________________
वि० [सं० पू० ७२० ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर गणधर शुभदत्ताचार्य
आचार्यः शुभदत्त देवगणभृत् पट्टस्य तस्थौ सुधीः । तेजस्वी शतयोधतुल्य विजयी श्रीद्वादशाङ्गी रणे ॥ वीरो जैनमतोन्नतौ स सुकृतिश्च क्रेतु यत्नं महान् । गातुं तस्य गुणान् शुभान् सुरगुरुः शक्तो भवेद्वा न वा ॥
भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर गणधर भगवान् शुभदसाचार्य हुए। आप भगवान पार्श्वनाथ के हस्त दीक्षित गणधरों में मुख्य थे । यद्यपि कल्पसूत्र में भगवान् पार्श्वनाथ के आठ गणधर कहे हैं पर आवश्यकवृत्ति आदि में दस गणधर होना लिखा है, शायद दस गणधरों में से दो गणधर अल्पायु वाले हों और उनका मोक्ष हो जाने से कल्पसूत्रकार ने आठ गणधर ही लिख दिया हो तो उपरोक्त अपेक्षा से उनका लिखना ठीक ही है। प्राचीन समय से एक यह भी कहावत चली आई है कि वर्तमान २४ तीर्थकरों के १४५२ गणधर हुए हैं एवं मंदिरों में १४५२ गणधरों की पादुकाएं स्थापित की हुई दृष्टिगोचर भी होती हैं। जब कि १४५२ की संख्या भगवान् पार्श्वनाथ के १० गणधर माने जा ' तब ही मेल सकती है, इससे भी यही पाया जाता है कि भगवान् पार्श्वनाथ के दश गणधर हुए थे ।
गणधर शुभदत्ताचार्य महान तेजस्वी प्रखर प्रभाविक द्वादशाङ्गी के रचयिता जिन नहीं पर जिन तुल्य सोपयोग सकल चराचर एवं दृश्यादृश्य पदार्थों को हस्तामल की तरह जानने देखने वाले शासन भारवाहक एक धुरंधर आचार्य हुए । धर्म प्रचार करने में तो आप विजयी सुभट की तरह सदैव तत्पर रहते थे । शासन का संचालन करने में तो आप चतुर मुत्सद्दी का काम कर बतलाते थे । आपश्री की नायकत्व में चतुर्विध श्रीसंघ सुख और शांति से आत्मकल्याण सम्पादन किया करते थे । वादियों पर तो पहले से हो आपकी पक्की धाक जमी हुई थी कि आपका नाम सुन कर वे कोसों दूर भागते थे । यज्ञ वादियों के अखाड़े निर्मूल कर दिये थे । हिंसा जैसी राक्षसी निष्ठुर प्रथा निस्तेज बन गई थी । अहिंसा का सर्वत्र प्रचार हो गया था । बहुत से राजा प्रजा जैन धर्म को स्वीकार कर अपने-अपने राज्य में अहिंसा का प्रचार जोर से कर रहे थे । आपके आज्ञावर्ती हजारों साधु साध्वियां भारत के अनेक प्रान्तों में जैन धर्म का प्रचार कर रहे थे अर्थात् आप श्री के शुभ प्रयत्नों से जैन धर्म उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच गया या एवं जैन धर्म एक विश्व का धर्म बन चुका था ।
६
२ ॥
गणधर शुभदत्ताचार्य ने ज्ञान, ध्यान, तप, संयम की आराधना करते हुए घाती कर्मों को जड़मूल से नष्ट कर दिया, जिससे आपको कैवल्यज्ञान, कैवल्य दर्शन प्राप्त हो गया, जिससे श्राप लोकालोक के सर्व भावों को हस्तामल की भांति देखने, जानने लग गये । आपके जीवन के लिये मनुष्य तो क्या पर वृहस्पति जैसे देव भी कहने में असमर्थ हैं । आपने कैवल्यावस्था में भी सर्वत्र बिहार कर संसार का उद्धार किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org