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वि० पू० ५५४ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
रियों के हाथ में थी और वे समाज के शिरताज बन चुके थे। सत्ता अहंकार की गुलाम बन अपना दुरु पयोग कर रही थी । बलवान अपने बल की आजमाइश निर्बलों पर करते थे । सिवाय ब्राह्मणों के ज्ञान के द्वार सब के लिये बन्द ये । बिचारे शूद्रों की तो उस जमाने में सबसे बड़ी खराबी थी। उनकी संसार में घास फू'स जितनी भी कीमत नहीं रही थी । उनको धर्मशास्त्र पढ़ना तो क्या पर सुनने से ही प्राणदंड मिलता था धर्म र स्वार्थका साम्राज्य था । कर्तव्य सत्ता का गुलाम बन चुका था । करुणा ने पैशाचत्व का रूप धारण कर जनता में त्राहि-त्राहि मचा दी थी । मनुष्य कहलाने वालों ने अपने मनुष्यत्व को अत्याचार पर बकर दिया था। प्रेम, स्नेह और एकता केवल पुस्तकों के पृष्ठों पर ही अंकित थी अर्थात् इस भयंकरता ने चारों ओर पापाचार एवं तृष्णा की भट्टियें भभका दी थीं जिसके सामने यदि कोई पुकार भी करता तो सुनता कौन था ? फिर भी सुधारक लोग उन अत्याचारों के सामने कटिबद्ध हो जनता को रक्षण कर ही रहे थे। पर वे थे बहुत थोड़े जो उस बिगड़ी का सुधार करने में अपर्याप्त ही माने जाते थे ।
इधर भगवान केशी श्रमणाचार्य ने अपने श्रमण संघ की एक विराट् सभा की, जिसमें समाज प्रेसर श्राद्ध वर्ग भी शामिल थे। आचार्य केशी श्रमण ने अपने साधुओं को स्वकर्तव्य समझाते हुये अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा प्रभावशाली एवं सचोट उपदेश देकर कहा कि वीरो ! आपने जिस उद्देश्य को लक्ष्य में रख संसार का त्याग किया था, वह समय आपके लिये श्रा पहुँचा है । विश्वोद्धार के लिए से कटिबद्ध हो जाइये । जगत का उद्धार आप जैसे त्यागी महात्माओं ने किया और करेंगे । एक नहीं पर अनेक फतें आपके सामने उपस्थित हों तो तुम तनिक भी परवाह मत करो, इतना ही क्यों पर इस नाशवान शरीर की भी परवाह मत करो और अपने कर्तव्य पर डट जाओ इत्यादि ।
प्राणप्रण
आखिर तो शेर शेर ही होते हैं। भले ही थोड़ी देर के लिये उनकी निद्रावस्था में मृगादि वनचर क्षुद्र प्राणी अपना विजय राज समझ लें पर जब वे शेर गर्जना करते हैं तो मृगादि पशुओं का धैर्य टिक नहीं सकता है, अतः सूरिश्वरजी का वीरतामय उपदेश सुनकर वे मुनिपुंगव शेरों की भांति बोल उठे कि हे पूज्यवर ! जिस प्रकार आप हुक्म फरमावें हम शिरोधार्य करने को तैयार हैं किसी भी कठिनाइयों की हमें परवाह नहीं है । हम अपना कर्तव्य अदा करने को कटिबद्ध हैं ।
अपने साधुओं के वीरतामय वचन सुन कर सूरिजी का उत्साह और भी बढ़ गया और साधुनों की योग्यता पर उनकी अलग २ टुकड़ियां बनाकर निम्नलिखित स्थानों की ओर विहार की आज्ञा फरमा दी । ५०० मुनियों के साथ वैकुण्ठाचार्य को तैलंग प्रान्त की ओर ।
५०० मुनियों के साथ कालिकापुत्राचार्य को दक्षिण महाराष्ट्र प्रान्त की ओर । ५०० मुनियों के साथ गर्गाचार्य को सिन्ध सौवीर प्रान्त की ओर । ५०० मुनियों के साथ यवाचार्य को काशी कौशल की ओर । ५०० साधुओं के साथ अन्नाचार्य को अंग वंग कलिंग की ओर । ५०० मुनियों के साथ काश्यपाचार्य को सुरसैन (मथुरा) प्रान्त की ओर। ५०० मुनियों के साथ शिवाचार्य को अवन्ती प्रान्त की ओर । ५०० मुनियों के साथ पालकाचार्य को कोंकण प्रदेश की ओर ।
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