग श्रीमाल नगर का त्यागकर उपकेशपुर में जा बसे तो श्रीमाल नगर के ब्राह्मण भी उनके पीछे चले आये अतः श्रीमाल नगर से आये हुए वैश्य श्रीमाल वैश्य और ब्राह्मण श्रीमाल ब्राह्मण कहलाये इसी प्रकार पाली के वैश्य और ब्राह्मण पाली के नाम पर पल्लीवाल वैश्य ओर पल्लीवाल ब्राह्मण कहलाये । जिस समय का मैं हाल लिख रहा हूँ वह जमाना किया कण्ड का था और ब्राह्मण लोगों ने ऐसे विधि विधान रचडाले थे कि थोड़ी-थोड़ी बातों में क्रिया काण्ड की आवश्यकता रहती थी और वह क्रियाकाण्ड भी जिसके यजमान होते वे ब्राह्मण ही करवाये करते थे उसमें दूसर। ब्राह्मण हस्तक्षेप नहीं कर सकता था अतः वे ब्राह्मण अपनी मनमानी करने में स्वतंत्र एवं निरांकुश थे एक वंशावली में लिखा हुआ मिलता हैं कि पल्लीवाल वैश्य एक वर्ष में पल्लीवाल ब्राह्मणों को १४०० लीकी और १४०० टके दिया करते थे तथा श्रीमाल वैश्यों को भी इसी प्रकार टेक्स देना पड़ता था, पंचशतीशाषोड़शाधिका' अर्थात ५१६ टका लाग दापा के देने पड़ते हैं । भूदेवों ने ज्यों-ज्यों लाग दापा रूपी टेक्स बढ़ाया त्यों-त्यों यजमानों की अरूची बढ़ती गई। यही कारण था कि उपकेशपुर का मंत्री बहड़ ने म्लेच्छों की सेना लाकर श्रीमाली ब्राह्मणों का पिच्छा छुड़वाया इतना ही क्यों बल्कि दूसरे ब्राह्मणों का भी जोर जुल्म बहुत कम पड़गया। क्योंकि ब्राह्मण लोग भी समा गये कि अधिक करने से श्रीमाली ब्राह्मणों की भांति यजमानों का सम्बन्ध टूट जायगा जो कि उनपर ब्राह्मणों की आजीविका का आधार था अतः पल्लीवालादि ब्राह्मणों का उनके यजमानों के साथ सम्बन्ध ज्यों का त्यों बना रहा था मंत्री ऊहड़ की घटना का समय वि० स० ४०० पूर्व का था यही समय पल्लीवाल जाति का समझना चाहिये । खास कर तो जैनाचार्यों का मरुधर भूमि में प्रवेश हुआ और उन्होंने दुर्व्यसन सेवित जनता को जैनधर्म में दीक्षित करना प्रारम्भ किया तब से ही उन नास्तिकों के तथा स्वार्थ प्रिय ब्राह्मणों के आसन कांपने लग गये थे, और उन क्षत्रियों एवं वैश्यों में से जैन धर्म स्वीकार करने वाले अलग होगये तब से ही जातियों की उत्पति होनी शुरू हुई थी इसका समय विक्रम पूर्व चारसौ वर्षों के पास पास का था, और यह क्रमशः विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी तक चलता ही रहा तथा इन मूल जातियों के अन्दर शाखा प्रतिशाखा तो वट वृक्ष की भांति निकलती ही गई जब इन जातियों का विस्तार सर्वत्र फेल गया तब नये जैन बनाने वालों की अलग जासियाँ नहीं बना कर पूर्व जातियों के शामिल करते गये जिसमें भी अधिक उदारता उपकेश वंश की ही थी कि नये जैन बनाकर प्रायः उपकेश वंश में ही मिलाते गये, जिसको हम आगे चल कर यथा समय लिखेंगे। ५४२ [ भगवान महावीर की परम्परा Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५७ ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय--तो पाली और पल्लीवाल जाति का गौरव कुछ कम नहीं हैं प्राचीन ऐतिहासिक साधनों से पाया जाता है कि पुराने जमाने में इस पाली का नाम फेफावती पाल्हिका पालिका आदि कई नाम था और कई नरेशों ने इस स्थान पर राज भी किया थ पाली नगर एक समय जैनों का मणिभद्र महावीर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध था, इतिहास के मध्य काल का समय पाली नगरी के लिये बहुत महत्त्व का था विक्रम की बारहवीं शताब्दी के कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएँ के शिलालेख तथा प्रतिष्टा करवाने वाले जैन श्वेताम्बर आचार्यों के शिलालेख आज भी उपलब्ध हैं इत्यादि प्रमाणों से पाली की प्राचीनता में किसी प्रकार के संदेह को स्थान नहीं मिलता हैं। व्यापार की दृष्टि से देखा जाय--तो भारतीय व्यापारिक नगरोंमें पाली शहर का मुख्य स्थान है पूर्व जमाने में पाली शहर व्यापार का केद्र था यहाँ बहुत जथ्था बन्ध माल का निकस प्रवेश होता था यह भी केवल एक भारत के लिये ही नहीं था पर भारत के अतिरक्त दूसरे पश्चात्य प्रदेशों के व्यापारियों के साथ पाली शहर के व्यापारियों का बहुत बड़े प्रमाणमें व्यापार चलता था पाली में बड़े-बड़े धनाढय व्यापारी बसते थे और उनका व्यापार विदेशों के साथ था तथा उनकी बड़ी-बड़ी कोठियाँ थीं। फारिस अरब अफ्रिका चीन जापान जावा मिश्र तिब्बत वगैरह प्रदेश तो पाली के व्यापारियों के व्यापार के मुख्य प्रदेश माने जाते थे जब हम पट्टावलियों वंशावलियों आदि ग्रन्थ देखते हैं तो पता मिलता है कि पाली के महाजनां की कई स्थानों पर दुकानें थीं और बालदों पोटो तथा जल एवं थल मार्ग से पुष्कल माल आता जाता था और इस व्यापार में वे बहुत मुनाफा भी कमाते थे। यही कारण था कि वे लोग एक एक धर्म कार्य में करोड़ों द्रव्य व्यय कर डालते थे इतना ही क्यों पर उन लोगों की देश एवं जाति भाइयों के प्रति इतनी वात्सल्यता थी कि पाली में कोई साधर्मी एवं जाति भाई आकर वसता तो प्रत्येक घर से एक एक मुद्रिका और एक एक ईट अर्पण कर दिया करते थे कि आने वाला सहज ही में लक्षाधिपति बन जाता और यह प्रथा उस समय केवल एक पाली वालों के अन्दर ही नहीं थी पर अन्य नगरों में भी थी जैसे चन्द्रवती और उपकेशपुर के उपकेशवंशी एवं प्राग्वटवंशी अग्रहा के अगरवाल डिडवाना के महेश्वरी आदि कई जातियों में थी कि वे अपने साधर्मी एवं जाति भाइयों को सहायता पहुँचा कर अपने बराबरी के बना लेते थे। करीबन एक सदी पूर्व एक अंग्रेज महात्मा टॉडसाहब मारवाड़ में पेदल भ्रमण करके पुरातत्व की शोध खोज का कार्य किया था उनके साथ एक ज्ञानचन्द्रजी नामक यति भी रहा करते थे टॉड साहब को जितनी प्राचीन हिस्ट्री मिली थी उतनी ही उन्होंने टॉड राजस्थान नामक ग्रन्थ में छपादी थी उसमें पाली शहर का भी बहुतसा हाल लिखा है उसमें पाली नगर को बहुत प्राचीन बतलाया है व्यापार के लिये तो पाली को प्राचीन जमाने से एक व्यापार की बड़ी मंडी होना लिया है वहाँ से थोक बन्ध माल विदेशों में जाता था पाली का नमक, सूतका जाड़ा कपड़ा, ऊनी कांवले, कागज वगैरह बड़ा प्रमाण में तैयार होता था और विदेश के व्यापारी खरीदकर अपने देशों में भेजते थे तब विदेशों से हस्तीदान्त, साकू गेंडाकाचमड़ा तांबा टीन जस्त सूखी खजूर पंडखजूर अरब का गुंद सहोगी नारियल बनात रेशमी कपड़ा औषधिय गन्धक पारा चन्दन की लकड़ियें कपुर चाय हरा रंग के कांच भावलपुर से साजी मजिट आल का रंग पक्के फल हिंग मुलतानी छीटें संदूक तथा पलंग की लकड़िये कोटा से अफिग छीटें जाड़ा कपड़ा भोजपे तलवारें और घोड़ा पल्लीवाल जाति को उत्पत्ति ] ५४३ Jain Educ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नके अलावा सौदागर लोग अपनी बालद एवं पोटों पर लाद कर बड़ी-बड़ी कतारों द्वारा लाखों रुपयों का ल लाते और ले जाते थे । अतः पाली व्यापार का एक केन्द्र था--- इत्यादि इस उल्लेख से स्पष्ट पाया जाता है कि मारवाड़ में पाली एक व्यापार का मथक और चीन नगर था और वहां पर महाजन संघ एवं व्यापारियों की घनी बरती थी । पल्लीवाल जाति में जैनधर्म - यह निश्चयात्मिक नहीं कहा जा सकता है कि पल्लीवाल जाति जैनधर्म का पालन करना किस समय से शुरू हुआ पर पहलीवाल जाति बहुत प्राचीन समय से जैनधर्म गलन करती आई हैं पुराणी पट्टावलियों वंशावलियों को देखने से ज्ञात होता है पल्लीवाल जाति विक्रम के चार सौ वर्ष पूर्व से ही जैनधर्म प्रवेश हो चूका था। इस की साबूती के लिये यह कहा जा सकता है कि आचार्य स्वयंसूर ने श्रीमाल नगर में ९०,००० घरों वालों को तथा पद्ममाती नगरी के ४५००० घरों के लोगों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर जैन बनाये थे बाद आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर नगर में लाखों त्रियादि लोगों को जैनधर्म की दीक्षा दी और बाद में भी श्राचार्यश्री गरूधर प्रान्त में बड़े-बड़े नगरों से छोटे छोटे प्रामों में भ्रमन कर अपनी जिन्दगी में करीब चौदह लक्ष घर वालों को जैनी बनाये थे जब पाली राह श्रीमालनगर और उपकेशपुर नगर के बीच में श्राया हुआ है भला वह आचार्यश्री के उपदेश से कैसे वंचित रह गया हो अर्थात् पाली नगर में श्राचार्यश्री अवश्य पधारे और वहां की जनता को जैनधर्म में अवश्य दीक्षित किये होंगे। हां उस समय पल्लीवाल नामकी उत्पत्ति नहीं हुई होगी पर पालीवासियों को आचार्यश्री ने जैन श्रवश्य बनाये थे । आगे चलकर हम देखते हैं कि श्राचार्य सिद्धसूरि पाली नगर में पधारते हैं और वहाँ के श्रीसंघ ने श्राचार्यश्री की अध्यक्षत्व में एक श्रमण सभा का आयोजन करते हैं। जिसमें दूर दूर से हजारों साधु साध्वियों का शुभागमन हुआ था इस पर हम विचार कर सकते हैं कि उस समय पाली नगर में जैनियों की खूब गेहरी आबादी होगी तब ही तो इस प्रकार का वृहद् कार्य पाली नगर में हुआ था इस घटना का समय उपकेशपुर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने महाजन संघ की स्थापना करने के पश्चात् दूसरी शताब्दी का बतलाया है इससे स्पष्ट पाया जाता है कि श्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने पाली की जनता को जैनधर्म में दीक्षित कर जैनधर्मोपासक बनादी थी उस समय के बाद तो कइ भावुकों ने जैनमन्दिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई तथा कई श्रद्धा सम्पन्न श्रावकों ने पाली से शत्रु जयादि तीर्थों के संघ भी निकाले थे जिसका उल्लेख हम यथा स्थान इसी ग्रन्थ में करेंगे । इत्यादि प्रमाणों से हम इस निर्णय पर श्रासकते हैं कि पाली की जनता में जैनधर्म श्रीमाल और उपकेशवंश के समयसामयिक प्रवेश हो गया था इतना दी क्यों पर पालीवालों का पल्लीवाल नाम संस्करण होने के पूर्व ही वे जैनी बन चुके थे बाद पाली के लोग व्यापारार्थ एवं किसी कारण से पाली छोड़कर अन्य स्थानों में जा बसने से वे पाली वाले कहलाये और बाद पालीवालों का अपभ्रंश पल्लीवाल बन गया था जैसे अन्य नगरों के नाम से जातियां बनी हैं। जैनशासन में साधुत्रों की बहुतता एवं जिस ग्राम नगर की ओर विशेष विहार करने के कारण उन ग्राम नगरों के नाम से गच्छ कहलाया जैसे उपकेशपुर के नाम पर उपकेशगच्छ, कोरंट नगर के नाम से कोरंट गच्छ, वाटनगर से पायटगच्छ, हर्षपुरा से हर्षपुरागच्छ, कुर्बपुर नगर से कुर्धपुरागच्छ, कसहद से कसहदगच्छ, नाणाग्राम से नारणावालगच्छ, सांढेराग्राम से सांढेरागच्छ, इत्यादि बहुत से गच्छों का प्रादुर्भाव ५४४ [ भगवान् महावीर की परम्परा Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवमरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ हुआ इसी प्रकार पाली नगर के नाम से पल्लीवालगच्छ भी उत्पन्न हुआ उपरोक्त गच्छों की नामावली में पल्लीवालगच्छ का नंबर तीसरा श्राता है कारण इस गच्छ की पट्टावली देखने से मालूम होता है कि यह गच्छ बहुत पुराणा है जो उपकेशगच्छ और कोरंटगच्छ के बाद पल्लीवालगच्छ का नम्बर आता है श्रीमान् अगरचन्दजी नाहटा बीकानेर वाला ने श्री आत्मानन्द शताब्दी अंक नामक पुस्तक के हिन्दी विभाग के पृष्ट १८२ पर पल्लीवालगच्छ की पट्टावलीके विषय में एक लेख मुद्रित करवाया है। मैं केवल उस पट्टावली को यहाँ ज्यों की त्यों उद्धृत कर देता हूँ प्रथम २४ तीर्थङ्करों और ११ गणधरों के नाम लिखकर आगे पट्टानुक्रम इस प्रकार लिखा है१-श्री स्वामी महावीरजी रे पाटे श्री सुधर्म१ ६-तत्पाढे श्रीसंभूतविजय ६ २-तिणरे पाटे श्रीजम्बु स्वामी २ ७- तत्पाढे श्रीभद्रबाहुस्वामी ७ ३-तत्पा? श्रीप्रभव स्वामी ३ ८- तत्पाढे तिण माहें भद्रबाहु री शाख न ४-तत्पाटे श्रीशय्यंभवसूरि ४ वधी श्री स्थुलभद्र ८ ५-तत्पाढे श्रीजसोभद्रसूरि ५ ९- तत्पट्टे श्रीसुहस्तीसूरि २ काकंद्य कोटिसूरिमंत्र जाप्पांवान् कोटिकगण । तिहारै पाटि सुप्रतिबंध ९ तियारै गुरुभाई सुतिणरा शिष्य दोई विजाहर १ उच्चनागोरी २ सुप्रतिबंध पाटि ९ तिणरी शाखा २ तिणांरा नाम मजिमिका १ वयरी २।। १.-वयरी रै पाटै श्रीइन्द्रदिन्नसूरि पाटि १२--तत्पट्टे श्री सिहगिरिसूरि पाटि ११-तत्य? श्रीअार्यदिवसूरि १३-तत्प? श्री वयर स्वामी पाटि १४-तत्पट्टे तिणरी शाखा २ तिहाँरा नाम प्रथम श्री वयरसेन पाटि १४ बीजी श्री पद्म २ तिणरी नास्ति । तीजो श्री रथसूरि पाटि श्री पुसगिरि री शाखा बीजी बयरसेन पाटि १४ १५-तत्प? श्री चन्द्रसूरि पाटि १५ संवत् १३० चन्द्रसूरि । ( यहां तक तो दूसरे गच्छों से मिलती जुलती नामावली है केवल नौवें नम्बर में महागिरी का नाम नहीं है और सुप्रतिबंध का नाम अलग चाहिये जिसको सुहस्ती के शामिल कर दिया है । अब १६ वां नंबर में शान्तिसूरि से इस पल्लीवालगच्छ की शाखा एवं पटटावली अलग चलती है जैसे कि-1 १६-संवत् १९ ( १६१) १ श्री शांतिसूरि थाप्पा पाटि १६ श्री संवत १८० स्वर्ग श्री शांतिसूरि पाट्टे १६ तिणरे शिष्य ८ तिणरा नाम | (१) श्री महेन्द्रसूरि १ तिणथी मथुरावाला गच्छ (२) श्री शालगसूरि श्री पुरवालगच्छ (३) श्री देवेन्द्रसूरि खंडेलवालगच्छ (४) श्री श्रादित्यसूरि सोमितवालगच्छ (५) श्री हरिभद्रसूरि मंडोवरागच्छ (६) श्री विमलसूरि पतनवालगच्छ (७) श्री वर्द्धमानसूरि भरवच्छेवालगच्छ (८) श्री मूल पट्टे श्री (.......... १७--श्री जसोदेवसूरि पाटि १७ संबत् ३२९ वर्षे वैसाख सुदि ५ प्रल्हादि प्रतिबोधिता श्री पल्लीवालगच्छ स्थापना संवत ३९० (।)स्वर्गे । पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति ) ५४५ Jain Education Interational Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५–१५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १८-श्री नन्नसूरि पाटि १८ संवत ३५६ स्वर्गे ४२-- श्री अभयदेव सूरि पाटि ४२ स० ११६९ १९-श्री उजोयण सूरि पाटि १९ स० ४०० स्वर्गे श्री मलधार अभयदेवसूरि अविमल्या ता पछे २०-श्री महेश्वरसूरि पाटि १९ संवत ४२४ स्वर्गे अजीतदेव स्वामि श्री अभयदेवसूरि कहा२१-~-श्री अभयदेव सूरि पाटि २१ स० ४५० " वाण पाटि ४२ स० ११६९ स्वर्गे २२-श्री आमदेवसूरि पाटि २२ स० ४५६ " ४३ -श्री अामदेव सूरि पाटि ४३ स० ११९९ " २३- श्री शान्ति सूरि पाटि २३ स. ४९५ ४४-श्री शान्ति सूरि पाटि ४४ स० ५२२४ " २४-श्री जसोदेव सरिपाटि २४ स०५३४ ४५-श्री जसोदेव सूरि पाटि ४५ स० १२३४ " २५ --श्री नन्न सूर पाटि २५ स० ५७० ४६ -श्री नन्न सूरि पाटि ४६ स १२३९ " २६- श्री उजोयण सूरि पाटि २६ स. ६१६ " ४७ ---श्री उजोयण सूरि पाटि ४७ स. १२४३ " २७-श्री महेश्वर सूरि पाटि २७ स० ६४० । ४८-श्री महेश्वर सूरि पाटि ४८ स० १२७४ " २८-श्री अभयदेव सूरि पाटि २८ स. ६८१ " ४९-श्री अभयदेत्र सूरि पाटि ४९ स० १३२१ " २९-श्री बामदेव सूरि पाटि २९ स. ७३२ " ५०-~श्री अामदेव सूरि पाटि ५० स १३७४ " ३०-श्री शान्ति सूरि पाटि ३० स० ७६८ ५१-श्री शान्ति सूरि पाटि ५१ सः १४४८ " ३१-श्री जस्योदेव सूरि पाटि ३१ स० ७९५ " ५२-श्री जसोदेव सूरि पाटि ५२ स० १४८८ " ३२-श्री नन्न सूरि पाटि ३२ सम्वत ८३१ ।। ५३-- श्री नन्न सूरि पाटि ५३ स० १५३२ " ३३-श्री उजोयण सूरि पाटि ३३ सः ८७२ " ५४-- श्री उजोयण सूरि पाटि ५४ स० १५७२ " ३४-श्री महेश्वरसूरि पाटि ३४ सम्वत ९२१ " । ५५-श्री महेश्वर सूरि पाटि ५५ स० १५९९ " ३५-श्री अभयदेव पाटि सूरि ३५ स० ९७२ " । ५६-श्री अभयदेव सूरि पाटि ५द् नवी गच्छ स्था३६-श्री आमदेव सूरि पाटि ३६ सम्वत ९९९ " । पना किधी गुरांसा ( थी ) क्लेश कीधो कोटि ३७-श्री शान्ति सूरि पाटि ३७ स. १०३१ " द्वेष करी क्रिया उद्धार कीधो स० १५९५ स्वर्गे ३८-श्री जस्योदेव सूरि पाटि ३८ स० १०७० " ५७-श्री अामदेव सृरि पाटि ५७ स० १६३४ " ३९-श्री नन्न सूरि पाटि ३९ स. १०९८ " ५८-श्री शान्ति सूरि पाटि ५८ स. १६६१ " ४०-श्री उजोयण सूरि पाटि ४० स० ११२३ ” ५९- श्री जसोदेव सूरि पाटि ५९ स. १६.२ " ४१-श्री महेश्वर सूरि पाटि ४१ स. ११५५ " ६०-श्री नन्न सूरि पाटि ६० स. १७१८ " ६१-विद्यमान भट्टारक श्री उजोयणसूरि पटि ६१ स. १६८७ वाचक पद स० १७२८ जेष्ट सुदि १२ वार शनि दिन सूरि पद विद्यमान विजय राज्ये । १६-वां पट्ट का समय संवत् १८० का बतलाया है तब १७ वा पट्ट का समय सं० ३२९ का लिखा है तथा पडीवालगच्छ की स्थापना सं० ३९० में हुई लिखी है फिर १८ वां पट्ट का समय सं० ३५६ का लिखा है यह संवत् ठीक नहीं है क्योंकि १६ वां और १७ वां पट्ट अन्तर १४९ वर्ष का होना असंभव सी बात है जब ३७ का पह ही ३२९ वर्ष का है और १८ वां संवत ३५६ का तब १६ वां पट्ट में पल्लीवालगच्छ की स्थापना सं० ३९० में कैसे हुई हो शायद ३०९ का संवत हो और बिन्दी बीच में की भूल से आगे लग गई हो तो कम से कम १७ वें पट्टके अन्दर ३०९ में पल्लीवाल गच्छ की स्थापना मानी जा सकती है । अब रहा १६-१७ वां पटान्तर १४९ वर्ष का बतलाया है इसमें या तो कुछ असा तक पट खाली रहा है या कोई दूसरा कारण हो या इतना बड़ा आयुष्य हो कोई भी विशेष कारण बिना इतना अर्सा तक एक पट होना विचारणीय है [ भगवान महावीर की परम्परा Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ - ५५७ ६१ विद्यमान भट्टारक श्री उजायेणसूरि पटि ६१ संवत् १६८७ वाचक पदं संवत् १७२८ जेष्ठ सुदि १२ बार शनि दिन सूरि पद विद्यमान विजय राज्ये - उपरोक्त पट्टावली से पाया जाता है कि विक्रम की चौथी शताब्दी में पल्लीवाल गच्छ की स्थापना आचार्य शान्तिसूरि के हाथों से हुई थी -- पाली की जनता को सबसे पहिले प्रतिबोध श्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने ही दिया था और श्रापश्री की परम्परा के आचार्यों ने क्रमशः उनकी वृद्धि करी । बाद में जब पूर्व में आर्य सुहस्तीसूरि के समय दुष्काल पड़ा थात सुहस्तसूरि सपरिवार आवंति प्रदेश में आये बाद में सौराष्ट्र और मरुधर में आये और पाली की और अधिक विहार करने वाले शान्तिसूरि ने पल्लीवालगच्छ की स्थापना की हो तो यह बात विश्वासनीय है । जैसे ८४ गच्छों में पल्लीवालगच्छ प्राचीन है वसे ही वैश्यों की ८४ जातियों में भी पल्लीवाल जाति प्राचीन है जहाँ हम चौरासी जातियों के नाम उल्लेख करेंगे पाठक वहाँ से देख सकेंगे कि पल्लीवाल जाति कितनी प्राचीन है ? पल्लीवाल जाति में बहुत से नररत्न वीर एवं उदार दानेश्वरी हुए हैं जिन्होंने एक एक धर्म कार्य में लाखों करोड़ी द्रव्य व्यय करके कल्याणकारी पुन्योपार्जन किया है हाँ आज उनका सिलसिला बार इतिहास के अभाव हम यहाँ सबका उल्लेख नहीं कर सकते हैं इसका कारण यह है कि अव्वल तो वह जमाना ही ऐसा था कि इन बातें को लिपिबद्ध करने की प्रथा ही कम थी दूसरा जो करते थे वह भी उनके गच्छ वालों के पास तथा वंशाबलियों लिखने वालों के पास रहता था पर विदेशियों की धर्मान्धता के कारण कई ज्ञान भंडार ज्यों के त्यों जला दिये गये थे कि उसके अन्दर काफी ग्रन्थ जल गये । तथापि शोध खोज करने पर पल्लीवाल जाति एवं पल्लीवाल गच्छ सम्बन्धी यत्र तत्र बिखरा हुआ साहित्य मिल सकता है अभी विद्वर्य मुनिराज श्री दर्शनविजयजी महाराज ने पल्लीवाल जाति का इतिहास लिखकर इस जाति के विषय अच्छा प्रकाश डाला है पल्लीवाल जाति के वीर पेथड़शाह वगैरह दानेश्वरियों के नाम खास उल्लेखनीय हैं जिसको हम यथा स्थान वर्णन करेंगे यहाँ तो हमारा उद्देश्य खास पल्लीवाल जाति के विषय लिखने का था और हमने उपरोक्त प्रमाणों द्वारा यह बतलाने की कौशिश की है कि पल्लीवाल जाति बहुत प्राचीन है इसका उत्पति स्थान पाली नगर और समय विक्रमपूर्व चार सौ वर्ष पूर्व का है । अग्रवाल जाति जैसे भारतीय जातियों में ओसवाल पोरवाल पल्लीवाल श्रीमालादि जातियें हैं वैसे अग्रवाल भी एक जाति है । इस जाति के इतिहास के लिए वे ही कठिनाइयें हमारे सामने उपस्थित हैं कि जैसी अन्य जातियों का इतिहास के लिये हैं । कारण, इस जाति का भी सिलसिले वार इतिहास नहीं मिलता है । हाँ, इस जाति की उत्पति के लिए कई प्रकार की किम्बदन्तियें प्रचलित हैं जैसा कि - ! १ - - कई कहते हैं कि इस जाति के पूर्वज अगुरु नाम की सुगन्धित लकड़ियों का व्यापार करते थे अतः इसका नाम अगुरु पड़ गया और उस गुरु का ही अपभ्रंश अग्रवाल है । * कौटिल्य के अर्थशास्त्र से पता मिलता है कि एक समय भारत में अगुरु जाति की लकड़ियों का बहुत प्रमाग में व्यापार चलता था और अगुरु लकड़ी सुगन्धमय होने से इसका व्यापार भारत में ही नहीं बल्कि भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य अग्रवाल जाति की उत्पत्ति ) ५४७ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५–१५७ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास २--कई लोगों का मत है कि अप्रवालों के पूर्वजों ने श्राग्रहा (आगरा) नाम का नगर बसाया था । इससे इस जाति का नाम अग्रवाल हुआ। ३-कई एकों का मत है कि अग्रवाल जाति क्षत्रियों से उत्पन्न हुई है। ४-कई कहते हैं कि अग्रवाल जाति वैश्यों से पैदा हुई । ५-कई कहते हैं कि राजा अग्रसेन की सन्तान होने से इस जाति का नाम अग्रवाल हुआ है। पर अग्रसेन के लिये भी तो कई मत प्रचलित है जैसे कि a-पौराणिक कथाओं में राजा अग्रसेन की पूर्व परम्परा ब्रह्माजी से मिलाई है। b-कई कहते हैं कि श्रीकृष्ण के समय यदुवंश में अग्रसेन राजा हुआ है । c-कई कहते हैं कि युधिष्ठिर की तेरहवीं पुश्त में गजा अग्रसेन हुआ d-कई कहते हैं कि आबू के परमारों में राजा अग्रसेन हुआ जिसका समय ई० स० ८३ के आस पास का है। e-इतिहास मर्मज्ञ बंगाल के बाबू नागेन्द्रनाथ वसु कहते हैं कि सम्राट समुद्रगुप्त के समय (ई. सं० ३२६ से ३७५ ) राजा उग्रसेन हुआ। इत्यादि जिसमें बंगाल के इतिहास कार बाबू नागेन्द्रनाथ वसु का मत है कि उपरोक्त पाच उग्रसेन से अन्तिम सम्राट समुद्रगुप्त के समय में जो उग्रसेन हुआ है वही अग्रवाल जाति का पूर्वज होना चाहिये जिसका समय ईसा की चतुर्थ शताब्दी है । उस उग्रसेन की सन्तान ही अग्रवाल कहलाई। उपरोक्त मत्तों में ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो बाबू नागेन्द्रनाथ का मत्त प्रमाणिक पाया जाता है । बाबुजी के इस मत से हम भी सहमत है। अग्रसेन के साथ अग्रहा नगर का घनिष्ट सम्बन्ध है। कई विद्वानों का मत है कि राजा अग्रसेन ने ही अग्रहा नगर बसाया था और वहाँ पर अग्रवालों के एक लक्ष घरों की बस्ती थी। वे धन धान्य में बड़े ही समृद्धशाली थे । एक ऐसी भी कथा प्रचलित है कि अग्रहा नगर में कोई भी जाति भाई रहने को आता तो प्रदेशों में भी जत्थावन्ध था। शायद् अग्रवालों के पूर्वजों ने अगुरुका व्यापार किया हो और इस कारण इन लोगों की जाति का नाम अग्रवाल हुआ हो तो असंभव भी नहीं है जैसे कुमटका व्यापार से कुमट जाति बनो धूप का व्यापार से धूपिया गुद का धंधा से गुन्दिया इत्यादि ये जातिये ओसवालों में आज भी विद्यमान है। अग्रसेन नामक एक वैश्य राजा एक लाख मनुष्यों के परिवार के साथ दक्षिण में राज करता था । राजा अग्रसेन के पूर्व पुरुष धनपाल भी दक्षिण भारत के प्रताप नगर में राजा थे। उनके शिव, नल, आनन्द, नन्द, कुन्द, कुमुद, बल्लभ और शुक नामक आठ पुत्र और मुकुटा नामक एक कन्या हुई । उस समय विशाल नामक एक और राजा नल नगर में राज्य करता था उसके पद्मावती, मालती कान्ति नन्दा, सुभद्रा सुरा, मरा और रजा नाम की आठ कन्यायें थीं । धनपाल के उक्त आठ पुत्रों के साथ विशाल की आठों कन्याओं का विबाह हो गया। जिसमें नल सन्यासी हो गया बाकी सात पुत्र अपने अपने अधिकृत देश में राज्य करते थे। शिव के वंश में वंशानुक्रम से विष्णुराज, सुदर्शन, धुरन्धर, समाधि, मोहनदास और नेमनाथ ने राज्य किया । नेमनाथ से नैपाल का नामकरण हुआ और वहाँ लोक आकर बसे । नेमनाथ के पुत्र वृन्द ने बृन्दावन में बहुत से यज्ञ किये । वृन्द के पुत्र गुर्जर ने अपने नाम से गुर्जर देश में राज्य स्थापित किया। गुर्जर का पुत्र हरिहर उसका पुत्र रङ्गराज और उसकी पांचवीं पीढ़ी में अग्रसेन हुआ उस ने नागराज की कन्या माधवी से विवाह किया। इस [ भगवान् महावीर की परम्परा ५४८ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५–५५७ उनको प्रत्येक घर से एक मुद्रिका और एक इंट दी जाती थी कि वह आने वाला सहज ही में लक्षाधिपति बन जाता था ऐसी कथा चन्द्रावती के ओसवाल जाति और पाली की पल्लीवाल जाति में भी प्रचलित है । __अग्रवालों के १७॥ गोत्रों की उत्पत्ति -पूर्व जमाने में देव देवी एवं यज्ञादि क्रिया काण्ड में जनता का दृढ़ विश्वास था और वे कोई भी छोटा बड़ा कार्य करना होता तो देवी देवता और यज्ञादि क्रिया कांड द्वारा ही किया करते थे। यद्यपि भगवान महावीर एवं आचार्य रत्नप्रभसूरि के उपदेश से यह प्रथा बहुत कम हो गई थी तथापि सर्वथा नष्ट नहीं हुई थी कारण चिरकाल से पड़ी हुई कुप्रथा यकायक नष्ट होनी मुश्किल थी स्वार्थ प्रिय ब्राह्मण इसके प्रेरक थे जहाँ उन लोगों का थोड़ा बहुत चलता वहाँ वे यज्ञ होम करने में तत्पर रहते थे। राजा उग्रसेन के अठारह रानियां थी पर किसी के भी पुत्र नहीं था राजा ने ब्राह्मणों को एकत्र कर पुत्र होने का उपाय पूछा पर उन्होंके पास सिवाय पशुबद्ध रूपी यज्ञ के और क्या था उन्होंने कह दिया कि हे राजन् ! यदि आपको पुत्र की इच्छा है तो आप अठारह यज्ञ करवाइये आपके अठारह पुत्र अर्थात एक एक रानी के एक एक पुत्र हो जायगा । राजा ने अठारह यज्ञ करवाने का निश्चय किया । यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण एवं ऋषि लोग थे एवं यज्ञ करवाने वाले उनके तया उनकी सन्तान के गुरु भी समझे जाते थे और शुभ प्रसंग पर लाग लागन एवं दक्षिणा उन गुरुओं को दी जाती थी। यज्ञ में वेद मंत्रों के साथ पशुओं की बलि देना मुख्य काम था। अतः राजा उग्रसेन ने यज्ञ के लिये बहुत से ब्राह्मणों एवं ऋषियों को बुलवाये और यज्ञवलि के लिये बहुत से पशु एकत्र किये थे । यज्ञ प्रारम्भ हुआ और क्रमशः १७ यज्ञ समाप्त भी हो गये पर अठारहवें यज्ञ में राजा को यज्ञ में होने वाली पशुबलि रूप घोर हिंसा प्रति घृणा हो गई अर्थात राजा ने उन निरपराधी पशुओं पर दया लाकर छुड़वा दिये और अपने वंशजों के लिए यज्ञ में बलि देना एवं जीवों की हिंसा करना करवाना बिल्कुल निषेध कर दिया । राजा को इस प्रकार यज्ञ की हिंसा से घृणा आ जाने का क्या कारण होगा ? इसके लिये जैन कथाओं से पाया जाता है कि राजा को एक करूणा मूर्ति नामक जैनसाधु का उपदेश लग गया था । और उसने बुरी तरह तड़फड़ाहट करते हुए पशुओं को देखकर यज्ञ कर्म करना बंध करवा दिया था और यह बात असम्भव भी नहीं है क्योंकि चलते हुए यज्ञ के लिए यकायक इस प्रकार हिंसा से घृणा हो जाना और भविष्य में अपनी सन्तान परम्परा के लिए इस प्रकार की क्रूर हिंसा का निषेध कर देना किसी अहिंसा के उपासकों का उपदेश बिना बनना मुश्किल था । अतः यह कथन सर्वथा सत्य समझना चाहिए कि राजा उग्रसेन को जैनमुनि का उपदेश अवश्य लगा था। राजा के अठारह रानियां थी और उनके अठारह पुत्र हुये जिन्हों से अठारह गोत्रों की उत्पत्ति हुई । कई यह भी कहते हैं कि यज्ञ कराने वाले १८ ऋषि थे उनके नाम से अठारह गोत्र हुये और कई यह भी कहते हैं कि राजा के १७ पुत्रों के तो सत्तर ऋषि गुरु बन गये पर एक के कोई गुरु नहीं बना जिसका यज्ञ अधूरा रहा था अतः उसने अपने बड़े भाई के गुरु को ही गुरु माना। इसलिये उसका आधा गोत्र गिना गया जिससे १७॥ गोत्र कहा जाता है । उन १७|| गोत्रों का विवरण निम्न कोष्टक में दिया जाता है। विवाह के बाद उन्होंने काशी और हरिद्वार में कितने ही यज्ञ किये। इसके पश्चात् उन्होंने कोल्हापुर के महीधर राजा की कन्या को प्राप्त किया। इसके बाद दिल्ली के पास आकर उन्होंने आगरा बसाया और वहाँ पर उनने अपनी राजधानी स्थापित की अतः उस नगर के नाम से उन लोगो की जाति का नाम अग्रवाल हुआ है । इत्यादि अग्रवाल जाति की उत्पत्ति ] For Private & Personal use Only ५४९.org ___www.jainter oral Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गर्ग गोडल टेरन for a mx 5 w a va बिंदल संख्या | राजकुमार ऋषि | गोत्र | सं० राजकुमार ऋषि | गोत्र पुष्पदेव । गर्ग । १० तंबोलकरण तांडव तुंगल गेदूमल | गौभिल | ताराचंद तैत्तिरीय ताईल करणचंद कश्यप कच्छल वीरभान वत्स बाँसल मणिपाल कौशिक कांसिल १३ । वासुदेव धन्यास वृन्ददेव वशिष्ठ | १४ नारसेन नागेन्द्र नागल ढावणदेव | धौम्य ढालन(टेलण १५ अमृतसेन मॉडव्य मंगल सिंधुपति | शाण्डिल्य ! सिंघल १६ । इन्द्रमल | और्व एरन ८ जैवसंघ | जैमिनी | जिंदल १७ । माधवसेन! मुद्गल | मधुकल ९ । मन्त्रपति | मैत्रेय । मित्तल, १८ । गोधर | गोतम | गोबन इन गोत्रों का नाम कुछ रद्दोबदल भी मिलता है तथा इन गोत्रों से बाद में कई शाखायें भी निकल गई थीं ! एक समय इस अग्रवाल जाति का बड़ा भारी अभ्युदय था और व्यापार में जैसे ओसवाल पोरवाल और पल्लीवाल जातिएं बढ़ चढ़ के थी इसी प्रकार अग्रवाल जाति भी खूब उन्नत एवं आबाद थी। ___ अग्रवाल जाति के हाथों से राज कब निकाला और कब से व्यापार क्षेत्र में प्रवेश हुई इसके लिये अग्रवाल जाति का इतिहास पढ़ना चाहिये। अग्रवाल जाति में जैनधर्म--अग्रवाल जाति इस समय दो शाखाओं में विभाजित है 2 वैष्णव धर्मोपासक २-जैनधर्मोपासक । अग्रवाल जाति में जैनधर्म कब से प्रवेश हुआ इसके लिये अनुमान किया जाता है कि राजा अग्रसेन पर यज्ञ समय ही जैनधर्म का प्रभाव पड़ चुका था जब ही तो उसने हिंसामूलक यज्ञ करवाना बन्द कर अपनी संतान परम्परा के लिये हिंसा करना निषेध कर दिया था पर यह उल्लेख नहीं मिलता है कि राजा ने उसी समय खुल्लमखुल्ला जैनधर्म स्वीकार कर लिया था या बाद मे ? हां, पट्टावल्यादि प्रथों में यह उल्लेख जरूर मिलता है कि जैनचार्य * लोहित्यसूरिश ने अप्रवालों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। इसके लिये लिखा है कि अग्रहा नगर में किसी प्रसंग से अग्रवाल लोग एकत्र हुये थे उस समय प्राचार्य लोहित्त्यसरि अपने शिष्यों के साथ भ्रमण करते हुये आगरा नगर में पधारे और उन अग्रवालों को उपदेश दिया जिसमें वहां उपस्थित थे वे लोग जैनधर्म स्वीकार कर लिया तब से ही अग्रवाल लोग जैनधर्म पालन कर रहे है । उन्हों की बस्ती यू० पी० तथा पंजाब की ओर विशेष है । उस समय जैनियों में कुछ संकीर्णता ने अपना अड्डा जमा लिया था कि ओसवालादि जैन जातियों ने अग्रवालों के साथ रोटी व्यवहार तो शामिल कर लिया परन्तु बेटी व्यवहार शामिल नहीं हुआ इसी कारण कालक्रम से कुछ अप्रवाल पुनः वैष्णव धर्म में चले गये अतः अग्रवालों में दो धर्म आज भी हष्टिगोचर होरहे हैं १-जैन २ वैष्णव परन्तु लोहित्याचार्य-दो हुए है-एक श्वेताम्बर समुदाय में लोहित्याचार्य हुए है और दूसरे दिगम्बर समुदाय में भी एक लोहित्याचार्य है । परन्तु अग्रवाल जाति के प्रतिबोधक शुरु से श्वेताम्बर समुदाय के लोहित्याचार्य हैं अतः अग्रवाल जाति शरू से श्वेताम्बर समुदाय के श्रावक थे पर बाद कई स्थानों में श्वेताम्बर साधुओं के अभाव से कई अग्रवाल भाई दिगम्बर को भी मानने लग गये हैं। खैर अग्रवाल जाति प्राचीन समय से जैनधर्मोपासक है। Jain Edy Ointernational For Private &Personal use only [ भगवान् महावीर की परम्परा ww.jdine brary.org Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ फिर भी यह खुशी की बात है कि दोनों धर्म के पालने वाले अप्रवालों में रोटी बेटी व्यवहार जैसे पहिले था वैसे ही आज भी है। ____ अब देखना है समय ! कि अग्रवाल किस समय जैनी बने हैं इसके लिये आचार्य लोहितसूरि का समय देखना पड़ेगा क्योंकि अग्रवालों को जैन बनाने वाले आचार्य लोहितसूरि थे और जैन पट्टावलियों से पता चलता है कि आर्यदेवऋद्धिगणि क्षमा श्रमणजी आचार्य लोहितसूरि के शिष्य थे और उन्होंने वीर संवत ९८० (ई. स. ४५३) में बल्लभी नगरी में आगम पुस्तकारूढ़ किये थे। यदि इनसे ३० वर्ष पूर्व आवार्य लोहित का समय समझा जाय तो ई. स ४२३ के पास पास आगरा नगर में आचार्य लोहितसूरिने अग्रवालों को जैन बनाये थे और बाबुनागेन्द्रनाथ के मतानुसार यह समय राजा अग्रपेन के निकटवर्ती श्राता है। जब राजा अग्रसेन ने जैनाचार्य के उपदेश से पशुहिंसा एवं मांस प्रति घृणा लाकर अपनी संतान तक के लिये हिंसा निषेध कर दी तो ब्राह्मणों ने उनको कहना सुनना एवं उपदेश अवश्य किया होगा और उस समय या उनके बाद कुछ अर्मा में अग्रवालों ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया हो तो यह सर्वथा मानने योग्य है। अग्रवाल जाति के जैन श्रावकों ने आत्म कल्याण के लिये बड़े बड़े सुकृत कार्य किये है कई दाने वरियों ने दुष्काल में करोड़ों द्रव्य व्यय कर देशवासी भाइयों के प्राण बचाये कई एकों ने तीर्थयात्रार्थ बड़े. बड़े संघ निकाल कर चतुर्विध श्री संघ कों तीर्थों की यात्राएं करवाई-कइएकों ने स्वपर कल्याणार्थ बड़े. बड़े मन्दिर बनवा कर उसमें त्रिजगपूजनीय तीर्थङ्कर देवों की मूर्तियो की प्रतिष्ठा करवाई कइएकों ने जैनाचार्यों के पद महोत्सव एवं नगर प्रवेश महोत्सव में लाखों करोड़ों द्रव्य खर्च कर अनंत पुन्योपार्जन किये। जिसके उल्लेख यत्र तत्र पट्टावलियादि ग्रन्थों में मिलते है। जिसकों हम यथा स्थान दर्ज करदेंगे। यहाँ पर तो केवल अग्रवाल जाति की उत्पति तथा अग्रवाल जाति कबसे जैनधर्म स्वीकार किया इन बातों का ही निर्णय करना था जो उपरोक्त प्रमाणों से पाठक अच्छी तरह से समझ गये होंगे । इति शुभम् ___ महेश्वरी जाति की उत्पत्ति ___ महेश्वरी जाति के साथ जैन धर्म का घनीष्ट सम्बन्ध है क्योंकि महेश्वरी जाति के पूर्वज सब के सब जैन धर्मोपासक थे, जिस समय महेश्वरी जाति की उत्पत्ति हुई थी उस समय जैन धर्म का सर्वत्र प्रचार था एवं अहिंसा परमोधर्म का झंडा सर्वत्र फहरा रहा था हिंसामय यज्ञादि क्रिया काण्ड से जनता को अरूची एवं घृणा हो रही थी, जैनाचार्य सर्वत्र विहार कर जनता की शुद्धि कर जैन धर्म के झंडा के नीचे लाकर उनका उद्धार कर रहे थे। फिर भी कहीं कहीं पर ब्राह्मण लोग छाने छूपके छोटा बड़ा यज्ञ कर ही डालते थे ऐसा ही बरताव महेश्वरी जाति की उत्पति में हुआ है। महेश्वरी जाति की उत्पत्ति के लिये महेश्वरियों के जाग-वही भाट अपनी वंशावलियों में एक कथा बना रखी हैं और जब महेश्वरियों के नाम लिखने को वे लोग आते है तब वह कथा सब को सुनाया करते हैं उसमें सत्य का अंश कितना है पाठक स्वयं समझ जायंगे । खैर कुच्छ भी हो उन जागों के तो यह कथा एक जागीरी बन चूकी है पाठकों की जानकारी के लिये उस कथा को यहां उद्धृत करदी जाती है। खंडेला नगर में सूर्यवंशी राजा खंडेलसेन राज करता था राजा सर्व प्रकार से सुखी एवं सर्व ऋद्धि सम्पन्न होने पर भी उसके कोई सन्तान नहीं थी, अतः वह सदैव चिन्तातुर रहता था और इसके लिये कई उपाय महेश्वरी जाति की उत्पत्ति ] Jain Edu For Private & Personal use Only www.jaindibrary.org Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५ – १५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भी किये थे, पर उसकी आशा पूर्ण नहीं हुई, अतः एक दिन राजा ने ब्राह्मणों को एकत्र कर ब्रह्मभोज दिया तथा दक्षिणा में पुष्कल द्रव्य का दान देकर प्रार्थना की कि भूषियों मेरे पुत्र नहीं है अतः आप प्रसन्न होकर ऐसा उपाय बतलावें कि जिससे मेरा मनोरथ सफल हो ? ब्राह्मणों ने खुश होकर कहा राजा तेरे पुत्र तो होगा पर एक बात याद रखना कि वह १६ वर्ष तक उत्तर दिशा में न जाय यदि कभी भूल चूक कर उत्तर दिशा में चला गया तो उसको इसी शरीर से पुनर्जन्म लेना होगा इत्यादि भूदेवों के आशीर्वाद को राजा ने शिरोधार्य कर लिया और उन ब्राह्मणों को और भी बहुतसा द्रव्य देकर विसर्जन किये । राजा के चौबीस रानियें थी, जिसमें चम्पावती रानी के गर्भ रहा जिससे राजा बड़ा ही हर्षित हुआ और ब्राह्मणों के वचन पर श्रद्धा भी होगई गर्भ के दिन पूर्ण होने से राजा के वहां पुत्र का जन्म हुआ राजा ने बड़े ही महोत्सव किया और याचकों को दान एवं सज्जनों को सन्मान दिया और बारहवें दिन उनका नाम 'सज्जन कुँवर' रक्ख दिया राजकुँवर का पाँच धायें से पालन पोषण हो रहा था, जब कुँवर पांच वर्ष का हुआ तो अध्यापक के पास पढ़ने के लिये भेज दिया और बारहवर्ष में तो वह सर्व कला में निपुण बन गया इतना ही क्यों पर राजकुँवर ने राज कार्य भी संभालने लग गया राजा को ब्राह्मणों की बात याद थी, अतः कुँवर को कह दिया कि तुम सर्वत्र जाओ आओं पर एक उत्तर दिशा में भूल चूक के भी नहीं जाना उत्तर दिशा में जाने की मेरी सख्त मनाई है, राजकुँवर ने भी पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करली और आनन्द में राज कारभार चलाने लगा मुत्सद्दी उमराव एवं जनता कुँवर के आधीन रह कर उनकी आज्ञा का अच्छी तरह से पालन करने लगे । एक समय उस नगर में किसी जैनाचार्य का शुभागमन हुआ और उन्होंने जनता को अहिंसा सत्य शील परोपकार आदि विविध विषयों पर उपदेश दिया आचार्य श्री ने मनुष्य जन्म की दुर्लभता राजसम्पति की चञ्चलता कुटम्ब की स्वार्थता और क्षणभंगुर शरीर की असारता पर जोरदार व्याख्यान दिया जिसको सुनकर राजकुंवर सज्जनकुमार को सूरिजी का कहना सोलह श्राना सत्य प्रतीत हुआ अतः उसने सूरिजी के चरण कमलों में श्रद्धा पूर्वक जैन धर्म को स्वीकार कर लिया 'यथा राजा तथा प्रजा' जब राजकुंवर ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया तो उमराव मुत्सद्दी तथा नागरिक लोग कब पीछे रहने वाले थे उन लोगों ने भी जैन धर्म स्वीकार कर लिया जैनधर्म का मुख्य सिद्धान्त अहिंसा परमोधर्म का है कि बिना अपराध किसी जीव को मारना तो क्या पर तकलीफ तक भी नहीं पहुँचानी अर्थात् पर जीवों को स्वजीव तुल्य समझना चाहिये । राजकुँवर ने जैन धर्म स्वीकार करके अपने राज में जीव हिंसा कतई बन्द करवा दी। जिससे ब्राह्मणों के यज्ञ यगादि कर्म सर्वत्र बन्द हो गये इतना ही क्यों पर राजकुँवर ने तो स्थान २ पर जैन मन्दिर मूर्तियों को प्रतिष्ठा करवा दी कि जनता सदैव सेवा पूजा भक्ति कर अपना कल्याण करने लगी इस कारण शिव मन्दिरों की पूजा बन्द सी हो गई कई थोड़े बहुत ब्राह्मण लोग ही शिवोपासक रहे वे लोग भी छाने छुपके शिव पूजा वगैरह करते थे । राजकुँवर ने केवल अपने नगर में ही नहीं पर आस पास का प्रदेश अर्थात पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशा में जैनधर्म का काफी प्रचार कर दिया और जीव हिंसा एवं यज्ञ भी सर्वत्र बन्द करवा दिये केवल एक उत्तर दिशा में राजकुँवर नहीं जा सका कारण, राजा ने पहले से इस बात का विचार कर रहा था कि उत्तर दिशा में जाने की मुझे मनाई क्यों की होगी ही मनाई कर रखी थी। फिर भी कुँवर ५५२ Jain Education international [ भगवान् महावीर की परम्परा delibrary.org Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ एक दिन सज्जनकुँवर ने सुना कि उत्तर दिशा में ब्राह्मणों ने एक यज्ञ करना प्रारम्भ किया है अतः उसे आश्चर्य के साथ बड़ा ही दुःख हुआ कि दरबार ने मुझे तो उत्तर दिशा में जाने की मनाई कर रखी है और ब्राह्मण लोग घोर हिंसा रूप वहां यज्ञ प्रारम्भ किया है यह कैसा अन्याय यह कैसा अत्याचार, मेरे मनाई करने पर भी ब्राह्मणों ने गैद्र हिंसामय यज्ञ शुरू कर दिया ! बस ! राजकुँवर से रहा नहीं गया अपने बहत्तर उमरावों को साथ लेकर उत्तर दिशा में चला गया जहां कि यज्ञ हो रहा था सूर्यकुण्ड के पास जाकर गजकुँवर क्या देखता है कि एक ओर यज्ञमण्डप और अग्निकुण्ड बना हुआ है दूसरी ओर बहुत से पशु एकत्र किये हुए दीन स्वर से रूदन एवं पुकारें कर रहे हैं तब तीसरी तरफ बड़े-बड़े जटाधारी गले में जनेऊ और रुद्राक्ष की माला पड़ी हुई कपाल पर तिलक लगे हुए ऋषि एवं ब्राह्मण वेदध्वनी का उच्चारण कर रहे थे इस प्रकार दृश्य देख सजन को बड़ा ही गुस्सा आया और उसने अपने उमरावों को हुक्म दिया कि यज्ञ मण्डप उखेड़ दो अग्निकुण्ड को नष्ट करदो पशुओं को छोड़दो और यज्ञ सामग्री छीन लो अर्थात् यज्ञ विध्वंश कर डालो। बस, फिर तो देरी ही क्या थी उन लोगों ने सब यज्ञ को ध्वंश कर दिया । जिसको देख उन ब्रह्म महर्षियों को बड़ा भारी दुःख हुआ उन्होंने गुस्से में आकर उनको ऐसा श्राप दिया कि बहुतर उमरावों के साथ राजकुँवर जड़ पाषण की तरह अचेतन हो गये। इस बात की खबर नगर में हुई तो राजा और कई नागरिक लोग चलकर उत्तर दिशा में आये कि जहां यज्ञ विध्वंश किया था और राजकुवरादि सब जड़ पाषणवत हुए पड़े थे उनको देख राजा को इतना दुःख हुआ कि वह दुःख के मारे वहीं मर गया उनकी सोलह रानियां तो गजा के साथ सतियें होकर जल गई और शेष आठ रानियां जाकर ब्राह्मणों का शरण लिया । इस वीतिकार को आसपास के राजाओं ने सुना कि खंडेला नगर का राजा तो मर गया है और कुँवर एवं उमराव जड़पाषाण सदृश हुये पड़ा है अतः उन्होंने सेना सहित आकर राज को अपने प्राधीन में कर लिया बात भी ठीक है कि बिना राजा के राज को कौन छोड़ता है। इधर राजकुँवर साजन की पत्नी ( कुँवर रानी ) वगैरह ने सुना की बहोत्तर उमरावों के साथ राज कुँबर जड़ पाषाणवत् अचेतन हो गया है तो उनको बहुत दुःख हुआ वह भी बहोत्तर उमराओं की औरतों को लेकर उत्तर दिशा में आई और सबों ने अपने पतियों की हालत देख रोने एवं आक्रन्द करने लगीं पर अब रोना से क्या होने वाला था वे सब चल कर भूर्षियों के पास गई और उनसे प्रार्थना करने लगी कि आप इनके अपराध की क्षमा कर इन सबको सचेतन करावे इत्यादि । इस पर ब्राह्मणों ने कहा कि यदि आप को यह कार्य करना ही है तो यह पास में गुफा है वहाँ जाकर शिव पार्वती की आराधना करो ब्राह्मणों ने एक अष्टाक्षरी मंत्र भी दे दिया था कि तुम सब इसमंत्र का जाप करो । बस दुखी मनुष्य क्या नहीं कर सकता है कुँवरानी वगैरह सब गुफा में जाकर तपस्या के साथ उस मंत्र का जाप किया कि कितने दिनों के बाद साक्षात् शिव-पार्वती आये उनको देख कर उन ७३ औरतें जाकर पार्वती के पैरों में गिर गई तब पार्वती ने उनको आशीर्वाद के साथ कहा कि तुम धन धानपुत्र और पति से सुखी रहो तुम्हारा सुहाग कुशल और पति चिरंजीवी हो इस पर उन औरतों ने कहा माता आप बरदान तो दिया है पर हमारे पति तो सब जड़ पाषाणवत् अचेतन पड़े हैं फिर हमारा शोभाग्य कैसे रहेगा इस पर पार्वती ने जाकर शिवजी को कहा कि आप इन सब को सचेतन करो कारण मैंने इनको वरदान दे दिया है वह अन्यथा हो नहीं सकता है अतः पार्वती के अत्याह से शिवजी ने उन सब को सचेतन कर दिये और वे सब आकर शिवजी के चारों ओर खड़े महेश्वरी जाति की उत्पत्ति ] www.j५५३y.org Jain Educa te Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास होगये । पास में पार्वतीजी भी खड़ी थी उसका रूप योवन लावण्य आदि सौंदर्य देख कर गज कुँवर सज्जन का चित्त चञ्चल और विकार सहित हो गया जिस चेष्टा को देख पार्वती ने उसे श्राप दे दिया कि अरे मंगता जा मांग खा । बस ! फिर तो देरी ही क्या थी राज कुवर सज्जन मंगता बन गया जिसको 'जागा' कहते हैं उसमें एक मिश्रीलाल कायथ था उसको कोतवाल बना दिया जब बहोत्तर उमराव हाथ जोड़ कर बोले हे दयालु हमारे लिए क्या हुक्म है शिवजी ने कहा कि तुम्हारा राज तो दूसरे राजा ने छीन लिया है अब तुम वैश्य पद को धारण कर के तलवार की कलम बनालो भाला की दंडी और ढाल के तराजू के पालने बना कर व्यापार करो। इस बीच में ही ब्राह्मण बोल उठे कि भोला शम्भू ! यह तो आपने ठीक किया परन्तु इन नास्तिकों ने हमारी सामग्री ध्वंश कर हमको बड़ा भारी नुकशान पहुँचाया है इसके लिये आपने क्या फैसला दिया है कहीं हम ब्राह्मण मारे नहीं जावें क्योंकि सामग्री के अभाव से हमारा यज्ञ समाप्त कैसे होंगे ? शिवजी ने कहा कि अभी तो इनके पास कुछ है नहीं कारण इनका राज माल वगैरह तो सब दूसरे राजा ने छीन लिया है अतः यह आपको क्या दे सकें । परन्तु इनका और तुम्हारा ऐसा सम्बन्ध कर दिया जाता है कि इन लोगों के घरों में पुत्र जन्म या विवाह शादी और मृत्यु वगैरह का प्रसंग होगा तब शक्ति के अनुसार तुमको कुछ न कुछ दिया करेंगे शिवजी ने दीर्घ दृष्टि से ब्राह्मणों का सदैव के लिये निर्वाहा कर दिया और वे उमराव सदैव के लिए ब्राह्मणों के करजदार बन गये खैर ! शिवजी का फैसला दोनों पक्ष वालों ने मंजूर कर लिया बाद शिव पार्वती अपने स्थान पर चले गये। जब वे बहोत्तर उमराव छ ब्राह्मणों के पास गये तो उन ब्राह्मणों ने बारह बारह उमरावों को अपनेर यजमान बना लिये इन पर ही ब्राह्मणों की आजीविका अर्थात् ब्राह्मणों की एक नागीरी बन गई । अब रहा राजकुँवर सज्जन इसके लिये पार्वतीजी का श्राप था वह जागा के नाम से ७२ उमरावों की वंशावलियों लिख कर अपनी आजीविका करने लगा इत्यादि महेश्वरी जाति का उत्पत्ति बतलाई है । इनके अलावा श्रीयुक्त शिवकरणजी रामरतनजी दरक ( महेश्वरी ) मुडवा वाला ने 'इतिहास कन्द्रम महेश्वरी कुल दर्पण" नाम की एक पुस्तक मुद्रित करवाई है उसमें भी महेश्वरी जाति की उत्पत्ति प्रायः उपरोक्त वही भाटों ( जागा ) के मतानुसार ही लिखी है और ये दोनों कथाओं प्रायः मिलती जुलती ही हैं इससे पाया जाता है कि दरक महाशय ने किसी जागा के कथा को नकल ही अपनी किताब में उतार ली हैं विशेषता में दरक महाशय ने उन ७२ उमरावों से महेश्वरी की जातियें बनी जिसके नाम एक कविता में दिया है जिसको भी मैं यहाँ दर्ज कर देता हूँ। महेश्वरी जाति के ७२ नाम है-सोनी और सोमणी? जाखेड्या३ सौढाणी ॥ दुरकट५ न्याति६ हेडा७ करवा८ काकाणी९ मालु१० सारड़ा, कहाल्या१२ गिलड ३ जाजू१४ || बाहेती ५ विदादा ६ विहाणी १७ वजाजू॥ कलंत्री१९ कासड२० कचौल्या२१ काहलाणी२२ झवर२३ कावरा२४ डाडा२५ डागा२६ गढाणी२ राही२८ विडला२९ दरक३० नौसणीवाल ३१ राजे ॥ अजमेरा३२ भंडारी३३ छपरवाल३४ खोजे ॥ भटडा३५ भूतडा३६ बंग३७ अट्टल ३८ इदाणी३९ ।। भूराड्या४० भन्शाली४१ लढ़ा४२ माल पाणी४२ सिकची४४ लाहौटी४५ गदइया४६ गगुराणी४७ ।। खटखड़ा४८ लखौटया४९ पासवा५. चेचाणी५१ मुणधण्या५२ मुदड़ा५३ चौखड़ा५: चंडक : राजे ॥ वल दवा ६ बालदी:७ बुब५८ बांगडा५९ ५५४ Jain Educ n ternational For Private & Personal use only [ भगवान महावीर की परम्परा Nagarnelibrary.org Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ मंडोवरा६० तोतला आगीवाल ६२ श्रागसौड़६३ ॥ प्रताणी६४ नाहूदर६५ नवल६६ पचौडा६७ ॥ तापडिया६८ मिणीयार६९ धून७० धूपड़ १ मोदाणी७२ ।। साहा दरक शिवकरण बहुतर वख्याति ॥ इस प्रकार महेश्वरी जाति की उत्पत्ति तथा उनकी ७२ जातियों की उत्पत्ति लिखी है तथा इनकी शाखा प्रतिशाखा रूप ८०० जातियों के नाम भी प्रस्तुत ग्रन्थ में लिखा है । इस जाति की उत्पत्ति का समय स्पष्ट रूपसे तो नहों लिखा हैं पर लेखक के भावों से राजाविक्रम के आस पास के समय का अनुमान किया जा सकता है पर इस समय के लिये विश्वासनीय प्रमाण नहीं दिया है तथापि महाशय दरक जी का परिश्रम प्रस्तुत कहा जा सकता है कि आपने बड़े ही परिश्रम एवं शोध खोज से इस ग्रन्थ को तैयार किया हैं यदि ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ अधिक शोध खोज की जाती तो ग्रन्थ का महत्व और भी बढ़ जाता। महाशय दरकजी को वही भटों एवं जागों से जितनी सामग्री प्राप्त हुई वह संग्रह कर के पुस्तक के रूप में छपा दी हैं पर इसमें त्रुटियें बहुत रही है जैसे कि १-महेश्वरी जाति का उत्पत्ति स्थान खंडेला नगर बतलाया है यह विचारणीय है क्योंकि खंडेला नगर और महेश्वरी जाति का कोई सम्बन्ध नहीं है खंडेला नगर से खंडेलवाल जाति की उत्पत्ति हुई है जिसको हम ऊपर लिख आये हैं तब महेश्वरीजाति की उत्पत्तिमहेष्मति नगरी जो पाती प्रान्त में है जिसका अपर नाम महेश्वरी नगरी भी था वहां से महेश्वरी जाति की उत्पत्ति हुई है दूसरा इस जाति का उत्पत्ति समय विक्रम संवत के आस पास लिखना भी गलत है कारण महेश्वरी जाति को उत्पत्ति श्राद्यशंकराचार्य के समय में हुई है इसके पूर्व कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है जैन पट्टावलियों में उल्लेख मिलता है कि विक्रम की आठवीं शताब्दी के अन्त और नौवीं शताब्दी के प्रारम्भ में महेश्वरी नगरी के राजा प्रजा एवं राजकुमारादि को आचार्य श्री ककसूरिजी ने प्रतिबोध देकर जैनधर्म की दीक्षा दी थी बाद में वहां शंकराचार्य का आना हुआ और उन लोगों को भौतिक चमत्कार दिखाकर पुनः अपने धर्म में दीक्षित कर लिये थे जब इस बात का पता आचार्य कक्कसूरि को मिला तो वे भी पुनः महेश्वरी नगरी में पधार कर गजकुवार तथा बहुत से लोगों को पुन जैन बना लिये थे इस समय के बाद भी महेश्वरियों के अन्दर से मालु डागा सोनी लुनियों वगैरह जातियों को प्रतिबोध देका जैनधर्म में दीक्षित किये थे। कई महेश्वरी भाई यह भी कह उठते हैं कि चोपड़ा नौलखादि ओसवालों को महेश्वरी बना लिये थे जिन्हों की जाति मंत्री कहलाई। पर यह बात बिल्कुल कल्पित है कारण राजपूतों से जैनाचार्यों ने चोपड़ा नोलखा बनाये थे जिसके पूर्व भी महेश्वरियों में मन्त्री जाति का होना पाया जाता है जैन पट्टावलियादि किसी ऐतिहासिक प्रन्थ में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है कि कोई एक भी ओसवाल जैनधर्म को छोड़ कर महेश्वरी बन गया हो दूसरे ओसवालों का आसन ऊँचा था कि उसको छोड़कर महेश्वरी बन जाना यह बिल्कुल असंभव बात है तीसरे ओसवालों के बजाय महेश्वरी जाति में ऐसी कोई विशेषता भी नहीं थी। हां, कई ओसवाल राज प्रसंग से शिव व्रष्णु धर्म पालने लग गये थे पर वे भी अपनी ओसवाल जाति का गौरव तो वैसा ही रखते हैं कि जैसे जैन ओसवाल रखते हैं तथा शिव ब्रष्णु धर्म पालने वाले प्रोसवालों का जैन ओसवालों के साथ तथा जैनमन्दिरों के साथ सम्बन्ध भी वही रहा जो शुरू से था वे धर्मान्तर होने पर भी अपना बेटी व्यवहार ओसवालों के साथ करते थे न कि महेश्वरियों के साथ । उनके घरों में जन्म विवाह और मरण सम्बन्धी क्रियाएँ जैन धर्मानुसार जैन मन्दिरों में जाकर ही करते हैं तात्पर्य यह है कि वे राजा के दीवान महेश्वरी जाति की उत्पत्ति ] Jain Educa www.jaintay.org Page #785 --------------------------------------------------------------------------  Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ गुडानगर में एक आर्यगोत्री लुनाशाह नाम का ओसवाल रहता था उसी नगर में एक महेश्वरी था और उसके एकपुत्री थी पूर्वभव के संस्कारों की प्रेरणा से लुनाशाह ने उस महेश्वरी कन्याके साथ विवाह कर लिया इस पर ओसवाल जाति ने लुनाशाह के साथ अपना व्यवहार तोड़ दिया बादएक सारंगशाह ओसवाल संघ लेकर तीर्थ यात्रा को जाता हुआ गुडानगर में विश्राम लिया लुनाशाह ने गुडानगर के बाहार एक वापि (वावड़ी) बन्धाई थी जिसमें उसने लाखों रुपये लगाये थे । संघपति को पुच्छ ताच्छ करने से मालुम हुआ कि जनोपयोगी कार्य करने वाला लुनाशाह नामका एक श्रेष्टिवर्य यहाँ वसता है संघपति ने लुनाशाह को बुलाकर मिला लुनाशाह ने संघ को भोजन की प्रार्थना की और संघपति ने मंजुर कर ली पर जब संघपति भोजन करने को बेठा तो लुनाशाह को साथ भोजन करने को कहा। इस पर लुनाशाह ने कहा मैं आप के साथ भोजन नहीं कर सकता हूँ कारण मैंने महेश्वरी की कन्या के साथ शादी की है अतः न्यात वालों ने मेरा व्यवहार बन्ध कर रखा है । संघपति ने सोचा की बड़ी जलम की बात है कि एक सदाचारी सामान व्यवहार वाले महेश्वरी की कन्या के साथ सादी करने से क्या अनर्थ हो गया ? संघपति ने जाति वालों को बुला कर बड़ा ही उपालम्ब दिया और अपनी पुत्री लुनाशाह को परणा कर उनका सब व्यवहार शामिल करवा दिया। इस उदाहरण से पाठक समझ सकते हैं कि ओसवाल और महेश्वरी जाति में कुछ भी भेद भाव नहीं है। कई लोग कहते हैं कि महेश्वरियों की उत्पत्ति हलकी जातियों से हुई है पर इसके लिये कोई प्रमाण नहीं है अतः जहाँ तक प्रमाण न मिले वहाँ तक ऐसी बातों को प्रमाणिक नहीं समझी जाती है। महेश्वरी जाति में भी बहुत से उदार चित्त वाले ऐसे लोग भी हुए हैं कि जिन्होंने देश समाज हित कई चोखे और अनोखे काम किये हैं व्यापार में जैसे अन्य जातियां हैं वैसे महेश्वरी जाति भी है इस ज ति का अयुभ्य भी व्यापार से ही हुआ था ---जैसे अन्योन्य जातियों का पतन हुआ वैसे महेश्वरी जाति भी अपने पतन से बच नहीं सकी है पहले की अपेक्षा इसकी संख्या भी बहुत कम रह गई है। - महेश्वरी जाति की उत्पत्ति ] Jain Educa For Private & Personal use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५७-१७४ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १८---प्राचार्य श्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज (तृतीय) नित्यं जैन समाज मान हित कृत् स्मार्यः सदार्यः सदा । आचार्यस्तु स ककमरि रभवदादित्य नागान्वये ।। दीक्षा स्वमगता मपीह सुदधावाचार्य पट्ट तथा । आसीद्यः कठिनस्तपश्चरणता स्वाचार युक्तोऽस्पृही ।। चार्य श्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज अद्वितीय प्रभावशाली एवं धर्म प्रचारक आचार्य हुए । १ श्रापका जन्म कोरंटपुर नगर के प्राग्वटवंशीय शाह लाला को सुशीलभूषिता धर्म प्रिय भार्या ललितादेवी की कुक्ष से हुआ। शाह लाला पहिले से ही खूब धनाढ्य था पर जब ललितादेवी गर्भवती हुई तो शाह लाला के घर में चारों ओर से लक्ष्मी का इतना आग मन हुआ कि लाला एक कुबेरलाल ही बन गया और केवल याचक ही नहीं पर जनता * भी उसको 'कुवेरलाला' कहने लग गई। ललितादेवी को गर्भ के प्रभाव से अच्छे २ दोहले उत्पन्न होने लगे। उन दोहलों में परमेश्वर की पजा गरु महाराज की सेवां, साधर्मियों के साथ वात्साल्यता दीन दुखियों का उद्धार और अमरी पहड़ा वगैरह इत्यादि अनेक प्रकार के मनोरथ होते थे जिन दोहलों को साह लाला ने बड़े ही आनन्द के साथ पूर्ण किये और इन शुभ कार्यों में लाखों रुपये खर्च भी किये। एक समय माता ललितादेवी को ऐसा दोहला उत्पन्न हुआ कि मैं अपनी सखियों के साथ संघ सहित छरी पालती हुई तीर्थ श्री शत्रुजय जाऊं और वहाँ भगवान आदीश्वर की पूजा कर अष्टान्हि का महोत्सव एवं पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य आदि करूं । जब ललितादेवी ने अपने दोहले की बात पतिदेव को कही तो शाह लाला बड़े भारी बिचार में पड़ गया कि एक तो शत्रुजय दुर बहुत दूसरे ललितादेवी को गर्भ का आठवाँ मास चल रहा है। इस हालत में यह दोहला कैसे पूर्ण हो सके । शाह लाला ने बहुत अक्ल दौड़ाई पर इसका उपाय कुछ भी उसकी दृष्टि में नहीं आया। शाह लाला अपने मित्र श्रीष्ठि यशोदेव के पास आया और अपने मनोगत भाव कह सुनाये । मंत्री यशोदेव ने भी खूब सोचा पर इस बात का तो कोई रास्ता उनको भी नहीं मिला। अतः वे दोनों चल कर गुरुवयं के पास आये और सब हाल सुनाया। इस पर गुरु महाराज ने सोचा कि गर्भ का जीव पुन्यवान हैं धर्म भावना से अनुमान किया जा सकता है कि यह गर्भ का जीवन शासन का कार्य करने वाला होगा अतः उन लोगों से कहा कि तुम नगर के बाहर श्रीशत्रुजय तीर्थ की रचना करवा कर ललितादेवी के मनोरथ पूर्ण करो। यह बात दोनों मित्रों के दिल में जंच गई और उन्होंने शत्रुजय तीर्थ की हूबहू रचना करवाना निश्चय करके अच्छे समझदार कारीगरों को बुलवाया और सब हाल कह कर समझाया और उन्होंने नगर के बाहर धवलगिरि पहाड़ को पसंद किया एवं तत्काल ही शुभ ५५८ For Private & Personal use Only [ शाह लाला और ललितादेवी Mainelibrary.org Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५५७-१७४ दिन में कार्य प्रारम्भ कर दिया । जहाँ द्रव्य खर्चने में उदारता हो वहाँ कार्य बनने में क्या देर लगती है । बस, थोड़े ही समय में एक शत्रुजय तीर्थ तैयार हो गया। इधर शाह लाला ने अपने नगर में तथा बाहर के ग्राम नगरों में आमंत्रण दे दिया तथा यह एक नया कार्य होने से श्रीसंघ में बहुत उत्साह फैल गया। चारों ओर से श्रीसंघ खूब गहरी तादाद में आने लगा जिसका स्वागत शाह ने अच्छी तरह से किया। शुभ दिन अष्टान्हि का महोत्सव प्रारम्भ हुआ। माता ललिनादेवी ने अपनी सखियों के साथ पैदल चल कर धबल पर्वत पर जाकर भगवान् आदीश्वर के दर्शन पूजन किया और ज्यों-ज्यों साधर्मी भाइयों को देखा त्यों-त्यों उसके दिल एवं गर्भ के जीव को बड़ा भारी आनन्द हुआ। श्री संघ ने आठ दिन बड़ी ही धामधूम पूर्वक अठाई महोत्सव मनाया। शाह लाला ने आठ दिन स्वामी वात्सल्य पूजा प्रभावना की। संघ को पहरामनी देकर विसर्जन किया। इस महोत्सव में शाह लाला ने तीन लक्ष्य द्रव्य व्यय कर सम्यक्त्व गुण को बढ़ाया। यह सब गर्भ में आये हुये पुन्यशाली जीव की पुन्यवानी का ही प्रभाव था। इसी प्रकार एक बार माता सुबह प्रतिक्रमण कर रही थी तो उसमें 'तियलोए चइय वन्दे' सूत्र आया तो आपकी भावना हुई कि मैं तीनों लोकों के चैत्यों को वन्दन करू। यह बात शाई लाला को सुनाई तो उसने बड़ी खुशी के साथ तीन लोक की रचना करवा कर ललितादेवी का मनोरथ पूर्ण किया । इस प्रकार शुभ दोहला और मनोरथों को सफल बनाती हुई माता ने शुभ रात्रि में पुत्र को जन्म दिया । यह शुभ समाचार सुनते ही शाहलाला के घर में ही नहीं पर नगर भर में हर्षनाद होने लग गया। सजनों को सन्मान, याचकों को दान और जिनमन्दिरों में अष्टान्हिक महोत्सवादि करवाकेशाह लाला ने खूब हर्ष मनाया। क्रमशः नवजात पुत्र का नाम 'त्रिभुवनपाल' रखखा । वास्तव में त्रिभुवनपाल त्रिभुवनपाल ही था । इनकी बालक्रीडा होनहार की भांति अनुकरणीय थी । माता पिता ने त्रिभुवन के पालन पोषण और शरीर स्वास्थ्य के लिये अच्छा प्रबन्ध कर रखा था। माता पिता धर्मज्ञ होते हैं तब उनके बालबच्चों के धार्मिक संस्कार स्वभाविक सुदृढ़ बन जाते हैं । त्रिभुवन की उम्र ८ वर्ष की हुई तो विद्याध्यन के लिये पाठशाला में प्रविष्ट हुये । पूर्व जन्म की ज्ञानाराधना के कारण आपकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि आप स्वल्प समय में व्यवहा. रिक राजनैतिक एवं धार्मिक ज्ञान सम्पादन करने में आशातीत सफलता प्राप्त करली । इधर शाह लाला की कार्य कुशलता एवं बुद्धिमत्तादि गुणों से मुग्ध बन वहां के राजाभीम ने दीवान पद से भूषित कर दिया । क्यों न हो जिनके घर में पुन्यशाली पुत्र अवतीर्ण हुआ फिर कमी ही किस बात की थी। शाहलाला इतना उदार दिल वाला था कि अपने स्वधर्मी तो क्या पर नगर एवं देशवासी किसी भाई का भी दुःख उससे देखा नहीं जाता था। किसी भी प्रकार की सहायता से वे उनको सुखी बनाने की कोशिश किया करते थे। शाह लाला ने अपने धर्मज्ञ जीवन में कई बार तीर्थों के संघ निकाल कर आप सकुटुम्ब तथा अन्य हजारों लाखों भाइयों को तीर्थ यात्रा करवा कर पुष्कल पुन्य संचय किया। शाह लाला ने जैनधर्म की उन्नति करने में भी कोई बात उठा नहीं रक्खी थी साधु साध्वियों का तो वह पूर्ण भक्त ही बना रहता था । ठीक है मनुष्य को सदैव सत्कार्य करते रहना चाहिये न जाने किस समय महात्मा का आशीर्वाद मिल जाता है पर शाह लाला जो करता वह केवल परमार्थ की बुद्धि से ही करता था । कारण, उसके पास सब dain Edu-माता के मनोरथ-- ] www.jainelibraly.org Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५७-१७४ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास साधन सामग्री विद्यमान थे। जैसा लाला था वैसे ही ललिता थी और त्रिभुवन तो इन दोनों से भी कुछ और भी विशेषता रखता था। कहा भी है कि --'पूर्वकर्मानुसारेण जायते ज्ञन्मिनां हि धीः' एक समय शाह लाला अर्द्ध निद्रा में क्या देखता है कि आप संग्राम में गये और आपने अपनी वीरता से सोलह सुभटों के सिवाय सब को पराजित कर दिया बाद आप स्वयं यकायक हताश हो भूमि पर गिर पड़े इत्यादि । जब आप जागृत हुये तो आश्चर्य हुआ कि आज मुझे यह क्या स्वप्न आया । यदि कोई इस विषय के ज्ञाता हों तो पूंछ कर निर्णय करू। भाग्योदय आचार्य यक्षदेवसूरि भू भ्रमण करते हुये कोरंटपुर नगर की ओर पधार रहे थे यह समाचार मिलते ही शाह लालादि श्रीसंघ ने सूरिजी महाराज का सुन्दर सत्कार कर नगर प्रवेश करवाया ! सूरिजी ने भगवान महावीर की यात्रा कर मंगलाचरण के पश्चात् सारगर्भित देशना दी बाद सभा विसर्जन हुई। मंत्री लाला समय पाकर सूरिजी के पास गया और बन्दन कर अपने स्वप्न के लिये पूछा। इस पर सरिजी ने कहा भक्त अब तेरी उम्र केवल सोलह वर्षों की रही है अतः तुम्हें आत्मकल्याण में लग जाना चाहिये । भक्त लाला ने कहा पूज्यवर ! आत्मकल्याण तो आप जैसे महात्मा ही कर सकते हैं मेरे सिर पर तो अनेक कार्य की जुम्मेवारी है जैसे एक तरफ कुटुम्ब का पालन पोषण दूसरी ओर गजकार्य तीसरे त्रिभुवन अभी बालक है। इसकी शादी भी करनी है । मुझे घंटा भर की भी फुरसत नहीं मिलती है फिर मैं कैसे आत्मकल्याण कर सकू ? हाँ मेरी इच्छा इस ओर सदैव बनी रहती है शासन का कार्य पर मेरी रूची है द्रव्य खर्च करने में मैं आगा पीछा नहीं देखता हूँ पर निर्वृत्ति के लिये मुझे समय नहीं मिलता है इत्यादि । सूरिजी ने कहा लाला ! शासन के हित द्रव्य व्यय करना भविष्य में कल्याणकारी अवश्य है पर यह प्रवृति मार्ग है इसके साथ निर्वृति मार्ग का भी आगधन करना चाहिये । क्योंकि शुभ प्रवृति से शुभ कमों का संचय होता है और उनको भी भोगना पड़ता है तब निवृति से कर्मों की निर्जरा होती है लाला! संसार तो एक प्रकार की मोह जाल है न तो साथ में कुटुम्ब चल सकेगा न राज काज ही चल सकेगा और न पुत्र ही साथ चलने वाला है । भला सोचिये आज शरीर में व्याधि या मृत्यु आ जाय तो पूर्वोक्त कार्य कौन करेगा ? बस तुम यही समझ लो कि आज में मर गया हूँ फिर तो तुम्हारे पीछे कोई भी काम नहीं रहेगा। सूरिजी का कहना लाला की समझ में आ गया कि बात सच्ची है आज मैं मर जाऊं तो मेरे पीछे काम कौन करेगा ? अतः पीछे काम की फिक्र करना व्यर्थ है । परन्तु मेरा एक पुत्र है इसकी शादी तो अपने हाथ से कर दूं। इस विचार से सूरिजी से अजे की पर इसके लिए सूरिजी क्या कह सकते थे । सूरिजी का फर्ज तो उपदेश देने का था वह दे दिया। __शाह लाला सकुटुम्ब सूरिजी का हमेशा व्याख्यान सुना करता था । आपका पुत्र त्रिभुवनपाल तो विशेष सूरिजी की सेवा में ही रहता था। एक दिन सूरिजी का व्याख्यान ब्रह्मचर्य के महत्व के विषय में हो रहा था । आपने फरमाया कि सब व्रतों में बह्मचर्या गजा है। इतना ही क्यों पर शरीर में जितने धातु पदार्थ हैं उन में भी वीर्य ही राजा है । जिस जीव ने आजीवन ब्रह्म वय्ये व्रत का अखंड रूप से पालन किया है । उनकी जबान सिद्ध हो जाती है । यंत्र मंत्र रसायन वगैरह ब्रह्मचर्य से ही सिद्ध होता है। हाड में ताकत, हृदय में हिम्मत, मगज में बुद्वि खून का विकाश वीर्य से ही होता है। अतः मनुष्य मात्र का धर्म है कि वे सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें। . [ सूरिजी का लाला को उपदेश--rary.org ५६० Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५५७-१७४ इस पर एक ब्राह्मण ने सवाल किया कि गुरु महाराज ! आपका कहना तो सत्य है कि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिये पर शास्त्रों में ऐसा भी तो कहा है: __"अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गे नैव च नैव च" अर्थात् जहां तक पुत्रोत्पत्ति न हो वहां तक उसकी स्वर्ग में गति नहीं होती है । अतः गति की इच्छा वाले को शादी कर पुत्रोत्पत्ति अवश्य करनी चाहिये फिर बाद में वह ब्रह्मचर्य व्रत पालन कर सकता है । सूरिजी ने कहा भूर्षि ! ब्रह्मचर्य्य व्रत दो प्रकार से पालन कर सकते हैं एक साधु धर्म से दूसरा गृहस्थ धर्म से । इसमें साधु धर्म में तो सर्वथा नौवाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य्यव्रत पालन करना चाहिये जैसे १-जिस स्थान में स्त्री नपुंसक पशु आदि रहते हों वहाँ ब्रह्मचारी को नहीं रहना चाहिये । साक्षात् स्त्री तो क्या पर स्त्री का चित्र हो वहां भी नहीं ठहरे । कारण यह बातें ब्रह्मचर्य व्रत में बाधा डालने वाली हैं। जैसे जिस मकान में मंजीरी रहती हो वहां मूषक ठहरेगा तो कभी उसका विनाश ही होगा। ९-ब्रह्मचारी को हास्यरस शृगाररस कामरसादि विकार उत्पन्न करने वाली कया नहीं करनी चाहिये । जैसे नींबू का नाम लेने पर मुंह में पानी छूट ही जाता है । ३ - जहां स्त्री बैठी हो वहां दो घड़ी तक पुरुष को नहीं बैठना चाहिये । कारण, उस स्थान के परमाणु ऐसे विकारी हो जाते हैं कि ब्रह्मचर्य का भंग कर डालते हैं । जैसे जिस जमीन पर आग लगाई है वहां से आग को हटा कर तत्काल ही ठसा हुआ घृत रखदें तो वह बिना पिघले नहीं रहेगा ४-स्त्रियों के अंगोपांग एवं मुँह स्तन नयन नासिकादि इन्द्रियों को सराग से नहीं देखता जैसे आँखों का श्रोपरेशन कराया हुआ सूर्य की ओर देखेगा तो उसको बड़ा भारी नुकसान होगा। ५-जहां भीत, ताटी, कनात के अन्तर में स्त्री पुरुषों के विषय वचन हो रहा है उसको सुनने की भी मनाई है । जैसे आकाश में घन गर्जना होने से मयूर बोलने लग जाते हैं। ६-पूर्व संवन किये हुये काम विकार को कभी याद नहीं करना । कारण, जैसे एक बुढ़िया के यहां दो युवक मुसाफिर ठहरे थे। जब वे मुसाफर चलने लगे तो बुढ़िया ने अंधेरे में ही छाछ बिलो कर उनको दे दी । वह छाछ पीकर वे दिसावर को रवाना हो गये । बाद कुछ वर्षों के वे फिर लौट कर आये और उसी बुढ़िया के यहाँ ठहरे। बुढ़िया ने उनको पहचान कर कहा 'अरे बेटा क्या तुम जीते आये हो' । युवकों ने पूछा क्यों ? बुढिया ने कहा उस दिन अंधेरे में असावधानी से दही के साथ साप बिलोया गया था और वह विषमिश्रित छा र तुमको दी थी एवं पिलाइ थी। यह बात सुनते ही उन दोनों के प्राण पखेरू उड़ गये । इसी प्रकार पिछले भोग विलास को याद करते ही मनुष्य विषय विकार व्याप्त हो जाता है। ___--ब्रह्मचारी को हमेशा सरस आहार जो बल वीर्य विकार की वृद्धि करने वाला हो, नहीं करना चाहिये । यदि करेगा तो उसका ब्रह्म वयं व्रत सुख पूर्वक नहीं पल सकेगा। जैसे सन्निपात के रोग वाले को दूध शककर पिला देने से उलटो रोग की वृद्धि होगी। ८-रूक्ष भोजन भी प्रमाण से अधिक न करे । करेगा तो जैसे सेर को हांडी में सवा सेर चना पकाने में हांडी फट जाती है, वही हाल ब्रह्मचार्य व्रत का होगा। ९-- ब्रह्मचारी को शौक मोज के लिये नहाना धोना शृंगार शोभा करना वगैरह को शख्त मनाई हैं। क्यों क दारू की दुकान में अग्नि की सतावाला सामान रखने से कभी न कभी दुकान में आग लग ही जाती ब्रह्मचर्यव्रत का महत्त्व ] ५६१ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५७ - १७४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास है । इत्यादि सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने वालों के यह नियम है और जो लोग स्वेच्छा व्रत पालने वाले होते हैं वे गृहस्था वास में रहते हुए भी आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत का पालन कर सकते हैं जैसे विजयसेठ और विजय सेठानी हुए हैं तब कई लोग सदारा संतोष अर्थात् मर्यादा से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं । अब आप अपने प्रश्न का उत्तर भी सुन लीजिये कि जैसे 'अपुत्रस्यगतिर्नास्ति' ? यह किसी पक्ष मनुष्य का कथन है परन्तु देखिये आप महात्मा मनु ने अपने धर्मशास्त्र मनुस्मृति में यह भी कहा है कि:अनेकानि सहस्राणी कुमारी ब्रह्मचारिणाम् । दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसन्ततिम् ॥ इसमें स्पष्ट बतलाया है कि अनेकों ने कुमारावस्था से ही ब्रह्मचर्य व्रत का सम्पूर्ण पालन कर स्वर्ग को प्राप्त किया है । इनके अलावा भी कई प्रमाण मिलते हैं जो ब्रह्मचर्य से मोक्ष प्राप्त हुए हैं । ब्राह्मण देव ! दूसरे व्रत पालन करने सहज हैं पर यह दुस्कर व्रत पालन करना बड़ा भारी कठिन है ऊपर जो नव वाडे बतलाई हैं जिसमें स्त्री जाति का परिचय तक करना मना किया है और दूसरों के लिये तो क्या पर खुद माता एवं बहिन के साथ भी एकान्त में नहीं ठहरना चाहिये जैसे कहा है कि:मात्र स्वस्त्र दुहित्रा वा न विविक्ताऽऽसनोभवेत्। बलवानिन्द्रिय ग्रामो विद्वांसमपि कर्षति || महात्माओं ने तो यहां तक भी फरमाया है कि मैथुन केवल स्त्री पुरुष संयोग को ही नहीं कहते हैं पर मनसा विकार मात्र को भी मैथुन ही कहते हैं । ब्रह्मचर्यं सदा रक्षेद् अष्टधा रक्षणं पृथक् । स्मरणं कीर्त्तिनं केलिः प्रक्षेणं गुह्यभाषणम् ॥ संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिवृत्तिं रेव च । एतन्मैथुनमष्टांगं प्रवदन्ति मनोषिणाः ॥ ब्राह्मण देव ने कहा पूज्यवर ! आपका कहना सत्य है पर किसी २ शास्त्र में तो यहां तक भी लिखा है कि तपके तपने वाले सन्यासी महात्माओं ने कई राजाओं की रानियों को ऋतुदान दिया था। तब क्या परोपकार के लिये साधुत्रों को इस बात की छूट दी है । सूरिजी ने फरमाया कि यह किसी व्यभिचारी ने अपने ऐब छिपाने के लिये परोपकार की ओट में कुकर्म किया होगा | देखिये शास्त्र तो स्पष्ट कह रहा है कि:यस्तु प्रवार्जितो भूत्वा पुनः सेवेत मेथुनम् । षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमि ॥ 1 इत्यादि सूरिजी ने ब्रह्मचर्य का इस कदर महत्व बतलाया उसका भूषि पर इतना प्रभाव हुआ कि उसी ने भरी सभा के बीच खड़ा होकर प्रतिज्ञा पूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया । उस सभा में शाह लाला का पुत्र त्रिभुवनपाल भी बैठा था उसने भी इस प्रकार ब्रह्मचर्थ्य के महत्व को सुना जिसकी उम्र करीब १६ वर्ष की थी पर पूर्व जन्म का क्षयोपशम इस प्रकार का था कि उसने अपने दिल में निश्चय कर लिया कि मैं आजीवन अखंड ब्रह्मचर्य व्रत पालन करूंगा । त्रिभुवन ने अपने मन में तो दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली पर लज्जा के मारे उस सभा में बोल नहीं सका । जब सभा विस र्जन हुई तो त्रिभुवन ने अपने मनकी बात सूरिजी से कह सुनाई। सूरिजी ने कहा, त्रिभुवन ! तेरा विचार तो उत्तम है पर कुटुम्ब वाले तुमको सुख रहने नहीं देंगे वह तेरी शादी की बातें कर रहे हैं । त्रिभुवन ने कहा पूज्यवर ! जब मैं दृढ़ता पूर्व प्रतिज्ञा कर चुका हूँ तो मुझे डिगाने वाला है कौन ? सूरिजी ने कहा, बहुत अच्छी बात है यह व्रत तेरे कल्याण का कारण है । त्रिभुवन सूरिजी को वंदन कर अपने मकान पर चला गया ! ५६२ [ ब्रह्मचर्यव्रत का महत्व Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कर का जीवन | [ ओसवाल संवत् ५५७-१७४ इधर तो शाह लाला आत्म कल्याण की धुन में निर्वृति का उपाय सोच रहा था कि त्रिभुवन की शादी कर आत्म कल्याण करूं उधर त्रिभुवनपाल ब्रह्मचर्य व्रत पालन की प्रतिज्ञा पर डटा हुआ था । हलाला और ललितादेवी आपस में बातें कर रहे थे कि त्रिभुवन की शादी जल्दी से करके अपने को आत्म कल्याण करने लग जाना चाहिये । त्रिभुवनपाल बीच में ही बोल उठा कि क्यों पिताजी ! आप तो अपना कल्याण करने को तैयार हुए हो और यह संसार रूपी वरमाला मेरे गले में डालना चाहते हो ? यदि आप मुझे अपना ध्यान पुत्र समझते हो तब तो आत्म कल्याण में मुझे भी शामिल रखिये कि मेरे पर आपका डबल उपकार हो जाय । मैं इस बात को सच्चे दिल से चाहता हूँ । शाह लाल ने कहा पुत्र ! अपने घर में इतना धन है तुम शादी कर इसको सत्कार्य में लगा कर पुन्योपार्जन करो | पिताजी ! जब आप इस धन को असार समझ कर अर्थात् इनका त्याग कर अपने कल्याण की भावना रखते हो तो यह द्रव्य मेरा कल्याण कैसे कर सकेगा ? हाँ, मैं इस द्रव्य में फंस जाऊँ तो इससे मेरा अकल्याण जरूर होगा । आप तो मुझे साथ लेकर सबका कल्याण कीजिये इत्यादि बाप बेटों का आपस में बहुत कुछ संवाद हुआ। जिसको सुन कर ललितादेवी तो बड़ी भारी उदास हो गई क्या मेरे घर का नाम निशान तक भी नहीं रहेगा ? खिर इस बात का झगड़ा सूरिजी के पास आया और सूरिजी ने उन सबको इस क़दर समझाया कि वे सब के सब दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करने के लिये तैयार गये । अपने घर में जो अपार द्रव्य था उसको सात क्षेत्र में लगा दिया जिसको देख कर तथा शाह की सहायता से कोरंटपुर तथा आस पास के कई ५२ नरनारी सूरिजी महाराज के चरण कमलों में दीक्षा लेने को तैयार हो गये । फिर महोत्सव का तो कहना ही क्या था । उस प्रदेश में बड़ी भारी चहल-पहल मच गई। शुभ दिन में सूरिजी ने उन मोक्षामिलाषियों को भगवती जैन दीक्षा देकर अपने शिष्य बना लिए । त्रिभुवनपान का नाम मुनि देवभद्र रख दिया । इस महान कार्य्य से जैनधर्म की खूब ही उन्नति हुई ।। मुनि देवभद्र पर सूरिजी की पहिले से ही पूर्ण कृपा थी । ज्ञानाध्ययन के लिये तो वृहस्पति भी आपकी स्पर्द्धा नहीं कर सकता था। आपके वदन पर ब्रह्मचर्य का तप तेज अजब ही झलक रहा था । तर्कवितर्क और बाद विवाद में पकी युक्तियें इतनी प्रबल थीं कि वादी लोग आपका नाम सुनकर घबरा उठते थे एवं दूर-दूर भाग छूटते थे इत्यादि सूरिजी के शासन में आप एक योग्य साधु समझे जाते थे । एक समय आचार्य यक्षदेव सूरि लाट सौराष्ट्र और कच्छ में घूमते घूमते सिन्ध की ओर पधारे । आप श्री का शुभागमन सुन सिन्ध भूमि में आनन्द एवं उत्साह का समुद्र ही उमड़ पड़ा । जहाँ आप पधारते वहाँ एक यात्रा का धाम ही बन जाता था । कई साधु साध्वियों एवं भक्त लोग आपके दर्शनार्थ आया करते थे और भक्त लोग अपने २ नगर की ओर पधारने की प्रार्थना करते थे । सूरिजी अपने शिष्य मंडल के साथ शिवनगर पधारे वहाँ का राव गोंदा जैन धर्मोपालक ही नहीं पर जैन श्रमणों का परम भक्त था । उसने श्री संघ के साथ सूरिजी का सुन्दर स्वागत किया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य और तात्त्विक विषय पर होता था । सूरिजी की वृद्धावस्था के कारण कभी कभी मुनि देवभद्र भी व्याख्यान दिया करता था । आपका व्याख्यान इतना प्रभावोत्पादक था कि सुनने वालों को वैराग्यये बिना नहीं रह सकता था । चतुर्मास का समय नजदीक आ गया था। श्री संघ ने त्रिभुवनपाल की दीक्षा ] ५६३ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५७-१७४ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विनती की और सूरिजी ने लाभालाभ का कारण जान कर श्रीसंघ की विनती को स्वीकार कर लिया । बस फिर तो था ही क्या, आज शिवनगर के संघ में हर्ष का पार नहीं था। सूरि जी के विरामने से वे वल शिवनगर की जनता में ही नहीं पर सिन्ध प्रान्त में धर्म का प्रभाव इतना फैला गया कि लोग श्रात्मकल्याण की भावना से एवं सूरिजी की सेवा तथा व्याख्यान सुनने की गरज से बहुत प्राम नगरों के लोग तो वहाँ आ आकर अपनी छावनीये तक भी डाल दी अहा-हा उस जमाना में जनता की भावना आत्मकल्याण की ओर कहाँ तक बढ़ी हुई थी वे लोग संसार में रहते हुए भी किस प्रकार अपना कल्याण करना चाहिते थे सिन्ध प्रदेश में मुख्यतया उपकेशगन्छाचार्यों का ही प्रभुत्व था जिसमें यक्षदेव सूरि का नाम तो और भी मशहूर था कारण इस प्रान्त में सब से पहला यक्षदेवसूरि ने ही धर्म की नीव डाली थी खैर सूरीश्वरजी के चतुर्मास विराजने से धर्म का बहुत लाभ हुआ। कई ४८ नरनारी दीक्षा लेने को तैयार हो गये । एक समय राव गोंदा ने सूरिजी से अर्ज की कि प्रभो ! आपकी वृद्धावस्था होती चली जा रही है अतः किसी योग्य मुनि को सूरि मंत्र देकर अपने पट्ट पर स्थापन कर दीजिये और यह शुभ कार्य यहीं पर हो कि इसका महोत्सव कर हम लोग कृतार्थ बनें। सूरिजी ने कहा ठीक पूर्व जमाने में आचार्य यक्षदेव सूरि ने इसी नगर में राजकुँवार कक्क को दीक्षा देकर सूरि पद पर स्थापन किया था। यदि आपको ऐसी ही भावना है तो मैं भी विचार करूँगा। रावजी एवं सकल श्रीसंघ को विश्वास हो गया कि हमारा मनोरथ अवश्य सफल होगा । इधर सूरिजी ने देवी सच्चायका की सम्मति लेकर अपना निश्चय श्रीसंघ के सामने प्रगट कर दिया। बस, फिर तो देरी ही क्या थी। चतुर्मास समाप्त होते ही जिन मन्दिरों में अष्टान्हि का महोत्सवादि प्रारम्म कर दिया। दीक्षा के उम्मेदवारों में भी वृद्धि हो गई । ठीक शुभ मुहूर्त में ६५ नर नारियों को भगवती जैन दीक्षा और मुनि देवभद्र को सूरि पद देकर उनका नाम कक्कसूरि रख दिया और भी कई योग्य मुनियों को पदवियाँ प्रदान कर जैन धर्म का झण्डा फहरा दिया । राव गेंदा ने नूतन सूरिजी की अध्यक्षत्व में पुनीत तीर्थ श्री शत्रुजय का एक विराट संघ निकाला जिसमें रावजी ने नौलक्ष रुपये व्यय कर शासन की प्रभावना की संघ यात्रा कर वापिस आया और सूरिजी सिन्ध भूमि में विहार करने के वाद आप कुँनाल की ओर पधारे। वहाँ भी आपके आज्ञावृत्ति बहुत से साधु साध्वियों बिहार करते थे। उन्होंने सूरिजी के दर्शन कर अपने जीवन को सफल बनाया । सूरिजी महाराज घूमते-घूमते लोहाकोट में पधारे । वहाँ के श्रीसंघ ने आपका अच्छा स्वागत किया । वहाँ पर आप कई अर्सा तक स्थिरता कर जनता को धर्मोपदेश दिया फलस्वरूप ग्यारा भावुकों को दीक्षा दी तथा श्रोष्टि धनदेव के बनाया हुआ भगवान् पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई तत्पश्चात् विहार कर कई ग्राम नगरों में धर्मोपदेश एवं धर्म प्रचार करते हुए सूरिजी महाराज तक्षीला की ओर पधार रहे थे यह शुभ समाचार तक्षीला के श्रीसंघ को मिला तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा उन्होंने प्रभावशाली महोत्सव कर सूरिजी का नगर प्रवेश करवाया क्यों न हो उस समय का तक्षिला नगर एक जैनों का केन्द्र था करीबन ५०० तो वहाँ जैन मन्दिर थे इससे अनुमान किया जा सकता है कि उस समय तक्षिला में जैनों की घनी वस्ती और खूब श्राबादी थी। सूरिजी महाराज अन्तिम सलेखना कर रहे थे अतः व्याख्यान आचार्य कक्कसूरिजी बाच रहे थे आपका व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य तथा तात्विक दार्शनिक एवं अध्यात्मीक विषय पर होता था जो श्रोताजन को अपूर्व आनन्द श्राता था वहाँ भी सूरिजी ५६४ For Private & Personal use Only [ भावुकों की दीक्षा और सरिपद anelibrary.org Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५५७-१७४ के उपदेश से चार ब्राह्मण तीन क्षत्री और पाँच श्रावक एवं बारह भावुकों ने सूरिजी के वृद्ध हाथों से भग. वती जैन दीक्षा को धारण की जिससे जैन धर्म की खूब ही प्रभावना हुई इस प्रकार प्राचार्य श्री यक्षदेव सूरि ने जैन धर्म का उत्कृष को बढ़ाते हुए अपना आयुष्य को नजदीक जान कर अनशन व्रत धारण कर लिया और २७ दिन के अन्त में समाधिपूर्वक स्वर्गवास किया । आचार्य कक्कसूरि मध्यान्ह के तरुण सूर्य की भांति अपनी ज्ञान किरणों का प्रकाश सर्वत्र डालते हुये और जनता का कल्याण करते हुये भूमि पर विहार करने लगे। आचार्य कक्कसूरिजी महाराज अपने शिष्य मण्डल के साथ विहार करते हुये श्रीपुरनगर की ओर पधार रहे थे । यह खबर वहां के श्रीसंघ को मिली तो उन्होंने सूरिजी का बड़ा ही शानदार स्वागत किया। सूरिजी का प्रभावशाली व्याख्यान हमेशा होता था एक दिन के व्याख्यान में तीथङ्करों के निर्वाण भूमिका अधिकार चलता था। सूरिजी ने श्री सम्मेतसिखर का वर्णन करते हुये फरमाया कि उस पवित्र भूमि पर बीस तीर्थङ्करों का निर्वाण हुआ है और इस तीर्थ की यात्रार्थ पूर्व जमाने में कई भाग्यशालियों ने बड़े २ संघ के साथ यात्रा कर संघपति पदकों प्राप्त कर लाभ उठाया है इत्यादि । खूब विस्तार से वर्णन किया । सूरिजी के व्याख्यान का जनता पर खूब प्रभाव हुआ । उस सभा में श्रेष्ठिगोत्रिय मंत्री राजपाल भी था उसकी इच्छा संघ निकाल कर यात्रा करने की हुई । अतः सूरिजी एवं श्रीसंघ से प्रार्थना की और श्रीसंघ ने आदेश दे दिया। फिर तो था ही क्या, मंत्री राजपाल के सात पुत्र थे और उसके पास लक्ष्मी तो इतनी थी कि जिसकी संख्या लगाने में वृहस्पति भी असमर्थ था । अतः अनेक प्रान्तों में आमंत्रण भेजकर चतुर्विध संघ को बुलाया और लाखों नर नारियों के साथ सूरिजी की अध्यक्षता में संघपति राजपाल ने संघ लेकर पूर्व की यात्रा करते हुये तीर्थ श्रीसम्मेतशिखरजी पर आकर बीस तीर्थंकरों के चरण कमलों को स्पर्श एवं सेवा पूजादि ध्वज महोत्सव कर अपने जीवन को सफल बनाया। तत्पश्चात् पूर्व प्रान्त के तमाम तीर्थों कीयात्रा करवाई बाद मुनियां के साथ संघ लौटकर अपने स्थान को आया और सूरिजी कई अर्सा तक पूर्व की ओर विहार किया तदनन्तर आपश्री कलिंग देशकी ओर पधारे और शत्रुजय गिरनार अवतार रूप खण्डगिरि और उदयगिरी के मन्दिरों के दर्शन किये, वहां से विहार करते हुये मथुरा पधारे उस समय मथुरा जैनों का एक केन्द्र साझा जाता था । उपकेश वंशीय बड़े २ धनाढ्य लोग वहाँ रहते थे। उन्होंने सूरिजी का खूब स्वागत सत्कार किया और श्रीसंघ की आग्रह विनती से सूरीश्वरजी ने वह चतुर्मास मथुरा में करने का निश्चय कर लिया। जिससे जनता का उत्साह खूब बढ़ गया। सूरिजी महाराज के परमभक्त आदित्यनाग गोत्रिय शाहपद्मा ने सूरिजी से प्रार्थना की कि हे प्रभो! यहां के श्री संघ की इच्छा है कि आप श्री के मुखारविन्द से महाप्रभाविक श्री भगवतीजी सूत्र सुनें । अतः हमारी अर्ज को स्वीकार करावें जिससे हम लोगों को सूत्र की भक्ति एवं सूत्र सुनने का लाभ मिले । सूरिजी ने उन ज्ञानपिपासुओं की प्रार्थना को स्वीकार करली । अतः शाह पद्मा ने सवा लक्ष मुद्रिका व्यय करके श्री भगवती सूत्र का बड़ा भारी महोत्सव किया और भगवान् गौतम स्वामी के एक एक प्रश्न की सुवर्ण मुद्रिका से पूजा की। मथुरा नगरी के श्रीसंघ के लिये यह पहिला पहिल ही मौका था कि इस प्रकार सूरिजी के मुखाविन्द से श्रीभगवतीसूत्र का श्रवण किया जाय । जनता में खूब उत्साह था। जैन संघ तो क्या पर श्री भगवती सूत्र को सुनने के लिये अनेक अन्य मतावलम्बी भी आया करते थे। सूरिजी मंत्री राजपाल का तीर्थ संघ ! ५६५ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५७-१७४-वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की व्याख्यान शैली इस कदर की थी कि बहुत से विधर्मी लोग भी जैनधर्म के परमोपासक बन गये । इतना ही क्यों पर कई लोग संसार को असार समम कर सूरि जी के चरण कमलों में दीक्षा लेने को भी तैयार हो गये! कई भक्त लोगों ने स्वपर कल्याणार्थ जिनमन्दिरों का निर्माण करवाया था और उन मन्दिरों के लिये कई १००० नयी मूर्तियें बनाई थीं । मथुरा के श्रीसंघ के लिये यह समय बड़ा ही सौभग्य का था कि एक ओर तो श्री भगवतीसूत्र की समाप्ती का महोत्सव दूसरी ओर कई ६० नर नारियों की दीक्षा के लिये तैयारी, तीसरे सहस्र मूर्तियों की अंजनसिलाका, चतुर्थ नूतन बने हुये मन्दिरों की प्रतिष्ठा फिर तो कहना ही क्या था,मथुरा मथुरा ही बन गई थी। इस सुअवसर पर अनेक नगरों के श्रीसंघ को आमंत्रण पूर्व के बुलवाया गया था । आस पास में बिहार करने वाले साधु साच्चियां भी गहरी तादाद में आ आकर मथुरा को पावन बना रहे थे। इन शुभ कार्यों का शुभ मुहूर्त माघ शुल्क पंचमी का निश्चय हुआ था और पूर्वोक्त कार्यों के अतिरिक्त सूरिजी ने अपने योग्य साधुओं को पदवियां प्रदान करने का भी निश्चय कर लिया था। ठीक समय पर पूर्वोक्त सब कार्य पूज्य पाद श्राचार्य ककसूरीश्वरजी महाराज के शुभ कर कमलों से सम्पदित हुआ। १-श्रीमदभगवती सत्र की समाप्ति का महोत्सव २-साठ मुमुक्षुओं को भगवत जैन दीक्षा ३- एक हजार मूर्तियों की अंजनसिलाका ४-नूतन बने हुये पाँच मन्दिरों की प्रतिष्ठायें ५-विशालमूर्ति आदि पांच मुनियों को उपाध्याय पद ६-सोमतिलक आदि सात साधुओं को पण्डित पद ७-धर्मशेखरादि सात साधुओं को वचनाचार्य पद । ८-कुमार श्रमणादि ग्यारह साधुओं को गणिपद। इनके अलावा कई दश हजार अजैनों को जैनधर्म में दीक्षित किये इत्यादि सूरिजी के पधारने एवं विराजने से जैनधर्म की खूब भावना एवं उन्नति हुई। दुष्कालादि के बुरे असर से जैन जनता रूपी बगीचा कुम्हला रहा था जिसको उपदेशरूपी जल से सिंचन कर जैनाचार्यों ने पुनः हरा भरा गुलजार यानी गुलचमन बना दिया। सरि के पास ज्यों ज्यों साधु संख्या बढ़ती गई त्यों त्यों योग्य साधुओं को पवियां प्रदान कर अन्योन्य क्षेत्रों में धर्मप्रचार निमित्त भेजते गये । यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि ज्यों २ साधुओं का विहार क्षेत्र विस्तृत होता जाया। त्यों २ धर्म का प्रचार अधिक से अधिक बढ़ता जायगा। पांच छः शताब्दियों में तो महाजन संघ एवं उपकेशवंश लोग आस पास के प्रान्तों में वटवृक्ष की तरह खूब फैल गये थे । दूसरे जिन २ प्रान्तों में आचार्यों का विहार होता वहां नये जैन बना कर उन्हें महाजन संघ में शामिल कर उनकी वृद्धि कर दी जाती थी और उपकेशगच्छाचार्य जैनधर्म महाजनसंघ एवं उपकेशवंश की उन्नति करना अपनी जुम्मेदारी एवं कर्तव्य ही समझते थे। श्राचार्य कक्कसूरिजी मथुरा से विहार कर धर्मप्रचार करते हुये मरुधर की ओर पधार रहे थे। यह शुभ समाचार सुन मरुधर बासियों के ग्राम नगर एवं लोगों के हर्ष का पार नहीं रहा क्यों कि गुरु महा. राज का चिरकाल से पधारना इसके अलावा श्री संघ के लिये क्या हर्ष हो सकता है । Jain Eur international माता For Private & Personal use only [ सूरिजी का मथुरा में चतुर्मास yainentbrary.org Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५५७-१७४ आचार्य श्री शाकम्मरी, हंसावली, पद्मावती, मुग्धपुर, नागपुर, षटकूप नगर, हर्षपुर, मेदनीपुर आदि नगरों एवं छोटे बड़े प्रामों में धर्मोपदेश देते हुये उपकेशपुर पधारे । वहाँ के श्रीसंघ ने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया। भगवान महावीर और आचार्य रत्नप्रभसूरि की यात्रा के पश्चात श्रीसंघ को धर्मो. पदेश सुनाया। आज उकेशपुर के घर २ में आनन्द मंगल हो रहा है। चतुर्मास के दिन नजदीक आ रहे थे श्रीघ ने साग्रह विनती की जिसको स्वीकार कर सूरिजी ने चतुर्मास उपकेशपुर में करना निर्णय कर लिया । बस फिर तो था ही क्या नगर में सर्वत्र उत्साह फैलगया। सुचंतिगोत्रीय शाह आम्र के महोत्सव पूर्वक व्याख्यान में महा प्रभाविक श्री भगवतीजीसूत्र वाचना शुरू कर दिया जिसको जैन जैनतर बड़ी ही श्रद्धा एवं उत्साह पूर्वक सुन कर लाभ उठा रहे थे। सूरिजी के व्याख्यान में दार्शनिक,तात्त्विक,आध्यात्मिक और ऐतिहासिक सब विषयों पर काफी विवेचन होता था जिसको श्रवणकर श्रोताजन मंत्र मुग्ध बन जाते थे । व्याख्यान किसी विषय पर क्यों न हो परन्तु आत्मल्याण के लिये त्याग वैराग्य पर विशेष जोर दिया जाता था । संसार की असारता, लक्ष्मी की चंचलता, कुटुम्ब की स्वार्थता, आयुष्य की अस्थिरता इत्यादि । सुकृत के शुभ फल और दुष्कृत के अशुभ फल भव भवान्तर में अवश्य भुगतने पड़ते हैं जिसको आज हम प्रत्यक्ष में देख रहे हैं। अतः जन्म मरण के दुःखों से मुक्त होने का एक ही उपाय है और वह है जैनधर्म की आराधना । यदि इस प्रकार की अनुकूल सामग्री में धर्माराधन किया जाय तो फिर संसार में भ्रमण करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी इत्यादि प्रति दिन उपदेश होता रहता था जिसका प्रभाव भी जनता पर खूब पड़ता था। कई लघुकर्मी जीव सूरिजी की शरण में दीक्षा लेने की तैयारी करने लगे तब कई गृहस्थावास में रहते हुये भी जैनधर्म की अराधना में लग गये । बाद चतुर्मास के कई ११ भावुकों को दीक्षा दी, कई नतन बनाये मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई इत्यादि सूरीश्वरजी के विराजने से बहुत उपकार हुआ । तत्पश्चात् वहां से विहार करते हुये छोटे बड़े प्राम नगरों में धर्मप्रचार करते हुये सूरिजी महाराज नागपूर में पधारे । कई अर्सा तक वहां विराज कर जनता को धर्मोपदेश दिया वहां पर हंसावली के संघ अग्रेश्वर विनती करने को आये जिसको स्वीकार कर सूरिजी विहार करते हुये हंसावली पाधारे । वह श्रेष्टि वयं जसा और उसकी पत्नी के आग्रह से श्री भग. वती सूत्र व्याख्यान में फरमाया तथा शाह जसा के बनाये महावीर मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई जिससे जैनधर्म की महान प्रभावना एवं उन्नति हुई। तत्पश्चात् वहाँ से विहार कर क्रमशः कोरंटपुर की ओर पधारे । यह थी आपकी जन्मभूमि जिसमें भी आप आचार्य बन जैनधर्म की उन्नति करते हुये पधारे फिर तो कहना ही क्या था जनता में खूब उत्साह बढ़ गया था । नगर के राजा प्रजा एवं सकल श्रीसंघ की ओर से आपका सुन्दर स्वागत किया भगवान् महावीर की यात्रा कर व्याख्यान पीठ पर विराज कर थोड़ी पर सारगर्मित इस प्रकार की देशना दी कि जिसको सुनकर श्रोताओं के हृदय में आत्मकल्याण की भावना विजली की भांति विशेष चमक उठी बाद जयध्वनि के साथ परिषदा विसर्जन हुई। कोरंटगच्छीय आचार्य नन्नप्रभसूरि आस पास के प्रदेश में बिहार करते थे। उन्होंने सुना कि कोरंटपुर में आचार्य ककसूरि का पधारना हुआ है। अतः वे भी अपने शिष्यों के साथ कोरंटपुर पधारे। आचार्य कक्कसूरि एवं श्रीसंघ ने आपका अच्छा स्वागत करके नगर प्रवेश कराया। जब व्याख्यान पीठ पर दोनों प्राचार्य विराजमान हुये तो जनता को यह भ्रांन्ति हाने लगी कि श्री भगवतीजी सूत्र का महोत्सव ] ५६७ vvvuwww Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५७-१७४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यह चन्द्र और सूर्य्य पृथ्वी पर अवतीर्ण हुये है । सूरिवरों की वात्सल्यता का संघ पर अच्छा प्रभाव हुआ दोनों सूविरों ने धर्म देशना दी । तत्पश्चात् परिषदा जयध्वनी के साथ विसर्जन हुई । श्रमण संघ में इतना धर्मस्नेह एवं वात्सल्यता थी कि वे पृथक २ दो गच्छों के होने पर भी, एक ही गुरु के शिष्य हो इस प्रकार से व्यवहार रखते थे । आचार्य कक्कसूरिजी दीक्षा लेने के बाद कोरंटपुर पहली बार ही पधारे थे । श्रीसंघ की इच्छा थी कि आचार्यश्री का चतुर्मास यहां ही हो और साथ में आचार्य नवप्रसूरि का चतुर्मास हो जाय तत्र तो सोना और सुगन्ध सा काम बनजाय । अतः एक दिन श्रीसंघ ने एकत्र हो दोनों सूविरों से चतुर्मास की विनती की जिसको लाभालाभ का कारण समझ कर दोनों सूरियों ने स्वीकार करली। बस फिर तो था ही क्या। कोरंटपुर के घर २ में आनन्द मंगल मनाया जाने लगा | पहले जमाना में चतुर्मास के लिये लम्बी चौड़ी विनतियें एवं मनुहारों की जरुरत नहीं थी साधु अपनी अनुकुलता देख लेता और साथ में लाभालाभ का अनुभव कर लेतें । वस चतुर्मास की स्वीकृति दे ही देते। कारण पहले जमाना में न तो साधुओं के किसी प्रकार का खर्चा रहता था कि किसी धनाड्य की उनको आवश्यकता रहती थी और न वे आडम्बर की ही इच्छा रखते थे वे तो जनकल्याण और शासन की प्रभावना को ही लक्षमें रखते थे । तब ही तो वे जैनधर्म की उन्नति कर पाये थे । आचार्य कक्कसूरिजी ने कुछ समय कोरंटपुर में स्थिरता की। बाद वहां से विहार कर भीन्नमाला, सत्यपुरी, शिवगढ़, पद्मावती, चन्द्रावती आदि क्षेत्रों में विहार करते हुये आबुदाचल की यात्रा की पुनः सेविहार करते हुए कोरंटपुर पधार गये और आचार्य नन्नसूरि के साथ चतुर्मास कोरंटपुर में कर दिया। श्राप युगल सूरीश्वरों के विराजने से धर्म की अच्छी जागृति और कई अपूर्व धर्म कार्य हुये । यह बात तो हम पूर्व लिख आये हैं कि उपकेशगच्छाचायों के लिये यह तो एक नियम सा बनगया था कि सूरिपद प्राप्त होने के पश्चात् कम से कम एक बार तो सब प्रान्तों में विहार कर जनता को धर्मोपदेश दे दिया करते थे तदनुसार आचार्य कक्कसूरिजी महाराज भी मरुधर से लाट, सौराष्ट्र कच्छ, सिंध, पांचालादि प्रान्तों में विहार कर आप मथुरा में पधारे थे । वहाँ हंसावली का शाह जसा अपने पुत्र राजा को साथ लेकर सूरिजी के दर्शन एवं हंसावली पधारने की विनती करने के लिये आये थे और सूरिजी ने उन भावुकों की प्रार्थना को स्वीकार कर विहार करते हुये क्रमश: हंसावली पधारे और वहां चतुर्मास कर शाह जसा के बाल कुमार राणा के संवपतित्व में विराट् संघ के साथ तीथों की यात्रा करते हुये सिद्धगिरी पधारे और वहाँ संघति बालकुमार राणा आदि कई भावुकों को दीक्षा दी । तदान्तर सूरिजी ने विहार कर सोपार पट्टन पधारे वहाँ की जनता को धर्मोपदेश देकर धर्म का प्रभाव बढ़ाया बाद आस पास के उदेश में विहार कर पुनः मरूधर में पधारे। इस समय आपकी अवस्था वृद्ध होगई थी तथापि क्रमश: विहार करते हुए आप कोरंटपुर पधारे वहाँ के श्रीसंघ ने आपका खूब उत्साह पूर्वक स्वागत किया और प्रार्थना पूज्यवर ! श्रापकी वृद्धास्था है अब कृपा कर यहां स्थिरवास कर दीजिये ! सूरिजी ने कहा जहाँ तक विहार होसके साधुओं को विहार करना चाहिये परन्तु शरीर से लाचार हो जाय तब एक स्थान स्थिरवास करना ही पड़ता है जैसी क्षेत्रस्पर्शना होगा वही बनेगा एक समय आचार्य श्री कक्कसूरि अर्द्धनिद्रा में सो रहे थे कि देवी सच्चायका ने श्राकर वंदन किया। सूरिजी ने धर्मलाभ देकर पूछा देवीजी इस समय आपका शुभागमन कैसे हुआ है ? देवी ने कहा कि मैं ५६८ [ युगलाचार्यों का कोरंटपुर में www.jahelibrary.org Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५५७-५७४ एक खास अर्ज करने को आई हूँ, और वह यह है कि अब आपका आयुष्य केवल एक मास का शेष रहा है अतः आप अपने पद पर सूरि बना दीजिये। सूरिजी ने कहा ठीक है देवीजी ! आपने हमारे पूर्वजों को समय २ पर इस प्रकार की सहायता की है और आज मुझे भी सावचेत कर दिया अतः मैं आपका अहसान समझता हूँ और यह उपकेशगच्छ जो उन्नति को प्राप्त हुआ है इसमें भी खास आपकी सहायता का ही विशेष कारण है इत्यादि । इस पर देवी ने कहा पूज्यवर ! इसमें उपकार की क्या बात है ? यह तो मेरा कर्तव्य ही था। पूज्याचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी का मेरे पर कितना उपकार है कि उन्होंने मुझे घातकी पापों से एवं मिथ्यात्व से बचा कर शुद्ध सम्यक्त्व प्रदान किया है । उस महान उपकार को मैं कब भूल सकती हूँ इत्यादि परस्पर बातें हुई । सूरिजी ने कहा देवीजी मैं अपना पट्टाधिकार उपाध्याय विशाल मूर्ति को देना चाहता हूँ। इसमें आपकी क्या राय है ? देवी ने कहा बहुत खुशी की बात है । उपाध्यायजी योग्य पुरुष हैं आपके पद के उत्तरदायित्व को वे बराबर संभाल सकेंगे इत्यादि देवी अपनी सम्मति देकर अदृश्य होगई । प्रभात होते ही आचार्य कक्कसूरिजी ने अपने विचार उपस्थित संघ अप्रेश्वरों को बुलाकर कहा कि मैंने अपना पट्टाधिकार उपाध्याय विशालमूर्ति को देने का निश्चय कर लिया है और वह भी बहुत जल्दी । संघ अप्रेश्वरों ने कहा पूज्यवर ! आप अपना पदाधिकार उपाध्यायजी को देना चाहते हो यह तो बहुत खुशी की बात है और हमारा अहोभाग्य भी है कि इस प्रकार का कार्य हमारे नगर में हो पर इस कार्य को जल्दी से करने को फरमाते हो इससे हमारे दिल को घबराहट होती है । पूज्यवर ! आप शासन के स्तम्भ हैं चिरकाल विराज कर हम भूले भटके प्राणियों को सद् रास्ते पर लाकर कल्याण करो। सूरिजी महाराज ने फरमाया कि अब मेरा आयुष्य शेष एक मास का रहा है। अतः मैं अपना पदाधिकार देकर अनशन व्रत करूंगा। अतः आपको इस कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिये । सूरिजी के शब्द सुनकर सब लोग निराश होगये फिर भी उन्होंने आचार्य पद के लिये जो करना था वह सब प्रबन्ध कर लिया और आचार्य श्री ने चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष उपाध्याय विशालमूर्ति को अपने पद पर स्थापन कर उनका नाम देवगुप्त सूरि रख दिया । बस, उस दिन से ही आपश्री ने धवलगिरी की शीतल छाया में अनशन व्रत धारण कर लिया और अन्तिम आराधना में लग गये। बस, २१ दिन के अनशन एवं समाधि के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया। सूरिजी का स्वर्गवास होने से श्रीसंघ को बड़ा भारी आघात पहुँचा पर काल के सामने किसकी चल सकती है ? उन्होंने निरुत्साही होकर निर्वाण क्रिया की। आचार्य देवगुप्त सूरि ने साधु समुदाय को धैर्य दिला कर कहा कि सूरीजी का विरह हमको भी असह्य है पर इसका उपाय भी नहीं है । सूरिजी ने अपने जीवन में जैनधर्म की खूब सेवा की । देशाटन कर अनेक शुभ कार्य किये इत्यादि उन पूज्य पुरुषों का अपने को अनुकरण करना चाहिये । पट्टावलियों, वंशावलियों आदि प्रन्थों में आचार्य कक्कसूरिजी ने अपने १७ वर्ष के शासन में प्रत्येक प्रान्तों में विहार कर जैन धर्म की अपूर्व सेवा की एवं अनेक भावुकों को उपदेश देकर उनको कल्याण मार्ग पर लाये जिसको थोड़ा नमूना के तौर पर यहाँ उल्लेख कर दिया जाता है । सूरिजी का अंतिम संदेश ] ५६९ Jain Education Interional Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५७-१७४ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्राचार्य कक्कसूरि के कर कमलों से दीक्षाएँ हुई १-कोरंटपुर के दो ब्राह्मण तथा कई श्रावकों ने सूरिजी के पास दीक्षाली २-विजयपुर के करणाटगौत्रिय पेमाने ३-हस्तीपुर के भूरि गोत्रीय नारा ने ४-उपकेशपुर के नागवंशीय वीरा ने ५- बलापुर के अदित्यनागगोत्रिय सलखण ने ६-माडव्यपुर के अदित्य नागगौत्रीय भैरादि ने ७- वर्धमानपुर के तप्तभदृगौत्रीय कल्हण ने ८-करणावती के श्रेष्टिगौत्रिय रघुवीर ने ९-हंसावली के संघपति राणा ने १०- सोपार के क्षत्रीवंशीय काबादि ११-देवपुर के सुघड़ गोत्रिय राहुप ने १२ - भद्दलपुर के सुचंत गौत्रिय पेयादि ने १३-रूणीपाली के चारणगौत्रिय मूलादि १५-वीरपुर के कुलभद्र गोत्रिय पोथा ने १५-बावला के भाद्रगोत्रिय हरदेव ने १६-डमरेल के बलाह गौत्रिय रामा ने १७-शिवनगर के क्षत्रीवंशीय दहड़ ने १८-राजपाली के लघुश्रेष्टि देल्हा ने । १९-- भोजपुर के चिंचट गोत्रिय नारद ने ६०-लोहाकोट के कुंमदगोत्रिय शिवा ने २१-सालीपुर के श्रेष्टिगौत्रिय सुरजण ने २२-मथुरा के सुखागौत्रिय जिनदास ने २३-नंदपुर के भाद्रगोत्रिय नारायण ने २४-उजैन के पापनागगोत्रिय जगमाल ने २५ ---विराट के ब्राह्मण पुरुषोत्तम ने २६-चित्रकुट के विरहट गौत्रीय घरण ने इनके अलावा पुरुष और बहुत सी बेहनों ने भी वैराग्य प्राप्त हो सूरिजी के हस्ताविन्द से जैन दीक्षा लेकर स्वपर का कल्याण किया है पर ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से मैंने वंशावलियों के आधार पर केवल नमूना के तौर पर वहां नामोल्लेख कर दिया है कई एकों की दीक्षा का उल्लेख आचार्य श्री के जीवन में लिखा गया है । उस समय एक तो जैन जनता की संख्या करोड़ की थी दूसरे जैन जनता भारत के चारों ओर प्रसरी हूई थी तीसरा मुख्य कारण उस जमाना के जीव हलुकमी थे कि थोड़ा उपदेश से ही वे संसार [ सरिजी के कर कमलों से दीक्षाएँ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५५७-५७४ का त्याग कर दीक्षा लेने के लिये तैयार हो जाते थे जब ही तो एक एक प्राचार्य सैकड़ों साधुओं के साथ बिहार करते थे और साधुओं की संख्या अधिक होने से ही वे प्रत्येक प्रान्त में विहार कर जैन धर्म का प्रचार किया करते थे यों तो उपकेशगच्छाचार्य और उन्हों के साधु सब प्रान्तों में विहार करते थे पर मरुधर लाट सौराष्ट्र कोकण कच्छ सिन्ध पंचाल सूरसेन श्रावन्ती और मेदपाट इन प्रदेशों में तो आपका विशेष विहार होता था और वहां के निवासी यह भी जानते थे कि हम लोगों पर उपकेशगच्छाचार्यों का महान उपकार हुआ है कारण वहां के निवासियों को सबसे पहले उपकेशगच्छाचार्यों ने ही मांस मदिरादि कुव्यसन छुड़ा कर जैन धर्म में दीक्षित किये थे। यही कारण है कि उस समय उपकेश गच्छ में पांच हजार से भी अधिक साधु साध्वियों थे और वे प्रत्येक प्रान्त में विहार करते थे । श्राचार्य कक्कसूरि के कर कमलों से मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ श्राचार्य श्री अच्छी तरह जानते थे कि जहां थोड़े बहुत श्रावक बसते हों वहां पर उनके आत्मकल्याण के लिये जैन मन्दिर की परमावश्यकता है दूसरा उपकेशवंश के बहुत लोग प्राय: व्यापारी थे जहां उनकों व्यापार की सुविधा रहती थी वे वहाँ जाकर अपना निवास स्थान बना लेते थे यही कारण है कि मरूधर मैं पैदा हुआ महाजन संघ पांच छ शताब्दियों में तो वह बहुत दूर दूर प्रदेश में प्रसर गया इतना ही क्यों पर पिछले आचार्यों ने उस शुद्धि की मशीन को इतनी द्रुतगति से चलाई की जहां लाखों की संख्या थी वहाँ करोड़ों तक पहुँच गई और उनकी संख्या के प्रमाण में हजारों मन्दिर और लाखों मूर्तियों भी बन गई उस जमाना में हरेक जैन एक दो मन्दिर बनाना तो अपना जीवन का ध्येय ही समझता था उनके अन्दर से कतिपय नाम नमूना के तौर पर वहां उद्धृत कर दिये जाते हैं। १-पाकोड़ा के राव लाखण के बनाया पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई २-हणवंतपुर के सुचंति गोत्रीय शाह निंबा के बनाया महावीर मन्दिर की प्र० क० ३-क्षत्रीपुर के आदित्य नाग० शाह देदा के , महावीर ,, , ४-हर्षपुर के श्रेष्टि गोत्रीय , नाथो के , पार्श्वनाथ ,, , ५-करणोड के श्रेष्टि गोत्रीय ,, सालग के , शान्तिनाथ,, ६-भवानी के बाप्पनाग , कर्मा के , विमलनाथ ,, ७-करीट्कूप के भाद्र गौत्रीय , करणो के , आदीश्वर ,, , ८-सत्यपुर के राव (राजा) , संगण के , महावीर , , ९-पल्हापुरी के करणाट गौ० ., सोमो के , महावीर , , १०-- वाकाणी के भूरि गौ० , देवो के , महावीर ,, , ११-डाबला के मोरख गौ० शाह कानो के बनाया महावीर मन्दिर की प्र. १२- नरवर के श्रीश्रीमाल , दुर्जण के , पार्श्वनाथ , " " १३-बल्लभी के डिडूगौ० , चन्द्रसेन के , नेमिनाथ ,, , , १४-सोपार के लघु अष्टि , माना के , शान्तिनाथ ,, , १५-स्तम्भनपुर मोरख० , धर्मशी के , महावीर , " मूरिजी के कर कमलों से प्रतिष्ठाएँ ] For Private & Personal use Only ५७१ Jain Ede Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५७-१७४ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १६-चक्रावती के श्रेष्टि गो. , बेरीशाल के , आदीश्वर ,, १७-खोखर के आदित्यनाग , नरशी के , बासपूज्य , , , १८- खीणोदी के बाप्पनाग , खतेणी के , आदीश्वर ,, २९-जीवा प्राम के बाप्पनाग , चापा के , पार्श्वनाथ ,, २०-डाबरेलनगर बलाहा शाह समरा के बनाया पार्श्वनाथ ,, , २१- मथुरा के तप्तभट गौ०, पाशधर के , महावीर , , , २२-भादावर के श्रादित्य , जैतसी के , , , , , २३-परखल के चरड गोत्र ,, पुन्यपाल के , शान्तिनाथ ,, , , २४-सहाना के लुंग गोत्रीय शाह गुणराज के बनाया मुनि सुब्रत मन्दिर की प्र० करवाई २५-संखपुर के श्रेष्टि गोत्र , मुकन के , सुमतिनाथ , , , २६-आघाट के आदित्याग० मंत्री जसवीर के , शान्तिनाथ , " २७-श्रासिका के बलाहा. नाना के , महावीर " , " २८-विगह के डिडु गौ० रूपा। ३९- उपकेशपुर के कनौजिया गौ० कल्हण के , , , , ३०-आचार्य कक्कसूरि एक समय कोरंटपुर में विराजते थे वहां का मंत्री नोहड को उपदेश दिया और उसका विचार एक जैनमंदिर बनवाने का हुश्रा परन्तु उस समय वह सत्युपुरी ( साचौर ) के मंत्री पद पर था उसकी इच्छा हुई कि वहां कोरंटपुर में तो बहुत मंदिर हैं यदि सत्यपुरी में मन्दिर बनाया जाय तो अधिक लाभ का कारण होगा आचार्य श्री से अर्ज की कि मेरा विचार है कि मैं सत्यपुरी में चरम तीर्थ र शासनाधीश भगवान महावीर का मंदिर बनाऊ ? सूरिजी ने कहा, बहुत अच्छी बात है जहां अावश्यकता हो वहां मंदिर बनाने में विशेष लाभ है। मंत्रीश्वर ने सत्यपुरी में आलीशान मंदिर बनवा कर भगवान महावीर की मूर्ति की अञ्चनसिलाका एवं प्रतिष्ठा आचार्य कक्कसूरि के कर कमलों से बड़े ही उत्साह से करवाई । कई कई पट्टावलियों में प्रतिष्ठाकार आचार्य का नाम जज्जगसूरि लिखा मिलता है पर यह नाम कर सूरि का ही अपर नाम और यह कक्कसूरि कोरंटगच्छ के आचार्य थे मंत्री नाहड़ जाति का श्रीमाल और कोरंटगच्छोपासक श्रावक था । इस मंदिर का उल्लेख जगचिन्तामणि के चैत्यवन्दन में भी आता है "जयउ वीर साचउरीमण्डणं" ३१-- पट्टावली में कथा एक लिखी है कि उपकेशपुर में अदित्यनाग गौत्रीय सोभा नाम का श्रेष्टि रहता था उसकी माता को स्वप्न आया कि अब तेरा आयुष्य एक मास का है अतः तू श्री शत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर तेरा शरीर वहां तीर्थ पर छूटेगा इत्यादि । माता सुबह अपना पुत्र सोमा को सब हाल कहा सोमा ने कहा माता स्वप्न तो जंजाल है और कई प्रकार से स्वप्न आया करता है पर माता ने कहा कि नहीं बेटा मैं तो शत्रुनय जाऊंगी और इस शरीर को वहीं पर छोडूगी माता का आग्रह देख सोमा ने कहा यदि आपको शत्रुजय ही जाना है तो कुछ रोज ठहर जाओ मैं शत्रुजय का संघ निकालूगा अतः आप शत्रु जय की यात्रा संघ के साथ करना पर माता तो जानती थी कि मेरा आयुः एक मास का ही है फिर कब संघ निकले और कब मैं शत्रुजय जाऊ अतः बेटा से कहा कि मेरा जन्म सुधारना चाहता है तो मुझे ५७२ [ मंत्री नाहड़ के मन्दिर की प्रतिष्ठा Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५५७-५७४ nama कल ही रवाना करदे - बस सोमा ने अपना पुत्र धवल और पाठ आदमियों को देकर माता को रवाना करदी। माता रथ पर बैठ गई और चलती चलती परमा ग्राम में पहुँची वहां एक मन्दिर था पर समय बहुत हो जाने से पट्ट मंगल हो गया था माता के दर्शन का नियम था पुजारी के पास गई तो उसने कहा के मैं अभी आ नहीं सकता हूँ आपके ऐसे ही दर्शन करना हो तो अपना नया मंदिर बनाले इस ताना के मारी माता ने उस दिन उपवास कर लिया और चतुर कारीगरों को बुलवा कर नया मंदिर की नींव डलवा ही माता ने कुछ रकम तो वहां के संघ अग्रेश्वरों को दे दी और कह दिया कि शेष रकम हमारे पुत्र सोमा से मंगवा लेना सोमा बड़ा व्यापारी था जिसको सब लोग जानते थे माता वहां से २९ वें दिन सिद्धगिरी पर पहुंची और भगवान आदीश्वर की यात्रा कर अनशन कर दिया दूसरे दिन माता का स्वर्गवास हो गया उसी दिन सोमाशाह वगैरह कई लोग शत्रुजय आ गये पर सोमा के माता का मिलाप नहीं हुआ सोमा ने विचार किया कि यदि मैं माता को नहीं भेजता तो बड़ा भारी पश्चाताप करना पड़ता मैं हतभाग्य है कि माता की अन्तिम सेवा नहीं कर सका फिर भी माता के मनोरथ सफल हो गया-सोमा ने अपनी माता की मृत्यु क्रिया करके वापस लौटता हुआ परमा ग्राम में आया और माता के प्रारम्भ किया मंदिर को सम्पूर्ण करवा कर उसकी प्रतिष्ठा आचार्य ककसूरि के हाथों से करवाई । इस प्रकार सूरिजी ने अपने हाथों से अनेक मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैन धर्म को चिरस्थायी बना दिया था। ____ आचार्य श्री के समय केवल धर्म प्रचार की ही आवश्यकता नहीं थी परन्तु उस समय कई वादियों का भी जैन धर्म पर आक्रमण हुआ करते थे अतः उन्हों के सामने भी हर समय कटिबद रहना पड़ता था कई राजा महाराजाओं की सभाओं में जाकर शास्त्रार्थ द्वारावादियों को पराजय कर जैन धर्म की विजयपताका फहराया करते थे। सूरिजी के आज्ञावृति बहुत से साधु ऐसे थे कि उन्हों का तो यह एक कार्य ही बन चुका था कि वे बादियों के साथ शास्त्रार्थ कर स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रचार किया करें। आचार्य कक्कसूरिजी ने पुनीत तीर्थ श्रीशत्रुजय गिरनार एवं सम्मेत शिखरादि तीर्थों की यात्रा निमित्त बड़े-बड़े संघ निकला कर हजारों लाखों भावुकों को तीर्थ यात्रा का लाभ पहुँचाया पट्टावलीकारों आपश्री के जीवन में संघों का भी विस्तार से वर्णन किया है परन्तु ग्रंथ बढ़ जाने के भय से यहां पर इतना ही कहदेना पर्याप्त होगा कि श्रद्धा सम्पन्न भावुकों ने तीर्थयात्रार्थ लाखों करोड़ों द्रव्य ध्यय कर कल्या. णकारी शुभ कर्मोपार्जन किया। आचार्य कक्कसूरि ने अपने जीवन में जैन शासन की महान् सेवा की है। जिसको न तो जबान द्वारा वर्णन किया जा सकता है और न लोहा की तुच्छ लेखनी द्वारा लिखा ही जा सकता है ऐसे जैनधर्म के प्रभाविक पुरुषों के चरण कमलों में कोटि कोटि वन्दन हो। पट्ट अठारहवे ककसूरीश्वर अदित्य नाग उज्जारे थे । सहस्रों साधु रू साध्वियों जैसे चन्द्र विच तारे थे। बादी मानी और पाखंडी देख दूर भग जाते थे । सुरनर पति जिनके चरणों में झुकझुक शीश नमाते थे। इति भगवान् पार्श्वनाथ के अठारहवे पट्टधर ककसूरि महान प्रभाविक प्राचार्य हुए वादियों को आक्रमण के सामने ] For Private & Personal use Only ५७३ www.jainal was org Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १६-प्राचार्य देव गुप्तसूरि (तृतीय) आचार्यस्तु स देवगुप्त पद भागादित्य नागान्वये, आदित्येन समः सुदीप्त तपसा स्वीयप्रभा धारया । नित्यं वादि विवाद वात शमने लब्धप्रसिद्धस्तु यः, भारत्या अवतार रूप धरणो धर्मध्वजोद्धारकः । HT चार्य देवगुप्तसूरीश्वरजी महाराज जैन संसार में देव की तरह परमपूजनीय हुये हैं आपक पा अवतार जगत के जीवों के उपकार के लिये ही हुआ था । आपका जन्म मरुधर के नागपुर Ne, नगर के धनकुबेर आदित्यनाग गोत्रिय शाह भैरा की पत्नी नन्दा की पवित्र कुक्ष से हुआ था । जब आप गर्भ में थे तब माता नन्दा को धन कुबेर देवता ने साक्षात्दर्शन दिये थे। तत्पश्चात् पुत्र का जन्म हुआ तो कइ महोत्सवों के साथ नवजात पुत्र का नाम धनदेव रख गया था । धनदेव के माता पिता सदाचारी एवं धर्मज्ञ थे अतः उनका प्रभाव धनदेव पर भी हुआ करता था । धनदेव के बच्चापना से ही धार्मिक संस्कार सुदृढ़ जम गये थे । आपकी बालक्रीड़ा अनुकरणीय थी तथा विद्याध्ययन में तो श्राप अपने सहपाठियों से सदैव अप्रेश्वर ही रहते थे। जब धनदेव ने युवक अवस्था मे पदार्पण किया तो समान धर्मवाली श्रेष्ठि कन्या के साथ विवाह कर दिया । श्राप देवताओं की भांति सुख में कालनिर्गमन कर रहे थे। आचार्य यक्ष देवसूरि का पधारना नागपुर में हुआ । आप श्री का व्याख्यान हमेशा हुआ करता था । एक दिन सूरिजी ने व्याख्यान में फरमाया कि संसार रूप समुद्र को तरने के लिये चार प्रकार के जीव हैं। १-डोका समान-डोका ज्वार बाजरी मकाई का डोका जिसको जल में डालने पर वह अकेला ही तर सकता है परन्तु दूसरे को नहीं तारता है । इसी भांति एक एक मनुष्य ऐसे भी होते हैं कि वे स्वयं तर सकें परन्तु दूसरे को नहीं तार सकें जैसे जिनकल्पी साधु २-तुंबा समान-तुम्बा को जल में डालने से एक तुंब और एक दूसरा जो तुंबा का आलम्बन करने वाला एवं तुम्बा एक जीव को तार सकता है जैसे प्रतिमधारी साधु एक शिष्यकों दीक्षा देकर श्राप एकान्त जाकर ध्यान में लग जाते हैं ३-काष्ठ की नौका के समान-काष्ठ की नौका श्राप तरती है और दूसरे अनेक जीवों को तार सकती है जैसे स्थविर कल्पी साधु आप तरते हैं और उपदेश देकर अनेकों को तारते हैं। ४-पत्थर की नौका के समान पत्थर की नौका श्राप डूबती है और उस पर चढ़ने वालों को भी डुबा देती हैं जैसे मिध्यात्वी, पाखण्डी, उत्सूत्र प्ररूपक आदि आप स्वयं डूबते हैं और अनेकों को डुबा देते हैं । A यही बात गृहस्थों के लिये समझ लीजिये । एक ऐसा साधारण गृहस्थ होता है कि वह एकान्त में रहकर अपना कल्याण कर लेता है पर साधन के अभाव दूसरे का काल्याण करने में असमर्थ है ___B दूसरा एक अपना और एक दूसरे का कल्याण कर सकें। कारण उनके पास साधन इतना ही है C तीसरा आप तो तरता ही है और अनेक भावुकों को भी तारने में निमित्त कारण बन जाता है ५७४ [संसार तरने की चौभंगी--- any or Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७४-५७७ जैसे एक सत्ताधीश धर्मात्मा राजा एवं धनाड्य सेठसाहुकार चाहे तो अपने कल्याणके साथ अनेकोंका कल्याण कर सकते हैं शास्त्रों में कहा है कि जैनकुल में जन्म लिया है तो उनको साधनके होते हुये कमसे कम तीन कार्य अवश्य करने चाहिये १-अपने न्याय से उपार्जन किये द्रव्यसे जिनमन्दिर बनाकर परमेश्वर की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाना इससे अपना तो कल्याण है ही पर दूसरे अनेक जीवों का कल्याण हो सकता है जैसे श्रावश्यकसूत्र में आचार्य भद्रबाहु ने मन्दिर बनाने के लिये कुँवा का दृष्टान्त दिया है कि कुवा बनाने में बहुत कठिनाइयां सहन करनी पड़ती हैं । मिट्टी कर्दम का लेप शरीर पर लगजाता है पर जब कुँवा के अन्दर से पानी निकलता है तब उसी पानी से मिट्टी कर्दम वगैरह सब धुल जाता है । और वह कुँवा रहेगा तब तक उसका शीतल जल पीकर अनेक आत्मा अपनी तप्त तृषा मिटा कर शान्ति को प्राप्त हो । प बनाने वाले को आशीवर्वाद देंगे इत्यादि । इसी प्रकार मन्दिर बनाने में मिट्टी जल पत्थरादि का उपयोग करना पड़ता है और देखने में द्रव्य प्रारंभ भी दीखता है पर जब मन्दिर तैयार हो उसकी प्रतिष्ठा होकर परमात्मा की मूर्ति स्थापित हो जाती है उसकी भावना से वह द्रव्यारम्भ रूपी लेप स्वयं नष्ट होजाता है और जहाँ तक वह मन्दिर बना रहेगा अनेक भव्यात्मायें परमेश्वर की सेवा भक्ति पूजा भावना कर अपना कल्याण करेंगी और मन्दिर बनाने वालों के शुभ कार्य का अनुमोदन करते रहेंगे अतः गृहस्थों के लिये साधनों के होते हुये पहला यह कार्य करना उसका खास कर्त्तव्य है महानिशीथ सूत्र में मन्दिर बनाने वाला श्रावक की गति बारहवां स्वर्ग की बतलाई है । २-दूसरा तीर्थों की यात्रा के लिये श्रीसंघ को अपने मकान पर बुलाकर अपने हाथों से उनके तिलक कर संघ निकाल कर संघ को तीर्थयात्रा करवानी चाहिये । जैनधर्म में संघपति पद का महत्व कम नहीं है जोकि श्रीसंघ को तीर्थकर भी नमस्कार करते हैं । अतः साधन एवं सामग्री हो तो जीवन में एक बार संघ अवश्य निकाले। ३-तीसरे महाप्रभाविक श्री भगवती आदि सूत्र का अपनी ओर से महोत्सव कर गुरुमहाराज के कर कमलों में अर्पण कर श्रीसंघ को तीर्थङ्करों के वचन सुनाना । इस प्रकार बन सके तो तीनों कार्य करे । बाद में दीक्षा लेकर चारित्र की आराधना करनी चाहिये इत्यादि विस्तार से व्याख्यान सुनाया। D-चतुर्थ मनुष्य के लिए पहले बतला दिया है कि वह अप डूबता है और अनेकों को डुबाता है इत्यादि । ___ उस व्याख्यान में शाह भैरा भी था सूरिजी का उपदेश ध्यान लगा कर सुना और अपने दिल में निश्चय कर लिया कि आज मेरे पास सब साधन तैयार हैं कि मैं सूरिजी के बतलाये तीनों कार्य कर सकता हूँ । बस फिर तो देरी ही क्या थी सूरिजी की सम्मति लेकर चतुर कारीगरों को बुलवा कर मन्दिर का कार्य प्रारम्भ कर दिया जिसकी देख रेख के लिये अपने पुत्र धनदेव को मुकर्रर कर दिया। शाह भैरा ने सोचा कि यदि गुरु महाराज का चतुर्मास यहाँ हो जाय तो श्रीभगवतीसूत्र का महोत्सव कर के दूसरा कार्य भी कर लू बाद चतुर्मास के तीर्थो की यात्रार्थ संघ भी निकाल दूं इतने में मन्दिर तैयार हो जाय तो इसकी प्रतिष्ठा भी करवा दूं। अतः एक वर्ष में तीनों कार्य बन जाय तो सूरिजी की आज्ञा का पालन हो सकता है। सूरिजी को चतुर्मास के लिये श्रीसंघ ने बहुत आग्रह पूर्वक विनती की थी तथा शाह भैरा ने अपने भाव प्रदर्शित करते हुये कहा कि पूज्यवर ! आपके विराजने से हमारे सब मनोरथ सिद्ध होजायेंगे। अतः कृपा कर चतुर्मास की स्वीकृति शीघ्र दे दीरावें । महात्माओं का तो जीवन ही परोपकार के लिये होता है। सूरिजी महाराज ने लाभालाभ का विचार कर चतुर्मास नागपुर में करने की मन्जूरी फरमादी । बस, नागपुर के श्रीसंघ में खूब ही हर्ष आनन्द एवं उत्साह फैल गया। शाह भैरा ने श्री भगवती सूत्र का आदेश लेकर बड़ा भारी महोत्सव किया और रात्रि जागरण पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्यादि किया और हीरा शाह भैरा को मूरिजी का उपदेश ] ५७५ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४-१७७ वर्ष । [ भगवानपार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पन्ना मुक्ताफलादि से ज्ञान पूजा की तथा प्रत्येक प्रश्न की सुवर्ण मुद्रिकाओं से पूजा को। केवल शाह भेरा ही नहीं पर श्री संघ भी ऐसा सुअवसर हाथों से कब जाने देने वाले । बहुत से लोग श्रीभगवतीजी सूत्र की पूजा भक्ति करते हुये वीतराग वाणी का श्रवण कर अपनी आत्मा का कल्याण करने लगे। इधर धनदेव की देख रेख में मन्दिरजी का काम चल रहा था । और धनदेव वस्तु शास्त्र एवं शिल्पकला का अध्ययन कर बड़ी दिलचस्पी से अपनी जुम्मेदारी का कार्य सम्पादन कर रहा था जब शाह भैरा के दोनों कार्य इच्छानुसार हो रहे थे तो अब तीसरे कार्य के लिये सूरिजी के पास आकर प्रार्थना की कि प्रभो ! आपकी अनुग्रह से मेरे जीवन के ध्येय रूप दो कार्य तो हो रहे हैं पर तीसरे कार्य के लिये मुझे क्या करना चाहिये ? सूरिजी ने कहा भैरा तू बड़ा ही भाग्यशाली है । दो कार्य कर लिये तो तीसरे के लिये ऐसी कौन सी बड़ी बात है । पर पहले यह निश्चय करले कि तुमको संघ शत्रुजयादि दक्षिण के तीर्थों का निकालना है । या सम्मेतशिखरादि पूर्व के तीर्थों का ? भैरा ने सूरिजी के अभिप्राय को जानलिया और कहा पूज्यवर ! शत्रुजय तीर्थ नजदीक है और रास्ते में भी सर्व प्रकार की सुविधायें हैं अतः यह कार्य धनदेव के लिये रहने दूं और मैं सम्मेतशिखरजी का ही संघ निकालू ऐसी मेरी इच्छा है फिर आप हुक्म फरमावे वही शिरोधार्य करने को मैं तैयार हूँ। सूरिजी महाराज ने फरमाया कि ठीक है सम्मेतशिखरजी की यात्रा करने में कठिनाइयें अवश्य हैं द्रव्य भी अधिक व्यय करना होगा पर लाभ भी तो अधिक है। कारण साधारण लोगों के शत्रुजय की यात्रा की अपेक्षा शिखरजी की यात्रा बड़ी कठिनता से होती है अतः तुम तो सम्मेत शिखरजी की यात्रा का ही विचार रक्खो। बस, फिर तो क्या देरी थी शाह भैरा ने श्री संघ को एकत्र कर आज्ञा मांगी और श्रीसंघ ने आदेश देते हुये कहा शाह भैरा ! तू भाग्यशाली है आदित्यनाग कुल में जन्म लिया ही प्रमाण है । भैरा ने कहा कि यह सब पूज्याचार्य देव और श्रीसंघ की कृपा का ही सुमधुर फल है और यह कार्य मैंने श्रीसंघ की मदद पर ही उठाया है । श्रीसंघ अपना कार्य समझ के इसको पूर्ण करावे । श्रीसंघ ने कहा कि इसमें कहने की जरूरत ही क्या है श्रीसंघ सब तरह की मदद के लिये तैयार है । यों तो शाह भैरा बड़ा भारी व्यापारी था विशाल कुटुम्ब का मालिक था गज काज में एवं हजारों के साथ सम्बन्ध रखने वाला था। बहुत से राजा और जागीरदारों को करज देने वाला बोहरा था। उसके हुक्म मात्र से ही सब काम होता था । फिर भी शाह भैरा ने इस संघ का काम के लिये सब कार्य अलग २ विभागों में बांट कर अलग २ कमेटियें बनाकर उनके सुपुर्द कर दिया। शाह भैरा सूरि जी महाराज की सेवा भक्ति करता हुआ श्रीभगवतीसूत्र सुन रहा था और सब काम सिलसिलेवार हो ही रहा था। सादी गर्मी के सब साधनों का संग्रह कर लिया था । प्रत्येक प्रान्त एवं ग्राम नगरों में आमंत्रण भेज दिये थे। मामला दूर का होने के कारण चतुर्मास उतरते ही मार्गशीर्ष शुकु पँचमी को आचार्य श्री की अध्यक्षता एवं शाह भैरा के संघपतित्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया। पट्टावलीकार ने इस संघ का विस्तृत रूप में वर्णन किया है। पांच हजार साधु साध्वी और एक लक्ष नरनारियों तथा पांच हजार सिपाही राजाओं की ओर से पहरायत के तौर पर साथ में थे। सोना चाँदी चन्दनादि के १८४ देरासर संघ के साथ में थे । इसले अनुमान लगाया जा सकता है कि उस जमाने में जैन समाज की धम एवं तीर्थों पर कितनी श्रद्धा थी। सम्मेत शिखर जी के संघ में छरी पाली यात्रा करके आने में कम से कम ६-छः मास जितना समय ५७६ [ शाह भैरा के तीन कार्य Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७४-५७७ तो लग ही जाता था। उस जमाने के लाखों करोड़ों रुपयों के व्यापार करने वालों को कितना संतोष था कि छ सात और आठ आठ मास तक घर के सब काम छोड़ देना वह भी एक दो मनुष्य नहीं पर सब घर के लोग । कराण ऐसे पुन्य कार्य में पीछे कौन रहे। जिस नौकर गुमास्ता और पढ़ीसियों पर धनमाल और घर छोड़ जाते उन लोगों का कितना विश्वास था । इन सब बातों को देखते हुये यही कहना पड़ता है कि वह जमाना सत्य का था, संतोष का था नीति का था, विश्वास का था और धर्म का था उस जमाने के जीव कितने हलुकर्मी थे कि इतने बड़े लक्ष्मीपात्र होने पर भी अपना जीवन सदा और सरल रखते थे। जैनाचार्यो का थोड़ा सा उपदेश होने पर धर्म के लिये अपना सर्वस्व अर्पण करने को आगे पीछे का कुछ भी विचार नहीं करते थे । बस,इन पुन्य कार्यों से हो उनके पुन्य हमेशा बढ़ते रहते थे। श्रीसंघ आनंद मंगल के साथ रास्ते में नये २ मंदिरों के दर्शन तीर्थों की यात्रा जीर्णोद्धार अष्टान्हिका महोत्सव ध्वजारोहण, पूजा प्रभावना, स्वामिवात्सल्य साधर्मियों की सहायता और दीन दुखियों का उद्धार करतासम्मेतशिखरजी पर पहुंचा तीर्थ के दर्शन स्पर्शन कर सब का दिल प्रसन्न हुआ। सब लोगों ने सेवा पूजा भक्ति आदि का यथाशक्ति लाभ लिया और वीस तीर्थङ्करों की निर्वाण भूमि की यात्रा एवं अष्टान्हिका महोत्सव ध्वजमहोत्सव वगैरह अनेकों शुभ कार्यों से लाभ उठाया । इस प्रकार पूर्व की सब यात्रायें की। तत्पश्चात वहाँ विहार करने वाले साधु पूर्व में रहे शेष तीर्थयात्रा करते हुये संघ के साथ पुनः नागपुर आये। आचार्य यक्षदेवसूरि ने वह चतुर्मास मेदनीपुर में किया बाद चतुर्मास के पुनः नागपुर पधारे । इतने में शाह भैग का प्रारम्भ किया जिनालय भी तैयार होगया। शाह भैरा ने सूरिजी से मन्दिर की प्रतिष्ठा के लिये प्रार्थना की पर सूरिजी ने कहा भैग ! तेरे तीन काम तो सफल होगये पर एक कार्य शेष रह गया है । शाह भैरा ने कहा पूज्यवर ! वह भी फरमा दीजिये कि बन सके तो साथ में ही कर लिया जाय । सूरिजी ने कहा भैरा ! ये तीन कार्य तो द्रव्य द्वारा करने के थे तुमने कर डाले पर चतुर्थ कार्य तो श्रात्मभाव का है और आत्मा से ही हो सकता है और इसमें द्रव्य की अपेक्षा आत्म त्याग वैराग्य की आवश्यकता है। भैरा ने कहा पूज्यवर ! मेरे से बन गया तो मैं अधूरा न रख चारों कार्य पूरा कर देगा । सूरिजी ने कहा कि चतुर्थ कार्य्य दीक्षा लेने का है शाह भैरा ने क्षणमात्र विचार करके कहा पूज्यदयालु ! इसमें कौनसी बड़ी बात है आपजैसे हजारों साधु साध्वियों ने दीक्षा ली है तो मैं इतने से काम के लिये अधूर क्यिों रक्खू । चलों दीक्षा लेने को भी मैं तैयार हूँ | सूरिजी ने कहा 'जहासुखम' शाह भैरा ने घर पर जाकर धनदेव और उसकी माता को कहा कि पूज्याचार्य देव दीक्षा के लिये कहते हैं और मैंने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया है । सेठानी ने कहा क्या प्राचार्य महाराज के कहने से ही श्राप दीक्षा लेने को तैयार हुये हैं ? हाँ, प्राचार्य महाराज ने कहा कि तीन कार्य कर लिये तो अब एक काम शेष क्यों रखते हो ? तो फिर मैं एक काम को बाकी क्यों रक्खू , पूरा ही करलू सेठानी ने कहा आप दीक्षा लेते हो तो मैं घर में रह कर क्या करूँ ? चलो आपके साथ मैं भी तैयार हूँ । धनदेव ने कहा कि फिर मैं ही अकेला घर में रह कर क्या करूंगा ? मैं भी आपके साथ दीक्षा लूगा । सेठानी ने कहा बेटा ! हम दोनों को दीक्षा लेने दे और तू घर पर रह क्योंकि अभी घर सँभालनेवाला तेरे कोई पुत्र नहीं है। धनदेव ने कहा कि माता यदि तू घर में रहे तो मैं भी रहूँगा नहीं तो मैं घर में रह कर क्या करूं । अतः माता ने पुत्र के स्नेह भाव से घर में रहना मंजूर कर नागपुर से शिखरजी का संघ ] Jain Education Internal Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४–१७७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लिया और शाह भैरा ने मंदिर की प्रतिष्ठा के साथ ही सूरिजी महाराज के पास दीक्षा ले ली जिसका महोरसव धनदेव ने बड़े ही समारोह से किया। धनदेव का दिल तो संसार से विरक्त हो गया था पर केवल माता के स्नेह से उसने घर में रहना मंजूर किया था और माता का भाव अपने पतिदेव के साथ दीक्षा लेने का था परन्तु घर सँभालने वाला कोई पौत्र होजाय तो फिर दीक्षा लंगी इस आशा से मां बेटा दीक्षा का भाव होने पर भी भोगावली कर्म क्षय करने को संसार में रह गये । 'श्रेयांसि बहु विघ्नानि' इस अटल सिद्धान्त को कौन मिटा सकता है । धनदेव के संसार में रहते हुये के क्रमशः चार पुत्र हुये पर इससे लक्ष्मी देवी रुष्ट होकर धनदेव से किनारा लेलिया। यहाँ तक कि धनदेव के पिता ने करोड़ों की सम्पत्ति छोड़कर दीक्षा ली थी आज धनदेव को शाम सुवह भोजन का पता नहीं है । जब मनुष्य के अशुभ कर्मोदय होता है तब शरीर पर के कपड़े भी खाने लग जाते हैं । धनदेव जैनधर्म के कर्म सिद्धान्त का जानकार अच्छा ज्ञानी था तथापि कभी २ अर्तध्यान इस प्रकार घेर लेता था जिससे वह मन ही मन में पश्चाताप करने लग जाता था कि धन्य है पिताजी को कि वे भी साहिवी में दीक्षा लेकर सुखी बन गये . मैं कैसा भाग्य हीन रहा कि उस सुवर्ण समय को व्यर्थ खोदिया। __ यदि मैं भी । उस समय में ही दीक्षा लेलेता तो श्राज मुझे इन दुःखों का अनुभव क्यों करना पड़ता क्षणान्तर वह सोचता है कि मेरे पूर्व जन्म में अन्तराय कर्म बन्धा हुआ था । दीक्षा लेलेता तो इस कर्म को कैसे भोगता और कम बिना भोगे निर्जरा नहीं, कहा है कि ' कडाणकम्मण नवि तस्समोरवो' कभी यह भी विचार करता था कि खैर कुछ नहीं अब भी मैं दीक्षा लेलं , क्षणभर में सोचता है कि इस दरिद्रावस्था में दीक्षा लूंगा तो लोग कहेंगे कि धन नष्ट होगया और अब कमा के खाने की हिम्मत नहीं अतः विचारा दीक्षा लेकर मांग खायेगा इत्यादि इस प्रकार दरिद्रता के साम्रज्य में अनेक तरंगे उठने लगी । फिर भी उस निर्धनावस्था में भी धनदेव ने अपनी धर्म करनी को न्यून नहीं की पर पहिले से बढ़ाता ही गया। शानियों का यही तो मजा है कि उदय आये कर्मो को सम्यक् प्रकार से भोगते हैं और अनुदय की उदिरना कर उदय में लाता है कि उन कर्मों का करजा शीघ्र ही चुक जाता है। ___ एक समय आचार्य कक्कसूरिजी भ्रमण करते नागपुर पधारे। अन्योन्य लोगों के साथ धनदेव भी सूरिजी को बन्दन करने को आया और उनके साथियों ने परिचय करवाया कि गुरु महाराज । यह धनदेव शाह भैरा का पुत्र है । भैरा ने स्वर्गीय आचार्य यक्षदेवसूरि के उपदेश से महा प्रभविक श्री भगवतीजी सूत्र बंचाया सम्मेतशिखरजी का संघ निकाला, जिन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई और सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा ली । धनदेव भी धर्मज्ञ एवं जैनसिद्धान्त का अच्छा जानकार है पर अन्तराय कर्मोदय इनकी आर्थिक स्थिति खराब होगई है । सूरिजी ने कहा महानुभाव । ज्ञानियों ने इप्सी लिये तो संसार को असार बतलाया है क्योंकि सुख के अन्त में दुःख और दुःख के अन्त में सुख हुआ ही करता है । क्या दुःख और क्या सुख ये सब पौद्गलिक वस्तु है । इससे क्या खुशी और क्या नाराजी जनधर्म का सिद्धान्त तो यह है कि पौद्गलिक सुख हो चाहे दुःख हो पर अपने ध्येय से बिचलित न होना चाहिये इत्यादि । धनदेव ने सूरिजी के मार्मिक शब्द सुने तो उसकी आत्मा में एक नवीन चेतनता प्रगट हुई । इधर तो धनदेव के अशुभकर्मो का क्षय हुत्रा और उधर से सूरिजी के शुभ वचन अतः लक्षमीदेवी घर पूछती २ धनदेव के घर में आपहुंची। यही ५७८ [धनदेव की आर्थिक परिस्थिति Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तमूरि का जीवन [ ओसवाल संवत् ५७४-५७७ कारण है कि इधर से तो धनदेव ने कारणवसात भूमि खोदी तो पुष्कल द्रव्य मिल गया उधर जिन्हों पर करजा लेना था वह घर पर आकर देने लगे उधर व्यापार में भी उनको खूब गहरा लाभ होने लगा। बस, एक मास में धनदेव का घर फिर लक्ष्मी देवी से शोभायमान होने लगा । धनदेव ने चार पुत्रों की शादी एक मास में करदी और आप जैसे सर्प कांचल छोड़कर भाग जाता है वैसे धनदेव संसार को सपैकंचुक समझ कर उससे भाग कर आचार्यकक्कसूरि के चरणों में आकर अपने १४ साथियों के साथ भगवती जनदीक्ष स्वीकार करली तब जा कर शान्ति का श्वास लिया। प्राचार्य श्री ने धनदेव को दीक्षा देकर आपका नाम सोमतिलक रखा आप की योग्यता देख मथुरा में आपको उपाध्याय पदसे विभूषित किया । आपसूरिजी के शासन को अच्छी तरह से चलाया करते थे। आचार्य श्री कक्कसूरि की सेवा में रहकर आपने धर्म के अच्छे २ कार्य सम्पादन किये । कई राजा महाराजाओं की सभा में वादियों से शास्त्रार्थ कर उनको परास्त कर जैनधर्म का झंडा फहराया था। इसी कारण आचार्य कक्कसूरिजी ने अपने अन्त समय चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष उपाध्याय सोमतिलक को अपने पट्ट पर आवार्य बनाकर आपका नाम देवगुप्तसूरि रख दिया था। ___ प्राचार्य देवगुप्तसूरि जन्शासन रुपी श्राकाश में सूर्य सदृश्य प्रकाश के करने वाले हुये थे श्रापको जैसे संसार में लक्ष्मीदेवी वरदाई थी। वैसे ही श्रमणावस्था मे सरस्वतीदेवी वरदाई थी । आप जैनागमों के अलावा व्याकरण न्याय तर्क छन्द अलङ्कारादि सर्व साहित्य के पारगामी थे। जैसे समुद्र भांति भांति के अमूल्य रत्नों से शोभायमान होता है वैसे हो आपका शासन अनेक विद्या एवं लब्धिपात्रों से सुशेभित था। पट्टावलीकारों ने कतिपय मुनियों का परिचय करवाते हुये लिखा है कि आचार्य श्री के शासन में । १-धर्ममूर्ति नामका वाचनाचार्य बड़ा ही लब्धिपात्र था एक समय सूरिजी की आज्ञा लेकर कई मुनियों के साथ उसने सिन्धभूमि में विहार किया। क्रमशः वह विहार करता वीरपुरनगर में पहुंचः । वहां पर एक सन्यासी आया हुआ था वह अपने योग वल से पृथ्वी से अधर रहकर जनता को चमत्कार बतलाकर सद्धर्म से पतित बना रहा था। ठीक उसी समय धर्ममूर्ति नाम का वाचानाचार्य वहां पधार गये। जैनसंघने आपका अच्छा स्वागत किया और वहां के सन्यासी का सब हाल कह सुनाया। इस पर धर्म मूर्ति ने कहा श्रावकों । इस चमत्कार से आत्मकल्याण नहीं है । ये तो योग विद्या है और जिसका अभ्यास किया हुआ होता है वह योग विद्या के बल से अधर रह सकता है। श्रावकों ने कहा कि महाराज भले ही इससे आत्मकल्याण नहीं होगा पर भद्रकजनता इससे विस्मित होकर उसकी अनुयायी बन जाती है । तब क्या अपने जैन में में ऐसी विद्या नहीं है मूर्तिजी ने कहा कि नास्ति नही है : श्रावकों ने कहा कि नास्ति ना है तो फिर वे विद्यायें किस काम की हैं कि धर्म का वंश होता हो तब भी काम में न ली जांय ? वाचनाचार्य ने कहा ठीक है । कल मैं पाट पर बैठ कर व्याख्यान दूंगा आप पाट को निकाल लेना बस, दूसरे दिन वाचनाचार्य का व्याख्यान आम मैदान में हुआ। हजारों मनुष्य व्याख्यान सुनने को एकत्र हुये थे थोड़ासा व्याख्यान हुआ कि श्रावकों ने पाटा को खीच लिया तो वाचनाचार्य अधर रहकर व्याख्यान बांबने लगे जिस को देखकर जनता पाश्चर्यमुग्ध बनगई। इस बात को सन्यासी जी ने सुनी तो उसने सोचा कि इस जैनसाधु के पास कितनी विद्या होगी। वे चलकर वाचनाचार्य के पास आये और बड़े ही शिष्टाचार से बातें करने लगे । आखिर उन्होंने कहा कि मुनिजी मेरे पास जो विद्या है वह एक जनाचार्य से ही मैंने प्राप्त की है, कृपा करके आपभी कुछ यादगारी बक्सावे वाचानाचार्य जी ने कहा महात्माजी आप उसी विद्या की खोज करो जिससे जन्म मरणके रिजी के शासन के मुनि रत्न ] ५७९ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४–१७७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दुःख मिटजाय । सन्यासीजी ने कहा कि खैर, श्रापही कृपा कर बतलाइये कि ऐसी कौनसी विद्या है कि जिससे जन्म मरण मिट जाय ? वाचनाचार्य ने कहा कि वीतराग की वाणी एक ऐसी विद्या है कि जिसको जैनदीक्षा ग्रहण कर आराधना कीजिये । अतः जन्म मरण मिटाने के लिये दूसरी कोई विद्या नहीं है इत्यादि तर्क वितर्क से इस कदर समझाया कि सन्यासीजी ने वाचनाचार्यजी के पास जै दीक्षा स्वीकार करली जिससे केवल वीरपुर में ही नहीं पर सिन्धु मण्डल में जैनधर्म का खूब उद्योत हुआ। २-आचार्य श्री के दूसरा शिष्य पं० राजसुन्दर था आप ज्योतिष विद्या में बड़े ही प्रवीण थे श्राप विहार करते हुये एक समय भरोंच नगर में गये। वहाँ पर एक ज्योतिषी विद्वानों की सभा हुई थी। सब लोगों को आमंत्रण दिया पर पं० राजसुन्दर को किसी ने आमन्त्रण नहीं दिया। कारण, उन लोगों का खयाल था कि जैनधर्म त्याग वैराग्य मय धर्म है । वे लोग सिवाय त्याग वैराग्य में कष्ट करने के और क्या जानते हैं ? खैर जिस समय सभा हुई तो बिना आमंत्रण पं० राजसुन्दर सभा में चला गया इस पर उन विद्वानों ने पं० राजसुन्दर का स्वागत कर श्रासन दिया पर वे जैनधर्म के नियमानुसार रजोहरण से भूमि परमार्जन कर कांबली डाल कर बैठ गये । सभा का कार्य शुरू हुआ तो किसी ने वर्ष फल किसी ने मामफल किसी ने राजविग्रह किसी ने वर्षा अगमन विषय कहा । जब पं० राजसुन्दर को पूछा तो उसने कहा कि आजरात्रि आठ घड़ी ४८ पल के बाद बरसात होगी। ज्योतिषियों ने सोचा ऐसा तो कोई योग नहीं दीखता है फिर यह जैनश्रमण किस आधार से कहता है। दूसरे विद्वानों की बातों की नोंध के साथ जैनमुनि के कथन की नोंध करली और यह बात जनता के कानों तक भी पहुँच गई । ठीक बतलाये हुये टाइम पर मुसलाधार बरसात होने लग गई । बस, जो विद्वान जैनश्रमणों की हँसी करते थे वही उनके चरणों में अपना शिर मुकाने लगे और कई लोग पं० राजसुन्दर के पास आकर ज्योतिष विषय का अभ्यास करने लगे । पण्डितजी को राजा प्रजा की और से अच्छा सन्मान मिला। -श्राचार्य श्री के शासन में एक पद्मकलस नामक उपाध्याय था । वे परकाया प्रवेश विद्या में निपुण थे। अपनी विद्या का चमत्कार वतलाकर कई राजा महाराजाओं को जैनधर्म के परमोपासक बनाये । ४ चतुर्थ पण्डित नागप्रभ था । श्राप आकाशगमिनी विद्या में पारगामी थे आप अष्टम अष्टम तप का पारणा किया करते थे और पारणा के दिन श्रीशत्रुजय तीर्थ और उपकेशपुर मंडन महावीर की यात्रा करके ही पारणा किया करते थे। एक समय पं० नागप्रभ अष्टम के पारणा के दिन अपनी आकाशगामिनी विद्या के बल से शत्रुजयतीर्थ का चैत्यवंदन करने को आकाश में जा रहे थे। रास्ते में कोई सन्यासी भी पैरों पर लेपकर आकाश में जा रहा था। दोनों की श्राकाश में भेंट हो गई तो आपस में बातें करते दोनों शत्रुजय पर आगये । सन्यासी ने देखा तो जैनश्रमण के पैरों पर लेप नहीं था। तब सन्यासी ने पूछा कि आपके पैरों पर लेप नहीं है फिर आप आकाश में गमन कैसे करते हो। जैनश्रमण ने उत्तर दिया कि पैरों पर लेप करके आकाश में गमन करना यह पराधीनता है। लेप नहीं मिलने से गति रुक जाती है। कभी कोई लेप धो डालता है तो भी गति रुक जाती है । अतः मैं इस लेप की विद्या को विद्या नहीं समझता हूँ विद्या तो ऐसी होनी चाहिए कि जो श्रात्मा से प्राप्त हुई हो जिसकी गति को कोई रोक ही नहीं सके । सन्यासीजी सुन कर मंत्रमुग्ध बनगये और जैनश्रमण से प्रार्थना करने लगे कि महात्माजी ऐसी विद्या तो आप मुझे भी बतलाइये, मैं आपके उपकार को कभी नहीं भूलूगा। मुनिनागप्रभ ने कहा यदि आपको विद्या की आवश्यकता है, तो जैनदीक्षा स्वीकार [ पं० नागमभ और आकाश गामनीविद्या For Private & Personal use only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तमरि का जोवन ] [ ओसवाल संवत् ५७४-५७७ करो और बाद में कहूँ वैसे तपस्या करो। आकाशगामिनी विद्या वो क्या पर आत्मा में अनंत विद्यायें एवं लब्धियें छिपी हुई हैं वे प्रगट हो सकती हैं। बस फिर तो देरी ही क्या थी। सन्यासीजी ने महाप्रभाविक तीर्थ श्रीशर्बुजय पर मुनि नागप्रभ के पास जैन दीक्षा स्वीकार करली और तप संयम की आराधना में लग गया ज्यों २ श्रापको जैनधर्म का तात्विक ज्ञान होता गया त्यों २ श्राशा और तृष्णा मिटती गई इस प्रकार नागप्रभ ने अनेक भव्यों का उद्धार किया। ५-६० न्यायमुनि नाम का एक विद्वान मुनि था । देवी का उसको बरदान था कि आप शास्त्रार्थ में सदैव विजयी रहोगे । आपने कई राजसभाओं में बौद्धों एवं वेदान्तियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म का विजय झंडा फहराया था। आपके विषय पट्टावली कार ने बहुत विस्तार से लिखा है । भरोंच, जावलीपुर, चन्द्रावती, उज्जैन, मथुरा, शिवनगर वगैरह बहुत स्थानों में वादियों के साथ शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। इत्यादि सूरीश्वरजी के शासन में ऐसे अनेक विद्या सम्पन्न साधु थे कि जिन्होंने जैनधर्म की खूब उन्नति की। आचार्य देवगुप्तसूरिजी महाराज नौ वर्ष उपाध्याय पद और तीन वर्ष सूरिपद पर रह कर जैनधर्म का खूब प्रचार बढ़ाया। कई भावुकों के निकाले हुए संघ के साथ तीर्थयात्रा की। कई मुमुक्षुओं को जैनदीक्षा दे श्रमणसंघ में वृद्धि की कई मांस मदिरादि कुव्यसन सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित कर उनका उद्धार किया कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैनधर्म को चिरस्थायी बनाया श्रादि आपने अपने जीवन में अनेक शुभ कार्य कर संसार का उद्धार किया । अन्त में आप अपना आयुष्य को नजदीक जानकर श्रीशत्रु जयतीर्थ की शीतल छाया में विक्रम सं० १७७ में अपने पट्टपर मुनि राजहंस को सूरि बना कर उनका नाम सिद्ध सूरि रख दिया और श्राप १३ दिन के अनशनपूर्वक समाधि के साथ स्वर्ग पधार गये। अदित्यनाग कुल आप दिवाकर, देवगुप्त यशधारी थे। सरस्वती की पूर्ण कृपा, सद्ज्ञान विस्तारी थे ॥ दर्शन ज्ञान चरण गुण उत्तम, पुरुषार्थ में पूरे थे। बन्दन उनके चरण कमलमें, तप तपने में सूरे थे ॥ । इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के १९ वें पट्टपर आचार्य देवगुप्तसूरि महा प्रभाविक आचार्य हुए । Jain Ed. आचार्यम देवगुप्तसरि का स्वर्गवास ] or Private & Personal use only Jain Edu 341 Private & Personal Use Only Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जैन व्यापारियों का पाश्चात्य प्रदेशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध इस बात का पता लगना कठिन है कि भारतीय व्यापारियों का व्यापार सम्बन्ध पाश्चात्य प्रदेशों के साथ कब से प्रारम्भ हुआ था ? फिर भी हमारे चरित्रादि प्राचीन ग्रन्थों से पाया जाता है कि इतिहास काल के पूर्व हजारों वर्षों से भारतीय व्यापारियों का व्यापार सम्बन्ध पाश्चात्य प्रदेशों के साथ था और वे जल और थल दोनों रास्तों से पाश्चात्य प्रदेशों में आया जाया करते थे। उदाहरण के तौर पर श्रीज्ञाताधर्गकथांग सूत्र के आठवें अध्ययन में उल्लेख मिलता है कि चम्पा नगरी का अरणक नाम का जैन व्यापारी जहाजों में पुष्कल माल लेकर समुद्र को पार कर पाश्चात्य प्रदेश में व्यापारार्थ गया था इसी सूत्र के नौवें अध्ययन में जिनरिख और जिनपाल दो भाइयों के वर्णन में कहा है कि इन दोनों बन्धुओं ने ११ बार जहाजों द्वारा पाश्चात्य प्रदेशों में व्यापार किया और वापिस आये । जब वारहवीं बार वे पुनः जहाजें लेकर गये तो वापिस लौटते समय उनको किसी देवी का उपसर्ग हुआ था । राजा श्रीपाल के चरित्र में भी उल्लेख मिलता है कि वे कोसंबी नगरी के धवल सेठ के साथ भरोंच नगर से पांच सौ जहाजें लेकर बबरकुल ओर रत्नद्वोप में गये । वहां केवल व्यापार ही नहीं पर दोनों स्थानों के राजाओं की कन्याओं के साथ राजा श्रीपाल ने विवाह भी किया था इनके अलावा भी बहुत से उल्लेख मिलते हैं। भगवान पार्श्वनाथ और प्रभु महावीर के अन्तर काल में भी कई व्यापारी लोग पाश्चात्य प्रदेशों में व्यापारार्थ गये इतना ही क्यों पर उन भारतीय व्यापारियों ने वहां के लोगों को कई प्रकार की सभ्यता भी सिखाई थी और व्यापार की सुविधा के लिये धातु के सिक्कों का आविष्कार भी किया था । भारतीय व्यापारी किसी को कर हासल नहीं देते थे और उन्होंने वहां जाकर अपना उपनिवेश भी स्थापित किया था । जब हम भगवान महावीर और उनके पीछे के समय को देखते हैं तो ऐसे बहुत से प्रमाण मिलते हैं कि भारतीय व्यापारियों का ही क्यों पर कई राजाओं का भी पाश्चात्य प्रदेशों के साथ सम्बन्ध रहा दृष्टिगोचर होता है जैसे राजगृह का राजा श्रेणिक ( विवसार ) का आद्रकपुर नगर के राजा के साथ अच्छा सम्बन्ध था और उस सम्बन्ध को चिरस्थायी बनाने के लिए श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार ने आदकपुर के राजकुमार आद्रक के लिये भगवान् आदीश्वर की मूर्ति भेजी थी जिसको देख पाककुंवर को बोध हुआ और उसने भगवान महावीर के पास आकर दीक्षा ली थी जब आद्रकुवर ने जैन दीक्षा ली तो उसने अपनी जन्मभूमि में भी जैनधर्म का अवश्थ प्रचार किया होगा । इसका उल्लेख सूत्रकृताङ्ग सूत्र की टीका में है। श्री भगवतीसूत्र के नौवां शतक और ३३ वा उद्देशा में महान कुंडनगर का अधिपति ऋषभदत्त और आपकी गृहदेवी देवानन्दा का वर्णन चलता है जो भगवान के माता पिता थे उनके घर में पारस बबरादि अठारह देश की दासियां थीं जैसे "वहहिं खुज्जहिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं बड़ाहियाहिं बव्वरयाहिं ईसिगणियाहिं जाण्हियाहिं चारुगणियहिं पल्लवियाहिं ल्यासयहिं लाउसियाहिं आरबीहिं दमिलिहिं सिंघलीहिं पुलिदीहिं पुक्खलीहिं मुरंडीहिं सवरिहिं पारसीहिं नाणदेसीहिं x x संदेसनेवत्थ गहिया वेसाहिं इत्यादि । इससे पाया जाता है कि उस समय भारतीयों का पाश्चात्य देशों के साथ केवल व्यापार ही क्यों पर For Private & Personal use on [ भारतीय व्यापारियों का व्यापार ww.jainelibrary.org Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५७४-५७७ वैवाहिक सम्बन्ध भी था । कारण, राजाओं में यह रिवाज था कि जब अपनी कन्या की शादी करते थे तो धन माल के साथ दासियां भी दिया करते थे और यह रिवाज आज भी राजा एवं राजपूतों में विद्यमान है। भगवान महावीर के उपासकों की संख्या यों तो करोड़ों की थी परन्तु उनमें १५९००० तो उत्कृष्ट व्रतधारी श्रावक थे ऐसा कल्पसूत्र में लिखा है और उपासकदशाङ्ग सूत्र में श्रानन्दादि दस श्रावकों का वर्णन किया है ये दशों श्रावक गाथापति-वैश्य अर्थात् व्यापारी थे जिसमें आनन्द वाणिया ग्राम नगर में रहता था सिवानन्द नामक उसके स्त्री थी। बारह करोड़ सोनइयों का उसके पास द्रव्य था जिसमें चार करोड़ तो भूमि में जमा रखता था, चार करोड़ का जेवर भूमि आदि स्टेट था और चार करोड़ व्यापार में लगे रहते थे। आनन्द के गायें भी पुष्कल थी, चार गोकल गायों के थे और प्रत्येक गोकल में दश-दश हजार गायें थीं। आनन्द के ५०० हल भूमि थी जिसमें वह खेती करता कराता था। श्रानन्द का व्यापार भारत और भारत के बाहर पाश्चात्य देशों के साथ थी भी और समुद्री व्यापार के लिये चार बड़े और चार छोटे जहाज भी थे और पांच सौ गाड़े भारत के व्यापार के लिये और पांच सौ गाड़े जहाजों पर माल लाने और पहुँचाने के लिये रहते थे। इससे पाया जाता है कि आनन्द का समुद्री व्यापार विशाल था तब ही तो पांच सौ गाड़े केवल जहाजों पर माल पहुँचाने को एवं लाने को रख छोड़े थे। इसी प्रकार शेष नौ श्रावकों का व्यवसाय था जिसको हम निग्न कोष्टक में दे देते हैं। चूलनिपति सूरादेव सं | श्रावक नाम | नगर | द्रव्यकोटि | भूमि में | व्यापारमें | घरस्टेट | गोकल वानियग्राम १२ करोड ४ करोड | ४ करोड ४ करोड कामदेव चम्पानगरी १८, ६ , ६ , ६ , बनारसी | २४ , ८, ८ ८ , बनारसी १८, ६ , चूलशतक श्रालंभिया | १८, ६ , कुंडकोलिक कपीलपुर १८, ६ , पोलासपुर ३ , राजगृह २४ , ! ८ , ९ | नन्दनीपिता सावत्थी । १२, ४ , १० | शालिनी पिता | सावत्थी | १२ ,, | ४ , ४ , ४ , ४ शेष आनन्द के सदृश बतलाया है। अतः इनका व्यापार भी आनन्द की तरह पाश्चात्य प्रदेशों में था Jain Ea आनन्दादि दश श्रावक] शकडाल महाशनक - - Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४–१७७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सम्राट चन्द्रगुप्त के इतिहास पढ़ने से यह भी पता लगजाता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त ने कितने ही पाश्चात्य प्रदेश पर अपना राज स्थापित कर दिया था। इससे भारतीय व्यापारियों को और भी सुविधा होगई थी कि वे पुष्कल प्रमाण में व्यापारार्थ जाया श्रआया करते थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के समय एक देश के राजदूत दूसरे देशों में आया जाया करते थे और राजाओं की सभा में रहते भी थे। जैसे यूनानी राजदूत मेगस्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त की सभा में रहता था। कई लोग यात्रार्थ भी एक दूसरे देशों में आया जाया करते थे जिससे मालूम होजाता था कि कौन से देश में क्या रीतरिवाज हैं, कौन से पदार्थ पैदा होते हैं क्या क्या कला कोशल व्यापार वगैइ वगैरह हैं इत्यादि । सम्राट चन्द्रगुप्त ने पाश्चात्य राजाओं की कन्याओं के साथ विवाह भी किया था। सम्राट सम्प्रति के समय तो पाश्चात्य देश भारत का एक प्रान्त हो वैसा बनगया था। सम्राट राजा सम्प्रति कट्टरजैन था और उसने जैन धर्म के प्रचारार्थ अपने सुभटों को जैन मुनियों का वेष पहिना कर अनार्य देशों में भेजे थे और उन नकली साधुओं ने पाश्चात्य प्रदेशों में जाकर वहाँ के लोगों को जैन धर्म की शिक्षा दी तथा जैन मुनियों का श्राचार विचार समझाया जिससे बाद में जैनसाधुओं ने भी पाश्चात्य प्रदेशों में भ्रमण कर जैन धर्म का प्रचार बढाया तथा सम्राट सम्पति ने उन पाश्चात्य लोगों के कल्याणार्थ अनेक मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई जिसके खण्डहर भूगर्भ से आज भी निकल रहे हैं जैसे आस्ट्रीया में भगवान महावीर की मूर्ति तथा अमरीका में सिद्धचक्र जी का गटा आदि । इतना ही क्यों पर मक्का में जैन मंदिर तो चौदहवीं शताब्दी तक विद्यमान थे बाद जब वहाँ जैनों की बस्ती नहीं रही तब वहाँ की मूर्तियां मधुमति ( महुआ) के व्यापारियों ने वहाँ से उठाकर अपने नगर में ले आये । सारांश यह है कि जब पाश्चात्य प्रदेशों में जैन धर्मका इतना प्रचार बढ गया था और जैन साधु वहां जाने आने लगगये थे तो जैन व्यापारी वहाँ ब्यापारार्थ बहुत गहरी तादाद में जांय इसमें असंभव जैसी कोई बात भी नहीं है। इतनाही क्यों पर बहुत जैन ब्यापारि ने तो व्यापार के लिये बहाँ अपनी दुकाने भी खोल दी थीं और वे खुद तथा उनके वेतनदार मुनीम गुमास्ता एवं नौकर हमेशा के लिये वहाँ रहते थे। सम्राट सम्प्रति के बाद के समय के तो पुष्कल प्रमाण मिलते हैं कि जैन व्यापारी व्यापारार्थ पाश्चात्य देशों में जल एवं थल के रास्ते व्यापारार्थ जाते आते थे उसका उल्लेख पट्टावलियों में मिलता है परन्तु पट्टा. वल्यदि में विशेष वर्णन धार्मिक कार्यों का ही है अतः कहीं प्रसंगोपात् ही व्यापार का उल्लेख किया है जो कुछ मिला है वह मैंने इस प्रन्थ में प्रन्थित कर दिया है। अब कुछ अाजकल के इतिहास संशोधकों के प्रमाण भी यहाँ उद्धृत कर दिये जाते हैं । कि वे लोग क्या कहते हैं उनका उल्लेख करने के पूर्व एक बात का खास तौर पर खुलासा कर देना जरूरी है जैसे कि "भारत में किसी भी धर्म को पालन करने वाले लोग क्यों न हों परन्तु पाश्चात्य लोग उनको भार. तीय लोग एवं बाद में हिन्दू जाति के नाम से पुकारते थे एवं लिखतेथे क्योंकि वे भारत एवं हिन्दुस्तान में रहने वाले थे जैसे पाश्चात्य देशों के लोग किसी धर्म के पालने वाले क्यों न हों पर हम उनकों यूरोपियन जाति के ही कहेंगे । यह नाम उनके देश को लक्ष्य में रख कर ही कहे जाते हैं । इतनी दूर क्यों जाते हो पर केवल एक भारत को ही देखिये बंगाल में रहने वाले बंगाली,मारवाड़ में रहने वाले मारवाड़ी,गुजरात में रहने वाले गुजराती के नाम से पुकारे जाते हैं । सारांश यह है कि यह नाम धर्म या वर्ण के साथ सम्बन्ध नहीं रखते ५८४ Jain Educho international For Private & Personal use only [ सम्राट् चन्द्रगुप्त और सम्प्रति org .ora Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७४-५७७ हैं पर केवल देश के साथ ही सम्बन्ध रखते हैं । अतः हिन्दुस्थान में रहने वाले लोग हिन्दूजाति के नाम से ही लिखे गये हैं । इतिहासकारों ने जिस हिन्दूजाति का उल्लेख किया है उसमें जैन बौद्ध वेदान्ति वगैरह सब शामिल हैं परन्तु व्यापार करने में अधिक संख्या जैन जातियों की ही थी। कारण,भगवान महावीर के उपासकों में वैश्यवर्ण वाले अधिक थे बाद में आचार्य श्री रत्नाभसूरि ने महाजन संघ की स्थापना की उसमें अधिक क्षत्री वर्ण के लोग थे। वैश्य एवं व्यापारी लोग भी कम नहीं थे और जो क्षत्री लोग थे उनसे भी कई लोग अपनी सुविधा के लिये धीरे-धीरे व्यापार करने लग गये । इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं हो सकता है कि जैनधर्म पालने वाले सब वैश्य ही थे; पर बहुत से राजा एवं राजपूत भी थे। किन्तु जहाँ करोड़ों की संख्या हो वहाँ सब तरह के लोग हुआ करते हैं । हाँ, जैनधर्म पालन करने वालों में अधिक लोग क्षत्रिय और वैश्य ही थे अतः व्यापार में अधिक हिस्सा जैन व्यापारियों का ही था उसमें भी अधिक भाग उपकेशवंशियों का था 'उपकेशे बहुलं द्रव्यं' यह वरदान भी व्यापार का लक्ष्य में रख कर ही दिया गया था। तदनुसार उपकेशवंशीय व्यापारियों ने व्यापार में पुष्कलद्रव्य उपार्जन किया । यही कारण है कि उपकेशवंशीय ने एक एक धर्म कार्य में करोड़ों द्रव्य व्यय कर दिया । एक एक दुकाल में देशवासी भाइयों के प्राणबचाने को करोड़ों द्रव्य खर्च कर दिया यह सब व्यापार का ही सुन्दर फल था । __ जैन व्यापारियों में कई एक वीर क्षत्रीय थे उन्होंने विदेशों में जाकर उपनिवेश स्थापना किये हों और वहाँ के राजाओं को कर नहीं दिया हो तो यह बात संभव हो सकती है और यह कार्य वीरोचित भी है। अब थोड़ा सा खुल्लासा धर्म के विषय में भी कर दिया जाता है । जैन धर्म और बौद्धधर्म ये दोनों पृथक् २ धर्म हैं परन्तु वेदान्तियों की हिंसा के लिये दोनों धर्मों का उपदेश मिलता जुलता ही था । वेदान्ति लोग दोनों धर्मवालों को नास्तिक कहते एवं लिखते थे। बोद्धधर्म का पाश्चात्य प्रदेशों में अधिक प्रचार होगया था अतः पाश्चात्य लोगों ने जैनों को भी बौद्ध ही लिख दिया है। यही कारण है कि थोड़ा अर्सा पूर्व लोगों की धारणा थी कि जैन और बौद्ध एक ही धर्म है तथा जैन एक बौद्धों की शाखा है अत: इस भ्रान्ति के कारण जैनधर्मोपासकों के किये हुये कार्यों को बौद्धों के नामपर चढ़ा दिये हों तो आश्चर्य की बात नहीं है । वास्तव में जैनों ने पाश्चात्य प्रदेशों में जैनधर्म का काफी प्रचार किया था फिर भी आज वहाँ जैनधर्म के स्मारक चिन्हों के अलावा जैनधर्मोपासक नहीं मिलते हैं इसका क्या कारण होगा ? इसके उत्तर में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जैनधर्म में साधुओं के आचार विचार के नियम इतने सख्त होते हैं । कि देशान्तर में जाने में उनको बहत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जब भारत में लगातार कई वर्षों तक जनसंहारक भयंकर दुष्काल पड़ा उस विकट परिस्थिति में जैनश्रमणों का पाश्चात्य प्रदेशों में विहार बन्द होगया फिर पीछे कोई साधु वहाँ पहुँच नहीं सका । तत्र बौद्ध भिक्षुओं के लिये सब प्रकार की सुविधा होने से उनका वहाँ भ्रमण रहा अतः बौद्धों का प्रचार बढ़ गया । यही कारण है कि पिछले लेखकों ने जैनों के किये हुये कार्य को बौद्धों के नाम से लिख दिये । जब जैनप्रन्यों को सूक्ष्मदृष्टि से अवलोकन करने से पता लगता है कि एक समय पाश्चात्य प्रदेशों में जैनधर्म का काफी प्रचार था और उन्होंने जन कल्याण कारी कार्य किया है। प्रसंगोपात् इतना लिखने के पश्चात् अब हम वर्तमान इतिहास संशोधकों की ओर पाठकों का लक्ष दोगते हुए उनके लेखों सेकतिपय प्रमाण यहाँ उद्धृत कर देते हैं: १-चीन की मुद्राओं का इतिहास देखा जाय तो सब से पहिले भारतीय शक्तिशाली व्यापारियों ने जैन व्यापारियों का व्यापार ] ...........morruaryanvrmirmananewwwwwwwwwwwm ५८५ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अपने व्यापार की सुविधा के लिए धातु मुद्राओं का आविष्कार किया था उनके अनुकरण में फिर वहाँ कई एकों ने अपने राज में मुद्रायें चलाई। २-मृच्छकटिक नाटक में राजधानी के बीच "श्रेष्टिचत्वर" का उल्लेख है। श्रेष्टि वत्वर को लोग धनकुवेर कहा करते थे। भारत के सभी प्रधान २ व्यापारिक केन्द्रों में उनकी कोठियां थी। भिन्न भिन्न प्रकार के जवाहिरात, और रेशमी मुल्यवान वस्त्र का व्यापार बहुत होता था । तथा अटूट धनराशि नगर की एकान्त गली में, अन्धकारपूर्ण कोठरी में रक्षित रखी जाती थी । आवश्यकता होने पर राजामहाराजों को भी उनसे कर्ज लेना पड़ता था। उन लोगों में अहंकार या गौरव की भावनाऐं नहीं थीं वे अपनी जाती का पालन करते थे । विशाल देवालय स्थापित करके देवता और गुरु के प्रति भक्त दिखा कर उन्होंने यश प्राप्त किया था इत्यादि उल्लेख मिलता है। ३-एक फ्रान्सीसी लाकूपेरी पुरातत्ववेत्ता ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ई० स० पूर्व सातसौ वर्ष में भारतीय व्यापारी गण चीन में व्यापारार्थ आये थे और उन्होंने वहाँ धातु की मुद्रा प्रचलित की थी इतना ही क्यों पर ई० स० पूर्व ६०० वर्ष उपसागर के चारों और भारतीय व्यापरी फैल गये थे और वर्तमान में जैसे यूरोपियन शक्तिशाली हैं वैसे ही प्राचीन समय में भारतीय व्यापारी भी ऐसे ही शक्तिशाली थे कि अपनी शक्ति से वे लोग वहाँ उपनिवेश स्थापित करते थे। ४-ई. स. पूर्व छठ्ठी शताब्दी में चीन में एक मुद्रासंघ स्थापित किया था जिसमें चीन के व्यापारियों ने सहयोग दिया था व मुद्रायें वर्तमान में भी उपलब्ध होती हैं अर्थात् भारतीय वस्तुओं की चीन वाले बड़ी कदर करते थे और बड़ी रुचि से खरीद भी करते थे। ५- केवल चीन देश में अपना वाणीज्य प्रसार करके भारतीय व्यापारियों ने अपने साहस का अन्त नहीं किया। प्रत्युत पाश्चात्य प्रदेश में और भी कई देशों में उन्होंने अपने व्यापारिक अस्तित्व को कायम किया, जिसका उल्लेख उन देशों के इतिहास में मिलता है। ६-प्रीस देश के वणिक एरियन ने अपने 'पेरिप्लस' नामक ग्रन्थ में लिखा है कि भारतीय व्यापारी अरब देश के पूड़ेमन नगर मे उतरा करते थे और मिश्र के व्यापारी वही से उनके पास से भारतीय वस्तुये खरीद लिया करते थे। मिश्रदेश के वासी भारतीय वाणिकों के संसर्ग में आने के पूर्व कपास का व्यवहार करना नहीं जानते थे । स्ट्रेबोने लिखा है कि भारत ही कपास की जन्मभूमि है । वाणिज्य के द्वारा वह क्रमशः मिश्र और दूसरे देशों में पहुँचा ! ७-एरियन-ईसा की पहिली शताब्दी में मिश्र से भारत में व्यापार करने के लिये आया था। उसने अपने मन्थ में दक्षिण भारत के निवासियों के लिये वाणिज्य सम्बन्धी प्रभाव का वर्णन विस्तार से किया है। ८-जावा द्वीप के इतिहास में लिखा है कि ईसवी सन् से ७५ वर्ष पूर्व हिन्दू वाणिक कलङ्ग देश से इस द्वीप में गये थे और उन्होंने वहाँ अपना एक संवत् भी प्रचलित किया था। ९-इसवी सन पहली शताब्दी में युनानी डिसमाइस मिश्र से भारत में आया था उसने भारत में घूमघूम कर व्यापार के केन्द्र स्थानों का निरीक्षण किया था। १०-अलेक जैडियस पन्टेनस ईसाई पादरी बनकर ई० स० १३८ में भारत में आया था यहाँ का व्यापार देखकर पुनः अपने देश में जाकर वहाँ के लोगों को व्यापारिक शिक्षा दे कर प्रचार किया था। Jain Ed k ternational [ Arraitz 3419TITUT ET ry.org org Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तमरि का जीवन] [ओसवाल संवत् ५७४-५७७ ११-ईस्वी सन् २०० पूर्व सेई. स. २०० तक मिश्र निवासी लाल जाति के तथा भीतर पैथन और टगौर से बंगाल की खाड़ी तक व्यापार के लिये आते थे। ___इनके अलावा भी इतिहास में ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं जिससे कहा जा सकता है कि भारत व्यापार की जन्म भूमि हैं अन्य देशों ने व्यापारिक शिक्षा भारत से ही पाई है। पश्चात्य लोग भारत के माल को बड़ी रूची से खरीदते और काम में लेते थे वे भारतीय जहाजों की हमेशा प्रतिक्षा किया करते थे अब थोड़े भारतीय उन प्रदेशों का नामोल्लेख कर दिये जाते है कि जहाँ बड़े बड़े प्रमाण में माल तैयार होता था और वे व्यापार के लिये केन्द्र कहलाते थे । पाश्चात्य लोग वहाँ से माल ले जाते थे। १-भरोंचनगर पुगणे जमाने से ही व्यापार का केन्द्र रहा है। कोसंवी नगरी का धवल श्रेष्टि पांचसौ जहाजें लेकर भरोंचनगर में आया था अपना माल बेचकर वहां से अन्य माल खरीद कर जहाजें भरकर पश्चात्य देश में ले गया था। २-शौर्यपुर नगर में सोनारूपापारा की छापका व कपड़ा पर जरी बुटें आदि का कम थोकबन्ध होता था जहाजें बनाने के बड़े २ कारखाने थे जिसमें ५०० से १००० टन वजन वाले जहाज तैयार होते थे। ३-रांदेर-यह पहले बड़ा नगर था यहाँ पुष्कल व्यापार होता था । ४-वल्लभी नगरी-यह भी पुरांणा जमाने से व्यापार का मथक था। ५- अंकलेश्वर-यहाँ कागज बहुत प्रमाण में बनते थे और भारत के अलावा विदेश में भी जाते थे। ६- महाराष्ट्रय प्रान्त के केवला जिला भी एक व्यापार का केन्द्र था विदेशी लोग वहाँ आया जाया करते थे और जथ्था बन्ध माल खरीद कर अपने देशों में ले जाया करते थे । ७ - सोपार पहन-यहभी एक व्यापार की मंडीथी समुद्र मार्ग से व्यापारी लोग आया जाया करते थे। ८-- स्तम्भनपुर-यह भी व्यापार का मुख्य स्थान था । ९-उपकेशपुर यहाँ के बड़े-बड़े व्यापारी जल और थल के रास्ते से जथ्था बन्ध व्यापार विदेशों में किया करते थे कई कई लोगों ने तो विदेश में अपनी कोठियें भी स्थापित कर दी थी इसी प्रकार नागपुर मेदनीपुर माडव्यपुर सत्यपुर मुग्धपुर और भीन्नमालादि नगरों के व्यापारियों का व्यापार विदेश के साथ था। १०-कलिंग के व्यापारी बहुत प्रसिद्ध है कि वे थोकबन्द मान विदेशों में भेजते थे सम्राट् खारवेल के जीवन से पता मिलता है कि एक समय महाराज खारबेल घुड़सवार होकर जंगल में गया था वहाँ आपको कई कलिंग के व्यापारी मिले पर वे थे दुःखी और अपनी दुःख की बात राजा खरबेल को निवेदन की थी कि विदेशी लोग कर के लिए हम लोगों को हेरान करते हैं इसको सुनकर कलिंगपति ने सैना तैयार कर विदेशियों पर धावा बोल दिया आखिर उन्हों को पराजयकर भारतीय व्यापारियों के लिये सदैव के लिये आराम कर दिया । इस प्रकार बंगाल के व्यापारियों का भी विदेश में व्यापार था ११-ढाका बंगाल का कपड़ा मुलक मशहूर था। और भी भारत की कोई भी प्रान्त ऐसी नहीं थी कि जहाँ थोक बन्द माल तैयार नहीं होता था अर्थात् भारत बड़ा ही उद्योगी देश था हर प्रकार का माल यहाँ तैयार होता था और व्यापार के लिये वे देश विदेश में जाते आते थे । यही कारण था कि भारत एक समृद्धशाली धनकुवेर देश था। हम देखते हैं कि जैन धन कुवेरों ने एक एक धर्म कार्यों में करोड़ों रुपये बात की बात में खर्च कर डालते थे इसका कारण वे विदेशियों के साथ व्यापार सम्बन्ध ] ramananton Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास व्यापार में करोड़ों रुपये पैदा करते थे। दूसरे उनका सत्यशील और धर्म की श्रद्धाही ऐसी थी कि लक्ष्मी तो उनके घरों में दाशी बनकर रहती थी उन पुन्य के ही धारण किसी को चित्रावल्ली किसी को पारस किसी को तेजमतुरी और किसी को सुवर्ण सिद्धि रसायन मिल जाती थी और उनसे पैदा हुआ द्रव्य सद् कार्य में लगाया करते थे जैसे। १-श्रीमान् जावड़ शाह को तेजमतुरी मिली थी उसने उस द्रव्य से पुनीत तीर्थश्री शत्रुजय महातीर्थ का उद्धार करवा कर आचार्य बज्रसूरि के कर कमलों से प्रतिष्ठा करवाई। २-श्रीमान् रांका वांका श्रेष्ठि को सुवर्ण सिद्धि रसायन मिली थी उसने कई जनोपयोगी कार्य किये । ३-श्रीमान् पेथड़शाह को चित्रावली मिली जिससे उसने श्रीशत्रुजय का संघ निकाला और रास्ता में चलता चलता ८५ मन्दिरों की नावें लगवाई ४-श्रीजगडूशाह जिसको तेजमतुरी मिली जिससे वि० सं० १३१३-१४-१५ तीन वर्ष लगातार दुकाल पड़ा जिसमें करोड़ों द्रव्य खर्च कर देशबासी भाइयों के प्राण बचाये । ५-श्रीसांरगशाह को पारस मिला था जिससे भी उसने कई दुकाल में अन्न और घास मंगवाकर मनुष्यों एवं पशुओं को प्राण दान दिया । और श्री शत्रुजय का विराट् संघ निकाला इत्यादि अनेक ऐसे उदाहरण हैं कि इस ग्रन्थ में यथास्थान दर्ज कर दिये जायंगे । इनके अलावा भारतीय विद्वानों ने भी स्वरचित इतिहास ग्रन्थों में इस विषय का विस्तार पूर्वक उल्लेख किया है कि भारतीय व्यापारियों का विदेशों के साथ जल और थल मार्ग से विस्तृत प्रमाण में व्यापार होता था तथा भारतीय लोगों ने पश्वात्य देशों में अनेक वार भ्रमण किया इतनाही क्यों पर भारतियों ने तो विदेश में जाकर उपनिवेश स्थापना कर उन प्रदेशों को अपना निवास स्थान भी बना दिया था | इस विषय में सरस्वती मासिक के सम्पदक श्रीमहावीर प्रसादजी द्विवेदी जी ने एक महत्त्व पूर्ण लेख लिख सरस्वती मासिक में प्रकाशित करवाया है पाठकों के पढ़नार्थ उस लेख को ज्यों का त्यों यहाँ उद्धृत कर दिया जाता है । प्राचीन भारतवर्ष की सभ्यता का प्रचार "पश्चिमी देशों के इतिहासज्ञ पुरावस्तुवेता, और पारदर्शी विद्वानों ने अभ्रान्त प्रमाणों और प्रबल युक्तियों से सिद्ध कर दिखाया है कि पृथ्वी मंडल पर विद्या, ज्ञान, कला, कौशल और सभ्यता का जन्मदाता भारतवर्ष ही है । वे भारतवासियों ही की सन्तानें थीं जिन्होंने प्राचीन समय में अनेक देश देशान्तरों में जाकर वहाँ सभ्यता फैलाई । प्राचीन भारत वासियों ही ने उन महान् और प्रभावशाली साम्राज्यों की स्थापना की । जिनका गौरव एवं वर्णन प्राचीन इतिहास के पृष्ठों पर ही नहीं लिखा गया किन्तु उनके स्मारक चिन्ह एशिया, यूरुप, अफ्रीका और अमरीका में आज तक वर्तमान हैं। वे स्मारक चिन्ह प्राचीन हिन्दू जाति ( भारतियों ) के महान अद्भुत कार्यों के प्रमाण हैं। यजुर्वेद अध्याय ६ और मनुस्मृति वगैरह शास्त्रों में तथा कितनी ही कथायें हैं जिसमें भारतवर्ष के मनुष्यों और महात्माओं का अमरीका जाना सिद्ध होता है । महात्मा व्यासजी शुकदेवजी के साथ अमरीका गये और वहाँ कुछ काल ठहरे थे । शुकदेवजी यूरोप (जिसे प्राचीन आर्य हीरदेश कहते थे) ईरान और तुर्किस्तान होकर लौट आये । इस यात्रा में तीन वर्ष लगे थे। यह वृत्तान्त महाभारत में Jain Edua ternational [ भारतीय व्यापारियों का nelibrary.org Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५७४-५७७ शांतिपर्व के ३२६ वें अध्याय में लिखा है । अन्य देशों में दो बार पाण्डवों के जाने का उल्लेख भी महाभारत में है । पहली दफे वे ब्रह्मदेश, श्याम, चीन, तिब्बत मंगोलिया तातार और ईरान को गये और हिरात, काबुल, कन्धार और बिलोचिस्तान होकर लौट आये । उनकी दूसरी यात्रा पश्चिम की तरफ हुई वे लंका से प्रस्थान करके अरब, मिश्र, जंजुवार और अफ्रीका के दूसरे भागों में गये । यह बृत्तान्त महाभारत में ( सभा पर्व के २६-२८ अध्याय में ) लिखा है । इस यात्रा के समय मार्ग में उन्हें अगस्त्य तीर्थ, पुष्पतीर्थ, सुदामातीर्थ, करन्धमतीर्थ और भारद्वाजतीर्थ मिले थे । राजा सगर के पृथ्वी विजय की भी कथा पुराणों में है । गजा धृतराष्ट्र ने अफगानिस्तान के राजा की पुत्री का पाणीग्रहण किया था । अर्जुन ने अमरीका के राजा कुरु राजा को पुत्री से विवाह किया। श्री कृष्ण के पोते अनिरुद्ध का विवाह सुड (सुएड ) के राजा चाण की पुत्री उषा के साथ हुआ था। महाराजा अशोक ने काबुल के राजा सिल्युकस की पुत्री से विवाह किया था। ईसा के जन्म के अन्तर सहस्त्रों हिंदू तुर्किस्तान, ईरान और रूस में रहते थे। मनुस्मृति के दशवें अध्याय से मालूम होता है कि क्षत्रियों की प्रजा कितनी ही जातियाँ ब्राह्मण ( साधुओं) के दर्शन न होने के कारण पतित हो गई थीं। "एशिया" एशिया का पुराना नाम जम्बुद्वीप है । एशिया नाम भी हिंदुओं का ही रखा हुश्रा है । इस विषय में कर्नल टॉड का कथन सुनिये वे कहते हैं कि धुमिदा और मजस्व की सन्तानों से इन्दु (चंद ) वंशीय "अश्व" नाम की एक जाति थी । उस अश्व जाति के लोग सिन्ध के दोनों तरफ दूर तक जा बसे थे। इस कारण उस पृथ्वी भाग का नाम एशिया हुआ । एशिया खंड के कितने ही देशों में हिन्दू जाति फैल गई थी। उनमें से कुछ देशों का संक्षिप्त उल्लेख नीचे दिया जाता है । "अफगानिस्तान" प्राचीन भारत में अपवंश नाम की नाग जाति थी उसमें अपगण नाम का एक मनुष्य हुआ। इसी अपगण की सन्तान अफगान कहलाई । प्राचीन काल में हिन्दुस्तान और अफगानिस्तान में गहरा सम्बन्ध था। इसके कितने ही प्रमाण हैं । राजा धृतराष्ट्र ने अफगानिस्तान के राजा की पुत्री गान्धारी से विवाह किया था । महाभारत में लिखा है कि जिस समय पाण्डव जिस समय दिगविजय करने गये थे उस समय वे कन्धार अर्थात् गान्धार में राजा धृतराष्ट्र के श्वसुर के महमान हुए थे हिरात नगर हरि के नाम से विख्यात हुआ है । बौद्ध ( जैन ) राजाओं के समय तक अफगानिस्तान हिन्दुस्तान का ही अंश समझा जाता था। कर्नल टॉड लिखते है कि जैसलमेर के इतिहास से ज्ञात होता है कि विक्रम संवत् के बहुत पूर्व इस क्षत्रिय जाति का राज्य गजनी से समरकन्द तक फैला हुआ था। यह राज्य महाभारत युद्ध के पीछे स्थापित हुआ था । गजनी नगर उन्ही लोगों का बसाया हुआ है। ___ "तुर्किस्तान" तुर्किस्तान में भी हिन्दु जाति का राज्य था । तर्क का पुत्र तमक हिंदु पुराणों में तरिक्षक नाम से विख्यात हैं। अध्यापक मैक्समूलर लिखते हैं कि तुर्वा और उसकी सन्तान को शाप हुआ था भारत छोड़कर उनके चले जाने का यह कारण था ! कर्नल टॉड अपने नामी ग्रन्थ राजस्थान में लिखते हैं कि जैसलमेर के प्राचीन इतिहास से पता चलता है कि यदुवंश अर्थात् चन्द्रवंश की वान्हीक जाति ने महासमर के युद्ध के पीछे खुरासान में राज्य किया । विदेशियों के साथ व्यापार सम्बन्ध ] ५८९ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास " साइबेरिया " महाभारत के युद्ध बाद बहुत सी सूर्य और चन्द्रवंशी जातियाँ हिन्दुस्तान को छोड़कर दूर २ जा बसी थीं। एक हिंदूजाति ने साइबेरिया में जाकर अपना राज्य स्थापित किया । इस राज्य की राजधानी "वज्रापुर" था। जब इस देश का राजा किसी युद्ध में मारा गया तब श्री कृष्ण के तीन पुत्र प्रद्युम्न, गद और साम्बु बहुत से ब्राह्मणों और क्षत्रियों को साथ लेकर वहाँ पहुँचे । इन तीनों भाइयों में ज्येष्ठ भाई वहाँ की गद्दी पर बैठे। श्रीकृष्ण की मृत्यु होने पर वे मातमपुरसी के लिये फिर द्वारिका आये थे । यह सब वृत्तान्त हरिवंश पुराण में विष्णु पर्व के ८७ वें अध्याय में लिखा है । साइबेरिया और उत्तरी एशिया के प्रदेशों में हिन्दुओं की सन्तान अभी तक मिलती है । साइबेरिया और फिनलैंड में यदुवंश की दो जातियों का होना इतिहास से ज्ञात होता है । उन जातियों के नाम श्याम-यदु और जादो हैं । " जावा द्वीप" जावा के इतिहास में स्पष्ट लिखा है कि भारत के कलिंग प्रान्त से हिन्दू उस द्वीप मे ं जाकर बसे थे । उन्होंने वहां के लोगों को सभ्यता सिखाई और अपना संवत चलाया । यह संवत् इस समय तक प्रचलित है । उसका आरम्भ ईसा से ७५ वर्ष पहिले हुआ था । इसके पीछे फिर हिन्दुओं का एक दल जावा गया । उस दल के लोग बौद्ध ( जैन ) मतावलम्बी थे । उस द्वीप में यह कथा सुनी जाती है कि सातवीं सदी के आरम्भ में गुजरात देश का एक राजा पांच हजार आदमी लेकर वहां पहुँचा और मतराम के एक स्थान पर बस गया । कुछ काल पीछे दो हजार मनुष्य और गये। ये सब बौद्ध-जैनी थे । उन लोगों ने धर्म का प्रचार किया । जिसमें बौद्ध मत का प्रचार विशेष किया। चीन देश का एक प्रसिद्ध यात्री, जिसने इस द्वीप को चौथी सदी में देखा था, लिखता है कि जावा में उस समय सब लोग हिन्दु मतानुयायी थे अर्थात् सर्व श्राये थे और सर्वजाति का धर्म चलता था । "लंका" - लंका में तो अत्यन्त प्रचीन काल से हिन्दुओं का आवागमन रहा है रावण को मारने के बाद लंका का राज्य सदाचारी विभीषण को दे दिया गया था पिछले समय में लंका और भारतवर्ष में बहुत निष्ट सम्बन्ध था इस द्वीप का दूसरा नाम सिंहलद्वीप है जिसका अपभ्रष्ट नाम “सिलोन" है । "अफ्रीका मिश्र " - सात आठ हजार वर्ष हुये जब एक मनुष्य दल हिन्दुस्तान से मिश्र गया और वहीं बस गया। वहीं उन हिन्दुओं ने बड़ी उच्च श्रेणी की सभ्यता फैलाई और अपनी विद्या और पराक्रम से बड़ा प्रभावशाली साम्राज्य स्थापित किया। एक प्रसिद्ध पुरावस्तुवेत्ता लिखते हैं कि मित्र निवासी बहुत प्राचीन काल में हिन्दुस्तान से स्वेज के रास्ते आये थे । वे नील नदी के किनारे बस गये थे । मिश्र के प्राचीन इतिसे मालूम होता है कि उस देश के निवासियों के पूर्वज एक ऐसे स्थान से आये थे जिसका होना अब हिदुस्तान के पन्त कहते थे । हास "सिंधु नदी का जल " - अटक से बारह भील नीचे जाकर नीला दिखाई देता है इस कारण वहाँ पर सिन्धु नदी का नाम " नीलाब" होगया है । यह नीलाब या नील नाम मिश्र की सबसे प्रसिद्ध नदी का है। सिंधु नदी का प्राचीन नाम " अबोसिन " है । अबीसीनिया जो अफ्रीका में एक बड़े प्रांत का नाम है इस अबोसिन से बना है । इन प्रमाणों से सिद्ध है कि सिन्धुतर के निवासियों की पहुँच मिश्र तक अवश्य हुई थी । "अबीसीनिया " यह देश सिन्धु नदी के तटपर रहनेवालों का बसाया हुआ है । प्राचीन काल Jain Ed International [ भारतीय व्यापारियों का inelurary.org Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७४ -५७७ में इस देश और भारतवर्ष से बहुत व्यापार होता था । कितने ही हिन्दू इस देश में खाते थे । इस विषय में टॉड साहब ने राजस्थान के इतिहास के दूसरे भाग में बहुत कुछ लिखा है । "यूरोप" यूरोप नाम संस्कृत शब्द हरियुषीया से निकला है और यूरोप भूमि भारत के प्राचीन निवासियों की परिचित थी इसके वेदोक्त प्रमाण लीजिये । ऋग्वेद में कहा है हरियुषीया देश में जाकर इन्द्रने वरशिल दैत्य के पुत्रों का बध किया । “ यूनान " - पोकोक साहब ने अपनी पुस्तक में इस बात के प्रबल प्रमाण दिये हैं कि यूनान देश को भारत के निवासियों ने ही अर्थात् मगध के हिन्दुत्रों ने ही बसाया था मगध देश की राजधानी का नाम प्रचीन काल में 'राजगृह' था उसमें रहने वाले गृहका कहलाते थे। इसी गृहका से ग्रीक शब्द बना है विहार देश का नाम पलश्वा था । वहाँ से वह जनसमूह ग्रीस में जाकर वसा वह पेलासगी कहलाया और उस देश का नाम पेलासगो पड़ गया। एक प्रसिद्ध यूनानी कवि सिपस के लेखानुसार यूनानियों के विख्यात राजा पेलास गस हिन्दुग्तान में बिहार का प्राचीन राजधानी में उत्पन्न हुआ था ! मेकडोनियन और मेसेडन शब्द मगध के अपभ्रंश हैं। मनुष्यों के कितने ही समूह मगध से जाकर यूनान में बसे और उसके प्रांतों को पृथक् २ नाम से पुकारने लगे। कैलाश पर्वत का नाम यूनान में " केनन " है और रोम में " कोकिन " है। क्षत्रियों की कई जातियों का यूनान में जाकर बसना सिद्ध होता है। यूनान में देवी देवता भारतवर्ष के देवी देवताओं की नकल है । उस देश का धर्म विधान साहित्य और कला शास्त्र भी हिंदू जाति ही की चीज है । ' रोम " - रोम शब्द राम से बना है। एशिया माइनर में हिन्दू जाति जाकर बसी, रोमवाले उसी की सन्तान है । रोम की समीवर्तिनी यूट्रेसियन जाति भी हिन्दु ही थी । रोम के देवी देवता भी हिन्दुस्तान के देवी देवताओं के प्रतिरूप हैं। यह भी इस बात का प्रमाण है कि रोम निवासी हिन्दु जाति के ही हैं । "अमरीका " अमरीका की श्राचर्यजनक प्राचीन सभ्यता के चिन्हों पर दृष्टि डाली जाय तो मालूम होगा कि यूरूप वासियों के प्रवेश करने के पहिले वहाँ कोई सभ्य जाति अवश्य रहती थी । दक्षिण श्रमरीका में बड़े २ नगरों के खंडहरों, दृढकोट, सुंदरभवनों, जलाशयों सड़कों, नहरों आदि के चिन्ह मिलते हैं जिससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में यहाँ कोई बड़ी उच्चश्रेणी की सभ्य जाति रहती थी । अच्छा तो यह सभ्यता श्रई कहाँ से ? यूरोपीय पुरावस्तु वेत्ताओं ने इसका पता लगाया है। वे कहते हैं ये सभ्यता और कहीं से नहीं हिन्दुस्तान से आई थी। वेरन महाशय का कथन है कि इस समय भी श्रमरीका में हिन्दुओं के स्मारक चिन्ह मिलते हैं । अब पोकाक महाशय का कथन सुनिये वे कहते हैं कि पेठ निवासियों की और उनके पूर्वज हिन्दुओं की सामाजिक प्रथायें एक सी पाई जाती हैं। प्राचीन अमरीका की इमारतों का ढंग हिन्दुओं के जैसा है । स्ववायर साहब कहते हैं कि बौद्ध (जैन) मत के स्तूप दक्षिण हिन्दुस्तान और उसके उपद्वीपों में मिलते हैं, वैसे ही मध्यम अमरीका में भी पाये जाते हैं। जैसे हिन्दु पृथ्वी माता को पूजते हैं वैसे ही वे भी पूजते हैं। देवी देवताओं और महात्माओं के पदचिन्ह जैसे हिन्दुस्तान में पूजते हैं वैसे वहाँ भी देखाते हैं । जिस प्रकार लंका में भगवान् बुद्ध के और गोकुल में श्रीकृष्ण के पदचिन्हों की पूजा की जाती है उसी तरह मेक्सिकों में भी एक देवता के पदचिन्ह पूजे जाते हैं। जैसे सूर्य चन्द्र और उनके प्रहण हिन्दुस्तान में विदेशियों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध ] ५९१ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हिन्दुओं की तरह । सूर्य्यदेव की पूजा माने जाते हैं उसी तरह वहां भी घंटा घड़ियाल आदि जैसे ही हिन्दुस्तान में इन अवसरों पर बजाये जाते हैं। वहाँ भी उसी के बाजे बजते हैं। सूर्य चन्द्र का राहु से प्रसित होना वे भी मानते हैं वहां के पुजारी सर्प आदि के चिन्ह कंठ में धारण करते हैं इससे हिन्दुस्तान के महादेव और काली आदि देवी देवताओं का स्मरण होता है । हिन्दुस्तान में जैसे गणेशजी की मूर्ति की पूजा होती है । उसी तरह वहाँ भी एक वैसे ही देवता की पूजा होती है । जिस प्रकार हिन्दू धर्म ग्रन्थों में प्रलय का वर्णन है वैसा ही डन लोगों के ग्रंथों में भी है उनमें एक कथा है कि उनके एक महात्मा की आज्ञा से सूर्य की गति रुक गई थी वह ठहर गया था । हमारे महाभारत में भी ऐसा ही उल्लेख है । जयद्रथ वध के समय श्री कृष्ण की आज्ञा से सूर्य्य ठहर गये थे । कृष्ण की मृत्यु पर अर्जुन के शोक नाद से भी सूर्य का रथ रुक गया था। अमरीका के आदिम निवासी भी पृथ्वी को कच्छप की पीठ पर ठहरी हुई मानते हैं दोनों देशों में होती है । मेक्सिको में सूर्य के प्राचीन मन्दिर हैं । जीव के आवागमन के सिद्धान्त में भी हिन्दुत्रों की तरह उन लोगों का विश्वास है धार्मिक विषयों के अतिरिक्त सामाजिक विषयों में भी बहुत कुछ समता देख पड़ती है। उन लोगों के कितने ही रीत रिवाज हिन्दुओं के से हैं। उनका पहिनना हिन्दुओं के ही ढंग का है। वे भी खंडा ऊपर चलते हैं। स्त्रियों के वस्त्र भी हिन्दु स्त्रियों के सदृश ही जान पड़ते हैं । अमरीका में हिन्दु श्रीरामचन्द्रजी के बाद गये ऐतिहासिक कथाओं से भी जाना जाता है। कि महाभारत के युद्ध के बहुत पीछे तक हिन्दु अमरीका को जाया करते है रामचन्द्रजी और सीताजी की पूजा उनके असली नाम से वहाँ आज तक होती है पेरू में रामोत्सव नाम से रामलीला भी होती है । अमरीका वालों की भवन निर्माण शैली और प्राचीन ऐतिहासिक बातें ऐसी हैं जिसका विचार करने पर उन लोगों को हिन्दु जाति से ही उत्पन्न मानना पड़ता है। महाभारत में लिखा है कि अर्जुन ने पातालदेश जीत कर वहाँ के राजा की कन्या 'उलूपी' से विवाह किया था। उससे एक पुत्र हुआ जिसका नाम 'अवर्णव' था । वह बड़ा पराक्रमी था । । प्राचीन काल में भारतवर्ष से अमेरिका जाने के दो रास्ते थे । एक हिन्दुस्तान से लंका अथवा बंगाल की खाड़ी से जावा और बोर्नियो होते हुये मेक्सिको पेरू या मध्य अमरीका तक चला गया था । दूसरा चीन, मंगोलिया, साइबेरिया, और वहिरंग के मुहाने से होकर उत्तरी अमरीका तक गया था । इस समय जहां बहिरंग का मुहाना है वहाँ प्राचीन समय में जल न था वह स्थान अमरीका से मिला हुआ था । पीछे भौमिक परिवर्तन होने से वहां जल होगया । जैसे पहिले एशिया से अफ्रीका महाद्वीप स्थल मार्ग से मिला था उसी तरह अमेरिका देश भी मिला था । अव एशिया और अफ्रीका के बीच स्वेज नहर और एशिया और अमरीका के बीच बहिरंग का मुहाना 1 सरस्वती संम्वत् १६६१ वैशाख मास के अंक से महाजन संघ की पंचायतें पुराने जमाने में ऐसा रिवाज था कि राजा की ओर से सभासद चुने जाते थे और जनता के छोटे बड़े तमाम काय्यों का निपटारा उन सभासदों द्वारा होता था जैसे आप सम्राट् चन्द्रगुप्त अशोक और सम्प्रति के समय का इतिहास पढ़ आये हो। पर जब महाजन संघ की स्थापना हुई और बाद जैनाचाय्य ५९० Jain Edcon International [ भारतीय व्यापारियों का brary.org Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५७४-५७७ ने प्रामोप्राम अजैनों को जैन बनाकर महाजन संघ में वृद्धि की और राजा विक्रम के समय तक तो महाजन संघ अपनी शाखा प्रतिशाखा से इतना फला फूला कि उनकी संख्या करोड़ों तक पहुँच गई और प्रत्येक पाम नगर में प्रसरित भी हो गया । अतः इसका संगठन बल मजबूत बनाने के लिये ऐसी पंचायतें स्थापित करदी कि संघ एवं समाज का सब कार्य उन पंचायतों द्वारा होने लगा वे पंचायतें केवल कल्पना मात्र से नहीं बनाई पर खास शास्त्रों के अनुसार बनाई गई थीं जैसे जैनागमों में लिखा है कि देवताओं की व्यवस्था के लिये स्वर्ग में एक इन्द्र होता है उनके कार्य में मददगार सामानीक देव और सलाहकार तीन प्रकार की परिषदा के देव भी होते हैं जैसे-- १--सामानीक देव-इन्द्र कोई भी काम करना चाहे तो पहले सामानीक देवों के साथ परामर्श करे जब सामानीक देव सहमत हो जाय तब ही इन्द्र वह कार्य कर सकता है । जैसे राजा के उमराव । २-आभ्यान्तर परिषदा के देव--जिस कार्य को इन्द्र करना चाहे तो पहिले आभ्यान्तर परिषदा के देवताओं की सलाह लेता है और वे सलाह दे दें तब ही कार्य किया जाय । जैसे राजा के मुत्सद्दी । ३-मध्यम परिषदा के देवताओं से विचार करे । जैसे कार्य कर्ता बुद्धिमान । ४-बाह्य परिषदा के देवताओं ( श्राम जनरल ) को एकत्र कर हुक्म सुनादें कि हम व सामानीक देव, या आभ्यान्तर परिषदा के देव और मध्यम परिषदा के देवों ने निर्णय कर लिया है कि अमुक कार्य किया जाय अतः तुम इस कार्य को शीघ्र करो। इसी प्रकार हमारी पंचायतों में भी १--इन्द्र के स्थान एक संघपति या नगर सेठ बनाया गया। २-सामानीक देवों के स्थान-चार चौधरी एवं पांच पंच ३-- श्राभ्यान्तर परिषदा के देवों के स्थान प्रतिष्ठित बुद्धिवान समाज के शुभ चिन्तक सलाह देने वाले। ४-मध्यम परिषदा के देवों के स्थान कार्य पद्धति के ज्ञाता । ५-बाह्य परिषदा के देवों के स्थान-आम पब्लिक । इस प्रकार की व्यवस्था करने में न तो निायकता रहती है और न नायक निरंकुश ही बन जाते हैं और कार्य निर्विघ्नतया सफल हो जाता है । महाजन संघ में इस प्रकार की पंचायतें बड़े २ नगरों में ही नहीं पर छोटे २ ग्रामों में भी थीं और वे केवल एक महाजन संघ का ही काम नहीं करती पर तमाम नगर का भी काम कर लेती थीं केवल नागरिकों को ही नहीं पर सत्ताधीश राजाओं को भी महाजनों की पंचायतों पर पूर्ण विश्वास था पहिले जमाने में इस प्रकार इन्साफी पंचायतें होने से किसी को भी राज अदालत देखने का समय ही नहीं मिलता था। कदाचित् कई राज अदालत में चला भी जाता तो आखिर राज भी उनका इंसाफ पंचायतों पर छोड़ देते थे । जब तक पदाधिकारी पंचों के हृदय में न्याय सत्य सफाई और निष्पक्षता रही वहाँ तक पंचायतों का कार्य व्यवस्था के साथ चलता रहा और जनता उन पंचों को परमेश्वर ही कहती थी। जिसका एक दो उदाहरण यहाँ लिख दिया जाता है । १-कुसमपुर नगर के राजा के दिल में इस बात की शंका पैदा हुई कि दुनियां कहती है कि पंचों में परमेश्वर हैं तो क्या यह बात सत्य है ? इसकी परीक्षा अवश्य करनी चाहिये । गजा ने रात्रि समय वरदत्त सेठ की दुकान पर जाकर कहा सेठजी एक हजार रुपयों की जरू dain Edu महाजनों की पंचायतियों 1 www.ja५९३y.org Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रत है मैं नगर का राजा हूँ आप खाते में नाम न लिखें सुबह ही रकम पहुँचा दी जायगी। सेठजी ने बिना नाम लिखे राजा को रुपये दे दिये । एक दो तीन दिन व्यतीत होगये रुपये आये नहीं। सेठजी ने राजाज्ञा भंग के भय से रुपये राजा के नाम भी नहीं लिखे । आखिर सेठजी ने राजा से कहलाया कि या तो हजार रुपये भेज दीरावें या नाम लिखने की आज्ञा फरमावें । राजा ने सेठ को बुलाकर खूब धमकाया और कहा कि कौन तेरे रुपये लाया है । जब तू मेरे से ही बिना लाये रुपये मांगता है तो इस प्रकार दूसरे लोगों से तो बिना दिये कितने रुपये वसूल किये होंगे और जो तू कोटाधीश बना है इसी प्रकार बिना दिये रुपये वसूल करके ही बना होगा इत्यादि । विचारा सेठ बड़ी ही चिंता में पड़ गया । रुपये नहीं आ जिसकी तो चिंता नहीं पर राज मुझे सच्चे को झूठा बताता है इस बात का बड़ा ही दुःख है। राजा ने कहा क्यों सेठजी क्या करना है ? सेठजी ने कहा कि आप फरमाते हो कि रुपये मैं नहीं लाया तो ऐसा ही सही । राजा ने कहा ऐसा नहीं अपने मामले की पंचायत करवालें । सेठजी ने कहा ठीक है बस, पंचों को बुलाकर दोनों ने अपने अपने हाल सुनाकर कहा कि हमारी पंचायती कर दीजिये । पंचों में कई ने सोचा कि राजा गत्रि समय स्वयं जाकर सेठजी से हजार रुपये लावे यह असम्भव है तब किसी ने कहा कि सेठजी की इतनी हिम्मत नहीं है कि राजा के राज में रहते हुये राजा पर झूठा कलंक लगावे दूसरे महाजनों की पोते बाकी में हजार रुपयों का फरक चल नहीं सकता है इत्यादि विचार ही विचार में टाइम होगया राजा की रजा लेकर सब भोजन करने को गये उन पंचों में रुपये देने वाले सेठ जी भी शामिल थे। भोजन करके चार पंच तो आगये पर सेठजी नहीं आये । चारों पंचों ने बार बार कहा कि सेठजी अभी तक नहीं आये इतने ही में राजा ने सहसा कह दिया कि सेठजो का मकान दूर है, आता होगा। बस, एक पंच ने निर्णय कर लिया कि सेठजी का कहना सत्य है । राजा जरूर सेठजी के वहाँ से रुपये लाया है। यदि राजा रुपये नहीं लाता तो उसको क्या मालूम कि सेठजी का घर दूर है। बस, सेठजी आये और सबने एक विचार कर राजा से कहा कि सेठजी सत्य कहते हैं आप एक हजार रुपये सेठजी के यहाँ पहुँचा दें । राजा ने कहा किस न्याय से ? पंचों ने कहा बतलाओ हमारा घर वहाँ से कितनी दूर है ? राजा ने कहा मुझे क्या मालूम पंचों ने कहा तब सेठजी का घर दूर है आपको कैसे ज्ञात हुआ ? राजा ने कहा मैंने आप लोगों की परीक्षा के लिये ही इतना प्रपंच किया है कि यह सत्य है पंच परमेश्वर हैं। राजा ने सेठजी को हजार रुपया और पंचों को इनाम देकर विसर्जन किया। २-इसी प्रकार काशी के राजा ने एक इब्भ सेठ के पूर्वजों के नाम पर एक लक्ष रुपयों का खत मांड कर स्ठ को बुलाया और कहा कि तुम्हारे पूर्वजों पर एक लक्ष रुपये बाकी लेना निकलते हैं । तुमको मय ब्याज के जमा करवाना चाहिये । विचारे सेठ ने सोचा कि 'समुद्र में रहना और मगर से बैर रखना' ठीक नहीं है अतः उसने कहा कि हमारे पूर्वज परम्परा से कहते आये हैं कि राजा की रकम देनी है पर ब्याज के माड़े से दी नहीं गई है। राजा कहते हैं रकम ब्याज से ली जाय और हम कहते हैं कि मगड़े की रकम का ब्याज नहीं दिया जाय इत्यादि। अतः लक्ष रु पये तैयार हैं जब फरमावें तब ही हाजिर किये जावें राजा ने कहा कि अब इस झगड़े को कहां तक रक्खा जाय पंच डाल दें जो फैसला दें वह मंजूर कर लो। सेठ ने कहा ठीक है। बस, पंचों को बुलाकर दोनों ने अपना २ हाल सुना दिया। पंच सोचने लगे कि इतना बड़ा सेठ पुश्तों से धनाढ्य हैं खत लिखकर रुपये लेजाय यह असंभव है। तब एक ने कहा [ पंचों में परमेश्वर है। पQ. Jain Eda International ainelibrary.org Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७४-५७७ गजा के पास पुराने खत हैं यह भी तो झूठ नहीं हो सकता। इसी विचार में समय होगया और सब पंच भोजन करने को चले गये । एक पंच ने जिस समय का राजा का खत था उस समय की अपनी बहिये निकाल कर देखी तो मालूम हुआ कि राजा ने अपने खत में जो रुपयों का सिक्का लिखा है वह उस समय का नहीं पर बहुत पीछे का है इससे निर्णय किया कि खत जाली बनाया है। बस, भोजन करके सब पंच वापिस राजा के पास आये और सब एक मत होकर राजा को कहा कि खत आपका जाली है । गजा ने गुस्से में आकर कहा कि तुम साहूकार साहूकार का पक्ष करते हो वरना मेरा खत जाली होने की क्या साबूती है ? पंचों ने कहा कि आपने बड़ी चतुराई से जाली खत लिखा है परन्तु इसमें सिक्का को बदलाने की गलती होगई है । जो सिक्का आपने लिखा है वह खत के समय से बहुत पीछे का है । राजा ने सुन कर कहा कि मैंने आपकी परीक्षा के लिये ऐसा किया है। पर पंच परमेश्वर कहलाते हैं यह सत्य ही है। ____ करीब एक शताब्दी पूर्व एक अंग्रेज टॉड साहब हुये हैं। उसने राजपूताने में भ्रमण कर वहां का हाल 'टॉड राजस्थान' नामक पुस्तक में लिखा है। जिसमें श्राप लिखते हैं कि ग्राम २ में ऐसी पंचायतें मैं देखता हूँ कि जहाँ रईस की जरूरत भी नहीं है। वे पंचायतें ग्राम के सब काम स्वयं निपटा देती हैं इत्यादि । इससे पाया जाता है कि एक शताब्दी पूर्व महाजनों की पंचायतें सुव्यवस्थित थीं और वे पंच प्राम का लेन देन का एवं मगड़े टंटे का काम आपस में निपटा देते थे कि लोगों को राज अदालतों का मुंह देखना नहीं पड़ता था परन्तु बाद में वे पंचायतें उसी रूप में नहीं रही। न जाने उनके खाने में ऐसा कौनसा अन्न आया होगा कि पक्षपात एवं स्वार्थ तथा अहंपद रूपी पिशाच उनके हृदय में घुस गया कि अपने परोपकारी कामों से हाथ धो बैठे और दुनिया का निपटारा करने वालों स्वयं आपस में लड़ झगड़ कर अपना महत्व खो दिया कि उन खुद को ही अदालतों में जाकर इन्साफ लेना पड़ता है। पुराने जमाने की पंचायतों का यशः आज भी अमर एवं जीवित है। जहाँ महाजनों की पंचायते हैं वहां उन पंचायतें के निर्वाह के लिये ग्रामोंग्राम शुभ प्रसंगों पर लागन लगाई हुई है उसकी आय व्यय के हिसाब को पंचायत हिसाब कहा जाता हैं पंचायत आमन्द के लिये कई मकान दुकानें और बरतन विगैरह पाता है वह पंचायत में जमा होता हैं इस प्रकार की पंचायतें छोटे छोटे प्रामों से लगा कर बड़े बड़े नगरों में हैं इतना ही क्यों पर उपकेश वंशीय लोग अपने मूल स्थान को छोड़ कर अन्य स्थानों में वास किया और वह उनकी थोड़ी बहुत बसती जम जाती थी वहां भी उनकी पंचातियों का प्रबन्ध होजाता था आज उन पंचायतों का रूप बदल गया है पर उनका मूल ध्येय केवल जाति का ही नहीं पर साधारण जनता की सेवा करने का ही था jain Eपंचों में परमेश्वर का उदाहरण ] www.