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आचार्य हरिदत्तमरि का जीवन ]
[वि० पू० ६९६ वर्ष
राष्ट्रप्रान्त में जैनश्रमणों का अस्तित्व ही नहीं वरन् तामिल भाषा के ग्रन्थ निर्माण करने वाले मौजूद थे। इससे अनुमान किया जा सकता है कि इस समय के पूर्व भी उस प्रान्त में जैन धर्म प्रचलित होगा।
डॉ. फ्रेजरसाहिब ने अपने इतिहास में लिखा है कि यह जैनियों के ही प्रयत्न का सुंदर फल है कि दक्षिण भारत में नया आदर्श, साहित्य, आचार-विचार एवं नूतन भाषा शैली प्रगट हुई ।"
इस घटना के लिये विश्वसनीय एवं ऐतिहासिक प्रमाण जैसा चाहिये वैसा मेरे जानने में अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। इसका यही कारण है कि यह घटना अति प्राचीन अर्थात् भगवान् महावीर के १५० वर्ष पूर्व की एवं विक्रमी ६२० वर्ष पूर्व की है। फिर भी एक प्रमाण ऐसा मिलता है कि पूर्वोक्त घटना का होना सम्भव हो सकता है।
दिगम्बर मतानुसार आचार्य भद्रबाहु अपने १२००० शिष्यों के साथ दुष्काल के समय महाराष्ट्र प्रान्त में पधारे थे और उन्होंने वहाँ के जिनालयों की यात्रा भी की थी। अतः भद्रबाहु के पूर्व वहाँ जैनधर्म होना सिद्ध होता है। प्रोफेसर ए. चक्रवर्ती का अनुमान है कि यदि भद्रबाहु के पूर्व दक्षिण भारत में जैनधर्म का प्रचार न होता तो दुर्भिक्ष के समय यकायक १२००० शिष्यों के साथ भद्रबाहु दक्षिण में जाने का साहस न करते, वरन् उनको अपने अनुयायियों द्वारा शुभागमन किये जाने का विश्वास था । इसी से वे दक्षिण में जाकर ठहर सके।
एक और भी प्रबल प्रमाण है कि सिंहलद्वीप के इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला महावंश नामका एक पाली भाषा का ग्रन्थ है जिसे धेनुसेन नामक एक बौद्ध भिक्षु ने लिखा है । इस ग्रन्थ का निर्माण काल ईसवी सन् की पांचवी शताब्दी का अनुमान किया जाता है । इस ग्रंथ में ईसा के ५४३ वर्ष पूर्व से लगा कर ३०१ वर्ष तक का वर्णन है । इसमें वर्णित घटनायें सिंहलद्वीप के इतिहास के लिये यथेष्ठ प्रमाणित मानी जाती हैं। इसमें सिंहलद्वीप के नरेश 'पनुगानय के वर्णन में कहा गया है कि उन्होंने लगभग ४३७ ईसा पूर्व अपनी राजधानी अनुराधपुर में स्थापित की और वहाँ निर्ग्रन्थ मुनियों के लिये एक गिरि नामक स्थान बनाया । निर्ग्रन्थ कुम्बन्ध के लिये राजा ने एक मन्दिर भी निर्माण कराया जो उक्त मुनि के नाम से विख्यात हुआ इत्यादि ।
एक विधर्मी अर्थात् स्पर्धा करने वाला धर्म का भिक्षु इस प्रकार प्राचीन इतिहास लिखता है, जिससे ईसा की पांचवीं शताब्दी पूर्व अर्थात् भद्रबाहु की यात्रा के समय से दो सौ वर्ष पूर्व महाराष्ट्र में जैन मुनियों का भ्रमण और राजा महाराजाओं का उनके उपासक होना सिद्ध होता है । अतएव महाराष्ट्र प्रान्त में लोहित्याचार्य द्वारा जैनधर्म की नीव डालना जैनपट्टावल्यादि ग्रन्थों में लिखा हुआ मिलता है वह पूर्वोक्त प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणों से साबित हो सकता है।
+ लोहित्याचार्य के पट्ट पर देवभद्राचार्य देवभद्र के पट पर गुणभद्राचार्य हुए । आचार्य श्रीकेशीश्रमण के बुलाने पर गुणमद्राचार्ग अपने बहुत शिष्यों के साथ केशीश्रमण के पास आ गये-और शेष साधु महाराष्ट्रप्रान्त में रहे थे उनकी परम्परा कहां तक चली होगी पर भद्रबाहु के समय तो वे महाराष्ट्र में विद्यमान थे।
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