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________________ वि० सं० पू० ८२० ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास का केन्द्र थी, जिस समय का इतिहास हम लिख रहे हैं उस समय बनारसी नगरी में महान् प्रतापी अश्वसेन नाम का राजा राज कर रहा था, उसने जनोपयोगी कार्य एवं भुजबल से अपनी कीर्ति एवं राज्यसीमा खूब दूर-दूर तक फैला दी थी। राजा अश्वसेन के गृहदेवी एवं महिलाओं के सकल गुण विभूषित वामादेवी नाम की पटराणी थी, महाराणो वामादेवी एक समय अपनी सुख शय्या में अर्ध निद्रावस्था में सो रही थी । मध्यरात्रि में महाराणीजी ने गज, वृषभादि चौदह महास्वप्न देखे, बाद तत्क्षण सावधान हो एवं स्वप्नों की स्मृति कर अपने पतिदेव के पास आई और देखे हुए स्वप्न का हाल राजा को सुनाया । राजा स्वप्नों का हाल सुन कर बहुत हर्षित हुआ, और मधुर बचनों द्वारा महाराणी से कहने लगा कि आप बड़े ही भाग्यशाली हैं और आपने उत्तम स्वप्न देखे हैं इसके प्रभाव से आपकी कुक्षि से उत्तम पुत्र-रत्न जन्म लेगा इत्यादि । गनीजी ने राजा के शब्द सुन कर बहुत हर्ष मनाया और शेष रात्रि अपनी शय्या में देवगुरु की भक्ति में व्यतीत की । सूर्योदय होते ही गजा गजसभा में श्राकर अपने अनुचरों द्वारा स्वप्न-शास्त्र के जानकार पण्डितों को बुलाए उनका सत्कार कर, राणीजी ने जो स्वप्न देखे थे, जिनका फल पूछा । पण्डितों ने अपने शास्त्रों के आधार पर खूब जांच पड़ताल करके कहा हे राजन् ! महाराणीजी ने बहुत उत्तम स्वप्न देखे हैं, जिससे आपके कुल में केतु समान महा भाग्यशाली पुत्र जन्म लेगा और बड़ा होने पर वह राजाओं का राजा होगा। यदि त्यागवृत्ति धारण करेगा तो संसार का उद्धार करने वाले तीर्थकर होगा। राजा ने पण्डितों को पुष्कल द्रव्य दिया, बाद महाराणीजी के पास जाकर सब हाल कहा जिसको सुनकर महाराणी के हर्ष का पार नहीं रहा। ___महाराणीजी गर्भ का सुखपूर्वक पालन पोषण कर रही थी और जो-जो दोहजा-मनोरथ उत्पन्न होते वे सब राजाजी अच्छी तरह से पूर्ण करते थे और शांति से समय जा रहा था। विक्रम संवत् पूर्व ८२० वर्ष पौष बद १० की रात्रि में माता वामादेवी ने पुत्र को जन्म दिया । उस समय का वायुमंडल स्वभाव से ही स्वच्छ, रम्य और सुगन्धमय बन गया था । दशों दिशा अचेतन होने पर भी फल फूलित हो गई थी। सब प्रह स्वभाव से ही उच्चस्थान पर आ गये । भगवान् के जन्म से दूसरे तो क्या पर नरक जैसे दुःखी जीवों को भी कुछ समय के लिये शांति मिली । भगवान् के जन्म के प्रभाव से छप्पन दिक्कुमारी देवियों के आसन कम्पने लगे, उन्होंने ज्ञान बल से जाना की भारत में तीर्थंकर भगवान् का जन्म हुआ है । अतः हमारा पुराना आचार है कि हम बहां जाकर सूतकी कार्य करें। अतः अपने-अपने स्थान से चल कर छप्पन दिक्कुमारिए माता के पास आई । माता और पुत्र को नमस्कार कर अपने अपने करने योग्य सब कार्य किये। जब देवियां अपना कार्य कर चली गई तब शकेन्द्र का आसन कम्पा और उन्होंने भी अपने ज्ञान बल से भगवान का जन्म हुआ जानकर माता के पास आये और पांच रूप बना कर तथा एक प्रतिबिंब बना कर माता के पास रखा और भगवान् को सुमेरु पर ले गये वहां ६४ इन्द्र और असंख्य देव देवियों ने शामिल होकर बड़े ही समारोह से प्रभु का स्नात्र महोत्सव किया। बाद प्रभु की पूजा कर माता के पास रख दिये और प्रतिबिंब वापस लेकर देव, इन्द्र सब नंदीश्वर द्वीप जाकर वहां के ५२ चैत्यों में अष्टाह्निका महोत्सव कर अपने-अपने स्थान चले गये इति देवकृत महोत्सव । यह सब कार्य रात्रि के समय में ही हुए। सूर्योदय होते ही राजा अश्वसेन स्नान मंजन कर राजसभा में आया और पुत्र-जन्म का खूब ठाटबाट Jain Educati International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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