५९"ary.org Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७७-१९९ वर्ष ] । भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २० प्राचार्य श्री सिद्धसूरि ( तृतीय) आचार्यस्तु स सिद्धसरि रिह बैडीडवाख्य गोत्रात्मजः । यो हीरेण समश्चसुद्युतियुतः सर्वैश्च देवैः स्तुतः ॥ श्रुत्वा यस्य रसेन पूरित तमं वाक्यामृतं मानवाः । देवा मंत्र बलेन मुग्धमन सो व्याख्यानमध्येऽभवन् । २.. HonePer.oली. चार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज जैन संसार में सिद्ध पुरुष के नाम से विख्यात थे केवल जैन ही क्यों पर जैनेतर लोग भी आपके आत्मिक चमत्कार एवं सिद्धियों को देख मंत्र-मुग्ध बन कर आपके चरण कमलों की सेवा करते थे। आपने अपने पूर्वजों की स्थापित की हुई मशीन को द्रुतगति से चलाने में एक चतुर ड्राइवर का काम किया अर्थात् आप एक धर्मप्रचारक आचार्य हुये हैं । आपश्री का जीवन महत्वपूर्ण था। __ माडव्यपुर नगर के राजा सुरजन के मुख्य मंत्री श्रेष्टि गोत्रीय नागदेव था। नागदेव पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों देवियों की महती कृपा थी यही कारण था कि मंत्री नागदेव को लोग धन में कुवेर और बुद्धि में बृहस्पति हो कहा करते थे । नागदेव के रंभा नाम की सुशीला स्त्री थी पर उसके कोई संतान न होने से मंत्री ने दूसरा विवाह क्षत्रिय हरनारायण की पुत्री देवला के साथ किया था पर पूर्व कर्मोदय उसके भी कोई संतान नहीं हुई । मंत्री ने सञ्चायिका देवी का अाराधन किया । तीन उपवास की अन्तिम रात्रि में देवी ने कहा कि उपकेशपुर के चिंचट गोत्रिय शाह रामा की पुत्री कमला के साथ विवाह कर तेरे बहुत संतान होंगी। श्रेष्टि ने देवी के बचनों को तथाऽस्तु कर लिया। देवी अदृश्य होगई । श्रेष्ठि ने तीन उपवास का पारणा किया और एक योग्य पुरुष को उपकेशपुर भेजा। वह जाकर शाह रामा से मिला और मंत्री नागदेव के समाचार कहे तो शाहरामा बड़ा ही खुश हुआ कारण, उसको नागदेव जैसा जमाई मिलना कहां था। उसने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और थोड़े ही दिनों में कमला का विवाह मंत्री नागदेव के साथ कर दिया। बस फिर तो था ही क्या देवी का बचन सफल हो ही गया । कमला के क्रमशः सात पुत्र हुए इतना ही क्यों पर पहले परणी हुई रंभी और देवला के भी सात सात पुत्र हुए पट्टावली कारों ने न गदेव के परिवार का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। माता कमला के लघु पुत्र का नाम तेजसी बतलाया है तेजसी एक तेज का पुंज ही था जिसकी क्राति का तेज सूर्य की भाँति सर्वत्र फैल गया था । मंत्री नागदेव का घराना शुरू से ही जैनधर्मोपासक था। नागदेव ने धर्मकार्यों में लाखों नहीं पर करोड़ों का द्रव्य व्यय कर पुष्कल पुन्योपार्जन किया था इतना ही क्यों पर अनेक क्षत्रियों को जैनधर्म के उपासक बना कर जैन धर्म का प्रचार में खूब सहयोग दिया था एक समय आचार्य ककसूरिजी महाराज का पधारना माडव्यपुर में हुआ। श्रीसंघ ने सूरिजी महाराज का खूब उत्साह के साथ स्वागत किया । सूरिजी का व्याख्यान बड़ा ही प्रभावोत्पादक होता था। आपके ५९६ For Private & Personal use only [ मांडव्यपुर का मंत्री नागदेव ainerbrary.org Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७७-५९९ व्याख्यान में तत्त्विक, दर्शिनिक और अध्यात्मिक बातों के साथ त्याग वैराग्य पर अधिक जोर दिया जाता था जिसको श्रवण कर जनता की भावना आत्म कल्याण करने में दृढ़ हो रही थी । मंत्री नागदेव अपनी तीनों स्त्रियों और सब पुत्रों के साथ सूरिजी की सेवा भक्ति में रहता था और हमेशा व्याख्यान भी सुनता था वह भी केवल व्यसन रूप ही नहीं पर बड़ी रुचि के साथ, तथा नागदेव को संसार की असारता का भी खयाल होने लग गया था अतः वह संसार के कार्यों से उदासीन रहने लगा । इधर कुँवर तेजसी की कोमल आत्मा पर तो सूरिजी के व्याख्यान ने इतना प्रभाव डाला कि उसकी संसार एक कारागृह ही दीखने लगा । पर इस प्रकार का वैराग्य छिपा हुआ कब तक रह सकता एक दिन तेजसी ने सूरिजी के पास जाकर अर्ज की कि हे प्रभो ! आपके व्याख्यान से मेरा दिल संसार से विरक्त हो गया है । अब मैंने निश्चय कर लिया है कि आपश्री के चरणार्विन्द में भगवती जैन दीक्षा ग्रहन कर मैं अपना कल्याण सम्पादन करूँ । यह मेरी भावना सफल करना आपके हाथ में है । 1 मंत्री स्वयं संसार से बिना नहीं रहता है । बस, फिर तो था ही क्या, सूरिजी तो इस बात को चाहते ही थे कि कोई भी भावुक इस दुःखमय संसार का त्याग कर आत्म कल्याण करे। सूरिजी ने इस प्रकार का उपदेश दिया कि तेजसी का वैराग्य दुगुति होगया । तेजसी सूरिजी को वन्दन कर अपने मकान पर आया और अपने माता पिता को बधाई देने लगा कि में सूरिजी के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ आप श्रज्ञा प्रदान करावें । यद्यपि उदास था तथापि मोहनी कर्म एक इतना प्रबल होता है कि वह अपना असर किये नागदेव ने कहा बेटा ! अभी तुम्हारी बाल्यावस्था है। तेरी माँ तो तेरी शादी के लिये बहुत दिन हुये मुझे कह रही है मैंने इसके लिये निश्चय भी कर रक्खा है । अतः इस समय तेरे दीक्षा लेने का अवसर नहीं है इत्यादि पास में ही तेजसी की माता बैठी थी । उसने तो अपने जलते हुये कलेजे से ऐसे शब्दोच्चारण किये कि तुझे किसने भ्रमा दिया है तू दीक्षा की बात करता तो मैं अपने सामने काल को ही देखती हूँ । बेटा ! मैं तेरे बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती हूँ। मैं तुमको हर्गिज दीक्षा नहीं लेने दूंगी । व्यर्थ ही दीक्षा की बात कह कर दुनिया में हँसी क्यों करवाता है इत्यादि । तेजसी ने कहा माता पूर्वजन्म में तो अपन लोगों ने अच्छे सुकृत किये हैं कि यहां सब सामग्री अच्छी मिली है यदि इस मिली हुई सामग्री का दुरुपयोग किया जाय तो क्या बार बार ऐसी सामग्री मिल सकेगी। माता पिता तो पुत्र के हितचिंतक होते हैं और पुत्र के हितार्थ अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं तो आप मेरे हित में बाधा क्यों डालते हो। मैं तो आपको भी कह देना चाहता हूँ कि आप भी अपना कल्याण करने को इसी मार्ग का अनुकरण करें। कारण, एक दिन मरना तो सबके लिये निश्चय ही है फिर इस घोर दुःखों का खजाना रूप संसार में रह कर मिला हुआ अमुल्य मनुष्य का भव व्यर्थ क्यों खो दिया जाय ? माता सच्चा प्रेम तो जम्बु कुँवर के माता पिताओं का था कि उन्होंने अपने पुत्र के साथ दीक्षा लेकर अपना कल्याण किया अतः आपको भी विचार करना चाहिये । इस विषय में मैं आपसे अधिक क्या कहूँ ? मंत्री नागदेव तो पहिले से ही संसार से कर हुआ पर माता कमला अभी मोहनीय कर्म के उदास रहता था उसको तो श्रापने पुत्र का कहना ठीक रूचि - उदय कई प्रकार से समझा बुझा कर अपने पुत्र को घर में रखने की कोशिश करती थी । पर नगदेव ने कहा कि जब तेजसी इस बाल्यावस्था में ही दीक्षा लेना कुँवर तेजसी और माता पिता ] ५९७ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७७-१९९ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चाहता है तो अपन तो मुक्त भोगी है तेजसी के साथ अपने को भी दिक्षा लेनी चाहिये । कारण ऐसा सुअवसर अपने लिये फिर कब आने वाला है इत्यादि । इस पर तो माता कमला को और भी अधिक गुस्सा आगया और उसने कहा कि तेजसी क्या दीक्षा ले श्राप खुद तेजसी को दीक्षा दिलाना चाहते हैं। तब ही तो आप मुझे उपदेश दे रहे हो। नागदेव ने कहा कि ठीक है तेजसी ही क्यों पर मैं खुद ही दीक्षा लेना चाहता हूँ । बतलाओ अब आपकी क्या इच्छा है ? तुम खुद सोच सकती हो कि क्या इस प्रकार की अनुकूल सामग्री मिलने पर भी सम्पूर्ण जिन्दगी इस कर्मबन्ध के कारण रूप संसार कार्य में ही व्यतीत कर देना । अपने तो भुक्तभोगी हैं पर देखो इस तेजसी को कि इसने संसार को क्या देखा है फिर भी दीक्षा लेने को तैयार हो गया है। कमला ने कहा कि श्राप तो बाप बेटा दीक्षा लेने को तैयार होगये हैं न ? नागदेव ने कहा तेजसी के लिये मैं नहीं कहता हूँ पर मैं तो अपनी कह सकता हूँ कि मेरी इच्छा तो दीक्षा लेने की है और मैं तो आपसे भी कहता हूँ कि ऐसा सुअवसर आप भी हाथों से न जाने दीजिये । तेजसी - क्या माता तू मेरे से इतना प्रेम करती हुई भी मैं दीक्षा लू और तू घर में रहेगी ? कमला-बेटा ! मैं जान गई हूँ कि तेरा बाप ही सब को दीक्षा दिलाने की कोशिश करता है । यदि तुम बाप बेटे का यही इरादा है तो एक मुमको ही क्यों सब के सब घरवालों को दीक्षा क्यों न दिलावें कि सबका कल्याण होजाय । इत्यादि माता कमला ने खूब गुम्सा में जवाव दिया । नागदेव ने कहा कि आप जरा शान्त हो कर अपना तो निश्चय करलो बाद घरवालों की बात करना । कमला--जब आपकी इच्छा ही मुझे दीक्षा दिलाने की है तो मैं कह ही क्या सकती हूँ मेरा पुत्र एवं पति दीक्षा लेता है तब मेरी इच्छा हो या न हो मैं भी आपके साथ दीक्षा लेने को तैयार हूँ। कहिये अब आपको क्या करना है ? नागदेव ने अपनी दूसरी दोनों औरतों को और २० पुत्रों को बुला कर कहा कि हम तीनों जनों ने दीक्षा लेने का निश्चय किया है और तुम्हारे अन्दर से किसी का विचार हो तो हमारे साथ हो जाइये । इस पर पहिले तो खूब वादविवाद हुआ पर आखिर नागदेव की दोनों औरतें और ७ पुत्र दीक्षा लेने को तैयार होगये अर्थात् बात ही की बात में एक घर से १२ भावुक वैरागी बन गये। __इस बात की खबर सूरिजी को मिली तो सूरिजी कमी क्यों रक्खें। व्याख्यान में दीक्षा ही दीक्षा के यश एवं गुण गाये जाने लगे कि माडव्यपुर एवं आस पास के ग्राम तथा बाहर से आये हुवे दर्शनार्थी लोगों में से कई ४५ नरनारी दीक्षा के उम्मेदवार बनगये । अहा-हा तेजसी कैसा मिमित बना है । __ भलो ! उस जमाने के कैसे हलुकर्मी जीव थे। उन लोगों का उपादान कारण बहुत सुधरा हा था और पूर्व भवों की ऐसी प्ररणा थी कि थोड़ा सा निमित्त कारण मिलजाने पर वे अपना श्रात्मकल्याण करने को कटिबद्ध होजाते थे और इस प्रकार दीक्षायें होने से ही वे प्राचार्य एवं मुनिजन सौ सौ दो दो सौ एवं पांचसौ साधुओं के साथ प्रत्येक प्रान्तों में विहार कर जैनधर्म का प्रचार किया करते थे। माण्डव्यपुर नगर के श्राज घर घर में आनंद मङ्गल छागया। मुहल्ले-मुहल्ले के मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव के बाजे बजने लगे। मुक्ति रमणिके वर पर घर में बंदोले खारहे हैं। भक्त लोग इस पुनीत कार्य का अनुमोदन कर रहे हैं। नागदेव के पुत्र सोमदेवादि अपने माता पिता एवं भ्राताओं की c hternational [माता-बेटा का सलाद Jain E Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७७-५९९ दीक्षा के महोत्सव में खूब खुल्ले हाथों से द्रव्य व्यय करने को उत्साहित हो रहे हैं। नगर में सर्वत्र सूरिजी महाराज की भूरि भूरि प्रशंसा और यशोगान गाये जा रहे हैं। वर्तमान हैं तो पंचमारा पर आज तो माडव्यपुर में चौथा आरा ही वरत रहा है । शुभ मुहूर्त में सूरिजी महाराज के वृद्धहस्ताविन्द से तेजसी आदि ५७ नर नारियों की दीक्षा बड़े ही ठाठ से होगई। सूरिजी ने तेजसी का नाम राजहंस रख दिया। जो साधु रूप हंसों में राजा ही था । बस व्यापारी जैसे व्यापार में लाभ मिलजाने के बाद फौरन रवाना होजाता है वैसे ही सूरिजी महाराज को पुष्कल लाभ होगया अब वे क्यों ठहरें अपने शिष्य मंडल को साथ लेकर सूरिजी उपकेशपुर की ओर बिहार कर दिया। मुनि राजहंस को पहिले से ही संयम की रुचि और ज्ञान पढ़ने की उत्कंठा विशेष थी फिर श्राचार्य कक्कसूरिजी की पूर्ण कृपा तब तो कहना ही क्या ? स्वल्प समय में ही आपने सामायिक साहित्य का अध्ययन कर लिया । ग्यारह अंग एवं चारपूर्ण तो आपने इस्तामलक की भांति कण्ठस्थ ही कर लिये थे | व्याकरण, न्याय, तर्क, छन्द, काव्यादि के धुरंधर विद्वान् होगये विशेषता यह थी कि आपने दीक्षा लेने के पश्चात् एक दिन भी गुरु सेवा नहीं छोड़ी थी । पहिले जमाने के साधु गुरुकुल वास में रहने में अपना गौरव समझते थे । बात भी ठीक है कि जो गुण हासिल होते हैं वह गुरुकुल वास में रहने से ही होते हैं। मुनि राजहंस को योग्य समझ कर सूरिजी ने अष्ट महानिमित्त का अध्ययन करवा कर कई विद्याएँ भी प्रदान करदी जिससे मुनि राजहंस की योग्यता और भी बढ़ गई । आचार्य ककसूरी महाराज लाट सौराष्ट्र और कच्छादि प्रदेश में विहार करते हुये सिन्धधरा में पधारे आप का चतुर्मास मारोटकोट नगर में हुआ। आप के बिराजने से यों तो बहुत उपकार हुआ पर १७ भावुकों ने दीक्षा लेने का निश्चय किया और चतुर्मास के बाद श्री संघ ने दीक्षा के निमित्त बड़ा ही समारोह से महोत्सव किया और उन दिक्षाओं के साथ मुनिराज हंसादि ७ साधुओं को उपाध्याय पध्यानान धानादि पांच साधु को वाचकपद संयमकुशलादि तीन मुनियों को प्रवृतकपद मंगलकलसादि ११ मुनियों की गाणिपद प्रदान किया । हाँ, जहाँ विशाल समुदाय होता है और उनको अन्योन्य प्रान्तों में विहार करवाना पड़ता है तब पदवीधरों की भी आयश्यकता रहती है। सुरिजी ने अपने शासन में भूभ्रमन कर धर्म का प्रचार बढाया । आचार्य ककसूरि ने अपने पट्ट पर उपाध्याय विशालमूर्ति को सूरि बनाकर उनका नाम देवगुप्तसूरि रख दिया था पर देवगुप्तसूरि का आयुष्य अल्प था । वे केवल ३ वर्ष ही आचार्य पद पर रहे और अन्त में श्र ने पद पर उपाध्याय राजहंस को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया था । हमारे चरित्रनायक सिद्ध सूरीश्वरजी महाराज बाल ब्रह्मचारी महान तपस्वी साहित्य के धुरंधर विद्वान एवं निर्मित शास्त्र के पारगामी और विद्या भूषीत मरुधर एक जगमगाता सितारा ही थे । आपश्री जी के आज्ञावृति श्रमण संघ मरुधर मेदपाट श्रावंती लाट सौराष्ट्र कच्छ सिन्ध पजाब महाराष्ट्र और सूरसेनादी सब प्रान्तों में विहार करते थे । उन सबकी संख्या कई पांच हजार से भी अधिक थी । एक समय सूरिजी अपने विद्वान शिष्यों के साथ विहार करते हुए पुनित तीर्थ श्री शत्रुंजय की यात्रा कर वल्लभी नगरी में पधारे थे। उस जमाने का वल्लभी जैनों का एक केन्द्र ही था। श्रीसंघ ने सूरि का शानदार स्वागत किया और सूरिजी का भंड़ेली व्याख्यान हमेशा होता था । ठीक उसी समय सौराष्ट्र में कहीं-कहीं बौद्धों के मिक्षु भी भ्रमण करते थे पर जैनाचायों की प्रबल माडव्यपुर में ५७ भावुकों की दीक्षा ] ५९९ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७७-१९९ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सत्ता के कारण उनके पैर जम नहीं सकते थे । आचार्य सिद्धसरि वल्लभी में बिराजते थे । उस समय बौद्धाचा बुद्धार्य भी अपने शिष्यों के साथ बल्लभी में आया था और अपने धर्म के प्रचार के लिये उपदेश भी देता था यह बात जैनाचार्य्यं सिद्धसूरि से कब सहन होने वाली थी । आप के पास एक विमल - कलस नाम का वाचक था उसने वादी चक्रवर्ति की उपाधि को चरितार्थ करते हुये शास्त्रार्थ में अनेक वादियों को पराजय किया था । अतः वह बुद्धार्य से कब चूकने वाला था। उस समय वल्लभी में राजा शल्यादित्य राज करता था वाचक विमल कलस ने राजसभा में जाकर शास्त्रार्थ के लिये कहा और राजा ने मंजूर कर दोनों आचार्यों को आमंत्रण दे दिया और ठीक समय पर सभा हुई । आचार्य सिद्धसूरि वाचकजी के साथ पधारे। उधर बौद्धाचार्य भी अपने साधुत्रों के साथ आये पर स्याद्वाद सिद्धान्त के मर्मज्ञ वाचकजी के सामने विचारा क्षणक मत वाले वोध कहाँ तक ठहर सकता । बस, थोड़े ही समय में बौद्धाचार्य को परास्त कर दिया और जैनधर्म की जयध्वनि के साथ आचार्य श्री अपने स्थान पर श्रागये और बौद्धाचार्य वहाँ से रफूचक्कर होगया । आचार्य सिद्धसूरि ने उस समय की परिस्थिति देखकर वल्लभी में एक श्रमण संघ की सभा करने का विचार कर अपने साधुओं की सम्मति लेकर यह प्रस्ताव राजा शिलादित्य एवं सकल श्री संघ के सामने रखा और कहा कि इस समय बौद्धों का भ्रमण आपकी तरफ ही नहीं पर और भी कई प्रान्तों में हो रहा है । अत: जैन धर्म की रक्षा के लिये सकल श्रीसंघ को कटिबद्ध हो जाना चाहिये जिसमें भी श्रमण संघ को तो प्रत्येक प्रान्त में बिहार कर जनता को सदुपदेश देना चाहिये। इतना ही नहीं पर साधुओं को स्वपरमत के साहित्य का भी गहरा अध्ययन करना चाहिये । कारण अब जमाना ऐसा नहीं है कि केवल क्रिया कांड में ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लें। अब तो वादियों के सामने स्याद्वाद शस्त्र लेकर खड़े रहने का जमाना है । अतः एक श्रमणसंघ की सभा होना जरूरी है । सूरिजी के कहने का मतलब श्रीसंघ अच्छी तरह से समझ गया और सूरिजी के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर श्रमणसभा बुलाने का निश्चय कर लिया । निश्चय ही क्यों पर कार्य प्रारम्भ भी कर दिया अर्थात् जहां २ मुनि महाराज विराजते थे वहाँ वहाँ खास श्रावकों को आमन्त्रण के लिये भेज दिये । उस समय के श्रमणसंघ के हृदय में जैनधर्म की कितनी बिजली थी वह इस कार्य से ठीक पता लग जाता कि आमंत्रण मिलते ही केवल नजदीक २ ही नहीं पर बहुत दूर दूर के साधु विहार करके वल्लभी नगरी की ओर आ रहे थे। सभा का समय भी इसलिये दूर का रक्खा गया था कि नजदीक और दूर के सब साधु इस सभा में शामिल हो सकें। ठीक है दीर्घ दृष्टि से किया हुआ कार्य्यं विशेष फलदाता होता है । इस सभा में केवल श्रमणसंघ ही एकत्र हूये हों ऐसी बात नहीं थी पर श्रादवर्ग भी शामिल थे और यह कार्य भी दोनों का ही था, रथ चलता है, वह दो पहियों से ही चलता है फिर भी मुख्यता श्रम संघ की ही थी एवं श्रमण संघ की संख्या सैकड़ों की नहीं पर हजारों की थी और इसके कई कारण भी थे जैसे एक तो आचार्य श्री के दर्शन दूसरे धर्म प्रचार की भावना तीसरा बहुत साधुओं को समागम और चौथा विशेष कारण यह था कि वल्लभी के पास ही सिद्धगिरि तीर्थ था कि जिसकी यात्रा का लाभ मिल सके । अतः चतुर्विध श्री संघ की अच्छी उपस्थिति थी वल्लभियों ही तो एक यात्रा का धाम था पर इस सम्मेलन के कारण तो विशेष बन गया । यह वही वल्लभी है कि जहाँ श्रागम पुस्तकारुढ़ किया गया था । Jain Educatoon international [ वल्लभी नगरी में श्रमण सभा jalebrary.org Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७७-५९९ उस समय के श्रमणसंघ में कितनी वात्सल्यता थी वह आप इस सम्मेलन से जान सकोगे कि क्या भगवान पार्श्वनाथ के सन्तानिये और क्या भगवान महावीर के सन्तानिये आपस में मिल जुलकर जैन धर्म का प्रचार करते थे इस सम्मेलन में भी दोनों परम्परा के आचार्य अपने अपने आज्ञावृत्ति साधुओं को लेकर आये थे और सबके दिल में जैनधर्म के प्रचार की लग्न थी पृथक २ गच्छ परम्परा के प्राचार्य होने पर भी उनका सब व्यवहार शामिल था कि गृहस्थ लोगों को यह मालूम नहीं देता था कि श्रमण संघ में दो पार्टी अर्थात् दो परम्परा के साधू हैं यही कारण था कि उस समय के श्रमण संघ जो चाहते वह कर सकते थे एक दूसरे के कार्य को अनुमोदन कर मदद पहुँचाते थे तब ही जैनों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी। वल्लभी श्री संघ ने आगंतुकों के लिये पहिले से ही अच्छा प्रबन्ध कर रक्खा था तथा सभा के लिये भी ऐसा मण्डप तैयार करवा दिया था कि जिसमें हजारों मनुष्य सुखपूर्वक बैठ सकें। ठीक समय पर आचार्य श्री सिद्धसूरि के अध्यक्षत्व में सभा हुई सभा में चतुर्विध श्रीसंघ उपस्थित था। राजा शिलादित्य ने पधारने वाले चतुर्विधि श्रीसंघ का उपकार माना। वाचक विमलकलास ने सभा का उद्देश्य कह सुनाया तत्पश्चात् आचार्यश्री ने जैनधर्म प्रचार के लिये पूर्वकालीन परिस्थिति और जैनश्रमण संघ का त्याग और वैराग्य एवं विहार क्षेत्र की विशालता बतलाते हुये अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा आचार्य स्वयंप्रभसूरि, रत्नप्रसूरि, यज्ञदेवसूरि, कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि, सिद्धसूरि, आर्य, सुहस्तीसूरि आदि आचार्य और इनके आज्ञावृति साधुओं का इतिहास सुनाया कि जैनधर्म के प्रचार के लिये उन्होंने किस प्रकार की कठिनाइयों का सामना किया था। इतना ही क्यों पर अपने प्राणों को भी अर्पण करने की भीषण प्रतिज्ञा करली थी । चार चार मास तक उन्होंने आहार पानी के दर्शन तक भी नहीं किये थे । इतना ही क्यों पर उन पाखण्डियों ने उन तपस्वी साधुओं को दुःख देने में संकट पहुँचाने में कुछ भी उठा नहीं रक्खा था। पर धर्म प्रचार के निमित्त उन्होंने सब को सहर्ष सहन कर अपने ध्येय की पूर्ति कर ही ली थी । अगर उस समय की परिस्थिति को स्मरण किया जाय तो आज अपने को न तो किसी प्रकार का कष्ट है और पाखरियों का उपद्रव ही है । आज तो अपने केवल प्रत्येक प्रान्त में विहार करना और जिस साहित्य की आवश्यकता है उसका अध्ययन करना एवं वादी प्रतिवदियों के सामने खड़े कदम डट कर रहने की जरूरत हैं । इससे आप जैनसमाज का रक्षण एवं वृद्धि कर जैनधर्म का झंडा सर्वत्र फहरा सकोगे। मानो सूरिजी ने उन श्रमणसंघ की आत्मा में नयी बिजली का संचार कर दिया। साथ में राजा महाराजा और सेठ साहुकारों की और लक्ष्य करके आपने फरमाया कि जैनधर्म का प्रचार करने में केवल एक श्रमण संघ ही पर्याप्त नहीं है पर साथ में आप लोगों के सहयोग की भी आवश्यकता है पूर्व जमाने राजा श्रोणिक, कौणिक, चन्द्रगुप्त, सम्पति, ठल्पदेव, रुद्राट और शिवदत्तादि नरेशों ने तथा उहडादि मन्त्रियों ने और धनाठ्य गृहस्थोंने जैनधर्म के प्रचार के लिये खूब परिश्रम कर आचार्यों को सहयोग दिया कि जिन प्रान्तों में जैन धर्म का नाम निशान नहीं था पर आज वहाँ जैनधर्म की ध्वजा फहराने लगगई और सैकड़ों हजारों जैन मंदिर और लाखों करोड़ों मन्दिरों के उपासक आपकी नजरों के सामने विद्यमान हैं फिर भी अभी आपको बहुत काम करना है । पूर्व जमाने में आचार्यों ने दक्षिण प्रान्त में कई साधुओं को विहार करवाया था पर इस समय दक्षिण में क्या हो रहा है इसका पता नहीं है । अतः समर्थ साधुओं को दक्षिण की ओर भी विहार करना चाहिये ।। इत्यादि सूरीजी ने खूब ही उपदेश दिया । सज्जनों ! उपदेश एक किस्म की बिजली है । मृत प्रायः बल्लभी नगर में श्रमण सभा ] www६०१rary.org Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७७ - १९९ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मनुष्य के अन्दर जान डालने वाला उपदेश ही है । आज सूरिजी के उपदेश का प्रभाव प्रत्येक आत्मा पर इस प्रकार हुआ कि उनकी सुरत धर्मप्रचार की ओर लग गई । क्या साधु और क्या श्रावक सबके मुँह से यही शब्द निकल रहे थे कि हम धर्म प्रचार के लिये प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हैं। जिस को सुनकर सूरिजी ने बहुत संतोष प्रगट किया और बाद में जैनधर्म की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। इस सभा से सूरिजी को अपने निर्धारित कार्य के लिये बहुत सफलता मिली। जिस कार्य को आप चाहते थे वह कार्य बड़े ही उत्साह के साथ कर पाये । कई मुनियों को पदवियां प्रदान कर अन्योन्य प्रान्तों में विहार करवाया जिसमें सूरिजी महाराज ने स्वयं ३०० साधुओं के साथ दक्षिण देश की ओर विहार करने का निश्चय कर लिया और कितने साधुओं को तो दक्षिण की ओर विहार भी करवा दिया। पूर्व जमाने में जैनाचार्य जैनधर्म के प्रचार के निमित किस प्रकार प्रयत्न करते थे। आज कल कांग्रेस कमेटियां और सभायें होती हैं और इनके द्वारा जनता में जागृति की जाती है ये कोई नई बातें नहीं हैं पर हमारे पूर्वाचार्यों से ही चली आई हैं। मरुधरादि प्रान्तों में विहार करने वाले उपकेशगच्छाचार्यों के जीवन के लिये आप पिछले प्रकरण में पढ़ आये हैं कि प्रत्येक प्राचार्यों ने अपने शासन समय किसी न किसी प्रान्त में एक दो श्रमण सभायें अवश्य की हैं और उन सभाओं द्वारा चतुर्विध श्रीसंघ में खूब जागृति पैदा की। यही कारण था कि एक ओर से वाममागियों का दूसरी ओर से बौद्धों का तीसरी ओर से वेदान्तियों का जोरदार आक्रमण होने पर भी जैनाचार्यों ने कटिवद्ध होकर जैनधर्म का रक्षण ही नहीं बल्कि जैनधर्म का जोरों से प्रचार भी बढ़ाया था। जिन स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि ने लाखों की संख्या में जैन बनाये थे पिछले आचार्यों ने उनकी संख्या को बढ़ाकर करोड़ों तक पहुँचा दी थी और इस प्रचार कार्य में उनको बड़ी बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था । जिनकी उन्होंने कुच्छ परवाह ही नहीं रखी वे आचार्य थे स्याद्वाद के जान चतुर मुत्सद्दी । कार्य करने की हथोटी उनको याद थी । जहाँ नये जैन बनाते वहाँ तत्काल ही जैन मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा तथा जैन विद्यालय की स्थापना करवा देते तथा उनको धर्मोपदेश के लिये नये नये साधुओं को भेजते रहते थे कि उन नूतन श्रावकों की धर्म पर श्रद्धा दृढ़ हो जाती । इधर श्रावक वर्ग भी श्राचार्य श्री की आज्ञा के पालक थे । नूतन जैनों के साथ वे बड़ी खुशी के साथ रोटी बेटी व्यवहार कर अपने स्वधर्मी भाई समझ अपने बराबरी के बना लेते थे। बहुत से नगरों में तो प्राचार्य श्री के उपदेश से ऐसा रिवाज सा ही हो गया था कि कोई भी नया साधर्मी नगर में श्राकर वसता था तो एक एक ईंट और एक एक रुपैया एवं सुवर्ण मुद्रका प्रत्येक घर से अर्पण किया जाता था कि वह सहज ही में धनवान् एवं व्यापारी बन जाता था। इसके अलावा एक 'सारथवाह' पद की भी उस समय विशेषता थी कि वह अपने साधर्मी भाइयों को ही नहीं पर नगर निवासियों को देशान्तर ले जाते थे और अपनी रकम देकर व्यापार करवाते थे कि कोई भाई बेकार न रहे । उन सारथवाह का द्रव्य न्यायोपार्जित होने से उस द्रव्य से सैकड़ों मनुष्य लाम उठा सकते थे। हाँ, मनुष्यों की उन्नति के दिन आते हैं तब सब संयोग अनुकूल बन जाते हैं। अतः वे दिन जैनों की उन्नति के थे कि चतुर्विध श्री संघ में प्रेम, स्नेह, ऐक्यता और प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृति जैनधर्म की वृद्धि की ओर रहती थी। ___ अस्तु । आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज ने अपने शिष्य मण्डन के साथ दक्षिण की ओर विहार किया [ मरिनी के पटेल का प्रभाव Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] | ओसवाल संवत् ५७७-५९९ तो क्रमशः रास्ते के क्षेत्रों की पर्शना करते हुए दक्षिण में पधारे और आप वहाँ पर जाकर क्या देखते हैं कि उपकेशगाछीय सैकड़ों साधु दक्षिण में विहार करते हैं। आचार्य सिद्धसूरि को आये सुनकर साधु साध्वियों के मुण्ड के झुण्ड आपके दर्शनार्थ आने लगे । उनका धर्मप्रचार देख सूरिजी को बड़ा ही संतोष हुआ कारण उन दक्षिण विहारी साधुओं का प्रभाव बड़े २ राजा महाराजाओं पर हो रहा था और काफी तादाद में जनता जैनधर्म का आराधन कर रही थी। आचार्य श्री ने वह चतुर्मास तो मदुरा नगरी में किया बाद चतुर्मास के दक्षिण बिहारी श्रमण संघ की मानखेट राजधानी में एक सभा की जिसमें प्रायः दक्षिण बिहारी सब साधु एकत्र हुये जिसमें अधिक साधु तो दक्षिण के जन्मे हुए ही थे। आचार्य श्री ने कइ योग्य साधुओं को पदवी प्रदान कर उनके उत्साह बढ़ाया तत्पश्चात् श्राप दक्षिण भूमि में बिहार कर दूसरा चतुर्मास मानखेट नगर में किया और वहाँ के साधुओं की ठीक व्यवस्था कर दक्षिण से बिहार कर तैलंगादि प्रांत में घूमते हुए भावन्ति प्रदेश में पधारे और आपका चतुर्मास उज्जन नगरी में हुआ। श्राचार्यश्री के हस्त दीक्षित वीरशेखर नाम का एक लघु शिष्य था पर विद्यामंत्रों में वह वृद्ध कहलाता था। एक समय मुनि वीरशेखर जंगल में जा रहा था तो पीछे से एक सन्यासी भी आया। उसने पूछा कि अरे मुनि ! तुम केवल दुनिया को भारभूत ही हो या कुछ विद्यामंत्र भी जानते हो ? मुनि ने उत्तर दिया कि विद्या और मन्त्र तो सब हमारे घर से ही निकले हैं और लोग तो हमारे ही यहां से विद्या मन्त्र प्राप्त कर सिद्ध बन बैठे हैं जैसे एक समुद्र के छींटे उड़ते हैं उन छींटों से ही लोग अलग तालाब बना लेते हैं । बालमुनि के गौरवपूर्ण शब्द सुनकर सन्यासी ने मुनि के रास्ते पर इतने सर्प बना दिये कि मुनि का मार्ग ही बन्द होगया अर्थात पैर रखने जितनी भी जगह नहीं रही । इसको देख मुनि समझ गया कि यह सन्यासी की करामात है पर मुनि ने अपनी विद्या से इतने मयूर बनाये कि उन सपों की पूछे पकड़ पकड़ कर आकाश में लेगये जिसको देख सन्यासी मन्त्रमुग्ध बन गया कि यह लघु साधु तो बड़ा ही चमत्कारि दीखता है । सन्यासी ने अपनी विद्या से हस्ती ही हस्ती बना दिये । मुनि ने अपनी विद्या से हस्तियों पर अकुंश लिये हुये महावत बना दिये कि उनके अंकुश लगाने से हस्ती चिल्लाहट करते लग गयी। ___ सन्यासी अपनी मेकला (थैली ) से एक गुटका निकाल उसका पैरों पर लेप कर आकाश में उड गया पर मुनि तो बिना ही लेप किये केवल अपनी विद्या के बल से ही आकाश में गमन कर योगी के साथ नभमण्डल में घमने लग गये इत्यादि कई प्रकार विद्या बाद हुआ आखिर मुनि ने उस सन्यासी को कहा कि महात्माजी । यह तो सब वाह्य विद्यायें हैं। केवल इन विद्याओं को इस प्रकार बतलाने से ही प्रात्म कल्याण नहीं हैं। आप उस विद्या को सीखो कि जिससे आत्मा से परमात्मा बन सको। सन्यासी ने कहा मुनि । वह विद्या कौनसी है कि जो आत्मा से परमात्मा बना सके ? मुनि ने कहा सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्र इनकी आराधना करने से आत्मा परमात्मा बन सकता है । सन्यासी ने पूछा कि मैं इस में नहीं समझता हूँ कि सम्यक ज्ञान दर्शन चारित्र क्या पदार्थ है ? और इसकी आराधना किस प्रकार की जाती है मुनिवर्य ने सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्र के भेद प्रभेद का विवरण करके बतलाया और साथ में पंच महाव्रतरूप दीक्षा लेकर इनकी आराधना का मार्ग भी बतला दिया। अतः सन्यासीजी ने उसी जंगल में अपना वेश छोड़ कर मुनि वीरशेखर के पास भगवती जैनदीक्षा ग्रहण करली और वे दोनों मुनि वीरशेखर और सन्यासी ] Jain E Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७७-१९९ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चल कर सूरिजी महाराज के पास आये । सूरिजी उन दोनों का हाल सुनकर बड़े ही प्रसन्न हुये और यथा समय सन्यासीजी को बड़ी दीक्षा देकर आप का नाम सन्यासमूर्ति रख दिया जो भविष्य में भी आपकी स्मृति करवाता रहे । मुनि सन्यासमूर्ति विद्यामंत्रों का तो पहिले ही जानकार था फिर भी आप रहे मुनि वीरशेखर के पास । वीरशेखर ने पहिले तो जैन धर्म के स्याद्वाद रहस्यमय सिद्धान्तों का अध्ययन करवाया जिससे वे जैनांगोपांगादि सब शास्त्रों के जानकार बन गये। बाद मुनि सन्यासमूर्ति को मत मतान्तरों के वाद विवाद में भी प्रवीण बना दिया। क्योंकि उस समय इसकी भी परमावश्यकता थी। ___ पट्टावलीकार लिखते हैं कि मुनि वीरशेखर और सन्यासमूर्ति ने अपने आत्मिक चमत्कारों से कई हजारों जैनेतरों को जैन बनाये । इतना ही क्यों पर कई सन्यासियों और बौद्ध-भिक्षुओं को भी जैन दीक्षा दी थी। कहा भी है कि चमत्कार को सब नमस्कार करते हैं । जैसे रत्नाकर रत्नों से शोभा पाता है वैसे ही सिद्धसूरि ऐसे सिद्धपुरुषों-मुनियों से जगत में शोभा पाते हुए शासन कार्य करने में विख्यात हो रहे थे । इस गच्छ की अधिक उन्नति होने का मुख्य कारण यही है कि इस गच्छ में शुरू से ही एक ही आचार्य होता आया है। हजारों साधु भिन्न २ प्रान्तों में विहार करने वाले होने पर भी वे सब एक आचार्य की आज्ञा का आदरपूर्वक पालन करते थे । आप श्री के अलावा कोरंटगच्छ के आचार्य एवं मुनि वे भी मरुधरादि प्रान्तों में विहार करते थे पर वे भी उपकेशगच्छाचार्यों के साथ अच्छा मेल मिलाप एवं उनकी आज्ञा का पालन किया करते थे और उनका विहार प्रायः आबू के आस पास के प्रदेश में ही होता था तब उपकेशगच्छाचार्यों का विहार दक्षिण से लगा कर पूर्व तक होता था। आचार्य सिद्धसूरि के ज्यों ज्यों साधुओं की वृद्धि होती गई त्यों त्यों अन्योन्य प्रान्त में मुनियों को भेजते गये जैसे कई साधुओं को बुलेन्दखण्ड की ओर तथा कई को शूरसेन एवं मत्सप्रदेश की ओर भेज दिये और आप अपने विशाल साधुओं के साथ विहार कर दिया महेश्वरी विदेशी माण्डवगढ़ हरीपुर मड़कोली पथोली दशपुर वगैरह प्रदेश में जैन धर्म का साम्राज्य स्थपित कर रहे थे तब इसके निकटवृत्ति मेदपाट में भी जैनधर्म का काफी प्रचार था उस प्रदेश में आज भी जैनधर्म के अनेक प्राचीन स्मारक चिन्ह उपलब्ध होते हैं जब सूरिजी चित्रकोटादि होते हुए आधाट नगर की ओर पधारे तो वहाँ के श्रीसंघ के उत्साह का पार नहीं रहा संघ की ओर से सूरिजी का अच्छा स्वागत किया और श्री संघ की साग्रह विनती को स्वीकार कर सूरिजी ने आधाट नगर में चतुर्मास करने का निर्णय कर लिया बस ! फिर तो कहना ही क्या था जनता का उत्साह खूब बढ़ गया और भावुक लोग आत्मकल्याणार्थ धर्म कार्य में संलग्न हो गये। सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा हो रहा था श्राप श्री के व्याख्यान में न जाने क्या जादू था कि सुनने वाले मंत्र मुग्ध बन जाते थे । चतुर्मास समाप्त होने में ही था एक दिन सूरिजी ने उपदेश दिया कि उपकेशवंशियों। आपकी जन्मभूमि उपकेशपुर है वहां पर आपके पूर्वजों को आचार्यरत्नप्रभसूरि ने मांस मदिरादि दुर्व्यसन छोड़ कर जैनधर्म में दीक्षित किये थे आपके लिये वह भूमि एकतीर्थ स्वरूप है विशेषता में शासनाधीश चरमतीर्थङ्कर भगवान महावीर का मन्दिर की यात्रा करने काबिल है इत्यादि सूरिजी के उपदेश का इस कदर प्रभाव हुआ कि उसी सभा में श्रेष्टि गौत्रीय मंत्री मुकन्द ने उठकर प्रार्थना की कि प्रभो ! मेरी इच्छा है कि मैं उपकेशपुर का संघ निकाल कर भगवान महावीर की यात्रा करूँ इसमें यहां के श्रीसंघ तो मुझे सहयोग देगा ही पर आप साहिबजी को भी इस संघ में पधार कर मेरे उत्साह को बढ़ाना चाहिये अतः मेरी विनति Jain Education international For Private & Personal use o. [ मुनि सन्यासमूर्ति और धर्म प्रचार ..... Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धहरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७७-५९९ स्वीकार होनी चाहिए ? सूरिजी ने संघ अप्रेश्वरों की ओर इसारा करके कहाकि क्यों मन्त्रीश्वर क्या कह रहा है इसके लिये आपलोगों की क्या इच्छा है ? संघ अप्रेश्वरों ने कहाकि पूज्यवर ! मंत्रीश्वर भाग्यशाली हैं जो एक महान कल्याण कारी कार्य करने को प्रस्तुत हुआ है फिर श्राप जैसे प्रतापीक पुरुषों का सहयोग फिर इस लाभ का तो कहना ही क्या है संघ के ऐसा भाग्य ही कहां है कि एक तीर्थ भूमि की यात्राकर आत्मकल्याण कर सकें। हम मन्त्रीश्वर के कार्य की अनुमोदना करते हैं और सब लोग यात्रा के लिए चलने को तैयार हैं। बाद सूरिजी ने भी अपनी स्वीकृति फरमादी अतः मन्त्रेश्वर के सब मनोरथ सफल हो गये वस जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। संघ की बात विद्यद्वेग की भाँति नगर भर में फैल गई और लोग तीर्थयात्रा के लिये तैयारियाँ करने लग गए मन्त्रीश्वर ने आसपास के प्रदेशों में आमन्त्रण पत्रिकाएँ भेजवादी चतुर्मास समाप्त होते ही आस पास में चतुर्मास करने वाले 'साधु सानियां' तथा खूब गेहरी तादाद में संघ भी एकत्र होगया शुभ मुहूर्त मार्गशर्ष शुक्ल पंचमी के दिन मन्त्री मुकन्द के संघपतित्व में संघने प्रस्थान कर दिया पट्टावली कर लिखते है कि कइ पांचसो साधु साधियों और दश हजार नरनारी संघ में थे क्रमशः छरी पाली चलता हुआ संघ उपकेशपुर पहुंचा तो वहाँका श्रीसंघ ने आचार्य श्रीसिद्धसूरि के साथ श्रीसंघ का श्रादर सत्कार किया ओर संघने भी अपनी जन्मभूमि एवं भगवान महावीर की यात्रा की मन्दिर में अष्टान्हिका महोत्सव पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य और ध्वज महोत्सव कर अपने जीवन को सफल बनाया तत्पश्चात मेदपाट में विहार करने वालों के साथ संघ वपिस लौट गया और सूरिजी महाराज वहां के राजा प्रजा के आग्रह कुछ अर्सा की स्थिरता कर वहाँ की जनता को धर्मोपदेश देकर धर्म की जगृति एवं उन्नति की जब सूरिजी महाराज विहार का इरादा कियातो रात्रि के समय देवी सच्चायिका सूरिजी की सेवामें उपस्थित हो प्रार्थना की कि प्रभो! आपका यह चतुर्मास उपके रापुर में ही होना चाहिये उप केशगच्छाचार्यों का कमसे कम एक चतुर्मास तो उपकेशपुर में अवश्य होना ही चाहिये पूज्यवर ! यह आपके पूर्वज रत्नप्रभसरि के उपकार की भूमिका हैं इत्यादि देवीने खूब आग्रह से विनती की इस पर सूरिजी ने फरमाया देवी अभी तो बहुत समय है देवीने कहा हाँ समय बहुत है पर आप आस पास के क्षेत्रों में विहार कर पुनः यहाँ पधार कर चतुर्मास तो यहाँ ही करावे आपकों बहुत लाभ होगा ? सूरिजी ने कहा ठीक है देवीजी आपकी विनति कों हमारे पूर्वजोंने स्वीकार कर लाभ उठाया था अतः क्षेत्र स्पर्शना होगी तो मेरी भी ना नहीं है। दूसरे दिन वहां के राजादि श्रीसंघ को मालूम हुआ कि सूरिजी महाराज विहार करने वाले हैं अतः सकल श्रीसंघ एकत्र होकर चतुर्मास के लिये बहुत अाग्रह से प्रार्थना की इस पर सूरिजी महाराज ने वही उत्तर दिया जो देवी को दिया था सूरिजी महाराज उपकेशपुर से विहार कर माण्डव्यपुर शेखपुर श्रासिका दुर्ग खटकुंपपुर मुग्धपुर नागपुर मेदनीपुर पद्मावती हंसावली शाकम्भरी आदि क्षेत्रों में भ्रमन कर एवं जनता को खूब धर्मोपदेश देकर धर्म की प्रभावना की और पुनः उपकेशपुर पधार कर वह चतुर्मास उपकेशपुर में ही करदिया जिससे देवी के एवं श्री संघ के हर्ष का पार नहीं था। भाग्यवशात् उपकेशपुर और उसके आसपास के प्रदेश नहीं पर सर्वत्र ऐसा भयंकर दुकाल पड़ा कि अन्न के अभाव दुनिया में हाहाकार एवं त्राहि-त्राहि मच गई इस प्रकार जनता का दुःख सूरिजी से देखा एवं सुना नहीं गया आपने अपने व्याख्यान में ऐसा उपदेश दिया कि उपकेशपुर के साहूकार लोगों ने एक एक दिन मुकर्रर कर ३६० दिन लिख लिया कि देश भर में अपने योग्य पुरुषों को भेजकर मनुष्यों को अन्न और आघट नगर से तीर्थों का संघ ] Jain Education interno ६०५ www.janelibrary.org Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७७–१९९ वर्ष । [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पशुओं को घास वगैरह का माकूली इन्तजाम करवा दिया इस कार्य में करोड़ों रुपये व्यय कर जहां जिस भाव में मिला अन्न और घास मंगवा कर अपने देशवासी भाइयों के प्राण बचाये पट्टावलिकारों ने लिखा है कि विक्रम सं० १९५ का दुःकाल तो केवल उपकेशपुरवासियों ने करोड़ों द्रव्य व्यय कर निकाल दिया पर अशुभ कर्मोदय दूसरे वर्ष अर्थात् वि० सं० १९५ के वर्ष भी दुःकाल पड़ गया जिसको निकालना तो एक कठिन समस्या खड़ी हो गई कारण द्रव्य के लिये तो कमी नहीं थी पर अन्न एवं घास मिलना मुश्किल हो गया तथापि सूरिजी के उपदेश से लोगों ने देश के हित खूब उद्यम किया देश और विदेश में जहां जिस भाव से मिल सका वहां से अन्न और घास मंगवा कर जनता को मरती हुई को बचाई। उस समय एक तो उपकेशवंशियों के पास द्रव्य बहुत था दूसरे उनके उपदेशक जैनाचार्य दया के अवतार ही थे उन्हों का उपदेश परोपकार के लिये ही हुआ करता था अतः महाजन संघ परोपकार के लिये बात ही बात में करोड़ों रुपये खर्च कर डालते थे यही कारण है कि केवल साधारण जनता ही क्यों परन्तु बड़े बड़े राजा महाराज महाजनसंघ का आदर सत्कार किया करते थे और नगरसेठ जगतसेठ वगैरह उपाधियों से सन्मान किया करते थे। इन दोनों भयंकर दुःकालों में साधुओं का विहार तक भी प्रायः बन्द सा ही हो गया था जब दुःकाल के अन्त में पुनः सुकाल हुआ तब जाकर साधुओं का विहार हुआ आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी मरुधर के छोटे बड़े प्राम नगर में विहार कर जैनधर्म का खूब प्रचार एवं उद्योत किया था रत्नपुर विजयपुर ताबावती पाल्हीकापुरी कोरंटपुर सत्यपुर भीनमाल जाबलीपुर शिवपुरी चन्द्रावती पद्मावती आदि नगरों में भ्रमन करते हुए आपश्री शाकम्भरी नगरी में पधारे वहां के राजा नागभट्ट को जैनधर्म में दीक्षित किया “यथा राजास्तथा प्रजा" धर्म करने में उत्साही बन गये। राजा नागभट्ट ने एक समय सुरिजी से प्रार्थना की कि हे प्रभो! अब आपकी वृद्धावस्था है तो आप अपने पट्ट पर किसी योग्य मुनि को आचार्य बनावें कि इस पद का महोत्सव करने का सौभाग्य इस नगर को मिले कारण हमारी जानकारी में इस प्रकार का उत्तम कार्य इस नगरी में नहीं हुआ है केवल एक मेरी ही नहीं पर सकल श्रीसंघ की यही इच्छा है विशेषता में यहां की जनता चाह रही है कि वादी चक्रवर्ती उपाध्याय रत्नभूषण महाराज को पद प्रतिष्ठित किया जाय अतः आप जैन शासन की प्रभावना करने योग्य हैं इत्यादि । सूरिजी ने कहा भावुकों ! आपकी भावना अच्छी है पर मैं कल विचार कर आपको जवाब दूंगा। __ आचार्य श्री ने रात्रि समय देवी साचायिका को याद किया देवी आकर सूरिजी के चरण कमलों में वन्दन किया और अर्ज की कि प्रभो ! मेरे योग्य कार्य हो सो फरमावे ? सूरिजी ने कहा कि मेरी इच्छा है कि उपाध्याय रत्नभूषण को सूरि पद दिया जाय तथा यहां के श्रीसंघ की भी उत्कण्ठा है इसमें आपकी क्या राय है ? देवी ने कहा पूज्यवर ! आप जो विचार किया है वह बहुत ही उत्तम है उपाध्यायजी इस पद के योग्य एवं सर्व गुण सम्पन्न है श्राप इनको पदार्पण कर उपकेशपुर पधार इत्यादि कहकर देवी आदृश्य हो गई सुबह सूरिजी राजादि सकल संघ के सामने अपने विचार प्रगट कर दिये बस फिर तो कहना ही क्या था जनता का उत्साह खूब बढ़ गया और वे अपना कार्य सम्पादन करने में जुट गये जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव प्रारम्भ करवा दिया और आस पास के प्राम नगरों में आमन्त्रण पत्र भेज दिये ठीक समय पर बहुत से भक्त जन शाकम्भरी में एकत्र हो गये और सूरिजी महाराज ने शुभमुहूर्त में उपाध्याय रत्नभूषण को सूरि पद प्रदान कर आपका नाम रत्नप्रभसूरि रख दिया तत्पश्चात् श्राचार्य सिद्धसूरि उपकेश. Jain Edge international For Private & Personal use only [ शाकम्भ री का राव नागभट्ट ry.org Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५७७–५९९ पुर पधार गये और वहां अन्तिम सलेखना कर अन्त में २७ दिनों का अनशन पूर्वक समाधि से देह त्याग कर स्वर्ग पधार गये। आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज ने अपने बावीस वर्ष के शासन काल में अनेक प्रान्तों में भ्रमण कर जैनधर्म की खूब प्रभावना एवं प्रचार बढ़ाया था पट्टावलियों आदि ग्रन्थों में आपके विषय में बहुत विस्तार से वर्णन किया है पर मैं यहाँ पर आपश्री के परोपकारी हाथों से जो जनोपयोगी कार्य हुए हैं जिनका केवल नामोल्लेख ही कर देता हूँ कि जिसको पढ़ कर उनका अनुमोदन करने मात्र से पाठकों का कल्याण हो सके। प्राचार्य श्री के कर कमलों से भावुकों को दीक्षा १-नरवर के बलाह गौत्रीय शाह हापा ने सूरिजी के पास दीक्षाली २-डबरेल के श्रेष्टि गौत्रीय शाह फाल्गु ने , " " ३-उतोल के बाप्पनाग गौत्रीय शाह चूड़ा ने " , " ४-बारोटी के भाद्र गौत्रीय शाह देवपाल ने " " " ५-खसोटी के सुघढ़ गौत्रीय शाह चौपसी , ६-भुजपुर के लुंग गौत्रीय शाह देदा ने ७-हीगोटी के भूरी गौत्रीय शाह रामा ने , ८-सोपार के श्रादित्य नाग शाह कल्हण ने , ९-सीदली के आदित्यनाग शाह सूरजण ने। १०-देवपट्टन के तप्तभट्ठ गौ० शाह नाथा ने ११-कल्याण के बाप्पनाग गौ० शाह राजा ने १२-दक्षिण के बारह दक्षिणीयों ने १३-भद्रावती के करणाट गौत्रीय शाह भादाने , १४-उज्जैन के अष्टि गौत्रीय मंत्री करमण ने ,, १५-मधुवती के सुंचेती गौत्रीय शाह महीधर ने , १६-रूपनगर के कुमट गौत्रीय शाह धरण ने , १७-आकोर के आदित्यनाग० शाह धना ने , १८-विराट के ब्राह्मण जगदेव ने १९-उपकेशपुर के कुलभद्र गौः शाह राजा ने ,, २० -नागपुर के आदित्यनाग० शाह नारायण ने , २१-हंसावली के श्रोष्टि गोत्रीय शाह पाता ने , २२-मथुरा के बाप्पानाग गौ० शाह पोमा ने , २३-खंडला के बलाहा गौ० शाह जेता ने , २४-मुग्धपुर के डिडूगौत्रीय मंत्री कडुआने , भाभा सूरिजी के हाथों से भावुकों की दीक्षा ] .. dor Private & Personal Use Only Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७७-१९९ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २५-सत्यपुर के चिंचट गौ० शाह खेमा ने , , , २६-भीनमाल के श्रीमाल शाह रामपाल ने , " " २७- रामनगर के प्राग्वट शाह पारस ने , , , ___ इनके अलावा कई पुरुष और बहुत सी बहिनों ने भी सूरिजी की सेवा में दीक्षा लेकर अपना कल्याण किया था तथा आपके आज्ञावृति मुनियों ने भी बहुत से नर नारियों को दीक्षा देकर श्रमण संघ में वृद्धि की थी यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि जिस गच्छ समुदाय में जितनी श्रमण संख्या अधिक है उतना ही धर्म प्रचार अधिक क्षेत्र में फैल जाता है । प्राचार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज तथा आप श्री के आज्ञा वृति साधुओं के उपदेश से कई महानुभावों ने तीर्थ यात्रा निमित बड़े बड़े संघ निकाल कर तीथों की यात्रा कर अनंत पुन्योपार्जन किया था पट्टावलियों में उल्लेख मिलता है कि : १-चन्द्रवती से वाचनाचार्य शोभाग्यकीर्ति के उपदेश से प्राग्वट वंशीय धरण ने सिद्धाचलजी का संघ निकाला जिसमें धरण ने तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया साधर्मी भाइयों को सोना मोहरों तथा वस्त्रादि की पेहरामणी दी। २- उपकेशपुर से मुनि हेमतिलक के उपदेश से श्रेष्टि वऱ्या कर्मा ने तीर्थों के संध निकालकर पांचाल लक्ष द्रव्य व्यय किया तीन यज्ञ ( स्वामिवात्सल्य ) करके संघ को पेहरामणी दी। ३-मारोंटकोट से उपाध्याय मंगलकलस के उपदेश से चरडगौत्रीय शाह गुणराज ने श्री शत्रु जयादि तीर्थों का संघ निकाला। जिसमें नौ लक्ष द्रव्य खर्च किया संघ को पहरामणी दी। ४-सावत्थी नगरी से वाचनाचार्य देवप्रभ के उपदेश से संचेती गौत्रीय शाह रूपण ने श्रीसम्मेतशिखरजी का तीर्थ निकाल कर पूर्व देश की सब यात्रा की जिसमें शाह ने नौ लक्ष द्रव्य व्यय किया साधर्मी भाइयों को सोना मोहरों और सवासेर लड्डुओं की प्रभावना दी। ५-हंसावली से उपाध्याय निधानमूर्ति के उपदेश से भाद्रगोत्रीय शाह मधवा ने श्रीशत्रुजय का संघ निकाला जिसमें सवालक्ष द्रव्य व्यय किया:-- ६-नागपुर से सूरिजी के उपदेश से आदित्य नागगौत्रीय शाह पीर जाला ने श्रीशत्रुजय गिरनारादि का संघ निकाला जिसमें तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया । पांच यज्ञ ( जीमणवार ) कर पेहरामणी दी। ७-भीन्नमाल से वाचनाचार्य ज्ञान कलस के उपदेश से प्राग्व : वंशीयशाह सारंग ने श्री शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला साधर्मी भाइयों को सोना मुहर की पेहरावणी दी। ८-स्तम्भन नगर से उपाध्याय मेरूप्रभ के उपदेश से मंत्री गजा ने श्रीशत्रुजय का संघ निकाला साधर्मी भाइयों को पांच पांच सोना मुहरों की पेहरामणी दी । और तीन यज्ञ किये : ९--पद्मावती से सूरिजी के उपदेश से श्रीमाल श्रादू ने तीर्थों का संघ निकाला जिसमें पाँच लक्ष द्रव्य व्यय किया साधर्मी भाइयों को पेहरावणी दी। १०- उज्जैन से उपाध्याय मेरुनन्दन के उपदेश से राव भारथ ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला जिसमें एक लक्ष द्रव्य व्यय किया । सधर्मी भाइयों को पेहरामणी दी। Jain Edo ternational For Private & Personal use Only [ मूरिजी के शासन में तीर्थों के संघ org Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७७-५९९ ११-मथुरा से वाचनाचार्य गुणतिलक के उपदेश से चिंचट गौत्रीय शाह गुणपाल ने श्री सम्मेत शिखरजी का संघ निकाला जिसमें सात लक्ष द्रव्य व्यय किया। इनके अलावा भी अन्य प्रान्तों से कई कई छोटे बड़े संघ निकले थे उस समय धर्म कार्य में मुख्य संघ निकाल कर तीर्थ यात्रा करना और साधर्मी भाइयों को अपने घर आगणे बुला कर अधिक से अधिक द्रव्य पेहरामणी में देना बड़ा ही महत्व का कार्य समझा जाता था अतः जिसके पास द्रव्य होता वह या तो मन्दिर बना कर प्रतिष्टा करवाने में या तीर्थो के संघ निकालने में या आचार्य के पट्ट महोत्सव करने में ही लगते थे और इसमें अपने जन्म की सार्थकता भी समझते थे। सूरिजी महाराज या आपके मुनियों के हाथों से प्रतिष्ठाऐं १- नागपुर के अदित्य नागः वीरदेव ने भ० महवीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा २-खावड़ा के अदित्य नाग० सलखण ने" पाचनाथ " ३-मुग्धपुर के बाप्पनाग गौ० अजड़ ने ” शान्तिनाथ ४-खट कूप के श्रेष्टि गोत्रीय __माला ने " महावीर ५-नाराणापुराके भूरिगौत्रीय चोपा ने " आदीश्वर ६-रूपनार के भाद्रगोत्रीय मंत्रीरणवीर" " ७-खंडेला के सोनी गौ० सुखा ने " महवीर ८-सापाणी के सुघड़ गौ० ९--विराटपुर के चरड़ गो. देवा ने , १०-मथुरा के सुंचति गौ० धरण ने " पार्श्वनाथ ११-भीलाणी के श्री श्रीमाल १२-नखर के श्रेष्टि गौ० आखा ने " महावीर १३ -- तक्षिला के श्रीमाल १४-सालीपुर के चिंचट गो. चतरा ने " " १५-वीरपुर के कुलभद्र० १६-वजवार के बलाहा. जेता ने " विमलनाथ १७-मारोट के मोरक्षगौर वागा ने " नेमिनाथ १८-कटपुर के ब्राह्मण हेरदेव ने " महावीर १९-वर्दमान के प्राग्वट . २०-कपीलपुर के प्राग्वट० गोंदा ने " " २१- शत्रुजयपर श्रेष्टि गौ पार्श्वनाथ २२-सोपार० के कुमट गौ। २० के कुमट गो. पोमा ने " २३-चन्द्रावती के बाप्प नाग० राणा ने " शान्तिनाथ २४-टेलीपुर के आदित्य नागः श्रादू ने " मूला ने " देवा ने " खीवसी ने , जगमाल ने " करमण ने " चूड़ा ने " सरिजो के हाथों से मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ | hate & Personal use only ६० www.timefarary.org Jain Eunom Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १७७-१९९ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २५-सत्यपुर के प्राग्वट० भीमा ने " महावीर " " २६-श्रीनगर के श्रीमाल भोलाने " २५-उपकेशपुरके कनौजिया० दोलाने वंशावलियों में कई दुकालों में द्रव्य व्यय कर देश की सेवा करने वाले उदार पुरुषों के नामों का भी उल्लेख किया है वैसे ही विदेशियों के साथ युद्ध कर देश की रक्षा करने वाले वीरों के नामों का भी उल्लेख किया है । उस समय के उपकेशवंशी लोग सवके सब ब्यापार नहीं करते थे पर बहुत से लोग राज करते थे सथा राज के मंत्री महामंत्री वगैरह उच्चपद पर नियुक्त हो राजतंत्र भी चलाते थे और आज की भांति उनका वैवाहिक क्षेत्र संकुचितभी नहीं था पर उन जैन क्षत्रियों का विवाह शादी अजैन क्षत्रियों के साथ भी होता था और उन्हें समय समय प्रतिपक्षियों के साथ युद्ध भी करना पड़ता था तथा जो लोग व्यापार करते थे वे भी आज की भांति कमजोर नहीं थे। पर बड़ी भारी वीरता रखते थे पूर्व प्रकरणों में आर पढ़ आये है कि भारतीय व्यापारी अन्य प्रदेशों में जा जा कर उपनिवेश स्थापन किये थे वे व्यापार करते थे पर दल बल क्षत्रियोंके सदृश ही रखते थे। इत्यादि आचार्य सिद्धसूरि का शासन जैन समाज की उन्नति का समय था आपके शासन में जैन समाज मन धन व्यवसाय और धर्म से सम्रद्धशाली था आचार्य सिद्धसूरि अपने २२ वर्ष के शासन में जैन समाज की बड़ी कीमती सेवा बजाई थी अन्त में विक्रय संवत १९९ में आप स्वर्ग धाम को पधार गये बीसवें पट्टधर सिद्धसूरीश्वर विद्यागुण भंडारी थे शासन के हित सब कुच्छ करते चमत्कार सुचारी थे ज्ञान दिवाकर लब्धि धारक अहिंसाधर्म प्रचारी थे उनके गुणों का पार न पाया सुर गुरु जिभ्या हजारी थे इति भगवान पार्श्वनाथ के बीसवें पट्ट पर प्राचार्य सिद्धसूरि परम प्रभाविक आचार्य हुए" SANDARAMyaraAawaraP ENIRewan Jain E GS international For Private & Personal use only [ आचार्य सिद्धसरि का स्वर्गवास ary.org Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्य रत्नप्रभसूरि ( चतुर्थे ) का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५६६-६१८ २१ प्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि (चतुर्थ ) धृत्वा पारस द्रव्य राशिमसको वंशावतंसोऽभवत् । यो रत्नप्रभसूरि नाम विदितो योगेश्वरो विद्यया ॥ रव्यातो लोकसमूह आत्मवशता सामर्थ्यभारेण च । लोकान् जैन मतेतरान् विहितवान् जैनान् प्रभापुंजयुक् ॥ चार्य श्री रत्नप्रभसूरि भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा में आप चतुर्थ रत्नप्रभसूरि थे। वादिरूप १ चर्तुति के अन्त करने में श्राप चक्रवर्ति सदृश विजयी थे। आपश्री का पवित्र जीवन परम रहस्यमय था। आप हंसावली नगरी के उपकेशवंशीय श्रष्ठिवर्य्य शाह जसा की धर्म परायण सुलक्षणा भार्या पातोली के प्यारे पुत्र रत्न थे। शाहजसा एक साधारणस्थिति का गृहस्थ था पर आप सकुटुम्ब धर्मकरनी में इतना संलग्न थे कि जितना मिले उसमें संतोष कर अहिर्निश धर्म कार्य करने में ही अपना समय व्यतीत करते थे। बस इनके जैसा दुनियां में कोई सुखी एवं संतोषी ही नहीं है। प्राचार्य श्री सिद्धसूरि के अनुयायी वाचक श्री धर्मदेव वृद्धावस्था के कारण हंसावली में ही स्थिरवास कर रहते थे। शाह जसा आपका परमभक्त एवं श्रद्धासम्पन्न श्रावक था जसा ने वाचकजी की विनयभक्ति करके जैनधर्म के तत्व ज्ञानमय सिद्धान्त का खूब अभ्यास किया अपनी नित्यक्रिया सामायिक प्रतिक्रमण के अलवा जीवाजीव का स्वरूप और कर्मसिद्धान्त का तो आप इतना मर्मज्ञ हो गया कि उसको हटाने के लिये खूब ही प्रयत्न किया करते थे पर पूर्वजन्म की अन्तराय भी इतनी जबरदस्त थी कि जसा अपने कुटुम्ब का पालनपोषण बड़ी मुश्किल से करता था फिर भी वह पुद्गलिक दुःख सुखों को एक कर्मों का खेल ही समझता था पर कहा है कि दुःख के अन्त में सुख और सुख के अन्त में दुःख हुआ ही करता है कारण, कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक अंधेरा बढ़ता ही जाता है पर आखिर तो शुल्कपक्ष आही जाता है अतः कृष्ण पक्ष का भी अन्त है । जब शुल्क पक्ष की प्रतिपदा से उद्योत बढ़ता-बढ़ता पूर्णिमा तक पूर्णोद्योत हो जाता है तब फिर चक्र के अनुसार पुनः कृष्ण पक्ष अाही जाता है और ऐसे अनंताकाल चक्र व्यतीत हो गया और भविष्य में होगा । इस बात को शाह जसा अच्छी तरह समझ गया था। कहा है कि श्रद्धा का मूल कारण ज्ञान ही है और ज्ञान से ही श्रद्धा दृढ़ मजबूत रहती है। शाह जसा भी इसी कोटि का मनुष्य था कि उसका हाड़ और हाड़ की मींजी जैनधर्म में रंगी हुई थी। जैसे शाह जसा धर्मज्ञ था वैसे ही उसकी पत्नी पतोली भी धर्म करणी में अहर्निश तत्पर रहती थी। इतना ही क्यों पर जसा का सब कुटुम्ब ही धर्म परिवार कहा जाता था। बात भी ठीक है कि जैसे मुख्य पुरुष होता है वैसे ही उनका परिवार भी होता है। Jain Enाह जसा की परिस्थिति ] www.ignary.org Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सेठानी पतोली एक समय अर्द्ध निन्द्रावस्था में सो रही थी तो वह स्वप्न में क्या देखती है कि एक सफेद हरती गगन से उतारता हुआ मुँह में प्रवेश करता है इतने में तो माता जाग उठी और अपने स्वप्न को सावधानी से याद कर अपने पतिदेव को स्वप्ने का सब हाल कहा पतिदेव ने कहा प्रिये! त भाग्यशालिनी है और इस शुभ स्वप्न से ज्ञात होता है कि तेरे उदर में कोई भाग्यशाली जीव अवतीर्ण हुआ है इत्यादि जिसको श्रवण कर धर्मप्रिय पातोली ने बहुत हर्ष मनाया ! बस मानों कि शाह जसा के पुष्ट अन्तगय कर्म को तोड़ कर नष्ट करने को ही स्वर्ग से एक सुभट आया हो। इधर शाह जसा बरसात के अन्त में जंगल गया था वहाँ उसने एक पारस का खण्ड देखा। जसा शास्त्रों का ज्ञाता था पारस को पहचान लिया पर अदत के भय से उसे नहीं लिया पर जब जसा दो चार कदम आगे बढ़ा तो एक दृश्य अावाज हुई कि जसा यह पारस तेरी तकदीर में लिखा हुआ है मैं तुझे अर्पण करता हूँ तू इसे ले जाकर इसका सदुपयोग करना इत्यादि। शाह जसा ने सोचा कि यह अदृश्य प्रेरणा करने वाला कौन होगा और यदि मैं इस पारस को ले भी लूँ तो मेरे पीछे अनेक प्रकार की उपाधियाँ बढ़ जायगी । एवं धर्म कार्य में अन्तराय पड़ेगी। अतः जसा ने कहा कि इस पारस को श्राप किसी योग्य पुरुष को ही दीजिये । जवाब मिला कि इस कार्य के लिये जसा तू ही योग्य है तब उस अदृश्य व्यक्ति के आग्रह से शाह जसा ने प्रणामपूर्वक पारस को ग्रहण कर अपने मकान पर भागया इधर पातोली ने अपने पतिदेव को कहा कि आज रात्रि में मुझे और भी स्वप्न आया जिसमें मैंने देखा है कि आपको बड़ा भारी लाभ हुआ और अपना घर धन से भर गया । इस का क्या अर्थ होगा ? शाह जसा ने कहा भद्रे ! तू बड़ी पुन्यवती है और तेरा स्वप्न सफल भी होगया है । तेरे और तेरे गम के प्रभाव से आज मुझे पारस मिला है । देखो यह पारस मैं ले आया हूँ बस, फिर तो था ही क्या शाह जसा ने उस पारस से पुष्कल सुवर्ण बना लिया। सबसे पहिले तो उसने एक विशाल जिनमन्दिर बनाना शुरू कर दिया अब तो जसा खर्च करने में कमी ही क्यों रक्खें । उस मन्दिर के लिये ९६ अंगुल की सुवर्णमय भगवान महावीर की मर्ति बनाने का निश्चय किया और इस मंदिर में एक करोड़ रुपये खर्च करने का संकल्प भी कर लिया। इधर पातोलीदेवी ने गर्भ की प्रेरणा से नगर के पूर्व दिशा में जनोपयोगी एक विशाल तालाब बनाना शुरू कर दिया । इसके अलावा भी दम्पति ने कई सुकृत कार्य में खुल्ले दिल से द्रव्य व्यय करने लगे। जिसमें भी साधर्मी भाइयों के लिये तो आपका लक्षविशेष रहता था कारण जसा जानता था कि मनुष्य आर्थिक संकट में जीवन किस प्रकार निकालता है। इधर देवी पातोली को दोहला उत्पन्न हुआ कि गुरुवर्य आचार्य कछ.सूरिजी महाराज के मुखाविन्द से मैं महाप्रभाविक श्री भगवतीजी सूत्र सुनू। इस दोहले की बात अपने पतिदेव को कही तो शाह जसा के हर्ष का पार नहीं रहा और उसी वक्त अपने पुत्र सालग को कहा कि तुम जाओ सूरिजी महाराज की विनती कर चतुर्मास के लिये यहां लाओ । सालिग ने कहा कि आपकी आज्ञा तो मुझे स्वीकार है पर मेरी राय में यहां के श्रीसंघ की ओर से विनती हो तो और भी अच्छा रहेगा ? शाह जसा के बात जंच गई और तत्काल ही श्रीसंघ को एकत्र किया और कहा कि प्राचार्य श्रीकक्कसूरि को चतुर्मास के लिये विनती की जाय अतः आप स्वीकृति दिरावें । श्रीसंघ ने कहा कि ऐसा हतभाग्य कौन है कि कल्पवृक्ष को अपने घर पर बुलाना ६१२ For Private & Personal use Only [ शाह जसा को पारस की प्राप्ति Jain Educaresternational Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि ( चतुर्थ ) का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५९९-६१८ नहीं चाहता हो। जसा तुम बड़े ही भाग्यशाली हो कि श्रीसंघ को इस प्रकार लाभ पहुँचाने की प्रेरणा की है । हम बहुत खुशी हैं और विनती के लिये साथ चलने को भी तैयार हैं और आशा है कि सूरिजी महाराज अपने पर अवश्य कृपा करेंगे इत्यादि जयध्वनि के साथ निश्चय कर लिया कि आज ही रवाना हो जाना चाहिये । श्रीसंघ के अन्दर से कई २५ श्रावक तैयार हो गये।। उस समय आचार्य ककसूरि नागपुर नगर में विराजमान थे। हंसावली के श्रावक चल कर शीघ्न ही नागपुर श्राये और श्रीसंघ की विनती सूरिजी के सामने रखी। सूरिजी ने लाभालाभ का कारण जान कर विननी स्वीकार करली । बस, हंसावली के श्रीसंघ के एवं शाह जसा और आपकी पत्नी पातोली के मनोरथ सिद्ध हो गये । आचार्य श्रीकक सूरिजी आपने शिष्य मंडल के साथ विहार करते हुए क्रमशः हंसावली पधार गये । श्रीसंघ ने सूरिजी महाराज का बड़ा ही शानदार स्वागत किया। । शाह जसादि श्रीसंघ ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! यहां के श्रीसंघ की इच्छा है कि आपश्रीजी के मुखाविन्द से परम प्रभाविक पंचमाङ्ग श्रीभगवतीजी सूत्र सुनें । सूरिजी ने कहा बहुत खुशी की बात है । बस, फिर तो था ही क्या, शाह जसादी श्रीसूत्रजी के महोत्सव की तैयारी करने में लग ही गया और भाग्यशालिनी पातोली देवी का दोहला पूर्ण होने से उसके हर्ष का पार भी न रहा । शाह जसा बाजे गाजे एवं बड़ी ही धामधूम पूर्वक सूत्रजी को अपने मकान पर लाया और रात्रि जागरण पूजा प्रभा. वना की दूसरे दिन स्वामिवात्सल्य किया बाद बरघोड़ा चढ़ाया जिसमें केवल जैन ही नहीं पर जैनेतर एवं सम्पूर्ण नगर निवासी एवं राजा राजकर्मचारी लोग शामिल थे। श्रेष्टिवयं जसा एवं पातोली देवी ने इस महोत्सव एवं ज्ञानपूजा में सवा करोड़ द्रव्य व्यय किया जिसके पास पारस है वहां द्रव्य की क्या कमती है। जब श्रीसूत्रजी बचना प्रारम्भ हुआ तो प्रत्येक प्रश्न को सेठानी पातोली सुवर्ण मुद्रिका से पूजन करती थी एवं ३६००० प्रश्नों की छत्तीस हजार सुवर्ण मुद्रिका से पूजा की और उस द्रव्य से जैनागमों को लिखा कर भंडारों में रखवा दिये । धन्य है उन दानवीरों को कि जिनशासन के उत्थान के लिये अपनी लक्ष्मी व्यय करने में खूब ही उदारता रखते थे। यद्यपि शाह जसा के पास पारस होने से उसके धन की कमी नहीं थी परन्तु इसमें भी उदारता की आवश्यकता है कारण हम ऐसे मनुष्यों को भी देखते हैं कि जिन्हों के पास बहुत द्रव्य है पर उदारता न होने से उनका लाभ नहीं उठा सकते हैं। प्राचार्य कवकसूरिजी के चतुर्मास के अन्दर ही माता पातोली ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। जिसका अनेक महोत्सव के साथ राणा नाम रक्खा । क्रमशः गणा चम्पकलता की भांति बड़ा हो रहा था आचार्य श्री ने गणा की हस्त रेखा या अन्य लक्षणों से कहा था कि श्राविका ! यह तेरा पुत्र जैनधर्म में महा प्रभाविक होगा । माता ने कहा पृज्यवर ! आपके वचनों को मैं बंधा कर लेती हूँ। इधर तो श्रीभगवती सूत्र बच रहा था उधर जसा के मंदिरजी का काम चल रहा था फिर भी जसा बहुत से कारीगरों को रख कर जहां तक बन सके मंदिर जल्दी से तैयार कराने की कोशिश में था। जहां द्रव्य की छूट हो वहां क्या नहीं हो सकता है। केवल दिन को ही नहीं परन्तु रात्रि में भी काम होता था और कारीगरों को मनमानी तनख्वाह दी जाती थी और साथ में इनाम देने की भी घोषणा करदी थी। बस, फिर तो देरी ही क्या थी थोड़े ही दिनों में मूल गंभारा शिखर और रंगमंडप तैयार हो गया। ___ शाह जसा ने सोचा कि आयुष्य का क्या विश्वास है। जब जैन मंदिर मूलगम्भारा और रंगमंडप महा प्रभाविक पंचमांग की याचना ] ६१३ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तैयार हो गया है तो मैं सूरिजी के कर कमलों से प्रतिष्ठा करवा लू । सेठ जी ने अपनी सेठानी की सलाह ली तो वह भी सेठजी से सहमत हो गई तब जसा ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! यह जैन मंदिर तैयार हो गया है इसकी प्रतिष्ठा करवा कर हम लोगों को कृतार्थ बनाइये शेष जो कार्य रहा है वह मैं बाद में करवा लूंगा क्योंकि आप जैसे पूज्य पुरुषों का संयोग हमकों बार बार मिलना कहां पड़ा है ? इत्यादि । सूरिजी ने कहा जसा ! तू बड़ा ही भाग्यशाली है। धर्म के कार्य में क्षण मात्र भी विलम्ब नहीं करना चाहिये । कारण, शास्त्रकारों ने कहा है कि 'श्रेयांसि वहु विघ्नानि' अतः 'धर्मस्तत्वरतागति' अर्थात् धर्मकार्य शीघ्र ही कर लेना चाहिये । दूसाग आयुष्य का भी तो क्या विश्वास है शाह जसा ने चतुर शिल्पियों को बुला कर ९६ अंगुल प्रमाण की सुवर्णमय भगवान महावीर की मूर्ति बनवाई और इसके अलावा बहुत सर्व धातु और पाषाण की मूर्तियां भी बनवाई। शाह जसा ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! मेरी इच्छा है कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी की भी एक मूर्ति बनवा कर इसी मंदिर में एक देहरी बना कर स्थापन करवाऊ । कारण हम लोगों पर सबसे पहला उपकार उन पूजा परमोपकारी आचार्य महाराज का ही हुआ है। सूरिजी ने कहा जसा ! उपकारी पुरुषों का उपकार मानना कृतज्ञ पुरुषों का सब से पहिला कर्तव्य है पर उपकार इस प्रकार से माना जाय कि आगे चल कर अपकार का कारण न बन जाय । तीथङ्करों के मन्दिर में प्राचार्यों की मूर्ति स्थापन करनी और तीर्थङ्करों की पूजा की तरह से प्राचार्थों की पूजा होनी यह एक तीर्थङ्करों की आरतना है । कारण, तीर्थङ्करों के पांच कल्याणक हुये वैसे आचार्यों के पांच कल्याणक नहीं हुथे हैं । आचार्यों के केवल एक दीक्षा कल्याणक हुआ है फिर उनको जल चन्दनादि की पूजा किस कल्याणक की कराई जा सके । दूसरा भाव तीर्थङ्करों की पुष्पादि से अग्रपूजा होती थी अतः स्थापना तीर्थङ्करों की पुष्पों से अग्रपूजा कर सकते हो पर भाव आचार्य कि पुष्पादि से पूजा होना किसी शास्त्र में नहीं कहा है तो स्थापनाचार्य की पुष्पादि से पूजा कैसे की जा सकती है ? जसा इस बात को तुम दीर्घ दृष्टि से विचार कर सकता है-कि भविष्य में इस भक्तिका क्या नतीजा होगा दूसरे तीर्थकर निश्चय मोक्षगामी हैं तब आचार्य के लिए भजना है । आचार्य को तो भल्याभव्य का भी निश्चय नहीं है वे तीर्थकरों की बराबर कैप्से पूजा सकते हैं। भले कई प्राचार्य अतिशय प्रभाविक हों या तीर्थकरों द्वारा उनका निर्णय भी हो जाय कि यह मोक्षगामी हैं जैसे रत्नप्रभसूरि का हुआ है पर तीर्थंकरों के मन्दिर में आचार्यों की मूर्तिये स्थापन कर पूजा करने की प्रवृत्ति चल पड़ी तो भविष्य में जितने आचार्य होंगे उनके अनुयायी अपने २ आचार्यों की मूर्तियाँ तीर्थंकरों के मन्दिर में स्थापन करेंगे तो मन्दिर आचार्यों की मूर्तियों से ही भर जायगा । इतना ही क्यों पर इसमें रागद्वेष इतना बढ़ जायगा कि वे आपस में अपने अपने आचार्यों की मूर्तियां तीर्थङ्करों के मंदिर में स्थापन करने के लिये लड़ेगे झगड़ेंगे और कर्मक्षय करने के स्थान कर्न बन्ध के स्थान बन जायेंगे और उनके पक्षपाती श्राहवर्ग भी इसी मार्ग का अनुकरण करेंगे । अतः धर्म के स्थान अधर्म की वृद्धि होगी इसलिये मैं आपके विचार से सहमत नहीं हो सकता हूँ। जसा ने कहा पूज्य गुरुदेव श्रापकी दीर्घ दृष्टि के विचार मेरी समझ में आगये हैं पर एक शंका और भी पूंछ लेता हूँ कि कि सिद्धचक्रजी के गटा में नौपद की स्थापना है उसमें आचार्य उपाध्याय और साधु इन तीनों की भी स्थापना है और वे तीर्थङ्करों के साथ पूजे भी जाते हैं तो क्या वहाँ भी आशातना है ? For Private & Personal use only [sta dirait i ngrit ant gränary.org Jain Ed६१४international Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नपभमरि (चतुर्थ) का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१९-६१८ सूरिजी-जसा ! नौपदजी के गटा में जो आगर्योपाध्याय और साधु की स्थापना है वह वर्तमान काल की नहीं है पर भूतकाल की है अर्थात् आचार्य होकर मोक्ष गये उपाध्याय होकर मोक्ष गये और साधु होकर मोक्ष गये जिसको नैगमनय के मत से भूतकाल की वर्तमान में स्थापना कर पूजे जाते हैं। ___ जसा-पूज्यवर ! तब तो अन्य लिंगी और गृहस्थलिंगी भी मोक्ष जाते हैं उनकी भी स्थापना उसी लिंग में होनी चाहिये ? सूरिजी- जसा ! अन्य लिंगी और गृहस्थलिंगी मोक्ष जाते हैं वह बिना भाव चरित्र के मोक्ष नहीं जाते हैं । अन्य लिंगी प्रथम गुणस्थान और गृहस्थलिंगी पहले से पांचवे गुणस्थान वृति होते हैं जब वे छट्टा गुणस्थान को स्पर्श करते हुए ऊपर चढ़ते हैं तब जाकर वे तेरहवें गुणस्थान कैवल्य ज्ञान प्राप्त करते हैं। अतः उनकी अलग स्थापना की जरूरत नहीं पर वे साधु पद में ही गिने जाते हैं। जसा-क्यों पूज्यवर ! आदि तीर्थंकरों के मन्दिर में न करवा कर एक अलग मन्दिर बनवा कर गुरुदेव को मूर्ति स्थापित की जाय तो क्या हर्ज है ? सूरिजी-जसा ! मैं हर्ज की बात नहीं करता हूँ पर भविष्य की बात करता हूँ। जैसे आचार्य रत्नप्रभसूरि का तुम पर उपकार है वैसा मुझ पर भी है पर आप सोचिये कि गणधर सौधर्म एवं जम्बु तो केवली आचार्य हुये हैं। क्या उनके कोई भी भक्त नहीं थे कि किसी ने उनकी मूर्ति एवं मन्दिर नहीं करवाया । पर वे लोग अच्छी तरह से सभमते थे कि मन्दिर और मूर्तियां केवव तीर्थंकरों की ही होती हैं कि जिन्हों के पांच कल्याणक हुये हों। जसा-क्यों गुरुदेव ! श्रीसिद्धगिरि तीर्थ पर एवं उपकेशपुर में आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि जी महाराज के थूम है तव यहाँ बनवाने में क्या हर्ज है ? सूरिजी-तब ही ती तुम्हारी भावना हुई है और तुम्हारी देखा देखी पीछे दूसरों की भी भावना होगी और वही बात मैं कह रहा हूँ । जसा थंभ करवाना दूसरी बात है और तीर्थंकरों के मन्दिर में प्राचार्यों की मूर्ति स्थापन करवा कर तीर्थंकरों की भाँति जल चन्दन पुष्पादि से पूजा करवाना दूसरी बात है । धुंभ तो केवल एक स्मृति चिन्ह होता है । जिसकी तीर्थंकरों की भाँति पूजा नहीं की जाती है। ___ जसा-क्यों गुरु महाराज ! स्थापनाचार्य रखे जाते हैं यह भी तो एक गुरु मूर्ति ही है फिर गुरु मूर्ति बनाने में क्या हर्जा है ? सूरिजी-गुरु स्थापना रखना शस्त्र में कहा है पर मूर्ति और स्थापनाचार्य में अन्तर है। कारण मूर्ति की सदैव जल चन्दनादि से पूजा होती है तब स्थापनाजी का भावस्तव किया जाता है। मूर्ति के लिये मन्दिरादि स्थान की आवश्यकता रहती है तब स्थापना साधुओं के पास रहती है । स्थापना गुरुभाव से रक्खी जाती है तब मूर्ति की पूजा जन्मादि कत्याणक की भाँति होती है। जसा-ठीक है गुरु महाराज आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । पर आप मुझे एसा गस्ता बतलाये कि मैं किसी प्रकार से गुरु भक्ति करके अपने मनोरथ को पूर्ण कर सकू। सूरिजी-जसा ! इसके लिये अनेक मार्ग हैं पर सबसे बढ़िया बात यह है कि तुम सब आगम लिखवा कर ज्ञान भंडार में स्थापन कर दो कि भविष्य में बड़ा भारी लाभ होगा। और यही सबसे उत्तम गुरुभक्ति है । दूसरे गुरु महाराज की आज्ञा धर्म प्रचार बढ़ाने की हैं उस ओर लक्ष । जैन मंदिर में अचार्यों की मूर्ति ] ६१५ www.jamelibrary.org Jain Education internation Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष 1 जसा तथास्तु | जसा ने मंदिरजी के पास एक और औषधशाला और दूसरी और एक ज्ञान भंडार बनाने का निश्चय कर लिया । और उसी समय कार्य प्रारंभ कर दोनों स्थान तैयार करवा दिये [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्पराका इतिहास सूरिजी ने एक दिन अपने व्याख्यान में षद्रव्य का वर्णन करते हुये काल द्रव्य का इस खूबी के साथ व्याख्यान दिया कि संसार के जीवाजीव जितने पदार्थ हैं उन सब पर काल की धाक है । काल सब की अवधि को पूर्ण कर देता है । देवता कब चाहते हैं कि हमारे सुखों की अवधि पूर्ण हो जाय, एल्योपम और रोम की स्थिति भी क्षय हो जाती है तब अस्थिर काल की स्थिति वाले मनुष्य का तो कहना ही क्या है । धन, कुटुम्ब, मान, प्रतिष्ठा और लक्ष्मी की भी अवधि हुआ करती है । उस अवधि के अन्दर ही मनुष्य कुछ कर लेते हैं तो हो सकता है वरना पछताने के सिवाय और क्या हाथ लगता है इत्यादि । शाह जसा सूरिजी के उपदेश से सावधान हो गया और सोचा कि मेरे पास में पारस है पर इसकी भी तो अवधि होगी। इसके चले जाने पर तो मेरी वही स्थिति रहेगी जो पहले थी । अतः इसके अस्तित्व मुझे इसका सदुपयोग कर लेना चाहिये । सब से पहिले तो मंदिरजी की प्रतिष्ठा करवाने का कार्य मेरे है इसको शीघ्र ही कर लेना चाहिये । शाह जसा ने इस प्रतिष्ठा के कार्य में लोहे की जगह सोने से काम लेना शुरू किया। प्रतिष्ठा पर पधारने वाले साधर्मि भाइयों के लिये सोने के थाल और कंठिय तैयार करवाये जिसके पास खास पारस है वह क्या नहीं कर सकता है । शाह जसा ने इस प्रतिष्ठा के लिए बड़ी २ तैयारियें करनी शुरू करदीं और दूर दूर आमंत्रण पत्रकायें भेज कर स्वधर्मी भाइयों को बुलवाये। इधर जिन मंदिरों में अष्टान्हिक महोत्सव प्रारम्भ हो गया । उधर सूरिजी महाराज ने उन नूतन मूर्तियों की अंजनसिलाका कार्य प्रारम्भ करवा दिया। सुवर्णमय मूर्ति के नेत्रों के साथ ऐसी मणिये लगवाई गई कि रात्रि में दीपक की आवश्यकता नहीं रहती थी । प्रतिष्ठा के समय केवल श्रावर्ग ही नहीं आये थे पर हजारों साधु साध्वियां दूर दूर से पधारे थे कई राजा महाराज भी आये थे और श्रावकों की तो गिनती ही नहीं थी । फाल्गुण एक पट्टावली में इस प्रतिष्ठा का समय माघ शुक्ला १३ का लिखा है तब प्रबन्धकार शुक्ल सप्तमी का लिखा है । शायद मूर्तियों की अंजनसिलाका माघ शुक्ल १३ की हुई हो और मंदिरजी की प्रतिष्ठा फाल्गुण शुक्ल सप्तमी की हुई हो और यह बात संभव भी हो सकती है क्योंकि इतना बड़ा महोत्सव पच्चीस दिन रहा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । या दोनों काय्यों का मुहूर्त अलग २ हो ? शुभ मुहूर्त में शाह जसा और सेठानी पतोली ने भगवान महावीर की सुवर्णमय मूर्ति अपने हाथों स्थापित की। मंदिरजी पर सुवर्ण कलस अपने पुत्र राणा जो एक नवजात बालक था के हाथ से स्थापित कराया । पट्टावलीकार लिखते हैं कि उस समय सुमधुर वायु और थोड़ा सा जल तथा श्राकाश से पुष्पों की वर्षा हुई थी । ऐसे पुन्य काययों में देवता कब पीछे रहने वाले थे वे भी तो इस प्रकार का लाभ उठावें इसमें आश्चर्य ही क्या ? जसा के अन्य पुत्रादि कुटुम्ब वालों ने दंड ध्वज तथा अन्य मूर्तियाँ स्थापन कर लाभ • हासिल किया और आचार्य कक्कसूरि ने सत्र के उपर वासक्षेप डाला । -- पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य मुहूर्त की शुरुआत से ही हो रहा था पर महोत्सव के अंत में स्वधर्मी ६१६ Jain Education international [ शाह जसा के कराये मन्दिर की प्रतिष्ठy.org For Private & Personal Us Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५९९-६१८ भाइयों को सोने के थाल एवं सोना की कंटियों और वस्त्रों की पहरावणी दी तथा याचकों को एक एक सौ सुवर्ण मुद्रिकाएँ एवं वस्त्र भूषण आदि बहुत सा धन माल देकर जसा ने अपने यशः को अमर बना दिया । __ इस सुअवसर पर आचार्य कक्कसरि ने आये हुये साधुओं में जो पदवियों योग्य थे उनको पदवियें प्रदान कर जैनशासन की बड़ी भारी उन्नति की इतना ही क्यों पर हंसावली के राजा रामदेव पर भी सूरिजी का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा कि उसने स्वयं मंस मदिरा का त्याग कर अपने राज में किसी निरपराधी जीव को नहीं मारने की उद्घोषणा कर दी "यथा राजा तथा प्रजा" इस महा वाक्यानुसार अन्य भी बहुत से लोगों ने मांस मदिरादि मिथ्यात्व का त्याग कर अहिंसाधर्म को स्वीकार किया। अहा हा ! पूर्व जमाने में साधु और श्रावकों की धर्म पर कैसी अटूट श्रद्धा थी और वे दोनों एक दिल हो जैन धर्म की उन्नति एवं जैनधर्म का किस प्रकार प्रचार करते थे जिसका यह एक उज्वल उदाहरण है। प्राचार्य शासन के शुभचिंतक थे तब श्रावक लोग आचार्यों का आशीर्वाद लेना चाहते थे। भले ही आचार्य मुँह से आशीर्वाद शब्द का उच्चारण नहीं करते होंगे पर उनकी आज्ञा का पालन करने से तथा उनकी इच्छानुसार कार्य करने से उनकी अन्तरात्मा स्वयं आशीर्वाद दे दिया करती थी। आज हम देखते हैं कि शायद ही कोई प्रतिष्ठा निर्विघ्नतया समाप्त होती हो कारण पहिले तो प्राचार्य को नाम का हो चाहे काम का हो पर स्वार्थ अवश्य रहता है जब श्रावक भी ऐसे ही होते हैं कि अपना काम निकल जाने पर प्राचार्यों को पूछते ही नहीं हैं कि वे कहां बसते हैं दोनों ओर स्वार्थ का साम्राज्य जमा हुआ हैं अर्थात जहां स्वार्थ होता है वहां स्नेह ठहर ही नहीं सकता है। शाह जसा ने सूरिजी महाराज की खूब भक्ति कर लाभ उठाया श्रीभगवतीजी सूत्र बचाया और नूतन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई और इन दोनों कार्यों से जैन धर्म की प्रभावना भी अच्छी हुई तत्पश्चात सूरिजी महाराज हंसावली नगरी से विहार कर अन्य प्रदेश में पधार गये । शाह जसा ने कई कोसों तक सूरिजी महाराज के विहार में साथ में रह कर भक्ति की, सच्ची भक्ती इसका ही नाम है । शाह जसा बड़ा ही भाग्यशाली था। आपके गृहदेवी पातोली और लघुपुत्र गणा तो दो कदम आगे थे जैसे आज श्रावकों के नाम पर्वतसिंह, पहाड़सिंह, जोधसिंह, सबलसिंह, शादूलसिंह, उमरावसिंह घगैरह होते हैं वैसे नाम पहिले श्रावकों के नहीं होते थे हाँ उनके नाम दो तीन अक्षरों के ही होते थे किन्तु वे लोग काम आज के श्रावकों से कई गुणे अधिक करते थे देखिये सेठानी पातोली ने श्री भगवती सूत्र बँचाया जिसमें करीबन एक करोड़ द्रव्य ज्ञान खाते में व्यय किया । हंसावली के बाहर एक सरोवर-तालाब बनाया जिसमें एक करोड़ द्रव्य नर्च किया जब शाह जसा ने मन्दिर और मूर्तियों के निमित्त एक करोड़ क्या ही क्यों कई करोड़ द्रव्य शुभ क्षेत्र में व्यय कर दिया और केवल एक हंसाबलि का श्रेष्ठवय जसा ही नहीं पर ऐले अनेक दानेश्वरों ने जिन मन्दिरों से मेदनी मण्डित करदी थी परंतु कालांतर धर्मान्ध म्लेच्छों के आक्रमण से वे सब मन्दिर बच नहीं सके । इसका मुख्य कारण एक तो धर्मान्धता थी और दूसरे पहिले जमाने में प्रतिष्ठा के समय मूर्ति के नीचे गुप भंडारा रखा जाता था और उसमें श्रीसंध पुष्कल द्रव्य डाल देते थे शायद उनका आशय तो कभी जीर्णोद्धार में वह द्रव्य काम आने का ही होगा परन्तु परिणाम कुछ उलटा ही हुआ कि उस द्रव्य के लोभ से वे लोग मन्दिर तोड़ डालते थे। यही कारण है कि आज प्राचीन मंदिर बहुत कम नजर आते हैं। प्राचीन ग्रन्थों से पाया जाता है कि आचार्य श्री कक्कमरि और भक्त जसा ]. Ir Private & Personal Use Only Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष । भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कुभारिया ( कुतिनगरी ) में एक समय तीन सौ मंदिर थे। चंद्रावती ( आबू के पास ) , ३६० मंदिर थे। पद्मावती ( पुष्कर ) में पाँच सौ जैन मंदिर थे। तक्षिला में पाँच सौ मंदिर थे पाहण में ६०७ मंदिर थे। उपकेशपुर में १०० मंदिर तो बारहवी शताब्दी में थे इसके पूर्व कितने ही होंगे इत्यादि प्रत्येक नगर में इस प्रकार मंदिरों की विशाल संख्या थी । जब आज विक्रम की दशवों ग्यारहवीं शताब्दी के भी बहुत कम मंदिर मिलते हैं। हाँ सम्राट सम्प्रति के बनाये लाखों मंदिरों से कोई २ मंदिर एवं मूर्तियाँ अवश्य मिलती हैं खैर कुछ भी हो पर मंदिर मूर्तियें बनाने वालों ने तो अपनी उज्जल भावना से पुंज्योपार्जन कर ही लिया था। शाह जसा के करने योग्य कार्य में अब केवल एक तीर्थ यात्रा निमित्त संघ निकालना ही शेष रह गया था। उसके लिये श्रेष्ठवयं हर समय भावना रखता था कि कब मुझे समय मिले और कब मैं अपने मनोरथ को सफल बनाऊँ। सेठानी की भी यही भावना थी और इस वात की चर्चा भी होती थी शाह जसा ने अपने पास के पारस को पूँजियों की लक्ष्मी की तरह भंडारी नहीं रख छोड़ा था पर उसका हमेशा सदुपयोग करता था। हंसावली का तो क्या पर कोई भी साधर्मी भाई शाह जसा के घर पर आ निकलता तो वह रीते हाथ कभी नहीं जाता था पर उस समय ऐसे लोग थे भी बहुत कम जो दूसरों की आसा पर जीवें । फिर भी काल दुकाल या म्लेच्छों के आक्रमण समय जसा याद आ ही जाता कभी २ शाहजसा स्वामीवात्सल्य करता था तो एक दो दिन का नहीं पर लगातार मार दो मास तक स्वामी वात्सल्य किया ही करता था। जिन मन्दिरों की भक्ति तो बारह मास चलती ही रहती थी तमाम खर्चा शाह जसा की ओर से होता था। इस प्रकार जसा का यश सर्वत्र फैल गश था .....। ___ मरुधर में कभी २ छोटा बड़ा दुकाल भी पड़ा करता था । शाह जसा के और दुकाल के ऐसी ही अनबन थी कि वह अपने देश में दुकाल का आना तो क्या पर पैर भी नहीं रखने देता था। केवल एक अपना देश ( मरुधर ) ही क्यों पर शाह जसा तो भारत के किसी देश में काल का नाम सुन लेता तो हाथ में लकड़ी लक्ष्मी ) लेकर उसको शीघ्र ही वहाँ से भगा देता था धन्य है ऐसे नर रत्नों को कि जिन्होंने संसार में जन्म लेकर जैन धर्म की बड़ी २ सेवायें कर उसको उन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया। प्राचार्य कक्कसूरीश्वरजी महाराज जैन धर्म में अद्वितीय प्रभाविक थे। एक प्रांत में नहीं पर वे प्रत्येक प्रांत में घूम २ कर जैन धर्म का खूब प्रचार किया करते थे । हंसावली में मंदिर की प्रतिष्टा करवाने के बाद आपने देशटन के लिये विहार कर दिया । लाट सौराष्ट्र , कच्छ, सिन्ध, पंजाब, सौरसेन, मच्छादि प्रान्तों में घूमने में कम से कम दस वर्ष तो लग ही जाते थे और उपकेश च्छाचारयों की यह एक पद्धति थी कि सूरी पद पर प्रतिष्ठत होने के बाद कम से कम एक बार तो इन प्रांतों में वे अवश्य भ्रमण किया करते थे । इधर शाह जसा अपनी धर्मपत्नी पातोली के साथ आत्मकल्याणर्थ धर्म कार्य साधन करने में संलग्न थे। पातोली का पुत्र राणा क्रमशः बड़ा हो रहा था। उसके माता-पिता की धार्मिकता का प्रभाव उस पर पड़ता ही था। ज्ञानाभ्यास में उसकी अधिक रुचि एव सरस्वती की कृपा थी। उसने श्रावक के करने योग्य क्रिया-सामयिक प्रतिक्रमण देववन्दनादि सब क्रियायें तथा नौ तत्त्व कर्म ग्रन्थादि कंठस्थ कर लिया था। जब राणा करीब १२ वर्ष का हुआ तो एक समय उसके माता पिता बातें कर रहे थे कि जैन गृहस्थों के करने काबिल दो कार्य तो कर लिये अर्थात श्री भगवती सूत्र को बचाना और जैन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाना पर एक कार्य तीर्थयात्रार्थ संघ निकालना शेष रहा है। अगर गुरु महाराज का पधारना हो जाय तो इस को भी शीघ्र कर लिया जाय इत्यादि ६१. Jain El Cacon International [ हंसावली का यश धारी जसा .. Ibrary.org Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन [ओसवाल संवत् ५९९-६१८ पास बैठे हुए राणा ने भी सब बातें सुनी और उसने कहा माता ! दो कार्य आपने किये तो एक कार्य तो मुझे करने दीजिये माता ने कहा बेटा तू बड़ा ही पुण्यशाली है जब तू गर्भ में आया था उस दिन से ही हन लोग इस प्रकार का अनुभव करने लगे हैं और तेरे पिता और मैंने जो कार्य कर पाये हैं वह तेरी पुण्यवानी का ही कारण है और संघ निकालने का कार्य शेष रहा है वह शायद तेरे लिये ही रहा होगा वरना इतने दिनों का बिलम्ब होने का कारण ही क्या था । कारण तेरे पिता के पास सब साधन था पर कुदरत ने यह कायं खास तौर पर तेरे लिये ही रखा है। अतः बेटा ! तू संघपति बनकर अवश्य संघ निकाल मैं भी तेरे संघ में साथ चलकर तीर्थों की यात्रा करके अपना जन्म को सफल बनाऊंगी। ___माता की बात सुनकर राणा को हर्ष हुआ। इधर राणा के पिता जसा ने भी राणा को कहा बेटा ! एक संघ ही क्या पर तेरे से जितना धर्म कार्य बन सके तू खुल्ले दिल से कर लक्ष्मी चञ्चल है, इसका जिसना शुभकार्यों में उपयोग हो उतना ही अच्छ है राणा था तो एक बारह वर्ष का बच्चा पर पूर्व भव के संस्कारों के कारण उसकी प्रज्ञा एवं धर्म भावना अच्छे २ समझदारों से भी बढ़ चढ़ के थी । राणा ने अपनी माता से पूछा कि अपने गुरु महाराज का पधारेंगे ? माता ने कहा बेटा वे महात्मा अतिथि हैं । उनको आने का निश्चय नहीं है । यदि बेटा तू चाहे तो गुरुदेव को जल्दी भी लासकता है। राणा ने कहा माता मैं तो चाह. ता हूँ कि प्राचार्य श्री जल्दी से पधारें और मैं संघ तिकाल कर तीर्थों की यात्रा करूँ। अतः तू यह बतला कि वे गुरु महाराज कै जल्दी पधार सकें जिसका मैं प्रयत्न करूँ ? माताने कहा गुरु महाराज परोपकारी हैं जहाँ उकार के कार्य होता हो वहाँ जल्दी पधार जाते हैं अतः तूं जाकर गुरु महाराज की विनती कर कि वे जल्दी पधारें । बेटाने कहा कि तूं यह तो बतला कि गुरु महाराज विराजरो कहाँ हैं ? कि मैं वहाँ जाकर विनती करूं । माता ने कहा कि तेरे पिता से मैंने सुना है कि आचार्यश्री अभी मथुग में विराजते हैं : बेटा ने कहा ठीक है तब मैं मथुरा जाकर विनती करूंगा । माता ने कहा बेटा मथुरा यहाँ से नजदीक नहीं पर बहुत दूर है। बेटा ने कहा कि दूर हो तो क्या हुआ जरूरी काम होतो दूर भी जाना पड़ता है । देखिये व्यापारी लोग व्यापाराथ कितनी दूर जाते हैं । माता ने कहा तूं जाता है तो तुम्हारे पिता को भी साथ ले जा राणा ने कहा ठीक है आने दे पिताजी को इत्यादि मां बेटे बातें करते थे । इतने में शाह जसा घर पर आगया। तुरंत ही राणा ने कहा पिताजी मैं गुरु महाराज को लेने के लिए जाता हूँ आप भी मेरे साथ चले पिता ने कहा कि क्या तूं गुरु "हाराज का चेला बनेगा ? राणा ने कहा मुझे तो तीर्थयात्रा का संघ निकालना है क्यों कि श्रीभागवती सूत्र मां ने बँचाया आपने मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई तो अब तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकामना मेरा काम है इसलिए मैं गुरु महाराज को बुलाने के लिये जाता हूँ सेठ जी बहुत खुश हुये और कहा कि अच्छा बेटा मैं तेरे साथ चलूँगा । शाह जसा के कहने से और भी बहुतसे धर्म प्रेमी तैयार होगये क्योंकि खर्चा तो सव जसा का ही लगता था अतः वे सब चलकर मथुरा पहुंचे और सूरिजी को हंसावली पधारने की विनती की । जब राणा और सूरिजी के वार्तालाप हुआ तो सूरिजी को बड़ा ही आनन्द आया। राणा एक होनहार बालक था । सूरिजीने तो राणा के जन्म समय ही धरणा करली थी कि यह बालक भविष्य में शासन का प्रभारिक पुरुष होगा। वे ही चिन्ह आज नजर आरहे हैं। सूरिजी ने लाभालाभ का कारण जानकर बालकुंवर राणा की विनती स्वीकार करली । बस, आये हुये हंसावली के लोग खुश होकर वापिस लौट गये और सूरिजी मथुरा से विहार कर मरुधर की ओर आने लगे । जब सूरिजी हसावली के बालकुमार राणा मथुरा आकर ] ६१० Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नजदीक पधारे तो श्रीसंघ ने बड़े ही समारोह से नगर प्रवेश का महोत्सव किया। और बड़े ही धाम धूम से नगर प्रवेश करवाया। सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था । राणा ने संघ निकालने की बात कही पर ऋतु गरमी की श्रागई थी । श्रीसंघ और विशेष राणा की विनती से सूरिजी ने चतुर्मास हंसावली में करने का निश्चय कर लिया । बस फिर तो था ही क्या राणा के मनोरथ सफल होगये राणा सूरिजी की सेवा भक्ति करता हुआ ज्ञानाभ्यास करने में इस प्रकार तत्पर होगया कि मानों सूरिजी का एक लघु शिष्य ही हो । बालकुमार राण को तो निकालना था संघ इसलिये ही तो विनती कर सूरिजी को लाया था। राणाने अपने माता पिता को कहा कि गुरुदयाल पधार गये हैं अब निकालो संघ ? शाह जसा ने कहा बेटा संघ चतुर्मास में नहीं निकलता है चतुर्मास समाप्त होने के बाद निकाला जायगा। शाह जसा ने सूरिजी एवं श्रीसंघ की आज्ञा लेकर पहले से ही संघ की तैयारियां कराना शुरु कर दिया। क्योंकि जसा ने जैसे श्रीभगवतीजी सूत्र तथा मंदिर प्रतिष्ठा का धाम धूम से महोत्सव किया था वैसे ही संघ के लिये करना था। और संघपति बनाना था राणा को फिर इस संघ में कमी ही किस बात की रह सके । खूब दूर दूर के प्रदेश में आमंत्रण पत्रिकायें भिजवादीं। शाह जसा कोई साधारण व्यक्ति नहीं था जसा की और से सोने के थाल की पहरावणी सर्वत्र प्रसिद्ध थी अतः खूब गहरी तादाद में साधर्मी भाई एकत्र हुये इधर साधु साध्वियों की संख्या बहुत थी जिसमें कई पद प्रतिष्ठित-पदवीधर भी थे। सूरिजी के दिये हुये शुभ मुहूर्त में बालकुमार राणा को संघपति पद से विभूषित किया। राणा के दो वृद्ध भ्राता और चार लघु बान्धव भी थे अतः सात पुत्र का पिता शाह जसा और माता पातोली संघ की सेवा में अपने जीवन की सफलता समझ रहे थे। सूरिजी महाराज की अध्यक्षता में संघ प्रस्थान कर क्रमशः चलता हुआ उपकेशपुर आया भगवान महावीर की यात्रा ध्वजमहोत्सव और देवी सच्चायिका के दर्शन किये । वहाँ से श्रीसिद्धगिरी के लिये रवाना हुये रास्ते में जहाँ जहाँ मंदिर आये वहाँ वहाँ दर्शन कर आवश्यकतानुसार द्रव्य दिया इतना ही क्यों पर गरीबों का उद्धार याचकों को दान जीवदयादि अनेक पुन्य कार्य करते हुये पहला गिरनारादि सब तीर्थों की यात्रा करते हुये जब संघ तीर्थाधिगज श्री शत्रुजय पहुँचा तो तीर्थराज के दर्शन करते ही आनंद की लहर में कई भवों के किये हुये पातक नष्ट हो गये । उस पुनीत तीर्थ के प्रभाव को तो वहां जाने वाले भुक्त भोगी ही जान सकते हैं । वहां के परमाणु इतने स्वच्छ होते हैं कि भावुकों के अन्तःकरण को साफ निर्मल बना देते हैं । संघपति राणा था तो बालक पर उनके पूर्व जन्म के ऐसे संस्कार थे कि वह तीर्थयात्रा कर बड़े ही आनन्द को प्राप्त हो गया । शाह जसा ने अष्टान्हिकमहोत्सव, ध्वजारोपण महोत्सव और स्वामीवात्सल्यादि सब कार्य बड़े ही उत्साह से किया और इन शुभकार्यों में खुल्ले दिल से द्रव्य व्यय किया जिसको अपना अहोभाग्य समझा । जब संघ ने वापिस लोटने का विचार किया तो सूरिजी ने कहा कि मैं अब यहां रह कर अन्तिम आराधना करूंगा और मेरे बहुत से साधु आपके साथ संघ में चलेंगे। इससे संघ के लोगों ने निराश होकर अर्ज की कि प्रभो ! आप जैसे संघ लाये हैं वैसे पहुँचा दें। सूरिजी ने कहा कि इसमें मुझे कोई एतराज नहीं है पर जब मेरी वृद्धावस्था है और यह शरीर यहीं छूटे तो अच्छा है इत्यादि समझाने से श्रीसंघ तो समझ गया पर संघपति राणा ने कह दिया कि सूरिजी चलें तो ही मैं चलंगा वरना मैं सूरिजी के पास ही रहूँगा । सूरिजी ने मजाक में कहा राणा तेरी तीर्थयात्रा तो हो गई है For Private & Pers. आचार्य ककसरि का चतर्मास और राणा .. ६२० Jain Edition International Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५९९-६१८ अब संयम यात्रा शेष रही है अब तू दीक्षा लेकर मेरी अन्तिम सेवा कर कि जनता का उद्धार करने में समर्थ बन जाय इत्यादि । जिस जीव के पूर्व जन्म का संस्कार और कर्मों का क्षयोपशम होता है उसको थोड़ा उपदेश भी अधिक असर कर देता है। बस राणा के दिल में यह बात जच गई कि मैं तो सूरिजी के पास दिक्षा लूंगा । राणा अपने माता पिता के पास श्राया और कहा कि मैं तो सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लूंगा । पर माता पिता कब आज्ञा देने वाले थे कि राणा तूं दीक्षा लेले । माता पिता और राणा के बहुत चर्चा हुई। माता पिता ने कहा राणा अपने घर में पारस है जिससे लोहा का सुवर्ण बन जाता है अतः घर में रह कर धर्माराधना करो ? जवाब में राणा ने संयम के सामने लक्ष्मी की असारता बतला कर माता पिता को ठीक समझा दिये। राणा तो जनता का राणा ही निकला । उसने पुनीत तीर्थराज की शीतल छाया में बड़े ही समारोह में सूरिजी के कर कमलों से भगवती जैन दीक्षा ग्रहण कर ही ली । सूरिजी ने संघपति की माला शाह जसा को पहना दी और शाह जसा संघ को लेकर वापिस लौट गया । शाह जसा बड़ा ही धर्मज्ञ एवं समझदार था । पहिले तो मोहनीय कर्म के कारण पुत्र को दीक्षा के लिये खींचातानी की थी। पर राणा की दीक्षा होने के पश्चात उसने सोचा कि राणा पहिले से ही भाग्य - शाली था और दीक्षा लेने पर तो और भी पूजनीय हो गया है । मेरा ऐसा भाग्य ही कहां कि मेरा पुत्र दीक्षा ले । मेरा कर्तव्य था कि मैं भी पुत्र के साथ दीक्षा लेता पर अभी मेरे कर्मों का जोर है। माता पातोली ने कहा पतिदेव सोच किस बात है यदि यही राणा परलोकवासी हो जाता तो आप क्या करते इससे तो दीक्षा लेना अच्छा ही है। सेठजी ने कहा सेठानी तूं बड़ी पुन्यवती है तेरी कुक्ष को धन्य है कि तेरे पुत्र ने सूरिजी के हाथों से दीक्षा ली है इससे बढ़ के पुन्य ही क्या हो सकता है इस प्रकार दम्प खुशी मनाते हुये संघ लेकर पुनः अपने नगर में आये। बाद जसा ने स्वामिवात्सल्य कर संघ को सोने की कंठियां और वस्त्र की पोशाक देकर विसर्जन किया । याचकों को इच्छित दान दिया । जसा की कीर्ति पहिले ही दूर दूर फैली हुई थी अब तो जसा का यशः भूमण्डल व्यापक बन गया । आचार्य कसूर ने बालकुमार राणा को दीक्षा देकर उसका नाम रत्नभूषण रख दिया मुनि रत्नभूषण पहले से ही विद्या का प्रेमी था पूर्व भव में ज्ञान पद एवं सरस्वती की आराधना की थी फिर भी सूरिजी महाराज की पूर्ण कृपा कि थोड़ा ही समय में आपने सम्पूर्ण एकादश अंगों के साथ कई पूर्वो का ज्ञान भी कण्ठस्थ कर लिया । इतना ही क्यों पर सूरिजी महाराज ने मुनि रत्नभूषण को पात्र समझ कर कई अतिशय विद्याय भी प्रदान कर दीं। अतः रत्नभूषण मुनि की सर्वत्र प्रसिद्धि हो गई । आचार्य श्री ने देवीसच्चायिका के कथनानुसार अपना आयुष्य नजदीक जानकर उपाध्याय विशाल मूर्ति को अपने पद पर स्थापन कर आपका नाम देवगुप्त सूरि रख दिया बाद २१ दिन के अनशनपूर्वक स्वर्ग हुए। आचार्य श्रीदेवगुप्तसूरि केवल तीन वर्ष ही सूरि पद पर स्थिति रहे उनके बाद आचार्य सिद्धसूरि हुये श्राप श्री की भी रत्नभूषण पर पूर्ण कृपा थी । मुनिरत्नभूषण उम्र में तो बहुत छोटा था पर का ज्ञान बहुत विशाल था तथा आपको योग्य समझ कर आचार्य श्रीसिद्धसूरि ने वाचनाचार्य जी पद से विभूषित बना दिया था। कई मुनि आपकी सेवा में उपस्थित हो आगमों की वाचना लिया करते थे । शास्त्रार्थ में आप इतने निपुण थे कि कई राजा महाराजाओं की सभा में बौद्ध एवं दिगम्बराचार्यों को नतमस्तक कर जैनधर्म की ध्वजापताका सर्वत्र फहरा दी थी यही कारण था कि आपका नाम सुनने मात्र से वादी घबरा सिद्धगिरि पर राणा की दीक्षा ] ६२१ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ! [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कर दूर भागते थे। शाकम्भरी के राजा नागभट ने आपको वादी चक्रवर्ती का विरुद्ध इनायत किया था अतः आप वादी-चक्रवर्ती के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध थे। आचार्य श्रीसिद्धसूरि ने अपनी अन्तिम अवस्था में वाचनाचार्य रत्नभूषण को सूरि पद से विभूषित कर श्रापका नाम रत्नप्रभसूरि रख दिया था। आचार्य रत्नप्रभसूरि इस नाम में न जाने क्या जादू की शक्ति एवं बिजली सा तेज रहा हुआ था कि प्राचार्य पद प्रतिष्ठित होते ही आपका इतना प्रभाव बढ़ गया कि चक्रवर्ती की भांति अपना विजयचक्र आपके आगे आगे बढ़ता ही रहा । आप श्रीमान जिस किसी प्रांत में विहार करते उस २ प्रांत में धर्म जागृति एवं धर्मोन्नति का विजयचक्र स्थापित कर ही देते थे। