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गणधर शुभदत्ताचार्य ]
[वि० पू० ७२० वर्ष
एक समय की जिक्र है कि गणधर शुभदत्ताचार्य के हस्तदीक्षित मुनिवरदत्त ५०० शिष्यों के साथ विहार करते हुए जंगल में जा रहे थे पर सूर्य अस्त हो जाने से उनके सब साधुओं को जंगल में ही ठहर जानो पड़ा । जब वे अपनी आवश्यक क्रिया करके ज्ञान ध्यान में स्थित थेतो वहाँ कई चोर आ निकले और उन्होंने भी रात्रि में वहीं विश्राम लिया। चोरों का इरादा था कि इन साधुओं के पास कुछ माल हो तो छीन लिया जाय । जब रात्रि में वे चोर मुनियों के पास आये तो मुनियों के पास ज्ञान एवं धर्मोपदेश के अलावा था ही क्या,उन चोरों को उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया मुनियों के उपदेश में न जाने क्या जादू भरा हुआ था कि चोर अशुभ कृत्यों से नरक के दुःखों को सुन कर एकदम संसार से भय भ्रान्त होकर सोचने लगे कि आहा-हाइन महात्मा का कहना सत्य है, एक मनुष्य अकृत्य करके द्रव्य उपार्जन करता है उसके खाने वाला तो सब कुटुम्ब है पर भवान्तर में दुःख जो पाप करता है उस एक मनुष्यको ही सहन करना पड़ता है अतः उन्हों के अन्दर मुख्य चोर जो हरिदत्त नामका राजपुत्र था उसने मुनियों से पूछा कि इसका कोई ऐसा उपाय है कि हम लोग इस बुरे कृत्य से छुट जावें और पहिले किये हुये पाप से मुक्त हो जावें ? मुनि ने कहा कि भव्य ! इसका सीधा और सरल यही उपाय है कि आप भगवती जैनदीक्षा की शरण लें कि नये कम बन्ध हो जायं
और पूर्व किये कर्मों का नाश हो जाय इत्यादि इनके अलावा कोई दूसरा मार्ग ही नहीं है बस उन चोरों ने मुनियों के पास दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया, अतः उन्हीं ५०० चोरों ने सूर्योदय होते ही मुनियों के चरण कमल में भगवती जैनदीक्षा ग्रहण कर वे अपनी आत्मा के कल्याण में लग गये । अहाहा ! जैन मुनियों की संगत का शुभफल कि अधम्म से अधम्म कार्य करने वाले भी मुनियों की क्षणिक सत्संग से अपना कल्याण कर सकते हैं।
मुनिवरदत्त उन हरिदत्तादि ५०० चोरों को दीक्षा देकर क्रमशः विहार करते हुए गणधर शुभदत्ताचार्य के चरण कमलों में आये और उन नूतन मुनियों को देख गणधरश्री ने वरदत्त एवं नूतन मुनियों की खूब प्रशंसा की। इस प्रकार गणधर भगवान् की समुदाय में ऐसे अनेकानेक रत्न थे जैसे समुद्र में अमूल्य रत्न होते हैं और वे महात्मा स्वकल्याण के साथ पर कल्याण करने में सदैव तत्पर रहते थे। सत्य कहा है कि "सरवर तरुवर सन्त जन, चौथा कहिये मेह । परोपकार के कारणे चारों धारी देह ।" इस प्रकार गणधर शुभदत्ताचार्य चिरकाल तक शासन की सेवा एवं उन्नति कर अन्त में मुनि हरिदत्त को अपना उत्तराधिकारी बना कर आप अनशन एवं समाधिपूर्वक मोक्ष पधार गये ।
भगवान पारस पट्टपर गणधर श्रीशुभदत्त हुए,
जो द्वादशांगी ज्ञान के विस्तार में समर्थ हुए । उनकी विमल वर ज्योति से आलोकमय संसार था,
जैनधर्म के थे सूर्य वे उनके न यश का पार था। विजयी सुभट सम वीर थे उनका चरित्र महानथा,
पा सके नहीं थाह वृहस्पति गंभीर उनका ज्ञान था। इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर गणधर शुभदत्ताचार्य हुए।
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