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वि० पू० ६२६ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
गई । श्राहा, आचार्य समुद्रसूरि जैसे गुरु और केशीश्रमण जेसे शिष्य, फिर तो कमी हो किस बात की थी; उन्होंने क्रमशः सब कर्मों का क्षय कर अन्त में केवल ज्ञान केवल दर्शन प्राप्त कर मोक्ष पधार गये ।
इधर बार्षिकेशी श्रमण को जातिस्मरण ज्ञान से पूर्व भव में पढ़ा हुआ सब ज्ञान स्मृति मात्र से हस्तामलक की तरह याद हो गया। इनके अलावा भी आपने चतुर्दश पूर्व का अध्ययन कर लिया, इतना ही क्यों पर आपकी कठोर तपश्चर्य्या, खंड ब्रह्मचर्य्य श्रादि गुणों से अनेक विद्याओं एवं लब्धियों ने भी आपको पात्र समझ कर वे स्वयं वरदायी बन गई। आप स्वमत और परमत के शास्त्रों में तो इतने प्रवीण हो गये थे कि वादी और प्रतिवादी आपकी क्रान्ति को सहन नहीं करते हुए दूर दूर भाग रहे थे ।
जिस समय आचार्य समुद्रसूरि अपने शिष्य मंडल के साथ धर्मप्रचार करते हुये भूमंडल पर बिहार करते थे उस समय कौशाम्बी राजधानी में एक यज्ञ का आयोजन हो रहा था जसकी खबर श्राचार्य समुद्रसूरि को मिली । भला, ऐसे सुअवसर को सूरिजी कब जाने देने वाले थे । इधर केशीश्रमण जैसे शिष्य की प्रबल प्रेरणा होने से वे चलकर कौशाम्बी राजधानी की ओर पधारे और आपका हिंसा विषय पर जोरों से व्याख्यान होने लगा, जिसका जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ परन्तु यज्ञवादियों को यह कब अच्छा लगने वाला था । उनके दिल में यह शंका होने लगी कि यह नास्तिक लोग कभी अपने कार्य में विघ्न न डालदें । अतः उन्होंने भी अपना पक्ष मजबूत बनाने के लिये प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया । आखिर सूरिजी की ओर से मुनि केशीश्रमण और यज्ञवादियों की ओर से उनके खास अध्यक्ष आचार्य मुकन्द राजसभा में श्राये और उनका शास्त्रार्थ हुआ । श्राचार्य मुकन्दने यज्ञ की हिंसा को हिंसा बतला कर खूब पुष्टि की। उपस्थित लोग यह सकते थे कि इसके खंडन के लिये जैनसाधु क्या कहेगा । पर केशी श्रमण
हिंसा परमोधर्म के विषय ऐसे अकाट्य प्रमाण सभा के सामने रक्खे कि जिसके समक्ष ये हिंसक लोग निरुत्तर होगये । श्रतः विजयमाला केशीश्रमण के कंठ में शोभायमान हो गई । हिंसकों पर केशी श्रमण की यह सर्व प्रथम विजय थी । बस, जैनधर्म की जयध्वनि से गगन गूंज उठा अहिंसा भगवती का फंडा चारों ओर फहराने लगा । राजा और प्रजा उल घोर हिंसा से घृणा कर हिंसा भगवती के उपासक बनगये । और आचार्य समुद्रसूरि ने अपने कर कमलों से उन सब की शुद्धि करके वासक्षेप के विधिविधान से उन सब को जैनधर्म में दीक्षित किये ।
आचार्य समुद्रसूरि अपनी अन्तिमावस्था में मुनि केशीश्रमण को सर्वगुणसम्पन्न जान कर अपना पट्टाधिकार एवं गच्छ भार केशीश्रमण को देकर तीर्थधिराज श्री सम्मेतशिखर पर सलेखना एवं समाधिपूर्वक अनशन कर केवल ज्ञान दर्शन प्राप्त कर मोक्ष पधार गये। *
इति श्री पार्श्वनाथ प्रभु के तीसरे पट्टधर श्राचार्य समुद्रसूरि महाप्रभाविक हुये ।
* समुद्रसूरिराचार्यो, महाधर्म प्रचारकः उज्जयिन्या नगर्यास्तु, जयसेनाभिधं नृपम् ॥ केशिकुमार राट्पुत्रं राज्ञीश्चानङ्ग सुन्दरीम् । सम्बोध्य जैन तत्वंतु, जैन धर्मे दीक्षत || केशिनामा तद्विनेयो, यः प्रदेशि नरेश्वरम् । प्रबोध्य नास्तिकाद्धर्मा ज्जैन धर्मेऽध्यरोपयत् ॥
उपकेशगच्छ चरित्र
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