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आचार्य हरिदत्तसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ६९६ वर्षे
प्राचार्य हरिदत्तसूरि का पक्ष अहिंसा परमोधर्म का था। उन्होंने प्रतिवाद में ऐसे अकाट्य प्रमाण पेश करते हुये प्रियवचनों से समझाया कि आप विचार कर सकते हो कि यदि हिंसा से ही जीवों की मुक्ति एवं शान्ति हो सकती हो तो फिर तो 'अहिंसा परमो धर्मः' यह शास्त्र वाक्य निरर्थक ही साबित होगा और जो शास्त्रों में अहिंसा का उच्च आदर्श बतलाया है उन सब को अप्रमाणिक ही समझना होगा इत्यादि । आचार्य श्री के शान्तिमय प्रमाणों ने लोहित्य की अन्तरात्मा पर खूब गहरा प्रभाव डाला। बस फिरतो था ही क्या, मुमुक्षुओं को सत्य का भास होते ही वे असत्य को त्याग सत्य ग्रहण कर लेते हैं यही हाल लोहित्य का हुआ। उसने हिंसा को त्याग कर अहिंसा भगवती के चरणों में शिर झुका दिया। यह हिंसा पर अहिंसा की पूर्ण विजय थी। अहिंसा का जयनाद हुआ। उपस्थित राजा महाराजा एवं नागरिकों पर अहिंसा का खूब प्रभाव हुश्रा
और लोहित्य के साथ अहिंसामय जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा ग्रहण कर वे भी जैन धर्म के उपासक बन गये। ___ लोहिताचार्य ने अपने हजार साधुओं के साथ आचार्य हरिदत्तसूरि के चरण कमलों में जैन दीक्षा लेने के पश्चात् जैनधर्म के शास्त्रों का गहरा अध्ययन कर लिया। तदनन्तर आपने निश्चय करलिया कि मैंने जैसे हिंसाधर्म का प्रचार किया था वैसे ही अब हिंसा का उन्मूलन कर अहिंसा का प्रचार करूँगा । जब प्राचार्य हरिदत्त ने लोहित्य की योग्यता देखी तो उसको गणि पद से विभूषित कर उनके १००० साधुओं को साथ दे महाराष्ट्र प्रान्त में विहार करने की आज्ञा फरमा दी । क्यों कि उस प्रान्त में यज्ञवादियों का खूब जोर जमा हुआ था और न वहाँ किसी अहिंसा प्रचारक का जाना ही होता था । यदि कोई साधारण व्यक्ति चला भी जाय तो उन हिंसा प्रचारकों के साम्राज्य में वह अधिक समय जीवित भी नहीं रह सकत, था। अतः आचार्यश्री ने लोहित्य को इस कार्य के लिए सर्वगुण सम्पन्न जान कर ही आज्ञा दे दी थी । इतना ही क्यों पर उन आगम विहारी भविष्यवेत्ता ने भविष्य का महान लाभ जान कर ही इस कार्य के लिए प्रयत्न किया था और आगे चल कर उन महर्षि हरिदत्तसूरि का प्रयत्न सफल भी हुआ जिसको श्राप आगे चल कर पढ़ ही लेंगे।
गणिवर लोहित्याचार्य बड़े ही उत्साह के साथ गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर अपने सहस्र शिष्यों को साथ लेकर क्रमशः भ्रमण करते हुये अपने निर्देश स्थान अर्थात् महाराष्ट्रीय प्रान्त में पदार्पण कर अपना प्रचार कार्य प्रारम्भ कर दिया। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन हिंसक पाखण्डियों के साम्राज्य में इन अहिंसा के पुजारी को किस किस प्रकार कठनाइयों का सामना करना पड़ा था ? उन निष्ठुर हृदयी दैत्यों ने जैन साधुओं को जान से मार डालने के अनेकों प्रयत्न करने में भी कुछ उठा नहीं रक्खा था । पर आखिर अहिंसा भगवती के चरणों में उन हिंसकों को शिर मुकाना ही पड़ा और गणिवर लोहित्य को अपने कार्य में आशातीत सफलता प्राप्त होती ही गई वह भी साधारण व्यक्तियों में नहीं पर अनेक गजा महाराजा अहिंसा के पुजारी बन गये अर्थात् जैन धर्म के अनुयायी बन कर लोहिय के कार्य में सहायक भी बन गये । फिर तो था ही क्या, लोहित्य ने जैनधर्म की नींव सुदृढ़-मजबूत बनाने में मेदनी जिनालयों से मंडित बना दी । वहाँ के श्रीसंघ ने लोहित्य की योग्यता पर मुग्ध बन उनको सूरिपद से विभूषित किया जो उस समय उस प्रान्त में इस पद की परमावश्यकता थी। इस विषय के जैनसाहित्य में अनेक प्रमाण विस्तृत संख्या में मिलते
१तत्पट्टे सरिराचार्य, हरिदत्तःसुधीःस्थितः, स्वस्त्याख्यायांनगर्याञ्चसर्वशास्त्रविशारदम् । जित्वा लौहित्याचार्य, शास्त्रार्थ शास्त्रवित्तमः, सहस्रछत्रयुक्तं तं, दीक्षयामासजैनधे ॥
उपकेशगच्छचरित्र
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