________________
वि० पू० ६२६ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३-प्राचार्य समुद्रसूरि आचार्यस्य समुद्रसूरि सुमते कान्त्याः प्रभावो महान् । जातो यश्च बहून् नृपेन्द्र मुकुटान् संदीक्ष्य जैने मते । उज्जैन्याः जयसैन नाम नृपतिं तस्यैव पत्नी पुनः, पुत्रं केशिकुमार नाम सहितं तेने च जैन प्रभाम् ॥
tone
......
चार्य समुद्रसूरि-आप श्रीमान् आचार्य हरिदत्त सूरि के हस्त दीक्षित और आपके उत्तराधिकारी थे । आप चतुर्दशपूर्व के परमज्ञाता थे । सूरि पद के योग्य सर्वगुणसम्पन्न थे : आपके उन्नतिशील जीवन के विषय में अधिक लिखना मानो सूर्य को चिराग दिखाना है कारण कि आपकी प्रतिभा का प्रभाव प्राणीमात्र के हृदय कमल में उच्च स्थान पाये हुए था । क्यों कि आपने अनेक कठिनाइयों को सहन करके
यज्ञवादियों के निष्ठुर आचरण को रोक प्राणीमात्र को अभयदान दिलवा कर अहिंसा का साम्राज्य स्थापित करवा दिया था। श्रापके उपदेश का असर केवल साधारण जीवों पर ही नहीं पर बड़े बड़े राजा महाराजाओं पर भी हुआ करता था । यही कारण है कि आपने अनेक राजाओं को जैनधर्म की शिक्षा-दीक्षा देकर अहिंसा देवी के उपासक बनाये थे !
आचार्य समुद्रसूरि के समय एक विकट समस्या थी। आपका जीवन संघर्षमय था। पशुहिंसकों की अनेक व ठिनाइयों का आपको सामना करना पड़ा था फिर भी इस अहिंसा के पुजारी ने अपनी सद् - वृतियों और सत्य के नाद से अत्याचार और चिरकाल की कुरूढ़ियों का उन्मूलन कर ऊंच-नीच के जहरीले भेद-भावों को मिटाकर समभाव का साम्राज्य स्थापित करने में आशातीत सफलता प्राप्त करली थी अर्थात आपका विजय झंडा चारों ओर फहरा रहा था । आपके आज्ञावृति हजारों दिगविजयी साधु चारों ओर घूम घूम कर जैनधर्म के प्रचार को तेज रफ्तार से बढ़ा रहे थे।
आपके शासनवृति एक महाप्रभावशाली विदेशी नामक मुनि थे वे एक समय कई ५०० मुनियों के साथ विहार करते हुये क्रमशः श्रावन्ती (उज्जैन) नगरी के उद्यान में आ निकले ! जब राजा प्रजा को इस बात की खबर मिली तो वे बड़े ही समारोह के साथ मुनिवर्य को वन्दन करने को आये । जिसमें आवन्ती नगर का अधिपति राजा जयसैन उनकी पट्टानी अनंगसुन्दरी तथा आपका लौतासा पुत्र केशीकुमार भी साथ में थे । सब लोग मुनिप्रवर को वन्दन कर यथास्थान बैठ गये और उपदेश श्रवण की जिज्ञासा कर रहे थे।
अतः मुनिवर्य ने अपना कर्त्तव्य जान कर जनता के कल्याणार्थ भववारणी धर्मदेशना दी जिसमें संसार की असारता सम्पत्ति की चंचलता, आयुष्य की अस्थिरता, कुटुम्ब की स्वार्थता और मनुष्य जन्मादि सामग्री की दुर्लभता का इस प्रकार व्याख्यान दिया कि श्रोताजन श्रवण कर मंत्रमुग्ध हो गये और कई लोगों की भावना संसार से विरक्त हो अपने कल्याण की ओर जागृत हो गई।
जब व्याख्यान खत्म हुआ तो सब लोग मुनिवर को वन्दन कर चलने लगे परन्तु राजकुमार केशी वहाँ
Jain Educ
International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org