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने पहिला ही चतुर्मास सत्यपुर में किया और वहाँ आपने शाह लाखन के पुत्र धर्मशी आदि अष्टादश नरनारियों को दीक्षा दी और धर्मशी का नाम धर्ममूर्ति रख दिया था । वास्तव में वह एक धर्म की प्रतिमूर्ति ही था तत्पश्चात् सूरिजी ने उपकेशपुर पधार कर भगवान महावीर की यात्रा की वहाँ से आप नागपुर पधारे वहाँ अदित्यनाग गोत्रीय शाह सहजपाल के आग्रह से चर्तुमास कर व्याख्यान में श्रीभगवतीजी सूत्र बांचा जिसके महोत्सव एवं पूजा में सहजपाल ने सवा लक्ष द्रव्य व्यय किया तथा चर्तुमास के बाद भद्रगोत्रिय शाह देवा ने पुनीत तीर्थ श्री सिद्धगिरि का विराट संघ निकाला। इस संघ में हजारों साधु साध्वी और लाखों भावुकों की संख्या थी संघ क्रमशः शझुंजय पहुँच कर भगवान युगादीश्वर की यात्रा की। शाह देवा ने संघ पूजा तीर्थ पूजा अष्टान्हिका एवं ध्वज महोत्सव किया। इन पुनीत कार्यों में शाह देवा ने पुष्कल द्रव्य व्यय किया। प्राचार्य रत्नप्रभसूरि की इच्छा थी दक्षिण की ओर विहार करने की अतः आप तो वहीं रहे और उपाध्याय कनककुशल तथा वाचनाचार्य देवकुशल अादि मुनिगण संघ के साथ वापिस लौट आये । शाह देवा ने नागपुर में आकर स्वामि वात्सल्य किया और संघ के प्रत्येक श्रावक को सवासेर लड्डू और पांच पांच सुवर्ण मुद्रिकायें तथा वस्त्रादि की पहरामणि देकर विसर्जन किया । धन्य है ऐसे नररत्नों को कि जिन्हों की उज्ज्वल कीर्ति आज भी इतिहास के पृष्ठों पर गर्जना कर रही है । आपश्री ने पुनीत तीर्थ श्रीशत्रुजय की यात्रा कर अपने शिष्य मंडल के साथ दक्षिण की ओर विहार कर दिया था । घूमते घूमते महाराष्ट्रीय प्रान्त में पधारे वहाँ की जनता में खूब ही चहल पहल मच गई। वहाँ पहिले से ही आपके बहुत साधु विहार करते थे उन्होंने सुना कि आचार्य रत्नप्रभसूरिजी महाराज का पधारना महाराष्ट्रीय प्रान्त में हो रहा है अतः बहुत से साधु साध्वियां सूरिजी के दर्शनार्थ आरहे थे । आचार्य श्री ने उनका धर्म प्रचार देखकर प्रसन्नता प्रगट की । तदनन्तर सुरिजी महाराज अपने शिष्य समुदाय के साथ नंदपुर, पिष्टपुर, गुडतुर, ऐलोर, नेदुतुर भाभीयपुर, कोकनाड़ा, काजलुरु, माचपुर, गुडीवडनगर, गुंतुपल्ली, जागीथा, कीही, रावलपातु, तल्लेगी, विजयनेर, कोथरू, धरणीकोट, हाडीकोट, पाडगेट, सुगलेच, माघकेट, मानखेट, मडोली, खेटपुर सपाली आदि कई ग्राम नगरों में भ्रमण करते हुये मानखेट के श्रीसंघ के आग्रह से चतुर्मास वहाँ ही कर दिया इस विहार के अन्दर कई मुमुक्षुओं को जैनदीक्षा देकर जैनधर्म की प्रभावना की दूसरे सूरीश्वरजी बड़े ही समयज्ञ थे और आप यह भी जानते थे कि जिस देश का उद्धार करना है तो Jain E६२२international For Private & Personal use Only [ मुनि रत्नभूषण को झरिषद ary.org iry.org Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५९९-६१८ उस देश के वीरों को साधु बनाना चाहिये कि वे अपने देश के रीतिरिवाज रहन सहन आचार व्यवहार के मज्ञ होने से थोड़े परिश्रम से भी जनता का कल्याण कर सकते हैं । सूरिजी के चतुर्मास करने से केवल एक नगर में ही नहीं पर आस पास के प्रामों के लोगों पर भी जैनधर्म का काफी प्रभाव पड़ा था और कई जैनेतरों ने जैनधर्म भी स्वीकार किया था। जिस समय आचार्य रत्नप्रभसूरि महाराष्ट्रीय प्रान्त में भ्रमण कर जैन धर्म का प्रचार कर रहे थे उस समय बौद्ध भिक्षु भी वहाँ अपने धर्म का प्रचार में लगे हुए थे परन्तु सूरिजी के आज्ञावृति कई साधु पहले से ही वहाँ विचरते थे उस देवभद्र और वीरभद्र नाम के दो साधु शास्त्रार्थ में बड़े ही निपुण थे कई राजा महाराजाओं की सभा में वेदान्तियों एवं बौद्धों का पराजय कर वादियों पर पूरी धाक जमा दी थी फिर सूरीश्वरीजी का पधारना हो गया तब तो कहना ही क्या ? प्रायः करके सूरिजी का व्याख्यान राजसभाओं में ही हुआ करता था। इस प्रकार सूरिजी ने दो वर्ष तक महाराष्ट्रीय प्रान्त में सर्वत्र घूम घूम कर जैनधर्म का प्रचार बढ़ाया था । यों तो महाराष्ट्रीय प्रान्त में प्राचार्य लोहित्य ने जैनधर्म की नींव डाली थी पिछले श्राचार्यों ने उसका सिंचन कर मजबूत बनाया था पर सूरिजी महाराज के पधारने और २ वर्ष तक सर्वत्र विहार करने से जैनधर्म और भी उन्नति पर पहुँच गया था सूरिजी ने कई योग्य साधुओं को पद प्रतिष्ठित बना कर उनके उत्साह में वृद्धि की और उसी प्रान्त में विहार करने की आज्ञा देकर आप वहाँ से वापिस लौटकर क्रमशः बिहार करते हुये श्रावती प्रदेश में पदार्पण किया और घूमते २ उज्जैन नगरी की ओर पधार रहे थे वहाँ के श्रीसंघ के साथ श्रेष्ठिगोत्रिय मंत्री रघुवीर ने सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव किया जिसमें सवा लक्ष रुपये शुभ कार्य में व्यय किये। __ श्रीसंघ के आग्रह से वह चतुर्मास सूरिजी ने उज्जैन में करना निश्चय कर लिया बस फिर तो था ही क्या जनता का उत्साह कई गुणा बढ़ गया। भद्रगोत्रीय शाह माला ने बड़े ही महोत्सव के साथ सूरिजी से महाप्रभाविक श्रीभगवतीसूत्र बचाया जिसमें शाह माला ने हीरा पन्ना मणि : मोतियों से ज्ञान की पूजा की और प्रत्येक प्रश्न की सुवर्ण मुद्रिका से पूजाकर शास्त्रजी को बड़ी रूची से सुना । अहा ! उस जमाने में जैन श्रीसंघ की धर्म पर एवं श्रागमों पर कैसी भक्ति एवं श्रद्धा थी कि एक एक धर्म कार्यों में लाखों करोड़ों द्रव्य खर्च कर देते थे : चतुर्विध श्रीसंघ ने सूरिजी के मुखाविन्द से श्रीभगतीसूत्र सुनकर अपने जीवन को सफल बनाया। और द्रव्य की आमन्द से आगम लिखा कर उनको चिरस्थायी बनाये । चतर्मा के बापनागोत्रीय शाहमेघा के बनाये पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़े ही धूमधाम से करवाई और इस सुअवसर पर ८ पुरुष और १३ बहिनों को सूरिजी ने भगवती जैनदीक्षा देकर उनका उद्धार किया एवं सूरिजी के विराजने से आवंती देश में जैनधर्म की खूब ही प्रभावना हुई। उज्जैन से विहार कर सूरिजी आवंती प्रदेश में घूम रहे थे वहाँ मथुरा के संघ अप्रेश्वर सूरिजी की सेवा में उपस्थिति हुये और प्रार्थना की कि पूज्यवर ! इस समय मथुरा में बौद्धाचार्य बुद्धकीर्ति आया हुमा है और वह व्यान्तरिक बल से जैनों को उपद्रव कर धर्म से पतित बनाने की कोशिश कर रहा है । अतः आप शीत्र मथुरा पधारकर जैन संघ की रक्षा करें हम इसीलिये आये हैं कि आप सब प्रकार से समर्थ हैं। आपके पूर्वजों ने भी अनेक स्थानों पर संघ रक्षा की है । अतः आप मथुरा जल्दी पधारें ? सूरिजी ने फरमाया कि महानुभावो ! आपके इतने आग्रह की आवश्यकता नहीं है यह तो हमारा Jain E आचार्य रत्नपभरि का महाराष्ट्र में ] For Private & Personal use Only ६२३ www.jaanarary.org Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९ – २१८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कर्त्तव्य ही है कि संघ में उपद्रव होता हो तो हम प्रयत्न करें। आप निशंक रहें हम शीघ्र ही मथुरा पहुँचेंगे। सूरिजी के वचन सुन संघ अश्वरों को संतोष हुआ कि अपना परिश्रम सफल हो गया है । संघनायकों ने सोचा कि जब सूरिजी जल्दी ही पधारने वाले हैं तो अपने भी सूरिजी की सेवा का लाभ क्यों न उठावें । बस, सुबह होते ही सूरिजी ने विहार कर दिया और मथुरा के श्रावक भी सूरिजी के साथ होगये । बिना विलम्ब थोड़ा समय में ही सूरिजी महाराज मथुरा पहुँच गये । संघनायक ने आगे जाकर शुभ समाचार सबको सुना दिये फिर तो था ही क्या सबका उत्साह बढ़ गया । और सूरिजी का बड़ा ही शानदार स्वागत किया । सूरिजी महाराज के पास एक धर्ममूर्ति नाम का बाल शिष्य था वह विद्या मंत्र में बड़ा ही निपुण था । उसने सूरिजी के मंगलाचरण के पश्चात् आम जनता में शास्त्रार्थ के लिये उद्घोषण करदी कि यदि कोई भी व्यक्ति शास्त्रार्थ करना चाहता हो तो धर्मवाद, विद्यावाद, मंत्रवाद जैसा वादी चाहे वैसा ही शास्त्रार्थ करने को हम तैयार हैं। बस सब नगर में जहाँ देखो वहाँ यही चर्चा हो रही थी। जैनों का उत्साह खूब बढ़ गया अतः वे लोग कहने में कब चूकने वाले थे । आओ मैदान में और करो शास्त्रार्थ । रात्रि समय बौद्धाचार्य ने एक शक्ति को सूरिजी के मकान पर भेजी पर सूरिजी के सब साधु ज्ञान ध्यान कर रहे थे शक्ति का कुछ भी जोर नहीं चला पर जब इस बात का पता धर्ममूर्ति को लगा तो उसने अपने विद्याबल से उस शक्ति को ऐसी जकड़कर बांधली कि साथ में बौद्धाचार्य भी बँध गया । बौद्धाचार्य ने बहुत उपाय किया पर न तो श्राप बन्धनमुक्त हो सका और न शक्ति ही वापिस श्रसकी। सुबह भक्त लोग दर्शनार्थ आए तो बुद्धिकीर्ति बन्धा हुआ पाया पूछने पर वह लज्जित हो गया । आखिर उसको सूरिजी महाराज से माँफी माँगनी पड़ी जब जाकर वह बंधन से मुक्त हुआ । शक्ति ने तो यहाँ तक प्रतिज्ञा करली कि अब मैं जैनाचार्य के सामने कभी पेश नहीं आऊँगी । बस, बौद्वाचर्य का घमण्ड गल गया । उसने सोचा कि यहाँ मेरी कुछ भी चलने की नहीं है। अब मेरे लिए यही अच्छा है कि मैं यहाँ से रफूचक्कर बन जाऊँ । बस, वह किसी भक्त से बिना कहे ही पिछली रात्रि में नौ दो ग्यार होगया । हुए जैनधर्म का विजय डंका सर्वत्र बजने लगा । जो लोग बौद्धाचार्य के भौतिक चमत्कारों से विचलित थे वे भी जैनधर्म में स्थिर होगए और कई बौद्धलोगों को भी सूरिजी ने जैनधर्मोपासक बना लिए । सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा होता था जिसको श्रवण कर जनता खूब आनन्द लूटरही थी । सूरिजी मथुरा से विहार कर हस्तनापुर, सिंहपुरादि तीर्थों की यात्रा करते हुए कुनाल में पधारे । कुनाल के श्री संघ ने सूरिजी का स्थान स्थान पर स्वागत किया। सूरिजी ने रहाडी, भुगोली, सावत्थी लोहाकोट, सालीपुर, श्रीपुर और तक्षशिला तक विहार कर जनता धर्मोपदेश कर जागृत किया । पञ्जाब में भी आपके बहुत से साधु विहार कर रहे थे। उनके कार्य पर आपने प्रसन्नता प्रगट कर उनका योग्य सत्कार कर उत्साह को बढ़ाया और वह चातुर्मास तक्षशिला नगर में किया जहाँ जैनों की घनी आबादी और करीब ५०० जैन मन्दिर थे । आप श्री के विराजने पर धर्म की अच्छी उन्नति हुई। वहाँ से विहार कर आप श्री ने क्रमशः सिन्ध भूमि को पवित्र बनाया । सिन्ध में भी आपके बहुत से साधु साध्वियाँ विहार करते थे सिन्ध के बडियार, मलकापुर, रेणुकोट, सोलोर, श्रालोर, डबरेल, सिनपुर गगरकोट, नारायणपुर, समसोल, देपालकोट, वीरपुर, फीफाटे, तलपोट कटीपुरा, करणजोश, सीतपुर, सिद्धपुर, थणोद, चण्डोली, चुडी, छीछोली, कोरपुर आदि सर्वत्र विहार कर धर्म की जागृति की कई माँस मदिरा सेवियों को जैन धर्म की शिक्षा दीक्षा I ६२४ [ मथुरा में बोधाचार्य का पराजय rary.org. Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५९९-६१८ देकर उन पतितोंका उद्धार किया । एक चतुर्मास आपने शिव नगर में किया तब दूसरा मारोट कोट में किया बाद बहाँ से कच्छभूमि की स्पर्शना करते हुए सौराष्ट्र में पधार कर तीर्थाधिराज श्री विमलाचलजी की यात्रा की और कई अस तक सौराष्ट्र एवं लाट प्रदेश में भ्रमण कर आर्बुदाचल की यात्रा कर चन्द्रावती, पद्मावती, शिवपुरी होते हुये कोरंटपुर पधार कर भगवान महावीर की यात्रा की । उस समय कोरंटगच्छ के आचार्य कनकप्रभरि कोरंटपुर में ही विराजते थे। जब रत्नप्रभसूरि का आगमन सुना तो श्रीसंघ के साथ आपने सूरिजी का खूब स्वागत किया। दोनों गच्छों के आचार्य में इतना मेल मिलाप था कि किसी को यह मालूम नहीं होता था कि ये दो गच्छों के भिन्न २ आचार्य हैं । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था। कोरंटसंघ और आचार्य कनकप्रभसूरि के आग्रह से आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वह चतुर्मास कोरंटपुर में ही करने का निश्चय कर लिया श्रतः जनता में धर्मोत्साह खूब बढ़ गया । केवल एक कोरंटपुर का ही क्यों पर आस पास के ग्रामों के लोगों ने भी अच्छा लाभ उठाया । चन्द्रावती पद्मावती और उपकेशपुर के कई भक्तों ने तो सूरिजी की सेवा एवं देशना श्रवण की गरज से कोरंटपुर में आकर छावनीयें ही डाल दी थीं। पूर्व जमाने में गुरुदेव की सेवा और आगमों के सुनने में विशेष लाभ समझा जाता था । और इस प्रकार लाभ उठाया भी करते थे सूरिजी महाराज का व्याख्यान प्रायः त्याग वैराग्य एवं संसार की असारता पर ही विशेष हुआ करता था कि जिसका जनता पर खूब ही प्रभाव पड़ता था । कई मुमुक्षुओं ने संसार को असार समझ कर सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेने की तैयारी कर ली थी। इतना ही क्यों पर चंद्रावती के प्राग्वट वंशीय मन्त्रीकरण को संसार त्याग की भावना हो गई उसने सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो चतुर्मास के बाद आप चन्द्रावती पधारें तो मेरी इच्छा है कि मैं इस असार संसार का त्याग कर आपके चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा ग्रहण करूँ । सूरिजी ने कहा 'जहा सुखम् ' और जैसी क्षेत्रस्पर्शता ! वस, चतुर्मास समाप्त होते ही कोरंटपुर में बारह भावुकों को दीक्षा देकर सूरिजी चन्द्रावती पधारे। मंत्रीवरण ने सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया और करने लगा दीक्षा की तैयारियें । जिन मन्दिरों में अष्टान्हि का महोत्सव पूजा प्रभावना स्वामि वात्सल्यादि अनेक शुभ कार्य किये। मंत्री करण के पुत्र मंडण ने इस उत्सव में सवा लक्ष द्रव्य व्यय किया । मंत्री करण के साथ कई ९८ नरनारी भी दीक्षा लेने को तैयार होगये । इन सब को शुभ मुहूर्त में सूरिजी ने विधि विधान के साथ दीक्षा दी जिससे जैनधर्म की खूब ही प्रभावना हुई। जब एक बड़ा आदमी धर्म करने में अग्रेश्वरी होता है तो उनके अनुकरण में ओर भी अनेक भावुक अपना कल्याण कर लेते हैं जिसके लिये मंत्रेश्वर का एक ताजा उदाहरण है आचार्य रत्नप्रभसूरि भिन्नमाल, सत्यपुरी, शिवगढ़, श्रीनगर आदि नगरों में विहार करते पाहिकापुरी में पधारे वहाँ के श्रीसंघ ने आपका सुन्दर स्वागत किया कुछ अर्सा स्थिरता कर वहाँ की जनता को धर्मोपदेश दिया । वहाँ से तांबावती, विराट-नगर, मेदनीपुर, पद्मावती, हंसावली होते हुये नागपुर पधारे । वहाँ भी आपने सात महानुभावों को दीक्षा दी। बाद हर्षपुर, संरक्खपुर, माडव्यपुर होते हुये उपकेशपुर पधार रहे थे यह शुभ संवाद सुन उपकेशपुर की जनता में उत्साह का समुद्र ही उमड़ उठा। वहाँ के श्रीसंघ ने सूरिजी का बड़ा ही शानदार नगर प्रवेश महोत्सव किया। सूरिजी ने चतुर्विध श्रीसंघ के साथ भगवान् महा कोरंटपुर में युगल आचार्य ] Jain Education Internationa ५२५ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वीर की यात्रा की और श्रीसंघ को धर्मोपदेश सुनाया । श्राज उपकेशपुर के घरघर में आनन्द मंगल छा रहा हैं क्योंकि उपशपुर वासियों के चिरकाल के मनोरथ सफल होगये इससे बढ़कर आनंद ही क्या होता है। उपकेशपुर का राजघराना महाराज उत्पलदेव से ही जैनधर्मोपासक था और उन्होंने जैनधर्म के प्रचार के लिये खूब प्रयत्न किया और कर भी रहे थे । यही कारण था कि उपकेशपुर जैनों का एक केन्द्र था । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था राजा और श्रं संघ ने चतुर्मास की विनती की और लाभालाभ का कारण जानकर सूरिजी ने श्रीसंघ की विनती को स्वीकार कर ली फिर तो था हो क्या । कभी २ देवी संच्चायका भी सूरिजी को वंदन करने को आया करती थी । एक दिन सूरिजी ने देवी से पूछा कि देवी जी ! अनुमान से पाया जाता है कि अब मेरा आयुष्य नजदीक है मैं अपने पट्ट पर आचार्य बनाना चाहता हूँ और इस पद के लिये मैंने धर्ममूर्ति मुनि को योग्य समझा है । इसमें आपकी क्या राय है ? देवी ने कहा का आयुष्य अभी ८ मास २७ दिन का है और मुनि धर्ममूर्ति श्रापके पट्ट पर श्राचार्य होने में सर्वगुण सम्पन्न हैं। विशेष में देवी ने कहा कि पूज्यवर ! आपकी अध्यक्षता में यहाँ एक सभा की जाय तो आपको बहुत लाभ होगा और इस समय ऐसी सभा की आवश्यता भी है आपके पूर्वजों ने भी समय २ पर सभा कर धर्म की जागृति की थी। सूरिजी ने कहा बहुत खुशी की बात है देवी जी ! मैं इस बात का प्रयत्न करूँगा और आपकी सहायता से सफलता भी मिलेगी । देवी सूरिजी को वंदन कर अदृश्य हो गई । दूसरे दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में पिछले इतिहास को सुनाते हुये अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा कहा कि वीरो ! यह वही उपकेशपुर है कि एक दिन यहाँ पर नास्तिकों का साम्राज्य बात रहा था पर आचार्य रत्नप्रभसूरि और राजा उत्पलदेव एवं मंत्री ऊहड़ के प्रयत्न से जनता अपना कल्याण साधन कर रही इतना ही क्यों पर श्राज तो जैनधर्म का सर्वत्र सितारा चमक रहा है । अनेक प्रान्तों में जैन श्रमणों का विहार एवं उपदेश हो रहा है । पूर्वाचार्यों ने समय २ पर सभायें करके जैनधर्म के प्रचार की योजना की और उसमें काफी सफलता भी मिली थी। आज भी ऐसी सभाओं की आवश्यकता प्रतित होती है सज्जनों ! आप जानते हो कि सभाओं के अन्दर चतुर्विध श्रीसंघ एकत्र मिलने से कितने फायदे हैं जैसे चतुर्विध श्रीसंघ का एकत्र होना, आपस में एक दूसरे का परिचय एवं धर्म स्नेह बढ़ना एक ही गच्छ समुदाय के साधु अन्योन्य प्रान्त में विहार करने से वे एक दूसरे को पहिचानते भी नहीं हैं जिन्हों का मिलाप होना, आचार्य को यह ज्ञात हो जाय कि हमारे गच्छ में कौन कौन साधु किस किस प्रकृति के कहाँ कहाँ विहार करते हैं और उनके अन्दर क्या क्या विशेष योग्यता है। सभा में एकत्र होने से संगठन बल मजबूत होता है और उस संगठन शक्ति द्वारा क्या क्या कार्य किया जाय उसका भी निश्चय हो सकता है 'समाज में शिथिलता एवं विकार हो वह निकल सकता है। कुछ समयानुसार परिवर्तन करना हो तो हो सकता है। इतना ही क्यों पर सभाओं से समाज में एक नया जीवन भी प्रकट हो सकता है एवं अनेक फायदे हो सकते हैं इत्यादि सूरिजी ने उपदेश दिया और वहाँ के राजा मूलदेव वगैरह श्रीसंघ ने सूरिजी के अभिप्राय को समझ कर उसी व्याख्यान में खड़े होकर कहां पूज्यवर ! यह लाभ तो उपकेशपुर को ही मिलना चाहिये । हम लोग यहाँ पर सभा करने को तैयार हैं। बस फिर तो था ही क्या सूरिजी ने फरमाया कि आप लोग बड़े ही भाग्यशाली हैं । यही क्यों पर पहिले भी कई बार आपके यहाँ सभाएँ हुई थी इत्यादि भगवान् महावीर और श्राचार्य रत्नप्रभसूरि की जयध्वनि के साथ व्याख्यान समाप्त हुआ । तदनन्तर राजा मूलदेत्र के [ उपकेापर में श्रमगामंत्र Jain Edu International rary.org Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] । ओसवाल संवत् ५९९-६१८ नेतृत्व में' उपकेशपुर श्रीसंघ की एक सभा हुई और उसमें उपकेशपुर में चतुर्विध श्रीसंघ की सभा के लिये कार्यक्रम एवं सर्व प्रकार की योजना तैयार की तथा कार्य के लिये अलग २ समितियें स्थापित कर सब कार्यों को अच्छी तरह से व्यवस्थित कर दिया केवल एक समय का निर्णय करना सूरिजी पर रक्खा कारण ऐसा समय रखना चाहिये कि दूर और नजदीक के प्रायः सब साधु साध्वियां इस सभा में श्रासकें जिससे इस सभा का लाभ सब को मिल सके इत्यादि । ऐसे बृहत् कार्य के लिये खास तौर से दो बातों की आवश्यकता थी एक द्रव्य दूसरे कार्यकर्त्ता । उपकेशपुर में दोनों बातों की अनुकूलता थी । उपकेशवंशियों के पास पुष्कल द्रव्य था और कार्यकर्त्ता के लिये मरुधरवासियों की कार्यकुशलता मशहूर ही थी । संघ अमेश्वर ने सूरिजी के पास आकर सभा के लिये समय निर्णय की याचना की तो सूरिजी ने दीर्घ दृष्टि से विचार कर कहा कि माघ या फाल्गुण का मास रक्खा जाय तो नजदीक एवं दूर के प्रायः सब साधु साध्वियां एवं श्रमण संघ सुविधा से आ सकते हैं इत्यादि । श्री संघ ने कहा ! यदि माघ शुक्ल पूर्णिमा का दिन रखा जाय तो अच्छा है क्योंकि यह दिन परो पकारी आद्याचार्य रत्नप्रभसूरि की स्वर्गारोहण तिथि है । यों ही हमारे यहाँ माघ पूर्णिमा का अष्टन्हिका महोत्सव आदि हुआ करता है और पहले यहाँ सभा हुई वह माघ पूर्णिमा के दिन हुई थी और यह समय है भी सबको अनुकूल । कारण, चतुर्मास समाप्त होने के बाद तीन मास में भारत के किसी भी विभाग में श्रमणसंघ होंगे वे आ सकेंगे और हमारे थली प्रान्त में पानी वग़ैरह की भी सुविधा रहेगी इत्यादि । सूरिजी ने श्रीसंघ के कथन को मंजूर कर लिया । श्रतः श्रीसंघ अपने कार्य में संलग्न हो गया अर्थात् जो करने योग्य कार्य थे वे क्रमशः करने लग गये और आमन्त्रण के लिये अपने योग्य पुरुषों को सर्वत्र भेज दिये । इधर नजदीक और दूर-दूर देशों से चतुर्विध श्रीसंघ का शुभागमन हुआ । करीब ५ हजार साधु सवियाँ और लाखों गृहस्थ लोग उपकेशपुर को पावन बना रहे थे उपकेशपुर तो आज एक यात्रा का धाम ही बन गया था। साधुओं के परस्पर ज्ञानगोष्ठी और श्रावकों के धर्म स्नेह में खूष वृद्धि हो रही थी । स्वागत का सब इन्तजाम पहले से ही माकूल किया हुआ था ! विशेषता यह थी कि उपकेशगच्छ कोरंटगच्छ और वसन्तानिये एवं पृथक २ गच्छ समुदाय के साधु होने पर भी वे सब एक ही रूप में दीखते थे । ठीक समय पर श्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी की नायकता में चतुर्विध श्रीसंघ की एक सभा हुई । सूरिजी ने पूर्व जमाने का इतिहास और वर्तमान समय की परिस्थिति का दिग्दर्शन करवाते हुये अपने ओजस्वी शब्दों में कहा वीरो ! साधुओं का जीवन ही परोपकार के लिये होता है। जिस देश प्रान्त नगर और घर में धर्मभावना फली फूली होती है वहाँ सदैव सुख शान्ति रहती है । चाहे साधु हो चाहे गृहस्थ हो दोनों का ध्येय आत्मकल्याण का ही होना चाहिये जिसमें भी विशेषता यह है कि स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण करना । तीर्थङ्कर भगवान ने इसलिये ही घूम-घूम कर उपदेश दिया था । आचार्य रत्नप्रभसूरि यक्षदेवसूरि आदि आचार्यों ने हजारों कठिनाइयें इसी लिये सहन की थीं । श्रतः श्राप लोगों का भी यही कर्त्तव्य है कि स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण करने को कटिबद्ध होजाइये जैसे पूर्व जमाने में नास्तिकों का जोर था वैसे ही आज क्षणिक वादियों का जोर बढ़ता जा रहा है उनके सामने डट कर रहना अपना कर्त्तव्य ही बना लेना चाहिये इस विषय के साहित्य का अध्ययन करना चाहिये इत्यादि आपके उपदेश का श्रमणसभा की सफलता ] ६२७ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष | [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्रमण संघ पर गहरा असर हुआ। साथ में श्राद्दवर्ग ने भी जागृत हो अपना फर्ज अदा करने की प्रतिज्ञा करली इत्यादि । पूर्व जमाने में केवल कागजों में प्रस्ताव करके ही कृतकृत्य नहीं बनते थे पर वे जिस कार्य्य को करना श्रावश्यक समझते उसे तत्काल ही करके बतला देते थे । यही कारण है कि उस समय जैनधर्म उन्नति की चरम सीमा तक पहुँगया था । उसी सभा के अन्दर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने अपना पदाधिकार मुनी धर्ममूर्ति को अर्पण कर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया और इनके अलावा और भी कई योग्य मुनियों को पद प्रदान किये | बाद जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई । रात्रि समय में राजा मूलदेव की प्रेरणा से श्राह सभा भी हुई उसमें आचार्य श्री का उपकार मानना और साधुओं के धर्मप्रचार कार्य में हाथ बटाना अर्थात् यथासंभव मदद करने की प्रतिज्ञा की और भी धर्मसम्बन्धी कई कार्य करने के नियम बनाये गये और उनको तत्काल कार्य रूपमें प्रवृत करने का निश्चय किया - तत्पश्चात् नूतन सूरिजी की आज्ञानुसार साधुओं ने पृथक् २ प्रान्तों एवं नगरों की ओर विहार किया । आचार्य रत्नप्रभसूरि को देवी के बतलाये ८ मास २७ दिनों की स्मृति करनेसे ज्ञात हुआ कि जब मेरा आयुष्य केवल २१ दिन का रहा है अतः आपने अलोचना प्रतिक्रमण करके उपकेशपुर की लुगाद्री पहाड़ी पर जाकर अनशन व्रत कर दिया और समाधी पूर्वक नाशवान शरीर का त्याग कर स्वर्ग पधार गये । 'आचार्य' श्री रत्नप्रभसूरि ने अपने १९ वर्षों के शासन में प्रत्येक प्रान्तों में घूम घूम कर जैनधर्मका खूब ही प्रचार बढ़ाया पूज्यराध्य श्राचार्य श्री के जीवन में किये हुए कार्यों के लिये पंहावल्यादि ग्रन्थों में बहुत विस्तार से उल्लेख मिलता है पर प्रन्थ बढ़ जाने के भय से यहाँ थोड़ामें ही बतला दिया जाता है कि श्रापश्री ने जन कल्याण के लिये कैसे २ घोखे और अनोखे कार्य किया है । १ - सत्यपुर में धर्मसी आदि अठारह नरनारियों को दीक्षा दी। आचार्यश्री के करकमलों से भावुकों को दीक्षाएँ | २ - दक्षिण की ओर विहार कर वहाँ भी बहुत ३ – उज्जैन के चतुर्मास के बाद इकवीस नर ४ - तक्षिला के श्रेष्ट गौत्रीय गौसल ने वागा ने अंकार ने श्रदू ने भगा ने गोपाल ने दूगा ने कर्मा ने करमण ने ५ - रहाड़ी के भाद्र गौत्रीय ६ - सावस्थी के चिंचट गौत्रीय ७ - रेणुकोट के आदित्य नाग० ८- मसकापुर के आदिस्य नाग० ९- कोटीपुर के बाप नाग० २ -- थगोद के बलाहा गौ० ११ - चुड़ी के प्राग्वट वंशी १२ - भंद्रेसर के प्राग्वट वंशी -- ०४ भव्यों को दीक्षादी । नारियों को दीक्षा दी। सूरिजी के पास दीक्षा ली "" 39 99 39 53 "" " "" 33 RRRRRR Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] १३ -- खर खेटी के श्रीमाल वंशी १४ - रावुरी के क्षत्रीय वीर १५ - पादलिप्त के तप्तभट्ट गौ० १६ - उरजूनी के करणाटगौ १७- कररणावतीके करणाटगौ ० नागा अर्जुन हरपाल ने " 99 धरण ने देदा WWW नारा ने रणछोड़ ने नारायण सालग ने माना ने ने ५ - नारदपुरी के सुंचितगौ "" " ६ - पाटली के प्राग्वट ७ - कीराटकुंप के राव - गोपाल ने ( - पालिका के कुलभद्र गौ: १- - श्रीनगर के श्रष्टिगौत्र १०- - खटकूपपुर के चिंचट गौ० "" "" "" सल्ह ढाढर ने मुकन्द ने कल्हण ने सुरजन ने हाडा ने १८ - मुग्धपुर के मोरक्ष गौः १९ - नागपुर के सुचती गो० २० - पाल्हीका के बोहरा शाह २१ - दुर्गापुर के मंत्री २२ - शंखपुर के सोनी गौत्रीय २३ -- क्षत्रीपुर के सुघड़ गौत्रीय २४- स्वटकूप के मल गौत्रीय २५ - क्षान्तिपुर के चरड़ गौत्रीय २६ - खेड़ीपुर के लुंग गौत्रीय २७ - उपकेशपुर के श्रेष्ट गौत्रीय २८ - धोलपुर के कुलभद्र गौ० २९ - वीरभी के विरहगोत्रीय पुरा ने ," "" इनके अलावा कई बाइयों ने भी दीक्षा ली थी तथा आपके मुनि गण के उपदेश से भी बहुत नरनारियों ने दीक्षाएँ ली थी ये तो मैंने केवल पट्टावलियों से थोड़ा सा नाम लिखा हैं और पट्टावलियों में केवल उपकेशवंश वालों ने दीक्षा ली जिन्हों का ही उल्लेख किया है इनके अलावा इतर जातियों के लोगों को भी दीक्षा दिया करते थे परन्तु उन सब के उल्लेख मिलते नहीं हैं । शान्तिनाथ शाह श्रमरा ने आदीश्वर उरजन ने "" सूरिजी के पास दीक्षा ली 33 दहाड ने महावीर "" "" सूरिजी के करकमलों से मं० मू० प्रतिष्ठाएं ] ate & Personal Use Only Jain Education in 27 "" " "" 33 "" 39 "" "" 27 "" [ ओसवाल संवत् ५९९-६१८ "" 39 32 " "" "" आचार्यश्री के तथा आपके मुनियों के उपदेश से मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं १ - नागपुर के आदित्यनाग० २- डिडुपुर के बाकुप्पनाग० ३ - नंदपुर के प्राग्वटवंशी मधु के बनाये पार्श्वनाथ मन्दिर० प्र शाह ने पार्श्वनाथ रहा ने महावीर ४ -- ब्राह्मणगाव के प्राग्वट करणाने सादा ने 33 भरखर ने पार्श्वनाथ 39 "2 37 56 " 15 99 "" 33 A "" 1234 99 ≈ 3 "" 53 "" "3 59 "" 55 ," 39 "" 33 "" 52 "" " 33 23 "" w६२९rary.org. www. Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ११ -- कुणहरी के डिडु गौ , देसल ने , मन्दिर० प्र० १२ · धौरापुर केलघुष्ठि गौ०, सारंग ने , १३-सेसलाना के कुमटगौ० , लूडा ने पार्श्वनाथ १४-भट्टपुर के चरड़ गौत्रीय ,, लल्ल ने , १५-लोहापुर के मल गौत्रीय ,, टोडा ने , १६-उज्जैन के विरहट गौ. , भोला ने मुनिसुव्रत १७-मंडपाचल के भाद्र गौ० ,, नानग ने नेमिनाथ १८- खलखेड़ा के नाग गौ० , कुलधर ने चंद्रप्रभ १९-सेदहरा के बप्पनागगौ० ,, अर्जुन ने महावीर २०-बरासणी के कनोजियागी०,, खीवशी ने , २१ --- पद्मावती के विरहटगो. ,, पोमा ने , २२-अकलाणी के भूरिगौ. ,, सुजा ने , २३-मालपुर के बलाह गौ० ,, हरदेव ने , २४-भवानीपुर के श्रीश्रीमालगौ०,, कल्हण न , २५-- कालुर के ,,,,, डुगाने पार्श्वनाथ ,, २६--रावपुरा के अदित्यनाग ,, मालाने चन्द्रवाल २७--हस्तीपुर के प्राग्वट , फरसाने मल्लिनाथ २८--प्राशुपुर के प्राग्वट , कानड़ने महावीर २९---जावलीपुर के श्री माल , हरलाने पार्श्वनाथ ३०-उपकेशपुर के श्रष्टगोत्रियाराव जगदेवने चन्द्रप्रभ ३१--क्षत्रीपुर के तप्तभदृगौत्री शाह नोढाने पार्श्वनाथ ३२--विजयपहन के बाप्प नाग मंत्री सज्जन ने मह वीर इनके अलावा भी कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई थी वह जमाना मूर्ति बाद का ही था दुसरा लोगों के पास द्रव्य बहुत था तीसरा शायद् आचार्यों ने भी यही सोचा होगा कि अब जमाना ऐसा आवेगा कि आत्म भावना की अपेक्षा मन्दिर मूर्तियों के आलम्बन से धर्म करने वाले विशेष लोग होंगे अतः उन्होंने इस ओर अधिक लक्ष दिया हो ? कुच्छ भी हो पर यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि जैन मन्दिरों से जैन धर्म जीवित रह सका है जबसे म्लेच्छ लोगों ने मन्दिरों को तोड़ फोड़ नष्ट करने का दुःसाहस किया तब से ही कई प्रान्तों जैनधर्म से निर्वास्ति होगई जिस प्रकार जैन गृहस्थ मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाते थे इसी प्रकार जैन तीर्थों की यात्रार्थ बड़े बड़े संघ निकाल कर तीर्थों की यात्रा भी किया करते थे और धनाढ्य लोग यात्रा निमित लाखों करोड़ों द्रव्य व्यय कर अपने जीवन की सफलता सममते थे और वे संघ एक प्रान्त से नहीं पर प्र येक प्रान्तों से निकलते थे श्री शत्रुजय का संघ निकालते तब गिरनारादि तीर्थों की यात्रा कर लेते और श्री सम्मेतशिखर का ६३० Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५९९-५९९ संघ निकलते तो पूर्व की तमाम यात्रा कर लेते आचार्य रत्नप्रभसूरि के शासन समय में संघ निकले जिसकी सूची पट्टावलियों वंशावलियों में इस प्रकार दी हुई मिलती है । १ - - उपकेशपुर से बाध नाग गौत्रीय पुनडने श्री शत्रुजय का संघ निकाला २ - पाल्हिकापुरी से सुचंती गौत्रीय आखा ने ३ - पद्मावती से प्राग्वट वंशीय नोढ़ा ने ४ - कुर्श्वपुरा से तप्तभट्ट गौत्रीय कुँवा ने सूरिजी महाराज का स्वर्गवास ] "3 "" "" शिखरजी शत्रुजय का ५ - चन्द्रावती से मंत्री रणधीर ने श्री सम्मेत ६ – डाबरेल नगर से श्रेष्टी वय्ये नोंघरण ने श्री जावड़ा ने ७ - तक्षिला से भाद्रगौत्रीय ८ - नागपुर से श्रदित्यनाग देदा ने ९ - नारदपुरी से कुमट गौ० सारंग ने सलखण ने हरपाल ने १० - सालीपुर से चिंचट गौ० ११ - हर्षपुरा से वलाह गौ० १२ - कोरंटपुर से श्रीमाल० रावल ने १३ - शिवपुरी से प्राग्वट दूधा ने श्री सम्मेत शिवर का "" " आचार्य रत्नप्रभसूरि एक महान् प्रभाविक आचार्य हुये हैं आपका विहार क्षेत्र बहुत ही विशाल था । कुनाल से लगाकर महाराष्ट्रीय प्रान्त तक आपने भ्रमण किया था आपनी के साधु साध्वी तो सब प्रान्तों में भ्रमण कर धर्म प्रचार करते थे । आचार्यश्री ने अपने जीवन में कई पाँचसो नरनारियों को दीक्षादी थी और हजारों लाखों मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित किये श्रतः आपश्री का जैन समाज पर महान उपकार हुआ है । ऐसे जैनधर्म के रक्षक पोषक एवं वृद्धक महात्माओं के चरणों में कोटि कोटि नमस्कार हो । श्रेष्टिकुल श्रृंगार अनोपम, पारस के अधिकारी थे । रतनभरि गुण भूरि, शासन में यशधारी थे ॥ योगविद्या में थी निपुणता, पढ़ने को कई आते थे । " 37 "" "" 55 " 33 "" 27 23 "" 23 "" 39 अजैनों को जैन बनाये, जिनके गुण सुर गाते थे | ॥ इति श्रीभगवान् पार्श्वनाथ के २१ वें पट्ट पर आचार्य रत्नप्रभसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुये ॥ 33 59 ६३१ -- www.jarnelibrary.org Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्रादित्यनाग गोत्र की चोरडिया शाखा चित्रकोट नगर में आदित्यनाग गोत्रीय शाह अामदेव निंबदेव नाम के कोटीध्वज व्यापारी थे और उसी नगर में आमदेव निदेव नाम के प्राग्वटवंशीय कोटीध्वज व्यापारी थे। पहिले जमाने में कागज पत्र एवं समाचार कासिदों द्वारा ही आया जाया करते थे। एक समय उज्जैन से किसी व्यापारी ने प्राग्वट ग्रामदेव निंबदेव के नाम से पत्र लिख कर कासिद के हाथ दे दिया कि तुम चित्रकोट जाकर पत्र का जवाब ले आओ कासिद ने चित्रकोट जाकर बाजार में पूछा कि श्रामदेव निंबदेव कौन है ? आदित्यनाम गोत्रीय ग्रामदेव पास में खड़ा था उसने कासिद से कहा प्रामदेव मैं हूँ तेरे क्या काम है ? कासिद ने अपने पास का पत्र श्रामदेव को दे दिया ! अामदेव पत्र पढ़ कर उसमें जो व्यापार सम्बन्धी तेजी मंदी का समाचार था उसको जान गया । कासिद को भोजन करवा कर कह दिया कि तू थका हुआ है थोड़ा सोजा । कासिद सो गया। आमदेव ने अपना काम कर लिया बाद जब कासिद जगा तो पत्र उसको दे दिया और कहा कि यह पत्र तो दूसरे श्रामदेव का है तू वहां जाकर पत्र दे दे । कासिद ने प्राग्वट वंशी आमदेव के यहां जाकर पत्र दिया उसने पत्र बाँच कर व्यापार के लिये भाव मॅगाये तो थोड़ी ही देर में भाव बहुत तेज हो गये तब कासिद को कहा भाई तू थोड़े पहले आजाता तो अच्छा होता। कासिद ने कहा सेठजी मैं तो कब का ही आया हुआ था पर एक दूसरे प्रामदेव ने मुझे रोक लिया था आमदेव ने सोचा कि दूसरा श्रामदेव तो आदित्यनाग गोत्रिय है शायद उसी ने इस पत्र से बाजार को तेज कर दिया होगा अतः प्राग्वट-श्रामदेव ने जाकर श्रादित्य नाग गोत्रिय अामदेव को कहा कि आपने हमारा पत्र चोर लिया यह अच्छा नहीं किया इत्यादि । उस दिन से आदित्यनाग गोत्रिय अामदेव चोरलिया के नाम से पुकारे जाने लगे। उस चोरलिया का अपभ्रंश चोरडिया हो गया और वह अद्यावधि भी विदमान है । इसका समय वंशावली कार ने विक्रम संवत् २०२ का बतलाया है। चोरडिया जाति का मूल गोत्र आदित्यनाग है। कई लोग चोरडिया जाति की उत्पत्ति विक्रम की बारहवीं शताब्दी में राठौर राजपूतों से हुई बतलाते हैं और राठौर राजपूतों को प्रतिबोध देकर उनकी जाति चोरड़िया हुई कहते हैं यह बिल्कुल असत्य एवं कल्पना मात्र ही है । इससे करीब १५० वर्षों के इतिहास का खून होता है । इन १५०० वर्षों में चोरडिया जाति के नर रल्नों ने देश समाज और धर्म की बड़ी बड़ी सेवायें करके जो यश प्राप्त किया है उस सब पर पानी फिर जाता है । गच्छ कदाग्रह एक कैसी बलाय है कि अपने स्वार्थ के लिये शासन को कितना नुकसान पहुँचा देते हैं जिसका यह एक ज्वलन्त उदाहरण है इसी इतिहास ग्रन्थ में आप देखेंगे कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी के पूर्व चोरड़िया जाति के दानवीरों ने परमार्थ के क्या २ काम किये हैं। अतः चोरडिया जाति आदित्यनाग गोत्र की एक शाखा है और यह बात विक्रम की पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी के शिलालेख के प्रमाण से और भी पुष्ट हो जाति है कि चोरडिया जाति स्वतंत्र गोत्र नहीं है पर आदित्यनाग गोत्र की एक शाखा है । देखिये-- "सं. १४८० वर्षे ज्येष्ठ वद ५ उकेश ज्ञातीय आइच्चणाग गोत्रे सा० आ० सा० भा० वाच्छि पु० सा० आजु नाहू भा. रूपी पु० खेमा ताल्हा सावड़ श्रीनेमिनाथ विवं का? पूर्वत लि० पु. आत्मा २० उपकेश कुक प्र० श्री सिद्धसूरिभिः _ "बाबुपूर्ण० खण्ड पृष्ट १९ लंखांक ७७" ६३२ ___For Private & Personal use Only [ चोरडिया जाति की उत्पति aineitbrary.org Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५९९-६१८ ___ इस लेख में जिस गौत्र का नाम आइच्चणाग लिखा है यह प्राकृत रूप है और इसी आइच्चणाग का रूपान्तर संस्कृत आदित्यनाग नाम लिखा है । इसके लिये निम्न शिला लेख "सं० १५१४ वर्षे मार्ग शीर्ष सुद १० शुक्र उपकेश ज्ञाती आदित्यनाग गौत्र सा• गुणधर पुत्र सा डालण भा० कपुरी पुत्र सा० क्षेमपाल भ० जिणदेवाइ पु० मा सोहिलेन भ्रात पासदत देवदत्त भार्य नानू युगतेन पित्रोः पुण्यार्थ श्री चन्द्रप्रभ चतुर्विशति पट्टकारितः प्रतिष्ठितः श्री उपकेश गच्छे ककुदाचार्य संताने श्री कक्कसूरिभिः श्रीभट्ठ नगरे बाबू पूर्ण चन्दजी सं . शि० प्र० पृष्ट १३ लेखांक ५० उपरोक्त आइच्चणाग और आदित्यनाग गौत्र लिखा है ये दोनों एक ही हैं इन गौत्रों की एक शाखा चोरडिया-चोरवेडिया है और निम्नलिखित शिलालेखों में भी ऐसा ही लिखा है देखिये शिलालेख - "सं० १५६२ ब. वै० सु० १० र वौ उकेश ज्ञाती श्री आदित्यनाग गौत्र चोरवेडिया शाखायां व० डालण पुत्र रत्नपालेन सं० श्रीवत व. धधुमल्ल युक्त न मातृ पितृ श्रेय श्रीसंभवनाथ विवं का० प्र० उपकेश गच्छे कुकुदार्चाये० श्रीदेवगुप्तसूरिभिः ___बा० पू० सं० शि० प्र० पृष्ठ ११७ लेखांक ४६६ आगे आदित्यनाग गौत्र और चोरडिया शाखा किस गच्छ के उपासक हैं वह भी देखिये “सं० १५१९ वर्षे ज्येष्ट वद ११ शुक्रे उपकेश ज्ञातीय चोरवेडिया गौत्रे उएशगच्छे सा० सोमा भा. धनाइ० पु० साधु सोहागदे सुत ईसा सहितेन स्व श्रेयले श्री सुमतिनाथ विंबंकारिता प्रतिष्टितं श्री कक्कसूरिभिः सीणिरा वास्तव्यं लेखांक ५५७ इस लेख में चोरडिया जाति उएस-उपकेश गच्छ की बतलाई है ___ उपरोक्त चार शिलालेख स्पष्ट बतला रहे हैं कि चोरडिया जाति का मूलगौत्र आदित्यनाग है और आदित्यनाग गौत्र की उत्पत्ति नागवंशीय क्षत्रीवीर श्रादित्यनाग के नाम से हुई है आदित्यनाग को श्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपदेश देकर जैन बनाया था तत्पश्चात् आदित्यनाग ने श्रीशत्रु जयतीर्थ की यात्रार्थ विराट संघ निकाला तथा और भी अनेक धर्म कार्य करने से आदित्यनाग की संतान आदित्यनाग के नाम से कहलाने लगी आगे चल कर उन लोगों का आदित्यनाग गौत्र बन गया और इस गौत्र की इतनी उन्नति एवं आबादी हुई कि चोरडिया गुलेच्छा पारख गादियादि ८४ जातियें बन गई जिसका वर्णन आप आगे चल कर इसी ग्रन्थ में पढ़ सकोगे आदित्यनाग गोत्र श्राचार्य रत्नप्रभसूरि स्थापित महाजन संघ के १८ गोत्रों में से एक है। प्राकृत के लेखकों ने आदित्यनाग को, अइच्चणाग' भी लिखा है जो ऊपर के शिलालेखों में दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है । आदित्यनाग गोत्रिय अामदेव निवदेव के लघु भ्राता भैंशाशाह हुआ जिसने वि० सं० २०९ में श्रीशत्रुजय का विराट् संघ निकाल के यात्रा की थी ! हाँ, इस अदित्यनाग गोत्र की चोरडिया शाखा में भैंसा नाम के चार पुरुष हुये हैं और चारों ही धर्मज्ञ एवं दानेश्वरी हुये हैं पर कितनेक वंशावलिकारों ने एवंलेखकों ने तीसरे भैंशाशाह के साथ घटी घटना को पहिले भैंसाशाह के साथ जोड़ देने की भूल की है और चोरडिया जाति की उत्पति ] For Private & Personal use Only www. s Jain Education Inter ary.org Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९९ – २१८ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नाम की सभ्यता होने से ऐसी भूल हो ही जाती है जैसे पंचमी से चतुर्थी की सांवत्सरी के कर्त्ता वीर की पांचवी शताब्दी में कालकाचार्य हुये पर नाम की साम्यता होने से उस घटान को वीर की दशवीं शताब्दी में ये कालकाचार्य के साथ जोड़ दी है । यही हाल शाशाह का हुआ है जिसको हम यथा स्थान लिखकर खुलासा करेंगे । * इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १३६ पर चारों भैशाशाह का समय लिख आये हैं वह से देखेंगे । x भूस्वर्गाय मण्डनानेक गगन चुम्बिसन्मंदिर पताका वीजित रात कल्म से स्वस्त्र धर्म परिपालन निरत नरनारी वृन्द संकलिते सन्नपति शासन संतुष्ट वर्णनिवहे सुप्राकार परीवादिव्याहृत दिग्विभागे अति मनोहरे श्री चित्रकोट नगरे - चौरलिया शाखापाथोज दिन मणि रादित्यनाग गोत्रीयः सप्तक्षेत्रदत्त प्रसूत धनाशाविस्तृत कीर्तिलतासच्छाय श्री दीप्ततेजाः सर्वप्राणिप्रियरसाल वदादेवाभिधः श्रेष्ठिपुंगवः ॥ पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य पूतात्मा स च नाना दिग्देशान्तरालकृता नेकविधवखु जात व्यापरेण तद्गतया कुबेर समान धन राशि ना च अलभत जनता सु प्रसिद्धिम् । तस्मिन्नेव च खलु कमनीयनगरे प्राग्वट वंशावतंस श्री आम्रदेवनामा कश्चिन्महावैक्रयिको वसतिस्म ॥ नैगमेप्रधानः ॥ नानाव्यापारसमृद्धि सज्जित चत्वरहद्दप्रतोली विभाग कमनीयतर श्रीभृगुकच्छ ( भरोंच ) इति शुभनामसमलङ्कतनगरात्कश्चित्कासीदनामाख्यः पत्रहरश्चित्रको नगरे समादुढौके । तथा च चित्रकोट नगरस्य विस्ताररम्यापणिकासु प्रतिष्टांगटकञ्च नगरप्रसिद्धादेवश्रेष्ठिनः पप्रच्छनामादिकम् ॥ परंच तन्नाम कलितेनापरेण केनचिद्दक्षनैगमेन आदित्यनागगोत्रेण आगन्तुक व्यवहार शून्य काशीदात्पत्रमादाय चापाठि च तत्र च मनोरमे पत्रे विविधक्रय्यवस्तूनांमनर्ध्य मूल्य समाचारा आसन चतुरेण तेन सुन्दररसवत्या काशीदं भोजयित्वा 'सुखशमनीयतल्पे तं मधुरालापैर स्वापन- स च काशीद मनोहराहारास्वादनतर्योदरम्परि मृजः सन् सानंद पन्चघण्टा परिमित काले सुष्वाप । तदन्तरे बुद्धिशालिना तेन नानाविधवस्तुजातं त्वरैवाकीणीतम् पश्चाच्छनैशनैः स काशीदश्च नेत्रोन्मीलिकांविधाय ज जागार भणितश्राम्र देवेन भो देवानाम्प्रिय । नास्तीदम्पर्ण मामकीनम किन्तु मन्नामसदृशः कश्चिदपर प्राग्वटवंशीयो ववृत्ति तस्यैदं दलं तत्र प्रयाहि देहिच असौ काशीदोऽपि विमनाः सन् प्राग्वदान्वयिश्रेष्ठिप्रवरात्रदेवस्याभ्यर्णे मंक्षु जगाम दर्शितम्च पत्रं पत्रं पठितञ्च भूयः शिरोधूनन पूर्वकम् व्याजहार-यदि च भवान् चतुर्घण्टा पूर्वहता आगमिष्यन् तर्हि अतीव पेशलमभविष्य तथा च तवेभ्यराजस्य महान् लाभोऽभविष्यत् सच ग्रहिल श्वेतस्ततो दिशोऽवलोकयन किञ्चिन्निश्वस्य सादरमभाणीत् । महानुभाव श्रेष्ठिन् षट्घण्टापरिमितपूर्वकालो बागमम किञ्चान्या देवेन भोजयित्वा स्वापिनोहम् ससत्रभमुन्याय चकित चकित इवोक्तम् किं तेन पत्रं पठितम् ओ ( स्वीकारे ) मित्युझेसनि शीघ्रमेव आपणे गत्वा प्राग्वटवंशीयात्रदेवः- आदित्यनाग वंशीय देव प्रति सावमशें प्रावोचन् । अरे व्यंसकराट् मामकं पत्र मुन्मुद्रायित्वा स्वकीयकार्य साधितं धिक् स्तेयवृत्ति महाजनवंशे समुत्पन्नोऽपि चौर्येण कार्य करोति इत्यादि साक्षेपवचनैस्तदुपरि समजनि तदारभ्य सर्वे तं (चोरलिया) इति वचनपुरस्सरमाह्वयाम सुः तहिनादेव तन्नतिरपि चोरलियेत्यभिधया प्रसिद्धाभूत दन्यत्र । ६३४ Jain Education international [ चोरडिया जाति की उत्पति www.jahelibrary.org Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६१८-६३५ २२--प्राचार्य श्री यक्षदेवसूरि ( चतुर्थ ) रत्नं सुंचित वंश मध्य सुमतो यो यक्षदेव स्तुतः । ज्ञानापार महोदधिः सुगदितो मुख्योऽभवद्गन्थकृत् ।। साहित्यस्य विचार चार सरणा वग्रे मतः सर्व वित् । मोक्षेच्छूनयमादिशत् सुसरलं मागे सुवन्यस्ततः ॥ 10000*10000* .. ... 2 चार्य श्री यक्षदेवसूरीश्वर महाप्रतिभाशाली एवं जैनधर्म के एक धुरंधर आचार्य हुये हैं। __ आप श्रीमान् आजीवन ब्रह्मचारी थे। अंबा पद्मा छूपत्ता और विजय एवं चार देवियां हमेशा आपकी सेवा करती थी आप वचनसिद्धि आदि अनेक लब्धियों और कई चमत्कार विद्याओं से विभूषित थे। कई राजा महाराजा आपके चरण कमलों की सेवा करते थे। आपका जीवन पूर्ण रहस्यमय था। पट्टावली कारों ने लिखा है कि आप सत्यपुर नगर के सुचन्ति गोत्र के दानवीर लाखण की सुशीला भार्या मांगी के धर्मसी नाम के लाड़ले पुत्र रत्न थे। आपकी बालकीड़ा एक होनहार प्रचण्ड प्रतापी पुरुषोंचित थी। विनयगुण और धार्मिक संस्कार तो आपके घराने में शुरू से ही चले ही आरहे थे। अतः धर्मसी के लिये इन गुणों के प्राप्त करने के लिये किसी अध्यापक की आवश्यकता ही नहीं थी। माता पिता ही उन के अध्यापक थे। शाह लाखण के सात भाई और सात पुत्र थे और कई नगरों में आपकी दुकानें भी थी तथा विदेशियों के साथ आपका विशाल व्यापार था । एक दुकान आपकी जावाद्वीप में भी थी। व्यापार में आपने करोड़ों द्रव्य पैदा किया था। शाह लाखण जैसे द्रव्य पैदा करने में चतुर व्यापारी था। वैसे ही न्यायोपार्जित द्रव्य व्यय करने में भी कुशल था । जो कार्य करता था वह दीर्घ दृष्टि एवं सद्विचार से ही करता था और शुभकार्य में उदारतापूर्वक लक्ष्मी का सदुपयोग भी किया करता था। आपने उपाध्याय पद्महंस के उपदेश से सत्यपुर में भगवान पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर बनाकर उसमें ४१ अगुल के प्रमाण माली भगवान पार्श्वनाथ की सुवर्णमय मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई तथा श्री शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रार्थ एक विराट संघ निकाला और चांदी का थाल सोने की कटोरी में पांच पांच मुद्रिकायें साधर्मी भाइयों को पहिरामणी दी इत्यादि इन शुभ कार्यों में शाह लाखन ने एक करोड़ द्रव्य खर्च कर अनंत पुन्योपार्जन किया जिससे शाह लाखन की उज्ज्वल कीर्ति चारों ओर फैल गई थी। ___एक समय सत्यपुर के उद्यान में एक सन्यासी पाया था और वह बाल ब्रह्मचारी होने से उसके पास कई विद्यायें भी थी जिसका चमत्कार दिखा कर जनता को अपनी ओर आकर्षित किया करता था। 'चमत्कार को नमस्कार' इस युक्ति से जनता में सन्यासीजी की बहुत महिमा फैलगई। एक समय धर्मसी अपने साथियों के साथ सन्यासीजी के पास चला गया और सन्यासीजी को देखा कि कभी सिंह तो कभी सर्प कभी मयूर तो कभी गरुड़ बन जाते हैं। कभी स्थानान्तर तो कभी आकाश• गमन, कभी मिष्टान्न का ढेर तो कभी रुपयों का ढेर लगा कर आये हुये लोगों को संतुष्ट कर रहे हैं । सत्यपुर के श्रेष्टि लाखन ] ६३५ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २१८-२३५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जब सन्यासीजी अपने प्रासन पर बैठे तब धर्मसी ने पूछा कि महात्माजी इनके अलावा आप आत्मकल्याण की विद्या भी जानते हैं मैं उसको ही चाहता हूँ, सन्यासीजी ने कहा कि आत्मकल्याण के लिये केवल एक ही साधन है और वह है ब्रह्मचर्यव्रत यदि मनुष्य ४० वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत पालन करता है वह वचनसिद्धि को प्राप्त कर लेता है इत्यादि ब्रह्मचर्य का महात्म्य बतलाते हुये कहाः मैथुनं ये न सेवन्ते ब्रह्मचारी दृढव्रताः । ते संसार समुद्रस्य पारं गछन्ति सुव्रताः ॥ ब्रह्मचर्येण शुद्धस्य सर्वभूतहितस्य च । पदे षेद यज्ञफलं प्रस्थितस्य युधिष्ठिर ! ॥ एकराव्युषितस्यापि यागतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा शकसहस्रेण वक्तुं शक्या युधिष्ठिरः ॥ ब्रह्मचर्य भवेन्मूलं सर्वेषां धर्मचारिणाम् । ब्रह्मचर्यस्य भङ्गेन व्रताः सर्वे निरर्थकाः ॥ समुद्रतरणे यद्वत् उपायो नौका प्रकीर्तिता। संसार तरणे तद्वत् ब्रह्मचर्य प्रकीर्तितम् ॥ ये तपश्च तपस्यन्ति कौमाराः ब्रह्मचारिणः । विद्यावेदव्रतस्नाता दुर्गाण्यपि तरन्ति ते ॥ इसके अलावा घर में रहे हुये गृहस्थ को भी ब्रह्मचर्यव्रत पालन करना चाहिये सन्तान की इच्छा वालों को भी ऋतुकाल वर्ज के सदैव ब्रह्मचर्यव्रत पालन करना चाहिये -- ऋतुकाले व्यतिक्रान्ते यस्तुसेवेत मैथुनम् । ब्रह्महत्याफलं तस्य सूतकं च दिने दिने ॥ ग्रहणेऽप्यथ संक्रान्तावमावास्यां चतुर्दश्याम् । नरश्चाण्डालयोनिः स्यातैलाभ्यङ्गस्त्रीसेवने ॥ अमावास्यामष्टमी च पौर्णमासी चतुर्दशीम् । ब्रह्मचारी भनित्यगस्पृप्तौ स्नातको द्विजः १ ॥ इत्यादि सन्यासीजी ने ब्रह्मचर्यव्रत पर खूब ही प्रकाश डाला। धर्मसी ने सोचा कि जिस मजहब के देव कामातुर और गुरु ऋतुदान देने वाले है। उस धर्म में ब्रह्मचर्य के इस प्रकार गुण गाये जाते हों यह असंभव सी बात है पर यह वस्तु किसी अन्य धर्म से ली गई हो ऐसा संभव होता है। खैर धर्मसी वहां से उठकर जैन साधुओं के पास आया और पूछा कि जैनधर्म में ब्रह्मचर्य का महत्त्व किसी प्रन्थ में बतलाया है ? मुनिराज ने कहा धर्मसी एक ग्रन्थ में ही क्यों पर सैकड़ों प्रन्थों में ब्रह्मवयं का महत्त्वपूर्ण वर्णन किया है और वह भी केवल कहने मात्र का नहीं पर मल्लीनाथ, नेमिनाथ तथा जम्बू और वज्रस्वामी श्राजीवन ब्रह्मचारी रहे। इतना ही क्यों पर जैनधर्म में ब्रह्मचर्यव्रत के रक्षणार्थ ऐसे सख्त नियम बनाये हैं कि जैसे जं विवित्तमणाइन्न', रहिअं थीजणेण य । बंभचेरस्सरक्खट्ठा, आलयं तु निसेवए ॥ मणपल्हायजणणिं, कामराग विवड्वणिं । बंभचेररओ भिक्खू, थीकहं तु विवजए॥ समं च संथवं थीहिं, संकहं च अभिक्खणं । बंभचेररओ भिक्खू, णिचसो परिवजए ॥ अंग-पचंगसंठाणं, चारुल्लवियपेहियं । बंभचेररओ थीणं, चक्खुगेझं विवजए । कूइयं रुइयं गीयं, हसियं थणिय कंदियं । बंभचेररी थीणं, सोयगेझं विवज्जए । हासं खिडं रतिं दप्पं, सहसाऽवत्तासियाणि य । बंभचेररओ थीणं, नाणुचिंते कयाइवि ॥ पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवड्डणं । बंभचेररओ भिक्खू, णिचसो परिवज्जए ॥ [ब्रह्मचर्य व्रतका महत्व Jain Edu International Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ औसवाल संवत् ६१८-६३५ धम्मलद्धं मिअं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुजेज्जा, बंभचेररओ सया ॥ विभ्रू परिवज्जेज्जा, सरीरपरिमंडगं । बंभचेररओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए ॥ सह े रूवे य गंधे य, रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, णिच्चसो परिवज्जए || तथा ब्रह्मचारियों के लिये निम्नलिखित बातें दूषण रूप बतलाई हैं तथा इन नियमों से आप समझ सकते हो कि जैनधर्म में ब्रह्मचर्य का कितना महत्व है और इस व्रत के प्रभाव से ब्रह्मचारी पुरुषों को देवता भी नमस्कार करते हैं । यथा - 1 + सुखशय्यासनं वस्त्रं, ताम्बूलं स्नानमर्दनम् । दन्तकाष्टं सुगन्धं च ब्रह्मचर्यस्य दूषणम् ॥ ३७ ॥ शृंगार मदनोत्पाद, यस्मात्स्नानं प्रकीर्तितम् । तत्स्मात्स्नानं परित्यक्तं, नैष्टिकैर्ब्रह्मचारिभिः ॥ ३८ ॥ देव-दानव-गंधव्वा, जक्ख- रक्खस किन्नरा । बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति तं ॥ नैष्टिकं ब्रह्मचर्यं तु, ये चरन्ति सुनिश्चिताः । देवानामपि ते पूज्यः, पवित्रं मङ्गलं तथा ॥ ४० ॥ शीलानामुत्तमं शीलं व्रतानामुत्तमं व्रतम् । ध्यानानामुत्तमं ध्यानं, ब्रह्मचर्ये सुरक्षितम् ॥ ४१ ॥ महानुभावों ! ब्रह्मचर्य व्रत सब व्रतों का राजा है सब व्रतों से इस व्रत का पालना दुष्कर है धन्य है स्थुलभद्र को कि जिस वेश्या के साथ बारह वर्ष रंग राग में रहे फिर उसी के वहां चतुर्मास कर अपनी परीक्षा दी । धन्य है सेठ सुदर्शन को कि इस व्रत की रक्षा के लिये शूली को स्वर्ग समझ कर हंसता २ शूल चढ़ गया । धन्य है माता धारणी को कि ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के लिये जिभ्या निकाल कर प्राणों की आहुती दे दी। इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण हैं - जो कई व्यक्ति त्रिकरण शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करता है उसके दर्शन मात्र से जनता के पाप क्षय हो जाते हैं इतना हो क्यों पर ब्रह्मचारी पुरुष के दर्शन से रोगियों का रोग भी नष्ट हो जाता है जैसे कि चन्द्रपुर नगर में एक पुरंधर नाम का धनाढ्य सेठ वसता था उसके सुदर्शन नाम का पुत्र था किसी महात्माजी के व्याख्यान में ब्रह्मचर्य व्रत का महात्म्य सुनकर उसने प्रतिज्ञा करली कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालूंगा इस महान व्रत के साथ सुदर्शन सत्य वचन बोलने का भी नियम ले लिया कि मैं कभी असत्य नहीं बोलूंगा। इन दोनों व्रतों की रक्षा के लिये सुदर्शन अपने मकान एक एकान्त कमरा में रहने लगा जिसमें स्त्रियों के लिये तो वह किसी का मुंह देखना भी नहीं चाहता था इस प्रकार सुदर्शन अपने व्रतों का सुखपूर्वक पालन कर रहा था । एक समय नगर के बाहर एक तापस आया बहुत से लोग उसके दर्शन करने को गये एक कुष्टी भी वहां गया और तापस के चरणों में नमस्कार करके अपने कुष्ट रोग मिटाने की प्रार्थना की ? इस पर तपस्वी ने कहा कि यदि तू सुदर्शन के दर्शन करले तो उसके दर्शनमात्र से तेरा सर्व रोग चला जायगा । बस फिर तो कुष्ट क्या चाहता था कुष्टी चल कर सेठजी के द्वार पर आया और प्रार्थना करने लगा कि हे महापुरुष कृपा कर इस कुष्टी को एक बार दर्शन दीजिये ? यह महोपकार का काम है मैं आपका उपकार कभी नहीं भूलूंगा । इत्यादि परन्तु सुदर्शन ने इस पर ध्यान नहीं दिया जब सुदर्शन के पिता को दया आ गई और जाकर अपने पुत्र को आग्रह के साथ कहा अतः पिता के कहने से सुदर्शन ने मकान की एक बारी खोल कर कुष्ट के सामने देखा तो कुष्टी का रोग चला गया जिससे जनता को बड़ा ही श्राचर्य हुआ और नगर भर में सुदर्शन की महिमा फैल गई अब तो थोड़ा ही दर्द क्यों न हो पर बिना पैसा बिना परिश्रम से अपना mera और धर्मसी ] ६३७ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २१८-२३५ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रोग कौन मिटाना नहीं चाहता था नगर के तमाम बीमार सुदर्शन के वहां आने लगे इससे घबरा कर सुदर्शन ने सुबह की टाइम मुकर्रर करदी कि सब लोग सुबह आकर मकान के नीचे खड़े हो जायं तब सुदर्शन दरवाजा खोल सबकी ओर दृष्टि प्रसार करे कि सबका रोग चला जाय ज्यों ज्यों इस बात की मालुम होती गई त्यों त्यों बीमारों की संख्या बढ़ती गई। केवल चन्द्रपुर ही नहीं पर आस पास के ग्रामों के बीमार भी आने लगे । नगर में जहां देखो वहां सुदर्शन की प्रशंसा हो रही थी अच्छे २ आदमी कह रहे थे कि ब्रह्म चारी पुरुषों की देवता सेवा कर रहे हैं तब सुदर्शन तो ब्रह्मचारी के साथ सत्य व्यक्ता है इसके लिये तो कहना ही क्या है ? इस प्रकार सब नगर वालों को इस बात की खुशी थी परन्तु नगर के वैद्य हकीम कि जिन्हों की आजीविका केवल बीमारों की चिकित्सा पर ही थी उन्हों की आमद बन्द हो जाने से वे सख्त नाराज थे उन्होंने ऐसा उपाय सोचा कि इस सुदर्शनका ब्रह्मचर्य व्रत नष्ट हो जाय तो अपना रुजगार खुला हो जाय । अहा-हा दुष्ट मनुष्य अपने स्वल्प स्थार्थ के लिये कहां तक अनर्थ करने को तैयार हो जाते हैं यदि वे वैद्य वगैरह अन्य प्रकार से उद्यम करते तो भी उन लोगों का गुजारा हो सकता पर उन लोगों को अन्य कोई उपाय नहीं सूझा । अतः उन्होंने अपनी दुर्बुद्धिसे कई उपाय सोचा आखिर उन्होंने किसी अन्य नगर से एक धूर्त वैश्या को लाकर उसको लोभ देकर कहा कि तुम इस सुदर्शन का ब्रह्मचर्य नष्ट कर दे तो तुमको पुष्कल द्रव्य दिया जायगा । लोभ जगत में बुरी बलाय हुआ करता है संसार में ऐसा कौनसा अनर्थ है कि लोभी नहीं करा सके ? वैश्या ने स्वीकार कर लिया और उसके उपाय सोचने लगी कि सुदर्शन से मिलाप कैसे हो सके और यह किस पर विश्वास रखता है तलाश करने पर मालूम हुआ कि धर्मी पुरुषों के साथ इसका विश्वास है वैश्या कपट बुद्धि से धार्मिक विधान का अभ्यास कर धार्मिक उपकरण वगैरह पास में रखने लगी । एक दिन वैश्या खूब जेवर सुन्दर वस्त्र पहन कर सवारी करके सेठजी के मकान पर मुसाफिर की तौर आई सेठ पुरंदर ने उसका स्वागत करके पूछा कि आप कौन हैं कहां से और किस प्रयोजन से यहाँ आये हैं ? कपटी धर्मण ने उत्तर दिया कि मैं शंखपुर नगर के दत्त सेठ की लड़की बाल विधवा श्रीमति नाम की श्राविका हूँ। तीर्थ यात्रार्थ गई थी रास्ते में सुना कि एक महान धर्मीष्ट बाल ब्रह्मचारी सुदर्शन सेठ है कि जिसके दर्शन मात्र से रोगियों का रोग चला जाता है अतः दर्शन की गर्ज से मैं आई हूँ मुझे जल्दी से दर्शन करवा दें मेरे नौकर चाकर सब नगर के बाहर बगीचे में ठहरे हुए हैं और मुझे जल्दी से जाना है ? सेठजी ने बड़े सेठ की पुत्री तथा धर्मीष्ट जानकर एक कमरे में उसे ठहरादी और भोजन के लिये कहा उत्तर में धूर्त वैश्या ने कहा कि आज मेरा व्रत है अतः मैं भोजन नहीं करूँगी कृपा कर कुँवर साहब का दर्शन करवा दीजिये । सेठजी ने जाकर सुदर्शन से कहा कि एक धर्मीष्ट बहिन तेरा दर्शन करना चाहती है और उसको वापिस जाने की बहुत जल्दी है अतः तुम दर्शन दे दो। सुदर्शन ने कहा पिताजी मैं किसी औरत को देखना नहीं चाहता हूँ । पिता ने जाकर कह दिया कि अभी दर्शन न होगा इस पर धूर्त वैश्या ने रोना शुरू कर दिया कि मैं कैसी अभाग्यनी हूँ कि एक उत्तम पुरुष का दर्शन तक नहीं कर सकी इत्यादि इस पर सेठजी को रहम आगया और जाकर बेटा को जोर देकर कहा कि मैं पास में खड़ा हूँ मेरे कहने से ही तुम इस धर्मण बहिन को दर्शन दे दें । बस पिताजी उस कुपात्र को ले आये उसने दर्शन करते ही ऐसा कटाक्ष का वाण चलाया कि सुदर्शन पर उसका बुरा असर हुआ जब दर्शन कर वैश्या जाने लगी तो सुदर्शन ने कहा कि तुम ठहरो कुछ तीर्थ की बातें करनी हैं । बस फिर तो था ही था पिताजी Jain E६३८. International For Private & Personal use only [ सेठ सुदर्शन का ब्रह्मचर्य .... GU ahelibrary.org Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६१८–६३५ के जाने के बाद सुदर्शन का रत्न लुटा गया और वैश्या रफूचक्कर हो गई। दूसरे दिन जब बीमार आये तो सुदर्शन ने दरवाजा नहीं खोला और कहला दिया कि अब मेरे अन्दर वह गुण नहीं रहा है कि जिससे आप लोगों का रोग चला जाता था अर्थात् माया कपटाई रहित सत्य बात थी वह सबके सामने कह दी । फिर भी लोगों ने अति आग्रह किया जिससे सुदर्शन ने दरवाजा खोला तो भी बीमारों का आधा रोग चला गया अर्थात् जो रोग एक दिन में जाता था वह दो दिनों में जाना लगा । सुदर्शन ने सोचा कि यदि मैं पहले से ही दीक्षा ले लेता तो श्राज मेरा यह दिन नहीं आता खैर अब भी दीक्षा लेना अच्छा है सुदर्शन ने माता पिता की आज्ञा लेकर मुनिराज के पास दीक्षा लेली । मुनिराज श्री ने धर्मसी को ब्रह्मचर्य का महात्म्य पर उदाहरण सुना कर केवल धर्मसी पर ही नहीं पर उपस्थित जनता पर ब्रह्मचर्य एवं सत्य का अच्छा प्रभाव डाला जिसमें धर्मसी की इच्छा तो केवल जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य पालन करना ही क्यों । पर सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेने की होगई । इत्यादि मुनिराज का उपदेश सुनकर धर्मसी ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालूँगा और जल्दी दीक्षा धारण कर लूँगा । यह बात क्रमशः शाह लाखण के कानों तक पहुँची तो शाह लाखण ने धर्मसी की शादी जल्दी कर देने का विचार कर लिया पर जब धर्मसी को इस बात का पता लगा तो उसने साफ शब्दों में कह दिया कि मैंने तो आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने की प्रतिज्ञा करली है और मेरी इस प्रतिज्ञा को मनुष्य तो क्या पर देवता भी बड़े ही विचार में पड़ गया कि अब इस धर्मसी को कैसे समझाया जाय । भंग नहीं कर सकता है । शाह लाखण इधर आचार्य रत्नप्रभरि भू भ्रमण करते हुये सत्यपुर नगर में पधार गये श्रीसंघ ने आपका अच्छा स्वागत किया । शाह लाखण सूरिजी का परम भक्त श्रावक था । एक दिन सूरिजी से अर्ज की कि प्रभो ! धर्मी भी बालक है इसकी शादी करनी है पर इसने किसी की बहकावट में आकर हट पकड़ लिया है कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करूँगा इसकी मुझे बड़ी भारी दुविधा लगी हुई है कि अव मैं मैं क्या करू ? सूरिजी ने कहा लाखण यदि धर्मसी सच्चे दिल से ब्रह्मचर्य पालन करना चाहता है तब तो तेरा होभाग्य है । फिर कभी समय मिलने पर मैं इसकी परीक्षा कर लूँगा । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य मय होता था जो धर्मसी को विशेष रुचिकर था। एक दिन धर्मसी ने सूरिजी के पास जाकर अर्ज की कि हे प्रभो ! मैंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन की तो प्रतिज्ञा करली है पर अब मेरे माता पिता मुझे कई प्रकार से तंग कर रहे हैं । अतः मेरी इच्छा है कि मैं आपके चरण कमलों में दीक्षा लेकर अपनी प्रतिज्ञा का पालन करूँ । सूरिजी ने कहा धर्मसी ये तो सोने में सुगन्धवाली कहावत को तू चरितार्थ करता है । अगर तूने ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करली है तब तो अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने को दीक्षा लेना अच्छा है और निरतिचारव्रत तब ही पालन हो सकेगा। फिर भी सूरिजी ने धर्मसी की कई प्रकार से परीक्षा करली जिसमें धर्मसी एक योग्य एवं होनहार ही पाया गया अतः सूरिजी ने लाख को बुलाकर कह दिया कि मैंने धर्मसी की ठीक परीक्षा करली है यह एक तुम्हारे कुल में अमूल्य रत्न है । यह केवल ब्रह्मचर्यव्रत ही पालन करना नहीं चाहता है पर इसकी इच्छा तो दीक्षा लेने की है । यदि यह दीक्षा लेगा तो जैनधर्म का उद्धार करने वाला एक प्रभाविक पुरुष होगा इत्यादि । आचार्य रत्नप्रभसूरि- सत्यपुर ] ६३९ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २१८-२३५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शाह लाखण ने कहा पूज्यवर ! यह सोलहवर्ष का लड़का दीक्षा में क्या समझता है ? सूरिजी ने कहा लाखण ! जो होनहार होता है वह बालक ही होता है। कारण, एक तो धर्मसी बालब्रह्मचारी और दूसरे इस वय में दीक्षा लेगा तो ज्ञानाभ्यास भी विशेष करेगा। अतः तेरे सात पुत्र हैं जिसमें एक पुत्र जिनशासन के उद्धार के लिये भी दे तो इसमें कौन सी बात है ? लाखण ! इस संसार में जन्म लेकर अनेकों जीव यों ही मर गये हैं। उनको कोई याद भी नहीं करता है। तब तेरा पुत्र दीक्षा लेकर जगत का उद्धार करेगा इसका सब श्रेय तेरे को ही है। भला यह तो धर्मसी की भावना है पर दूसरे तेरे इतने पुत्रादि परिवार हैं किसी को जाकर पूछ कि कोई दीक्षा लेने को तैयार है ? अतः इस कार्य के लिये तुमको थोड़ा भी विलम्ब करना उचित नहीं है । और न मोह ममत्व के वश अन्तराय कर्म बन्ध ने की ही जरूरत है शाह लाखण समझ गया कि धर्मसी की इच्छा दीक्षा लेने की है और सूरिजी की इच्छा दीक्षा देने की है। यदि मैं इन्कार भी करूंगा तो मेरी कुछ चलने की नहीं है। अतः सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्थ करना ही अच्छा है। सूरिजी को वंदन कर लाखण अपने घर आया और धर्मसी को बहुत समझाया कि बेा! दीक्षा का पालना बहुत कठिन है और तेरे से दीक्षा पलनी भी मुश्किल है अतः तू घर में रह कर ही आत्मकल्याण कर । धर्मसी ने कहा कि हां, पिताजी दीक्षा का पालना जरूर कठिन है पर वह मेरे लिये नहीं किन्तु कायरों के लिये है। सूरवीर तो आज भी हजारों मुनि दीक्षा पालन करते है। आर मुझे दीक्षा दिला कर देखिये मैं दीक्षा पालन कर सकता हूँ या नहीं ? इत्यादि बहुत जवाब सवाल हुये आखिर शाह लास्नण ने निश्चय कर लिया कि धर्मसी दीक्षा अवश्य लेगा। अतः उसने जिनमन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सवादि दीक्षा का बड़े ही धामधूम से महोत्सव करवाया। दीक्षा लेनेवाला केवल एक धर्मसी ही नहीं था पर इनके साथ इनके कई साथियों ने भी दीक्षा लेने का निश्चय कर रक्खा था फिर भी सूरिजी का व्याख्यान इसी विषय पर होता था तो कई १८ नरनारियों ने दीक्षा की तैयारी करली । अहाहा ! पहिले जमाने के लोग कैसे लघु कर्मी थे कि वे एक को देख दूसरे भी धर्म करने को तैयार होजाते थे जैसे आज पापकर्म में एक की देखा देखी दूसरे करने को तैयार होजाते हैं वैसे ही पहिले जमाने में धर्म करनी के लिये होता था । यह सब पूर्व संचित कर्मों का उदय एवं क्षयोपसम का ही कारण है। ठीक शुभ मुहूर्त में सूरिजी महाराज ने उन मुमुक्षुओं को विधि विधान के साथ दीक्षा देदी जिसमें धर्मशी का नाम 'धर्ममूर्ति' रख दिया ! बस धर्ममूर्ति अपने ब्रह्मचर्य व्रत के लिये निर्भय बन गया और ज्ञानभ्यास करने में अहर्निश परिश्रम करने में लग गया। धर्ममूर्ति ने पूर्व जन्म में ज्ञानपद की एवं सरस्वती देवी की आराधना की थी और इस भव में भी देवी सरस्वती की आप पर पूर्ण कृपा थी कि बह बिना किसी अनुष्ठान के किये ही स्वयं देवी सरस्वती बरदाई होगई थी। फिरतो कहना ही क्या था मुनि धर्ममूर्ति वर्तमान साहित्य का धुरंधर पण्डित होगया। आप इतने विशाल विद्वान होने पर भी गुरुकुलवास में रहते थे और इसमें ही अपना गौरव एवं कर्तव्य समझते थे। पूर्व जमाने में गुरुकुल वास का बड़ा भारी महत्व था और वर्षों तक वे गुरुसेवा में रहते थे तव ही तो वे सर्व प्रकार की योग्यता हासिल कर गुरु पद को सुशोभित करते थे और प्राचार्य महा Jain Ed६४०nternational For Private & Personal use only [वीर धर्मसी की पुनीत दीक्षा .org Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यत्तदेवरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६१८-६३५ wwwwwwwwwww राज भी उन शिष्यों की ठीक परीक्षा करके ही अपना उत्तरदायित्व दिया करते थे। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने मुनि धर्ममूर्ति को सर्व गुण सम्पन्न जान कर अपनी अन्तिमावस्था में सूरिमंत्र की आराधना करवादी और सूरि. पद से विभूषित बनाकर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया । प्राचार्य यक्षवदेसूरि महाप्रभावशाली आचार्य हुये हैं आप बाल ब्रह्मचारी और साहित्य के धुरंधर विद्वान थे । आप कई अलौकिक विद्याओं से विभूषित थे। अपने सोलह वर्ष की किशोर अवस्था में दीक्षा लेकर सोलह वर्ष गुरुकुलवास में रहे और सर्वगुण सम्पादित कर सूरिपद को सुशोभित किया : आप कई राजसभाओं में शास्त्रार्थ में भी विजय हुये थे। भाचाययक्ष वसूरि एक समय विहार करते हुये भिन्नमाल नगर में पधारे आपका व्याख्यान हमेशा होता था और जैन जैनेतर गहरी तादाद में ज्ञानामृत का पान कर रहे थे अतः नगर में आपकी खूब महिमा फैल रही थी पर असहिष्णुता के कारण कई ब्राह्मण लोग उनको सहन नहीं कर सके वे कहने लगे कि जैना. चार्य कितने ही विद्वान हों पर वे हमारे तो शिष्य ही हैं अर्थात् हम ब्रह्मणों को बराबरी नहीं कर सकते हैं क्योंकि "ब्राह्मण च जगतगुरु" अर्थात् ब्राह्मण ही सब जगत के गुरु हैं । इस बात को कई श्रावकों द्वारा श्राचार्य श्री ने सुनी तो आपश्री ने फरमाया कि यदि ब्राह्मणो में गुरुत्व के गुण हों तो जगत को अपना गुरु मानने में क्या हर्ज है । समझदार केवल नामकी ही नहीं पर गुणों की पूजा करते हैं देखिये खास ब्राह्मणों के शास्त्र में ब्राह्मणों के लक्षण बतलाये हैं। सत्यंब्रह्म तपो ब्रह्म ब्रह्म वेन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया ब्रह्म एतद्ब्राह्मण लक्षणम् ॥ ३८५ ॥ क्षमादम्मो दया दानं सत्यशील धुतिधुण । विद्या विज्ञान मास्तिक्य-मेतद् ब्राह्मण लक्षणम् ॥२०॥ मेथुनं ये न सेवंते ब्रह्मचारी दृढव्रताः । ते संसारसमुद्रस्य पारं गच्छन्ति सुव्रताः ॥ २९ ॥ अहिंसासन्यमस्तेयं ब्रह्मचार्यापरिग्रही । कामक्रोध निवृत्तस्तु ब्राह्मणः स युधिष्ठिर ॥ ३३ ॥ नैष्टिकं ब्रह्मचर्य तु ये चरन्ति सुनिश्चिताः । देवानामपि ते पूज्याः पवित्रं मङ्गलं तथा ॥ ४० ॥ ___ यदि इन लक्षणों से विपरीत है उसको ब्राह्मण नहीं कहा जाता है देखिये सत्यं नास्ति तपोनास्ति नास्ति चेन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया नास्ति एतच्चाण्डाल लक्षणम् ॥३८६।। __यदि कोई शूद्र भी है और ब्राह्मण कर्म करता है तो वह ब्राह्मण ही है देखिये शुद्रोऽपि शोलसंपन्नो गुणवान्ब्रह्मणो भवेत् । ब्रह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूद्रापत्यसमो भवेत् ॥ ३८३ ॥ सब जातियों में ब्राह्मण एवं चाण्डाल मिलते हैं सर्व जातिषु चाण्डालाः सर्व जातिधु ब्रह्मणाः । ब्रामणेष्वपि चाण्डालाश्चाण्डालेष्वपि ब्राह्मणाः ॥३८२ ।। केवल नाममात्र का ही घमंड हो तो एक कीट का नाम भी इन्द्रगोप होता है ब्राह्मणा ब्रह्मचर्येण यथा शिल्पेन शिल्पिकः । अन्यथा नाममात्रं स्यादिन्द्रगोपककीटवत् ॥ वेवल वेद पढ़ लेने से ही ब्राह्मण नहीं कहलाते हैं देखिये चतुर्वेदोऽपि यो भूत्वा चण्डं कर्म समाचरेत् । चण्डालः सतु विज्ञयो ने वेदास्तत्र करणम् ॥ ३८४ ॥ और भी देखिये भीनमल ब्राह्मण ] Jain Education internauonal Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २१८-२३५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २४ ॥ ॥ २६ ॥ २७ ॥ ये स्त्रीजंघोरुसंस्पृष्टाः काम गृधाथ ये द्विजाः । ये चरितोधमा भ्रष्टाः तेऽपि शूद्रा युधिष्ठिर ॥ यस्तु रक्तषु दन्तेषु, वेद मुच्चरते द्विजः । अमेध्यं तस्य जिह्वाग्रे, सूतकं च दिने दिने हस्ततलप्रमाणां तु. यो भूमि कर्षति द्विजः । नश्यते तस्य ब्रह्मत्वं शूद्रत्वं त्वीभजायते ॥ अव्रतानामशीलानां जातिमात्रोपजीविनां । सहस्रमुचितानां तु, ब्रह्मत्वं नोपजायते ॥ हिंसकोऽनृतवादीच यः चौर्योपरतश्च तु । परदारोपसेवीच, सर्वे ते पतिता द्विजाः वास्तु विमा, ज्ञेयास्ते मातृविक्रियाः । तैर्हि देवाश्च वेदाथ, विक्रीता नात्र संशयः ॥ खरो द्वादशजन्मानि षष्टिजन्मानि शूकरः । श्वानः सप्ततिजन्मानि इत्येवं मनुरब्रवीत् ।। अब जरा जैनधर्म के सिद्धान्त को भी सुन लिजिये ॥ ३१ ॥ ३२ ।। नव मुडिंग समणो, न ऊँकारेण बंभणी, न मुणीरण्ण वासेणं कुस चिरेण तावसो || समयाए समणो होइ, बंभचेरण बंभणो नाणेण मुखी होइ, तवेण होइ तावसो कम्मुणा भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दोहोइउ कम्मुणा || अर्थात् न केवल सिर मु ंडाने से साधु होता है न ॐकार का जाप करने से ब्राह्मण ही होता है न केवल वनवास करने से मुनि होता है और न कुशचिवर धारण करने से तपस्वी कहलाता है किन्तु राग द्वेष रहित साम्य भाव से साधु ब्रह्मचर्य पालन करने से ब्राह्मण, ज्ञान पढ़ने से मुनि और तप करने से तपस्वी महानुभावो ? जीव के न तो कोई वर्ण है और न कोई जाति है परन्तु वर्ण जाति कर्म के पीछे है। जैसे जो जीव शूद्र कर्म करते हैं वह शूद्र कहलाते हैं और ब्रह्मकर्म करने वाले ब्राह्मण कहलाते हैं । श्रतः जगत से पूजा पाने की अभिलाषा वालों को चाहिये कि वे पूज्यत्त्र के गुण पैदा करें फिर कहने की आवश्यकता ही नहीं रहती है जनता स्वयं पूजने लग जाती है । इत्यादि सूरिजी के उपदेश का सर उपस्थित जनता पर ही नहीं पर कई महानुभाव ब्राह्मणों पर भी काफी पड़ा और वे कह उठे कि महात्माजी का कहना सत्य है पूजा नाम की नहीं पर गुणों की ही होती है बस जयध्वनी के साथ सूरिजी का व्याख्यान समाप्त हुआ । सूरिजी की नगर में खूब ही प्रशंसा होने लगी पर यह बात उन दुर्जन ब्राह्मणों को कब अच्छी लगने वाली थी। उन्होंने यह कह कर हुल्लड़ मचाया कि जैन ईश्वर को नहीं मानते हैं जैन वेदों को नहीं मानते हैं अतः जैन नास्तिक हैं और यह बात केवल हम ही नहीं कहते हैं पर पुराण इतिहास देखिये राजा भीमसेन ने जैनियों को अपने नगर से निकाल दिया था फिर चन्द्रसेन ने चन्द्रावती नगरी बसाकर जैनों को स्थान दिया पर आज के राजा हमारी सुनते ही नहीं यही कारण है कि जैनियों का जोर दिन व दिन बढ़ता रहा है इत्यादि । 'वादे वादे जायते तत्वम्' ठीक है कई वक्त बाद विवाद तत्त्वबोध का कारण बन जाता है । आज भीनमाल का भी यही हाल होरहा है । ब्राह्मणों के वाद विवाद ने जनता में ठीक जागृति पैदा करदी है । सूरिजी भी अपनी सत्यता पर तुले हुए थे ब्राह्मणों में उस समय दो दल बनगये थे एक दल सत्य के पक्ष में था और उनको सूरिजी के निष्पक्ष वचन अच्छे लगते थे तब दूसरा दल चिरकाल से चली आई रूढ़ियों को आगे रख कर राजा प्रजा पर हुकूमत करना चाहता था । २५ ॥ ३० ॥ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन [ ओसवाल संवत् ६१८-६३५ दूसरे दिन सूरिजी का खूब जोरदार व्याख्यान हुआ जनता की संख्या हमेशों से बहुत बढ़कर थी राजा प्रजा और राज कर्मचारी भी उपस्थित थे । सूरिजी ने मंगलाचरण में ही ईश्वर को नमस्कार करते हुये फरमाया किः हे ईश्वर परमात्मा ? सच्चिदानन्द सर्वज्ञ अक्षय अरूपी सकल उपाधीमुक्त निरंजन निराकार स्वगुण भुक्ता श्रादि अनंतगुण संयुक्त । है विभो ! तुम्हारे नाम स्मरणमात्र से हमारे जैसे जीवों का कल्याण होता है अतः तुमको बार २ नमस्कार करता हूँ। तत्पश्चात् सूरिजी ने अपना व्याख्यान देना प्रारम्भ किया। श्रोता गण? आप जानते हो कि जब तक जीवों के कर्मरूपी उपाधि लगी रहती है तब तक वे नाना प्रकार की योनियों में अवतार धारण करते हैं और अवधि पूर्ण होने से मृत्यु को भी प्राप्त होते हैं और ऊँच नीच सुखी दु:खी होना यह पूर्व संचित कमों के फल हैं। जब जीव तप संयमादि सप्तकमों से सकलकों को नष्ट कर देता है तब वह आत्मा से परमात्मा बन जाता है उनको ही ईश्वर कहते हैं। कई लोग यह भी कह बैठते हैं कि जैन ईश्वर को नहीं मानते हैं पर यह लोगों की अनभिज्ञता ही है । कारण जैसे जैनों ने शुद्ध पवित्र सच्चिदानन्द को ईश्वर माना है वैसे किसी दूसरे मत ने नहीं माना है । भला इतना तो आप स्व सोच सकते हो कि जैन ईश्वर को नहीं मानते तो लाखों करोड़ों द्रव्य व्यय कर मन्दिर क्यों बनाते और अहिर्निश ईश्वर की भक्ति गुणा कोतन क्यों करते ? तथा जैन साधु राजऋद्धि एवं सुख सम्पत्ति का त्याग कर इस प्रकार के कठिन परिसहों को क्यों सहन करते इत्यादि प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध होता है कि जैनधर्म ईश्वर को अवश्य एवं यथार्थ मानता है । ____अब जरा ईश्वर मानने वाले नहीं पर ईश्वर की विडम्बना करने वालों के भी हाल सुन लीजिये । जो लोग ईश्वर को निरंजन एवं निराकार मानते हैं फिर भी उनको पुनः पुनः अवतार भी धारण करवाते हैं जैसे इस समय दश अवतार की कल्पना कर रक्खी है जिसका परिचय आप लोगों को करवाये देता हूँ। मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च कृष्णाश्च बुद्धः कल्की च ते दश ॥ इन दस अवतारों का विस्तार से वर्णन करके समझाया और बतलाया कि जब ईश्वर सर्वज्ञ सर्व शक्तिमान है तो उसको अवतार की क्या आवश्यकता जिसमें भी मनुष्य जैसी पवित्र योनिको छोड़ मच्छ कच्छ वराहा और नरसिंह जैसे अवतार धारण करना भलों ऐसी पशु योनियों में अवतार लेना क्या बुद्धि मता कही जा सकती है ? अब आप स्वयं सोच सकते हो कि ईश्वर की मान्यता जैनों की श्रेष्ठ है या ब्राह्मणों की ? अब रहा वेद का मानना-वेदो शुरू से तो जैनों के घर से ही प्रचलित हुए हैं भगवान आदीश्वर के मुखाविन्द से दिये उपकेश का साररूप भरत महाराज ने चार वेदों में संकलित कर जनता को उपदेश के लिए ब्राह्मणों को दिये थे और वे परमार्थी ब्राह्मण इन वेदों द्वारा स्वपर का कल्याण करते थे पर जब से ब्राह्मणों के मराज में स्वार्थ का कीड़ा पैदा हुआ तब से उन्होंने वेदों की असली श्रुतियों को बदल कर नकली वेद बना लिये । अतः जिन असली वेदों से जन कल्याण होता था वही नकली वेद निरपराधीमूक प्राणियों के कोमल कंठ पर छुरा चलाकर यज्ञ वेदियें रक्त रंजित कर रहे हैं। इसलिऐ जैन उन नकली वेदों को नहीं मानते हैं पर असली वेदों के तो जैन शुरू से ही उपासक थे और आज भी हैं इत्यादि । x १ संसारदर्शनवेद, २ संस्थापन परामर्श नवेद, ३ तत्त्वबोधवेद, ४ विद्याप्रबोधवेद ।