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________________ भगवान् पार्श्वनाथ ] [वि० सं० पू० ८२० से केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया जिससे सकल लोकालोक के चराचर एवं दश्यादृश्य सर्व पदार्थों को हस्तामल की तरह जानने देखने लग गये, उस समय ६४ इन्द्र एवं देवादि भगवान् के केवल कल्याण करने को साधु ये रजत सुवर्ण और मणिरत्न मय तीन गढ़ वाला समवसरण की रचना की जिस पर प्रभू बिराजमान होकर देव, मनुष्य, तिच अपनी-अपनी भाषा में समझ सके ऐसी अमृतमय देशना दी और यह बतलाया कि संसार असार है, कुटुम्ब कारमो स्वार्थी है, यौवन संध्या के रंग के समान है, सम्पत्ति कुंजर का कान समान, शरीर क्षण भंगुर और आयु अस्थिर है यदि आप लोगों को जन्म मरण के दुःखों से छूटना है तो धर्म एवं श्रावक धर्म की आराधना करो इत्यादि वैराग्यमय देशना सुनकर कई लोग तो संसार का त्याग कर दीक्षा ली कइयों ने श्रावक व्रत और कइयों ने समकित धारण की। इस प्रकार भगवान् पार्श्व - | ने ७० वर्ष तक केवलावस्था में विहार कर संसार का उद्धार किया। अनेक महानुभावों ने प्रभु के चरण कमलों में दीक्षा ली जिसमें १६००० महामुनिराज लब्धिसम्पन्न उत्तम ग्रंथों के रचने वाले मुनि तथा ३८००० विदुषी साध्वियां १६४००० उत्कृष्ट व्रतधारी श्रावक ३३९००० श्राविकाएं और असंख्य लोग जैन धर्म को पालन करने वाले हुए थे । नाथ भगवान् पाश्वनाथ जैनधर्म का प्रचार बढ़ाते हुए अपनी १०० वर्ष की पूरी आयु खत्म कर वि० सं० पू० ७२० श्रावण शुक्ला ८ के दिन सम्मेत शिखर पहाड़ पर अनशन पूर्वक नाशवान शरीर का त्याग कर मोक्ष पधार गये । इनके पूर्व भी १९ तीर्थकरों ने इसी स्थान पर मोक्ष प्राप्त किया था। जब भगवान् पार्श्वनाथ का निर्वाण हो गया तो चतुर्विध संघ निरुत्साही बन गया और ६४ इन्द्र तथा असंख्य देव भी निरुत्साही होते हुए भी भगवान् का निर्वाण कल्याण किया और आपके पट्ट पर गणधर शुभदत्त को स्थापित कर उनकी आज्ञा में चतुर्विध श्रीसंघ अपना कल्याण कार्य संपादन करने लगा इति पार्श्व चरित्र ।" कई पाश्चात्य विद्वान् लोग भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते थे। पर अनेक प्रमाण उपलब्ध हुए तब विद्वानों ने यह उद्घोषणा कर दी कि भगवान् पार्श्वनाथ एवं भगवान् महावीर काल्पनिक नहीं पर ऐतिहासिक पुरुष हैं । उन विद्वानों के कतिपय ग्रन्थों के नाम उल्लेख कर दिये जाते हैं : 1 Stevenson (Rev.) Kalpa-Sutra, Int, P. XII 2. Lassen Indian Antiquary II P. 261, 3. Jacobi, Sacred Books of the East, YIP. P. XX1, 4. Belvalkar, The Brahma Sutras P. 106, 5. Charpentier, Cambridge History of India I, P. 153, 6. Guerinot. Bibliographie Jaina Int. P. XI, 7. Frazer, Literary History of India P. 128, 8. Elliet, Hinduism and Budhism I, P. 110, 9. Poussin, The way of Nirvana. P. 67, 10. Dutt, op., cit, P. 11, 11. Colebrooke, op., cit, II P. 317, 12. Thomas (Edward), op., cit, P. 6, 13. Wilson, op., cit, I P. 334, 14. Dasgupta, op., cit, P. 173, 15. Radha Krishna, op, cit, P. 281, 16. Mazumdar, op, cit, P. 281, 17. Stevenson (Rev. ) op., and loc, cit Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelitary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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