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आचार्य समुद्रसरि का जीवन
[वि० पू० ६२६ वर्ष
ठहर गया और मुनि के सामने टकटकी लगा कर देखने में इतना मस्त बन गया कि अपने माता पिता के वहां से रवाना होने की भी उसको सुधि न रही। तब सब लोगों के चले जाने पर केवल एक तेजस्वी बालक को बैठा हुआ देख कर एक मुनि ने उसको सम्बोधन कर कहा कुमार ! क्या ध्यान लगा रहा है ?
कुमार-गुरुवर्य ! यह क्या कारण है कि मैं आपकी ओर देखता हूँ तो मेरे हृदय में एक प्रेम का समुद्र ही उमड़ उठता है कि जिसको में वाणी द्वारा कह भी नहीं सकता हूँ।
मुनि अपने ज्ञान में उपयोग देकर कुमार को जवाब दिया कि हे भव्य ! तुमने पूर्व भव में भगवती जैनदीक्षा का अाराधन किया है अतः तुमको दीक्षितों पर धर्म स्नेह होता है और ऐसा होना स्वभाविक भी है अतएव तुमको प्रेम का अनुभव हो रहा है यह पूर्वजन्म का ही संस्कार है।
कुमार-हे प्रभो ! क्या मैंने सचमुच ही पूर्व भव में दीक्षा ग्रहण कर उसका पालन किया था ? यदि ऐसा ही है तो कृपया मेरा पूर्वभव सुनाइये ? कारण, आप ज्ञानी हैं।
मुनि ने कहा कि हे कुमार ! सुन मैं तुझे पूर्वभव सुनाता हूँ। इसी भारत के वक्षस्थल पर धनपुर नाम का नगर था वहां पृथ्विीधर राजा और उसके सौभाग्यवती देवी थी। जिसकी कुक्ष से सात पुत्रियों के बाद एक कुमार ने जन्म लिया जिसका नाम देवदत्त रक्खा था। उस देवदत्त ने बाल्यावस्था में ही गुणभूषण आचार्य के पास जैनदीक्षा धारण कर चिरकाल दीक्षा का आराधन किया। अन्त में समाधिपूर्वक काल कर पांचवॉ ब्रह्म नामक स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और वहां से चव कर तू यहां राजकुमार हुआ, अतः दीक्षा एवं दीक्षितों पर अनुराग होना स्वाभाविक है । - कुमार-मुनि से अपना पूर्वभव सुन कर इहापह लगाया तो क्षण भर में उसको जाति-स्मरण ज्ञानोत्पन्न हो आया, जिससे जैसे मुनि ने कहा उसने प्रत्यक्ष में अपना पूर्वभव देख लिया। फिर तो ज्ञानियों के लिये देर हो क्या थी ? उसको संसार कारागृह जैसा मालूम होने लगा और मुनिवर्य से प्रार्थना की कि हे प्रभो! आप यहाँ ही विराजें, मैं अपने माता पिता की आज्ञा लेकर आता हूँ और आपकी शरण में दीक्षा लूंगा।
मुनि ने कहा जहाँ सुखम् । पर धर्म कार्य में विलम्ब नहीं करना । राजपुत्र केशीकुमार उन मुनियों को वन्दन नमस्कार कर वहाँ से चल कर सीधा ही अपने माता पिता के पास आया और उनको अपने विचारों को सुना कर दीक्षा की आज्ञा मांगी । पर इस प्रकार एक छोटा सा बच्चा दीक्षा में क्या समझे, अतः उन्होंने कुमार का कहना हँसी में गुजार दिया; पर जब कुमार ने अपने अनुभव एवं संसार की असारता और दीक्षा की उपादेयता के विषय में ठोस शब्दों में कहा तो माता पिता ने जाना कि केशी की बात हँसी की नहों पर सचमुच दीक्षा की है । कुमार को बहुत समझाया पर आखिर कुमार की दीक्षा का प्रभाव उल्टा राजा रानी पर इस कदर हुआ कि उन्होंने स्वयं अपने बड़े पुत्र को राज सौंप कर अपने प्यारे पुत्र के साथ मुनि विदेशी के चरण कमलों में दीक्षा लेने की तैयारी कर ली। फिर तो था ही क्या ? नगर भर में इस बात की खूब हलचल मच गई और कई ५०० मुमुक्षु केशीकुमार का अनुमोदन कर दीक्षा के लिये तैयार हो गये और मुनिवर्या ने उन सब को बड़े ही समारोह के साथ दीक्षा देकर उनका उद्धार किया।
राजर्षि जयसैन और आर्यका अनंगसुन्दरी ने नाशवान राज का त्याग करके दीक्षा लेली बाद ज्ञान, ध्यान और तप संयम की आराधना में संलग्न हो गये और आपकी इच्छा अब अक्षय राज की ओर लग
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