( आवशकसूत्रवृति ) Join ka आचार्य यक्षदेवसरि का उपदेश] ६४३ www.janelibrary.org Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २१८-२३५ वष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरिजी के निडर एवं निष्पक्ष व्याख्यान का प्रभाव जनता पर ही क्यों पर उस सभा में बैठे हुए समभावी ब्राह्मणों पर भी काफी पड़ा था । फलस्वरूप कई पन्द्रह सौ ब्राह्मणों ने सूरिजी के चरण कमलों में जैनधर्म स्वीकार कर लिया अतः सूरिजी की विजय और जैन धर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई । प्राचार्य यज्ञ. देवसूरि कई श्री तक भीन्नमाल में विराजमान रहे बाद वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया । सूरिजी महाराज दिग्वजयी चक्रवर्ती की भाँति सत्यपुर शिवगढ़ वबोली श्रीनगर, जावलीपुर, मेथाणी, करकोली रोजाल, कोरंटपुर, चन्द्रावती, पद्मावती श्रादि स्थानों में भ्रमण करते अनेक भव्यों को धर्म उपदेश देते हुए लाट प्रांत में पधारे उस समय स्तम्भनपुर में बौद्धाचार्य जयकेतु आया हुआ था और वह अपने बौद्धधर्म का प्रचार के लिये भरसक प्रयत्न भी करता था। श्री संघ ने सुना कि मरुधर से आचार्य यज्ञदेव सूरि पधारे हैं। अतः संघ अप्रेश्वरों ने सूरिजी की सेवा में आकर स्तम्भनपुर पधारने की प्रार्थना की। सूरिजी महाराज ने विशेष लाभ का कारण जान स्तम्भनपुर की ओर विहार कर दिया बस फिर तो था ही क्या जनता का खूब उत्साह बढ़ गया उन्होंने स्वागत के लिए बड़ी २ तैयारियाँ की और सूरिजी महाराज का नगर प्रवेश का महोत्सव बड़े ही समारोह के साथ किया । बिचारे क्षणिकवादी बौद्धाचार्य की क्या ताकत थी कि वह न्याद्वाद सिद्धांत के सामने क्षण भर भी ठहर सके । एक दिन सूरिजी के कई साधु थडिले भूमि को जा रहे थे वहाँ बौद्ध भिक्षुओं की भेंट हुई कुछ मत मतान्तर के विषय भी वार्तालाप हुश्रा पर सूरिजी के साधुओं के सामने वे नतमस्तक हुये अतः उन्होंने सोचा कि यहाँ अपनी चलने की नहीं है एवं यहाँ से रफूचक्कर होना ही अच्छा है बस दूसरे दिन ही बौद्धाचार्य वहां से चल पड़े यह सूरिजी महाराज की दूसरी विजय थी। वह चतुर्मास सूरिजी का स्तम्भनपुर में हुआ जिससे कई प्रकार से धर्म की उन्नति हुई । बाद चतुर्मास के शाह धरण के निकाले हुये संघ के साथ आप श्री ने श्रीशत्रुजय तीर्थ की यात्रा की । तत्पश्चात् सौराष्ट्र देश में भ्रमन कर जैनधर्म की उन्नति एवं प्रचार को बढ़ाया तत्पश्चात् आपने वहां से कच्छभूमि को पावन बनाया : कच्छ के रहीड नडिया कोमनपुर कटीला भाद्रेश्वर माडव्यपुर धूरा हापाणादि प्राम नगरों में बिहार करते हुये कच्छ प्रदेश को जागृत किया और तदान्तर आपने सिन्ध धर। में पदार्पण किया । सिन्ध की जनता को प्रथम यक्षदेवसूरि की स्मृति हो रही थी । सिन्ध में आपके बहुत से साधु साध्वियां भी विहार करते थे। आपने हाडोली, मानपुर, शिवनगर, उच्चकोट वीरपुर, डमरेल, रहतनगर, गमपुर आदि नगरों में भ्रमण कर जनता को धर्मोपदेश से जागृत की कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई, कई मुमुक्षुओं को दीक्षा दी और कई पतिताचार वालों को जैन बनाये। उस समय सिन्ध प्रान्त में जैनधर्म की अच्छी जाहो जलाली थी । उपकेश गच्छाचार्यों का बार २ आना जाना रहा करता था और आचार्यदेव के आज्ञावृति साधुओं का तो सदेव वहाँ बिहार होता ही रहता था । इतना ही क्यों पर बहुत सं साधु तो सिन्ध धराके ही सुपुत्र थे और वह अपनी जन्मभूमि का आसानी से उद्वार भी किया करते थे। आचार्य यक्षदेवसूरि सिन्ध में बिहार करने के पश्चात् सीधे ही कुनाल-पंजाब में पधारे वहाँ भी आपके बहुत से साधु साध्वी विहार करते थे । जब सूरिजी का शुभागमन सुना तो पंजाब में एक नई चेतनता उत्पन्न हो गई। सूरिजी ने कुनाल में घूमते हुये लोहाकोट में चतुर्मास किया और मंत्री नागसैनादि १५ नर नारियों को दीक्षा दी जिसमें नागसैन का नाम मुनि निधानकलस रक्खा । तत्पश्चात् तक्षिला आदि की स्पर्शना ६४४ For Private & Personal use [सूरिजी का सिन्ध पंचाल में बिहार ary.org Jain Edo International Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६१८-६३५ करके आप श्री जी हस्तनापुर सिंहपुरादि तीर्थों की यात्रा करते हुये आप मथुरा में पधारे । वहां के श्रीसंघ ने सूरिजी का बड़ा ही शानदार नगर प्रवेश महोत्सव किया । उस समय मथुरा में बौद्धों का खूब ही जमघट रहता था और वे अपने धर्म का प्रचार भी करते थे । बौद्वाचार्य जयकेतु आपने भिक्षुओं के साथ वहां आया हुआ था फिर भी वहां जैनों का जोर भी कम नहीं था । उपकेश वशीय कइ लीगों ने व्यापारार्थ वहाँ श्राकर वास कर दिया था उनकी संख्या भी काफी थी। भला, एक नगर में दो धर्म के धुरंधर आचार्य एकत्र हों वहाँ धर्म विषय वाद हुये बिना कैसे रह सकता है । बस, मथुरा का भी यही हाल था । धर्म की चर्चा सर्वत्र गर्जना कर रही थी आचार्य यक्षदेवसूरि यों तो ३०० मुनियों के साथ मथुरा में पधारे थे पर आपके पास वीरभद्र और देवभद्र दो साधु बड़े ही प्रभावशाली एवं विद्वान थे। जैसे वे भागमादि साहित्य के धुरंधर थे वैसे ही वे विद्याओं एवं लब्धियों से भी विभूषित थे । जिसका परिचय पाठक पहले कर चुके हैं। बौद्धाचार्य को अपनी शक्ति का भान नहीं था। उसने स्थम्भनपुर का बदला लेने के लिये शास्त्राथ करने को आवाहन कर दिया जिसको आचार्य श्री ने बड़ी खुशी के साथ स्वीकार कर लिया । वहाँ के राजा बलभद्र की राम सभा में शास्त्रार्थ होना निश्चित हुआ । ठीक समय पर दोनों प्राचार्य अपने विद्वान् शिष्यों के साथ राज सभा में उपस्थित हुये । बोद्धों का सिद्धान्त क्षगिकवाद था तब जैनियों का सिद्धान्त था स्याद्वाद । बौद्ध सब पदार्थों को क्षणिक स्वभाव वाले बसलाते थे तब जैन प्रत्येक पदार्थ को द्रव्य गुण पर्याय संयुक्त प्रतिपादित करते थे : द्रव्य गुण नित्य अक्षय हैं तब पर्याय क्षणिक है। सूरिजी की अध्यक्षता में पडित वीरभद्र और देवभद्र ने आगम एवं युक्ति प्रमाण से अपनी मान्यता को दृढ़ता के साथ साबित कर बालाई और साथ में बौद्धों के क्षणक वाद का इस प्रकार खण्डन किया कि विचारे क्षणिक वादी बौद्ध उनके सामने ठहर ही नहीं सके । आखिर विजय माला जैनियों के ही कंठ में सुशोभित हुई और बौद्धों को नत मस्तक होना पड़ा अर्थात् जैनों का विजय डंका सर्वत्र बजने लगा। सूरिजी महाराज ने श्रीसंघ के अत्याग्रह विनती से मथुरा में चतुर्मास कर दिया जिससे जैनधर्म की अच्छी प्रभावना एवं उन्नति हुई कई मन्दिर एवं मूतियों की प्रतिष्टा करवाई । कई मुमुक्षुओं को जैन दीक्षा देकर उनका उद्धार किया तथा बाद चतुर्मास के सूरिजी विहार करते हुए आवंति प्रदेश में पधारे वहां सर्वत्र विहार कर जनता को धर्मोपदेश सुनाया वहां से मेदपाट को पावन बनाया। उस समय का चित्रकोट जैनों का एक केन्द्र कहलाता था जब सूरिजी मध्यगका पधारे थे तो चित्रकोट के भक्तजनों ने दर्शन के लिए तांता सा लगा दिया और अपने वहां पधारने की प्रार्थना की। सूरिजी महाराज चित्रकोट पधारे तो श्रीसंघ ने नगर प्रवेश का शानदार महोत्सव किया कारण उस समय मंत्री महामंत्री म्नापति वगैरह जितने राजकर्मचारी थे वह सब जैन एवं उपकेशवंशी ही थे फिर की ही किस बात की थी। सूरिजी का सारगर्भित व्याख्यान हमेशाँ होता था जैन जैनेतर खूब आनन्द लूट रहे थे श्रीसंघ की अति आग्रह से विनति होने से सूरिजा ने लाभालाभ का कारण जान वह चतुर्मास चित्रकोट में करना निश्चय कर लिया श्रष्टिवर्य मंत्री सादा ने बड़े ही महोत्सव पूर्वक श्रीभगवती सूत्र बचाया जिसमें मंत्रीश्वर ने ज्ञानपूजा वगरह में सवा लक्ष द्रव्य व्यय कर अनन्त पुन्योपार्जन किया इसी प्रकार अन्य लोगों ने भी लाभ हासिल किया सूरिजी के व्याख्यान का राज प्रजा पर खूब प्रभाव पड़ता था जैनाचार्यों के मथुरा में बोधाचार्य का पराजय ] For Private & Personal use Only ६५५ www.janelibrary.org Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २१८-३३५ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास व्याख्यान का मुख्य ध्येय त्याग वैराग्य और संसार की असारता बतलाने का था और हलकर्मी जीवों को आपका उपदेश लग भी जाता था आज हमें आश्चर्य होता है कि हम वर्षों तक उपदेश देते हैं कोई विरले ही दीक्षा लेते हैं तब उस जमाने में थोड़ा सा उपदेश से बहुत से लोग दीक्षा लेने को तैयार हो जाते थे इसका कारण यही हो सकता है कि उस जमाना के जीवों के क्षयोपसमथी वे लोग भाग्यशाली थे और अपने कल्याण को खरे जिगर से चाहते थे सूरिजी के चतुर्मास करने से धर्म की अच्छी उन्नति हुई कई सात पुरुष और चौदह बहनों सूरिजी के चरणों में दीक्षा लेने को तैयार हो गये चतुर्मास समाप्त होते ही जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सवादि दीक्षा की तैयारियें होने लगी । सूरिजी ने शुभ मुहूर्त और स्थिर लग्न ने उन मुमुar को विधि विधान से दीक्षा दे कर उनका उद्धार किया । तत्पश्चात वहाँ से ग्रामानुग्राम विहार करते घाट नगर में पधारे वहाँ का श्रीसंघ ने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया । सूरिजी के पास सैकड़ों साधु रहते थे जब आप बढ़ा नगर से विहार करते तब थोड़े थोड़े साधुत्रों को सर्वत्र विहार की आज्ञा दे देते थे कि कोई भी जैन बसती वाला ग्राम धर्मोपदेश से वंचित नहीं रहता था । यही कारण है कि वे जैनधर्म का प्रचार करने में अच्छी सफलता प्राप्त कर लेते थे। मेदपाट में पहले से ही सूरिजी के साधुविहार करते थे जब सूरिजी को आघाट नगर में पधारे सुना तो वे सब दर्शनार्थी आये सूरिजी ने उनके प्रचार कार्य की खूब सराहना कर उनका उत्साह को द्विगुनित कर दिया कि भविष्य के लिये दूसरे मुनि भी अपना प्रचार कार्य को बढ़ाते रहे । सूरिजी शासन तन्त्र चलाने में बड़े ही कुशल थे जिन साधुत्रों ने मेदपाट में बिहार करने को बहुत अर्सा हो गया था उनको अपने साथ में ले लिये और अपने पास के साधुओं को मेदपाट में विहार करने की आज्ञा फरमादी । सूरिजी महाराज स्वतन्त्र विहार करने वाले मुनियों में पदवीधरों को श्राव श्यकता को भी जानते थे अत: आपने इसी आघाट नगर में कई योग्य मुनियों को पदवियां प्रदान करने का भी निश्चय कर लिया था। इससे वहाँ के श्रीसंघ में हर्षका पार नहीं रहा निधानक बड़े ही त्यागी वैरागी और तपस्वी थे । श्राप पहिले तो ज्ञान सम्पादन करने में जुट गये अतः सूरिजी महाराज की पूर्ण कृपा से थोड़े ही समय में जैनागमों का अध्ययन कर लिया और साथ में व्याकरण न्याय तर्क छन्द अलंकारादि साहित्य के आप धुरंधर विद्वान बन गये तर्क वाद एवं युक्ती प्रमाण तो आपका इतना जबर्दस्त था कि वादी प्रतिवादी आपके सामने ठहर ही नहीं सकते थे । कहा भी है कि 'कर्मेरा सो धर्मेशूरा' जब आप संसार में मंत्री पद को सुशोभित करते हुये राजतंत्र चलाने में कुशल थे तो यहाँ धर्म शासन चलाने में दक्ष हों तो कौनसी आश्चर्य की बात है । सूरिजी महाराज ने मुनि निधानकलस की योग्यता पर विचार कर कुमट गोत्रिय मंत्री रणदेव के महामहोत्सव पूर्वक कई मुनियों को पदवियां प्रदान की जिसमें निधानकलस को उपाध्याय पद से विभूषित तपश्चात् सूरीश्वरजी भ्रमण करते हुए मरुधर की ओर पधार रहे थे तो मरुधर वासियों के उत्साह का पार नहीं रहा । वे पहले से ही आपश्रीजी के दर्शनों के पिपासु बन रहे थे - यह तो हम कई बार कह आये हैं कि उपकेशगच्छाचायों की धर्म प्रचार के लिये तो एक पद्धति ही बन गई थी कि वे गच्छनायकता की जुम्मावारी को अपने शिर पर लेते थे तो एक वार तो इस प्रकार प्रदक्षिणा दे ही देते थे । इसका खास कारण यह था कि उपकेशगच्छाचार्यों ने इन प्रदेशों में भ्रमन कर लाखों नहीं पर करोड़ो अजैनों को जैन बनाये । श्रतः उनको धर्मोपदेश देना एक जरूरी काम था । यद्यपि ६४६ [ मुनि निधान कलस की पदवी jailsShbrary.org Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६१८-६३५ उपकेशगच्छ के साधुसाध्वियां वहाँ सदैव विहार करते ही थे पर गच्छनायक आचार्य के पधारने से चतुर्विध श्रीसंघ में उत्साह बढ़ जाता था अतः कमसे कम एक बार तो इन क्षेत्रों में वे अवश्य पधारते थे। प्राचार्य यक्षदेवसूरि एक महान प्रभाविक आचार्य हुये । आपके आज्ञावृति हजारों साधु साध्वियां प्रत्येक प्रान्त में विहार कर महाजनसंघ का रक्षण पोषण और वृद्धि करते थे । खूबी यह थी कि इस गच्छ में एक ही प्राचार्य होते थे और वे सब प्रान्तों को सँभाल लेते थे । आचार्य यक्षदेवसूरि मरूधरमें सर्वत्र विहार करते हुए अपनी अन्तिम अवस्था में उपकेशपुर पधारे थे और वहाँ के श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक उपाध्याय निधानकलस को अपने पट्टपर स्थापन कर आप अन्तिम सलेखान एवं अनशन और समाधि पूर्वक स्वर्गवास किया पट्टावली कारोंने आपके शासन समय की कई घटनाए लिखी थी जिसमें प्राभा नगरी के जगा शाह सेठ की महत्व पूर्ण घटना का विस्तार से वर्णन किया है जिसकों संक्षिप्तसे यहाँ लिखदी जाती है। आभानगरी में बाप्पनागगोत्रीय शाह देशल बड़ा भारी व्यापारी वसता था जिसने विदेश में जहाजों द्वारा व्यापार कर करोड़ों का द्रव्य पैदा किया था । एक वर्ष बड़ा भारी दुकाल पड़ा था । शाह देसल ने करोड़ों रुपये व्यय कर गरीबों को अन्न और पशुओं को घास देकर उनके प्राण बचाये । भाग्यवशात दूसरे वर्ष भी दुकाल पड़ गया। शाह देशल का पुत्र जगा भी दानेश्वरी था । दूसरे वर्ष के दुकाल में शाह जगाने बीड़ा उठा लिया । जहाँ तक अपने पास में द्रव्य रहा वहाँ तक जहाँ जिस भाव मिला अन्न और घास मँगा कर जनता को देता रहा पर दुकाल के कारण दनियाँ एकदम उलट पड़ी थी। शाह जगाने विदेश से जहाजों द्वारा अन्न मँगाया और अपने पास जो द्रव्य शेष रहा था वह जहाजों के साथ विदेश में भेज दिया था । भाग्यवशात वापिस आते हुये जहाज पानी में डूब गया । यह समाचार मिलते ही शाह जगा निराश होगया उसके पास अब द्रव्य भी नहीं था कि कुछ दूसरा उपाय कर सके पर घर पर आये हुये लोगों को इन्कार करना भी तो जगा अपना कर्त्तव्य नहीं समझता था अर्थात् अपनी मृत्यु ही समझता था। अतः अपनी औरत का जेवर और जायदाद तक को बेच कर आये हुओं को अन्न दिया पर इस प्रकार वह कार्य कितने दिन चलने वाला था आखिर शाह जगा हताश होगया और आये हुये अन्नार्थियों को ना कहने से मर जाना अच्छा समझ कर उसने देवी सच्चायिका को प्रार्थना की कि या तो मुझे शक्ति दो कि मैं रहे हुये शेष दुकाल को निकालू या मुझे मृत्यु ही दे दीजिये । देवी सच्चायिका ने शाह जगा की उदारता सत्यता परोपकारता पर प्रसन्न होकर उसको अखूट निधान बतला दिया जिससे उसने काल का शिर फोड़ डाला । जब दुकाल के अन्त में सुकाल हुआ तो एक विराट संघ लेकर उपकेशपुर आया । जगाशाह का संघ कोई साधारण संघ नहीं था पर इस संघ मैं सैकड़ों साधु साध्वियां लाखों नर नारी और कई राजा महाराजा साथ में थे । संघपति ने उपकेशपुर पहुँच कर भगवान महावीर की यात्रा और देवी सच्चायिका का पूजन किया और याचकों को एक करोड़ रुपयों का दान दिया इत्यादि इस घटना का समय वंशावलियों में वि० सं० २२२ का बतलाया है। इस जगाशाह के विशाल दान की यादगारी में याचक लोगों ने ओसवालों की उत्पत्ति का समय बीयेबावीस लिख दिया है। वास्तव में यह समय ओसवालों की उत्पत्ति का नहीं पर जगाशाह के दान का ही समझना ही चाहिये । Jain आभा नगरी का शाह जगा ] For Private & Personal use Only www.६४७ry.org Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २१८-२३५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कारण उस समय ओसवाल शब्द का जन्म भी नहीं हुआ था इस घटना के विषय वंशावलियों में कुछ कवित्त भी मिलते हैं । यद्यपि वे कवित इतने प्राचीन नहीं है पर सर्वथा निराधार भी नहीं है । आभा नगरी थी आव्यो, जग्गो जग में भाण । साचल परचो जब दीयो, जब शीश चड़ाई आण || जुग जीमाड्यो जुगत सु, दीधो दान प्रमाण । देशलसुत जग दीपता, ज्यारी दुनिया माने काँण ।। चूप धरी चित भूप, सैना लई आगल चाले। अरबपति अपार, खडवपति मिलीया माले ।। देरासर बहु साथ खरच सामो कौण भाले । घन गरजे वरसे नहीं, जगो जुग बरसे अकाले ।। यति सती साथे घणा, राजा राणा बड़ भूप । बोले भाट विरुदावली, चारण कविता चूप । मिलीया भोजक सांमटा, पूरे संक्ख अनूप । जग जस लीनो दान दे, यो जग्गो संघपति भूप ।। दान दियी लख गाय, लखलि तुरंग तेजाला । सोनो सौ मण सात, सहस मोतियन की माला । रूपानो नहीं पार, सहस करहा करमाला। वायेवावीस भल जागियो, तुं ओसवाल भूपाला ॥ ____ जगाशाह का विवार श्री शत्रुजय गिरनारादि तीर्थों की यात्रा करने का था पर ऋतु ग्राम आगई थी अत: वे जा नहीं सके पर वहां से एक एक करोड़ रुपये दोनों तीर्थों के उद्घागर्थ भेजवा दिये और सब के साथ स्वाधर्मी भाइयों को सोने की कण्ठियों और वस्त्रों की पहरामणो देकर संघ पूजा की तत्पश्चात् संघ विसर्जन हुआ। जिस पर देव देवियों को प्रसन्नता हो वे पुन्योपार्जन करने में कमी क्यों रक्खे । शाह जगा ने इस प्रकार सुकृत कार्य करके अपना नाम अमर कर दिया था --- यह तो एक जगाशाह का हाल लिखा है पर उस जमाना में ऐसे कई दानेश्वरी हुए हैं और उन की इस प्रकार उदारता के कारण ही इस जाति की साधारण जनता ही नहीं पर बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने वही भारी इज्जत बड़ाई और सन्मान कर अनेक उपाधिों से भूषित किये थे। पट्टावलियो वंशावलियों आदि चरित्र ग्रन्थों में मूरिजी के शासन में अनेक भावुकों में संसार को असार जान कर दीक्षा को स्वीकार की थी जिनके कतिपय नाम १-भाडव्यपुर के भूग्गिोत्रीय हरपाल ने जैन दीक्षा ली २-पतालानी के डिडूगौत्रीय चूड़ा ने , ३-पाड्यपुरा के सुघड़गोत्रीय पहाड़ ने ४-नागपुर के चारड़गोत्रीय खंगार ने ५-संखपुर के भलोटगौत्रीय खीवसी ने ६-भावाणी के श्री श्रीमाल गौ० गेंदादि ९ जने ७-करगोट के चोरडिया जाति श्रादू ने , ८-खटकुंप के भाद्रगोत्रीय शंख ने ९-भावोली के प्राग्वटीय हप्पा ने , * यह कवित्त इतना पुराना तो नहीं है पर चली आई दंतकथा के अनुसार किसी पिछले कवि ने उस कहावत को कविता का रूप दे दिया हो तो कोई असंगत नहीं कहा जा सकता है। Jain Ed & scnternational For Private & Personal use Only [ सरीश्वरजी के हाथों से दिया word Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६१८-६३५ १.--- हदरा के प्राग्वटीय सारंग ने जैन दीक्षा ली ११-स्तम्मनपुर के श्रीमाल वंशीय सहजण ने १२-- कुलिया के श्रीमाल वंशीय रूपा ने , १३ -- वाजोणा के प्राग्वटीय नहार ने १४-हालोर के मलगौत्रीय लाडकने १५-वीरपुर के श्रेष्टिगौत्रीय मथु ने १६-नांदिया के सुचेति गौत्रीय नोषण ने १७-लापाणी के बलाहागौत्रीय कर्मा ने १८-शिवनगर के ब्राह्मण शंकर ने १९-सालीपुर के राव राजपूत क्षेत्रसिंह ने । २०-वनजोरा के श्रीष्टिगौत्रीय यशदेव ने २१-- तक्षिला के आदित्य नागगौ० जावड़ ने २२-माथांणी के तप्तभट्ट गौ० धर्मण ने । २३-मथुरा के ब्राह्मण पुरुषोत्तम ने २४--- अगरोहा के चिंचट गौत्रीथ लाधा ने २५-मुजपुर के कनोजिया गो. आमदेव ने २६ --विराट के लघुष्टि गौ०। वीरम ने २७ --- उज्जैन के कर्णाट गौ० खंगार ने , २८-चित्रकोट के श्रेष्टि गौत्रीय गोलु ने , २९-मेदनीपुर के आदित्यनाग गौ० माल्ला ने मूरिजी के शासन में तीर्थों के संघ निकालने वाले १-उपफेशपुर से श्रेष्टिगौत्रीय शाह मुदा ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला साधर्मी भाइयों को सोने का जनेऊ और वस्त्रों की पेहरामणि दी सात यज्ञ (जीमणवार स्वामिवात्सल्य ) किये। २-मांडव्यपुर से डिडुगौत्रीय जाला करमण ने श्री शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला। ३-कुर्चपुर नगर से वलाह गौत्रीय मुदा ने श्री शत्रुञ्जय गिरनारादि तीयों का संघ निकाला शत्रुश्चय पर ध्वज महत्सव में एक लक्ष द्रव्य खर्च किया साधर्मा भाइयों को पांच सेर लड्ड में पांच पांच मुहरों की पेहरामणी दी तीन यज्ञ किये। ४-चन्द्रावती नगरी से प्राग्वट लाधा ने श्री सम्मेत शिखर तीर्थ का संघ निकाला साधर्मी भाइयों को सोना की थाली कटोरी की लेन दी और सात बड़ा यज्ञ किया जिसमें पुष्कल द्रव्य खर्च किया।। ५-पद्मवाती ( पुष्कर ) से मोरक्षगौत्रीय लाल्ला वाला ने श्री शत्रुजप का संघ निकाला एक सेर का लड्ड और एक एक सोना की मुहर तथा स्त्री पुरुषों के सब वस्त्रों की पेहरामण दी। ६- गरवाणी ग्राम से चरड़ गोत्रीय धरण ने श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ का सघ निकाला तीर्थ पर ध्वज सूरीश्वरजी के हाथों से दीक्षा] ६४९ AnnanoranAnamiARAaryaanemiuyiwumanture Jain Education Insational Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २१८-२३५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास महोत्सव में तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया सात यज्ञ ( स्वामिवात्सल्य ) कर पुरुषों को कडा कंडी और बहनों को सोने के चूड़ा की लेन दी । अहा ह कैसे पुरुष इस पृथ्वी पर हो गये हैं ? ७-स्तम्भनपुर से प्राग्वट रांण में श्री शत्रुजय का संघ निकाला पांव लक्ष द्रव्य व्यय किया। ८- अाघाट नगर से वाप्प नाग गौत्रीय खेमा ने श्री शत्रुञ्जय का संघ निकाला इस संघ में पट्टावलीकर चौदह हस्ती होना लिखा है शाह खेमा ने सात लक्ष द्रव्य व्यय किया। ९-हसावली नगरी के सुंचंतिगोत्रीय शाह नारायण ने श्री सम्मेतशिखरजी का संघ निकाला इस संघ में चौबीस हस्ती १२४ देरासर होना लिखा है शाह खेमा ने सात लक्ष द्रव्य व्यय किया । १०-मथुरा नगरी से कर्णाट गौत्रीय शाह कुंभा ने श्री शत्रुञ्जय तीर्थ का संघ निकाला जिसमें आपने स्वाधर्मी भाइयों को सोना की कण्डियों की लेने दी तीन यज्ञ किये। इनके अलावा भी कई प्रान्तों से सूरिजी एवं आप के शिष्यों के उपदेश से कई महानुभावों ने संघ निकाल कर तीर्थों की यात्रा की उस समय तीर्थों का संघ निकालना और साधर्मी भाइयों को पेहरामणि जितनी अधिक देना उतना ही अधिक महत्व का कार्य समझा जाता था वह जमाना ही ऐसा था कि उन लोगों के पुन्य से आकर्षित हुई लक्ष्मी उन पुन्यशालियों के घर में दासी होकर स्थिर रहती थी-- आचार्य श्री ने कई बादियों के साथ राज सभाओं में शास्त्रार्थ कर जैन धर्म की विजय विजयंति पताकाएं फहराई थी तब ही तो उस जमाने में जैनधर्म उन्नति के उच्चे शिखर पर पहुँचगया था जहां देखों जैन धर्म का ही लाहो माना जाता था वेदक धर्म तो अन्तिम श्वास लेता था प्राचार्य यक्षदेव मूरि के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं १-उँकार नगर के लघुश्रेष्टि माथुर के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई २.-भाकोड़ी ग्राम के सुचंती माला के , पार्श्वनाथ , , ३-श्रानन्दपुर के बाप्पनाग धना के " , " " ४-भवानी प्राम के चरड गौ• शंभु के , महावीर ५-डावगग्राम के मल गो० शाकला के , ६-इक्षुवाड़ी के लुग गौत्रीय रोरा के -पीथावाड़ी के भाद्र गौत्र दोला के ८-गिरवरपुर के चावट गौ० कोका के , शान्तिनाथ ९-पालिकापुर के कर्णाट गौ० जेकरण के , महावीर १०-खटवूपनगर के कुमट गौ० नारा के , ११-हर्षपुर के चरड़ गौ० पोमा के १२-दान्तिपुर के बाप्पनाग भेकरण के , आदीश्वर , १३--जंगाल के श्रेष्टीगोत्रीय जोगा के , पाश्वनाथ , १४-धौलपुर के भूरि गौत्रीय देदा के १५-धरणीग्राम के चिंचट गौत्रीय माल्ला के , महावीर , , Jain Educu Oternational सूरिजी के शासन में संघ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवनार का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६१८-६३५ १६-रूपनगर के तप्तभट्ट गो० साहरण के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई १७-चौरग्राम के आदित्यनाग मलहर के , १८-खीमड़ली प्राम के भाद्र गौ० नारायणके ,, पार्श्वनाथ , , १९---रतपुर के कनोजिया गौ० हरदेव के , , , , २०-चैनपुरा के कुमट गौत्रीय केल्हण के ,, , , २१- वागडीया प्राम के प्राग्वट वंशीय फूवाके, , , २२-स्तदेवपुर के प्राग्वट वंशीय डांवार के , , , २३-चित्रकीट के प्रग्वट वंशीय जिनदास के , सुमतिनाथ , " २४-जाबलीपुर के प्राग्वट वंशीय विंदा के , चन्दाप्रभु , २५-तक्षिला के श्रीमाल वंशीय राजा के ., महावीर , २६-जाकोटनगर के ,, ,, दूधा के , , , , २७-उमरोल प्राम के श्रीमाल वंशीय देवा के ,, , , , , इनके अलावा कइ घर दगेसर को भी प्रतिष्टाएं करवाई थी आचार्य श्री ने कई विधि विधान एवं तात्विक विषय के ग्रन्थ निर्माण करके भी जैन समाज पर महान उपकार किया है वर्तमान में शायद वे प्रन्थ उपलब्ध न भी हो पर पट्टावलियों में कई प्रन्थों के नाम जरूर मिलते हैसंचेती गोत्र के थे वे भूषण, यक्षदेव वर सरी थे। ज्ञाननिधि निर्माण ग्रन्थों के, कविता शक्ति पुरी थे ॥ प्रचारक थे जैन धर्म के, अहिंसा के वे स्थापक थे । उज्ज्वल यशः अरु गुण जिनके, तीन लोक में व्यापक थे ।। ॥ इति श्री भगवान् पार्श्वनाथ के २२ ३ पट्ट पर आचार्य यक्षदेवसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुये ।। सूरीश्वरजी के हाथों से प्रतिष्ठाएं ] Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २३५-२६० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २३. प्राचार्यश्री कक्कसूरि (चतुर्थ ) आदित्यस्तु स नाग गोत्रगसुधीः ककः सुसूरिनुतः । पट्शास्त्री विधिना दधौ वनितया साकं स्वदीक्षां च यः ।। श्रुत्वा गर्जन तर्जनं सुविपुलं शत्रोः कुलं पाद्रवत् । जैनादेश विशेषतां तु ततवान् तेनायमस्ति स्तुतः ।। WARA आचा चार्य श्रीषकसूरिश्वरजी महाराज धर्मप्रचार करने में अद्वितीय वीर थे । आपका अखंड यश और प्रकाण्ड प्रभाव जनता में खूब फैला हुआ था । आपके अलौकिकगुण करने में वृहस्पति Sear भी असमर्थ था श्रार्य्य देशों में कुनाल एक प्रसिद्ध देश है जिसकी वीर प्रसूति भूमि पर लोहाकोट नामक का स्वर्ग सदृश नगर है इस नगर में मंत्री पृथुसेनादि कई नररत्न उत्पन्न हुए जिन्हों के जीवन पाठक पिछले प्रकरणों में पढ़ आये हैं उन पृथुसेन की संतान परम्परा में कनक सेन नामक पुरुष हुश्रा जो धनमें कुबेर और बुद्धि में वृहस्पति की स्पदा करता था आपके गृहदेवी का नाम प्रभावती था आपका दम्पति जीवन बड़े ही सुख शान्ति में व्यतीत हो रहा था मंत्री कनकन के शिर पर राज कार्य की जुम्मावारी होने पर भी वह सदैव धर्म करनी में तत्पर रहता था एक समय प्रभावती देवी ने अर्द्धनिशा में नागेन्द्र का शुभ स्वप्न देखा और उस स्वप्ने की बात अपने पतिदेव को कही जिसको सुनकर मंत्री ने बड़ा ही हर्ष मनाया जिन मदिरों में स्नानादि महोत्सव किया माता प्रभावती को गर्भ के प्रभाव से अच्छे २ दोहले उत्पन्न हुए जिसको मंत्री ने बड़ी खुशी के साथ पूर्ण किये जब माता प्रभावती ने शुभ समय पुत्ररत्न को जन्म दिया तो मंत्री के हर्ष का पार नहीं रहा उसने अपने वहाँ मंगल मनाता हुश्रा धर्म कार्यों में वृद्धि की एवं याचकों को पुष्कल दान दिया और महोत्सव पूर्व बारहवें दिन नागेन्द्र के स्वप्नानुसार अपने नवजात पुत्र का नाम नागसेन रक्खा । मंत्रीश्वर ने अपने प्यारे पुत्र के पालन पोषण का अग्छा प्रबन्ध किया कि उसके स्वास्थ्य में किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचे पूर्व जमाना में बच्चों के खेल कूद भी ऐसे होते थे कि उसके संस्कार शुरु से ही अच्छे जम जाते थे मंत्री कनकसेन और प्रभावती शुरु से ही जैन धाँउपासक थे इतना ही क्यों पर वे धर्म कार्य में बड़ी रूची एवं लग्न वाले थे बच्चों के शुरु से अध्यापक उनके माता पिता ही होते हैं यदि वे अपने बाल बच्चों के संस्कार अच्छे बनाना चाहे तो सहज ही में बना सकते हैं पर वर्तमान इस ओर लक्ष बहुत कम दिया जाता है नतीजा हमारे सामने है । अस्तु । नागसेन जब आठ वर्ष का हुआ तो उसको विद्याध्यान के लिये पाठशाला में प्रवेश किया नागसेन ने पूर्व जन्म में ज्ञानपद एवं सरस्वती देवी की उज्वल भावों से आराधना की थी कि उसके लिये विद्या देवी स्वयं वरदाई होगई थी वह अपने सहपाठियों से सदैव अप्रेश्वर ही रहता था यह बात सच्च है कि पूर्वभव के संस्कार मनुष्य के साथ ही जन्म ले लिया करते हैं। जब नागसेन युवकावस्था में पदार्पण किया तो मंत्री कनकसेन ने उसी नगर में बाप्पनाग गौत्रीय ६५२ [लोहाकोट नगर में मंत्री नागसेन Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूर का जीवन ) [ औसवाल संवत् ६३५ -६५० शाह खेमा की लिखी पढ़ी सुशील कन्या नन्दा के साथ बड़े ही महोत्सव के साथ शादी करदी बस मंत्री ने संसार में करने योग्य कार्य कर लिया अब वह आत्मकल्याण करना चाहता था। एक समय मौका देख मंत्री ने राजा से अर्ज की कि हजूर ! मैं अब आत्म कल्याण करना चाहता हूँ श्राप मंत्री पद किसी योग्य पुरुष को दे दीजिये ? राजाने कहा मंत्री यह पद तुमारे घराना में रहता आया है तुमारे पूर्वजों से ही राज की अच्छी सेवा करते आये हैं और तुम्हारा घराना ही राज में विश्वास पात्र है अतः यह पद तो तुमारे ही खानदान में रहना चाहिये तुम नहीं तो तुमारे पुत्र को मुकर्रर करदें । श्रतः राजा के आग्रह से नागसेन को मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया नागसेन भी इस पद के योग्य था उसने मंत्री पद की जुम्मावारी अपने शिर पर ले ली बस मंत्री कनकसेन सब खट पटों को छोड़ कर धर्माराधना में लग गया. मनुष्य जन्म का सार भी यही है कि कम से कम भुक्त भोगी होने पर तो आत्म कल्याण में लग ही जाना चाहिये । मंत्री नागसेन के क्रमशः सात पुत्र और दो पुत्रियें हुई और मंत्री ने सब की शादियें वगैरह भी करदी । तो मंत्री अपना आत्म कल्याण करना चाहता था। ठीक है "यहशी भावना तदृशी सिद्धि र्भवति” मनुष्य की जैसी भावना होती है वैसा हा कार्य बन ही जाता है पर भावना होनी चाहिये सच्चे दिल की एक समय आचार्य श्रीयक्षदेवसूरि पंजाब में विहार करते हुए क्रमशः लोहाकोट नगर में पधारे श्रीसंघ ने आपका अच्छा स्वागत किया । मत्री नागसेन ने तो और भी विशेष आनन्द मनाया। सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था दार्शनिक तात्विक एवं संसार की असारता कुटुम्ब की स्वार्थकता लक्ष्मी की चंचलता आयुष्य की अस्थिरतादि पर अधिक जोर दिया जाता था । त्यागियों का व्याख्यान भी त्याग वैराग्य मय होता है श्रापश्री के व्याख्यान का जनता पर बड़ा भारी असर पड़ता था जिसमें भी मंत्री नागसेन तो सूरिजी का व्याख्यान सुन कर मुग्ध ही बन जाता था मंत्री बिना नागा हमेशाँ व्याख्यान सुनता था वह भी केवल व्यसन रूप ही नहीं पर व्याख्यान पर बराबर अमल भी करता था एक दिन मन्त्री ने पौषध व्रत किया था समय मिलने पर मन्त्री सूरिजी के पास गया और अर्ज की कि गुरुदेव ! हम लोगों का कैसे उद्धार होगा हम जान बूझ कर मोह रूपी किचड़ में फंस कर जिन्दगी व्यर्थ सी गमा रहे हैं। हम व्याख्यान सुनते हैं और समते भी हैं कि जो सामग्री इस समय मिली है इसका सदुपयोग न करें तो फिर बार बार ऐसी उत्तम सामग्री का मिलना मुश्किल है । पर न जाने कर्मों का कितना जोर है कि हम कर नही सकते है । सूरिजी ने फरमाया मंत्रीश्वर आपका कहना सत्य है कि जो आत्म कल्याण के लिये इस समय अनुकूल सामग्री मिली है वैसी बार २ मिलना कठिन है। इतना ही क्यों पर मैं तो यह भी समझना हूँ कि इस प्रकार के परिणाम आना भी कमों का जबरदस्त क्षयोपशम है और इसको थोड़ा सा बढ़ाया जाय तो सुविधा से आत्म कल्याण हो सकता है। मंत्रीश्वर ! शास्त्रकारों ने फरमाया है कि संसार के ७२ कलाओं में विज्ञ हो गया हो पर एक धर्म कला की ओर लक्ष्य नहीं है तो वे सब कर्म बन्ध का ही कारण होती हैं। देखो हमारे पास बहुत से बाल ब्रह्मचारी साधु हैं। ये वाल्यावस्था में ही दीक्षा लेकर आत्म कल्याण में लग गये हैं तो आप तो मुक्त भोगी हैं। संसार में करने योग्य सब कुछ कर लिया है। अब तो आपको संसार को तिलाञ्जलि देकर आत्म-कल्याण करना चाहिए। आपके पूर्वज धर्मसैन ने पूज्याचार्य रत्नप्रभसूरि के पास दीक्षा लेकर सुरिपद को सुशोभित किया था । औरस्वात्मा के साथ अनेक जीवों का मंत्री नागसेन और सूरिजी ] ६५३ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २३५-२६० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उद्धार किया था। उनकी संतान परम्परा में श्राप हैं । अतः आप शीघ्र ही सावधान हो जाइये । श्राप समझदार के लिये इतना ही कहना पर्याप्त है । बस, आत्मा निमित्त वासी होता है । उपादान कारण मंत्रीजी का सुधरा हुआ था निमित्त मिल गया सूरिजी का मंत्री ने कहा अच्छा गुरु महाराज मैं इसका विचार अवश्य करूंगा। जब मंत्री संस्तारा पौरषी पढ़ रहा था तो उसमें निम्न गाथा आई कि: ' एगोsहं नत्थि में कोइ नाहमन्नस्स कस्सई । एवं अदीणमणसो आप्पाण मणु सासई || एगो मे सासओ आप्पा नाथ दंसण संजु । सेसा में बाहरा भावा सव्य संजोग लक्खणा ॥ संजोग मूला जीवाणं पत्ता दुक्ख परंपरा । तम्हा संजोग संबंधं सव्वंतिविहेण बोसिरिअं ||" इन गाथानों पर मंत्री ने खूब विचार किया कि मैं अकेला हूँ । *सार में मेरा कोई नहीं है । संसार दुःख का घर है और इस संसार के कारण ही जीव दुख परम्परा का संचय कर दुःखी बनता है । मेरा तो केबल ज्ञानदर्शन ही है इत्यादि भावना के साथ शयन किया तो अर्द्ध निद्रा के अन्दर मंत्री क्या देखता है कि आप सूरिजी के कर कमलों से दीक्षित ही नहीं पर सूरिपद प्रतिष्ठत हुआ है जब मनुष्य का कल्याण का समय आता है तब सर्व निमित्त कारण अच्छे मिल जाते हैं । मंत्री नागसैन ने सुबह पारणा भी नहीं किया और सबसे पहले राजा के पास जाकर अपना इस्तीफा दे दिया। राजा ने कहा नागसैन ऐसा क्यों ? मंत्री ने कहा हजूर मुझे बड़ा भारी भय लगता है । दरबार कहा मेरे राज्य में तुझे क्या भय है ? मंत्री ने कहा हुजूरभय मोह रूपी पिशाच का है । राजा ने कहा क्या तू संसार से डरता है ? हाँ हुजूर । राजा ने कई तो फिर क्या करेगा ? मंत्री - मुरुदेव के चरणों की सेवा करूंगा । राजा - यह तो संसार में रहकर भी कर सकता है ? मंत्री - संसार में रहकर पूर्ण सेवा नहीं हो सकती है ? राजा -- - तो क्या तू सदैव के लिए गुरु की सेवा में रहना चाहता है ? मंत्री -- हाँ, हुजूर मेरी इच्छा तो ऐसी ही है। 1 राजा-मंत्री ! इसके लिए इतनी जल्दी क्या है, ठहर जाओ । वृद्धावस्था आने दो ? मंत्री - हजूर ! काल का क्या भरोसा है कि वह कब उठा कर ले जाय । राजा तो एक दम मंत्र मुग्ध बन गया कि श्राज मंत्री क्या बात कह रहा है ? एक ही रात्रि में इसको क्या भ्रम हो गया है । अतः राजा ने कहा मंत्री ! तुमने अपने कुटुम्बियों को तो पूँछ लिया है न ? मंत्री - इसमें कुटुम्ब को पूछने की क्या जरूरत और कुटुम्ब तो स्वार्थ का है वह कब कहेगा कि आप हमको छोड़ कर सदैव के लिये अलग हो जाय । राजा-मंत्री ! यह यकायक तुम को कैसे रंग लग गया ? मंत्री - गुरु महाराज की कृपा 1 राजा और मंत्री की बातें हो रही थीं उसी समय मंत्री का पुत्र बुलाने को श्राया और कहने लगा कि पारणा की तैयारी हो गई है, पधारिये । आप पारणा करावें माता वगैरह सब राय देख रहे हैं ६५४ [ राजा और मंत्री नागसेन Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ६३५-६५० राजा ने कहा देवसैन ! तुम्हारा पिता तो आज मंत्री पद का इस्तीफा दे रहा और है कहता है कि मैं संसार को छोड़ देगा । मुझे तो इस वातका बड़ा ही आश्चर्य होता है देवसैन-नहों हजूर ! पिताजी के सिर पर कितना कार्य रहा हुआ हैं। अभी तो मेरे छोटे भाई बुद्धसैन का विवाह का कार्य चल रहा है । राजा-भला तू पूछ कर तो देख यह क्या कहता है । देवसैन-पधारिये, पारणा का टाइम हो गया है । नागसैन-हजूर मैं जाता हूँ। राजा-हाँ, तुम जाओ पर तेरा इस्तीफा मंजूर नहीं किया जाता है । मंत्री-यह आपको मर्जी है पर मैं तो अब न इस पद पर रहूँगा और न मेरा यहाँ आना ही बनेगा। देवसैन ने सुना तो उसके दिल में कुछ शंका हुई कि यह क्या बात है । खैर, पिताजी को लेकर घर पर आया । मंत्री ने परमेश्वर की पूजा कर पारणा किया। इतने में तो सब कुटुम्ब में यह बात फैल गई कि मंत्रीश्वर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और सूरिजी के पास दीक्षा लेने को तैयार है पर स्वार्थ के सरदार कुटुम्ब वाले यह कब चाहते थे कि हमारे शिरनायक हमको छोड़ कर दीक्षा ले लें । उन्होंने बहुत कुछ कहा आखिर में कहा बुद्धसैन का विवाह प्रारम्भ किया है तो यह तो आप अपने हाथों से करलें। मंत्री ने कहा कि मैं तो अपने किये हुये विवाह को भी छोड़ता हूँ तो मैं किसका विवाह करूं । मैं तो आज ही सूरिजी के पास दीक्षा ले लूगा इत्यादि । आखिर जाना और मरना किसके कहने से रुक सकता है । राजा ने देवसैन को मंत्री पद दिया और देवसैन ने अपने पिता की दीक्षा का बड़ा शानदार महोत्सव किया । सूरिजी के प्रभावशाली उपदेश से मंत्री के साथ कई १५ नरनारी दीक्षा लेने को तैयार हुये और सूरिजी ने उन भावुकों को विधि विधान से भगवती जैनदीक्षा प्रदान की। और नागसैन का नाम निधानकलस रख दिया। मुनि निधानकलस की योग्यता देख सूरिजी ने श्राघाट नगर में उपाध्याय पद और उपकेशपुर में सूरि पद से विभूषित कर आपका नाम ककसूरि रख दिया था। ककसूरि इस नाम में ऐसा चमत्कार रहा हुआ है कि सूरि पद प्रतिष्ठित होते ही आप एक विजयी सुभट की भांति जैनधर्म के प्रचार के निमित्त जुट गये। पूर्व जमाने में आचार्य पद एक महत्व का पद समझा जाता था जिसको यह पद अर्पण किया जाता था पहिले खूब परीक्षा की जाती थी तथा पद लेने वाला पहिले इस पद की जिम्मेदारी को ठीक तौर पर समझ लेता था और अपना कर्तव्य करने में वह सदैव तत्पर रहता था तब ही वह पदवी शोभायमान होती थी। श्राचार्य कक्कसूरि ने अपने शिष्यों के साथ उपकेशपुर नगर से विहार कर दिया और मरुधर में सर्वत्र भ्रमण कर जनता को धर्मोपदेश देकर सत्पथ पर लाने का खूब प्रयत्न किया। और उसमें आपको सफलता भी खूब ही मिली। सच्चे दिल और उज्वल भावना से किया हुआ कार्य शीघ्र ही होता है। एक समय सूरिजी विहार करते हुये जा रहे थे तो एक अटवी में बहुत से लोग एकत्र हुये थे, वे केवल हलकी जातियों के ही नहीं पर उनमें ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य भी शामिल थे। हां जैनाचार्यों के प्रयत्न से मरुधर में सर्वत्र अहिंसा धर्म का प्रचार हो गया था तथापि कई-कई स्थानों में उन हिंसकों का अस्तित्व मंत्री नागसेन की दीक्षा ६५५ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २३५-२६० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रह भी गया था और वे लोग ग्राम नगरों में नहीं पर पर्वतों की श्रेणियों एवं जंगलों में जाकर देवी पूजा के नाम पर पशु हिंसा कर मांस मदिरा सेवन करते थे । यहां सब एकत्र होने का भी यही कारण था । इत्यादि । भाग्यवसात् श्राचार्य कक्कसूरिजी वहां जा निकले और उन निरपराधी मूक् प्राणियों को देख आपका हृदय दया से लबालब भर गया और सूरिजी ने अमेश्वर लोगों को कहा महानुभावो ! आप यह क्या कर रहे हो ? आपकी आकृति से तो आप किसी खानदानी घराने के पाये जाते हो फिर समझ में नहीं आता है. कि इन निरपराची प्राणियों को यहां एकत्र क्यों किया है जंगली लोगों ने कहा महात्माजी आप अपने सूरिजी ने कहा कि महानुभावो ! मुझे आप पर और इन मूक प्राणियों पर करुणा आ रही है । श्रतः मैं आपको कुछ कहना चाहता हूँ । उन जंगलियों के अन्दर कई ऐसे भी मनुष्य थे उन्होंने कहा महात्माजी ! आप क्या कहना चाहते हो जल्दी से कह दीजिये । रास्ते जावें आपको इससे क्या प्रयोजन है ? सूरिजी -मैं आपसे इतना ही पूछना चाहता हूँ कि आपके किसी देवगुरु का इष्ट है या नहीं ? जंगली - इष्ट क्यों नहीं हम ईश्वर का इष्ट रखते हैं और यथावकाश ईश्वर का भजन स्मरण भी करते हैं । सूरिजी -- तब तो आप ईश्वर के कथन को भी मानते होंगे ? जंगली - क्यों नहीं हम ईश्वर के बचनों को बारबार मानते हैं । सूरिजी - यह भी आपको मालूम है कि ईश्वर ने आपके लिये क्या कहा है ? जंगली - ईश्वर ने क्या कहा है ? सूरिजी -- लीजिये मैं आपको ईश्वर का कथन सुना देता हूँ । सब लोग तमाशगिरि की भांति ईश्वर का सन्देश सुनने को एकत्र होगये और सूरिजी उनको कहने लगे । मार्यमाणस्य हेमाद्रिं राज्यं चापि प्रयच्छतु । तदनिष्टं परित्यज्य जीवो जीवितुमिच्छति ।। वरमेकस्य सत्वस्य प्रदत्ताऽभयदक्षिणा | न तु विप्रसहस्रेभ्यो गोसहस्रमलङ्कृतम || हेमधेनुधरादीनां दातारः सुलभा भुवि । दुर्लभः पुरुषो लोके यः प्राणिष्वभयप्रदः ॥ महतामपि दावानां कालेन क्षीयते फलम् भीताभयप्रदानस्य क्षय एव न विद्यते ॥ नातो भूयस्तमो धर्म: कश्चिदन्योऽस्ति भूतले, प्राणिन | भयभीतानामभयं यत्प्रदीयते । अभयं सर्वसत्वेभ्यो यो ददाति दया परः, तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयमेव न विद्यते ।। यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु, तस्य ज्ञानं च मोक्षश्च न जटाभस्माचीवरे अमेध्यमध्ये कीटटस्य सुरेन्द्रस्य सुरालये, समाना जीविताकाङ्क्षा समं मृत्युभयं द्वयोः || यो यत्र जायते जन्तुः स तत्र रमते चिरम्, अतः सर्वेषु जीवेषु दयां कुर्वन्ति साधवः । यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भारत । तावद्वर्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुघातकाः || तामिस्रगन्धतामिसं महारौखरौखम्, नरकं कालसूत्रं च महानरकमेव च ॥ ६५६ [[ आचार्य ककसूरि और जंगली Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ६३५-६६० न हिंसासदृशं पापं त्रैलोक्ये सचराचरे, हिंसको नरकं गच्छेत् स्वर्ग गच्छेदहिंसकः ॥ धर्मो जीवदयातुल्यो न क्वापि जगतीतले, तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कार्या जीवदया नृभिः । एकतः क्रतवः सर्वे समग्रवर दक्षिणाम्, एकतो भयभीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणम् ।। सर्वे वेदा न तत्कुयुः सर्वे यज्ञाच भारत !, सर्वे तीर्थाभिषेकाच यत्कुर्यात्प्राणिनां दया । अहिंसा परमोधर्मः अहिंसैव परं तपः, अहिंसैव परं दानमित्याहुमुनयः सदा ॥ ईश्वर ने फरमाया है कि किसी जीव को मारोगे तो तुमको भविष्य में नरक के दुःख भुक्तने पड़ेंगे और जन्म जन्म में तुमको भी इसी प्रकार मरना पड़ेगा अतः तुम जीवों की रक्षा करो जीवों की रक्षा जैसा कोई धर्म ही नहीं है । ईश्वर ने यह भी कहा है कि तुम जीवों का मांस भक्षण मत करो । जैसे कि यः स्वार्थ मांसपचनं कुरुते पापमोहितः, यावन्ति पशुरोमाणि तावत्स नरकंब्रजेत । परमाणेस्तु ये प्राणान्स्वान्पुषान्ति हि दुर्धियः, आकल्पं नरकान्भुत्तत्वा भुज्यन्ते तत्रतैः पुनः ।। __ सज्जनों ! पूर्व महर्षियों ने मांस के साथ मदिरा का भी निषेध किया है देखिये सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवणों सुरां पिवेत्, तया सकाये निर्दग्धे मुच्यते किल्मिषात्ततः। तस्माद् ब्राह्मण राज्यन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिवेत्, गौडी माध्वी च पैष्टी च विज्ञया त्रिविधा सुरा॥ मदिरापान मात्रेण बुद्धिर्नश्यति दूरतः, वैदग्धी बन्धुरस्यापि दौर्भाग्यणेन कामिनी । मद्यपस्य शवस्येव लुठितस्य चतुष्पथे, मूत्रयन्ति मुखे श्वानो व्यात्त विवरशङ्कया ।। विवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शोचं दया क्षमा, मद्यात्मलीयतें सबं तण्या वह्निकणादिव । दोषाणां कारणं मयं मद्य कारणमापदाम् , रोगातुर इवापथ्यं तस्मान्मयं विवर्जयेत् ॥ इत्यादि सूरिजी ने निडरता पूर्वक उन जघन्य कर्मों का फल नरकादि घोर दुःखों का अतिशय वर्णन कर उन भद्रिकों की सरल आत्मा में वे भाव पैदा कर दिये कि थोड़े समय पूर्व जिस निष्ठुर कर्म को अच्छा समझते थे उसी को वह लोग घृणा की दृष्टि से देखने लगे और वे बोल उठे कि महात्माजी ! हम लोगों ने तो यही सुना था कि देवी को बलि देने से वह संतुष्ट होती है जिससे मनुष्यों का उदय और विश्व की शान्ति होती है । सूरिजी ने कहा महानुभावो ! जिस पदार्थ को देख मनुष्य भी घृणा करता है उससे देवता कैसे संतुष्ट होते होंगे। यह तो किसी पेट भरे मांस लोलुपी ने देवताओं के नाम से कुप्रथा चलादी है और भद्रिक लोग उन पाखण्डियों के जाल में फंस कर इस प्रकार के जघन्य कर्म करने लग गये हैं। इस लिये ही तो दयालु परमात्मा ने जगत् के जीवों के काल्याण के लिये उपरोक्त हुक्म फरमाया है । यदि आप परमात्मा के प्यारे भक्त हैं तो आपको परमेश्वर का हुक्म मानना चाहिये । ___ उन लोगों ने कहा महात्माजी ? हम परमात्मा के हुकुमको नहीं मानेंगे तो और किसके हुकुम को मानेंगे ? सूरिजी-यदि आप परमात्मा का हुकुम मानते हो तो इन पशुओं को छोड़दो और अहिंसा धर्म को स्वीकार करलो इससे परमात्मा खुश होगा और आपका कल्याण भी होगा । हम जो कहते हैं वह आप के अच्छा के लिये ही कहते हैं। दूसरे हमको आपसे कोई स्वार्थ नहीं है। सूरीश्वरजी का उपदेश ८३ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २३५-२६० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बस फिर तो देरी ही क्या थी सब पशुओं को छोड़ दिये कि वे सूरिजी को आशीर्वाद देते हुये अपने अपने स्थान में जाकर अपने बाल बच्चों से मिले । और सूरिजी को आशीर्वाद देने लगे। सूरिजीने उन आचार पतित लोगों की शुद्धिकर अहिंसा परमोधर्म के उपासक बनाये । तत्पश्चात् सूरिजीने उस मण्डल के छोटे बड़े प्रत्येक ग्रामों में विहार कर हजारों मनुष्यों को पापाचार छुड़ा कर जैनधर्मोपासक बना लिये । आज बेतुकी बातें करने वालों को यह मालूम नहीं है कि उन प्राचार्यों ने किस प्रकार भूखे प्यासे रह कर एवं भनेक कठिनाइयों और परिसहों को सहन करके वाममार्गीरूप बन किले को भेद कर अहिंसा एवं जैनधर्म का प्रचार किया था। आचार्य कक्कसूरि उस मण्डल में घूमते हुये चन्द्रवती पधारे वहाँ के श्रीसंघ की विनती से वह चतुमास चन्द्रावती में किया। शाह डावरके पुत्र कल्याणादि को दीक्षा दी और शाह डावर के निकाले हुये शत्रुजय तीर्थादि तीर्थों की यात्रार्थ संघ में पधार कर तीर्थों की यात्रा की। तदन्तर सूरिजी सोराष्ट्र प्रान्त में विहार कर सर्वत्र जैनधर्म के प्रचार को बढ़ा रहे थे। उस समय वर्द्धमानपुर नगर में श्रीमालवंशीय शाह देदा ने भगवान महावीर का एक विशाल मन्दिर बनाया था। जब मंदिर तैयार होगया तो उसकी प्रतिष्ठा के लिये प्राचार्य कक्कसूरि को विनती कर कहा कि प्रभो ! श्राप वर्द्धमानपुर पधार कर हमलोगों को कृतार्थ करें। अतः सूरिजी वर्द्धमानपुर पधारे और शाह देदा के बनाये जिन बिम्बों की अंजनसिलाका एवं मंदिर की प्रतिष्ठा बड़े ही समारोह से करवाई। उस समय जैन मंदिर मूर्तियों पर चतुर्विध श्रीसंघ की अटूट श्रद्धा थी और अपना न्यायोपार्जित द्रव्य ऐसे पवित्र कार्य में व्यय कर अपना कल्याण करते थे। सूरिजी महाराज सौराष्ट्र से विहार कर कच्छभूमि में पधारे और सर्वत्र भ्रमन करते माडव्यपुर में चतुर्मास किया। आपका व्याख्यान हमेशा बँचता था एक दिन के व्याख्यान में किसी ने प्रश्न किया कि जैनधर्म किसने और कब चलाया ? सूरिजी महाराज ने उत्तर दिया कि जैनधर्म अनादिकाल से प्रचलित है और सृष्टि के साथ इस धर्म का घनिष्ट सम्बन्ध है जब सृष्टि अनादि है तब जैनधर्म भी अनादि है इसमें शंका ही किस बात की है ? वादी तब फिर यह क्यों कहा जाता है कि जैनधर्म में पहिले तीर्थङ्कर ऋषभदेव हुये हैं ? सूरिजी यह काल की अपेक्षा से कहा जाता है । कारण, जैनों में काल दो प्रकार का माना है १उत्सर्पिणी २-अबसर्पिणी जिसमें इस समय अवसर्पिणी काल वरत रहा है और इस अवसर्पिणी कालमें २४ तीर्थङ्कर हुये हैं जिसमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव हुये हैं। अतः प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ एवं ऋषभदेव कहा जाता है और भूतकाल में ऐसी अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल व्यतीत हो चुका है उसमें तीर्थङ्करों की भी अनन्त चौबीसियाँ होगई थी इत्यादि विस्तार से समझाने पर जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ा और प्रश्न कर्ता को भी ज्ञात होगया कि जैनधर्म एक पुराणा धर्म है। सूरिजी ने कच्छ में भ्रमण कर कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई कई भावुकों को जैनधर्म की दीक्षा दी और कई नये जैनधर्मी भी बनाये बाद वहाँ से बिहार कर आपने सिन्ध धरा को पावन किया। सूरिजी सिन्ध में भ्रमण करते डमरेल नगर में पधारे वहाँ उपकेश वंशियों की अधिक संख्या थी वे लोग मरुधर से व्यापारार्थ आये थे । वे दिन ही उपकेश वंशियों की वृद्धि के थे। उनकी धन के साथ जन की भी खूब बृद्धि होती थी । अतः उपकेश वंशी लोग बहुत प्रदेश में फले फूले नजर आते थे। जैनधर्म की प्राचीनता का प्रश्न Jain Education international FOOPTIvare a Persorner useromy)------------- Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६३५-६६० सूरिजी ने डमरेलपुर में चतुर्मास कर दिया था। वहाँ श्रष्ठि गोत्रीय शाह महादेव प्रभूत सम्पति वाला श्रावक रहता था । उसने सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो ! मैंने आचार्य यज्ञदेव सूरि के पास परिग्रह व्रत का प्रमाण किया था और साथ में यह भी प्रतिज्ञा करली थी कि प्रमाण से अधिक बढ़ जायगा तो मैं उस द्रव्य को शुभ क्षेत्र में लगा दूंगा पूज्यवर ! इस समय मेरे पास में प्रमाण से बहुत अधिक द्रव्य बढ़ गया है। अब मैं व्यापार तो नहीं करता हूँ पर उस बढ़े हुए द्रव्य का मुझे क्या करना चाहिये कौन से कार्य में लगाना चाहिये इसके लिये मैं आपकी अनुमति लेना चाहता हूँ । कृपा कर मुझे ऐसा मार्ग बतलावें कि जिससे मेरा कल्याण हो और व्रत में अतिचार भी न लगे। सूरिजी ने सोच विचार कर कहा महादेव शास्त्र में सात क्षेत्र कहे हैं पर जिस समय जिस क्षेत्र में अधिक श्रावश्यकता हो उस क्षेत्र को पोषणा करना अधिक लाभ का कारण हो सकता है । मेरी राय से तो बीस तीर्थङ्करों की निर्वाण भूमि श्री सम्मेतशिखरजी तीर्थ की यात्रा निमित्त संघ निकाल कर चतुर्विध श्री संघ को यात्रा करवाना अधिक लाभ का कारण होगा । कारण उस विकट प्रदेश में साधारणव्यक्ति जा नहीं सकता है और कई अस से इस प्रान्त से उस तीर्थ की यात्रार्थ संघ नहीं निकला है । अतः यह लाभ लेना तेरे लिये बड़ा ही कल्याण का कारण है। सूरिजी के कहने को महादेव ने शिरोधार्य कर लिया बस, फिर तो देरी ही क्या थी । शाह महादेव ने अपने पुत्र पौत्रों को बुलाकर कह दिया कि गुरु महाराज की सम्मति पूर्वक मैने सम्मेत शिखरजी की यात्रार्थं संघ निकालने का निश्चय कर लिया है | अतः तुम लोग संघ के लिये सामग्री तैयार करो । यह सुन कर सबको बड़ी खुशी हुई। कारण वे लोग चाहते थे कि प्रमाण से अधिक द्रव्य घर में रखना अच्छा नहीं है। अतः उन सबको खुशी होना स्वाभाविक बात थी । अहाहा ! वह जमाना कैसा धर्मज्ञता का था कि महादेव तो क्या पर उसके कुटुम्ब में भी कोई ऐसा नहीं था जो यह पसंद करता हो कि प्रमाण से अधिकद्रव्य किसी प्रकार से अपने काम में लिया जाय । इस सत्यता के कारण ही तो बिना इच्छा किये लक्ष्मी उन सत्यवादियों के यहाँ रहना चाहती थी और लक्ष्मी को यह भी विश्वास था कि यह लोग मेरा कभी दुरुपयोग न करेंगे और मुझे लगावेंगे तो अच्छे कार्यों में ही लगावेंगे. परन्तु आज का चक्र उल्टा ही चल रहा है। अव्वल तो जीवों के उतनी तृष्णा है कि वे व्रत लेते ही नहीं कदाचित कोई लेते हैं तो इतनी तृष्णा बढ़ाते हैं कि दस हजार की रक़म अपने पास होगी तो लक्ष रुपयों का परिग्रह रक्खेंगे कि जीवन भर में ही वह तृष्णा शान्त नहीं होती है । शायद पूर्वभव के पुन्योदय प्रमाण से अधिक परिग्रह बढ़ जाय तो कई विकल्प कर लेते हैं जैसे इतना मेरे इतना स्त्री के इतना पुत्र के इतना पुत्रवधु एवं पौत्र के इत्यादि पर ममता तो मूल पुरुष की ही रहती है । श्रेष्ठ व महादेव ने अपने कुटुम्ब वालों की सम्मति ले ली तब तो सूरिजी के व्याख्यान में श्राकर श्रीसंघ को अर्ज की कि मेरी भावना तीर्थाधिराज श्री सम्मेतशिखरजी की यात्रार्थ संघ निकालने की है। अतः श्री संघ मुझे आदेश दीरावें । इसको सुन कर श्रीसंघ ने बहुत खुशी मनाई और श्रेष्ठिव महादेव को बड़ा ही धन्यवाद दिया । कारण सिन्ध प्रान्त से शत्रुंजय का संघ तो कई बार निकला था पर शिखरजी का संघ उस समय पहिले ही था अतः जनता में उत्साह फैल जाना एक स्वाभाविक बात थी । इस विषय में सूरिजी ने तीर्थयात्रा से दर्शन की विशुद्धता, संघपति का महत्त्व, द्रव्य की सफलता और छरीपाली यात्रा का आनंद का थोड़ा सा किन्तु सारगर्भित वर्णन करते हुये महादेव और श्रीसंघ के उत्साह में अभिवृद्धि की तत्पश्चात् श्री शिखरजी का संघ और महादेव की दीक्षा ] ६५९ Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २३५-२६० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास महादेव को श्रादेश देते हुए भगवान महावीर और आचार्य श्री की जय ध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई । आज तो डामरेलपुर में जहाँ देखो वहाँ श्रेष्टिवर्य महादेव और शिखरजी के संघ की ही बातें हो रही हैं। साथ में प्राचार्य कक्क सूरिजी महाराज के प्रभाव की प्रभावना भी सर्वत्र मधुर स्वर से गाई जा रही थी। जैसे महादेव के वहाँ संघ की तैयारियों हो रही थीं वैसे ही नागरिक लोग संघ में जाने के लिये तैयारियें कर रहे थे । क्योंकि यह संघ महीना पन्द्रह दिनों में लौट कर आने वाला नहीं था। कम से कम छः मास लगना तो संभव ही था। दूसरे श्राज पर्यन्त शिखरजी का संघ नही निकला था अतः सबकी भावना संघ में जाने की थी। भला ऐसा सुअवसर हाथों से कौन जाने देने वाले थे । श्रेष्टिवर्य महादेव जैसा धर्मज्ञ था वैसा ही वह उदार दिल वाला भी था संघ निकालने में वह अपना अहोभाग्य समझता था केवल सिन्ध में ही नहीं पर दूर २ प्रदेश में आमंत्रण पत्रिकायें भेज दी थीं। साधु साध्वियों के लिये अपने कुटुम्बियों तथा संबन्धियों को बिनती के लिये भेज दिये थे। मामला दूर का होने से दो तीन स्थान ऐसे भी मुकर्रर कर दिये थे कि देरी से पधारने वाले साधु साध्वियां संघ में शामिल होसकें। ___ महादेव अपने राजा के पास गया, चौकी पहरे के लिये राजा से प्रार्थना की जिसको तो राजा ने स्वीकार करली पर साथ में महादेव ने एक यह भी अर्ज की कि डामरेल नगर के बहुत से जैन लोग संघ में चलने वाले हैं पीछे उनके घरों की एवं मालमिलकियत की रक्षा के लिये आप पर ही छोड़ दिया जाता है। राजा ने कहा महादेव तू बड़ा ही भाग्यशाली है। डमरेल से इस प्रकार का संघ निकलना तेरी कीर्ति तो है ही पर साथ में डमरेल नगर की भी अमर कीर्ति है। हम लोगों से और कुछ नहीं बने तो भी तुम्हारे इस पुनीत कार्य के लिये इतना तो हम भी कर सकते हैं और इसके लिये तुम निशंक रहो किसी की एक शीली मात्र भी आगे पीछे नहीं होगी चाहे खुले मकान छोड़ जाओ इत्यादि । महादेव ने बड़ी खुशी मनाते हुये कहा कि हुजूर यह मेरा नहीं पर श्रापका ही यश एवं कीर्ति है और श्रापकी कृपा से ही मैंने इस प्रकार वृहद् कार्य को रठाया है। और श्रापकी सहायता से ही इस कार्य में सफलता प्राप्त करूँगा। महादेव राजा का परमोपकार मानता हुश्रा अपने मकान पर आया। और नागरिक लोगों को राजा का संदेशा सुना दिया तब तो नहीं चलने वालों का भी संघ में चलने का विचार होगया । ठीक चतुर्मास समाप्त होते ही मार्गशीर्ष शुक्ल त्रोदशी के शुभ मुहूर्त में सूरिजी के वासक्षेप पूर्वक श्रेष्ठिवर्य महादेब के संघपतित्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया। संघ के अन्दर कई रत्नों की मूर्तियां सुवर्ण के देरासर पूजाभक्ति के साधन, हजारों साधु साध्वियां और लाखों नर नारी थे । प्रत्येक ग्राम नगर के मन्दिरों के दर्शन तीर्थों पर ध्वजारोहणादि महोत्सव करते हुये, दीन दुखियों का उद्धार और याचकों को दान देते हुये तथा जैनों की वस्तीवाले ग्राम नगरों से भेंट और बधावना होते हुये संघ श्री सम्मेतशिखरजी पहुँचा। जबतीर्थ के दूर से दर्शन हुये तो संघ ने हीरे पन्ने माणिक और मोतियों से बधाया और तीर्थङ्करों की निर्वाणभूमि का स्पर्शन कर अपना अहोभाग्य सममा तथा अष्टान्हिका महोत्सव ध्वजारोहण पूजा प्रभावना साधर्मी वात्सल्यादि धर्म कृत्य किये । सूरिजी और संघपति का अधिक परिचय होने से सूरिजी ने जान लिया कि संघपति महादेव बड़ा ही त्यागी वैरागी और आत्मार्थी है। यदि यह दीक्षा ले ले तो इसका शीघ्र कल्याण हो सकता है । एक दिन सूरिजी ने संघपति को कहा महादेव यह तीर्थभूमि है तुमने संघ निकाल कर अनंत पुन्योपार्जन किया पर अब तेरी दीक्षा का समय है। यदि इस तीर्थ भूमि पर तू दीक्षा ले तो तेरा जल्दी कल्याण होगा। महा६६० [ शिखरजी का संघ--महादेव की दीक्षा Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६३५-६६० देव ने अपने दिल में सोचा कि सूरिजी बड़े ही उपकारी पुरुष हैं और मेरे पर आपका धर्म प्रेम है अब संसार में रहकर मुझे करना ही क्या है। अतः सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्य करना ही कल्याण का कारण है। अतः महादेव ने अपनी स्त्री और पाँचों पुत्रों को बुला कर कहा कि मेरी इच्छा यहाँ दीक्षा लेने की है। पुत्रों ने कहा आपकी इच्छा दीक्षा लेने की है तो संघ लेकर घर पर पधारो वहाँ आप दीक्षा लेलेना इत्यादि । महादेव ने कहा कि मेरे अन्तराय क्यों देते हो ? मेरी इच्छा तो इस तीर्थ भूमि पर ही दीक्षा लेने की है, महादेव की स्त्री ने सोचा कि जब मेरे पतिदेव दीक्षा लेने को तैयार होगये हैं तो फिर मुझे घर में रह कर क्या करना है, अतः वह भी तैयार होगई । जब संघ में इस बात की चर्चा फैली तो कई १४ नर-नारी दीक्षा लेने को तैयार होगये । बस एक तरफ तो संघपति की वरमाल महादेव के बड़े पुत्र लाला को पहिनाई गई और दूसरी ओर संघपति महादेव आपकी धर्मपत्नी और १४ नर नारियों एवं १६ मुमुक्षुओं को भगवती जैन दीक्षा दी गई । अहा हा ! जब जीवों के कल्याण का समय आता है। तब निमित्त कारण भी सब अनुकूल बन जाता है। इसके लिये मंत्री महादेव का ताजा उदाहरण सामने है। सूरिजी रात्रि में संथारा पौरसी भणाकर शयन किया था जब आप निद्रा से मुक्त हो ध्यान में बैठते थे इतने में तो देवी साच्चयिक ने आकर सरिजी कों वन्दन की सूरिजी ने धर्मलाभ देकर कहा देवीजी भाप अच्छे मौका पर आये। देवी ने कहां प्रभों ! आप तीर्थ की यात्रा करे और मैं पीछे रहूँ यह कब बन सकता है केवल मैं एकली नहीं हूँ पर देवी मातुला भी साथ में हैं इसने ही मुझे आकर संघ की खबर दी थी इत्यादि । सूरिजी ने कहाँ कहो देवीजी गच्छ सम्बन्धी और कुछ कहना है, देवी ने कहाँ पूज्यवर ! मैं क्या कहूँ। आप स्वयं प्रज्ञावान है। फिर भी इतना तो मैं कह देती हूँ कि आप इधर पधारे हैं तो यहीं विहार कर इस तीथ भूमि पर ही अपना कल्याण करे और मुनि कल्याण कलस आपके पद योग्य एवं सर्व गुण सम्पन्न है इनको सूरि पद देकर संघ के साथ भेजदें कि उधर बिहार कर गच्छ की उन्नति करते रहेंगे । सूरिजी ने कहा ठीक है देबीजी मुनि कल्याण कलस मेरे गच्छ में एक योग्य विद्याबली एवं शास्त्रों का पारंगत मुनि है मैं इनको सूरि मंत्र का आराधन तो पहले से ही करवा दिया हैं फिर आपकी सम्मति होगई। देवीजी। आपने हमारे पूर्वजों को भी प्रत्येक कार्य में समय समय सहायता पहुँचाई है और आज मुझे भी आपने सावधान किया है। अब मैं कल सुबह ही मुनि कल्याण-कलस को सूरि पद अर्पण कर दूंगा। दोनों देवियां सूरिजी को वंदन कर अदृश्य होगई। सूरिजी महाराज ने सुबह होते ही अपनी नित्य क्रिया से फुरसत पाकर संघ को एकत्र किया और कहा कि मैं अपना पदाधिकार मुनि कल्याण कलस को देना चाहता हूँ । संघ के लोगों ने विचार किया कि क्या बात है केवल रात्रि में ही सूरिजी ने यह क्या विचार कर लिया । अतः संघ ने विज्ञाप्ति की कि पूज्यवर आप संघ लेकर वापिस पधारें हम लोग सूरिपद के योग्य महोत्सव करेंगे और मुनिकल्याण कलस को सूरिपद हमारे यहाँ पधार कर ही दीरावें । सूरिजी ने कहा मैंने अपना विहार पूर्व में करने का निश्चय कर लिया है । कारण, यहाँ विशेष लाभालाभ का कारण है । आपके संघ के लिये मैं सूरि बन देता हूँ वह आपके साथ चलेगा। बस, सूरिजी ने निश्चय कर लिया तो उसको बदलनेवाला था ही कौन ? उसी दिन विधि विधान के साथ तीर्थभूमि पर सूरिजी ने मुनिकल्याण कलस को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्तसूरि रख सरिजी और देवी की विज्ञापति ] Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २३५-२६० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दिया और आपने ५०० साधुत्रों को पूर्व में विहार करने के लिये अपने पास रख कर शेष साधुओं को देवगुप्तसूर के साथ में संघ भेज दिये । संघ पुनः लौट कर डमरेलपुर नगर में आया । श्रेष्ठिवर्य लाखा ने संघ को साधर्मिक वात्सल्य देकर पांच पांच सुवर्ण मुद्रिकायें और वस्त्रादि की पहरामणी देकर संघ को विसर्जन किया। पूर्व में उस समय बौद्धाचार्य बौद्धधर्म का खूब जोरों से प्रचार कर रहे थे जैनधर्म में उस समय पूर्व में ऐसा कोई प्रभावशाली आचार्य नहीं था कि बढ़ते हुये बौद्धों के बेग को रोक सके । शायद् देवी सच्चायिका की प्रेरणा इसलिये ही हुई हो और यह कार्य कोई कम लाभ का भी नहीं था । सूरिजी ने २०० मुनियों को तो अपने साथ में रक्खे और शेष तीन सौ साधुओं की पचास पचास साधुत्रों की छः टुकड़ियाँ बना दी जिन्हों के ऊपर एक एक पदवीधर नियुक्त कर दिया और पूर्व प्रान्त के प्रत्येक नगर में विहार का आदेश दे दिया । बस, फिर तो था ही क्या। इस सिलसिले से विहार करने से जैसे सूर्य के सामने तारों का तेज फीका पड़ जाता है वैसे ही बौद्धों का प्रचार कार्य रुक गया और जैनधर्म का प्रचार बढ़ने लगा। राजगृह चम्पा वैशाला वणिज्य प्राम नगर और कपिलवस्तु तक विहार कर दिया। इधर तो हिमाचल और उधर कलिंग प्रदेश तक जैन साधुओं का विहार हुआ । सूरिजी ने केवल जैनों का रक्षण ही नहीं किया था पर हजारों लाखों जैनेतरों को जैन बना कर उनका भीउद्धार किया— जब सूरिजी ने अपना अन्तिम समय नजदीक जाना तो पुनः शिखरजी पधार गये और अपने साधुओं को शिखरजी के आस पास के प्रदेश में विहार करने की आज्ञा दे दी और उन विद्वान साधुओं ने वहां भ्रमण कर जैनधर्म का खूब ही प्रचार किया। आज जो सिंहभूम मानभूमादि प्रदेश में सारक जाति पाई जाती है यह सब उन श्राचायों के बनाये हुये जैन श्रावक है । सारक जाति के पूर्वजों ने अनेक मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टा भी करवाई थी कई बार तीर्थ श्री सम्मेत शिखरजी की यात्रार्थ संघ भी निकाले थे और कई मुमुक्षुओं ने आचार्य श्री एवं आपके शिष्यों के पास दीक्षा भी ली थी और वे मुनि कितने ही समय तक वहां विहार भी किया था परन्तु पिछले अर्से में जब जैन श्रमणों का विहार बन्द हुआ तब से ही वे लोग धर्म को भूलते गये तथापि उन लोगों के असली संस्कार थे वे सर्वथा नहीं मिटे पर आज पर्यन्त उनमें अहिंसा वगैरह के संस्कार विद्यमान है आचार्य कक्कसूरिजी महाराज महा प्रभाविक आचार्य हुये आपने अपने २५ वर्ष के शासन समय में सर्वत्र विहार कर जैन धर्म की खूब ही ध्वजा पताका फहराई। आपने जैसे महाजनसंघ एवं उपकेशवंश की वृद्धि की वैसे ही भावुकों को दीक्षा दे श्रमणसंघ की भी अभिवृद्धि की । अन्त में वि० सं० २६० का फाल्गुण कृष्ण अष्टपी के दिन सम्मेतशिखर तीर्थ पर २७ दिन के अनशन पूर्वक समाधि के साथ स्वर्गधाम पधार गये । पट्टावलियों वंशावलियों में सूरिजी के शासन में अनेक महानुभावों ने संसार का त्याग कर बड़े ही वैराग्यभाव से दीक्षा ली उनके नामों में थोड़े से नाम यहां दर्ज कर देता हूँ :१ - उपकेशपुर के कनोजिया गौत्रीय पोलाक ने दीक्षा ली । २ - क्षत्रीपुरा के कर्नाट ३ - माडव्यपुर के बलाह ४- शंखपुर के चिंचट ५- मुग्धपुर गौत्रीय परमा गौत्रीय कल्हण गौत्रीय बागा ने ने के श्री श्रीमाल गौत्रीय मूला ने ६६२ 29 59 "" "" [ सूरिजी के शासन में भावुकों की दीक्षा Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] के सुचंति ६ - खटकुंप ७ - मेदनीपुर के भद्र ८ - नागपुर ९ - पद्मावती के सुघड़ १० - कोरंटपुर के प्राग्वट ११ - भीन्नमाल के श्रीमाल के प्राग्वट १२ - सत्यपुर के श्रेष्टि १३ – चिचोड़ १४ - चित्रकोट के भूरि १५ - लाकोटी के ब्राह्मण के बाप्पनाग के श्रीमाल गौत्रीय शंख ने वंशीय कानड ने १६ - उज्जैन १७ - सोपार १८- डाबरेल के चरड़ १९ – करणावतीके प्राग्वट २० -- मडोनी के ब्राह्मण २१ -- मथुरा २२ -- खंडपुर २३ - जोगनीपुर के २४ - सालीपुर के गौत्रीय वीरम ने वंशीय भाखर ने श्रीकण्ठ ने के श्री श्रीमाल के प्राग्वट गौत्रीय बैना ने वंशीय जोधा ने गोत्रीय मंत्री मुरारने श्रेष्टि आदित्य नाग गौत्रीय मंत्री रणधीर ने क्षत्रीय वंशीय २५ - कोकाली के मोकलदेव ने २६ - आनन्दपुरके प्राग्वट वंशीय विरधा ने २७ - हल के सोनी जाति के सीताराम ने 23 इनके अलावा कई पुरुष तथा बहुत सी वेहनों की दीक्षा का वर्णन भी पट्टावलियों में किया है पर प्रन्थ बढ़ जाने के भय से सब का नाम नहीं दिया है पर यह बात सादी और सरल कि इस प्रकार दीक्षा लेते थे तव ही तो हजारों साधु साध्वियों प्रत्येक प्रान्त में विहार कर धर्मोपदेश दिया करते थे । आचार्य श्री कसूर के शासन में तीथा के संघ - के चोरडिय गौत्रीय नन्दा गौत्रीय रामा ने जाति के चतरा ने तीर्थों की यात्रार्थ भावुकों का संग ] गौत्रीय करणा ने वंशीय धन्ना ने वंशीय धरण ने गौत्रीय हाना ने वंशीय धरण ने गौत्रीय मुसल ने ब्रह्मदेव ने [ ओसवाल संवत् ६३५-६६० दीक्षा ली ,, "" " 11 95 19 " " 99 29 93 29 " "" " 31 29 19 १- भीनमाल नगर से श्रीमाल वंशीय खरत्था ने श्री शत्रुञ्जादि तीर्थो का संघ निकाला जिसमें तीन हजार साधु साध्वियों और लाखों श्रावक थे इस संघ में शाह खरस्थाने चौदह लक्ष द्रव्य व्यय किया साधर्मी भाइयों को सवासेर के लड्डू और पांच पांच सोना मुहरो तथा वस्त्रों को पेहरामणि दी २ - सोपरपुर पट्टन से प्राग्वट सुरजण ने श्री शत्रुञ्जय गिरनारादि तीर्थों का संघ निकाला जिसमें ५२ देरासर थे कई पंचवीसौ साधु साध्वियों और साधिक एक लक्ष यात्रुगण थे संघपति सुरजण ने इस संघ में एक कोटी द्रव्य व्यय किया साधर्मी भाइयों को सोना की कटियों और पांच पाचा सोना मुहरों लेन 33 11 ६६३ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २३५-२६० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास में दी याचकों को खूब दान दिया। संघपति सुरजन अपार सम्पति का धनी था श्रापकी कइ नगरों में दुकानों थी पश्चात्य प्रदेशों के साथ जहाजों द्वारा व्यापार चलता था चीन जावा वगैरह में आपकी कोटिये भी थी इतना होने पर भी धर्म करने में दृढ़ चित और खूब रुची वाला था साधी भाइयों की और आपका अधिक लक्ष था व्यापार में भी साधर्मी भाइयों को विशेष स्थान दिया करता था ऐसे नर रत्नों से ही जैन धर्म की उन्नति एवं प्रभावना होती थी। ३-नागपुर का आदित्यनाग गौत्रीय शाह लाखण ने श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ का संघ निकाला जिसमें आपने बारह लक्ष द्रव्य व्यय किया साधर्मी भाइयों को पेहरामणि दी और पांच बड़े यज्ञ किये । ४.-- कोरंटपुर का श्रेष्टि गौत्रीय मंत्री अर्जुन ने उपकेशपुर स्थित भगवान महावीर की यात्रार्थ संघ निकाला जिसमें मंत्रीश्वर ने तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया । साधर्मियों को लेन दी। ५-आलोट नगर से रावनारायण ने श्री शत्रुञ्जय का संघ निकाला जिसमें पन्द्रहसौ मुनि साध्वियों और कइ पचास हजार गृहस्थ थे इस संघ में १९ हस्ती भी थे रावजी ने अपनी वृद्धावस्था में जबर्दस्त पुन्योपार्जन कर श्री श@जय की शीतल छाया में दीक्षा ग्रहण कर केवल तेरह दिनों में पुनीत तीर्थ भूमि पर देह त्याग कर स्वर्ग चले गये। ६-उपकेशपुर से भाद्र गौत्रीय शाह गोपाल ने श्री सम्मेतशिखरजी का संघ निकाला इस संघ में एक लक्ष से भी अधिक नर नारी थे संघ लोटते समय ऋतु प्रष्म आगई थी रास्ते में पानी का स्थान नहीं आने से संघ बहुत व्याकुल होगया अतः वाचनाचार्य गुणविलास के पास आकर अर्ज की अतः वाचनाचार्य ने स्वरोदय वली थे ध्यान लगा कर ऐसा संकेत किया कि पुष्कल जल मिल गया जिससे संघ ने अपने प्राण वचा लिया और सकुशाल उपकेशपुर पहुँच गये शाह गोपाल ने सांत यज्ञ किये और स्वाधर्मी भाइयों ने पेहरामणी दी तथा यचकों को इच्छित दान देकर अपनी कीर्ति को अमर बनादी। इत्यादि और भी कई छोटे बड़े संघ निकले जिन्हों का पट्टावलियों में विस्तार से वर्णन है । सूरिजी के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं भी बहुत हुई १-श्रासलपुर के प्राग्वट - शाह बागा के बनाया महावीर० प्र० २-उखलान के प्राग्वट , भीमा के, ३-इंदावटी के भरिंगी० , हंसा के ,, ४-आघाट के चिंचटगौ० ,, करमण के , , करमण पाश्वनाथ , ५-बिराट के मलगौत्रीय , धीरा ६-ममाणिया के चरडगौत्रीय , कानड के ,, ज्ञान्तिनाथ ७-धौलपुर के आदित्यनागगौ० ,, रूपणसी के ,, नेमिनाथ ८-पलवृद्धि के बापनागगौ० ,, लाखणसी के ,, मुनिसुव्रत , ९-नागपुर के श्रेष्ठगोत्रीय , पुनड़ा के ,, महावीर , १०-हर्षपुर के सुचंतिगोत्रीय , पौमा के, ६६४ [सरिजी के शासन में प्रतिष्ठाएं 市市市市弟弟 Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६३५-६६० 市市市市市市 राणा 市市市市市市市市市 市 市市 ११-स्तम्भनपुर के बलाहागौ० शाह देपाल के बनाया महावीर० प्र० १२-बटपुर के कर्णाटगो० , मांझण के , १३-शंखपुर के तप्तभटगो० ॥ दाप्पा " " १४-भासिल के प्राग्वट महादेव १५-कानपुर के श्रीमाल जैता १६--करोट के श्रीमाल नन्दा १७.-पालिकपुर के कनौजिया , नागा १८-कीराटकुप के डिडूगौ. १९-नागपुर के लघुश्रेष्ठिगो० ॥ राजसी २०-उज्जैन के मोरक्षगी० , आखा पार्श्वनाथ , २१-- मण्डव के कुलभद्रगौ० , वीरदेव के ऋषभदेव , २२-महन्दपुर के बिरहटगौ , मोथा अजीतनाथ, २३--बेनातट के पुष्करणा जाति ,, खेता के महावीर , इनके अलावा कई छोटे बड़े मन्दिर और घर देशान्तर की प्रतिष्ठा हुई। वंशावली में एक चमत्कारी घटना लिखि हैं वीरपुर [सिन्ध में एक सोमरूद्र वामयर्णियों का नेत आया था वह था मंत्र बली जनता को चमत्कार वतलाने को शाम के समय जैन मन्दिर से एक मूर्ति को मंत्र बल से तालाब पर लेजा कर वापिस मन्दिर में ले आया और लोगों को कहने लगा कि जैन लोग अपने देव की मूर्ति को पानी नहीं पीलाते है अतः मूर्ति स्वयं तालाब पर पानी पीने को जाया करती हैं इस प्रकार आठ दिन गुज़र गये। इससे जैनों को बड़ा ही दुःख हुआ वे लोग किसी विद्याबली साधु को लाना चाहते थे इधर उधर मनुष्यों को भेजे भी थे पर उनकी आशा सफल नहीं हुई। एक दिन सुना कि डमरेल नगर में पण्डित आनन्द मुनि विराजते हैं और वे अच्छे विद्याबली भी है संघ अग्रेश्वर डामरेल जाकर सब हाल कहा और वीरपुर पधारने की प्रार्थना की अतः पं० आनन्दमुनि विहार कर वीरपुर पधारे श्रीसंघ ने बड़े ही समारोह से आपका स्वागत किया। सोमन्द्र ने हमेशा की तरह मूर्ति को मन्दिर से निकाल कर तालाब पर लेजा रहा था पर मूर्ति बजार के बीच भाइ तो रुक गई आगे चल नहीं सकी। इधर पं० आनन्द मुनि ने नगर के अन्दर जितने शिवलिंगादि देवी देवता थे उन सब को मंत्र बल से बजार में ले आया कि जहां जैन मूर्ति रुकी हुई थी। बजार में एक ओर सोमरुद्र खड़ा था दूसरी और पं. आनन्दमुनि । इस चमत्कार को देखने के लिये जैन जैनेत्तर हजारों लोग एकत्र होगये। पं० आनन्दमुनि ने कहा महात्माजी यदि आप इन सब मूर्तियों को तलाब की ओर ले जावें तो मैं आपका शिष्य बन जाउ और मैं मन्दिर की ओर ले जाउ तो आप मेरा शिष्य बन जावे । जनता के समक्ष सोमरूद्र ने स्वीकार कर लिया पर पंडितजी के सामने उनका मंत्र कुच्छ काम नहीं कर सका तब पं० आनन्द ने हुक्य दिया कि अहो देवी देवताओं तुम इस जैनमूति को जैन मन्दिर में पहुँचा दो। बस आगे जैन मूर्ति और पिच्छे सब देबी देवता चल कर जैन मन्दिर में आये। बससोमरूद्र पण्डितजी का शिष्य बनगया-इस चमत्कार से जैन धर्म का बहुत प्रभावना हुई वंशावली कार लिखते है कि वे सब देवी देवता आज तक भी जैन मन्दिर में मौजूद है। पट्ट तेवीसवें ककसूरिजी, आदित्य नाग कुल भूषण थे । जिनकी तुलना करके देखो, चन्द्र में भी दूषण थे। पट दर्शन के थे वे ज्ञाता, बादी लज्जित हो जाते थे। अजैनों को जैन बनाकर, नाम कमाल कमाते थे। ॥ इति श्री भगवान् पार्श्वनाथ के २३ वें पट्ट पर श्राचार्य ककसूरि महान् प्रभाविक आचार्य हुये ।। एक चमत्कारी घटना] Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २६०–२८२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २४ - प्राचार्य श्रीदेवगुप्तसूरि (चतुर्थ) भूपा सीन्कुमटे स्वगोत्र विषये वै देवगुप्तो गुणी । भूत्वा दीक्षित एव जैन सुमते चक्रे कठोरं तपः || येनासन् वहवोऽपि भूमिपगषाः शिष्याः प्रभावान्विताः । aratsi सुविकाशमान विधुवत् कल्याणकारी प्रभुः ॥ ग्रा चार्य देवगुप्त सूरीश्वरजी महाराज एक देवमूर्त्ति की भांति केवल मनुष्यों से ही नहीं पर देव देवियों से सदैव परिपूजनीय थे । आप चन्द्र जैसे शीतल, सूर्य्य जैसे तेजस्वी, सागर जैसे गंभीर, पृथ्वी जैसे धैर्यवान, मेरु जैसे अकम्प, और मनोकामना पूर्ण करने में कल्पवृक्ष सदृश्य मरुधर के चमकते हुये सितारे ही थे । आप जैन धर्म का प्रचार करने में अद्वितीय वीर थे अपने पूर्वजों की स्थापित की हुई शुद्धि की मशीन को चलाने में एक चतुर मशीनगर का काम किया करते थे आप का जीवन जनता के कल्याण के लिये ही हुआ था जिसका अनुकरण हमारे जैसे पामर जीवों को पावन बना देता है । जिस समय का हाल हम लिख रहे हैं उस समय आर्बुदाचल की शीतल छाया में अलकापुरी से स्पर्द्धा करने वाली चन्द्रावती नाम की नगरी थी जिसको सूर्य्यवंशी महाराज चन्द्रसेन ने आबाद की थी । चन्द्रावती नगरी जब से आबाद हुई तब से वह जैनियों का एक केन्द्र ही कहलाता था क्योंकि वहाँ बसने वाले राजा और प्रजा जैनधर्म के ही उपासक थे । चन्द्रावती नगरी में सैकड़ों जैन तीर्थकरों के मन्दिर थे और लाखों मनुष्य श्रद्धा पूर्वक उन मन्दिरों की सेवा पूजा भी करते थे । उपगच्छ एवं कोरंटगच्छ के आचार्यों ने समय समय पर चन्द्रावती में चतुर्मास कर तथा आपके मुनिगरण वहां ठहर कर सदैव धर्मोपदेश दिया करते थे । धर्म के प्रभाव से उन लोगों के पुण्य भी बढ़ते जा रहे थे । चन्द्रावती नगरी में बड़े २ व्यापारी लोग भी बस रहे थे । उनका व्यापारी सम्बन्ध केवल भारतीयों के साथ ही नहीं था पर वे पाश्चात्य प्रदेश के व्यापारियों के साथ व्यापार सम्बन्ध रखते थे | भारत से लाखों करोड़ों का माल विदेशों में भेजते थे तथा वहां से भी कई प्रकार के पदार्थ भारत में लाते थे कई लोगों ने तो वहां अपनी कोठियें भी खोल दी थीं जिससे वे पुष्कल द्रव्य पैदा करते थे और उस न्यायोपार्जित द्रव्य को शुभ कार्यों में व्यय कर कल्याणकारी पुण्य संचय भी किया करते थे । जैनधर्म का प्रचार एवं उन्नति करना वे अपना सबसे पहिला कर्त्तव्य समझते थे । 1 er व्यापारियों के अन्दर कुमट गोत्रीय शाह डाबर नाम का एक व्यापारियों का श्रमेश्वर श्रेष्ट बसता था । उसके पास इतना द्रव्य था कि लोग उसको धन कुबेर के नाम से ही पुकारते थे । शाह डाबर जैसा धर्मज्ञ था वैसा परोपकारी भी था । साधर्मी भाइयों की ओर उसका अधिक लक्ष्य था । दानेश्वरी तो ऐसा था कि याचकों के दरिद्र को देश पार कर दिया था। शाह डाबर के पत्नी नामक गृहदेवी थी जिसने आठ ६६६ चन्द्रावती नगरी और शाह डावर Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन । | ओसवाल संवत् ६६०-६८२ पुत्र और सात पुत्रियों को जन्म देकर अपने जीवन को कृतार्थ बना लिया था जिसमें एक कल्याण नाम का पुत्र तो कल्याण की मूर्ति ही था ! इतनी सम्पति इतना परिवार होने पर भी शाह डाबर एवं आपकी पत्नी पन्ना धर्मकरणी करने में इतने दृढ़ प्रतिज्ञा वाले थे कि वे अपने जीवन का अधिक समय धर्म साधन में ही व्यतीत करते थे ! जब माता पिता की इस प्रकार धर्म प्रवृति होती है तो उनके बाल बच्चों पर धर्म का प्रभाव पड़े बिना कैसे रह सकता है ? शाह डाबर पाश्चात्य प्रदेश के साथ व्यापार करता था तो उसके हाथ एक ऐसा पन्ना लग गया कि उसने उस पन्ना की एक भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति बना कर अपने घर देरासर में प्रतिष्ठा करवादी जिसकी सेठजी आदि सब परिवार के लोग त्रिकाल सेवा पूजा किया करते थे। पूर्व जमाने में घर देरासर की प्रवृति अधिक थी और इससे कई प्रकार के लाभ भी थे। कारण, एक तो घर देरासर होने से क्या स्त्री और क्या पुरुष सब कुटुम्ब वाले सेवा पूजा एवं दर्शन का लाभ ले सकते थे इतना ही क्यों पर जैनेतर नौकर चाकर भी परमात्मा के दर्शन उपासना एवं पूजा का लाभ उठा सकते थे। दूसरे घर में अपने इष्ट देव होने से दूसरे अन्य देव देवियों को स्थान नहीं मिल सकता था तीसरे जैनेतरों की लड़की परणीज कर लाते थे वह भी जैन धर्मोपासिका बन जाती थी । चौथे घर में देरासर होने से धर्म पर श्रद्धा भी मजबूत रहती थी इत्यादि अनेक फायदे थे। एक समय परोपकारी आचार्य कक्क सूरीश्वरजी महागज भू भ्रमण करते हुए चन्द्रावती के नजदीक पधार रहे थे । यह शुभ समाचार चन्द्रावती के संघ को मिलते ही उनके हर्ष का पार नहीं रहा और वे लोग सूरिजी के स्वागत की तैयारी करने लग गये। फिर तो कहना ही क्या था बड़े ही समारोह से नगर प्रवेरा का महोत्सव किया । सूरिजी ने चन्द्रावती में पदार्पण कर जैन मंदिरों के दर्शन किये और बाद थोड़ी पर सारगर्भित देशना दी। सूरिजी का ख्यान इतना प्रभावोत्पादक था क जिस किसी ने एक बार सुन लिया फिर तो उसको ऐसा रंग लग जाता था कि बिना सूरिजी का पाख्यान सुने उसको चैन ही नहीं पड़ता था। सूरिजी का व्याख्यान हमेशा विविध विषय पर होता था पर आपके व्याख्यान में संसार की असारता और त्याग वैराग्य एवं यात्म कल्याण पर अधिक जोर दिया जाता था। एक दिन व्याख्यान में टूरिजी ने सामुद्रिक शास्त्र का इस खूबी से वर्णन किया कि हस्त पदों की रेखा शरीर के तिल मास लशनियादि के भविष्य में होने वाले शुभाशुभ फल विस्तार से बयान किये और कहा कि श्रोता जनों! सर्वज्ञ के ज्ञान से कोई भी विषय शेष नहीं रह जाता। हां, उसमें हय गय और उपादय अवश्य होता है । पर जब तक वस्तु तत्व का सम्यक ज्ञान नहीं होता है तब तक हय में त्याग बुद्धि गय में ज्ञापक बुद्धि और उपादय में धारण बुद्धि नहीं हो सकती है अतः हय गय और उदय को सम्यक् प्रकार से समझ कर हय का त्याग गय को जानना और उपादय को अंगीकार करना चाहिये इत्यादि। सूरिजी का व्याख्यान सब को कर्ण प्रिय था। प्रत्येक मनुष्य की भावना थी कि हमारे शरीर में कोई भी शुभ लक्षण शुभ रेखादि है या नहीं ? यही विचार शाह कल्याण के हृदय में चक्कर लगाने लगा। कल्याण समय पाकर सरिजी के पास पहुँचा और बन्दन कर अपना हाथ सूरिजी के सामने बढ़ाया जिसक सूरिजी ने ध्यान लगा कर देखा और कहा कल्याण तेरे शरीर में इतने उत्तम लक्षण हैं कि यदि तू भगवती जैन दीक्षा गृहण कर ले तो तेरी भाग्य रेखा इतनी जबर्दस्त खुलेगी कि तू एक जैनधर्म का उद्धारक होकर आचार्य ककसूरिजी चन्द्रावती में ] Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २६०-२८२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास स्वात्मा के साथ अनेकों का कल्याण करने में भाग्यशाली बन जायगा। अर्थात् अपने नाम को सार्थक बना देगा अर्थात् कल्याण तु एक कल्याण की ही मूर्ति बन जायगा । इनके अलावा सूरिजी ने और भी कहा कि कल्याण अनुकूल सामग्री में कुछ कर लेना अच्छा है और उसका ही जीवन सफल समझा जाता है । शास्त्रकारों ने तो स्पष्ट शब्दों में फरमाया है किः-- "जाजा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई, अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जंति राईओ।" "जाजा वच्चइ रयणी न सा पडि नियत्तई, धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइओ" अधर्म में जो समय जाता है वह व्यर्थ जाता है तब धर्म कार्य में समय जाता है उसका समय सफल जाता है । कल्याण ! काल का विश्वास नहीं है बड़े-बड़े अवतारी पुरुष भी चले गये हैं तो साधारण जन की तो गिनती ही क्या है ? "तीर्थङ्करा गणधारिणः सुरपत्तयश्चक्रि केशवा रामाः । संहक्त हत विधिना शेषेषु नरेषु का गणना?" __इत्यादि हितकारी उपदेश दिया । कल्याण था लघुकर्मी कि सूरिजी के वचन सिद्ध पुरुष की औषधी की तरह रुच गये और उसने कहा पूज्यवर ! आपका कहना सोलह आना सत्य है । हजारों कोशिश करने पर भी इस प्रकार की अनुकूल सामग्री मिलनी दुष्कर है। अतः मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं जल्दी से जल्दी आपकी सेवा में दीक्षा लूंगा । बस, सूरिजी को वन्दन कर कल्याण अपने घर पर आया । पर आज तो कल्याण का रंग ढंग कुछ दूसरा ही था। उसके चेहरे पर उदासीनता एवं वैराग्य का रंग झलक रहा था। माता पन्ना ने पूछा बेटा ! आज तू उदास क्यों है ? क्या तेरे पिता ने तुझे कुछ कहा है । कल्याण ने कहा नहीं माता पिताजी ने कुछ भी नहीं कहा है। "माता--फिर तू उदास क्यों है ? "बेटा-माता मैंने संसार में जन्म लेकर इतने दिन यों ही गफलत में खो दिये जिसकी मुझे उदासीनता है। "माता एक दम चौंक उठी और कहा बेटा ! तू क्या कार्य करना चाहता है । आज अपने घर में सब साधन है तू चाहे सो कार्य कर सकता है। "बेटा-माता मैं सूरिजी महाराज के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ। माता-बेटा ये तुझे किसने सिखाया है, तू जानता है कि तेरी सगाई कब से ही करदी है अब २-४ मास में तेरा विवाह करना है । देख अपने घर में विवाह की सब तैयारियें हो रही हैं। बेटा-माता मैं ऐसा अचिरकाल का विवाह करना नहीं चाहता हूँ कि जिसके लिये भवान्तर में दुःख सहन करना पड़े । मैं तो ऐसा विवाह करूंगा कि जिसके जरिये सदैव के लिये सुखी बन जाऊं। __ माता तो बेटा के शब्द सुनकर महान दुखी बन गई और उसी समय शाह डाबर को बुला कर कहा कि आपका बेटा क्या कहता है जिसको सुन लीजिये ? डाबर ने पूछा कि बेटा तेरी मां क्या कहती है । कल्याण ने कहा आप ही पूछ लीजिये । पन्ना रोती हुई कहने लगी कि बेटा कहता है कि मैं दीक्षा लूंगा इस बात को मैं कैसे बरदास्त कर सकती हूँ ? आप अपने बेटे को समझा दीजिये वरना मेरी मृत्यु नजदीक ही है । "शाह डावर ने कहा कल्याण क्या बात है तेरी मां क्या कहती है ? वैिरागी कल्याण और मातापिता Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तभरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ "कल्याण --माता ठीक कहती है मेरी इच्छा दीक्षा लेने की है । "पिता इसका कारण क्या है कि तू आज दीक्षा का नाम लेता है ? "कल्याण-क्या आपने गुरु महाराज के व्याख्यान में नहीं सुना है गुरु महाराज ने फरमाया था कि विषय सुख तो क्षण भर के हैं पर उसके दुःख चिरकाल तक भुगतने पड़ते हैं। खण मित्त सुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिकाम सोक्खा । संसार मोक्खस्स विपक्ख भूया, खाणीअणत्थाणउकाम भोगा ॥१॥ पिताजी मैं क्षणभर के सुखों के लिये चिरकाल के दुःख भुगतना अच्छा नहीं समझता हूँ। अतः आप कृपा कर मुझे आज्ञा दीरावें कि मैं दीक्षा लेकर अपना कल्याण करू। पिता ने कहा ठीक है मैं इस पर विचार करूंगा जाओ अभी तो काम करो । सेठानी पन्ना को कहा कि तुम क्यों दुःख करती हो मैं कल्याण को समझा दूंगा । यदि कल्याण के भाग में दीक्षा की रेखा होगा तो उसे मिटा भी कौन सकता है। शाह डाबर समय पाकर शाम को सूरिजी महाराज के पास गया । डाबर सूरिजी का परम भक्त था। गच्छ में भी एक अग्रेश्वर श्रावक था । डाघर जैसा धनाढ्य था वैसा धर्मज्ञ भी था। उसने सूरिजी से नम्रता पूर्वक अर्ज की कि पूज्यवर ! आज कल्याण ने घर पर आकर दीक्षा की बात की जिससे उसकी मां ने बहुत दु.ख किया और भोजन तक भी नहीं किया। अतः कल्याण को समझा दिया जाय कि अभी दीक्षा का नाम न ले, और २-४ मास में उसका विवाह भी करना है । अतः निर्विघ्नता से विवाह हो जाय तो मेरे चित्त को शान्ति रहे दसरा कल्याण अभी बच्चा है दीक्षा में क्या समझता है। सूरिजी ने कहा डाबर ! तू भाग्यशाली है और गच्छ में अप्रेश्वर भी है तू जानता है कि साधुओं को तो इस बात का कुछ भी स्वार्थ नहीं है । दूसरे मेरे शिष्यों की भी कमी नहीं है। हजारों साधु साध्वियां गच्छ में विद्यमान हैं। एक कल्याण बिना हमारा कोई काम रुका हुआ भी नहीं है कि कल्याण को दीक्षा देने की कोशिश की जाय परन्तु मुझे आश्चर्य इस बात का है कि इस सामग्री में स्वयं तुमको दीक्षा लेनी चाहिये इस हालत में कल्याण की दीक्षा रोकने की कोशिश करता है। कल्याण दीक्षा लेगा या नहीं इसके लिये तो निश्चय कौन कह सकता है । श्रावक शासन का एक अंग होता है। यदि तेरे आठ पुत्रों में से एक पुत्र मांगा जाय तो क्या तू इन्कार कर सकेगा ? इसका उत्तर डाबर क्या दे सकता था । डाबर ! यदि यह कल्याण तेरे घर में रहेगा तो एक तेरे घर का ही काम करेगा परन्तु दीक्षा ले ली तो जैन शासन का उद्धार और हजारों लाखों का कल्याण करने में समर्थ बन जायगा । इससे तुम को हानि नहीं पर अधिक से अधिक फायदा है। यदि कल्याण दीक्षा लेना चाहता हो तो तुम अन्तराय कर्म नहीं बन्धना अगर मोहनीया कर्मोदय से कुछ मोह श्रा भी जाय तो ज्ञान दृष्टि से विचार करना। तथा श्राविका को भी समझा देना। शाह डाबर समझ गया कि सूरिजी की इच्छा कल्याण को दीक्षा देने की है। बस, सूरिजी को बन्दन कर अपने घर पर आया और सेठानी पन्ना को कहा कि कल्याण दीक्षा की बात करता है इसमें केवल कल्याण ही नहीं पर गुरु महाराज भी शामिल हैं। खैर, तू पुण्यवती है तेरी कुक्ष से जन्मा हुआ तेरा बेटा दीक्षा ले इसका सब यशः तेरे को ही है। अतः अब कहने सुनने की जरूरत नहीं है। महोत्सव के साथ कल्याण को दीक्षा दीरादें । इसमें ही कल्याण का और सबका कल्याण है। कल्याण के वैराग्य का चर्चा ] ६६६ Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २६०-२८२ वर्ष । [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का हातहास सेठजी के वचन सुन सेठानी को बहुत गुस्सा आया और क्रोध के साथ कहा कि मैं अपने जीते जी तो कल्याण को दीक्षा नहीं लेने दूंगी बाद मेरे मरने के मले ही बाप बेटा दीक्षा लेलेना । सेठजी ने कहा यदि तेरी मृत्यु होगई तो आठ नहीं पर सात बेटा ही तुझे उठाकर स्मशान में ले जाकर जला देंगे फिर कल्याण के लिये इतना आग्रह क्यों करती है ? जिस सूरिजी को अपना गुरु समझते हैं उन्होंने कल्याण को मांग लिया फिर नहीं देने में अपनी : या शोभा रहेगी ! और कल्याण जाता कहां है तेरे पास नहीं तो गुरु महाराज के पास रहेगा। मैं सूरिजी के पास स्वीकार कर आया हूँ इत्यादि । इच्छा न होते हुये भी पेठानी को सेठजी से सहमत होना पड़ा। दूसरे दिन डाबर ने कल्याण की खूब परीक्षा की पर वहां हलद का रंग नहीं था, पर रंग था चोल मजीठ का । शाइ डाबर ने जिन मन्दिरों में अष्टान्हि का महोत्सव करवाया और भी दीक्षा के लिये जो कुछ करने को था वह सब विधान किया। कल्याण के साथ कोई २२ नर नारी दीक्षा के लिये तैयार हो गये । सूरिजी महाराज ने उन सबको बिधि बिधान से भगवती जैन दीक्षा देकर अपने शिष्य बना लिये । कल्याण का नाम कल्याणकलश रख दिया । वास्तव में कल्याण था भी बलशण :न्दिर का कलश ही। मुनि कल्याणकल ने गुरुकुल वास में रहकर ज्ञानाभ्यास करना शुरू किया । मुनि कल्याण में विनय गुण की विशेषता थी कि उसने स्वल्प समय में वर्तमान साहित्य का अध्ययन कर लिया । न्याय, तर्क, छन्न, काव्यादि, साहित्य में आप धुरंधर विद्वान होगये । मुनि कल्याण कलस ने निमित्तज्ञान का भी अध्ययन कर लिया था। यही कारण था कि आचार्य ककसूरि ने तीर्थ श्री सम्मेतशिखर की शीतल छाया में हजारों मुगियों में शुनि कल्याणकलस को सर्वगुणसम्पन्न जानकर सूरिपद से विभूषित कर श्रापका नाग देवगुप्तसूरि रख दिया था जो पट्ट क्रमश: चला आ रहा था। __ आचार्य देवगुप्तसूरिजी बड़े ही प्रभाव शाली एवं धर्म प्रचारक आचार्य हुए आचार्य श्री धर्मप्रचार करते हुए एक समय चन्द्रावती की ओर पत्रार रहे थे । शाह डाबर ने सुना कि आचार्य देव गुमासूरि चन्द्रावत' पधार रहे हैं तो उसनेअपनी स्त्री पन्ना को कहा तुम्हाग बेटा आवार्य बनकर पा रहा है पन्ना कई अप्ता से पुत्र से मिलना चाहती थी। यों तो चन्द्रावती के राजा प्रजा ने सूरिजी के नगर प्रवेश का महोत्सव किया ही था पर उसमें शाह डाबर ने विशेष भाग लिया । इ.ना ही क्यों पर शाह बाबर ने इस महोत्सव में र वा लक्ष द्रव्य व्यय किया । जब सूरिजी ने मन्दिरों के दर्शन कर उपाश्रय पधार कर धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया तो माता पन्ना के हर्ष का पार नहीं रहा इतना ही क्यों पर माता पन्ना के तो हर्ष के आँसू बहने लग गये । व्याख्यान के अंत में सभा विसर्जन हो गई तथापि माता पन्ना वहाँ खड़ी २ अपने बेटा के सामने देख रही थी। सैकड़ों साधु और साध्वियों के अधिपति कल्याण ( सूरिजी ) ने माता को उच्च स्वर से धर्म लाभ दिया और पूछा कि श्राविका धर्म साधन करती हो न ? संसार में धर्म ही सार है पूर्व जन्म के लिये खर्ची साथ में ले लेना ? इस पर माता ने पहले तो उपालम्ब दिया कि आप तो हम लोगों को छोड़ के चले गये और जाने के बाद दर्शन भी नहीं दिये इत्यादि । मात पन्ना ने पुनः कहा कि आप तो संसार से तर गये अब हमको भी ऐसा रास्ता बतलाइये कि हमारा भी कल्यरण हो जाय? सूरिजी ने कहा-माता जिनेन्द्र देव के धर्म की आराधना करो। संसार समुद्र से पार करने वाला यह एक जैनधर्म ही है, इत्यादि । माता ने कहा कि आप यह चतुर मास यहीं करावें कि हम लोग कुछ लाभ उठा सकें। सूरिजी ने कहा कि क्षेत्रस्पर्शना । माता का दिल जाने का नहीं था ६७० [ कल्याण की दीक्षा और देवगुप्तसरि Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तभूरि का जीवन ] : ओसवाल संवत् ६६०-६८२ पर साधु भिक्षा लेकर आ गये थे अतः माता वन्दन कर अपने स्थान पर चली गई । पर अपने पुत्र का अतिशय प्रभाव को देखा जिससे उसके हर्ष का पार नहीं था। शाह डाबर ने अपनी स्त्री से कहा देख लिया न बेटा को तेरा बेटा कितने ठाठ से रहता है। अपने घर में रहता तो घर वाले या नगर वाले ही मानते पर आज वह जहाँ जाते हैं वहाँ बड़े २ राजा महाराजा उनकी पूजा करते हैं । यदि बेटा के साथ अपन भी दीक्षा ले लेते तो अपना भी कल्याण हो जाता । सेठानी ने कहा कि अब भी क्या हुआ है दीक्षा लेकर कल्याण करो। सेठजी ने कहा ठीक है, आप तो मेरे साथ हो न ? बस हँसी २ में सेठानी ने कह दिया कि आप दीक्षा लें तो मैं भी तैयार हूँ। जब प्राचार्य देवगुप्त सूरि को पता लगा कि मेरे माता पिता दीक्षा का विचार कर रहै हैं अतः मेरा कर्तव्य है कि इनका उद्धार करूँ । समय पाकर सूरिजी ने शाह डाबर को उपदेश दिया। डाबर ने कहा कि अब हमारी अवस्था तो वृद्ध हो गई है तथापि आपके विश्वास पर हम दोनों आपके पास दीक्षा लेने का विचार कर रहे हैं पर आप यहाँ चर्तुमास करें मैं कुछ द्रव्य शुभ कार्य में लगा कर दीक्षा लंगा तथा चन्द्रावती श्री संघ ने भी सूरिजी से चर्तुमास की खूब अाग्रह से बिनती की और सूरिजी ने लाभालामा कारण जानकर चतुर्मास की स्वीकृति दे दी । बस, फिर तो था ही क्या शाह डावर एवं जनता का उत्साह कई गुना बढ़ गया। सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था । तथा चन्द्रावती में एक सन्यासी ने भी चतुमाल किया था उन्होंने एक दिन कहा कि इस संसार की भूमि पर सात द्वीप और सात समुद्र हैं और स्वर्ग में पाँचवा ब्रह्म लोक है इनके अलावा न तो द्वीप समुद्र हैं और न स्वर्ग ही है इत्यादि । यह बात सूरिजीके कानों तक पहुँची तो आपने अपने व्याख्यान में फरमाया कि सात द्वीप और सात समुद्र ही नहीं पर असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं तथा स्वर्ग में पाँचवा देवलोक ही क्यों पर उसके ऊपर क्रमशः सर्वार्थसिद्ध वैमान तक कुल २६ देवलोक हैं । सात द्वीप सात समुद्र की प्ररूपना करने वाला मूल पुरुष शिवराजर्षि थे जिनका वर्णन श्री भगवती सूत्र के ११ शतक ५ उद्देशा में इस प्रकार किया है। हस्तनापुर के राजा शिव ने तापसी दीक्षा ली और तप करने से उनको विसंग ज्ञान उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने ज्ञान से सातद्वीप सात समुद्र देखे और जैसा देखा वैसा ही लोगों को कह दिया पर बहुत से लोगों ने इस बात को नहीं मानी जिसले शिवराजर्षि को शंका उत्पन्न हुई अतः शंक' से जो ज्ञान था वह भी चला गया । उस समय भगवान महावीर देव का पधारना हस्तनापुर में हुआ अतः शिवराजर्षि अपनी शंका का समाधान करने को भगवान के पास गया : भगान् ने उसके मनकी बात कहकर समझाया कि ऋषिजी आपने विभंग ज्ञान से केवल सातद्वीप सात समुद्र ही देखा है परन्तु द्वीप समुद्र असंख्याते है इससे ऋषिजी ने कइ तर्क वितर्क की और अन्त में शिवराजर्षि ने भगवान महावीर के पास दीक्षा लेली और तप संयम की आराधना करने से अतिशय ज्ञान होगया जिससे आप स्वयं असंख्याते द्वीप समुद्र देखने लग गये । इसी प्रकार श्री भगवती सूत्र ११ वाँ शतक के १२ वाँ उद्देशा में वर्णन किया है कि-पोगल सन्यासी ने विभंग ज्ञान द्वारा स्वर्ग पाँचवा ब्रह्म देवलोक देखा अतः उन्होंने प्ररूपना करदी कि ब्रह्म देवलोक के सिवाय स्वर्ग ने देवो नहीं है कई लोगों ने इसको नहीं माना तब उसने भी भगवान महावीर के पास जाकर निर्णय किया और जैनदीक्षा स्वीकार करली थी और वे कर्मक्षय कर केवल ज्ञान प्राप्त किया तब जाकर लोगों को समझाया कि वर्ग २: है अन्त में मोक्ष चले गये। जब इन दोनों मान्यताओं के मल सन्यासीजी का सृष्टिवाद । ६७१ Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २६०–२८२ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पुरुषों ने अपनी भूल स्वीकार कर जैन दीक्षा धारण कर अपना कल्याण कर लिया तो उन गलत मान्यता के नाम से भ्रम फैलाना हित का कारण नहीं होसकता है । इस बात को सुनकर दूसरे दिन सन्यासीजी ने सूरिजी के व्याख्यान में आकर पूँछा कि आपके धर्म में सृष्टिक्रम अर्थात् स्वर्ग मृत्यु और पाताल को कैसे माना है मैं उसको सुनना एव समझना चहाता हूँ ? । सूरिजी ने सन्यासीजी को समझाया कि नीचे लोक में सात नरक हैं मृत्युलोक में मनुष्य तियेच हैं और ऊर्ध्वलोक में देवता हैं और सम्पूर्ण लोक के अप्रभाग में ईश्वर सिद्ध है। नीचे लोक में सात नरक हैं उनके नाम घमा, बनसा, शीला, अंजना, रिठा, मघा, माघवती इन सात नरकों के गोत्र रत्नप्रभा, शार्करप्रभा, बालुकप्रभ पङ्कप्रभा, धूम्रप्रभा, तमप्रभा और तमस्तम प्रभा; महारंभ महापरिमह की इच्छा पांचेन्द्रियजीवों के घाती और मांस के आहारी इन पापों के करने वाले नर्क में जाते हैं जिसमें भी जैसा पाप वैसी सजा ( नरक ) नरक में आयुष्य भी अलग २ होती हैं वहाँ से पूरा आयुष्य भुगत लेता है तब छुटकारा पाकर जीव पुन मृत्युलोक में आता है। मृत्युलोक में मनुष्य और तियच रहते हैं। मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं कर्मभूमि अकर्मभूमि और समुर्छिम मनुष्य । कर्मभूमि मनुष्य उसे कहते हैं कि जहाँ असि मसि और कसी कम से आजीवका करते हों जैसे अपने यहाँ मनुष्य हैं दूसरे-अकर्मभूमि जिसको जुगलिये भी कहते हैं उनके यहाँ असि मसि कसी नहीं होती है पर कल्पवृक्ष उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं वे बड़े ही भद्रिक परिणामी होते हैं उनका श्रायुष्य और शरीर दीर्घ होता है पर काम भोग की इच्छा बिल्कुल स्वल्य होती है । जिन्दगी भर में एक ही दफे भोग करते हैं जिससे एक युगल पैदा होता है और आगे चलकर अपने जीवन के अन्तिम भाग में बही दम्पत्ति बन जाते हैं। उनकी गति केवल एक स्वर्ग की ही होती है। समुर्छिम मनुष्य-जो मनुष्य के टट्टी पेशावादि असूची पदार्थों के अन्दर अन्तर महूर्त में ही समुर्छिम मनुष्य पैदा होजाते हैं, उनका आयुष्य अन्तर मुहूर्त का होता है । मृत्युलोक में दूसरे तिर्यच हैं जिसके पाँच भेद हैं एकेन्द्रिय, बीन्द्रिय तेन्द्रिय, चौरीन्द्रिय और पांचेन्द्रिय इनके अलावा इस मृत्युलोक में जम्बुद्वीप आदि असंख्याता द्वीप लवण समुद्रादि असंख्याता समुद्र हैं जिसमें जम्बुद्वीप धातकीखंड और पुष्करार्द्ध एवं ढ़ाई द्वीप में मनुष्यतिथंच दोनों हैं और शेष द्वीप समुद्रों में तिथंच रहते हैं। ३.