SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि० पू० ५५४ वर्ष प्राचार्य केशीश्रमणा तुर्यः पट्टधरेष्ट केशिश्रमणः स्वीयप्रभावेण यः, चारित्रेण तपस्यया च जनतां निन्ये समग्रां वशे । श्वेताम्बी नगरी नृपो बहुतया यो नास्तिको रक्षितःः जालात्पापधियां च येन नृपतिर्यत्नात् प्रदेशी महान् ॥ है या चार्य केशीश्रमण-- श्राप उगते सूर्य की किरणों की भांति प्रकाश करने में समर्थ बाल ब्रह्मचारी चतुर्दशपूर्वधर अहिंसा एवं जैनधर्म के कट्टर प्रचारक युवकाचार्य थे। आप की प्रतिभा का प्रचण्ड प्रभाव चारों ओर प्रकाशित हो रहा था । आप केवल मनुष्यों से ही नहीं पर देव देवेन्द्र नर नरेन्द्र एवं विद्याधरों से भी पूजित थे; आपके ज्ञान सूर्य का प्रभाव मिथ्यान्धकार को जड़मूल से नष्ट कर रहा था। पशु-हिंसक यज्ञप्रचारक तो आपके सामने इस प्रकार पलायन हो जाते थे कि जैसे शेर के सामने गीदड़ भाग छूटते हैं । आपकी उपदेश पद्धति इतनी मधुर रोचक और सारगर्भित थी कि जिसको सुनकर देव मनुष्य और विद्याधर मंत्र मुग्ध बन जाते थे। आपने जैसे जैनसंख्या में वृद्धि की वैसे जैनश्रमण संघ की भी खूब वृद्धि की थी। जिस समय आप पूर्व भारत में धर्म प्रचार बढ़ा रहे थे। उस समय लोहित्यशाखा के श्रमण दक्षिण भारत में विहार कर रहे थे । पर दुर्दैववशात् दक्षिण विहारी श्रमण समुदाय के अन्दर स्वच्छन्दता के कारण कुछ वैमनस्य पैदा हो गया था जिसको पूर्व भारत में रहे हुये केशीश्रमणाचार्य ने सुना, अतः आपने उन साधुओं को आज्ञा कर अपने पास पूर्व में बुला लिया, फिर भी कुछ साधु दक्षिण में रह भी गये थे । जो साधुगण दक्षिण में रहे थे वे अपना संगठन बल बढ़ा कर जैनधर्म के प्रचार में लग गये थे। दक्षिण के साधु पूर्व में आने के बाद थोड़े समय तो शान्त रहे, पर बाद को तो जो हाल दक्षिण में था वह ही पूर्व में हो गया जिसको कलिकाल के उदय के पूर्व का प्रभाव कहा जा सकता है । अत: एक ओर तो केशीश्रमणाचार्य घर की बिगड़ी को सुधारने का प्रयत्न कर रहे थे, तब दूसरी ओर यज्ञवादियों का जोर बढ़ता जा रहा था। वे लोग थोड़ी थोड़ी बात में बड़े २ यज्ञ कर असंख्य निरपराधी मूक प्राणियों के कोमल कंठ पर छुरे चला कर यज्ञवेदियों को खून से रंगने में धर्म बतला कर जनता को अज्ञान के गहरे गड्डे में ढकेल रहे थे। इतिहास की शोध खोज से यह पता सहज ही में लग जाता है कि वह जमाना भारत के लिये बड़ा ही विकट, भीषण और दुःखमय था राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक शृंखला का पतन हो चुका था और पाखण्डियों का अत्याचार भारत को गारत कर रहा था। उस जमाने का सब कारोबार ब्राह्मणों की जुल्मी सत्ता के नीचे चलता था । ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्व को भूल कर स्वार्थ के पुतले बन बैठे थे। पारलौकिक सुखों के फरमान लिख कर समाज को उल्टे रास्ते ले जा रहे थे । क्षत्रियवर्ग एवं राजा महाराजा उन स्वार्थ-प्रिय ब्राह्मणों के बांये हाथ के कठपुतले बन कर अपने पथ से च्युत हो रहे थे । समाज की बागडोर उन अत्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.१५orary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy