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वि० पू० ६९६ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
हैं, इतना ही क्यों पर आज की शोध खोज से भी महाराष्ट्रप्रान्त में जैनधर्म के प्रचार के लिये यत्र तत्र कई प्रमाण मिलते हैं उससे भी साबित होता है कि आचार्य भद्रबाहु के पूर्व महाराष्ट्र में जैनधर्म का काफी प्रचार था।
आचार्य लोहित्य ने उस सूरि पद को केवल खजाने में अमानत ही नहीं रख छोड़ा था पर उसको चिरस्थायी बनाने का जबर्दस्त प्रयत्न किया था । आपने अनेक स्थानों एवं राजसभाओं में यज्ञवादियों एवं हिंसाप्रचारकों के साथ शास्त्रार्थ कर विजय का डंका बजाया था । पशु-बलि और अत्याचार को उन्मूल कर असंख्य मूक प्राणियों को अभयदान दिलवाया था । अनेक भद्रिक जो मिथ्यात्व सेवन कर नरकाभिमुख हो रहे थे उनको सदुपदेश देकर समझाया अर्थात् उनको मोक्ष एवं स्वर्ग का अधिकारी बनाया इत्यादि । लोहित्याचार्य ने अपने यश को उषा को लाली से लोहित कर दिया जो प्रातःकाल होते ही कृतज्ञ प्राणी के हृदय में उनकी पुन्य स्मृति को जागृति रखती है । अन्त में लोहिताचार्य केवलज्ञान प्राप्त करअपनी अन्तिम अवस्था में मुनि देवभद्रा को अपना पदाधिकार देकर आप अनशन एवं समाधि के साथ इस नाशवान शरीर को त्याग कर मोक्ष पधार गये । इन लोहित्याचार्य की संतान महाराष्ट्रप्रान्त में भ्रमण करती हुई लोहित्य शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई।
इधर आचार्य हरिदत्तसूरि ने अपना बिहारक्षेत्र इतना विशाल बना दिया कि अंग बंग पंचाल कलिंग और हिमालय तक आप स्वयं तया अपने साधुओं को भेज भेज कर धर्म का खूब ही प्रचार बढ़ाया अन्त में आपने मुनि आर्यसमुद्र को सूरि बना कर व्यवहारगिरि पर्वत पर समाधि मरण कर अक्षय स्थान पर कब्जा कर लिया । हरिदत्तसूरि की संतान पूर्व भारत में रही वह निर्ग्रन्थ शाखा कहलाई ।
पट्टधर उनके हुए आचार्य हरिदत्तमूरिवर । अद्भुत प्रतिभा अकलुष सदय जिन धर्म की आभा प्रखर ॥
वे धर्म का विस्तार कर विख्यात शासन कर हुए। सावत्थी नगरी मध्य जो शास्त्रार्थ में उद्धर हुए ॥
एक सहस्र शिष्यों सहित लोहित्य को दीक्षित किए।
फहरा ध्वजा महाराष्ट्र को जैनधर्म से भूषित किए ॥ इति भगवान पार्श्वनाथ के पट्टपर प्राचार्य हरिदत्तसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुए ।
ॐ इतिहास की शोध खोज से पता मिलता है कि महाराष्ट्रप्रान्त के साहित्य निर्माण के लिये एक संघ कायम किया गया था। उसका उद्देश्य था कि प्रमाणित साहित्य जनता के सामने रक्खे । इस संघ का समय ईसवी सन् की पहली शताब्दी का था, ऐसा विद्वानों का मत है । उसी समय का तिरुवल्लुर नामक तामिल जैन साधु का बनाया हुआ एक कुरल नामकाउत्कृष्ट काव्य मिलता है । यह साधु जैन ही था। नीलकेशी की टीका में इस काव्य को जैन शास्त्र होना स्पष्ट शब्दों में कहा गया है । इस ऐतिहासिक साहित्य से भी यही सिद्ध होता है कि ईसवी सन् के आरम्भ में महा.
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