उर्ध्वलोक इसमें देवता रहते हैं । देवता चार प्रकार के होते हैं जैसे भुवनपति, व्यान्तर, ज्योषि और वैमानीक जिसमें भुबनपति और व्यान्तर तो नीचे लोक में, ज्योतिषी तिर्यग लोक में और वैमानीक उर्ध्व लोक में रहते हैं इन नरक तिर्यच मनुष्य और देवताओं के अलग २ भेद कहे जाय तो ५६३ भेद होते हैं और इन तीन लोक के ऊपर मुक्त जीव रहते हैं वे कर्म मुक्त होने से मोक्ष में जाने के बाद फिर वहाँ से नहीं लौटते हैं पर बहाँ अनंत सुखों में सदैब के लिये स्थित रहते हैं । अधो मध्य, और उर्ध्व, अथवा स्वर्ग मृत्यु पाताल इन तीनों को लोक एवं सृष्टि कही जाति है जिसका आकार नीचे से चौड़ा तीपाया के जैसे मध्य में संकीर्ण-गोल मलर के जैसे उर्ध्व चौड़ा उभी मर्दैग के सदृश और सम्पर्ण लोग का आकर जामा पहना हुआ कम्मर के हाथ लगाकर नाचना हुआ पुरुष के सदृश हैं। इस सृष्टि को न किसीने रची है न कभी इसका विनासही होगा हाँ कभी उन्नति और कभी अवनीति हुआ करती है इसी प्रकार अनादि काल से उन्नति अवनीति का काल चक्र चलताही रहता है। ६७२ [ सन्यासीजी का सृष्टिवाद Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तमरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ सन्यासीजी ! यह बात किसी साधारण व्यक्ति की कही हुई नहीं है कि जिसमें शंका को स्थान मिले पर इसके कथन करने वाले हैं सर्वज्ञदेव कि जिन्होंने अपने केवल ज्ञान दर्शन द्वारा सम्पूर्ण लोकालोक को हस्तामलक की तरह प्रत्यक्ष देख कर कहीं है । अतः यह बात विश्वास करने काविल है और बड़े २ ऋषियों मुनियों ने इस विषय के अनेक प्रन्थों का निर्माण किया है वह अद्यावधि विद्यमान भी हैं। सूरिजी की समझाने की शैली उत्तम प्रकार की होने से सन्यासीजी अच्छी तरह से समझ गये और सूरिजी के कहने पर आपको विश्वास भी होगया तथा दिल की शंका मिटाने के लिये सन्यासीजी ने पूछा कि महात्माजी ! इस प्रकार सृष्टि की रचना किसने एवं कब की होगी ? यह एक मेरा सवाल है। सूरिजी ने कहा सृष्टि का कोई कर्ता हर्ता नहीं है । सृष्टि द्रव्यापेक्षा शाश्वती है । और पर्यायापेक्षा अशाश्वत है क्योंकि इसकी पर्याय समय २ बदलती है जैसे सुवर्ण द्रव्यापेक्ष नित्य है पर उसकी पर्याय सुरतआकृत बदलती रहती है । चूड़ी का बाजू और बाजू का कंठा बना लिया तथापि सुवर्ण नित्य है वैसे ही ष्टि में जल के स्थान स्थल और स्थल के स्थान जल हो जाता है इस प्रकार सृष्टि की उन्नति अवनीति होती रहती है पर सष्टि सदैव के लिये शाश्वती है । सन्यासीजी-यह भी तो कहा जाता है कि सष्टि ईश्वर ने रची है और इसका कर्ता हर्ता भी ईश्वर हैं ! सूरिजी-सन्यासीजी ! ईश्वर साकार हैं या निराकार सन्यासी-ईश्वर निराकार है सूरिजी-श्राप स्वयं सोच लीजिये कि निराकार ईश्वर ने साकार सृष्टि की रचना कैसे की होगी ! कि जिस ईश्वर के हस्त पैरादि श्राकार ही नहीं है वे आकार वाली सृष्टि की रचना कैसे कर सके । सन्यासी-सष्टि की रचना करने में ईश्वर को हस्त पैरों की क्या आवश्यकता है वे तो इच्छा मात्र से ही सृष्टि की रचना कर डालते हैं ऐसा हमारे शास्त्र में लिखा है। सूरिजी--क्या ईश्वर के भी इच्छा है ? यदि है तो वह जड़ है या चेतन । यदि चेतन है तो, एकोऽहं द्वितीय नास्ति' यह कहना असत्य ठहरेगा । यदि इच्छा जड़ है तो ईश्वर से भिन्न है या अभिन्न ? सन्यासी तो बड़े ही चक्कर में पड़ गये और इसका उत्तर नहीं दे सके इस पर सूरिजी ने कहा कि महात्माजी ! आप स्वयं सोच सकते हो कि इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर को माना जाय तो ईश्वर सृष्टि रचने में उपादान कारण है या निमित्त ? यदि उपादान कारण ईश्वर को माना जाय तो सृष्टि की रचना क्या ईश्वर ही सष्टि रूप है और सष्टि के प्रत्येक पदार्थ को ईश्वर ही समझना पड़ेगा । यदि मानो कि ईश्वर सृष्टि रचना में निमित्त कारण है तो ईश्वर उपादान कारण कहाँ से लाये ? यह एक सवाल पैदा होगा । यदि कहो कि उपादान कारण पहिले था तो मानना पड़ेगा कि पहिले सष्टि थी उसको ही ईश्वर ने नयी सष्टि रची इससे सृष्ट का कर्ता ईश्वर नहीं परसष्टि अनादि ही सिद्ध होती है । भला थोड़ी देर के लिये हम मानलें कि ईश्वर ने ही सृष्टि रची है तो सृष्टि के रचना काल में जीव थे वे पहिले किस अवस्था में और कहाँ पर थे कारण आपकी मान्यतानुसार तो पहिले एक ईश्वर ही था फिर सृष्टि के आदि में ईश्वर जीव कहाँ से लाया कि जिन जीवों से सष्टि की रचना की और पहले वे जीव सुखी थे या दुखी या सुखी दुखी दोनों प्रकार के थे । यदि कहा जाय कि जीव सुखी थे तो ईश्वर को क्या जरूरत थी कि उन जीवों से सष्टि की रचना कर उनको दुखी बनाये । यदि वे जीव दुःखी थे तो वह दुःख किस सन्यासीजी का सृष्टिबाद ] Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २६०-२८२ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भव में उपार्जन किया क्योंकि बिना सृष्टि के दुःख पैदा हो नहीं सकता है इससे भी यही सिद्ध होगा सृष्टि अनादि काल से प्रबाह रूप से चली आती है । यदि ईश्वर ने जीवों को सुखी बनाये थे तो दुखी क्यों बन गये तथा दुःखी बनाये थे तो क्या ईश्वर को उन जीवों प्रति द्वेष था कि बिना ही कारण विचारे जीवों को दुःखी बना कर दुःख दिया । सन्यासीजी ! संसार में जितने आस्तिक मत हैं उन सबकी मान्यता है कि परमाणु प्रकृति आत्मा और ईश्वर ये चारों शाश्वत है और इन पदार्थों से सृष्टि कही जाती है। जिसमें परमाणुओं का स्वभाव मिलने और बिछुड़ने का है और सृष्टि में जितने दृश्य पदार्थ हैं वह सब परमाणुओं से ही बने हैं । जब परमाणु शाश्वत हैं तो उनसे बने हुए पदार्थ को शाश्वत क्यों नहीं माना जाय ? अतः परमाणुओं से बनी हुई सृष्टि भी अनादि है । हाँ, किसी द्रव्य क्षेत्र काल भाव में परमाणुओं की स्थान अपेक्षा न्यूनाधिकता होती है तब सृष्टि की उन्नति अवनति भी अवश्य होती है। जैसे मानो कि एक बड़ा नगर किसी ने नष्ट कर डाला और उस नगर का तमाम सामान नष्ट होकर ज ंगल सा बन गया और उस नगर के लोगों ने एक उन्नत भूमि पर स्वर्ग सदृश्य नया नगर बसा दिया। अब हम पुराने नगर के लिये प्रलय कह सकते हैं तब नूतन नगर के लिये नयी सृष्टि पैदा की कह सकते हैं परन्तु वास्तव में न तो प्रलय है और न नूतन रचना ही है यह केवल परमाणुओं का मिलना बिछुड़ना ही है । इसी प्रकार आप सृष्टि को भी समझ लीजिये इत्यादि । सूरिजी के इस विवेचन का प्रभाव उपस्थित जनता पर खूब ही पड़ा । इतना ही क्यों पर सरल श्रात्मा वाले सन्यासीजी पर तो इतना असर हुआ कि वे उसी सभा में अपना वेश एक ओर रख कर सूरिजी महाराज के पास जैन दीक्षा लेकर आपश्री के शिष्य ही बन गये । हाँ सत्योपासक का तो यह कर्त्तव्य ही है कि सत्य वस्तु समझ में आ जाने के बाद वे क्षण भर की भी देरी नहीं करते हैं अर्थात् सत्य को स्वीकार कर ही लेते हैं । हमारे सन्यासीजी भी उसी श्रेणी के मुमुक्षु T 1 शाह डाबर और सेठानी पन्ना अपने पुत्र के विवेचन को सुनकर मंत्र मुग्ध बन गये और यह बात है भी स्वभाविक कि जिसके कुल में ऐसा प्रतापी पुत्र जन्म लेकर इस प्रकार जनता का कल्याण करे इससे अधिक खुशी की बात ही क्या हो सकती है। शाह डाबर और पन्ना का वैराग्य कई गुणा बढ़ गया और वैराग्य बिजली इतनी सतेज हो गई कि कब चतुर्मास समाप्त हो और कब हम दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करें इत्यादि । शाह डाबर ने अपने विचारानुसार कई साधर्मीभाइयों को गुप्त सहायता दी तथा जैन धर्म के प्रचार निमित्त और सात क्षेत्रों में पुष्कल द्रव्य व्यय कर लाभ प्राप्त किया शाह डाबर के पुत्र भी इतने विनयवान एवं सुपुत्र थे कि इस प्रकार द्रव्य के व्यय करने पर वे चुं तक भी नहीं की, इतना ही क्यों पर उल्टा खुशी हो अनुमोदन ही किया । मैं पहिले ही कह आया हूँ कि उस जमाने में निश्चय की मान्यता प्रधान थी और जहाँ निश्चय पर विश्वास है वहाँ सदेव संतोष ही रहता हैं। । उस जमाने के लोग दूसरों की आशा पर नहीं पर अपनी भुजाओं पर जीवन व्यतीत करते थे और उनके लिये यह बड़े से बड़ा सुख था । दुनियां कुछ भी करो समय तो अपना काम करता ही जाता हैं। इधर तो चतुर्मास समाप्त होता हैं उधर शाह डाबर और उनकी धर्म पत्नी पन्ना दीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। पर उन वृद्ध दम्पति की दीक्षा की भावना देख चन्द्रावती के तथा आस पास के आये हुये लोगों के अन्दर से कई ३२ नर नारी दीक्षा लेने ६७४ [ शाह डावर आदि ३२ की दीक्षा Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ को तैयार होगये । इसमें मुख्य कारण सूरिजी के त्याग वैराग्य मय व्याख्यान का ही था शाह डाबर के ब्येष्ठ पुत्र कानड़ ने अपने माता पिता की दीक्षा का बड़ा हो शानदार महोत्सव किया। केवल महोत्सव में ही नहीं पर साधर्मी भाइयों को पहरामणी और याचकों को दान में उस दानेश्वरी ने लाखों द्रव्य खर्च किया । सूरिजी ने शुभ मुहूर्त्त में उन मोक्ष के उम्मेदवारों को विधि विधान के साथ भगवती जैन दीक्षा देकर उन सब का उद्वार किया । बस, पुत्र हो तो ऐसा ही हो कि अपने माता पिता का इस प्रकार उद्धार करें जैसे भगवान् महावीर और आर्य रक्षित सूरि ने अपने माता पिताओं को दीक्षा देकर उद्धार किया था । आचार्य देवगुप्तसूरि चन्द्रावती नगरी से विहार कर यूथपति की भांति भूमंडल पर भ्रमण करने लगे एक समय आचार्य देवगुप्तसूरि अपने शिष्य समुदाय के साथ मूमण्डल को पवित्र एवं भव्य जीवों का उद्धार करते हुये कान्यकुब्ज देश एवं आप कन्नोज राजधानी में पधार रहे थे। वहां की जनता को खबर होते ही उनके हर्ष का पार नहीं रहा, उत्साह का समुद्र उमड़ पड़ा भलो गुरु महाराज पधारे इसने बढ़कर और खुशी क्या हो सकती है । अतः वे बड़े ही समारोह से सूरिजी का स्वागत कर नगर प्रवेश कराया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा हुआ करता था । एक समय इधर तो सूरिजी का व्याख्यान हो रहा था उधर पास ही से वहाँ का राजा चित्रगेंद घुड़सवार होकर जारहा था राजा ने मनही से सूरिजी को वन्दन किया । सूरिजी ने राजा की अंगचेष्टा से जानकर उच्चस्वर से धर्म लाभ दिया राजा सुनकर चला गया पर मन में समझ गया कि यह महात्मा बड़े ही अतिशय ज्ञानी हैं ! शाम के समय राजा ने अपने प्रधान मंत्री रावल को कहा रावल ! तेरे आचार्य यहाँ आये हैं और अच्छे ज्ञानी बतलाते हैं। एक दिन राज सभा में उनका व्याख्यान होना चाहिये। रावल ने कहा हाँ हुजूर आचार्य श्री अच्छे ज्ञानी हैं और उनका व्याख्यान अपनी राजसभा में अवश्य होना चाहिये | मेरा खयाल तो है कि सूरिजी का व्याख्यान कल ही हो तो अच्छा है राजा ने कहा कि अच्छा कल ही सही । मंत्री रावल ने सूरिजी के पास जाकर वन्दन के पश्चात् राजा की ओर से निवेदन किया कि आपश्री का व्याख्यान कल राज-सभा में हो तो अच्छा है क्योंकि राजा की इच्छा आपका व्याख्यान सुनने की है । सूरिजी ने कहा बहुत अच्छा है राजा की और आपकी प्रार्थना को हम स्वीकार करते हैं। वस, मंत्री ने स प्रकार की तैयारियां करलीं । पुरुष वर्ग के साथ ही साथ महिलाओं के लिये भी कनात वगेरह का अच्छा प्रबन्ध कर दिया कि वे भी सूरिजी का व्याख्यान सुन सकें I दूसरे दिन ठीक टाइम पर सूरिजी अपने विद्वान शिष्यों को साथ लेकर राजसभा में पधारे। इधर राजा और राजकर्मचारियों ने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया। सूरिजी के पधारने से पहिले ही समा श्रोता जनों से खचाखच भर गई थी। उधर महाराणीजी आदि राजअंतेवर और नागरिक महिलायें उपस्थित हो गई थीं। सूरिजी के एक बाल शिष्य था सबसे पहिले मंगलाचरण उसने किया जिसकी सारगर्भित मधुरवाणी राजा प्रजा को इतनी प्रिय होगई कि वे चाहते थे कि सम्पूर्ण व्याख्यान ही बातमुनि दे परन्तु बालमुनि मंगलाचरण करके चुप रह गया। तत्पश्चात् सूरीश्वरजी ने अपनी ओजस्वी वाणी से अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया । आपने धर्म का महत्व, धर्म का स्वरूप और धर्म की साधना के विषय खूब ही विवरण के साथ व्याख्यान दिया जिसमें बतलाया कि दुनिया में अनेक धर्म प्रचलित हैं तथा धर्म का नाम ही इतना प्रिय है कि जनता उसको बिना संकोच अपना लेती है । पर मैं आज आपके सामने धर्म का स्वरूप कहूँगा सूरिजी कन्याकुतज राजधानी में | ६७५ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २६०-२८२ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हजारों मनुष्य सभा में होने पर भी वातावरण शान्त था सबका दिल धर्म का स्वरूप सुनने की ओर लग रहा था और एकाग्र चित्त से जैसे चातक जलबिन्दु की आशा करते हैं वैसे जनता सूरिजी के व्याख्यान के लिये टकटकी लगा कर उत्सक हो रही थी। ___ सूरिजी ने कहा 'वत्थुसहावधम्मों' अर्थात् वस्तु के असली स्वभाव को धर्म कहा जाता है और उस स्वभाव में विकृति होजाना अधर्म है । जैसे आत्मा का असली स्वभाव ज्ञान दर्शन चरित्र में रमणता करने का है जिसको धर्म कहा जाता है और वही आत्मा अपने असली स्वभाव को भूल कर विषय कषाय में रमणता करता है उसे अधर्म कहा जाता है । जब श्रात्मा अज्ञान के वश सांसारिक माया में लिप्त होकर परवस्तु यानि विषय कषाय के चक्र में पड़कर धर्म के नाम पर अधर्म करने में तत्पर होती है तब उसको असली रास्ते पर लाने के लिये किसी न किसी निमित्त कारण की आवश्यकता रहती है उसमें सबसे प्रथम कारण देव गुरु धर्म का है कि उनकी उपासना से श्रात्मा में चैतन्यता प्रगट हो जाती है और निज घर में आकर अपने असली स्वरूप में रमणता करने लग जाता है यहाँ पर संक्षिप्त से देव गुरु धर्म के निमित्त का थोड़ा सा स्वरूप बतला देना अप्रासांगिक न होगा। १-देव- चाहे इस समय किसी धर्म के देव विद्यमान नहीं हैं पर उनका निर्दोष जीवन पढ़ने से ज्ञात हो जाता है कि जिस देव को देवत्व प्राप्त होने के बाद किसी प्रकार की लीला कौतूहल रागद्वेषादि श्रष्टादश दूषण नहीं है केवल विश्वोपकार में ही उनकी जीवनयात्रा समाप्त हुई थी ऐसे देव के स्मरण से मन पवित्र होता है गुण कीर्तिन से वचन पावन और उनकी शान्त मुद्रा एवं ध्यानावस्थित प्राकृति बाली मूर्ति की सेवा पूजा करने से काया पवित्र हो जाती है ऐसे देव की उपासना प्रथम कारण है। २-गुरु-कनक कामिनी के त्यागी नौवाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य के पालक प्रारंभ परिग्रह एवं संसारी कार्यों से मुक्त और चार कषाय एवं पांच इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करली है अहर्निश स्वपर कल्याण में जिनका प्रयत्न हो ऐसे गुरु दूसरा कारण है। ३--धर्म - जिसके अन्दर अहिंसा एवं स्याद्वाद और जिनाज्ञा को अघ्र स्थान और साथ में सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य परोपकारादि कार्य किये जायं यह धर्म तीसरा कारण है ! जिस जीव ने संसार में जन्म लेकर पूर्वोक्त देवगुरुधर्म को अच्छी तरह से पहिचान नहीं की है एवं उपासना भी नहीं की है उसका जन्म पशु की भांति निरर्थक अर्थात् पृथ्वी को भारभूत ही समझा जाता है। जैसे समझदार मनुष्य इच्छित स्थान पहुँचने के लिये हस्ती अश्वरथादि का संग्रह करता है वैसे ही मोक्ष नगर में जाने के लिये देवगुरुधर्म की उपासना कर लाभ का संग्रह करना चाहिये। श्रोताओं स्वकल्याण के साथ पर कल्याण करना भी महान् पुन्य है । पूर्व जमाने में कई गजा महा. गजा एवं सेठ साहूकार हो गये हैं और उन्होंने सर्व साधारण के कल्याण के लिये जैन मन्दिरों से मेदनी मंडित करवा दी थी जैसे राजा उत्पलदेव रावरुद्राट कक सम्राट चन्द्रगुप्त अशोक सम्प्रति चक्रवर्ति खारवेलादि नरेशों ने अनेक पुन्य कार्य किये जिसमें उन्होंने हजारों लाखों मन्दिर बना दिये थे । भले ही आज उन नरेशों का संसार में अस्तित्व नहीं है पर उनके किये हुये पुन्य कार्य रूपी अमर यशः दुनिया में जीवित है और जहाँ तक उनके बनाये पुन्य के स्तम्भ रूप मन्दिर रहेंगे वहां तक उनके धवल यश को जनता गाया ६७६ [सूरिजी का राज सभा में व्याख्यान Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ ही करेगी इत्यादि सुरिजी ने खूब प्रभावशाली उपदेश दिया बाद जैन शासन की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई । सूरिजी के व्याख्यान का प्रभाव यों तो सब लोगों पर हुआ ही था पर विशेष वहां के राजा चित्रगेंद पर हुआ कारण उनको सूरिजी पर पहले ही श्रद्धा हो गई थी कि मन से वन्दन करने पर भी आपने धर्मलाभ दे दिया था फिर सुन लिया सूरिजी का व्याख्यान जिसमें सूरिजी का किंचित मात्र भी स्वार्थ नहीं था जो आपने फरमाया वह केवल जीवों के कल्याण के लिये ही कहा था। राजा चित्रगेन्द सूरिजी का पक्का भक्त बन गया और कई प्रकार से तर्क वितर्क कर धर्म का निर्णय कर जैनधर्म को स्वीकार भी कर लिया और अपनी ओर से एक विशाल जैनमंदिर बनाना भी शुरू कर दिया और उस मंदिर के लिये भगवान महावीर की सुबर्णमय मूर्ति बनाई जिसके नेत्रों के साथ सवा सवा लक्ष रुपयों की दो मणियें लगाई थी जो रात्रि में सूर्य के सदृश्य प्रकाश करती थीं। जब राजा के बनवाया मन्दिर और मूर्ति तैयार हो गया तो राजा ने अपने निज मनुष्य को भेज कर गुरुवर्य देवगुप्तसूरि को बुलवाये और श्राचार्य श्री का पधारना कन्नौज राजधानी में हुआ तो राजा एवं सकल श्रीसंघ ने सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव बड़े ही समारोह से किया और सूरिजी महाराज के उपदेश से राजा ने जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव करवाया तथा आचार्य श्री देवगुप्रसूरि के कर कमलों से नूतन बनाई मूर्तियों की अंजनसिलाका तथा मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई जिसमें राजा ने सवा करोड़ द्रव्य व्यय कर जैन धर्म की उन्नति के साथ अनंत पुन्य भी संचय किया। आचार्य देवगुप्तसूरि महान प्रभाविक एवं जैनधर्म के कट्टर प्रचारक आचार्य हुये हैं केवल एक चित्रगेंद राजा को ही जैनी नहीं बनाया पर अनेक राजाओं को जैनधर्म में दीक्षित कर जैनधर्म को उन्नति के ऊंचे शिस्तर पर पहुँचा दिया था। पट्टावली कारों ने आप श्री के जीवन विषय बहुत विस्तार से वर्णन किया है। आचार्य देवगुप्तसूरि को बिहार करने का बड़ा ही शौक था। सैकड़ों कोसो का फासला आपको एक खेल ही नजर आता था। कहाँ मरुधर और कहाँ पूर्व, वे इच्छा करते तब ही बिहार कर देते । भला उस जमाने के मनुष्यों के संहनन कितने ही मजबूत हों परन्तु बिना धर्मोत्साह इस प्रकार का विहार हो नहीं सकता पर धर्मप्राण आचार्य देवगुप्तसूरि के नस-नस में जैनधर्म के प्रचार की भावना ठूस ठूस कर भरी हुई थी आप कन्नौज से विहार कर पूर्व की ओर पधारे, अंग बंग कलिंग की भूमि में भ्रमण करते हुये सम्मेतशिखर तीर्थ पर जाकर बीस तीर्थंकरों की और आचार्य कक्कसूरि को निर्वाणभूमि की यात्रा की । बाद कई अर्सा तक उस प्रदेश में भ्रमण कर वहीं विचरने वाले साधुओं की सार सम्भाल तथा वहां की जनता में धर्मभावना विशेष रूप से पैदा की। तत्पश्चात् आप पांचाल सिन्ध कच्छ सौराष्ट्र लाटप्रदेश में भ्रमण करते हुये मरुधर में पधारे जिसको सुनकर मरुधरवासियों के उत्साह का पार नहीं रहा आप क्रमशः विहार करते उपकेशपुर पधारे। श्रीसंघ ने आपका उत्साह पूर्वक स्वागत किया। श्रीसंघ के आग्रह से सूरिजी ने उपकेशपुर में चतुर्मास कर दिया। सूरिजी के विराजने से यों तो बहुत उपकार हुआ पर एक विशेष बात यह हुई कि आपनी ने कुमट गौत्रीय शाह जैता के पुत्र सारंग को भविष्य में होनहार समझ के तदन्वये देवगुप्ताचार्या यैः प्रतिबोधितः । श्रीकान्यकुज देशस्य स्वामी चित्रांगदाभिधः।। स्वराजधानी नगरे, स्वर्ण विम्ब समन्वितम् । योऽकार मज्जिन गृहं देवगुप्त प्रतिष्ठितम् ॥ उ. च. सुवर्ण मय मूर्तियों की प्रतिष्टा] ६७७ Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २६०-२८२ वर्ष । [भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दीक्षा दे अपना शिष्य बना लिया था और उसका नाम सौभाग्यकीर्ति रख दिया था। तत्पश्चात सूरिजी ने मरुधर मेदपाट आवंती प्रदेश में विहार कर जैनधर्म का प्रचार एवं उन्नति की । जब आप श्रीमान् उज्जैन नगरी में विराजते थे तब वहां के श्रीसंघ ने वहां एक जैनों की सभा की और बहुत दूर २ से चतुर्विध श्रीसंघ वहां आया धर्म प्रचार के विषय खूब जोरदार व्याख्यान हुये जिससे चतुर्विध श्रीसंघ और विशेष श्रमणसंघ में धर्म प्रचार करने की विजली पैदा हुई और वे धर्म प्रचार के लिये कटिबद्ध भी होगये। आये हुये साधुओं के अन्दर कई योग्य साधुओं को सूरिजी ने पदवियां भी प्रदान की जैसे --- १--मुनि सौभाग्य कीतिं आदि सात साधुओं को उपाध्याय पद प्रदान किया। २-मुनि राजहंसादि ग्यारह साधुओं को बाचनाचार्य पद । ३-मुनि दयामूर्ति आदि पांच साधुओं पण्डित पद । ४-मुनि चारित्रसुन्दरादि पांच मुनियों को गणिपद । ५- मुनि मङ्गलकलसादि तीन मुनियों को प्रवृतकपद । सूरिजी बड़े ही समयज्ञ थे आप यह भी जानते थे कि भिन्न २ प्रांतों में विहार करने वाले साधुओं में नायकत्व की जरूरत है तथा योग्य मुनियों की कदर करने से एक तो उनका उत्साह बढ़ता रहेगा और दूसरे भी साधु अपनी योग्यता बढ़ाने की कोशिश करेंगे। राजनीति में भी देख जाता है कि केवल एक राजा ही राजतंत्र नहीं चला सकता है पर उनके राजतंत्र चलाने में मन्त्री, महामन्त्री, दीवान, प्रधान, हाकिम, हवलदार आदि कई पदवीधरों की आवश्यकता रहती है । इसी प्रकार धर्नशासन भी केवल एक श्राचार्य से ही नहीं चलता है पर आचार्य के अलावा उपाध्याय, गणी, गणविच्छेदक, पण्डित, वाचनाचार्य और प्रवृतकादि पद प्रतिष्ठितों की आवश्यकता रहती है और उसकी पूर्ति के लिये ही सूरिजी ने योग्य साधुओं को पदवियां प्रदान की थी। तदनन्तर सूरिजी ने उन पदवीधरों की अध्यक्षता में मुनियों को पृथक र प्रान्तों में विहार करने की आज्ञा देदी और उन महात्माओं ने सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्य कर निर्दिष्ट स्थानों की ओर विहार भी कर दिया। पहिले जमाने में दश-दश बीस-बीस एवं इनसे भी अधिक दक्षायें एक ही साथ में होजाती थी इसका मुख्य कारण तो उस जमाने में जीवों का हलुकर्मी पाना था। दूसरे दीक्षा देने वाले आचार्य निस्पृही और परोपकारी थे। तीसरे उनका व्याख्यान त्याग वैराग्य एवं श्रात्मकल्याण के लिये ही होता था। चतुर्थ वे केवल अपनी जमात बढ़ाने को ही दीक्षा नहीं देते थे। पर उनकी भावना संसार के कारागृह से छुड़ा कर उनका उद्धार करने की ही रहती थी। पांचवें दीक्षा लेने वालों की पहिले पूरी परीक्षा की जाती थी और जो योग्य होता उसको ही दीक्षा दी जाती थी यही कारण था कि जनता में दीक्षा का बड़ा भारी महत्त्व समझा जाता था । चाहे कोई दीक्षा न भी लेता हो पर दीक्षा लेने वाले को वे अच्छा समझते थे और उनको पूज्य भाव से देखते थे। धर्म प्रचार का मुख्य तय आधार साधुओं पर ही रहता है । जितनी अधिक संख्या में साधु होते है उतना ही अधिक धर्म प्रचार होता है। एक समय अनार्य देशों तक साधु विहार करते थे तो उन अनर्य देशों में भी जैन धर्म का काफी प्रचार होगया था । अतः धर्मप्रचार के लिये साधुओं की आवश्कता है। उपकेशगच्छ के आचार्यों के पास अधिक दीक्षा लेने का कारण यह था कि एक तो इन प्रान्तों में ६७८ [उज्जैन नगरी में संघ सभा Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ जैन धर्म की नीव ही उपकेशगच्छाचार्यों ने डाली थी। दूसरे उपकेशगच्छाचार्यों का इन प्रान्तों में विहार विशेष होता था तीसरे उनका व्याख्यानभी त्याग वैराग्य पर विशेष होता था चौथे इस गच्छके प्राचार्य इतने कुशल होते थे कि कोई भी प्रान्त साधु विहीन नहीं रखते थे प्रत्येक प्रान्त में आवश्यकतानुसार साधुओं का विहार करवा ही देते थे। पांचवा इस गच्छ में एक ही प्राचार्य होते आये है कि सब साधु साध्वियां एक ही आचार्य की आज्ञा में चलते थे कि आपस में मान बड़ाई या मनोमालिन्यता का कारण ही नहीं था। छट्टा आचार्य स्वयं कम से कम एक बार तो उन सब प्रान्तों को संभाल ही लेते थे इत्यादि कारणों से उप. केशगच्छीय आचार्यों ने साधु संख्या खूब बढ़ाई थी और जैनधर्म का प्रचार भी प्रचुरता से किया था यदि उनका अनुकरण आज भी किया जाय तो आज भी आसानी से धर्म प्रचार कर सकते हैं परन्तु वर्तमान आचार्यों में तो स्वार्थता, शिथिलता, कायरता लोलुपता और अहंपदादि कई ऐसे गुण (1) धुस गये हैं कि वे सामग्री के सद्भाव कुछ करने काबिल नहीं रहे हैं यही कारण है कि कई प्रान्तों में जहाँ लाखों जैन थे वे क्षेत्र जैनधर्म विहीन बन गये हैं इसके लिये सिवाय भवितव्यता के और क्या कहा जा सकता है। आचार्य देवगुप्त सूरि बड़े ही प्रभाविक प्राचार्य थे आपके ब्रह्म वर्यादि अनेक अतिशय गुणों से रंजित हो राजा महाराजा तो क्या पर कई देवी देवता भी आपकी सेवा में उपस्थित रहते थे। आपश्री के उपदेश मे तो न जाने क्या जादू का चमत्कार रहा हुआ था कि क्या मनुष्य और क्या देवता जो एक बार आपके उपदेशामृत का पान कर लेता था वह सदैव उसके लिये लालायित ही रहता था। एक समय अंबा पद्मा अच्छृपत्ता और विजय एवं चारों देवियां श्री सीमन्धर स्वामी का व्याख्यान सुनने के लिये गई थी तो तीर्थङ्कर भगवान ने श्रीमुख से फरमाया कि इस समय भरतक्षेत्र में देवगुप्तसूरि अद्वितीय ब्रह्मचारी है और जैसी वाणी में मधुरता देवगुप्त के है वैसी दूसरे में नहीं है। व्याख्यान समाप्त होने के बाद चारों देवियां चलकर भरतक्षेत्र में देवगुप्तसूरि के पास आई। उस समय देवगुप्तसूरि आबू की कन्दरा में परमनिवृति में ध्यान लगा रहे थे। देवियों ने अपने मायावी रूप से अनेक प्रकार से अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग दिये पर वहां तो थे अकम्पमेरू जिसको कौन चला सके । आखिर देवियों ने अपने अपराध की माफी मांगती हुई कहा कि पूज्यवर ! जैसा सीमन्धर प्रभु ने अपने मुख से आपके अद्भत गुणों का बर्णन किया वैसे ही आप हैं। हम चारों देवियां आज से आपके चरणाविन्द की किंकरी हैं। अतः सेवाकार्य फरमा कर कृतार्थ करें हे प्रभो ! आप निर्वृति का एकान्त में सेवन करते हैं इसमें तो केवल आपका ही कल्याण है पर आप अपनी मधुरवाणी से उपदेश दिरावे तो उसमें अनेक जीवों का कल्याण हो सकता है और हम लोगों ने तीर्थङ्कर सीमंधर देव के मुखसे आपके वाणीकी मधुरता सुनी है उसी समय से आपके व्याख्यान की इतनी प्यासी हैं जैसे मरुधर के लोग पानी से प्यासे रहते हैं । अतः कृपा कर उपदेश सुनावें। आचार्य देवगुप्त सूरि ने उन देवियों को थोड़ा पर सारगर्भित उपदेश सुनाया जिसमें कहा कि पूर्व जन्म में क्या क्या कार्य करने से देवयोनि प्राप्त होती है और देवयोनि में देवताओं को क्या क्या कार्य करना चाहिये कि जिससे सुलभ बोधित्व प्राप्त हो, संसार के भ्रमण से छूट कर अक्षय सुख हासिल करलें इत्यादि । देवियाँ सूरिजी का मधुर उपदेश सुन कर खुश होगई और उनका दिल चाहने लगा कि ऐसा उपदेश पमेशा सुना करें। आचार्य देवगुप्तसूरि जैसे भाई के सपूत विरले ही होंगे कि जिन्होंने अपने जन्म देने वाले माता पिता को दीक्षा देकर उनकी सेवा भक्ति कर स्वर्ग पहुँचा दिये। तीर्थङ्कर सीमंधर का फरमान ] ६७९ Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २६०-२८२ वष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्राचार्य देवगुप्तसरिजी ने अपने २२ वर्ष के शासन में जैनधर्म की खूब ही कीमती सेवा की । अन्त में देवी सच्चायिका की प्रेरणा से आप तीर्थ श्री शत्रुजय पधारे । आपश्री का शुभागमन शत्रुजय का सुनकर चारों तरफ से संघ आपके दर्शनार्थ आये तीर्थ स्पर्शन और गुरुसेवा फिर तो कहना ही क्या था। सरिजी ने अपना शेष अल्प आयुष्य जानकर श्रीसंघ के महा महोत्सव के साथ उपाध्याय सोभाग्यकीर्ति को अपने पद पर आचार्य बनाकर उनका नाम सिद्धसूरि रक्खा दया बाद में आप एक मास के अनशनपूर्वक समाधि मरण के साथ स्वर्ग पधार गये। आपके स्वर्गवास से मनुष्यों को तो क्या पर देवियां भी निरानन्द होगइ थीं । देवियों ने महाविदेह क्षेत्र में जाकर पूछा कि हे प्रभो ! भरत क्षेत्र में प्राचार्य देवगुप्तसूरि का देहान्त होगया वे किस स्थान में गये होंगे । तीर्थकरदेव ने फरमाया कि देवगुप्तसूरि आठवें स्वर्ग में महाऋद्धि वाला देव हुआ है और वहाँ से चवकर महाविदेह क्षेत्र में एक राज कुँवर होगा और दीक्षा लेकर मोक्ष जायगा । देवियों ने पुनः सिद्धिगिरि पर पाकर चतुर्विध श्रीसंघ को सव हाल कह सुनाया । श्रीसंघ ने उन महाविभूती की यादगारी के लिये अर्थात् आचार्य देवगुप्तसूरि का एक स्तुम्भ बनाकर उनकी पादुका स्थापन की। पट्टावलियों वंशावलियों आदि चरित्र ग्रन्थों में आचार्यश्री के जीवन के साथ अनेक व्याख्याएँ मिलती है। पर प्रन्थ बढ़ जाने के भयसे यहाँ पर थोड़े से केवल नामोल्लेख ही कर दिया जाता है । प्राचार्य श्री के शासन समय भावुकों की दीक्षाएं । १ उपकेशपुर के भद्रगोत्रीय शाह कुम्भा ने सूरिके पास दीक्षाली २ शवस्वपुर के श्रेष्टिगौत्रीय , नारायण ने , ३ नागपुर के बाप्पनाग गौ० ,, हरपाल ने , ४ पद्मावती के आदित्य नाग०,, काला । ५ हर्षपुर के भूरिगोत्री० , दैपाल ६ नागपुर के सुघड़ गौ. ७ हंसावली के चोरलिया जाति,, ८ विराटपुर के मल्ल गो , कल्हण ९ आसिका के चंडालिया , यशबीर १० शाकम्भरी के तप्तभट्ट , माथुर ११ कातण के करणाट , सहरण १२ पाल्हिका० के श्री श्रीयाल , करमण १३ कोरंटापुर के प्राग्वट १४ चन्द्रावती के श्रीमाल मेहराज १५ मुग्धपुर के प्राग्वट मुकन्द १६ खकुंप के बलाह. भाखर १७ डामरेल के कुलभद्र , भारथ ने १८ उच्चकोट के वीरहट० , भीमा ने ६८० [ सिद्धगिरि पर सूरि-गवास रामा T TT TT " मुसल Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ For TE TERE ITE TEETr १९ कीराटपुर के श्री श्रीमाल शाह सणा दीक्षाली २० वर्धमान० के श्रेष्टि गौ० , हेमा २१ सोपार० के कुमट गौ. , माना २२ उज्जैन के कनौरिजया , २३ माडव्यपुर के चिंचट , जौधा २४ आघाट के चरड़ गौ० , कुमार २५ मध्यमिका के अदित्यनाग , खीवसी ने २६ चंदेरी के संचेती गौ० , चांचा २७ मथुरा के सुघड़ गौ० , चहाड़ ने , २८ लोहाकीट के चोरलिया० , देवा ने , २९ वीरपुर के ब्राह्मण , जगदेव ने , ३० रानकपुर के राव , हप्पा ने , इनके अलावा आपश्री के जीवन में कई स्थानों पर मुमुक्षुओं को दीक्षा दी थी और कई बहिनों ने भी दीक्षा ग्रहण कर अपना कल्याण किया था । तथा आपके आज्ञावृत्ति मुनियों ने भी बहुत से भव्यों को दीक्षा देकर श्रमण संघ में आशातिता वृद्धि की थी आपका शासन समय जैनधर्म की उन्नति का समय था प्राचार्यश्री के शासन समय तीर्थों के संघ१-नागपुर नगरसे अदित्यनाग गौत्रीय शाह फुवा ने श्रीशचॅजय का संघ निकाला-साधर्मी भाइयों को सोना मुहरों की पहरामणि दी सात यज्ञ किये । आपके एक पुत्र और दो पुत्रियां दीक्षा भी ली । २-चन्द्रावती नगरी से प्राग्वटवंशीय शाह कर्मा ने श्री शत्रुजय गिरनारादि तीर्थों का संघ निकाला जिसमें ८४ देरासर और एक लक्ष से अधिक यात्रु लोग थे शाह कर्मा ने साधर्मी भाइयों ने सोना मुहरों की पहरामणी दी और तीन बड़े यज्ञ किये । इन शुभ कार्यों में कई पन्द्रह लक्ष द्रव्य व्यय किया। ___३-उज्जैन से श्रीष्टि नारा ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला जिसमें श्रेष्टिवर्य्यनारा ने नौ लक्ष रूपयें व्यय कर अनन्त पुन्योपार्जन किया । और साधर्मी भाइयों को पहरामणी दी ४-शिव नगर से भद्र गौत्रीय मंत्री लाखण ने श्री सम्मेता शिखरजी तीर्थ का संघ निकाला जिसमें ११ हस्ती १२० देरासर तीन हजार साधु साधियों और करीबन एक लक्ष यात्रुओं की संख्या थी मंत्री ने वड़े ही उदार चित से पुष्कल द्रव्य व्यय किया ओर पूर्व की तमाम यात्राएँ की धन्य है ऐसे नर रत्नों को । ५-कोरंटपुर से श्रीमाल हाला ने श्री शत्रंजय का संघ निकाला६-सोपारपट्टन से वलाह गौत्रीय शाह मघा गोपाल ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला७-टेलीपुर मे प्राग्वट जालण ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला८- शंखपुर से तप्तभट्ट गोत्रीय मंत्री नागदेव ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला९-दान्तीपुरा से बापनाग गौत्रीय शाह लाधा ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला १८-स्तम्भनपुर से प्राग्वट रघुवीर ने श्री शत्रुजय का विराट संघ निकालासरिजी के शासन में तीर्थों के संघ ] ६८१ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २६०-२८२ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ११-उपकेशपुर से अदित्यनाग गौ० शाह सोमनाग ने श्री शत्रुजय को संघ निकाला१२-चित्रकोट से सुचिंती गोत्रीय मंत्री हरदेव ने श्री उपकेशपुर का संघ निकाला१३-चंदेरी से चरड़ गौत्रीय शाहसुखा ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला१४-माण्डबगढ़ से कुलभद्र गौत्रीय शाह नाथा ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला१५- पद्मावती से मोरक्ष गौत्रीय शाह गुणपाल ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला१६-शिवपुरी से प्राग्वट शाह भैराने श्री शत्रुजय का संघ निकाला १७-मथुरा से अष्टि गौत्रीय शाह शाखला ने श्री सम्मेत शिरखरजी का संघ निकालाजिसमें संधपति शाखला ने एक करोड़ द्रव्य व्यय किया साधर्मी भाइयों को साना की केडियों और बहनों को सोना के चूड़ा की पहरामणि देकर अपनी उज्वल कीर्ति को दुनियों के इतिहास में अमर बना गये थे। इत्यादि अनेक महानुभावों ने अपनी चल लक्ष्मी को ऐसे पुनीत कार्यों में अचल बना कर स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण किया इन संघ निकलने में आचार्य श्री तथा श्रापके मुनिवरो का ही उपदेश था । आचार्यश्री के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं १-मुगेरानगर के बाप्पनाग गौ० मोखम ने भ० महावीर के म० प्र० २-धोलागढ़ के कन्याकुब्ज तारा ने , , के , ,, ३-गुडानगर के मल्ल गौ० देहल ने , के , ४- रत्नपुरा के सुचंती गौ० रूपणसीने , पार्श्व के , , ५-क्षत्रीपुरा के श्रादित्यनाग० कल्हण ने , ६-हंसावली के घरड गौ० पुना ने , शान्ति ७-बिराटपुर के सुघढ़ गौ० नैणा ने , महावीर ८-नारायणपुर के श्रोष्ठि गौ. जैतसी ने ९-टेलीपुर के श्रोष्टि गौ० गोकल ने ,, , १०-हर्षपुर के कुलभद्र गौ० भाणा ने , ११-नन्दपुर के बलाह गौ० जैता ने , आदि १२-भवानीपुर के भूरि गौ. भोला ने , १३-शाकम्भरी के चिंचट गौ० रामदेव ने ,, महावीर १४-रूणावती के लघुष्टि गौ० हाँसा ने , १५--कुर्षपुरा के करणाट गौ० मूजा ने , १६-धनपुर के कुमट गौ० गवल ने ,, पाव १७-जोसोरपुर के आदित्यनागगौ० पेथा ने , १८-बड़नगर के बीरहट गौ० हरपाल ने , महावीर १९-खड़गपुर के भाद्रगौ० देवा ने , " २०-मुग्धपुर के श्रीमाल गौ. रामा ने , , के , ६८२ [ सूरिजी के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठा Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ पाए. २१–मेदनीपुर के प्राग्वट गौ० भोमा ने भ० विमल० के म. प्र. २२-मुजपुर के प्राग्वट गौ. दोला ने , पार्श्व० २३-वीरपुर के प्राग्वट गौर रावल ने , , २४-देवपुर के गान्धी गौ० नींबा ने , , २५-लाढापुर के बोहरा गौ० कांना ने , २६-भीनामाल के श्रीष्टि गौ० सज्जन ने २७-मंडाणी के बाप्पनाग गौ. नौदा ने २८--शौर्यपुर के भाद्र गौ० माना ने ,, ,, २९-- मथुरा के करणाट गी० खंगार ने , शान्ति ३.-वैराटपुर के प्राग्वट वंशीय जोराने , चन्द्रप्रभ । ३१-कतिलपुर के प्राग्वट वंशीय थाना ने , श्रादीश्वर के , , इत्यादि अनेक स्थानों पर जैन मंदिरों की प्रतिष्ठाए करवाई ! कहने की आवश्यकता नहीं है कि उस जमाना में जनता की मन्दिरों पर कितनी श्रद्धा थी दूसरे जैनाचार्यों ने भी जहाँ नये जैन बनाये वहाँ सबसे पहला मन्दिर का उपदेश दिया करते थे इससे एक तो धर्म पर श्रद्धा मजबूत बनी रहती दूसरे इससे गृहस्थों के पुन्य भी बढ़ते थे कारण इस निमित कारण से गृहस्थों के घर से प्रतिदिन कुछ न कुछ द्रव्य निकल हो जाता । जब उस समय का इतिहास देखा जाता है तो इस प्रकार के मन्दिरों की आवश्यकता भी थो तीसरे उस समय जैनों की संख्या करोड़ों की थी और उसके पास लक्ष्मी भी अखूट थी और वे लोग तीर्थों के संघ निकलने में मन्दिर बनाने में साधर्मी भाइयों को सहायता देने में अपने जीवन की सार्थकता समझते थे इत्यादि कारणों से पाया जाता है कि उस समय प्रत्येक आचार्य के समय इस प्रकार के मन्दिरों की प्रतिष्टा हुआ करती थी मैंने वहां पर केवल थोड़े से नामों का ही उल्लेख किया है। चार वीस पट्ट सरि शोभे, देवगुप्त यक्षधारी थे। कुमट गोत्र उद्योत किया गुरु, जैनधर्म प्रचारी थे। शुद्ध संयम अरु तप उत्कृष्टा, ज्ञान गुण भंडारी थे । सुविहित शिरोमणि जिनकी सेवा, करते पुन्य के भारी थे । ॥ इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के २४ वें पट्ट पर आचार्य देवगुप्तसूरि महान प्रभाविक आचार्य हुये ॥ सूरिजी का समाधि स्वर्गवास ] ६.३ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८२-२९८ वष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २५ प्राचार्य सिद्धसूरि (चतुर्थ) श्रेष्ठी श्रेष्ठ गुणन्वितो दिनमणिर्गोत्रे स्वकीये मतः आचार्यस्तु स सिद्धसूरिरभवत् सिद्धेः सुवर्णस्य च ॥ स्वामी दीक्षित एव गतवान् विद्यासमुद्रस्तथा । यत्नो येन कृतः स्वत्तः सविपुत्नो जैनीयधर्मोन्नतौ ॥ ® चार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज एक सिद्ध पुरुष ही थे। अनेक विद्यायें और लब्धिये तो या आपको स्वयं वरदाई थी। मंत्र यंत्र में श्राप सिद्धहस्त थे । श्राप जैसे विद्वान थे वैसे श्राप ® धर्म प्रचारक भी थे। आपश्री ने अनेक सिद्ध कार्य करते हुए धर्म के उत्कर्ष को खूब बढ़ाया था । आपका जन्म उपकेशपुर नगर के महाराज उत्पलदेव की सन्तान परम्परा के श्रेष्टि गोत्रीय शाह जैता की गृह देवी एवं धर्मपरायण चम्पादेवी की पवित्र कुक्ष से हुआ था। आपका नाम सारंग था। शाह जैता विशाल कुटुम्ब वाला होने पर भी उसके पूर्वभव की ऐसी कोई अन्तराय थी कि द्रव्य के लिये अनेक प्रयत्न करने पर भी उसका गुजारा बड़े ही मुश्किल से चलता था। निर्धन लोगों के घर में जैसे दरिद्र का वास होता है वैसे ही क्लेश भी अपना अड्डा जमा बैठता है । इन दोनों से शाह जैता महान् दुःखी रहता था। एक समय आचर्य देवगुप्त सूरिजी का पधारना उपकेशपुर में हुआ। समय पाकर शाह जैता ने सूरिजा की सेवा में आकर अपनी दुःख गाथा कह सुनाई। इस पर सूरिजी ने कहा जैता ! जीवों के सुख और दुःख पर्वसंचित कर्मानुसार होते हैं पर न तो सदैव दुःख रहता है और न सुख ही रहता अर्थात् सुख और दुःख का चक्र चलता ही रहता है। सामग्री के होते हुए भी जीव पुन्य संचय नहीं करते हैं उसका ही यह फल है फिर भी आत्मा में अनंत शक्ति है । कैसा ही कर्म क्यों न हो उसे हटा सकता है । दूसरे दुःख अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाता है तब समझ लेना चाहिये कि अब इसका अन्त होने वाला है । तेरे कुछ नियम व्रत भी है या नहीं ? शाह जैता ने कहा प्रभो ! मेरी इच्छा तो बहुत रहती है पर सांसारिक प्रपंच के कारण मैं कुछ कर नहीं सकता हूँ । सूरिजी ने कहा जैता। पर्वभव में तो कुछ नहीं किया जिसका फल यहां भुगत रहा है । यदि इस भव में भी कुछ नही करेगा तो भविष्य में क्या पावेगा । अतः तुमको धर्म आराधन अवश्य करना चाहिये । जैता ने कहा तथास्तु, जैसे मेरे से बन सके वैसा रास्ता बतलाइये। सूरिजी ने कहा कि जैता श्रावक का आचार है कि कम से कम हमेशा परमेश्वर की पजा और एक सामायिक तो करनी हो चाहिये। जैता ! परमेश्वर की पूजा इस भव और परभव में हित सुख और कल्याण का कारण है और सामायिक से जीव को शान्ति मिलती है। सूरिजी और जैता के वीच बातें हो रही थी इतने में सारंग भी श्रा गया । जिसको देख सूरिजी ने कहा जैता यह लड़का कौन है ? इसकी भाग्यरेखा इतनी जोरदार है कि यह कोई प्रभाविक पुरुष होगा ! जैता ने कहा पूज्यवर ! यह आपका लघु श्रावक है। सूरिजी जान गये कि यह जैता का पुत्र है । शाह जैता सूरिजी के शुभ वचन सुनकर बड़ा खुश हुआ । उसके दिल का सब फिक्र तो ६८४ ___ [ आचार्य देवगप्रसार का जैता को उपदेश Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ चोरों की भांति भाग छूटा। मनुष्य का भाग कैसे खुलता है और नीचे गिरा हुआ मनुष्य किस कदर उच्च स्थिति को पहुँचता है और गुरू महाराज का वचन कैसे सिद्ध होता है जिसको आप आगे के पृष्ठों पर पढ़ोगे कि सारंग का जीवन एक उदाहरण रूप बन जाता है। सूरिजी ने कुछ अर्सा ठहर कर बिहार कर दिया ! पीछे एक समय सारंग अपने भाइयों से अनबन के कारण एक दिन बिना किसी के कहे घर से निकल गया। सारंग के घर में था भी तो क्या कि कुछ रास्ते के लिये साथ ले जाता फिर भी सारंग को अपनी तकदीर पर भरोसा था । वह चलता चलता जा रहा था मार्ग में एक सिद्ध पुरुष का साथ हो गया । वस सारंग की तकदीर खुलने का यह एक निमित्त कारण था, सारंग सिद्ध पुरुष के साथ हो गया और चलते हुए एक दिन काही विश्राम लिया, भाग्यवशात् सिद्ध पुरुष बीमार होगया यहां तक कि उसे के जीने की आशा तक भी छूट गई । परन्तु सारंग ने उस सिद्ध पुरुष की इतनी चाकरी की कि वह मरने से बच गया। इसमें उपादान कारण तो उसका आयुष्य ही था पर निमित्त सारंग का भी साथ था। ज्ञानी पुरुषों का कर्तव्य है कि अपने निमित्त से दूसरों का भला हुआ हो तो उसके उपादान कारण को ही समझे और दूसरे के निमित्त से अपना भला हुआ हो तो उस निमित्त कारण को याद करे । तात्पर्य यह हुआ कि अपने निमित्त से दूसरों का भला हुआ हो तो उसे भूल जाना कि इसका उपदान ही अच्छा था मैं तो केवल निमित्त कारण ही था और दूसरे के निमित्त से अपना भला हुआ हो तो उस निमित्त को हमेशा स्मरण में रखना । और बन सके तो प्रत्युपकार करे। सिद्ध पुरुष भी एक ज्ञानी था उसने सारंग का बड़ा भारी उपकार माना जिसके प्रत्युपकार के लिये उसने सोचा कि मैं इसका बदला कैसे दे सकू ? सिद्धपुरुष ने सारंग को एक सुर्वणसिद्धविद्या प्रदान की सारंग ने कहा कि मैंने अपने कर्तव्य से अधिक कुछ भी नहीं किया अतः यह विद्या आप अपने पास ही रहने दीजिये और देना ही है तो किसी योग्य पुरुष को दीजिये कि इसका सदुपयोग हो सके। सारंग के निष्कपट और निस्पृहता के वचन सुन सिद्ध पुरुष को उस पर और भी श्रद्धा बढ़ गई । और उसने सुवर्ण सिद्ध विद्या आम्नाय के साथ सारंग को देदी । बस, फिर तो था हो क्या सारंग ने उस विद्या द्वारा पुष्कल सुवर्ण बनालिया और उस सुवर्ण द्वारा अनेक निराधार गरीबों का उद्धार कीया। कारण, जिस मनुष्य ने गरीबीदेवी को देखी हो उसको ही अनुभव होता है कि गरीबाई कैसे निकाली जाती है। सारंग घूमता घूमता सोपार पट्टन में आया। यद्यपि वहाँ सारंग के जान पहिचान वाला कोई नहीं था पर उसके पास था सुवर्ण का खजाना और परोपकार की बुद्धि कि सारंग सर्वत्र प्रसिद्ध होगया । कुछ दिन ठहरने से कई लोगों से परिचय भी हो गया । कई लोगों ने अपनी कन्या की सारंग के साथ सादी करनी चाही । पर सारंग ने इसे स्वीकार नहीं किया । सारंग ने वहां रहकर शुभकार्यों में खूब सुवर्ण व्यय किया कि सारंग की कीर्ति सर्वत्र फैल गई। कहा है कि " सर्वगुणाकांचानमाश्रयन्ति"। सारंग महावीर देव की यात्रार्थ एक संघ लेकर तीन वर्षों से वापिस उपकेशपुर आया यहाँ तक उपकेशपुर में सारंग का कुछ भी पता नहीं था । शाह जैता के तेरह पुत्र थे सारंग को याद भी कौन करता था । पर जब उयकेशपुर का संघ, संघ आया जान कर उसको वधाने के लिये गया तो संघपति की माला सारंग के शुभ कंठ में सुशोभित देखी तब जाकर लोगों को मालूम हुआ कि यह तो शाह जैता का पुत्र सारंग है। अतः लोगों ने जाकर जैता को वधाई दी कि तुम्हारा पुत्र सारंग संघ लेकर आया है, इसको जैता अपनी निर्धनता की मस्करी हो सारंग और सिद्ध पुरुष ] ६८५ Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास समझी पर जब जाकर देखा तो वास्तव में संघपति सारंग ही निकला। उस समय जता को सूरिजी के वचन याद आये । श्रीसंघ संघपति सारंग को वधाकर नगर में ले गया और आये हुये संघ ने शासनाधीश भगवान महावीर की यात्रा कर अपने पापों का प्रक्षालन किया। बाद सारंग अपने घर पर आया और संघ का अच्छा स्वागत कर उनको एक एक सेर सोने की पहरामणी देकर विसर्जन किया । बस, आज तो उपकेशपुर के घर २ में सारंग की पुन्यवानी की ही बातें हो रही हैं । इधर कई धनाढ्यों के कन्यायें बड़ी हो रही थीं जिसका सारंग से विवाह के लिये आग्रह किया जवाब में सारंग ने कहा ऐसे प्रस्ताव तो रास्ते में भी बहुत आये थे पर मैंने स्वीकार नहीं किये क्योंकि मेरी इच्छा शादी करने की नहीं है जैनशास्त्रानुसार जिस जीव के घेद् मोहनिय कर्म का प्रबल्य उदय होता है उसको ही काम विकार सताता है पर जिस जीव ने पूर्वभव में वेदमोहनीय कर्म नहीं वाँधा है तथा बाँधे हुये का क्षथ तथा क्षयोपशम करदिया है, उनके सामने कितने ही विषय विकार के साधन खड़े हो पर उसके दिल में कभी बिकार पैदा ही नहीं होता है । उसके अन्दर सारंग भी एक था। माता पिता वगैरह सम्वन्धियों ने बहुत कोशीश की पर सारंग ने किसी एक की भी नहीं सुनी । अहा-हा इस प्रकार जवानी और सम्पति जिसमें ब्रह्मचर्य व्रत पालना कितना दुःकर है ? ऐसे नर बहुत कम होते हैं जैसा कि सारंग है। सारंग ने अपने माता पिता और भाइयों को कह दिया कि सुवर्ण का खजाना मेरे पास है जिसको जितना लाभ उठाना हो वह खुशी से उठावे । कारण, प्रत्येक वस्तु की स्थिती हुआ करती है और वह अपनी स्थिती से अधिक समय तक ठहर नहीं सकती है अतः इसका जितना सदुपयोग किया जाय उतना ही अच्छा है । शाह जैता ने उपकेशपुर में भगवान महावीर देव का एक आलीशान मंदिर बनाना शुरू कर दिया और उस मंदिर के योग्य १०४ अंगुल प्रमाण सुवर्ण की मूर्ती बनाने का निश्चय कर लिया। इतना ही क्यों पर चतुर शिल्पकारों को बुला कर मूर्ति तैयार भी करवा ली। जब तक मंदिर तैयार हो वहां तक श्री शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा निमित्त एक विगट संघ निकालने का भी निश्चय कर लिया और इस कार्य को प्रारंभ भी कर दिया तीर्थयात्रा का संघ के साथ साधर्मी भाइयों की सहायता, गरीबों का उद्धार और सात क्षेत्र में पुष्कल द्रब्य खर्चना भी शुरू कर किया अर्थात् सारंग की तरफ से द्रव्य की खुले दिल से छूट थी । सारंग जानता था कि मेरी स्थिति तो वह थी कि पूरी पेट की पूजा भी नहीं होती थी । जब किसी देव गुरु धर्म के प्रभाव से सहज ही में अन्तराय तुट गई है तो इसमें जो सदुपयोग बन जाय वही अच्छा है । इस प्रकार सारंग तथा सारंग के सम्बन्धी लोगों ने जितना चाहा उतना लाभ उठाया । जिसमें अधिक लक्ष साधर्मी भाइयों की ओर रखा। अत. शाह जैता के संघ पतित्व में संघ का आयोजन बड़े ही समारोह से हुआ। इस संघ में साधु साध्वी एवं श्रावक श्राविकायों की संख्या विशेष थी । प्रबन्ध भी अच्छा था । खर्च के लिए जिसके पास सुवर्ण सिद्धि हो फिर कमी किस बात की। संघ यात्रा कर वापिस आनन्द से उपकेशपुर लौट आया। इधर आचार्य देवगुप्तसूरि का पुनः उपकेशपुर की और पधारना हो रहा था। शाह जैता और सारंग ने सूरिजी का आगमन सुनकर बड़ा ही हर्ष मनाया और श्रीसंघ के साथ सूरिजी का नगर प्रवेश बड़े ही समारोह से करवाया । सूरिजी ने सारंग का सब हाल सुना तथा शाह जैता ने जाकर सूरिजी के चरणाविद में शिर झुका कर कहा पूज्यवर ! आपका वचन सिद्ध हो गया है और सारंग बड़ा ही भाग्यशाली ६८६ [ सारंग का उपकेशपुर का संघ ...arnivon.svanKAARAMARRA Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ निकला तथा सारंग भी सूरिजी के पदाविन्द में नमस्कार करके बैठ गया तथा सूरिजी से अर्ज की कि गुरू महाराज क्या आज्ञा है ? सूरिजी ने कहा सारंग प्रकृति से निर्वृनि अनंत गुणा फल देती है । अतः निवृति मार्ग को स्वीकार करो, यही आज्ञा है । सारंग ने कहा गुरु महाराज मैं आपकी ही इन्तजारी कर रहा था। शाह जैता को मालूम हुआ कि सारंग तो सूरिजी के पास निवृति (दीक्षा) लेने को तैयार हुआ है । अतः जैता ने सूरिजी से कहा प्रभो ! आप जल्दी न करावें, सारंग के साथ हम भी दीक्षा लेने को तैयार हैं। तीर्थों का संघ निकाल कर यात्रा तो हम लोगों ने कर ली है पर अब मंदिर की प्रतिष्ठा का काम शेष रहा है पहले इन मूर्तियों की अंजनशीलाका और मंदिर की प्रतिष्टा करवा दें। बाद हम सब दीक्षा लेंगे । सूरिजी ने जैता की बात को ठीक समझ कर स्वीकार करली। इधर शाह जैता मन्दिर की प्रतिष्टा के लिये खूब जोर से तैयारियें करने लगा। यह प्रतिष्ठा कोई साधारण प्रतिष्ठा नहीं थी पर एक विशेष प्रतिष्ठा थी क्यों कि जिसके घर में सोने का खजाना हो फिर तो कहना ही क्या है ? शाह जैता ने बहुत दूर दूर प्रदेशों में श्रीसंघ को आमंत्रण भेज दिये, अतः श्राहवर्ग और साधु-साध्वियां खूब गहरी संख्या में पधारे । शुभ मुहूर्त में महा महोत्सव के साथ सूरिजी के कर कमलों से जिस दिन मन्दिरजी की प्रतिष्ठा हुई उसी दिन उसी मुहूर्त में सारंग के साथ शाह जैतादि ५६ नर नारियों को सूरिजी ने बड़े ही धामधूम से दीक्षा देदी और सारंग का नाम सौभाग्यकीर्ति रख दिया। शाह जैता और सारंग ने संघ को पहरामणी आदि का प्रबन्ध पहले से ही कर रक्खा था और यह कार्य जैता ने अपने शेष पुत्रों के जुम्मे कर दिया था । अतः शाह जैता, सारंग, सारंग की माता ने दीक्षा लेने के बाद आये हुए श्री संघ को शाह खेता ने सोने के थाल एवं २५-२५ सोने की मुहरों की पहरामणी दी और याचकों को दान देकर उनके घरों से दरिद्र को भगा दिया अहाहा ! सारंग ने पूर्व जन्म में किसी प्रकार के पुण्य सचय किये होंगे कि इस भव में बिना कुछ परिश्रम किये सुवर्ण सिद्धि हाथ लग गई और उसको भी उसने मूजियों की भांति संचय कर नहीं रक्खी परन्तु उसके जरिये अनेकों को आराम पहुँचा कर जैन धर्म की खूब ही प्रभावना की और अन्त में सारंग इतना भाग्याशाली निकला कि आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करता हुआ दीक्षा स्वीकार करली । यह कार्य कितना दुष्कर है 'एक जवानी और पैसा पल्ले, गम करे तो सीधा चल्ले" इस लौकिक कहावत को सारंग ने मिथ्या साबित करके बतला दी। एक तो सारंग की युवक वय और दूसरे सुवर्णसिद्धी विद्या द्वारा सोने का खजाना, इस हालत में विषय वासना पर लात मार देना यह सारंग जैसे का ही काम था। सारंग ने अपना नाम अमर कर दिया । यदि जैता निर्धन अवस्था में दीक्षा ले लेता तो दुर्जन लोग कह उठते कि विचारे के पास खाने को नहीं था अतः दीक्षा लेली पर जैता सच्च ही विजयीता निकला आज तो जैता की सर्वत्र भूरि २ प्रशंसा होती है कि धन्य है जैता को कि सब उम्र तो दुःख में निकाली और जब सुख मिला है तब उस पर लात मार कर दीक्षा लेली है । जैता के तेरह पुत्रों में एक सारंग ऐसा भाग्यशाली निकला कि जैता ने तीर्थयात्रा के लिये संघ मिकला । जैन मन्दिर में सुवर्ण प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवा कर देवलइंडा चढ़ाया । श्री संघ को अपने आंगणे बुलाकर सुवर्ण की पहिरामणी दी । साधर्मी भाइयों की सहायता, गरीबों का उद्धार, याचकों को दान और सात क्षेत्रों का पोषण कर अपनी कीर्ति को अमर बनाकर अन्त में दीक्षा भी लेली । तब ही तो कहा है कि नर के नसीब कौन जानता है कि किस समय क्या होता है। क्या शाह जैता स्वप्न में भी शाह जैता और सारंगादि ५६ दीक्षा Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२–२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जानता था कि मेरी जिन्दगी में मैं इस प्रकार के कार्य करूँगा । परन्तु यह सब पूर्व भव में संचय किये शुभ कर्मों का ही फल है । अतः प्रत्त्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि सामग्री होते हुये शुभ कार्य कर पुन्योपार्जन करना चाहिये क्योंकि मनुष्य को समझना चाहिये कि लक्ष्मी सदैव के लिये स्थिर नहीं रहती है इससे तो जितना लाभ लिया जाय उतना ही अच्छा है । बहुत दूर काल के चरित्रादि ग्रन्थों में तो हम पढ़ते हैं इस प्रकार सुवर्ण सिद्धि तेजमतुरी आदि से सुबर्ण बनाया जाता था पर वे विद्यायें पांचवें आरे में भी विल्कुल नष्ट नहीं हो गई थी । आचार्य सिद्धसेन दिवाकरजी को चित्तौड़ के किले में पुस्तकें मिली थीं जिसके दो श्लोकों में सुवर्ण सिद्धि और सरल व सुभट नामक दो विद्यायें मिली थी और आपने कुर्मार नगर के राजा के लिये इन विद्याओं का उपयोग भी किया था। आचार्य पादलिप्तसूरि और नागार्जुन के पास भी सुवर्ण सिद्धि विद्या थी । श्रीशत्रुरंजय के उद्धारक जाबड़ के यहाँ तेजमतुरी थी जिससे सुवर्ण बनाकर श्रीशत्रुंजय का उद्धार करवाया था जगडूशाह ने भी तेजमतुरी से दुष्काल को सुकाल बनाया इत्यादि पांचवें ओर के भी कई उदाहरण मिलते हैं और इसमें श्राचार्य करने जैसी बात भी नहीं है कारण यह सब पुन्य प्रकृति के फल हैं । श्रस्तु | मुनि सोभाग्यकीर्ति पर सूरिजी महाराज की पूर्ण कृपा थी। मुनि शौभाग्यकीर्ति द्रव्य लक्ष्मी को छोड़ कर भाव लक्ष्मी ( ज्ञान ) को प्राप्त करने में जुट गया और थोड़े ही समय में सामयिक साहित्य का अध्ययन कर लिया। यही कारण था कि उज्जैन नगरी में सूरिजी ने अपने करकमलों से शोभाग्यकीर्त्ति को उपाध्याय पद से विभूषित किया और अन्त समय पुनित तीर्थ श्रीशत्रु जय पर सूरिपद अर्पण कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया था। श्राचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज बड़े ही अतिशयधारी बालब्रह्मचारी उप्रविहारी धर्मप्रचारी एवं महान प्रतिभाशाली आचार्य थे आपकी धवल कीर्ति पहिले से ही फैली हुई थी । श्राचार्य सिद्धसूरि श्री जय तीर्थ पर विराजमान थे उस समय महात्मा तापस भी शत्रुंजय पर आया था उसको पता लगा कि सारंग साधु बन गया है और अभी यहाँ पर ही ठहरा हुआ है । वह चलकर मिलने के लिये आया तो आचार्य श्री ने तापस को उपकारी समझ कर उसका यथोचित सत्कार किया । दोनों महात्मा आपस में मिले और परस्पर एक दूसरे का उपकार प्रदर्शित किया। तापस ने कहा कि आपने मुझे मरने से बचाया उस उपकार को मैं कब भूल सकता हूँ तब आचार्य श्री ने कहा श्रापने मुझे सुवर्णसिद्धि विद्या दी थी जिससे मैंने कई शुभ कार्य किये इत्यादि आपके उपकार को मैं भी कैसे भूल सकता हूँ । बाद सूरिजी ने तापस को कहा महात्माजी ! नीतिकारों ने कहा है कि "बुद्धिफलं तत्वविचारणंच” बुद्ध का फल है का विचार करना विद्या और लब्धियें केवल इस भव में शुभ फल देने वाली हैं पर मनुष्य को चाहिये कि जन्म मरण से छुटकारा पाकर आत्मा अक्षय सुख कैसे प्राप्त करता है इसके लिये विचार एवं प्रयत्न करे । तापस ने कहा इसमें ऐसी कौनसी बात है । कारण, पांच तत्वों से आत्मा बना है जब तत्त्वों में तत्त्व मिलजायगा तब श्रात्मा आत्मा में मिल जायगा फिर न जन्म है और न मरण ही है । सूरिजी ने कहा कि यह तो श्रापका एक भ्रम है क्योंकि पांच तत्व से आत्मा नहीं बनता है पर शरीर बनता है । श्रात्मा शरीर से भिन्न है । इन तत्वों के नष्ट होने पर आत्मा नष्ट नहीं होता है पर शरीर नष्ट होता है कारण आत्मा सदैव शाश्वत एवं नित्य द्रव्य है । आत्मा में अनन्तज्ञान, अनंतदर्शन, अनन्तचरित्र, और अनन्तवीर्य रूप गुण हैं। वह अक्षय है, हाँ कर्मों के प्रसंग से उस पर आवरण श्राजाता है जिससे ૬૮ [ सिद्धगिरि पर सूरिजी और तापस Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ श्रात्मा अपना भान भूल कर चतुर्गति में जन्म मरण करता है । यदि तप संयमादि से कर्मों को समूल नष्ट कर दिये जाय तो आत्मा परमात्मा बन कर सदैव के लिये परमसुखी बन जाता है । अतः आत्मिक अक्षय सुख की प्राप्ति के लिये सम्यक् ज्ञान दर्शन चरित्र की आवश्यकता है उसे स्वीकार कर आराधना करावे । तापस ने कहा कि क्या आत्मा और शरीर पृथक् २ पदार्थ हैं ? सूरिजी ने कहा हाँ महात्माजी ! आत्मा और शरीर पृथक् २ पदार्थ हैं और इस बात को श्राप आसानी से समझ भी सक्ते हो कि जिस पदार्थ की उत्पत्ति है उसका विनाश भी आवश्य होता है। जैसे पांच तत्वों से शरीर पैदा होता है तब तत्व तत्वों में मिल जाने से उसका नाश भी हो जाता है। जिसको चरम चक्षुवाले प्रत्यक्ष में देख रहे हैं । तब आत्मा न तो कभी नया उत्पन्न होता है और न कभी उसका नाश ही होता है । हाँ, कर्मों के आवरणों के कारण उसकी पर्याय अवश्य पलटती है जैसे कभी नर कभी नरक कभी देवता कभी तिर्यच परन्तु आत्मा अक्षय है उसका कभी विनाश नहीं होता है । उदाहरण के तौर पर देखिये सोना एक द्रव्य है पर उसकी पर्याय बदलती रहती है जैसे सोने की चूड़ी है उसकी कंठी बन सकती है और कंठी की चूड़ी बन सकती है पर सोना रूपी द्रव्य तो शाश्वता है इसी प्रकार आत्मा को भी समझ लीजिये इत्यादि युक्ति एवं प्रमाण द्वारा सूरिजी ने इस प्रकार समझाया कि तापस को सूरिजी का कहना सत्य प्रतीत हुआ । तापस खुद विद्वान था आत्म कल्याण की भावना वाला था उसने स्वयं सोच लिया कि जीव सुख और दुख भोगव रहा है यह पूर्व संचित कर्मों का ही फल है और उन कर्मों को नष्ट करने के लिये ही तप जपादि क्रिया कांड एवं योग आसन समाधि लगाई जाती है अतः सूरिजी का कहना सत्य है कि आत्मा सदैव शाश्वता एवं एक नित्य पदार्थ है और आत्म के साथ रहे हुए कर्मो को नष्ट करने के लिये भिन्न २ मतों में पृथक् २ साधनायें भी हैं तथापि जैन धर्म की साधना में त्याग वैराग्य निस्पृहता और निर्वृत्ति को विशेष स्थान दिया है । अत: मुझे जैन दीक्षा लेकर एवं सूरिजी की सेवा में रह कर प्रात्म कल्याण करना ठीक होगा। अतः तापस ने सूरिजी से कहा प्रभो! मैं आपके चरणों में जैन दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करना चाहता हूँ। सूरिजी ने कहा 'जहासुखम्' बस फिर तो देरी ही क्या थी तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय की पवित्र एवं शीतल छाया में सूरिजी ने तापस को जैन दीक्षा देकर उसका नाम 'तपोमूर्ति' रख दिया। ___ तपोमूर्ति ने ज्यों-ज्यों जैनधर्म की क्रिया और ज्ञान का अभ्यास किया त्यों-त्यों उनको बड़ा ही श्रानन्द आने लगा । मुनि'तपोमूर्ति' पहले से ही अनेक विद्याओं से परिपूर्ण थे फिर कर लिया जैनधर्म के स्याद्वाद सिद्धांत का अभ्यास फिर तो कहना ही क्या था उनके हृदय में जैनधर्म के प्रचार की बिजली चमक उठी। अतः वे जैनधर्म के प्रचार के लिये भरसक प्रयत्न करने में संलग्न हो गये। उल्टे रास्ते चलने वाला मनुष्य जब सुलटे रास्ते पर आ जाता है तब वह खूब वेग से चलता है तथा उल्टे मार्ग की कठिनाइयों का अनुभव किये हुए मनुष्य के हृदय में दयाभाव भी पैदा हो जाता है और वह उल्टे मार्ग जाने वालों को सुलटे मार्ग पर लाने की कोशिश भी बहुत करता है । यही हाल हमारे मुनि तपोमूर्ति महात्मा का था। आचार्य सिद्धसूरि श्रीशत्रुजय से विहार करते हुये सोपारपट्टन की ओर पधारे। तपोमूर्ति मुनि भी आपके साथ में ही थे । श्रीसंघ ने आपका सुन्दर सत्कार किया । वहाँ के लोग सूरिजी से पहले से ही परि. जीव और शरीर के विषय उपदेश ६८९ VanAAAAAY Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास rana . . . चित थे। लोगों को ज्ञात हुआ कि आचार्य तो वही हैं जो सुवर्ण सिद्धि वाले सारंग थे पर लोगों को आश्चर्य इस बात का हुआ कि सुवर्ण सिद्धि छोड़ कर सारंग ने दीक्षा क्यों ली होगी ? सूरिजी ने एक दिन अपने व्याख्यान में यह बतलाया कि संसार में लोभ एक ऐसी बुरी बलाय है कि जीव को अधोगति में ले जाता है। लोभ के कोई मर्यादा भी नहीं होती है कि वह कभी संतोष पाकर क्षण भर सुख से रहता है । शास्त्रों में कहा है किः-- जहाँ लाभो तहाँ लोभो लाभ लोभो प बड्डई । दो मासा कणयं कर्ज कोड़ी एवि न निट्टिई ॥ श्रोताओ ? ज्यों २ लाभ बढ़ता है त्यों २ लोभ भी बढ़ता जाता है । जैसे एक कपिल नामक ब्राह्मण दो मासा सोने के लिये राजा के पास गया था पर उसके लाभ बढ़ने से इतना लोभ बढ़ गया कि जिसकी कुछ हद ही नहीं रही जिसका शास्त्रों में उल्लेख किया है किः कोसंबी नगरी में जयशत्रु राजा राज करता था। चौदह विद्या निधान कासप नामक उसके माननीय पुरोहित था। उस पुरोहित के जसा नाम की स्त्री थी और उसके कपिल नाम का एक पुत्र भी था । कपिल बाल्यावस्था में था तब उसका पिता गुजर गया था। अतः राजा ने पुरोहित पद किसी दूसरे ब्राह्मण को दे दिया। उसने पद की खुशी में एक जुलूस निकाला। जिसको देख जसा दिलगीर हुई । कपील ने दिलगीरी का कारण पूछा तो माता ने कहा बेटा तेरा पिता विद्यावान् था और राजपुरोहित पद पर रह कर इस प्रकार जुलूस निकालता था। बेटा ने कहा माता मैं विद्या पढ़ कर इस पद का अधिकारी बनूंगा। माता ने कहा कि यहाँ तो नये पुरोहित के मनाई कर देने के कारण कोई तुझे विद्या पढ़ावेगा नहीं । यदि तू विद्या पढ़ना चाहे तो सावत्थी नगरी में इन्द्रदत्त नाम का अध्यापक तेरे पिता का दोस्त है वहां चला जा वह तुमको विद्या पढ़ावेगा। कपील चलकर सावत्थी आया, इन्द्रदत्त से मिला। उसने कहा कि विद्या तो मैं पढ़ा दूंगा पर तेरे भोजन का क्या इन्तजाम है ? कपिल ने कहा मैं ब्राह्मण हूँ भिक्षा मांग कर ले आऊंगा । अध्यापक ने कहा मांगी हुई भिक्षा से पढ़ाई नहीं होगी कारण पढ़ाई के लिये अच्छा पौष्टिक भोजन होना चाहिये । खैर, इन्द्र दत्त कपिल को साथ लेकर एक शालीभद्र नाम के इब्भ श्रेष्ठि के पास गया और आशीर्वाद देकर प्रार्थना की कि यहाँ एक ब्राह्मण का लड़का कौसंवी से विद्या पढ़ने के लिये आया है । विद्या तो मैं फ्री पढ़ा दूंगा पर इसके भोजन का इन्तजाम नहीं है । यदि आप भोजन का इन्तजाम करदें तो आपको बड़ा पुण्य होगा श्रेष्टिवर्य ने स्वीकार कर लिया और एक तरुण दासी इसके लिये नियत करदी कि जिस समय कपिल विद्याध्ययन करके आवे तो गरमागरम भोजन करके खिलादे । ठीक कपिल विद्याध्ययन करने लगा और भोजन के समय सेठजी के यहाँ श्राकर भोजन कर लेता था परन्तु इधर तो दासी तरुणवस्था में उधर कपिल भी जवान था । हाँसी मस्करी और कामदेव के वाणों से कपिल और दासी के आपस में प्रेम-प्रीती लग गई। जिससे दासी के गर्भ रह गया । सेठजी को खबर होते ही उन दोनों को घर से निकाल दिया। बस, कपिल का विद्याध्ययन छुट गया और वह दोनों की उदर पूर्ति के प्रपंच में फंस गया। इतना ही क्यों पर दासी के गर्भ की वृद्धि हो रही थी उसके प्रसूत समय के लिये भी तो कुछ सामान की आवश्यकता थी जिसकी भी कपिल को फिक्र ही थी । कपिल ऐसा भाग्यहीन था कि कई दानेश्वरों के पास याचना की पर कुछ भी प्राप्ती नहीं हुई। दासी ने कहा रे दुर्भागी ? मेरा स्थान भी छुड़ाया और जीवन भी भ्रष्ट कर दिया। क्यों तेरे से इतना भी काम नहीं बनता है ? खैर, यहाँ का राजा ब्राह्मणों को दो मासा सोना हमेशा देता है । वहाँ जाकर दो ६९० [ कपिल केवली का उदाहरण antra... -- - -- Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ मासा सोना तो ला कि जिससे मेरा गुजारा होगा । कपिल हमेशा दो मासा सोने के लिये जाता पर दूसरे ब्राह्मण पहिले पाकर राजा से सोना लेजाते । आखिर एक दिन कपिल अर्द्धरात्रि के समय उठ कर गया तो पुलिस वाले ने पकड़ लिया और सुबह जाकर राजा के सामने खड़ा किया। राजा ने कपिल से रात्रि में आने का कारण पूछा ? उसने अपने नगर से निकला वहाँ से रात्रि समय का सब हाल था वैसा सत्य कह सुनाया। कपिल की सत्यता पर मंत्रमुग्ध बन राजा ने वरदान दे दिया कि ब्राह्मण जो तेरी इच्छा हो मांग ले मैं देने को तैयार हूँ। कपिल ने सोचा कि जब राजा ने बरदान ही दे दिया है तो अब दो मासा सोना ही क्यों मांगें, मांगलें एक तोला पर पुनः सोचा कि एक तोले से क्या होगा मांगलें सौ, हजार, लाख, करोड़, तोला इस प्रकार कपिल की तृष्णा यहाँ तक बढ़ गई कि राजा का राज ही क्यों नहीं मांग लिया जाय परन्तु कपिल ने सोचा कि अहो तृष्णा ? कि दो मासा सोने के लिये मैं आया था पर तृष्णा यहाँ तक बढ़ गई कि राज से भी संतोष नहीं । इस प्रकार कपिल की सुरत संतोष की ओर बढ़ती २ संसार की असारता तक पहुँची और त्याग भावना आते ही देवता ने श्रोषा मुहपत्ती लाकर देदिये । कपिल साधु बन गया उसकी भावना यहाँ तक प्रशस्त हो गई कि कैवल्य ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने अपने ज्ञान से जाना कि राजगृह नगर के पास अट्ठारह योजन की अटवी है और उसमें बलभद्रादि पाँचसौ चोर हैं वे मेरे उपदेश से प्रतिबोध पाने वाले हैं । अतः कपिल केवली वहाँ गया और चोरों ने कहा हमें कुछ गायन करके सुनाओ कपिल ने कहा बिना बाजित्र के नाच एवं गायन हो नहीं सकता है । पांचसौ चोरों ने कहा हम हस्त ताल बजावेंगे तुम नाचकर गायन करो। तब कपिल केवली ने गायन करते हुये निम्न लिखित गाथा कही । "अधुवे असासयम्मी संसारम्मी दुक्ख पउराए । किं नाम हो जतं कम्मयं, जेणाहंदोग्गइंनगच्छे जा ॥" इस गाथा से ५०० चोरों को प्रतिबोध करके उन सबको दीक्षा देकर उनका उद्धार किया। महानुभावो! इस उदाहरण से आप स्वयं सोच सकते हो कि तृष्णा कहाँ तक पहुँचती है और जब मनुष्य को सन्तोष की लहर पाती है तब श्रात्मा किस आनन्द का अनुभव करता है । आत्मा का कल्याण न राजपाट में न धन धान्य में न सोना चाँदी रत्न माणिक में पर आत्मा का कल्याण इसका त्याग करने में है। पूर्व जर माने में बड़े २ चक्रवर्ती छः खंड की ऋद्धि पर लात मार कर मुनि पद का स्वीकार किया था तब ही उनको सन्तोष एवं कल्याण प्राप्त हुआ । क्या मैं उम्मेद कर सकता हूँ कि मेरे इस सारगाभत उपदेश का कुछ प्रभाव आप लोगों पर भी पड़ेगा ? एक तो उस जमाने के लोग लघु कर्मी थे दूसरे उन लोगों को इस प्रकार का उपदेश कभी २ ही मिलता था तीसरे उपदेश दाताओं के भी यश नाम कर्म का उदय और ऐसा ही प्रभाव था। बस वे महानुभाव थे कुंवा के कबूतर कि सूरिजी महाराज की फटकार के साथ उपदेश लगते ही पूरे ५० नरनारी दीक्षा लेने को तैयार हो गये अह हा ! वह कैसा भद्रिक जमाना था, वे कैसे हलुकर्मी जीव थे, उन्होंने पूर्व जन्म में कैसे शुभ कर्मोपार्जन किये थे और उनके मोक्ष कितनी नजदीक थी कि बात की बात में घर-संसार त्याग कर दीक्षा लेने को तैयार हो जाते थे। सूरिजी महाराज ने वहाँ कुछ दिन स्थिरता कर उन भावुकों को दीक्षा दी तथा अन्य लोगों ने भी त्याग प्रत्याख्यान कर लाभ उठाया। तदनन्तर सूरिजी महाराज ने अन्यत्र बिहार कर दिया और श्रावती मेदपाट में उपदेश करते हुये मरुधर में पदार्पण किया तो मरुधर वासियों के हर्ष का पार नहीं रहा क्योंकि मरुधर वासी पहिले से ही सूरी कपिल केवली का ५०० चोरों को उपदेश ] ६९१ Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्वरजी की प्रतीक्षा कर रहे थे। सूरिजी शाकम्भरी, हंसावली, भरहटपुर पद्मावती कुर्चपुर होते हुए नागपुर पधारे । वहाँ के श्रीसंघ ने आप श्रीका बड़े ही समारोह से सत्कार किया। नागपुर में आदित्यनाग गोत्रीय शाह कानड़ ने भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर बनाया था जिसकी प्रतिष्ठा सूरिजी के कर कमलों से करवाई। शाह कानड़ ने इस प्रतिष्ठा में सवा लक्ष्य द्रव्य व्यय कर जैनधर्म की अच्छी प्रभावना की। वहाँ से सूरिजी मुग्धपुर, खटकुंपनगर, संखपुर, श्रासिकदुर्ग, हर्षपुर, मेदिनीपुर, माडव्यपुर होते हुए उपकेशपुर की ओर पधारे वहाँ के श्रीसंघ के उत्साह का पार नहीं था । कारण प्रथम तो आप उपकेशपुर के सुपुत्र थे दुसरे जैनधर्म की प्रभावना कर आपने दीक्षा ली थी तीसरे आप प्राचार्य पद से विभूषित हो जैनधर्म की पताका फहराते हुये पधारे। ऐसा कौन हतभाग्य हो कि जिसे अपनी मातृभूमि का गौरव न हो ? श्रीसंघ ने सूरिजी महारान का बड़े ही उत्साह से नगर प्रवेश महोत्सव किया । चतुर्विध श्रीस घ के साथ भगवान महावीर और आचार्य रवप्रभसूरि की यात्रा कर जीवन को सफल बनाया। सूरिजी महाराज दीक्षा लेने के पश्चात् अब ही पधारे थे । जनता की खूब भक्ति थी। सूरिजी का व्याख्यान मधुर रोचक और प्रभावोत्पादक था। जनता खूब उत्साह से सुनती थी। जैन ही क्यों पर जैनेतर लोग भी लाभ उठाते थे। एक दिन सूरिजी महाराज ने फरमाया कि शास्त्रकारों ने मोक्ष मार्ग साधन के लिये मुख्य दो रास्ते बतलाये हैं १-मुनिधर्म २- गृहस्थ धर्म जिसमें मुनि धर्म की विशेषता है परन्तु मुनिपद का अधिकारी वही हो सकता है कि जिसमें मुनिधर्म पालन करने की योग्यता हो। केवल शारिरिक कष्ट जैसे नंगे सिर, नंगे पैर चलना, शिर का लोच करना, शीतोष्णादि परिसह सहन करना आदि को ही मुनि पद नहीं कहा जाता है पर मुनि पद मन की वृत्तियों पर निर्भर है अगर मन वश में नहीं हुआ हो तो शारिरिक कष्ट न तो आते हुए कर्मों को रोक सकता है और न पूर्व कर्मों की सम्यक निर्जरा ही कर सकता है। इतना ही क्यों पर शास्त्रकारों ने तो यहाँ तक भी कहा है कि: चिरं पि से मँडरुई भवित्ता, अथि-रव्वए तवनियमेहि भट्ठे । चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होइ हु संपराये ।। पोल्लेव मुट्ठी जह से असारे, अयंतिए कूडकहावणे वा । राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्धए होइ य जाणएसु ॥ कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय वृहइत्ता । असंजए संजय लप्पमाणे, विणिधायमोगच्छइसेचिरपि ॥ विसं पिवित्ता जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसेव धम्मो विलओववण्णो, हणाइ वेयाल इवाविवण्णो ॥ उद्देसियं कीयगडं नियागं, न मुचती किंचि अणेसिणज्ज । अग्गो विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इओचुऐ गच्छइ कट्टु पावं। न तं अरी कंठछेत्ता करेति, जंसे करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिती मच्चुमुहं तु पने, पच्छाणुतावेण दयाविहूणे ।। सिरिजी का उपकेशपुर में व्याख्यान Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ ऐसे साधुओं से तो उल्टा कर्मबन्ध का ही कारण होता है अतः साधु ऐसे होने चाहिये कि राअवश्यं चरेज्ज लाढे, विरए वेदवियाऽऽ यरक्खिए । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, जे कम्हि वि णमुच्छिए स भिक्खू ॥ अकोसवहं वित्तु धीरे, मुणी चरे लाढे णिच्चमायगुत्त े । अन्वग्गमणे असंपहिट्ठे, जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ॥ पंतं सयणासणं भत्ता, सीउन्हं विविहं च दंसमसगं । अन्वग्गमणे असंपहिट्ठे, जे कसिणं अहियासए स भिक्खू || अच्चणं रयणं चेव, वंदणं पूयणं तहा । इढीसकारसम्माणं, मणसा वि न पत्थए । सुक्कं झाणं झियाइज्जा, अणियाणे अकिंचणे । वोसट्ठकार विहरिज्जा, जाव कालस्स पज्जओ || इनके अलावा जैनेतर प्रन्थों में भी साधुओं के विषय में कहा है कि समः शत्रौ च मित्रेच, तथा मानपमानयोः । शीतोष्ण सुखदुःखेषु, समः सङ्ग विवर्जितः ॥ F श्रीमदभगवद् गीता श्र० १३ श्लो० १४ येन हृष्यन्ति लामेषु, नालामेषु व्यथन्ति च । निर्ममा निरहङ्काराः, सत्त्वस्थाः समदर्शिनः ॥ अष्टा सर्वभूतानां, मैत्र करुण एव च । निर्ममो निरहङ्कारः, महाभारत, शांतिपर्व, अ० १५६ श्लो० ३२ समदुखः सुखः क्षमी ॥ श्री० भगवद्गीता श्र० १२ श्लोक० ३२ राग द्वेषवियुक्तात्मा, समलोष्टाश्मकांचनः । प्राणिहिंसानिवृतश्च, मौनी स्यात् सर्व निःस्पृहः ॥ पद्मपुराण, अ० ५६. श्लो० १८ सज्जनो ! दुःख गर्भित, मोह भिंत और देखा देखी घर छोड़ने वाले तो सैकड़ों नहीं पर हजारों मनुष्य मौजूद होंगे पर मुनि पद में रमणता करने वाले थोड़े ही मिलेंगे । श्रात्म कल्याण करना कोई साधारण बात नहीं है। यहां तो मोहनी रूप पिशाच को पराजय करना है जैसे कर्मबन्धन में मुख्य कारण मन है वैसे कर्म तोड़ने में भी मुख्य मन ही कारण है देखिये - ऐलापुत्र वंस और डोर पर नाटक कर रहा था पर उसका मन विशुद्ध हुआ तो केवल ज्ञान हो गया । २ - कुर्मा पुत्र को दुकान पर बैठे को केवल ज्ञान हो आया । ३ - माता मरुदेवी को हस्ती पर केवल ज्ञान हुआ । १ ४ - पृथ्वीचन्द राजा को चवरी में नव वधु के हस्त मिलाप के स्थान केवल ज्ञान होगया । ज्ञान हो गया । ५ - गुणसागर को राज अभिषेक के समय केवल ६ - प्रश्नचन्द्र मुनि ने मन ही से सातवीं नरक के इत्यादि अनेक उदाहरण हैं इतना ही क्यों पर गृहस्थलिंग सिद्धा भी कहा है । अतः इसका कारण भी मन दलिये और मन ही से केवल ज्ञान हो गया । शास्त्रों में स्वलिंगसिद्धा, अन्यलिंगसिद्धा, और ही की विशुद्धता है । जिस मनुष्य ने मन को अपने वश में कर लिया है वह मिनटों में मोक्ष प्राप्त कर सकता है देखियेजंगल में एक किसान खेत खोड़ रहा था दोपहर के समय एक तपस्वी मुनि वहां आ निकले । वृक्ष मुनिपद की योग्यता और दीक्षा ] ६९३ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की छाया देख मुनि थोड़ी देर के लिये ठहर गये। किसान हल को छोड़ कर मुनि के पास आया और पूछा कि हम तो गृहस्थ हैं कि दोपहर की धूप में भी काम करते हैं पर आपके सिर कौनसा कार्य है कि इस धूप में भी आप कहीं पर जारहे हैं ? मुनि ने उत्तर दिया कि हे भद्र ! मेरे आज एक मास की तपस्या का पारणा है मैं नगर में भिक्षा के लिये जारहा था। यहां वृक्ष की छाया देख विश्राम लिया है। किसान की भावना हुई कि यदि मुनि भिक्षा लें तो मेरे पास मौजूद है । किसान ने प्रार्थना की। मुनि ने कहा कि निर्वद्य भिक्षा हो तो मैं ले सकता हूँ पर किसान की रोटियें एक झाड़ पर लटक रही थी, मुनि नहीं लेसके । किसान निराश होगया। जब मुनि नगर की ओर जाने लगे तो किसान मुनि को सीधा रास्ता बतलाने को साथ गया कि मुनि को अधिक चक्र काटना न पड़े। रास्ता बतला कर किसान वापिस लौट रहा था तो मुनि ने सोचा कि इसने मुझे रास्ता बतलाया है तो मैं भी इसे रास्ता बतलाऊं। मुनि ने कहा भव्य तू मनुष्य है तो कुछ नियम व्रत ले कि तेरा कल्याण हो। किसान ने सोचा कि मेरे किसानी धंधा है मैं क्या प्रत लूं। आखिर उसने सोच विचार कर मुनि से कहा कि 'मन चाहे वह नहीं करना' मुझे नियम दिलादो । मुनि ने सोचा कि यह कोई पागल तो नहीं है। अतः किसान को कहा कि यह व्रत बहुत कठिन है योगी महात्माओं से भी पलना मुश्किल है। देख मेरा मन हुआ कि भिक्षा को जाना तो मैं चल कर यहां आया हूँ। अतः तू सोचले क्या तेरे से ऐसा भीषण व्रत पल सकेगा ? किसान ने कहा कि मैंने खूब सोच समझ कर ही प्रार्थना की है आप तो व्रत दिला दीजिये । मुनि को विचार तो बहुत हुआ पर उपका आग्रह देखकर नियम करवा दिया और मुनि नगर की ओर चले गये। किसान जहां था वहीं खड़ा रहा उसका मन हुआ कि हल के बैल जुड़े हुए खड़े हैं जाकर खेत जोतूं पर सोचा कि मैंने तो व्रत लिया है कि मन कहे वैसा नहीं करना। जब खड़ा रहने में थकावट मालूम हुई तो विचार किया कि बैठ जाऊँ पर फिर सोचा कि मन चाहे वह नहीं करना मेरा व्रत है वह नहीं बैठा। इतने में उसके कुटुंब वाले आये और उन्होंने कहा कि अरे पागल ! क्या किसो ने तुझे मंत्र से कील दिया है कि तू वहाँ से थोड़ा भी नहीं चलता है ? चल हल खड़ रोटी खा यहाँ खड़ा रहने से क्या होगा ? किसान ने कहा मैंने तो ब्रत लिया है कि मन कहे वैसा नहीं करना। मुनि भिक्षा लेकर उसी रास्ते से वापिस आये तो किसान वहाँ ही खड़ा पाया कि जहाँ वे छोड़ गये थे । किसान अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा कि एक दिन दो दिन तीन दिन व्यतीत हो गये । ज्यों २ समय जाता था त्यों २ इसकी आत्मा से कर्म मल हट कर विशुद्ध ता बढ़ती जा रही थी। बस, चतुर्थ दिन सूर्य का उदय होते ही किसान को केवल ज्ञान होगया और थोड़ी देर में तो उसकी मोक्ष ही हो गई। इस दृष्टांत से आप समझ सकते हो कि मन को वश में करना कितना कठिन है और मन को वश में करने के बाद मुक्ति कितनी नजदीक है । श्रोताओ ! जैनधर्म में कारण से कार्य की सिद्धि मानी है। मुनि धर्म, गृहस्थ धर्म, तप संयम, पूजा प्रभावना तीर्थयात्रादि जितने धर्म कृत्य हैं वे सब कारण हैं और उन कारणों द्वारा मन को वश कर मोक्ष प्राप्त करना यह कार्य है। ____एक कार्य के अनेक कारण हो सकते हैं। जैसे जिसका क्षयोपशम हो जैसी जिसकी रुचि हो उसी कारण से कार्य की सिद्धि कर सकता है इत्यादि सूरिजी ने विद्वत्तापूर्ण खूब विस्तार से व्याख्यान दिया जिसका प्रभाव श्रोताओं पर बहुत ही अच्छा हुआ और प्रत्येक कारण पर जनता की रुचि बढ़ती गई। इस प्रकार प्रत्येक विषय पर सूरिजी का विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान हमेशा होता था। जिससे जनता में [ मन कब्जे पर किसान का दृष्टान्त Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ आत्म कल्याण की अच्छी जागृति हुई। कई लोग तो संसार से मुक्त होकर सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेने को भी तैयार हो गये। चतुर्मास समाप्त होने के पश्चात् जिन महानुभावों की इच्छा थी उनको दीक्षा और श्रावकवत प्रदान किये और भी कई शुभ कार्य हुये । बाद सूरिजी महाराज अपने पूर्वजों की पद्धति अनुसार मरुधर के प्रत्येक ग्राम नगर में आप एवं आपके साधुओं का विहार हुआ पुनः लाट सौराष्ट्र कच्छ सिन्ध पांचाल शुरसेन और पूर्व में अंग बंग मगध कलिंग आदि प्रान्तों में भ्रमण कर साधु साध्वियों की सार सँभाल श्रावकवर्ग को धर्मोपदेश तीर्थों की यात्रा और जैनधर्म का प्रचार एवं खूब ही उन्नति की।। पावली में लिखा है कि एक समय आप विहार करते हुये मथुरा में पधारे। वहाँ के रहने वाले कुलभद्र गोत्रीय कोटाधिपति शाह ढढर श्रावक के बनाये श्रीपार्श्वनाथ के मंदिर के लिये एक स्फटिक रत्न की और तीन सौ पाषाण एवं सर्वधातु की मूर्तियों की अंजनसिलाका एवं प्रतिष्ठा करवाई जिसमें शाह ढडर ने नो लक्ष द्रव्य व्यय किया तथा उसी सुअवसर पर देवी सच्चायिका की सम्मति से आपने अपने अन्ते वासी शिष्य गुणतिलक को सूरि पद अर्पण कर दिया और पट्टा क्रमानुसार आपका नाम रत्नप्रभसूरि रख दिया। और आपने अपनी शेष जीवन यात्रा मथुरा में ही समाप्त की जब आपने अपना आयुष्य नजदीक जाना नो चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष अनशनव्रत ले लिया और पंचपरमेष्टि महामंत्र के स्मरण पूर्वक समाधि से स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिये। आपके स्वर्गवास से श्रीसंघ का दिल व्याकुल होरहा था शोक के काले बादल सर्वत्र छागये थे फिर भी निरानन्द होते हुये भी आपके निर्वाण का महोत्सव बड़े ही समारोह से किया तथा आपके मृत शरीर के अग्नि-संस्कार के स्थान प्रापकी पुन्य स्मृति के लिये एक विशाल स्थूभ बनबाया। श्राचार्य श्री के शासन में भावुकों की दीक्षाएँ १-राजपुर के भरिगोत्रीय शाहबाला ने सूरिजी के पास दीक्षा ली २-माण्डलपुर के ब्राह्मण दाहिर अपने दो पुत्रों के साथ ३-खटोली के बलाह गौ. शाह जैता ने सूरीजी के पास दीक्षा ली ४-षटकुंप के श्रेष्ठिगोत्रीय मंत्रीदेवा ने ५-मेथलीपुर के वाप्पनागगौ- रुघनाथ ने ६-पद्मावती के क्षत्रीवीर सुरजा ७- शालीपुर के करणाटगी. चूड़ा ८--सावत्थी के भाद्रागोत्री० नैना ९-तक्षिला के श्रादित्यनाग० हरदेव १०-साहापुरा के गाथापति भोजा ११-मालपुरा के चोरलिया० चनुरा ने १२-मेदनीपुर के सुचंतिगौः खंगार ने १३-- नागपुर के श्री श्री माल माला ने सरिजी के शासन में भावुकों की दीक्षा ] ६९५ rrrr On Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गुणपाल ने Ar Arr. Are १४-मुजपुर के श्रीमालवंशी ___ भगा ने सूरिजी के पास दीक्षा ली १५-चावड़ी के प्राग्यट वंशी पोलाक ने १६-करणावती के प्राग्वट वंशी जाकण ने १७-भद्रावती के मोरक्षगौर गोंदा ने , १८-त्रिपुरा के कनोजिया. जोगड़ ने १९-देवपुर के चिंचटगौ० पाथु ने २०-जानपुर के मल्लगी. २१-रत्नपुर के चरड़गौ० मुकुद २२-बड़गाँव के सुधड़गौर ढढर २३-मिसाला के श्रेष्टिगो० भुकंद २४-दशपुर के बाप्पनागगी. मेहराय ने २५ - उज्जैन के कुलभद्रगौ. रावल ने , २६-रायपुर के प्राग्वट वंशी रामा ने , २७-देवलागढ़ के प्राग्वट वंशी भादू ने , इनके अलावा कई स्त्रियों को तथा आपके आज्ञावृति मुनिश्वरों ने भी कई मुमुक्षुओं को दीक्षाये दी थी यही कारण था कि आपका शासन में बहुत सी प्रान्तों में मुनि महाराज बिहार कर जैनधर्म का प्रचार खूब जोरों से कर रहे थे कई मुनि अलोकिक विद्या और लब्धियों को धारण करने वाले भी थे जिससे भी वे अपने कृत कार्य में सफलता हासिल कर शासन की कीमती सेवा बजाई थी : आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी के समय बादी प्रतिवादियों के साथ कई प्रकार के शास्त्रार्थ भी हुए करते थे उनके सामने भी दट कर रहना पड़ता था कई राजा महाराजाओं की सभाओं में आप स्वयं एवं आपके विद्वान् मुनि बादियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैन धर्म की विजय बिजयंति चारों ओर फहरादी थी और ज्यों ज्यों वे देश विदेश में घूम धूम कर नये जैन बनाते थे त्यों त्यों उनके श्रात्मकल्याण के लिये अनेक ग्रन्थों का निर्माण और नये नये मन्दिरों की प्रतिष्टाएँ भी करवा देते थे कारण वे भविष्य वेता इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि इस कलिकाल में धर्म के ये दो ही स्थम्भ है । १ आगम-शास्त्र २ मन्दिर । प्राचार्य श्री के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्टाएं १- स्थानपुर के श्रेष्टिवार्य० कल्हण के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्टा २-सोपारपट्टन के क्षत्रीराव: रावण के , " । ३-मदनपुर के करणाट० करण के " , " ४-चंदेरीपुरी के बाप्पनाग बालड़ के , पार्श्वनाथ , ५-दशपुरनगर के आदित्यनाग सालग के , , , ६-उज्जैन नगर के भद्र गौ० वीरदेव के , , " ७--माण्डवगढ़ के सुखा गौ० नारायण के, " " ६९६ [ मरिजी के शासन में मन्दिरों की प्रतिप्रा Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ Partime ८-नरसिंहपुर के बोहरा गौ० मालुक के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा ९--मधिमापुरी के तप्तभट्ट गौ० गुगला के , शान्ति० , १.--कोलापुर के सुघड़ गौ० चूड़ा के , आदीश्वर , ११--महेसरीपुरी के चरड़गोत्र पेथा के , पार्श्व० , १२--नारदपुरी के श्रेष्टि गौ० मोहण के , अजित० , १३-आनन्दपुर के चिंचट गौ० जैता के , पार्श्वनाथ , १४-वल्लभी के क्षत्रीराव जगमाल के , विमल. १५--बुरानपुर के कुलभद्र चंचगदेव के , महावीर , ५.--तम्भनपुर के प्राग्वटवंशी फूवा के , , , १७--जोगनीपुर के प्राग्वटवंशी गोमा के , " " १८-हर्षपुरा के श्री श्रीमाल डावर के , १९--वीरपुर के भुरिगोत्री नांनग के , २०--किराटकुंप के चोरलिया० माला के , २.-उच्चनगर के लघुश्रेष्ठि, रणदेब के , , , २:--चन्द्रावती के कुमट गौ० यशोदेव के , नेमिनाथ , २३-- पासोली के ब्राह्मण शंकर के , चन्द्राप्रम , ४--नन्दपुर के चोरलिया. मोकल के , महावीर , ये तो केवल वंशावलियों में प्रायः उपकेशवंशियों के बनाये मन्दिरों की नामावली जितनी मिली है उसमें भी नमूना मात्र का उल्लेख किया है परन्तु उस समय अन्योन्य मुनियों द्वारा कितने मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं करवाई होगी कारण एक तो उस समय के श्रावकों के पास लक्ष्मी अपार थी दूसरे इस कार्य की आवश्यकता भी थी तीसरे समय के जान मुनियों का उपदेश भी इस विषय का अधिक था चतुर्थ गृहस्थ लोग इस पुनीत कार्य में द्रव्य व्यय कर अपना आत्म कल्याण एवं मनुष्य जन्म की सार्थकता भी समझते थे साथ में वे अपना आत्मीय गौरव भी समझते थे-नगर देगसर की अपेक्षा उस समय घर देरासर विशेष करवाये जाते थे। और घर देरासर होनेसे एक तो धर्म पर श्रद्दा दृढ़ रहती थी दूसरा पुरुष और स्त्रियों को पूजा का सुवि. धा रहता था तीसर अन्य देव देवियों को जैनौ के घरमें स्थान नहीं मिलता था इत्यादि अनेक लाभ थे ___ जैसे जैन श्रावकों को मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ट करवाने का उत्साहा था वैसे ही तीर्थों की यात्रार्थ मंघ निकालने का भी उमंग रहता था और अपने पास साधन होने पर कमसे कम जिन्दगी में एक वार श्री संघ को अपने प्रांगणे बुलाकर अपने हाथों से उनके तिलक कर संघ पूजा अवश्य करतथे और तीर्थों का संघ निकाल कर सबको यात्रा करवा कर स्वामि वात्सल्य एवं पहरामणी देकर कृतार्थ बनते थे । पट्टावलियों वंशावलियों श्रादि चरित्र प्रन्थों में कई संघपतियों का नाम लिखा हुआ मिलता है जिसको हम केवल थोड़े से नामों का यहाँ पर उल्लेख कर देते हैं। १-वीरपुर से श्रेष्ठि गोत्रीय शाह वीरम ने श्री शत्रुजयका संघ निकाला २-भरोंच से प्राग्वट वंशी शाह नेता ने , " सूरिजी के हाथों से प्रतिष्टाएं ] Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३-ॐकारपुर से भूरि गौत्री शाह नारा ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला ४-आधाट से अदित्य० शाह जोधा ने ५-मथुरा से श्रेष्टिगौ० शाह श्रादू ने ६-विराट नगर से बाप्पनाग० शाह देदा ने , ७-मेदिनीपुर से भाद्र गौ शाह नागदेव ने ८-- चंदेरी से कन्नोजिया गौ० शाह देवा ने , ९- रामपुरा से बलाह गौ० शाह रावल ने । १०- खटकूप से करणाट गौ० शाह गोपाल ने , ११- उपकेशपुर से प्रेष्ठि गौ० शाह रतना ने , १२-रत्नपुर से सुचंति गौ० शाह हीरा ने १३-क्षत्रीपुरा के ब्राह्मण शिवदास ने १४-ताबावती के चरड गौ कुंभा युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई १५-पाल्हिका के श्रेष्ठिवीर भाणा युद्ध मे. १६-उच्च कोट के मन्त्री राणो युद्ध में १७-शिवगढ़ के श्रेष्ठिनारायण युद्ध में १८ -गोसलपुर के राव रुद्राट , १९-डमरेल के श्रेष्टि सांगा , आचार्यश्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज महान् प्रतिभाशाली आचार्य हुए हैं आप अपने सोलहा वर्ष के शासन में कई प्रान्तों में विहार कर जनधर्म का प्रचार एवं प्रभावना कर खूब कीमति सेवा की ऐसे महापुरुषों का हम जितना उपकार माने उतना ही थोड़ा है उस विकट अवस्था में जैन धर्म जीवित रह सका यह उन महान् उपकारी पुरुषों के उपकार का ही मधुर फल है यदि ऐले परमोपकारी पुरुषों का एक क्षण भरी भी हम उपकार भूल जावे तो हमारे जैसा कृतघ्नी इस संसार में कौन हो सकेगा ? अतः हमे समय समय उन महान् उपकारी पुरुषों का उपकार को याद करना चाहियेश्रेष्ठिकुल अवतंस पच्चीसवें, सिद्धमूरि गुण भरि थे। जैनधर्म के आप दिवाकर, शासन के वर धूरि थे ॥ विद्या और सिद्धि ये दोनों, वरदान दिया यशधारी को। शासन का उद्योत किया गुरु, वन्दन हो उपकारी को ।। ॥ इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के २५३ पट्टपर प्राचार्य सिद्धसूरीश्वर महाप्रभाविक प्राचार्य हुये ।। wwwmarrrrrner FArr. . ..rna Arrrrrrrrrrrry Prernama ६९८ [ सूरिजी के शासन में तीर्थों के संघ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] भगवान महावीर की परम्परा भगवान महावीर की परम्परा में १ - सौधर्माचार्य २ जम्बु ३ प्रभव ४ शय्यंभव ५ यशोभद्र ६ सभूति विजय - भद्रबाहु ७ स्थुलिभद्र ८ महागिरी - सुहस्ती ९ सुस्थि- सुप्रतिबुद्धि १० इन्द्र दिन्न ११ आर्य दिन्न १२ सिंहगिरी ३ बज्र १४ श्रार्य बज्रसेन । इन सबका वर्णन पूर्व प्रकरणों में लिखा जा चुका है। वन के साथ कदर्पि यक्ष की घटना बनी उसको यहाँ लिख दी जाती है । सूरि विहार करते हुए मधुमति नगरी में पधारे। उस नगरी में एक कदर्जि नामक वणकर रहता था उसके आडी और कुहाडी नाम की दो स्त्रियाँ थी वे भक्षाभक्ष एवं पयापय में विवेक रखती थीं पर कदर्पि अभक्ष एवं अपय में अशक्त होकर माँस मदिरा का सेवन करता था इस हालत में उसकी दोनों स्त्रियों ने उपालम्ब दिया जिससे कदर्पि क्रोधित होकर जंगल में जाकर एवं चिन्तातुर होकर बैठ गया। इधर से सूरिजी महाराज थलि भूमि को पधार रहे थे । कदर्पि ने आचार्य श्री को देखकर खड़ा हुआ और बन्दन नमस्कार किया आचार्य श्री ने कदर्पि को अल्पायुः वाला जान कर उपदेश दिया कि तूं कुछ व्रत नियम ले जिससे तुम्हारा कल्याण हो । इस पर कदर्पि ने कहा प्रभो ! आप उचित समझे वह प्रत्याख्यान करवादें आचार्यश्री ने कहा कि तू भोजन करे तब उसके पूर्व कंदोरा की देरी की गाँठ छोड़ " नमो अरिहन्ताणं" शब्द का उच्चारण करना जब भोजन कर ले तो फिर गाँठ लगा देना अर्थात् जब तक गाँठ रहे तेरे पश्चखान हैं कुछ खाना पीना नहीं और जब गाँठ छोड़ दे तब तू खुल्ला है एक नवकार कह कर भोजन कर सकता है इसको गंठसी प्रत्याख्यान कहते हैं । कदर्पि ने गुरु वचन को स्वीकार कर लिया परन्तु उसको माँसादिका व्यसन पड़ा था उसको छोड़ नहीं सका । एक समय में किसी ने मैदान में माँस पकाया था । आकाश में कोई गरुड़ एक सर्प को मुँह में लेकर जा रहा था उस सर्प के मुँह से विष गिरा वह पकता हुआ माँस में पड़ गया। उस माँस के खाने में कदर्पि भी शामिल था बस ! माँस खाते ही उसका शरीर विष व्याप्त हो गया और थोड़ी देर में कदर्प कालकर व्रत के प्रभाव से व्यन्तरदेव की योनि में जाकर देवपने उत्पन्न हो गया ! रहा था और इन महात्मा जब कदर्पि की दोनों स्त्रियों को मालुम हुआ कि मेरा पति एक महात्मा की संगत में उन्होंने कुछ सिखाया जिससे मेरा पति मर गया अतः उन दोनों ने राजा के पास जाकर कहा मेरे पति को मार डाला है ! राजा ने बिना सोचे समझे आचार्यश्री को बुलाकर पहरा में बैठा दिया ? उधर कदर्पि का जीव व्यन्तरदेव हुआ था उसने उपयोग लगाया तो परोपकारी आचार्यश्री निर्दोष होने पर भी राजा ने उनका अपमान किया अतः उसने नगर के प्रमण वाली एक शिला विकुर्वी जिसको देख राजा प्रजा घबरा उठे और देव से प्रार्थना की कि यदि हमारा अपराध हुआ हो तो क्षमा करावे ! देव ने कहा श्ररे मूर्खो ऐसे विश्वोपकारी महात्माओं का अपमान करते हो यह शिला तुम अपराधियों के लिये बनाई है नगर पर डालते ही तुम्हारा और नगर का विनाश हो जायेगा! इतना कहते ही राजा प्रजा ने सूरीश्वरजी के चरणों में नमस्कार कर अपने अपराध की क्षमा मागीं और खूब गाजे बाजे के साथ सूरिजी को उपाश्रप में पहुँचाया तब जाकर उपद्रव की शान्ति हुई ! देव कदर्पि ने कहा पूज्यवर ! मैंने जिन्दगी भर पाप कर्म संचय किया पर केवल एक वचन ( नवकार ) के स्मरण मात्र से मैं इस देव ऋद्धि को प्राप्त हुआ हूँ अतः कृपाकर कोई कार्य बतलावें कि मैं उसको कर कृतार्थ बनूं ! सूरिजी ने कहा देव ! नवकार मंत्र ऐसी औषधि है कि आर्य वज्रसेन और कदर्षि यक्ष ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ ६९९ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्षं ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कई भवों के कर्म रूप रोग को मिटा कर मोक्ष रूप अक्षय आरोग्यता प्रदान करता है । हम साधुओं के क्या काम होता है यदि तुम्हारी इच्छा हो तो यह पुनीत तीर्थश्रीशत्रुंजय है इसकी सेवा भक्ति कर सुलभ बोधित्व उपार्जन करो ! देवने सूरिजी के हुक्म को स्वीकार कर लिया और सूरिजी ने कदर्पि यक्ष को शत्रुजय के धिष्ठायक पने स्थापन कर दिया इति कदर्पि यक्ष का सम्बन्ध ! १५ – आचार्य चन्द्रसूरि - आप श्री का वर्णन आचार्य यक्षदेवसूरि तथा आर्य बज्रसेनसूरि के जीवन - " चुका है कि आप सोपरपट्टन के उकेसिय गोत्र के जिनदास सेठ की ईश्वरी सेठानी के अनेक पुत्रों में एक होनहार भाग्यशाली पुत्र थे ! दुकाल के अन्त आप अपने नागेन्द्र निर्वृति और विद्याधर भ्राताओं के साथ बानसूर के कर कमलों से दीक्षित हुए थे सोपारपट्टन में आचार्य यक्षदेवसूरि के पास ज्ञानाभ्यास कर रहे थे । अकस्मात् वज्रसेनसूरि का स्वर्गवास होगया । आचार्य यक्षदेवसूरि ने आपको पूर्वी एवं अंगों का अध्ययन करवा कर सूरि पद प्रदान किया था । आप बड़े ही प्रतिभाशाली एवं जैन शासन के प्रभाविक पुरुष आपका बिहार क्षेत्र कांकरण सौराष्ट्र श्रावंती मेदपाट और मरुधर प्रान्त तक था आपके शिष्यों का समुदाय भी विशाल था आपका समय बड़ा ही त्रिकट था तथापि जैनधर्म का प्रचार के लिये आपने बहुत प्रयत्न किया था ! आपकी सन्तान चन्द्रकुल के नाम से ओलखाई जाति थी इस कुल मैं बड़े बड़े प्रभाविक श्राचार्य ! जिन्हों का हम आगे यथास्थान वर्णन करेंगे श्रापश्री ने श्राचार्य यक्षदेवसूरि का महान उपकार माना और उनके प्रभाव से ही आप इस स्थिति को प्राप्त हुए थे इत्यादि । १६ - श्री सामन्तभद्रसूरि -- आप आचार्य चन्द्रसूरि के पट्टधर थे आपका ज्ञान समुद्र के सहश अगम्य था । एकादशांग के अलावा आप कई पूर्वी के भी पाठी थे आपके निरतिचार चरित्र और कठोर तप का प्रभाव राजा महाराजा पर तो क्या पर कई देव देवियों पर भी पड़ता था आप नगरों की अपेक्षा वन उपवन एवं जंगलों में रहना विशेष पसन्द करते थे इनसे एक तो गृहस्थों का परिचय कम दूसरा उपाधि कम तीसरा ध्यान की सुविधा आसन समाधि योग साधना निर्विघ्न तय बन सकता था ! इत्यादि अनेक लाभ थे । आचार्य महागिरिजी से यह प्रवृति चली आ रही थी परन्तु बीच में कई भयंकर दुकाल के कारण अधिक नगरों में रहना पसन्द कर लिया था तथापि जंगलों में रहने वाले भी बहुत मुमुक्षु उस समय विद्यमान थे । आपके शासन समय यह भी प्रवृति थी कि आचार्य अपने शिष्यों में जिसको योग्य समझते उनको गच्छ भार सुपर्द कर आप इस प्रकार जंगलों में रहकर अन्तिम सलेखना किया करते थे ! श्राचार्य सामन्तभद्र के पूर्व ही जैनशासन में दो समुदायें बन चुकी थीं श्वेताम्बर - दिगम्बर । आचार्य श्री ने इन दोनों को एक बनाने में खूब ही प्रयत्न किया परन्तु कलिकाल की क्रूरता के कारण आपका प्रयत्न सफल नहीं हुआ और दिन व दिन समुदायिकता बढ़ती ही गई । आचार्य श्री जंगलों में रहते हुए भी जन कल्याणार्थ कई ग्रंथों का भी निर्माण किया था जैसे आप्त मीमंसा यह एक न्याय का पूर्व ग्रंथ है तथा युवन्त्यानुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, जिनस्तुति शतक' आदि कई ग्रंथ बनाये थे । सामन्तभद्राचार्य नामक एक प्राचार्य दिगम्बर समुदाय में भी हुये हैं इन दोनों आचार्य का समय भी मिलता भुलता ही है शायद श्राप जंगलों में रहने के कारण दोनों के सामन्तभद्र एकही हों अर्थात् सामन्त भद्राचार्य को दोनों समुदाय वाले समान दृष्टि से मानते हैं। पर सामन्तभद्रा के गुरु एवं शिष्य परम्परा जो श्वेताम्बर पट्टावलियों में लिखी है वह दिगम्बर से नहीं मिलती है अतः सामन्तभद्राचार्य श्वेताम्बर समुदाय ७०० [ आर्य्यचन्द्रसूरि और सामन्तभद्र Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ६८२-६९८ में हुए हैं और उनका निम्रन्थपना के कारण शायद दिगम्बर अपने आचार्य मानते हों खैर कुछ भी हो सामन्तभद्राचार्य महा प्रभाविक बन में बिहार करने वाले एक श्राचार्य हुए और आपके बनवास के कारण ही आपके सन्तान का नाम बनवासी गच्छ हुआ है, इनके पूर्व निर्गन्थ एवं कोटीगण कहलाता था। १७-आचार्यवृद्धदेवसूरि-आपका नाम तो देवमूरि था पर आप प्राचार्य पद के समय वृद्धावस्था में होने के कारण आपको बृद्धदेव सूरि कहा जाता था पदावलिकारों ने आपके चरित्र विषय में विशेष वर्णन नहीं किया है पर प्रभाविक चरित्र में प्राचार्य मानदेवसूरि के प्रबन्ध में आप श्री के विषय में भी कुछ उल्लेख किया हुआ मिलता है तथाच तत्र कोरंटकं नामपुर मस्त्युन्नताश्रयम् ! द्वि जिव्हा विमुखा यत्र विनता नदंना जनाः !! ५ तत्रास्ति श्रीमहावीर चैत्यं चैत्यं दध दृटम ! कैलासशैल वनाति सर्वाश्रयतया नया !! ६ उपाध्यायोस्ति तत्र श्री देवचन्द्र इति श्रु द्वद्वन्द शिरो रत्न तमस्त तिहरो जने !! ७ आरण्यकतपस्यायां नमस्यायां जगत्यपि ! सक्त' शक्तां तरंगारिविजये भवतीरभूः!! ८ सर्वदेवप्रभुः सर्वदेव सद्ध्यान सिद्धिभृत् ! सिद्धक्षेत्रे यियासुः श्री वाराणस्या समागमत् !! ९ बहु श्रु त परिवारो विश्रांत रतत्र वासरान् ! कांश्चित्प्रबोध्य तं चैत्यव्यवहार ममोचयत् !! १० स पारमार्थिकं तीव्र धत्ते द्वादशधा तपः ! उपाध्यायस्ततः सूरि पदै पूज्यैः प्रतिष्टितः !! ११ श्री देवसूरिरित्याख्या तस्य ख्यातिं ययौ किल ! श्रूयतेऽद्यापि वृद्ध भ्यो वृद्धास्ते देव सूरयः !! १२ श्री सर्वदेव सूरिशः श्री मच्छत्रुजयें गिरौ ! आत्मार्थ साधयामास श्रीनाभेधैकवासन !! १३ प्र०च० "सप्तशतिदेश ( सिरोही और मारवाड़ की सरहद ) में कोरंटपुर नाम का एक समृद्धशाली नगर है वहाँ के लोग बड़े ही धनाड्य और धर्म कर्म करने में सदैव तत्पर रहते हैं उस नगर में धर्म की दृढ़ नींव एवं धर्म मर्यादा को नव, प्लवित करने वाला भगवान महावीर' का मन्दिर जो कैलाश पर्वत के सदृश १- कोरंटपुर का नाम प्राचीन पटटावलियों में के.लापुर पट्टन के नाम से लिखा है आचार्य रत्नप्रभसूरि ५०० मुनियों के साथ जब उपकेशपुर पधारे थे वहां सब साधुओं का निर्वाह होता नहीं देखा तो सूरिजी महाराज ने साधुओं की बिहार की आज्ञा दे दी थी ४६५ साधु बिहार कर कोरंटपुर नगर में चर्तुथमास कर दिया। कोरंटपुर में इतने साधुओं का निर्वाह कैसे हो गया ? आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने भीन्नमाल-पद्मावती में हजारों घरों वालों को जैन बनाने के बाद कोरंटपुरादि आसपास के प्रदेश में बिहार का वहाँ भी हजारों लाखों लोगों को जैन बनाये वे लोग वहाँ बसते थे और उनकी संख्या इतना प्रमाग में थी कि ४६५ मुनियों का सुख पूर्वक निर्वाह हो सका। २-कोरंटपुर में महावीर का मंदिर है उसकी प्रतिष्ठा आचार्य रत्नप्रभसूरि ने करवाई थी जिसका समय वीर निवार्ण के पश्चात् ७० वर्ष का है पटावलि में उल्लेख मिलता है कि-- उपकेश च कोरंटे ! तुल्यं श्री बीर बिम्बयो । प्रतिष्ठा निर्मित शक्त्या, श्री रत्नप्रभसूरिभि ॥ १॥ ३-आचार्य रत्प्रभसूरि के लघु गुरु भाई कनकप्रभ को कोरंट संघ की ओर से आचार्य पद प्रदान किया गया और उनका अधिक बिहार कोरंटपुर के आस पास होने से आपके समुदाय का नाम कोरंटगच्छ पड़ गया इस गच्छ के आचार्यों ने लाखों नूतन श्रावक बनाये थे जैसे बोथरा, धाडीवाल, रातडीया, मीनी, रवीवसरादि कई जातियां आज भी विद्यमान हैं। अतः कोरंटपुर नगर महावीर मन्दिर और कोरंटगच्छ ये बहुत प्राचीन हैं। ४-पट्टावलियादि ग्रन्थों में चैत्यवास का समय वीरात् ८८२ का लिखा है शायद यह समय चैत्यवासियों की प्रबल सता का होगा परन्तु उपाध्याय देवभद्र के पूर्व ही चैत्यवास प्रारम्भ हो गया था जिसके लिये उपर दिए हुए प्रमाण से साबित होता है और हम आगे चल कर एक चेत्यवास करण अलग एवं स्वतन्त्र ही लिखेंगे। उपाध्याय देवचन्द्र और चैत्यवास ) ७०१ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० २८२-२९८ वर्ष 1 [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मुमुक्षुत्रों को आनन्द का देने वाला है। उस मन्दिर की सेवा पूजा उपासना करने वाले बहुत सुबुद्धि लोग बसते हैं ! उस मन्दिर में एक देवचन्द्र नामक उपाध्याय भी रहते हैं और उस मन्दिर की सब व्यवस्था उपाध्यायजी द्वारा ही होती है । उसी समय सुविहित शिरोमणि महान प्रभाविक सर्वदेवसूरि नामक एक श्राचार्य बनारसी से सिद्धगिरी की यात्रार्थ बिहार करते हुए कोरंटपुर नगर में पधारे। वहां के श्रीसंघ ने आचार्यश्री का सुन्दर स्वागत किया संघ की भक्ति देख सूरिजी ने कई दिन तक वहां स्थिरता की । तब आपश्री ने सुना कि यहां महावीर मन्दिर में एक देवचन्द्र उपाध्याय रहता है वह गीतार्थ एवं विद्वान होता हुआ भी महावीर मन्दिर की सब व्यवस्था करते हैं जो साधु धर्म के लिये अकल्पनिक है ! अतः आचार्य सर्वदेवसूरि ने उपाध्याय देवचन्द्र को हितकारी एवं मधुर उपदेश देकर उनको समझाया और उपाध्यायजी भी समझ गये जब उन्होंने मन्दिर की व्यवस्था एवं चैत्यवास का त्याग कर उपविहार करना स्वीकार कर लिया तब आचार्य सर्वदेवसूरि ने उनको योग्य समझकर सूरिपद से विभूषित कर दिये और आप सामन्तभद्रसूरि के पट्टधर वृद्धदेवसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए ! पट्टावली एवं प्रबन्धकार लिखते हैं कि श्राचार्य वृद्धदेवसूरि बड़े ही तपस्त्री थे आपने अपनी अन्तिम व्यय में अपने पट्टधर मुनि प्रद्योतन को आचार्य बनाकर आप अनसन एवं समाधि पूर्वक स्वर्ग पधार गये । १८ आचार्य प्रद्योतनसूरि महाप्रतिभाशाली उप्रबिहारी एवं धर्मप्रचारी एक जबर्दस्त श्राचार्य हुए । श्राप भू भ्रमण करते हुए एक समय मारवाड़ की ओर बिहार किया और क्रमशः नारदपुरी नगरी में पधारे संघ ने आपका अच्छा सत्कार किया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था जिसका जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ता था उसी नगर में एक श्रेष्ठि जिनदत्त बड़ा ही धनेश्वरी एवं श्रद्धा सम्पन्न श्रावक रहता था और आपके गृहदेवी का नाम धारणी था आपके एक मानदेव नाम का पुत्र भी था वह भी सूरिजी का व्याख्यान सुना करता था एक दिन आचार्यश्री ने संसार की असारता, लक्ष्मी की चंचलता, कुटुम्ब की स्वार्थता और आयुष्य की स्थिरता का उपदेश दिया और साथ में दीक्षा का महत्व और आत्म कल्याण करने की परमावश्यकता समझाई । यों तो आपके व्याख्यान का प्रभाव सब लोगों पर हुआ ही था पर श्रेष्ठि पुत्र मानदेव की आत्मा पर तो इस कदर असर हुआ कि उसने सूरिजी से अर्ज की कि हे प्रभो ! मैं मेरे माता पिता की आज्ञा लेकर आपके चरण कमलों में दीक्षा लूंगा ? सूरिजी ने कहा 'जहा सुखम्' मानदेव आचार्य श्री को वन्दन कर अपने घर पर आया और माता पिता से दीक्षा के लिये आज्ञा मांगी परन्तु मोह कर्म की पास में बन्धे हुए माता पिता कब चाहते थे कि मानदेव हमको छोड़ दीक्षा ले ले ? परन्तु जिसको संसार से घृणा आ गई हो वह इस कारागृह में, कब रह सकता है आखिर माता पिता की आज्ञा लेकर मानदेव सूरिजी की सेवा में भगवती जैन दीक्षा ले ही ली । मुनि मानदेव गुरुदेव का विनय भक्ति करके जैनागमों - अंग उपांग मूल छेदादि वर्तमान समग्र साहित्य का अध्ययन कर लिया और भी ऐसे अलौकिक गुणों को हासिल ४२ आचार्य सामन्तभद्र और उपाध्याय देवचन्द्र के आपस में क्या सम्बन्ध था इस विषय का प्रबन्धकार ने कुछ भी खुलासा नहीं किया है । उपाध्याय देवचन्द्र के समय चैत्यवास की बहुलता होगी पर सुविहितों का भी सर्वथा अभाव नहीं था और सुविहित उस समय इस प्रकार के चैत्यवास को हय समझते थे यही कारण है कि सर्वदेवसूरि ने देवचन्द्रोपाध्याय को चैत्य की व्यवस्था करने से मुक्त कर उम्र बिहार बनाया । + आचार्य रत्नप्रभसूरि स्थापित महाजन संघ के अठारह गौत्रों में श्रेष्टि गौत्र एक है । ७०२ [ आचार्यमद्योतनसूरी और मानदेव Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओतवाल संवत् ६८२-६९८ किया कि जिससे खुश होकर आचार्य श्री ने अपने पट्ट पर मुनि मानदेव को प्राचार्य बना कर अपना सर्वाधिकार मानदेवसूरि को सौंप दिया। १९ श्राचार्य मानदेवसूरि बालब्रह्मचारी एवं उत्कृष्ट तपस्वी होने के कारण जया और विजय दो देवियां आपके चरण कमलों में हमेशा बन्दन करने को आया करती थी कई पट्टावलियों में लक्ष्मी और सरस्वती इन दो देवियों के नाम लिखा है परन्तु ऐसे महापुरुषों के दो चार नहीं पर इनसे भी अधिक देवदेवियाँ सेवा करते हों तो क्या आश्चर्य की बात है । गुणी जन सर्वत्र पूजनीय होते हैं। प्राचार्य मानदेवसूरि अपने शेष जीवन में ६ विगइ के त्याग कर दिया था प्रायः आप अज्ञातकुल की गौचरी करते थे और पिछली अवस्था में आप नारदपुरी (नाडोल ) में भगवान नेमिनाथ के चैत्य (मन्दिर) में ही विराजते थे इससे पाया जाता है कि चैत्य में सुविहित आचार्य भी ठहरते थे और साधु चैत्य में ठहरें तो कोई दोष भी नहीं है दोष है। ममता एवं सावध कार्य करने का इस विषय में हम आगे एक चैत्यवास प्रकरण स्वतंत्र रूप में लिखेंगे। पंजाब की सरहद पर अलकापुर की सदृश तक्षशिलापुरी ॐ नगरी थी वहां जैनों के ५०० मन्दिर थे और लाखों भावुक धनधानपूर्ण और कुटुम्ब परिवार से समृद्ध श्रावक लोग बसते थे समय समय पर जैनाचार्यों का शुभागमन भी हुआ करता था उसमें भी उपकेशगच्छाचार्यों का विशेष पधारना होता था जब वे पंजाब में आते थे तब तक्षशिला की स्पर्शना अवश्य किया करते थे। कहा है कि सदैव एक सी स्थिति किसी की भी नहीं रहती है एक समय सुवर्णमय द्वारामति स्वर्ग समान शोभा देती थी पर दिन आने पर वह जल कर भस्मीभूत हो गई थी यही हाल आज तक्षशिला का हो रहा है जहाँ देखो मरकी का उपद्रव से पशुओं की भाँति मरे हुए मनुष्य की लाशें नजर आ रही थीं पशु पंखी तथा राक्षसों को खून और मांस से तृप्ती हो रही थी इस उपद्रव ने तो चारों ओर त्राहि त्राहि मचादी थी इतना ही क्यों पर मन्दिरों का भी पता नहीं कि वहाँ पूजा होती है या नहीं एक समय संघ अग्रेश्वर मन्दिर में एकत्र होकर विचार किया कि सुख शान्ति के दिनों में अधिष्टायिक एवं शासन देव देवियां आते जाते और दर्शन भी देते पर इस महान संकट के समय सब देव देवी कहां चले गये कि संघ के अन्दर इस प्रकार संकट, मन्दिरों की पूजा का पता नहीं जिसमें इतनी इतनी प्रार्थना कराने पर प्रसाद चढ़ाने पर भी कोई नहीं आता है इसका कारण क्या होगा ? इस प्रकार संताप करते हुए संघ को देख शासन देवी अदृश्य रहकर बोली कि आप इस प्रकार खेद क्यों करते हो इसमें शासन देव देवियों का कोई भी दोष नहीं है कारण दुष्ट मलेच्छों के देवों ने इस प्रकार क्रूरता की है कि उसके सामने हमारी कुछ चल नहीं सकती है ! जैसे इज्जतहीन नंगे लुच्चों के सामने इजत दार साहूकारों की नहीं चलती है पर मैं आपको यह भी कह देती हूँ कि इस नगरी का तीन वर्षों के बाद भंग होगा अतः इस उपद्रव से बच कर तुम यहां से चले जाना ? इस पर संघ ने कहा कि तीन वर्ष बाद रहेगा कौन ? यदि इस उपद्रव से बचने का कोई उपाय नहीं मिला तो सब लोग स्वत्म हो जायेंगे और देव • भथ तक्षशिलापुर्या चैत्य पंचशती भृति ! धर्म क्षेत्रे तदा जज्ञे गरिष्टमशिवं जने !! २७ अकाल मृत्यु संयाति रोगै लोकि उपद्रतः ! जज्ञे यत्रौषधं वैद्यो न भुगुण हेतवे !! २८ प्रति जागरणे ग्लानं देहस्यह प्रयाति यः! गृहागतः स रोगेण पात्यते तल्प के दूतम !! २९ स्वननः कोपि कसायपि नास्तीह समये तथा ! आनंद भैरवारावरौद्ररुपाभवत्पुरी !! ३० प्र०न. तक्षाशिला में उपद्रव्य और शन्तिस्तव ] ७०३ Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास wr भुवन सदृश इन जिनालयों की न जाने क्या दशा होगी अतः आप कोई ऐसा उपाय बतलावें कि संघ की रक्षा हो इत्यादि ? शासन देवी ने कहा कि मैं आपको एक उपाय बतलाती हूँ कि मरुस्थल में नारदपूरि ( नाडोल ) नगरी में आचार्य मानदेवसूरिजी विराजते हैं उनके ब्रह्मचर्य एवं तपश्चर्या का इतना प्रभाव है कि कैसा ही उपद्रव क्यों न होवे पर उनके पधारने से सब शान्ति हो जाती है अतः तुम मानदेवसूरि को लाने का प्रयत्न करो पर मेरा पहले का कहना ध्यान में रखना कि तीन वर्षों के बाद इस नगरी का ध्वंश होने वाला है जो लोग इस नगरी को छोड़कर अन्यत्र चले जायेंगे वह बच जायगे इत्यादि कह कर देवी तो अदृश हो गई ! ___ श्रीसंघ ने आचार्य मानदेवसूरि को बुलाने के लिये विचार किया पर ऐसी विकट स्थिति में घर कुटुम्ब को छोड़ कर जावे कौन ? आखिर बहुत कहा तब संघ सेवा को लक्ष में रख एक वरदत्त नाम का श्रावक ने स्वीकार किया अतः संघ ने एक विनतिपत्र लिख कर वरदत्तको नारदपुरी भेजा और वह क्रमशः चलता हुआ नाडोल आया भगवान नेमिनाथ के मंदिर में मानदेवसूरि विराजते थे समय मध्यान्ह का था। सरिजी ध्यानमें मग्न थे उस समय हमेशा की भाँति जया विजया दोनों देवियों सूरिजी को वंदन करने के लिये आई थी और वे एकान्त चूणा में बैठी हुई सूरिजीके ध्यान की राय देखरही थीं। उसी समय वरदत्त निसीही पूर्व मन्दिरमें प्रवेश किया और जहाँसूरिजी थे वहां जाकर एक कोने में बैठी हुई दो युवा एवं स्वरूपवान ओरतोंको देखी तो वरदत्त का दिलबदल गया और सोचनेलगा कि हमारे वहाँ की शासनदेवी हमको धोका दिया है क्या ऐसे ढूंगी एवं व्यभिचारी मनुष्यों से उपद्रव कभी शान्त हो सकता है ? इस विकाल की टाइम में साधुओं के पास एकान्त में युवा ओरतें क्यों शायद हमको देख लूंगी महात्मा ने ध्यान लगा लिया होगा इत्यादि कई विकल्प करने लगा । गुरु ध्यान न पारें वहाँ तक बाहर बैठ गुरू का छेद्र देखने लगा ! इधर तो गुरू ने ध्यान पाग उधर वरदत्त आन्दर आने लगा तो जयादेवी उसकी दुष्टता देख उसको जकड़ कर बांध लिया और कहने लगी कि रे दुष्ट तूं ऐसे प्रभावशील आचार्य के लिये इस प्रकार दुष्ट परिणाम कर लिया परन्तुअरे विवेक शून्य तुझे दीखता नहीं है कि हमारे पैर भूमि से चार अंगुल ऊँचे हैं हमारे नेत्र अवल हैं हमारे गले की पुष्पमाला विकशित है इससे हम मनुष्य नहीं पर देवांगना है और गुरू भक्ति से प्रेरित हो हमेशा बन्दन करने को आया करती हैं। वरदत्त सुनकर लज्जित हुआ सूरिजी के कहने से देवियों ने उसको बन्धन मुक्त किया। वरदत्त ने श्री. संघ का विज्ञापन पत्र सूरिजी को दिया सूरिजीने कहा कि संघ की आज्ञा प्रमाण करना मेरा कर्त्तव्य है पर +देवी प्राहाथ नङ्कले मानदेवाख्यया गुरुः ! श्रीमानस्ति तमानाय्य तत्पदक्षालनौदके !! ४३ आवासानभिपिंचध्वं यथा शाम्यति डामरम्! एव मुक्त्वा तिरोधत्त श्रीमच्छासन देवता!! ४४ श्रावकं वीरदां ते प्रैषुर्नड्कूल पत्तने ! विज्ञप्तिकां गृहीत्वा च स तत्र क्षिप्रमागमत् !! ४५ भूप्रणामाश्रयं दृष्ट्वा व्यधान्नधिकी तदा! मध्यान्हे सरि पादारच मध्ये ऽपवरकं स्थिताः!! ४६ उपाविशन् शुभे स्थाने स्थाने स ब्रह्मसंविदाम ! पंर्यकासनमासीना नासाग्रन्यस्तदृष्टयः !! ४७ ईक्ष स्वानिमिषे दृष्टी चरणावक्षितिस्पृशौ ! पुष्प माला न च म्लाना देव्यावावांन लक्षसे !! ५८ श्री शान्तिनाथ पार्श्वस्थ प्रभु स्मृति पवित्रितम् ! गर्भित तेन मंत्रेण सर्वाशिवनिषेधिना !! ७२ श्री शान्ति स्तवनाभिख्यं गृहीत्वा स्तवन वरम् । स्वस्थो गच्छ निज स्थानमशिवं प्रशमिष्यति !! ७३ कोपि कुत्रापि चायातः प्रगम्य जनमध्यतः! गते वर्षे त्रये भग्ना तुरुष्कः सा महापूरी:!! ७४ सूरिः श्रीमानदेवाख्यः शासनस्य प्रभावना ! विधायानेकशी योग्यं शिष्षं पट्टे निवेश्यच !! ८० प्र.च० ७०४ [ बरदत्त के बुरे परिणामों का फल Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धभूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२ –६९८ मेरा तक्षशिला श्राना तो इस समय बन नहीं सकता मैं यहाँ बैठा ही तुम्हारे उपद्रव की शान्ति कर दूंगा अतः सूरिजी ने लघु शान्ति रूप शान्तिस्तव बना कर वरदत्त को दे दिया । वरदत्त गुरू को बन्दन कर पुनः तक्षशिला आया और गुरु महाराज का दिया हुआ शान्तिस्तव संघ कौ देकर सब विधि कह सुनाई उसी प्रकार करने से नगर में सर्वत्र शान्ति हो गई जिससे जैन एवं जैनेत्तर सब लोगों ने सूरिजी एवं जैनधर्म का महान् उपकार समझा बाद बहुत से लोग तक्षशिला त्याग कर सिन्ध शूरसेन वगैरह : जहाँ अपना सुविधा देख वहां चले गये और तीन वर्षों के बाद तुर्कों ने तक्षशिला का ध्वंस कर डाला ! बाद कई अर्सा से बादशाह गजनी ने तक्षशिला का पुनरुद्धार कर उसका नाम गजनी रख दिया था । इधर आचार्य मानदेवसूरि ने मनुष्यों को ही क्यों पर कई देव देवियों को धर्मोपदेश देकर उनको आत्म कल्याण का उत्तम रास्ता बतलाया और अनेक भव्यों का उद्धार कर अपने श्रायुष्य के अन्त में किसी योग्य मुनि को अपने पट्ट पर आचार्य बना कर आप अनसन एवं समाधि पूर्व स्वर्ग सिवार गये इस प्रकार आचार्य मानदेवसूरि शासन के महान् प्रभाविक आचार्य हुए हैं आपका समय के लिये हम आगे चल कर विचार करेंगे - २० - श्राचार्य मान तुगंसूरि-आप बड़े ही विद्या बली एवं अनेक लब्धियों से विभूषित थे कई राजा महाराजा आपके चरणों की सेवा कर अपने जीवन को कृतार्थ हुआ समझते थे । आपका पवित्र चरित्र बड़ा ही अनुकरणीय है । बनारसी + नगरी में जिस समय ब्रह्मक्षत्री वंशका हर्षदेव राजा राज करता था और उसी तक्षशिला नगरी जैनों का एक धर्म चक्र नाम का भगवान् चन्द्रप्रभ का तीर्थ था प्रबन्धकार स्वयम् लिखते हैं कि तक्षशिला के खोदकाम से पीतल वगैरह की जैनमूर्तियां आज भी निकलती हैं और यह सत्य भी है प्रबन्धकार के समय ही क्यों पर आज भी वहाँ के खोद काम से जैनमूर्तियों वगैरह स्मारक चिन्ह भूमि से निकलते हैं । चीनी यात्री हुयेनसांग विक्रम् की छटी शताब्दी में भारत की यात्रार्थं आया था उस समय धर्मचक्रतीर्थं बौद्धों के हाथ में था और चंद्रप्रभ बोधिसत्व तीर्थ कहलाता था इनके अलावा भी बहुत से जैनमन्दिर बौद्धों ने अपने कब्जे में कर लिया था । जो उक्त चीनी यात्री के यात्रा वितरण से स्पष्ट पाया जाता है। वीर वंशावलीकार लिखते हैं कि आचार्य मानदेवसूरि ने बहुत से क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर उपकेश ( वंश ) में मिलाये | पन्यासश्रीकल्याणविजयजी महाराज ने मानदेवसूरि की प्रर्यालोचना में लिखते हैं कि ओसवाल जाति पश्चिम दिशा से आई होगी इत्यादि । पन्यासजी महाराज का यह अनुमान कहां तक ठीक है कारण मानदेवसूरि के समय इस जाति का नाम ओसवाल नहीं था पर उपकेशवंश था और इस नाम संस्करण का कारण उपकेशपुर था जो मरुस्थल का एक नगर था दूसरा उपकेशवंश को रहन-सहन रीति-रिवाज वेशभाषा वगैरह सब मारवाड़ की ही है अतः इस जाति की मूलोत्पत्ति मरुधर से ही हुई है हाँ पट्टावलियादि ग्रंथों में उस समय तक्षशिला में उपकेश वंसियों की बहुत आबादी थी और देवी के कथन से उन्होंने तीन वर्ष के बाद तक्षशिला का भंग होना समझ कर वे लोग वहाँ से चल कर पंजाब में आ गये हों तो यह बात संभव हो भी सकती है । पर ओसवाल जाति को ही पश्चिम की ओर से आई कहना तो केवल भ्रम ही है । तक्षशिला के भांगपूर्व उपकेशगच्छचार्यों का कई बार तक्षशिला में बिहार हुआ और कई चतुर्मास भी वहां किये थे यदि उपकेशवंशियों का वहाँ गहरी तादाद में अस्तित्व नहीं होता तो वहाँ उपकेशच्छाचार्यों के इस प्रकार बार-बार जाना ना शायद ही होता तथा वीर वंशावली के लेखानुसार मानदेवसूरि बहुत से क्षत्रियों की प्रतिबोध देकर उपकेश बनाना भी इस बात को साबित करता है कि इनके पूर्व उपकेश वासियों का भारत के चारों और प्रचार बढ़ गया था। + सदासुरसरिद्वीचीनिचयाचांतकश्मला । पुरी वाराणसीव्यस्ति साक्षादिव दिवः पुरीः ॥ ५ असीत् कोविद कोटीरमर्थिदारिद्यपारम् । तत्र श्री हर्षदेवाख्यो राजा न तु कलंक भृत् ॥ ६ ब्रह्म क्षत्रिय जातीयो धनदेवाभि सुधीः । श्रेष्टीतत्राभवद्विश्वप्रजा भूपार्थ साधकः ॥ ७ आचार्य मानतुंगलूर ] ७०५ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२–२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नगरी में श्रेष्टिवीर्य धनदेव नाम का एक धनाड्य व्यापारी नागरिकों में श्रामेश्वर जैन श्रावक बसता था उसके गृहदेवी शीलवती से एक मानतुगं नामका पुत्र हुआ उसकी बाल क्रीड़ा होन हार की सूचना दिया करती थी जब मानतुगं युवक अवस्था में पदार्पण किया तो एक समय वह किसी चैत्य में रहे हुऐ चारुकीर्ति दिगम्बराचार्य के पास गया और उनकों अभिवादन किया बदले में दिगम्बराचार्य ने धर्म वृद्धि रूप आशीर्वाद देकर उसको संसार असारता के विषय उपदेश दिया जिससे मानतुगं संसार को असार समझ कर आचार्य श्री के पास दीक्षा लेने को तैयार हो गया परन्तु मानतुगं के माता पिता कब चाहते थे कि हमारा प्यारा पुत्र मानतुगं हमको छोड़ कर साधु बन जाये। फिर भी मानतुगं ने अपने माता पिता को समझा बुमा कर आज्ञा प्राप्त कर दिगम्बराचार्य के पास दीक्षा ग्रहन करली। आचार्य ने उसका नाम महाकीर्ति रखा और अपने मत की शिक्षा दी कि मुनि-साधुओं को सूत ऊन या रेशम का थोड़ा भी वस्त्र नहीं रखना अर्थात बिलकुल नम ही रहना, केवली केवल आहार नहीं करे, स्त्रियों की मुक्ति नहीं होती है साधुओं को भिक्षा ग्रहन समय ३२ अन्तराय होती हैं इत्यादि ? उस समय दिगम्बरों के पास और था ही क्या ? मुनि महाकीर्ती अपने मत में ठीक जान कार हो गया साथ में थोड़ी बहुत तपस्या भी करता था और अपने गुरु के साथ चैत्यालय में ठहरे हुए थे उसी बनारसी नगरी में एक श्रेष्टिवर्य लक्ष्मीधर नाम का सेठ बसता था वह बड़ा ही धनाड्य एवं प्रसिद्ध पुरुष था मानतुगं की बहिन लक्ष्मीधर को ब्याही थी वे दोनों दम्पति श्वेताम्बराचार्यों को मानने वाले श्वेताम्बर श्रावक थे एक समय दिगम्बर मुनि महाकीर्ति भिक्षा के लिये भ्रमण करता हुआ अपनी बहिन के वहां चला गया बहिन ने अपना भाई जान उनका सत्कार कर आहार के लिये आमन्त्रण किया जब महाकीर्ति अपने पास का कमण्डल से पानी लेकर मुख प्रक्षालन करने लगा तो उस पानी में बहुत त्रस तत्सतो मानतुगाल्यो विख्यातः सत्व सत्यभू । अवज्ञात पर द्रव्य वनिता वितथा प्राहः ॥ ८ संतीह मुनयो जैना नग्ना भग्नस्मराधय । तच्चैत्ये जग्मिवानन्यदिवसे विवशेतरः ॥ ९ वीतराग प्रभुनत्वा गत्वा गुरुपदांतिकम् । प्रागमद्वर्म वृद्धयाशीर्वादेन गुरुणार्हित ॥ १. महाव्रतानि पंचास्योपादिशन्नग्नतां तथा । उर्णकार्पासकौशेय शौचा वृति निषेधतः॥ ११ इत्यायनेकधा धर्म मार्गाकर्णनतस्तदा । वैराग्य रंगिणो मानतुगस्य व्रत काक्षिणः ॥ १२ तन्माता पितरौ पृष्ठाचार्य स्तस्य व्रत ददौ। चारुकीर्ति महीकीर्तिरित्य स्याख्यां ददो चसः ॥ १३ स्त्रीणां न निर्वृतिर्मान्यामुक्तिः केवलिनोपिहि। द्वात्रिंशदन्तरायाणि बुबुधे च बुधेश्वरः ॥ १४ * अशोधन प्रमादेनानुसंधानाज्जलस्य च । नैके संमूर्छितास्तत्र पतरास्तत्कमडली ॥ २० गडूषार्थमृषिर्यावच्चुलुकेजलमाददे। ददर्शतानस्वसाप्राह लीना श्वेतांबर व्रते ॥२१ व्रते कृपा रसः सार स्तदमी द्वीद्रियास्त्रसाः । विपद्यते प्रमादाद्वस्तज्जैनसदृशंनहि ॥ २२ लज्जा वरण मात्र वस्त्र खण्डे परिग्रहः । ताम्र पात्रे कथं न स्याद्यादृच्छि कमिंद किमु ॥ २३ धन्य श्वेताम्बरा जैनाः प्राणि रक्षार्थमुद्यताः। न सन्निदधतेनीरमपि रात्रौ क्रियो द्यता ॥ २४ ७१-मानतुग की दीक्षा होने के बाद भी दिगम्बराचार्य बनारसीके चैत्य में ही ठहरे इससे पाया जाता है कि जैसे श्वेताम्बरों में चैत्यावास की प्रवृति थी वैसे ही दिगम्बरों में भी चैत्यवास की प्रवृति थी। २-मानतुगसूरि ने बनारस के राजा हर्षदेव की सभा में भक्तामर की रचना कर चमत्कार बतलाना प्रबन्धकार ने लिखा है पर वीर शावली में उज्जैन नगरी के राजा बृद्धभोज की सभा में मानतुंगसरिने भक्तार बतलाया लिखा है। उज्जैन में हर्षदेव का राज होन पाया जाता है यदि ज्ञानेश्वर एवं कन्नौज के वैश्य कुल का हर्षदेव राजा ही यह हर्षदेव हो तो इसका राज बनारस में भी था पर उसका समय देखते वे मानतुंगसूरि इन मानतुगसूरि से पृथक होना चाहिये इसके लिये हम आगे चल कर मानतुगसूरि के समय निर्णय के स्थान लिखेंगे-- [ दिगम्बर महाकीर्तिका कमंडल Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ जीव उनकी बहिन को दिख पड़े इसमें एक तो अप्रकाश कारी भाजन दूसरे प्रति लेखन का प्रमाद तीसग उसमें हमेशा पानी का रहना इन सब कारणों से जीवों की उत्पति हो जाना एक सभाविक बात थी, बहिन ने कहा मुनि ? सर्व ब्रतों में जीव दया व्रत प्रधान है जिसके लिये तुम्हारा इतना प्रमाद है कि असख्यं त्रस जीवों की विराधना होती है भला ? संयम की मर्यादा के लिये स्वल्य वस्त्र पात्र में तो तुम परिग्रह कहते हो तब यह ताम्र का कमंडल तथा मौर पिछी रखते हो क्या यह परिग्रह नहीं है इत्यादि बहुत कुछ कहा ? इसका पश्चाताप करता हुआ मुनि महाकीर्ति बोला कि बहिन क्या किया जाय यहां कोई श्वेताम्बर आचार्य आता ही नहीं है ? बहिन ने कहा ठीक है अभी थोड़ा समय में शूरसेन, प्रान्त की और से श्वेताम्बराचार्य श्राने वाले हैं आने पर में आपको सूचना देदुगी ? महाकीर्ति ने कहा बहुत अच्छी बात है मैं श्वेताम्बराचार्य से अवश्य मिलुगा । बाद बहिन ने मुनि को भिक्षा दी और मुनि भिक्षा कर अपने स्थान पर चले गये । थोड़ा ही समय के बाद भगवान पार्श्वनाथ की कल्याणक भूमि की यात्रार्थ$एक जिनसिंहसूरि नामका श्राचार्य अपने शिष्यों के परिवार से वनारसी नगरी की ओर पधारे और उद्यान में ठहर गये नगरी में खबर होने से सब लोग सूरिजी को बन्दन करने या उपदेश श्रवण करने को गये इस बात की सूचना बहिन ने भाई मानतुंग को दी अतः मानतुंग भी आचार्यश्री के पास गया और प्राचार्य द्वारा जैन धर्म का स्वरूप सुन कर उसने श्वेताम्बर दीक्षा स्वीकार करली आचार्यश्री ने मानतुंग को योग्य समझ कर जैनागमों का अध्ययन करवाया और कई विद्याओं की आम्नाय भी प्रदान की जब मानतुंग सर्व गुण सम्पन्न हो गया तब आचार्य श्री ने उसको श्राचार्य पद से विभूषित कर गच्छ का सर्व भार मानतुंगसूरि को सुप्रत कर दिया मानतुंग सूरि पर सरस्वती देवी की पूर्ण कृपा थी कि उसके प्रभाव से श्राप काव्यादि कवित बनाने में निपुण बनगये । प्रस्तुत बनारसी नगरी में वेद वेदॉग का जान कार धुरंधर विद्वान मयूर नामका एक ब्राह्मण था जिसका राज सभा में अच्छा मान था उसके एक पुत्री थी जिस का वर के लिये मयूर चिन्तातुर रहता था कारण वह चाहता था कि मेरी पुत्री जैसे स्वरूपवान एवं लिखी पढ़ी विदुषी है वैसा ही वर मिले तो अच्छा ? उसी नगरी में काव्य तर्क छन्दादि कला में प्रवीण वेद पुराण का पारंगत बाण"नाम का ब्राह्मण रहता था उसकी मयुर से भेट हुई और मयूर ने वाण को सर्व प्रकार से योग्य समझ कर अपनी पुत्री की शादी बाण के साथ करदी बाद बाण को राज सभा में ले गया जिसकी विद्वता देख राजा ने बाण का अच्छा सन्मान किया । और हमेशा राज सभा में आने का भी कहाँ अतः मयूर और बाण दोनों विद्वान राजा हर्षदेव की सभा का नामी पंडित कहलाये जाने लगे मयूर की पुत्री के साथ बाण आनन्द पूर्वक सुख से रहने लगा। एक दिन बाण ने अपनी पत्नी का 8 अन्यदा जिनसिंहाख्याः सूरयः पुरमाययुः । पुरा श्री पार्श्व तीर्थेश कल्याणक पवित्रितम् ॥ ३७ २ गुरुभिर्दीक्षितश्चासौ नदीष्णो ग्रेपि'च क्वचित् । तपस्या विधि पूर्व चागम मध्याप्यतादरात ॥ ३८ ३ ततः प्रतीति भृत्सम्यक्तयः श्रुत समर्जनात् । योग्यः सन् गुरुभिः सूरि पदे गच्छाहतः कृतः ॥ ३९ ४ कोविदाना शिरोरत्र मयूर इति विश्रुतः । प्रत्यर्थि सार्पदप्पाणां मयूर इव दर्ग्रहृत् ॥ ४३ ५-तर्क लक्षण साहित्यरसास्वादवश कधीः। अनू चानो महाविप्रो बाणाख्यः प्राग्गुणान्वित ॥ ४७ आचार्य जिनसिंह और महाकीर्ति ] ७०७ Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास स स्नेह अपमान किया कि वह रुष्टमान होकर अपने पिता के घर पर चली गइ। बाण उसको मनाने के लिये गया पर स्त्री हट के कारण वह बाण के कहने पर खुशी नहीं हुई तब उसकी सखियों ने भी बहुत समझाया पर उसका कोप शान्त नहीं हुआ तब सखियों के कहने से बाण अपनी पत्नि के महल पर जाकर बहुत कुछ सममाया यहां तक कि रात्रि का शेष भाग रह गया अर्थात दिन उगने कि तैयारी हो गई तब भी वह नहीं समझी अतः बाण ने कहा कि हे ! सुन्दरी “गत प्रायः रात्रिः कृशतनु शशी शीर्य द्व । प्रदीपोयं निद्रावस मुपगतो धूर्णत इब ॥ प्रणमान्तो मानस्तदपि न जहासि क्रुधमहो । कुच प्रत्यासत्या हृदयमपि ते सुभ्र कठिनम् ॥ १ ॥ हे कृशोदरी ? चन्द्र का प्रकाश मन्द पड़ गया है दीपक निस्तेज हो रहा है तथापि तुं अपना हट नहीं छोड़ती है इससे मालुम होता है कि कठीन स्तनों के पास में रहने से तेरा हृदय भी कठोर बन गया है । इस समय भींत के अन्तर में मयूर सुत्ता वह जगृत हो अपने जमाई के बचन सुना और उसने बाण को कहा है भद्र ? सुभ्र के स्थान चंडी शब्द का प्रयोग कर क्यों कि दृढ़ कोप करने वाली के लिये यह शब्द प्रयुक्त है । अपने पिता के शब्द सुनकर कन्या लज्जित होगई उसने सोचा कि मेरा सब वृन्तात पिता ने सुन लिया होगा उसे अपने अकृत्य पर बड़ा ही पश्चाताप हुआ और शान्त चित्तसे अपने पति का कहना स्वीकार कर संतुष्ट हो गई परन्तु भ्रांति के कारण अपने पिता पर उसको क्रोध हो आया और उसने श्राप दिया कि मेरे शील का प्रभाव हो तो मेरा पिता कुष्टि हो जाय । बस शील के प्रभाव से मयूर कुष्ठी हो गया। वाद वह मयूर पुत्री अपने पति बाण के साथ सुसराल चली गई। मयूर कुष्ठी होने के कारण लज्जा के मारा राजसभा में जा नहीं सका जब कई दिन हो गया तो राजाने सभा को मयूर न आने का कारण पूछा तो बाण ने मयूर की निन्दा करता हुआ सकेत में कहा कि उसके शरीर में कोढ़ का रोग हुआ है इस को सुन राजा को बढ़ा ही दुखः हुआ अतः अपने मनुष्यों को भेज कर मयूर को राज सभा में बुलाया । मयूर की इच्छा नहीं थी पर राजा के बुलाने पर वह शरीर को कपड़ा से अच्छांदित कर राज सभा में आया। तब भी बाण ने मस्करी की कि शीत निवारण के लिये मयूर ने वस्त्र से शरीर अच्छांदित किया है कहा भी है कि 'जाट जमाई भाजा' अपने नहीं होते है । इत्यादि । जब मयूर राज सभा से लौट कर वापिस अपने घर पर आरहा था तो इच्छा हुई कि इस प्रकार कोढ़ सहित जीवन की बजाय तो मरना ही अच्छा है अतः उसने कोढ़ निवरिणार्थ सूर्य देव की आराधना करनी शुरु की सौ श्लोक से सूर्य की स्तुति की जिससे मयूर का कोढ़ चला गया और शरीर कंचन जैसा हो गया सुबह राज सभा में गया तो राजा ने पुच्छा की मयूर तेरा शरीर निरोग कैसे हुआ मयूर ने कहा कि मैने सूर्य देव की आराधना की है अतः राजा ने मयूर की प्रशंसा की जिसको बाण या बाण के पक्षकार पण्डित सहन १ -- बाणोन्यदा संमपन्या स्नहतः कलहायितः । सिता हि मरिचक्षोदाइते भवति दुर्जरा ॥ ५२ पितुर्गृह मग्ग द्रुष्टा बाण पत्नी मदो द्धरा । सांय तद्गृह मागत्य भर्ता प्राहानुनीतये ॥ ५३ 28 शशाप कोपाटोपेन पितरप्रकटाक्षरम् । कुष्ठीभव क्रियाभ्रष्टावज्ञातो रस नात्रक ॥ ६७ *तस्याः शील प्रभावेण सद्यःश्वेतांग चंद्रकैः । कलाप्यने मयूरोग्रे तदा जज्ञस चन्द्रकी ॥ ६८ ५-बाणेनोचेस्फुटंदृष्दा मयूरं प्राकृताइथ | शीतरक्षांगसव्यान वर कोटिति संसदि ॥ ७६ ६-छिंदतः शेषपांद च मात डोक्त तेजसा । आगत्यास्य ददौ देहं मा बिध्या पितोऽनलः॥ ८४ [पण्डित मयूर और बाण का संबाद Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२ - ६९८ नहीं कर सके । इस पर राजा ने कहा कि यदि वारण में शक्ति हो तो ऐसा कोई चमत्कार कर के दीखावे । बाण ने बाण । कहा कि आप मेरे हाथ पग छेद के चड़ीं के मन्दिर में रख दें मयूर ने अपनी पुत्री दुखीः न हो जाय इस लिये राजा को मनाई की पर राजा ने एक की भी नहीं सुनी अतः राजा ने बारण के हाथ पग काट कर चंडी के मन्दिर के पिच्छे पहुँचा दिया बाण ने एक चंडी शतक की रचना कर चंडी की स्तुति की जिससे चंडी ने बाण के हाथ पैर दे दिये । बाण राज सभा में आगया ' जिसके नये आये हुए हाथ पैर देख राजादि सभा ने की भी प्रशंसा की । अबतो मयूर बाण ( शश्वर जमात) का बाद विवाद खुब बढ़ गया जिसका निर्णय करना राजा पर आ पड़ा । राजा ने कहा कि तुम दोनो' काश्मीर चले जाओ बहां की सरस्वती देवी तुम्हारा इन्साफ कर देगी राजा अपने योग्य पुरुषों को साथ देकर दोनों पण्डितों को कश्मीर भेज दिये । क्रमशः चल कर सरस्वती के मन्दिर में आकर कठोर तपस्या से देवी की आराधना की तब देवी प्रत्यक्ष रूप से आकर दोनों पडितों को दूर दूर बैठा कर एक समस्या पुछी कि । " शतचन्द्रं इस समस्या की पूर्ति लिये पण्डितों ने कहा नभस्तलम् "" " दामोदर कराघात विली कृस चेतसा, दृष्टं चाणूर मल्लेन शतचन्द्रं नभस्तलम् । परन्तु बाण ने शीघ्र ' ' कहा तब मयूर ने कुछ विलम्ब से कहा अतः बाण की जय और मयूर का काव्यानां शततः सूर्य स्तुतिं संविदधेततः । देवानूसाक्षात्करोतिस्म, येषामेकैमपि स्मृतम् ॥ ८५ ६ - प्रातः प्रकट देहोऽसावावयौ राज पर्षदि । श्रीहर्षराजः पप्रच्छासीत्तेकि रूनवा वद ॥८७ " आसीद्द ेव परं ध्यातः सहस्र किरगो मया । तुष्टो देहं ददावद्य भक्तः किं नाम दुष्करम् ॥ ८८ ७ - इति राज्ञो वचः श्रुत्वा बाणः प्राहा तिसाहसात् । हस्तौ पादौ च संच्छिद्य चंडिका वास पृष्ठत ॥ ९६ ८ - उक्त्वा चेवं कृते राज्ञा चंडि स्तोतु प्रचक्रमे । बाणकाव्यैरतिश्रव्यै रुदामाक्षरडंबरे ॥ १०४ ततश्च प्रथमे वृत्त निर्वृते सप्तमेऽक्षरै । समाधौ तन्मुखी भूत्वा देवी प्राह वरं वृणु ॥ १०५ विदेहि पाणि पांद में इत्युक्ति सभने तरम् । संपूर्ण वयवे शोभा प्रत्यग्र इव निज्जरः ॥ १०६ ९ - बादेवी मूल मूर्तिस्था यत्रास्ते तत्र गम्यताम् । उभाभ्यामपि काश्मीर निर्वृत्ति प्रवरे पुरे ॥ १०९ १२ तत्र गत्वा पुरो मन्त्री गुरु नानम्य चावदत्त ! आह्वाययतिवात्सल्या भूपपादोऽवधार्यताम् !! १२७ ११ तौ भूपालः स्तुवन्नित्य ममतयं चान्यदा जगौ । प्रत्यक्षोतिशयो भूमिदेवानामेव दृश्यते ॥ १२२ कुत्रापि दर्शनेन्यस्मिन् कथमस्ति प्रजल्पतः । प्राह मंत्री यदि स्वामी सृणोति प्रोच्यते ततः ॥ १२३ जैन श्वेतांबराचार्यो मानतुंगा मिधः सुधीः । महा प्रभाव संपन्नो विद्यते ताव के पुरे ॥ १२४ चेत्कुतल मंत्रास्ति तदाहयत तं गुरुम। चित्रों वो यादृशं कार्य तादृंश पूर्यते तथा ॥ ११५ कियान् ॥ १२६ भवार्थि नाम् !! १२८ इत्याकर्ण्य नृपः प्राह तं सत्पात्र समानय । सन्मान पूर्व मेतेषां निस्पृहाणां नृप गुरु राह महामात्य राज्ञानः किं प्रयोजनम् ! निरीहाणामियं भूमिर्नहि प्रेत्य मंत्रिणोचे प्रभो श्रेष्टा भावनात्ः प्रभावना ! प्रभाव्यं शासनं पूज्यैस्तद्राज्ञो रंगतो भवेत् !! १२९ इति निर्बंधतस्तस्य श्रीमानतुरंग सूरयः ! राज सौधंसमाजग्मुरभ्युत्तस्थचभूपतिः !! १३० धर्मलाभाशिषं दत्वा निविष्टाउचितासने ! नृपःप्रहद्विजन्मानः कीदृक् सातिशयाः क्षितौ !! १३१ एकेन सूर्यमाराध्य स्वांगाद्रोगोवियोजितः ! अपरचंडिका सेवावशालेभेकरक्रमौ !! १३२ भवतामपि शक्तिचेत्काप्यस्तियतिनायकाः ! तदाकंचिच्च मत्कारं पूज्यादर्शयताधुना !! १३३ इत्याकर्ण्यथिते प्राहुर्नगृहस्था वयंनृप ! धनधान्य गृह क्षेत्र कलत्रा पत्य हेतवे !! १३४ कश्मीर की सरस्वतीदेवी ] ७०९ Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पराजय का फैसला मिला! फिर वहाँ से वापिस बनारस आये पूर्व की हुई शर्त के अनुसार मयूर ने अपने बनाये सब ग्रन्थ राज सभा में लाकर अपने हाथों से जला दिये पर भस्म जब तक उड़ी तब तक उसमें सूर्य की किरणों से अक्षर दिखाई देते थे ! इससे राजा ने मयूर को सन्मानित किया और दोनों पण्डितों को सन्मान पूर्वक राज सभा में रखा। ____एक समय राजा अपनी राजसभा को कहने लगा कि इस समय जैसा प्रभाव ब्राह्मणों में है वैसा किसी अन्य धर्मियों में देखने में नहीं आता है ? ११इस पर एक मन्त्री ने कहा कि 'बहुरत्नावसुन्धरा' जैसे ब्राह्मणों में चमत्कार है वैसे अन्य धर्मियों में भी बहुत से प्रभाविक पुरुष विद्यमान है दूर क्यों पर अापके हो नगर में एक मानतुंग नाम का जैनाचार्य महान विद्वान और अनेक अतिशय चमत्कारों से सुशोभित है। राजा ने कहा यदि ऐसा है तो जैनाचार्य को सभा में लावो ? मंत्री ने कहा हजूर वे निम्रन्थ निस्पृही यति है केवल हाजरी भरने को एवं आर्शीवाद देने को ब्राह्मणों की मुआफिक नहीं आते है हां यदि आप आमन्त्रण भेज कर बुलावे तो धर्मोपदेश देने को वे आ सकते है । राजा ने मंत्री का कहना स्वीकार कर मंत्री के साथ आपने योग पुरुषों को मानतुंगसूरि के पास भेजा! मंत्री ने सूरिजी को वन्दन कर राज सभा में पधारने की प्रार्थना की। इस पर सूरिजी ने कहा मंत्री ! हम निस्पृहीयों को राजा से क्या लेना है जो कि हम राजसभा में चलें ? मंत्री ने कहा ''गुरु महाराज आप निग्रन्थ है आपको राजा से कुछ भी राजरजनविद्यार्लोिकाक्षेपादिका क्रिया ! यद्विदध्मः परं कार्यः शासनोस्कर्ष एव नः !! १३५ इत्युक्त प्राह भूपालो निगडैरेपयंत्र्येताम् ! भापादमस्तकं ध्वाँ ते निवेश्षप्रवदन्निति !! १३६ ततोऽपवरके राजपुरुषेःपरुष स्खदा ! निगडैश्चचतुश्चत्वारिंशत्संख्यैरयोमयैः !! १३७ नियंत्रितः समुत्पाद्य लोह यंत्र समो गुरूः ! न्यवेश्यताथ तद्वारारी च पिहितौ ततः !! १३८ अति जीर्ण सनाराचं तालकं प्रददुस्ततः ! सूचि मेद्य तमस्कोंडः स पाताल निभो बभौ : !! १३९ वृत्त भक्तामर इति प्रख्यं प्रहैक मानसः ! ब्रट् कृत्य निगडं तत्र त्रुटित्वा पपे तितत्क्षणात् !! १४० प्राक संख्यया च वृत्तेपुभणते द्रुतं ततः ! श्रीमानतुपुगंसूरिश्च मुल्कलो मुन्कलो भवत् !! १४१ स्वयं मुद्ध टिते द्वार यंत्रे संयम संयत ! सदानुच्छंखलः श्रीमानू नुच्छं खलवपूर्व भौ !! १४२ अंतः संसदमागत्य धर्मलाभं नृप ददौ ! प्रातः पर्वांचलान्निर्यन्भास्वानिवमहाद्यति !! १४३ नृप प्राह शमस्ताहक भक्तिचाप्यति मानुषी! देव देवी कृताधारं बिना कस्यं दृशं महः !! १४४ देशः पुरमहंः धन्यः कृत पुण्यश्च वासरः ! यत्र ते वदनं प्रैक्षि प्रभो प्रातिभ संन्निभम !! १४५ आदेश सुकृता वेशं प्रयच्छ स्वच्छता निधे ! आजन्म रक्षा दक्षः स्याद्यथा मे स्वदनुग्रह !! १४६ श्रतवेति भपते वाचं प्राहस्ते यद किंचनांः ! लक्ष्मी ना मपयोगं च कुत्राप्पथै बिदध्महे !! १४७ परंश्रीमन्गुणांभोधे प्रशाधि वसुधा मिमाम् ! जैनधर्म हताक्षेमं परिक्ष्यं परिपालय !! १४८ अथोचोचन्महीपाल: पंथोजैनातेपथिः ! अदर्शनादिकालं पूज्यानां वंचिता वयम् !! १४९ अहोममावलेपो ऽ भूद्ब्राह्मणा एव सत्कलाः ! देवान्संतोष्वयैः स्वीयोदर्शितः प्रत्ययो ममः !! १५० विवदानावहंकारान्तावुपरत क्वचित् ! दर्पायैव न बोधाय या विद्या सा मति भ्रमः !! १५१ येषां प्रभावः सर्वाति शायी प्रशम् ईदृश ! संतोषश्च तदा ख्यातो धर्मः शुद्धः परिक्षया !! १५२ दीन पात्रोचिती भेदा त्रिधा दान रुचिभर्च ! जीर्णान्युद्धर चैत्यानि बिबिंनि च विधापय !! १७५ द्वेधा गुणा करं शिष्यं पदे स्वीये निवेश्य च!इंगिनी मथ संप्राप्या न शनी दिवमभ्यगात् !! १६७ [जैनाचार्य का चमत्कार की परीक्षा Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ नहीं लेना है पर राजा को धर्मोपदेश देना तो आपका कर्तव्य है अतः आप धर्मोपदेश देने को भी पधारिये दूसरे राजा का दिल में यह भी भ्रम है कि विश्व में सिवाय ब्राह्मणों के और कोई प्रभाविक पुरुष है ही नहीं राजा ने अपने इन पुरुषों को आमन्त्रण के लिये मेरे साथ भेजे हैं इत्यादि । सूरिजी ने मंत्री की प्रार्थना स्वीकार कर उनके साथ राज सभा में आये । राजा ने सिंहासन छोड़ सूरिजी का सत्कार किया और प्रार्थना की कि जैसे ब्राह्मण लोग देवताओं की भागधना कर अपना रोग मिटाते है काटे हुए हाथ पैर पुनः बना देते है वैसे आप भी किसी प्रकार का चमत्कार दीखा सकते हो ? यदि आपके अन्दर कुछ प्रभाव हो तो कृपा कर इस सभा के सामने बतलाइये ? आचार्यश्री ने उत्तर देते हुए कहा कि हे राजन् ! हम न तो गृहस्थ हैं और न गृहस्थों के करने योग्य कार्य ही करते है न हमें धन माल भूमि वगैरह की गरज है फिर अनेक प्रारंभ सारंभ करने वाले राजा को धन धान्य पुत्र कलित्र प्राप्ती रूप आशीर्वाद देकर खुश करने में क्या लाभ है इत्यादि सूरिजी ने निरस एवं निस्पृहिता से सत्य २ कह सुनाया कारण सूरिजी को राजा की खुशामदी से कोई भी प्रयोजन नहीं था पर कहा जाता है कि 'सच्च कहने से मां भी माथे में देती है' राजा एक दम नाराज होकर अपने अनुचरों को हुक्म देदिया कि इस जैन सेवड़ो को लोहा की ४४ साकलों से मकड़ के बान्ध लो और अन्धेरी कोठरी में डाल दो और उसके द्वार पर एक जर्बदस्त ताला लगादो तथा पक्के पहरे भी लगा दो ! अनुचरों ने ऐसा ही करके आचार्य को अन्धेरी कोठड़ी में डाल कर पेहरा लगा दिया । विचारा मंत्री का मुंह फीका पड़ गया और ब्राह्मणों का नुर तो नौ गज चढ़ गया। ___आचार्यश्री ने बिलकुल फिक्र नहीं किया पर इतना जरूर सोचा कि इस कारण से जैन धर्म की निंदा कर अज्ञानी जीव कर्म बान्ध कर बैठेंगे । उन्होंने भगवान आदीश्वरजी का स्तोत्र भक्तामर बनना शुरु किया जिसका एक २ श्लोक बनाते गये और एक २ शांकल टूटती गई इस प्रकार ४४ काव्य बनाने से ४४ शांकलें टूट पड़ी और चार श्लोकों से कोटरी के ताले टूट पड़े और स्वयं कपाट खुल गये ? बस ! सूरिजी सीधे ही राज सभा में आकर राजा को धर्मलाभ दिया जिसको देख राजा आश्चर्य में डूब गया कि मेरी नजरों के सामने जिस को ४४ लोहा की शांकलों से जकड़ कर अन्धेरी कोठरी में डाल दिया जिसके ताले की चाबी मेरे पास पड़ी है फिर बन्धन मुक्त होकर महात्माजी कैसे आगये । सत्य है कि यह कोई अलौकीक महात्मा है जिनके लिये ब्राह्मणों की भाँति किसी देव को आराधना की भी आवश्यकता नहीं पड़ी और ब्राह्मण चमत्कारी होने पर भी बड़े ही अभिमानी हैं और पापस में बड़े बनने की बड़ी भावना रही हुई है पर यहां तो न देखा लोभ न देखा बड़ा ही का अभिमान और न देखा खुशामदी का काम ? अतः राजा ने सूरिजी की अच्छे २ शब्दो में खूब प्रशंसा की पर सूरिजी के लिये तो तिस्कार और सत्कार एकसा ही दीखाई दे रहा था। राजा ने नम्रता के साथ सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो ? मैं आपके अलौकिक अतिशय प्रभाव से प्रसन्न हुआ हूँ । कृपा कर आप कुछ हुक्म फरमाबे कि मैं आपके चरणों में भेट कर कृतार्थ बनु ? सूरिजी ने कहा राजन् ! हम योगियों को क्या चाहिये हम न भूमि मकान रखते हैं और किसी काम में लक्ष्मी का उपयोग करते हैं यदि आप की ऐसी ही इच्छा हो तो श्राप जैन धर्म के स्वरूप को सुन एवं समझ कर आत्म कल्याणार्थ जैनधर्म को स्वीकार करे कि जिससे आपका इस भव और परभव में जल्दी कल्याण हो । राजा ने सूरिजी के मुखाबिन्द से स्याद्वाद सिद्धान्त और अहिंसा परमोधर्म को सुनकर जैनधर्म को स्वीकार कर मानतुंगसरि और भक्ताम्बर स्तोत्र ] ७११ Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लिया तत्पश्चात् सूरिजी के उपदेश से कइ जैनमन्दिर बनबाये और कई जीर्ण मन्दिरों का उद्धार करवाया और भी धर्म कार्य कर जैनधर्म की खुब उन्नति एवं प्रभावना को इस प्रकार आचार्य मानतुंगसूरि अनेक भूले भटके प्राणियों पर दया भाव लाकर उनका उद्धार कर जैनधर्म का प्रचार को बढ़ाया । आचार्य मानतुंगसूरि के शरीर में एक समय असाध्य रोगोत्पन्न हो गया था आपने धरणेन्द्र को बुला कर अनसन की सम्मति मांगी इस पर इन्द्र ने कहा पूज्यवर । अपका आयुष्यः अभी शेष रहा है अतः आप अनसन का बिचार छोड़ दें पूज्यवर ! आप जानते हो कि कर्म फल तो तीर्थङ्करादि सिलाका पुरुषों को भी भोगवना पड़ा था तथापि मैं आपको एक अठारह अक्षरों का मंत्र देता हूँ इस से शान्ति हो जायेगी इन्द्र मन्त्र देकर पताल लोक में चला गया ! मानतुंगसूरि सुबह और शाम को उस मन्त्र का जप किया करते थे अतः शान्ति एवं समाधि रहती थी सूरिजी ने भव्य जीवों के कल्याणार्थ उन अठारह अक्षरों गर्मित भयहर स्तोत्र बना दिया कि जिससे नौ प्रकार का रोग की शान्ति हो जावे और प्रबन्धकार लिखते है कि वह भयहर स्तोत्र आज भी अनेक प्राणियों के रोग की शान्ति करने को विद्यमान है। इस प्रकार आचार्य मानतुंगसूरि भूम्रमन कर जैन धर्म का खुब उद्योत किया और अन्त में श्राप अपने योग्य शिष्य मुनि गुणाकार को सूरिपद से विभूषित कर अनसन एवं समाधि पूर्व काल कर स्वर्ग पधार गये इति मानतुंगसूरि का सक्षिप्त जीवन !! पट्टावली कार तथा प्रबन्ध कार ने यह नहीं बतलाया कि मानदेवसूरि और मानतुंगसूरि के आपस में क्या सम्बन्ध था कारण मानतुंगसूरि के गुरु जिनसिंहसूरि बतलाया है और मानदेवसूरि ने अपने पट्ट पर एक योग्य मुनि को श्राचार्य बनाने का प्रबन्ध में उल्लेख किया है पर मानतुंग का नाम नहीं लिखा है यह एक विचारणीय विषय है ! दूसरा मानतुंगसूरि ने अपनी अन्तिम अवस्था में गुणाकारसूरि को आचार्य पद दिया लिखा है तब पट्टावलीयों में मानतुंगसूरि के पट्ट धर वीरसूरि लिखा है तो मानतुंगसूरि और वीरसूरि के क्या सम्बन्ध था और गुणाकारसूरि को मानतुंगसूरि ने आचार्य पद दिया था तो वे उनके पट्टधर क्या नहीं हुऐ यह भी एक विचारणीय प्रसंग है ! आगे चल कर हम सब के समय का निर्णय करेगें उस समय इन बातों पर भी विचार करेंगे और इस लिये ही हमने पूर्वोक्त आचार्यों का समय नहीं लिखा है ! कारण इनके समय में बहुत सी गड़ बड़ सी दिखाई देती है खैर अभी हम पट्टावलियों के आधार पर इन श्राचार्यों का संक्षिप्त से जीवन लिखा दिया है। विशेष फिर आगे लिखा जायगा। श्राचार्य मल्लबादीसरि भरोंच नगर में एक जिनानन्दमूरि' नाम के आचार्य विराजते थे और बुद्धानन्द नामक बौद्धाचार्य भी वहीं रहता था। एक समय दोनों आचार्यों का राज सभा में वाद हुआ जिसमें बौद्धाचार्या बुद्धानन्द ने वितंडावाद करके जिनानन्दाचार्य को जीत लिया । अन्त जिनानन्दाचार्य भरोंच से विहार कर वल्लभी नगरी में पधार गये। वल्लभी नगरी के राजा शिलादित्य की बहिन दुर्लभादेवी थी और उसके तीन पुत्र थे जिनयश, यक्ष और मल्ल। प्राचार्य जिनानन्द ने दुर्लभादेवी और उनके तीनों पुत्रों को संसार की असारता का उपदेश देकर दीक्षा देदी और तीनों को आगमों का अध्ययन करवाया। बुद्धिशालियों के लिये ऐसा कौनसा अभ्यास दुष्कर [ मानतुंगमरि-भयहर स्तोत्र Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ होता है कि जिसे वे नहीं कर सकते ? अर्थात् वे तीनों साधु धुरंधर विद्वान होगये जिसमें भी सबसे छोटे मल्ल मुनि की बुद्धि सब में श्रेष्ठ थी अस्तु पांचवाँ ज्ञानप्रवादपूर्व से पूर्व महर्षियों ने अज्ञान को नाश करने वाला नयचक्र नामक ग्रन्थ का उद्धार किया। जिसके बारह आरारूप बारह विभाग हैं और आद्योपान्त में जिन चैत्य की पूजा का विधान भी आता है । प्रस्तुत ग्रन्थ पुस्तकारूढ़ कर एकान्त में गुप्त रक्खा गया था। बिना गुरू की श्राज्ञा कोई भी उसको पढ़ नहीं सकता था । एक समय गुरुमहाराज ने विचार किया कि यह गल्न मुनि अपनी चपलता के कारण कभी निषेध की हुई पुस्तक पढ़ लेगा तो इसको बड़ा भारी संताप होगा । अतः साध्वी दुर्लभादेवी के समक्ष गुरु महाराज ने मल्ल मुनि से कहा कि मुने ? तुम इस पूर्वाचार्य निषेध की पुस्तक को नहीं खोलना एवं नहीं पढ़ना इत्यादि हितशिक्षा देकर आचार्य जिनानन्द ने यात्रार्थ वहाँ से विहार करदिया । पीछे से बालभाव के कारण श्राचार्य की निषेध की हुई पुस्तक माता (दुर्लभासाध्वी ) की अनुपस्थिति में मल्लमुनि ने खोल कर पहिले पन्ने का पहिला श्लोक पढ़ा ““नेधि नियमभंगवृत्ति व्यतिरिक्तत्वादनर्थ कम वोचत् । जैनादन्यच्छासन- मनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ॥' मुनि मल्ल इस श्लोक का अर्थ विचारता ही था कि उसके हाथ से श्रुत देवता ने पुस्तक खींच कर लेली | इस हालत में मुनि मल्ल चिंतातुर होकर रोने लग गया । यह खबर साधी दुर्लभा अर्थात् मुनि मल्ल १ चारुचारित्रपाथोधिशम कल्लोलकेलितः । सदानन्दो जिनानन्दः सूरिस्तत्राच्युतः श्रिया ॥ ६ ॥ अन्यदा धनदानाप्तिमत्तश्चिचे छलं वहन् । चतुरङ्गसभावज्ञामज्ञातमदविभ्रमः ॥ ७ ॥ चैत्ययात्रासमायातं जिनानन्दमुनीश्वरम् । जिग्ये वितंडया बुद्धया नन्दाख्यः सौगतो मुनिः ॥ ८ ॥ पराभवात्पुरं त्यक्त्वा जगाम वलभीं प्रभुः । प्राकृतोऽपि जितोऽन्येन कस्तिष्ठत्तरपुरांतरा ॥ ९॥ तत्र दुर्लभदेवीति गुरोरस्ति सहोदरी । तस्याः पुत्रास्त्रयः सन्ति ज्येष्ठटो जिनयशोऽभिधः ॥ १० ॥ द्वितीयो यक्षनामाभून्महलनामा तृतीयकः । संसारासारता चैषां मातुलैः प्रतिपादिता ॥ ११ ॥ पूर्वर्षिभिस्तथा ज्ञानप्रवादाभिधपंचमात् । नयचक्रमहाग्रन्थपुर्वाच्चक्रे तमोहरः ॥ १४ ॥ विश्रामरुपास्तिष्ठन्ति तत्रापि द्वादशारकाः । तेषामारंभपर्यन्ते क्रियते चैत्यपूजनम् ॥ १५ ॥ किंचित्पूर्वगतत्वाच्च नयचक्रं विनापरम् । पाठिता गुरुभिः सर्वं कल्याणीमतयोंऽभवत् (न्) ॥ १६ ॥ एष मल्लो महाप्राज्ञस्तेजसा हीरकोपमः । उन्मोच्य पुस्तकं बाल्यात्सस्वयं वाचपिष्यति ॥ १७ ॥ तत्तस्योपद्रवेऽस्माकमनुतापोऽतिदुस्तरः । प्रत्यक्ष तज्जनन्यास्तज्जगदे गुरुणा च सः ॥ १८ ॥ वसेदं पुस्तकं पूर्वं निषिद्ध मा विमोचयः । निषिद्धति विजहस्ते तीर्थयात्राचिकीर्षवः ॥ मातुरप्यसमक्ष स पुस्तकं वारितद्विषन् । उन्मार्ग्य प्रथमे पत्रे आयमेनानवाचयत् ॥ २० ॥ निधिनियमभगं वृत्तिव्यतिरिक्त त्वादनर्थक्रमवोचत् । जैनादन्यद्वासनमनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ॥ २१ ॥ अथं चिन्तयतोऽस्याश्च पुस्तकं श्रुतदेवता । पत्र चाच्छेदयामास दुरंता गुरुगीः क्षतिः ॥ २२ ॥ इतिकर्तव्यतामूढो मल्लश्चिल्लत्वमासजत् । अरोदीत् शैशवस्थित्या किं बल देवतैः सह ॥ २३ ॥ पृष्टः किमिति मात्राह व तात्पुस्तकं ययौ । संघो विषादमापेदे ज्ञात्वा तत्तेन निर्मितम् ॥ २४ ॥ आत्मनः स्खलितं साधु समाचरयते स्वयम् । विचार्येति सुधीर्मल आराप्नोत् श्रुतदेवताम् ॥ २५ ॥ गिरिषण्डलनामा स्ति पर्वतस्तदुग्हान्तरे । रुष्यनिष्यावभोक्ता स षष्टः पारणकेऽभवत् ॥ २६ ॥ प्र० च० १९ ॥ आचार्य मल्लबादी और नयचक्र ] ७१३ Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की माता को मिली । उसने रोने का कारण पूछा तो मल्ल ने अपने हाथ से किसी ने पुस्तक खींचलेने का सब हाल कहा । इस पर साध्वी एवं सकल श्री संघ को आश्चर्य के साथ दु ख हुआ। मुनि मल्ल ने कई उपाय सोचे परन्तु आखिर उसने श्रुतदेवता की आराधना करना ठीक समझ कर 'गिरिखण्ड' नामक पर्वत की गुफा में जाकर छट छट पारणा और पारणा के दिन रूक्ष आहार लेना शुरु किया जिसको चार मास होगया। इस पर साध्वी दुर्लभा एवं श्रीसंघ ने मुनि को विगइ लेने का आग्रह किया। पर मुनि ने इनकार कर दिया खैर छ मास के अंत में श्रुत देवता ने संतुष्ट होकर परीक्षा के लिये मुनि को कई प्रकार के प्रश्न पुच्छे जिसके उत्तर मुनिमल्लने शीघ्र और भाव पूर्ण दिये मुनि मल्ल की स्मरण शक्ति से प्रसन्न होकर देवता ने वरदान दिया । मुनि ने पुस्तक मांगी। देवता ने कहा पुस्तक तो नहीं मिलेगी ? कारण उसके पढ़ने से कई उपसर्ग होंगे परन्तु मैं आपको वरदान देता हूँ कि जो एक श्लोक आपने पढ़ा है उससे ही श्राप सम्पूर्ण प्रन्थ की रचना कर सकोगे, कहीं पर भी स्खलना नहीं श्रावेगी इत्यादि मुनि मल्ल 'तथास्तु' कह कर अपने स्थान आये और अपनी माता एवं श्रीसंघ को सब हाल कहा जिससे सब लोग संतष्ट एवं प्रसन्न हये । तत्पश्चात् मुनि मल्ल ने दश हजार श्लोक प्रमाण वाला नयचक प्रन्थ रचा जिसको देख राजा प्रजा खुश हुये और उस पुस्तक रत्न को गजारूढ़ करवा कर महामहोत्सव पूर्वक उपाश्रय में पधराया । आचार्य जिनानन्दसूरि दीर्घकाल से वल्लभी नगरी में पधारे श्रीसंघ की प्रार्थना से सूरिजी ने मुनि मल्ल को योग्य समझ कर आचार्य पद से विभूषित किया। श्री जिनयश नामक मुनि ने एक प्रमाण विषय का प्रन्थ बनाया और गुरु के कहने से अल्लराजा की राजसभा में जाकर उस प्रन्थ को पढ़कर सुनाया तथा यक्षमुनि ने अष्टांग निमित्त नामक प्रन्थ की रचना की। प्राचार्य मल्ल ने किसी स्थविरों से बौद्धों द्वारा अपने गुरु जिनानन्द का पराजय सुना यह बात श्रुतदेवतया संघसमाराधितया ततः । ऊचे तदा परीक्षार्थ को मिष्टा इति भारतीम् ॥ २९ ॥ वल्ला इत्युत्तरं प्रादान्मल्ल फुल्लतपोनिधिः। षण्मासान्ते पुनः प्राह वाचं केनेति तत्पुरः ॥ ३० ॥ उक्त गुडघृतेनेति धारणातस्तुतोष सा । वरं वृण्विति च प्राह तेनोक्तं यच्छ पुस्तकम् ॥ ३१ ॥ श्रु ताधिष्टायिनि प्रोचेऽवहितो मद्वचः शृणु । ग्रन्थेऽत्र प्रकटे कुर्यषिदेवा उपद्रवम् ॥ ३२ ।। लोकेनैकेन शास्त्रस्य सर्वमथं ग्रहीष्यसि । इत्युक्त्वा सा तिरोधत्त गच्छं मल्लश्च सर्गतः ॥ ३३ ॥ नयचक्र नवं तेन श्लोकायुतमितं कृतम् । प्राग्ग्रन्थार्थ प्रकाशेन सर्वोपादेयतां ययौ ॥ ३४ ॥ शास्त्रस्यास्य प्रवेशं हं संघश्चके महोत्सवात् । हस्तिस्कन्धाधिरुढस्य प्रौढस्य च महीशितुः॥ ३५ ॥ तथा जिनयशोनामा प्रमाणग्रन्थमादधे। अल्लभूपसुभेवादि श्रीनन्दकगुरोगिरा ॥ ३० ॥ यक्षेण संहिता चक्रे निमित्ताष्टाङ्गबोधनी। सान् प्रकाशयत्यर्थान् या दीपकलिका यथा ॥ ३९ ॥ मल्ल समुल्ल-सन्मुल्लीफुल्लवेल्लयशोनिधिः । शुश्राव स्थविराख्यानात् न्यक्कारं वौद्धतो गरोः॥ ४० ॥ अप्रमाणैः प्रयाणः स भृगुकच्छं समागमत् । संघः प्रभावनां चक्र प्रवेशादि महोत्सवैः ॥ घुद्धानन्दस्ततो बौद्धानन्दमद्भुतमाचरत्। श्वेताम्बरो मया बादे जिग्ये द वहनमुम् ॥ मल्लाचार्यः स षष्मासी यावत्प्राज्ञार्यमावदत् । नयचक्रमहामन्थाभिप्रायेणात्रुटद्वचः ॥ ५७ ॥ नावधारयितुं शक्तः सौगतोऽसौ गतो गृहम् । मल्लेनाप्रतिमल्लेन जितमित्यभवन् गिरः ॥ ५८ ॥ मल्लाचार्ये दधौ पुष्पवृष्टिं श्रीशासनामरी। महोत्सवेन भूपालः स्वाश्रये तं न्यवेशयत् ॥ ५९ ॥ विरुदं तत्र वादीति ददौ भूपो मुनिप्रभोः । मल्लवादी सतो जातः सूरिभूरिकलानिधिः ॥ ६१- प्र० च० [आचार्य मल्लवादी द्वारा पौधों को पराजय Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६८२ - ६९८ आपसे सहन नहीं हो सकी अतः आप विहार करते हुए भरोंच नगर की ओर पधारे। श्रीसंघ ने श्रापका अच्छा स्वागत सत्कार किया और महामहोत्सवपूर्वक नगर प्रवेश करवाया । 1 बौद्धाचार्य्या बुद्धानन्द भी उस समय भरोंच में ही था । जिनानन्द को जीत लेने से उसका गर्व अहंकार खूब बढ़ गया था और आचार्य मल्ल के लिए यद्वा तद्वा शब्द कहने लगा । तब श्राचार्य मल्ल ने कहा कि केवल शब्द मात्र से जय पराजय का निर्णय नहीं होता है पर परीक्षा किसी राजसभा में ही हो सकती है । श्रुतः राजसभा में दोनों श्राचायों का शास्त्रार्थ होना निश्चय हुआ और ठीक समय पर राजा एवं पंडितों की सभा में शास्त्रार्थ शुरू हुआ। कई दिन शास्त्रार्थ चला, आखिर बौद्धाचार्य पराजि होगया अर्थात् बुद्धानन्द का निरानन्द होगया और आचार्य मल्ल का नाम मल्लवादीसूरि अर्थात् 'यथा माम तथा गुण' वाली कहावत चरितार्थ हो गई । उस समय से श्राप मल्लवादीसूरि के नाम से विख्यात होगये । आचार्य मल्लवादीसूरि ने अपने गुरु जिनानन्दसूरि को भरोंच में बुलाया और श्रीसंघ बड़े ही समारोह के साथ स्वागत किया। गुरु महाराज मल्लवादीसूरि की विजय एवं कुशलता देख कर श्रानन्दमय बन गये । इस प्रकार मल्लवादीसूरि महा प्रभाविक श्राचार्य हुए। और उन्होंने सर्वत्र विहार कर वादियों पर जबर्दस्त धाक जमादी और बहुत जैनों को जैन बना कर धर्म की प्रभावना 1 उधर बुद्धानन्द जैनों के साथ द्वेष रखता हुआ भी अपने कष्ट क्रिया के बल से मर कर व्यान्तरदेव हुआ । उसने मल्लवादीसूरि के बनाये हुये नयचक्र तथा पदमचरित्र अर्थात् २४००० श्लोक प्रमाण वाला जैन रामायण नामक ग्रन्थ एवं इन दोनों प्रन्थों का अपहरण कर सदा के लिये नष्ट कर दिये । मरने पर भी दुष्टों की दुष्टरता नहीं जाती है। जिसका यह एक ज्वलंत उदाहरण है । आचार्य मल्लबादीसूरि का समय के विषय प्रबंधकार खुल्लासा नहीं किया है पर अन्योन्य साधनों से श्राप का समय विक्रम की faat शताब्दी का अनुमान किया जा सकता है और उसी समय लाट सौराष्ट्रादि प्रान्तों में बोधो का जोर जमा हुआ था जिसको आचार्य मल्लबादीसूरि ने कम कर दिया था | प्रबन्धकार आचार्य मल्लबादी और बोधों का शास्त्रार्थ भरोंच में हुआ बतलाते हैं तब अन्य स्थानों पर इस शास्त्रार्थ का स्थान बल्लभी नगरी बतलाया है और यह संभव भी हो सकता है कारण बल्लभी में बोधों के द्वारा आचार्य जिनानन्दसूरि का पराजय होने के ही कारण तीर्थ श्री शत्रुञ्जय बोद्धो के अधिकार में चला गया था और कई अर्सा तक जैनसंघ श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा से बंचित रहा था तदान्तर आचार्य मल्लबादी सूरि ने बोधों का पराजय कर पुनः तीर्थ शत्रुंजय स्वाधिन किया । श्राचार्य मल्लबादी जैनशासन में एक मल्ल ही थे आपका ज्ञान किरणों का प्रकाश चारों ओर पड़ रहा था बादियों पर तो इस कदर कि धाक जमगइ थी कि जैसे शेर के सामने गीदड़ भाग छूटते है जैसे ही मल्लबादीसूरि का नाम सुनते ही बादी कम्प उठते थे मल्लबादी सूरि ने सर्वत्र विहार कर फिर से जैनधर्म का सितार चमका दिया था । ऐसे ऐसे मद्दाप्रतिभाशाली आचायों से ही जिनशासन संसार में स्थिर रह सका है इति - * वलभ्या; श्रीजिनानन्दः प्रभुरानाथितस्तदा । संघमभ्यर्थ्यं पूज्यः स्वः सूरिणा मल्लवादिना ॥ ६६ ॥ नवचक्रमहाग्रंथः शिष्याणां पुरवस्तदा । व्याख्यातः परवादीभकुम्भदन केसरी ॥ ६९॥ रामायणमुदाहरत् । चतुर्विंशति रेतस्य सहस्र श्रीपद्मचरितं नाम ग्रन्यमानताः ॥७०॥ मल्लबादी द्वारा बौद्धों का पराजय क० च० ७१५ Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८२-२९८ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास (अनुसंधान इसी पुस्तक के पृष्ठ २५७ (ग) में देखो) उनका आदर कर आने का हाल पूँछा, सब व्यापारियों ने सब हाल कहा । सब बातें सुनकर गजा ने बड़ा ही अफसोस किया कि इससे तो मेरी अपकीर्ति होगा कि इतना बड़ा नगर में कोई विदेशी व्यपारियों का माल खरीदने वाला नहीं है इत्यादि सोचकर राजा ने सब व्यापारियों को बुलाया । उसमें धन्ना सेठ भी देवदत्त को साथ लेकर राज सभा में आये । राजा ने अफसोस के साथ व्यापारियों को कहा-क्या इन व्यापारियों का माल खरीदने वाला कोई व्यापारी हमारे नगर में नहीं है ? इसपर देवदत्त बोला कि क्यों नहीं ? हमारे सेठजी अकेले ही इन व्यापारियों का सब माल खरीद कर सकते हैं और बदले में तेजमतुरी * दे सकते हैं । परन्तु पास में बैठा हुआ धन्ना सेठ बड़ी ही चिंता करने लगा कि यह कैसा मूर्ख है ? इतना माल कैसे खरीद कर सकेगा ? कारण सेठ तेजमजरी के मूल्य एवं गुणों को समझता भी नहीं था। खैर ! व्यापारियों का माल लेकर बदले में देवदत्त ने तेजमतुरी देकर व्यापारियों को रवाना कर दिया । बाद में सेठ तेजमजरी के मूल्य एवं चमत्कार को सुन कर बहुत खुशी हुआ। और अपनी पुत्री नन्दा का विवाह मुसाफिर देवदरा के साथ कर दिया अब तो देवदत्त अर्थात् राजकुंवर श्रेणिक निन्दा के साथ सुख से भोग-विलास करता हुआ सेठ के यहां जमाइ होकर सुख से रहने लगा । समयान्तर नन्दा ने गर्भ धारण किया और उसका सुख से पालन करने लगी। इधर मगद में राजा प्रसेनजित बीमार होकर पुत्र श्रेणिक की प्रतीक्षा करने लगा ? बहुत आदमियों अथवा व्यापारियों को श्रेणिक का पता लगाने को भेजा मगर कहीं पर उसका पता नहीं लगा। दत्त नाम का विनजारा एक समय विदेश में जाकर वापिस मगद में पाया और भेंट लेकर राजा के पास गया । राजा ने श्रेणिक के विषय में पूछा । दत्त ने कहा कुंवर श्रेणिक बेनातट नगर में है। अतः राजा ने अपने मन्त्रियों को बेनातट नगर में भेजा । मंत्रियों ने श्रेणिक से मिल कर मगद चलने की प्रार्थना की। इस पर श्रेणिक मगद चलने को तैयार हुआ, पर नन्दा उस समय गर्भवती थी। मस्त्रियों ने नन्दा को साथ ले चलने के लिए आग्रह किया मगर श्रेणिक ने साथ ले चलना उचित नहीं सममा । अतः नन्दा को नामंकित मुद्रिकादि स्मृति चिन्ह देकर राजकुवर श्रेणिक वहाँ से रवाना होगये। सेठ धन्ना ने श्रेणिक को रवाना होते समय बहुत द्रव्य दिया था। कारण तेजमतुरी से श्रेणिक ने सेठ का खजाना धन से भर दिया था । श्रेणिक ने चलते २. रास्ते में थोड़ी बहुत क्रोज (सेना) भी बन ली थी। और क्रमशः चलते हुए मगद की राजधानी में पहुँचे । अपने पिता प्रसेनजित से मिले । राजा ने श्रेणिक का मगद की गद्दी पर गज्याभिषेक कर दिया बाद थोड़ा ही समय में प्रसेनजित राजा का देहान्त हो गया और भेणिक मगद का सम्राट बन गया। राजा श्रेणिक एक राजनीजिकुशल राजा था । आपने अपने पिता का राज की सीमा बढ़ाई। आपने अपना राज का सम्बन्ध आयों के अलावा अनार्यों के साथ भी जोड़ दिया था । राजा श्रेणिक के नन्दारानी के अलावा धारणी, काली, महाकाली, नन्दा, सुनन्द, भद्रा व सुभद्रादि बहुत सी रानियाँ थी। इनके अलावा एक चैलना नाम की रानी भी थी। और चेलना के साथ श्रेणिक का विवाह मंत्री अभयकुवार की बुद्धि चतुर्य उस समय प्रायः सिक्का का चलन नहीं था माल के बदले माल दिया जाता था । देखो-भागे सिक्का प्रकरण को wwwwwwwwwwwwwwww.vinyainnovruiremenre...] राजा श्रेणिक का जीवन Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन [ ओसवाल सं० ६८२-६९८ से हुआ था बात यह बनी थी कि-विदहदेश एवं वैशालनगरी के राजा चेटक के सात पुत्रियाँ थी गजा कट्टर जैनधर्मानुयायी था और उनकी प्रतिज्ञा भी ऐसी थी कि मैं मेरी किसी पुत्री को अजैन को नहीं ब्याहूँगा। - राजा श्रेणिक ने कुँवरी चेलना के रूप लावण्य की प्रशंसा सुनी । अतः श्राप की इच्छा चेलना के साथ लग्न करने की हुई । पर राजा श्रेणिक उस समय जैन धर्मानुगामी नहीं था। अतः संदेश भेजने पर भी चेटक राजा अपनी प्रतिज्ञा भंग कर अपनी पुत्री जेनेतर के साथ कैसे परणा सकता था ? इसके लिये राजा श्रेणिक यह भी जानना चाहता था कि कुवरी चेलना मेरे साथ विवाह करने में खुश है या नहीं ? पर इसकी खबर कौन लावे ? मंत्री अभयकुवार को राजा ने सब हाल कहा अतः अभयकुवार इत्र का व्यापारी बनकर कुवरी चेलना और सुजेष्ठा के पास गया और दोनों राजकुवरियों को राजा श्रेणिक की ओर आकर्षित कर लग्न की बात पक्की कर आया । इसके बाद उसने एक सुरंग तैयार कराई कि जिससे दोनों कुवरियों का विवाह राजा श्रेणिक के साथ हो सके। सब राजवीज हो गई तो ठीक समय पर चेलना सुजेष्टा रथ पर बैठकर आ तो गई पर सुजेष्ठा इस प्रकार बिना पिता की आज्ञा विवाह करना ठीक नहीं समझ कुछ बहाना कर वापिस लौट गई । आखिर में चेलना का विवाह राजा श्रेणिक के साथ होगया और सुज्येष्ठा आजन्म ब्रह्मचारिणी रही और समय पाकर भगवान महावीर के पास दीक्षा ले ली । राजा श्रेणिक के साथ चेलना का विवाह तो होगया पर आपस में धर्मभेद होने से धार्मिक विषय में उनके आपस में वाद-विवाद हमेशा चलता ही रहता था। गजा श्रेणिक का घराना जैनधर्मोपासक ही था पर राजा के एक क्षेमा नाम की रानी बुद्धदेव के धर्म की उपासका थी अत: राज श्रेणिक का दिल भी बुद्ध धर्म की ओर भुक गया था अतः वह बुद्ध धर्म को श्रेष्ठ और जैन धर्म की हय समझता था तब रानी चेलन जैन धर्म को सर्वोत्तम और बुद्ध धर्म को हय समझती थी। __ राजा भेणिक और रानी चेलना के कभी २ आपस में धर्मवाद भी हुआ करता था । इतना ही क्यों पर कभी कभी तो गजा जैन श्रमणों के आचार व्यवहार पर भी हस्तक्षेप किया करता था पर रानी चेलना भी कम नहीं थी। वह भी बौद्ध भिक्षुओं को आडे हाय लिया करती थी कि उनको पीछा छुडाना मुश्किल हो जाता था । एक समय राजा भेणिक ने एक जैन साधु जहाँ ठहरे थे वहां रात्रि के समय उस निर्ग्रन्थ के पास एक वेश्या को भेजदी इस गर्ज से कि जनता को यह बतलादें कि जैन साधु अपने मकान में रात्रि के समय वेश्याओं को रखते हैं। पर रानी चेलना ने साधारण साधुओं को नगर में आने की पहले ही से मनाई कर रखी थी। जो मुनि नगर में आये थे उनके पास कई लब्धियां थी । जब उनके पास रात्रि में बेश्या आई तो अपनी लब्धी से वस्त्र पात्रादि जला कर राख कर दिये और राजा के गुरु का वेष धारण कर लिया। पुनः राजा ने रानी से कहा कि क्या तुम्हारे साधु गत्रि को वैश्या भी रखते हैं ? रानी ने कहा कि पतिदेव ! हमारे साधु नौवाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य प्रत का पालन करते हैं, वैश्या रखने वाले हमारे नहीं पर आपके ही गुरु होते हैं । इस वाद-विवाद में सूर्योदय हो गया तब राजा-रानी और नगर के हजारों लोग साधु के स्थान पर गये और द्वार खोल कर देखा तो एक पोर थरथर कांपती हुई वैश्या खड़ी है और दूसरी ओर बौद्ध भिक्षु एवं अवधूत बाबा बड़ा है । जिसको देख कर राजा शरमिन्दा हो गया। खैर एक समय रानी चेलना ने राजा राजा और राणी के धर्मवाद Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८२-२९८ ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के अत्याग्रह से राजा के गुरुओं को भोजन कराने के लिये आमन्त्रण किया। जब वे साधु आये तो एक दासी द्वारा रानी ने उनकी बढ़िया कोमल जूतियाँ मंगवा कर, उनको बारीक से बारीक ची। फाड़ कर अच्छे मसाले डाल कर राइता (साक) बना कर उन साधुओं को खिला दिया। इसके बाद राजा ने गुरुओं से कहा कि यह मेरी चेलना रानी है । इसने पूर्व भव में क्या सुकृत किये जिससे मेरे राज में इतनी उच्चस्थिति पर पहुँची है । बौद्ध साधुओं ने कहा कि रानी पूर्व जन्म में एक कुतिया थी पर हमारे साधुओं के स्पर्श से राज. कुल में जन्म लेकर आपकी गनी बनी है। इस पर चेलना ने कहा कि महात्माजी ! यदि आपको परभव का ज्ञान है तो आप यह बतलायें कि अभी आपने क्या २ भोजन किया है। साधु उत्तर दे ही रहे थे कि इतने में पुकार आई कि महन्तजी की जूतियां बहुत खोजने पर भी नहीं मिली हैं । आखिर रानी चेलनाने कहा कि आपने मेरा पूर्व भव तो बता दिया कि मैं कुत्ती थी पर आपकी जूतियाँ कहाँ गई इसका भी श्रापको ज्ञान है ? इस पर महंतजी ने सोचा कि रानी चेलना ने ही हमारी जूतियां छिपादी होंगी । बस ! उन्होंने कह दिया कि मेरी जूतियां रानी चेलना ने ही लो हैं। इस पर रानी ने कहा कि जूतियां तो आपके उदर में हैं और दोष मेरे पर लगाते दो, यही आपका ज्ञान है ? इस पर सब लोग चकित हो गये राजा भी रानी पर क्रोधित हो गया इस पर गनी ने ऐसी दवाई महन्तजी आदि सब को दी जिससे सबको उलटियां होने लगी. जिसके अन्दर जूतियों की बनी हुई संगरियों वा शाक प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा। इससे राजा के साथ साधुओं की जमात और महन्तजी शर्मिन्दे हो गये । इस प्रकार आपस में वाद-विवाद होते रहे । इससे राजा की रुचि बोद्धधर्म से हट का जैन धर्म की ओर झुकने लगी। एक समय राजा श्राश्वारूढ़ होकर बगीचे में गया था । वहाँ पर एक अनाथी नामक मुनि ध्यान लगाये खड़े थे जिनका रूप एवं क्रांति देख राजा ने कहा कि हे मुनि ! इस युवक पन में योग लेकर व्यर्थ यह कष्ट क्यों कर रहे हो ? मुनि ने कहा कि मैं संसार में अनाथ था । राजा ने कहा कि हे मुनि ! तुम अनाथ हो तो मैं तुम्हारा नाथ बन सकता हूँ। तुम मेरे राज में चलो । मुनि ने कहा कि हे राजन् ! तुम खुद ही अनाथ हो । तुम मेरे नाथ कैसे बनोगे ? गजा ने सोचा कि शायद मुनि मुझे नहीं पहचानता होगा। तब राजा ने अपना परिचय कराया। इस पर मुनि ने राजा को उपदेश दिया कि हे राजन् ! तेरे पास कितनी ही सम्पत्ति हो, पर जब विपत्ति एवं काल आवेगा तब तेरा नाथ कौन होगा कि जिस तुझे बचा सके ? इतने में रामा ठीक नाथ अनाथ के भेद समझ कर समकित रत्न को प्राप्त हो गया । बाद भ० महावीर का उपदेश सुन कर आम दुनियां के बीच जैन धर्म को स्वीकार कर लिया। राजा ज्यों २ जैनधर्म का अध्ययन करने लगा त्यों त्यों अन्य धर्म उसको बच्चे का खेल ही नजर आने लगा। एक समय राजा भगवान को वन्दन कर इस्ती पर सवार हो अपने स्थान पर प्रारहा था। उसी समय शक्रेन्द्र अपनी देव सभामधर्मकी दृढ़ता की प्रशंसा करते हुए कहा कि आज भारतक्षेत्र में राजा श्रेणिक धर्म में इतना रढ़ श्रद्धा वाला है कि किसी देव दानव से भी चलायमान नहीं किया जा सकता है । इस पर सभा में रहा हुआ एक मिथ्या दृष्टि देव जो इंद्र के बचन को असत्य बनाने के लिये एक साधु का रूप बना कर कंधे पर जाल डाल कर राजा श्रेणिक के सामने कसाई की दुकान पर मांस लेने के लिये आया जिसको देख राज ने कहा कि हे अधम्म ! तूं साधू के वेष में यह क्या कर रहा है। साधू ने कहा-हे राजन् ! आप अभी नये जैन हैं क्या भापको उम्मेद है कि महावीर के पास १४००० क्षत्री साधू हुए हैं वे विना अपने खज ( मांस) खाये रह सकते हैं ? हाँ ! कोई छाने खाते हैं और मेरा जैसा ७१८ राजा श्रेणिक को जैनधर्म की प्राप्ति Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६८२-६९८ प्रकट खाते हैं इस पर राजाने कहा अरे पापात्मान् ! तेरे जैसा चण्डाल कर्म करने वाला एक तू ही है। हमारे प्रभु महावीर के पास १४००० मुनि अहिंसा धर्म का पालन करने वाले मन करके भी मांस खाना तो क्या पर मांस खाने वाले को भी अच्छा तक नहीं समझते हैं इत्यादि । देवता ने राजा को दृढ़व्रति जान कर दूसरा रूप एक साध्वी का किया और लोगों को दिखाया कि यह साध्वो गर्भवती है राजा के सामने पंसारी की दूकान पर सोंठ-अजवान मांगती हुई फिरती थी । जिसको देखकर राजा श्रेणिक ने कहा रे दुष्टा ! तू जैन धर्म को कलंकित क्यों कर रही है ? इस पर साध्वी ने कहा-राजा महावीर के पास ३६००० युवा स्त्रियां दीक्षित हुई हैं क्या वे सब ब्रह्मचर्य पालन कर सकती हैं ? हाँ कई गुप्ताचार करती हैं । मैं ऐसा करना नहीं चाहती इयादि । राजा ने कहा अरे पापात्मा ! तेरे जैसे काले कर्म तेरे ही हैं। हमारे भगवान महा. वीर की ३६००० साध्वियां मुक्ति की मुक्तामाल हैं वे सदैव नौवाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत पालन करती हैं । जब देवता ने राजा के दिल को हर तरह से मजबूत और निशंक धर्म पर देखा तो वह असली रूप बनाकर राजा के चरणों में नमस्कार कर कहा राजन् ! तुझे कोटिशः धन्यवाद है इन्द्रराज ने जैसी आपकी प्रशंसा की वैसे ही श्राप दृढ़ धर्मी हैं । देवता ने रत्नमय कानों के दो कुण्डल और एक मिट्टी का गोला राजा को देकर अपने अपराध की क्षमा मांगकर स्वर्ग की ओर चला गया। राजा ने कानों का कुन्डल तो रानी नंदा को दिये और मिट्टी का गोला गनी चेलना को दिया । इस पर चेलना को गुस्सा आया कि मिट्टी के गोले को दूर फेंक दिया। जब वह टूटा तो उसमें से १८ लड़ (सर) वाला दिव्य हार निकला जिसको देख रानी बहुत खुश हुई । राजा श्रेणिक के राज में एक सींचाना हस्ती भी था जिसकी कथा इस प्रकार बनी थी कि-एक हस्तियों का यूथ था। उसमें एक हस्ती और १००० हस्तिनियाँ थीं जब कभी हस्तिनी के बच्चा होता है तो हस्ती उसे मार डालता । कारण सब पर श्राप ही सत्ता रखना चाहता था। इस कारण कोई भी बच्चा जीवित नहीं रहने देता । तब हस्तिनियों ने सोचा कि इस प्रकार करने से अपना सर्वनाश हो जायगा क्योंकि एक दिन यह इस्ती भी मरने का है । इस हालत में एक हस्तिनी गर्भवती हुई; वह कभी कभी यूथ के पीछे २ रहकर तपस्वियों के आश्रम में जाकर बच्चे को जन्म दिया फिर यूथ से मिल गई तब उस हस्तिनी के बच्चे का तापसी ने अच्छा पालन पोषण किया और उसकी सूड में एक बालटी एवं डालची जैसा वरतन दिया ताकि वह नदी से पानी लाकर बगीचे को सींच दिया करे । इसलिये उसका नाम सींचाना हस्ती पड़ गया। जब इस्ती बड़ा हुश्रा और मद में आया तो एक समय तपस्वियों के बगीचे को उखाड़ कर साफ कर दिया । इस पर तपस्वियों को बड़ा गुस्सा आया । और उन्होंने राजा श्रेणिक को कहा कि यह हस्ती आपके पट्ट हस्ती करने योग्य है। इस पर राजा ने हस्ती को पकड़वाकर जंजीरों से बंधवा दिया । एक समय उसी रास्ते तपस्वी निकले । हस्ती को देख तपस्वी अपनी नाक पर उंगली लगाकर हस्ती को ताना मार कर कहने लगे अरे पापी ! हमाग नुकसान करने का फल मिल गया न ! यह सुन कर हस्ती को गुस्सा आया कि जंजीरों को तुड़ाकर जंगल में भाग गया। जिससे राजा को बहुत दुख हुआ । उस समय अभयकुमार, राजा को नमः स्कार करने आया था। राजा को चिन्ता में देख दुःख का कारण पूछा। राजा ने हस्ती का हाल कहा । अभयकुमार ने राजा को विश्वास दिलाया और हस्ती को लाने का नपाय सोचा पर ऐसा कोई उपाय उसको नहीं सूझा । आखिर तीन दिन उपवास करके देवता की आराधना की देवता आया और अभयकुमार को साथ लेकर हस्ती के पास गये, हस्ती को कहा-कि तू पूर्व भव में तपस्वी था। अज्ञान तप कर वहां से मर सींचानक हस्ती की कथा ७१९ Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० २८२-२९८ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के हस्ती हुआ है और तेरे तपस्वी के भव में सहायता करने वाला मर कर राजा श्रेणिक के पुत्र बदल कुमार हुश्रा है अतः तुझे राजा श्रेणिक के यहाँ रहना अच्छा है आदि २ सब बातें सुन कर हस्ती को जातिस्मरण ज्ञान हो आया । अतः वह स्वयं राजा के राज में आ गया । आगे चलकर इन हार एवं हस्ती के लिये ही गजा चेटक और राजा कूणिक के आपस में बड़ा मारी युद्ध हुआ था वह कूणिक के जीवन में बतलाया जायगा। राजा श्रेणिक ने जैन धर्म स्वीकार करने के बाद जैन धर्म का खूब प्रचार किया था वह भी केवल भारत में ही नहीं बल्कि भारत के बाहर पाश्चात्य देशों में भी जैन धर्म का काफी प्रचार किया था। राजा श्रेणिक ने एक समय तीर्थ श्री शर्बुजय की यात्रार्थ संघ भी निकला था । कलिंग देश की उदयगिरि खण्डगिरि पहाड़ों पर के मन्दिरों की अनेक बार यात्रा की थी वहाँ पर आपने एक विशाल जैन मन्दिर बनाकर सुवर्णमय श्री ऋषभदेव तीर्थंकर की मूर्ति की स्थापना करवाई थी बह बात जैनशास्त्रों में और भी प्रसिद्ध है कि राजा श्रेणिक हमेशा १०८ सुवर्ण के तंदुल ( जो के बराबर ) बनाकर जैन प्रतिमा के सामने स्वस्तिक किया करता था राजा श्रेणिक के पहली मृगली की शिकार के समय नरक का आयुष्य बंद होगया था। अतः आप स्वयं व्रत नियम नहीं कर सकते थे । परन्तु व्रत नियम एवं दीक्ष लेने वाले को मदद करते थे। यदि राजा के कुटुम्ब के अन्दर से कोई भी दीक्षा लेने वाला हो तो इन्कार न करके, बड़े ही महोत्सब के साय दीक्षा दिला देता था। इस प्रकार धर्म प्रचार, धर्मोन्नति, धर्म दलाली करने से वह तीर्थकर नाम कर्मोपार्जन कर लिया था कि भविष्य की उत्सर्पिणी में पहला पद्मनाभ नामक तीर्थकर होगा। इसका विस्तार पूर्वक वर्णन स्थानायांग सूत्र के नौंवा स्थान में उल्लेख किया है राजा श्रेणिक ने अपनी पिछली अवस्था धर्मकार्य में व्यतीत की थी, गजा के कई गनियाँ एवं पुत्रादि कुटम्ब राजा की मौजूदगी में भगवान् महावीर के पास दीक्षा लेली थी। राजा श्रेणिक का मुख्य मंत्री अभयकुमार था जिसका वर्णन जैन शास्त्रों में इस प्रकार से किया है:राजा श्रेणिक वनातट नगर में सेठ धम्ना की पुत्री नंदा के साथ विवाह किया था और नंदा को गर्भवती छोड़. कर श्रेणिक मगद में श्राकर राजा बन गया था परन्तु श्रेणिक राजा बन जाने के वाद नंदा को याद तक नहीं की। नंदा के पुत्र हुआ जिसका नाम अभयकुवार रखा। अब अभयकुमार बड़ा हुआ तो किसी लड़के के ताना मारने से अपनी माता से पूछा कि मेरे पिता कहाँ है ? और आप अपने पिता के घर क्यों रहती हो ? इस पर नंदा ने सब हाल कहा और राजा के दिये हुए मुद्राकादि चिन्ह बतलाये । इस पर अभयकुवार अपनी माता को लेकर मगद की ओर प्रस्थान कर दिया । क्रमशः राजगृह के एक उद्यान में आकर ठहर गये माता को उद्यान में ठहरा कर आप नगर में गया और वहां के जौहरियों के यहाँ बाजार में धन गेहना देखकर अभय कुमार चकित हो गया । वह एक रथशाला में जाकर बढ़िया राजशाही रथ किराये पर तैयार करवाया, दो चार दासियों को साथ लेकर जौहरी बाजार के पास एक गली में पाया । व्यापारियों से कहा कि महारानीजी पधारी हैं और कुछ जेवर खरीदेंगी । आप अपना बदिया जेबर दिखायें, जो पसंद होगा उसका मूल्य चुका दिया जा. यगा। जौहरी लोग अपने अपने बदिया कीमती जेवर कुमारको दे दिये । वह लेकर रफूचक्कर हुश्रा । स्थवाला और दासियें बाजार के नाके पर खड़ी थीं। जब घंटा दो घंटा व्यतीत हो गये तब जौहरी लोगों ने रथ के पास जाकर पूछा कि मंत्रीश्वर कहां हैं । हमाग जेवर वापिस नहीं आया। रथ वाले ने कहा कि हम तो किराये ७२० मन्त्री अभयकुमार की कथा Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ६८२-६६८ पर आये हैं । हमें क्या मालूम हम तो खुद ही किराये की राह देख रहे हैं। जौहरियों ने कहा कि रथ में महारानीजी बतलायी जाती हैं । इतने में दासियों ने कहा कि हमारी मजूरी कोन देगा ? पर्दा दूर करके रथ में देखा तो रथ में कोई नहीं । बस ! अब तो हाहाकार मच गया। जौहरियों के करोड़ों का जेबर चले जाने से वे लोग कोतवाल के पास गये और सब हाल कहा । कोतवाल ने जौहरियों को विश्वास दिलाकर स्वयं पहरा देने और ठग को पकड़ने के लिये भीषण प्रतिज्ञा की और रात्रि के समय की गश्त देने लग गयो । नब अभयकुमार को इस बात का पता लगा कि आज कोतवाल पहरा देगा तो उमने लाखों रुपये के वस्त्र भूषण पहन कर औरत का रूप बना आधी रात्रि में एक रास्ते से जाने लगा। वहाँ कोतवाल पहरा दे रहा था। कोतवाल ने औरत से पूछा कि तू कौन है ? गत्रि में कहां जाती है ? औरत ने उत्तर दिया कि मैं पति से अपमानित हो कुवां में पड़ कर मरने को जारही हूँ। कोतवाल ने औरत के रूप पर मोहित होकर कहा कि तू मरती क्यों है ? तू मेरे घर पर चल मैं तुमको अच्छे मान से रक्तूंगा। औरत ने कहा मैं किसी पुरुष का विश्वास नहीं करती हूँ। मुझे जाने दो, मैं मरूँगी हो । कोतवाल ने खूब विश्वास दिलाकर औरत को अपने घर पर लेगया । जब औरत घर पर पहुँची तो देखा कि द्वार पर बहुत से खोड़े पड़े हैं। ( जो चोरों के पैरों को डाल कर, खोली ठोक कर कैद में बन्द कर दिये जाते हैं) औरत ने पूछा कि यह क्या है ? कोतवाल ने कहा यह खोड़े हैं औरत ने पूछा कि इसका क्या किया जाता है ? कोतवाल ने जवाव दिया कि इसमें चोरों के पैर डालकर बंध कर दिये जाते हैं ? देखें, मैं पैर डालती हूँ ! कोतवाल ने कहा- आप नहीं, मैं पेर डालकर बतला देता हूँ। कोतवाल ने खोड़ा में पैर डाला तो औरत ने कहा कि ऐसे तो पैर निकल जाता है। कोतवाल ने कहा कि नहीं ये मेघचा पड़ा है इससे खीलो जोर से ठोक दी जाती है। उसने मेघचा लेकर खूब जोर से खीली ठोक दी और कोतवाल के ही जूतों से पांच दस जूता लगा कर पुकार दिया कि हे लोगों मैंने ठग को पकड़ लिया है। एवं खोड़ा में बंद कर दिया है। दोड़ो-दौड़ो जल्दी दौड़ों इतना कह औरत तो भाग गई । जब पुकार सुनकर लोग आये तो रात्रि में हा-हो को हुनड़ में कोतवाल को न पहचानने के कारण, जो आये वही कोतवाल को जूते लकड़ी से मारने लगे कोतवाल बहुत चिल्ला २ कर कहा, मगर सुने कोन ? जब सूर्योदय हुआ तब जाकर मालूम हुआ कि, ठग, कोतवाल को भी ठग गया है। इसके लिये गजा श्रेणिक की सभा में सब लोग एकत्र हुए । तब उस सभा में दीवान ने बीड़ा उठाया कि आज मैं ठग को पकडूंगा । बस ! दीवन सा.