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वि० पू० ६९६ वर्ष ]
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[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
२ - प्राचार्य हरिदत्त सूरि
आचार्यो हरिदत्तमूरि रथ तं पट्टेऽनुयातो बहु- । तेजस्वी निजधर्मवृद्धिनिरतः निष्णात बुद्धिर्गुरुः || सावत्थी नगरी स्थितो जिनमते लौहित्यकं दीक्षयन् । शिष्यानेक सहस्रकान् प्रहितवान् यस्तान् महाराष्ट्रके ॥
चार्य हरिदत्तसूरि - आप भी द्वादशाङ्गी एवं चतुर्दशपूर्व के पूर्णज्ञाता एवं प्रखर पण्डित थे । ऋद्धि-सिद्धि और विद्या लब्धियों के तो आप खजाने ही कहलाते थे । धर्मप्रचार करने में आप एक मशीनगिरी का ही काम किया करते थे । वाद और शास्त्रार्थ में श्राप सदैव विजयी होकर वादियों को नतमस्तक कर डालते थे । श्रापकी आज्ञा में हजारों साधु साध्वियां एवं लाखों करोड़ों श्रावक श्राविकायें मोक्षमार्ग का आराधन किया करते थे ।
यज्ञ में होने वाले बलिदान ने आपका चित्त आकर्षित किया । प्राणिमात्र की हित कामना के उद्देश्य से हिंसा को धर्म का रूप देने वाले उन कर्मकाडियों को आपने हिंसा तत्व का उपदेश कर जीव मात्र को अभयदान दिलाया । अहिंसा के प्रचार में संलग्न सूरीश्वरजी के हृदय की करुणा ने हिंसा पर विजय प्राप्त की । श्रापके सफल शासन में धर्म और नीति के पहिये वाले समाज रथ का सुचारु रूप से संचालन समस्त संसार को उन्नति के शिखर पर पहुँचा रहा था ।
श्राचार्य हरिदत्तसूर अपने शिष्य समुदाय के साथ भ्रमण करते हुये एक बार सावत्थी नगरी के उद्यान में पधारे। वह समय जनता के लिये बड़े ही सौभाग्य का था । राजा अदीनशत्रु आदि जनमेदनी सूरिजी के स्वागत - दर्शन एवं वन्दनार्थ उमड़ पड़ी । आपके उपदेशामृत से सब लोग मंत्रमुग्ध बन गये थे । और हिंसा परमोधर्म की ओर उनकी विशेषाभिरुचि जागृति हुई ।
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उसी समय सारथी नगरी में एक लोहित्याचार्य नामक यज्ञप्रचारक अपने १००० शिष्यों के साथ आया हुआ था और वह अपने सिद्धान्त एवं यज्ञकर्म का जोर से प्रचार भी करता था । एक स्थान में दो धर्म के समर्थ प्रचारक एकत्र हो जांय तो धर्मवाद खड़ा होना एक स्वाभाविक बात थी । चाहे अप्रेसर लोग इन बातों को नहीं भी चाहते हों पर साधारण जनता का तो यह एक व्यवसाय ही बन जाता है । और आखिर वह वाद उग्र रूप धारण कर असरों को मत - ममत्व के अन्दर विवश बना ही देते हैं। यही हाल सावत्यी नगरी के अन्दर दोनों ओर का हो रहा था ।
लोहित्याचार्य केवल विद्वान ही नहीं पर सत्यप्रिय भी था । अतः राजा श्रदीनशत्रु की राजसभा में दोनों श्राचार्यों का बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ । लोहित्याचार्य का पक्ष यज्ञधर्म का था और इसमें जो पशुबलि श्रादि हिंसा होती है वह हिंसा नहीं 'वैदिक हिंसा न हिंसा भवति' अर्थात यज्ञादि में जो हिंसा होती है वह हिंसा अहिंसा ही समझी जाती है और इसमें पशुओं की मुक्ति, संसार की शान्ति और धर्म का उत्कर्ष होता है इत्यादि लाभ बतलाया जाता था ।
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