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भगवान पार्श्वनाथ ]
[वि० सं० पू० ८२०
महोत्सव किया, जिनमंदिरों में सौ हजार और लक्ष द्रव्य वाली पूजा कराई। तीसरे दिन लोकाचार के अनुसार कुवर को सूर्य चन्द्र के दर्शन कराए, छट्टो दिन रात्रि जागरण, एकादशवें दिन असूची कर्म दूर करके बाहरवें दिन देशोटन अर्थात् ज्ञाति भोज बनवा कर सज्जन संबंधी को भोजन करवा कर पंडितों की सम्मति से नवजात कुंवर का नाम पार्श्वकुंवर रखा । आनंद मंगल के साथ द्वितीया के चन्द्र तथा चम्पकलता की तरह पार्श्वकुं वर वृद्धि पा रहा और माता के मनोरथ को पूरा कर रहा था। बाल क्रीड़ा भी आपकी अलौकिक थी, जब आपकी वय विद्याग्रहण के योग्य हुई तो माता-पिता बड़े ही समारोहमहोत्सव के साथ पार्श्वकुवर को पाठशाला में ले गये । पर बिचारे अध्यापक के पास इतना ज्ञान ही कहां था जो वह पार्श्वकुवर को पढ़ाता । उसने पार्श्वकुवर से कई प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया। कारण जब पार्श्व माता के गर्भ में आया था उस समय मति श्रुति और अवधि ज्ञान अर्थात् तीन ज्ञान साथ में लेकर आए थे जिससे भूत भविष्य एवं वर्तमान की रहस्य छानी बातें भी जान सकें ।
एक समय का जिक्र है कि बनारसी नगरी के बाहर एक कमठ नाम का तापस आया था और वह लकड़ जलाकर पांचाग्नि तापता हुआ तपस्या कर रहा था, जिस की महिमा नगरी में सर्वत्र फ़ैल गई थी तथा नागरिक लोग पूजापा का सामान लेकर तापस की वन्दन पूजन करने को जा रहे थे जिसको देख कर माता वामादेवी की इच्छा भी तापस के दर्शनार्थ जाने की हुई, साथ में अपने प्यारे पुत्र पार्श्व को भी कहा क्या पार्श्व तू भी मेरे साथ चलेगा ? माता का मन रखने के लिए पार्श्वकुवर भी हस्ती पर सवार हो माता के साथ तापस के पास आए। पर, वहां पाश्र्व कुवर क्या देखता है कि एक जलते हुए बड़े लकड़ के अंदर एक सर्प भी जल रहा था । करुणासागर पाश्व कुंवर को सर्प की अनुकम्पा आई और तापस को कहने लगा कि हे महानुभाव ! आप ऐसा अज्ञान कष्ट क्यों करते हो कि जिसके अंदर पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है ? इस पर तापस क्रोधित होकर बोला- हे राजकुवार ! आप केवल गज अश्व ही खेलना जानते हैं योग एवं तर में आप क्या जानते हैं, व्यर्थ तपसी की छेड़छाड़ करना अच्छा नहीं है । बतलाइये आपने हमारे उत्कृष्ट तप में कौन-सी हिंसा देखी है ? यदि आप सत्य वक्ता हैं तो इस जन-समूह के सामने बतलावें कि हमारे तप में कौन-सी हिंसा है ? इस पर पार्श्वकुवर ने अपने अनुचरोंको हुक्म दिया कि यह बड़ा लकड़ जल रहा है इनको फाड़ तोड़ कर टुकड़े कर डालो ? बस! फिर तो क्या देर थी, अनुचरों ने उस लकड़ को चीर कर दो टुकड़े कर दिये कि अन्दर से तड़फड़ाट करता हुआ व्याकुल हुआ दीर्घकायवाला सर्प जलता हुआ निकला जिसको देख कर सब के दिलों में करुणा के भाव पैदा हुए । अतः तापस की निंदा और पार्श्वकुंवर की प्रशंसा होने लगी जिससे तापस लज्जित होकर मुंह नीचा कर विचार करने लगा कि इतने जन समुदाय में पार्श्वकुवर ने मेरा अपमान किया है, तो मेरी तपस्या का फल हो तो भविष्य में मैं पार्श्वकुंवर को दुःख दे कर अपना बदला लेने वाला होऊं, ऐसा निधान कर लिया। इधर जलता हुआ सर्प मरने की तयारी में था, पार्श्वकुंवर ने उसको अ. सि. आ. उ. सा. मंत्र सुनाया जिससे सर्प के श्रध्वसाय शुभ हुआ वह मर कर धरणेन्द्र नागकुमार जाति का इन्द्र हुआ । तापस भी समयान्तर में मर कर मेघमाल जाति का कमठ देव हुआ ।
पार्श्वकुवर जब यौवन वय को प्राप्त हुआ तो अश्वसेन ने कुस्थलनगर के राजा प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती के साथ बड़े ही समारोह के साथ पार्श्वकुवर का विवाह कर दिया । इच्छा के न होते हुए भी
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