ब ने रात्रि के समय पेहरा देने लगे । इस बात की खबर पाकर अभयकुमार एक अवधूत योगी का रूप धारण कर बाजार के बीच में लकड़ा जलाकर जाप करने बैठ गया। दीवान साहब फिरते २ योगी के पास आ गये । कुछ सिद्धियों के बारे में पूछने लगे। योगी ने कहा कि तुम महान पापी हो । तुमको कोई भी सिद्धि नहीं बतलाई जायगी जब दीवान ने बहत आग्रह किया तो योगी ने कहा कि तुम व्यर्थ मुझे क्यो छेड़ते हो कारण इस कार्य के लिये सत्र से पहले तो लोक लज्जा जीतनी पड़ती है। तुमसे जीती नहीं जायगी अतः सीघे चले जाओ। दीवान ने कहा महात्माजी आप कहोगे मैं सव कुछ करूंगा। श्राप मुझे सिद्धि बतलाइये योगी ने कहा देख इसके लिये पहले तो शिर मुंडाना पड़ेगा, कोपीन लगा कर, एवं शरीर पर भस्म रमाकर, कल दुपहर तक जप करना होगा। जाप करना साधारण नहीं है किंतु आपका जप राजा भी नहीं छुडवा सकता है। तब फिर जाकर सिद्धि होगी। दीवान ने सव स्वीकार कर लिया। शिर के बाल कटा डाले, नग्न हो मन्त्री अभयकुमार की बुद्धि ७२१ Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शरीर के भस्म लगा कर एक आसन पर बैठ, योगी के बतलाये 'रुढ, मुंड स्वाहा' ३ जप करने लगा। योगी ने कहा कि मैं जाकर शिवजी से प्रार्थना करूंगा कल दोपहर को वापिस आकर ऋद्धि-सिद्ध करवा दूंगा इतना कह कर योगी तो चला गया। दीवान साहब बैठ कर जोर २ से 'रूंढ मुढ स्वाहा' का जाप कर रहे हैं । सूर्योदय हो गया तब भी दीवान साहब अपने घर पर नहीं पहुँचे । राज सभा ने सब जगह तलाश करवाई पर, कहीं पर पता न चला। तब बाजार के लोगों ने योगी की ओर देखा तो मालूम हुआ कि कल वाला योगी युवक था पर यह तो बृद्ध है । ध्यान लगा कर देखा तो सूरत दीवान जैसी पाई गई । यह खबर राजा के पास पहुँची तो राजा ने खुद आकर बाजार में देखा तो दीवान बैठा जोर २ से जप कर रहा है राजा ने कहा दीवानजी आप ठग को पकड़ने गये पर ठग आपको ठग गया है । जाप को छोड़ कर एवं राख को धोकर घर पधारें। दीवान शरम के मारे बोल न सका । पर, मन में समझ गया कि धूर्त-ठग मुझे ठग गया है दीवान शर्मिन्दा हो घर पर गया और सब नगर में हंसी हुई । इस पर राजा ने कहा कि ठग कोई जबर है । अत्र दूसरों से पकड़ा नहीं जायगा । फिर खुद राजा ने राज सभा में खड़ा होकर ठग को पकड़ने का उठाया और रात्रि के समय घोड़े पर सवार हो राजा नगर में पहरा देने को निकल पड़ा। इस बात का पता भी अभयकुमार को मिल गया । अभयकुमार सब बातों की निगाह रखता था । कुमार ने धोबी का रूप बना कर रात्रि में तालाब पर कपड़े धोने को गया । एक मिट्टी की हांडी पर सफेदा - कालस लगा कर साथ ले गया । राजा को घोड़े पर सवार हुआ तालाब की ओर आता देख वह मिट्टी का बरतन पानी में तेरा दिया। राजा ने श्राकर धोबी से पूछा कि रे धोबी ! तूने कोई ठग देखा है । धोबी ने कहा महाराज मैं ठग को क्या जानू परन्तु घोड़े की श्रावाज सुन कर एक मनुष्य अभी पानी में पड़ गया देखिये वह तैरता जा रहा है राजा ने सोचा कि ठग यही है और मेरे डर से वह तालाब में चला गया है। बस राजा ने अपनी अच्छी पोशाक एवं घोड़ा धोबी को दे दिया और धोबी के कपड़े पहन तलवार हाथ में लेकर तालाब में उस हांडी की ओर चला गया । ज्यों २ राजा पानी में आगे बढ़ता जाता है त्यों २ पानी के हिलने से मिट्टी का बरतन श्रागे बढ़ता जाता है । राजा गुस्सा में श्राकर कहता है कि अरे ठग तूने जौहरी बाजार लूटा, कोतवाल एवं दीवान को ठगा । पर, अब कहाँ जायगा ? नंगी तलवार से तेरे शिर को उड़ा दूंगा। इधर धोबी राजा की पोशाक पहन घोड़े पर सवार होकर तालाब के दरवाजे पर आकर दरवान को कहा कि अरे लोगो आज मैंने ठग को पकड़ लिया है। अभी वह श्रावेगा और कहेगा कि मैं गजा हूँ परन्तु तुम उसको जाने नहीं देना | दरवाजे वालों ने घोड़ा देख राजा समझ कर उनका कहना स्वीकार कर लिया । घुड़सवार ने माता के पास आकर सब हकीकत कहदी । माता ने कहा बेटा ! तेरा पिता शीतकाल में तकलीफ पाया । कुमर ने कहा कि तकलीफ देखे बिना मालूम कैसे होगा कि एक सेठ की पुत्री को विवाह कर छोड़ आया हूँ । खैर उधर राजा तैरता २ नजदीक पहुंच कर तलवार की झपट मारी तो मिट्टी का बरतन फूट गया : राजा ने सोचा कि अरे वह धोबी नहीं पर वही ठग था। राजा हताश हुआ । तालाब में से बड़ी मुश्किल से निकला । शीत पड़ रहा था। कपड़े पानी में तर हो गये थे । जल्दी २ दरवाजे पर श्राया । मगर दरवानों को तो पहले ही ठग कह गया था। दरवाजे पर राजा को रोक दिया कि तुम ठग हो । राजा ने बहुत कहा पर दरवाजे वालों ने एक भी नहीं सुनी तब क्या करे ? रात्रि तो ज्यों-त्यों बड़ी मुश्किल से ७२२ मन्त्री अभयकुमार और राजा श्रेणिक Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० ६८२-६९८ निकाली । सुबह देखा तो वह राजा ही निकला खैर ! राजा अपने स्थान पर गये और अब तो ठग को पक. ड़ने के लिये सब लोग हताश हो गये । राजा ने एक उपाय सोच कर पानी से भरे कुवे में मुद्रिका डाल दी। और डोड़ी पिटवाई कि अगर कुवे में न उतर कर इस मुद्रिका को निकाल देगा तो राजा अपना महा मंत्री बनावेगा । लोगों ने बहुत उपाय सोचा मगर कोई न निकाल सका तब अभयकुमार ने एक दूसरा कुवां उस कुवे के पास खुदवाया और मुद्रिका वाले कुत्रे के अंदर पैंप जैसा कुछ लगा पानी निकाल नये कुत्रे में भर दिया जब मुद्रीका दीखने लगी तो उस पर गोबर साल दिया कि मुद्रिका उस गोबर में चिपक गई । इस पर जलता हुआ घास डाला कि गोबर सूक गया फिर वह पानी वापिस उसी कुँवा में डलवा दिया कि मुद्रिका वाला गोबर पानी के ऊपर आ गया कुमार ने गोबर को खेंच कर एवं मुद्रिका निकाल कर राजा के सामने रखदी । यद्यपि अभयकुमार वालावस्था में था पर राजा ने अपने वचन के अनुसार उसको मंत्री पद देने को राज सभा में चलने के लिये आग्रह किया तब कुमार ने कहा मैं इकला ही नहीं, परमेरे साथ मेरी माता भी है । जब राजा ने कहा कि अच्छा तुम्हारी माता को भी साथ लेलो । तब अभयकुमार ने अपनी माता के पास जाकर राजा के दिये हुए मुद्रिकादि चिन्ह लाकर राजा को बतलाये। जिससे राजा को ज्ञान हुआ कि यह ठग नहीं बल्कि मेरा ही पुत्र है। बात भी ठीक है । बिना पुत्र मुझे कौन ठग सकता है। राजा ने गज अश्व, रथादि सब सेनाओं के साथ नन्दाराणी को आदर सत्कार के साथ नगर प्रवेश करवाया और अभयकुमार को महामंत्री का पद दिया। बाद जौहरियां का गहनादि सब उनको दे दिया। ___ अभयकुमार ने अपनी बुद्धि से गज्य के क्या क्या कार्य किये, वे सब जैन शास्त्रों में विद्यमान हैं। इतना ही क्या वर्तमान में महाजनलोग दीपमालिका का पूजन करते हैं तब अपनी २ वहियों में अभयकुमार की बुद्धि का भी उल्लेख करते हैं अतः अभयकुमार महान् बुद्धि शाली जैनमन्त्री हुआ और अन्त में मंत्री पद त्याग कर भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर स्वयं अपना कल्याण किया। ऐतिहासिक दृष्टि से भी राजा श्रोणिक का जीवन महत्व पूर्ण है । गजा श्रोणिक ने अपने राज की सीमा बहुत दूर २ तक फैला दी थी । राज्य का प्रवन्ध भी अच्छा था । श्रापके शासन काल में व्यापार की भी अच्छी उन्नति हुई थी ब्यापार की सुविधाओं के लिये सिकाओं का चलन भी आप ही के शासन काल में हुआ था इतना सब कुछ होने पर भी राजा श्रोणिक की मृत्यु बड़ी दुर्घटना के साथ हुई थी। राजा श्रोणिक के अन्तिम समय आपके पुत्र कुणिक ने राज के लोभ के कारण राजा को पिंजरे में बंद कर दिया था और राजा को विष प्रयोग कर मरना पड़ा था। ७- राजा कूणिक-श्रोणिक के बाद मगद का राज मुकुट कूणिक के मस्तक पर चमकने लगा। कूणिक के कई नाम थे जैसे अजातशत्रु, अजितशत्रु, अशोकचन्द, राजा दर्शक इत्यादी। कूणिक का जन्म भी एक विचित्र घटना से हुआ था । जैन शास्त्रों में लिखा है कि जिस समय रानी चेलना गर्भवती थी तब उसको देहलोत्पन्न हुआ कि मैं राजा श्रेणिक के कलेजे का मास खाऊंगी पर गनी बड़ी समझदार थी। रानी ने इस बात को किसी से भी नहीं कही । अतः उसका शरीर छीजने लगा । रानी की यह हालत देख कर राजा ने बहुत प्राग्रह से पूछा इस पर असली बात रानी ने राजा से कइदी। राजा इससे बड़ी चिन्ता में पड़ गया कि या तो मेरा प्राण जायगा या रानी मर जायगी। इतने में अभयकुमार पाया अभयकुमार के मंत्री अभयकुमार की बुद्धि चातुर्य ७२३ Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२६८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कहने पर उसने एक ऐसी तजवीज की कि कोई भी जान न जाय । रानी चेलना को एक कनात के पीछे बैठा दी और राजा को बाहर बिठा कर सुला दिया और तत्काल का मांस लाकर राजा के हृदय पर रख दिया। जब छुरी से काट २ कर मांस रानी को दिया जाता था राजा खूब चिल्लाता था जिससे रानी का दोहला संतोष के साथ पूर्ण हो गया । पर रानी ने सोचा कि जब यह गर्भ में आते ही अपने ही पिता के कलेजे का मांस मांगता है जन्म लेने पर न जाने क्या २ अनर्थ करेगा। अतः इस गर्भ को गिरा दूं। इसके लिये कई उपाय किये पर गर्भ शकुशल रहा । जब जन्म हुआ तो दासी द्वारा रानी ने नवजात पुत्र को अशोक पाड़ी में डलवा दिया। इस बात की खबर राजा श्रेणिक को हुई तो कँवर को लाकर रानी को देते हुए उपालभ्य दिया। कुँवर को अशोक बाड़ी में डाल दिया उस समय कुर्कट ने उसकी एक कोमल उंगली काट खाई अंगभंग होने से उसका नाम कूणिक रखा था जिस ऊंगली को कुर्कट ने खाई थी उसमें बहुत बीमारी हो गई मगर रानी चेलना ने इसके लिये कोई भी इलाज नहीं कराया । पर राजा श्रोणिक उस ऊंगली को मुंह से चूस २ कर उसका पीप दूर फेंका करता था । राजा श्रोणिक, कूणिक का शुभ चिन्तक होकर रहता था। पर जब जवान हुआ तो, रानी चेलना की धारणा सत्य हो गई। कारण-पिता को मार कर राज लेने के लिये काली आदि दस भाइयों को राज का हिस्सा देना मंजूर कर अपने पक्ष में कर लिया और राजा श्रेणिक को पिंजरा में देकर आप मगद का राजा बन गया । कूणिक राजा बन, अपनी माता के चरण भेंट ने को गया, पर रानी पहले से ही उदास वैठी थी। राजा कूणिक ने माता को उदास देख कर कहा-माता तेरे पुत्र को राज मिलने पर सब लोग खुश हैं तेरे खुश न होने का क्या कारण है । रानी ने कहा-बेटा ! तूने कौनसी बहादुरी करके राज प्राप्त किया है । कि जिससे मुझे खुशी हो ? मैंने तो तुझे जव ही पहचान किया कि जब तू गर्भ में आया था । क्योंकि तूने गर्भ में आते ही पिता के कलेजा का मांस खाने को मांगा था मैंने गर्भ गिराने की बहुत कोशिश की परन्तु वह गिरा नहीं । जब तेरा जन्म हुआ तो मैंने तुझे अशोकवाड़ी की उखाड़ी पर डलवा दिया था मगर तेरा पिता जाकर तुझे ले आया तेरी उंगली को कुर्कट खा गया था जिसके अन्दर रक्त बिगड़ गया था जिस दुख के कारण तु सारी रात्री रूदन करता रहता था मैंने तेरी जरा भी परवाह नहीं की परन्तु तेरे पिता ने उस बिगड़े हुए रक्त को मुँह से चूस चूस कर थूकते हुए सारी रात्रि व्यतीत कर देते थे। उस उपकार का बदला तूने पिता को पिंजरे में डालने के रूप में दिया । पतला मुझे खुशी किस बात की हो ? इतने शब्द माता से सुनते ही कूणिक के दिल में पिता के प्रति भक्ति पैदा हुई और पिता को पिंजरे से मुक्त करने के लिये बजाय इसके कि किसी दूसरे को भेजे, खुद ही हाथ में फरसी (कुल्हादा) लेकर पिता की ओर चला । जब पिता ने इसको पाता हुआ देखा तो सोचा कि मुझे इसने पिंजरे में तो पहले ही बंद कर दिया है पर अब तो बध (मारना ) करने को आ रहा है, न जाने पुत्र मुझे किसे कुमौत से मारेगा । इससे तो अच्छा है कि मैं स्वयं ही मर जाऊँ । राजा ने अपने पास की हीर कणी ( विषयुक्त ) खाकर तत्काल ही प्राण छो दिया । जिसको देख कूणिक ने पाश्चाताप किया। पर अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत । बाद में क्या हो सकता था ? कूणिक के पूर्वभव में पिता के साथ ऐसे ही कर्म बन्धे हुए थे। अतः जीवन में बडा से बडा कलंक लग गया पर अब उपाय भी क्या हो सकता था ! जब कभी राजा कूणिक राज्यसभा में आकर बैठता तो अपने पिता का स्थान देखकर अपने मन में ७२४ मगददेश राजा कूणिक Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६८२ - ६९८ बड़ी चिंता करता था? और उसका मन भी नहीं लगता था। अतः उसने अपनी राजधानी अंगदेश की चम्पानगरी में ले जाना उचित समझा । जब राजा अपनी राजधानी चम्पा नगरी में ले गया तो कूणिक के लघु भ्राता विल्ल कुमार जो कि अपने माता पिता की मौजूदगी में राज के हिस्से के बदले हार हाथी (जिसकी कथा राजा श्रेणिक के जीवन में लिखी गई है) दे दिये थे ! वह भी अपना परिवरादि माल स्टाक और हार हाथी लेकर चम्पानगरी में चला गया । विहल्लकुमार और उसकी रानी हार एवं हस्ती से भली प्रकार ऐश-आराम करने लगे, कभी २ नदी पर जाते और हस्ती के जरिये जल मन्जन ब जल क्रीड़ा करते थे जिसकी प्रशंसा नगर में चारों ओर फैल गई थी । कूणिक की रानी पद्मावती ने वह हाल सुन धार हाथी मंगानें के लिये कूणिक से कहा । पहले तो कूणिक ने इन्कार कर दिया और कहा कि वह भी मेरा छोटा भाई है । माता-पिता का दिया हुआ हार हस्ती लेना ठीक नही है । पर जब रानी ने बहुत आम्ह किया तब कूणिक ने विहल्ल कुमार को राजदूत द्वारा कहलाया कि राज में जो रत्न होता है उसका मालिक राजा ही होता है इस लिये हार हस्ती को भेज दो । इसके उत्तर में विहल्ल कुमार ने कहलाया कि श्रव्वल तो श्राप बृद्ध भ्राता, दूसरे पिता की दी हुई चीज है अतः श्राप को हार-हस्ती लेना नहीं चाहिये । यदि आप ऐसा न कर सके तो हार-हस्ती के बदले में मुझे आधा राज दे दें। पर कूणिक ने इसको मंजूर नह किया और वार वार द्वार हस्ती के लिये तकाजा किया। विइल्ल कुमार ने सोचा कि जिसने पिता को पिंजरे में बंद कर दिया तो मैं क्या विश्वास रख सकता हूँ। वह समय पाकर हार-हस्ती और माल सामान लेकर नगर से निकल वैशाला नगरी के राजा चेटक के ( जो खुद की माता के पिता अपने नाना लगते थे ) शरण में चला गया । जब इस बात की खबर राजा कूणिक को मिली तो कूणिक ने राजा चेटक पर पत्र लिखा कि आप हमारे नानाजी हैं, बुजुर्ग एवं राजनीति के अनुभवी हैं। विल्ल कुमार मेरी बिना आज्ञा हार-हस्ती लेकर आपके यहाँ आया है । आप उसको समझा बुझा कर हार हस्ती के साथ वापिस भेजदें । इस तरह का पत्र लिख कर राजा चेटक के पास भेज दिया । राजा चेटक ने पत्र पढ़ा और जबाब में लिखा कि मेरी दृष्टि में तो जैसे चेलना का पुत्र विहरलकुमार है वैसे तुम परन्तु न्याय की दृष्टि से पहिले तो तुम्हारे मा बाप का दिया हुआ हारहस्ती लेने में शोभा नहीं देता यदि तुम लेना चाहो तो आधा राज देना इन्साफ की बात है । जब यह पत्र राजा कूणिक ने पढ़ा तो बड़ा गुस्सा आया और फौरन लिख दिया कि या तो विल्लकुमार और हारहस्ती को भिजवादो वरना युद्ध करने के लिये तैयार हो जाओ । राजा चेटक न्यायाशील था शरण में आये हुए विद्दल्ल कुमार को वापिस भेजना ठीक न समझा पर कूणिक की अपेक्षा चेटक पास सेना कम होने की वजह से काशी कौशल वगैरा १८ राजाओं को बुला कर सलाह पूछी तो उन्होंने कहा कि विल्लकुमार का पक्ष न्याय एवं सत्य का है अतः यदि युद्ध करना पड़े तो हम आपके साथ हैं । बात ही बात में युद्ध छिड़ गया । कूणिक राजा १० भाइयों व ३३ हजार गम, अश्व, रथ अनगिनती पैदल सेना के साथ तथा राजा चेटक के ५७ हजार गज, अश्व, रथ, और अनगिनती पैदल सेना के साथ युद्धस्थल में आ गये। पहिले दिन के युद्ध में राजा चेटक द्वारा कालीकुमार मारा गया (राजा चेटक को देवी का वरदान था कि राजा का बाण खाली न जाय ) दूसरे दिन के युद्ध में सुकाली, इस प्रकार दस दिन में दस भाई मर गये अब तो कूणिक अकेला रह गया । इस हालत में कूणिक ने अष्टम तप कर देवता की आराधना हार हाथी के लिये भयंकर युद्ध ७२५ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की यदि किसी ने पूर्व भव में मुझे वचन दिया हो तो इस समय मेरी सहायता करे, इससे बचनबद्ध शक्रेन्द्र और चपरेन्द्र दो इन्द्र आये और कूणिक को बहुत समझाया कि एक तो तुम्हारा छोटा भाई और दुसरे नानाजी इत्यादि इस युद्ध में कुछ भी सार नहीं है पर अभिमान के गज पर चढ़े हुए कूणिक ने किसी की भी नहीं सुनी अतः वचनवद्ध होकर दोनों इन्द्रो ने कूणिक को मदद दी । पहिले दिन के युद्ध में एक हस्ती पर चमरेन्द्र और कूणिक सवार होकर युद्ध किया जिसमें ८४,००,००० आदमियों के प्राण गये। दूसरे दिन शक्रेन्द्र चपरेन्द्र और कूणिक एक दूसरे हस्ती पर सवार होकर युद्ध किया जिसमें ९६,००,००० श्रादमियों के प्राण गये । बस ! चेटक की सेना ठहर न सकी वे सब वैशालानगरी में जाकर नगरी के दरवाजे बन्द कर दिये । वैशाला में एक मुनिसुव्रतदेव का स्तूप था जिसके प्रभाव से कि कूणिक वैशाला को भंग नहीं कर सका और कई दिन सेना सहित नगरी के चारों ओर घेरा डाल कर पड़ा रहा । विहल्लकुमार रात्रि के समय अचानक हस्ती पर सवार होकर, कूणिक की फौज में आता था और बहुत सी फौज को करल कर चला जाता । जब कूणिक को इस बात का पता लगा तो उसने रास्ते में एक आड़ी खाई खुदा कर उसके अंदर आग लगा कर ऊपर से ढांकदी। दूसरे दिन जब विहल्ल कुमार श्रआया तो उसको यह मालूम नहीं हुआ परन्तु इस्ती को जातिस्मरण ज्ञान होने से वह जान गया और आगे पैर रखने से हस्ती रुक गया इस पर बिहल्लकुमार ने अंकुश लगाते हुए कहा कि अरे हस्ती तेरे लिये इतना अनर्थ हुश्रा और तू इस समय आगे बढ़ने से क्यों रुक गया है ? इस पर हाती ने अपनी सूढ़ से विहल्लकुमार को एक किनारे रख कर आप आगे बढ़ा ज्यों ही वह भाग में ना पड़ा । जिसको देखते ही विहल्लकुमार समझ गया । वह हस्ती के लिये पश्चाताप करने लगा। इतने में आस पास के देवता विहल्लकुमार को उठा कर भगवान् महावीर के संमवसरण में रख दिया। बिहल्लकुमार ने भगवान महावीर से दीक्षा ले ली। देव रूपी हार देवता ले गये । हरती आग में जल करमर गया। जिस हार-हाथी के लिये करोड़ों के प्राण गये उन दोनों वस्तुओं की समाप्ती भी हो गई । तब भी कूणिक वहाँ से नहीं हटा । कूणिक ने एक निमितिया को पूछा कि मैं विशाला नगरी को भंग कैसे कर सकूगा । उसने कहा कि इस नगरी में मुनिसुव्रतदेव का स्तूप है। इसके गिरने पर ही नगरी का भंग हो सकेगा। इस पर एक वेश्या द्वारा गुरु प्रत्यनिक साधु को बुला कर वेशाला के स्तूप को गिरवा करके वैशाला का भंग करवाया । गजा चेटक एक कुवा में गिर रहा था उसको देवता उठा कर देव भवन में ले गये । वहाँ १५ दिन का अनशन करके स्वर्ग चला गया । कूणिक ने वैशाला का राज अपने देश में मिला लिया । राजा चेटक के पुत्र शोभनराव था। जो अपनी सुसराल कलिंग की राजधानी कंचनपुर में चला गया कलिंग पति के पुत्र न होने से आपने अपना राज शोभनराय को दे दिया। इस युद्ध के सम्बन्ध की एक बात भगवती सूत्र ७ उद्देश्य ९ में आती है वह ऐसी है कि वह एक समय गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि हे भगवान् ! बहुत से लोग कहा करते हैं कि युद्ध में लोग वीरता से मरते हैं वे सब देवता के रूप में उत्पन्न होते हैं। भ० महावीर ने उत्तर दिया कि यह बात मिथ्या है। हाँ किसी जीव के शुभाध्वशय रहता है वह मर कर देव हो सकता है। हे भगवान् ! चेटक कूणिक के युद्ध में लाखों मनुष्य मरे हैं उनकी क्या गति हुई होगी ? कूणिक के युद्ध में इन्द्रों की सहायता Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६८२-६९८ हे गौतम ! दस हजार जीव तो एक मछली की कुक्ष में पैदा हुए एक जीव देवता में और एक जीव मनुष्य योनि में और शेष जीव नरक तिपंच गति में उत्पन्न हुए हैं। हे भगवान । युद्ध में मर कर देवता में कौन गया ? हे गौतम--मैं सुनाता हूँ तू ध्यान लगा कर सुन । राजा चेटक के सामंतों में एक वर्णनागनतुपा भी था और वह जैनधर्म का एक व्रत धारी भावक भी था। उसकी प्रतिज्ञा थी कि मैं छठ-छठ ( दोदो दिन के अन्तर से भोजन करता तप करता रहूँ परन्तु जिस दिन छठ का तप था उसी दिन राजा चेटक का संदेश पाया कि कल तुमको संग्राम में जाना होगा। इस पर वर्णनागनतुआ ने अपने मन में सोचा कि एक तो मालिक का नमक खा रहा हूँ उसको हराम न करके हलाल करना है। दूसरे युद्ध में जाना है और वहाँ पर जीवन --मरण का सवाल है । अतः आज छठ का पारणा न करअष्टम का निश्चय कर लेना चाहिये क्योंकि पारणा करने पर शरीर भारी पड जायगा इतना काम नहीं होगा इत्यादि विचारों से उसने अष्टम का व्रत कर लिया और अपनी सेना लेकर युद्ध स्थल पर आ गया। उस वर्णनागनतुआ के एक बाला मित्र भी था। उसका यह नियम था कि जो यह मित्र कहे एवं करे वैसा ही करना जो उसको फल होगा वह मुझे भी होगा। यह सब धार्मिक क्रिया मित्र के साथ किया करता था वह भी अपनी सेना को साथ लेकर युद्ध में चला गया। जब युद्ध आरम्भ हुआ तो वर्णनाग नतुश्रा के विपक्षी ने कहा वर्ण तू श्रावक है तेरे पर मुझे दया पाती है अतः तू तेरा वाण चलाले नहीं तो तेरे मन की मन में रह जायगी १ वर्ण ने जवाब दियाकि मुझे बिना अपराध किसी को मारना नहीं कल्पता है यह कहते ही प्रतिपक्षी को गुस्सा आया और खेंच कर जोर से वाण चलाया कि वर्ण के कलेजे में लगा इस पर वर्ण ने वाण चलाया जिससे प्रति विपक्षी का प्राण छूट गया इस हालत में संग्राम बन्द हो गया । वर्ण अपना रथ लेकर एकान्त स्थल में आया रथ से अश्वों को मुक्त कर आपने एक धूलि की वेदिका बनाई उस पर सूर्य सन्मुख बैठ कर भगवान महावीर को नमस्कार करके कहा कि पहले भी मैंने भगवान महावीर के समीप श्रावक के बारह व्रत लिये थे और इस समय भी भगवान महावीर को साक्षी मे यावत् जीव व्रत ग्रहन एवं चार श्राहार-अठारह पापों का सर्वथा त्याग करता हूँ। अर्थात् अन्तिम जीवन तक अनशन कर लिया बाद अपने शरीर में से लगा हुआ वाण खेंच कर निकाल दिया जिससे वर्ण के प्राण पखेरू उड़ गये। वे वहां से मर कर देव योनि में उत्पन्न हुए । इसी प्रकार वर्ण के बाल मित्र का हाल हुआ वह जानता तो कुछ नहीं था पर उसके भी वाण लगा और एकान्त स्थल में आकर वर्ण के माफिक सब क्रिया करके कहा कि जैसा मेरे मित्र को हुआ वैसा मुझे भी होना। वह मर कर मनुष्य योनि में उत्पन्न हुए नजदीक में रहने वाले देवताओं ने वर्णनागनतुश्रा के अनशनपूर्वक मृत्यु के कारण उसके शरीर पर सुगन्धी पुष्प जल बरसा कर महोत्सव किया जिससे इतर लोग कहने लगे कि वीरता के साथ मरने वाले देव गति में उत्पन्न होते हैं । वास्तव में देवता होना युद्ध का कारण नही पर शुभाध्व साय से ही देव होने का कारण है। राजा कूणिक एक वीर राजा था । आपने अपने पिता णिक के विशाल साम्राज्य की सीमा को कम न की बल्कि बढ़ाई थी। मगद और अंग तो पहले से ही अपने अधिकार में थे पर वैशाला के राज को मगद के राज में मिला लिया था इससे उत्तर भारत में सर्वत्र आपकी आज्ञा चलने लग गई थी । राजा वर्णनागनतुआ का युद्ध में स्वर्गवास ७२७ Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कूणिक ने दक्षिण भारत को विजय करने का प्रयत्न भी किया था पर उत्तर भारत से दक्षिण भारत में जाने के लिये सीधा रास्ता नहीं था। क्योंकि बीच में विंध्यांचल पर्वत था। राजा कूणिक ने उस पर्वत को तोड़ कर मार्ग निकालने की कोशिश की थी मगर श्राप उसमें सफल नहीं हो सके क्योंकि आपकी आयु: ने श्रापका साथ नहीं दिया । राजा कूणिक जैसे अपने साम्राज्य बढ़ाने में प्रयत्न शील था वैसे ही जैन धर्म के प्रचार को बढ़ाने में भी था। राजा कूणिक भगवान महावीर का परमभक्त था । इतना ही नहीं बल्कि राजा कूणिक का तो ऐसा नियम था कि जब तक भगवान महावीर कहाँ बिराजते हैं, खबर न मिले अन्न जल ग्रहण नहीं करता था । एक समय भगवान महावीर चम्पा नगरी की ओर पधारे। राजा कूणिक ने श्रापका इस प्रकार स्वागत किया कि जिसका विस्तृत वर्णन श्रीउबबाई सूत्र में किया है तथा मारहूत नगर के पास एक विशाल स्तूप भी बन वाया था जो आज भी अजातशत्रु के स्तूप के नाम से प्रसिद्ध है । राजा कूणिक ने नये मन्दिर बनवाये वैसे ही जीर्ण मन्दिरों की भी मरम्मत करवाई और शत्रुञ्जवादि तीर्थों की यात्रार्थ श्रंग एवं मगद से एक विराट संघ भी निकाला था । इत्यादि राजा कूणिक का जीवन विस्तृत है । कई लोग राजा कूणिक को वौद्ध धर्मी भी कहते हैं। और बोद्ध धर्म के ग्रंथों में बुद्धदेव के भक्त राजाओं के नामों में अजातशत्रु का भी नाम आता है इत्यादि । बोद्ध ग्रंथों में उनके भक्त राजाओं की नामा• वाली में कई जैन राजाओं के नाम भी लिख दिये हैं वह केवल अपने धर्म की महिमा बढ़ाने के लिये ही लिखा है खैर अजातशत्रु के विषय बौद्ध ग्रंथों मे ऐसे भी उल्लेख मिलता है कि बुद्धदेव और अजातशत्रु आपस में कैसा व्यवहार था जैसे कि बुद्ध के एक देवदश नाम का शिष्य था वह किसी कारण से बुद्ध से खिलाफ हो गया था और वह एक दिन अजातशत्रु के पास जाकर कहा कि आप अपने मनुष्यों को हुकम दें कि बुद्ध को मारू उसमें मदद दें इस पर राजा श्रजातशत्रु ने अपने श्रादमियों को ऐसा ही हुक्म दे दिया। यह तो हुए श्रजातशत्रु के बुद्ध प्रति भाव' । अब बुद्ध के भावों को देखिये एक दिन बुद्ध अपने भिक्षुकों कह रहा है कि भिक्षु ! प्रतिष्ठित राजकन्या का पुत्र मगद का राजा श्रजातशत्रु ! पाप का सहोदर और साक्षी है। पाठक ! सोच सकते हैं कि क्या परस्पर ऐसे विचार एवं भाव रखने वाले गुरु शिष्य कहला सकते हैं। कदापि नहीं । शायद अजातशत्रु कभी बुद्ध के पास चला गया हो और उन लोगों ने अपने भक्त राजाओं की नामाबली में उनका भी नाम लिख दिया है। तो कागज कलम स्याही उनके घर की ही होगा । पर श्रजातशत्रु जैनधर्मी होने के पुष्ट प्रमाण जैन साहित्य में विस्तृत संख्या में मिलते हैं । इनके अलावा उसने वीरस्तूप के पास अपनी ओर से स्तम्भ बना कर शिलालेख खुदवाया वह अद्यावधि विद्यमान है । ८ - राजा उदाई — कूणिक के बाद राजा उदाई राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए । राजा उदाई बड़ा ही वीर था । इसने राज की सीमा अपने बापदादों से भी श्रागे बडादी थी। राजा श्रेणिक ने गिरिवृज से अपनी राजधानी हटा कर राजगृह नगर बसा कर वहाँ कायम की। तब कौणिक ने अपनी राजधानी अंग देश की चम्पा नगरी में स्थापना की और राजा उदई को चम्पा नगरी पसंद नहीं आई। इस े अपनी राजधानी के लिये एक नयानगर बसाना चाहा। राजा की आज्ञा से मन्त्रियों ने भूमि की तलाश करने की जंगलों में घूम 1. Vinaya taxts, pt. iii, c, 243. 2. Rhys davids (Mrs) op. cit., e. 109. ७२८ कूणिक राजा किस धर्म को मानता Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६८२ - ६९८ घूम कर तलाश करते हुये एक जंगल में श्राये जहाँ पटली के वृक्ष बहुत थे । एक वृक्ष पर एक पक्षी मुँह खोल कर बैठा था तो अन्य जीव उसके मुंह में आ आ कर पड़ जाते थे । मन्त्रियों ने सोचा कि यह जंगल सुन्दर और अच्छा है । जैसे पक्षी के मुंह में बिना परिश्रम भक्ष आता है उसी प्रकार अपने राजा के राज में बिना परिश्रम ही अन्य राज श्राया करेंगे । ये सब हाल जाकर राजा उदई को कहा तो राजा ने वहाँ नगर बनाने का हुक्म दे दिया । बस ! फिर क्या देरी थी, थोड़े ही वर्षों में वहीँ सुन्दर नगर बन गया जिसका नाम पाटलीपुत्र रख दिया । राजा उदई अपनी राजधानी पाटलीपुत्र में ले गया। राजा उदई ने पाटलीपुत्र में एक विशाल जैन मन्दिर भी बनवाया जिसमें भगवान नेमिनाथ की मूर्ति स्थापना करवाई तथा वहाँ से शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रार्थ एक विराट संघ निकाल कर नगर निवासियों एवं भावुकों को तीथों की यात्रा करवाई । ई० सं० १८८२ में पाटलीपुत्र ( पटणा ) के पास खुदाई का काम करवाते समय यक्ष की दो मूर्तियां निकाली जिनको कलकत्ता के म्युजियम ( अजायबघर ) में भारहूत गेलरी विभाग में रखी हुई हैं । सर केनिंगहोम का मत यह है कि मूर्तियां सम्राट अशोक के पूर्व की नहीं है पर जयसवालजी ने कहा कि ये दोनों मूर्तियें अशोक के पूर्व की हैं जिसका कारण वे बतलाते हैं कि पुराणों में राजा उदई को ज और नंद को अजय कहा है । जब उनके सिक्कों पर एक ओर श्रज और दूसरी ओर सम्राट नाम खुदा हुआ है । इससे यह माना जा सकता है कि ये दोनों मूर्तियाँ राजा उदई के समय की बनी हुई होंगी । राजा कूणिक का जो काम दक्षिण भारत को अपने राज में मिला लेने का था उसको राजा उदई ने पूरा करने की इच्छा की । अतः राजा उदई ने नागदशक सेनापति जो बड़ा वीर था द्वारा अपनी सेना सुसज्जित करवाई | राजा उदई ने स्वयं सेना के साथ विजय की आकांक्षा करते हुए प्रस्थान कर दिया और क्रमशः विजय करते हुए दक्षिण के अन्त तक पहुँच गया । राजा उदई ने अपने पुत्र श्रनिरुद्ध और नागदशक की वीरता पर प्रसन्न होकर आगे सिंहलद्वीप जाने की भी आज्ञा दे दी। और उनकी विजयी सेना ने लीला मात्र में सिंहलद्वीप के राजा विजय को विजय कर सिंहलद्वीप को अपने अधिकार में कर लिया। वहां पर राजधानी के लिये नयानगर बना कर, राजकुंवर की विजय की स्मृति के लिये नये नगर का नाम अनुरूद्रपुर नगर रख दिया। इसके बाद वहाँ का प्रबन्ध एक सुयोग्य व्यक्ति को सुपुर्द कर सेना सहित सब लौट कर अपने देश आगये । इस विजय यात्रा में कई दश वर्ष जितना समय लग गया । राजा उदई के शासन में राज सीमा सिंहलद्वीप तक फैल गई थी । उसी प्रकार व्यापार में भी आशातीत उन्नति हुई। राजा ने अपने नाम के सिक्क े भी चलाये और देश वासियों को सब तरह से उन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया था इस भूपति का सम्बन्ध केवल भारत के नरपतियों के साथ ही नहीं था बल्कि पाश्चात्य देशों के राजाओं के साथ भी था । इस देश के विद्वान् पाश्चात्य प्रदेशों में जाते थे और उधर के विद्वान् इस देश में आकर राजा के अतिथि बनते थे । कला कौशल की भी उस समय अच्छी उन्नति हुई थी अर्थात राजा उदई के राज की सीमा उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक फैल गई और आपने शान्ति पूर्ण राज किया। अपना जीवन बड़ी ही शान्ति से व्यतीत किया। इतना ही नहीं बल्कि आपने अन्तिम अवस्था में पाप का प्रायश्चित करने के निमित्त यात्रार्थ निकल गये थे और आपकी जीवन यात्रा भी उसी यात्रा में समाप्त हो गई थी । मगदेश राजा उदाद का जीवन ७२९ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जैन प्रन्थों में राजा उदाई की मृत्यु एक दुष्ट के षडयंत्र द्वारा खून से हुइ लिखी है। राजा उदाई के पुत्र नहीं था अतः राजा उदाई के साथ शिशुनाग वंश का अंत हो गया और मगद की गद्दी पर राजा नंद का अधिकार हो गया था पर शाह त्रिभुवनदास लेहरचन्द बड़ौदा वाले ने अपने प्राचीन भारतवर्ष पुस्तक पहला पृष्ठ ३०७ पर लिखा है कि दुष्ठ व्यक्ति के षडयंत्र द्वारा मृत्यु शिशुनाग वंशी राजा उदाई की नहीं हुई थी और वह अपुत्रीय भी नहीं पर उसके दो पुत्र थे अनुरुद्ध और मुंदा इन दोनों पुत्रों ने मगद की गद्दी पर आठ वर्ष तक शासन किया था तब वात्सपति राजा उदाई अपुत्रीय था और उसकी मृत्यु एक षड्यंत्र एवं खून द्वारा हुई जबकि शाह का कहना है कि मगदेश्वर राजा उदाई के मृत्यु के बाद उदाई के पुत्र रुद्ध ने मगद पर आठ वर्ष तक शासन किया । और राजा श्रनुरुद्ध ने सिंहलद्वीप में भगवान महावीर का एक स्तूप भी बनवाया था । और भी उसने धार्मिक कार्य किये थे । जव इस प्रकार राजा धर्म की उन्नति करने वाले होते हैं तभी तो धर्म की प्रभावना होती है । भगद के सिंहासन पर शिशुनाग वंश के अन्तिम राज्य राजा मुंदा का हुआ और इसके ही समय में मगद देश का राज कमजोर हो गया था क्योंकि राजा मुंदा राज की सार संभाल की अपेक्षा भोग विलास में अधिक रक्त विलासी हो गया था । कहा जाता है कि जब इसकी रानी की मृत्यु हो गई थी तब से वह रानी के प्रेम में इतना मुग्ध हो गया कि रानी की लाश तक को नहीं उठाने दिया । इस हालत में मगद जैसे साम्राज्य का रक्षण कैसे हो सकता है ? यही कारण कि बहुत राजा स्वतंत्र बन गये। कई आदमियों को जो बहुत विश्वसनीय थे जो सूबों पर रखे गये थे वो भी स्वतंत्र होकर वहां के शासक बन गये । अर्थात् सुंदा समय मगद साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया । इस हालत में राजा का सैनापति शिशुनागवंशी नागदशक था वह मगद के सिंहासन पर राजा बनकर राज सत्ता अपने हाथ में ले ली । राजा मुंदा के साथ शिशुनाग वंश का अन्त होगया । इस घटना का समय भगवान महावीर निर्वाण के ६०वर्ष बाद का था । अर्थात् ई० सं० पूर्व ४६७ वर्ष का था। यहां तक शिशुनाग वंश के १० राजा हुए और इनका समय ३३३ वर्ष जो वायु पुराण में लिखे हुआ हैं नागदशक के सिक्कों पर नाग (सर्प) का चिन्ह होने से वह भी नागवंश का ही था ऐसा निर्णय सहज ही में हो सकता है । सेनापति नागदशक भी शिशुनाग वंश का ही वीर था पर यह लघु शाखा का होने से इसको नाग वंशी कहते थे। जब नागदशक ने मगद का साम्राज्य अपने अधीन कर लिया। तब से आपको नंदिवर्धन के नाम से पुकारा जाने लगा । और इसके पीछे जितने राजा मगद की गद्दी पर बैठे थे वे सब नंद वंश के नाम से ओलखाये जाने लगे । १ - नंदवर्धन - यह गजा उदाई के शासन समय से ही सेनापति के पद पर नियुक्त था और राजा उदाई - अनुरुद्ध ने जो देश विजय किये थे इसमें मुख्यतया सेनापति नागदशक की सहायता थी अतः नागदशक एक वीर पराक्रमी योद्धा था जब मगदपति बना तो राजा मुंदा के शासन में फैली हुई अराजकत की व्यवस्था करना सबसे पहले हाथ में लिया । और जो जो राजा स्वतंत्र हो गये फिर वापिस मगद की सत्ता में मिला लिया और मगद की राज व्यवस्था ठीक कर ली । राजा नंदवर्धन के मंत्रियों में मुख्य मंत्री कल्पक था वह ब्राह्मण वर्ण का होने पर भी कट्टर जैन धर्मोपासक था । ७३० शिशुनागवंश के बाद नंदवंश का राज - Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६८२-६९८ ___ जैसे शिशु नाग वंश के राजा जैनधर्मी थे वैसे ही नंदवंशी राजा भी जैन धर्मोपासक ही थे । इस विषय में अब अधिक लिखने की आवश्यकपा नहीं रही है क्योंकि इतिहासकारों ने यह स्पष्ट कर दिया कि नंदवंशी राजा ब्राह्मण धर्म के खिलाफ थे । जब ब्राह्मणों के खिलाफ थे तो वे जैनधर्मी ही थे । इसका विशेष प्रमाण यह है कि नंदवंशी राजा ने कलिंग पर चढ़ाई की और वहाँ के धन माल के साथ कलिंग जिन अर्थात् खंड गिरी पहाड़ी (कुमार-कुमारी पर्वत जो शत्रुजय गिरनार अवतार के नाम से उस प्रान्त में मशहूर था) पर के जैन मन्दिर से भगवान ऋषभदेव की मूर्ति उठा कर ले गया था इससे स्पष्ट सिद्ध है कि वे नंदवंशी राजा जैन थे दूसरा एक यह भी प्रमाण मिलता है कि नंदवंशी राजा सब के सब जैनधर्मोपासक थे। प्रमाण के लिये देखिये-Smith's Early History of India Page 114. में और डाक्टर शेषागिरिराव ए. ए. एण्ड आदि मगध के नन्द राजाओं को जैन होना लिखते हैं, क्योंकि जैनधीं होने से वे आदीश्वर भगवान की मूर्ति को कलिङ्ग से अपनी राजधानी में ले गये थे। देखिये South India Jainism Vol. 11 Page 82. ___ महाराजा खारवेल के शिलालेख से स्पष्ट पाया जाता है कि नंदवंशीय नृप जैनी थे । क्योंकि उन्होंने जैन मूर्ति को बलजोरी ले जा कर मगध देश में स्थापित की थी। इससे यही सिद्ध होता है कि यह घराना जैनधर्मोपासक था ये राजा सेवा तथा दर्शन श्रादि के लिए ही जैन मूर्ति ला कर मन्दिर बनवाते होंगे । जैन इतिहासवेत्ताओं ने विश्वासपूर्वक लिखा है कि नन्दवंशीय राजा जैनी थे। "पारस मे च वसे ... 'सेहि वितासयति उतरपथराजानो..... 'मगधानं च बहुलं भयं जनेतो हथि सुगंगाय पाययति [0] मागधंच राजानां वहसतिमितं पादे वंदापयति [1] नंदराज नीतंच कलिंग जिन संनिवेस' । गहरतनान पडिहारेहिं अंगमागध वसुंच नेयाति [1] "कलिंग की हाथों गुफा का शिलालेख" यह शिलालेख स्पष्ट बतला रहा है कि नंदवंशी राजा जैनी थे । इनके अलावा तित्थोगाली पइन्ना में उल्लेख मिलता है कि पुष्पमित्र ने नंदों के करवाये पांच स्तूप देख कर लोगों से पूछा कि यह स्तूप किसके हैं और किसने बनाये ? इस पर लोगों ने कहा महा बलवान नन्द गजाओं ने यह स्तूप बनाये तथा इनके अन्दर बहुतसा धन है, अतः पुष्पमित्र ने उन स्तूपों को खुदवा कर धन निकाल लिया । देखिये निम्न लिखित गाथाए। "सो अविणय पज्जतो, अण्णनरिन्दे तणं पिंव गणंतो, नगरं अहिडंतो पेच्छीहि पंच थूभेउ ॥ पुढायवेंतिभणुझा नंदोराया चिरं इहं आसि, बलितो अत्थसमिद्धा स्वसमिद्धा जससमिद्धा ।। तेण उइहं हिरणं निखितंसि बहुबल पमत्तणं, नयणं तरांति अण्णे रायाणो दाणि धित्त जे ॥ तं वयणं सोउणं खणे होति समंत तो ततो थूभं, नंदस्य संतियं तंपरिवज्जइ सो अह हिरण्णं ॥ नन्दवंशी राजा नन्दवर्धन का मन्त्री कल्पक ब्राह्मण जाति का होता हुआ भी जैन धर्मोपासक था उसकी परम्परा में जैन धर्म का पालन करते हुए अन्तिम नन्द राजा के समय शकडाल नाम का मंत्री हुआ बह भी करनेन था। इसके दो पुत्र और सात पुत्रियां थी जिनमें बड़ा पुत्र स्थूलिभद्र और सात पुत्रियों ने जैनधर्म नन्दवंशी राजा जैनी थे ७३१ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की श्रमण दीक्षा ली थी। जिस राजा के ९ पीढ़ी तक जैन धर्मोपासक मन्त्री होते आये हैं वे राजा दूसरे धर्मावलम्बी कैसे हो सकते हैं ? प्रमाणों के लिए निम्न लिखित प्रमाण पढ़ें। नन्दवंशी राजा जैनधी होने के कारण ब्राह्मण हमेशा उनके खिलाफ रहते थे । इतना ही नहीं बल्कि ब्रामणधर्म के पुराणों में नन्द राजाओं को शूद्र वर्ण के नाम से लिखा है। जिसको हमने ऊपर लिख दिया है कि नन्द वंश का मूल पुरुष नागदशक शिशु नागवंशी राजाओं का दसवां पुरुष था अतः वे विशुद्ध क्षत्रिय वर्ण के ही थे । और इनका लग्न शादी भी क्षत्रियों के साथ हुए थे जैसे नागदशा का विवाह वत्सपति राजा उदई की पुत्री के साथ हुआ था समझ में नहीं आता कि पुगणकारों ने नन्दवंशी राजाओं को शुरू से ही शूद्र वर्ण क्यों लिख दिया है। राजा नन्दवर्धन के शासनकाल में कुछ जबरदस्त घटनायें घटी थी। एक अनावृष्टि और दूसरी अतिवृष्टि, अनावृष्टि के समय राजा नन्द वर्धन एक नहर मगध में लाया था जो राजा खारबेल के हस्तीगुफा के शिलालेख से पाया जाता है क्योंकि इसी नहर से राजा खारबेल एक नहर अपने कलिंग में ले गया था। दूसरे अतिवृष्टि की घटना जो शोण गंगा नदी के अन्दर ऐसी बाढ़ आ गई थी कि पाटली पुत्र की खैर नहीं थी यदि जैन मन्त्रों द्वारा शान्ति नहीं करवाई होती। श्रीमान् शाह के लेखानुसार अति वृष्टि का समय भगवान महावीर के निर्वाण के बाद ५९ वर्ष के और अनावृष्टि का समय मह वीर के ६४ वर्ष बाद का था राजाओं के सिक्का भी मिले हैं जिससे पता चलता है कि वे कट्टर जैनधर्मी थे। २-महापद्मानन्द-यह नन्दवर्धन राजा का पुत्र था आपका उत्तराधिकारी भी था। उसके शासन समय में बौद्धधर्म की महासभा वैशाला नगर में हुई थी जिसमें महाराज पद्मानंद की विशेष मदद थी दूसरा एक सामाजिक परिवर्तन भी इसके राज के समय में हुआ। राजा श्रेणिक के समय में चारों वर्गों में बेटी लेन देन का रिवाज था पर श्रेणिक ने धंधा रुजगार के पोछे पृथक २ श्रेणियें बना दी थी। इससे उच्च श्रेणी वाला अपने से हलकी श्रेणी वाले को पुत्री देने में संकोच करने लगे। और ब्राह्मणों के प्रयत्न से यह प्रथा दिन ब दिन मजबूत बनती श्राई पर, इधर जैनों एवं बौद्धों ने शुरु से वर्ण जाति बन्धनों को तोड़ कर सब के लिये मार्ग साफ कर दिया था तथापि ब्राह्मण रुढ़ि थोड़ी बहुत चलती ही थी। इधर राना पद्मानंद जैन था । उसने ब्राह्मणों की अनुचित प्रथा को उन्मूलन करने के लिये कई शुद्र जाति की कन्याओं के साथ लग्न करके जनता पर अपना प्रभाव डाला। राजा महापद्म की क्षत्राणियों से ६ पुत्र और शूद्रानियों से ३ पुत्र हुए जिनमें क्षत्राणी से पैदा हुए ६ पुत्र क्रमशः मगद की गद्दी पर राजा, हुए परन्तु उनका मन बहुत ही कम चला बाद क्षत्रियाणी का कोई पुत्र नहीं था अतः नवमे पट्ट पर महानन्द शुद्राणी से पैदा हुए पुत्र को राज गद्दी पर बिठाया इसलिये उन ६ गजाओं के शासन में ऐसी कोई जानने योग्य घटना नहीं हुई थी अतः महानंद राजा के समय का हाल ही लिखना शेष रह जाता है। ९ वा महानंद गजा-यह महापद्म दूसरे नंद की शुद्राणी का पुत्र था और हस्तनि की वर माला से मगद पति बना था इसके कई नाम थे । नौवां नंद, महानंद धनानंद (धनलोभी) प्रसेन, प्रचण्डानंद -म• ऋषभदेव की मूर्ति- पट्टावलियों से पता मिलता है कि इस मूर्ति को मगदेश्वर बिंबसार ( श्रेणिक ) राजा ने बना कर प्रतिष्ठा करवाई थी। anwarananiwwwwwwwwwwwwwwronarywwwww.. ३२ नंदवंशी राजा जैनी थे Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६८२-६९८ ( स्वभाव के कारण ) मगद में फली हुई शिथिलता को सब से पहले दूर की। इसका महा मंत्री शकडाल था जो पहले नंद का मंत्री कल्पक की वंश परम्परा पर महा बुद्धिमान मंत्री था राजा ने मंत्री की बुद्धि चातुर्य से पंजाब, कम्बोज प्रान्तों को विजय कर अपने अधिकार में कर लिया। पहले से बहुत असें इतनी शहन शाहियत के श्राधीन थे महानंद ने उसर हिन्द में त्रिपुटी यानि पाणिनी-चाणक्य--वररुचि तीन रत्नों को ले आया था। जब कम्बोज कश्मीर की सत्ता महानन्द की हाथ में आई तो वहां की स्वर्गसदृश तक्षशिला भी इनकी हकूमत में आ गई । वहां पर एक महा विद्यालय भी चलता था। इधर मगद में भी नालंदा नामका महा विद्यालय भी चलता था । महानन्द इन दोनों विद्यालयों का सहायक एवं प्राणदाता था। हम पहले लिख आये हैं कि राजा महानंद धन लोभी था । उसने सुवर्ण एकत्र कर ५ बड़े स्तूप बनवाये थे। कई लोग कहते हैं कि भूमि में पहाड़ जितना खोद कर उसमें सुवर्ण भर दिया था। उसके ऊपर स्तूप बनवाये थे । जो नन्दों के अन्दर सबसे अधिक समय इस महा-वीर का राज चला था और इसने अपनी राज सीमा उत्तर से दक्षिण भारत में फैला दी थी यह भी कहा गया है कि सूर्य उदय होकर अस्त भी हो जाता है । यही हाल भूमि के राजा चक्रवतियों का हुआ है । एक दिन नंद वंश का उदय होने का दिन था आज अस्त होने की तैयारियां हो रही हैं इसके लिये निमित्त कारण भी ऐसे ही बन जाते हैं। जिस चाणक्य को पूज्यभाव से मगद में लाये थे वह उसके राज के अस्त का जरिया बन गया। जिसको मौर्यवंश की शुरुआत में लिखा जायगा। श्रीमान् त्रिभुवनदास लेहरचंद बड़ौदा बाले ने 'प्राचीन भारत वर्ष' नामक ग्रन्थ में राजाओं की वंशावलियों तथा उसका समय लिखा है । पाठकों की जानकारी के लिये यहां लिखा दिया जाता है । शिशुनाग वंश के १० राजा नंद बंश के ९ राजा (वि० सं० पू० ८०५ से ) (ई० सं० पूर्व ४७२ से) १-शिशुनाग राजा ६० १-नंदवर्धन राजा २-काकवर्ण , २-महापद्म , ३-क्षेमवर्द्धन, ३-अश्वबोध ,, ४ - क्षेमजित , ४-ज्येष्ठवर्थन ,, ५-प्रसेनजित , ४३ ५-सुदेव , ६-श्रोणिक ६-धनदेव , ७-कूणिक ३२ ७-वृहद्रथ , ८-उदाई , १६ | ८-वृहस्पती मित्र ,, ९-अनुरुद्ध ८९-महानन्द, १०-मुंदा 22Mr or or or १०० + इन बंशावलियों में ओ वर्ष लिखे गये हैं वह अनुमान से ही लिखा मालुम होता है । शिशुनंग तथा नंद वंशी राजा Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २ -- विदह देश - यह विदह देश मगद के पास ठीक पाड़ोस में ही आया है इस देश की राजधानी मथिला नगरी में होना शास्त्रों में लिखा है पर हम जिस समय का इतिहास लिख रहे हैं उस समय विदह देश के राजा चेटक की राजधानी वैशाला नगरी में । राजा चेटक का घराना जैन धर्म को पालन करता था इसके गुरु पार्श्वनाथ के सन्तानिया थे जब भगवान् महावीर का शासन प्रवृत्तमान हुआ तो आप भ० महावीर के भक्त राजाओं में आग्रहेश्वर थे आप गण शतक राजाओं के नायक थे कासी कौशल के अठारह गण राजा आपकी आज्ञा शिर धार्य करते थे यही कारण है कि राजा चेटक और मगदेश्वर कूणिक के आपस में युद्ध हुआ तो काशी कौशल के अट्ठारह गण राजा आपकी मदद में आये थे भ० महावीर के अन्तिम समय राजा चेटक अपने अठारह गए शतक राजाओं के साथ भ० महावीर की सेवा में रह कर पौषध व्रत किया था राजा चेटक के परिवार में एक शोभनराय पुत्र और सात पुत्रियां थीं एक समय किसी प्रसंग पर भ० महावीर ने श्री मुख से फरमाया था कि राजा चेटक के सातों पुत्रियाँ सतियाँ हैं और इसी प्रकार उन्होंने अपने सतीत्व का परिचय भी दिया था पाठक पिछले प्रकरण में पढ़ आये हैं कि उन सतियों ने अपना सतीस व्रत की रक्षा के लिये नाशवान प्राणों की आहूति देदी थी उन सातों सतियों का अधिकार जैन शास्त्रों में बहुत विस्तार से किया है पर मैं तो यह केवल नामोल्लेख कर देता हूँ । प्रद्योतन को 19 १ - प्रभावती – जिसकों - सिन्धुदेश - वितभय पाटण के राजा उदाइ को परलाई २ - शिवादेवी - श्रावन्तिकी - उज्जैन नगरी का राजा चण्ड ३ - न्येष्ठादेवी -- क्षत्री कुण्ड नगर के राजा नन्दीवर्धन को ४ - मृगावती - बत्स देश - कौसम्वी का राजा सन्तानिक को ५ - पद्मावती - अङ्ग देश चम्पा नगरी के राजा दधिवान को ६ - चेलना -- मगद देश - राजगृह नगर के सम्राट् श्र ेणिक को ७ -- सुज्येष्ठा - आजीवन कुवारी रहकर भ० महावीर के पास दीक्षा ले ली । जब राजा कूणिक ने वैशाला कों जीत कर उसके राज को मगद एवं अंग देश में मिला लिया तब चेटक का पुत्र शोभनराय भाग कर कलिंग देश जो अपना शशुराल था चला गया वहाँ के राजा के पुत्र न होने से कलिंग का राज शोभनराय को देदिया जिसकों हम कलिंग के राजाओं में खि आये हैं बस | विदेह देश के राज यहाँ से खत्म हो कर मगद सम्राज्य में मिल गया और शोभनराय की वंश परम्परा कलिंग पतियों के नाम श्रोलखाने लगी है ! ३ - आवन्ती देश -- आवन्ती देश दो भागों में विभाजित था एक पूर्व श्रावन्ती दूसरी पश्चिम वन्ती । पूर्व आवन्ती की राजधानी विदिशा नगरी थी जो उज्जैन नगरी से करीब ८० मील पूर्व में थी तब पश्चिम आवन्ती की राजधानी उज्जैन नगरी में थी। इस आवन्ती प्रदेश के साथ जैन धर्म का घनीष्ट सम्बन्ध रहा है इस प्रदेश के शासन कर्ता सब के सब राजा जैन धर्म के उपासक थे । भगनान् महावीर के शासन समय उज्जैन नगरी में राजा चण्ड प्रद्योतन राज्य करता था उसका विवाह विशाला नगरी के राजा चेटक की पुत्री शिवादेवी के साथ हुआ था इनके अलावा मगधपति वत्सपति के साथ भी चण्ड प्रद्योतन का सम्बन्ध रहा है और सिन्धु सौवीर की राजधानी वितमय पट्टन का राजा उदाइ के साथ भीं इसका सम्बन्ध रहा है उसकों मैं राजा उदाइ के अधिकार में लिखूँगा । ७३४ 17 " "" " विदेह देश का राजा चेटक Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० ६८२-६९८ मगदपति राजा विम्बसार ( श्रोणिक ) के पुत्र एवं मन्त्री अभयकुमार के साथ भी चण्डप्रद्योतन राजा का सम्बन्ध था जिसके लिये जैन शास्त्रों में एक कथा लिखी गई है कि ए समय राजा चण्ड मगद की गजधानी राजगृह नगर पर सैना लेकर चढ़ आया था पर राजा श्रेणिक ने सोचा कि विना ही कारण युद्ध कर लाखों मनुष्यों का संहार करना इसकी अपेक्षा तो राजा चण्ड विना युद्ध किया ही चला जाय तो अच्छा है दूसरा राजा श्रोणिक और चण्ड आपस में साढू भी होते थे । और उस समय अभयकुमार राजा श्रोणिक कों परिणाम करने को आया था पित को चिन्तातुर देख कर कारण पूछा तो गजा ने चण्ड का हाल कहा इस पर अभयकुमार ने विश्वास दिलाया कि आप इस बात की चिन्ता न करे मैं ऐसा ही करूँग कि राजा चण्ड बिना युद्ध किये चला जायगा । राजा श्रेणिक को अभयकुमार के कहने पर सदा श्विास था कारण अभयकुमार बड़ा ही बुद्धि कुशल था। अभयकुमार अपनी बुद्धि चातुर्य से कुच्छ सुवर्णादि द्रव्य लेजा कर गुप्त पने नगर के बाहर और राजा चण्ड की सेना के पास भूमि ये दाट दिया जिसकी किसी को खबर न पड़ी बाद कुमार राजा चण्ड के पास गया और युद्ध सम्बन्धी बातें करनी शुरू की और कहा कि आप हमारे मासाजी लगते हो अतः मैं आपके हित की बात कहने को आया हूँ और वह यह है कि आपकी सेना के मुख्य योद्धे राजा श्रेणिक से रिश्वत लेकर उनके हो गये हैं । शायद आपको धोखा देकर श्रापका अहित न कर डाले मैं आपका शुभचिन्तक हूँ अतः आपको चेता दिया है पर राजा चण्ड को विश्वास नहीं हुआ तव अभयकुमार राजा को साथ लेजा कर पास ही भूमि के अन्दर दाटा हुआ द्रव्य दिखाया जिससे राजा चण्ड को विश्वास हो गया और रात्रि में हस्ती पर सवार होकर एवं भाग कर उज्जैन आ गया और अपने योद्धाओं पर गुस्सा कर उनके लिये दरबार में आने की सख्त मनाई करदी। उधर जप युद्ध का समय हुमा और देखा तो राजा चण्ड का पता नहीं लगा बस बिना नायक की सेना क्या कर सकती है वे योद्धा भी अपनी सेना लेकर उज्जैन की ओर चल धरा । जब उज्जैन आकर राज सभा में जाने लगे तो उन सब को बाहर ही रोक दिये। जब उन लोगों ने राजा से कहलाया कि भाग कर तो श्राप आये और गुस्सा हमारे पर क्यों ? राजा ने कहलाया कि अरे नीच योद्धाओ तुम हमारा नमक खाते हुए भी राजा श्रेणिक से रिश्वत लेकर उनसे मिल गये । क्या तुम मुंह दिखाने लायक हो। इस पर योद्धाओं ने विचार किया कि इसमें हो या न हो मन्त्री अभयकुमार की कूटनीति है अत: उन्होंने राजा से कहलाया कि एक बार हमारी बात तो सुन लीजिये। इस पर राजा ने योद्धाओं को राजसभा में बुलवा कर उनकी सब बातें सुनी जिससे राजा को ज्ञान हुआ कि यह सब अभ कुमार का ही प्रपंच था। मैं उसके धोखा में आकर हाथ में आया सुअवसर गमा दिया इत्यादि । कथा विस्तृत है। श्रावती प्रदेश में जैसे उज्जैन का महत्व है वैसा ही विदिशानगरी का भी महत्व है इतना ही क्यों पर विदिशानगरी जैनों का एक तीर्थधाम था आचार्य महोगिरि और सुहस्ती एक समय विदिशा की यात्रार्थ पधारे थे और कई स्थानों पर तो यह भी लिखा मिलता है कि आचार्य सुहस्ती सूर ने राजा सम्प्रतिको विदिशानगरी में ही धर्म का उपदेश देकर जैन बनाया था इससे पाया जाता है कि राजा सम्प्रति ने अपने राज के समय उज्जैननगरी की राजधानी छोड़ विदिशानगरी में अपनी राजधानी बनाई होगी तब ही तो सुहस्ती सूरि ने विदिशा में राजा को प्रतिबोध दिया था इतना ही क्यों सम्राट अशोक के समय भी विदिशा धन धान से समृद्ध और बहुत से धनाढय ब्यापारी वहाँ व्यापार भी करते थे खुद अशोक एक व्यापारी की कन्या मंत्री अभयकुमार की बुद्धि चातुर्य ७३५ wwwwwwnnnnnnniwwwrnNARARMINARIAAAAnnnnnnn Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२९८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के साथ विवाह करने का उल्लेख इतिहास में मिलता है और उनके पूर्व सम्राट चन्द्रगुप्त ने वहां एक राजमहल बना कर वर्ष में कई समय वहाँ व्यतीत करने का भी उल्लेख मिलता है अतः सम्राट् सम्प्रति ने अपनी राज धानी विदिशानगरी में बनाई हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अब यह सवाल रह जाता है कि विदिशा नगरी में ऐसा क्या था कि उसको इतना महत्व दिया गया ? विदिशानगरी के चार नाम थे १ विदिशा, २ वेशनगर, ३ सांचीपुर, ४ भिल्ला । १- यह नगरी चार दिशाओं की अपेक्ष विदिशा में बसी है इससे विदिशा कही जाती है। २-यह नगरी वेश नदी के किनारे पर बसी है अतः वेशनगर कहा गया है । ३-इस नगरी के पास जैन स्तूपों का संग्रह-संचय होने से सांचीपुरी कही जाती है । ४-वर्तमान में वहाँ एक छोटासा ग्राम रह गया है अतः लोग उसे भिल्सा कहते हैं । एक तो विदिशानगरी में भगवान मह व र के मौजूदगी समय की मूर्ति जिसको जीवित मूर्त कही जाती है दूसरे वहाँ कई छोटे बड़े स्तूप हैं और कई लोग तो भगवान महावीर स्वामि का मोक्ष और शरीर का अग्नि संस्कार इसी स्थान में हुआ बतलाते हैं अतः यह जैनियों का पुनीत तीर्थधाम है और इस प्रकार तीर्थधाम होने से ही जैनाचार्य यात्रार्थ आते थे सम्राट चन्द्रगुप्त ने वहां अपने ठहरने को राजमहल करवाया सम्राट अशोक भी वहां आया था और सम्राट सम्प्रति तो अपनी राजधानी का नगर विदिशा को ही बना दिया था। इस विषय में अधिक टल्लेख हम स्तूप प्रकरण में करेंगे । यहां तो इतना ही कह देना उचित है कि विदिशा एवं साँचीपुर जैनों का तीर्थ धाम अवश्य था इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। ऊपर हम लिख आये हैं कि श्रावंती प्रदेश के साथ जैनधर्म का घनिष्ट सम्बन्ध रहा है आवंती के सिंहासन पर विक्रम पूर्व छठी शताब्दी से विक्रम की चौथी शताब्दि सक के भिन्न २ वंश के राजाओं ने वहाँ राज किया है जिसमें थोड़ासा अपवाद छोड़ कर बे राजा जैनधर्म का पालन एवं प्रचार करने वाले ही थे इस विषय में विस्तृत वर्णन तो श्रीमान् त्रिभुवनदास लहेरचन्द शाह बड़ौदा वाले ने अपने प्राचीन भारतवर्ष के पांच भागों में किया है पर यहाँ स्थानाभाव में उन राजाओं की मात्र नामावली देदेता हूँ। ने० राजाओं के नाम समय कहाँ से कहाँ तक | गजकाल यह समय श्रीमान् शाह पुनिक ई० स० पूर्व ५९६-५७५ की पुस्तक अनुसार दिया गया है शायद इसमें चण्ड प्रद्योतन ५७५-५२७ अन्य लेखकों का मत भेद भी हो। पालक ५२७-५२० | दतिवर्धन ५२०-५०१ श्रावंतीसेन ५०१-४८७ मणिप्रभ ४८७-४६७ ७३५ (क) आवंति देश विदिशानगरी Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६८२ - ६९८ जिस दिन भगवान महावीर का निर्वाण हुआ उसी दिन उज्जैन में राजा चण्ड प्रद्योत का भी देहान्त हो गया था और उसी दिन उज्जैन के सिंहासन पर चण्ड के पुत्र पालक का राजाभिषेक हुआ । श्राचार्य हेमचन्द्र सूरि ने परिशिष्ट पर्व में पालक का राज ६० वर्ष का लिखा है तब शाह ने ऊपर ६० वर्षों में चार राजा होना लिखा है पर दोनों लेखों में समय का कोई अन्तर नहीं पड़ता है। वीरात् ६० वर्ष के बाद उज्जैन की राजसत्ता नन्दवंशी राजाओं के अधिकार में चली गई उन्होंने आवंती का राज मगद में मिला लिया पर जैनाचार्यों ने कालगणना आवंती के राजाओं से ही की है श्रतः प्रद्योतन वंशी र जा जैन थे वैसे नन्दवंशी राजा भी जैन थे इस विषय में हम नन्दवंशी राजाओं के अधिकार में लिख आये हैं और नन्दवंश की वंशावली भी लिख आये हैं करीबन १०० वर्ष नंदों का राज रहा बाद श्रावंती का अधिकार मौर्य वंश के हाथों में चला गया मौर्य वंश के राजाओं में केवल एक अशोक ही बौद्ध धर्म का मानने वाला हुआ वह भी जब तक वौद्ध धर्म स्वीकार नहीं किया वहां तक तो जैन ही था कारण उसके पिता और पिता महा जैनधर्मी ही थे अतः अशोक जैन ही था अशोक बौद्ध होने पर भी उसका जैन श्रमणों से प्रभाव नहीं हुआ था जो उसके शिलालेखों से प्रगट होता है नन्दवंशी राजाओं के बाद मौर्यवंशी राजाओं का उदय हुआ पर मौर्य वंश के राजाओं के समय में सब का एकमत नहीं है । आचार्य हेमचन्द्र सूरि के मतानुसार मौर्यवंश का राज वीर सं० १५५ से प्रारम्भ होता है तब पन्वासजी श्री कल्याणविजयजी म० मतानुसार वीर नि० सं० २१० वर्षों से मौयों का राज शुरू होता है तब मेरुतुरंगाचार्य की विचार श्रेणी में मौर्य वंश का राज १०८ वर्ष और तित्थोगली पइन्ना में मौयों का राज १६० वर्ष रहा लिखा है तब त्रि• लो० शाह मौर्यों का राज १७८ वर्ष लिखा है मेरे मतानुसार मौर्य वंश का राज वी० नि० स० १५५ में शुरु और १६३ वर्ष राज करमा श्राता है अब इसमें कौनसा मत ठीक है विद्वानों पर ही छोड़ दिया जाता है मौर्य वंश की नामावली भी पहले लिखदी जा चुकी है । मौर्य वंश के पश्चात् शुंगवंशी राजा पुष्पमित्र का राज हुआ उसने अपने स्वामी मौर्य वंश के राजा वृद्रथ को मार कर मौर्य वंश का अन्त कर स्वयं राजा बन गया पुष्प मित्र कट्टर ब्राह्मणधर्म का राजा था । इसने जैन एवं बौद्धधर्म पर बड़ा भारी अत्याचार किया था यहां तक कि जैनधर्म एवं बौद्ध धर्म के साधु का शिर काट कर लाने वाले को इनाम में एकसौ दिनारें दी जायगी पर बह भी ३० वर्ष एवं मतान्तर ३५ वर्ष राज कर खत्म हुआ इनके बाद में राजा बलमित्र भानुमित्र के राज की गिनती की जाती है यद्यपि त्रे भरोंच नगर पर राज करते थे पर उनका राज उज्जैन पर भी रहा था इसलिये इनकी गिनती भी उज्जैन के राजाओं में की गई है इनने ६० वर्ष तक राज किये और ये दोनों बांधव जैनधर्म के परम उपशक थे तथा कालकाचार्य के भानेज भी लगते थे इनके बाद नपवाहन ने उज्जैन के सिंहासन पर ४० बर्ष राज किया था तदनन्तर गन्धर्व भील्ल वंश का राजा गन्धर्व भील और शकों ने १७ वर्ष राज किया इनके पश्चात राजा विक्रमादित्य का राज उज्जैन के सिंहासन पर कायम हुआ राजा विक्रम प्रजावात्सल्य न्यायनिपुण राजा था इसने जैनधर्म को स्वीकार कर अपने राज में अहिंसा धर्म का खूब प्रचार किया इस राजा तीर्थ श्री शत्रुंजय का विराट् संघ निकला था राजा विक्रम के गुरु महान् प्रभाविक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर थे जिन्होंने कल्याण मन्दिर स्तोत्र बना कर आवंती पार्श्वनाथ कों प्रगट किये थे इनकी वंशावली( अनुसंधान इसी ग्रन्थ के पृ० ९६१ पर देखो ) आवंति प्रदेश के राजा ७३५ (ख) Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २८२-२६८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २६....प्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि (पांचवें) भद्रे स्वे सुविभूति सन्ततिसमो रत्नप्रभः मरि भाक्। श्री तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ सरणौ रत्नप्रभः पंचमः ॥ तत्कल्पोऽ यमपीह शुद्धचरितः पंचाननो ऽजयत । साफल्यं सुववार यं तु बहुधा धर्मप्रचारे क्षमम् ॥ grera चार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज अद्वितीय प्रतिभाशाली थे आर पांचमहानतं पालन करने में पांच समिति आराधन करने में पांचेन्द्रिय एवं पांच प्रमाद विजय करने में और पांचाचार पालन करने में पांचायणसिंह की भांति बड़े भारी शूरवीर थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि रत्नों की खान में रत्न ही उत्पन्न होते हैं । रत्नप्रभसूरि के नाम में ही ऐसा चमत्कार रहा हुआ है कि शासन का भार अपने सिर पर लेकर उन्होंने जैनधर्म को खूब ही उन्नतशील बनाया था जिनके उपकार को जैन C समाज क्षणमात्र भी भूल नहीं सकता है। आपका जीवन बड़ा ही रहस्ययय अनुकरणीय है। जिस समय की बात को हम लिख रहे हैं । उस समय भारतीय नगरों में सोपारपुर पाटण बड़ा ही उन्नतशील नगर था । व्यापार का तो एक केन्द्र ही था। जैनों की अच्छी आबादी थी। व्यापारार्थ अन्य स्थानों से बहुत से लोग आ आकर सोपारपट्टन को अपना निवास स्थान बना रहे थे। उसमें भद्र गोत्रिय शाह देदा नामक साहूकार भी एक था। शाह देदा के तीन पुत्र थे, राणा, साहरण, और लुम्बा । राणा तो वहां के राजा के मन्त्री पद पर तथा साहरण सेनापति पद पर नियुक्त थे । तब लुम्बा व्यापार करता था। शाह लुम्बा का व्यापार केवल भारत ही में ही नहीं, पर भारत के बाहार पाश्चात्य प्रदेशों में भी था। आपका व्यापार जल और थल दोनों मार्गों से होता था। साधर्मी भाइयों की ओर आपका अधिक लक्ष्य था । उनको व्यापार में शामिल रख कर तथा वेतन पर रख कर लाभ पहुँचाना अपना कर्त्तव्य समझता था । यही कारण था कि इस प्रकार की सहायता पाकर उस समय जैनेतर लोग खुशी से जैन बन जाते थे। इन तीनों भ्राताओ के जैसे द्रव्य बढ़ता था वैसे परिवार भी बढ़ता । शाह राणा के नौ पुत्र तीन पुत्रिय थीं साहरण के आठ पुत्र पांव पुत्रिय थीं तब शाह लुम्बा के पांच पुत्र और साथ पुत्रियां थीं। उस समय उपकेवंश प्राग्वट वंश और श्रीमालवंश के तो आपस में विवाह सम्बन्ध था ही पर क्षत्रिश्रादि के उच्च खानदान में भी कोई लग्न शादी कर लेते तो रुकावट नहीं थी और ऐसे अने । दाहरण वंशावलियों पट्टावलियों में उपलब्ध भी होते हैं । शाह लुम्बा के एक पुत्र का विवा क्षत्रिय कन्या के साथ तथा दूसरे पुत्र का प्राग्वट पुत्री के साथ हुआ था । इसी प्रकार शाह राणा की पुत्री क्षत्रियों के यहां परणाई थीं। वास्तव में उपकेशवंशी लोग भी प्रायः क्षत्रिय वंश के ही थे । शाह देदा का घराना वंश परम्परा से जैनधर्म का उपासक ७३६ सोपारपुर पट्टण Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६९८-७१० था । 'उपकेशे बहुलं द्रव्यं' इस वरदान के अनुसार शाह देदा कोटाधीश था और आपके तीनों पुत्रों ने भी पुष्कल द्रव्य उपार्जन किया था शाह राणा ने सातबार तीथों की यात्रार्थ संघ निकाल कर शत्रुञ्जय से सम्मेतशिखर तीर्थों तक तमाम तीर्थों की यात्रा की । शाह साहरण ने श्रीशत्रुञ्जय पर भगवान महावीर का विशालमन्दिर बनाया । शाह लुम्बा ने सोपारपट्टन में भगवान श्रदीश्वर का चौरासीदेहरीवाला मंदिरबनवाया और साधम्र्मी भाइयों को सोने का थाल और सुवर्ण मुद्रिका की पहरामणी दी । उस समय में श्रीसंघ को अपने घर बुलाकर इस प्रकार की पहिरामणी देना बड़ा ही गौरव का कार्य समझा जाता था उस जमाने के लोग अपने निज के लिये बिल्कुल सादा जीवन स्वल्प खर्चा रखते थे पर धर्म कयों में खूब खुले दिन से द्रव्य व्यय करते थे और उनके पुन्य ही ऐसे थे कि ज्यों ज्यों शुभ काथ्यों में लक्ष्मी व्यय करते थे त्यों त्यों लक्ष्मी उनके घरों में बिना बुलाये आकर स्थिर बास कर बैठ जाती थी । क्योंकि उस जमाने के व्यापार में सत्य न्याय और पुरुषार्थ एवं तीन बातें मुख्य समझी जाती थीं जो खासकर लक्ष्मी को प्रिय थी। इन त्रिपुटी बन्धुओं की उदारता के लिये तो पट्टावलीकार लिखते हैं कि इनके घर पर कोई भी व्यक्ति आशा करके आता था वह कभी निराश होकर नहीं जाता था । जिसमें भी साधर्मियों के लिये तो और भी विशेषता थी । शाह लुम्बा के यों तो पांच पुत्र थे पर उसमें एक खेमा नाम का पुत्र बड़ा ही होनहार था । उसका अधिक समय धर्म कार्य में ही जाता था। वह संसार से सदैव विरक्त रहता था । श्रात्मिक ज्ञान की उसको बड़ी भारी रुचि थी जिसमें भी योगाभ्यास के लिये तो खेमा विशेष प्रयत्न करता था। सोपारपट्टन में साधुओं का संयोग विशेष मिलने से खेमा धर्म करनी में संलग्न रहता था । एक समय धर्मप्राण लब्ध प्रतिष्ठित धर्म प्रचारक आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज अपने विद्वान शिष्य समुदाय के साथ विहार करते हुये सोपारपट्टन पधार रहे थे । इस बात की खबर मिलते ही श्री संघ के हर्ष का पार नहीं रहा श्रतः सुन्दर स्वागत कर सूरिजी का नगर प्रवेश करवाया। यह वे ही सूरिजी हैं कि एक दिन सारंग के रूप में अनगिनती सुवर्ण शुभकाय्यों में व्यय किया था । अतः ऐसे त्यागी महात्मा प्रति जनता की अधिक से अधिक भक्ति हो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या हो सकती है । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर हुआ करता था कि जिसका जनता पर खूब ही प्रभाव पड़ता था। एक दिन के व्याख्यान में सूरिजी ने संसार की असारता, लक्ष्मी की चंचलता, आयुष्य की अस्थिरता और कुटुम्ब की स्वार्थता, के विषय में व्याख्यान देते हुये कहा कि संसार की असारता समझ कर छः खण्ड में एक छत्र राज करने वाले चक्रवर्तियों ने श्रात्म भावना से दीक्षा लेकर अपना कल्याण किया है । भगवान रामचन्द्र और पांच पांडव कब जानते थे कि लक्ष्मी को छोड़ हमको बन बन में भटकना पड़ेगा। एक अरब और पैंतीस करोड़ सोनाइयों का धरणी धन्नाशाह कब जानता था कि मैं धीरोटी के टुकड़े के लिये घरघर का दास बन जाऊँगा । भगवान् श्रीकृष्ण कब जानते थे कि सुवर्णमय द्वारामती छोड़कर मैं बन में पानी के लिये विविता मर जाऊँगा । श्रायुष्य की अस्थिरता के लिये पल्योपम और सागरोपम के आयुष्य क्षय हो जाते हैं । तीर्थङ्कर और चक्रवर्तियों के आयुष्य क्षीण हो जाते हैं भगवान् महावीर देव से इन्द्र ने प्रार्थना की थी कि आप अपने आयुष्य को एक समय न्यूनाधिक कर दें पर कुटुम्ब की स्वार्थता, क्या राजा श्रेणिक यह जानता था कि मेरा पुत्र ही राजा प्रदेशी यह जानता था कि मेरी श्रद्धांगना मुझे जहर देदेगी ? क्या पैसा करने में वे भी असमर्थ थे । मुझे कारागृह में डाल देगा ? क्या ब्रह्मदत्त स्वप्न में भी कभी जानता सूरिजी महाराज का त्यागमय उपदेश ] ७३७ Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० २९८ - वर्ष ३१० ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास था कि मेरी माता ही मुझे अग्नि में जला देने का प्रयत्न करेंगी इत्यादि हजारों उदाहरण विद्यमान हैं फिर समझ में नहीं आता है कि संसारी जीव किस विश्वास पर निश्चित होकर बैठे हैं। प्यारे श्रात्मबन्धुओं ! पूर्व जमाने में कुछ अच्छे कर्म किये थे जिससे तो यहाँ सब सामग्री अनुकूल मिल गई है पर भविष्य के लिये क्या करना है। शास्त्रकारों ने फरमाया है कि :-- जहा यतिनि वणिया, मूलं एगो मूलं पि हारिता, आगओ घेत्तूरा निग्गया तत्थ वाणिओ । एगोऽत्थ लहइ लाहं, एगो मूलेण आगओ ॥ । ववहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाह ॥ जैसे एक साहूकार ने अपने तीनों पुत्रों को बुलाया और उनको एक एक हजार रुपये देकर दिसावर भेज दिये । उसमें एक ने तो एक बड़े नगर में जाकर सुन्दर मकान किराये पर लेकर खूब मौज मजा और रंग राग खाना पीना भोग विलास में लग गया और वे हजार रुपये थोड़े दिनों में खर्च कर दिये और सेठजी के नाम पर कर्जा करना हुन्डियें लिखना शुरु कर दिया। तब दूसरा पुत्र ऐसे नगर में पहुँचा कि जहाँ थोड़ा बहुत धंधा करने खर्च जितनी पैदास कर अपना गुजारा चलाने लगा । और तीसरा पुत्र ऐसे नगर में गया कि जहाँ व्यापार कर लाखों करोड़ों रुपये पैदास कर लिये । तब पिताजी ने तीनों पुत्रों को एक ही साथ में बुलाये तथा पुत्रों के आने के बाद जो एक एक हजार रुपयों की रकम दी थी उसको वापिस मांगी। तो एक ने रकम खर्च करदी और उलटा कर्जा बतलाया दूसरे ने ज्यों के त्यों हजार रुपये देदिये और तीसरे ने जो व्यापार में पैदा करके लाया था वे लाखों रुपये पिता जी के सामने रख दिये । बतलाइये पिता किस पुत्र पर खुश होगा ? यही दृष्टान्त अपनी आत्मा पर घटाइये कि एक एक हजार की रकम तुल्य मनुष्य भव मिला है । एक मनुष्य ने खाना पीना भोग विलास कर मनुष्य जन्म व्यर्थ खोदिया और ऐसे पाप कर्म रूपी कर्जा कर लिया कि भविष्य में नरक एवं तिर्यच में जाना पड़े तब दूसरे मनुष्य ने न तो ज्यादा पाप किया और न ज्यादा पुण्य ही किया उसने मनुष्य भव का मनुष्य भव में जाने जैसा कर्म किया । तब तीसरे मनुष्य ने मनुष्य जन्म बड़ी दुर्लभता से मिला जानकर सामग्री के सद्भाव दान पुण्य सेवा पूजा तीर्थयात्रा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा साधर्मी भाइयों से वात्सल्यता और अन्त में भोग विलास एव संसार को छोड़ दीक्षा लेकर पुन्योपार्जन किया वे मनुष्यभव छोड़ कर स्वर्ग सुखों के अधिकारी बन गये । इसमें भी उत्कृष्ट मार्ग तो दीक्षा लेना ही है कि एक दो या पन्द्रह भवों में जन्म मरण के दुःखों से छूट कर मोक्ष में चला जाय इत्यादि, वैराग्यमय देशना दी । यों तो सूरिजी के उपदेश ने सब पर ही असर किया था पर वीर खेमा पर तो इतना प्रभाव डाला कि वह दीक्षा लेने को तैयार होगया और कई पचास नर नारी खेमा का अनुकरण करने को कटिबद्ध होगये । खेमा के माता पिता स्त्री और पुत्रों ने बहुत कुछ समझाया पर खेमा का रंग हल्दी जैसा नहीं था कि ताप लगने से उतर जाय । खेमा ने सब को समझा कर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया । शाह लुम्वा ने अपने पुत्र की दीक्षा का बड़ा भारी महोत्सव किया जिसमें तीन लक्ष्य द्रव्य व्यय किया । ठीक शुभ मुहूर्त्त में सूरिजी ने खेमादि ५० नर नारियों को भगवती जैन दीक्षा देकर उन सबका उद्धार किया । खेमा का नाम मुनि गुणा तिलक रक्खा गया । मुनि गुणतिलक बड़ा ही त्यागी वैरागी तपस्वी और ध्यानी था आपके ज्ञानावर्णिय कर्म, मोहनीयकर्म और अन्तरायकर्म एवं तीनों कर्मों का क्षयोपशम था कि उसने थोड़ा परिश्रम करने पर ही वर्तमान साहित्य का अध्ययन कर लिया । वह भी केवल जैन साहित्य ही नहीं पर जैनेतर साहित्य का भी परम ज्ञानी बन गया । व्याकरण, न्याय, तर्क, छन्द, काव्य तथा ज्योतिष और अष्टांग निमित्त का भी पारगामी होगया । ७३८ [ त्यागपर तीनवणक पुत्रों का उदाहरण Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६९८-७१० श्रापकी कठोर तपश्चर्या से कई देवी देवता भी आपकी सेवा करते थे । विद्या और लब्धियाँ तो स्वयं वरदाई होकर आपकी सेवा में रहना अपना अहोभाग्य ही समझती थीं इत्यादि मुनि गुणतिलक की भाग्य रेखा यहाँ तक चमक उठी कि आचार्य सिद्धासूरि ने अपनी अन्तिमावस्था में मुनि गुणतिलक को सर्वगुण सम्पन्न जान कर मथुरा श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम रत्नप्रभसूरि रख दिया । आचार्य प्रभरि बड़े ही प्रतापी श्राचार्य हुये आपकी कठोर तपश्चार्या और योगाभ्यास के कारण आपका प्रभाव अतिशय इतना बढ़ गया था कि बड़े २ राजा महाराजा और देवी देवता आपके चरणार्विन्द की सेवा कर अपना अहोभाग्य समझते थे। कई जैन एवं जैनेतर मुमुक्षु योगाभ्यास करने को आपकी सेवा में उपस्थित रहते थे और आप अपनी उदारतापूर्वक पात्र को अभ्यास करवाया करते थे। एक समय सूरिजी महाराज भूभ्रमण करते हुये भिन्नमाल नगर में पधारे वहाँ के श्रीसंघ ने सूरिजी का सुन्दर स्वागत किया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था जिसको श्रवण कर जनता अपना अहोभाग्य समझती थी । मरुधर में एक भिनमाल ही ऐसा नगर था कि जैनों के और ब्राह्मणों के हमेशा से वाद विवाद चलता आया था। यद्यपि कई ब्राह्मणों ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था पर जो लोग शेष रहे थे वे कुछ न कुछ विवाद खड़ा कर ही देते थे और अपनी बाड़ा बन्दी की वे कई प्रकार से कोशिश किया करते थे । वहीँ का राजा जीतदेव और आपकी रानी रत्नादे जैनधर्मोपासक थे पर जैन धर्म के नियम सख्त होने से कई जिह्वा लोलुपी लोगों से पलना मुश्किल भी था राजा अजीतसिंह के कई पुत्र थे । उसमें एक गंगदेव नाम का पुत्र ब्राह्मणों की संगति से मांस मदिरा के दुर्व्यसन में पड़ गया जो जैनधर्म के नियमों से खिलाफ था । उसके माता पिता ने बहुत समझाया पर वह जैनधर्म को अच्छा समझता हुआ भी उन दुर्व्यसनों को छोड़ने में असमर्थ था । कुँवर गंगदेव ब्राह्मणों की संगति से भोजन भी रात्रि में ही करता था। एक दिन भाग्यवसात् रात्री में भोजन बनाया उसमें रसोइया की असावधानी से कई जहरीला जानवर भोजन के साथ पच गया कि उसका विष भोजन के साथ मिल गया। गंगदेव ने रात्रि में भोजन किया तो उसका शरीर विष व्यापक बन गया | सुबह । ब्राह्मणों ने कई यंत्र मंत्र दवाई माड़ा पटादि अनेक उपचार किये पर वे सब कृतघ्नी पर किया हुआ उपकार कि भाँति निःसफल ही हुये । श्रतः गंगदेव के माता पिता श्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के पास आये और प्रार्थना की कि हे प्रभो ? यह गंगदेव ब्राह्मणों की संगति से मांस मदिरा का भक्षण तथा रात्रि भोजन भी करता है जिससे आज वह जीवन से हाथ धो बैठा है पूज्यवर ? आपके पूर्वज आचार्य रत्नप्रभसूरि ने पहिले भी हमारे पूर्वजों को इस तरह से जीवन दान दिया था अतः कृपा कर मुझे पुत्ररूपी भिक्षा प्रदान करावें । सूरिजी ने कहा कि अनंत तीर्थकरों ने रात्रि भोजन का निषेध किया है। क्या साधु और क्या गृहस्थ सबकों रात्रि भोजन का त्याग रखना चाहिये । रात्रि भोजन से इस भव में प्राणघात और परभवमें नरकादि फल मिलता है इत्यादि । राजा ने कहा पूज्यवर ! आपका फरमाना सत्य है । कल्याण हो आचार्य स्वयंप्रभसूरि और आचार्य कक्सूरिका कि उनकी कृपा से हम लोग इस महान पाप से बच गये हैं फिर आप जैसों के उपदेश से हम रात्रि भोजन के लिये दृढ़ प्रतिज्ञावाले हैं पर इस गंगदेव ने ब्राह्मणों की संगति से इस पाप को शिर पर लिया है । फिर भी आपका धर्म तो किसी भी जीव पर उपकार करने का है । अतः हम लोगों पर दया भाव लाकर इसको जीवन प्रदान दौरावें । रात्रि भोजन से अनर्थ ] ७३९ Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २९८-३१० वर्ष [भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरिजी ने अपने योग बल से राजकुँवर के विषय को अपहरण कर लिया अतः राजकुंवार सचेत होकर इधर उधर देखने लगा तो उसकी माता ने कहा बेटा ! तू आज नये जन्म में आया है । हम लोगों ने बहुत समझाया था कि तू रात्रि भोजन मत कर अर्थात् रात्रि भोजन का त्याग करदे पर तू नहीं माना इसका ही फल है कि तेरे लिये स्मशान की तैयारी कर दी थी पर कल्याण हो पूज्य दयालु आचार्य देव का कि जिन्होंने तुमको जीवन दान दिया है। अब तू जैनधर्म की शरण ले और रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग कर दे । गजकुंवर ने केवल माता के कहने से ही नहीं पर स्वयं अनुभव करके मिथ्याधर्म और अधर्म प्रवृति का त्याग कर जैनधर्म स्वीकार कर लिया। इस प्रसंग पर राजकुँवर के पक्ष में जो लोग थे उन्होंने भी जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। अतः नगर भर में जैनधर्म की भूरि २ प्रशंसा होने लगी और सब लोग कहने लगे कि जैनाचार्य कैसे दयालु होते हैं कि एक राजकुँवर को जीवन दान देकर महान् उपकार किया है। बस, दूसरे दिन व्याख्यान में सूरिजी ने रात्रि भोजन के विषय में खूब जोर से कहा कि रात्रि भोजन करना जैनशास्त्रों में केवल साधुओं के लिये ही नहीं पर गृहस्थों के लिये भी बिल्कुल मना किया है । प्रायः जैनधर्म पालन करने वाले रात्रि भोजन नहीं करते हैं क्यों कि रात्रि समय तमाम पदार्थ अभक्ष्य बतलाये हैं। रात्रि भोजन से दूसरे जीवों की हिंसा तो होती ही है पर कभी कभी स्वयं रात्रि भोजन करने वाले को भी काल कबलिन बनना पड़ता है। और इस प्रकार मरने से भविष्य में भी गति नहीं होती है । तथा जैनधर्म के इस उत्तम नियम को अन्य धर्म वालों ने भी अपनाया है एवं उन लोगों ने भी अपने धर्म प्रन्थों में रात्रि भोजन का खूब जोरों से निषेध किया है । नमूने के तौर पर देखिये: चत्वारो नरकद्वाराः प्रथमं रात्रि भोजनम् । परस्त्रीगमनं चैव सन्धानानन्त कायके । मृते स्वजन मात्रेऽपि सूतकं जायते किल । अस्तंगते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ॥ रक्तीभवन्ति तोयानिअन्नानि पिशितानि च । रात्रौ भोजन सत्कस्य ग्रासे तत्मांसभक्षणम् ॥ चत्वारि खलु कर्माणि सन्ध्याकाले विवजयेत् । आहारं मैथुनं निद्रा स्वाध्यायं च विशेषतः ।। आहाराज्जायते व्याधिः कूरगर्भश्च मैथुनात । निद्रातों धननाशश्चं स्वाध्याये मरणं भवेत् ।। तत्त्वं मत्वा न भोक्तव्यं रात्रौ पुंसा सुमेधसा । क्षेमं शौचं दयाधर्म स्वर्ग मोक्षं च वांछता । नैवाहुतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ।। भानोः करैरसंस्पृष्ट मुच्छिष्टं प्रेतसंचारात् । सूक्ष्मजीवाकुलं वापि निशि भोज्यं न युज्यते ॥ मेधां पिपीलिका हन्ति यूका कूर्याज्जलोदरम् । कुरुते माक्षिका कान्ति कुष्टं रोगं च कोलिकः ।। कटको दारुखण्डं च वितनोति गलव्यथाम् । व्यंजनान्तर्निपतस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥ बिलग्नश्च गले वालः स्वरभङ्गाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ॥ नापेक्ष्य सूक्ष्मजन्तूनि निष्पत्रात्याशुकान्यपि । आप्युद्यत्केवलज्ञानैर्नादृतं यन्निशाशनम् ॥ ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥ दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दीवाकरे । नक्तं तद्धि विजानीयान्न नक्तं निशि भोजनम् ॥ संध्यायां यक्षरक्षोभिः सदा मुक्त कुलोद्वह । सर्ववेलां व्यतिक्रम्य रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥ [ रात्रि भोजन निषेध का उपदेश ७४० Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६९८-७१० इत्यादि रात्रि भोजन का सख्त निषेध किया है परन्तु शास्त्रों के अनभिज्ञ लोग आप स्वयं डूबते हैं और अपने विश्वास पर रहने वाले भद्रिक लोगों को भी डुबाते हैं । कई अज्ञानी लोग एक सूर्य में दो वक्त भोजन नहीं करना कहकर रात्रिभोजन करते हैं और दूसरों को करने का उपदेश करते हैं परन्तु इसका मत. लब रात्रि भोजन करने का नहीं है पर यह उल्लेख तो ब्रह्मचारी एवं ब्राह्मणों के लिये है कि एक सूर्य में दो बार भोजन नहीं करना अर्थात् सदैव एकासना व्रत करना । जिससे ब्रह्म वार्य व्रत सुविधा से पले और एक बार भोजन करने से एक वर्ष में नौ मास की तपश्चर्या भी हो जाय । कारण १२ मास में रात्रि भोजन न करने से छ मास और दिनों में भी एक बार भोजन करने से तीन मास एवं नौ मास का तप हो जाता है। इसलिये ब्रह्मचारी एवं ब्राह्मणों को और साधुओं को एक दिन में एक बार ही भोजन करने की आज्ञा है यदि उससे क्षुधा शान्त न होती हो तो सूर्य के अस्तित्व में एक बार की बजाय दो बार भी भोजन करले पर रात्रि में तो भूल चूक के थोड़ा भी आहार नहीं करे इत्यादि। सूरिजी महाराज के व्याख्यान का जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ा और जनता रात्रि भोजन के पाप एवं अनर्थ से भयभ्रान्त हो कर प्रायः सबने रात्रि भोजन का त्याग कर दिया ! इसका मुख्य कारण एक तो सूरिजी का व्याख्यात दूसरा राजकुवर गंगदेव का रात्रि भोजन के लिये उदाहरण तीसरा जनता का भाग्य ही अच्छा था इत्यादि सूरिजी के विराजने से जनता का बड़ा भारी उपकार हुआ ! इस प्रकार महान उपकार करते हुये सूरिजी भिन्नमाल से बिहार कर आसपास के ग्राम नगरों में भ्रमण करते हुए जावलीपुर पधार रहे थे वहां के अदित्यनाग गोत्रिय शाह झाला ने सूरिजी का बड़ा हीशानदार नगर प्रवेश का महोत्सव किया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था शाह माला ने कहा पूज्यवर ! मेरी अवस्था वृद्ध है और मेरे दिल में महा प्रभाविक श्री भगवतीजी सूत्र सुनने की अभिलाषा लग रही है । अतः आप चतुर्मास करके मुझे और यहाँ के श्रीसंघ को आगम सुनावें तो महान उपकार होगा ! सूरिजी ने कहा माला क्षेत्र स्पर्शन होगा वही काम आवेगी । तत्पश्चात् वहां के श्रीसंघ ने साग्रह विनती की और लाभा-लाभ का कारण जान सूरिजी ने चतुर्मास की स्वीकृति देदी । वस झाला का मनोरथ सफल होगया । उसने भगवती सूत्र के महोत्सव के लिये बड़ी भारी तैयारिये करनी शुरू करदी। माला के मन में कई अर्सा से उत्साह था पर साधारण साधु तो श्री भगवतीजी सूत्र वाच नहीं सकता था और गीतार्थों का योग नहीं मिला था पर कहा है कि जिसके सच्चे दिल की भक्ति होती है वह कार्य बन ही जाता है । शाह माला ने बड़े ही समारोह के साथ महाप्रभाविक श्री पंचमाग अपने घर पर लाया । रात्रि में जागरणा पूजाप्रभावना सुबह साधर्मी वात्यल्य करके आलीशान जुलूस के साथ सूत्रजी को सूरिजी के करकमलों में अर्पण करके हीरा पन्ना माणिक मोती एवं सुवर्ण के पुष्पों से सबसे पहिले शाह माला ने ज्ञान पूजा की तत्पश्चत् श्रीसंघ ने भी पूजा की जिसमें करीब एक करोड़ रुपयों का द्रव्य ज्ञान में जमा हुआ जिस द्रव्य से आगम लिखवा कर भंडारों में अर्पण कर देने का निश्चय हुआ। तत्पश्चात् पूज्य आचार्यदेव ने व्याख्यान में महा प्रभाविक ज्ञान समुद्र शास्त्रजी को वाचना प्रारंभ किया । पहिले जमाने में इस प्रकार श्री भगवतीजी सूत्र की वाचना कभी-कभी हुआ करती थी । जनता की ज्ञानरुचि ज्ञानभक्ति इतनी थी कि कई नगरों के लोगों ने तो आगम सुनने के लिये जावलीपुर में आकर अपनी छावनिये ही डाल दी। कारण कि मनुष्य भव और श्रावक के कुल में श्री भगवतीजी सूत्र का महोत्सव ] ७४१ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २९८-३१० वर्ष ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जन्म लिया फिर योग मिलने पर भी श्री भगवती सूत्र नहीं सुना उसका जन्म ही व्यर्थ समझा जाता था । || ऐसा अवसर हाथ में आया कौन जाने देने वाले थे 1 शाह काला ने प्रत्येक प्रश्न की सुवर्ण मुद्रिका से पूजा की । तदनुसार और भी कई महानुभावों ने इस प्रकार पूजा कर ज्ञानावर्णिय कर्म का क्षयोपशम करते हुये अनंत पुन्योपार्जन किया । सम्पूर्ण भगवती सूत्र चार छः मास में पूर्ण होने वाला नहीं था। कारण ४१ मूल शतक १९३८ अन्तरशतक १९ वर्ग और पहले तो १०००० उद्देशा और २८८००० पद थे पर जब चारों अनुयोग पृथक् २ कर दिये थे उस समय १९२५ उद्देशा और १५७७२ श्लोक मूल के रह गये थे तथा इस पर नियुक्ति चूर्णी वगैरह विवरण विशेष था परन्तु सूरिजी महाराज के श्रीभगवतीसूत्र हस्तामलक की तरह कण्ठस्थ ही था। अतः आप श्री ने मात्र छः मास में श्रीभगवतीसूत्र सम्पूर्ण बांच दिया अतः शाह काला ने पूर्णाहुति का भी बड़े ही समारोह से महोत्सव कर श्रीभगवतीसूत्र की पुनः वरघोड़ा पूजा प्रभावना और स्वामिवात्सल्य कर ज्ञान पद की आराधना की इतना ही क्यों पर शाह झाला ने अपने १४ साथियों के साथ असार संसार का त्याग कर सूरिजी के पास दीक्षा लेली कारण, 'नाणस्ससारंवृति' ज्ञान का सार व्रत लेना है । प्राग्वट पोमा के बनाये श्री विमलनाथदेव के मंदिर की प्रतिष्ठा भी सूरिजी के कर कमलों से हुई और भी जिनशासन की कई प्रकार से प्रभावना हुई । सूरिजी महाराज के साधुओं में पद्महंस और मंगल कलस ये दो साधु बड़े ही विद्यावली और लब्धिपात्र थे । एक दिन वे दोनों मुनि थडिले जाकर आ रहे थे। उधर से राजॐ वरादि कई क्षत्रीय लोग जीवित शिकार को लेकर नगर की ओर आ रहे थे। जिसको देख उभय मुनियों के कोमल हृदय में दया के भाव उत्पन्न हो गये श्रुतः वे तत्काल ही बोल उठे कि हे महानुभावो ! इन विचारे निरपराधी मूक प्राणियों को क्यों पकड़ लाये हो ! देखिये इनका शरीर कांप रहा है। यदि आप क्षत्री हैं तो इन भय पाते हुये प्राणियों की रक्षा करना आपका धर्म है। अतः इनको अभयदान दीजिये । क्षत्रियों ने मुनियों का कहना हँसी हँसी में उड़ा दिया और कहा महात्माजी आप अपने रास्ते जाइये तथा आपको उपदेश ही देना हो तो बाजार में जाकर महाजन लोगों को दीजिये हम तो क्षत्रीय हैं और शिकार करना हमारा धर्म है । मुनियों ने कहा वीर क्षत्रियो ! आपका धर्म गरीब पशुओं को मारने का नहीं पर इनकी रक्षा करने का है । किन्हीं स्वार्थी लोगों ने आपको उल्टा रास्ता बतला दिया है। मैं आपको ठीक कहता हूँ कि इन जीवों को अभयदान दीजिये इसमें आपका इस भव में और पर भव में कल्याण है । यह जघन्य कार्य्य आप जैसे उत्तम क्षत्रियों को शोभा नहीं देता है इत्यादि ! इसपर उन क्षत्रियों को बड़ा गुस्सा आया और तलवार निकाल कर उन मुनियों के सामने उन पशुओं के कोमल कंठ पर चलाने लगे पर मुनियों के विद्यावल से उन क्षत्रियों का हाथ जैसे ऊँचा उठा था वैसा ही रह गया। उन्होंने बहुत कोशिश की पर हाथ टस से मस नहीं हुआ । इस अतिशय प्रभाव को देख कर वे क्षत्रीय लोग मंत्रमुग्ध बन गये और मन ही मन में सोचने लगे कि यह क्या हुआ ? क्या इन साधुओं की करामात तो नही हैं पर इस संकट से बचने के लिये अब दूसरा उपाय ही तो क्या था । अतः उन्होंने साधुओं से विनय की कि महामाजी कृपा कर हमारे अपराध की माफी करावें और हमारे हाथ को छोड़ दीजिये । वीरो ! आपको इतना सा कष्ट हुआ जिसमें ही आप घबरा गये तब दूसरे जीवों के प्राण लेने को आप तैयार हुये हैं। क्या आपकी अधम तलवार देख इन जीवों को भय नहीं होता होगा । खैर आप इस समय समर्थ हैं कि इन मूक प्राणियों ७४२ [ दो जैन मुनियों का राजकुवर को उपदेश Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६९८-७१० के प्राण नष्ट करने में अपनी बहादुरी सारझते होंगे पर किसी भव में आप निर्बल और ये जीव सबल हो गये तो क्या यह अपना बदला नहीं लेंगे ? उस समय आपका क्या हाल होगा इसको तो थोड़ा सोचो और जिस धर्म को आप मानते हैं उस धर्म के धर्मशास्त्र क्या कहते हैं उनको तो जरा ध्यान लगा कर सुनलीजिये यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भोरत । तावद्वर्षसहस्त्राणि पच्यन्ते पशु घातकाः ! ॥ यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वोऽत्र मारणम् । वृथा पशुनःप्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ।। शोणितं यावत पांशून संगृह्वाति महीतलात् । तावतोऽद्वानमुत्रान्यैः शोणितोत्पाद को ऽधते ।। ताडयित्वा तृणेनापि संरम्भान्मति पूर्वकम् । एकविंशतिमाजानीः पापयोनिषु जायते ।। तामितगन्धतामिसं महारैरवगैरवम् । नरकं कालसूत्रं च महानरकमेव च ।। धर्मो जीवदयातुल्यो न क्वापि जगतीतले । तस्मात्सर्व प्रयत्नेन कार्या जीवदया नृभिः ।। एकस्मिन रक्षिते जीवे त्रैलोक्यं रक्षितं भवेत् । घातिते घातितं तद्वत्तस्माज्जीवान मारयेत् ॥ न हिंसासदृशं पापं त्रैलोक्ये सचराचरे । हिंसको नरकं गच्छेत् स्वर्ग गच्छेदहिंसकः ।। सर्वे वेदा न तत्कुयुः सर्वे यज्ञाश्च भारत ! । सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत्कुर्यात्माणिनां दया । आत्मा विष्णुः समस्तानां वासुदेवो जगत्पतिः । तस्मान्न वैष्णवै- कार्या परहिंसा विशेषतः ॥ स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः : अभयं येन भूतेभ्यो दतं सर्वसुखावहम् ॥ इत्यादि एक ओर तो क्षत्रियों के तलवार वाले हाथ ज्यों के त्यों खड़े थे और दूसरी ओर धर्मशास्त्रों का सुनना । वस, वीर क्षत्रियों की आत्मा ने पलटा खाया और उन्होंने कहा महात्माजी ! हम लोगों ने अज्ञान में भ्रमित हो कर बहुत जीवों को सताया, उनके प्राणों को नष्ट किया हैं पर आज आपके उपदेश को सुनकर हम लोगों को इतना तो ज्ञान हो ही गया है कि इतने दिन हम गलत रास्ते पर थे। और निरपराध जीवों की शिकार कर उनके प्राणों को नष्ट किया जिसका बदला हमको परलोक में अवश्य देना पड़ेगा। परन्तु आज से हम प्रतिज्ञा करते हैं कि अपने जीवन में हम किसी निरपराधी जीवों को मारना तो क्या पर तकलीफ तक भी नहीं देंगे और आपसे प्रार्थना करते हैं कि हमारे किये हुये पाप कर्म किसी प्रकार से छुट सकते हों तो आप ऐसा उपाय बतलायें कि जिससे हमारे पापों का क्षय हो जाय । ___ मुनियों ने कहा वीरो ! आखिर तो क्षीत्रय, क्षत्रीय ही होते हैं । हमें बड़ी खुशी है कि आप थोड़े से उपदेश से ठीक रास्ते पर आगये हो । आपको अपने कृत कर्मों का क्षय ही करना है तो जिनेन्द्र भगवान के कथन किये धर्म को स्वीकार कर उसका छाराधन करो कि आपके किये कर्मों का नाश हो जायगा यह कह कर मुनियों ने अपनी विद्या से क्षत्रियों के हाथ खुल्ले कर दिये कि वे अपनी तलवारें म्यान में डालकर मुनियों से पूछने लगे को श्रापका धर्म तो स्वीकार करने को हम लोग तैयार हैं पर आपके धर्म के क्या नियम हैं ? और उसकी आराधना कैसे हो सकती है ? कृपा कर इस बात को हमें समझाये । मुनियों ने शुद्ध देव गुरु धर्म का स्वरूप बतलाया तत्पश्चात् गृहस्थधर्म के बारह व्रत और साधु धर्म के पांच महावत को इस प्रकार समझाया कि वे समकितमूल जितने व्रत सुविधा से पाल सके उतने व्रत धारण कर मुनियों का उपकार मानते हुए वन्दनकर अपने स्थान चले गये और मुनि भी अपने स्थान पर आये। राजकुँवारों को जैनधर्म की दीक्षा ] ७४३ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २९८-३१० वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहस ___ जब युगल मुनि सूरिजी के पास आये और सब हाल कह सुनाया तो सूरिजी बहुत प्रसन्न हुये । कारण, कमाऊ पून किसको प्यारे नहीं लगते हैं । जब वे युगल मुनियों के बनाये हुये नूतन जैन सरदार सूरि जी के पास आये और दोनों मुनियों की खूब तारीफ की कि पुज्यवर ! हम लोग अज्ञान के वस विचारे निरपराधी प्राणियों के प्राण हरण कर नरक जाने की तैयारियें कर रहे थे पर कल्याण हो आपका और आपके शिष्यों का कि हम लोगों को बचा लिया। उन क्षत्रियों ने कुछ रत्नादि सूरिजी के सामने भेट रख कर प्रार्थना की कि दयालु ! यह द्रव्य हम आप या दोनों मुनियों की सेवा में भेंट करना चाहते हैं । गर्ज कि इन दोनों मुनियों ने हम लोगों पर बहुत उपकार किया है अतः इसको आप स्वीकार कावें। आचार्यदेव ने सोचा कि यह लोग कितने भद्रिक हैं और इनके दिल में देव गुरु धर्म प्रति कितनी भक्ति है पर धर्म के स्वरूप को नहीं जानने से पाखण्डि लोग इनके द्रव्य को हरण कर अपनी इन्द्रियों का पोषण करते हैं । अतः सूरिजी महाराज ने फरमाया कि महानुभावों । हम निम्रन्थों को द्रव्य से कोई प्रयोजन नहीं है । यह द्रव्य तो साधुओं के लिये उलटा दूषणरूप है । यदि इस द्रव्य से कुछ लाभ होता तो हम अपने घर की लक्ष्मी पर लात मार कर योग क्यों लेते ? क्षत्रियों ने कहा पूज्य दयालु ! योग लिया तो क्या हुआ हरेक कार्य के लिए खर्च करने में द्रव्य की तो आवश्यकता रहती ही होगी ? सूरिजी-देवानुप्रिय ! हमारे किसी भी कार्य के लिए द्रव्य की आवश्वकता नहीं रहती। हम केवल मधुकरी भिक्षा से ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं हम हजारों कोसों तक देश विदेश में पैदल भ्रमण करते हैं अतः सवारी या किराए की भी हमें जरूरत नहीं। वस्त्र एवं भिक्षा की जिस समय जरूरत हो तव गृहस्थों के यहाँ से हम स्वयं जाकर थोड़ा २ ले पाते हैं कि जिससे गृहस्थ को न तो हमारे लिये रसोई बननी पड़े न उनको किसी प्रकार की तकली ही उठानी पड़े और हमारा गुजार भी होजाय । अब आप ही बतलाइए कि दूसरे हमारे क्या काय हैं कि जिसके लिए खर्च एवं द्रव्य की आवश्यकता रहे ? क्षत्रियों ने कहा ठीक गुरु महाराज नगर में तो प्रापका नर्बाह हो जाता होगा पर आप सैकड़ों साधु किसी छोटे प्रामडै में जा निकले वहाँ तो रसोई बनानी ही पड़ती है न ? फिर द्रव्य बिना कैसे काम चलता होगा ? सूरिजी-अब्बल तो हमारे साधु तपस्या करते हैं और तप करने में ये शूरवीर भी होते हैं । कई मास कई १५ दिन तथा छोटी बड़ी तपस्या किया करते हैं और जहाँ भिक्षा का योग नहीं बने वहाँ खुशी से तपोवृद्धि करते हैं और यह तो हम योग लिया इसके पहिले ही जानते थे कि हम योग आराम के लिये नहीं लेते हैं। पर खूब कष्ट सहन कर मोक्ष प्राप्त करने के लिये ही लेते हैं। दूसरे साधु होकर द्रव्य रखते हैं उनके पीछे सैकडों उपाधियाँ खड़ी होजाती हैं कि वे योग का साधन कर ही नहीं सकते हैं । गृहस्थ लोग इस द्रव्य को किसी शुभ कार्य में लगाते हैं तो उसके लिए भूषण है नहीं तो नरक ले जाने वाला ही समझना चाहिए इत्यादि सूरिजी ने खूब उपदेश दिया। क्षत्रीय सुनकर आश्चर्य में डूब गये। उन्होंने सोचा कि ऐसे निर्लोभी महात्मा तो हमने संसार भर में आज ही देखे हैं । उन्होंने पुनः प्रार्थना की कि हे करुणासिन्धो ! हम तो अपने मकान से इस द्रव्य को आपके भेंट करने को ही लाये थे। अब इसको हम अपने घर में तो रख ही नहीं सकते हैं । आप ही फरमाइये हम इस द्रव्य को क्या करें और हमारे पर महान उपकार करने वाले दोनों मुनियों को हम क्या भेट दें ? ७४४ [ राजकुंवर की उदारता और उपदेश Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६९८-७१० सूरिजी-इस द्रव्य को श्राप जिनमन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव वगैरह सुकृत कार्यों में लगा सकते हो और आपके कराये इस महोत्सव के साथ हम उन दोनों मुनियों को आपकी यादगीरी में पण्डित पद दे सकते हैं। क्षत्रियों ने सूरिजी का कहना शिरोधार्य कर लिया और जिनमन्दिरों में अठाई महोत्सव करवाना प्रारम्भ भी कर दिया तत्पश्चात् उन नूतन श्रावकों के भाव बढ़ाने के लिये तथा उन योग्य साधुओं की योग्यता पर उन दोनों मुनियों को पण्डित पद से विभूषित बना दिये। बाद सूरिजी ने अपने कई साधुओं को वहां ठहरा कर आपने वहां से विहार कर दिया सत्यपुर, चन्द्रावती, पद्मावती आदि नगरों के लोगों को धर्मोपदेश देते हुये मिन्धभूमि में धर्मप्रचार करतेहु वीरपुर नगर में पधारे। यह तो हम पहिले ही कह आये हैं कि पूर्व जमाने में जैनाचार्यों का व्याख्यान मुख्य त्याग वैराग्य और आत्मकल्याण पर विशेष होता था यही कारण था कि जनता में त्याग भावना विशेष रहती थी । वीरनगर में बाप्पनाग गोत्रिय गोशल नामक संठ के राहुली नाम की भार्या थी उसके पुत्र धरण को दीक्षा दे उसका नाम जयानंद रख दिया । तर श्चात् सूरिजी ने कई अर्सा सिन्ध में विहार कर धर्मप्रचार बढ़ाया । पट्टावनीकारों ने आपके विहार के विषय बहुत लिखा है। आपने कई मुमुक्षुओं को दीक्षा दी, कई मन्दिरों की प्रतिष्टा करवाई, कई तीर्थों की यात्रा की । बहुत अजैनों को जैनधर्म में दीक्षित कर जैन संख्या को बढ़ाई इत्यादि आपने अपने शासन समय जैनधर्म के उत्कर्ष को खूब बढ़ाया। अपने विहार भी खूब दूर दूर प्रदेशों तक किया था। पांचाल पूर्व वगैरह में घूमते घूमते पुनः मरुधर में पधारे । आप अपनी अन्तिमावस्था में नागपुर में विराजते थे। एक रात्रि श्राप विचार कर रहे थे कि शायद् अब मेरा आयुष्य बहुत नजदीक ही हो, किसको सुरिपद दूं ? इतने में तो देवी सच्चायिका ने कहा पूज्यवर ! मुनि जयानन्द आपके पद को सुशोभित करने वाला सर्वगुण सम्पन्न है । अतः श्राप मुनि जयानन्द को ही सूरिपद अर्पण कर दीरावें : वस सूरिजी देवी के वचन को 'तथाऽस्तु' कह स्वीकार कर लिया और दूसरे दिन संघ अप्रेश्वरों को सूचित भी कर दिया जिसमें अदित्यनाग गोत्रिय शाह भेरा ने सृरिषद के लिये बड़े ही समारोह से महोत्सव किया जिसमें शाह भेरा ने तीन लक्ष द्रव्य व्यय किया और सूरिजी ने मुनि जयानन्द को सूरिपद देकर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया । तत्यश्चात् सूरिजी निर्वृतिभाव का सेवन करते हुए अन्तिम शखना में लग गये और अन्त में अनशनव्रत की अराधना कर २७ दिनों के अनशन के अन्त में समाधि-पूर्वक नाशवान शरीर को छोड़ स्वर्ग पधार गये । आचार्यश्री के शासन मे मुमुक्षुओं की दीक्षा १-भादोला के भाद्रगोत्री शाह नाथा ने दीक्षा ली। २ - नाइरपुर के बलाहगोत्रीय रघुवीर ने सूरि० दीक्षा । ३-उपकेशपुर के श्रेष्टिगोत्रीय रघुवीर ने ,, ,, ४-क्षत्रीपुरा के श्रष्टिगौत्रीय हरदेव ने , ५-विजयपट्टन के बाप्पनाग रामा ६-शंखपुर के अदित्यनाग लखमण ७-मांडव्यपुर के भाद्रगोर नोढ़ा ८-- घाटोति के विरहगो धीरा ने , , सूरीश्वरजी के शासन में दीक्षाएँ] ७४५ ACAD TEACEAE Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २९८-३१० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ayaw ayarayaw away any way ९-देवपुर के चरड़गो. धरण ने सूर. १०-धनिया के सुघड़गो. मुंमल ११-धोलागढ़ के सुचंतिगो० सांवत १२-जोगनीपुर के मल्लगो० कुम्भा । १३-~-ताबावती के करणाटगो० करमण १४-पाल्हिफा के बलहागो. पुंजा १५-खटकुंप के विचटगो० मूला १६-भवानीपुर के ब्राह्मण शंकर । १७ -अहिछतापुरी के सुथार सारंग। १८-मथुरा के कनोजिया सेजपाल ने १९-वैराटपुर के कुपडगो० मुंजल। 0-सिंहपुर के बोहरागो. नारायण २१-हस्तनापुर के भाद्रगो० नागकेतु २२-लोहाकोट के कुलभद्रगो० फागु २३-श्रीनगर के श्रीश्रीमाल लल्ल २४--तक्षिशाल __के श्रीमालवंश लाखण ने , २५-डिडुपुर के प्राग्वटवंश देसल ने , २६-मेथोली के प्राग्वटवंश दीपा ने २७ -वीरपुर के श्रीमालवंश राणा ने २८-चन्दावती के प्राग्वटवंश चतरा ने , २९--सौपारपटन के लघुष्टि चामु ने ,, ३० - देवपट्टन के मल्लगो० कल्याण ने ,,,, ३१--रानकपुर के लुंगगो० कुराशाह ने , , ३२- हर्षपुर के सुघडगो. भीमदेव ने , , इनके अलावे बहुत सी बहिनों ने तथा सूरिजी के शिष्यों ने भी अनेक प्रान्तो में अनेक भव्यों को भगवती जैन दीक्षा देकर उनका उद्धार किया । यहाँ तो केवल थोड़ा सा नाम नमूना के तौर लिख दिया है। सूरीश्वरजी के शासन में तीर्थों के संघ १-भद्रावती से भाद्रगोत्रीय नरसींग ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला २- मादडी से अदित्यनाग गौत्रीय शाह भैरा ने , , , ३ -वीरपुर से चिंचट गौत्रीय शाह दुर्जणने , , ४--वाहोडी से बाप्पनाग गौ० शाह कल्हण ने ५-क्षत्रीपुरा से श्रेष्टि गो , उरजाने ७४६ __ [ सूरिजी के शासन में तीर्थों के संघ Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ६९८-७१० ६-हसावली से सुचंति गौ० शाह धरणानेश्री शत्रुजय का संघ निकाला ७-दुर्गापुर से श्री श्रीमाल , मोकलने ८-नन्दपुर से भूरि गौ० , मौथा ने ९- उपकेशपुर से भाद्र गौ , कजल ने १०-वैराट नगरसे बलहा गौ० , कुर्भा ने ११-चित्रकोट से करणाट गौ० , खेतशीने १२- दशपुर से कुमट त कुमट गौ० । गो० , खीमड़ ने १३-उज्जैननगरीसे ब्राह्मणवंशी ., पुरुषोतम ने ४ि-मालपुरा से क्षत्रिय वंशी राव , गेहलड़ा ने ६५-डामरेलनगरसे प्राग्वटवंशी , गोवीन्दने १६-तक्षिशाल से प्राग्वटवंशी , गोपाल ने १७-मुग्धपुर से श्रीमाल वंशी , चंचग ने १८-नागपुर से कनोजिया गौ० ,, चतराने १९-भवानीपुर से लघु श्रेष्टि गौ० , शांखलाने २०-उपकेशपुर के राव दाहड़ की पुत्री शृंगार ने एक बड़ा तलाब खुदाया २१-नागपुर में श्रेष्टि नारायण की स्त्री कंकली ने एक तलाव खुदाया २२- भेदनीपुर के राव हनुमत की पुत्री पेपा ने एक कुवा खुदवाया २३-डिडूनगर के बाप्पनाग देदाने दुकालमें एक बड़ा तलाव खुदाया २४-शिवगढ़ के मंत्री मुरार संग्राम में पंचत्व को प्राप्त हुआ उसकी दो स्त्रिये सतियाँ हुई जेट वद ४ के दिन मेला भरीजे २५- माठयपुर के डिडु मेंकरण युद्ध में मरा गया जिसकी स्त्री सोहाग सती हुई माघ शुद्ध ७ का मेला भरीजे सती की पूजा हुवे २६--सारणी प्राम का राब जुजार युद्ध में काम आया जिसकी स्त्री सती हुई जिसका चांतरा गाव से पूर्व दिशा में एक कोश दूर वहाँ मेला भरता है । प्राचार्य श्री के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएं १-श्री शत्रुजय पर शाह नन्द ने भगवान् आदीश्वर के मन्दिर की प्रतिष्टा कराई । २-मधुमति में डिडु गौत्रीय शाह भूता ने महावीर मन्दिर प्रतिष्टाए । ३-कपीलपुर में कुमट गौ० , शार्दुल ने , , ४-वर्द्धमानपुर में कनौजिय गौ०, हेमा ने पार्श्व० , ५-रावड़ में आदित्यनाग० , कुराने " " " ६-पुन्दड़ा में बाप्पनाग गौ० , पुराने महावीर , , ७-भुजपुर में चरड गौ० , शुरा ने , सूरिजी के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ] ७४७ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २९८-३१० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ८- भद्रपुर में सुघड़ा गौ० शाह दाना ने शान्ति महावीर प्रतिष्ठाए ९-तनोड़ा में मल्ल गौ० , माना ने शान्ति , १०-सिद्धपुर में बोहारा गौ० , भोपाल ने आदीश्वर , ११-आलोट में तप्तभट गौ० , घेघला ने महावीर , १२- तक्षिशिल में करणाट गौ०, डुंगर ने , , १३-शालीपुर में बलाह गौ० , नोढ़ा ने , " १४-लोहाकोट में भद्र गौ० , नौधण ने , १५-मथुरा में कुलभद्र गौ० , नागड़ ने पार्श्व १६-शौर्यपुर में वीरहट गौ० , जोगड़ा ने " " १७-खंडेला में श्री श्रीमाल० , जोधा ने ८-आमेर में श्रेष्टि गौ० जसा ने १९-छत्रपुर में चोरलिया गौ. , खूमा ने महावीर , २०.--चंदेरी में सुंचंति गौ , बालड़ा ने , २१-चन्द्रावती में नागड़ गौ. , वोहित्य ने , " २२--रामपुर में करणाट गौ० , भीम ने नेमिनाथ ,, २३–पाल्हिका में करणाट गौ० , लाभा ने पार्श्वनाथ , २४--कीरादपुर में चिंचट गौ० , रावल ने , , २१-बीनातू में चौरलिया० , राणा ने महावीर । २६--मादड़ी में रूपावत् , फूसा ने , २७-सोजाली में महेसेणा० , फागु ने , २८-प्रतापपुर में राव , श्रादू ने शान्ति २९--जंगालुपुर में यादुवंशी , पाबु ने , ३.--विक्रमपुर में अदित्यनाग , ऊँकार ने वीमल ३१--नागपुर में सुचंति , घोघड़ ने महावीर , ३:-रूणावती में श्री श्रीमाल , छाहड ने , , ३३--राजपुर में श्रेष्टि गौ० , छाजू ने " " " पट्ट छबीसवें रत्नप्रभसूरि, पंचम रत्न प्रवीन थे। जैसे पंचानन सिंह को देखे वादी सब भये दीन थे ।। देश विदेश में विहार करके, नये जैन बनाते थे। उग्र विहारी शुद्ध आचारी, संख्या खूब बढ़ाते थे । ॥ इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के २६ पट्टपर प्राचार्य रत्नप्रभसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुये ॥ ७४८ [सूरिजी के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श प्रिटिंग मेरा, केसरगंज, अजमेर /