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________________ वि० सं० पू० ८२० ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा के हेतु पार्श्वकुवर संसार में रह कर शुभ कमों को भोगने लगा। शास्त्रकारों ने भी कहा है कि सम्यग्दृष्टि के भोग भी कर्म निज्जरा का हेतु होता है । जिस जीव को निकट भविष्य में मोक्ष जाना है वह शुभ हो या अशुभ हो संचित कर्म को अवश्य भोगवना ही पड़ता है। अतः पार्श्वकुवर भी २९ वर्ष तक संसार में रहा । बाद में लौकान्तिक देव ने आकर प्रार्थना की कि हे ! प्रभू ! लोक में अज्ञान रूपी अन्धकार छा गया है, पाखण्ड का जोर बहुत बढ़ गया है आप श्रीजी दीक्षा लेकर संसार का उद्धार करावे इत्यादि । बस ! पार्श्वकुवर ने उसी दिन से वर्षी दान देना प्रारम्भ कर दिया । दिन प्रति १-८००००० सौनइयों का दान दिया करता था । एक वर्ष में ३८८८०००००० सौनइयां दान में दिया, तत्पश्चात् ६४ इन्द्र और असंख्य देव दीक्षा महोत्सव निमित्त आये तथा मनुष्यों में राजा प्रजा ने भी दीक्षा महोत्सव में शामिल होकर खूब जोरदार महोत्सव किया। फिर वि० सं० पूर्व २७९० वर्ष पौष बद ११ के दिन ३०० नरनारी के साथ पार्श्वकुवर ने संसार त्याग कर, दीक्षा धारण कर ली। महापुरुषों का एक यह भी नियम हुआ करता है कि पहले अपनी आत्मा का सर्व विकास कर ले बाद दूसरों को उपदेश देते हैं । अतः भगवान् पार्श्वनाय ने दीक्षा स्वीकार कर घूमते घूमते एक दिन निर्जन जंगल में श्राकर प्रतिज्ञा पूर्वक ध्यान लगा दिया। इधर कमठ तापस का जीव मर कर मेघमाली देव हुआ था उसने उपयोग लगाया कि मेरा वैरी पार्श्व कहां है, मैं जाकर उससे मेरा बदला लू? मेघमाली ने अपने ज्ञान से पार्श्वनाथ को एक जंगल में ध्यान में खड़ा देखा । देव ने अपना बदला लेने का सुअवसर जान कर पार्श्वनाथ के पास आया और वैक्रय लब्धि से पहले तो जोरों से वायु चलाई, जिससे जंगल के झाड़ तुट तुट कर गिर गये । पर पार्श्व प्रभू थोड़े भी चलायमान नहीं हुए, बाद में धूल की वृष्टि की जिससे प्रभू का शरीर धूल में दब गया । केवल नाक और श्वास ही बची । तदन्तर मसलाधार पानी बरसाया प्रभू की नासिका तक पानी पहुँच गया, पर प्रभू तो अचल मेरु थे, वे धैर्य में अडिग रहे । इस हालत में धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ तो उसने ज्ञान लगा कर देखा तो भगवान् पार्श्वनाथ पर घोर संकट गुजर रहा है अतः धरणेन्द्र और पद्भावती शीघ्र ही प्रभू के पास आए । पद्मावती ने प्रभू को सिर पर ले लिया और धरणेन्द्र ने सहस्रफण बना कर प्रभू पर छत्र कर दिया। बाद में धरणेन्द्र ने ज्ञान लगा कर देखा तो यह नीच कर्म मेघमाली कमठासुर का ज्ञात हुआ शीघ्र ही दुष्ट देव को बुला कर इन्द्र ने खूब फटकारा इस हालत में मेघमाली ने घबराकर, प्रभ के चरणों में सिर झुका कर अपने अपराध की माफी मांगी और अपराध की क्षमा चाहता हुआ अपर्ने स्थान को चला गया । धरणेन्द्र व पद्मावती ने प्रभू की भक्ति नाटक वगैरह करके वह भी स्वस्थान गये । प्रभ की प्रभुता ऐसी थी कि कष्ट देने वाले मेघमाली पर द्वष नहीं धरणेन्द्र-पद्मावती भक्ति नाटक कर पर राग नहीं हा भी है किः "कमठे धरणेन्द्र च स्वोचितं कर्म कुर्वति, प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः।" भगवान पार्श्वनाथ दीक्षा के दिन से लगा कर ८२ दिन तक देव मनुष्य तिर्यंच के अनुकूल प्रतिकूल जितने उपसर्ग परिसह हुए उन सब को समभाव से सहन किये और पूर्व संचित घाती कर्म । उनको निर्जरा कर डाली । जब ८३ वां दिन वर्त रहा था तब शुक्ल ध्यान की उच्चश्रेणी और शुभ अध्वशार Jain Educan International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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